CBSE Class 10 Hindi A Unseen Passages अपठित गद्यांश
अपठित बोध
अपठित बोध ‘अपठित’ शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘unseen’ का समानार्थी है। इस शब्द की रचना ‘पाठ’ मूल शब्द में ‘अ’ उपसर्ग और ‘इत’ प्रत्यय जोड़कर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-‘बिना पढ़ा हुआ।’ अर्थात गद्य या काव्य का ऐसा अंश जिसे पहले न पढ़ा गया हो। परीक्षा में अपठित गद्यांश और काव्यांश पर आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं। इस तरह के प्रश्नों को पूछने का उद्देश्य छात्रों की समझ अभिव्यक्ति कौशल और भाषिक योग्यता का परख करना होता है।
अपठित गद्यांश
अपठित गद्यांश अपठित गद्यांश प्रश्नपत्र का वह अंश होता है जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से नहीं पूछा जाता है। यह अंश साहित्यिक पुस्तकों पत्र-पत्रिकाओं या समाचार-पत्रों से लिया जाता है। ऐसा गद्यांश भले ही निर्धारित पुस्तकों से हटकर लिया जाता है परंतु, उसका स्तर, विषय वस्तु और भाषा-शैली पाठ्यपुस्तकों जैसी ही होती है।
प्रायः छात्रों को अपठित अंश कठिन लगता है और वे प्रश्नों का सही उत्तर नहीं दे पाते हैं। इसका कारण अभ्यास की कमी है। अपठित गद्यांश को बार-बार हल करने से –
- भाषा-ज्ञान बढ़ता है।
- नए-नए शब्दों, मुहावरों तथा वाक्य रचना का ज्ञान होता है।
- शब्द-भंडार में वृद्धि होती है, इससे भाषिक योग्यता बढ़ती है।
- प्रसंगानुसार शब्दों के अनेक अर्थ तथा अलग-अलग प्रयोग से परिचित होते हैं।
- गद्यांश के मूलभाव को समझकर अपने शब्दों में व्यक्त करने की दक्षता बढ़ती है। इससे हमारे अभिव्यक्ति कौशल में वृद्धि होती है।
- भाषिक योग्यता में वृद्धि होती है।
अपठित गद्यांश के प्रश्नों को कैसे हल करें –
अपठित गद्यांश के प्रश्नों को कैसे हल करेंअपठित गद्यांश पर आधारित प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए
- गद्यांश को एक बार सरसरी दृष्टि से पढ़ लेना चाहिए।
- पहली बार में समझ में न आए अंशों, शब्दों, वाक्यों को गहनतापूर्वक पढ़ना चाहिए।
- गद्यांश का मूलभाव अवश्य समझना चाहिए।
- यदि कुछ शब्दों के अर्थ अब भी समझ में नहीं आते हों तो उनका अर्थ गद्यांश के प्रसंग में जानने का प्रयास करना चाहिए।
- अनुमानित अर्थ को गद्यांश के अर्थ से मिलाने का प्रयास करना चाहिए।
- गद्यांश में आए व्याकरण की दृष्टि से कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दों को रेखांकित कर लेना चाहिए। अब प्रश्नों को पढ़कर संभावित उत्तर गद्यांश में
- खोजने का प्रयास करना चाहिए।
- शीर्षक समूचे गद्यांश का प्रतिनिधित्व करता हुआ कम से कम एवं सटीक शब्दों में होना चाहिए।
- प्रतीकात्मक शब्दों एवं रेखांकित अंशों की व्याख्या करते समय विशेष ध्यान देना चाहिए।
- मूल भाव या संदेश संबंधी प्रश्नों का जवाब पूरे गद्यांश पर आधारित होना चाहिए।
- प्रश्नों का उत्तर देते समय यथासंभव अपनी भाषा का ध्यान रखना चाहिए।
- उत्तर की भाषा सरल, सुबोध और प्रवाहमयी होनी चाहिए।
- प्रश्नों का जवाब गद्यांश पर ही आधारित होना चाहिए, आपके अपने विचार या राय से नहीं।
- अति लघूत्तरात्मक तथा लघूत्तरात्मक प्रश्नों के उत्तरों की शब्द सीमा अलग-अलग होती है, इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।
- प्रश्नों का जवाब सटीक शब्दों में देना चाहिए, घुमा-फिराकर जवाब देने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
1. आकाश गंगा को यह नाम क्यों मिला?
उत्तर:
आकाश में पृथ्वी से देखने पर आकाशगंगा नदी की धारा की भाँति दिखाई देती है, इसलिए इसका नाम आकाशगंगा पड़ा।
2. पृथ्वी से कितनी आकाशगंगा दिखाई देती है ? उनके नाम क्या हैं ?
उत्तर:
पृथ्वी से केवल एक आकाशगंगा दिखाई देती है। इसका नाम ‘स्पाइरल गैलेक्सी’ है।
3. आकाशगंगा में कितने तारे हैं ? उनमें सूर्य की स्थिति क्या है?
उत्तर:
आकाशगंगा में लगभग बीस अरब तारे हैं, जिनमें अनेक सूर्य से भी बड़े हैं। सूर्य इसी आकाशगंगा का एक सदस्य है जो इसके केंद्र से दूर इसकी एक भुजा पर स्थित है।
4. आकाशगंगा में उभार और मछली की भाँति भुजाएँ निकलती क्यों दिखाई पड़ती हैं ?
उत्तर:
आकाशगंगा के केंद्र में तारों का जमावड़ा है। यही जमावड़ा उभार की तरह दिखाई देता है। आकाशमंडल में अन्य तारे धूल और गैस के बादलों में समाए हुए हैं। इनकी स्थिति देखने में मछली की भुजाओं की भाँति निकलती-सी प्रतीत होती हैं।
5. प्रकाश वर्ष क्या है? गद्यांश में इसका उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर:
प्रकाशवर्ष लंबी दूरी मापने की इकाई है। एक प्रकाशवर्ष प्रकाश द्वारा एक वर्ष में तय की गई दूरी होती है। गद्यांश में इसका उल्लेख आकाशगंगा की विशालता बताने के लिए किया गया है, जिसकी लंबाई एक लाख प्रकाश वर्ष है।
उदाहरण (उत्तर सहित)
कुछ अपठित गद्यांशों के उदाहरण दिए जा रहे हैं। छात्र इनका अभ्यास करें।
निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए –
1. भारत में हरित क्रांति का मुख्य उद्देश्य देश को खाद्यान्न मामले में आत्मनिर्भर बनाना था, लेकिन इस बात की आशंका किसी को नहीं थी कि रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल न सिर्फ खेतों में, बल्कि खेतों से बाहर मंडियों तक में होने लगेगा। विशेषज्ञों के मुताबिक रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग खाद्यान्न की गुणवत्ता के लिए सही नहीं है, लेकिन जिस रफ़्तार से देश की आबादी बढ़ रही है, उसके मद्देनज़र फ़सलों की अधिक पैदावार ज़रूरी थी। समस्या सिर्फ रासायनिक खादों के प्रयोग की ही नहीं है। देश के ज़्यादातर किसान परंपरागत कृषि से दूर होते जा रहे हैं।
दो दशक पहले तक हर किसान के यहाँ गाय, बैल और भैंस खूटों से बँधे मिलते थे। अब इन मवेशियों की जगह ट्रैक्टर-ट्राली ने ले ली है। परिणामस्वरूप गोबर और घूरे की राख से बनी कंपोस्ट खाद खेतों में गिरनी बंद हो गई। पहले चैत-बैसाख में गेहूँ की फ़सल कटने के बाद किसान अपने खेतों में गोबर, राख और पत्तों से बनी जैविक खाद डालते थे। इससे न सिर्फ खेतों की उर्वरा-शक्ति बरकरार रहती थी, बल्कि इससे किसानों को आर्थिक लाभ के अलावा बेहतर गुणवत्ता वाली फसल मिलती थी। (Delhi 2015)
1. हमारे देश में हरित क्रांति का उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
हमारे देश में हरित क्रांति का मुख्य उद्देश्य था – देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाना।
2. खाद्यान्नों की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए किनका प्रयोग सही नहीं था?
उत्तर:
खाद्यान्नों की गुणवत्ता बनाए रखने हेतु रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग आवश्यक नहीं था।
3. विशेषज्ञ हरित क्रांति की सफलता के लिए क्या आवश्यक मानने लगे और क्यों?
उत्तर:
विशेषज्ञ हरित क्रांति की सफलता हेतु रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग आवश्यक मानते थे क्योंकि देश की आबादी
बहुत तेजी से बढ़ रही थी। इसका पेट भरने के लिए फ़सल के भरपूर उत्पादन की आवश्यकता थी।
4. हरित क्रांति ने किसानों को परंपरागत कृषि से किस तरह दूर कर दिया?
उत्तर:
हरित क्रांति के कारण किसान खेती के पुराने तरीके से दूर होते गए। वे खेती में हल-बैलों की जगह ट्रैक्टर की मदद से कृषि कार्य करने लगे। इससे बैल एवं अन्य जानवर अनुपयोगी होते गए।
5. हरित क्रांति का मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर क्या असर हुआ? इसे समाप्त करने के लिए क्या-क्या उपाय करना चाहिए?
उत्तर:
हरित क्रांति की सफलता के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से ज़मीन प्रदूषित होती गई, जिससे वह अपनी उपजाऊ क्षमता खो बैठी। इसे समाप्त करने के लिए खेतों में घूरे की राख और कंपोस्ट की खाद के अलावा जैविक खाद का प्रयोग भी करना चाहिए।
2. ताजमहल, महात्मा गांधी और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र-इन तीन बातों से दुनिया में हमारे देश की ऊँची पहचान है। ताजमहल भारत की अंतरात्मा की, उसकी बहुलता की एक धवल धरोहर है। यह सांकेतिक ताज आज खतरे में है। उसको बचाए रखना बहुत ज़रूरी है।
मजहबी दर्द को गांधी दूर करता गया। दुनिया जानती है, गांधीवादी नहीं जानते हैं। गांधीवादी उस गांधी को चाहते हैं जो कि सुविधाजनक है। राजनीतिज्ञ उस गांधी को चाहते हैं जो कि और भी अधिक सुविधाजनक है। आज इस असुविधाजनक गांधी का पुनः आविष्कार करना चाहिए, जो कि कड़वे सच बताए, खुद को भी औरों को भी।
अंत में तीसरी बात लोकतंत्र की। हमारी जो पीड़ा है, वह शोषण से पैदा हुई है, लेकिन आज विडंबना यह है कि उस शोषण से उत्पन्न पीड़ा का भी शोषण हो रहा है। यह है हमारा ज़माना, लेकिन अगर हम अपने पर विश्वास रखें और अपने पर स्वराज लाएँ तो हमारा ज़माना बदलेगा। खुद पर स्वराज तो हम अपने अनेक प्रयोगों से पा भी सकते हैं, लेकिन उसके लिए अपनी भूलें स्वीकार करना, खुद को सुधारना बहुत आवश्यक होगा (Delhi 2015)
1. संसार में भारत की प्रसिद्धि का कारण क्या है?
उत्तर:
संसार में भारत की प्रसिद्धि के तीन कारण हैं-ताजमहल, महात्मा गांधी और लोकतांत्रिक प्रणाली।
2. गांधीवादी आज किस तरह के गांधी को चाहते हैं ?
गांधीवादी आज उस गांधी को चाहते हैं जो सुविधाजनक है।
3. हमारे देश के लिए ताजमहल का क्या महत्त्व है? आज इसे किस स्थिति से गुजरना पड़ रहा है?
उत्तर:
हमारे देश के लिए ताजमहल का विशेष महत्त्व है। यह हमारे देश की अंतरात्मा की उसकी बहुलता की धरोहर है। आज
प्रदूषण के कारण यह खतरे की स्थिति से गुजर रहा है। इसकी रक्षा करना आवश्यक हो गया है।
4. राजनीतिज्ञ किस गांधी की आकांक्षा रखते हैं ? वास्तव में आज कैसे गांधी की ज़रूरत है?
उत्तर:
राजनीतिज्ञ उस गांधी की आकांक्षा रखते हैं जो और भी सुविधाजनक हो। वास्तव में आज ऐसे गांधी की आवश्यकता है जो खुद को भी कड़वा सच बताए और दूसरों को भी बताए।
5. ज़माना बदलने के लिए क्या आवश्यक है ? इसके लिए हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर:
ज़माना बदलने के लिए हमें स्वयं पर स्वराज लाना होगा। इसे पाने के लिए हमें अपने पर अनेक प्रयोग करने होंगे, अपनी भूलें स्वीकारनी होंगी तथा खुद को सुधारना होगा।
3. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययनों और संयुक्त राष्ट्र की मानव-विकास रिपोर्टों ने भारत के बच्चों में कुपोषण की व्यापकता के साथ-साथ बाल मृत्यु-दर और मातृ मृत्यु दर का ग्राफ़ काफ़ी ऊँचा रहने के तथ्य भी बार-बार जाहिर किए हैं। यूनिसेफ़ की रिपोर्ट बताती है कि लड़कियों की दशा और भी खराब है।
पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के बाद, बालिग होने से पहले लड़कियों को ब्याह देने के मामले दक्षिण एशिया में सबसे ज़्यादा भारत में होते हैं। मातृ-मृत्यु दर और शिशु मृत्यु-दर का एक प्रमुख कारण यह भी है। यह रिपोर्ट ऐसे समय जारी हुई है जब बच्चों के अधिकारों से संबंधित वैश्विक घोषणा-पत्र के पच्चीस साल पूरे हो रहे हैं। इस घोषणा-पत्र पर भारत और दक्षिण एशिया के अन्य देशों ने भी हस्ताक्षर किए थे। इसका यह असर ज़रूर हुआ कि बच्चों की सेहत, शिक्षा, सुरक्षा से संबंधित नए कानून बने, मंत्रालय या विभाग गठित हुए, संस्थाएँ और आयोग बने।
घोषणा-पत्र से पहले की तुलना में कुछ सुधार भी दर्ज हआ है। पर इसके बावजूद बहुत सारी बातें विचलित करने वाली हैं। मसलन, देश में हर साल लाखों बच्चे गुम हो जाते हैं। लाखों बच्चे अब भी स्कूलों से बाहर हैं। श्रम-शोषण के लिए विवश बच्चों की तादाद इससे भी अधिक है वे स्कूल में पिटाई और घरेलू हिंसा के शिकार होते रहते हैं।
परिवार के स्तर पर देखें तो संतान का मोह काफ़ी प्रबल दिखाई देगा, मगर दूसरी ओर बच्चों के प्रति सामाजिक संवेदनशीलता बहुत क्षीण है। कमज़ोर तबकों के बच्चों के प्रति तो बाकी समाज का रवैया अमूमन असहिष्णुता का ही रहता है। क्या ये स्वस्थ समाज के लक्षण हैं? (All India 2015)
1. यूनिसेफ की रिपोर्ट में किस बात पर चिंता व्यक्त की गई है ?
उत्तर:
यूनिसेफ की रिपोर्ट में नवजात बच्चों और माताओं की ऊँची मृत्युदर पर चिंता व्यक्त की गई है।
2. घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने का उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने का उद्देश्य था बच्चों एवं माताओं की मृत्युदर में कमी लाकर उनकी दशा सुधारने का प्रयास करना।
3. भारत-पाकिस्तान किस समस्या से जूझ रहे हैं? इसका मुख्य कारण क्या है?
उत्तर:
भारत और पाकिस्तान दोनों ही नवजात बच्चों एवं माताओं की ऊची मृत्युदर की समस्या से जूझ रहे हैं। इसका मुख्य कारण वयस्क होने से पहले ही लड़कियों का विवाह कर देना है। इस अवस्था में लड़कियाँ गर्भधारण के योग्य नहीं होती हैं।
4. बच्चों के अधिकारों से संबंधित घोषणापत्र जारी होने के बाद क्या सुधार हुआ और ऐसी कौन-सी बातें हैं जो हमें दुखी करती हैं?
उत्तर:
बच्चों के अधिकारों से संबंधित घोषणापत्र जारी होने के बाद बच्चों की सेहत, शिक्षा सुरक्षा आदि से जुड़े कानून बने पर प्रतिवर्ष लाखों बच्चों का गुम होना, लाखों बच्चों का स्कूल न जाना, बाल श्रमिक बनने को विवश होना तथा पिटाई एवं हिंसा का शिकार होना आदि हमें दुखी करती है।
5. क्या ये स्वस्थ समाज के लक्षण हैं ? ऐसा किस स्थिति को देखकर कहा गया है और क्यों?
उत्तर:
गरीब वर्ग के बच्चों के प्रति समाज का रवैया अच्छा न होना, उनके प्रति असहिष्णुता की भावना रखना आदि स्थिति को देखकर ऐसा कहा गया है क्योंकि एक ओर परिवार में संतान के प्रति काफ़ी मोह दिखाई देता है तो सामाजिक स्तर पर लोग संवेदनहीन
बन गए हैं।
4. चंपारण सत्याग्रह के बीच जो लोग गांधी जी के संपर्क में आए वे आगे चलकर देश के निर्माताओं में गिने गए। चंपारण में गांधी जी न सिर्फ सत्य और अहिंसा का सार्वजनिक हितों में प्रयोग कर रहे थे बल्कि हलुवा बनाने से लेकर सिल पर मसाला पीसने और चक्की चलाकर गेहूँ का आटा बनाने की कला भी उन बड़े वकीलों को सिखा रहे थे, जिन्हें गरीबों की अगुवाई की जिम्मेदारी सौंपी जानी थी। अपने इन आध्यात्मिक प्रयोगों के माध्यम से वे देश की गरीब जनता की सेवा करने और उनकी तकदीर बदलने के साथ देश को आजाद कराने के लिए समर्पित व्यक्तियों की एक ऐसी जमात तैयार करना चाह रहे थे जो सत्याग्रह की भट्ठी में उसी तरह तपकर निखरे, जिस तरह भट्ठी में सोना तपकर निखरता और कीमती बनता है।
गांधी जी की मान्यता थी कि एक प्रतिष्ठित वकील और हज़ामत बनाने वाले हज़्ज़ाम में पेशे के लिहाज़ से कोई फ़र्क नहीं, दोनों की हैसियत एक ही हैं। उन्होंने पसीने की कमाई को सबसे अच्छी कमाई माना और शारीरिक श्रम को अहमियत देते हुए उसे उचित प्रतिष्ठा व सम्मान दिया था। कोई काम बड़ा नहीं, कोई काम छोटा नहीं, इस मान्यता को उन्होंने प्राथमिकता दी ताकि साधन शुद्धता की बुनियाद पर एक ठीक समाज खड़ा हो सके। आज़ाद हिंदुस्तान आत्मनिर्भर, स्वावलंबी और आत्म-सम्मानित देश के रूप में विश्व-बिरादरी के बीच अपनी एक खास पहचान बनाए और फिर उसे बरकरार भी रखे। (All India 2015)
1. किसी काम या पेशे के बारे में गांधी जी की मान्यता क्या थी?
उत्तर:
किसी काम या पेशे के बारे में गांधी जी की मान्यता यह थी कि एक प्रसिद्ध वकील और हज्जाम के पेशे में कोई अंतर नहीं है।
2. गांधी जी सबसे अच्छी कमाई किसे मानते थे?
उत्तर:
गांधी जी पसीने की कमाई को सबसे अच्छी कमाई मानते थे।
3. चंपारण सत्याग्रह के दौरान गांधी जी आध्यात्मिक प्रयोग क्यों कर रहे थे?
उत्तर:
चंपारण सत्याग्रह के दौरान गांधी जी आध्यात्मिक प्रयोग इसलिए कर रहे थे ताकि देश की गरीब जनता की सेवा करने तथा देश को आजाद कराने के लिए ऐसे लोगों की फ़ौज तैयार की जा सके जो उद्देश्य के प्रति समर्पित रहें।
4. गांधी जी लोगों को शारीरिक श्रम का महत्त्व किस तरह समझा रहे थे?
उत्तर:
गांधी जी लोगों को शारीरिक श्रम समझाने के लिए उच्चशिक्षित लोगों को हलुवा बनाने और सिल पर मसाला पीसने जैसे काम सिखा रहे थे ताकि लोग शारीरिक श्रम में रुचि लें।
5. शारीरिक श्रम को महत्त्व देने और हर काम को समान समझने के पीछे गांधी जी की दूरदर्शिता क्या थी?
उत्तर:
शारीरिक श्रम को महत्त्व देने और हर काम को समान समझने के पीछे गांधी जी की दूरदर्शिता यह थी कि इससे एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सके जिससे देश हमारा आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनकर दुनिया में एक अलग पहचान बनाए। ।
5. आज की नारी संचार प्रौद्योगिकी, सेना, वायुसेना, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, विज्ञान वगैरह के क्षेत्र में न जाने किन-किन भूमिकाओं में कामयाबी के शिखर छू रही है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, जहाँ आज की महिलाओं ने अपनी छाप न छोड़ी हो। कह सकते हैं कि आधी नहीं, पूरी दुनिया उनकी है। सारा आकाश हमारा है। पर क्या सही मायनों में इस आज़ादी की आँच हमारे सुदूर गाँवों, कस्बों या दूरदराज के छोटे-छोटे कस्बों में भी उतनी ही धमक से पहुँच पा रही है? क्या एक आज़ाद, स्वायत्त मनुष्य की तरह अपना फैसला खुद लेकर मज़बूती से आगे बढ़ने की हिम्मत है उसमें?
बेशक समाज बदल रहा है मगर यथार्थ की परतें कितनी बहुआयामी और जटिल हैं जिन्हें भेदकर अंदरूनी सच्चाई तक पहुँच पाना आसान नहीं। आज के इस रंगीन समय में नई बढ़ती चुनौतियों से टकराती स्त्री की क्रांतिकारी आवाजें हम सबको सुनाई दे रही हैं, मगर यही कमाऊ स्त्री जब समान अधिकार और परिवार में लोकतंत्र की अनिवार्यता पर बहस करती या सही मायनों में लोकतंत्र लाना चाहती है तो वहाँ इसकी राह में तमाम धर्म, भारतीय संस्कृति, समर्पण, सहनशीलता, नैतिकता जैसे सामंती मूल्यों की पगबाधाएँ खड़ी की जाती हैं। नारी की सच्ची स्वाधीनता का अहसास तभी हो पाएगा जब वह आज़ाद मनुष्य की तरह भीतरी आज़ादी को महसूस करने की स्थितियों में होगी। (Foreign 2015)
1. नारी की वास्तविक आज़ादी कब होगी?
उत्तर:
नारी की वास्तविक आज़ादी तब होगी जब वह आज़ाद मनुष्य की तरह मन से आज़ादी महसूस कर सकेगी।
2. कामयाबी, नैतिकता शब्दों से प्रत्यय अलग करके मूलशब्द भी लिखिए।
उत्तर:
3. कैसे कहा जा सकता है कि आधी दुनिया नहीं बल्कि पूरी दुनिया महिलाओं की है?
उत्तर:
वर्तमान समय में नारी प्रौदयोगिकी, सेना, वायुसेना, विज्ञान आदि क्षेत्र में तरह-तरह के रूपों में सफलता के झंडे गाड़ रही है। उसने हर क्षेत्र में अपनी पहचान छोड़ी है। इस तरह कहा जा सकता है कि आधी दुनिया नहीं, बल्कि पूरी दुनिया महिलाओं की हैं।
4. दूरदराज़ के क्षेत्रों में लेखक को महिलाओं की आज़ादी पर संदेह क्यों लगता है ?
उत्तर:
दूरदराज के क्षेत्रों एवं ग्रामीण अंचलों में महिलाओं की आज़ादी के बारे में लेखक को इसलिए संदेह लगता है क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में महिलाएँ स्वतंत्र मनुष्य की भाँति अपना फैसला स्वयं लेकर मज़बूती से आगे बढ़ने का साहस नहीं कर पा रही हैं।
5. नारी जब परिवार में लोकतंत्र लाना चाहती है तो वह कमज़ोर क्यों पड़ जाती है?
उत्तर:
नारी जब परिवार में लोकतंत्र लाना चाहती है तो इसलिए कमज़ोर पड़ जाती है क्योंकि तब इसकी राह में धर्म, भारतीय संस्कृति, समर्पण, सहनशीलता, नैतिकता की बात सामने आ जाती है और परिवार की स्थिरता के लिए उसे समर्पण भाव अपनाना पड़ता हैं।
6. अकाल के बीच भी अच्छे काम और अच्छे विचार का एक सुंदर छोटा सा उदाहरण राजस्थान के अलवर क्षेत्र का है जहाँ तरुण भारत संघ पिछले बीस बरस से काम कर रहा है। वहाँ पहले अच्छा विचार आया तालाबों का, हर नदी, नाले को छोटे-छोटे बाँधों से बाँधने का। इस तरह वहाँ आसपास के कुछ और जिलों के कोई 600 गाँवों ने बरसों तक वर्षा की एकएक बूंद को सहेज लेने का काम चुपचाप किया। इन तालाबों, बाँधों ने वहाँ सूखी पड़ी पाँच नदियों को ‘सदानीरा’ का नाम वापस दिलाया।
अच्छे विचारों से अच्छा काम हुआ और फिर आई चुनौती भरे अकाल की पहली सूचना। नदियों में, तालाबों में, कुओं में वहाँ तब भी पानी लबालब भरा था। फिर भी इस क्षेत्र के लोगों ने, किसानों ने आज से सात-आठ माह पहले यह निर्णय किया कि पानी कम गिरा है इसलिए ऐसी फ़सलें नहीं बोनी चाहिए जिनकी प्यास ज़्यादा होती है। तो कम पानी लेने वाली फ़सलें लगाई गईं। इसमें उन्हें कुछ आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा पर आज यह क्षेत्र अकाल के बीच में एक बड़े हरे द्वीप की तरह खड़ा है। यहाँ सरकार को न तो टैंकरों से पानी ढोना पड़ रहा है न अकाल राहत का पैसा बाँटना पड़ा है। गाँव के लोग, किसी के आगे हाथ नहीं पसार रहे हैं।
उनका माथा ऊँचा है। पानी के उम्दा काम ने उनके स्वाभिमान की भी रक्षा की है। अलवर में नदियाँ एक दूसरे से जोड़ी नहीं गई हैं। यहाँ के लोग अपनी नदियों से, अपने तालाबों से जुड़े हैं। यहाँ पैसा नहीं बहाया गया है, पसीना बहाया है, लोगों ने और उनके अच्छे काम और अच्छे विचारों ने अकाल को एक दर्शक की तरह पाल के किनारे खड़ा कर दिया है। (Foreign 2015)
1. तरुण भारत संघ कहाँ काम कर रहा है?
उत्तर:
तरुण भारत संघ राजस्थान के अलवर क्षेत्र में काम कर रहा है।
2. लोगों के परिश्रम के कारण अकाल की स्थिति कैसी हो गई है?
उत्तर:
लोगों के परिश्रम के कारण अकाल की स्थिति एक दर्शक की भाँति हो गई।
3. ‘सदानीरा’ किन्हें कहा जाता है ? राजस्थान की पाँच नदियों को यह नाम कैसे वापस मिला?
उत्तर:
‘सदानीरा’ उन नदियों को कहा जाता है जिसमें बारहों महीने जल भरा रहता है। राजस्थान के अलवर क्षेत्र में तालाबों, नदी, नालों को छोटे-छोटे बाँधों से बाँधने के कारण वर्षा की एक-एक बूंद बचाने का काम किया गया जिससे नदियाँ सदानीरा हो उठी।
4. राजस्थान के किसानों ने अकाल का किस तरह मुकाबला किया?
उत्तर:
राजस्थान के किसानों को पता लगा कि वर्षा कम हुई है, उन्होंने ऐसी फ़सलें बोने का निर्णय लिया जिन्हें कम पानी की आवश्यकता होती है। इस तरह अकाल के बीच भी यह क्षेत्र हरा-भरा बना रहा और अकाल का प्रभाव कम हो गया।
5. अच्छे विचार लोगों का स्वाभिमान बनाए रखने में सहायक होते हैं, कैसे?
उत्तर:
अच्छे विचारों से ही अच्छा काम होता है। लोगों ने यह अच्छा काम नदियों से अपने तालाबों को जोड़कर किया। इस कारण उन्हें सरकारी मदद और अकाल राहत के पैसे का इंतज़ार नहीं करना पड़ा और न हाथ फैलाना पड़ा। इससे उनका स्वाभिमान ज्यों का त्यों बना रहा।
7. गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों को मानव-मात्र की समानता और स्वतंत्रता के प्रति जागरूक बनाने का प्रयत्न
किया। इसी के साथ उन्होंने भारतीयों के नैतिक पक्ष को जगाने और सुसंस्कृत बनाने के प्रयत्न भी किए। गांधी जी ने ऐसा क्यों किया? इसलिए कि वे मानव-मानव के बीच काले-गोरे, या ऊँच-नीच का भेद ही मिटाना पर्याप्त नहीं समझते थे, वरन् उनके बीच एक मानवीय स्वाभाविक स्नेह और हार्दिक सहयोग का संबंध भी स्थापित करना चाहते थे। इसके बाद जब वे भारत आए, तब उन्होंने इस प्रयोग को एक बड़ा और व्यापक रूप दिया।
विदेशी शासन के अन्याय-अनीति के विरोध में उन्होंने जितना बड़ा सामूहिक प्रतिरोध संगठित किया, उसकी मिसाल संसार के इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलती। पर इसमें उन्होंने सबसे बड़ा ध्यान इस बात का रखा कि इस प्रतिरोध में कहीं भी कटुता, प्रतिशोध की भावना अथवा कोई भी ऐसी अनैतिक बात न हो जिसके लिए विश्व मंच पर भारत का माथा नीचा हो ऐसा गांधी जी ने इसलिए किया क्योंकि वे मानते थे कि बंधुत्व, मैत्री, सद्भावना, स्नेह-सौहार्द आदि गुण मानवता-रूपी टहनी के ऐसे पुष्प हैं जो सर्वदा सुगंधित रहते हैं। (All India 2014)
1. अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों के पीड़ित होने का क्या कारण था?
उत्तर:
अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों के पीड़ित होने का कारण रंग-भेद और सामाजिक स्तर से संबंधित भेदभाव था।
2. मिसाल, प्रतिशोध शब्दों के अर्थ लिखिए।
उत्तर:
मिसाल – उदाहरण
3. गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों के बीच क्या-क्या कार्य किए और क्यों?
उत्तर:
प्रतिशोध – बदला लेना
4. भारत आने पर गांधी जी ने अपने प्रयोग को किस तरह व्यापक रूप दिया?
उत्तर:
गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों के बीच समानता और जागरूकता बनाए रखने का कार्य किया। इसका कारण यह था कि वे काले-गोले या ऊँच-नीच का भेद-भाव मिटाकर लोगों में स्नेह और हार्दिक सहयोग स्थापित करना चाहते थे।
5. गांधी जी प्रतिरोध में कटुता की भावना क्यों नहीं लाने देना चाहते थे? इसके लिए उन्होंने क्या किया?
उत्तर:
गांधी जी अंग्रेजों के विरुद्ध प्रतिरोध में कटुता की भावना इसलिए नहीं लाने देना चाहते थे ताकि विश्व स्तर पर भारत का माथा नीचा न होने पाए। इसके लिए उन्होंने प्रेम, मैत्री, बंधुत्व, सद्भावना, स्नेह आदि गुणों को अपनाए रखा।
8. तिलक ने हमें स्वराज का सपना दिया और गांधी ने उस सपने को दलितों और स्त्रियों से जोड़कर एक ठोस सामाजिक अवधारणा के रूप में देश के सामने ला रखा। स्वतंत्रता के उपरांत बड़े-बड़े कारखाने खोले गए, वैज्ञानिक विकास भी हुआ, बड़ी-बड़ी योजनाएँ भी बनीं, किंतु गांधीवादी मूल्यों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता सीमित होती चली गई। दुर्भाग्य से गांधी के बाद गांधीवाद को कोई ऐसा व्याख्याकार न मिला जो राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संदर्भो में गांधी के सोच की समसामयिक व्याख्या करता। सो यह विचार लोगों में घर करता चला गया कि गांधीवादी विकास का मॉडल धीमे चलने वाला और तकनीकी प्रगति से विमुख है। उस पर ध्यान देने से हम आधुनिक वैज्ञानिक युग की दौड़ में पिछड़ जाएँगे। कहना न होगा कि कुछ लोगों की पाखंडी जीवन शैली ने भी इस धारणा को और पुष्ट किया।
इसका परिणाम यह हुआ कि देश में बुनियादी तकनीकी और औद्योगिक प्रगति तो आई पर देश के सामाजिक और वैचारिकढाँचे में ज़रूरी बदलाव नहीं लाए गए। सो तकनीकी विकास ने समाज में व्याप्त व्यापक फटेहाली, धार्मिक कूपमंडूकता और जातिवाद को नहीं मिटाया। (Delhi 2014)
1. गांधी जी ने स्वराज के सपने को सामाजिक अवधारणा का रूप कैसे दिया?
उत्तर:
गांधी जी ने स्वराज के सपने को सामाजिक अवधारणा का रूप देने के लिए देश की महिलाओं और दलितों को जोड़ा।
2. स्वतंत्रता, प्रतिबद्धता शब्दों में प्रयुक्त उपसर्ग, मूलशब्द और प्रत्यय अलग कीजिए।
उत्तर:
3. स्वतंत्रता के बाद गांधीवादी मूल्यों की क्या दशा हुई और क्यों?
उत्तर:
स्वतंत्रता के बाद लोगों द्वारा गांधीवादी मूल्यों की उपेक्षा शुरू कर दी गई क्योंकि गांधी जी की मृत्यु के बाद गांधीवाद का कोई ऐसा व्याख्या करने वाला न मिला जो राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक संदर्भो में गांधी जी के विचारों की समसामयिक व्याख्या करता।
4. गांधीवादी मूल्य आजादी के बाद लोगों के आकर्षण का केंद्र-बिंदु क्यों नहीं बन सके?
उत्तर:
आज़ादी के बाद गांधीवादी मूल्य लोगों के आकर्षण का केंद्र-बिंदु इसलिए नहीं बन सके क्योंकि लोग यह मानने लगे कि गांधीवादी विकास का मॉडल धीरे चलने वाला है। इससे हम वैज्ञानिक युग की दौड़ में पीछे रह जाएँगे।।
5. गांधीवादी मूल्यों की उपेक्षा का परिणाम क्या हुआ?
उत्तर:
गांधीवादी मूल्यों की उपेक्षा का यह परिणाम हआ कि देश ने बुनियादी, तकनीकी और औद्योगिक प्रगति तो की पर देश के सामाजिक-वैचारिक ढाँचे में बदलाव न लाने के कारण गरीबी, धर्मांधता और जातिवाद के ज़हर को कम नहीं किया जा सका।
9. कहा जाता है कि हमारा लोकतंत्र यदि कहीं कमज़ोर है तो उसकी एक बड़ी वजह हमारे राजनीतिक दल हैं। वे प्रायः अव्यवस्थित हैं, अमर्यादित हैं और अधिकांशतः निष्ठा और कर्मठता से संपन्न नहीं हैं। हमारी राजनीति का स्तर प्रत्येक दृष्टि से गिरता जा रहा है। लगता है उसमें सुयोग्य और सच्चरित्र लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। लोकतंत्र के मूल में लोकनिष्ठा होनी चाहिए, लोकमंगल की भावना और लोकानुभूति होनी चाहिए और लोकसंपर्क होना चाहिए। हमारे लोकतंत्र में इन आधारभूत तत्वों की कमी होने लगी है, इसलिए लोकतंत्र कमज़ोर दिखाई पड़ता है।
हम प्रायः सोचते हैं कि हमारा देश-प्रेम कहाँ चला गया, देश के लिए कुछ करने, मर-मिटने की भावना कहाँ चली गई ? त्याग और बलिदान के आदर्श कैसे, कहाँ लुप्त हो गए? आज हमारे लोकतंत्र को स्वार्थांधता का घुन लग गया है। क्या राजनीतिज्ञ, क्या अफसर, अधिकांश यही सोचते हैं कि वे किस तरह से स्थिति का लाभ उठाएँ, किस तरह एक-दूसरे का इस्तेमाल करें। आम आदमी अपने आपको लाचार पाता है और ऐसी स्थिति में उसकी लोकतांत्रिक आस्थाएँ डगमगाने लगती हैं।
लोकतंत्र की सफलता के लिए हमें समर्थ और सक्षम नेतृत्व चाहिए, एक नई दृष्टि, एक नई प्रेरणा, एक नई संवेदना, एक नया आत्मविश्वास, एक नया संकल्प और समर्पण आवश्यक है। लोकतंत्र की सफलता के लिए हम सब अपने आप से पूछे कि हम देश के लिए, लोकतंत्र के लिए क्या कर सकते हैं? और हम सिर्फ पूछकर ही न रह जाएँ, बल्कि संगठित होकर समझदारी, विवेक और संतुलन से लोकतंत्र को सफल और सार्थक बनाने में लग जाएँ। (Delhi 2014)
1. हमारे लोकतंत्र की कमज़ोरी का कारण क्या है?
उत्तर:
हमारे लोकतंत्र की कमजोरी का कारण अव्यवस्थित और अमर्यादित वे राजनीतिक दल हैं जिनमें निष्ठा और कर्मठता की कमी
2. आज राजनीति का स्तर क्यों गिरता जा रहा है?
उत्तर:
आज राजनीति का स्तर इसलिए गिरता जा रहा है क्योंकि राजनीति में सुयोग्य और सच्चरित्र लोगों की कमी होती जा रही है।
3. लोकतंत्र के आधारभूत तत्व कौन-से हैं ? इनकी कमी का लोकतंत्र पर क्या असर पड़ा है ?
उत्तर:
लोकतंत्र के मूल में लोकनिष्ठा, लोकमंगल की भावना लोकानुभूति, लोकसंपर्क आदि लोकतंत्र के आधारभूत तत्व हैं। इनकी कमी के कारण लोकतंत्र से लोगों की आस्था कमज़ोर होती जाती है और लोकतंत्र कमज़ोर पड़ जाता है।
4. आम आदमी की लोकतांत्रिक आस्थाएँ क्यों डगमगाने लगती हैं ?
उत्तर:
आज लोकतंत्र में देश-प्रेम, देश के लिए कुछ करने की भावना, त्याग-बलिदान आदि गायब हो चुकी है। लोगों में स्वार्थांधता भरती जा रही हैं। राजनीतिज्ञ अफसर अपनी स्थिति का फायदा उठाने को आतुर हैं। ऐसे में लाचार आम आदमी की लोकतांत्रिक आस्थाएँ उगमगाने लगती हैं।
5. लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर:
लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए नई दृष्टि, नई प्रेरणा, नई संवेदना, नया आत्मविश्वास, संकल्प और समर्पण रखते हुए लोकतंत्र के प्रति अपने दायित्वों को समझने का प्रयास करें। फिर हमें संगठित होकर समझदारी विवेक और संतुलन से लोकतंत्र को सफल बनाने का प्रयास करना चाहिए।
10. एक ज़माना था जब मुहल्लेदारी पारिवारिक आत्मीयता से भरी होती थी। सब मिल-जुलकर रहते थे। हारी-बीमारी, खुशी-गम सब में लोग एक दूसरे के साथ थे। किसी का किसी से कुछ छिपा नहीं था। आज के लोगों को शायद लगे कि लोगों की अपनी ‘प्राइवेसी’ क्या रही होगी, लेकिन इस ‘प्राइवेसी’ के नाम पर ही तो हम एक-दूसरे से कटते रहे और कटते-कटते ऐसे अलग हुए कि अकेले पड़ गए। पहले अलग चूल्हे-चौके हुए, फिर अलग मकान लेकर लोग रहने लगे, निजी स्वतंत्रता को अपनी नई परिभाषा देकर यह एकाकीपन हमने स्वयं अपनाया है। मुहल्ले में आपस में चाहे जितनी चखचख हो, यह थोड़े ही संभव था कि बाहर का कोई आकर किसी को कड़वी बात कह जाए। पूरा मोहल्ला टिड्डी-दल की तरह उमड़ पड़ता था।
देखते-देखते ज़माना हवा हो गया। मुहल्लेदारी टूटने लगी, आबादी बढ़ी, महँगाई बढ़ी, पर सबसे ज़्यादा जो चीज़ दुर्लभ हो गई वह थी आपसी लगाव, अपनापन। लोगों की आँखों का शील मर गया।
देखते-देखते कैसा रंग बदला है। लोग अपने-आप में सिमटकर पैसे के पीछे भागे जा रहे हैं। सारे नाते-रिश्तों को उन्होंने ताक पर रख दिया है, तब फिर पड़ोसी से उन्हें क्या लेना-देना है। यह नीरस महानगरीय सभ्यता महानगरों से चलकर कस्बों और देहातों तक को अपनी चपेट में ले चुकी है। मकानों में रहने वाले एक-दूसरे को नहीं जानते। इन जगहों में आदमी का अस्तित्व समाप्त हो गया है। यदि आपको फ़्लैट नंबर मालूम नहीं है तो उसी बिल्डिंग में जाकर भी वांछित व्यक्ति को नहीं ढूँढ़ पाएँगे। ऐसी जगहों में किसी प्रकार के संबंधों की अपेक्षा ही कहाँ की जा सकती है? (All India 2014)
1. आज एक-दूसरे से कटते जाने का कारण क्या है?
उत्तर:
आज एक-दूसरे से कटते जाने का कारण ‘प्राइवेसी’ बनाए रखने का प्रयास है।
2. आज के व्यक्ति को प्राइवेसी के नाम पर क्या प्राप्त हुआ है?
उत्तर:
आज के व्यक्ति को प्राइवेसी के नाम पर अलगाव और अकेलापन प्राप्त हुआ है।
3. मुहल्लेदारी में पारिवारिक आत्मीयता से लाभ क्या-क्या होता था?
उत्तर:
मुहल्लेदारी में पारिवारिक आत्मीयता बनी रहने से सब मिल-जुलकर रहते थे, एक दूसरे के सुख-दुख में काम आते थे। वे आपस में भले झगड़ लें, पर बाहरी व्यक्ति का मुकाबला करने के लिए एकजुट हो जाते थे।
4. वह ज़माना हवा होते ही आया बदलाव समाज के लिए उपयुक्त था या अनुपयुक्त, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वह ज़माना हवा होते ही मुहल्लेदारी टूटने लगी, आबादी और महँगाई तो बढ़ी पर आपसी लगाव, अपनापन गायब हो गया। … लोगों की आँखों से शील मर गई। ये बदलाव समाज के लिए पूर्णतया अनुचित और अनुपयुक्त था।
5. प्राइवेसी ने महानगरीय सभ्यता से संबंधों को लगभग समाप्त कर दिया है। ऐसा कहना कितना उचित है?
उत्तर:
‘प्राइवेसी’ ने महानगरीय सभ्यता की छाँव में पलने वाले संबंधों को छिन्न-भिन्न कर दिया है। यहाँ एक ही मकान में रहने वाले लोग एक-दूसरे को जानते नहीं हैं। फ़्लैट नंबर मालूम न होने पर बिल्डिंग में वांछित व्यक्ति से नहीं मिला जा सकता है। अतः यहाँ संबंध पूर्णतया समाप्त हो गए हैं।
11. गरीबी, जाति और धर्म की सीमाओं को भेद जाती है। भारत की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा गरीब है या गरीबी के आसपास है। इसलिए देश के प्रशासकों ने इस समस्या के समाधान के लिए आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय को राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया है इससे समाज में आर्थिक विषमता घटेगी। हमारे संविधान की प्रस्तावना में भी गणतंत्र के विशेषणों में ‘समाजवादी’ शब्द सम्मिलित है। इसके फलस्वरूप भारतीय समाज के कमजोर वर्गों को आर्थिक आधार पर विशेष सलक पाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। कृषि-मज़दूरों, छोटे किसानों, देहाती-शहरी गरीबों के लिए योजनाबद्ध विकास के कार्यक्रम तैयार किए गए हैं। ये कार्यक्रम जाति के आधार पर नहीं, समानता-असमानता के आधार पर हैं।
सभी प्रकार के पिछड़ेपन को, भले ही वह आर्थिक हो या सामाजिक या सांस्कृतिक, दूर करना निश्चित रूप से न्यायपूर्ण एवं स्वीकार करने योग्य लक्ष्य है। आर्थिक पिछड़ेपन ने सामाजिक असमानता के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इस समस्या का उपचार करने के लिए सरकार ने एक रणनीति अपनाई-कानून बनाने के रूप में। जिसका उल्लंघन करने वालों को सजा का प्रावधान है।
एक उदाहरण लें-‘अस्पृश्यता अपराध कानून’ के अंतर्गत अस्पृश्यता को दंडनीय अपराध माना गया और इसके परिणामस्वरूप देश से अस्पृश्यता प्रायः समाप्त हो गई है। इतना अवश्य है कि इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना है।
1. ‘गरीबी, जाति और धर्म की सीमाओं को भेद जाती है।’-का आशय क्या है?
उत्तर:
‘गरीबी जाति और धर्म की सीमाओं को भेद जाती है’ का आशय है-यह सभी जातियों और धर्मावलंबियों को समान रूप से
प्रभावित करती है।
2. अस्पृश्यता समाप्त होने का कारण क्या है?
उत्तर:
अस्पृश्यता समाप्त होने का कारण अस्पृश्यता अपराध कानून बनाकर इसे दंडनीय घोषित करना है।
3. गरीबी की समस्या के समाधान के लिए प्रशासकों ने क्या किया? उनके प्रयास का फल क्या होगा?
उत्तर:
गरीबी की समस्या दूर करने के लिए प्रशासकों ने आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय को राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया। उनके इस प्रयास से आर्थिक विषमता घटने की संभावना है।
4. संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ विशेषण सम्मिलित करना इस समस्या के समाधान के लिए कितना कारगर सिद्ध होगा?
उत्तर:
संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी विशेषण शामिल करने से समाज के कमजोर वर्गों कृषि-मज़दूरों, छोटे किसानों, देहाती शहरी गरीबों के विकास के लिए कार्यक्रम बनाए जाते हैं, जो समानता-असमानता पर आधारित होते हैं। यह प्रयास कारगर सिद्ध होगा।
5. पिछड़ापन दूर करने की मुहिम को कानून से जोड़ना क्या कारगर सिद्ध होगा? उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पिछड़ापन दूर करने की मुहिम को कानून से जोड़ने पर इसके उल्लंघन करने वालों के लिए सज़ा का प्रावधान हो जाता है। इसका उदाहरण अस्पृश्यता अपराध कानून है जिससे अस्पृश्यता समाप्त हो गई।
12. हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। इस व्यवस्था में न कोई छोटा होता है न बड़ा, न कोई अमीर न कोई गरीब। देश का संविधान सबके लिए समान है। नागरिक अधिकारों पर सबका समान हक है। लोकतंत्र पारिवारिक-सामाजिक सभी स्तरों पर स्त्री-पुरुष को एक नज़र से देखता है। अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने, अपनी बात बेझिझक कहने का सबको समान अधिकार है।
आज़ादी मिलने के बाद इस लोकतंत्रात्मक पद्धति के आधार पर हम सभी क्षेत्रों में आगे बढ़े हैं। नारी जागृति आई है, शिक्षा, स्वास्थ्य. राजनीति-सभी क्षेत्रों में विकास हुआ है। ऐसी स्थिति में भी जब हम निराशाजनक बातें करते हैं कि तंत्र ठप्प हो गया है, यह पद्धति असफल हो गई है-यह ठीक नहीं। वास्तव में दोष तंत्र का नहीं-दोष हमारे नज़रिये का है। हमारी अपेक्षाएँ इतनी बढ़ गई हैं जिन्हें संतुष्ट करने के लिए एक क्या अनेक तंत्र असफल हो जाएँगे। हमारा देश विशाल आबादी वाला एक विशाल देश है।
इसे चलाने वाला तंत्र भी उतना ही विशाल और समर्थ चाहिए और जैसा कि नाम से स्पष्ट है लोकतंत्र में हम ही तंत्र हैं। जब हर नागरिक इतना शिक्षित हो जाए कि अपने देश, समाज, परिवार, हर व्यक्ति सबके प्रति निष्ठा से अपना दायित्व निभाता रहे तब लोकतंत्र की सफलता सामने आएगी। ज़रूरी है कि हमारी सोच सकारात्मक हो। हम सोचें कि इतनी उदारता, इतनी ग्रहणशीलता और किसी तंत्र में नहीं है जितनी लोकतंत्र में है, मानवता का इतना संतुलित सर्वांगीण विकास किसी और तंत्र में हो भी नहीं सकता। (Foreign 2014)
1. ‘तंत्र ठप हो गया है’-ऐसा कहना किसका दोष प्रकट करता है?
उत्तर:
‘लोकतंत्र ठप हो गया है’-ऐसा कहना हमारे नज़रिये का दोष प्रकट करता है।
2. मानवता का सबसे संतुलित विकास किस तंत्र में हो सकता है?
उत्तर:
मानवता का सबसे संतुलित विकास लोकतंत्र में ही हो सकता है।
3. गद्यांश के आधार पर लोकतंत्र की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
लोकतंत्र में सभी समान होते हैं। नागरिक अधिकारों पर सबका समान हक होता है। इस तंत्र में पारिवारिक-सामाजिक सभी स्तरों पर स्त्री-पुरुष बराबर होते हैं। सभी को अपनी बातें कहने तथा अधिकारों के इस्तेमाल का अधिकार होता है।
4. लोकतंत्र के संबंध में निराशाजनक बातें क्यों नहीं करनी चाहिए?
उत्तर:
लोकतंत्र के बारे में निराशाजनक बातें इसलिए नहीं करनी चाहिए क्योंकि हमारी अपेक्षाएँ इतनी बढ़ गई हैं कि उसे पूरा करने के लिए कई तंत्र असफल हो जाएँगे। भारत जैसे विशाल देश में इसे चलाने वाला तंत्र भी विशाल और समर्थ होना ज़रूरी है।
5. लोकतंत्र की सफलता किन तत्वों पर निर्भर करती है?
उत्तर:
लोकतंत्र लोगों का तंत्र है। इसकी सफलता के लिए हर नागरिक का शिक्षित होना, अपने देश, परिवार, समाज के प्रति दायित्वों का निर्वाह करना तथा सकारात्मक सोच रखना अति आवश्यक है।
13. मेरा मन कभी-कभी बैठ जाता है। समाचार पत्रों में ठगी, डकैती, चोरी और भ्रष्टाचार के समाचार भरे रहते हैं। ऐसा लगता है देश में कोई ईमानदार आदमी रह ही नहीं गया है। हर व्यक्ति संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। इस समय सुखी वही है, जो कुछ है। जो कुछ नहीं करता, जो भी कुछ करेगा, उसमें लोग दोष खोजने लगेंगे। उसके सारे गुण भुला दिये जायेंगे और दोषों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाने लगेगा। दोष किसमें नहीं होते? यही कारण है कि हर आदमी दोषी अधिक दिख रहा है, गुणी कम या बिलकुल ही नहीं। यह चिंता का विषय है।
तिलक और गांधी के सपनों का भारतवर्ष क्या यही है ? विवेकानंद और रामतीर्थ का आध्यात्मिक ऊँचाई वाला भारतवर्ष कहाँ है ? रवींद्रनाथ ठाकुर और मदनमोहन मालवीय का महान, सुसंस्कृत और सभ्य भारतवर्ष पतन के किस गहन गर्त में जा गिरा है? आर्य और द्रविड़, हिंदू और मुसलमान, यूरोपीय और भारतीय आदर्शों की मिलनभूमि ‘महामानव समुद्र’ क्या सूख ही गया है?
यह सही है कि इन दिनों कुछ ऐसा माहौल बना है कि ईमानदारी से मेहनत करके जीविका चलाने वाले निरीह श्रमजीवी पिस रहे हैं और झूठ और फरेब का रोज़गार करने वाले फल-फूल रहे हैं। ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है, सचाई केवल भीरु और बेबस लोगों के हिस्से पड़ी है। ऐसी स्थिति में जीवन के मूल्यों के बारे में लोगों की आस्था ही हिलने लगी है, किंतु ऐसी दशा से हमारा उद्धार जीवन-मूल्यों में आस्था रखने से ही होगा। ऐसी स्थिति में हताश हो जाना ठीक नहीं है।
1. ‘मेरा मन कभी-कभी बैठ जाता है’ का आशय क्या है?
उत्तर:
मेरा मन कभी-कभी बैठ जाता है-लेखक का हृदय देश की दुर्दशा देखकर चिंतित हो जाता है।
2. लेखक ने चिंता का विषय किसे कहा है ?
उत्तर:
लेखक ने लोगों की उस प्रवृत्ति को चिंता का विषय कहा है जिसके कारण लोग हर आदमी को दोषी समझने लगे हैं।
3. समाज की किन घटनाओं को देखकर निराशाजनक वातावरण होने का पता चल रहा है?
उत्तर:
समाचार पत्रों का चोरी, डकैती, भ्रष्टाचार की खबरों से भरा होना, हर व्यक्ति को संदेह की दृष्टि से देखा जाना, दूसरों में दोष ढूंढ़ने की बढ़ती प्रवृत्ति, गुणों को भुला दिया जाना और अवगुणों को बढ़ा-चढ़ाकर बताना आदि से निराशाजनक वातावरण का पता चल रहा है।
4. तिलक और गांधी ने किस तरह के भारत का स्वप्न देखा था? वह भारत इस भारत से किस तरह भिन्न होगा?
उत्तर:
तिलक और गांधी ने उस भारत की कल्पना की थी जिसमें उच्च जीवन मूल्यों का बोलबाला हो। समाज अन्याय, भ्रष्टाचार, चोरी डकैती आदि से मुक्त हो तथा हर कोई सुसंस्कृत और सभ्य हो। ऐसा भारत इस भारत से पूर्णतया अलग होगा।
5. आज समाज में जीवन-मूल्यों की स्थिति क्या है? ऐसे में हमारा भला कैसे हो सकता है?
उत्तर:
आज समाज में जीवन मूल्य कमज़ोर पड़ गए हैं। सत्य, त्याग, परोपकार, श्रम से रोटी कमाना आदि कहीं खो गए हैं। ईमानदारी दूसरे लोक की वस्तु बन गई है। ऐसे में जीवन मूल्यों को बनाए रखने से ही हमारा भला हो सकता है।
14. भारतवर्ष ने कभी भी भौतिक वस्तुओं के संग्रह को बहुत अधिक महत्त्व नहीं दिया। उसकी दृष्टि में मनुष्य के भीतर जो आंतरिक तत्व स्थिर भाव से बैठा हुआ है, वही चरम और परम है। लोभ-मोह, काम-क्रोध आदि विकार मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं, पर उन्हें प्रधान शक्ति मान लेना और अपने मन और बुद्धि को उन्हीं के इशारे पर छोड़ देना, बहुत निकृष्ट आचरण है। भारतवर्ष ने उन्हें सदा संयम के बंधन से बाँधकर रखने का प्रयत्न किया है।
इस देश के कोटि-कोटि दरिद्र जनों की हीन अवस्था को सुधारने के लिए अनेक कायदे-कानून बनाए गए। जिन लोगों को इन्हें कार्यांवित करने का काम सौंपा गया वे अपने कर्तव्यों को भूलकर अपनी सुख-सुविधा की ओर ज़्यादा ध्यान देने लगे। वे लक्ष्य की बात भूल गए और लोभ, मोह जैसे विकारों में फँसकर रह गए। आदर्श उनके लिए मज़ाक का विषय बन गया और संयम को दकियानूसी मान लिया गया। परिणाम जो होना था, वह हो रहा है-लोग लोभ और मोह में पड़कर अनर्थ कर रहे हैं, इससे भारतवर्ष के पुराने आदर्श और भी अधिक स्पष्ट रूप से महान और उपयोगी दिखाई देने लगे हैं। अब भी आशा की ज्योति बुझी नहीं है। महान भारतवर्ष को पाने की संभावना बनी हुई है, बनी रहेगी। (All India 2013 Comptt.)
1. मन में समाए विकारों को किसके सहारे वश में किया जाता है?
उत्तर:
मन में समाए विकारों को संयम के बंधन के सहारे वश में किया जाता है।
2. विलोम लिखिए – निकृष्ट, आंतरिक।
उत्तर:
निकृष्ट x उत्कृष्ट
आंतरिक x वाय।
3. हमारे देश में चरम और परम किसे माना जाता है ? यह मान्यता पाश्चात्य देशों से किस तरह अलग है?
उत्तर:
हमारे देश में जीवन मूल्यों और आदर्शों को चरम और परम माना जाता है। पश्चिमी देशों में शारीरिक सुख और भौतिक वस्तुओं के संग्रह को जीवन लक्ष्य माना जाता है, पर हमारे देश में मानसिक सुख एवं मूल्यों को।
4. देश में करोड़ों लोग गरीबी में क्यों जी रहे हैं?
उत्तर:
देश में करोड़ों लोग गरीबी में इसलिए जी रहे हैं क्योंकि गरीबी को दूर करने के लिए जो कानून बने और उन्हें लागू करने की जिम्मेदारी जिन पर सौंपी गई, वे अपना कर्तव्य और लक्ष्य भूलकर अपनी सुख-सुविधा में लग गए।
5. आदर्श एवं संयम को दकियानूसी कौन मान बैठे? इसका क्या परिणाम हुआ?
उत्तर:
आदर्श एवं संयम को दकियानूसी वे लोग मानने लगे जो सुख-सुविधा की ओर ज़्यादा ध्यान दे रहे थे। इससे लोग लोभ और मोह में पड़कर अनर्थ कर रहे हैं; भ्रष्ट साधनों से धन अर्जित कर रहे हैं और देश में अराजकता फैल रही है।
15. धन का व्यय विलास में करने से केवल क्षणिक आनंद की प्राप्ति होती है, जबकि यह धन का दुरुपयोग है, किंतु धन का सदुपयोग सुख और शांति देता है। धन के द्वारा जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य हो सकता है वह है परोपकार। भूखों को अन्न, नंगों को वस्त्र, रोगियों को दवा, अनाथों को घर-द्वार, लूले-लँगड़ों और अपाहिज़ों के लिए आराम के साधन, विद्यार्थियों के लिए पाठशालाएँ इत्यादि वस्तुएँ धन के द्वारा जुटाई जा सकती हैं।
धन होने के कारण एक अमीर आदमी को लोगों की भलाई करने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं, जो कि एक गरीब आदमी को उपलब्ध नहीं हैं, चाहे वह इसके लिए कितना ही इच्छुक क्यों न हो। पर संसार में ऐसे आदमी बहुत कम हैं जो अपना भोग-विलास त्यागकर अपने को परोपकार में लगाते हैं। (Delhi 2013 Comptt.)
1. दूसरों की भलाई करने के लिए सबसे आवश्यक क्या है?
उत्तर:
दूसरों की भलाई करने के लिए धन होना सबसे आवश्यक है।
2. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक है-धन का सच्चा उपयोग।
3. गद्यांश के अनुसार धन का सदुपयोग क्या है ? लेखक धन का दुरुपयोग किसे मानता है?
उत्तर:
गद्यांश के अनुसार धन का सदुपयोग है-परोपकार करना जिससे दूसरों को सुख-शांति मिल सके। लेखक ने धन का व्यय भोगविलास और ऐशो-आराम के लिए करते हुए आनंदित होने को धन का दुरुपयोग माना है।
4. परोपकार और धन का क्या संबंध है ? गद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परोपकार और धन का अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। परोपकार करने के लिए धन होना अत्यावश्यक है। भूखों को अन्न, नंगों को वस्त्र, रोगियों को दवा, अनाथों को घर-द्वार देने आदि का कार्य धन के बिना नहीं किए जा सकते हैं।
5. एक निर्धन परोपकारी क्यों नहीं बन सकता है? आज देश में किस तरह के लोगों की कमी है ?
उत्तर:
एक निर्धन व्यक्ति परोपकारी इसलिए नहीं बन सकता क्योंकि वह धनहीन होता है। धन के अभाव में निर्धन परोपकार नहीं कर सकता है। आज देश में उन लोगों की कमी हो रही है जो दूसरों की भलाई के लिए अपना भोग-विलास त्याग सकें।
16. यदयपि तुलसी ने अनेक ग्रंथों की रचना करके अपनी काव्य-प्रतिभा का परिचय दिया तथापि रामचरितमानस उनकी सर्वोपरि रचना है। इस अनुपम ग्रंथ की गणना विश्व साहित्य के सर्वश्रेष्ठ रत्नों में की जाती है। इसका रूपांतर विश्व की प्रायः सभी भाषाओं में हो चुका है। रामचरितमानस महाकाव्य है। इस ग्रंथ में राम की कथा सात खंडों में विभक्त है।
मानस की कथा का मूलाधार वाल्मीकि रामायण, वेद-पुराण आदि ग्रंथ हैं। इन धार्मिक ग्रंथों से नीति, शिक्षा और उपदेश की सामग्री लेकर तुलसी ने मानस की रचना की है। यही कारण है कि मानस पाठकों के जीवन के लिए आदर्श है। यह महाकाव्य लोकहित की भावना से ओत-प्रोत है। मानस, मानव-मन का दर्पण है। इसमें मानव-स्वभाव का स्वाभाविक चित्रण है। (Delhi 2013 Comptt.)
1. रामचरित मानस के रचनाकार कौन हैं?
उत्तर:
रामचरितमानस के रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास हैं।
2. संधि-विच्छेद कीजिए-यद्यपि, मूलाधार
उत्तर:
यद्यपि = यदि + अपि
मूलाधार = मूल + आधार
3. रामचरितमानस की गणना सर्वोत्कृष्ट रचनाओं में क्यों की जाती है?
उत्तर:
रामचरित मानस की गणना सर्वोत्कृष्ट रचनाओं में इसलिए की जाती है क्योंकि यह महाकाव्य लोकहित की भावना से ओत-प्रोत है। इसमें हर आयु वर्ग के लिए कर्तव्यों का आदर्श रूप, संबंधों को बनाए रखने की कला तथा मानव स्वभाव का स्वाभाविक चित्रण है।
4. मानस की कथा का मूलाधार क्या है, जो इसे अन्य महाकाव्यों से अलग करते हैं ?
उत्तर:
मानस की कथा का मूलाधार वाल्मीकि रामायण, वेद-पुराण आदि ग्रंथ हैं। इसमें राम के उदात्त एवं अनुकरणीय जीवन की कथा को सात वर्गों में बाँट कर प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रंथ में नीति, शिक्षा और उपदेश की सामग्री भरपूर है। ”
5. रामचरितमानस की लोकप्रियता का प्रमाण क्या है ? गद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रामचरितमानस की लोकप्रियता का प्रमाण यह है कि इस महाकाव्य की लोकप्रियता भारत के ही घर-घर में नहीं, बल्कि विश्व भर में है। तभी तो विश्व की प्रायः सभी भाषाओं में इसका रूपांतरण किया जा चुका है।
17. जहाँ भी दो नदियाँ मिल जाती हैं, उस स्थान को अपने देश में तीर्थ कहने का रिवाज़ है। कई पहाड़ों, जंगलों और खेतों पर गिरी बारिश के पानी के संगम से नदियाँ बनती हैं। एक दूसरे से मिलकर ये नदियाँ बड़ी हो जाती हैं। सबसे बड़ी नदी वह होती है जिसका दूसरी नदियों से सबसे ज़्यादा संयोग होता है। अगर सागर से उलटी गंगा बहाएँ तो गंगा का स्रोत गंगोत्री या उद्गम गोमुख भर नहीं होगा। यमुनोत्री और तिब्बत में ब्रह्मपुत्र का स्रोत भी होगा, दिल्ली, बनारस और पटना जैसे शहरों के सीवर से निकलने वाला पानी भी होगा। बनारस या पटना में गंगा विशाल नदी है, लेकिन वहाँ उसका पानी मात्र शिव जी की जटा से निकलकर नहीं आता।
भारतीय परिवेश में असली संगम वे स्थान हैं, वे सभाएँ तथा वे मंच हैं, जिन पर एक से अधिक भाषाएँ एकत्र होती हैं। नदियाँ अपनी धाराओं में अनेक जनपदों का सौरभ, आँसू और उल्लास लिए चलती हैं और उनका पारस्परिक मिलन वास्तव में नाना जनपदों के मिलन का प्रतीक है। यही हाल भाषाओं का भी है। अगर हिंदी और उर्दू, संस्कृत और फारसी को बड़ी भाषाएँ माना जाए, तो यह तय है कि इनका संगम कई दूसरी भाषाओं से हुआ होगा। अगर किसी भाषा का दूसरी भाषाओं से मेल-मिलाप बंद हो जाता है तो उसका बहना रुक जाता है, ठीक उस नदी के जैसे, जिसमें दूसरी नदियों का पानी मिलना बंद हो जाता है। (CBSE Sample paper 2015)
1. हमारे देश में किसे तीर्थ कहने की परंपरा है?
उत्तर:
हमारे देश में उस स्थान को तीर्थ कहने की परंपरा है जहाँ दो नदियाँ मिलती हैं।
2. सबसे बड़ी नदी किसे माना जाता है?
उत्तर:
सबसे बड़ी नदी उसे माना जाता है जिसका दूसरी नदियों से सबसे ज़्यादा मेल-मिलाप होता है।
3. ‘बनारस या पटना में गंगा विशाल नदी है लेकिन उसका पानी मात्र शिव की जटा से नहीं आता।’-के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘बनारस या पटना … नहीं आता’ के माध्यम से लेखक यह कहना चाहता है कि इन स्थानों पर विशाल गंगा केवल गंगा नहीं बल्कि अनेक नदियों और अन्य जलस्रोतों के जल का मिला-जुला रूप है जो अपने भीतर बहुत कुछ समेटे हुए है।
4. गद्यांश में असली संगम किसे माना गया है और क्यों?
उत्तर:
गद्यांश में असली संगम उन स्थानों, सभाओं एवं मंचों को कहा गया है जहाँ अनेक भाषाएँ एकत्र होती हैं और चर्चा का विषय बनती हैं। इसका कारण यह है कि इन संगमों पर भाषाएँ एक-दूसरे के संपर्क में आती हैं और अपनी-अपनी परिधि में विस्तार करती हैं।
5. नदियों एवं भाषाओं में क्या समानता है? गद्यांश के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
नदियों और भाषाओं में समानता यह है कि जिस तरह बड़ी नदी अनेक नदियों के मेल का परिणाम होती हैं और अन्य नदियों का पानी न मिलने से उसका बहाव बंद हो जाता है उसी प्रकार हिंदी, उर्दू, संस्कृत जैसी भाषाएँ कई भाषाओं के मेल से बनी हैं। यदि अन्य भाषाओं से इनका मेल बंद हो जाए तो इनका विकास अवरुद्ध हो जाता है।
18. आवश्यकता के अनुरूप प्रत्येक जीव को कार्य करना पड़ता है। कर्म से कोई मुक्त नहीं है। अत्यंत उच्चस्तरीय आध्यात्मिक जीव जो साधना में लीन है अथवा उसके विपरीत वैचारिक क्षमता से हीन व्यक्ति ही कर्महीन रह सकता है। शरीर ऊर्जा का केंद्र है। प्रकृति से ऊर्जा प्राप्त करने की इच्छा और अपनी ऊर्जा से परिवेश को समृद्ध करने का भाव मानव के सभी कार्यव्यवहारों को नियंत्रित करता है। अतः आध्यात्मिक साधना में लीन और वैचारिक क्षमता से हीन व्यक्ति भी किसी न किसी स्तर पर कर्मलीन रहते ही हैं।
गीता में कृष्ण कहते हैं, ‘यदि तुम स्वेच्छा से कर्म नहीं करोगे तो प्रकृति तुमसे बलात् कर्म कराएगी।’ जीव मात्र के कल्याण की भावना से पोषित कर्म पूज्य हो जाता है। इस दृष्टि से जो राजनीति के माध्यम से मानवता की सेवा करना चाहते हैं उन्हें उपेक्षित नहीं किया जा सकता। यदि वे उचित भावना से कार्य करें तो वे अपने कार्यों को आध्यात्मिक स्तर तक उठा सकते हैं।
यह समय की पुकार है। जो राजनीति में प्रवेश पाना चाहते हैं, वे यह कार्य आध्यात्मिक दृष्टिकोण लेकर करें और दिनप्रतिदिन आत्मविश्लेषण, अंतर्दृष्टि, सतर्कता और सावधानी के साथ अपने आप का परीक्षण करें, जिसमें वे सन्मार्ग से भटक न ‘जाएँ। राजेंद्र प्रसाद के अनुसार “सेवक के लिए हमेशा जगह खाली पड़ी रहती है। उम्मीदवारों की भीड़ सेवा के लिए नहीं हआ करती। भीड तो सेवा के फल के बँटवारे के लिए लगा करती है जिसका ध्येय केवल सेवा है, सेवा का फल नहीं, उसको इस धक्का-मुक्की में जाने की और इस होड़ में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है।
1. कर्म से मुक्ति संभव क्यों नहीं है?
उत्तर:
कर्म से मुक्ति इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि कर्म ही ऊर्जा का साधन है और प्रकृति के लिए ऊर्जा आवश्यक है।
2. सच्चे सेवक की पहचान क्या है ?
उत्तर:
सच्चे सेवक की पहचान यह है कि वह हमेशा खाली पड़ी जगह को भर देता है।
3. साधना में लीन एवं वैचारिक क्षमता से हीन व्यक्ति को कर्मरत क्यों बताया गया है?
उत्तर:
मानव शरीर ऊर्जा का केंद्र है, प्रकृति से ऊर्जा पाने की इच्छा अपनी ऊर्जा से परिवेश को समृद्ध करने का भाव मनुष्य के कार्य व्यवहारों को नियंत्रित करता है तथा कर्म के लिए प्रेरित करता रहता है। अतः ऐसे व्यक्ति भी किसी न किसी रूप में कर्मरत रहते हैं।
4. कर्म करते हुए व्यक्ति खुद को आध्यात्मिक स्तर तक कैसे उठा सकता है?
उत्तर:
कल्याण की भावना से किया गया कर्म पूज्य हो जाता है। कल्याण की भावना से मानवता की सेवा यदि व्यक्ति करता है तो वह खुद को आध्यात्मिक स्तर तक उठा सकता है।
5. डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद सेवक और उम्मीदवार के कर्म को किस तरह अलग-अलग रूपों में देखते हैं ?
उत्तर:
डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के अनुसार सेवक के मन में सेवा भावना प्रबल होती है। वह निस्स्वार्थ भाव से सेवा के लिए तैयार रहता है, इसके विपरीत उम्मीदवार सेवा के लिए न होकर सेवा के फल के बँटवारे के लिए होते हैं। इस तरह वे सेवक और उम्मीदवार के कर्म में अंतर देखते हैं।
19. भाग्यवादी लोग प्रायः कहा करते हैं कि जब भाग्य में नहीं तो सभी परिश्रम व्यर्थ हो जाते हैं। थोड़ी देर के लिए यदि उनकी विचारधारा को ही मान लिया जाए तो भी भाग्य के भरोसे बैठने वाले व्यक्ति की अपेक्षा कर्मशील व्यक्ति ही कहीं अधिक श्रेष्ठ है। कर्म करने के उपरांत यदि असफलता भी मिलती है तो भी व्यक्ति को यह सोचकर विशेष पछतावा नहीं होगा कि उसने प्रयत्न और चेष्टा तो की सफलता का निर्णय परमात्मा के अधीन है।
दूसरी ओर ऐसे लोग जो भाग्य के सहारे बैठे रहते हैं और प्रतीक्षा करते रहते हैं कि अली बाबा की सिम-सिम वाली गुफा का द्वार कब खुलता है, उन्हें जब असफलता का अँधेरा अपने चारों ओर घिरता दिखाई देता है, तब वे प्रायः पछताया करते हैं कि उन्होंने व्यर्थ ही समय क्यों गँवाया। हो सकता था कि उनका परिश्रम और यत्न सफल रहता, किंतु अब बीते समय को लौटाया नहीं जा सकता। इस रत्नगर्भा धरती में हीरे-मणि-माणिक्य का अभाव नहीं है। धरती का विस्तीर्ण अतल गर्भ अनंत धनराशि से भरा पड़ा है। आवश्यकता है, इसके वक्ष को चीरकर उन्हें उगलवा लेने वाले दृढ़ संकल्प और साहस की। धरती की कामधेनु तो उन्हें ही अमृतरस बाँटती है जो लौहकरों से उसका दोहन करते हैं।
1. भाग्यवादी अपनी सफलता का श्रेय किसे देते हैं?
उत्तर:
भाग्यवादी अपनी सफलता का श्रेय भाग्य को देते हैं।
2. धरती को रत्नगर्भा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:
धरती को रत्नगर्भा इसलिए कहा गया है क्योंकि धरती में नाना प्रकार के रत्न भरे हुए हैं।
3. कर्मशील व्यक्ति को पछतावा क्यों नहीं होता है?
उत्तर:
कर्मशील व्यक्ति को इसलिए पछतावा नहीं होता है क्योंकि वह यह सोचता है कि उसने प्रयत्न और चेष्टा तो की भले ही उसे सफलता हासिल नहीं हो सकी। वह जानता है कि प्रयत्न करना उसके हाथ है, फल ईश्वर के अधीन होता है।
4. भाग्यवादी कर्मशीलों से किस तरह अलग होते हैं ?
उत्तर:
भाग्यवादी भाग्य के भरोसे बैठकर सफलता का इंतज़ार करते हैं। जब उनको सफलता की जगह असफलता मिलती है तो वे पछताते हैं कि उन्होंने व्यर्थ ही समय गँवाया है।
5. धरती में छिपे रत्नों को कौन निकालकर लाते हैं और कैसे?
उत्तर:
उत्तर:
धरती में छिपे रत्नों को कर्मनिष्ठ लोग निकालकर लाते हैं। वे अपने लोहे सदृश मज़बूत हाथों से धरती रूपी कामधेनु का दोहन करते हैं और रत्नरूपी पीयूष का दोहन कर लेते हैं।
20. आत्मनिर्भरता का अर्थ है-अपने ऊपर निर्भर रहना। जो व्यक्ति दूसरे के मुँह को नहीं ताकते वे ही आत्मनिर्भर होते हैं। . वस्तुतः आत्मविश्वास के बल पर कार्य करते रहना आत्मनिर्भरता है। आत्मनिर्भरता का अर्थ है-समाज, निज तथा राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करना। व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र में आत्मविश्वास की भावना, आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। स्वावलंबन जीवन की सफलता की पहली सीढ़ी है। सफलता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को स्वावलंबी अवश्य होना चाहिए। स्वावलंबन व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के जीवन में सर्वांगीण सफलता प्राप्ति का महामंत्र है। स्वावलंबन जीवन का अमूल्य आभूषण है, वीरों तथा कर्मयोगियों का इष्टदेव है। सर्वांगीण उन्नति का आधार है।
जब व्यक्ति स्वावलंबी होगा, उसमें आत्मनिर्भरता होगी, तो ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे वह न कर सके। स्वावलंबी मनुष्य के सामने कोई भी कार्य आ जाए, तो वह अपने दृढ़ विश्वास से, अपने आत्मबल से उसे अवश्य ही पूर्ण कर लेगा। स्वावलंबी मनुष्य जीवन में कभी भी असफलता का मुँह नहीं देखता। वह जीवन के हर क्षेत्र में निरंतर कामयाब होता जाता है। सफलता तो स्वावलंबी मनुष्य की दासी बनकर रहती है। जिस व्यक्ति का स्वयं अपने आप पर ही विश्वास नहीं, वह भला क्या कर पाएगा? परंतु इसके विपरीत जिस व्यक्ति में आत्मनिर्भरता होगी, वह कभी किसी के सामने नहीं झुकेगा। वह जो करेगा सोचसमझकर धैर्य से करेगा। मनुष्य में सबसे बड़ी कमी स्वावलंबन का न होना है। सबसे बड़ा गुण भी मनुष्य की आत्मनिर्भरता ही है।
1. किन व्यक्तियों को आत्मनिर्भर कहा जा सकता है?
उत्तर:
जो व्यक्ति अपना काम स्वयं करते हैं और अपने कार्य के लिए दूसरों पर आश्रित नहीं रहते हैं उन्हें आत्मनिर्भर कहा जाता है।
2. गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
गद्यांश का शीर्षक है- आत्मनिर्भरता।
3. व्यक्ति के जीवन में स्वावलंबन का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
स्वावलंबन को मानव जीवन की सफलता के लिए पहली सीढ़ी माना जाता है। स्वावलंबन के बिना सफलता नहीं मिलती है। यह जीवन का अमूल्य आभूषण और सर्वांगीण उन्नति का आधार है। व्यक्ति के जीवन में इसका विशेष महत्त्व है।
4. स्वावलंबी व्यक्ति अपने काम में किस तरह सफलता प्राप्त करते हैं?
उत्तर:
स्वावलंबी व्यक्ति के लिए कोई काम असंभव नहीं होता है। वह हर काम को अपने आत्मबल और दृढविश्वास से पूरा कर लेता है। ऐसा व्यक्ति हर क्षेत्र में कामयाब होता है और कभी भी असफलता का मुँह नहीं देखता है।
5. सफलता को स्वावलंबी की दासी क्यों कहा गया है?
उत्तर:
सफलता को स्वावलंबी की दासी इसलिए कहा जाता है क्योंकि स्वावलंबी व्यक्ति को अपनी क्षमता पर पूरा भरोसा होता है। वह आत्मनिर्भर होता है, इस कारण किसी के आगे नहीं झुकता है। अपने इन गुणों के कारण सफलता उसका वरण कर उसकी दासी बन जाती है।
21. जिस विद्यार्थी ने समय की कीमत जान ली वह सफलता को अवश्य प्राप्त करता है। प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी दिनचर्या की समय-सारणी अथवा तालिका बनाकर उसका पूरा दृढ़ता से पालन करना चाहिए। जिस विद्यार्थी ने समय का सही उपयोग करना सीख लिया उसके लिए कोई भी काम करना असंभव नहीं है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कोई काम पूरा न होने पर समय की दुहाई देते हैं। वास्तव में सच्चाई इसके विपरीत होती है।
अपनी अकर्मण्यता और आलस को वे समय की कमी के बहाने छिपाते हैं। कुछ लोगों को अकर्मण्य रहकर निठल्ले समय बिताना अच्छा लगता है। ऐसे लोग केवल बातूनी होते हैं। दुनिया के सफलतम व्यक्तियों ने सदैव कार्य व्यस्तता में जीवन बिताया है। उनकी सफलता का रहस्य समय का सदुपयोग रहा है। दुनिया में अथवा प्रकृति में हर वस्तु का समय निश्चित है। समय बीत जाने के बाद कार्य फलप्रद नहीं होता।
1. सफलता पाने के लिए विद्यार्थी को क्या जानना आवश्यक होता है?
उत्तर:
सफलता पाने के लिए विद्यार्थी समय का मूल्य जानना आवश्यक होता है।
2. गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक है – समय का महत्त्व।
3. विद्यार्थी के लिए सफलता कब असंदिग्ध हो जाती है?
उत्तर:
जब विद्यार्थी समय का मूल्य समझ लेता है और समय का सदुपयोग करना सीख जाता है तब उसके लिए सफलता असंदिग्ध हो जाती है।
4. गद्यांश में किस बात को सच्चाई के विपरीत बताया गया है?
उत्तर:
कुछ लोग काम न पूरा होने कारण समय की कमी बताते हैं, उनकी यह बात सच्चाई के विपरीत होती है। वे अपनी अकर्मण्यता और आलस्य को समय की कमी बताकर छिपाना चाहते हैं।
5. दुनिया के सफलतम व्यक्तियों ने सफलता के किस रहस्य को समझ लिया था?
उत्तर:
दुनिया के सफलतम व्यक्तियों ने यह समझ लिया था कि समय के पल-पल का सदुपयोग करना चाहिए। वे जानते थे कि प्रकृति में हर वस्तु के लिए समय निश्चित है, समय पर काम करने से ही सफलता मिलती है, उन्होंने इस रहस्य को समझ लिया था।
22. ‘विष्णु-पुराण’ के प्रथम अंश के नवें अध्याय में इस अमृत-मंथन के कारणों का स्पष्ट उल्लेख है कि फूलों की माला का अपमान करने के प्रायश्चित स्वरूप देवताओं को अमृत-मंथन करना पड़ा। वह कथा इस प्रकार है कि दुर्वासा ऋषि ने पृथ्वी पर विचरण करते हुए एक कृशांगी के जिसकी बड़ी-बड़ी आँखें थी, हाथ में एक दिव्य माला देखी। उन्होंने उस विद्याधरी से उस माला को माँग लिया और उसे किसी अति विशिष्ट व्यक्ति की गर्दन में डालने की बात सोचने लगे।
तभी ऐरावत पर चढ़े देवताओं के साथ आते हुए इंद्र पर उनकी नज़र पड़ी उन्हें देखकर दुर्वासा ने उस माला को इंद्र के गले में डाल दिया लेकिन इंद्र ने अनिच्छापूर्वक ग्रहण करके उस माला को ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया। ऐरावत उसकी गंध से इतना विचलित हो उठा कि फौरन सैंड से लेकर उसने माला को पृथ्वी पर फेंक दिया। संयोगवश वह माला दुर्वासा के ही पास जा गिरी। इंद्र को पहनाई गई माला की इतनी दुर्दशा देखकर दुर्वासा को क्रोध आना स्वाभाविक था। वह वापस इंद्र के पास लौटकर आए और कहने लगे ‘अरे ऐश्वर्य के घमंड में चूर अहंकारी! तू बड़ा ढीठ है, तूने मेरी दी हुई माला का कुछ भी आदर नहीं किया।
न तो तुमने माला पहनाते वक्त मेरे द्वारा दिए गए सम्मान के प्रति आभार व्यक्त किया और न ही तुमने उस माला का ही सम्मान किया। इसलिए अब तेरा ये त्रिलोकी वैभव नष्ट हो जाएगा। तेरा अहंकार तेरे विनाश का कारण है जिसके प्रभाव में तूने मेरी माला का अपमान किया। तू अब अनुनय-विनय करने का ढोंग भी मत करना। मैं उसके लिए क्षमा नहीं कर सकता।’
1. देवताओं द्वारा ‘अमृत-मंथन’ करने का कारण क्या था?
उत्तर:
देवताओं द्वारा ‘अमृत मंथन’ करने का कारण फूलों की माला का अपमान करने के प्रायश्चित स्वरूप करना पड़ा।
2. गद्यांश के माध्यम से क्या सीख दी गई है?
उत्तर:
गदयांश के माध्यम से यह सीख दी गई है कि व्यक्ति को कभी घमंड नहीं करना चाहिए। यह व्यक्ति के विनाश का कारण बन जाता है।
3. दुर्वासा को दिव्य माला कहाँ से मिली? उन्होंने इंद्र को माला क्यों पहनाई ?
उत्तर:
दुर्वासा को दिव्य माला एक दुबली-पतली लड़की से मिली। उन्होंने यह माला इंद्र को इसलिए पहनाई क्योंकि वे इसे किसी अतिविशिष्ट व्यक्ति को पहनाना चाहते थे। इंद्र ऐसे ही अति विशिष्ट व्यक्ति थे।
4. दुर्वासा की माला दुर्वासा के पास किस तरह वापस आ गई ?
उत्तर:
दुर्वासा द्वारा पहनाई माला को इंद्र ने उतारकर अपने हाथी ऐरावत के गले में डाली दी। इसकी गंध से परेशान होकर ऐरावत ने वह माला अपनी सूंड़ में लेकर फेंक दी जो सीधे दुर्वासा के पास आ गिरी।
5. इंद्र को दुर्वासा के क्रोध का भाजन क्यों होना पड़ा? ऐसा इंद्र के किस अवगुण के कारण हुआ?
उत्तर:
दुर्वासा द्वारा पहनाई माला, उसमें लगे फूलों का सम्मान करना, माला पहनाने पर इंद्र द्वारा दुर्वासा के प्रति आभार न प्रकट करने के कारण उन्हें दुर्वासा के क्रोध का भाजन बनना पड़ा। इंद्र के द्वारा घमंड भरा व्यवहार करने के कारण ऐसा हुआ।
23. गंगा भारत की एक अत्यंत पवित्र नदी है जिसका जल काफ़ी दिनों तक रखने के बावजूद भी खराब नहीं होता है जबकि साधारण जल कुछ ही दिनों में सड़ जाता है। गंगा का उद्गम स्थल गंगोत्री या गोमुख है। गोमुख से भागीरथी नदी निकलती है और देव प्रयाग नामक स्थान पर अलकनंदा नदी से मिलकर आगे गंगा के रूप में प्रवाहित होती है। भागीरथी के देवप्रयाग तक आते-आते इसमें कुछ चट्टानें घुल जाती हैं जिससे इसके जल में ऐसी क्षमता पैदा हो जाती है जो उसके पानी को सड़ने नहीं देती।
हर नदी के जल में कुछ खास तरह के पदार्थ घुले होते हैं जो उसकी विशिष्ट जैविक संरचना के लिए उत्तरदायी होते हैं। ये घुले हुए पदार्थ पानी में कुछ खास तरह के पदार्थ पनपने देते हैं तो कुछ को नहीं। कुछ खास तरह के बैक्टीरिया ही पानी की सड़न के लिए उत्तरदायी होते हैं तो कुछ पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को रोकने में सहायता करते हैं। वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि गंगा के पानी में भी ऐसे बैक्टीरिया हैं जो गंगा के पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को पनपने ही नहीं देते। इसलिए गंगा का पानी काफ़ी लंबे समय तक खराब नहीं होता और पवित्र माना जाता है।
1. गंगा जल साधारण जल से किस तरह भिन्न होता है?
उत्तर:
साधारण जल कुछ ही दिनों में खराब हो जाता है जबकि गंगाजल काफी समय रखने पर भी खराब नहीं होता है।
2. ‘प्रवाहित’, जैविक शब्दों में प्रयुक्त/उपसर्ग पृथक कर मूल शब्द भी बताइए।
उत्तर:
3. गंगा अपने उद्गम स्थल से निकलकर किन-किन नामों से अपनी यात्रा करती है? इसका जल विशिष्ट कैसे बन जाता है?
उत्तर:
गंगा अपने उद्गम स्थल गोमुख से भागीरथी के रूप में निकलती हैं। यह अलकनंदा नामक नदी से मिलकर गंगा के रूप में
आगे की यात्रा करती है। इसके जल में कुछ चट्टानें घुल जाने से यह पानी न सड़ने की क्षमता पाकर विशिष्ट बन जाता है।
4. नदी जल में घुले खास पदार्थ क्या योगदान देते हैं ?
उत्तर:
नदी के जल की विशिष्ट जैविक संरचना के लिए उसमें घुले विशेष पदार्थ होते हैं। ये घुले पदार्थ ही कुछ खास तरह के पदार्थ को पनपने देते हैं और कुछ को नहीं पनपने देते हैं।
5. कुछ बैक्टीरिया गंगा जल की शुद्धाता एवं महत्ता किस तरह बढ़ा देते हैं ?
उत्तर:
कुछ विशेष प्रकार के बैक्टीरिया पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को रोकते हैं। गंगा जल में भी ऐसे ही बैक्टीरिया पाए जाते हैं जो सड़न पैदा करने वाले जीवाणुओं को पनपने ही नहीं देते हैं। इस तरह वे गंगाजल की शुद्धता एवं महत्ता बढ़ा देते
24. ऊँची पर्वत श्रृंखलाओं की बरफ़ीली चोटियों के स्पर्श से शीतल हुई हवा सबसे बेखबर अपनी ही मस्ती में सुबह-सुबह बहती जा रही थी। जब वह जंगलों के बीच से गुजर रही थी, तो फूलों से लदी खूबसूरत वन लता ने अपने रंग भरे शृंगार को झलकाते हुए कहा, ओ शीतल हवा! तनिक मेरे पास आओ और रुको। ताकि मेरी खुशबू से ओतप्रोत होकर इस संसार को अपठित गद्यांश शीतल ही नहीं, सुगंधित भी कर सको लेकिन गर्व से भरी वायु ने सुगंध बाँटने को आतुर लता की प्रार्थना नहीं सुनी और कहा, मैं यूँ ही सबको शीतल कर दूँगी, मुझे किसी से कुछ और लेने की ज़रूरत नहीं है। फिर वह इठलाती हुई आगे बढ़ गई।
पर कुछ ही देर बाद हवा वापस वहीं लौटकर आ गई, जहाँ वन लता से उसका वार्तालाप हुआ था। उसकी चंचलता खत्म हो चुकी थी और वह उदास थी। वह चुपचाप उस लता के समीप बैठ गई।
हवा को इस हाल में देखकर वन लता ने पूछा, अभी कुछ देर पहले ही तो तुम यहाँ से गुज़री थी और खुश लग रही थी। अब इतनी उदास दिखाई पड़ रही हो, क्या बात है? क्या मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकती हूँ? यह सुनकर हवा की आँखों से आँसू झरने लगे। उसने कहा, मैंने अहंकारवश तेरी बात नहीं सुनी और न तेरी खुशबू को ही साथ लिया, लेकिन जैसे ही आगे बढ़ी, गंदगी और बदबू में घिर गई। किसी तरह वहाँ से बचकर आगे बढ़ी और घरों तक पहुँची, लेकिन वहाँ किसी ने मेरा स्वागत नहीं किया। लोगों ने अपने घरों की खिड़कियाँ और दरवाजे बंद कर लिए। इसमें उनका भी कोई दोष नहीं था।उस गंदे क्षेत्र से गुजरने के कारण मुझमें दुर्गंध व्याप्त हो गई थी। भला दुर्गंधयुक्त वायु का कोई कैसे स्वागत करता?
1. हवा को अपनी शीतलता पर घमंड क्यों था?
उत्तर:
हवा को अपनी शीतलता पर इसलिए घमंड था क्योंकि वह पर्वत की ऊँची-ऊँची बरफीली चोटियों को छूती हुई आई थी।
2. हवा क्या करने के लिए आतुर थी?
उत्तर:
हवा लोगों में अपनी शीतलता बाँटने के लिए आतुर थी।
3. हवा को किसने रोका और क्यों? हवा की क्या प्रतिक्रिया थी?
उत्तर:
हवा को वनलता ने रोका ताकि शीतल हवा उससे खुशबू ले ले और लोगों को शीतलता ही न बाँटे बल्कि लोगों को सुगंधित भी कर दे। हवा अपनी शीतलता के गर्व में भरी थी इसलिए उसने वनलता की बात अनसुनी कर दी।
4. गंदगी और बदबू का हवा पर क्या असर पड़ा? लोगों ने हवा का स्वागत क्यों नहीं किया?
उत्तर:
गंदगी और बदबू के कारण हवा बदबूदार हो गई, जिससे लोग हवा से दूरी बनाने लगे। बदबूदार हवा किसी को अच्छी नहीं लगती है, इसलिए लोगों ने हवा का स्वागत नहीं किया।
5. हवा वनलता के पास क्यों लौट आई ? उसने वनलता से क्या सीख लिया होगा?
उत्तर:
लोगों की उपेक्षा से दुखी होकर हवा वनलता के पास लौट आई। उसने वनलता से यह सीख ली होगी कि अहंकार नहीं करना चाहिए और दूसरे की बातों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
25. हँसी शरीर के स्वास्थ्य का शुभ संकेत देने वाली होती है। वह एक साथ ही शरीर और मन को प्रसन्न करती है। वाचन-शक्ति
बढ़ाती है, रक्त को चलाती और पसीना लाती है। हँसी एक शक्तिशाली दवा है। एक डॉक्टर कहता है कि वह जीवन की मीठी मदिरा है। डॉक्टर ह्यूड कहता है कि आनंद से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मनुष्य के पास नहीं है। कारलाइल एक राजकुमार था। वह संसार त्यागी हो गया था। वह कहता है कि जो जी से हँसता है, वह कभी बुरा नहीं होता। जी से हँसो, तुम्हें अच्छा लगेगा।
अपने मित्र को हँसाओ, वह अधिक प्रसन्न होगा। शत्रु को हँसाओ, तुम से कम घृणा करेगा। एक अनजान को हँसाओ, तुम पर भरोसा करेगा। उदास को हँसाओ, उसका दुख घटेगा। एक निराश को हँसाओ, उसकी आशा बढ़ेगी। एक बूढे को हँसाओ, वह अपने को जवान समझने लगेगा। एक बालक को हँसाओ, उसके स्वास्थ्य में वृद्धि होगी। वह प्रसन्न और प्यारा बालक बनेगा। पर हमारे जीवन का उद्देश्य केवल हँसी ही नहीं है, हमको बहुत काम करने हैं तथापि उन कामों में, कष्टों में और चिंताओं में एक सुंदर आंतरिक हँसी, बड़ी प्यारी वस्तु भगवान ने दी है।
1. यूड ने मनुष्य के लिए सबसे बहुमूल्य वस्तु किसे बताया है ?
उत्तर:
ह्यूड ने मनुष्य के लिए हँसी को सबसे बहुमूल्य वस्तु बताया है।
2. गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
गद्यांश का शीर्षक है – जीवन में हँसी का महत्त्व।
3. हँसी स्वास्थ्य का शुभ संकेत किस तरह देती है ?
उत्तर:
हँसी से तन-मन प्रसन्न होता है, पाचन शक्ति बढ़ती है। शरीर में रक्त संचार बढ़ता है और पसीना लाने वाली ग्रंथियाँ सक्रिय होती हैं। ये सब स्वस्थ शरीर के लक्षण हैं। इस तरह हँसी स्वास्थ्य का शुभ संकेत देती है।
4. एक निराश बूढ़े और बालक पर हँसी क्या प्रभाव डालती है?
उत्तर:
हँसी एक निराश व्यक्ति की हताशा दूर कर आशा का संचार करती है। हँसने से बूढ़ा व्यक्ति जवान-सा महसूस करता है। हँसी बालक को प्रसन्न चित्त और स्वस्थ बनाती है।
5. गद्यांश में ईश्वर द्वारा प्रदत्त बड़ी प्यारी वस्तु किसे कहा गया है और क्यों?
उत्तर:
गद्यांश में हँसी को ईश्वर प्रदत्त सबसे प्यारी वस्तु कहा गया है, क्योंकि हँसी कष्टों और चिंताओं से मनुष्य को राहत दिलाती __ है, व्यक्ति को स्वस्थ बनाती है और उसे दीर्घायु करती है।
अब स्वयं करें
1) जातियों की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है तो उसके साहित्य रूपी आईने में ही मिल सकती है। इस आईने के सामने जाते ही हमें यह तत्काल मालूम हो जाता है कि अमुक जाति की जीवनी शक्ति इस समय कितनी या कैसी है और भूतकाल में कितनी और कैसी थी। आप भोजन करना बंद कर दीजिए या कम कर दीजिए, आप का शरीर क्षीण हो जाएगा और भविष्य-अचिरात् नाशोन्मुख होने लगेगा। इसी तरह आप साहित्य के रसास्वादन से अपने मस्तिष्क को वंचित कर दीजिए, वह निष्क्रिय होकर धीरे-धीरे किसी काम का न रह जाएगा। शरीर का खाद्य भोजन है और मस्तिष्क का खाद्य साहित्य। यदि हम अपने मस्तिष्क को निष्क्रिय और कालांतर में निर्जीव-सा नहीं कर डालना चाहते, तो हमें साहित्य का सतत सेवन करना चाहिए और उसमें नवीनता और पौष्टिकता लाने के लिए उसका उत्पादन भी करते रहना चाहिए।
प्रश्न
- साहित्य रूपी आइने में हमें किसकी झलक मिलती है?
- ‘नाशोन्मुख’ और ‘कालांतर’ में संधि-विच्छेद कीजिए।
- हमें साहित्य का पठन-पाठन क्यों करते रहना चाहिए?
- मस्तिष्क का भोजन किसे कहा गया है और क्यों?
- साहित्य का निरंतर उत्पादन करते रहना क्यों आवश्यक है ?
2) ज्ञान-राशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है। सब तरह के भावों को प्रकट करने की योग्यता रखने वाली और निर्दोष होने पर भी, यदि कोई भाषा अपना निज का साहित्य नहीं रखती तो वह, रूपवती भिखारिन की तरह, कदापि आदरणीय नहीं हो सकती। उसकी शोभा, उसकी श्रीसंपन्नता, उसकी मान-मर्यादा उसके साहित्य पर ही अवलंबित रहती है। जाति विशेष के उत्कर्षापकर्ष का, उसके उच्चनीच भावों का, उसके धार्मिक विचारों और सामाजिक संघटन का उसके ऐतिहासिक घटनाचक्रों और राजनैतिक स्थितियों का प्रतिबिंब देखने को यदि कहीं मिल सकता है तो उसके ग्रंथ-साहित्य ही में मिल सकता है। सामाजिक शक्ति या सजीवता, सामाजिक अशक्ति या निर्जीवता और सामाजिक सभ्यता तथा असभ्यता का निर्णायक एकमात्र साहित्य है।
प्रश्न
- साहित्य किसे कहा जाता है?
- असभ्यता, अवलंबित शब्दों में प्रयुक्त उपसर्ग-प्रत्यय और मूलशब्द अलग-अलग करके लिखिए।
- रूपवती भिखारिन से किसकी तुलना की गई है? वह आदर का पात्र क्यों नहीं समझी जाती है।
- साहित्य किसी जाति विशेष का आइना होता है, कैसे?
- समाज के लिए साहित्य की क्या उपयोगिता है ? गद्यांश के आधार पर लिखिए।
3) मांगलिक अवसरों पर पुष्प मालाओं का महत्त्व कोई नया नहीं है। पुष्प मालाएँ उन्हें ही पहनाई जाती थीं जिन्हें सामाजिक दृष्टि से विशिष्ट या अति विशिष्ट माना जाता था। देवताओं पर पुष्प मालाएँ अर्पित करने के पीछे मनुष्य की ऐसी ही भावनाएँ थी। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है फूलों की मालाओं को धारण करना। जितना सम्मान, फूलों की माला पहनाकर, किसी अति विशिष्ट व्यक्ति को दिया जाता है उसकी सार्थकता तभी है जब वह व्यक्ति अपने गले में धारण कर उसे स्वीकार करे। यदि वह विशिष्ट व्यक्ति उसे धारण नहीं करता है तो वह अप्रत्यक्ष रूप से स्वयं उस सम्मान का तिरस्कार करता है।
इसमें न अपठित गद्यांशसिर्फ पुष्प माला पहनाने वालों का बल्कि उन फूलों का भी अपमान होता है जो उसमें गूंथे जाते हैं। वर्तमान लोक रीति में पुष्प मालाओं का ऐसा अपमान शिक्षित एवं सुसंस्कृत कहे जाने वाले वर्गों में देखा जा सकता है। किसी भी शुभ अवसर पर मुख्य अतिथि या विशिष्ट व्यक्ति को पुष्प मालाएँ पहनाई तो जाती हैं लेकिन न जाने किस कुंठा या कुसंस्कार के कारण उसे गले से निकालकर सामने टेबल पर रख देते हैं या स्वनामधन्य मंत्री अपने पी०ए० या सुरक्षाकर्मियों को सौंप देते हैं जो जाते समय या तो छोड़ जाते हैं या रास्ते में फेंक जाते हैं। पुष्पों का, पहनाने वालों का और स्वयं का वह इस प्रकार अपमान कर जाते हैं जिसमें पता चलता है कि विशिष्ट कहे जाने वाले व्यक्ति में इतनी पात्रता नहीं कि वे उस पुष्प माला को अपने गले में धारण कर सकें।
प्रश्न
- देवताओं पर फूल-मालाएँ क्यों अर्पित की जाती हैं?
- ‘मांगलिक’, ‘कुसंस्कार’ शब्दों में प्रयुक्त प्रत्यय/उपसर्ग पृथक कर मूल शब्द लिखिए।
- विशिष्ट व्यक्ति दिए गए सम्मान और फूलों को किस तरह सार्थक कर सकते हैं ?
- विशिष्ट जन अप्रत्यक्ष में किनका अपमान कर बैठते हैं और कैसे?
- वर्तमान समय में शिक्षित एवं सुसंस्कृत वर्ग फूलों का अपमान किस तरह करते दिखाई देते हैं ?
4) अपनी मृत्यु से कुछ माह पहले महात्मा गांधी ने भाषा के प्रश्न पर अपने विचार दोहराते हुए कहा था, “यह हिंदुस्तानी न तो संस्कृतनिष्ठ हिंदी होनी चाहिए और न ही फारसी निष्ठ उर्दू। यह दोनों का सुंदर मिश्रण होना चाहिए। उसे विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं से शब्द खुलकर उधार लेने चाहिए। विदेशी भाषाओं के ऐसे शब्द लेने में कोई हर्ज नहीं है जो हमारी राष्ट्रीय भाषा में अच्छी तरह और आसानी से घुल-मिल सकते हैं। इस प्रकार हमारी राष्ट्रीय भाषा एक समृद्ध और शक्तिशाली भाषा होनी चाहिए जो मानवीय विचारों और भावनाओं के पूरे समुच्चय को अभिव्यक्ति दे सके। खुद को हिंदी या उर्दू से बाँध लेना देशभक्ति की भावना और समझदारी के विरुद्ध एक अपराध होगा। (हरिजन सेवक समाज, 12 अक्टूबर, 1947)
प्रश्न
- गद्यांश में मनुष्य के किस कृत्य को अपराध कहा गया है?
- अर्थ लिखिए – हर्ज़, मिश्रण।
- गांधी जी किस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे? इस भाषा की क्या विशेषता होनी चाहिए?
- गांधी जी क्षेत्रीय और विदेशी भाषाओं से शब्द लेने के पक्षधर क्यों थे?
- राष्ट्रभाषा किसे कहते हैं ? उसकी विशेषताएँ गद्यांश के आधार पर लिखिए।
5. संसार के सभी देशों में शिक्षित व्यक्ति की सबसे पहली पहचान यह होती है कि वह अपनी मातृभाषा में दक्षता से काम कर सकता है। केवल भारत ही एक ऐसा देश है जिसमें शिक्षित व्यक्ति वह समझा जाता है जो अपनी मातृभाषा में दक्ष हो या नहीं किंतु अंग्रेजी में जिसकी दक्षता असंदिग्ध हो। संसार के अन्य देशों में सुसंस्कृत व्यक्ति वह समझा जाता है जिसके घर में अपनी भाषा की पुस्तकों का संग्रह हो और जिसे बराबर यह पता रहे कि उसकी भाषा के अच्छे लेखक और कवि कौन हैं? तथा समय-समय पर उनकी कौन-सी कृतियाँ प्रकाशित हो रही हैं? भारत में स्थिति दूसरी है। यहाँ घर में प्रायः साज-सज्जा के आधुनिक उपकरण तो होते हैं किंतु अपनी भाषा की कोई पुस्तक नहीं होती है।
यह दुरवस्था भले हो किसी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है किंतु यह सुदशा नहीं है दुरवस्था ही है। इस दृष्टि से भारतीय भाषाओं के लेखक केवल यूरोपीय और अमेरिकी लेखकों से ही हीन नहीं हैं बल्कि उनकी किस्मत चीन, जापान के लेखकों की किस्मत से भी खराब है क्योंकि इन सभी लेखकों की कृतियाँ वहाँ के अत्यंत सुशिक्षित लोग भी पढ़ते हैं। केवल हम ही नहीं हैं जिनकी पुस्तकों पर यहाँ के तथाकथित शिक्षित समुदाय की दृष्टि प्रायः नहीं पड़ती। हमारा तथाकथित उच्च शिक्षित समुदाय जो कुछ पढ़ना चाहता है, उसे अंग्रेजी में ही पढ़ लेता है। यहाँ तक उसकी कविता और उपन्यास पढ़ने की तृष्णा भी अंग्रेजी की कविता और उपन्यास पढ़कर ही समाप्त हो जाती है और उसे यह जानने की इच्छा ही नहीं होती कि शरीर से वह जिस समाज कासदस्य है उसके मनोभाव उपन्यास और काव्य में किस अदा से व्यक्त हो रहे हैं।
प्रश्न
1. हमारे देश में शिक्षित व्यक्ति की पहचान क्या है?
2. शब्दार्थ लिखिए – कृतियाँ, दक्षता।
3. भारत तथा अन्य देशों के सुसंस्कृत व्यक्तियों के मापदंड किस तरह अलग-अलग हैं ?
4. भारतीय भाषाओं के लेखकों की स्थिति चीन जापान के लेखकों से हीन क्यों है? ऐसी स्थिति का होना किसका परिणाम है?
5. भारत के तथाकथित शिक्षित समुदाय की स्थिति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
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