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Class 11 Hindi Antra Chapter 12 Summary – Hansi Ki Chot, Sapna, Darbar Vyakhya

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हँसी की चोट, सपना, दरबार Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 12 Summary

हँसी की चोट, सपना, दरबार – देव – कवि परिचय

जीवन-परिचय – शृंगार को रसराज माननेवाले महाकवि देव का पूरा नाम देवदत्त था। इनका जन्म सन् 1673 और मृत्यु सन् 1767 में मानी जाती है। इनकी जन्मभूमि इटावा थी। ये देवसरिया ब्राह्मण थे। इन्हें अपने जीवन काल में अनेक आश्रयदाताओं के पास आश्रय के लिए भटकना पड़ा था। औरंगजेब के पुत्र आलमशाह के दरबार में भी ये कुछ समय के लिए रहे थे पर जितना संतोष इन्हें भोगीलाल नामक आश्रयदाता से हुआ, उतना किसी और से नहीं मिल सका।

रचनाएँ – देव के द्वारा रचित ग्रंथों की निश्चित संख्या अभी तक ज्ञात नहीं हो पाई है। इनकी रचनाएँ 76 तक मानी गई हैं। आचार्य शुक्ल का मत है कि ये संख्या 25 है। डॉ॰ नगेंद्र ने सोलह उपलब्ध ग्रंथों के नाम गिनवाए हैं। वे हैं-भाव विलास, अष्टयाम, भवानी विलास, प्रेम-तरंग, कुशल विलास, जाति-विलास, रस-विलास, सुजान-विनोद, शब्द रसायन, सुख-सागर-तरंग, प्रेम चंद्रिका, राग रत्नाकर, देवशतक, देव चरित्र, देव माया प्रपंच तथा शिवाष्टक।

काव्यगत विशेषताएँ – देव के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

(i) आचार्यत्व – देव की कविता का प्रमुख वर्ण्य-विषय शृंगार ही था लेकिन उन्होंने आचार्य कर्म भी अति श्रेष्ठता से निभाया है। जैसा नायिका-भेद इन्होंने किया है, वैसा किसी और कवि ने नहीं किया। काव्यशास्त्र के क्षेत्र में इन्होंने परंपरागत मान्यताओं का समर्थन किया है और साथ-ही-साथ मौलिक उद्भावनाओं को प्रस्तुत किया है।

(ii) श्शृंगारिकता – देव की रचनाओं में विषय-विविधता बहुत व्यापक है। ये किसी भी विषय को उठाकर बड़ी कुशलता से उसे आगे बढ़ाते हैं। प्रायः राधा-कृष्ण के माध्यम से इन्होंने अपनी श्रृंगारिक भावनाओं को प्रकट किया है। इनकी प्रबृत्ति भी अन्य रीतिकालीन कवियों के समान संयोग ब शृंगार में अधिक रमी है। नायक-नायिका का रूप-माधुर्य, मिलन और हाव-भाव का चित्रण बहुत मनोहारी है। कवि ने वियोग-भृंगार के भी अत्यंत कारुणिक चित्र प्रस्तुत किए हैं। जैसे –

साँसन ही सौं समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयौँ गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तनु की तनुता करि॥
जीव जियै मिलिबेई की आस कि, आस हू पास अकास रह्यौ भरि।
जा दिन ते मुख फेरि हरै हँसि, हेरि हियौ जु लियो हरि जू हरि॥

(iii) वैराग्य और भक्ति-भावना – देव एक शृंगारिक आचार्य कवि थे लेकिन भारतीय संस्कारों में बँधकर वह कभी नास्तिक भी नहीं रहे। उन्होंने स्थान-स्थान पर अपनी वैराग्य-भावना और आस्तिकता को प्रकट किया है। देव वैष्गव थे। वह राम को अत्यंत पराक्रमी, यशस्वी और कल्याणकारी मानते थे। उन्होंने रति और शृंगार की प्रतिमूर्ति राधा-कृष्ण को शुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप माना है –

राधा कृष्ण किसोर जुग, पद बंदौ जग बंद।
मूरति रति सिंगार की, सुद्ध सच्चिदानंद।

(iv) प्रकृति-चित्रण – देव शृंगारिक कवि हैं इसलिए उनके काव्य में प्रकृति साध्य न बनकर साधन बनी। उन्होंने प्रकृति वर्णन में ऋतु वर्णन की परंपरा का पालन किया। उनकी प्रकृति संबंधी मौलिक दृष्टि की वहाँ सराहना करनी पड़ती है जहाँ उन्होंने वसंत के समय कलियों का सुंदर वर्णन किया है। वर्षा ऋतु के संबंध में भी इनका भाव अति सुंदर है –

‘झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानौ
घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।’

(v) दार्शनिकता – देव के काव्य में दार्शनिकता के दर्शन बार-बार होते हैं। ‘वैराग्यशतक’ और ‘देवमाया प्रपंच’ में उन्होंने अपने दार्शनिक विचारों को प्रकट किया है। वे ब्रहम को एक, अद्वैत और सर्वव्यापक मानते हैं, उसका कोई रूप-रंग नहीं है। वह जीव और ब्रह्म की अद्वैतता स्वीकार करते हैं-
नित्य सच्चिदानंद रह्यो जो गुणातीत।

झूठे सुख को लोभु करि, क्यों न बंधे विपरीत।

(vi) भाषा-शैली – देव ने अपने काव्य को सफल अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए शब्द शक्तियों का अच्छा प्रयोग किया। उनके अभिधा के प्रयोग में कुछ नीरसता दिखाई देती है लेकिन नायिकाओं के सौंदर्य-वर्णन में प्रायः लक्षणा को आधार बनाया गया है। इन्होंने माधुर्य और प्रसाद गुण का अच्छा प्रयोग किया है। इन्हें अनुप्रास अलंकार के प्रति विशेष मोह है। छंद-योजना में लय और तुक का विशेष ध्यान रखा गया है। ब्रजभाषा की कोमल-कांत शब्दावली का इन्होंने सार्थक और सुंदर प्रयोग किया है। इनके काव्य में तत्सम शब्दावली का अधिक प्रयोग किया गया है। सरल और संयुक्त वाक्यों का प्रयोग तो इनमें दिखाई देता है, लेकिन मिश्र वाक्यों का प्रयोग प्रायः इन्होंने नहीं किया है। देव वास्तव में ही श्रेष्ठ भाषा-शिल्पी हैं।

Hansi Ki Chot, Sapna, Darbar Class 11 Hindi Summary

प्रस्तुत अवतरण में महाकवि देव ने नायिका की विरह अवस्था का मार्मिक वर्णन किया हैं। विरह की दसरीं अवस्था ‘मूच्छा’ को माना है। अपने प्रियतम के विरह में उसके न मिलने पर नायिका मूर्च्छित होने की स्थिति में पहुँच जाती है। एक दिन नायक (श्री कृष्ण) ने नायिका (गोपी) को हँसकर देख लिया तभी से नायिका अपना दिल दे बैठी है। नायिका को उसके बाद नायक दिखाई नहीं दिया। तब से वह विरह भी अग्नि में जल रही है। उसके शरीर के पाँच तत्वों में आँसू से जल निकल गया, साँस रूपी वायु निकल गई शरीर का तेज भी खत्म हो गया है। वह बहुत कमज़ोर हो गई है। बस नायक से मिलने की आशा में केवल शरीर बचा है। वह भी इसी आशा में बचा है कि कभी तो नायक उसे दर्शन देगा। कवि ने प्रिय की हैसी से प्रभावित औरघायल नायिका का मार्मिक वर्णन किया है।

द्वितीय पद का सार –

प्रस्तुत अवतरण में महाकवि देव ने उस गोपी का वर्णन किया है जिसने सपने में श्री कृष्ण के साथ झूला झूला है। गोपी कहती है कि नींद में उसने सपना देखा कि बूँदों की झड़ी लगी हुई थी। आकाश मेंबने बादल उमड-घुमड़ रहे थे। ऐसे में श्री कृष्ण उसके पास आए कि आज मेरे साथ झूला झुलने चलो। यह सुनकर नायिका की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। जैसे ही वह झूला झूलने जाने लगी तभी उसकी निर्दयी नींद खुल जाती है और उसका स्वप्न टूट जाता है। आँख खुली तो न वहाँ कृष्ण थे, न वर्षा। पीड़ा के कारण उनकी आँखों से आँसू निकलने लगे। भृंगार रस का अनुपम वर्णन इस छंद में किया गया है।

तृतीय पद का सार –

देव दरखारी कवि थे। प्रस्तुत अवतरण में महाकवि देव ने किसी राजा के दरबार की अव्यवस्था का वर्णन किया है। दरबार की निष्क्रिय एवं पतनशील सामंती व्यवस्था की कवि ने कटु आलोचना की है। कवि ने मूख् राजा की सभा के विषय में कहा है कि सभा के सदस्य बहरे हैं; कोई कुछ भी कहे वह अचे-युरे में भेद व्यक्त नहीं करते। ओछी और और बाज़ारू बातें उन्हें पसंद आती हैं। कोई भी किसी के द्वारा किए श्रेष्ठ कार्यों की महत्ता को नहीं समझता। वे वही समझते और करते हैं जो उन्हें रुचिकर लगता है। अपनी कला और प्रतिभा को छोड़ वे सारी रात राजा की पसंद के कारण नाचते रहते थे।

हँसी की चोट, सपना, दरबार सप्रसंग व्याख्या

1. हँसी की चोट
साँसनि ही साँ समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तनु की तनुता करि॥
‘देव’ जियै मिलिबेही की आस कि, आसहू पास अकास रह्यौ भरि।
जा दिन तै मुख फेरि है हँसि, हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि॥

शब्दार्थ साँसन – साँसें। समीर – हवा। नीर – पानी। तनु – शरीर। मिलिबेही – मिलने की।

प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महाकवि देव द्वारा रचित काव्य ग्रंध ‘सुखसागर तरंग’ से अवतरित है । इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित किया गया है। इसमें कवि ने नायिका की विरह अवस्था का मार्मिक वर्णन किया है। विरह की दसवीं अवस्था मूच्छा है जिसमें विरही अपने प्रिय को प्राप्त न कर सकने में मूर्चित होने की स्थिति में पहुँच जाती है। इस अवतरण में कोई गोपी मूच्छा की स्थिति में पहुँच चुकी है।

व्याख्या – कवि कहता है कि गोपी अपने श्रीकृष्ण के विरह में मूर्च्छित होने वाली है। उस की साँसों से हवा का आना-जाना बंद हो गया है; आँखों से अब आँसुओं का बहना समाप्त हो गया है। मानो उसकी आँखों से सारे आँसू बह चुके हैं तथा बहने के लिए शेष बचे ही नहीं हैं। उसके शरीर का तेज समाप्त हो गया है तथा विरहाग्नि के कारण शरीर अति कमज़ोर हो गया है। उसके शरीर में विद्यमान पाँचों तत्व—जल, वायु, तेज तथा आकाश धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। नायिका को अभी भी अपने प्रिय से मिलने की आशा है और वही आशा उसके जीवन रूपी आकाश को स्थिर बनाए हुए है अर्थात वह अभी मरी नहीं है। जिस दिन से श्रीकृष्ण ने नायिका की ओर हैसकर देखा था उस दिन से ही नायिका के मुख की हँसी समाप्त हो गई अर्थात तब से ही वह विरह की अग्नि में निरंतर जल रही है। उस दिन ही नायिका का हृदय श्रीकृष्ण ने सदा के लिए प्राप्त कर लिया था।

विशेष  :

  1. कवि ने नायिका की विरहावस्था को अति मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इसमें विरहावस्था की दशम अवस्था का उल्लेख है।
  2. वियोग भृंगार का प्राधान्य है।
  3. सवैया छंद है।
  4. ब्रजभाषा की कोमलकांत शब्दावली का प्रयोग है।
  5. यमक, अनुप्रास और स्वरमैत्री अलंकारों का सहज प्रयोग है।
  6. लक्षणिक और प्रतीकात्मक प्रयोग ने कवि के कथन को गहन बनाया है।

2. सपना
झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो,
घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो साँ ‘चलौ झूलिबे को आज’
फूली न समानी भई ऐसी हाँ मगन मै॥।
चाहत उट्योई उठि गई सो निगोड़ी नींद,
सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।
आँख खोलि देखीं तौ न घन हैं, न घनश्याम,
वेई छाई बूँदें मेंरे आँसु हृ दृगन में॥

शब्दार्थ घटा – बादल। झहरी – बरसाती बूँदों की झड़ी लगाना। गगन – आकाश। स्याम – कृष्ण। आनि – आकर। मो सौँ – मुझ से । झूलिबे झूलने के लिए। फूली न समानी – अति प्रसन्न होना। निगोड़ी – निर्दयी। भाग – किस्मत। दूगन – आँखें।

प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित कविता ‘सपना’ से लिया गया है। इसके रचयिता रीतिकालीन कवि देव हैं। कोई गोपी श्रीकृष्ण के वियोग में डूबी हुई थी। उसे नींद आ गई। सपने में उसे ऐसे लगा जैसे श्रीकृष्ण उसे एक साथ झूला झूलने के लिए कह रहे हों। गोपी की नींद खुल गई।

व्याख्या – गोपी कहती है कि मुझे ऐसे लगा मानो बरसाती बूँदों की झड़ी लगी हुई थी। छोटी-छोटी बूँदें टपक रही थी। आकाश में घने काले बादल उमड़-घुमड़ रहे थे। उन्होंने चारों दिशाओं को घेर लिया था। श्रीकृष्ण ने मुझे आकर कहा, “आओ, आज झूला झूलने चलें।” यह सुनकर में तो प्रसन्नता से भर उठी। मैं तो प्रसन्नता भरे भावों में मगन हो गई। मैने श्रीकृष्ण के साथ जाने के लिए आना चाहा और मेरी निर्दयी नींद खुल गई। मेरे इस जागने से ही मेरे भाग्य सो गए। मैने आँखें खोलकर देखा तो न बादल थे और न ही श्रीकृष्ण। मेरी आँखों में आँसुओं के रूप में बूँदे भरी हुई थीं अर्थात वर्षा की बूँदें तो बादलों से नहीं गिर रही थीं, पर पीड़ा के कारण मेरी आँखों में आँसू भरे थे।

विशेष :

  1. कवि ने श्रीकृष्ण के वियोग में गोपी के हृदय की पीड़ा को प्रकट किया है।
  2. वियोग शृंगार रस प्राधान्य है।
  3. पुनसक्ति प्रकाश, अनुप्रास, उत्रेक्षा, लोकोक्ति और मानवीकरण अलंकारों का सहज प्रयोग किया गया है।
  4. ब्रजभाषा का प्रयोग है जिसमें तद्भव शब्दावली का अधिक प्रयोग है।
  5. कवित्त छंद का प्रयोग हुआ है।
  6. अभिधा शब्द-शक्ति ने भावों को सरलता और सरसता प्रदान की है।
  7. गेयता का गुण विद्यमान है।

3. दरबार
साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।
भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूढ़िबे को काहू कर्म न बाच्यो॥
भेष न सूझयो, कह्यो समझयो न बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।
‘देव’ तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो॥

शब्दार्थ – साहिब – स्वामी, राजा। मुसाहिब – राजा के दरबारी। मूक – मौन, चुप। बहिरी – बहरी। बूढ़िबे – डूबने के लिए। औघट – कठिन, दुर्गम मार्ग। रुचि – पसंद। सगरी – सारी। निसि – रात। निबरे नट – अपनी कला या प्रतिभा से भटका।

प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित पाठ से लिया गया है जिसके रचयिता रीतिकालीन कवि देव हैं। देव दरबारी कवि थे। उन्होंने किसी राजा के दरबार की अव्यवस्था का वर्णन किया है। पतनशील और निष्क्रिय सामंती व्यवस्था के प्रति कवि ने अपनी प्रतिक्रिया प्रकट की है।

व्याख्या – कवि कहता है कि बुद्धि और विवेक से रहित राजा अक्ल का अंधा है और उसके दखबारी अच्छा-बुरा सब देखकर भी विवशतावश चुप रहते हैं। वे किसी प्रकार की प्रतिक्रिया प्रकट नहीं करते। उसकी सभा बहरी है; कोई कुछ भी कहे वह अच्छे-बुरे में भेद व्यक्त नहीं करती। व्यर्थ में तुच्छ और हेय बातों पर रीझने का प्रचलन हो गया है अर्थात ओछी और बाजारूू बातें उन्हें पसंद आती हैं।

गहरी, कठिन और दुर्गम मार्ग को सुलझाने की राह न ढूँढ़कर सब व्यर्थ भटकते हैं और कोई भी किसी के द्वारा किए गए श्रेष्ठ कार्यों की महत्ता को नहीं समझता। अपनापराया, असली-नकली भेष किसी को नहीं सूझता; यदि उन्हें कुछ कहकर समझाया जाए तो वे समझते नहीं; बताने पर सुनते नहीं। वे तो वही समझते और करते हैं जो उन्हें रचचिकर लगता है। देव कवि कहते हैं कि अपनी कला और प्रतिभा से भटके हुए कलाकार दुरुद्धुधिपूर्वक सारी रात नाचते हैं; समय और शक्ति व्यर्थ गँवाते हैं और मूर्ख राजा के साथ मिल अपने विवेक का प्रयोग नहीं करते।

विशेष :

  1. कवि ने मूर्ख राजा की सभा का सजीव चित्रण करते हुए अपने युग का चित्र खींचा है। मूर्ख राजा के सामने बुद्धििमता यही है कि चुप रहो।
  2. ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है जिसमें तद्भव शब्दावली की अधिकता है।
  3. स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सुष्टि की है।
  4. अनुप्रास का सहज-स्वाभाविक प्रयोग किया गया है।
  5. सवैया छंद का प्रयोग किया गया है।

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