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Class 12 Hindi Antra Chapter 8 Summary – Barahmasa Summary Vyakhya

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बारहमासा Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 8 Summary

बारहमासा – मलिक मुहम्मद जायसी – कवि परिचय

प्रश्न :
मलिक मुहम्मद जायसी का संक्षिप्त जीवन-परिचय बेते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए एवं भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : प्रेम की पीर के गायक, सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म 1492 ई. में जायस (उ. प्र.) नामक ग्राम में हुआ था। पिता की मृत्यु इनके बचपन में ही हो गई थी। अतः इनका पालन-पोषण ननिहाल में छी हुआ। उनका बाह्म व्यक्तित्व आकर्षक न था, पर वे उदार सूफी संत होने के साथ-साथ संवेदनशील कवि थे। उन्होंने सैयद अशरफ जहाँगीर और मेंहदी शेख बुरहान का उल्लेख अपने गुरु के रूप में किया है। 1542 ई. में इनकी मृत्यु हुई।

रचनाएँ : जायसी द्वारा रचित बारह ग्रंथ बताए जाते हैं, किंतु अभी तक केवल सात ही उपलब्ध हैं-‘पप्यावत’, ‘अखरावट’, ‘आखिरी कलाम’, ‘चित्रेखा’, ‘कहरनामा’, ‘मसलानामा’ और ‘कान्हावत’।

इनमें पद्मावत (महाकाव्य) उनकी प्रसिद्धि का प्रमुख आधार है।
काव्यगत विशेषताएँ : प्रेमाख्यान-परंपरा के कवियों में जायसी सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। उनकी अमर कृति ‘पद्मावत’ एक आध्यात्मिक प्रेम-गाथा है। उन्होंने प्रेम तत्त्व के व्यापक रूप को सरलतापूर्वक चित्रित करने में कुशलता दर्शायी है। उन्होंने अपने काव्य को भारतीय जीवन की पृष्ठभूमि में अंकित किया है। ‘पद्मावत’ में अन्य सूफी कवियों की भाँति कोरी कल्पना की प्रसिद्धि हिंदू लोक-कथा को आधार बनाया है।

भाषा-शैली : जायसी की भाषा बोलचाल की अवधी है, किंतु उनकी काव्य-शैली प्रौढ़ और गंभीर है। उन्होंने लोकभाषा में घुले-मिले शब्द-रूपों को ही अपनाया है; जैसे – पून्यो, जिउ, खेमा, ततखन आदि। जायसी ने मुख्यत: दोहा-चौपाई शैली (कड़वक) को अपनाया है।

उनके काव्य में अलंकार-योजना भी सुंदर बन पड़ी है। उन्होंने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, समासोक्ति, विरोधाभास आदि अलंकारों का प्रयोग कुशलतापूर्वक किया है। कुछ उदाहरण द्रष्ट्य हैं-
– उत्प्रेक्षा : पद्मावती सब सखी बुलाई। जनु फुलवारि सबै चलि आई।
– रूपकातिशयोक्ति : ‘नागिन झांपि लीन्ह चहुँ पासा’
– भ्रांतिमान : भूलि चकोर दीठि मुख लावा।
मेघ घटा महँ चंद देखावा।
– समासोक्ति के प्रयोग में जायसी अत्यंत कुशल हैं। इस अलंकार में दो अर्थ साथ-साथ चलते हैं; जैसे-
‘ऐ रानी! मनु देखि विचारी। एहि नैहर रहना दिन चारी।।
इसमें एक अर्थ पद्यावती के लिए और दूसरा अर्थ परमात्मा के लिए है।
जायसी ने शृंगार रस के दोनों पक्षों (संयोग और वियोग) की सुंदर व्यंजना की है। जायसी भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से श्रेष्ठ कवि हैं।

Barahmasa Class 12 Hindi Summary

पाठ्युस्तक में जायसी की प्रसिद्ध रचना ‘पद्यावत’ के बारहमासा का एक अंश दिया गया है। प्रस्तुत पाठ में कवि ने नायिका नागमती के-विरह का वर्णन किया है। कवि ने शीत के अगहन और पूस माह में नायिका की विरह दशा का चित्रण किया है। प्रथम पद में प्रेमी के वियोग में नायिका विरह की अग्नि में जल रही है और भँवरे तथा काग के समक्ष अपनी स्थिथियों का वर्णन करते हुए नायक को संदेश भेज रही है। द्वितीय पद में विरहिणी नायिका के वर्णन के साथ-साथ शीत से उसका शरीर काँपने तथा वियोग से हदयय काँपने का सुंदर चित्रण है। चकई और कोकिला से नायिका के विरह की तुलना की गई है। नायिका विरह में शंख के समान हो गई है। तीसरे अंश में माघ महीने में जाड़े से काँपती हुई नागमती की विरह दशा का वर्णन है। वर्षा का होना तथा पवन का बहना भी विहह-ताप को बढ़ा रहा है। अंतिम अंश में फागुन मास में चलने वाले पवन शकोरे शीत को चौगुना बढ़ा रहे हैं। सभी फाग खेन रहे हैं परतु नायिका विरह-ताप में और अधिक संतप्त होती जाती है।

बारहमासा सप्रसंग व्याख्या

1. अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दु:ख सो जाइ किमि काढ़ी।
अब धनि देवस बिरह भा राती। जर बिरह ज्यों बीपक बाती।
काँपा हिया जनाबा सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ।
घर-घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रँग लै गा नाहू।
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिर फिरै रँग सोईं।
सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।
पिय सौं कहेहू सँदेसरा ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि गई तेहिक धुआँ हम लाग॥

शब्दार्थ : वेवस = दिन। निसि = रात। दूभर = कठिन। विरह = वियोग। हिया = हदयय। जनावा = प्रतीत हुआ। सीऊ = शीत। पीऊ = प्रिय, पति। चीर = वस्त्र। नाहू = नाथ। बहुरा – लौटकर। सियरि = शीतल, ठंडी। हिय = हदय। वगधै – दाध, जलना। कंतू = प्रिय, पति। जोबन = यौवन। भसमंतू = भस्म करना। काग = कौआ। धनि = पत्नी, प्रिया।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुह्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्यावत’ के ‘नागमती वियोग खंड’ से अवतरित हैं। इसमें कवि ने रानी नागमती के विरह का वर्णन किया है। नागमती का पति रलसेन बाहर गया हुआ है। शीत ऋतु है। आगहन मास में प्रमी (पति) के वियोग में नायिका विरह की अगिन में जल रही है। वह भँवरे तथा काग के समक्ष अपनी दशा का वर्णन करते हुए वह नायक (राजा रलसेन) को संदेश भिजवा रही है।

व्याख्या : अगहन का महीना आ गया है। इस मास में दिन छोटा हो जाता है और रात बड़ी होने लगती है। यह दुःख झेलना बहुत कठिन हो गया है। इसे कैसे सहा जाए ? नागमती को विरह के कारण छोटे दिन भी बड़े लगने लगते हैं। उसे दिन भी रात के समान लग रहे हैं। वह इस विरह की अगिन में दीपक की बत्ती की भातत रात-दिन जलती रहती है। अब आगहन मास में ठंड के कारण हृदय काँपा जाता है। इसे तभी सहा जा सकता है जब पति (प्रिय) का संग हो। उसके होने पर ही शीत कम हो सकता है। पति के घर पर होने पर स्त्रियाँ रंग-बिंगे वस्त्र धारण किए रहती हैं लेकिन मेरा सारा रंगरूप तो मेरे पति अपने साथ ही ले गए हैं अर्थात् पति के बिना भला मैं भृशंगर कैसे कर सकती हूँ ? उन्होंने तो पलटकर भी इधर नहीं देखा। वे अभी वहीं फिर रहे हैं। इस शीत से बचने के लिए जगह-जगह अगिन जलाई जा रही है पर यह विरहिणियों के हदयय को तो जला रही है। यह अगि सुलग-सुलग कर मेंरे तन को दाध कर रही है और जलाकर राख किए दे रही है। मेरे इस तरह जलने के दुःख को मेरा पति नहीं जानता। मेरा यौवन मुझको भस्म किए डाल रहा है।

दोहा : नागमती भौँरा और काग से कहती है कि तुम जाकर मेरे पति को यह संदेश दे दो कि तुम्हारी पल्ी विरह की अग्नि में जलकर मर गई। उसी आग से जो धुआँ निकला है, उसी से हमारा शरीर काला हो गया है।

विशेष :

  • नागमती की विरह-व्यथा का मार्मिक चित्रण किया गया है।
  • बारहमासा वर्णन के अंतर्गत अगहन मास के शीत का प्रभाव दर्शाया गया है।
  • विरह की तीव्रता का अंकन हुआ है।
  • भौरें और कौए के माध्यम से विरहिणी ने अपनी विरहाकुल दशा का मार्मिक अंकन किया है।

अलंकार :
विरोधाभास : सियरि अगनि “‘( हेतूत्र्रेक्षा),
उत्त्रेक्षा : जरै बिरह ‘बाती,
अनुप्रास : दूभर दुःख, किमि काढ़ी, रूप-रंग,
वीप्सा : घर घर, सुलगि सुलगि।
भौरा और काग को दूत बनाकर भेजा गया है।
भाषा : अवधी।
छंब : चौपाई-दोहा।
रस : वियोग श्थृंगार रस।

2. पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक विसि तापा।
बिरह बाढ़ि भा दारुन सीऊ। कँपि-कँपि मरौं लेहि हरि जीऊ।
कंत कहाँ हौं लागौं हियरें। पंथ अपार सूझ नहिं नियरें।
सौर सुपेती आवै जूड़ी। जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।
चकई निसि बिद्धुं विन मिला। हौं निसि बासर बिरह कोकिला।
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसें जिऔं बिछोही पंखी।
बिरह सैचान भैवै तन चाँड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।
रकत बरा माँसू गरा हाड़ भए संब संख।
धनि सारस होई ररि मुई आइ समेटहु पंख।

शब्दार्थ : सुरुज = सूरज। लंक = लंका, दक्षिण दिशा। दारुन = कठिन। हियरें = हुदय से। पंथ = रास्ता। नियरें = निकट। सौर = रजाई, वस्त्र। सुपेती = हल्की। जूड़ी = ठंडी। सेज = बिस्तर। हिवंचल = हिमाचल, बर्फ से ढकी हुई। बूती = डूबी हुई। निसि = रात। बासर = दिन। रैनि = रात। पंखी = पक्षी। सैचान = बाज पक्षी। चाँड़ा = भयंकर, भोजन। रकत = रक्त। गरा = गल गया। ररि = रटकर। मुई = मरी।

प्रसंग : प्रसिद्ध काव्यांश मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाष्य ‘पघ्यावत’ के ‘नागमती वियोग खंड’ से अवतरित है। इस काव्यांश में विरहिणी नागमती की वियोग व्यथा का पूस मास की सदी में चित्रण किया गया है। शीत से नायिका का शरीर काँपता है तो वियोग से उसका उदय काँपता है। चकई और कोकिला से नायिका के विरह की तुलना की गई है। नायिका विरह में शंख के समान हो गई है।

व्याख्या : पूस का महीना आ गया है। इसमें इतनी सर्दी पड़ती है कि शरीर थर-थर काँपने लगता है। सूरज दक्षिण दिशा को चला जाता है अतः ठंडा मालूम होता है। हर प्राणी काँपता हुआ लगता है। विरहिणी नायिका कहती है- हे प्रियतम 1 तुम कहाँ हो? मैं इस शीत में काँप-काँप कर मरी जा रही हूँ। तुम यहाँ आकर मेरे गले से लग जाओ, तो मुझे कुछ चैन मिले। मुझे तुम तक आने का रास्ता नहीं सूझ रहा है, रास्ता कठिन है। मेरी सौर (रजाई) भी हल्की है। इसे ओढ़ने पर भी जूड़ी (ठंड) लगती है। बिस्तर इतना ठंडा लगता है कि हिमालय की बर्फ में डूबा हो।

चकवी रात के समय भले ही चकवे से अलग रहती है पर प्रातः होने पर प्रिय से मिल जाती है किंतु मैं तो रात-दिन पीऊ-पीऊ (प्रिय-प्रिय) की रट लगाए रहती हूँ फिर भी तुमसे भेंट नहीं हो पाती। रात्रि के समय कोई भी सखी मेरे पास नहीं होती, तब मैं बिल्कुल अकेली होती हूँ। भला मैं अकेली रहकर बिहुड़े पक्षी की भाँति किस प्रकार जीबित रहूँ ? विरह रूपी बाज मेरे शरीर पर दृष्टि गड़ाए हुए है। यह मुझे जीते जी खा रहा है। यह मरने पर भी मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा।

दोहा : नागमती कहती है कि इस विरह के कारण मेरे शरीर का सारा रक्त आँसू के माध्यम से बह रहा है। सारा माँस गल चुका है। मेरी सारी हड्डियाँ शंख के समान दिखाई दे रही हैं। मैं सारस की जोड़ी की भाँति प्रियतम का नाम रटते-रटते मर गई हूँ। अब मैं मरणावस्था में हूँ। अब इस अवस्था में मेरे पंखों को समेट लो।

विशेष :

नागमती की विरह-वेदना का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन हुआ है।
प्रकृति का उद्दीपन रूप चित्रित हुआ है।

अलंकार :
बिरह बाढ़ि, कंत कहाँ, सौर सुपेती, बासर बिरह में अनुप्रास अलंकार है।
रूपक : बिरह सैचान (विरह रूपी बाज)।
उत्प्रेक्षा : जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।
भाषा : अवधी।
छंद : चौपाई-दोहा।
रस : वियोग श्रृंगार रस।

3. लागेउ माँह परै अब पाला। बिरह काल भएड जड़काला।
पहल पहल तन रुई जो झाँपै। हहलि हहलि अधिकौ हिय काँँ।।
आई सूर होइ तपु रे नाहाँ। तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहाँ।
एहि मास उपजै रस मूलू। तूँ सो भँवर मोर जोबन फूलू।
नैन चुवहिं जस माँहुट नीरू। तेहि जल अंग लाग सर चीरू।
टूटहिं बुंद परहिं जस ओला। बिरह पवन होइ मारैं झोला।
केहिक सिंगार को पहिर पटोरा। गियँ नहिं हार रही होइ डोरा।
तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई तन तिनुवर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उड़ावा झोल॥

शब्दार्थ : पाला = ठंड। जड़काला = मृत्यु। झाँपै = छिपाना। हिय = हुदय। नाहाँ = पति। माहाँ = माघ का महीना। मूलू = जड़ों में। माँहुट = माघ की वर्षा। नीरू = नीर, जल। चीरू = चीर, वस्त्र। झोला = झकझोड़ना। पटोरा = रेशमी वस्त्र। गियँ = गरदन। तिनुवर = तिनका। भा = हो गया। झोल = राख। खर = बाण।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित ‘पद्यावत’ के ‘बारहमासा’ प्रसंग से ली गई हैं। इस प्रसंग में कवि ने राजा रत्नसेन के वियोग में संतप्त उसकी पत्नी रानी नागमती के विरह का वर्णन किया है।

व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि माघ के मास में विरह संतप्त नागमती की दशा का वर्णन करते हुए लिखता है कि माघ का महीना लग गया है और पाला पड़ने लगा है। विरहावस्था में जाड़ा काल बन जाता है। शरीर के प्रत्येक पहलू को रूई से ढकने का प्रयल्न करने पर भी हृदय थर-थर काँपने लगता है। माघ के महीने में ठंड इतनी अधिक है कि जब रूई के वस्त्रों से शरीर को ढकने का प्रयत्न करते हैं तो वस्त्रों के ठंडे होने के कारण शरीर और भी अधिक काँपने लगता है। नागमती कहती है कि हे स्वामी! आप मेरे समीप आकर सूर्य बनकर तपिए। यदि आप मेरे पास आ जाओगे तो मुझे सूर्य के समान सुखद लगोगे। तुम्हारे अभाव में मेरा यह माघ महीने का शीत नहीं छूट सकता। इसी माह में वनस्पतियों की जड़ों में रस पड़ना प्रारंभ होता है। विरहरूपी पवन झकझोरों से मुझे मार रही है।

मेरे नेत्रों से माघ महीने की वर्षा जैसी झड़ी लगी रहती है। आपके वियोग में मेरी आँखों से अश्रुपात होता रहता है। मैं अपनी गर्दन में हार भी नहीं डाल सकती क्योंकि मेरी गर्दन सूख कर डोरे जैसी हो गई है। तुम्हारे अभाव में मुझे माहौट की वर्षा की बूँदें ओलों की भाँति कष्टकर प्रतीत होती हैं। इससे भीगे हुए वस्त्र मुझे बाणों की तरह चुभते हैं। अब मैं किसके लिए शृंगार करूँ और किसके लिए स्वयं को रेशमी वस्त्रों से सुसज्जित करूँ? क्योंकि तुम ही वह भ्रमर हो जो मेरे यौवन-रूपी पुष्प का उपभोग कर सकता है। नागमती कहती है कि हे स्वामी! आपके विरह में मैं बहुत हल्की अथवा दुर्बल हो गई हूँ। मेरा शरीर तिनकों के समान हिलता रहता है। इस पर विरह की आग मुझे जलाकर राख के समान उड़ा देना चाहती है।

विशेष :

  • नागमती का विरह सर्दियों में और भी अधिक तीव्र हो जाता है। अपने प्रियतम के वियोग में वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है।
  • अवधी भाषा का सहज रूप से प्रयोग किया गया है।
  • विप्रलंभ श्वृंगार में करुण रस की धारा प्रवाहित हो रही है।
  • उपमा, रूपक, पुनरुक्ति प्रकाश और अनुप्रास अलंकार हैं।
  • ‘लोगठ माँह …….. जो वन फूलू’ में चौपाई छंद और ‘तुम्ह बिनु ……… झोल’ में दोहा छंद है।
  • तत्सम तद्भव शब्दावली की सहज-समन्वित प्रयोग किया गया है।
  • स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सृष्टि की है।

4. पनागुन पवन झँको रै बहा। चौगुन सीड जाइ किमि सहा।
तन जस पियर पात भा मोरा। बिरह न रह पवन होइ झोरा।
तरिवर झरै झरै बन बाँखा। भइ अनपत्त फूल फर साखा।
करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासू। मो कहैं भा जग दून उदासू।
फाग करहि सब चाँचरि जोरी। मोहिं जिय लाइ दीन्हि जसि होरी।
जौं पै पियहि जरत अस भावा। जरत मरत मोहि रोस न आवा।
रातिहु दे वस इहै मन मोरें। लागौं कंत छार जेऊँ तोरें।
यह तन जारौं छार कै, कहौं कि पवन उड़ाउ।
मकु तेहि मारग होइ परौं, कंत धरैं जहँ पाउ।

शब्दार्थ : पवन – हवा। किमि = कैसे। झोरा = झकझोरना। बाँखा = वृक्ष। अनपत्त = बिना पत्ते क। बनाफति = वनस्पति। हुलासू = उत्साह। चाँचरि = शृंगारपरक स्वांग, एक-दूसरे पर रंग डालना। रोस = रोष, गुस्सा। रातिहु = रात। कंत = पति, प्रिय। छार = राख। तन = शरीर। जारौं = जलाऊँ। मकु = मानो, कदाचित, शायद। मारग = मार्ग, रास्ता।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नागमती वियोग खंड’ से अवतरित है। फागुन मास में चलने वाले पवन के झकोरे शीत को चौगुना बढ़ा रहे हैं। सभी तो फाग (होली) खेल रहे हैं, पर नायिका नागमती विरह-ताप में संतप्त होती जा रही है। व्याख्या : फागुनी हवा झकझोर रही है। इस महीने में शीत लहर चलती है। विरहिणी नागमती को इसे सहना कठिन हो गया है। उसका शरीर पीले पत्तों के समान पीला पड़ गया है।

विरह-पवन उसके शरीर को झकझोर रही है। इस मास में पेड़ों से पत्ते झड़ते जा रहे हैं। वे बिना पत्तों के हो गए हैं तथा वन ढाँखों के बिना हो गए हैं। फूल वाले पौधों पर नई कलियाँ आ रही हैं। इस प्रकार वनस्पतियाँ तो उल्लसित हो रही हैं पर नागमती की उदासी दुगुनी हो गई है। इस मास में सभी चाँचर जोड़कर परस्पर नृत्य कर रहे हैं और गीत गा रहे हैं।

वे फाग भी खेल रहे हैं। पर मेरे (नागमती के) हृदय में तो विरह की होली जल रही है। यदि मेरे प्रिय को मेरा इस प्रकार जलना पसंद है तो यही सही। मैं इस दुख को सह लूँगी। हे कंत। मेरे हुदय में रात-दिन यही विचार आता है कि राख बनकर ही तुम्हारे हृदय से लग जाॅँ। दोहा : नागमती कहती है – मैं इस शरीर को जलाकर राख कर देना चाहती हूँ ताकि पवन इसे उड़ाकर ले जाए और पति के मार्ग में बिछा दे। वे इस राख पर पैर रखेंगे तो मैं उनका स्पर्श पा जाऊँगी।

विशेष :

नागमती के विरह की चरम सीमा व्यंजित हुई है।
नागमती के विरह में त्याग की भावना निहित है। वह पति के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देना चाहती है।

अलंकार :
उपमा : तन जस ” मोरा
रूपक : विरह-पवन
अनुप्रास : मन मोरे।
भाषा : अवधी।
छंद : चौपाई-दोहा।
रस : वियोग श्रृंगार रस।

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