CBSE Class 12 Sanskrit सामान्यः संस्कृतसाहित्यपरिचयः कवि/लेखक परिचयः
(ख) कवि/लेखक परिचयः :
प्रश्न :
निम्नलिखितानां कवीनां लेखकानाञ्च जीवन परिचयः कृतिपरिचयश्च लिख्येताम्चरकः
1. (देश, काल व कृतियाँ) (3 + 2 = 5)
चरक आयुर्वेद के ज्ञाता प्रसिद्ध राजवैद्य थे।
देश – वे सम्राट कनिष्क के राजवैद्य थे।
काल – सम्राट् कनिष्क का काल प्रथम शताब्दी के आस-पास माना जाता है। अत: चरक का काल भी प्रथम शताब्दी सिद्ध होता है।
कृतियाँ – चरक की प्रमुख कृति चरक संहिता प्राप्त होती है। चरक संहिता आठ भागों में विभक्त है। प्रथम भाग ‘सूत्र स्थान’ है जिसमें औषधियों, पथ्य एवं चिकित्सा के कर्तव्यों का उल्लेख है। दूसरा भाग ‘निदान-स्थान’ है जिसमें आठ प्रमुख रोगों के सम्बन्ध में चिकित्सा दी हुई है। तीसरा भाग ‘विमान स्थान’ है जिसमें आयुर्वेद सम्बन्धी कुछ प्रारम्भिक बातें वर्णित हैं तथा आयुर्वेद के विद्यार्थियों हेतु आवश्यक निर्देश दिए गए हैं।
जैसे आयुर्वेद के अध्येता विद्यार्थी को मन, वचन तथा कर्म द्वारा रोगी को ठीक करने का प्रयत्न करना चाहिए। स्वयं आहार-विहार से संयमी रहना चाहिए। चौथा भाग ‘शरीर स्थान’ है। इसमें चीर-फाड़ तथा गर्भशास्त्र सम्बन्धी बातें दी गई हैं। पाँचवाँ भाग ‘इन्द्रिय स्थान’ है जिसमें शारीरिक लक्षणों से रोगी की पहचान तथा शरीर गठन सम्बन्धी कुछ आवश्यक बातों का उल्लेख है। छठा भाग ‘चिकित्सा स्थान’ है जिसमें असाधारण चिकित्सा सम्बन्धी बातें हैं। सातवाँ भाग ‘कल्प स्थान’ है। आठवाँ भाग – ‘सिद्ध स्थान’ है। इन दोनों भागों में साधारण चिकित्सा का उल्लेख है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में यह प्राचीनतम ग्रन्थ है।
2. भवभूतिः ( देश, काल व कृतियाँ) (3 + 2 = 5)
भवभूति करुण रस के चितेरे कलाकार हैं। उनके विषय में प्रसिद्ध है- ‘कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते’।
देश – भवभूति विदर्भ (बरार) के पास पद्मपुर के निवासी थे। वे काश्यपगोत्री तथा कृष्णायजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के अनुयायी थे। उनके पिता का नाम नीलकण्ठ तथा माता का नाम जतुकर्णी था। वे प्रसिद्ध दार्शनिक कुमारिलभट्ट के शिष्य थे।
काल – भवभूति के स्थितिकाल के सम्बन्ध में अधिक विवाद नहीं है। यह प्रमाणित हो चुका है कि वे कन्नौजाधीश्वर यशोवर्मा के समकालीन थे। भवभूति यशोवर्मा के दरबार में प्रतिष्ठित कवि थे। यशोवर्मा का राज्यकाल 700-733 ई. माना जाता है। अतः भवभूति का स्थितिकाल भी वही सिद्ध होता है। 9वीं ईस्वी के पूर्वार्द्ध में वामन ने भी अपनी रचनाओं में भवभूति के अनेक उद्धरण दिए हैं इससे भी इनका समय उपुर्यक्त ही ठहरता है।
कृतियाँ – भवभूति की तीन रचनाएँ प्राप्त होती हैं।
(i) मालती माधव
(ii) महावीरचरित
(iii) उत्तररामचरित
(i) मालती माधव – यह दस अंकों का बृहद् प्रकरण है। इसमें पद्मावती नरेश के मंत्री भूरिवस की पुत्री मालती तथा माधव के प्रणय का बहुत रोचक व रहस्यपूर्ण वर्णन है। दोनों के प्रणय व विवाह में अनेक घात-प्रतिघात, उत्थान-पतन तथा सफलता-असफलता की अवस्थाएँ आती हैं। आशा-निराशा के झंझावातों में थपेड़ें खाते दर्शक को अन्त में दोनों के विवाह से आनन्द प्राप्त होता है। इसमें वीर, रौद्र, बीभत्स आदि विभिन्न रसों के साथ शृंगार का अपूर्व समन्वय है। परन्तु कृत्रिमता के कारण यह नाटक पूर्ण सफल नहीं कहा जा सकता।
(ii) महावीरचरति – महावीरचरित छः अंकीय नाटक है। इसमें राम-विवाह से लेकर राम के राज्यभिषेक तक की कथा का वर्णन है। परन्तु इस नाटक की कथा रामायण से कुछ भिन्न है। अनेक स्थानों पर कवि ने निजी कल्पनाएँ की हैं परन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वे घटनाएँ असंभावित भी प्रतीत नहीं होती। इसमें राम को आदर्श मानव रूप में दिखाने का प्रयत्न किया गया है। परन्तु चरित्रचित्रण, रसपरिपाक, भाषा आदि की दृष्टि से भी यह नाटक उच्चकोटि का नहीं कहा जा सकता।
(iii) उत्तररामचरित – उत्तररामचरित भवभूति की सर्वोत्कृष्ट रचना है। यह वह रचना है जो भवभूति की कीर्तिपताका का स्तम्भ है। इसी रचना के कारण भवभूति कालिदास के समकक्ष नाटककार समझे गए हैं। इसी कारण कहा जाता है –
‘उत्तररामचरिते भवभूतिर्विशिष्यते’ –
यह 7 अंकों का नाटक है। इसमें रामायण के उत्तरार्द्ध भाग की कथा वर्णित है। इसमें राम के राज्याभिषेक के पश्चात् की कथा, सीता-वनवास तथा लवकुश आदि से सम्बन्धित कथा का वर्णन है। इसमें भी अनेक घटनाएँ रामायण से भिन्न कवि-कल्पना-प्रसूत हैं। यह नाटक सुखान्त है व इसमें अन्ततः राम-सीता का मिलन हो जाता है। नाटकीय संविधान की दृष्टि से यह सर्वांगपूर्ण कृति है। भवभूति वास्तव में प्रौढ़ पण्डित कवि थे। भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था। उन्होंने पात्रों व स्थितियों के लिए अनुकूल भाषा का प्रयोग किया है। करुण रस उनका प्रिय रस था। साथ ही उन्होंने शृंगार, वीर, रौद्र, रसों का वर्णन भी कुशलतापूर्वक किया है। उनका अलंकार व छन्द कौशल भी अद्भुत है। अतः भवभूति निःसन्देह संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार हैं।
3. भर्तृहरिः (देश, काल व कृतियाँ) (3 + 2 = 5)
गीतिमुक्तक रचयिताओं में कालिदास के बाद भर्तृहरि का नाम ही प्रमुख रूप से लिया जाता है।
देश – भर्तृहरि उज्जयिनी के निवासी थे। कुछ लोग इन्हें अयोध्या का निवासी भी मानते हैं।
काल – भर्तृहरि का काल भी विवादास्पद ही है। बौद्ध यात्री इत्सिंग के अनुसार 651 ई. में एक भर्तृहरि का स्वर्गवास हुआ था, जो वैयाकरण था। मैक्समूलर आदि विद्वानों ने शतकत्रय का रचयिता इन्हीं को माना है। इस दृष्टि से भर्तृहरि का स्थितिकाल सातवीं शती ई. का पूर्वार्द्ध माना जाता है।
कृतियाँ – भर्तृहरि ने अपने अनुभवों के आधार पर सौ-सौ श्लोकों की तीन रचनाएँ लिखीं
(i) नीतिशतक
(ii) शृंगारशतक
(iii) वैराग्यशतक
(i) नीतिशतक – नीतिशतक में कवि ने सम्पूर्ण मानव जाति के लिए उपादेय नीति सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है।
कवि ने विद्या, वीरता, साहस, मित्रता, उदारता, परोपकारपरायणता, सत्संगति जैसी उदार वृत्तियों का सरस पदावली में वर्णन करते हुए मूर्खता, लोभ, दुर्जनता, चाटुकारिता आदि से दूर रहने का उपदेश दिया है। कवि का उद्देश्य समस्त मानव समाज को कुरीतियों एवम् कुसंगतियों से हटाकर शुद्ध व्यवहार व जीवनदर्शन का बोध कराना है जिससे मानवजीवन सुखमय और सफल हो सके। इसी कारण नीतिशतक के प्रसिद्ध पद्यों का प्रचार लगभग समस्त भारत में है। ये श्लोक जनसाधारण के श्लोक बन गए हैं; जैसे –
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणां, परोपकारेण न चन्दनेन॥
(ii) शृंगारशतक – शृंगारशतक एक कुशल तूलिका वाले भावुक कवि-चित्रकार भी सर्जना है। प्रतीत होता है इसकी रचना कवि ने अपने यौवन के उद्दाम क्षणों में की थी। इसी कारण इसमें शृंगारिक भावनाओं का उद्दाम प्रवाह सर्वत्र परिलक्षित होता है। कवि ‘काम’ को जीवन की अनिवार्यता स्वीकार करते हुए नारी का ‘काम’ को अमोघ शस्त्र बताया है। काम व विलास की नाना स्थितियों, स्त्रियों के हावभाव कटाक्ष आदि का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि ‘कामदेव’ ऐसा लुटेरा है जो युवतियों के शरीर रूपी कानन में छिपकर मन रूपी पथिकों को लूटता रहता है। गहराई से विचार करने पर प्रतीत होता है कि कवि का उद्देश्य नारी सौन्दर्य व भोग का चित्रण नहीं, अपित नारी सौन्दर्य की क्षणभंगुरता व प्रेम की निस्सारता का ज्ञान करवाकर वैराग्य उत्पन्न करना है।
(iii) वैराग्यशतक – वैराग्यशतक के कवि ने करुणा व विकलतापूर्वक संसार की असारता व वैराग्य की महत्ता का प्रतिपादन किया है। कवि के अनुसार – “संसार एक विचित्र पहेली है। कहीं वीणा की सुमधुर तान सुनाई देती है तो कहीं विलाप और हाहाकार का करुण स्वर; कहीं सुन्दर रमणियाँ दृष्टिगोचर होती हैं तो कहीं कुष्ठपीड़ित शरीरों के बहते हुए घाव; अतः पता नहीं संसार अमृतमय है या विषमय; वरदान है अथवा अभिशाप।” कवि जीवन की अस्थिरताओं का यथार्थ चित्रण कर उसकी अनित्यता से मुँह मोड़ने व भगवद्भक्ति में मन लगाने व संसार की प्रत्येक वस्तु में समदृष्टि रखने का संदेश देता है। कवि कामना करता है- “किसी पवित्र वन में शिव-शिव जपते हुए मेरे दिन व्यतीत हों। मेरी दृष्टि संसार के प्रत्येक पदार्थ के प्रति एक-सी हो; चाहे वह सर्प हो, अथवा मोतियों का हार। प्रबल शत्रु हो अथवा मित्र, मणि हो या मिट्टी का ढेला, पुष्पों की शय्या हो, अथवा पत्थर।” काव्यप्रतिभा एवं दार्शनिकता का ऐसा सुन्दर संयोग अन्य किसी साहित्य में प्राप्त होना दुर्लभ है।
4. बाणभट्ट (देश, काल व कृतियाँ) (3 + 2 = 5)
बाणभट्ट संस्कृत साहित्य में गद्यकाव्य के क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट गद्यकार थे। साथ ही वे संस्कृत साहित्य के एकमात्र कवि हैं जिन्होंने अपने विषय में स्वयं पर्याप्त जानकारी दी है।
देश – बाणभट्ट का जन्म शोण नदी के पास च्यवनाश्रम के अन्तर्गत प्रीतिकूट नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का चित्रभानु तथा माता का नाम राजदेवी था।
काल – बाणभट्ट सम्राट हर्षवर्धन के सभाकवि थे। अतः उनका काल सप्तम शताब्दी का पूर्वार्द्ध निश्चित है क्योंकि हर्षवर्धन का राज्यकाल 606 ई. से 645 ई. तक है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रमाण भी यही स्पष्ट करते हैं- आचार्य वामन (779-813 ई.) ने कादम्बरी के दीर्घ समास वाले वाक्यों को उद्धृत किया है तथा रूद्रट (800-850 ई.) ने कादम्बरी तथा हर्षचरित के आधार पर ही कथा व आख्यायिका की परिभाषा दी है। इससे सिद्ध होता है कि बाण सातवीं शताब्दी तक प्रसिद्धि पा चुके थे।
कृतियाँ – बाणभट्ट की तीन रचनाएँ आज उपलब्ध हैं –
(i) चण्डीशतक
(ii) हर्षचरित
(iii) कादम्बरी
(i) चण्डीशतक – चण्डीशतक भगवती की स्तुति में लिखा गया है। इसमें 100 श्लोक हैं। इसमें गाढ़बन्ध शैली का प्रयोग किया गया है। परन्तु बाण की यशः पताका को दिग्दिगन्त में फहराने का श्रेय हर्षचरित व कादम्बरी को ही है।
(ii) हर्षचरति – हर्षचरित आख्यायिका ग्रन्थ है। इसका कथानक आठ उच्छ्वासों में विभक्त है। पहले ढाई उच्छ्वासों में बाण की आत्मकथा तथा शेष में सम्राट हर्षवर्धन का जीवन-चरित वर्णित है। तृतीय उच्छ्वास में हर्ष की राजधानी व वंश के संस्थापक का वर्णन है। चतुर्थ उच्छ्वास में प्रभाकरवर्धन के सन्तानोत्पत्ति तथा राज्यश्री के विवाह का वर्णन है। पंचम उच्छ्वास में हर्षवर्धन तथा राज्यवर्धन हूणों को परास्त करने के लिए विजय यात्रा पर जाते हैं तथा पीछे से पिता प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हो जाती है। षष्ठ उच्छ्वास में राज्यवर्धन के वैराग्य की चर्चा, राज्यश्री का विधवा होना, तथा राज्यवर्धन की युद्ध में मृत्यु। सप्तम उच्छ्वास में हर्ष की दिग्विजय यात्रा। अष्टम उच्छ्वास में राज्यश्री को सती होने से रोकना, व हर्ष का उसे घर लौटाकर लाना वर्णित है। यह बाण की प्रथम गद्यरचना थी। कवि ने इसमें साहित्यक नियमों के पालन पर विशेष ध्यान रखा है जिससे काव्य की भाषा व शैली में निखार नहीं आ पाया है। तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक स्थिति का सूक्ष्म व विशद वर्णन इस ग्रन्थ की विशेषता है।
(iii) कादम्बरी – कादम्बरी बाण की सर्वोत्कृष्ट कृति है। इसके दो भाग पूर्वार्द्ध व उत्तरार्द्ध हैं। पूर्वार्द्ध बाण की रचना है तथा उत्तरार्द्ध उनके पुत्र पुलिन की। शास्त्रकारों ने गद्यकाव्य के जो लक्षण बताए हैं वे प्रायः कादम्बरी में घटित होते हैं। इसका कथानक सर्वथा कविकल्पित तथा प्रतिपाद्य प्रेयसीलाभ है। कादम्बरी और चन्द्रापीड़ तथा महाश्वेता और पुण्डरीक के जन्म-जन्मान्तर तक चलने वाले प्रेम का यह आख्यान है। कथा का आरम्भ राजा शूद्रक के दरबार से होता है जहाँ एक चाण्डाल कन्या वैशम्पायन नामक तोते को राजा के समक्ष प्रस्तुत करती है। वह तोता अपने पूर्वजन्मों की कथा सुनाता है। राजा शूद्रक पहले जन्म में चन्द्रापीड़ तथा उससे भी पूर्व जन्म में वह चन्द्रमा था। तोता पूर्वजन्म में वैशम्पायन तथा उससे भी पूर्व जनम में श्वेतकेतु का पुत्र पुण्डरीक था। महाश्वेता और कादम्बरी के एक जन्म का ही वृतान्त है। वस्तुतः कादम्बरी के पात्र गन्धर्व लोक, चन्द्रलोक, और मानव लोक की जीवनविभूति हैं तथा एक-दूसरे पर प्रेम व आत्मसमर्पण के लिए प्रस्तुत हैं।
5. जयदेवः (देश, काल व कृतियाँ) (3 + 2 = 5)
संस्कृत गीतिकाव्य की परम्परा में महाकवि जयदेव का विशिष्ट स्थान है।
देश – जयदेव का जन्म बंगाल के किन्दुबिल्व नामक गाँव में हुआ था।
काल – वे बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन की राजसभा के प्रमुख रत्न थे। अतः उनका स्थितिकाल 1100 ई. के समीप माना जाता है।
कृतियाँ – जयदेव की प्रमुख कृति ‘गीतगोविन्द’ संस्कृत गीतिकाव्य की अत्यन्त लोकप्रिय रचना है। ‘गीतगोविन्द’ शृंगाररस प्रधान काव्य है। “इसमें राधा और कृष्ण के प्रणय की विविध दशाओं का- आशा-निराशा, ईर्ष्या, कोप, मान और मिलन का- हृदयग्राही चित्रण हुआ है” संस्कृत काव्य में राधा की प्रतिष्ठा करने का प्रथम गौरव इसी कवि को ही प्राप्त है। श्लोक, गद्य और गीत की मिली-जुली अभिनव शैली का सूत्रपात करके उन्होंने राधा-कृष्ण के जीवन की घटनाओं को श्रृंगार की एक नयी तन्मयता से भर दिया है। ‘गीतगोविन्द’ को किसी ने ग्राम्य रूपक, तो किसी ने नाट्य तो किसी ने संगीत रूपक कहा है।
गीतगोविन्द की सर्वाधिक विशेषता उसकी कोमलकान्त पदावली तथा ललित अनुप्रासमय छन्द हैं। सौन्दर्य और पद से भरी हुई ऐसी रचना विश्व में दुर्लभ है। उसमें अद्भुत प्रवाह है। विलक्षण शब्द सौष्ठव है। रमणीय शैली कै लालित्य में प्रेम की मृदु-मधुर भावनाएँ कल्लोल करती हुई प्रतीत होती हैं। कृष्ण और राधिका की केलिकथाओं और अभिसार कलाओं का शब्द और अर्थ के सामञ्जस्य से ऐसा मनोहारी वर्णन किया गया है कि संस्कृत भाषा से अपरिचित व्यक्ति भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।
कुछ आधुनिक आलोचकों का विचार है कि जो राधा और कृष्ण हमारे उपास्य देव हैं उन्हें ही शृंगार क्रीडाओं का आधार बनाना अनुचित है परन्तु वास्तव में राधा-कृष्ण का प्रेम उद्दाम मानवीय प्रेम का ही प्रतीक है। श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ लीला करना परमात्मा का अनगिनत जीवात्माओं में रमण करना है, जिसका परिणाम है राधा-प्रेम अर्थात् जीव और ईश्वर का अभेद। एक भक्त के लिए भगवान की लीलाएँ, उनकी चेष्टाएँ, प्रेम गाथाएँ सभी गेय हैं। उस शृंगार प्रवाह में माधुर्य भावना की निगूढ धारा बहती रहती है।
6. कालिदासः (देश, काल व कृतियाँ) (3 + 2 = 5)
कवि-कुल-गुरु कालिदास को संस्कृत साहित्य में मूर्धन्य स्थान प्राप्त है। वे ‘भारत के शेक्सपीयर’ के नाम से विश्वभर में विख्यात हैं परन्तु ऐसे प्रतिभाशाली साहित्यकार के जीवन के सम्बन्ध में अभी तक प्रामाणिक तथ्यों का अभाव है।
देश – कालिदास की जन्मभूमि कुछ विद्वान् बंगाल मानते हैं तो कुछ विद्वान् काश्मीर। कुछ विद्वान् विदिशा मानते हैं तो अन्य उज्जयिनी। परन्तु अब प्रायः सभी तर्कों पर विचार करने के पश्चात् उज्जयिनी नगर ही उनका निवासस्थान माना जाता है।
काल – कालिदास के जीवनकाल के सम्बन्ध में भी विद्वानों में एकमत नहीं है। उनके जीवनकाल के सम्बन्ध में कुछ प्रचलित धारणाएँ निम्नलिखित हैं –
(i) छठी शताब्दी
(ii) चौथी-पाँचवीं शताब्दी (गुप्तकाल)
(iii) ई.पू. दूसरी शताब्दी
(iv) ई.पू. आठवीं शताब्दी
(v) ई.पू. ग्यारहवीं शताब्दी
(vi) ई.पू. प्रथम शताब्दी
अनेक भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा किए गए अनेकानेक अनुसन्धानों के पश्चात् अब अन्तिम धारणा स्वीकार कर ली गई है कि कालिदास ई.पू. प्रथम शताब्दी में हुए तथा वे राजा विक्रमादित्य के दरबार के प्रमुख कवि थे। विक्रमादित्य कोई उपाधि नहीं थी वरन् नाम था।
(क) इस मत के प्रमाणस्वरूप कथासरित्सागर तथा महाकवि हाल की गाथा सप्तशती को लिया जा सकता है। यही मेरुतुंगाचार्य कृत पद्यावली से भी ज्ञात होता है कि मालव प्रदेश का वीर शासक विक्रमादित्य था जिसने शकों को हराकर ‘शकारि’ उपाधि धारण की थी तथा उज्जयिनी पर पुनः मालवगण का राज्य स्थापित किया था तथा विक्रम सम्वत् चलाया था। वह कवियों का आश्रयदाता था।
(ख) इस मत के सन्दर्भ में एक अन्य प्रमाण यह है कि कालिदास शैव थे और कथासरित्सागर के अनुसार शासकगण भी शैव थे। यह सम्प्रदाय साम्य भी कालिदास को ई.पू. प्रथम शती में स्थित विक्रमादित्य का आश्रित प्रमाणित करता है जबकि गुप्त राजाओं के सम्बन्ध में प्रमाणित हो चुका है कि वे वैष्णव थे।
(ग) रघुवंश में इन्दुमती के स्वयंवर के समय वहीं पाण्ड्य नरेश का उपस्थित होना मिलता है तथा यह प्रमाणित किया गया है कि प्रथम शताब्दी में पाण्ड्य राज्य काफी समृद्ध था। यह भी कालिदास का ई.पू. प्रथम शती में होना सिद्ध करता है।
(घ) अश्वघोष के काव्य, भाषा, शैली, अलंकार छन्द आदि सभी पर कालिदास का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। अश्वघोष ईसा की प्रथम शताब्दी में कुषाण राजा कनिष्क के दरबार में प्रमुख कवि थे। इस प्रकार अन्तः बाह्य अनेक साक्ष्यों के आधार पर कालिदास का काल ई.पू. प्रथम शताब्दी होता है।
- कृतियाँ – कवि सम्राट् कालिदास की सात कृतियाँ प्राप्त होती हैं
- महाकाव्य – रघुवंश तथा कुमारसम्भव।
- खण्डकाव्य – ऋतुसंहार, मेघदूत।
- नाटक – मालविकाग्निमित्र, विक्रमोवशीय तथा अभिज्ञानशाकुन्तलम्।
(i) ऋतुसंहार – यह कालिदास की सर्वप्रथम कृति है तथा खण्डकाव्य है। इसमें छः सर्ग हैं जिसमें छः ऋतुओं का अत्यन्त स्वाभाविक, सरल, सरस तथा मनोरम वर्णन है। ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर तथा वसन्त ऋतुओं के वर्णन में कालिदास ने शृंगार को प्रमुखता दी है। ऋतुओं के परिवर्तन से वहाँ बाह्य प्रकृति में नवीनता आती है वहाँ युवक-युवतियों में विविध प्रणय-क्रीड़ाओं तथा श्रृंगार की भावनाओं एवं चेष्टाओं का उदय दिखाया गया भाषा, भाव, शैली की दृष्टि से यह कालिदास की किशोरावस्था की कृति प्रतीत होती है। उसके उत्कृष्ट काव्यगुणों के अंकुर उसमें दिखाई देते हैं।
(ii) मेघदूत – मेघदूत संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट गीतिकाव्य है। इसमें एक नवविवाहित यक्ष की विरहव्यथा का वर्णन है जो किसी अपराधस्वरूप एक वर्ष के लिए अपनी पत्नी से वियुक्त कर दिया जाता है। उसकी पत्नी हिमालय में स्थित अलकापुरी में यक्षों की नगरी में रहती है। यक्ष स्वयं (मध्य भारत में स्थित) रामगिरि में प्रवास कर रहा है। वर्षाकाल के आरम्भ में वह मेघ को दूत बनाकर अपना संदेश प्रियतमा के पास भेजता है। मेघदूत में दो भाग हैं पूर्वमेघ और उत्तरमेघ। पूर्वमेघ में रामगिरि से अलकापुरी तक मेघ के मार्ग का रोचक वर्णन है भारतवर्ष के प्राकृतिक सौंदर्य का सुन्दर चित्र कालिदास ने इसमें खींचा है। उत्तरमेघ में यक्ष के भवन तथा उसकी प्रियतमा का चित्र अंकित किया गया है उसे मार्मिक संदेश भी दिया गया है। मेघदूत में विरह और प्रणय का अद्भुत चित्र खींचा गया है। पूरे काव्य में मन्दाक्रान्ता छन्द का प्रयोग हुआ है। कालिदास ने इसमें अन्तर और बाह्य दोनों प्रकृतियों का सुरम्य समन्वय किया है। मेघदूत के आधार पर संस्कृत में दूतकाव्यों की परम्परा चल निकली।
(iii) कमारसम्भव – यह कालिदास की अत्यन्त प्रौढ रचना है। संयोग और वियोग-शृंगार के दोनों पक्षों का जिस सौन्दर्य तथा सरसता से इसमें वर्णन मिलता है, वह अन्यत्र प्राप्त होना कठिन है। इसमें भूतभावन शिव तथा पार्वती को भी शृंगार रस में डूबते दिखाया गया है। प्रथम सर्ग में हिमालय का वर्णन व पार्वती का जन्म, द्वितीय में देवताओं का तारकासुर से त्रास व शिव-पार्वती विवाह की योजना, तृतीय में कामदेव भस्मीकरण, चतुर्थ में रति विलाप व आकाशवाणी द्वारा पुनर्मिलन, पंचम में शिव-प्राप्ति हेतु पार्वती की तपस्या व परीक्षा, छठे सर्ग में सप्तर्षियों व अरुन्धती द्वारा पार्वती की शिव के लिए याचना, सप्तम सर्ग में शिव-पार्वती विवाह, अष्टम-सर्ग में शिव-पार्वती की प्रेम-लीला का वर्णन है। उसके पश्चात् कुमार कार्तिकेय की उत्पत्ति व तारकासुर वध का चित्रण है।
(iv) रघुवंश – रघुवंश कालिदास की श्रेष्ठ कृति है। इसी रचना के कारण वे ‘रघुकार’ नाम से प्रसिद्ध हो गए। इस महाकाव्य में कोई एक नायक नहीं है अपितु रघुवंश के विभिन्न राजाओं का चरित्र चित्रण ही इसका उद्देश्य है। इसमें 19 सर्ग हैं। प्रथम सर्ग में सूर्यवंशी राजाओं का वर्णन, राजा दिलीप की सन्तानहीनता व वशिष्ठाश्रम गमन, द्वितीय सर्ग में दिलीप द्वारा नन्दिनी की सेवा व पुत्र-प्राप्ति का वरदान, तृतीय सर्ग में रघुजन्म, चतुर्थ में रघुदिग्वजय वर्णित है। उसके आगे के सर्गों में रघु के पुत्र अज का जन्म, इन्दुमति स्वयंवर, अज एवं इन्दुमति विवाह, अज द्वारा शासन व विजय, इन्दुमति की मृत्यु, अजविलाप, दशरथ-जन्म, श्रवणकुमार कथा, राम-कथा तथा कुश के पराक्रम को कवि ने उदात्त रूप में प्रस्तुत किया है। उन्नीसवें सर्ग में राजा अग्निवर्ण के विलासमय जीवन का चित्र खींचकर रघुकुल का पतन दिखाया गया है। यह काव्य राजाओं के उच्च आदर्शों का प्रतिपादक है। इसमें कवि ने वैदर्भी रीति का प्रयोग किया है।
(v) मालविकाग्निमित्रम् – एक ऐतिहासिक नाटक है जिसमें शुंगवंशीय राजा अग्निमित्र और दासी के वंश में रहने वाली विदर्भ-राजकुमारी मालविका का प्रेम वर्णित है। इसमें पाँच अंक है। अग्निमित्र की महारानी धारिणी शरणागत मालविका को अपना लेती है और उसे नृत्य आदि ललित कलाओं की शिक्षा दिलाती है। राजा अपने अन्तः पुर में उसका नृत्य देखकर मुग्ध हो उठता है। अन्तः पुर में विरोध और तनाव होने पर भी विदूषक की सहायता से राजा और मालविका की भेंट हो जाती है। अन्ततः महारानी धारिणी अपने आप मालविका का हाथ अग्निमित्र के हाथ में दे देती है। इस नाटक में राजप्रसाद के प्रणयषड्यन्त्रों का सजीव चित्रण है। साथ की यह प्रेम-प्रपंच की घटनाएँ चुभते संवादों और रसपूर्ण विनोद से परिपूर्ण है। कालिदास की इस प्रथम नाट्य-कृति में उनके कलात्मक विकास का बीज निहित है।
(vi) विक्रमोर्वशीयम् – यह कालिदास का दूसरा नाटक है। इसमें राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रेम-कथा का वर्णन है। यह कथा ऋग्वेद और ब्राह्मण-ग्रन्थों में भी आयी है। पुरुरवा स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी को देखकर मुग्ध हो जाता है। उर्वशी को एक वर्ष के लिए शापवश पृथ्वी पर रहना पड़ता है। चतुर्थ अंक में उर्वशी एक लता के रूप में बदल जाती है। पुरुरवा विलाप करता है। राजा के प्रेम से प्रभावित होकर इन्द्र उर्वशी को आजीवन राजा के साथ रहने की अनुमति दे देते हैं। इस नाटक में शृंगार के संयोग और वियोग दोनों रूपों का अत्यन्त मार्मिक प्रयोग हुआ है। इसमें कालिदास की नाट्यता और काव्यता भी अधिक विकसित दिखाई पड़ती है। प्रकृति का मानवीय भावों के साथ इसमें अधिक सामञ्जस्य दिखाया गया है।
(vii) अभिज्ञानशाकुन्तलम् – यह कालिदास का अमर नाटक है। इसमें सात अंक हैं। दुष्यन्त और शकुन्तला की प्रेमकथा इसमें चित्रित है। दुष्यन्त हस्तिनापुर का राजा है तथा शकुन्तला कण्व मुनि के आश्रम में पलने वाली एक सुन्दरी कन्या है। दुष्यन्त कण्व की अनुपस्थिति में शकुन्तला से आश्रम में प्रेम कर बैठता है। गान्धर्व विवाह के बाद कुछ दिन वहीं रहकर वह राजधानी लौट जाता है। वह शीघ्र शकुन्तला को बुला लेने के वचन को भूल जाता है। इधर कण्व आश्रम में लौटकर गर्भवती शकुन्तला को पतिगृह भेजने की तैयारी करते हैं। आश्रम के सभी चेतन पदार्थ इस दृश्य से व्याकुल हो उठते हैं। चतुर्थ अंक में शकुन्तला की विदाई का दृश्य उत्कृष्ट है। दुष्यन्त शाप के कारण शकुन्तला को पहचान नहीं पाता। उसके द्वारा शकुन्तला को दी गयी अँगूठी भी खो चुकी है।
इसलिए पहचान का कोई मार्ग भी नहीं है। अतः शकुन्तला मारीच आश्रम में ले जायी जाती है जहाँ वह भरत नाम के पुत्र को जन्म देती है। इधर दुष्यन्त को सब कुछ स्मरण हो आता है और वह बहुत पश्चाताप करता है। संयोवश इन्द्र की सहायता करके लौटते समय दुष्यन्त मारीच आश्रम जाता है और शकुन्तला तथा भरत को देखता है। यहाँ नाटक की सुखद समाप्ति होती है। भारतीय परम्परा में इस नाटक के चतुर्थ अंक को और उसके भी चार श्लोकों को श्रेष्ठ बतलाया गया है। जर्मन महाकवि गेटे ने इस नाटक की बहुत प्रशंसा की है कि वसन्त का पुष्प और ग्रीष्म का फल एक साथ देखना हो तो शाकुन्तल में देखें। मानव जीवन के मार्मिक पक्षों का निरूपण उसमें बहुत कुशलता से हुआ है।
NCERT Solutions for Class 12 Sanskrit
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