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Class 12 Hindi Antra Chapter 18 Summary – Jahan Koi Wapsi Nahi Summary Vyakhya

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जहाँ कोई वापसी नहीं Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 18 Summary

जहाँ कोई वापसी नहीं – निर्मल वर्मा – कवि परिचय

प्रश्न :
निर्मल वर्मा का जीवन-परिचय देते हुए उनके साहित्यिक योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : निर्मल वर्मा का जन्म 1929 ई. में शिमला (हिमाचल प्रदेश) में हुआ। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास में एम. ए. किया और अध्यापन कार्य करने लगे। चेकोस्लोवाकिया के प्राच्य-विद्या संस्थान, प्राग के निमंत्रण पर सन् 1950 में वहाँ गए और चेक उपन्यासों तथा कहानियों का हिंदी अनुवाद किया।

निर्मल वरां को हिंदी के समान ही अंग्रेजी पर भी अधिकार प्राप्त था। उन्होंने ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ तथा ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के लिए यूरोप की सांस्कृतिक एवं राजनीतिक समस्याओं पर अनेक लेख और रिपोर्ताज लिखे हैं जो उनके निबंध संग्रहों में संकलित हैं। सन् 1970 में वे भारत लौट आए और स्वतंत्र लेखन करने लगे। 2005 ई. में उनका देहांत हुआ।

साहित्यिक योगदान : निर्मल वर्मा का मुख्य योगदान हिंदी कथा-साहित्य के क्षेत्र में है। बे नई कहानी आंदोलन के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं। ‘परिंदे ‘, ‘जलती झाड़ी’, ‘तीन एकांत’, ‘पिछली गर्मियों में’, ‘कव्वे और काला पानी’, ‘बीच बहस में’, ‘सूखा’ तथा अन्य कहानियाँ आदि कहानी-संग्रह और ‘वे दिन’, ‘लाल टीन की छत’, ‘एक चिथड़ा सुख’ तथा ‘अंतिम अरण्य’ उपन्यास इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। ‘रात का रिपोर्टर’ जिस पर सीरियल तैयार किया गया है, उनका उपन्यास है। ‘हर बारिश में’, ‘चीड़ों पर चाँदनी ‘ धुंध से उठती धुन में उनके यात्रा-संस्मरण संकलित हैं। ‘शब्द और स्मृति’ तथा ‘कला का जोखिम’ और ‘ढलान से उतरते हुए’ उनके निबंध-संग्रह हैं, जिनमें विविध विषयों का विवेचन मिलता है। सन् 1985 में ‘कव्वे और काला पानी’ पर उनको ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ मिला। इसके अतिरिक्त उन्हें कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया।

निर्मल वर्मा की भाषा-शैली में एक अनोखी कसावट है, जो विचार सूत्र की गहनता को विविध उद्धरणों से रोचक बनाती हुई विषय का विस्तार करती है। शब्द-चयन में जटिलता न होते हुए भी उनकी वाक्य-रचना में मिश्र और संयुक्त वाक्यों की प्रधानता है। स्थान-स्थान पर उन्होंने उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग किया है, जिससे उनकी भाषा-शैली में अनेक नवीन प्रयोगों की झलक मिलती है।

पाठ का संक्षिप्त परिचय –

‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ यात्रा-वृत्तांत धुंध से उठती धुन संग्रह से लिया गया है। उसमें लेखक ने पर्यावरण-संबंधी सरोकारों को ही नहीं, विकास के नाम पर पर्यावरण-विनाश से उपजी विस्थापन संबंधी मनुष्य की यातना को भी रेखांकित किया है। लेखक का यह मानना है कि अंधाधुंध विकास और पर्यावरण संबंधी सुरक्षा के बीच संतुलन होना चाहिए, नहीं तो विकास हमेशा विस्थापन और पयावरण संबंधी समस्याओं को जन्म देता रहेगा और मनुष्य अपने समाज, संस्कृति और परिवेश से विस्थापित होकर जीवन जीने के लिए विवश होता रहेगा। औद्योगिक विकास के दौर में आज प्राकृतिक सौंदर्य किस तरह नष्ट होता जा रहा है, इसका मार्मिक चित्रण इस पाठ में किया गया है। यह पाठ विस्थापितों की अनेक समस्याओं का हददयस्पर्शी चित्र प्रस्तुत करता है। इस सत्य को भी उद्घाटित करता है कि आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी में सिर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता, बल्कि उसका परिवेश, संस्कृति और आवास-स्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।

Jahan Koi Wapsi Nahi Class 12 Hindi Summary

इस पाठ में लेखक की पर्यावरणीय चिताएँ उभरकर सामने आई हैं।
सिंगरौली : 1983
जुलाई का अंत था। यह धान की रोपाई का समय था। इस समय बारिश के बाद खेतों में पानी खड़ा था। लेखक उस समय सिंगरौली क्षेत्र के नवागाँव में गया हुआ था। इस क्षेत्र की आबादी पचास हजार से ऊपर थी। यहाँ 18 छोटे-बड़े गाँव बसे थे। यहीं एक गाँव था-अमझर अर्थात् आम के पेड़ों से घिरा गाँव जहाँ आम झरते रहते थे लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों से पेड़ों पर सूनापन है। पूछन पर पता चला कि जब से सरकारी घोषणा हुई है कि अमरौली प्रोजेक्ट के अंतर्गत नवागाँव के अनेक गाँव उजाड़ दिए जाएँगे जब से आम के पेड़ सूखने लगे हैं। जब आदमी उजड़ेंगे तब पेड़ जीवित रहकर क्या करेंगे ?

लेखक के लिए यह एक अनूठा अनुभव था। लोग अपने गाँवों से विस्थापित होकर उन्मूलित होने से पहले वे कैसे परिवेश में रहते होंगे, किस तरह की जिंदगी बिताते होंगे, यह पहली बार अमझार गाँब में देखने को मिला। चारों तरफ पानी, समूची जमीन एक झील की तरह, आदमी, पशु आधे पानी में आधे ऊपर तैरते दिखाई दिए किंतु. यह भ्रम है। यह बाढ़ नहीं, पानी में ड़बे धान के खेत हैं। औरतें एक पांत में झुकी हुई धान पौधे छप-छप पानी में रोप रही हैं। धूप में उनकी काली टाँगें चमक रही हैं तथा सिर पर चटाई के किश्तीनुमा हैट हैं, जो वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते हैं। जरा-सी आहट पाते ही वे सिर उठाकर चौंकती नज़रों से देखती हैं फिर काम में डूब जाती हैं। एक क्षण के लिए यह विश्वास नहीं होता कि आने वाले वर्षों में सब कुछ मटियामेट हो जाएगा-झोंपड़े, खेत, ढोर, आम के पेड़-सब्ब एक गंदी ‘आधुनिक’-औद्योगिक कॉलोनी की ईंटों के नीचे दब जाएगा और ये हँसती-मुसकुराती औरतें शहरों की सड़कों पर पत्थर कूटती दिखाई देंगी। आने वाले बच्चों को तो यह मालूम भी न होगा यहाँ कभी आम झरा करते थे।

ये लोग आधुनिक भारत के नए ‘शरणार्थी’ हैं। इन्हें औद्योगीकरण की आँधी ने अपनी घर-जमीन उखाड़ कर निर्वासित कर दिया है। बाढ़ या भूकपप के कारण लोग अपने घर-बार को छोड़कर जाते अवश्य हैं पर आफत टल जाने के बाद दोबारा उसी परिवेश में लौट आते हैं लेकिन विकास और प्रगति के नाम पर जो लोग उजड़ते हैं वे कभी अपने घर वापस नहीं लौटते। एक भरे-पूरे ग्रामीण अंचल को कितनी निर्ममता से उजाड़ा जा सकता है, इसका ज्वलंत उदाहरण सिंगरौली है। सिंगरौली की भूमि बड़ी उपजाऊ है और यहाँ के जंगल समृद्ध हैं। 1926 से पूर्व यहाँ खैरवार जाति के आदिवासी राजा शासन किया करते थे, कितु बाद में सिंगरौली का आधा हिस्सा रीवाँ राज्य के भीतर शामिल कर लिया गया। यहाँ के जंगलों में कत्था, महुआ, बाँस, शीशम के पेड़ उगते थे।

एक पुरानी दंतकथा के अनुसार सिंगरौली का नाम ही ‘सुंगावली’ पर्वतमाला से निकला है। अपने अतुल प्राकृतिक सौंदर्य के बावजूद सिंगरौली को ‘काला पानी ‘ माना जाता था, जहाँ न लोग भीतर आते थे, न बाहर जाने का जोखिम उठाते थे। कभी-कभी किसी इलाके की संपदा ही उसका अभिशाप बन जाती है। दिल्ली के सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की आँखों से सिंगरौली की अपार खनिज संपदा छिपी न रह सकी। विस्थापन की एक लहर रिहंद बाँध बनने से आई थी, जिसके कारण हजारों गाँव उजाड़ दिए गए थे। नई योजनाओं में सेट्रल कोलफील्ड और नेशनल थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन का निर्माण हुआ। चारों ओर पक्की सड़कें और पुल बनाए गए।

अब सिंगरौली प्रर्गति के मानचित्र पर राष्ट्रीय गौरव के साथ प्रतिष्ठित हुआ। ताप विद्युत गृहों की एक पूरी श्रृखला ने पूरे प्रदेश को अपने में घेर लिया। अब यहाँ राज्य सरकार के अफसरों, इंजीनियरों और विशेषजों की कतार लग गई। सिंगरौली की घाटी और जंगलों पर ठेकेदारों, वन-अधिकारिय और सरकारी कारिंदों का आक्रमण शुरू हो गया।

विकास का यह उजला पहलू अपने पीछे व्यापक विनाश का अँधंरा लेकर आया था। इसका जायजा लेने लेखक ‘लोकायन’ संस्था की ओर से सिंगरौली गुया था। शायद 35 वर्ष पहले हम दूसरा विकल्प चुन सकते थे। पश्चिम जिस विकल्प को खो चुका था, भारत में उसकी संभावनाएँ खुली थीं। भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूजियम और संग्रहालयों में जमा नहीं थी–वह उन रिश्तों में जीवित थी, जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों अर्थात् उसके समूचे परिवेश के साथ जोड़ते थे। यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है, भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारस्परिक संबंध बनाए रखने का है। स्वातंत्य्योत्तर भारत की ट्रेजडी यही है कि उसने पश्चिम की देखा-देखी योजनाएँ बनाते समय प्रकृति-मनुष्य और संस्कृति के बीच के नाजुक संतुलन को नहीं बनाए रखा। इसे नष्ट होने से बचाया जाना चाहिए था।

एक शब्दार्थ एवं टिप्पणी – 

विस्थापन = एक जगह से दूसरी जगह उजड़ कर जाना, बसना ( Rehabilitation ), उन्मूलित = अपने मूल से कटना (Cut from roots), तिरना = अलग-थलग पड़ना, किनारे या हाशिए पर रहना (On margin ), शाश्वत = निरंतर, कभी न मिटने वाला (Continuous), झंझावात = मुसीबत, परेशानी (Trouble), लोलुप = लालची (Greedy), चक्का = चक्र, मिट्टी का ढेला, गाड़ी का पहिया (Wheel), अंतहीन = जिसका अंत न हो (Endless), निर्वासित = निकाल देना (Exiled), आक्रमण = हमला ( Attack). विकल्प = दूसरा चुनाव (Alternative), लिप्सा = लालच ( Greed), पारंपरिक = परंपरा से (Traditional)!

जहाँ कोई वापसी नहीं सप्रसंग व्याख्या

1. मेरे लिए एक दूसरी दृष्टि से भी यह अनूठा अनुभव था। लोग अपने गाँवों से विस्थापित होकर कैसी अनाथ, उन्मूलित जिंदगी बिताते हैं, यह मैंने हिंदुस्तानी शहरों के बीच बसी मजदूरों की गंदी, दम घुटती, भयावह बस्तियों और स्लम्स में कई बार देखा था, किंतु विस्थापन से पूर्व वे कैसे परिवेश में रहते होंगे, किस तरह की जिंदगी बिताते होंगे, इसका दृश्य अपने

स्वच्छ, पवित्र खुलेपन में पहली बार अमझर गाँव में देखने को मिला। पेड़ों के घने झुरमुट, साफ-सुथरे खप्पर लगे मिट्टी के झोंपड़े और पानी। चारों तरफ पानी। अगर मोटर रोड की भागती बस की खिड़की से देखो, तो लगेगा, जैसे समूची जमीन एक झील है, एक अंतहीन सरोवर, जिसमें पेड़, झोंपड़े, आदमी, ढोर-डाँगर आधे पानी में, आधे ऊपर तिरते दिखाई देते हैं, मानो किसी बाढ़ में सब कुछ डूब गया हो, पानी में धँस गया हो।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसमें लेखक ने विकास के नाम पर किए जा रहे औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप पर्यावरण के नाश एवं इससे उपजी विस्थापन की समस्या के प्रति अपनी चिंता प्रकट की है। औद्योगीकरण ने लोगों को अपने घर-जमीन से उखाड़ दिया है। वे अपने स्थान पर कभी वापस नहीं लौट पाते हैं।

व्याख्या : लेखक ने सिंगरौली में आकर एक अनूठा अनुभव किया। उसने यह तो देखा था कि लोग अपने गाँवों से विस्थापित होकर शहरों की गंदी बस्तियों में अत्यंत दयनीय और असहाय जीवन बिताते हैं। उनकी जिंदगी अनाथों जैसी होती है, वे जिन बस्तियों में रहते हैं वे गंदी, दमघोटू और भयावह होती हैं। लेखक को इस बात का कतई अंदाजा नहीं था कि वे इस विस्थापन से पहले किस प्रकार के वातावरण में रहते होंगे, उनका जीवन किस प्रकार के वातावरण में बीतता होगा।

उसने यहाँ आकर पहली बार अमझर गाँव में आकर उस परिवेश को अपनी आँखों से देखा। यहाँ स्वच्छ और पवित्र खुलापन था। यहाँ पेड़ों के घने झुरमुट थे, घर मिट्टी के झोपड़ों में थे, पर साफ-सुथरे खप्पर वाले थे। भाव यह है कि ऐसे खुले, स्वच्छ वातावरण में रहने वाले लोगों को शहरों की गंदी और दमघोटू बस्तियों में रहने को विवश होना पड़ता है। वहाँ चारों ओर पानी ही पानी दिखाई दे रहा था। दौड़ती बस की खिड़की से देखने पर सारी जमीन एक झील की तरह प्रतीत होती थी। यह एक अंतहीन तालाब की तरह लगती थी। मानो बाढ़ आ गई हो और उसमें पेड़, झोंपड़े, आदमी. पशु आधे पानी के अंदर और आधे पानी के ऊपर दिखाई देते थे। चीजें पानी में धैसी प्रतीत होती थी। ऐसा दृश्य दौड़ती बस कं अंदर से दिखाई देता था।

विशेष :

  1. लेखक ने अमझर गाँव के दृश्य को साकार कर दिया है।
  2. विस्थापितों के पूर्व परिवेश का उल्लेख चित्रात्मक शैली में हुआ है।

2. यह समूंचा दृश्य इतना साफ और सजीव है-अपनी स्वच्छ मांसलता में इतना संपूर्ण और शाश्वत-कि एक क्षण के लिए विश्वास नहीं होता कि आने वाले वर्षों में सब कुछ मटियामेट हो जाएगा-झोपड़े, खेत, ढोर, आम के पेड़-सब एक गंदी, ‘आधुनिक’ औद्योगिक कॉलोनी की ईंटों के नीचे दब जाएगा-और ये हैंसती-मुस्कुराती औरतें, भोपाल, जबलपुर या बैढ़न की सड़कों पर पत्थर कूटती दिखाई देंगी। शायद कुछ वर्षों तक उनकी स्मृति में अपने गाँव की तस्वीर एक स्वप्न की तरह धुँधलाती रहेगी, किंतु धूल में लोटते उनके बच्चों को तो कभी मालूम भी नहीं होगा कि बहुत पहले उनके पुरखों का गाँव था-जहाँ आम इरा करते थे।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। लेखक एक संस्था ‘ लोकायन’ की तरफ से विस्थापन की समस्या को देखने-समझने के लिए सिंगरौली क्षत्र के दौरे पर गया। वहाँ के अमझर गाँव के खेतों में धान को रोपाई करती स्त्रियों का दृश्य उसे लुभा जाता है। यहाँ उसी का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक पानी भरे खेतों में धान रोपने का काम तन्मयता से करती स्त्रियों को देखता है। यह सारा दृश्य अत्यंत साफ और सजीव है। वह इस दृश्य में मांसलता का पुट भी देखता है पर वह संपूर्ण और शाश्वत है। इन धान रोपती स्त्रियों का मांसल सौंदर्य कहीं से भी अश्लील प्रतीत नहीं होता। इसमें पवित्रता झलकती है। इस दृश्य को देखकर यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि आने वाले वर्षों में यह सारा परिवेश एकदम नष्ट हो जाएगा (औद्योगीकरण के कारण) तब यहाँ के झोंपड़े, खेत, पशु, आम के पेड़ अर्थात् समस्त प्राकृतिक परिवेश समाप्त होकर एक औद्योगिक बस्ती खड़ी हो जाएगी।

उसकी ईटों के नीचे यहाँ स्वाभाविकता दम तोड़ देगी। तब ये खेतों में काम करने वाली हँसती-मुस्कुराती औरतें अपने इस काम से वंचित कर शहरों की सड़कों पर पत्थर कूटने के लिए विवश कर दी जाएँगी। वे कुछ वर्षों तक ही अपने गाँव की याद को मन में बसाए रख पाएँगी. फिर यह परिवेश उनके लिए एक सपना बनकर रह जाएगा। उनकी संतान तो कभी यह जान भी नहीं पाएगी कि बहुत पहले उनके पूर्वज एक ऐसे गाँव में रहते थे जहाँ के पेड़ों से आम झरा करते थे। नई पीढ़ी तो उस परिवेश की कल्पना तक नहीं कर सकती।

विशेष :

  1. लंखक ने औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप होने वाले दुष्परिणाम की झाँकी प्रस्तुत की है।
  2. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग है।

3. ये लोग आधुनिक भारत के नए ‘शरणार्थी’ हैं, जिन्हें औद्योगीकरण के झंझावात ने अपनी घर-जमीन से उखाड़कर हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया है। प्रकृति और इतिहास के बीच यह गहरा अंतर है। बाढ़ या भूकंप के कारण लोग अपना घर-बार छोड़कर कुछ अरसे के लिए जरूर बाहर चले जाते हैं, किंतु आफत टलते ही वे दोबारा अपने जाने-पहचाने परिवेश में लौट भी आते हैं किंतु विकास और प्रगति के नाम पर जब इतिहास लोगों को उन्मूलित करता है, तो वे फिर कभी अपने घर वापस नहीं लौट सकते। आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी में सिर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता, बल्कि उसका परिवेश और आवास स्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसमें लेखक औद्योगीकरण के कारण होने वाले विस्थापन के प्रति अपनी चिंता प्रकट करता है।

व्याख्या : औद्योगीकरण के कारण जो लोग हमेशा अपने घरों, अपनी जमीन से उजड़ते हैं, लेखक उन्हें आधुनिक भारत के नए शरणार्थी कहता है। पुराने शरणार्थी वे थे जिन्होंने पाकिस्तान बनने पर वहाँ से उजड़ कर भारत में शरण ली थी। इन नए शरणार्थियो को तो औद्योगीकरण का शिकार बनना पड़ा है। इस औद्धोगीकरण की आँधी ने उन्हें अपने घर, जमीन से उखाड़कर सदा-सदा के लिए निकाल बाहर किया है। लेखक प्रकृति और इतिहास के बीच का अंतर स्पष्ट करता है। प्राकृतिक मार जैसे बाढ़ या भूकंप को कारण भी लोगों को अपना घर-बार छोड़कर कुछ समय के लिए बाहर जाना पड़ता है किंतु मुसीबत टलते ही ये लोग पुन: अपने स्थान पर लौट आते हैं।

उन्हें उनका पुराना परिवेश मिल जाता है लेकिन जब विकास और प्रगति के नाम पर जब इतिहास लोगों को उजाड़ता है तब वे पुन: अपने घर कभी भी नहीं लौट पाते। वे सदा के लिए निर्वासित हो जाते हैं और दूसरी जगह विस्थापित होते हैं। इस आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी ने मनुष्यों को ही नहीं उजाड़ा, बल्कि उसके परिवेश तथा आवास-स्थल को भी हमेशा के लिए नष्ट कर दिया। औद्योगिक विकास का यह विनाशकारी पहलू है।

विशेष : लेखक औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप बने शरणार्थियों की समस्या का विश्लेषण तार्किक ढंग से करता है।

4. एक भरे-पूरे ग्रामीण अंचल को कितनी नासमझी और निर्ममता से उजाड़ा जा सकता है, सिंगरौली इसका ज्वलंत उदाहरण है। अगर यह इलाका उजाड़ रेगिस्तान होता, तो शायद इतना क्षोभ नहीं होता, किंतु सिंगरौली की भूमि इतनी उर्वरा और जंगल इतने समृद्ध हैं कि उनके सहारे शताब्दियों से हजारों वनवासी और किसान अपना भरण-पोषण करते आए हैं। 1926 से पूर्व यहाँ खैरवार जाति के आदिवासी राजा शासन किया करते थे, किंतु बाद में सिंगरौली का आधा हिस्सा, जिसमें उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के खंड शामिल थे, रीवाँ राज्य के भीतर शामिल कर लिया गया।

बीस वर्ष पहले तक समूचा क्षेत्र विंध्याचल और कैमूर के पहाड़ों और जंगलों से घिरा हुआ था, जहाँ अधिकांशतः कत्था, महुआ, बाँस और शीशम के पेड़ उगते थे। एक पुरानी दंतकथा के अनुसार सिंगरौली का नाम ही ‘सृंगावली’ पर्वतमाला से निकला है, जो पूर्व-पश्चिम में फैली है। चारों ओर फैले घने जंगलों के कारण यातायात के साधन इतने सीमित थे कि एक जमाने में सिंगरौली अपने अतुल प्राकृतिक सौंदर्य के बावजूद – ‘काला पानी’ माना जाता था, जहाँ न लोग भीतर आते थे, न बाहर जाने का जोखिम उठाते थे।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा के यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं से अवतरित है। लेखक सिंगरौली क्षेत्र में औद्योगीकरण के कारण हुए पर्यावरणीय विनाश की झाँकी यहाँ प्रस्तुत कर रहा है।

व्याख्या : विकास और प्रगति के नाम पर बिना सोचे-समझे उद्योग स्थापित किए जा रहे हैं। यह औद्योगीकरण किस प्रकार एक भरे-पूरे ग्रामीण अंचल को बेरहमी से उजाड़ देता है, इसे सिंगौौली में देखा जा सकता है। यह क्षेत्र कभी हरा-भरा एवं प्राकृतिक दृष्टि से संपन्न था। औद्योगीकरण ने इसे उजाड़कर रेगिस्तान में बदल दिया। सिंगरौली की जमीन बहुत उपजाऊ है तथा यहाँ के जंगल खनिज संपदा से समृद्ध हैं कि उनके सहारे हजारों सालों से यहाँ के वनबासी और किसान अपना पेट पालते आए हैं। 1926 ई. से पूर्व यहाँ खैरवार जाति के आदिवासी राजा शासन किया करते थे, पर बाद में सिंगरौली का आधा हिस्सा रीवाँ राज्य में शामिल कर लिया गया।

इसमें उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के खंड शामिल थे। 1963 तक यह सारा इलाका विंध्याचल और कैमूर के पहाड़ों और जंगलों से घिरा हुआ था। यहाँ ज्यादातर कत्था, महुआ, बाँस और शीशम के पेड़ उगते थे। यहाँ यह कथा प्रचलित है कि सिंगरौली का नाम ही ‘संगावली’ पर्वतमाला से निकला है। यह पर्वतमाला पूर्व-पश्चिम में फैली है। यहाँ चारों ओर घने जंगल थे और यातायात के साधन सीमित थे। यही कारण था कि अपने भरपूर प्राकृतिक सौंदर्य के बावजूद सिंगरौली को ‘काला पानी ‘ माना जाता था। यहाँ के लोग भीतर जाने और बाहर आने का जोखिम उठाने से कतराते थे।

विशेष : औद्योगीकरण के दुष्परिणाम की झाँकी प्रस्तुत की गई है।

5. विकास का यह ‘उजला’ पहलू अपने पीछे कितने व्यापक पैमाने पर विनाश का अँधेरा लेकर आया था, हम उसका छोटा-सा जायजा लेने दिल्ली में स्थित ‘लोकायन’ संस्था की ओर से सिंगरौली गए थे। सिंगरौली जाने से पहले मेरे मन में इस तरह का कोई सुखद भ्रम नहीं था कि औद्योगीकरण का चक्का, जो स्वतंत्रता के बाद चलाया गया, उसे रोका जा सकता है। शायद पैंतीस वर्ष पहले हम कोई दूसरा विकल्प चुन सकते थे, जिसमें मानव सुख की कसौटी भौतिक लिप्सा न होकर जीवन की जरूरतों द्वारा निर्धारित होती। पश्चिम जिस विकल्प को खो चुका था भारत में उसकी संभावनाएँ खुली थीं, क्योंकि अपनी समस्त कोशिशों के बावजूद अंग्रेजी राज हिंदुस्तान को संपूर्ण रूप से अपनी ‘सांस्कृतिक कॉलोनी’ बनाने में असफल रहा था। भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूजियम और संग्रहालयों में जमा नहीं थी-वह उन रिश्तों से जीवित थी, जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों एक शब्द में कहें उसके समूचे परिवेश के साथ जोड़ते थे। अतीत का समूचा

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसमें लेखक औद्योगीकरण के कारण होने वाले दुष्परिणामों पर प्रकाश डालता है।

व्याख्या : लेखक दिल्ली की एक संस्था ‘लोकायन’ की ओर से सिंगरौली इस उद्देश्य से गया था ताकि वह अपनी आँखों से उस स्थिति का जायजा ले सके जो इस तथाकथित विकास के उजलू पहलू के पीछे छिपे अँधेरे को दर्शाता है। जब लेखक सिंगरौली गया था तब वह इस बात को भलीभाँति जानता था कि औद्योगीकरण का जो दौर चल पड़ा है, उसे रोका नहीं जा सकता। इसके बावजूद हम आजादी मिलने के बाद कोई दूसरा विकल्प चुन सकते थे। इस विकल्प में मानव सुख की कसौटी भौतिक चीजें न होकर जीवन की जरूरतें होतीं।

पाश्चात्य जगत इस विकल्प को ग्रो चुका था, पर भारत में इसकी संभावना मौजूद थी। अंग्रेजी शासन अपनी पूरी कोशिश करने के बावजूद भारत को अपनी सांस्कृतिक बस्ती नहीं बना पाया था। वह हमारी संस्कृति को मिटा नहीं पाया था। इसका कारण यह था कि जहाँ यूरोप की सांस्कृतिक विरासत संग्रहालयों की वस्तु बनकर रह गई थी, वहीं भारत की संस्कृति उन रिश्तों में मौजूद थी जो आदमी को उसके प्राकृतिक परिवेश से जोड़ती थी। यहाँ के लोगों के साथ यहाँ की धरती, यहाँ के जंगल तथा यहाँ की नदियाँ थीं। इस देश का पूरा अतीत किताबों में न होकर यहाँ के आपसी संबंधों में मौजूद रहता था। यह कोई दिखावटी रिश्ता नहीं था। विशेष : लेखक औद्योगीकरण के परिणामों पर विचार करता है।

6. यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध बनाए रखने का हो जाता है। स्वातंत्य्योत्तर भारत की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह नहीं है कि शासक वर्ग ने औद्योगीकरण का मार्ग चुना, ट्रेजेडी यह रही है कि पश्चिम की देखा-देखी और नकल में योजनाएँ बनाते समय प्रकृति-मनुष्य और संस्कृति के बीच का नाजुक संतुलन किस तरह नष्ट होने से बचाया जा सकता है, इस ओर हमारे पश्चिम-शिक्षित सत्ताधारियों का ध्यान कभी नहीं गया। हम बिना पश्चिम को मॉडल बनाए-अपनी शर्तों और मर्यादाओं के आधार पर-औद्योगिक विकास का भारतीय स्वरूप निर्धारित कर सकते हैं, कभी इसका खयाल भी हमारे शासकों को आया हो, ऐसा नहीं जान पड़ता।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। यहाँ लेखक औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप पर्यावरण बिगड़ने के प्रश्न पर चिंता प्रकट करता है।

व्याख्या : लेखक यूरोप और भारत का अंतर स्पष्ट करते हुए कहता है कि यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल (प्रकृति) के बीच संतुलन बनाए रखने का है जबकि भारत में यह प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच के संबंध को बनाए रखने का है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का सबसे दु:खद पहलू यह नहीं है कि हमारे शासक वर्ग ने औद्योगीकरण का रास्ता चुना बल्कि दुःखद पहलू तो यह है कि हमारे शासकों ने पश्चिमी देशों की अंधाधुंध नकल की और योजनाएँ बनाते समय प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के संतुलन को नष्ट कर दिया। इसे बचाया जा सकता था, पर सत्ताधारी वर्ग पश्चिम से शिक्षित था और इस बारे में सोचता ही न था। हमने पश्चिम को अपना मॉडल बनाने की भूल की जबकि हम अपनी शर्तों और मर्यादाओं के आधार पर अपने औद्योगिक विकास के भारतीय स्वरूप को तय कर सकते थे। हमारे शासकों के मन में इस प्रकार का कोई विचार तक नहीं आया। हालात को देखकर तो कुछ ऐसा ही लगता है।

विशेष :

  1. लेखक पश्चिम के अंधानुकरण का तर्कपूर्ण ढंग से विरोध करता है।
  2. भाषा सहज एवं सरल है।

7. स्वातंत्य्योत्तर भारत की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह नहीं है कि शासक वर्ग ने औद्योगीकरण का मार्ग चुना, ट्रेजेडी यह रही है कि पश्चिम की देखादेखी और नकल में योजनाएँ बनाते समय-प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के बीच का नाजुक संतुलन किस तरह नष्ट होने से बचाया जा सके-इस ओर हमारे पश्चिम-शिक्षित सत्ताधारियों का ध्यान कभी नहीं गया।
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसे उनके संग्रह ‘धुंध से उठती धुन’ से लिया गया है। इसमें लेखक ने विकास के नाम पर परावरण विनाश का यथार्थ चित्रण किया है।

व्याख्या : लेखक भारत और यूरोप की पर्यावरण संबंधी धारणा के अंतर को स्पष्ट करता है। यूरोप में पयावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के संतुलन तक सीमित है जबकि भारत में यह प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध को बनाए रखता है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद सबसे गलत बात यह हुई कि हमारे देश के शासकों ने औद्योगीकरण का मार्ग चुनते समय पश्चिम की अंधी नकल की।

उन्हीं की देखा-देखी अपने देश की योजनाएँ बनाई। इन योजनाओं को बनाते समय प्रकृति-मनुष्य और संस्कृति के नाजुक रिश्ते के संतुलन को गड़बड़ा दिया। इसे कैसे बचाया जाए, इसका उन्होंने ख्याल तक नहीं किया। हमारे सत्ताधारी पश्चिम में शिक्षा पाए हुए थे। उनका ध्यान वहीं तक सीमित था। भारत की परिस्थितियों की ओर उनका ध्यान नहीं गया। यदि हम चाहते तो पश्चिमी मॉडल को नकार कर अपने देश की शर्तों और मर्यादाओं के आधार पर अपनी औद्योगिक नीति का निर्धारण कर सकते थे। पर हमारे शासक वर्ग ने तो इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया।

विशेष :

  1. लेखक औद्योगीकरण के स्वरूप एवं कार्यान्वियन के रूप की आलोचना करता है।
  2. पश्चिम और भारत के दृष्टिकोण का अंतर स्पष्ट किया गया है।
  3. विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है।

8. ज़रा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठा कर चौंकी हुई निगाहों से हमें देखती हैं-बिल्कुल उन युवा हिरणियों की तरह, जिन्हें मैंने एक बार कान्हा के वन्य-स्थल में देखा था। किन्तु वे डरती नहीं, भागती नहीं, सिर्फ़ विस्मय से मुसकुराती हैं और फिर सिर झुकाकर अपने काम में डूब जाती हैं-यह समूचा दृश्य इतना साफ़ और सजीव है-अपनी स्वच्छ मांसलता में इतना सम्पूर्ण और शाश्वत-कि एक क्षण के लिए विश्वास नहीं होता कि आने वाले वर्षो में सब कुछ मटियामेट हो जाएगा-झोंपड़े, खेत, बोर, आम के पेड़-सब।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। लेखक एक संस्था ‘ लोकायन’ की तरफ से विस्थापन की समस्या को देखने-समझने के लिए सिंगरौली क्षेत्र के दौरे पर गया। वहाँ के अमझर गाँव के खेतों में धान की रोपाई करती स्त्रियों का दृश्य उसे लुभा जाता है। यहाँ उसी का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक वहाँ के खेतों में काम करती हुई युवतियों को देखता है। वे लेखक और उसके सार्थियों को चौंकाने वाले अंदाज़ में देखती हैं। लेखक को वे युवतियाँ युवा हिरणियों के समान प्रतीत होती हैं। ऐसा ही एक दृश्य लेखक ने कभी कान्हा के वन्य-स्थल में भी देखा था। लेखक पानी भरे खेतों में धान रोपने का काम तन्मयता से करती स्त्रियों को देखता है। यह सारा दृश्य अत्यंत साफ और सजीव है। वह इस दृश्य में मांसलता का पुट भी देखता है पर वह सम्पूर्ण और शाश्वत है। इन धान रोपती स्त्रियों का मांसल सौन्दर्य कहीं से भी अश्लील प्रतीत नहीं होता। इसमें पवित्रता झलकती है।

इस दृश्य को देखकर यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि आने वाले वर्षों में यह सारा परिवेश एकदम नष्ट हो जाएगा (औद्योगीकरण के कारण) तब यहाँ के झोंपड़े, खेत, पशु, आम के पेड़ अर्थात् समस्त प्राकृतिक परिवेश समाप्त होकर एक औद्योगिक बस्ती खड़ी हो जाएगी। उसकी ईंटों के नीचे यहाँ स्वाभाविकता दम तोड़ देगी। तब ये खेतों में काम करने वाली हँसती-मुस्कुराती औरतें अपने इस काम से वंचित कर शहरों की सड़कों पर पत्थर कूटने के लिए विवश कर दी जाएँगी। वे कुछ वर्षों तक ही अपने गाँव की याद को मन में बसाए रख पाएँगी, फिर यह परिवेश उनके लिए एक सपना बनकर रह जाएगा। उनकी संतान तो कभी यह जान भी नहीं पाएगी कि बहुत पहले उनके पूर्वज एक ऐसे गाँव में रहते थे जहाँ के पेड़ों से आम झरा करते थे। नई पीढ़ी तो उस परिवेश की कल्पना तक नहीं कर सकती।

विशेष :

  1. लेखक ने औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप होने वाले दुष्परिणाम की झाँकी प्रस्तुत की है।
  2. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग है।

9. अगर हम थोड़ी सी हिम्मत बटोर कर गाँव के भीतर चलें तब वे औरतें दिखाई देंगी जो एक पाँव में झुकी हुई ध ान के पौधे छप-छप पानी में रोप रही हैं; सुंदर, सुडौल, धूप में चमचमाती काली टाँगें और सिरों पर चटाई के किश्तीनुमा हैट, जो फोटो या फिल्मों में देखे हुए वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते हैं, ज़रा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठाकर चौंकी हुई निगाहों से हमें देखती हैं-बिल्कुल उन युवा हिरणियों की तरह, जिन्हे मैंने एक बार कान्हा वन्यस्थल में देखा था। किंतु वे डरती नहीं, भागती नहीं, सिर्फ विस्मय से मुसकराती हैं और फिर सिर झुकाकर अपने काम में डूब जाती हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। लेखक एक संस्था ‘लोकायन’ की तरफ से विस्थापन की समस्या को देखने-समझने के लिए सिंगरौली क्षेत्र के दौरे पर गया। वहाँ के अमझर गाँव के खेतों में धान की रोपाई करती स्त्रियों का दृश्य उसे लुभा जाता है। यहाँ उसी का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक सिंगरौली की यात्रा का वर्णन करते हुए बताता है कि यदि गाँव के भीतर की ओर चलकर देखा जाए तो वहाँ ऐसी औरतें दिखाई देती हैं जो एक पाँव पर झुककर खेतों के पानी में धान के पौधे रोप रही हैं। उनकी टाँगें काली होती हैं और सिर पर चटाई से बना किश्तीनुमा हैट होता है। ये औरतें वियतनामी या चीनी औरतों की तरह प्रतीत होती हैं।

लेखक ने देखा कि वहाँ के धाम के ख़ेतों में औरतें एक पंक्ति में झुकी हुई काम कर रही हैं। लेखक-मंडली के आने की जरा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठाकर चौंकती नजरों से उन्हें देखती हैं। उस समय उनकी भाव-भंगिमा उन युवा हिरणियों की तरह होती है, जिन्हें लेखक ने एक बार कान्हा के वन-स्थल अभयारण्य में देखा था। वहाँ की हिरणियाँ तो डरकर इधर-उधर भाग जाती थीं जबकि ये युवतियाँ चौंकती तो अवश्य हैं पर वे किसी से डरती कतई नहीं हैं और कहीं भागती भी नहीं हैं। ये युवतियाँ तो विस्मय भाव से बस मुसकराती रहती हैं। थोड़ी ही देर में वे अपना सिर झुकाकर धान रोपने के काम में लग जाती हैं।

विशेष : वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।

10. जहाँ बाहर का आदमी फटकता न था, वहाँ केंद्रीय और राज्य सरकारों के अफ़सरों, इंजीनियरों और विशेषज्ञों की कतार लग गई। जिस तरह जमीन पर पड़े शिकार को देखकर आकाश में गिद्धों और चीलों का झुंड मँडराने लगता है, वैसे ही सिंगरौली की घाटी और जंगलों पर ठेकेदारों, वन अधिकारियों और सरकारी कारिंदों का आक्रमण शुरू हुआ।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसमें औद्योगीकरण के प्रभाष या कुप्रभाव को दर्शाया गया है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि सिंगौौली अभी तक पूरे क्षेत्र से अलग-थलग पड़ा हुआ था। वहाँ बाहर के लोगों का आना-जाना लगभग न के बराबर था। अब वहाँ औद्योगिक विकास के कारण केंद्रीय और राज्य सरकारों के अफसर, इंजीनियर और विशेषज्ञों के आने का सिलसिला शुरू हो गया। जब जमीन पर कोई शिकार मरा पड़ा हो तो उसे खाने के लिए गिद्ध और चीलों के झुंड मंडराने लगते हैं। यही दशा सिंगरौली की भी हुई। यहाँ की घाटी और जंगलों पर ठेकेदारों, वन विभाग के अधिकारियों और सरकारी कर्मचारियों ने इस तरह आना शुरू कर दिया मानो कोई हमला होने जा रहा हो अर्थात् गतिविधियाँ तेजी से होने लगीं।

11. भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूज़़ियम्स और संग्रहालयों में जमा नहीं थी-वह उन रिश्तों से जीवित थी, जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों-एक शब्द में कहें-उसके समूचे परिवेश के साथ जोड़ते थे। अतीत का समूचा मिथक संसार पोथियों में नहीं, इन रिश्तों की अदृश्य लिपि में मौजूद रहता था। यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है-भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध बनाए रखने का हो जाता है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित पाठ ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसके लेखक निर्मल वर्मा हैं। लेखक ने पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण को सबसे बड़ी ट्रेजेडी बताया है।

व्याख्या : लेखक इस गद्यांश में भारत की सांस्कृतिक विरासत और यूरोप की सांस्कृतिक विरासत के अंतर को स्पष्ट कर रहा है। यूरोप की सांस्कृतिक विरासत तो वहाँ के संग्रहालयों में जमा है, जबकि भारतीय सांस्कृतिक विरासत लोगों के उन रिश्तों में बनी रही है जो उसे उसकी धरती, जंगलों, नदियों से जोड़े हुए हैं अर्थात् यह विरासत समूचे परिवेश के साथ जुड़ी हुई है। हमारा अतीत का मिथक किन्हीं पुस्तकों में न होकर रिश्तों के अदृश्य रूप में मौजूद रहा। एक और अंतर यह है कि यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है जबकि भारत में मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच आपसी संबंध बनाए रखने का है।

विशेष :

  1. लेखक ने भारत और यूरोप की सांस्कृतिक विरासत के अंतर को स्पष्ट किया है।
  2. सरल और सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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