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CBSE Class 10 Hindi A लेखन कौशल निबंध लेखन

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CBSE Class 10 Hindi A लेखन कौशल निबंध लेखन

निबंध-लेखन – निबंध गद्य की वह विधा है जिसमें निबंधकार किसी भी विषय को अपने व्यक्तित्व का अंग बनाकर स्वतंत्र रीति से अपनी लेखनी चलाता है। निबंध दो शब्दों नि + बंध से मिलकर बना है जिसका अर्थ है भली प्रकार कसा या बँधा हुआ। इस प्रकार निबंध साहित्य की वह रचना है जिसमें लेखक अपने विचारों को पूर्णतः मौलिक रूप से इस प्रकार श्रृंखलाबद्ध करता है कि उनमें सर्वत्र तारतम्यता दिखाई दे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि “यदि गद्य कवियों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी है।”

निबंध की विशेषताएँ

  1. निबंध में विषय के अनुरूप भाषा होनी चाहिए।
  2. निबंध लिखते समय वर्तनी की शुद्धता तथा विराम चिह्नों का यथास्थान ध्यान रखना चाहिए।
  3. निबंध में वर्णित विचार एक-दूसरे से संबद्ध होने चाहिए।
  4. निबंध में विषय संबंधी सभी पत्रों पर चर्चा करनी चाहिए।
  5. सारांश में उन सभी बातों को शामिल किया जाना चाहिए जिनका वर्णन पहले हो चुका है।
  6. यदि निबंध लेखन में शब्द-सीमा दी गई है तो उसका अवश्य ध्यान रखें।

निबंध के तत्व :
निबंध के निम्नलिखित प्रमुख तत्व माने जाते हैं –

  1. विषय प्रतिपादन-निबंध में विषय के चुनाव की छूट रहती है, परंतु विषय का प्रतिपादन आवश्यक है।
  2. भाव-तत्व-भाव-तत्व होने पर ही कोई रचना निबंध की श्रेणी में आती है अन्यथा वह मात्र लेख बनकर रह जाती है।
  3. भाषा-शैली-निबंध की शैली के अनुरूप ही उसमें भाषा का प्रयोग होता है। निबंध एक शैली में भी लिखा जा सकता है तथा उसमें अनेक शैलियों का सम्मिश्रण भी हो सकता है।
  4. स्वच्छंदता-निबंध में लेखक की स्वच्छंद वृत्ति दिखाई देनी चाहिए, परंतु भौतिकता भी बनी रहनी चाहिए।
  5. व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति-निबंध में लेखक के व्यक्तित्व की झलक अवश्य होनी चाहिए।
  6. संक्षिप्तता-निबंध में सक्षिप्तता उसका अनिवार्य गुण है।

निबंध के अंग :
निबंध के मुख्य रूप से तीन अंग माने जाते हैं –

  1. भूमिका/परिचयं-यह निबंध का आरंभ होता है। इसलिए भूमिका आकर्षक होनी चाहिए जिससे पाठक पूरे निबंध को पढ़ने हेतु प्रेरित हो सके।
  2. विस्तार- भूमिका के पश्चात निबंध का विस्तार शुरू होता है। इस भाग में निबंध के विषय से संबंधित प्रत्येक पक्ष का अलग अलग अनुच्छेदों में वर्णन किया जाता है। प्रत्येक अनुच्छेद की अपने पहले तथा अगले अनुच्छेद से संबद्धता अनिवार्य है। इसके लिए विचार क्रमबद्ध होने चाहिए।
  3. उपसंहार-इस अंग के अंतर्गत निबंध में व्यक्त किए गए सभी विचारों का सारांश प्रस्तुत किया जाता है।

निबंध के प्रकार :
मुख्य रूप से निबंध के चार प्रकार माने जाते हैं –

  1. वर्णनात्मक
  2. विवरणात्मक
  3. विचारात्मक
  4. भावात्मक

1. वर्णनात्मक-वर्णनात्मक निबंध में स्थान, वस्तु, दृश्य आदि का क्रमबद्ध वर्णन किया जाता है। त्योहारों-दीवाली, रक्षाबंधन, होली तथा वर्षा ऋतु आदि पर लिखे निबंध इसी कोटि में आते हैं।

2. विवरणात्मक-विवरणात्मक निबंधों में विषय से संबंधित घटनाओं, व्यक्तियों, यात्राओं, उत्सवों आदि का विवरण प्रस्तुत किया जाता है। पं० जवाहरलाल नेहरू, रेल-यात्रा, विद्यालय का वार्षिक उत्सव आदि प्रकार के निबंध इस श्रेणी में आते हैं।

3. विचारात्मक-जिन निबंधों में किसी समस्या, विचार, मनोभाव आदि को विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया जाता है, वे विचारात्मक निबंध कहलाते हैं; जैसे-नशाखोरी, विज्ञान से लाभ-हानि आदि।

4. भावात्मक-जिन निबंधों में भाव-तत्व प्रधान होता है वे भावात्मक निबंध कहलाते हैं। परोपकार, साहस, पर उपदेश कुशल बहुतेरे आदि निबंध इसी श्रेणी में आते हैं।

निबंध लेखन करते समय ध्यान रखने योग्य कुछ आवश्यक बातें :

  1. प्रश्न-पत्र में दिए गए शब्दों की सीमा का ध्यान रखें।
  2. भाषा की शुद्धता का ध्यान रखें तथा विराम चिह्नों का यथास्थान प्रयोग करें।
  3. निबंध लेखन में मौलिकता अवश्य होनी चाहिए।
  4. विषय के अनावश्यक विस्तार से बचें।
  5. निबंध के प्रारंभ या अंत में किसी सूक्ति, उदाहरण, सुभाषित या काव्य पंक्ति के प्रयोग से निबंध आकर्षक बन जाता है।
  6. विचारों की क्रमबद्धता का ध्यान रखें।
  7. आवश्यकतानुसार मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग करें।

(1) लड़का-लड़की एक समान

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • प्राचीन काल में नारी की स्थिति
  • आधुनिक काल में नारी की स्थिति
  • उपसंहार
  • नारी में अधिक मानवीयगुण
  • मध्यकाल में नारी की स्थिति
  • नारी की स्थिति और पुरुष की सोच

प्रस्तावना – स्त्री और पुरुष जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। जीवन की गाड़ी सुचारु रूप से चलती रहे इसके लिए दोनों पहियों अर्थात स्त्री-पुरुष दोनों का बराबर का सहयोग और सामंजस्य ज़रूरी है। यदि इनमें एक भी छोटा या बड़ा हुआ तो गाड़ी सुचारु रूप से नहीं चल सकेगी। इसी तरह समाज और देश की उन्नति के लिए पुरुषों की नहीं नारियों के योगदान की भी उतनी आवश्यकता है। नारी अपना योगदान उचित रूप में दे सके इसके लिए उसे बराबरी का स्थान मिलना चाहिए तथा यह ज़रूरी है कि समाज लड़के
और लड़की में कोई भेद न करे।

नारी में अधिक मानवीय गुण – स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है। यद्यपि दोनों की शारीरिक रचना में काफ़ी अंतर है फिर भी जहाँ तक मानवीय गुणों की जहाँ तक बात है। वहाँ नारी में ही अधिक मानवीय गुण मिलते हैं। पुरुष जो स्वभाव से पुरुष होता है, उसमें त्याग, दया, ममता सहनशीलता जैसे मानवीय गुण नारी की अपेक्षा बहुत की कम होते हैं। नर जहाँ क्रोध का अवतार माना जाता है वहीं नारी वात्सल्य और प्रेम की जीती-जागती मूर्ति होती है। इस संबंध में मैथिली शरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –

एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी।

प्राचीनकाल में नारी की स्थिति-प्राचीनकाल में नर और नारी को समान अधिकार प्राप्त थे। वैदिककाल में स्त्रियों द्वारा वेद मंत्रों, ऋचाओं, श्लोकों की रचना का उल्लेख मिलता है। भारती, विज्जा, अपाला, गार्गी ऐसी ही विदुषी स्त्रियाँ थीं जिन्होंने पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ कर उनके छक्के छुड़ाए थे। उस काल में नारी को सहधर्मिणी, गृहलक्ष्मी और अर्धांगिनी जैसे शब्दों से विभूषित किया जाता था। समाज में नारी को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।

मध्यकाल में नारी की स्थिति – मध्यकाल तक आते-आते नारी की स्थिति में गिरावट आने लगी। मुसलमानों के आक्रमण के कारण नारी को चार दीवारी में कैद होना पड़ा। मुगलकाल में नारियों का सम्मान और भी छिन गया। वह पर्दे में रहने को विवश कर दी गई। इस काल में उसे पुरुषों की दासी बनने को विवश किया गया। उसकी शिक्षा-दीक्षा पर रोक लगाकर उसे चूल्हे-चौके तक सीमित कर दिया गया। पुरुषों की दासता और बच्चों का पालन-पोषण यही नारी के हिस्से में रह गया। नारी को अवगुणों का भंडार समझ लिया गया। तुलसी जैसे महाकवि ने भी न जाने क्या देखकर लिखा –

ढोल गँवार शूद्र पशु नारी।
ये सब ताड़न के अधिकारी॥

आधुनिक काल में नारी की स्थिति- अंग्रेजों के शासन के समय तक नारी की स्थिति में सुधार की बात उठने लगे। सावित्री बाई फले जैसी महिलाएँ आगे आईं और नारी शिक्षा की दिशा में कदम बढ़ाया। इसी समय राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी आदि ने सती प्रथा बंद करवाने, संपत्ति में अधिकार दिलाने, सामाजिक सम्मान दिलाने, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि की दिशा में ठोस कदम उठाए, क्योंकि इन लोगों ने नारी की पीड़ा को समझा। जयशंकार प्रसाद ने नारियों की स्थिति देखकर लिखा –

नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में॥

एक अन्य स्थान पर लिखा गया है –

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी॥

स्वतंत्रता के बाद नारी शिक्षा की दिशा में ठोस कदम उठाए गए। उनके अधिकारों के लिए कानून बनाए गए। शिक्षा के कारण पुरुषों के दृष्टिकोण में भी बदलाव आया। इससे नारी की स्थिति दिनोंदिन सुधरती गई। वर्तमान में नारी की स्थिति पुरुषों के समान मज़बूत है। वह हर कदम पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। शिक्षा, चिकित्सा, उड्डयन, राजनीति जैसे क्षेत्र अब उसकी पहुँच में है।

नारी की स्थिति और पुरुष की सोच – समाज में जैसे-जैसे पुरुषों की सोच में बदलाव आया, नारी की स्थिति में बदलाव आता गया। कुछ समय पूर्व तक कन्याओं को माता-पिता और समाज बोझ समझता था। वह भ्रूण (कन्या) हत्या के द्वारा अजन्मी कन्याओं के बोझ से छुटकारा पा लेता था। यह स्थिति सामाजिक समानता और लिंगानुपात के लिए खतरनाक होती जा रही थी, पर सरकारी प्रयास और पुरुषों की सोच में बदलाव के कारण अब स्थिति बदल गई है। लोग अब लड़कियों को बोझ नहीं समझते हैं। पहले जहाँ लड़कों के जन्म पर खुशी मनाई जाती थी वहीं अब लड़की का जन्मदिन भी धूमधाम से मनाया जाने लगा है। हमारे संविधान में भी स्त्री-पुरुष को समानता का दर्जा दिया गया है, पर अभी भी समाज को अपनी सोच में उदारता लाने की ज़रूरत है।

उपसंहार – घर-परिवार, समाज और राष्ट्र की प्रगति की कल्पना नारी के योगदान के बिना सोचना हवा-हवाई बातें रह जाएँगी। अब समाज को पुरुष प्रधान सोच में बदलाव लाते हुए महिलाओं को बराबरी का सम्मान देना चाहिए। इसके लिए ‘लड़का-लड़की एक समान’ की सोच पैदा कर व्यवहार में लाने की शुरुआत कर देना चाहिए।

(2) विपति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • आदर्श मित्रता के उदाहरण
  • सच्चे मित्र के गुण
  • उपसंहार
  • मित्र की आवश्यकता
  • छात्रावस्था में मित्रता
  • मित्रता का निर्वहन

प्रस्तावना – मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसके जीवन में सुख-दुख का आना-जाना लगा रहता है। उसके अलावा दिन-प्रतिदिन की समस्याएँ उसे तनावग्रस्त करती हैं। इससे मुक्ति पाने के लिए वह अपने मन की बातें किसी से कहना-सुनना चाहता है। ऐसे में उसे अत्यंत निकटस्थ व्यक्ति की ज़रूरत महसूस होती है। इस ज़रूरत को मित्र ही पूरी कर सकता है। मनुष्य को मित्र की आवश्यकता सदा से रही है और आजीवन रहेगी।

मित्र की आवश्यकता – जीवन में मित्र की आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति को पड़ती है। एक सच्चा मित्र औषधि के समान होता है जो व्यक्ति की बुराइयों को दूर कर उसे अच्छाइयों की ओर ले जाता है। मित्र ही सुख-दुख के वक्त साथ देता है। वास्तव में मित्र के बिना सुख की कल्पना नहीं की जा सकती है, क्योंकि

अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥

आदर्श मित्रता के उदाहरण – इतिहास में अनेक उदाहरण भरे हैं जिनसे मित्रता करने और उसे निभाने की सीख मिलती है। वास्तव में मित्र बनाना तो सरल है पर उसे निभाना अत्यंत कठिन है। देखा गया है कि आर्थिक समानता न होने पर भी दो मित्रों की मित्रता आदर्श बन गई, जिसकी सराहना इतिहास भी करता है। राणाप्रताप और भामाशाह की मित्रता, कृष्ण और अर्जुन की मित्रता, राम और सुग्रीव की मित्रता, दुर्योधन और कर्ण की मित्रता कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं। इनकी मित्रता से हमें प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि इन मित्रों के बीच स्वार्थ आड़े नहीं आया।

छात्रावस्था में मित्रता – ऐसा देखा जाता है कि छात्रावस्था या युवावस्था में मित्र बनाने की धुन सवार रहती है। बस एक दो-बार किसी से बातें किया, साथ-साथ नाश्ता किया, फ़िल्म देखी, हँसमुख चेहरा देखा, अपनी बात में हाँ में हाँ मिलाते देखा और मित्र बना लिया पर ऐसे मित्र जितनी जल्दी बनते हैं, संकट देख उतनी ही जल्दी साथ छोड़कर दूर भी हो जाते हैं। ऐसे ही मित्रों की तुलना जल से करते हुए रहीम ने कहा है –

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़ति छोह ॥

सच्चे मित्र के गुण-जीवन में सच्चे मित्र का बहुत महत्त्व है। एक सच्चे मित्र का साथ व्यक्ति को उन्नति के पथ पर ले जाता है और बुरे व्यक्ति का साथ पतन की ओर अग्रसर करता है। सच्चा मित्र जहाँ व्यक्ति को अवगुणों से बचाकर सदगुणों की ओर ले जाता है वहीं कपटी मित्र हमारे पैरों में बँधी चक्की के समान होता है जो हमें पीछे खींचता रहता है। यदि हमारा कोई मित्र जुआरी या शराबी निकला तो उसका प्रभाव एक न एक दिन हम पर अवश्य पड़ना है। इसके विपरीत सच्चा मित्र सुमार्ग पर ले जाता है। वह मित्र के सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझकर सच्ची सहानुभूति रखता है और दुख से उबारने का हर संभव प्रयास करता है। ऐसे मित्रों के बारे कवि तुलसीदास ने लिखा है –

जे न मित्र दुख होय दुखारी।
तिनहिं विलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज कर जाना।
मित्रक दुख रज मेरु समाना।

सच्चा मित्र अपने मित्र को कुसंगति से बचाकर सन्मार्ग पर ले जाता है और उसके गुणों को प्रकटकर सबके सामने लाता है। मित्रता का निर्वहन-मित्रता के लिए यह माना जाता है कि उनमें आर्थिक समानता होनी चाहिए पर यदि सच्ची मित्रता है तो दो मित्रों के बीच धन, स्वभाव और आचरण की समानता न होने पर भी मित्रता का निर्वाह हुआ है। सच्चे मित्र अपने बीच अमीरी गरीबी को आड़े नहीं आने देते हैं। कृष्ण-सुदामा की मित्रता का उदाहरण सामने है। उनकी हैसियत में ज़मीन-आसमान का अंतर था पर उनकी मित्रता का उदाहरण दिया जाता है।

इसी प्रकार अकबर-बीरबल, कृष्णदेवराय और तेनालीरामन की मित्रता का उदाहरण हमारे सामने है। उपसंहार-मित्रता अनमोल वस्तु है जो जीवन में कदम-कदम पर काम आती है। एक सच्चा मित्र मिल जाना गर्व एवं सौभाग्य की बात है। जिसे सच्चा मित्र मिल जाए, उसे सुख का खज़ाना मिल जाता है। हमें मित्र बनाने में सावधानी बरतना चाहिए। एक सच्चा मित्र मिल जाने पर मित्रता का निर्वहन करना चाहिए। सच्चे मित्र के रूठने पर उसे तुरंत मना लेना चाहिए। हमें भी मित्र के गुण बनाए रखना चाहिए, क्योंकि –

विपति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत।

(3) डॉ० ए०पी०जे० अब्दुल कलाम

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • शिक्षा-दीक्षा
  • राष्ट्रपति डॉ कलाम
  • सादा जीवन उच्च विचार निबंध-लेखन
  • जीवन-परिचय
  • मिसाइल मैन डॉ० कलाम
  • सम्मान एवं अलंकरण
  • उपसंहार

प्रस्तावना – भारत भूमि ऋषियों-मुनियों और अनेक कर्मवीरों की जन्मदात्री है। यहाँ अनेक महापुरुष पैदा हुए हैं तो देश का नाम शिखर तक ले जाने वाले वैज्ञानिक भी हुए हैं। इन्हीं में एक जाना-पहचाना नाम है- डॉ० ए०पा. ने० अब्दुल कलाम का जिन्होंने दो रूपों में राष्ट्र की सेवा की। एक तो वैज्ञानिक के रूप में और दूसरे राष्ट्रपति के रूप में। देश उन्हें मिसाइल मैन के नाम से जानता-पहचानता है।

जीवन-परिचय – डॉ० कलाम का जन्म 15 अक्टूबर, 1931 को तमिलनाडु राज्य के रामेश्वरम् नामक कस्बे में हुआ था। इनके पिता का नाम जैनुलाबदीन और माता का नाम अशियम्मा था। इनके पिता पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय व्यक्ति थे जो बहुत धनी न थे। इनकी माता आदर्श महिला थीं। इनके पिता और रामेश्वरम मंदिर के पुजारी में गहरी मित्रता थी, जिसका असर कलाम के जीवन पर भी पड़ा। इनके पिता रामेश्वरम् से धनुषकोडि तक आने-जाने के लिए तीर्थयात्रियों के लिए नौकाएँ बनवाने का कार्य किया करते थे।

शिक्षा-दीक्षा – डॉ० कलाम की प्रारंभिक शिक्षा तमिलनाडु में हुई। इसके बाद वे रामनाथपुरम् के श्वार्ज़ हाई स्कूल में भर्ती हुए। हायर सेकंडी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पूरी करने के बाद इंटर की पढ़ाई के लिए सेंट जोसेफ कॉलेज में प्रवेश लिया। यहाँ चार साल तक पढ़ाई करने और बी०एस०सी० प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने ‘हिंदू पत्रिका’ में विज्ञान से संबंधित लेख-लिखने लगे। उन्होंने एअरोनॉटिक्स इंजीनियरिंग में डिप्लोमा भी किया।

मिसाइल मैन डॉ० कलाम – डॉ० कलाम को अपने कैरियर की चिंता हुई। वे भारतीय वायुसेना में पायलट पद के लिए चुने गए पर साक्षात्कार में असफल रहे। इसके बाद वे वर्ष 1958 में रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन से जुड़ गए। उनकी पहली नियुक्ति हैदराबाद में हुई। वहाँ वे पाँच वर्षों तक अनुसंधान सहायक के रूप में कार्य करते रहे। उन्होंने यहाँ वर्ष 1980 तक कार्य किया और अंतरिक्ष विज्ञान को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग अनुसंधान को समर्पित कर दिया। परमाणु क्षेत्र में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता है। उनके नेतृत्व में 1 मई, 1998 का प्रसिद्ध पोखरण परीक्षण किया गया। मिसाइल कार्यक्रम को नई ऊँचाई तक ले जाने के कारण उन्हें मिसाइल मैन कहा जाता है।

राष्ट्रपति डॉ० कलाम – भारत के गणराज्य में 25 जुलाई, 2002 को वह सुनहरा दिन आया, जब मिसाइल मैन के नाम से मशहूर डॉ० कलाम ने राष्ट्रपति का पद सुशोभित किया और इसी दिन पद एवं गोपनीयता की शपथ ली। यद्यपि उनका संबंध राजनीति की दुनिया से कोसों दूर था फिर भी संयोग और भाग्य के मेल से उन्होंने भारत के बारहवें राष्ट्रपति के रूप में इस पद को सुशोभित किया। उन्होंने राष्ट्रपति पद पर रहते हुए निष्पक्षता और पूरी निष्ठा से कार्य किया।

सम्मान एवं अलंकरण – डॉ० कलाम ने जिस परिश्रम से परमाणु एवं अंतरिक्ष कार्यक्रम को नई ऊँचाई तक पहुँचाया उसके लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित एवं अलंकृत किया गया। उन्हें वर्ष 1981 में पद्म विभूषण एवं वर्ष 1990 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया। ‘भारत रत्न’ से सम्मानित होने वाले वे देश के तीसरे वैज्ञानिक हैं।

सादा जीवन उच्च विचार – डॉ० कलाम पर गांधी जी के विचारों का प्रभाव था। वे सादगीपूर्वक रहते थे। उनके विचार अत्यंत उच्च कोटि के थे। वे बच्चों से लगाव रखते थे। वे विभिन्न स्कूलों में जाकर बच्चों का उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करते थे। वे आज का काम आज निपटाने में विश्वास रखते थे। बच्चों को प्यार करने वाले डॉ० कलाम की मृत्यु भी बच्चों के बीच सन् 2015 में उस समय हुई जब वे उनके बीच अपने अनुभव बाँट रहे थे।

उपसंहार – डॉ० कलाम अत्यंत निराभिमानी व्यक्ति थे। वे परिश्रमी और कर्तव्यनिष्ठ थे। एक वैज्ञानिक होने के साथ ही उन्होंने मिसाइल कार्यक्रम को नई ऊँचाई पर पहुँचाया तो राष्ट्रपति रहते हुए उन्होंने देश की प्रगति में भरपूर योगदान दिया। उनका जीवन हम भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत है।

(4) क्रिकेट का नया प्रारूप-ट्वेंटी-ट्वेंटी

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • टेस्ट क्रिकेट –
  • टी-ट्वेंटी प्रारूप
  • उपसंहार
  • क्रिकेट के विभिन्न प्रारूप
  • एक दिवसीय क्रिकेट
  • टी-ट्वेंटी का रोमांच एवं सफलता

प्रस्तावना-यूँ तो मनुष्य का खेलों से बहुत ही पुराना नाता है, पर मनुष्य ने शायद ही कभी यह सोचा हो कि ये खेल एक दिन उसे यश, धन और प्रतिष्ठा दिलाने का साधन सिद्ध होंगे। जिन खेलों को वह मात्र मनोरंजन के लिए खेला करता था, वही खेल अब खराब नहीं नवाब बना रहे हैं। खेलों में आज लोकप्रियता के शिखर पर क्रिकेट का स्थान है। इसकी लोकप्रियता के कारण आज हर बच्चा क्रिकेट का खिलाड़ी बनना चाहता है। वर्तमान में क्रिकेट का ट्वेंटी-ट्वेंटी रूप बहुत ही लोकप्रिय है।

क्रिकेट के विभिन्न प्रारूप – भारत में क्रिकेट की शुरुआत अंग्रेज़ों के समय हुई। अंग्रेज़ों का यह राष्ट्रीय खेल था, जिसे वे अपने साथ यहाँ लाए। कालांतर में यह विभिन्न देशों में फैला। उस समय क्रिकेट को मुख्यतया टेस्ट क्रिकेट के रूप में खेलते थे। समय की व्यस्तता और रुचि में आए बदलाव के साथ ही क्रिकेट का प्रारूप बदलता गया। एक दिवसीय क्रिकेट और टी-ट्वेंटी इसका लोकप्रिय रूप है।

टेस्ट क्रिकेट – टेस्ट क्रिकेट पाँच दिनों तक खेला जाने वाला रूप है। इसमें पाँचों दिन 90-90 ओवर की प्रतिदिन गेंदबाजी की जाती है। दोनों टीमें दो-दो बार बल्लेबाज़ी करती हैं। विपक्षी टीम को दोबार आल आउट करना होता है। ऐसा ही दूसरी टीम करती है, परंतु प्राय; पाँच दिन तक मैच चलने के बाद भी खेल का परिणाम नहीं निकलता है और मैच ड्रा कर दिया जाता है। यह प्रारूप धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता खोता जा रहा है।

एक दिवसीय क्रिकेट – यह क्रिकेट का दूसरा प्रारूप है, जिसे एक दिन में एक सौ ओवर अर्थात छह सौ आधिकारिक गेंदें खेलकर पूरा किया जाता है। प्रत्येक टीम 50-50 ओवर खेलती है। पहले बल्लेबाज़ी करने वाली टीम जितने रन बनाती है उससे एक रन अधिक बनाकर दूसरी टीम को मैच जीतना होता है। जो टीम ऐसा कर पाती है, वही विजयी होती है। यह क्रिकेट का बेहद रोमांचक प्रारूप है, जिसे दर्शक खूब पसंद करते हैं। एक ही दिन में प्रायः मैच का परिणाम निकलने और पूरा हो जाने के कारण क्रिकेट स्टेडियमों में दर्शकों की भीड़ देखने लायक होती है।

टी-ट्वेंटी प्रारूप- यह क्रिकेट का सर्वाधिक लोकप्रिय प्रारूप है जिसे चालीस ओवरों में पूरा कर लिया जाता है। प्रत्येक टीम बीस- . बीस ओवर खेलती है। इधर सात-आठ साल पहले ही शुरू हुए उस प्रारूप को फटाफट क्रिकेट कहा जाता है जिसकी लोकप्रियता ने अन्य प्रारूपों को पीछे छोड़ दिया है। यह प्रारूप अधिक रोमांचक एवं मनोरंजक है।

इसे देखकर दर्शकों का पूरा पैसा वसूल हो जाता है। यह क्रिकेट सामान्यतया सायं चार बजे के बाद ही शुरू होता है और आठ-साढ़े आठ बजे तक खत्म हो जाता है। इसमें परिणाम और मनोरंजन के लिए दर्शकों को पूरे दिन स्टेडियम में नहीं बैठना पड़ता है। भारत में शुरू हुई आई०पी०एल० लीग में इसी प्रारूप से खेला जाता है जो भविष्य के खिलाड़ियों के लिए एक नया प्लेटफॉर्म तथा नवोदित खिलाड़ियों के लिए कमाई का साधन बन गया है। अब तो आलम यह है कि इस प्रारूप में चार सौ से अधिक रन तक बन जाते हैं।

टी-ट्वेंटी का रोमांच एवं सफलता-क्रिकेट का यह नया प्रारूप अत्यंत रोमांचक है। 20 ओवरों के मैच में 200 से अधिक रन बन जाते हैं। ट्वेंटी-ट्वेंटी प्रारूप का रोमांच तब देखने को मिला जब युवराज ने अंग्रेज़ गेंदबाज़ किस ब्राड के एक ही ओवर में छह छक्कों को दर्शकों के बीच पहुँचा दिया। ताबड़तोड़ बल्लेबाज़ी ही इस प्रारूप की सफलता का रहस्य है। उपसंहार- हमारे देश में क्रिकेट अत्यंत लोकप्रिय है। खेल के इस नए प्रारूप ने इसे और भी लोकप्रिय बना दिया है। आस्ट्रेलियाई गेंदबाज़ शेनवान और सचिन तेंदुलकर की रिटायर्ड खिलाड़ियों की टीमों ने अमेरिका में तीन मैचों की सीरीज खेलकर दर्शकों की खूब वाह-वाही लूटी। क्रिकेट का यह नया प्रारूप टी-ट्वेंटी दिनोंदिन लोकप्रिय होता जा रहा है।

(5) अनुशासन की समस्या

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • छात्र और अनुशासन
  • अनुशासनहीनता के कारण
  • उपसंहार
  • अनुशासन की आवश्यकता
  • प्रकृति में अनुशासन
  • समाधान हेतु सुझाव

उपसंहार प्रस्तावना-‘शासन’ शब्द में ‘अनु’ उपसर्ग लगाने से अनुशासन शब्द बना है, जिसका अर्थ है- शासन के पीछे अनुगमन करना, शासन के पीछे चलना अर्थात समाज और राष्ट्र द्वारा बनाए गए नियमों का पालन करते हुए मर्यादित आचरण करना अनुशासन कहलाता है। अनुशासन का पालन करने वाले लोग ही समाज और राष्ट्र को उन्नति के पथ पर ले जाते हैं। इसी तरह अनुशासनहीन नागरिक ही किसी राष्ट्र के पतन का कारण बनते हैं।

अनुशासन की आवश्यकता- अनुशासन की आवश्यकता सभी उम्र के लोगों को जीवन में कदम-कदम पर होती है। छात्र जीवन, मानवजीवन की रीढ़ होता है। इस काल में सीखा हुआ ज्ञान और अपनाई हुई आदतें जीवन भर काम आती हैं। इस कारण छात्र जीवन में अनुशासन की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है। अनुशासन के अभाव में छात्र प्रकृति प्रदत्त शक्तियों का न तो प्रयोग कर सकता है और न ही विद्यार्जन के अपने दायित्व का भली प्रकार निर्वाह कर सकता है। छात्र ही किसी देश का भविष्य होते हैं, अतः छात्रों का अनुशासनबद्ध रहना समाज और राष्ट्र के हित में होता है।

छात्र और अनुशासन – कुछ तो सरकारी नीतियाँ छात्रों को अनुशासनविमुख बना रही हैं और कुछ दिन-प्रतिदिन मानवीय मूल्यों में आती गिरावट छात्रों को अनुशासनहीन बना रही है। आठवीं कक्षा तक अनिवार्य रूप से उत्तीर्ण कर अगली कक्षा में भेजने की नीति के कारण छात्र पढ़ाई के अलावा अनुशासन से भी दूरी बना रहे हैं। इसके अलावा अनुशासन के मायने बदलने से भी छात्रों में अब पहले जैसा अनुशासन नहीं दिखता है। इस कारण प्रायः स्कूलों और कॉलेजों में हड़ताल, तोड़-फोड़, बात-बात पर रेल की पटरियों और सड़कों को बाधित कर यातायात रोकने का प्रयास करना आमबात होती जा रही है। छात्रों में मानवीय मूल्यों की कमी कल के समाज के लिए चिंता का विषय बनती जा रही है।

प्रकृति में अनुशासन-हम जिधर भी आँख उठाकर देखें, प्रकृति में उधर ही अनुशासन नज़र आता है। सूरज का प्रातःकाल उगना और सायंकाल छिपना न हीं भूलता। चंद्रमा अनुशासनबद्ध तरीके से पंद्रह दिनों में अपना पूर्ण आकार बिखेरता है और नियमानुसार अपनी चाँदनी लुटाना नहीं भूलता। तारे रात होते ही आकाश में दीप जलाना नहीं भूलते हैं। बादल समय पर वर्षा लाना नहीं भूलते तथा पेड़-पौधे समय आने पर फल-फूल देना नहीं भूलते हैं। इसी प्रकार प्रातः होने का अनुमान लगते ही मुर्गा हमें जगाना नहीं भूलता है। वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत, वसंत, ग्रीष्म ऋतुएँ बारी-बारी से आकर अपना सौंदर्य बिखराना नहीं भूलती हैं। इसी प्रकार धरती भी फ़सलों के रूप में हमें उपहार देना नहीं भूलती। प्रकृति के सारे क्रियाकलाप हमें अनुशासनबद्ध जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं।

अनुशासनहीनता के कारण- छात्रों में अनुशासनहीनता का मुख्य कारण दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली है। यह प्रणाली रटने पर बल देती है। दस, बारह और पंद्रह साल तक शिक्षार्जन से प्राप्त डिग्रियाँ लेकर भी किसी कार्य में निपुण नहीं होता है। यह शिक्षा क्लर्क पैदा करती है। नैतिक शिक्षा और मानवीय मूल्यों के लिए शिक्षा में कोई स्थान नहीं है। छात्र भी ‘येनकेन प्रकारेण’ परीक्षा पास करना अपना कर्तव्य समझने लगे हैं।

अनुशासनहीनता का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण है- शिक्षकों द्वारा अपने दायित्व का सही ढंग से निर्वाह न करना। अब वे शिक्षक नहीं रहे जिनके बारे में यह कहा जाए –

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागौ पाँय।
बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोविंद दियो बताय॥

समाधान हेतु सुझाव-छात्रों में अनुशासनहीनता दूर करने के लिए सर्वप्रथम शिक्षा की प्रणाली और गुणवत्ता में सुधार किया जाना चाहिए। शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाया जाना चाहिए। शिक्षण की नई-नई तकनीक और विधियों को कक्षा कक्ष तक पहुँचाया जाना चाहिए। छात्रों के लिए खेलकूद और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इसके अलावा परीक्षा प्रणाली में सुधार करना चाहिए। छात्रों को नैतिक मूल्यपरक शिक्षा दी जानी चाहिए तथा अध्यापकों को अपने पढ़ाने का तरीका रोचक बनाना चाहिए।

उपसंहार- अनुशासनहीनता मनुष्य को विनाश के पथ पर अग्रसर करती है। छात्रों पर ही देश का भविष्य टिका है, अत: उन्हें अनुशासनप्रिय बनाया जाना चाहिए। हमें अनुशासन का पालन करने के लिए प्रकृति से सीख लेनी चाहिए।

(6) भ्रष्टाचार 

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • भ्रष्टाचार के कारण
  • उपसंहार
  • भ्रष्टाचार के विविध क्षेत्र एवं रूप
  • भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय

प्रस्तावना – भ्रष्टाचार दो शब्दों ‘भ्रष्ट’ और ‘आचार’ के मेल से बना है। ‘भ्रष्ट’ का अर्थ है- विचलित या अपने स्थान से गिरा हुआ तथा ‘आचार’ का अर्थ है-आचरण या व्यवहार अर्थात किसी व्यक्ति द्वारा अपनी गरिमा से गिरकर कर्तव्यों के विपरीत किया गया आचरण भ्रष्टाचार है। यह भ्रष्टाचार हमें विभिन्न स्थानों पर दिखाई देता है जिससे जन साधारण को दो-चार होना पड़ता है। आज लोक सेवक की परिधि में आने वाले विभिन्न कर्मचारी जैसे कि बाबू, अधिकारी आदि इसे बढ़ाने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उत्तरदायी हैं।

भ्रष्टाचार के विविधि क्षेत्र एवं रूप – भ्रष्टाचार का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है। इसकी परिधि में विभिन्न सरकारी और अर्धसरकारी कार्यालय, राशन की सरकारी दुकानें, थाने और तरह-तरह की सरकारी अर्धसरकारी संस्थाएँ आती हैं। यहाँ नियुक्त बाबू व अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी, एजेंट, चपरासी, नेता आदि जनसाधारण का विभिन्न रूपों में शोषण करते हैं। इन कार्यालयों में कुछ लिए दिए बिना काम करवाना टेढ़ी खीर साबित होता है। लोगों के काम में तरह-तरह के अड़गे लगाए जाते हैं और सुविधा शुल्क लिए बिना काम नहीं होता है। भ्रष्टाचार के बाज़ार में यदि व्यक्ति के पास पैसा हो तो वह किसी को भी खरीद सकता है। यहाँ हर एक बिकने को तैयार है। बस कीमत अलग-अलग है। यह कीमत काम के अनुसार तय होती है। जैसा काम वैसा दाम। काम की जल्दबाज़ी और व्यक्ति की विवशता दाम बढ़ा देती है।

भ्रष्टाचार के विविध रूप हैं। इसका सबसे प्रचलित और जाना-पहचाना नाम और रूप है-रिश्वत। यह रिश्वत नकद, उपहार, सुविधा आदि रूपों में ली जाती है। आम बोलचाल में इसे घूस या सुविधा शुल्क के नाम से भी जाना जाता है। लोग चप्पलें घिसने से बचाने, समय नष्ट न करने तथा मानसिक परेशानी से बचने के लिए स्वेच्छा या मज़बूरी में रिश्वत देने के लिए तैयार हो जाते हैं।

भ्रष्टाचार का दूसरा रूप भाई-भतीजावाद के रूप में देखा जाता है। सक्षम अधिकारी अपने पद का दुरुपयोग करते हुए अपने चहेतों, रिश्तेदारों और सगे-संबंधियों को कोई सुविधा, लाभ या नौकरी देने के अलावा अन्य लाभ पहुँचाना भाई-भतीजावाद कहलाता है। ऐसा करने और कराने में आज के नेताओं को सबसे आगे रखा जा सकता है। इससे योग्य व्यक्तियों की अनदेखी होती है और वे लाभ पाने से वंचित रह जाते हैं।

कमीशनखोरी भी भ्रष्टाचार का अन्य रूप है। सरकारी परियोजनाओं, भवनों तथा अन्य सेवाओं का काम तो कमीशन दिए बिना मिल ही नहीं सकता है। जो जितना अधिक कमीशन देता है, काम का ठेका उसे मिलने की संभावना उतनी ही प्रबल हो जाती है। इन ठेकों और बड़े ठेकों में करोड़ों के वारे-न्यारे होते हैं। बोफोर्स घोटाला, बिहार का चारा घोटाला, टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमन वेल्थ घोटाला, मुंबई का आदर्श सोसायटी घोटाला तो मात्र कुछ नमूने हैं।

भ्रष्टाचार के कारण – समाज में दिन-प्रतिदिन भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ता ही जा रहा है। इसके अनेक कारण हैं। भ्रष्टाचार के कारणों में महँगी होती शिक्षा और अनुचित तरीके से उत्तीर्ण होना है। जो छात्र महँगी शिक्षा प्राप्त कर नौकरियों में आते हैं, वे रिश्वत लेकर पिछले खर्च को पूरा कर लेना चाहते हैं। एक बार यह आदत पड़ जाने पर फिर आजीवन नहीं छूटती है। इसका अगला कारण हमारी लचर न्याय व्यवस्था है जिसमें पकड़े जाने पर कड़ी कार्यवाही न होने से दोषी व्यक्ति बच निकलता है और मुकदमे आदि में हुए खर्च को वसूलने के लिए रिश्वत की दर बढ़ा देता है। उसके अलावा लोगों में विलासितापूर्ण जीवनशैली दिखावे की प्रवृत्ति, जीवन मूल्यों का ह्रास और लोगों का चारित्रिक पतन भी भ्रष्टाचार बढ़ाने के लिए उत्तरदायी हैं।

भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय – आज भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि इसे समूल नष्ट करना संभव नहीं है, फिर भी कठोर कदम उठाकर इस पर किसी सीमा तक अंकुश लगाया जा सकता है। भ्रष्टाचार रोकने का सबसे ठोस कदम है-जनांदोलन द्वारा जन जागरूकता फैलाना। समाज सेवी अन्ना हजारे और दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल द्वारा उठाए गए ठोस कदमों से इस दिशा में काफ़ी सफलता मिली है। इसके अलावा इसे रोकने के लिए कठोर कानून बनाने की आवश्यकता है ताकि एक बार पकड़े जाने पर रिश्वतखोर किसी भी दशा में लचर कानून का फायदा उठाकर छूट न जाए।

उपसंहार- भ्रष्टाचार हमारे समाज में लगा धुन है जो देश की प्रगति के लिए बाधक है। इसे समूल उखाड़ फेंकने के लिए युवाओं को आगे आना चाहिए तथा रिश्वत न लेने-देने के लिए प्रतिज्ञा करनी चाहिए। इसके अलावा लोगों को चारित्रिक बल एवं जीवनमूल्यों का ह्रास रोकते हुए रिश्वत नहीं लेना चाहिए। आइए हम सभी रिश्वत न लेने-देने की प्रतिज्ञा करते हैं।

(7) मनोरंजन के विभिन्न साधन

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • मनोरंजन की आवश्यकता और उसका महत्त्व
  • प्राचीन काल के मनोरंजन के साधन
  • आधुनिक काल के मनोरंजन के साधन
  • भारत में मनोरंजन के साधनों की स्थिति
  • उपसंहार

प्रस्तावना – मनुष्य को अपनी अनेक तरह की आवश्यकताओं के लिए श्रम करना पड़ता है। श्रम के उपरांत थकान होना स्वाभाविक है। इसके अलावा जीवन संघर्ष और चिंताओं से परेशान होने पर वह इन्हें भूलना चाहता है और इनसे मुक्ति पाने का उपाय खोजता है और वह मनोरंजन का सहारा लेता है। मनोरंज से थके हुए मन-मस्तिष्क को सहारा मिलता है, एक नई स्फूर्ति मिलती है और कुछ पल के लिए व्यक्ति थकान एवं चिंता को भूल जाता है।

मनोरंजन की आवश्यकता और उसका महत्त्व – आदिम काल से ही मनुष्य को मनोरंजन की आवश्यकता रही है। जीवन संघर्ष से थका मानव ऐसा साधन ढूँढ़ना चाहता है जिससे उसका तन-मन दोनों ही प्रफुल्लित हो जाए और वह नव स्फूर्ति से भरकर कार्य में लग सके। वास्तव में मनोरंजन के बिना जीवन नीरस हो जाता है। ऐसी स्थिति में काम में उसका मन नहीं लगता है और न व्यक्ति को कार्य में वांछित सफलता मिलती है। ऐसे में मनोरंजन की आवश्यकता असंदिग्ध हो जाती है।

प्राचीन काल में मनोरंजन के साधन – प्राचीनकाल में न मनुष्य का इतना विकास हुआ था और न मनोरंजन के साधनों का। वह प्रकृति और जानवरों के अधिक निकट रहता था। ऐसे में उसके मनोरंजन के साधन भी प्रकृति और इन्हीं पालतू जानवरों के इर्द-गिर्द हुआ करते थे। वह तोता, मैना, तीतर, कुत्ता, भेड़, बैल, बिल्ली, कबूतर आदि पशु-पक्षी पालता था और तीतर, मुर्गे, भेड़ (नर) भैंसे, साँड़ आदि को लड़ाकर अपना मनोरंजन किया करता था। वह शिकार करके भी मनोरंजन किया करता था। इसके अलावा कुश्ती लड़कर, नाटक, नौटंकी, सर्कस आदि के माध्यम से मनोरंजन करता था। इसके अलावा पर्व-त्योहार तथा अन्य आयोजनों के मौके पर वह गाने-बजाने तथा नाचने के द्वारा आनंदित होता था।

आधुनिक काल के मनोरंजन के साधन-सभ्यता के विकास एवं विज्ञान की अद्भुत खोजों के कारण मनोरंजन का क्षेत्र भी अछूता न रह सका। प्राचीन काल की नौटंकी, नाच-गान की अन्य विधाओं का उत्कृष्ट रूप हमारे सामने आया। इससे नाटक के मंचन की व्यवस्था एवं प्रस्तुति में बदलाव के कारण नाटकों का आकर्षण बढ़ गया। पार्श्वगायन के कारण अब नाटक भी अपना मौलिक रूप कायम नहीं रख सके पर दर्शकों को आकर्षित करने में नाटक सफल हैं। लोग थियेटरों में इनसे भरपूर मनोरंजन करते हैं। सिनेमा आधुनिक काल का सर्वाधिक सशक्त और लोकप्रिय मनोरंजन का साधन है। यह हर आयु-वर्ग के लोगों की पहली पसंद है। यह सस्ता और सर्वसुलभ होने के अलावा ऐसा साधन है जो काल्पनिक घटनाओं को वास्तविक रूप में चमत्कारिक ढंग से प्रस्तुत करता है जिसका जादू-सा असर हमारे मन-मस्तिष्क पर छा जाता है और हम एक अलग दुनिया में खो जाते हैं। इस पर दिखाई जाने वाली फ़िल्में हमें कल्पनालोक में ले जाती हैं।

रेडियो और टेलीविज़न भी वर्तमान युग के मनोरंजन के लोकप्रिय साधन है। रेडियो पर गीत-संगीत, कहानी, चुटकुले, वार्ता आदि सनकर लोग अपना मनोरंजन करते हैं तो टेलीविज़न पर दुनिया को किसी कोने की घटनाएँ एवं ताज़े समाचार मनोरंजन के अलावा ज्ञानवर्धन भी करते हैं। तरह-तरह के धारावाहिक, फ़िल्में, कार्टून, खेल आदि देखकर लोग अपने दिनभर की थकान भूल जाते हैं। मोबाइल फ़ोन भी मनोरंजन का लोकप्रिय साधन सिद्ध हुआ है। इस पर एफ०एम० के विभिन्न चैनलों से तथा मेमोरी कार्ड में संचित गाने इच्छानुसार सुने जा सकते हैं। अकेला होते ही लोग इस पर गेम खेलना शुरू कर देते हैं। कैमरे के प्रयोग से मोबाइल की दुनिया में क्रांति आ गई। अब तो इससे रिकार्डिंग एवं फ़ोटोग्राफी करके मनोरंजन किया जाने लगा है।

इन साधनों के अलावा म्यूजिक प्लेयर्स, टेबलेट, कंप्यूटर भी मनोरंजन के साधन के रूप में प्रयोग किए जा रहे हैं।

भारत में मनोरंजन के साधनों की स्थिति- मनुष्य की बढ़ती आवश्यकता और सीमित होते संसाधनों के कारण मनोरंजन के साधनों की आवश्यकता और भी बढ़ गई है, परंतु बढ़ती जनसंख्या के कारण ये साधन महँगे हो रहे हैं तथा इनकी उपलब्धता सीमित हो रही है। आज न पार्क बच रहे हैं और खेल के मैदान। इनके अभाव में व्यक्ति का स्वभाव चिड़चिड़ा, रूखा और क्रोधी होता जा रहा है। इसके लिए मनोरंजन के साधनों को सर्वसुलभ और सबकी पहुँच में बनाया जाना चाहिए।

उपसंहार- मनोरंजन मानव जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं, परंतु ‘अति सर्वत्र वय॑ते’ वाली उक्ति इन पर भी लागू होती है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मनोरंजन के चक्कर में हम इतने खो जाएँ कि हमारे काम इससे प्रभावित होने लगे और हम आलसी और कामचोर बन जाएँ। हमें ऐसी स्थिति से सदा बचना चाहिए।

(8) दूरदर्शन का मानव जीवन पर प्रभाव

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • दूरदर्शन का प्रभाव
  • दूरदर्शन से हानियाँ
  • दूरदर्शन का बढता उपयोग
  • दूरदर्शन के लाभ
  • उपसंहार

प्रस्तावना – विज्ञानं ने मनुष्य को एक से बढ़कर एक अद्भुत उपकरण प्रदान किए हैं। इन्हीं अद्भुत उपकरणों में एक है दूरदर्शन। दूरदर्शन ऐसा अद्भुत उपकरण है जिसे कुछ समय पहले कल्पना की वस्तु समझा जाता था। यह आधुनिक युग में मनोरंजन के साथसाथ सूचनाओं की प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण साधन भी है। पहले इसका प्रयोग महानगरों के संपन्न घरों तक सीमित था, परंतु वर्तमान में इसकी पहुँच शहर और गाँव के घर-घर तक हो गई है।

दरदर्शन का बढ़ता उपयोग – दूरदर्शन मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन का उत्तम साधन है। आज यह हर घर की आवश्यकता बन गया है। उपग्रह संबंधी प्रसारण की सुविधा के कारण इस पर कार्यक्रमों की भरमार हो गई है। कभी मात्र दो चैनल तक सीमित रहने वाले दूरदर्शन पर आज अनेकानेक चैनल हो गए हैं। बस रिमोट कंट्रोल उठाकर अपना मनपसंद चैनल लगाने और रुचि के अनुसार कार्यक्रम देखने की देर रहती है। आज दूरदर्शन पर फ़िल्म, धारावाहिक, समाचार, गीत-संगीत, लोकगीत, लोकनृत्य, वार्ता, खेलों के प्रसारण, बाजार भाव, मौसम का हाल, विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रम तथा हिंदी-अंग्रेजी के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं में प्रसारण की सुविधा के कारण यह महिलाओं, युवाओं और हर आयुवर्ग के लोगों में लोकप्रिय है।

दरदर्शन का प्रभाव – अपनी उपयोगिता के कारण दूरदर्शन आज विलसिता की वस्तु न होकर एक आवश्यकता बन गया है। बच्चेबूढ़े, युवा-प्रौढ़ और महिलाएँ इसे समान रूप से पसंद करती हैं। इस पर प्रसारित ‘रामायण’ और महाभारत जैसे कार्यक्रमों ने इसे जनमानस तक पहुँचा दिया। उस समय लोग इन कार्यक्रमों के प्रसारण के पूर्व ही अपना काम समाप्त या बंद कर इसके सामने आ बैठते थे। गाँवों और छोटे शहरों में सड़कें सुनसान हो जाती थीं। आज भी विभिन्न देशों का जब भारत के साथ क्रिकेट मैच होता है तो इसका असर जनमानस पर देखा जा सकता है। लोग सब कुछ भूलकर ही दूरदर्शन से चिपक जाते हैं और बच्चे पढ़ना भूल जाते हैं। आज भी महिलाएँ चाय बनाने जैसे छोटे-छोटे काम तभी निबटाती हैं जब धारावाहिक के बीच विज्ञापन आता है।

दरदर्शन के लाभ – दूरदर्शन विविध क्षेत्रों में विविध रूपों में लाभदायक है। यह वर्तमान में सबसे सस्ता और सुलभ मनोरंजन का साधन है। इस पर मात्र बिजली और कुछ रुपये के मासिक खर्च पर मनचाहे कार्यक्रमों का आनंद उठाया जा सकता है। दूरदर्शन पर प्रसारित फ़िल्मों ने अब सिनेमा के टिकट की लाइन में लगने से मुक्ति दिला दी है। अब फ़िल्म हो या कोई प्रिय धारावाहिक, घर बैठे इनका सपरिवार आनंद लिया जा सकता है।

दूरदर्शन पर प्रसारित समाचार ताज़ी और विश्व के किसी कोने में घट रही घटनाओं के चित्रों के साथ प्रसारित की जाती है जिससे इनकी विश्वसनीयता और भी बढ़ जाती है। इनसे हम दुनिया का हाल जान पाते हैं तो दूसरी ओर कल्पनातीत स्थानों, प्राणियों, घाटियों, वादियों, पहाड़ की चोटियों जैसे दुर्गम स्थानों का दर्शन हमें रोमांचित कर जाता है। इस तरह जिन स्थानों को हम पर्यटन के माध्यम से साक्षात नहीं देख पाते हैं या जिन्हें देखने के लिए न हमारी जेब अनुमति देती है और न हमारे पास समय है, को साक्षात हमारी आँखों के सामने प्रस्तुत कर देते हैं।

दूरदर्शन के माध्यम से हमें विभिन्न प्रकार का शैक्षिक एवं व्यावसायिक ज्ञान होता है। इन पर एन०सी०ई०आर०टी० के विभिन्न कार्यक्रम रोचक ढंग से प्रस्तुत किए जाते हैं। इसके अलावा रोज़गार, व्यवसाय, खेती-बारी संबंधी विविध जानकारियाँ भी मिलती हैं।

दरदर्शन से हानियाँ दूरदर्शन लोगों के बीच इतना लोकप्रिय है कि लोग इसके कार्यक्रमों में खो जाते हैं। उन्हें समय का ध्यान नहीं रहता। कुछ समय बाद लोगों को आज का काम कल पर टालने की आदत पड़ जाती है। इससे लोग आलसी और निकम्मे हो जाते हैं। दूरदर्शन के कारण बच्चों की पढ़ाई बाधित हो रही है। इससे एक ओर बच्चों की दृष्टि प्रभावित हो रही है तो दूसरी और उनमें असमय मोटापा बढ़ रहा है जो अनेक रोगों का कारण बनता है।

दूरदर्शन पर प्रसारित कार्यक्रमों में हिंसा, मारकाट, लूट, घरेलू झगडे, अर्धनंगापन आदि के दृश्य किशोर और युवा मन को गुमराह करते हैं जिससे समाज में अवांछित गतिविधियाँ और अपराध बढ़ रहे हैं। इसके अलावा भारतीय संस्कृति और मानवीय मूल्यों की अवहेलना दर्शन के कार्यक्रमों का ही असर है।

उपसंहार- दूरदर्शन अत्यंत उपयोगी उपकरण है जो आज हर घर तक अपनी पैठ बना चुका है। इसका दूसरा पक्ष भले ही उतना उज्ज वल न हो पर इससे दूरदर्शन की उपयोगिता कम नहीं हो जाती। दूरदर्शन के कार्यक्रम कितनी देर देखना है, कब देखना है, कौन से कार्यक्रम देखने हैं यह हमारे बुद्धि विवेक पर निर्भर करता है। इसके लिए दूरदर्शन दोषी नहीं है। दूरदर्शन का प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए।

(9) यदि मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • पढ़ाई की उत्तम व्यवस्था
  • गरीब छात्रों के लिए विशेष प्रयास
  • उपसंहार
  • मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था
  • परीक्षा प्रणाली में सुधार .
  • पाठ्य सहगामी क्रियाओं को बढ़ावा .

प्रस्तावना – मानव मन में नाना प्रकार की कल्पनाएँ जन्म लेती हैं। कल्पना के इसी उड़ान के समय वह खुद को भिन्न-भिन्न रूपों में देखता है। वह सोचता है कि यदि मैं यह होता तो ऐसा करता, यदि मैं वह होता तो वैसा करता है। मानव के इसी स्वभाव के अनुरूप मैं भी कल्पना की दुनिया में खोकर प्रायः सोचता हूँ कि यदि मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो कितना अच्छा होता। इस नई भूमिका को निभाने के लिए क्या-क्या करता, उसकी योजना बनाने लगता हूँ।

मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था – सरकारी विद्यालयों में मूलभूत सुविधाओं की क्या स्थिति होती है, यह बताने की आवश्यकता नहीं होती। यह बात तो सभी को पता ही है। मैं सर्वप्रथम विद्यालय में पीने के लिए स्वच्छ पानी की व्यवस्था करवाता। इसके बाद मेरा दूसरा कदम सफ़ाई की व्यवस्था की ओर होता। इस स्तर पर मैं दयनीय हालत में पहुँच चुके शौचालयों की सफ़ाई और मरम्मत करवाता। इसके बाद बच्चों के बैठने के लिए बेंचों की समुचित व्यवस्था कराता। अब कक्षा-कक्ष में श्यामपट और टूटी-फूटी और श्लोक लिखी दीवारों की मरम्मत कराकर रंग-पेंट करवाता। इसके बाद विद्यालय प्रांगण और खेल के मैदान की साफ़-सफ़ाई करवाता तथा विद्यालय परिसर में असामाजिक तत्वों और आवारा पशुओं के घुस आने से रोकने की पूरी व्यवस्था करता। मैं विद्यालय में इतनी टाट-पट्टियों की व्यवस्था करवाता कि सभी छात्र उस पर बैठकर मध्यांतर का खाना खा सकें।

पढ़ाई की उत्तम व्यवस्था – विद्यालय में मूलभूत सुविधाएँ होने के बाद मैं अध्यापकों की कमी पूरी करने के लिए विभाग को लिखता और जितने भी अध्यापक हैं उन्हें नियमित रूप से कक्षाओं में जाकर पढ़ाने को कहता। प्रत्येक विषय के शिक्षण के बाद बचे समय में छात्रों की खेल-कूद की व्यवस्था करता ताकि छात्र पढ़ाई के साथ-साथ खेलों में भी अच्छा प्रदर्शन करें। समय की माँग को देखते हुए मैं छात्रों को नैतिक शिक्षा अनिवार्य रूप से प्रतिदिन प्रार्थना सभा में देने की व्यवस्था सुनिश्चित करता।

परीक्षा प्रणाली में सुधार – वर्तमान में सरकार की फेल न करने की नीति से शिक्षा स्तर में गिरावट आ गई है। मैं छात्रों की परीक्षा प्रतिमाह करवाकर साल में दो मुख्य परीक्षाएँ आयोजित करवाता और परीक्षा में नकल रोकने पर पूरा जोर देता ताकि छात्रों में शुरू से ही पढ़ने की आदत का विकास हो और वे सरकारी नीति का सहारा लेने को विवश न हों।

गरीब छात्रों के लिए विशेष प्रयास – मैं अपने विद्यालय में गरीब किंतु मेधावी छात्रों की पढ़ाई के लिए विशेष प्रयास करवाता तथा छात्र कल्याण निधि से उनके लिए कापियाँ, स्टेशनरी और अन्य कार्यों के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करता। ऐसे छात्रों को छात्रवृत्ति संबंधी जानकारी समय-समय पर देकर उनको सरकारी सहायता दिलाने का सतत प्रयास करता।

पाठ्य सहगामी क्रियाओं को बढ़ावा – छात्रों के सर्वांगीण विकास के लिए पढ़ाई-लिखाई के अलावा अन्य क्रियाकलापों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। मैं छात्रों की दिल्ली-दर्शन की व्यवस्था कर उन्हें दर्शनीय स्थानों को दिखाता। इसके अलावा बाल सभा के आयोजन में भाषण, कविता-पाठ, वाद-विवाद, नाटक अभिनय जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करता ताकि छात्र इनमें भाग लेकर इसे पढ़ाई का अंग समझें और पढ़ाई को बोझ मानने की भूल न करें।

उपसंहार – विदयालय का प्रधानाचार्य बनकर मैं चाहूँगा कि छात्रों में पढ़ाई के प्रति रुचि उत्पन्न हो। इसके लिए मैं उन्हें पढ़ाते समय सरल और रुचिकर तकनीक अपनाने के लिए शिक्षकों से कहूँगा। मैं छात्रों को यह अवसर दूंगा कि वे अपनी बात कर सकें। इतने प्रयासों के बाद मेरा विद्यालय निःसंदेह अच्छा बन जाएगा। विद्यालय की उन्नति में ही मेरी मेहनत सार्थक सिद्ध होगी।

(10) देश के विकास में बाधक बेरोज़गारी

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • बेरोज़गारी के कारण
  • बेरोज़गारी के परिणाम
  • बेरोज़गारी का अर्थ
  • समाधान के उपाय
  • उपसंहार

प्रस्तावना – स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश को कई समस्याओं से दो-चार होना पड़ा है। इन समस्याओं में मूल्य वृद्धि, जनसंख्या वृद्धि, प्रदूषण, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी आदि प्रमुख हैं। इनमें बेरोजगारी का सीधा असर व्यक्ति पर पड़ता है। यही असर व्यक्ति के स्तर से आगे बढ़कर देश के विकास में बाधक सिद्ध होता है।

बेरोज़गारी का अर्थ – ‘रोज़गार’ शब्द में ‘बे’ उपसर्ग और ‘ई’ प्रत्यय के मेल से ‘बेरोज़गारी’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है वह स्थिति जिसमें व्यक्ति के पास काम न हो अर्थात जब व्यक्ति काम करना चाहता है और उसमें काम करने की शक्ति, सामर्थ्य और योग्यता होने पर भी उसे काम नहीं मिल पाता है। यह देश का दुर्भाग्य है कि हमारे देश में लाखों-हज़ारों नहीं बल्कि करोड़ों लोग इस स्थिति से गुजरने को विवश हैं।

बेरोज़गारी के कारण – बेरोज़गारी बढ़ने के कई कारण हैं। इनमें सर्वप्रमुख कारण हैं- देश की निरंतर बढ़ती जनसंख्या। इस बढ़ती जनसंख्या के कारण सरकारी और प्राइवेट सेक्टर द्वारा रोज़गार के जितने पद और अवसर सृजित किए जाते हैं वे अपर्याप्त सिद्ध होते हैं। परिणामतः यह समस्या सुरसा के मुँह की भाँति बढ़ती ही जाती है। बेरोज़गारी बढ़ाने के अन्य कारणों में अशिक्षा, तकनीकी योग्यता, सरकारी नौकरी की चाह, स्वरोज़गार न करने की प्रवृत्ति, उच्च शिक्षा के कारण छोटी नौकरियाँ न करने का संकोच, कंप्यूटर जैसे उपकरणों में वृद्धि, मशीनीकरण, लघु उद्योग-धंधों का नष्ट होना आदि है।

इनके अलावा एक महत्त्वपूर्ण निर्धनता भी है, जिसके कारण कोई व्यक्ति चाहकर भी स्वरोज़गार स्थापित नहीं कर पाता है। हमारे देश की शिक्षा प्रणाली भी ऐसी है जो बेरोजगारों की फौज़ तैयार करती है। यह शिक्षा सैद्धांतिक अधिक प्रयोगात्मक कम है जिससे कौशल विकास नहीं हो पाता है। ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ लेने पर भी विश्वविद्यालयों और कालेजों से निकला युवा स्वयं को ऐसी स्थिति में पाता है जिसके पास डिग्रियाँ होने पर भी काम करने की योग्यता नहीं है। इसका कारण स्पष्ट है कि उसके पास तकनीकी योग्यता का अभाव है।

समाधान के उपाय – बेरोज़गारी दूर करने के लिए सरकार और बेरोज़गारों के साथ-साथ प्राइवेट उद्योग के मालिकों को सामंजस्य बिठाते हुए ठोस कदम उठाना होगा। इसके लिए सरकार को रोजगार के नवपदों का सृजन करना चाहिए। यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नवपदों के सृजन से समस्या का हल पूर्णतया संभव नहीं है, क्योंकि बेरोजगारों की फ़ौज बहुत लंबी है जो समय के साथसाथ बढ़ती भी जा रही है। सरकार को माध्यमिक कक्षाओं से तकनीकी शिक्षा अनिवार्य कर देना चाहिए ताकि युवा वर्ग डिग्री लेने के बाद असहाय न महसूस करे।

सरकार को स्वरोजगार को प्रोत्साहन देने के लिए बहुत कम दरों पर कर्ज देना चाहिए तथा युवाओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था करते हुए इन उद्योगों का बीमा भी करना चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह लघु एवं कुटीर उद्योगों के अलावा पशुपालन, मत्स्य पालन आदि को भी बढ़ावा दे। प्राइवेट उद्यमियों को चाहिए कि वे युवाओं को अपने यहाँ ऐसी सुविधाएँ दे कि युवाओं का सरकारी नौकरी से आकर्षण कम हो। युवा वर्ग को अपनी सोच में बदलाव लाना चाहिए तथा उनकी उच्च शिक्षा बाधक नहीं बल्कि सफलता के मार्ग का साधन है जिसका प्रयोग वे समय आने पर कर सकते हैं। अभी जो भी मिल रही है उसे पहली सीढ़ी मानकर शुरुआत तो करें। इसके अलावा उच्च शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी शिक्षा अवश्य ग्रहण करें ताकि स्वरोजगार और प्राइवेट नौकरियों के द्वार भी उनके लिए खुले रहें।

बेरोज़गारी के परिणाम – कहा गया है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। बेरोज़गार व्यक्ति खाली होने से अपनी शक्ति का दुरुपयोग असामाजिक कार्यों में लगाता है। वह असामाजिक कार्यों में शामिल होता है और कानून व्यवस्था भंग करता है। ऐसा व्यक्ति अपना तथा राष्ट्र दोनों का विकास अवरुद्ध करता है। ‘बुबुक्षकः किम् न करोति पापं’ भूखा व्यक्ति कौन-सा पाप नहीं करता है अर्थात भूखा व्यक्ति चोरी, लूटमार, हत्या जैसे सारे पाप कर्म कर बैठता है। अत: व्यक्ति को रोज़गार तो मिलना ही चाहिए।

उपसंहार-बेरोज़गारी की समस्या पूरे देश की समस्या है। यह व्यक्ति, समाज और देश के विकास में बाधक सिद्ध होती है। जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश लगाने के साथ ही इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है। बेरोज़गारी कम करने में सरकार के साथ-साथ समाज और युवाओं की सोच में बदलाव लाना आवश्यक है।

(11) वन रहेंगे हम रहेंगे

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • वनों के विभिन्न लाभ
  • हमारा दायित्व
  • वनों से प्राकृतिक संतुलन
  • नगरीकरण का प्रभाव
  • उपसंहार

प्रस्तावना – वनों के साथ मनुष्य का संबंध बहुत पुराना है। आदिमानव वनों की गोद में ही पला-बढ़ा है और अपना जीवन उन्हीं वनों में व्यतीत किया है। वन मानव के लिए प्रकृति प्रदत्त अनुपम वरदान है। वन मनुष्य की विविध आवश्यकताओं को विविध रूपों में पूरा करते हैं। सच तो यह है कि वनों के बिना धरती पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है।

वनों से प्राकतिक संतुलन – वन शिव की भाँति परोपकारी होते हैं। वे जहरीली गैसों का पानकर जीवनदायी ऑक्सीजन प्रदान करते हैं, जिससे प्राणियों को जीवन मिलता है। धरती पर निरंतर बढ़ते कल-कारखाने और उनसे निकलता धुआँ, मोटर-गाड़ियों का ज़हरीला धुआँ तथा मनुष्य के विभिन्न क्रियाकलापों से कार्बन डाई ऑक्साइड और सल्फर डाई ऑक्साइड जैसी गैसों के कारण वायुमंडल विषाक्त हो जाता है। उससे ऑक्सीजन की मात्रा घटती जाती है पर पेड़-पौधे इस दूषित हवा का अवशोषण कर शुद्ध हवा देकर प्राकृतिक संतुलन बनाए रखते हैं।

वनों के विभिन्न लाभ – वनों से मनुष्य को इतने लाभ हैं कि उनका आकलन सरल नहीं है। वनों के लाभों को दो भागों में बाँटा जा सकता है –
1. प्रत्यक्ष लाभ-वन मनुष्य को फल-फूल, इमारती लकड़ी और जलावनी लकड़ी, गोद, शहद, पत्तियाँ, जानवरों के लिए चारा और छाया देते हैं। इनसे हमारे उद्योग-धंधों को मज़बूत आधार मिलता है। बहुत से उद्योगों के लिए कच्चा माल इन्हीं वनों से मिलता है। कागज़, प्लाइवुड, रेशम, दियासलाई अगरबत्ती जैसे उद्योगों का आधार वन हैं।

2. अप्रत्यक्ष लाभ-वनों से अनेक ऐसे लाभ हैं जिन्हें हम देख नहीं पाते हैं। वन सभी प्राणियों के लिए जीवनदायी ऑक्सीजन
देते हैं जिसके मूल्य का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है। इसके अलावा वन पशु-पक्षियों को आश्रय एवं भोजन उपलब्ध कराते हैं। वन एक ओर वर्षा लाने में सहायक हैं तो दूसरी ओर मिट्टी का कटाव रोककर मिट्टी की उपजाऊ क्षमता बनाए रखते हैं। इस मिट्टी को बहकर नदियों में जाने से रोककर वृक्ष बाढ़ रोकने में भी मदद करते हैं। इसके अलावा वन धरा का शृंगार हैं जो अपनी हरियाली से उसकी सुंदरता में वृद्धि करते हैं।

नगरीकरण का प्रभाव – दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ती जनसंख्या और उसकी आवश्यकता की सर्वाधिक मार वनों पर पड़ी है। मनुष्य ने अपनी बढ़ती आवासीय आवश्यकता के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई की है। इसके अलावा उद्योगों की स्थापना से वन विनाश बढ़ा है। इससे सबसे अधिक बुरा असर शहरों और महानगरों पर पड़ा है जहाँ अब साँस लेने के लिए स्वच्छ हवा दुर्लभ हो गई है। इन उद्योगों और कल-कारखानों की चिमनियों से निकला धुआँ न केवल मनुष्य के लिए बल्कि वनों की वृद्धि में बाधक सिद्ध होती है। वनों की कटाई करते हुए मनुष्य यह भी भूल जाता है कि वनों का विनाश करके वह अपना विनाश करने पर तुला है।

हमारा दायित्व-वनों का विनाश रोककर ही मनुष्यता का विनाश रोका जा सकता है। ऐसे में मनुष्य का यह पहला दायित्व बनता है कि यदि वह अपनी ज़रूरत के लिए एक पेड़ काटता है तो उसकी जगह चार नए पौधे लगाए और पेड़ बनने तक उनकी देखभाल करे। अब वह समय आ गया है कि त्योहारों, जन्मदिन, विवाह या अन्य मांगलिक अवसरों पर पेड़ लगाएँ जाएँ और उनका संरक्षण किया जाए। वनों को बचाने के लिए अब पुनः एक बार ‘चिपको आंदोलन’ जैसा ही आंदोलन एवं जन जागरण चलाकर इन्हें कटने से बचाने का प्रयास करना चाहिए। सड़कों को चौड़ा करने और मेट्रो रेल जैसी नई परियोजना को पूरा करते समय जितने पेड़ काटे जाएँ उनके दूने पेड़ लगाना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।

उपसंहार-वन प्राणियों के लिए वरदान हैं। इस वरदान को बनाए रखने की बहुत आवश्यकता है। वनों के सहारे ही पृथ्वी पर प्राणियों का जीवन संभव है। भरपूर वर्षा, धरती पर हरियाली और उसकी उर्वराशक्ति बनाए रखने के लिए वनों का होना आवश्यक है। हमें वनों के संरक्षण का हर संभव प्रयास करना चाहिए, क्योंकि वनों के बिना पृथ्वी पर जीवन न बचेगा। आइए हम सभी प्रतिवर्ष एक से अधिक पेड़ लगाने की प्रतिज्ञा करते हैं।

(12) कंप्यूटर के लाभ

संकेत-बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • कंप्यूटर की उपयोगिता
  • विद्यार्थियों के लिए उपयोगी
  • उपसंहार
  • वर्तमान युग-कंप्यूटर युग
  • कंप्यूटर और इंटरनेट का मेल
  • प्रकाशन क्षेत्र में कंप्यूटर

प्रस्तावना – विज्ञान की प्रगति ने मनुष्य की दुनिया बदलकर रख दी है। उसने मनुष्य को नाना प्रकार के सुविधा के साधन प्रदान किए हैं। उसकी कृपा से मनुष्य को ऐसे अत्याधुनिक उपकरण मिले हैं जिनकी कभी वह कल्पना किया करता था। ऐसे यंत्रों में टेलीविज़न, मोबाइल फ़ोन, लैपटॉप, कैलकुलेटर, कंप्यूटर आदि हैं। इनमें कंप्यूटर ऐसा उपकरण है जिसने लगभग हर क्षेत्र में अपनी उपयोगिता साबित की है और अब तो सभी को ज़रूरत बनता जा रहा है।

वर्तमान युग (कंप्यूटर-युग) – वर्तमान युग को कंप्यूटर युग कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। कार्यालयों में इस यंत्र का उपयोग जितना तेज़ी से बढ़ा और लोकप्रिय हुआ है, उतना अन्य कोई उपकरण नहीं। आज हम नज़र दौड़ाकर देखें तो जीवन के हर क्षेत्र में उसका हस्तक्षेप दिखाई देता है। इतना ही नहीं इंटरनेट के मेल ने कंप्यूटर को बहुपयोगी बना दिया है। सरकारी या प्राइवेट कोई भी कार्यालय ऐसा न होगा जहाँ पर इसका उपयोग न हो।

कंप्यूटर की उपयोगिता – कंप्यूटर अपनी कार्यप्रणाली और त्वरित गणना के कारण अत्यधिक उपयोगी बन गया है। यह जटिल-सेजटिल गणनाएँ सेकंड में कर देता है। इसके अलावा कंप्यूटर से मानवीय भूल की संभावना न के बराबर हो जाती है। ये गणनाएँ इतने कम समय में हो जाती हैं कि कई व्यक्ति भी मिलकर नहीं कर सकते हैं। आज कार्यालयों में कई व्यक्तियों का कार्य अकेला कंप्यूटर कर देता है। अब कार्यालयों में न फाइलें खोने का डर है और चूहों के कुतरने का। बैंक, रेलवे आरक्षण केंद्र, अस्पतालों में मरीजों का आरक्षण, तरह-तरह की डिजाइनें बनाने का काम तथा छपाई की दुनिया में क्रांति ला दिया है। खेल की दुनिया में तरहतरह के रिकॉर्ड पलक झपकते प्रस्तुत कर देना कंप्यूटर के बाएँ हाथ का काम है। कंप्यूटर के कारण अब काम का तनाव नहीं रह गया, क्योंकि अशुद्धियों की संभावना न के बराबर रह जाती है।

कंप्यूटर और इंटरनेट का मेल – कंप्यूटर के साथ इंटरनेट का मेल होने से कंप्यूटर की उपयोगिता कई गुना बढ़ गई है। अब कंप्यूटर के साथ बैठकर किसी भी तरह की जानकारी पलभर में पाई जाती है। कोई भी विषय हो, कंप्यूटर जवाब देने के लिए तैयार है। आपके बैंक की पासबुक कंप्यूटर पर उपलब्ध है। रेलवे की आरक्षण तालिका से अपनी मनपसंद के ट्रेन में सीटों की उपलब्धता जानी जा सकती है। आज इंटरनेट युक्त कंप्यूटर की मदद से अपने देश ही नहीं विदेश की जानकारी भी पाई जा सकती है।

विद्यार्थी के लिए उपयोगी-जिस तरह कंप्यूटर के कारण अब फाइलों की आवश्यकता नहीं रही और उनके स्टोर्स की ज़रूरत नहीं रही उसी प्रकार कंप्यूटर ने विद्यार्थियों का काम भी सुगम बना दिया है। अब छात्रों को मोटी-मोटी पुस्तकें उठाने, लाने-ले जाने की ज़रूरत नहीं रही। कई-कई पुस्तकें एक मेमोरी कार्ड में डालकर कंप्यूटर पर पढ़ी जा सकती हैं। अब छात्रों के लिए एक सुविधा यह भी है कि कंप्यूटर पर पढ़ा ही नहीं लिखा भी जा सकता है तथा किसी जगह की गलती को सुधारकर त्रुटिहीन प्रिंट निकाला जा सकता है। नक्शे, दुर्लभ चित्र और दुर्लभ पुस्तकें अब खरीदने की आवश्यकता नहीं रही। बस कंप्यूटर पर एक क्लिक करके इनका लाभ उठाया जा सकता है।

प्रकाशन क्षेत्र में कंप्यटर – कंप्यूटर ने प्रकाशन की दुनिया में क्रांति ला दी है। अब पुस्तकों की छपाई की गुणवत्ता, त्रुटिहीनता और उनके आकर्षण की वृद्धि का श्रेय कंप्यूटर को जाता है। इतना ही नहीं कंप्यूटर से यह काम अल्प समय में हो जाता है। इसके अलावा कंप्यूटर से छपाई के कारण पुस्तकों का मूल्य कम हुआ है जिसका लाभ विद्यार्थियों को मिला है। कंप्यूटर उन जटिल चित्रों को सहजता से बनाकर प्रस्तुत कर देता है जिन्हें बनाना कठिन है।

उपसंहार-कंप्यूटर को विज्ञान का अद्भुत वरदान समझना चाहिए, जिसने कदम-कदम पर मनुष्य की मदद की है। ‘अति सर्वत्र वय॑ते’ का सिद्धांत कंप्यूटर पर भी लागू होता है। हमें कंप्यूटर का तभी उपयोग करना चाहिए जब आवश्यक हो तथा इसका दुरुपयोग भूलकर भी नहीं करना चाहिए ताकि यह वरदान अभिशाप न बनने पाए।

(13) जीवन में खेलकूद का महत्त्व

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • खेल बढ़ाते मानवीय गुण
  • खेलों के लिए प्रोत्साहन
  • खेलों से शारीरिक एवं मानसिक विकास
  • खेल-एक आकर्षक कैरियर
  • उपसंहार

प्रस्तावना – किसी समय कहा जाता था कि ‘खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब, पढ़ी-लिखोगे बनोगे नवाब’ परंतु यह उक्ति आज अपनी प्रासंगिकता एवं उपयोगिता पूर्णतया खो चुकी है। खेल हर आयु-वर्ग की आज आवश्यकता बन चुके हैं। पहले मनुष्य अपने दैनिक जीवन में शारीरिक परिश्रम वाली क्रियाएँ करता था, जिससे उसकी खेल-संबंधी आवश्यकताएँ पूरी हो जाती थीं, परंतु आज की दिनचर्या में खेलों की आवश्यकता एवं महत्ता और भी बढ़ गई है। अब तो डॉक्टर भी प्रातः खुली हवा में सैर करने, व्यायाम करने, योगा करने की सलाह देने लगे हैं।

खेलों से शारीरिक एवं मानसिक विकास – खेल प्रायः दो प्रकार के होते हैं-पहले वे जिन्हें खुले मैदानों में खेला जाता है और दूसरे वे जिन्हें घर में बैठकर खेला जाता है। इनमें पहले प्रकार के खेल; जैसे-क्रिकेट, हॉकी फुटबॉल, वालीबॉल, कुश्ती, घुड़सवारी, लंबी-ऊँची कूद, दौड़ आदि खेलों में शारीरिक गतिविधियाँ अधिक होती हैं। इन खेलों से हमारा शरीर पुष्ट होता है। इनसे मांसपेशियाँ और हड्डियाँ पुष्ट और मज़बूत बनती हैं, शरीर सुडौल बनता है। इससे शरीर की सभी इंद्रियाँ सक्रिय रहती हैं तथा रक्त संचार सुचारु बनता है।

इन खेलों को खेलने से शारीरिक श्रम अधिक करना पड़ता है, अतः खिलाड़ी गहरी-गहरी साँसें लेते हैं जिससे हमारे फेफड़ों में ऑक्सीजन अधिक मात्रा में आती है जिससे शरीर को ऊर्जा मिलती है और हमारा पाचन ठीक रहता है जिससे भूख अधिक लगती है और हमारे द्वारा खाया-पिया गया आसानी से पच जाता है। इससे शरीर स्वस्थ और निरोग रहता है। इसके विपरीत खेल न खेलने वाले व्यक्ति की पाचन क्रिया ठीक न होने से वह अनेक बीमारियों से घिर जाता है। वह आलस्य अनुभव करता है, मोटापे का शिकार होता है और थोड़ा-सा भी काम करने, दौड़ने-भागने आदि से हाँफने लगता है। उसका स्वास्थ्य ठीक न होने से सब कुछ अच्छा होने से भी उसे कुछ अच्छा नहीं लगता है और निराशा तथा उदासी से घिर जाता है।

खेलों से मानसिक विकास भी होता है। शतरंज, लूडो, कैरम, ताश, वीडियोगेम जैसे खेल हमारी मानसिक क्षमता, चिंतन, सोच-विचार को बढ़ाते हैं जो हमारे जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध होते हैं।

खेल बढ़ाते मानवीय गुण – खेल हमारे भीतर मानवीय गुणों को पैदा करते हैं तथा उनका विकास करते हैं। खेल एक ओर मित्रता और सद्व्यवहार को बढ़ावा देते हैं तो हमें हार-जीत को समभाव से ग्रहण करने की सीख देते हैं। यह भावना जीवन में सफलता पाने के लिए आवश्यक होती है। खेल हमारे भीतर त्वरित निर्णय लेने की क्षमता का विकास करते हैं। खेलों से ईमानदार बनने, परस्पर सहयोग करने, मिल-जुलकर रहने तथा त्याग करने की सीख देते हैं। इसके अलावा खेलों से हम अनुशासन, संगठन, साहस, विश्वास, आज्ञाकारिता, सहानुभूति, उदारता, आदि गुणों को खेल-ही-खेल में विकसित कर लेते हैं।

खेल एक आकर्षक कैरियर – खेल अब केवल खेलने-कूदने और स्वस्थ रहने का साधन ही नहीं रह गए हैं, बल्कि खेलों में एक आकर्षक कैरियर भी छिपा है। आज खेलों में अच्छा प्रदर्शन करके यश और नाम कमाया जा सकता है। सचिन तेंदुलकर, महेंद्र सिंह धोनी, युवराज, राहुल द्रविड़, कपिल देव, साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा आदि की प्रसिद्धि और वैभव संपन्नता का कारण खेल ही है। खेलों से ही ये विश्व प्रसिद्ध बने हैं और अपार धन के स्वामी बने हैं। इसके अलावा विभिन्न खेलों में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद एक समयोपरांत खेल प्रशिक्षक बनकर प्रशिक्षण केंद्र खोलकर नियमित आय अर्जित की जा सकती है।

खेलों के लिए प्रोत्साहन – खेलों में निरंतर उन्नत प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहन और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। प्रतियोगिताओं में विभिन्न प्रदेशों और देशों के खिलाड़ी भाग लेते हैं। इनके बीच पदक जीतने या स्थान हासिल करने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। यह प्रशिक्षण जितनी कम आयु से शुरू कर दिया जाए उतना ही अच्छा होता है। इसके लिए सरकार को जगह-जगह खेल प्रशिक्षण केंद्र खोलना चाहिए और ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं को भी खेलों में अच्छा करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

उपसंहार-खेल जीवन के लिए बहुत ज़रूरी होते हैं। ये नाना प्रकार से मनुष्य को लाभ पहुँचाते हैं। खेल स्वास्थ्य के लिए हितकारी होने के साथ ही मानवीय मूल्यों का विकास करते हैं। हमें खेलों को खेल भावना से खेलना चाहिए, बदला लेने की नीयत से नहीं। हमें खेलों में भाग लेना चाहिए और बच्चों को खेलों में भाग लेने के लिए प्रेरित करना चाहिए। हम सभी को किसी-न-किसी एक खेल का भागीदार अवश्य बनना चाहिए।

(14) मेरी अविस्मरणीय यात्रा

संकेत-बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • यात्रा की अविस्मरणीय बातें
  • उपसंहार
  • यात्रा की तैयारी
  • अविस्मरणीय होने के कारण

प्रस्तावना – मनुष्य आदिकाल से ही घुमंतू प्राणी रहा है। यह घुमंतूपन उसके स्वभाव का अंग बन चुका है। आदिकाल में मनुष्य अपने भोजन और आश्रय की तलाश में भटकता था तो बाद में अपनी बढ़ी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए। इनके अलावा यात्रा का एक और उद्देश्य है-मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन। कुछ लोग समय-समय पर इस तरह की यात्राएँ करना अपने व्यवहार में शामिल कर चुके हैं। ऐसी एक यात्रा करने का अवसर मुझे अपने परिवार के साथ मिला था। दिल्ली से वैष्णों देवी तक की गई इस यात्रा की यादें अविस्मरणीय बन गई हैं।

यात्रा की तैयारी – वैष्णों देवी की इस यात्रा के लिए मन में बड़ा उत्साह था। यह पहले से ही तय कर लिया गया था कि इस बार दशहरे की छुट्टियों में हमें वैष्णों देवी की यात्रा करना है। इसके लिए दो महीने पहले ही आरक्षण करवा लिया गया था। आरक्षण करवाते समय यह ध्यान रखा गया था कि हमारी यात्रा दिल्ली से सवेरे शुरू हो ताकि रास्ते के दृश्यों का आनंद उठाया जा सके। रास्ते में खाने के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थ घर पर ही तैयार किए गए। चूँकि हमें सवेरे-सवेरे निकलना था, इसलिए कुछ गर्म कपड़ों के अलावा अन्य कपड़े एक-दो पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ टिकट, पहचान पत्र आदि दो-तीन सूटकेसों में यथास्थान रख लिए गए। शाम का खाना जल्दी खाकर हम अलार्म लगाकर सो गए ताकि जल्दी उठ सकें और रेलवे स्टेशन पहुँच सकें।

यात्रा की अविस्मरणीय बातें – दिल्ली से जम्मू और वैष्णों देवी की इस यात्रा में एक नहीं अनेक बातें अविस्मरणीय बन गई। हम सभी लगभग चार बजे नई दिल्ली से जम्मू जाने वाली ट्रेन के इंतजार में प्लेटफॉर्म संख्या 5 पर पहुँच गए। मैं सोचता था कि इतनी जल्दी प्लेटफॉर्म पर इक्का-दुक्का लोग ही होंगे पर मेरी यह धारणा गलत साबित हुई। प्लेटफार्म पर सैकड़ों लोग थे। हॉकर और वेंडर खाने-पीने की वस्तुएँ समोसे, छोले, पूरियाँ और सब्जी बनाने में व्यस्त थे। अखबार वाले अखबार बेच रहे थे। कुली ट्रेन आने का इंतज़ार कर रहे थे और कुछ लोग पुराने गत्ते बिछाए चद्दर ओढ़कर नींद का आनंद ले रहे थे।

ट्रेन आने की घोषणा होते ही प्लेटफार्म पर हलचल मच गई। यात्री और कुली सजग हो उठे तथा वेंडरों ने अपना-अपना सामान उठा लिया। ट्रेन आते ही पहले चढ़ने के चक्कर में धक्का-मुक्की होने लगी। दो-चार यात्री ही उस डिब्बे से उतरे पर चढ़ने वाले अधिक थे। हम लोग अपनी-अपनी सीट पर बैठ भी न पाए थे कि शोर उठा, ‘जेब कट गई’। जिस यात्री की जेब कटी थी उसका पर्स और मोबाइल फ़ोन निकल चुका था। हमने अपनी-अपनी जेबें चेक किया, सब सही-सलामत था। आधे घंटे बाद ट्रेन अपने गंतव्य की ओर चल पड़ी। एक-डेढ़ घंटे चलने के बाद बाहर का दृश्य खिड़की से साफ़-साफ़ नज़र आने लगा। रेलवे लाइन के दोनों ओर दूर-दूर तक धरती ने हरी चादर बिछा दी थी। हरियाली का ऐसा नजारा दिल्ली में दुर्लभ था। ऐसी हरियाली घंटों देखने के बाद भी आँखें तृप्त होने का नाम नहीं ले रही थीं। हमारी ट्रेन आगे भागी जा रही थी और पेड़ पीछे की ओर। कभी-कभी जब बगल वाली पटरी से कोई ट्रेन गुज़रती तो लगता कि परदे पर कोई ट्रेन गुज़र रही थी।

ट्रेन में हमें नाश्ता और काफी मिल गई। दस बजे के आसपास अब खेतों में चरती गाएँ और अन्य जानवर नज़र आने लगे। उन्हें चराने वाले लड़के हमें देखकर हँसते, तालियाँ बजाते और हाथ हिलाते। सब कुछ मस्तिष्क की मेमोरी कार्ड में अंकित होता जा रहा था। लगभग एक बजे ट्रेन में ही हमें खाना दिया गया। खाना स्वादिष्ट था। हमने पेट भर खाया और जब नींद आने लगी तब सो गए। चक्की बैंक पहुँचने पर ही हमारी आँखें शोर सुनकर खुली कि बगल वाली सीट से कोई सूटकेस चुराने की कोशिश कर रहा था पर पकड़ा गया। कुछ और आगे बढ़ने पर पर्वतीय सौंदर्य देखकर आँखें तृप्त हो रही थीं। जम्मू पहुँचकर हम ट्रेन से उतरे और बस से कटरा गया। सीले रास्ते पर चलने का रोमांच हमें कभी नहीं भूलेगा। कटरा में रातभर आराम करने के बाद हम सवेरे तैयार होकर पैदल वैष्णों देवी के लिए चल पड़े और दो बजे वैष्णों देवी पहुंच गए।

अविस्मरणीय होने के कारण – इस यात्रा के अविस्मरणीय होने के कारण मेरी पहली रेल यात्रा, प्लेटफॉर्म का दृश्य, ट्रेन में चोरी, जेब काटने की घटना के अलावा प्राकृतिक दृश्य और पहाड़ों को निकट से देखकर उनके नैसर्गिक सौंदर्य का आनंद उठाना था। पहाड़ आकार में इतने बड़े होते हैं, यह उनको देखकर जाना। पहाड़ी जलवायु और वहाँ के लोगों का परिश्रमपूर्ण जीवन का अनुभव मुझे सदैव याद रहेगा।

उपसंहार-मैं सोच भी नहीं सकता था कि हरे-भरे खेत इतने आकर्षक होंगे और ट्रेन की यह यात्रा इस तरह रोमांचक होगी। पहाड़ी सौंदर्य देखकर मन अभिभूत हो उठा। अब तो इसी प्रकार की कोई और यात्रा करने की उत्सुकता मन में बनी हुई है। इस यात्रा की यादें मुझे सदैव रोमांचित करती रहेंगी।

(15) विज्ञान के वरदान

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • विज्ञान से हानियाँ
  • उपसंहार
  • विज्ञान के विभिन्न वरदान
  • विज्ञान का विवेकपूर्ण उपयोग

प्रस्तावना – मानव जीवन को सरल और सुखमय बनाने में सबसे ज्यादा यदि किसी का योगदान है तो वह विज्ञान का है। विज्ञान ने कदम-कदम पर मानव जीवन में हस्तक्षेप किया है और मनुष्य को इतनी सुविधाएँ प्रदान की हैं कि मनुष्य विज्ञान के अधीन होकर रह गया है। विज्ञान ने धरती आकाश और जल क्षेत्र तीनों को प्रभावित किया है। धरती का तो शायद ही कोई कोई कोना हो जहाँ विज्ञान ने कदम न रखा हो। विज्ञान के कारण मनुष्य ने उन्नति की है। मानव जीवन में क्रांति लाने का श्रेय विज्ञान को है। आज जिधर भी नज़र डालें, विज्ञान का प्रभाव सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है।

विज्ञान के विभिन्न वरदान – विज्ञान ने मनुष्य को इतनी सुविधाएँ दी हैं कि वह मनुष्य के लिए कामधेनु बन गया है। सर्वप्रथम कृषि क्षेत्र को देखते हैं। यहाँ पूरी तरह से बदलाव का कारण विज्ञान है। अब किसान को न हल चलाने की ज़रूरत है और न सिंचाई के लिए बैलों के पीछे दौड़ लगाने की। उसे अब निराई के लिए खुरपी उठाने की ज़रूरत नहीं हैं और न कटाई के लिए हँसिया उठाने की और न उसे धूप में चलकर एड़ी का पसीना चोटी पर पहुँचाने की। विज्ञान की कृपा से अब उसके पास ट्रैक्टर, ट्यूबवेल, कीटनाशक, खरपतवार नाशक यंत्र और दवाएँ हैं तथा कटाई-मड़ाई के लिए हारवेस्ट है जिनसे वह हफ़्तों का काम घंटों में कर लेता है। इसके अलावा उन्नतिशील बीज, खाद और यंत्रों का आविष्कार विज्ञान के कारण ही संभव हो पाया है। पैदल और बैलगाड़ियों पर यात्रा करने वाले मनुष्य के पास धरती, आकाश और जल पर चलने वाले द्रुतगामी साधन हैं जिनसे वह अपनी यात्रा को सरल, सुखद और मंगलमय ढंग से पूरा कर लेता है। विज्ञान के कारण अब आवागमन के साधनों से समय और श्रम दोनों बचने लगा है।।

अभी हरकारों और कबूतरों से संदेश भेजने वाला मनुष्य पत्रों की दुनिया से आगे बढ़कर रफ़्तार टेलीफ़ोन, ईमेल से होते मोबाइल तक आ पहुँचा है। जिस पत्र का जवाब आने में महीनों लगते थे और इलाज के लिए भेजा गया पैसा मरीज की मृत्यु और क्रिया कर्म के बाद मिलता था वही जवाब और पैसा अब हाथों हाथ मिलने लगा है। इतना ही नहीं अब तो बातें करते हुए व्यक्ति को हम देख भी सकते हैं। सरदी, गरमी और बरसात की मार झेलने वाले मनुष्य के पास अलग-अलग मौसम के कपड़े हैं। उसके पास हीटर और ब्लोअर हैं जो सरदी को उसके पास आने भी नहीं देते हैं। गरमी भगाने के लिए व्यक्ति के पास पंखे, कूलर और ए.सी. हैं। अब उसके यातायात के साधन भी वातानुकूलित हैं। वह जिन आरामदायी भवनों में रहता है, वे किसी स्वर्ग से कम नहीं हैं कच्चे घर और झोपड़ियों में सरदी, गरमी और वर्षा की मार झेलने की बातें गुज़रे ज़माने की बातें हो चुकी हैं।

चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में विज्ञान ने मनुष्य को नया जीवन दिया है। अब रोगों का इलाज ही नहीं, शरीर के खराब अंगों को बदलना बाएँ हाथ का काम हो गया है। रक्तदान और नेत्रदान जैसे मानवोचित कार्यों और विज्ञान के सहयोग से मनुष्य को नवजीवन मिल रहा है। एक्सरे, अल्ट्रासाउंड और एम.आर.आई. के माध्यम से रोगों की पहचान कर उनका यथोचित इलाज किया जा रहा है।

उपर्युक्त कुछ उदाहरण विज्ञान के वरदान के कुछ नमूने हैं। वास्तव में विज्ञान ने मनुष्य का कायाकल्प कर दिया है।

विज्ञान से हानियाँ –
विज्ञान के कारण मनुष्य को जहाँ अनेक लाभ हुआ है वहीं कुछ हानियाँ भी हैं। ये हानियाँ किसी सिक्के के दूसरे पहलू की भाँति हैं। विज्ञान की मदद से मनुष्य ने शत्रुओं से मुकाबला करने के लिए अनेक अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए हैं। इनमें परमाणु बम जैसे घातक हथियार भी हैं। ये अस्त्र-शस्त्र गलत हाथों में पड़कर समूची मानवता के लिए खतरा बन सकते हैं। इसके अलावा विज्ञान ने मनुष्य को भ्रम से दूर किया है जिससे मोटापा, रक्तचाप, अपच जैसी बीमारियाँ उसे घेर रही हैं।

विज्ञान का विवेकपूर्ण उपयोग – किसी भी वस्तु का विवेकपूर्ण उपयोग ही लाभदायक होता है। ऐसी ही स्थिति विज्ञान की है। विज्ञान
द्वारा प्रदत्त चाकू का प्रयोग हम सब्जी काटने के लिए करते हैं या दूसरे की हत्या के लिए, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है। यदि कोई विज्ञान का दुरुपयोग करता है तो यह विज्ञान का दोष नहीं है। विज्ञान का विवेकपूर्ण उपयोग ही मनुष्यता की भलाई जैसे कार्य करने में सहायक होगा।

उपसहार- विज्ञान ने हमारा जीवन नाना प्रकार से सुखमय बनाया है। हमें विज्ञान का ऋणी होना चाहिए, जिसने हमें आदिमानव की जंगली-जीवन शैली से ऊपर यहाँ तक पहुँचाया है। अब यह हमारा दायित्व बनता है कि हम विज्ञान को वरदान ही बना रहने दें। इसका दुरुपयोग कर इसे अभिशाप न बनाएँ। विज्ञान के वरदान बने रहने में मनुष्य, समाज, राष्ट्र और समूची मानवता की भलाई है।

(16) मेरी प्रिय पुस्तक-रामचरित मानस

संकेत-बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • मार्मिक प्रसंग
  • उपसंहार
  • आदर्शवादी व्यवहार
  • पुस्तक की कथावस्तु
  • कर्तव्यबोध का संदेश
  • प्रेरणादायिनी

प्रस्तावना – यह हमारे देश और समस्त भारतवासियों का सौभाग्य है कि यहाँ समय-समय पर अनेक कवियों ने जन्म लिया है और अपनी कालजयी कृतियों से जनमानस का मनोरंजन ही नहीं किया, बल्कि उन्हें ज्ञान के साथ-साथ कर्म का संदेश भी दिया। इनमें से कुछ कवियों ने धर्म और भक्तिभाव को प्रेरित करने वाली कृतियों की रचना की तो कुछ ने कर्तव्यबोध और आदर्श व्यवहार की तथा कुछ ने नीति सम्मत व्यवहार करने की पर गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस मुझे विशेष पसंद है, क्योंकि इसमें आवश्यक एवं जीवनोपयोगी गुणों एवं मूल्यों का संगम है।

पुस्तक की कथावस्तु – रामचरित मानस की प्रमुख कथावस्तु दशरथ पुत्र श्रीराम का जीवन चरित्र है। इसमें उनके जन्म से लेकर उनके सुख-सुविधापूर्ण शासन तक का वर्णन है। बीच-बीच में अनेक उपकथाएँ इसके कलेवर में वृद्धि करती हैं।

रामचरित मानस में वर्णित रामकथा को सात सर्गों में बाँटकर वर्णित किया गया है। इन्हें बालकांड, अयोध्याकांड, सुंदरकांड, किष्किंधाकांड, अरण्यकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड नामों से जाना जाता है। कथा का प्रारंभ ईश वंदना के दोहों, श्लोकों और चौपाइयों से शुरू होता है और राम-जन्म उनके तीनों भाइयों लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के साथ की गई बाल-क्रीड़ा, उनकी शिक्षा-दीक्षा, विश्वामित्र के साथ राक्षसों के वध के लिए उनके संग गमन, मारीचि, सुबाहु, ताड़का वध, जनकपुर गमन, स्वयंवर में धनुषभंग करना, सीता विवाह और अयोध्या वापस लौटना, कैकेयी का राजा दशरथ से दो वरदान माँगना, राम का सीता और लक्ष्मण के साथ वन गमन, सीता हरण, हनुमान-सुग्रीव से मित्रता, बालि वध, समुद्र पर पुल बाँधकर सेना सहित लंका गमन, रावण से युद्ध, रावण को मारकर विभीषण को लंका का राजा बनाना, अयोध्या प्रत्यागमन, कुशलतापूर्वक राज्य करना, सीता को वनवास देना, लव-कुश के द्वारा अश्वमेध के घोड़े को रोकने आदि का वर्णन है।

मार्मिक प्रसंग – रामचरित मानस में अनेक प्रसंग ऐसे हैं जिनका मार्मिक वर्णन मन को छू जाता है। राम का वनवास जाना, दशरथ का मूछित होना, समस्त प्रजाजनों का शोकाकुल होना, दशरथ का प्राणत्याग, रावण द्वारा सीता-हरण, अशोक वाटिका में राम की याद में उनका शोक संतप्त रहना, मेघनाद के साथ युद्ध में लक्ष्मण का मूछित होना, भरत मिलन प्रसंग, सीता का निष्कासन आदि प्रसंग मन को छू जाते हैं। इन अवसरों पर पाठकों के आँसू रोकने से भी नहीं रुकते हैं। आज भी दशहरे के अवसर जब रामलीला का मंचन होता है तो इन मार्मिक प्रसंगों को देखकर आँसू बहने लगते हैं।

कर्तव्यबोध का संदेश – रामचरित मानस की सबसे मुख्य विशेषता है- कर्तव्य का बोध कराना। इस महाकाव्य में राजा को प्रजा के साथ, प्रजा को राजा के साथ, मित्र को मित्र के साथ, पिता को पुत्र के साथ कर्तव्यों का वर्णन एवं उन्हें अपनाने की सीख दी गई है। एक प्रसंग के अनुसार-आज के बच्चों को उनके कर्तव्य का बोध ‘प्रातः काल उन्हें माता-पिता के चरण छूना चाहिए’ कराते हुए लिखा गया है –

प्रातकाल उठि के रघुनाथा। मातु-पिता गुरु नावहिं माथा॥

इस कर्तव्य का उन्हें शीघ्र फल भी प्राप्त होता है। राम अपने भाइयों के साथ गुरु विश्वामित्र के घर पढ़ने जाते हैं और सारी विद्याएँ शीघ्र ही ग्रहण कर लेते हैं –

गुरु गृह पढ़न गए दोउ भाई। अल्पकाल सब विद्या पाई ॥

आदर्शवादी व्यवहार-रामचरित मानस नामक यह पुस्तक पाठकों के मन में धर्म और भक्तिभाव का उदय तो करती है साथ ही आदर्श व्यवहार की सीख भी देती है। यह मानव को मानवोचित व्यवहार के लिए प्रेरित करती है।

राजा पर यह दायित्व होता है कि वह प्रजा का पालन-पोषण करें तथा अपने कर्तव्यों का उचित प्रकार से निर्वाह करे। इसी को याद दिलाते हुए तुलसीदास ने लिखा है –

जासु राज निज प्रजा दुखारी। सो नृप अवस नरक अधिकारी।

आज के मंत्रियों और अफसरों के लिए इससे बड़ी सीख और क्या हो सकती है।

प्रेरणादायिनी – रामचरित मानस नामक यह पुस्तक हमें कर्म का संदेश देती है। राम ईश्वर के अवतार थे, अंतर्यामी थे, त्रिकालदर्शी थे, फिर भी उन्होंने आम इनसान की तरह हर कार्य अपने हाथों से करके एक ओर कर्म की प्रेरणा दी तो दूसरी ओर असत्य, अन्याय और अत्याचार सहन न करके उससे मुकाबला करने की प्रेरणा दी। इस महाकाव्य की एक-एक पंक्ति जीवन के सभी पक्षों को प्रेरित करती है।

उपसंहार – ‘रामचरितमानस’ की रचना को लगभग पाँच सौ वर्ष बीत गए पर इसकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। यह पुस्तक भारत में ही नहीं विश्व की भाषाओं में रूपांतरित की गई। इसकी अवधी भाषा, दोहा, सोरठा और चौपाई जैसे गेयता वाले छंदों के कारण यह पढ़ने में सरल सहज और सुनने में कर्णप्रिय है। इसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह महाकाव्य हर हिंदू के घर में देखा जा सकता है।

(17) फ़िल्म जो अच्छी लगी

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • फ़िल्म की कहानी
  • उपसंहार
  • कथानक एवं दृश्य
  • फ़िल्म के दृश्य, पात्र एवं संवाद

प्रस्तावना – मनुष्य किसी-न-किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए श्रम करता है। श्रम के उपरांत थकान एवं तनाव होना स्वाभाविक है। इससे छुटकारा पाने के लिए अनेक तरीके अपनाता है। वह खेल-तमाशे, नाटक, फ़िल्म, देखता है तथा पत्र-पत्रिकाएँ पढ़कर तरोताज़ा महसूस करता है। इनमें फ़िल्म देखना सबसे लोकप्रिय तरीका है जिससे तनाव-थकान से मुक्ति के अलावा ज्ञानवर्धन एवं मनोरंजन भी होता है। मैंने भी अपने मित्रों के साथ जो फ़िल्म देखी, वह थी- चक दे इंडिया जो मुझे अच्छी और प्रेरणादायक लगी।

कथानक एवं दृश्य – इस फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद से ही इसकी काफ़ी चर्चा थी। मेरे मित्र भी इस फ़िल्म का बखान करते थे कि यह प्रेरणादायी फ़िल्म है। मैंने अपने मित्रों के साथ इस फ़िल्म को देखा।

इस फ़िल्म में अभिनेता शाहरुख खान ने मुख्य भूमिका निभाई है। इसमें भारतीय महिला हाकी टीम की तत्कालीन दशा को मुख्य विषय बनाया गया है। फ़िल्म में खेल और राजनीति का संबंध, खेल भावना का परिचय, सांप्रदायिक तनाव, खेल में अधिकारियों का हस्तक्षेप, कभी गुस्साई और कभी हर्षित जनता की प्रतिक्रिया सब कुछ वास्तविक-सा लगता है।

फ़िल्म की कहानी – इस फ़िल्म में शाहरुख खान को भारतीय हॉकी टीम के कप्तान के रूप दर्शाया गया है। वह पठान मुसलमान है। उनकी टीम चिर-परिचित प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के विरुद्ध मैच खेल रही है। मैच में भारतीय टीम 1-0 से पिछड़ रही है। भारतीय खिलाड़ी जोरदार प्रदर्शन करते हैं और पेनाल्टी कार्नर का मौका टीम को मिल जाता है। इस पेनाल्टी कार्नर को गोल में बदलने में शाहरुख खान असफल रहते हैं। खेल जारी रहता है पर समाप्ति पर भारत वह मैच 1-0 से हार जाता है।

इसी दृश्य से पूर्व भारतीय कप्तान और पाकिस्तानी कप्तान को आपस में बातचीत करते दर्शा दिया जाता है। चूँकि भारत यह मैच हार चुका था इसलिए मीडिया इस मुलाकात का गलत अर्थ निकालती है और इस घटना के षड्यंत्र के साथ पेश करती है। ऐसे में देश की जनता भड़क जाती है। भारत में कप्तान की छवि खराब हो जाती है। कुछ उपद्रवी खेल प्रेमी उनका मकान नष्ट कर देते हैं। देश की जनता उन्हें गद्दार कहती है। वे धीरे-धीरे गुमनामी के अंधकार में खो जाते हैं।

इस घटना के पाँच, छह वर्ष बाद यह दिखाया जाता है कि भारतीय महिला हॉकी टीम की स्थिति इतनी खराब है कि कोई कोच बनने के लिए तैयार नहीं है। ऐसे में शाहरुख खान कोच की भूमिका निभाने के लिए आगे आते हैं। भारत के अलग-अलग राज्यों से आईं खिलाड़ियों के बीच समस्या-ही-समस्या है। सबकी अलग-अलग भाषा, रहन-सहन, तौर-तरीके सब अलग हैं। उनको एकता के सूत्र में बाँधना चुनौती है। ये महिला खिलाड़ी आपस में लड़ जाती हैं और कोच को हटाने की माँग करती हैं। संयोग से एक विदाई समारोह में इन खिलाड़ियों में एकता हो जाती है।

इसी बीच शाहरुख खान (कोच) भारतीय पुरुष एवं महिला हॉकी टीमों के बीच मुकाबला करवाते हैं। इस मुकाबले से महिला टीम की योग्यता सभी के सामने आ जाती है। अब टीम को विश्व कप प्रतियोगिता में भेजा जाता है जहाँ वह पहला मैच 7-1 से हार जाती है। यह हार उनके लिए टॉनिक का काम करती है और जीत दर्ज करते-करते विश्वकप जीत लेती है। अब वही मीडिया और भारतीय जनता शाहरुख खान को सिर पर बिठा लेती है।

फ़िल्म के दृश्य, पात्र एवं संवाद – यह फ़िल्म इतनी प्रभावी है कि दर्शकों को अंत तक बाँधे रखती है। फ़िल्म में मारपीट, खीझ, गुस्सा, संघर्ष, प्रतिशोध, एकता, साहस, हार से सबक, जीत की खुशी आदि को अच्छे ढंग से दर्शाया गया है। इसमें शाहरुख का अभिनय दर्शनीय है। खिलाड़ियों में जीत की चाह देखते ही बनती है जो अंत में उनकी विजय के लिए वरदान बन जाती है।

उपसंहार-‘चक दे इंडिया’ वास्तविक-सी लगने वाली कहानी पर बनी फ़िल्म है जो हार से मिली असफलता से निराश न होने तथा पुनः प्रयास कर आगे बढ़ने का संदेश देती है। यह फ़िल्म एकता एवं सौहार्द बढ़ाने में भी सहायक है। इस फ़िल्म का संदेश है, मुसीबत से हार न मानकर सफलता की ओर बढ़ते जाना, यही जीवन की सच्चाई है।

(18) परोपकार
या
परहित सरिस धर्म नहिं भाई

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • परोपकारी प्रकृति
  • परोपकार के विविध उदाहरण
  • उपसंहार
  • परोपकार-मानवधर्म
  • परोपकार के विविध रूप
  • वर्तमान स्थिति

प्रस्तावना- परोपकार शब्द ‘पर’ और ‘उपकार’ के मेल से बना है, जिसका अर्थ है-दूसरों की भलाई अर्थात दूसरों की भलाई के लिए तन-मन और धन से किए गए सभी कार्य परोपकार कहलाते हैं। परोपकार के समान न कोई धर्म है और न दूसरों को सताने जैसा कोई पाप। मनुष्य का सारा जीवन प्रेम और सहयोग पर आधारित है। इसी सहयोग के मूल में है-परोपकार, जिससे उपकारी और उपकृत दोनों कों खुशी होती है।

परोपकार-मानवधर्म – परोपकार मानवजीवन का सबसे बड़ा धर्म कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। मनुष्य का धर्म है, कि वह जैसे भी हो दूसरे की मदद करे। यहीं से परोपकार की शुरुआत हो जाती है। यदि मनुष्य परोपकार नहीं करता है तो उसमें और पशु में क्या अंतर रह जाता है। कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –

अहा! वही उदार है, परोपकार जो करे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

परोपकारी प्रकृति-हम ध्यान से देखें तो प्रकृति का कण-कण परोपकार में लीन दिखता है। सूर्य अपना प्रकाश धरती का अँधेरा भगाने के लिए करता है तथा गरमी से शीत हर लेता है ताकि जीव आनंदपूर्वक रह सके। चाँद अपनी शीतलता से मन को शांति देता है। बादल दूसरों की भलाई के लिए बरसकर अपना अस्तित्व नष्ट कर लेते हैं। इसी प्रकार नदी तालाब अपना पानी दूसरों के लिए त्याग देते हैं। पेड़ दूसरों की क्षुधा शांति के लिए ही फल धारण करते हैं। प्रकृति के अभिन्न अंग फूल अपनी सुगंध दूसरों को बाँटते रहते हैं। प्रकृति के इस कार्य से प्रेरित होने में संत और सज्जन कहाँ पीछे रहने वाले। वे भी दूसरों की भलाई के लिए धन एकत्र करते हैं। कवि रहीम ने ठीक ही कहा है –

तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर करत न पान।
कह रहीम परकाज हित, संपति सँचहि सुजान॥

परोपकार के विविध रूप – परोपकार के नाना रूप साधन एवं तरीके हैं। मनुष्य वाणी, मन और कर्म से परोपकार कर सकता है, पर सबसे अच्छा तरीका कर्म द्वारा दूसरों की भलाई करना है, क्योंकि इसका प्रत्यक्ष लाभ व्यक्ति को मिलता है। वाणी द्वारा दूसरों की भलाई दूसरों का मनोबल बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती है। परोपकार के अंतर्गत हम असहाय की धन से मदद करके रोगी की सेवा करके, अपाहिज को उसके गंतव्य तक पहुँचाने जैसे छोटे-छोटे कार्यों द्वारा कर सकते हैं।

परोपकार के विविध उदाहरण – भारत का इतिहास परोपकारी व्यक्तियों के कार्यों से भरा पड़ा है। यहाँ लोगों ने मानवता की भलाई के लिए न अपने धन को धन समझा और न तन को तन। आवश्यकता पड़ने तन, मन और धन से दूसरों की भलाई की। भामाशाह ने अपनी जीवनभर की संचित कमाई राणा प्रताप के चरणों में रख दिया। महर्षि दधीचि ने देवताओं को संभावित पराजय से बचाने के लिए और मानवता के कल्याण हेतु अपनी हड्डियों तक का दान दे दिया। कर्ण ने अपने जीवन की परवाह न करते हुए कवच, कुंडल और सोने के दाँत तक का दान दे दिया।

राम, कृष्ण, ईसा मसीह, मदर टेरेसा, सुकरात, महात्मा गांधी आदि ने अपना जीवन ही परोपकार में लगा दिया। परोपकार के लिए सुकरात ने ज़हर का प्याला पिया, तो गौतम बुद्ध राज्य का सुख छोड़कर संन्यासी बन गए।

वर्तमान स्थिति – मनुष्य अपनी बढ़ी हुई आवश्यकताएँ, लोभ एवं स्वार्थ की प्रवृत्ति के कारण इतना उलझा हुआ है कि परोपकार जैसे कार्य पीछे छूट गए हैं। लोगों में परोपकारी भावना का अभाव दिखता है। आज मनुष्य को अधिकाधिक धन संचय करने की पड़ी है इस कारण वह पशुवत अपने लिए ही जी रहा है और मर रहा है। दूसरों की भलाई करना किताबों तक सीमित रह गया है।

उपसंहार – मानव जीवन को तभी सार्थक कहा जा सकता है जब वह परोपकार करे। इसके लिए छोटे-से-छोटे कार्य से शुरुआत की जा सकती है। परोपकार करने से खुद को आत्मिक शांति तो मिलती है वहीं दूसरे को मदद एवं खुशी भी मिलती है। मनुष्य को परोपकारी वृत्ति का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए।

(19) समय का सदुपयोग

संकेत-बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • समय का अधिकाधिक उपयोग
  • प्रकृति से सीख
  • समय नियोजन का महत्त्व
  • आलस्य समय के सदुपयोग में बाधक
  • उपसंहार

प्रस्तावना – मनुष्य अपने जीवन में बहुत कुछ कमाता है और बहुत गँवाता है। उसे प्रत्येक वस्तु परिश्रम के उपरांत प्राप्त होती है, परंतु प्रकृति ने उसे समय का अमूल्य उपहार मुफ़्त दिया है। इस उपहार की अवहेलना करके उसकी महत्ता न समझने वालों को एक दिन पछताना पड़ता है क्योंकि गया समय लौटकर वापस नहीं आता है। जो समय बीत गया उसे किसी हाल में लौटाया नहीं जा सकता है।

समय नियोजन का महत्त्व – समय ऐसी शक्ति है जिसका वितरण सभी के लिए समान रूप से किया गया है, परंतु उसका लाभ वही उठा पाते हैं जो समय का उचित नियोजन करते हैं। प्रकृति ने किसी के लिए भी छोटे दिन नहीं बनाया है परंतु नियोजनबद्ध तरीके से काम करने वाले हर काम के लिए पूरा समय बचा लेते हैं और अनियोजित तरीके से काम करने वालों का काम समय पर पूरा न होने से समय की कमी का रोना रोते हैं। समय का नियोजन न करने वालों को समय पीछे ढकेल देता है और समय का सदुपयोग करने वाले सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं।

महापुरुषों की सफलता का रहस्य उनके द्वारा समय का नियोजन ही है जिससे वे समय पर अपने काम निपटा लेते हैं। गांधी जी समय के एक-एक क्षण का सदुपयोग करते थे। वे अपनी दिनचर्या के अनुरूप रोज़ का काम रोज़ निपटाने के लिए तालमेल बिठा लेते थे। विद्यार्थी जीवन में समय का सदुपयोग और उसके नियोजन का महत्त्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि इसी काल में उसे विद्यार्जन के अलावा शारीरिक और चारित्रिक विकास पर भी ध्यान देना होता है। इसके लिए उसे हर विषय के अध्ययन के लिए समय निकालना पड़ता है ताकि कोई विषय छूट न जाए। इसके अलावा उसे खेलने और अन्यकार्यों के लिए भी समय विभाजन करना पड़ता है। जो विद्यार्थी समय का उचित विभाजन नहीं करते वे सफलता नहीं प्राप्त कर पाते। आज का काम कल पर छोड़ने वाले विदयार्थी भी सफलता से कोसों दूर रह जाते हैं। फिर किस्मत का रोना रोने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं बचता है। ऐसे विद्यार्थियों के लिए ही कहा गया है कि –

अब पछताए होत का, जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।

समय का अधिकाधिक उपयोग – समय का महत्त्व और मूल्य समझकर हमें इसका अधिकाधिक उपयोग करना चाहिए। हमें एक बात यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि Time and tide wait for none अर्थात समय और ज्वार किसी की प्रतीक्षा नहीं करते हैं। वे अपने समयानुसार आते-जाते रहते हैं। यह तो व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है कि वे उनका उपयोग करते हैं या सदुपयोग। समय के बारे में एक बात सत्य है कि समय किसी की भी परवाह नहीं करता। यह किसी शासक, राजा या तानाशाह के रोके नहीं रुका है। जिन लोगों ने समय को नष्ट किया है, समय उनसे बदला लेकर एक दिन उन्हें अवश्य नष्ट कर देता है।

इस क्षणभंगुर मानव जीवन में काम अधिक और समय बहुत कम है। नेपोलियन और सिकंदर महान ने समय के पल-पल का उपयोग किया। समय पर बिना चूके अपने शत्रुओं-पर हमला किया और विजयश्री का वरण किया। समय पर हमले का जवाब न देने वाले, शत्रुओं को समय देने वाले शासक के हाथ पराजय ही लगती है। आतंकियों द्वारा लगाए बम को समय पर नष्ट न करने का कितना भीषण परिणाम होगा यह बताने की आवश्यकता नहीं है। समय के एक-एक पल की कीमत समझते हुए संत कबीर दास ने ठीक ही लिखा है –

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करेगा कब॥

आलस्य समय के सदुपयोग में बाधक – कुछ लोग समय का उपयोग तो करना चाहते हैं, परंतु आलस्य उनके मार्ग में बाधक बन जाता है। यह मनुष्य को समय पर काम करने से रोकता है। आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। कहा भी गया है, “आलस्यो हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः”। जो लोग बुद्धिमान होते हैं वे खाली समय का उपयोग अच्छी पुस्तकें पढ़ने में करते हैं इसके विपरीत मूर्ख अपने समय का उपयोग सोने और झगड़ने में करते हैं। कहा भी गया है –

काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रांकलहेन वा॥

उपसंहार- प्रकृति ने समय का बँटवारा सभी के लिए बराबर किया है। हमें चाहिए कि हम इसी समय का उचित नियोजन करें और प्रत्येक कार्य को समय पर निपटाने का प्रयास करें। आज का कार्य कल पर छोड़ने की आदत आलस्य को बढ़ावा देती है। हमें समय का उपयोग करते हुए सफलता अर्जित करने का प्रयास करना चाहिए।

(20) पत्र-पत्रिकाओं के नियमित पठन के लाभ

संकेत बिंदु –

  • प्रस्तावना
  • पढने की स्वस्थ आदत का विकास
  • पत्र-पत्रिकाएँ कितनी लाभदायी
  • उपसंहार
  • ज्ञान एवं मनोरंजन का भंडार
  • रंग-बिरंगी पत्र पत्रिकाएँ
  • पत्रिकाओं से दोहरा लाभ

प्रस्तावना – मनुष्य जिज्ञासु एवं ज्ञान-पिपासु जीव है। वह विभिन्न साधनों एवं माध्यमों से अपनी जिज्ञासा एवं ज्ञान-पिपासा शांत करता आया है। अन्य प्राणियों की तुलना में उसका मस्तिष्क विकसित होने के कारण वह अनेकानेक साधनों का प्रयोग करता है। ऐसे ही साधनों में एक है-पत्र-पत्रिकाएँ, जिनके द्वारा मनुष्य अपना ज्ञानवर्धन एवं मनोरंजन करता है।

ज्ञान एवं मनोरंजन का भंडार – पत्र-पत्रिकाएँ अपने अंदर तरह-तरह का ज्ञान समेटे होती हैं। इनके पठन से ज्ञानवर्धन के साथ-साथ हमारा स्वस्थ मनोरंजन भी होता है। वैसे भी पत्र-पत्रिकाएँ और पुस्तकें मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र होती हैं। पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ते समय यदि व्यक्ति इनमें एक बार खो गया तो उसे अपने आस-पास की दुनिया का ध्यान नहीं रह जाता है। पाठक को ऐसा लगने लगता है कि उसे कोई खजाना मिल गया है। इनमें छपी कहानियों से हमारा मनोरंजन होता है तो वहीं हमें नैतिक ज्ञान भी मिलता है तथा मानवीय मूल्यों की समझ पैदा होती है। इनमें विभिन्न राज्यों पर छपे लेख, वर्ग-पहेलियाँ, शब्दों का वर्गजाल, बताओ तो जानें आदि स्तंभ ज्ञानवृद्धि में सहायक होते हैं। रंगभरो, बिंदुजोड़ो, कविता। कहानी पूरी कीजिए जैसे स्तंभ ज्ञान में वृद्धि करते हैं।

पढ़ने की स्वस्थ आदत का विकास – पत्र-पत्रिकाओं के नियमित पठन से पढ़ने की स्वस्थ आदत का विकास होता है। यह देखा गया है कि जो बालक पढ़ने से जी चुराते हैं या पाठ्यक्रम की पुस्तकें पढ़ने से आना-कानी करते हैं उनमें पढ़ने की आदत विकसित करने का सबसे अच्छा साधन पत्र-पत्रिकाएँ हैं। इनमें छपी कहानियाँ, चुटकुले, आकर्षक चित्र पढ़ने को विवश करते हैं। यह आदत धीरे-धीरे बढ़ती जाती है जिसे समयानुसार पाठ्य पुस्तकों के पठन की ओर मोड़ा जा सकता है। इससे बच्चे में पढ़ने की आदत का विकास हो जाता है तथा पढ़ाई के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाती है। ये पत्र-पत्रिकाएँ बच्चों के लिए पुनरावृत्ति का काम करती हैं। कई बच्चे कहानियाँ पढ़ने की लालच में गृहकार्य करने बैठ जाते हैं।

रंग-बिरंगी पत्रिकाएँ – बच्चों तथा पाठकों की आयु-रुचि तथा पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन अवधि के आधार पर इन्हें कई वर्गों में बाटा जा सकता है। जो पत्र-पत्रिकाएँ सप्ताह में एक-बार प्रकाशित की जाती हैं, उन्हें साप्ताहिक पत्रिकाएँ कहा जाता है। इन पत्रिकाओं में राजस्थान पत्रिका, सरस सलिल, इंडिया टुडे आदि मुख्य हैं। कुछ पत्रिकाएँ पंद्रह दिनों में एक बार छापी जाती हैं। इन्हें पाक्षिक पत्रिका कहते हैं। पराग, नंदन, नन्हे सम्राट, चंपक, लोट-पोट, चंदा मामा, सरिता, माया आदि ऐसी ही पत्रिकाएँ हैं।

महीने में एक बार छपने वाली पत्र-पत्रिका को मासिक पत्रिकाएँ कहा जाता है। इन पत्रिकाओं में गृहशोभा, सुमन, सौरभ, मुक्ता कादंबिनी, रीडर्स डाइजेस्ट, प्रतियोगिता दर्पण, मनोरमा तथा फ़िल्मी दुनिया से संबंधित बहुत-सी पत्रिकाएँ हैं। इनके अलावा और भी विषयों और साहित्यिक पत्रपत्रिकाओं का प्रकाशन महीने में एक बार किया जाता है। कुछ पत्रिकाओं का वार्षिकांक और अर्ध-वार्षिकांक भी प्रकाशित होता है।

पत्र-पत्रिकाएँ कितनी लाभदायी – पत्र-पत्रिकाएँ मनुष्य के दिमाग को शैतान का घर होने से बचाती हैं। ये हमारे बौद्धिक विकास का सर्वोत्तम साधन हैं। इन्हें ज्ञान एवं मनोरंजन का खजाना कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। शरीर और मस्तिष्क की थकान और तनाव दूर करना हो या अनिद्रा भगाना हो तो पत्र-पत्रिकाएँ काम आती हैं। सफर में इनसे अच्छा साथी और कौन हो सकता है। एकांत हो या किसी का इंतज़ार करते हुए समय बिताना हो पत्रिकाओं का सहारा लेना सर्वोत्तम रहता है। इनसे खाली समय आराम से कट जाता है। इन पत्र-पत्रिकाओं में छपी जानकारियों का संचयन करके जब चाहे काम में लाया जा सकता है।

पत्रिकाओं से दोहरा लाभ – पत्र-पत्रिकाएँ एक ओर हमारा बौद्धिक विकास करती हैं, मनोरंजन करती हैं तो दूसरी ओर रोज़गार का साधन भी हैं। इनके प्रकाशन में हज़ारों-लाखों को रोजगार मिला है तो बहुत से लोग इन्हें बाँटकर और बेचकर रोटी-रोज़ी का इंतजाम कर रहे हैं। इसके अलावा इन पत्रिकाओं को पढ़कर रद्दी में बेचने के बजाय बहुत से लोग लिफ़ाफ़े बनाकर अपनी आजीविका चला रहे हैं। इस प्रकार पत्रिकाएँ आम के आम और गुठलियों के दाम की कहावत को चरितार्थ कर रही हैं।

उपसंहार-पत्र-पत्रिकाएँ हमारी सच्ची मित्र हैं। ये हमारे सामने ज्ञान का मोती बिखराती हैं। इनमें से कितनी मोतियाँ हम एकत्र कर सकते हैं, यह हमारी क्षमता पर निर्भर करता है। हमें पत्र-पत्रिकाओं के पठन की आदत डालनी चाहिए तथा जन्मदिन आदि के अवसर पर उपहारस्वरूप पत्रिकाएँ देकर नई शुरुआत करनी चाहिए।

NCERT Solutions for Class 10 Hindi

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