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Class 11 Hindi Antra Chapter 13 Summary – Aur Bhanti Kunjan Me Gujarat, Gokul Ke Kul Ke Gali Ke Gop, Bhoran Ko Gunjan Bihar Vyakhya

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औरै भाँति कुंजन में गुंजरत, गोकुल के कुल के गली के गोप, भाैंरन को गुंजन बिहार Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 13 Summary

औरै भाँति कुंजन में गुंजरत, गोकुल के कुल के गली के गोप, भाैंरन को गुंजन बिहार – पद्माकर – कवि परिचय

जीवन-परिचय – पद्माकर रीतिकाल के सुप्रसिद्ध कवि माने जाते हैं। इनका जन्म सन 1753 में उत्तर प्रदेश के बाँदा में हुआ था। इनके पिता का नाम मोहन लाल भट्ट था। ये जाति के तेलंग ब्राहमण थे। इनका पारिवारिक वातावरण कवित्वमय था। इनके पिता तथा अन्य वंशज कवि थे। इनके वंश का नाम ही ‘कवीश्वर’ पड़ गया था। पद्माकर अनेक राजाओं के आंश्रित रहे। बूँदी नरेश की ओर से इन्हें विशेष सम्मान प्राप्त हुआ था। पन्ना के महाराज ने भी इन्हें अनेक गाँव दान में दिए थे। जयपुर नरेश ने इन्हें ‘कविराज शिरोमणि’ की उपाधि से अलंकृत किया था। इनका निधन सन 1833 में हुआ।

रचनाएँ – पद्माकर के नाम से अनेक रचनाओं का उल्लेख प्राप्त होता है किंतु इनकी प्रमुख रचनाएँ ‘ हिम्मत बहादुर विरुदावली’, प्रताप सिंह विरुदावली, पद्माभरण, प्रबोध पचासा, जगद्विनोद, रामरसायन, गंगा लहरी हैं।
काव्यगत विशेषताएँ-पद्माकर के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(i) श्थृंगारिकता – रीतिकालीन आचार्य कवि होने के कारण शृंगारिकता इनके काव्य की प्रमुख विशेषता है। यह उस युग की माँग का परिणाम है। ‘जगद्विनोद’ इनका शृृंगारिकता से संबंधित ग्रंथ है जिसमें श्रृंगार के संयोग एवं वियोग पक्षों का वर्णन किया गया है। इन्होंने संयोग भृंगार का वर्णन बहुत ही सजीव और सरल भाव से किया है। इन्होंने चित्रात्मक शैली में वर्णन इस प्रकार से किया है कि आँखें बंद कर लेने पर भी कविता के माध्यम से सारा वातावरण और दृश्य आँखों के सामने नाच जाता है। इनके शृंगार का धरातल मानवीय है। प्रेम-क्रीड़ाओं को प्रकट करने में इन्हें विशेष सफलता मिली है। इनके द्वारा रचित वियोग श्रृंगार में प्रकृति का उद्दीपन रूप अधिक दिखाई देता है। प्रकृति के परिवर्तन से नायक-नायिका की पीड़ा बढ़ने के दृश्य इन्होंने सुंदर ढंग से प्रकट किए हैं। इन्होंने जहाँ परंपरा का मोह छोड़ स्वच्छंद भाव से प्रेम के क्षेत्र में विचरण किया है वहाँ इनकी कविता में निखार आ गया है। इन्होंने कविता के विषय जीवन से चुने हैं।

(ii) भक्ति – पद्माकर केवल भृृतारिक कवि नहीं थे बल्कि उनका हूदय किसी भी भारतीय के समान भक्ति-भाव से भरा हुआ था। इन्हें राम-भक्ति में पूर्ण विश्वास था। इन्हें कृष्ण के प्रति भी आस्था थी लेकिन जहाँ ये राम का गुणगान करते हैं वहाँ ये रीतिकाल के नहीं बल्कि भक्तिकाल के भक्त प्रतीत होते हैं। इनकी भक्ति निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार की दिखाई देती है। इन्हें गंगा के प्रति अपार श्रद्धा थी। इन्होंने गंगा के मनोहर दृश्यों का वर्णन तो प्रशस्ति के रूप में किया है। पतित पावनी गंगा के प्रति इनका असीम विश्वास सर्वत्र झलकता है। इनमें भक्ति की लोक सामान्य भावना दिखाई देती है जिसके कारण राम, विष्णु तथा कृष्ण एक ही माने गए हैं।

(iii) वीरता – पद्माकर वीर रस के कवि थे। इन्होंने अपने जीवन में जो पहली कविता रची थी वह दो सेनाओं के बीच हुए युद्ध का वर्णन था जो इन्हॉने छिपकर अपनी आँखों से देखा था। इन्होंने वीरता को अपनाया था और लोक-नायक की प्रशंसा में बड़ी मात्रा में काव्य रचा था। ये हिंदी के पहले ऐसे कवि थे जिन्होंने अंग्रेजों तथा अंग्रेज़ी सेना का डटकर मजाक बनाया था और उन्हें लाल मुँहवाला बंदर कहा था। इनके द्वारा की गई वीरता संबंधी कविता में कहीं-कहीं इतिहास विर्द्ध वर्णन भी आ गए हैं।

(iv) प्रकृति-चित्रण-पद्माकर ने ऋतुओं का वर्णन बहुत सुंदर ढंग से किया है. पर इन्होंने ऋ्रतुओं की महत्ता की ओर ध्यान न देकर उनकी उद्दीपन-सामग्री की ओर ध्यान दिया है। इन्होंने वसंत ॠतु का वर्णन सबसे अधिक और सुंदर बंग से किया है-

फूलन में, केलि में, कछारन में, कुंजन में,
क्यारिन में कलिन-कलीन किलकंत है।
कहै पद्माकर परागन में पौनहू में
पानन में, पिक में, पलासन पगंत है।

नायिका के सुख-दुख प्रकट करने के लिए इनकी दृष्टि प्रकृति के आस-पास मँडराती दिखाई देती है। नायिका के वियोग में इन्हें सरदियों का चाँद कसाई का कार्य करता दिखाई देता है और पपीहे की ‘पी-पी’ प्राणलेवा लगती है। इनके प्रकृति-चित्रण में चमत्कार वैभव की अधिकता है। कहीं-कहीं ये शब्द-चमत्कार में अधिक उलझ गए हैं।

(v) भाषा-साँदर्य – पद्माकर ने अपना सारा काव्य ब्रजभाषा में रचा, जिसमें अलंकारों की अधिकता है। इनकी भाषा अलंकारिक है। अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, उत्र्रेक्षा आदि इनके प्रिय अलंकार हैं। वर्ण मैत्री के द्वारा इन्होंने चमत्कार कर सृष्टि की है। इन्हें भाषा पर पूरा अधिकार था। कहीं-कहीं इन्होंने फ़ारसी शब्दावली का प्रयोग भी किया है। लाक्षणिक भाषा का प्रयोग करने में ये अति निपुण थे। इन्होंने मुहावरे और लोकोक्तियों का सुंदर और सहज प्रयोग किया है। निश्चित रूप से पद्माकर अपने युग के महान कवियों में से एक थे।

Aur Bhanti Kunjan Me Gujarat, Gokul Ke Kul Ke Gali Ke Gop, Bhoran Ko Gunjan Bihar Class 11 Hindi Summary

1. पहले कवित्त में कवि ने वसंत के आगमन से प्रकृति, विहग और मनुष्य के जीवन में होनेवाले परिवर्तनों का वर्णन किया है। वसंत ऋतुओं का राजा है। ऋतुओं के परिवर्तन के साथ प्रकृति का स्वरूप भी बदलता रहता है। वसंत ऋतु से पूर्व शिशिर ऋतु में प्रकृति सौंदर्दाहीन हो गई थी। वसंत के आगमन से वृक्षों पर नए-नए कोंपल तथा पुष्प विकसित हो गए हैं। पक्षीगण भी अनोखा कलरव कर रहे हैं। बसंत के आगमन से इस प्रकार के अनेकों परिवर्तन हुए हैं। स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, वृक्ष आदि सभी पर इसका प्रभाव परिलक्षित होता है। इस परिवर्तन से रस, रीति, राग, रंग, तन, मन तथा वन सभी और ही तरह के हो गए हैं।

2. दूसरे कवित्त में कवि ने होली के अवसर पर गोपिका की मनोभावनाओं का वर्णन किया है। गोपियाँ लोक-निंदा और सखी-समाज की परवाह किए बिना कृष्ण के प्रेम में डूबे रहना चाहती हैं। गोकुल की गलियों और गाँबों मे जहाँ तक भी लोग हैं वे सब होली के अवसर पर कुछ-न-कुछ अविवेकपूर्ण बाते करते हैं। पद्माकर जी ग्वालिन के अनुराग को व्यक्त करते हैं। जब चतुर सखियाँ लोक-लाज से डरकर कृष्ण के रंग को निचोड़ने के लिए तैयार हैं, उस समय भी यह ग्वालिन कृष्ण-रंग मुक्त नहीं होना चाहती।

3. तीसरे और अंतिम कवित्त में कवि ने वर्षा ऋतु में भाँरों के गुंजार, मोरों के शोर और सावन के झूलों का स्वाभविक वर्णन किया है। इस ऋतु में गुंजनकरते भैवरों के सारे वनों और बाग-बगीचों में उड़ने का मनोरम दृश्य अभिमान, मान और प्राणों से भी प्यारा और मनभावन लगता है। इस ऋतु में नायक नायिका के मन में अपने प्रिय जनों के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। बादलों के आगमन के साथ चारों दिशाओं में मोरों की आवाज़ें बढ़ गई हैं। श्रवण मास में वर्षा के बीच झूला झूलना और परस्पर प्रेम भाव को प्रकट करना अति सुहावना लगता हैं।

औरै भाँति कुंजन में गुंजरत, गोकुल के कुल के गली के गोप, भाैंरन को गुंजन बिहार सप्रसंग व्याख्या

1. औरै भाँति कुंजन में गुंजरत भीर भौर,
औरे डौर झौरन पैं बौरन के हूवै गए।
कहै पद्माकर सु औरै भाँति गलियानि,
छलिया छबीले छैल औरै छबि छ्वै गए।
औँर भाँति बिहग-समाज में आवाज़ होति,
ऐसे रितुराज के न आज दिन द्वै गए।
औरै रस औरै रीति औरै राग औरै रंग,
औरै तन औरै मन औरै बन ह्वै गए॥

शब्दार्थ – औरै – और ही तरह। भीर – भीड़। भौर – भंवर। डौर – डौल आकार। बौरन – गुच्छों। छबीले – सुंदर । छवै गए – छा गए। विहंग – पक्षी।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यावतरण सुप्रसिद्ध कवि पद्माकर विरचित ‘जगद्विनोद’ से उद्धृत है जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित किया गया है। कविवर पद्माकर प्रस्तुत पद्य में बसंत ऋतु का शब्द-चित्र प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं।

व्याख्या – वृक्षों के झुंडों में भँवरों की भीड़ की गुंजार अब पहले से बिलकुल भिन्न प्रकार की है अर्थात उसमें अब अधिक मस्ती है, आम के वृक्षों पर बौरों के गुच्छों का आकार भी अब पहले जैसा नहीं रहा अर्थात वे गुच्छे अधिक सुगंधित और बड़े हो गए हैं। पद्माकर कवि कहते हैं कि अब तो गलियाँ भी और ही तरह की हो गई हैं तथा उन गलियों में घूमनेवाले सुंदर छलिया नायक भी पहले जैसे नहीं रहे, बल्कि थोड़े भिन्न हो गए हैं। पक्षियों के समूह भी इस वसंत में अनोखी आवाज़ें निकाल रहे हैं। इस परिवर्तन का कारण बताते हुए कविवर पद्माकर कहते हैं कि अभी तो बसंत को आए दो दिन भी नहीं हुए, दो दिन में ही यह परिवर्तन हो गया है। वसंत ॠतु में और ही भाँति का रस वनस्पतियों में है, और ही प्रकार की रातें हो गई हैं, और ही प्रकार का राग-रंग, और ही तरह की शारीरिक स्फूर्ति और ही प्रकार का उत्साहपूर्ण मन तथा और ही प्रकार के वन हो गए हैं।

प्रस्तुत पद में कवि ने यह स्पष्ट किया है कि वसंत ऋतु का प्रभाव सारे वातावरण पर एकाएक पड़ जाता है। देखते-ही-देखते सजीव और निर्जीव पदार्थों में चमत्कारी परिवर्तन आ जाता है।

विशेष :

  1. कोमल शब्दावली का प्रयोग किया गया है। भाषा मधुर ब्रज है तथा बोलचाल की है।
  2. अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है।
  3. वसंत की मादक्ता का चित्रण हुआ है।
  4. ‘और’ शब्द के प्रयोग से भेदकातिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग हुआ है।
  5. छंद कवित्त, संयोग शृंगार है।

2. गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के
जौ लगि कछू-को-कछू भाखत भनै नहीं।
कहैं पद्माकर परोस-पिछवारन के,
द्वारन के दौरि गुन-औगुन गनै नहीं।
तौ लाँ चलित चतुर सहेली याहि कौऊ कहूँ,
नीके के निचांरे ताहि करत मनै नहीं।
हौं तो स्याम-रंग में चुराई चित चोराचोरी,
बोरत ताँ बोरूयौ पै निचोरत बनै नहीं।

शब्दार्थ : कुल – वंश। गोप – ग्वाले। गाउन – गाँव। भाखत – कहना। भनै – वर्णन करना। नीके – अच्छी तरह। निचौरे – निचोड़े। ताहि – उसे। स्याम रंग – कृष्ग के रंग में। बोरत – डुबाना।

प्रसंग – प्रस्तुत पद रीतिकाल के प्रमुख कवि पद्माकर द्वारा रचित है। पद्माकर जी प्रस्तुत पद में होली के अवसर पर एक गोपिका की मनोभावनाओं का चित्रण करते हुए लिखते हैं।

व्याख्या – गोकुल की गलियों और गाँवों में जहाँ तक भी लोग हैं वे सब-के-सब होली के अवसर पर कुछ-न-कुछ कहते हैं, अविवेक पूर्ण बातें करते हैं। पद्माकर कवि कहते हैं कि ग्वालिन कहती है कि पड़ोस में, पिछवाड़े में, सामने दरवाज़े पर अर्थात् कहीं पर भी कोई किसी के गुणअवगुणों की गणना नहीं करता। एक चतुर सखी अभी अपने रंग-भीगे वस्त्रों को निचोड़ भी न पाई थी कि दूसरी ने उस पर फिर से रंग डाल दिया। इस चतुर सखी को कोई रोकता भी नहीं है। पहली सखी कहती है कि मैं तो कृष्ण के रंग में चोरी-चोरी रंग गई हूँ अर्थात मैने सबसे चोरी अपने मन को कृष्ण के रंग में रंग दिया है। एक बार अपना मन कृष्ण के रंग में रंग देने के पश्चात अब में उसे निचोड़ने अर्थात् उससे मुक्त होने के लिए तैयार नहीं हूँ।

पद्माकर जी ग्वालिन के अनुराग को व्यक्त करते हैं। जब चतुर संखियाँ लोक-लाज से डरकर कृष्ण के रंग को निचोड़ने के लिए तैयार हैं उस समय भी यह ग्वालिन कृष्ण-रंग से मुक्त नहीं होना चाहती।

विशेष :

  1. ग्वालिन कृष्ण रंग में गँगकर उससे मुक्त नहीं होना चाहती । यही बात उसके अनन्य प्रेम की सूचक है।
  2. ‘श्याम रंग’ में श्लेष अलंकार है। श्याम का अर्थ काला भी है और कृष्ण भी। ‘बोरत ते बोरूयो पै निचोरत बनै नहीं’ में विशेषोक्ति अलंकार है।
  3. ब्रजभाषा का सुंदर प्रयोग किया गया है जिसमें तद्भव शब्दावली की अधिक्ता है।
  4. चाक्षुक बिंब विद्यमान है।
  5. स्वर में भी लयात्मकता की सुष्टि की है।
  6. कवित्त छंद का प्रयोग है।

3. भौररन को गुंजन बिहार बन कुंजन में,
मंजुल मलारन को गावनो लगत है।
कहैं पद्माकर गुमानहूँ तें मानहुँ तें,
प्रानहूँ तैं प्यारो मनभावनो लगत है।
मोरन को सोर घनघोर चहुँ ओरन,
हिंडोरन को बृंद छवि छावनो लगत है।
नेह सरसावन में मेह बरसावन में,
सावन में झूलियो सुह्रावनो लगत है।

शब्दार्थ – भौरन – भँवरे। कुंजन – झाड़ियों में। मंजुल – सुंदर। मलारन – मल्हार, राग। सोर – शोर। चहुँ – चारों। हिंडोरन – झूला। बृंद – समूह। नेह – प्रेम। मेह – बादल।

प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण रीतिकालीन आचार्य कवि पद्माकर के द्वारा रचित है जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित किया गया है। कवि ने इसमे ऋन्रुओं और त्योहारों का सुंदर चित्रण किया है। प्रस्तुत पद में सावन ऋतु में झुला झूलने का चित्रात्मक वर्णन सुंदर ढंग से किया गया है।

व्याख्या – कवि वर्षा क्रतु में वन-कुंजों व झाड़ियों की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहता है कि गुंजार करते भैवरों के सारे वनों और बाग-बगीचों में उड़ने से ऐसा लगता है जैसे मधुर मल्हार राग का आलाप सब ओर ध्वनित हो रहा हो। यह मनोरम दृश्य अभिमान, मान और प्राणों सें भी प्यारा और मनभावन लगता है अर्थात् इस वर्षा ऋतु में अपने-अपने प्रियजनों से नाराज़ होकर झूठा मान और अभिमान करनेवाली गोपियाँ भी आवाज़ें उनसे दूर नहीं रह सकरीं। उनके मन में भी अपने प्रियजनों के प्रति गहरा आकर्षण बढ़ जाता है। चारों दिशाओं में मोरों के बोलने की आवाजें बादलों के आगमन के साथ बढ़ गई हैं और जगह-जगह समूहों में झूलों पर झूलते अपार साँदर्य से युक्त नर-नारियाँ शोभा देते हैं। सावन के महीने में बरसते बादलों के बीच झूला झूलना और आपसी प्रेम के भावों को प्रकट करना अति सुहावना लगता है।

विशेष :

  1. कवि ने वर्षा त्रू के उद्दीपन प्रभाव को नर-नारियों के हुदय पर प्रकट किया है।
  2. ब्रजभाषा का प्रयोग है जिसमें तद्भव शब्दावली की अधिकता है।
  3. स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सुष्टि की है।
  4. पदमैत्री, अनुप्रास और मानवीकरण का प्रयोग सराहनीय है।
  5. अभिधा शब्द-शक्ति और प्रसाद गुण के कथन को सरलता-सरसता प्रदान की है।

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