आवारा मसीहा Summary – Class 11 Hindi Antral Chapter 3 Summary
आवारा मसीहा – विष्णु प्रभाकर – कवि परिचय
‘आवारा मसीहा’ के लेखक ‘विष्णु प्रभाकर’ हैं। इस पाठ में लेखक ने उन सभी परिस्थितियों का वर्णन किया है जो शरतचंद्र को रचनाकार बनने की आधार-भूमि और प्रेरणा-स्रोत बर्नी। शरत् अपने मामा सुंेंद्र के साथ बाग में घूमने जाता है। सुरेंद्र मामा होते हुए उससे उम्र में छोटा था इसलिए दोनों में मित्रता का संबंध था। शरत भागलपुर छोड़कर जा रहा था। उसके जाने से सुेंद्र दुखी था। वह उसे सांत्वना देते हुए कहने लगा कि वह फिर वापस भागलपुर आएगा क्योंकि भागलपुर बहुत प्यारी जगह है।
शरत को अपनी माँ और पिता जी के साथ नाना के घर रहते हुए तीन वर्ष हो चुके थे। जब उसकी माँ उसे उसके जन्म के बाद पहली बार लेकर आई थी। उस समय उसके नाना-नानियों ने उस पर धन और अलंकारों की वर्षा की थी। नाना केदारनाथ ने कमर में सोने की तगड़ी पहनाकर उसे गोद में उठाया था। वह इस पीढ़ी का पहला लड़का था। तीन वर्ष पहले वे लोग भागलपुर इसलिए आ गए थे क्योंकि उसके पिता मोतीलाल कोई काम नहीं करते थे। वे कल्पना में जीने वाले इनसान थे।
कहीं भी अधिक देर काम नहीं करते थे। उनका जल्दी ही बड़े अफसरों से झगड़ा हो जाता था। उन्हें कहानी, उपन्यास, नाटक आदि सभी कुछ लिखने का शौक था। उनकी कहानियों का आरंभ बहुत सुंदर होता था लेकिन अंत उतना ही महत्वहीन। उन्होंने कभी भी अंत की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं किया था। उनकी इन आदतों के कारण घर को चलाना कठिन हो गया था। इसलिए शरत की माँ भुवनमोहिनी सबको साथ लेकर अपने पिता केदारनाथ के घर भागलपुर चली गई। मोतीलाल घर-जँवाई बनकर रहने लगे।
शरत् के नाना ‘दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल’ के मंत्री थे इसीलिए बिना पूछ-ताछ के उसका दाखिला छात्रवृत्ति कक्षा में कर दिया गया। उसने अब तक केवल ‘बोधोदय’ तक पढ़ा था। यहाँ इस कक्षा में उसे ‘सीता वनवास,’ ‘चारुपाठ,’ ‘सद्भाव-सद्युरु और ‘प्रकांड व्याकरण’ पढ़ना पड़ा। इससे शरत पढ़ाई में पीछे रह गया। उसका साहित्य से पहला परिचय आँसुओं के माध्यम से हुआ। उसे लगता था कि साहित्य का काम मनुष्य को केवल दुख पहुँचाना है। उसे कक्षा में पीछे रहना सहन नहीं हुआ। उसने बड़ी लगन और मेहनत से पढ़ाई आरंभ कर दी जिससे वह क्लास में अच्छे विद्यार्थियों में गिना जाने लगा। नाना का परिवार संयुक्त परिवार था।
नाना के कई भाई थे। छोटे नाना अघोरनाथ का बेटा मर्जंंद्र उसका सहपाठी था। उन दोनों को घर पर अक्षय पंडित पढ़ाने आते थे। उनका विश्वास था कि विद्या का निवास गुरु के डंडे में है। शरत शरारती बालक था। पढ़ते समय भी उसकी शरारतें चलती रहती थी। एक दिन अक्षय पंडित बुखार होने के कारण पढ़ाने नहीं आए। नाना उन्हें देखने के लिए चले गए। वे सभी तेल के दीए के चारों ओर बैठे पढ़ रहे थे। नाना के जाते ही शरत कविता गाने लगा और सभी बच्चे उसका अनुकरण करने लगे। एक दिन कमरे में चमगादड़ का बच्चा घुस गया।
वहाँ नाना जी और छोटा मामा देवी सोए हुए थे। शरत और मणि के हाथों में खुजली होने लगी कि चमगादड़ के बच्चे को लाठियों से मारा जाए। एक लाठी दीये पर जाकर लगी, जिससे दीया गिर गया और तेल चादर पर फैल गया। शरत और मणि यह देखते ही वहाँ से भाग गए। नाना ने उठकर देखा कि कमरे में अँधेरा हो गया। नौकर से पूछा तो उसने सारी बात पास सो रहे देवी मामा पर डाल दी। उस दिन देवी मामा को रात अस्तबल में काटनी पड़ी।
शरत के बड़े मामा सभी बच्चों की शिक्षा की देखभाल करते थे। वे गांगुली परिवार की कट्टरता और कठोरता के प्रतिनिधि थे। एक दिन मोतीलाल बच्चों को लेकर गंगा किनारे घूमने निकल गए। ठाकुरदास मामा को पता चल गया। व्यर्थ घूमना उनके लिए बहुत बड़ा अपराध था। उन्होंने सभी बच्चों की परीक्षा ली जिसमें से मणि और शरत बच गए लेकिन देवी फँस गया। उस दिन चावुक की मार के साथ-साथ अस्तबल में बंद होना पड़ा। शरत पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। शरत स्कूल में बहुत शरारतें करता था।
अक्षय पंडित को काम के बाद तमाकू खाने की आदत थी। इसी कारण वे क्लास छोड़कर पान खाने चले जाते। पीछे से शरत लड़कों का नेता बनकर घड़ी को आगे कर देता था। शुरू में दस मिनट आगे चलने लगी थी। फिर धीरे-धीरे उसका समय एक घंटा आगे पहुँच गया। अक्षय पंडित को संदेह हुआ। एक दिन वे समय से पहले कक्षा में लौट आए थे। उन्हें देखकर सभी बच्चे भाग गए, केवल शरत भोला-सा मुँह बनाए अपना काम करता रहा। मास्टर के पूछने पर वह साफ़ बच निकला कि उसे कुछ नहीं पता, वह तो चुपचाप बैठा काम कर रहा था। उसकी इन्हीं बातों के कारण सबका विश्वास उस पर जम गया था।
शरत को पशु-पक्षी पालने और उपवन लगाने का बहुत शौँक था। तितली पालना उसका प्रमुख शौक था। उसने तितलियों को लकड़ी के डिब्चे में बंद-कर रखा था। वह बड़े प्यार से उनकी देखभाल करता था। वह सभी बच्चों के बीच तितली-युद्ध का प्रदर्शन भी करता था। सभी बच्चे अपने-अपने छंग से शरत् को प्रसन्न रखते थे। उसके उपवन में ऋलुतु के अनुसार जूही, बेला, चंद्रमल्लिका और गेंदा आदि के फूल थे। उपवन के बीचोबीच उसने एक गड्ढा खोदकर तलैया का निर्माण कर रखा था। उस पर टूटा हुआ शीशा ढक रखा था।
वह साधारणतया उस पर मिट्टी लीप देता था परंतु यदि कोई व्यक्ति विशेष देखने आता था तो मिट्टी हटाकर उसको चकित कर देता था। वह ऐसे सभी काम नाना-लोग से छिपकर करता था। घर में बच्चों की पढ़ाई के लिए नियम बनाए गए थे। जो नियम तोड़ता था उसे उसकी आयु के अनुसार दंड दिया जाता था। शरत आँखों में धूल झोंककर खेलने चला जाता था। छात्रवृत्ति की परीक्षा के उपरांत उसे अंग्रेज़ी स्कूल में दाखिल करवा दिया गया। वहाँ भी वह पढ़ाई में होशियार था। शरत् को सभी खेल प्रिय थे। शरत् सभी खेलों में निपुण था। वह बागों में से फल चुराने में कुशल था। शरत्चंद्र ने अपनी रचनाओं में अपने सभी पात्रों जैसे देवदास, श्रीकांत, दुर्दातराम और सव्यसाची को इस कला में निपुण दिखाया है।
शरत् में अपने पिता की तरह अच्छा साँदर्य-बोध था। वह अपना सारा सामान सजाकर और सहेजकर रखता था। उसका स्वभाव दूसरों को देना था। वह दिन-भर में जितनी गोलियाँ और लट्टू जीतता था, सभी को छोटे बच्चों में बाँट देता था। वह बचपन से स्वल्पाहारी था। शरतचंद्र की ‘बड़ी बहू’ सबसे अधिक इसीलिए परेशान रहती थी। वह पढ़ते हुए अपने शरीर का भी बड़ा ध्यान रखता था। उसके मामा के घर के पास एक मकान खाली था, जहाँ उसने कुश्ती का अखाड़ा तैयार कर लिया था। गोला फेंकने के लिए गंगा में से पत्थर इकट्ठे कर लिए थे। पैंरलल बार के लिए बाँस रख लिया था। यह सब काम घरवालों से छिपकर किए गए थे।
एक बार मणि और शरत ताल पर स्नान करने चले गए। घर पर उनके ताल पर नहाने का पता चल गया। अघोर मामा ने मणि को बहुत मारा। शरत को मामी ने गोदाम में छिपा दिया था। तीन दिन बाद वह गोदाम से निकला। उसे खेलने के साथ पढ़ने का भी बहुत शौक था। उसने पिता के संग्रहालय की सभी पुस्तकें पढ़ ली थीं। एक बार उसके हाथ एक पुस्तक लगी जिसका नाम ‘संसार कोश’ था। उसमें कई तरह के मंत्र दिए हुए थे। शरत ने उन मंत्रों की परीक्षा करनी आरंभ कर दी। एक मंत्र साँपों को वश में करने का था। उसने एक साँप के बच्चे को वश में करने की कोशिश की, परंतु वह फण उठाकर फुँफकारने लगा था। सब बच्चे डर गए। मणि ने लाठी उठाकर उस साँप के बच्चे को मार दिया था।
कभी-कभी शरत किसी को बिना बताए गायब हो जाता था। फिर अचानक स्वयं प्रकट हो जाता था। पूछने पर कहता कि तपोवन गया था। तपोवन घोष परिवार के मकान के उत्तर में गंगा के बिलकुल पास था। इसमें एक कमरे को नाना प्रकार की लताओं से ढक लिया था जिसमें सूर्य की किरणें छन-छन कर उसके अंदर आती थी। शरत ने बताया उसे यहाँ बैठना अच्छा लगता है। यहीं बैठकर उसके दिमाग में बड़ी-बड़ी बातें आती हैं। सुरेंद्र को वह स्थान वास्तव में तपोवन लग रहा था। सुरेंद्र ने उस स्थान पर बैठकर मन ही मन प्रतिज्ञा की कि वह जीवन-भर सॉँदर्य की उपासना करेगा और अन्याय के विरुद्ध लड़ेगा।
शरत के अंकगणित में कभी पूरे अंक नहीं आए थे फिर भी अंग्रेजी स्कूल में प्रथम वर्ष की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था जिससे मिन्रों और गुरुजनों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई थी। स्कूल के पुस्तकालय से उसने उस युग के सभी प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएँ पढ़ ली थी। एक दिन अवकाश प्राप्त अध्यापक अघोरनाथ अधिकारी के साथ शरत गंगा-घाट पर स्नान करने के लिए जा रहा था। रास्ते में एक टूटे हुए घर से एक स्त्री के धीरे-धीरे रोने का स्वर आ रहा था। अघोरनाथ महोदय ने पूछा कि यह क्यों रो रही है ? शरत् ने बताया कि इस स्त्री का अंधा पति मर गया। दुखी लोग बड़े आदमियों की तरह दिखावे के लिए जोर-जोर से नहीं रोते।
इनका रोना तो दूसरे के प्राणों तक को भेद जाता है। अधिकारी महोदय छोटे-से बालक के मुँह से रोने का इतना सूक्ष्म विवेचन सुनकर चकित रह गए। उन्होंने अपने मित्र से शरत की चर्चा की। उनके मित्र ने कहा कि जो बालक अभी से रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है, वह निश्चय ही बड़ा होकर मनस्तत्व के व्यापार में अपना नाम ऊँचा करेगा। इस परिवार में केदारनाथ के चौथे भाई अरमनाथ पर नवयुग की हववा का कुछ प्रभाव था। उनकी साहित्य में रुचि थी। उनके द्वारा ही बंकिमचंद्र का ‘बंगदर्शन’ गांगुली परिवार में आ सका था। बंकिमचंद्र के गाँव ‘कांवालपाड़ा’ की एक लड़की गांगुली परिवार में बहू बनकर आई हुई थी। अमरनाथ के द्वारा लाया गया ‘बंगदर्शन’ भुवनमोहिनी से मोतीलाल के पास और वहाँ से कुसुमकामिनी की बैठक में पहुँच जाता था।
दुर्भाग्य से अमरनाथ की जल्दी ही मृत्यु हो गई जिससे सबसे अधिक दुःख बच्चों को हुआ था। अमरनाथ की कमी मोतीलाल और कुसुमकामिनी ने पूरी की। कुसुमकामिनी अघोरनाथ नाना की पल्ली थी। कुसुमकामिनी ने छात्रवृत्ति परीक्षा में ईश्वरचंद्र विद्यासागर से पुरस्कार प्राप्त किया था। कुसुमकामिनी अपना घर का काम समाप्त करके बैठक या छत पर छोटी-मोटी गोष्ठी करती थी। वह बच्चों को कई प्रकार की पुस्तकें पढ़कर सुनाती थी। उनके पढ़ने का ढंग मर्मस्पर्शी था। शरत् सोचता था कि लेखक भी असाधारण व्यक्ति होते हैं।
वह लेखक को मनुष्य से ऊपर मानता था। बहुत दिनों बाद उसने ‘बंगदर्शन’ में कविगुरु की युगांतकारी रचना ‘आँख की किरकिरी’ पढ़ी थी। इस कविता ने उसे एक नए प्रकाश और साँदर्य से भरे संसार में पहुँचा दिया था। वह उस कविता को जीवन-भर नहीं भूल सका। कुसुमकामिनी की गोष्ठी में इस परिवार का एक और सदस्य शामिल हुआ जो कि बाहर रहकर पढ़ता था। उसने रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता ‘प्रकृतिर प्रतिशोध’ सुनाई थी। उस कविता को सुनकर शरत् की आँखों में आँसू आ गए थे। शरत् का अपने नाना के परिवार में अपने पिता के कारण अधिक समय रहना संभव न हो सका। उसके पिता वह सभी कार्य करते थे जो घर में मना थे।
वह बच्च्चों की शरारतों में अपरोक्ष रूप से सहायता करते थे। कथाशिल्पी शरत्चंद्र ने ‘काशीनाथ’ में काशीनाथ को घर-जँवाई के रूप में दिखाया हैं, उसे भी मानसिक सुख नहीं था। गांगुली परिवार में अचानक एक घटना घट गई। केदारनाथ की पत्नी ताँगे से गिर गई थी। उन्हें काफी चोट लगी थी। डॉक्टर ने उन्हें कलकत्ता ले जाने के लिए कहा। उस समय तक परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ चुकी थी। सभी भाई अलग-अलग रहने लगे थे। अमरनाथ की बेटी विवाह योग्य हो चुकी थी। पितृहीन कन्या का विवाह देर से करने से अपवाद खड़ा हो सकता था। उस समय केदारनाथ ने मोतीलाल से देवानंदपुर जाकर काम करने के लिए कहा। मोतीलाल, भुवनमोहिनी और शरत् देवानंदपुर लौट आए थे।
देवानंदपुर लौटने से पहले शरत् का परिचय गांगुली परिवार के पड़ोस में रहने वाले राजू मजूमदार से हुआ। राजू मजूमदार के पिता रामरतन मजूमदार के सात बेटे थे। उन्होंने सभी के लिए कोठियाँ बनवा रखी थी। उन्हें पुरातनपंथी बंगाली समाज से निकाल दिया था। वे आधुनिक समाज का अनुकरण करते थे। गांगुली परिवार से उनका मनमुटाव था। राजू घर के स्वतंत्र वातावरण के कारण साहसी था। वह भी शरत की तरह पतंगबाजी के द्वंद्वयुद्ध में पारंगत था। राजू ने पैसे के बल से माँझा और पतंग खरीद लिए थे।
शरत ने अपना माँझा स्वयं तैयार किया था। दोनों में पेंच पर पेंच लड़ रहे थे। शरत ने राजू की पतंग काट दी थी। राजू ने अपनी पतंग और माँझा उसी समय गंगा को अर्पित कर दिया। वहीं से राजू और शरत मित्र बन गए। दोनों की रुचि काफ़ी सीमा तक एक जैसी थी। घर के अनुशासन ने शरत को राजू के नजदीक कर दिया। यही समय जीवन के सर्वांगीण विकास का प्रारंभिक काल माना जाता है। उसने परिवार के बाहर प्रेरण-स्रोत का खजाना दूँढ़ लिया था। उसमें प्रारंभ से ही महान बनने के गुण विद्यमान थे।
मोतीलाल चट्टोपाध्याय के पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय चौबीस परगना ज़िले में काचड़ापाड़ा के ब्राहमण परिवार के थे। मोतीलाल के पिता निर्भीक और स्वाधीनचेता व्यक्ति थे। वह समय जरीदारों के अत्याचारों का था परंतु वे सभी किसी से नहीं दबे थे। उन्होंने सदा प्रजा का पक्ष लिया। इसी कारण वे जमींदारों के क्रोध का शिकार हो गए। जर्मीदार ने उन्हें किसी मुकदमे में झूठी गवाही देने के लिए कहा। बैकुंठनाथ ने इनकार कर दिया। मोतीलाल उस समय बहुत छोटे थे। एक दिन बैकुंठनाथ घर से गायब हो गए।
बैकुंठनाथ की पत्ली बेटे को गोद में लिए सारी रात इंतजार करती रही। सुबह आकर एक आदमी ने बताया कि स्नानघाट पर बैकुंठनाथ का शव पड़ा है। बैकुंठनाथ की पत्नी जमींदार के डर से खुलकर रो नहीं पाई थी। बड़े-बूढ़े की सलाह पर मोतीलाल को लेकर रातों-रात देवानंदपुर अपने भाई के पास आ गई थी। मोतीलाल का विवाह भागलपुर के केदारनाथ गंगोपाध्याय की दूसरी बेटी भुवनमोहिनी के साथ हुआ था। केदारनाथ के पिता रामधन गंगोपाध्याय बहुत गरीब थे। अपनी गरीबी से तंग आकर वे आजीविका की खोज में हाली आकर बस गए। यहाँ उन्होंने बहुत मेहनत की थी और जल्दी संपन्नता और प्रतिष्ठा प्राप्त की।
मोतीलाल से उनके वंश कुलीनता के कारण ही उन्होंने अपनी बेटी की शादी की थी। मोतीलाल ने उसके पास रहकर मैट्रिक पास की थी। फिर आगे पढ़ने के लिए पटना चले गए। केदारनाथ का छोटा भाई अघोरनाथ उनका सहपाठी था। दोनों के स्वभाव एक-दूसरे के विपरीत थे। मोतीलाल कॉलेज में अधिक समय तक टिक नहीं सके थे। देवानंदपुर लौटकर कोई नौकरी करने लगे थे। उस समय नौकरी मिलना कठिन काम नहीं था। मामा से मिली जमीन पर एक मंजिला दो कमरों का घर बना लिया था। मोतीलाल की माँ सुगृहिणी थी और पत्नी शांत प्रकृति, निर्मल चरित्र और उदारवृत्ति की महिला थी। 15 सितंबर 1876 ई० को उनके यहाँ पर एक पुत्र ने जन्म लिया।
यह माता-पिता की दूसरी संतान थी। उससे पहले एक बहन अनिला का जन्म हो चुका था। लड़के का नाम शरत्चंद्र रखा गया। देवानंदपुर बंगाल का साधारण-सा गाँव है। नवाबी शासन में यह गाँव फ़ारसी भाषा की शिक्षा का केंद्र था। डेढ़ सौ वर्ष पहले रायगुणाकर कवि भारत चंद्र फ़ारसी भाषा के अध्ययन के लिए आए थे। उन्होंने अपना कैशोर्यकाल यहीं बिताया था। उस समय उनके साथ इस गाँव में हरिराम राय और रामचंद्रदत्त मुंशी पढ़ाने-लिखाने का काम करते थे। इसी गाँव में अत्यंत अभाव में शरत का बाल्यकाल का आरंभ हुआ। उसकी माँ अपने कल्पनाशील पति से कभी किसी भी वस्तु के लिए शिकायत नहीं करती थी। उनका कोमल मन सबके दुख से द्रवित हो उठता था।
उन्हें छोटे-बड़े सभी प्यार करते थे। शरत साहित्य में खोजने पर उनकी माँ जैसे अनेक चरित्र मिल सकते हैं। कभी-कभी उन्हें भी पति के आलसी और निकम्मेपन से ठेस पहुँचती थी। उस समय मोती लाल बाबू ‘शुभदा’ के हारान बाबू की तरह घर से निकल जाते और देर रात तक घर के बाहर रहते थे। शरत को पाँच वर्ष की आयु में पढ़ने के लिए प्यारी पंडित की पाठशाला में भर्ती करा दिया गया था। शरत् अपनी शरारतों के कारण हर रोज कोई न कोई कांड करके लौटता था। पंडित जी उसकी शिकायत उसके घर करते थे। कभी-कभी वह अपनी माँ से पिट जाता था परंतु दादी उसकी माँ को समझाती कि अभी बच्चा है।
पंडित जी भी कई बार उसकी शरारतों को अनदेखा कर देते थे। शरत् पंडित जी के लड़के का दोस्त था। स्कूल में शरत् की मित्रता एक लड़की धीरू से हो गई थी। दोनों इकट्ठे घूमते, खाते-पीते और लड़तेझगड़ते थे। दोनों के मध्य अजीब-सा गहरा संबंध था। एक दिन शरत ‘देवदास’ की तरह पाठशाला में स्लेट लिए बैठा था। उसकी आधी छुट्टी बंद धी। भोलू नाम का लड़का उसकी देखरेख कर रहा था। शरत ने भोलू को चूने के ढेर में धक्का देकर भाग गया। धीरू वहीं खड़ी थी। भोलू को चूने में धँसा देखकर मास्टर जी सारी स्थिति समझ गए। शरत की खोज शुरू हो गई। धीरू के सिवाए कोई नहीं जानता था कि शरत् कहाँ होगा।
धीरू उसके लिए मूड़ी लेकर ज़मंदार के आम के बाग में गई। वहाँ शरत और धीरू की किसी बात को लेकर लड़ाई हो गई। शरत ने धीरू को मारा, धीरू ने घर आकर उसकी माँ से उसकी शिकायत कर दी। शरत को अपनी माँ से मार पड़ी। उसने बाद में धीरू को मारा परंतु इससे दोनों की मित्रता में कोई अंतर नहीं आया। शरत ने अपने शैशव की संगिनी को आधार बनाकर अपने कई उपन्यासों की नायिकाओं का सृजन किया है- ‘देवदास’ की पारो, ‘बड़ी दीदी’ की माधवी और ‘श्रीकांत’ की राजलक्ष्मी। ‘चेसुक’ धीरू का विकसित और विराट रूप है। शरत और धीरू की मित्रता समय बीतने पर भी कम नहीं हुई थी।
शरत बीच-वीच में मछली का शिकार करता और नाव चलाता था। जब उसका इन सब चीजों से मन भर जाता तो वह घर से निकल पड़ता था। यह यात्रा तब खत्म होती थी जब उसके मन को चोट लगती थी और वह अपने घर आ जाता था। इस आवभगत के बाद उसका पढ़ने में कुछ दिन दिल लगता था फिर वह घर से नौ दो ग्यारह हो जाता। एक दिन वह देवानंदपुर से चार-पाँच मील दूर कृष्णपुर गाँव डोंगी को खेता हुआ पहुँचा। वहाँ रघुनाथ बाबा का प्रसिद्ध अखाड़ा था। वहाँ कीर्तन चल रहा था जिस कारण वह रात को वहीं रुक गया। अगले दिन दूँढ़ते हुए मोतीलाल वहाँ पहुँचे। उन्हीं दिनों गाँव में सिद्धेश्वर भट्टाचार्य ने नया बाँग्ला स्कूल खोला था।
शरत् को इस स्कूल दाखिल यह सोचकर करवा दिया गया था कि शायद यहाँ मन लगाकर पढ़े, लेकिन शरत के कार्यों में कोई अंतर नहीं आया। एक उसके पिता मोती लाल को ‘डेहरी आनसोन’ में नौकरी मिल गई। पिता उसे साथ ले गए। वहाँ भी उसकी शरारतें कम नहीं हुई परंतु उसका स्वभाव पहले से भी अधिक अंतर्मुखी हो गया था। देवानंदपुर लौटने पर मछलियाँ पकड़ने की सनक पहले से अधिक हो चुकी थी। एक दिन मोहल्ले का नयन बागदी दादी से गाय लाने के लिए पाँच रुपऐ माँगकर ले गया था।
पाँच रुपये के बदले में वह शरत को दूध दे दिया करेगा। नयन बागदी बसंतपुर गाय लाने के लिए चल दिया, उसके पीछे-पीछे शरत् भी चलने लगा। शरत ने सुन रखा था कि बसंतपुर में छीप बनाने के लिए अच्छे बाँस मिलते हैं। नयन को उसके पीछे आने का पता चला तो वह उसे वापस घर छोड़ आया। नयन वापस बसंतपुर की राह पर चल पड़ा। शरत् भी घर से नहाने का बहाना बनाकर उसके पीछे हो लिया। दो-ढाई मील बाद शरत नयन से जा मिला। नयन उसे देखकर चकित हो गया था। परंतु पीछे लौटना संभव नहीं था इसलिए वह उसे अपने साथ लेकर आगे चल पड़ा। बसंतपुर पहुँचकर नयन की बुआ ने दोनों की खातिरदारी की।
बिना रुपये लिए नयन को गाय दे दी। वापस लौटते समय शाम हो गई थी। रास्ते में घना जंगल पड़ता था। रात के समय जंगल में लुटेरे आक्रमण कर आदमी को मारकर सारा माल छीन लेते थे। गाँव वाले पुलिस के पास जाने से कतराते थे। उनके अनुसार बाघ के सामने पड़ने से प्राण बच सकते हैं परंतु पुलिस के पल्ले पड़ने से सब कुछ समाप्त हो जाता है। अचानक उन दोनों ने कुछ दूरी पर चीख सुनी। शरत भय से काँपने लगा। धुंध के कारण कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। किसी के भागने की आवाज सुनकर नयन चीखकर बोला कि उसके साथ ब्राह्मण का लड़का है। यदि किसी ने वार किया तो उसे वह जिंदा नहों छोड़ेगा। उसके बाद उन्हें कही से कोई आवाज सुनाई नहीं दी।
थोड़ा आगे जाने पर उन्हें वह आदमी मिला जिसकी चीख उन्होंने सुनी थी। वह एक शिकारी था। नयन को यह देखकर गुस्सा आ गया। नयन लुटेरों को सज़ा दिए बगैर जाने को सै बार नहीं था। उन्होंने एक वैष्णव भिखारी को मारा था। बालक शरत् भी पीटने वाली बात सुनकर नयन का साथ देने को तैयार हो गया। दोनो हाथ में फावड़ा लेकर चुपचाप खड़े हो गए। लुटेरों ने समझा कि दोनों चले गए। इसलिए वह भिखारी की तलाशी लेने के लिए आगे आ गए। उन लुटेरों में से एक ने नयन को देख लिया था। सभी लुटेरे भागने लगे तो एक लुटेरा नयन के हाथ लग गया। उसने उसे बाँध लिया। शरत् के यह सब देखकर हाथ-पैर काँपने लगे। लुटेरा भी डरकर बेहोश हो गया था। शरत् ने नयन से उसे छोड़ने की प्रार्थना की। नयन और शरत् उसे वहीं छोड़कर घर आ गए थे।
शरत को तीन बर्ष भागलपुर रहने के बाद अब देवानंदपुर लौटना पड़ा था। बार-बार स्थान बदलने से पढ़ाई का नुकसान हो रहा था। इससे शरत की आवारगी के साथ अनुभव भी बढ़ रहे थे। शरत् ने सदा अच्छा लड़का बनने का प्रयास किया है। गांगुली परिवार में रहते के कठोर अनुशासन के प्रति उसमें विद्रोह की भावना सिर उठाने लगती थी। शरत् में उसकी आँखों को छोड़कर शारीरिक रूप से कोई सुंदरता नहीं थी। उसकी आँखों में ऐसा आकर्षण था कि दूसरे आदमी को अपनी ओर खींच लेती थीं।
उसके पैरों में हिरण की तरह दौड़ने की मजबूती थी। उसकी बुद्धि तेज थी परंतु उसका उपयोग गलत कामों में अधिक होता था। देवानंदपुर लौटकर उसकी आवारगी अधिक बढ़ गई थी। किसी तरह हुगली ब्रांच की चौथी कक्षा में दाखिल हुआ। उसकी फ़ीस के लिए आभूषण बिकने लगे और मकान गिरवी रखना पड़ा। किसी तरह शरत प्रथम श्रेणी के स्कूल में पहुँचा। उस समय घर की आर्थिक स्थिति काफ़ी बिगड़ चुकी थी, जिससे विद्या छूट चुकी थी और हाथ में दुधारी छुरी आ गई थी। उसका भय लोगों में फैलता जा रहा था।
दूसरों के बागों से फल-फूल चोरी करने लगा था जिसे वह गरीबों में बाँट देता था। दूसरों के लिए ताल पर मछलियाँ पकड़ना और गरीबों में बाँट देना उसकी आदत बन चुकी धी। उसको पकड़ने की हिम्मत किसी में नहीं थी। वह फल और मछली को छोड़कर दूसरी वस्तुओं को हाथ नहीं लगाता था। फिर वह इन चीजों से गरीबों की सहायता करता था। इसलिए जहाँ कुछ लोग शरत् से परेशान थे वहीं अधिकांश लोग उसे प्यार करते थे। शरत् राबिनहुड्ड की तरह परोपकारी और दुस्साहसी था। इन लोगों का अड्डा ताल के किनारे वाले बाग के पास ऊँचे टीले की आड़ में गहरे खड्डे में था। शरत् के इस काम में प्रमुख साथी सदानंद था। सदानंद के घरवालों ने उसे शरत से मिलने से मना कर दिया, परंतु दोनों ने रात में सबके सो जाने पर दोनों छत पर मिलते थे। शतरंज खेलते और अपने कामों को पूरा करते फिर, घर में जाकर चुपचाप सो जाते थे।
शरत कभी-कभी महुआारों की नाव लेकर मित्रों के साथ कृष्णपुर रघुनाथ गोस्वामी के अखाड़े में पहुँच जाता था। ‘श्रीकांत’ के चतुर्थपर्व का आधा पागल कवि कीर्तन भी करता था। शरत के किशोर जीवन पर कुछ चित्र ऐसे अंकित हुए कि बाद में वे साहित्य संजन के आधार बन गए। ‘श्रीकांत’ के चतुर्थ पर्व में कथाशिल्पी शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने बचपन में स्कूल जाने के रास्ते का वर्णन किया है। उसे स्टेशन जाते हुए सभी रास्ते जाने-पहचाने लग रहे थे यह तो उसके गाँव के दक्षिण मुहल्ले का किनारा था। इमली के पेड़ को देखते ही शरीर पर काँटि उग जाते थे। आँख बंद करके एक ही दौड़ में इस स्थान को पार कर जाते थे।
शरत ने अपने लेखन में अपने बचपन को बहुत बार लिखा है। उसमें कहानी को गढ़ने की प्रतिभा जन्मजात थी। पंद्रह वर्ष की आयु में इस कला में पारंगत हो चुका था। उसकी इस प्रतिभा के कारण स्थानीय जमींदार और गोपालदत्त मुंशी उससे स्नेह करते थे। इनका पुत्र अतुलचंद्र कलकत्ता में एम० ए० कर रहा था। उसे शरत की कहानियाँ अच्छी लगती थीं। अतुल शरत को थियेटर दिखाकर उस पर कहानी लिखने को कहता शरत ऐसी कहानी लिखता था कि अतुल पढ़कर चकित रह जाता था। इस प्रकार कहानी लिखते-लिखते कब उसने मौलिक कहानी लिखनी शुरू कर दी, उसे पता नहीं चला। जो कहानी उसे याद थी वह थी, ‘काशीनाथ’।
काशीनाथ उसका गुरु-भाई था। उसके नाम को नायक बनाकर उसने कहानी लिखनी आरंभ कर दी। शरत को पता था कि घर-जँवाई कैसे होते हैं, उसने पिता को ससुराल में रहते हुए देखा था। उस समय उसने उस पर छोटी कहानी लिखी थी। बाद में भागलपुर रहते हुए उसने उसे विस्तार दिया। शरत को बचपन से ही चीजों के सूक्ष्म अध्ययन की आदत थी। वह हर चीज को गहराई से जानने का प्रयल करता था। यही आदत उसकी प्रेरणा बन गई। गाँव में बत्तीस साल की नीरु नाम की बाल विधवा ब्राह्मण की लड़की रहती थी। उसके चरित्र में कोई कलंक नहीं था। वह सदा दूसरों की सेवा में लगी रहती थी। सभी लोग उससे स्नेह करते थे।
शरत भी उसे दीदी कहकर पुकारता था। एक दिन गाँव के स्टेशन का परदेसी मास्टर दीदी के जीवन को कलंकित कर गया। उसका गाँव से बहिष्कार कर दिया गया था। शरत् को भी वहाँ जाने की मनाही थी परंतु शरत् ने आज तक किसी की बात नहीं मानी थी। शरत् उससे मिलने जाता रहा था। शरत् को लगता था कि नीरु दीदी स्वयं को अपने अपराध की सजा दे रही थी। एक दिन वह मर गई। डोम लोग उठाकर उसे जंगल में फेंक आए। सियार-कुत्ते उसे नोचकर खा गए थे। यहीं उसने ‘विलासी’ कहानी के कायस्थ मृत्युंजय को संपेरा बनते देखा था। मृत्युंजय का चाचा के अतिरिक्त कोई नहीं था। चाचा भी उसका परम शत्रु था।
वह उसका बड़ा बाग लेना चाहता था। मृत्युंजय के बीमार होने पर एक बूढ़े ओझा और उसकी पुत्री विलासी ने उसकी देखभाल की। ठीक होने पर मृत्युंजय ने विलासी को पत्नी रूप में अपने घर रख लिया था। समाज के बहििक्कार किए जाने पर वह विलासी के साथ जंगल में रहने लगा था। साँप पकड़कर अपनी जीविका चलाने लगा था। शरत भी उससे साँप पकड़ना और जहर उतारने का मंत्र सीखता था। एक दिन विषैला साँप पकड़ते हुए मृत्युंजय की मृत्यु हो गई। उसके मरने के सात दिन पश्चात् विलासी ने भी आत्महत्या कर ली थी। शरत् के जीवन में ऐसे दृश्यों का कोई अंत नहीं था। एक मनुष्य के हार्थों एक मनुष्य का इतना तिरस्कार कैसे हो सकता है।
इन्हीं प्रश्नों की पर्यवेक्षण शक्ति ने उसे कहानीकार बना दिया। कहानीकार बनने की प्रेरणा उसे अपने पिता की अधूरी कहानियों से भी मिली। एक बार शरत् घर से भागकर पुरी गया। वहाँ उसकी मुलाकात घर की स्वामिनी से हुई। उसने उसे बहुत स्ेह दिया। एक बार वह बीमार पड़ गई। शरत् ने अपनी आदत के अनुसार उसकी बहुत सेवा की। उस समय एक घटना ऐसी घटी कि वह उसे गलत समझ बैठा और मन में अपराध बोध लिए घर से भाग गया। भागते-भागते वह थक गया। उसने न तो आराम किया और न ही कुछ खाया। इससे उसे तेज बुखार आ गया। वह एक पेड़ के नीचे बैढ गया। उसी समय वहाँ से एक विधवा गुजरी। वह शरत की ऐसी हालत देखकर उसे अपने घर ले गई। शरत् उसकी सेवा से ठीक हो गया। उस विधवा का एक देवर और बहनोई थे।
दोनों उस पर अपना अधिकार चाहते थे। उस विधवा ने मुक्ति की चाह में शरत के साथ चल पड़ी। परंतु विधवा के उत्तराधिकारियों ने शरत को पीटा और विधवा को वापस ले गए। उस विधवा का क्या हुआ वह कभी जान नहीं पाया था। कथाशिल्पी शरत के प्रसिद्ध उपन्यास ‘चरित्रहीन’ का आधार यही घटनाएँ बनीं। उसने पुरी के मार्ग में आगे बढ़ते हुए गाँव-गाँव घूमा। एक बार उसके चोर-डाकुओं के गिरोह में शामिल होने की बात सुनी गई थी। वह अपने मन की बात किसी से भी नहीं कहता था। उसके पीछे उसके परिवार में दादी का देहांत हो चुका था। दादी घर की इण्जत की रक्षा कर रही थी। वह ‘शुभदा’ की कृष्णा बुआ की तरह थी।
घर की गरीबी और अपमान से माँ की सहनशक्ति समाप्त हो चुकी थी। ‘भुवनमोहिनी’ के माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका था। घर की आर्थिक स्थिति उत्साहजनक नहीं थी। फिर भी उसने डरते-डरते अपने छोटे काका अघोरनाध को अपनी घर की स्थिति लिखी। उन्होंने उसे अपने पास बुला लिया। शरत् फिर कभी देवानंदपुर नहीं लौटा था। वहाँ के पथ और घाट उसकी माँ और दादी के औँसुओं से भीगे हुए थे। कथाशिल्पी शरत् ने ‘शुभदा’ में दरिद्रता का भयानक चित्र खींचा था। यही बातें उसकी साहित्य-साधना की नींव थीं। इसी गाँव में संघर्ष और कल्पना से परिचय हुआ था। वह कभी भी इस गाँव के ॠण से मुक्त नहीं हो सका था।
कठिन शब्दों के अर्थ :
- नवासे – नाती, बेटी का बेटा
- दीर्घ – लंबी, गहरी
- झाऊ – एक प्रकार का छोटा झाड़ जिसकी टहनियों से टोकरियाँ आदि बनती हैं
- निःश्वास – साँस
- विपव – मुसीबत, यायावर
- जीविका – रोज़ी-रोटी, कमाई
- लांछित – अपमानित
- सामंज्य – समझौता
- गरिमा – गौरव
- सहोदर – सगे भाई
- अग्रणी – सबसे आगे
- अक्षम्य – क्षमा न करने योग्य
- असमय – समय से पहले
- मुख-भंगी – मुख के हाव-भाव
- तलैया – छोटा तालाब
- घकित – हैरान
- वर्जित – मना
- मुग्ध – मोहित
- मापदंड – नियम
- स्वल्याहारी – बहुत कम खाने वाला
- उत्फुल्ल – प्रसन्न
- वुर्गति – बुरी दशा
- विपद – मुसीबत
- विषाक्त – विषैला
- संहार – मारना, नष्ट करना
- तपोवन – तपस्या करने का वन
- आच्न्न – ढका हुआ
- खरम्रोता – तेज्ञ धार वाली
- प्रतिष्ठा – इज्जत
- विदीर्ण – दूटा हुआ
- मनस्तत्व – विद्या-बुद्धि से संबंधित
- पारितोषिक – पुरस्कार
- परनिंदा – दूसरे की बुराई
- मर्मस्पश्शी – हद्य को छूनेवाली
- व्यवधान – बाधा
- वर्जित – जिसका करना मना हो
- अपरोक्ष – छिपकर, परोक्ष रूप से
- व्ययसाध्य – खर्चीली
- स्वाधीनचेता – स्वतंत्र विचार वाले
- संरजाम – साधन अंत
- प्रत्युत्पन्नमति – हाजिरजवाबी
- संभ्रांत – धनी, उच्च वर्ग
- कर्मठ – कर्मशील, मेहनती
- अभाव – कमी
- असंख्य – अनेक
- कृपण – कंजूस
- कपाल – सिर
- मूड़ी – मुरमुरे
- शैशव् – बचपन
- प्रकृति – स्वभाव, कुदरत
- स्वप्नदर्शी – सपने देखनेवाला, कल्पना में जीनेवाला
- शिल्पी – कलाकार
- क्षमता – योग्यता
- अंकन – लेखन, छाप लगाना
- रूदन – भलाई
- पलायन – भागना
- शंका – संदेह
- निमिषमात्र – क्षणभर
- दलपति – नेता
- कृतार्थ – आभार मानना, किसी की कृपा से संतुष्ट
- निष्णात – निपुण
- निषिद्ध – न करने योग्य
- तत्कालीन – उस समय के
- अपरिग्रही – किसी से कुछ न लेने वाला
- झुटपुटा – ऐसा समय जब कुछ उजाला और कुछ अंधेरा हो, संध्या होने वाली हो
- हूँकार – गुस्से में ज़ोर से चिल्लाना
- परामर्श – सलाह
- आतुर – व्याकुल, बेचैन
- निर्जीव – मृत, मरा हुआ
- हाज़िर – उपस्थित
- साक्षी – गवाह
- स्निर्ध – साफ़, चिकना
- प्रतिध्वनि – गूँज
- युगसंधि – दो युगों के मिलने का समय
- क्रंदन – विलाप, रोना
- तनिक – थोड़ी-सी
- जीवंत – सजीव, प्राणवान
- गोष्ठी – सभा।
- निस्पंद – स्तब्ध, एकाग्रता
- अपराजेय – जिसे पराजित न किया जा सके
- स्वप्नदर्शी – कल्पना लोक में विचरण करने वाला
- अपरिसीम – जिसकी कोई सीमा न हो
- प्रतिस्पर्धा – मुकाबला
- पारंगत – निपुण
- अमित – बहुत अधिक
- सर्वांगीण – सब प्रकार के
- हतप्रभ – हैरान
- वैद्र्यमणि – एक रत्न
- आत्मोत्सर्ग – आत्मबलिदान
- द्रवित – पिघलना
- चीत्कार – चीखना
- माल्यार्पण – माला डालना
- प्रगाढ़ – मज़ूत
- संगिनी – साथिन
- मूर्त – साक्षात, सजीव
- निरुद्वेग – निर्शिचत, शांत
- अंतर्मुखी – अपने में मस्त रहना
- पोखर – तालाब
- आफ़त – मुसीबत
- व्याघात – बाधा
- तीक्ष्ण – तेज़
- निविड़ – घने
- जनश्रुति – लोक-प्रचलित
- गल्य – कथा, कहानी
- पर्यवेक्षण – निरीक्षण, देखना
- पदस्बलन – नैतिक पतन, पद से हटना
- तुच्छ – नीच
- अपाठ्य – न पढ़ने योग्य
- आश्रय – शरण
- आमोद – आनंद्
- यथेष्ट – काफी, पर्याप्त
- अल्पकालिक – कम समय का
- हतप्रभ – हैरान
- पावड़ा – पैर पर मारने वाला बाँस का दो-तीन फीट का डंडा
- आत्मचितन – मन ही मन विचार करना
- पधभ्षष्टता – सही मार्ग से भटक जाता
- निर्विष्ट – निश्चित।
- नि:शब्द – खामोश, चुपचाप
- पल्लवित – विकसित
- यातना – पीड़ा
- प्रायश्चित – पछतावा
- संवेदन – अनुभूति
- गंतव्य – लक्ष्य, जाने का स्थान
- विकृत – भयानक, कुरूप
Hindi Antra Class 11 Summary
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