NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 19 यथास्मै रोचते विश्वम्
Class 12 Hindi Chapter 19 Question Answer Antra यथास्मै रोचते विश्वम्
प्रश्न 1.
लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से क्यों की है ?
उत्तर :
लेखक के अनुसार कवि भी प्रजापति के समान ही है। प्रजापति सृष्टि की रचना अपनी इच्छानुसार करता है। प्रजापति (ब्रह्मा) को जैसा रुचता है वैसे विश्व को बदल देता है। कवि भी प्रजापति से कम नहीं है। उसकी तुलना प्रजापति से करते हुए लेखक ने कहा है-‘ यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तन ‘-अर्थात् कवि को जैसा रुचता है, वह वैसा ही संसार को बदल देता है। यही कारण है कि कवि यथार्थ जीवन को ही प्रतिबिंबित न करके संसार को बदलता भी है। कवि प्रजापति (ब्रह्मा) के बनाए समाज से असंतुष्ट होकर नया समाज बनाता है। यहीं आकर वह प्रजापति के समान ही हो जाता है। वह भी प्रजापति के समान नई सृष्टि करता है।
प्रश्न 2.
‘साहित्य समाज का दर्पण है’ इस प्रचलित धारणा के विरोध में लेखक ने क्या तर्क दिए हैं ?
उत्तर :
सामान्यत: यह धारणा है कि साहित्य समाज का दर्पण है। लेखक इस प्रचलित धारणा का विरोध करता है। उसके तर्क निम्नलिखित हैं :
- यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती।
- यदि कवि समाज के यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित मात्र ही करता तो वह प्रजापति का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकता था।
- ट्रेजडी में मनुष्य जैसे होते हैं उससे बढ़कर दिखाए जाते हैं अतः नकलनवीस कला का खंडन स्वत: ही हो जाता है।
- कवि को जैसा रुचता है वह संसार को बदल देता है। वह अपनी रुचि अनुसार संसार को दिखाता है।
- कवि समाज के स्वरूप से असंतुष्ट होकर नया समाज बनाता है।
प्रश्न 3.
दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र में दिखाने के पीछे कवि का क्या उद्देश है ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
दुर्लभ गुणों को एक पात्र (राम) में दिखाकर आदि कवि वाल्मीकि ने समाज को दर्पण में प्रतिबिंबित नहीं किया था। वरन् प्रजापति की तरह नई सृष्टि की थी। उन्होंने राम के चरित्र में इन दुर्लभ गुणों का समावेश किया-गुणवान, वीर्यवान, कृतज्, सत्यवाक्य, दृढ़व्रत, चरित्रवान, दयावान, विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन। यद्यपि ये गुण एक ही व्यक्ति में होने कठिन हैं, पर वाल्मीकि राम को एक आदर्श रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे अतः उन्होंने सप्रयास ऐसा किया।
प्रश्न 4.
“साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं है। वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
साहित्य का काम केवल मनोरंजन कर हमें विश्राम प्रदान करना नहीं है। साहित्य हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। हमें उत्साहित भी करता है। साहित्य में प्रेरणा देने की शक्ति होती है। वह व्यक्ति को विकास की ओर बढ़ाती है। साहित्य समरभूमि में उतरने का बुलावा देता है। वह गुलामी की प्रवृत्ति को दूर करता है। साहित्य मनुष्य के लिए संजीवनी का काम करता है।
प्रश्न 5.
“मानव संबंधों से परे साहित्य नहीं है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
उत्तर :
साहित्त्य मानव-संबंधों से परे नहीं होता। साहित्त्य मानव-संबंधों की व्याख्या-समीक्षा करता है। यदि समाज में मानव-संबंध वही होते जो कवि चाहता है तो कवि को प्रजापति बनने की आवश्यकता नहीं होती। उसके असंतोष की जड़ में मानव-संबंध ही हैं। मानव-संबंधों से परे साहित्य नहीं है। कवि जब विधाता पर साहित्य रचता है तो वह उसे भी मानव-संबंधो की परिधि में खींच लाता है। वह अपने साहित्य में इन मानव-संबंध पर ही विचार करता है।
प्रश्न 6.
‘पंद्रहवी-सोलहवी’ सदी में हिंदी-साहित्य ने कौन-सी सामाजिक भूमिका निभाई ?
उत्तर :
15 वीं- 16 वीं शती में हिंदी साहित्य सामंती पिंजड़े में बंद मानव-जीवन को मुक्त करने के लिए जाति-पाँति और धम की सींकचों पर चोट मारी थी। विभिन्न प्रांतों के विभिन्न गायकों-यथ नानक-सूर-तुलसी-मीरा-कबीर, चंडीदास, ललदेह आदि ने संपूर राष्ट्र में उन गले-सड़े मानव-संबंधों के पिंजरों को झकझोर दिया था। उनकी वाणी ने मर्माहत जनता के मर्म को छुआ, उनमें आश का संचार किया, उसे संगठित किया और अपने जीवन के परिवर्तित करने के लिए संघर्ष करने को भी उद्यत किया और उन्हे स्वाधीन जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरणा दी। इन कवियों ने अपनी वाणी द्वारा समाज में नई चेतना ला दी और समाज-मुक्ति का एक आंदोलन चलाया।
प्रश्न 7.
साहित्य के पांचजन्य से लेखक का क्या तात्पय है ?
उत्तर :
श्रीकृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य था। उन्हों महाभारत युद्ध में पांचजन्य फूँक कर अर्जुन को युद्ध करने के लिए उत्साहित किया था। यहाँ साहित्य का पांचजन्य से लेखक क तात्पर्य है-प्रेरणादायक साहित्य। सच्चा साहित्य वह है जो लोगो में उदासीनता त्याग कर उत्साह का संचार करे। साहित्य क पांचजन्य उदासीनता का राग नहीं अलापता। वह लोगों कें भाग्यवादी नहीं बनाता अपितु कर्म करने की प्रेरणा देता है। वह तो पराभव प्रेमियों और कायरों को भी ललकारता है और समरभूमि में उतरने का बुलावा देता है।
प्रश्न 8.
साहित्यकार के लिए स्रष्टा और द्रष्टा होन अत्यंत अनिवार्य है, क्यों और कैसे ?
उत्तर :
साहित्यकार के लिए स्रष्टा और द्रष्टा दोनों का होन अत्यंत आवश्यक है। साहित्यकार स्रष्टा इस रूप में है कि वह नई रचना करता है, वह प्रजापति की भूमिका का निर्वाह करता है द्रष्टा होना इसलिए जरूरी है क्योंकि इनमें दूर की बात देख लेने की क्षमता होनी चाहिए। साहित्यकार को अपनी युगांतकारी भूमिका का निर्वाह करने के लिए द्रष्टा होना आवश्यक है। उन्ह आने वाले समय को भाँपना होगा और उसी के अनुरूप सृजन कार्य करना होगा। कवि की आँखें भविष्य के क्षितिज पर लरी होनी चाहिए।
प्रश्न 9.
कवि-पुरोहित के रूप में साहित्यकार की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
पुरोहित आगे-आगे चलता है। कवि-पुरोहित के रूप में साहित्यकार की भूमिका यह है कि वह परिवर्तन चाहने वाली जनता के आगे चले और परिवर्तन की राह दिखाए। उसे समाज को नई दिशा देनी है। समाज में मानवीय संबंधों में जो गड़बड़ है, उसे दूर करना है। यदि कवि पुरोहित बनकर जनता का नेतृत्व नहीं करेगा तो वह अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पाएगा और मात्र दर्पण दिखाने वाला बनकर रह जाएगा। कवि पुरोहित के रूप में ही उसका व्यक्तित्व पूरे वेग के साथ निखरता है।
प्रश्न 10.
सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
(क) ‘कवि की यह सृष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी ज्यों-की-त्यों आकृति भले ही न देखें, पर ऐसी आकृति जरूर देखते हैं जैसी हमें प्रिय है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं।’
(ख) ‘प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं।’
(ग) ‘इसके सामने निरुद्देश्य कला, विकृति काम-वासनाएँ, अहंकार और व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के ‘सिद्धांत’ वैसे ही नहीं ठहरते जैसे सूर्य के सामने अंधकार।
उत्तर :
(क) प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है।
व्याख्या : लेखक की मान्यता है कि कवि जो कुछ भी रचता है उसका कोई-न-कोई आधार अवश्य होता है। वह समाज को उसी रूप में नहीं लेता जैसा वह होता है। वह अपनी ओर से भी कुछ करता है तभी तो वह प्रजापति की भूमिका का निर्वाह कर पाता है। यही कारण है कि कवि की रचना में हम आकृतियों को उसके वास्तविक रूप में नहीं देख पाते, पर ऐसी आकृति अवश्य देखते हैं जो हमें अच्छी लगती हैं। कवि समाज का यथार्थ नहीं दिखाता बल्कि जैसा होना चाहिए वह दिखाता है। अतः उसकी रचना का आधार अवश्य होता है। कभी-कभी ऐसा आभास होता है कि मानों यह काव्य हमारे लिए ही लिखा गया है। कवि भी सामान्य व्यक्ति को ही अपने काव्य का विषय बनाता है। उसके वर्णन में यथार्थ के साथ कल्पना का मिश्रण भी होता हैं।
विशेष :
- तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
- विषयानुरूष भाषा
- शैली अपनाई गई है।
(ख) प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘ यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है।
व्याख्या : कवि उस मायने में तो यथार्थवादी नहीं होता जैसा सामान्यतः माना जाता है, पर उसमें गंभीरता अवश्य होती है। उसका यथार्थ दूसरे प्रकार का होता है। उसके पैर वर्तमान में टिके होते हैं (वास्तविकता) और उसकी आँखें भविष्य पर टिकी रहती हैं। वर्तमान की धरती उसे याार्थवादी बनाती है तो भविष्य उसे द्रष्टा का रूप प्रदान करता है। कवि वर्तमान की घरती पर पैर टिकाकर वास्तविकता के साथ संबंध बनाए रखता है तो आकाश की ओर देखना भविष्य के प्रति दृष्टि रखता है।
विशेष :
- कवि कर्म की विवेचना की है।
- विषयनुरूप भाषा-शैली अपनाई गई है।
- तत्सम शब्दावली अपनाई गई है।
(ग) प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘ यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि हमारा साहित्य उदासीनता का राग नहीं सुनता। वह आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। भरतमुनि से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र तक चली आई यह हमारे साहित्य की गौरवशाली परंपरा है। इस परंपरा के समक्ष बिना उद्देश्य वाली कला, बिगड़े रूप वाली काम वासनाएँ, घमंड, व्यक्तिवादी प्रवृत्ति, निराशा और हार के भाव टिकते ही नहीं। जिस प्रकार सूर्य के सामने अंधकार नहीं टिकता, वैसे ही ये भाव भारतीय साहित्य में टिक नहीं पाते। कवि जितेन्द्रिय होते हैं। उन्हें सांसरिक मोह से कुछ लेना-देना नहीं होता। वे विषय-वासनाओं में लिप्त नहीं होते। कवि काम-वासनाओं के ऊपर उठ चुके होते हैं। उसके समक्ष अहंकार भी नहीं टिकता।
विशेष :
- तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
- उदाहरण शैली अपनाई गई है।
- भावनात्मक भाषा का प्रयोग है।
भाषा शिल्प –
1. पाठ में प्रतिबिंब-प्रतिबिंबित जैसे शब्दों पर ध्यान दीजिए। इस तरह के दस शब्दों की सूची बनाइए।
- लंब – लंबित
- पठ – पठित
- लिख – लिखित
- असल – असलियत
- आमंत्रण – आमंत्रित
- चित्र – चित्रित
- दंड – दंडित
- चल – चलित
- संगठन – संगठित
2. पाठ में ‘साहित्य के स्वरूप’ पर आए वाक्यों को छाँटकर लिखिए।
‘साहित्य के स्वरूप’ पर आए वाक्य
- साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती।
- साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।
- साहित्य का पाँचजन्य समरभूमि में उदासीनता का राग नहीं सुना।
- साहित्य मानव संबंधों से परे नहीं है।
3. इन पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिए :
(क) कवि की सृष्टि निराधार नहीं होती।
(ख) कवि गंभीर यथार्थवादी होता है।
(ग) धिक्कार है उन्हें जो तीलियाँ तोड़ने के बदले उन्हें मजबूत कर रहें हैं।
(क) कवि की रचना का कोई-न-कोई आधार अवश्य होता है। वह पूरी तरह कल्पित नहीं होती। उसमें यथार्थ भी रहता है।
(ख) कवि सामान्य यथार्थवादी न होकर गंभीर किस्म का यथार्थवादी होता है। वह वर्तमान और भविष्य का सामंजस्य बिठाकर चलता है।
(ग) जो साहित्यकार लोगों को बंधनों से मुक्ति दिलाने के स्थान यह उनके गुलामी के बंधनों को मजबूत करते हैं वे धिक्कारने के लायक हैं। सच्चा साहित्यकार बंधनों से मुक्ति दिलाता है।
योग्यता विस्तार –
1. ‘साहित्य और समाज’ पर चर्चा कीजिए।
साहित्य और समाज –
साहित्य का रचयिता साहित्यकार कहलाता है। साहित्यकार मस्तिष्क, बुद्धि और ह्नदय से संपन्न एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज से अलग हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसकी अनुभूति का संपूर्ण विषय समाज, उसकी समस्याएँ, मानव जीवन और जीवन के मूल्य हैं, जिनसे वह साँस लेता है। जब कभी उसे घुटन की अनुभूति होती है उसकी अभिव्यक्ति साहित्य के रूप में प्रकट हो जाती है। समाज में उसका यही रिश्ता उसे साहित्य सृजन की प्रेरणा देता है और तभी उसके साहित्य को समाज स्वीकार भी करता है। सामाजिक प्रभाव और दबाव की उपेक्षा कर साहित्यकार एक कदम भी आगे नहीं चल सकता और यदि चलता भी है तो आवश्यक नहीं कि साहित्य पर समाज का यह प्रभाव सदैव अनुकूल हो, वह प्रतिकूल भी हो सकता है।
कबीर की साखियों तथा प्रेमचंद के कथा साहित्य के अध्ययन से यही बात स्पष्ट होती है। कबीर ने अपने समय के धार्मिक बाह्याडंबरों, सामाजिक कुप्रवृत्तियों, रूढ़ियों एवं खोखली मान्यताओं के विरोध में अपना स्वर बुलंद किया। निराला के साहित्य में ही नहीं उनके व्यक्तिगत जीवन में भी संघर्ष बराबर बना रहा। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में सर्वत्र किसी न किसी सामाजिक समस्या के प्रति उनकी गहरी संवेदना दिखाई देती है, परन्तु साहित्यकार अपने युग तथा समाज के प्रभाव से अपने को अलग रखना भी चाहे तो कदापि नहीं रख सकता।
साहित्य समाज का दर्पण होता है, किन्तु इस कथन का यह आशय है नहीं कि साहित्यकार समाज का फोटोग्राफर है और सामाजिक विद्नूपताओं, कमियों, दोषों, अंधविश्वासों और मान्यताओं का यथार्थ चित्रण करना उसका उद्देश्य होता है। साहित्यकार का दायित्व वस्तुस्थिति का यथातथ्य चित्रण मात्र प्रस्तुत कर देना ही नहीं, उनके कारणों का विवेचन करते हुए श्रेयस मार्ग की ओर तक ले जाना है।
साहित्य युग और समाज का होकर भी युगांतकारी जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा कर सुंदरतम समाज का जो भी रूप हो सकता है, उसका भी एक रेखाचित्र प्रस्तुत करता है। उसमें रंग भर कर जीवंतता प्रदान कर देना पाठकों एवं सामाजिकों का कार्य होता है। इस प्रकार जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा करने के कारण साहित्यकार एक देशीय होकर भी सार्वदेशिक होता है।
साहित्य हमारी कौतूहल और जिज्ञासा वृत्ति को शांत करता है. ज्ञान की पिपासा को तृप्त करता है और मस्तिष्क की क्षुधापूर्ति करता है। जठरानल से उद्विग्न मानव जैसे अन्न के एक-एक कण के लिए लालायित रहता है, उसी प्रकार मस्तिष्क भी क्षुधाग्रस्त होता है, उसका भोजन हम साहित्य से प्राप्त करते हैं। केवल साहित्य के ही द्वारा हम अपने राष्ट्रीय इतिहास, देश की गौरव गरिमा, संस्कृति और सभ्यता, पूर्वजों के अनुभूत विचारों एवं अनुसंधानों, प्राचीन रीति-रिवाजों, रहन-सहन और परंपराओं से परिचय प्राप्त करते हैं।
आज से एक शताब्दी या दो शताब्दी पहले देश के किस भाग में कौन-सी भाषा बोली जाती थी, उस समय की वेश-भूषा क्या थी, उनके सामाजिक और धार्मिक विचार कैसे थे, धार्मिक दशा कैसी थी, यह सब कुछ तत्कालीन साहित्य के अध्ययन से ज्ञात हो जाता है। सहस्त्रों वर्ष पूर्व भारतवर्ष शिक्षा और आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति की चरमसीमा पर था, यह बात हमें साहित्य ही बताता है। हमारे पूर्वजों के श्लाध्य कृत्य आज भी साहित्य द्वारा हमारे जीवन को अनुप्राणित करते हैं। कवि वाल्मीकि आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति की चरमसीमा पर था, यह बात हमें साहित्य ही बताता है। हमारे पूर्वजों के श्लाध्य कृत्य आज भी साहित्य द्वारा हमारे जीवन को अनुप्राणित करते हैं।
कवि वाल्मीकि की पवित्र वाणी आज भी हमारे हदय मरुस्थल में मंजु मंदाकिनी प्रवाहित कर देती है। गोस्वामी तुलसीदास जी का अमर काव्य आज भी अज्ञानांधकार में भटकते हुए असंख्य भारतीयों का आकाशदीप की भाँति पथ-प्रदर्शन कर रहा है। कालिदास का अमर काव्य आज भी शासकों के समक्ष रघुर्वंशियों के लोकप्रिय शासन का आदर्श उपस्थित कर रहा है। जिस देश और जाति के पास जितना उन्नत और समृद्धिशाली साहित्य होगा वह देश और वह जाति उतनी ही अधिक उन्नत और समृद्धिशाली समझी जाएगी।
“ज्ञान-राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।” महावीर प्रसाद द्विवेदी के इस कथन से भी यही बात स्पष्ट होती है कि किसी भी देश, जाति अथवा समाज की सभ्यता और संस्कृति का स्पष्ट चित्रण उसका साहित्य है। प्रत्येक युग का उत्तम और श्रेष्ठ साहित्य अपने प्रगतिशील विचारों, रचनात्मक संस्कारों एवं भावात्मक संवेदनाओं को एक स्वरूप प्रदान करता है, उनको भली-भाँति सफलतापूर्वक वहन करता है।
साहित्य का प्रासाद समाज की पृष्ठभूमि पर ही प्रतिष्ठित होता है। जिस काल में जिस जाति की जैसी सामाजिक परिस्थितियाँ होंगी उसका साहित्य भी निःसददेह वैसा ही होगा। हिंदी साहित्य के संदभ में यह तथ्य देखा जा सकता है। आदिकाल, जिसे हम वीरगाथा काल भी कहते हैं, एक प्रकार से युद्ध काल था। इस युग का साहित्य युद्धों और आश्रयदाताओं की प्रशस्तियों से अनुप्राणित होता है। इस काल के साहित्य में वीर और शृंगार रस ही प्रमुखता प्राप्त कर सके और चारण कवियों का प्राधान्य बना रहा।
फिर मध्यकाल का भक्ति आंदोलन प्रकट हो सामने आया और इस युग ने कबीर, सूर, तुलसी और जायसी जैसे कवियों को जन्म दिया। किसी भी देश और जाति की सांस्कृतिक चेतना का स्पष्ट चित्र उस देश अथवा जाति में बोली जाने वाली भाषा के साहित्य में परिलक्षित होता है, क्योंकि समाज और साहित्य एक-दूसरे से अभिन्न हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी संभव नहीं है। साहित्यकार युग का चित्रकार होता है। उसके साहित्य में अपने समाज का जीवन स्पंदन विद्यमान रहता है। इसी अर्थ में वह उसका दर्पण होता है।
2. ‘साहित्य मात्र समाज का दर्पण नहीं है’ विषय पर कक्षा में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन कीजिए।
छात्र स्वयं इसका आयोजन करें।
Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 19 यथास्मै रोचते विश्वम्
प्रश्न 1.
क़वि के लिए राम के साथ रावण का चित्रण क्यों आवश्यक हो जाता है ?
उत्तर :
कवि को राम के चित्र के साथ रावण का चित्र खींचना आवश्यक हो जाता है। यदि वह राम के साथ रावण का चित्रण न करे तो राम का गुणवान, वीर्यवान, कृतज्ञ, सत्यवक्ता, दृढ़व्रत, चरित्रवान, दयावान, विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन नायक रूप उभर कर सामने नहीं आएगा। राम के गुणों को प्रकाशित करने का अवसर रावण के साथ ही संभव हो पाता है। जीवन के चमकदार रंग और सुघर रूप में उभार तभी आता है जब पाश्व्व भाव में काली छायाएँ होतीं हैं। इसीलिए राम के साथ रावण का चित्रण आवश्यक हो जाता है। कवि की रचना का आधार समाज होता है। समाज में सद्गुण और दुर्गुण वाले दोनों प्रकार के पात्र होते हैं। राम जैसे सात्विक पात्र की श्रेष्ठता को प्रभावी बनाने के लिए रावण की दुष्टता को दर्शाना आवश्यक हो जाता है।
प्रश्न 2.
कवि अपने काव्य की रचना किस प्रकार करता है ?
उत्तर :
कवि भी एक सामान्य व्यक्ति की भाँति एक सामाजिक प्राणी होता है। कवि की काव्य-रचना का आधार समाज के मानव-संबंध ही होते हैं। कवि मानव-संबंधों में व्याप्त विषमताओं से असंतुष्ट होकर समाज को अपनी कल्पना और रूचि के अनुसार नया रूप देना चाहता है। जीवन की यथार्थता को दर्पण की भॉँति प्रतिबिंबित न करके बल्कि उसे अपनी रुचि के अनुसार मोड़-तोड़कर वर्णित करके एक नवीन समाज का निर्माण करना कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है।
संसार के प्रति अपने असंतोष को प्रकट करने के लिए वह विश्व को अपनी रुचि के अनुसार परिवर्तित कर देता है। इसीलिए कवि युग-द्रष्टा होता है। कवि उस चित्रकार की भाँति कार्य करता है जो अपने चारों ओर बिखरे हुए रंगों से चित्र बनाता है। ये रंग केवल चमकीले ही नहीं होते, अपितु इनमें यथार्थ जीवन की कालिमा भी होती है। वह समाज को देखकर उसका अनुकरण नहीं करता बल्कि प्रजापति की भौँति नई सृष्टि करता है।
प्रश्न 3.
“साहित्य समाज का दर्पण नहीं है” – विषय पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर :
लेखक के अनुसार मानव-संबंधों से परे साहित्य नहीं है। कवि जब विधाता पर साहित्य रचना करता है तो उसे भी मानव के साकार रूप में ला खड़ा कर देता है। कवि का कार्य यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना नहीं होता बल्कि वह तो अपने द्वारा कल्पित समाज का निर्माण करता है। वह ब्रह्मा द्वारा बनाए समाज से असंतुष्ट होकर नए समाज की रचना करता है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता हो कवि को कल्पित समाज निर्मित करने की आवश्यकता ही न होती।
तभी तो दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र ‘राम’ में दिखाकर आदि कवि वाल्मीकि ने समाज को दर्पण में प्रतिबिंबित नहीं किया था अपितु ब्रह्या की तरह नई सुष्टि की थी लेकिन जब समाज के बहुसंख्यक लोगों का जीवन इन मानव-संबंधों के पिंजड़े में पंख फड़फड़ाने लगता है और उस पिंजरे के सीखचों को तोड़कर बाहर खुले आकाश में उड़ने के लिए व्याकुल हो उठता है तो ऐसे समय में कवि उस मानव रूपी पक्षी को उसकी मुक्ति के गीत सुनाकर उसके पंखों में नई ताकत भर देता है और उस समय भी साहित्य जीवन की यथार्थता को चित्रित करते हुए भी समाज को परिवर्तित करने के लिए अपनी कल्पना के समाज की रचना करता है। अतः निष्कर्षतः साहित्य समाज का दर्पण नहीं है। यद्यपि यह मत परंपरागत मत ‘साहित्य का दर्पण है’ के विपरीत है।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित से क्या अभिप्राय है ?
(क) कवि-सुलभ सहानुभूति।
(ख) निरुद्देश्य कला।
(ग) पिंजड़े की तीलियाँ।
(घ) कवि-पुरोहित।
उत्तर :
(क) कवि-सुलभ सहानुभूति : कवि मानव, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों यहाँ तक कि प्राकृतिक वस्तुओं के प्रति सहानुभूतिशील होता है। पीड़ित की पीड़ा को दूर करने को उसका मन स्वयं व्यथित हो जाता है। राम ने सीता को वनवास दे दिया, नल-दमयंती को वन में छोड़कर चला गया; सिद्धार्थ यशोधरा को सोती छोड़ गया-कवि ही है, जो उनके प्रति सहानुभूति व्यक्त करता है। दशरथ के प्रति भी वह सहानुभूतिशील है। वाल्मीकि की कविता का आरंभ ही क्रौंच के जोड़े में से एक की व्याध के द्वारा हत्या किए जाने पर हुआ। जो कवि है, वह सहानुभूतिशील है जो सहानुभूतिशील नहीं वह कवि ही नहीं।
(ख) निरुद्देश्य कला : इसका आशय है-ऐसी कला जिसका कोई उद्देश्य न हो। साहित्य का पाञ्चजन्य जब समरभूमि में उदासीनता का राग न सुनाकर प्रत्युत कायर जनों को समरभूमि में उतरने का आह्नान करता है तो वह सच्चा साहित्य है और यह साहित्य की गौरवशाली परंपरा है किंतु ठीक इसके विपरीत उद्देश्यहीन कला, व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के सिद्धांत हैं। कोई कला उद्देश्य रहित नहीं होती।
(ग) पिंजड़े की तीलियाँ : यद्यपि साहित्य ने समय-समय पर बंदी व्यक्तियों को पिंजरे से मुक्त होने का संदेश दिया है जिससे कि भारतीय जन-जीवन सामूहिक चोट मारकर उस पिंजरे की तीलियों को एक-एक करके तोड़कर बाहर आने और मुक्त होने के प्रयत्न में है तथापि कुछ ऐसे भी साछित्यकार हैं जो कि पिंजरे की तीलियों को और मजबूत बनाकर भारतीय जन को पराधीनता का पाठ पढ़ाते हैं। भाव यह है कि पिंजरे की तीलियाँ अर्थात् जात-पाँत और धर्म की दीवार को तोड़ने की बजाय अपने निहित स्वार्थों के लिए उसे और सुदृढ़ बना रहे हैं।
(घ) कवि पुरोहित : समाज को सद्मार्ग पर ले जाने वाला। कवि को केवल दर्पण दिखाने वाला नहीं बनना चाहिए। उसे तो प्रजापति की तरह सृष्टि रचना करनी चाहिए। उसे तो पुरोहित की तरह (सभी धर्म-कर्मों में) अपने वास्तविक रूप को जनता-जनार्दन के आगे रखना है। कवि अगुआ (अग्रसर) बनने से हिंदी-साहित्य पनपेगा और अपने जातीय सम्मान की रक्षा कर सकेगा। वह समाज का मार्गदर्शन कर पुरोहित धर्म का निर्वाह करेगा।
प्रश्न 5.
“कवि प्रजापति” निबंध के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि कवि के असंतोष की जड़ मानव-संबंध क्यों हैं?
उत्तर :
कवि की रचना का आधार ब्रह्मा द्वारा रचित सृष्टि के मानव-संबंध होते हैं। कवि इन्हीं मानव-संबंधों में व्याप्त विषमताओं से असंतुष्ट होकर अपने काव्य की रचना करता है। साहित्य का आधार ही ये मानव-संबंध होते हैं। वह अपनी रुचि के अनुसार नया समाज बनाता है। प्रजापति के बनाए समाज से असंतुष्ट होकर नया समाज बनाना कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है। कवि की सृष्टि निराधार नहीं होती। वह यथार्थ जीवन से सामग्री और प्रेरणा ग्रहण करता है। कवि जब अपनी रुचि के अनुसार विश्व को परिवर्तित करना चाहता है तब वह यह भी बताता है कि विश्व से उसे असंतोष क्यों है, वह यह भी बताता है कि विश्व में उसे क्या रुचता है, जिसे वह फलता-फूलता देखना चाहता है।
प्रश्न 6.
कवि ने किस प्रकार के लोगों को धिक्कारा है ? ‘कवि-प्रजापति’ निबंध के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर :
कवि ने उन लोगों को धिक्कारा है जो साहित्यकार बनने का दम भरते हैं, पर उनकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर होता है। ऐसे लोग पराधीनता के पिंजड़े की सींकचों को तोड़ने की बजाय उन्हें मजबूत करते हैं। वे बात तो मानव-मुक्ति की करते हैं पर जनता को पराधीनता का पाठ पढ़ाते हैं। इस प्रकार के लोगों की आँखें सदा अतीत (भूतकाल) की ओर लगी रहती हैं। ये न तो युगद्रष्टा होते हैं और न स्रष्टा। इस प्रकार के साहित्यकारों के साहित्य में उनकी अपनी अहंवादी विकृतियाँ दिखाई देती हैं। इन्हें न देशवासियों से प्रेम होता है न देश से। इस प्रकार के लोग धिक्कार के योग्य हैं।
प्रश्न 7.
“वह ऐसा नकलची बन जाता है जिसकी अपनी कोई असलियत न हो।”-इस कथन में कवि की किस विशेषता की ओर संकेत किया गया है ?
उत्तर :
इस कथन में लेखक रामविलास शर्मा ने कवि की दर्पणकार की विशेषता को उजागर किया है। कवि जब अपने प्रजापति वाले रूप को भूलकर प्राचीन परंपराओं और आदर्शोंख के चित्रण में लग जाता है तब वह नकलची अर्थात् दर्पण दिखाने वाला ही बनकर रह जाता है। वह ऐसा नकलची बन जाता है जिसकी अपनी कोई असलियत न हो। कवि का पूरा व्यक्तित्व तो तब पूरे वेग से निखरता है जब वह समर्थ रूप से परिवर्तन चाहने वाली जनता के आगे कवि पुरोहित की तरह आगे बढ़ता है। कवि में मौलिकता के साथ-साथ नवीन सृजन की क्षमता होती है उसे नकल करने वाला नहीं बनना चाहिए।
प्रश्न 8.
‘प्रजापति कवि गंभीर यथार्थवादी होता है’-स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रजापति का दायित्व निभाने वाला कवि जीवन के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण रखता है। वह अपनी रचना के लिए विषय और सामग्री यथार्थ जीवन से ही चुनता है। उसकी रचना में चमकीले रंगों के साथ-साथ बगल में काली छायाएँ भी होती हैं जो यथार्थ जीवन से ही ली जाती हैं। कवि केवल सामयिक परिस्थितियों का चित्रण मात्र ही नहीं करता, अपितु अपने आदर्शानुरूप समाज-रचना का प्रयास भी करता है।
प्रश्न 9.
“कवि के चित्र चमकीले रंग और पाश्श्व भूमि की गहरी काली रेखाएँ-दोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं”-लेखक के इस कथन पर अपना मंतव्य ‘कवि प्रजापति’ निबंध के आधार पर दीजिए।
उत्तर :
कवि जब कोई रचना करता है तब वह चमकीले रंगों के पीछे जीवन की वास्तविकता को ध्यान में रखता है। जीवन का आधार वास्तविकता पर टिका होता है, पर वह आशा भरे जीवन को उभारता अवश्य है। जीवन में सभी कुछ चमकीला एवं आकर्षक नहीं है। उसके पीछे यथार्थवाद की झलक होती है।
प्रश्न 10.
कवि के चित्र में चमकीले रंग और पाश्व्वभूमि की गहरी काली रेखाएँ-वोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं-लेखक के इस कथन पर अपना मंतव्य निबंध के आधार पर दीजिए।
उत्तर :
कवि के चित्र में चमकीले रंग और पाश्श्वभूमि की काली गहरी रेखाएँ दोनों समाज में व्याप्त जीवन के लिए होते हैं। कवि अपने साहित्य में जो व्यक्त करता है, वह कपोल कल्पित नहीं होता, बल्कि वह तर्कसम्मत और यधार्थ जीवन पर आधारित होता है। कवि चित्रकार के समान शब्दों से चित्रों को अंकित करता है अर्थात् वह अपनी रचना में समाज के आदर्श और सुंदर रूप का ही चित्रण करता है। वह समाज के सामाजिक जीवन में यथार्थ रूप में फैले अच्छे-बुरे सभी प्रकार के चरित्रों को लेकर साहित्य रचता है।
प्रश्न 11.
‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ पाठ का मूल संदेश क्या है ?
उत्तर :
‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ निंबध रामविलास शर्मा के निबंध-संग्रह ‘विराम-चिह्न’ से अवतरित है। इसमें लेखक ने कवि (साहित्यकार) की तुलना प्रजापति अर्थात् ब्रह्मा से की है, लेखक भी ब्रह्मा और प्रजापति की भाँति नई सृष्टि की रचना करता है। लेखक ने कवि को उसके कर्म के प्रति सचेष्ट किया है। वह केवल उसका वर्ण़न नहीं करता जो समाज में घटित हो रहा है, वरन् वह उसकी ओर भी संकेत करता है, जैसा होना चाहिए। कवि तो प्रजापति की भाँति यथार्थ जीवन को ही प्रतिर्बंधित नहीं करता, वह समाज की वर्तमान दशा से असंतुष्ट होकर नया समाज बनाने की राह दिखाता है। वह सृष्टा भी है। साहित्य एक ओर जहाँ थके मनुष्य को विश्रांति प्रदान करता है, वहीं दूसरी ओर उसे उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा भी देता है। यही पाठ का संदेश है।
12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers
The post Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Question Answer यथास्मै रोचते विश्वम् appeared first on Learn CBSE.