Teachers often provide Class 7 Hindi Notes Malhar Chapter 8 बिरजू महाराज से साक्षात्कार Summary in Hindi Explanation to simplify complex chapters.
बिरजू महाराज से साक्षात्कार Class 7 Summary in Hindi
बिरजू महाराज से साक्षात्कार Class 7 Hindi Summary
बिरजू महाराज से साक्षात्कार का सारांश – बिरजू महाराज से साक्षात्कार Class 7 Summary in Hindi
यह पाठ प्रसिद्ध कथक नर्तक पंडित बिरजू महाराज के जीवन, संघर्ष, अनुभवों और नृत्य के प्रति उनके समर्पण पर आधारित है। यह संवादात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है, जिसमें विभिन्न पत्रकार उनसे प्रश्न पूछते हैं और वे अपने जीवन की घटनाओं और विचारों को साझा करते हैं।
बिरजू महाराज का बचपन राजसी ठाठ-बाट में बीता, लेकिन उनके पिता की मृत्यु के बाद उन्हें आर्थिक संघर्षों का सामना करना पड़ा। कठिन समय में उनकी माँ ने उन्हें बहुत सहयोग दिया। उन्होंने कथक अपने पिता अच्छन महाराज और चाचा शंभू एवं लच्छू महाराज से सीखा। उन्होंने नृत्य के साथ-साथ गायन और वादन में भी निपुणता हासिल की।
वे मानते हैं कि संगीत और नृत्य में लय का विशेष महत्व होता है। नृत्य एक साधना है, जिससे आत्मिक संतुष्टि और अनुशासन प्राप्त होता है। उन्होंने कथक में कई नवाचार किए और इसे नए रूप में प्रस्तुत किया, पर परंपरा को भी बनाए रखा।
बिरजू महाराज ने यह भी बताया कि शास्त्रीय नृत्य और लोकनृत्य में क्या अंतर होता है और कैसे कथक की शैली समय के साथ बदली है। वे बच्चों को अपनी रुचि के अनुसार कला सीखने की प्रेरणा देते हैं और माता-पिता से आग्रह करते हैं कि वे बच्चों को अपनी पसंद का क्षेत्र चुनने दें।
उनका मानना है कि हुनर ही ऐसा खजाना है जो हमेशा काम आता है और जिसे कोई छीन नहीं सकता। संगीत और लय जीवन में संतुलन और सहयोग की भावना सिखाते हैं।
बिरजू महाराज से साक्षात्कार शब्दार्थ
पृष्ठ संख्या-96 : ज़माना – समय विशेष ।
पृष्ठ संख्या-97: तालीम – शिक्षा | गंडा (ताबीज़) – एक पवित्र धागा । कमाई मेहनत से प्राप्त धन ।
पृष्ठ संख्या-98 : महाराज – नृत्य के क्षेत्र में कलाकार को दी जाने वाली सम्मानित उपाधि । लखनऊ घराना – एक पारंपरिक भारतीय शास्त्रीय संगीत घराना है। कथिक – कथक नृत्य से जुड़े लोग ।
पृष्ठ संख्या – 99 : धसियारा – घास काटने वाला | हँसिया – घास काटने का औजार ।
पृष्ठ संख्या- 100: लहरा – हारमोनियम बजाने की विशेष तकनीक ।
Class 7 Hindi Chapter 8 Summary बिरजू महाराज से साक्षात्कार
कथक की जब भी बात होती है तो हमारे मस्तिष्क में एक नाम अवश्य आता है— बिरजू महाराज। कथक की कला उन्हें विरासत में मिली थी, भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी बिरजू महाराज का स्मरण उनकी मनमोहक प्रस्तुतियों के लिए किया जाता है। बिरजू महाराज का जीवन शास्त्रीय संगीत के रागों के समान ही उतार-चढ़ाव भरा था। अपने जीवन में प्राप्त सफलताओं के लिए उन्होंने कठिन साधना की थी। आइए, आज हम पद्मविभूषण श्री बिरजू महाराज से मिलें। इनसे हमारा परिचय करवा रहे हैं आपके जैसे ही कुछ बच्चे।
श्रेया – सुना है कि आपका बचपन संघर्षों से भरा हुआ था। अपने बचपन के बारे में कुछ बताएँगे?
बिरजू महाराज – एक जमाना था जब हमलोग छोटे नवाब कहलाते थे । हवेली के दरवाजे पर आठ-आठ सिपाहियों का पहरा होता था। मेरे बाबूजी के देहांत के बाद आर्थिक परेशानियाँ बढ़ने लगीं। जिन डिब्बों में कभी तीन-चार लाख की कीमत के हार हुआ करते थे वे अब खाली पड़े थे। जीवन में उतार-चढ़ाव तो होता ही है। सब समय का चक्र है। संघर्षों के दौर में मेरी सबसे बड़ी सहयोगी मेरी माँ थीं। कभी कर्ज लेते थे तो कभी पुरानी ज़री की साड़ियाँ जलाकर उनके सोने-चाँदी के तार बेचते थे और गुजारा करते थे। नृत्य के कार्यक्रमों से भी कभी-कभी पैसा आ जाता था। दिन में खाना खाते थे तो रात को कई बार नहीं भी खाते थे। अम्मा बार-बार यही कहा करती थीं, “खाने को भले ही चना मिले या कुछ भी न मिले पर अभ्यास जरूर करो।”
तनुश्री – आपने कथक किससे सीखा ?
बिरजू महाराज – मेरे गुरु थे मेरे पिता अच्छन महाराज और चाचा शंभू महाराज और लच्छू महाराज। घर में चूँकि कथक का माहौल था, अत: औपचारिक प्रशिक्षण शुरू होने से पहले ही मैं देख-देखकर कथक सीख गया था और नवाब के दरबार में नाचने भी लगा था। कथक की तालीम शुरू करते समय गुरु शिष्यों को गंडा (ताबीज़) बाँधते हैं और शिष्य गुरु को भेंट देता है। जब मेरी तालीम शुरू होने की बात आई तो बाबूजी ने कहा, “भेंट मिलने पर ही गंडा बाँधूंगा।” इस पर अम्मा ने मेरे दो कार्यक्रमों की कमाई बाबूजी को भेंट के रूप में दे दी। ‘गंडा’ गुरु और शिष्य के बीच पवित्र रिश्ता होता है। मैंने अब इस रस्म को उल्टा कर दिया है। कई वर्षों तक नृत्य सिखाने के बाद जब देखता हूँ शिष्य में सच्ची लगन है तभी गंडा बाँधता हूँ।
तनुश्री – क्या पढ़ाई या दूसरे कामों के साथ-साथ संगीत और नृत्य जारी रखना संभव है?
बिरजू महाराज – यह तो अपने सामर्थ्य पर निर्भर करता है। मेरी शिष्या शोभना नारायण आई.ए.एस. अफसर हैं और अच्छी नर्तकी भी। मैं नृत्य के साथ-साथ बजाता और गाता भी हूँ। इसके अतिरिक्त नृत्य नाटिकाएँ और उनके लिए संगीत भी तैयार करता हूँ। मैंने जब नौकरी शुरू की तो मेरे चाचा ने कहा, “तुम नौकरी में बँट जाओगे। तुम्हारे अंदर का नर्तक पूरी तरह पनप नहीं पाएगा।” पर मैंने दृढ़ निश्चय किया था कि ‘महाराज’ बनना है तो उसके लिए मेहनत भी करनी होगी।
माणिक – कथक की शुरुआत कब हुई?
बिरजू महाराज – कथक की परंपरा बहुत पुरानी है। ‘महाभारत’ के आदिपर्व और ‘रामायण’ में इसकी चर्चा मिलती है। पहले कथक रोचक और अनौपचारिक रूप से कथा कहने का ढंग होता था । तब यह मंदिरों तक ही सीमित था। हमारे लखनऊ घराने के लोग मूलत: बनारस- इलाहाबाद के बीच हरिया गाँव के रहने वाले थे। वहाँ 989 कथिकों के घर हुआ करते थे। कथिकों का एक तालाब अभी भी है। गाँव में एक बैरगिया नाला है, जिसके साथ यह कहानी जुड़ी हुई है— एक बार नौ कथिक नाले के पास से गुजर रहे थे कि तीन डाकू वहाँ आ पहुँचे। कुछ कथिक डर गए, किंतु उन कथिकों की कला में इतना दम था कि डाकू सब कुछ भूलकर उन कथिकों के कथक में मग्न हो गए। तब से यह पद लोगों में प्रचलित हो गया-
बैरगिया नाला जुलुम जोर,
नौ कथिक नचावें तीन चोर।
जब तबला बोले धीन-धीन.
तब एक-एक पर तीन-तीन ।
लखनऊ घराने के बाद जयपुर घराने और फिर बनारस घराने का विका हुआ। इसके अलावा रायगढ़ के महाराज चक्रधर की भी अपनी अलग शैली थी।
श्रेया – क्या नृत्य सीखने के लिए संगीत जानना जरूरी होता है?
बिरजू महाराज – गाना, बजाना और नाचना – ये तीनों संगीत का हिस्सा हैं। संगीत में लय होती है। उसका ज्ञान आवश्यक है। नृत्य में शरीर, ध्यान और तपस्या का साधन होता है। नृत्य करना एक तरह से अदृश्य शक्ति को निमंत्रण देना है– कृष्ण, मेरे अंदर समाओ और नाच । नृत्य ही नहीं, हमारी हर गतिविधि में लय होती है। घसियारा घास को हाथ से पकड़ उस पर हँसिया मारता है और फिर घास हटाता है। मारने और हटाने की इस लय में जरा भी गड़बड़ी हुई नहीं कि उसका गया। लय हर काम में, नृत्य में, जीवन में संतुलन बनाए रखती है। लय एक तरह का आवरण है, जो नृत्य को सुंदरता प्रद करती है। अगर नर्तक को सुर-ताल की समझ है तो वह जान पाएगा कि यह लहरा ठीक नहीं है। इसके माध्यम से नृत्य अंगों में प्रवेश नहीं करेगा।
तनुश्री – आपने कथक में कई नई चीजें भी जोड़ी हैं न?
बिरजू महाराज – कथक की पुरानी परंपरा को तो कायम रखा है। हाँ, उसके प्रस्तुतीकरण में बदलाव किए हैं। हमने गौर किया कि हमारे चाचा लोग और बाबूजी नाचते तो खूबसूरत थे ही, उनके खड़े होने का अंदाज भी निराला होता था। हमने उन भाव-भंगिमाओं को भी कथक में शामिल कर लिया। चाचा लोग और बाबूजी हमारे लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश थे। हमने तीनों की शिक्षा को इकट्ठा करके एक नया रूप तैयार किया। इसी प्रकार टैगोर, त्यागराज आदि कई आधुनिक कवियों की रचनाओं को लेकर भी कथक रचनाएँ तैयार कीं।
तनुश्री – पर ये लोग तो अलग-अलग भाषाओं के कवि थे।
बिरजू महाराज – भाषाएँ अलग-अलग होती हैं पर इंसान तो सब जगह एक-से होते हैं। फ्रांस में एक दर्शक ने कहा, “मैं नहीं जानता कि यशोदा कौन है?” मैंने उन्हें बताया कि इस धरती पर सब माँएँ यशोदा हैं और सब नन्हें बच्चे कृष्ण। बच्चे की जिद, रोना, उठना, बैठना, सब जगह एक जैसा होता है। धीरे-धीरे हमें अलग-अलग भाषा, संस्कार और तौर-तरीके मिलते हैं। चाहे नृत्य हो या कुछ और, परंपरा एक वृक्ष के समान होती है, जो सबको एक जैसी छाया और आश्रय देती है। उसके नीचे बैठने वाले अलग-अलग स्वभाव के होते हैं। वृक्ष से लिए बीज को बोएँ तो समय आने पर ही एक और वृक्ष फलेगा। वह नया वृक्ष कैसा होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उसे कैसी हवा, पानी और खाद मिला है।
माणिक – आपने जब सीखना शुरू किया था, तब से अब तक कथक की दुनिया में क्या-क्या बदलाव आए हैं?
बिरजू महाराज – पहले मंच नहीं होते थे। फर्श पर चाँदनी (बिछाने की बड़ी सफेद चादर) बिछी होती थी जिस पर कथक होता था और दर्शक चारों ओर बैठते थे। शृंगार के लिए चंदनलेप और होंठ रंगने के लिए पान होता था।
पहले नर्तक कथा के दृश्यों का ऐसा विस्तृत वर्णन करते थे कि दर्शक के सामने पूरा दृश्य खिंच जाता था – कि कैसे गोपियों ने घड़ा उठाया, धीमी चाल से पनघट की ओर चलीं, पीछे से कृष्ण चुपचाप आए, कंकड़ उठाया और दे मारा। अब सिर्फ ‘पनघट की गत देखो’ कहकर बाकी दर्शक की कल्पना पर छोड़ दिया जाता है।
श्रेया – आपने गाना, बजाना और नाचना कब शुरू किया?
बिरजू महाराज – बहुत छुटपन से ही तबला पीटना शुरू कर दिया था। चाचा ने कहा, “लड़के के हाथ में लय है।” पाँच साल का होते-होते हारमोनियम पर लहरा बजाने लगा। सबको खुश करने के लिए फिल्मी गाने भी खूब गाता था। एक बार सबकी फरमाइश पर सुरैया के एक गाने पर देर तक नाचा। बहनों ने बड़े शौक से बिंदी-चुन्नी से सजा दिया था। तब तक चाचा आ गए। बस डर के मारे तुरंत सब कुछ उतार फेंका और छिप गया।
माणिक बिरजू महाराज – शास्त्रीय नृत्य और लोक नृत्य में क्या अंतर है?
बिरजू महाराज – लोक नृत्य सामूहिक होता है। दिनभर की मेहनत के बाद लोग थकान दूर करने और मनोरंजन के लिए इकट्ठा मिलकर नाचते हैं। दूसरी ओर शास्त्रीय नृत्य में एक नर्तक अकेला ही काफ़ी होता है। लोक नृत्य नाचने वालों के अपने मन बहलाव और संतुष्टि के लिए होता है जबकि शास्त्रीय नृत्य दर्शकों के लिए होता है। शुरू में कथावाचक भी लोक नर्तक हुआ करता था। धीरे-धीरे जब उसकी खास शैली व रूप निश्चित होता गया तो वह शास्त्रीय नृत्य हो गया।
श्रेया – इस समय भारत में शास्त्रीय नृत्य की क्या स्थिति है?
बिरजू महाराज – कुछ वर्ष पहले तक स्थिति दयनीय थी। अब इसकी लोकप्रियता बढ़ रही है पर शोर वाले संगीत-नृत्य का भी खूब प्रचलन है। मैं सबसे यही कहता हूँ, वह संगीत सुनो-देखो, लेकिन अपनी परंपरा की गहराई को भी समझो, अनुभव करो।
तनुश्री – कर्नाटक और हिन्दुस्तानी शैली के संगीत की तरह क्या दक्षिण और उत्तर के नृत्य में भी अंतर है?
बिरजू महाराज – कथक, भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, कथकली, मोहिनीअट्टम, ओडिसी, मणिपुरी – ये शास्त्रीय नृत्य की प्रमुख शैलियाँ हैं। संगीत और गाने के ढंग का अंतर तो है ही, इसके अतिरिक्त भी हर नृत्य की अपनी लय और भाव-भंगिमा है। कथक की भाव-भंगिमा दैनिक जीवन से ली गई होती है और भरतनाट्यम में मूर्तिकला से । भरतनाट्यम में दोनों भावों का इकट्ठा प्रयोग होता है और कथक बारी-बारी से। ओडिसी और मणिपुरी में कोमलता है, कथकली ओज है । कथक में दोनों हैं। कथक में गर्दन को हल्के से हिलाया जाता है, चिराग की लौ के समान । इसी प्रकार उँगलियाँ भी बहुत धीरे-से हिलाई जाती हैं, जैसे घूँघट पकड़ने में या घूँघट उठाने में। उँगलियाँ ज़रा जोर से हिलीं नहीं कि चाचा जी तुरंत टोकते थे, “घूँघट उठा रहे हो या तंबू?”
माणिक – खाली समय में आप क्या करते हैं?
बिरजू महाराज – खाली तो होता ही नहीं हूँ। नींद में भी हाथ चलता रहता है। मशीनों में मन खूब लगता है। अगर मैं नर्तक न होता तो शायद इंजीनियर होता। कोई भी मशीन या यंत्र खोलकर उसके कल-पुर्जे देखने की जिज्ञासा होती है। तुम्हें जानकर हैरानी होगी कि मैं अपने ब्रीफकेस में हरदम पेचकस और दूसरे छोटे-मोटे औजार रखता हूँ। कभी अपना पंखा- फ्रिज ठीक किया तो कभी और मशीनें| बेटी-दामाद चित्रकार हैं, उन्हें देख-देखकर पेंटिंग बनाने का भी शौक हो गया है। प्राय: रात बारह बजे के बाद चित्र बनाने बैठता हूँ। जब नींद से आँखें बंद होने लगती हैं तो ब्रश एक तरफ रख देता हूँ और सो जाता हूँ। पिछले दो वर्षों में लगभग सत्तर चित्र बनाए हैं।
श्रेया – अगर कोई बच्चा गाना, बजाना या नृत्य सीखना चाहे पर घर के लोग न चाहते हों तो ऐसे में क्या करना चाहिए?
बिरजू महाराज – आजकल के माँ-बाप से मेरी विनती है कि यदि बच्चे की रुचि है तो उसे लय के साथ खेलने दें। जैसे अन्य खेल हैं वैसे ही यह भी एक खेल है, जिसमें बहुत-कुछ सीखने को मिलता है। इस खेल की दुनिया में संतुलन, समय का अंदाजा व सदुपयोग बच्चे के बौद्धिक विकास महत्वपूर्ण है।
तनुश्री – क्या आपके परिवार में लड़कियों ने कथक नहीं सीखा?
बिरजू महाराज – मेरी बहनों को कथक नहीं सिखाया गया पर मैंने अपनी बेटियों को खूब सिखाया। लड़कियों के पास शिक्षा या कोई-न-कोई हुनर अवश्य होना चाहिए ताकि वे आत्मनिर्भर हो सकें। हुनर ऐसा खज़ाना है, जिसे कोई नहीं छीन सकता और वक्त पड़ने पर काम आता है। बच्चो, तुम लोग संगीत सीखते हो? यदि नहीं तो ज़रूर सीखो। मन की शांति के लिए यह बहुत जरूरी है। लय हमें अनुशासन सिखाती है, संतुलन सिखाती है। नाचने, गाने और बजाने वाले एक-दूसरे के साथ तालमेल बैठाकर एक नई रचना करते हैं। सुर और लय से हमें एक-दूसरे का सहयोगी बनकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।
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