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CBSE Class 12 Hindi Elective अपठित बोध अपठित गद्यांश

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CBSE Class 12 Hindi Elective अपठित बोध अपठित गद्यांश

1. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

वस्तुतः बोली गोली से अधिक असरदार होती है। हम शब्दों द्वारा ही औरों को अपना बनाते हैं और शब्दों से ही अपने पराये बन सकते हैं। कौन-सा शब्द कब, कहाँ, किसके लिए बोलना है इसका ध्यान रखना ही औचित्य है और भाषा का यह औचित्य शब्द सौंदर्य का अहम ढिस्सा है। सच तो यह है कि शब्दों का दुरुपयोग प्रायः होता है और इस दुरुपयोग को रोकने का उपाय शब्दों का सदुपयोग ही है। विशेषणों के प्रयोग में हम प्रायः अति उत्साहवश या अज्ञानवश उनका दुरुपयोग करते हैं, ऐसे निरर्थक प्रयोग करते हैं कि स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। सामान्य व्यवहार के लिए हमें बहुत बड़े शब्द भंडार या साहित्यिक अभिव्यक्तियों की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि सबका शब्द ज्ञान व्यापक हो यह आवश्यक नहीं। अपनी बात को साफ शब्दों में और सफाई से कह पाना और उनसे वांछित अर्थ को प्रेषित कर पाना किसी तपस्या से कम नहीं है। तराशे हुए शब्दों से व्यक्ति का व्यक्तित्व झलकता है। शब्द बहुमूल्य होते हैं, उन्हें निरर्थक नहीं लुटाना चाहिए।

प्रश्न :
(i) आशय स्पष्ट कीजिए- ‘बोली गोली से अधिक असरदार होती है’।
(ii) भाषा के संदर्भ में ‘औचित्य’ किसे कहा गया है और क्यों ?
(iii) ‘शब्दों का दुरुपयोग’ से लेखक का क्या आशय है? उसे कैसे रोका जा सकता है?
(iv) वक्ता की स्थिति कब हास्यास्पद हो जाती है?
(v) ‘शब्द बहुमूल्य होते हैं’ – आशय समझाइए।
(vi) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(i) बोली गोली से अधिक असरदार इसलिए होती है क्योंकि गोली तो चलकर एक बार में अपना असर खो बैठती है, जबकि बोली का असर ज्यादा देर तक बना रहता है, कभी-कभी जीवन भर। बोली के शब्दों से ही व्यक्ति अपने से पराया बन जाता है।
(ii) भाषा के संदर्भ में ‘औचित्य’ उसे कहा गया है जिसमें यह ध्यान रखा जाता है कि कौन-सा शब्द कहाँ और किसके लिए बोलना है। भाषा का यह औचित्य ही शब्द का सौंदर्य बढ़ाता है।
(iii) शब्दों का दुरुपयोग से लेखक का यह आशय है-शब्दों का गलत प्रयोग करना अर्थात् असंगत शब्द प्रयोग करना। हम प्राय: अति उत्साह में आकर अथवा अज्ञानतावश गलत विशेषणों का प्रयोग कर उसका दुरुपयोग करते हैं। कई बार निर्थक शब्दों के प्रयोंग से स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। इसे रोकने के लिए हमें सरल और स्पष्ट शब्दों में अपनी बात कहनी चाहिए। बड़े शब्दों के प्रयोग तथा साहित्यिक अभिव्यक्तियों से बचना चाहिए।
(iv) वक्ता की स्थिति तब हास्यास्पद हो जाती है जब वक्ता निरर्थक शब्दों का प्रयोग करने लगता है। सामान्य व्यवहार में बहुत बड़े शब्दों का प्रयोग तथा अनावश्यक साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ भी वक्ता की स्थिति को हास्यापद बना देती हैं।
(v) ‘शब्द बहुमूल्य होते हैं’ – इसका आशय यह ₹ै कि हमें सार्थक शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। तराशे हुए शब्द अभिव्यक्ति में सक्षम होते हैं। शब्दों का प्रयोग बहुत सोच-समझकर ही करना चाहिए। शब्दों के निरर्थक प्रयोग से बचना चाहिए।
(vi) शीर्षक : शब्दों का सार्थक प्रयोग।

2. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

भारतवर्ष ने कभी भी भौतिक वस्तुओं के संग्रह को बहुत अधिक महत्त्व नहीं दिया है। उसकी दृष्टि से मनुष्य के भीतर जो महान आंतरिक तत्व स्थिर भाव से बैठा हुआ है, वही चरम और परम है। लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि विकार मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं, पर उन्हें प्रधान शक्ति मान लेना और अपने मन तथा बुद्धि को उन्हीं के इशारों पर छोड़ देना बहुत निकृष्ट आचरण है। भारतवर्ष ने उन्हें कभी उचित नहीं माना, उन्हें सदा संयम के बंधन से बाँधकर रखने का प्रयत्न किया है। परंतु भूख की उपेक्षा नहीं की जा सकती, बीमार के लिए दवा की उपेक्षा नहीं की जा सकती, गुमराह को ठीक रास्ते पर ले जाने के उपायों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हुआ यह है कि इस देश के कोटि-कोटि दरिद्र जनों की हीन अवस्था को दूर करने के लिए ऐसे अनेक कायदे-कानून बनाए गए हैं, जो कृषि, उद्योग, वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति को अधिक उन्नत और सुचारू बनाने के लक्ष्य से प्रेरित हैं. परंतु जिन लोगों को इन कार्यों में लगना है, उनका मन सब समय पवित्र नहीं होता। प्राय: ही वे लक्ष्य को भूल जाते हैं और अपनी ही सुख-सुविधा की ओर ज्यादा ध्यान देने लगते हैं।

व्यक्ति चित्त सब समय आदर्शों द्वारा चालित नहीं होता। जितने बड़े पैमाने पर इन क्षेत्रों में मनुष्य की उन्नति के विधान बनाए गए, उतनी ही मात्रा में लोभ, मोह जैसे विकार भी विस्तृत होते गए। लक्ष्य की बात भूल गए। आदर्शों को मजाक का विषय बनाया गया और संयम को दकियानूसी मान लिया गया। परिणाम जो होना था, वह हो रहा है। यह कुछ थोड़े से लोगों के बढ़ते हुए लोभ का नतीजा है, परंतु इससे भारतवर्ष के पुराने आदर्श और भी अधिक स्पष्ट रूप से महान और उपयोगी दिखाई देने लगे हैं। भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो लोग धर्मभीरू हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते।

प्रश्न :
(i) भारतवर्ष में किस बात को महत्वहीन माना गया व क्यों?
(ii) किस प्रकार के आचरण को ‘निकृष्ट’ कहा गया है?
(iii) दरिद्रजनों की हीन अवस्था को दूर करने के लिए किए गए प्रयास सफल क्यों नहीं हो पाए?
(iv) व्यक्तिचित के आदर्शों द्वारा चालित न होने का परिणाम किस रूप में देखने को मिला?
(v) कानून और धर्म में अंतर किए जाने का क्या परिणाम हुआ?
(vi) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) भारतवर्ष में भौतिक वस्तुओं के संग्रह को महत्त्वहीन माना गया। इसका कारण यह है कि भौतिक वस्तुएँ मनुष्य में लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि विकारों को बढ़ावा देती हैं। यद्यपि ये भाव मनुष्य के स्वभाव में होते हैं, पर भौतिक वस्तुएँ इन्हें उभार देती हैं।
(ii) जब मनुष्य लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि विकारों को प्रधान शक्ति मानकर अपने मन और बुद्धि को उन्हीं के इशारे पर छोड़ देता है तब इस आचरण को निकृष्ट आचरण कहा जाता है। इसमें संयम का अभाव रहता है।
(iii) दरिद्रजनों की हीन अवस्था को दूर करने के प्रयास इसलिए सफल नहीं हो पाए क्योंकि जिन लोगों को इन कार्यों में लगना था, उनका मन सब समय पवित्र नहीं रह पाया। वे प्रायः अपने लक्ष्य को भूल गए और अपनी ही सुख-सुविधा को जुटाने में लग गए।
(iv) व्यक्ति चित्त के आदर्शों से चालित न होने का परिणाम इस रूप में देखने को मिला कि विभिन्न क्षेत्रों में मनुष्य की उन्नति के लिए जितने बड़े विधान बनाए गए, उतनी ही मात्रा में लोभ, मोह जैसे विकार भी बढ़ते चले गए। लक्ष्य को भुला दिया गया और आदर्श मजाक के विषय बन गए तथा संयम को दकियानूसी मान लिया गया।
(v) भारतवर्ष सदा से कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है। यह समझा जाने लगा कि धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता जबकि कानून को दिया जा सकता है। इसका यह परिणाम हुआ है कि धर्मभीरू लोग भी कानून की त्रुटियों का लाभ उठाने में संकोच नहीं करते।
(vi) शीर्षक : मनुष्य के आदर्श और उसका आचरण।

3. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

देश-प्रेम है क्या? प्रेम ही तो है! बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। इस प्रेम का आलंबन क्या है? सारा देश अर्थात् मनुष्य, पशु-पक्षी, नदी-नाले, वन-पर्वत, सागर अर्थात् सारी भूमि और उसके सभी जीव – देश ही तो है! यह प्रेम किस प्रकार का है? यह साहचर्यगत प्रेम है। जिनके बीच हम रहते हैं. जिनका हमारा हर घड़ी का साथ रहता है, जिन्हें हम रोज आँखों से देखते हैं, जिनकी बातें हम रोज सुनते हैं अर्थात् जिनके सान्निध्य के हम अभ्यासी हो जाते हैं उनके प्रति राग या लोभ हो सकता है। पशु और बालक भी जिनके साथ अधिक रहते हैं, उनसे परच जाते हैं। यह परचना परिचय ही है और परिचय ही प्रेम का प्रवर्तक है। बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता है। यदि प्रेम वास्तव में अंतःकरण का कोई भाव है तो देश के स्वरूप से परिचित और अभ्यस्त हो जाइए।

बाहर निकलिए तो आँख खोलकर देखिए कि खेत कैसे लहलहा रहे हैं, नाले झाड़ियों के बीच कैसे बह रहे हैं, टेसू के फूलों से वनस्थली कैसी लाल हो रही है। कछारों में चौपायों के झुंड इधर-उधर चरते हैं, चरवाहे तान लड़ा रहे हैं, अमराइयों के बीच गाँव झाँक रहे हैं; उनमें घुसिए, देखिए तो क्या हो रहा है। जो मिले, उससे दो-दो बातें कीजिए, उनके साथ किसी पेड़ की छाया के नीचे घड़ी-आध-घड़ी बैठ जाइए इसलिए कि वे सब हमाः ‘े के हैं। इस प्रकार जब देश का रूप आपकी बुद्धि में समा जाएगा, आप उनके अंग-प्रत्यंग से परिचित हो जाएँगे, तब आपके अंतःकरण में इस इच्छा का सचमुच उदय होगा कि वह कभी न छूटे, वह सदा हरा-भरा और फला-फूला रहे, उसके धनधान्य की वृद्धि हो, उसके सभी प्राणी सुखी रहें।

प्रश्न :
(i) ‘परचना’ से लेखक का क्या तात्पर्य है? इसके लिए लेखक ने किस-किस का उदाहरण दिया है? स्पष्ट कीजिए।
(ii) परिचय को प्रेम का प्रवर्तक कैसे कहा जा सकता है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
(iii) देश के स्वरूप से परिचित होने के लिए लेखक ने किन बातों का उल्लेख किया है? उनमें से किन्हीं दो बातों पर प्रकाश डालिए।
(iv) देश से प्रेम हो जाने पर अंतर्मन के भावों में क्या परिवर्तन हो जाता है?
(v) देश के रूप-सौंदर्य का अभ्यस्त हो जाने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
(vi) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक् दीजिए।
उत्तर :
(i) ‘परचना’ से लेखक का तात्पर्य है-परिचित हो जाना। हम जिसके साथ अधिक समय तक रहते हैं, उससे परच जाते हैं। इसके लिए लेखक ने पशुओं और बालकों के उदाहरण दिए हैं। वे जिनके साथ अधिक रहते हैं, उनसे परच जाते हैं। यह साहचर्यगत प्रेम है।
(ii) परिचय को प्रेम का प्रवर्तक इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि प्रेम होने से पहले किसी व्यक्ति या प्राणी के साथ हमारा परिचय होता है और आगे चलकर यही परिचय प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। बिना परिचय के प्रेम हो ही नहीं सकता।
(iii) देश के स्वरूप से परिचित होने के लिए लेखक ने जिन दो बातों का उल्लेख किया है, वे हैं-(i) घर से बाहर निकलकर खेतों की हरियाली को देखिए, नाले-झाड़ियों को देखिए, टेसू के फूलों की वनस्थली को देखिए। (ii) किसी पेड़ की छाया में घड़ी-आध-घड़ी बैठकर लोगों से बातचीत कीजिए, उनकी गतिविधियों को देखिए-समझिए।
(iv) देश से प्रेम हो जाने पर हमारे अंतर्मन के भावों में यह परिवर्तन हो जाता है कि अंतःकरण में यह इच्छा उदित हो जाती है कि हमसे हमारा देश कभी न छूटे। यह सदा हरा-भरा और फूला-फला बना रहे और इसके सभी प्राणी सुख्बी रहें।
(v) देश के रूप-सौंदर्य से अभ्यस्त हो जाने के ढ़िए हमें देश के भौगोलिक स्वरूप से परिचित होना चाहिए। हमें देश के लोगों के सानिध्य में रहना चाहिए। देश की वस्तुओं से प्रेम करना चाहिए।
(vi) शीर्षक : देश-प्रेम।

4. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

पतझड़ ऋतु आने पर जेल के हमारे आँगन में नीम के पेड़ से पत्तों के गिरने पर मन में कभी-कभी चिंता होने लगती है कि यह पेड़ का काल आया है या उसका केवल कायापलट हो रहा है ? यों तो पत्तों को गिरते देखकर मन में विषाद का भाव उत्पन्न होना चाहिए, किंतु ऐसा बिल्कुल नहीं होता, उल्टा मजा आता है-पत्ते इतने इड़ते हैं मानो टिड्डी दल फैल गया हो, मालूम होता है पत्तों को कितने ही गोल-गोल चक्कर काटने पड़ते हैं, उन्हें नीचे उतरने की थोड़ी भी जल्दी नहीं होती।

और फिर गिरने के बाद क्या वे चुपचाप पड़े रहेगें ? नहीं, कदापि नहीं। छोटे बच्चे जिस प्रकार दौड़ने का और एक-दूसरे को पकड़ने का खेल खेलते हैं, उसी प्रकार ये पत्ते भी इधर से उधर और उधर से इधर गोल-गोल चक्कर काटते रहते हैं। हवा के झोकों के साथ ये हँसते-कूदते मेरी ओर दौड़े आते हैं। मुझे लगता है कि इन पत्तों को थोड़ी देर बाद पेड़ से फूटने वाली कोंपलों को झटपट जगह दे देने की ही अधिक जल्दी होती होगी। साँप जिस प्रकार अपनी कें चुली उतारकर फिर से जवान बनता है, उसी प्रकार पुराने पत्ते त्याग कर पेड़ भी वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए फिर से जवान बनने की तैयारी करता होगा। इसीलिए यह कहने का मन नहीं होता कि ये पते टूटते हैं या गिरते हैं।

ये पत्ते तो छूट जाते हैं। हाथ मे पकड़ रखा हुआ कोई पक्षी जैसे पकड़ कुछ ढीली होते ही चकमा देखकर उड़ जाता है, उसी प्रकार ये पत्ते तेजी से छूट जाते हैं। यह विचार भी मन में आता है कि ये पत्े गिरने वाले तो हैं ही, तो फिर सबके सब एक साथ क्यों नहीं गिरते। पर्णहीन वृक्ष की मुक्त शोभा तो देखने को मिलेगी। जिस पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं रहा और अँगुलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी करके जो पागल के समान खड़ा है और जो आकाश के पर्दें पर कालीन के चित्र के समान मालूम हो रहा है, उसकी शोभा कभी-कभी आपने ध्यान देकर निहारी है ? पर्णहीन टहनियों की जाली सचमुच ही बहुत सुंदर दिखाई देती है।

प्रश्न :
(i) पेड़ से पत्तों का झड़ना-गिरना देखकर लेखक ने क्या सोचा और क्यों?
(ii) पतों की तुलना टिड्डी दल से क्यों की गई है?
(iii) हवा के झोंके से पत्तों पर क्या प्रभाव पड़ा और लेखक ने उसकी तुलना किससे की है?
(iv) पत्तों के टूटने को लेखक ने छूटने की संज्ञा क्यों दी है? उसकी तुलना किससे की है?
(v) लेखक के स्वभाव में उतावलापन है-यह किस प्रकार पता चला?
(vi) साँप के उदाहरण से लेखक क्या स्पष्ट करना चाहता है?
उत्तर :
(i) पेड़ से पत्तों का झड़ना-गिरना देखकर लेखक ने यह सोचा कि यह पेड़ का काल (अंत समय) आ गया है अथवा उसका केवल कायापलट (पतझड़) हो रहा है। पत्तों के गिरने से उसके मन में विषाद के स्थान पर मजा आया, क्योंकि अब नए पत्तों को पेड़ पर स्थान मिलेगा।
(ii) पत्तों की तुलना टिड्डी-दल से इसलिए की है क्योंकि जिस तरह टिड्डी दल चारों ओर फैल जाता है, उसी प्रकार पेड़ से झड़े बहुत सारे पत्ते चारों ओर गोल-गोल चक्कर लगाते प्रतीत होते हैं।
(iii) हवा से पत्तों पर यह प्रभाव पड़ा कि वे छोटे बच्चों की तरह गोल-गोल चक्कर काटने लगे। ये बच्चों के समान दौड़ने-पकड़ने का खेल खेलते प्रतीत होने लगे। लेखक ने उसकी तुलना हँसते-खेलते-दौड़ते बच्चों से की है।
(iv) पत्तों के टूटने को लेखक ने छूटने की संज्ञ इललिए दी है क्योंकि वे पेड़ से छूटकर या अलग होकर पेड़ में फूटनेवाली नई कोंपलों के लिए स्थान खाली करते हैं। लेखक ने इस प्रक्रिया की तुलना साँप की केंचुली उतारने से दी है। जिस प्रकार साँप अपनी पुरानी केंचुली उतार कर जवान बन जाता है, उसी प्रकार पेड़ पुराने पत्ते त्यागकर नए पत्तों से वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए जवान बन जाते हैं।
(v) लेखक के स्वभाव में उतावलापन है-इसका पता इस प्रकार चलता है कि लेखक पर्णहीन वृक्ष की मुक्त शोभा को निहारने के लिए उतावला है। वह पर्णहीन टहनियों की जाली की सुंदरता देखना चाहता है।
(vi) साँप के उदाहरण से लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। परिवर्तन कुछ अच्छा ही करता है।

5. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

मैं न चाहते हुए भी बीमा कंपनी के एजेंटों के चक्कर में कैसे फँस गया? बीमा कंपनियों के सौभाग्य अथवा दुर्भाग्यवश मैं एक ऐसा जंतु था जो पेंशन वाला होते हुए भी पचास साल से कम आयु का था। जहाँ अड़ोस-पड़ोस के लोगों को मेरी परिस्थिति मालूम हुई. वहाँ एजेंटों ने मेरा पीछा करना शुरू किया। करीब-करीब उसी लगन से, जिससे कि कुँवारे ग्रेजुएट को अविवाहित लड़कियों के पिता, भाई आदि। मेरे पास ऐसा कोई दुर्ग नहीं था जहाँ जाकर छिप जाता। बीमे की चर्चा होने लगी। बीमे के प्रस्तावों के कारण मेरी नींद हराम हो गई। जान का बीमा, जी का जंजाल हो गया। औरों से तो जैसे-तैसे पीछा छुड़ा लिया किंतु एक पड़ोसी महाशय से पीछा न छुड़ा सका। मैंने उनसे पूछ-” आप काहे का बीमा कराना चाहते हैं?” उत्तर मिला “जान का।” मैंने कहा कि भाई, मैं अपनी जान कहीं

पार्सल करके नहीं भेजना चाहता, जो बीमा कराऊँ। मुझे बीमा कराकर निशिंचत होने का लालच दिया गया। एजेंट महोदय पर मेरे तर्कों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मैं जानता था चिंता और चिता में एक बिंदी का अंतर है। चिंता जो मेरी चिरसंगिनी थी, सहज में परित्याग नहीं करना चाहता था- पर एजेंट महोदय पर मेरी युक्तियों का इतना भी असर नहीं हुआ जितना कि तवे पर बूँद का। उन्होंने मेरी मौनरूपी अर्द्ध सम्मति प्राप्त कर ली और मैंने पाँच हजार के लिए आँख बंद करके दस्तखत कर दिए।

दस्तखत के बाद ही मुझसे पूछा गया कि मेरी जन्म-पत्री कहाँ है-मेरी वर्तमान आयु जानने को। यदि बीमा कंपनियों को ज्योतिष में विश्वास होता तो मैं डॉक्टरों से बच जाता। मेरी नाप-तौल की गई मानो मैं कोई क्रय-विक्रय की वस्तु हूँ। बीमार की भाँति पलंग पर लेटना पड़ा। वैसे तो मेरा शरीर रोगों का अड्डा बना हुआ था किंतु मैं बहुत से रोगों के बारे में डॉक्टर की आँखों में धूल झोंकने में सफल हो गया। एक लंबी-चौड़ी प्रश्नावली का उत्तर इस प्रकार दिया कि अदालत के सत्यमूर्ति गवाह की भाँति सच और सच के सिवाय सब कुछ कह दिया।

प्रश्न :
(i) बीमा एजेंट क्या करते हैं? उनके चक्कर में लेखक कैसे फँसा?
(ii) लेखक ने डॉक्टरों से अपने अनेक रोगों को कैसे छिपाया? क्यों?
(iii) आशय स्पष्ट कीजिए- “चिता और चिता में एक बिंदी का अंतर है।”
(iv) जान का बीमा जी का जंजाल कैसे हो गया?
(v) “अदालत के सत्यमूर्ति गवाह की भाँति”-कथन में निहित व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए।
(vi) गद्यांश के लिए उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) बीमा एजेंट हमारे जीवन का बीमा करते हैं। लेखक उनके चक्कर में इस प्रकार फँस गया क्योंकि वह पेंशन वाला होते हुए भी पचास साल से कम आयु का था। एजेंट बीमा कराने के लिए उसके पीछे पड़ गए।
(ii) यद्यपि लेखक अनेक बीमारियों से ग्रस्त था, लेकिन लेखक डॉक्टर की आँखों में धूल झोंकने में सफल हो गया। वह अनेक बीमारियों को छिपा गया।
(iii) चिता में ‘च’ पर बिंदी लगती है जबकि चिता पर नहीं। चिंता में व्यक्ति दिन-रात सोच-विचार में घुलता रहता है। चिता अंतिम समय में अपनी गोद में समा लेती है। दोनों में थोड़ा-सा ही अंतर है।
(iv) एजेंट लेखक की जान का बीमा करना चाहता था। लेखक उससे बच रहा था। बीमे के प्रस्तावों के कारण उसकी नींद हराम हो गई थी। यह बीमा उसके जी का जंजाल बन गया।
(v) अदालत में जज के सामने गवाह को सत्यमूर्ति गवाह की शपथ लेनी पड़ती है। डॉक्टर की लंबी-चौड़ी प्रश्नावली का उत्तर लेखक ने झूठे ही दिए थे, पर वह उन्हें सच बता रहा था। अदालत में भी ऐसा ही होता है।
(vi) शीर्षक : बीमा : जी का जंजाल।

6. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक एक पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

लोक-कलाएँ जीवन के अंग-प्रत्यंग से जुड़ी रहती थीं। कठिन शारीरिक श्रम के काम संगीत से हल्के किए जाते थे। पेड़ काटना, नाव चलाना, बोझ खींचना, चक्की पीसना आदि किसी-न-किसी प्रकार के संगीत से जुड़े होते थे। हर ऋतु के अपने गीत और नृत्य होते थे। जन्म, विवाह आदि के अवसर नृत्य और गायन के अवसर तो होते ही थे, उनसे चित्रांकन, मिट्टी की कलाएँ, काष्ठ शिल्प आदि भी संबद्ध होते थे। आर्थिक क्रियाओं में भी किसी न किसी तरह जाने-अनजाने कलाएँ प्रवेश पा जाती थीं।

धर्म और जादू-टोने से भी कलाएँ असंपृक्त नहीं होती थीं। सच तो यह है कि धार्मिक क्रियाओं और लोक कलाओं में सावयवी संबंध था। यह कहना शायद उचित न हो कि शुद्ध सौंदर्यवादी दृष्टि से कलात्मक सृजन होता ही नहीं था। आद्यकला – सृष्टियों के कई रूपों के संबंध में आज हम केवल अनुमान ही कर सकते हैं, उनके व्यवहारवादी पक्षों पर प्रामाणिक टिप्पणी करना संभव नहीं है। अल्जीरियाई सहारा मरस्थल के मध्य आश्चर्यजनक चित्रकला के नमूने अवशिष्ट हैं, जो कठिन यात्रा के बावजूद हर वर्ष हजारों दर्शकों को अपनी ओर खींचते हैं। आदिमानव ने इन चित्रों की रचना क्यों की? आज इस प्रश्न का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया जा सकता।

ये चित्र सौंदर्यबोध को तो प्रमाणित करते हैं, पर शायद उनके साथ कोई धार्मिक या आर्थिक कार्य भी जुड़े हों। यही प्रश्न भोपाल के समीप भीमबेटका के चित्रों को देखकर उठता है। आदिमानव ने यूरोप में ‘न्रे्नेनडार्फ की वीनस’ की प्रसिद्ध मूर्ति क्यों गढ़ी? सिंधु सभ्रूता से जुड़ी चित्रकला और मूर्तिकला के पीछे मूल भावना क्या थी? ये प्रश्न ऐसे हैं जिनका सीधा उत्तर देना संभव नहीं है किंतु निश्चित है कि ये धरोहरें

मानव मन की ओर उसकी संस्कृति की विकास यात्रा को समझने में सहायक हो सकती हैं। संस्कृति विश्लेषण की नयी विधाओं ने इस सामग्री का उपयोग कर जीवन दर्शन, सामाजिक मूल्य, सांस्कृतिक प्राथमिकताओं आदि पर गंभीर शोध किया है, जो संस्कृतियों के बाह्यरूप मात्र को देखकर संभव नहीं होता। वे कलाएँ सौंदर्यबोध की अभिव्यक्ति करती थीं और उनके द्वारा व्यक्तियों और समूहों को सृजनात्मक आनंद भी प्राप्त होता था।

प्रश्न :
(i) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ii) कैसे कह सकते हैं कि श्रमसाध्य कार्य भी लोकसंगीत से जुड़े रहते थे?
(iii) दो बिंदुओं का उल्लेख कर पुष्टि कीजिए कि लोक-कलाएँ जीवन के अंग-प्रत्यंग से जुड़ी होती थीं?
(iv) अल्जीरिया और भीमबेटका का उल्लेख क्यों हुआ है?
(v) लोक-कलाओं की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
(vi) हम कैसे कह सकते हैं कि धार्मिक क्रियाओं और लोक कलाओं में परस्पर गहरा संबंध था?
उत्तर :
(i) शीर्षक : हमारी लोक-कलाएँ।
(ii) श्रमसाध्य कार्य जैसे-पेड़ काटना, नाव चलाना, बोझ खींचना, चक्की पीसना आदि कार्य किसी-न-किसी संगीत से जुड़े होते थे। इन सभी कार्यों को करते हुए कंठ से लोक-संगीत निकलता था। इससे श्रमसाध्य काम करने वाला हल्केपन का अनुभव करता था।
(iii) लोक-कलाएँ जीवन के अंग-प्रत्यंग से जुड़ी होती थी। हर ऋतु के अपने गीत और नृत्य होते थे। जन्म, विवाह आदि अवसरों पर नृत्य और गायन होते थे। उनसे चित्रांकन, मिट्टी की कलाएँ तथा काष्ठ कला भी जुड़ जाते थे।
(iv) अल्जीरिया और भीमबेटका का उल्लेख इसलिए हुआ है क्योंकि ये दोनों स्थान अपनी आश्चर्यजनक चित्रकला के लिए विख्यात हैं। अल्जीरियाई सहारा मरुस्थल के मध्य अभी भी चित्रकला के नमूने शेष हैं। भीमबेटका भोपाल के समीप है।
(v) लोक-कलाओं की दो विशेषताएँ :
(i) (क) ये सौंदर्यबोध की अभिव्यक्ति करती है.
(ii (ख) ये व्यक्तियों के समूह को सृजनात्मक आनंद प्रदान करती हैं।
(vi) धार्मिक क्रियाओं और लोकक्रियाओं में गहरा संबंध था। धार्मिक अवसरों पर गाए वाले लोक संगीत और लोक कलाएँ एक-दूसरे से जुड़ी थीं। जन्म, विवाह आदि अवसरों पर जहाँ लोकगीत और लोकनृत्य होते थे, वहीं चित्रांकन, मिट्टी की कलाएँ भी जुड़ जाती थीं।

7. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

कौटिल्य ने जब ‘अर्थशास्त्र’ लिखा तो उन्हें स्वप्न में भी यह विचार न आया होगा कि राजनीति या नीति सूचक यह अर्थ ‘अर्थ’ के अन्य सभी अर्थो से हटकर केवल ‘रुपया’ अर्थ से ही चिपक रह जाएगा। प्राचीन भारत में अर्थ पुरुषार्थ था, मानवतामूल्य था। सबके हित को ध्यान में संग्रह करना और उसका वितरण करना अर्थ है। इसका व्यावहारिक रूप या लौकिक रूप भी है और इसका पारमार्थिक या लोकोत्तर रूप भी है। व्यावहारिक स्तर पर अर्थ धन है, संपत्ति है और समस्त चर्चा और ज्ञान का स्थूल विषय है, क्योंकि वह पदार्थ भी है। इस अर्थ से सबका सरोकार है। कामकाज इसके़े माध्यम से चलता है, लेन-देन चलता है, वार्ता चलती है, बहस चलती है।

पर इस अर्थ के साथ भी कुछ जानी-मानी अलिखित शते होती हैं, वे सामाजिक स्वीकृति और परस्पर विश्वास पर आधारित होती हैं। आप जो वाक्य कह रहे हैं उसके पीछे आपका मंतव्य स्पष्ट है और वह वही अर्थ है जो दूसरे को उस वाक्य से स्पष्ट लगता है। यह बात न हो तो आदमी एक-दूसरे से बात न करे। इसी वजन पर हम किसी से कुछ लेते हैं तो देने वाले को विश्वास रहता है कि हमारी आवश्यकता सही माने में है, लेने वाले को विश्वास रहता है कि देने वाले के पास से वह वस्तु मिल जाएगी।

सहायता देना और लेना दोनों परिस्थिति की विवशता है। धन को तो तेल की बूँद की तरह फैलना-ही फैलना है, क्योंकि लक्ष्मी स्थिर नहीं रह सकती। पर सहायता लेने वाले का भी कर्तव्य होता है कि सहायता लेते समय अपनी आवश्यकता, खर्च करने की अपनी क्षमता और उसके आधार पर अपने को समर्थतर बनाने का संकल्प कितना है, इसे नापे और उसी अनुपात में सहायता ले, उसका उचित उपयोग करे। हिंदुस्तान का किसान कर्ज से बड़ा घबराता रहा है और हिंदुस्तान का जमींदार कर्ज देना अपनी शान समझता था। आज प्रबुद्ध वर्ग कर्ज को शान समझता है और बैंक उसकी इस थोथी शान पर पनप रहे हैं। यह बात और है कि बैंकों से बड़े उद्योगपति अरबों डकार जाते हैं, पर मध्यवर्ग कुकी भोगने की स्तिति में भी पहुँच जाता है। इनमें कौन सही है. कौन गलत है, यह आने वाला समय बतलाएगा।

प्रश्न :
(i) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ii) कौटिल्य के प्रयोग और आज के प्रयोग में ‘अर्थ’ की अर्थयात्रा समझाइए।
(iii) अर्थ को पुरुषार्थ के समकक्ष क्यों रखा गया?
(iv) व्यावहारिक स्तर पर अर्थ की क्या उपयोगिता है?
(v) जानी-मानी अलिखित शर्तों से लेखक का क्या अभिप्राय है?
(vi) लेन-देन करने वालों में परस्पर विश्वास किस आधार पर होता है?
उत्तर :
(i) शीर्षक : अर्थनीति।
(ii) कौटिल्य के समय ‘अर्थ’ शब्द का प्रयोग राजनीति या नीतिसूचक था। इसलिए उनकी पुस्तक का नाम अर्थशास्त्र है। आज ‘अर्थ’ का प्रयोग केवल ‘रुपया’ (धन) से चिपक कर रह गया है।
(iii) अर्थ को पुरुषार्थ के समकक्ष इसलिए रखा गया क्योंकि यह मानव-मूल्य पर आधारित था। यह सबके हित के लिए संग्रहित और वितरित किया जाता था।
(iv) व्यावहारिक स्तर पर अर्थ धन है। सारा काम-काज इसी के माध्यम से चलता है और लेन-देन भी।
(v) अर्थ के साथ कुछ जानी-मानी अलिखित शर्तें भी होती हैं। ये शर्तें सामाजिक स्वीकृति और परस्पर विश्वास पर आधारित होती हैं। कहने वाले का मंतव्य स्पष्ट होना चाहिए।
(vi) लेन-देन करने वालों में परस्पर विश्वास होना ही चाहिए। जब हम किसी से कुछ लेते हैं तो देने वाले को विश्वास रहता हे कि हमारी आवश्यकता सही मायने में है। लेने वाले को भी विश्वास रहता है कि देने वाले से वह वस्तु मिल जाएगी।

8. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

प्राचीन काल से ही भारत में संयुक्त परिवारों का प्रचलन रहा है। एकल परिवार कभी भारतीय सोच में नहीं रहे। संयुक्त पांग्वा़ में प्रत्येक सदस्य अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त रहता था और परिवार के प्रति सम्मिलित उत्तरदायित्व और एक परिवार से सामाजिकता का बोध जागृत रहता था। संतान के लालन-पालन, गिश्त-दीक्षा, विवाह आदि सुख-दुख की चिंता सभी को रहती है और संतान भी माँ-बाप के अतिरिक्त घर-परिवार के बड़े-बूढ़ों के हाथों पलकर बड़ी होती, उनके संस्कारों से पल्लवित होती, आजीवन निश्चिंत रहने का सुख भोगती हुई बड़ों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस करती। इस प्रकार संयुक्त परिवारों में बचपन, यौवन और बुढ़ापा सभी आनंद में बीतते।

अब संयुक्त परिवार प्रथा के टूटने से परिवारों में बिखराव आ गया है। चूँकि व्यक्ति परिवार की और परिवार समाज की इकाई है, इसलिए परिवारों के टूटने से समाज में बिखराव और अलगाव दिखाई पड़ रहा है। उसकी कल्पना शायद किसी ने भी नहीं की होगी। समाज के मूल्य बदल रहे हैं। मान्यताएँ बदल रही हैं और यह बदलाव की प्रक्रिया व्यक्ति से परिवार और परिवार से समाज में परस्पर हो रही है। लगता है जैसे नई पीढ़ी अनुशासन को बंधनों का नाम देती हुई धीरे-धीरे उच्छृंखलता की ओर बढ़ रही है।

परिवारों में बिखराव के पीछे पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी का वैचारिक संघर्ष भी है। पुरानी पीढ़ी अपनी रूढ़ियों, परंपराओं को त्याग नहीं पाती और अपनी सोच को जबरदस्ती लादना अपना कर्तव्य समझती है। नई पीढ़ी का आकाश बहुत विस्तृत है। उसे पाने के लिए उसे पुरातनता सहायक नहीं लगती। विचारों का संघर्ष तो है ही, नई पीढ़ी पर नए आकर्षणों का दबाव भी है। उनमें ‘स्व’ और ‘अहम्’ प्रधान होता जा रहा है। पुरानी पीढ़ी अपने संस्कारों ट.:. मर्यादाओं में बँधी और नई पीढ़ी उन पर कुठाराघात करने को उतारू, जब तक इन दोनों में सामंजस्य न हो, परिवारों का विघटन होता रहेगा। देश के लिए यह शुभ लक्षण नहीं है। दोनों पीढ़ियों का समय और परिस्थितियों के अनुकूल अपने-अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना होगा। जब परिवारों में परस्पर सद्भावना, सहयोग, प्रेम और त्याग आदि की भावनाएँ प्रबल होंगी तो हर व्यक्ति सुखी होगा। परिवारों में खुशहाली होगी।

प्रश्न :
(i) ‘संयुक्त परिवार’ और एकल परिवार से क्या तात्पर्य है?
(ii) संयुक्त परिवार के लाभों का वर्णन कीजिए।
(iii) संयुक्त परिवारों के टूटने से नैतिक मूल्यों का विघटन कैसे हो रहा है?
(iv) व्यक्ति, परिवार और समाज के अंतः संबंधों पर टिप्पणी कीजिए।
(v) आपके विचार से दोनों पीढ़ियों में सामंजस्य कैसे संभव है?
(vi) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीषंक दीजिए।
उत्तर :
(i) संयुक्त परिवार से अभिप्राय ऐसे परिवार से है जिसमें बच्चा, माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची आदि सब एक साथ रहते हैं और एकल परिवार से अभिप्राय ऐसे परिवार से है जिसमें बच्चा उसके माता-पिता एक साथ रहते हैं।
(ii) संयुक्त परिवार के अनेक लाभ हैं, जैसे-ब्चच्चों का पालन-पोषण अच्छी तरह से हो जाता है, परिवार के सभी सदस्य स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं। परिवार के प्रति उत्तरदायित्व का अनुभव सभी सदस्य करते हैं। उनमें सामाजिकता आती है। संतान की शिक्षा, विवाह, सुख-दुख की चिंता सभी को रहती है।
(iii) संयुक्त परिवारों के टूटने से परिवारों में बिखराव आ गया है। सामाजिक मान्यताएँ बदल रही हैं, नैतिक मूल्यों का विघटन हो रहा है। नई पीढ़ी अनुशासन को बंधन और उच्छृंखलता को भूलवश स्वतंत्रता समझने लगी है।
(iv) व्यक्ति परिवार के अभिन्न अंग हैं। व्यक्तियों से ही परिवार बनता है। परिवारों से समाज बनता है। व्यक्ति परिवार की छोटी इकाई है और परिवार समाज की। इससे स्पष्ट होता है तीनों का आपस में गहरा संबंध है।
(v) हमारे विचार से नई और पुरानी पीढ़ी-दोनों दो एक-दूसरे को अच्छी प्रकार समझना होगा। पुरानी पीढ़ी बंधन मुक्त जीवन जीना चाहती है जबकि पुरानी पीढ़ी अपने संस्कारों और मरादाओं से बँधी हुई है। पुरानी पीढ़ी को अपने विचारों में समयानुकूल परिवर्तन लाना होगा।
(vi) शीर्षक : टूटते संयुक्त परिवार।

9. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

यह सत्य है कि दोनों पक्षों के वीर इस युद्ध को धर्मयुद्ध मानकर लड़ रहे थे, किंतु धर्म पर दोनों में से कोई भी अडिग नहीं रह सका। ‘लक्ष्य प्राप्त हो या न हो, किंतु हम कुमार्ग पर पाँव नहीं रखेंगे ‘-इस निष्ठा की अवहेलना दोनों ओर से हुई और दोनों पक्षों के सामने साध्य प्रमुख और साधन गौण हो गया। अभिमन्यु की हत्या पाप से की गई तो भीष्म, द्रोण, भूर्श्रवा और स्वयं दुर्योधन का वध भी धर्म सम्मत नहीं कहा जा सकता।

जिस युद्ध में भीष्म, द्रोण और श्रीकृष्ग विद्यमान हों, उस युद्ध में भी धर्म का पालन नहीं हो सके, इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि युद्ध कभी भी धर्म के पथ पर रहकर लड़ा नहीं जा सकता। हिंसा का आदि भी अधर्म है, मध्य भी अधर्म है और अंत भी अधर्म है। जिसकी आँखों पर लोभ की पट्टी नहीं बँधी है, जो क्रोध और आवेश अथवा स्वार्थ में अपने कर्तव्य को भूल नहीं गया है, जिसकी आँख गध धना की अनिवार्यता से हट कर साध्य पर ही केंद्रित नहीं हो गई है, वह युद्ध जैसे मलिन कर्म में कभी भी प्रवृत्त नहीं होगा। युद्ध में प्रवृत्त होना ही इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य अपने रागों का दास बन गया है, फिर जो रागों की दासता करता है, वह उनका नियंत्रण कैसे करेगा।

अगर यह कहिए कि विजय के लिए युद्ध अवश्यम्भावी है तो विजय को में कोई बड़ा ध्येय नहीं मानता। जिस ध्येय की प्राप्ति धर्म के मार्ग से नहीं की जा सकती, वह या तो बड़ा ध्येय नहीं है अथवा अगर है तो फिर उसे पाप के मार्ग से पाने का प्रयास व्यर्थ है। संग्राम के कोलाहल में चाहे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ा हो, किन्तु आज मैं अपनी आत्मा की इस पुकार को स्पष्ट सुन रहा हूँ कि युधिष्ठिर! तुम जो चाहते थे वह वस्तु तुम्हें नहीं मिली। संग्राम तो जैसे-तैसे समाप्त हो गया किंतु उससे देश भर में हिंसा की जो मानसिकता फैली, उसका क्या होगा ? क्या लोग हिंसा के खेल को दुछराते जाएँगे अथवा यह विचार कर शांति से काम लेंगे कि शत्रुओं का भी मस्तक उतारना बर्बरता और जंगलीपन का काम है।

प्रश्न :
(i) कौरवों और पांडवों ने महाभारत युद्ध को धैर्मयुद्ध क्यों माना? दोनों पक्षों में किस निष्ठा की बात कही गई थी?
(ii) मलिन कर्म से क्या आशय है? युद्ध को मलिन कर्म क्यों माना गया है?
(iii) साध्य और साधन से आप क्या समझते हैं? कैसे कहा जा सकता है कि महाभारत युद्ध में साध्य प्रमुख और साधन गोण हो गए?
(iv) आपके विचार में गद्यांश में विश्व शांति के लिए क्या संदेश उभरता है? स्पष्ट कीजिए।
(v) “युद्ध कभी भी धर्म के पथ पर रहकर लड़ा नहीं जा सकता है।”-पक्ष या विपक्ष में दो तर्क प्रस्तुत कीजिए।
(vi) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(i) कौरवों और पांडवों ने महाभारत का युद्ध धर्मयुद्ध मानकर लड़ा परंतु दोनों में कोई भी धर्म पर अडिग नहीं रहा। लक्ष्य प्राप्ति न हो किंतु हम कुमार्ग पर पाँव नहीं रखेंगे, इस निष्ठा का अतिक्रमण दोनों ओर से किया गया। दोनों ओर से साध्य को महत्त्व दिया गया, साधन बहुत गौण रह गया।
(ii) जो व्यक्ति हिंसा, अधर्म, लोभ, क्रोध, आवेश या स्वार्थ में अपने कर्तव्य को भूल जाता है वह मलिन कर्म करता है। युद्ध भी मलिन कर्म है। इसलिए मलिन है क्योंकि युद्ध में व्यक्ति रागों का दास बन जाता है।
(iii) साधन का अर्थ लक्ष्य है। इसे प्राप्त करने के लिए साधन का उपयोग किया जाता है। साधन से अर्थ किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनाया जाने वाला मार्ग है, उपयोग किया जाने वाला उपकरण है। महाभारत में दोनों पक्षों का लक्ष्य युद्ध में विजय प्राप्त करना था। इसमें साधन अत्यंत गौण हो गया। अभिप्राय यह है कि लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हर उपाय अपनाया गया। जैसे भी हो, साध्य प्राप्त किया गया।
(iv) इस गद्यांश में विश्व शांति के लिए संदेश दिया गया है। कहा गया है कि हिंसा का खेल दुहराना नहीं चाहिए। विचार कर शांति से काम लेना चाहिए। अगर शत्रुओं को मारना है तो यह हिंसा और बर्बरता है।
(v) युद्ध धर्म पर चलकर कभी नहीं लड़ा जा सकता। यह कहना सच है कि युद्ध का मुख्य उद्देश्य विजय प्राप्त करना ही होता है। भले ही इसके लिए धर्म या अधर्म कोई भी रास्ता अपनाया जाए।
(vi) शीर्षक : युद्ध -धर्मयुद्ध नहीं।

10. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक एढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

स्वामी विवेकानंद आदर्श और उज्ज्वल चरित्र के बहुत बड़े समर्थक थे। कठोपनिषद् का एक मंत्र है जिसका उल्लेख वे प्रायः किया करते थे : ‘उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।’ यानी उठो, जागो और ऐसे श्रेष्ठजनों के पास जाओ, जो तुम्हारा परिचय परमात्मा से करा सकें। इसमें तीन बातें निहित हैं। पहली, तुम जो निद्रा में बेसुध पड़े हो, उसका त्याग करो और उठकर बैठ जाओ। दूसरी, आँखें खोल दो अर्थांत् अपने विवेक को जाग्रत करो। तीसरी, चलो और उन उत्तम कोटि के पुरुषों के पास जाओ, जो ईश्वर यानी जीवन के चरम लक्ष्य का बोध करा सकें। जीवन-विकास के राजपथ पर स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय काम नहीं करता। यहाँ तो सत्य की तलाश में आस्था, निष्ठा, संकल्प और पुरुषार्थ ही जीवन को नई दिशा दे सकते हैं।

महावीर की वाणी है-‘उट्ठिये णो पमायए।’ यानी क्षण भर भी प्रमाद न हो। प्रमाद का अर्थ है-नैतिक मूल्यों को नकार देना, अपनों से अपने-पराए हो जाना, सही-गलत को समझने का विवेक न होना। ‘मैं’ का संवेदन भी प्रमाद है, जो दु:ख का कारण बनता है। प्रमाद में हम अपने आप की पहचान औरों के नजरिए से, मान्यता से, पसंद से, स्वीकृति से करते हैं जबकि स्वयं द्वारा स्वयं को देखने का क्षण ही चरित्र की सही पहचान बनता है। चरित्र का सुरक्षा-कबच अप्रमाद है। जहाँ जागती आँखों की पहरेदारी में बुराइयों की घुसपैठ संभव ही नहीं।

बुराइयाँ दूब की तरह फैलफें हैं, मगर उनकी जड़ें गहरी नहीं होतीं इसलिए उन्हें थोड़े से प्रयास से उखाड़ फेंका जा सकता है। जैसे ही स्वयं पर स्वयं का विश्वास और अपनी बुराइयों का बोध जागेगा, परत-दर-परत जमी बुराइयों व अपसंस्कारों में बदलाव आ जाएगा। चरित्र जितना ऊँचा और सुदृढ़ होगा, जीवन मूल्य उतनी ही तेजी से विकसित होंगे और सफलताएँ उतनी ही तेजी से कदमों को चूमेंगी, इसलिए परिस्थितियाँ बदलें, उससे पहले प्रकृति बदलनी जरूरी है। बिना आदत और संस्कारों के बदले न सुख-संभव है, न साधना और न ही साध्य।

प्रश्न :
(i) स्वामी विवेकानंद किसके समर्थक थे? वे किस मंत्र का उल्लेख करते थे? उसका क्या अर्थ है?
(ii) उपर्युक्त मंत्र में कौन-सी तीन बातें निहित हैं?
(iii) महावीर की वाणी क्या है?
(iv) प्रमाद क्या है? प्रमादी व्यक्ति अपनी पहचान किस प्रकार करता है?
(v) बुराइयों को दूब की तरह क्यों बताया गया है?
(vi) गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) स्वामी विवेकानंद आदर्श और उज्ज्वल चरित्र के समर्थक थे। उन्होंने कंठोपनिषद् के इस मंत्र का उल्लेख किया है-‘उत्तिष्ठत जाग्रत वरान्निबोधत’। इसका अर्थ है-उठो, जागो और ऐसे श्रेष्ठजनों के पास जाओ जो तुम्हारा परिचय परमात्मा से करा सकें।
(ii) उपर्युक्त मंत्र में ये तीन बातें निहित हैं :
(क) तुम जो निद्रा में पड़े हो, उसका त्याग कर उठ बैठो।
(ख) आँखें खोल दो अर्थात् अपने मन के विवेक को जगाओ।
(ग) चलो और उत्तम कोटि के पुरुषों के पास जाओ।
(iii) महावीर की वाणी है -‘उट्ठिये णो पमायए’ यानी क्षण भर भी प्रमाद न हो। प्रमाद है नैतिक मूल्यों को नकार देना।
(iv) प्रमाद है-नैतिक मूल्यों को न मानना, अपनों से दूर हो जाना, सही-गलत को समझने का विवेक न रहना। प्रमादी व्यक्ति अपनी पहचान दूसरों के नजरिए से करता है, दूसरों कां मान्यताओं से करता है, उनकी स्वीकृति से करता है।
(v) बुराइयों को दूब की तरह इसलिए बताया गया है क्योंकि बुराइयाँ दूब की तरह फैलती हैं। पर उनकी जड़ें गहरी नहीं होतीं अतः उन्हें थोड़े प्रयास से उखाड़ फेंका जा सकता है।
(vi) शीर्षक : अपनी सही चहचान करो।

11. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

बहस यह नहीं होनी चाहिए कि कितने रुपये में खाना मिल सकता है। सवाल यह है कि भारत की आबादी में कितने सारे लोग ठीकठाक, सम्मानजनक दिनचर्या पा सकते हैं। शायद इसके लिए हमें तथ्यों को समग्रता में देखना होगा। यह तमाम आँकड़ों से सिद्ध होता है कि भारत में विषमता बढ़ी है, लेकिन यह भी सही है कि उदारीकरण के बाद गरीबी के घटने की गफ्तार भी तेज़ हुई है। विषमता बढ़ने का कारण यह है कि अमीरों की आय ज्यादा तेजी से बढ़ी है, उतनी तेज़ों से गरीबों की आय नहीं बढ़ी है। यह भी तमाम आँकड़ों से सिद्ध होता है कि भारत में भुखमरी कम हुई है और ऐसे लोगों का प्रतिशत भी कम हुआ है, जिन्हें दो वक्त की रोटी नसीब नहीं है। इसके बावजूद ऐसे लोगों की तादाद अच्छी-खासी है जिनके लिए खाद्य सुरक्षा की जरूरत है। यह बात सरकार भी मानती है, तभी वह खाद्य सुरक्षा अधिनियम लेकर आई है। स्वतंत्र भारत में गरीबी शुरू से ही एक ऐसा राजनीतिक मुहावरा है, जिसके नाम पर वोट बटोरे जा सकते हैं। ऐसे में गरीबी की बहस हमेशा ही असंवेदनशीलता और सनसनी का शिकार हो जाती है। अगर गरीबी पर विचार और बहस-मुबाहिसा संतुलित तथा गरिमामय ढंग से किया जाए, तो इससे गरीबों की गरिमा भी बनी रहेगी और उनकी समस्याओं को हल करना भी आसान होगा।

प्रश्न :
(i) बहस का मुद्दा क्या नहीं होना चाहिए, क्यों?
(ii) तथ्यों को समग्रता में देखने से क्या आशय है?
(iii) आँकड़े किन विरोधी बातों को प्रदर्शित करते हैं?
(iv) विषमता बढ़ने का प्रमुख कारण क्या है?
(v) गरीबी को राजनीतिक मुहावरा क्यों कहा गया और गरीबी पर संतुलित बहस से क्या लाभ होगा?
(vi) गद्यांश के लिए शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) बहस का मुद्दा यह नहीं होना चाहिए कि खाना कितने रुपए में मिलता है। यह बहस ही निरर्थक है। बहस का मुद्दा सम्मानजनक दिनचर्या की सुविधा होना चाहिए।
(ii) तथ्यों को समग्रता से देखने से यह आशय है कि हमें तथ्यों को पूरे भारत में गरीबी के परिप्रेक्य में देखना चाहिए। पूरे भारत की गरीबी की स्थिति को ध्यान में रखना होगा।
(iii) आँकड़े इन विरोधी बातों को प्रदर्शित करते हैं कि भारत में विषमता बढ़ी है और गरीबी तेजी से घटी है। उदारीकरण के बाद गरीबी के घटने की रफ्तार तेज हुई है।
(iv) विषमता बढ़ने का प्रमुख कारण यह है कि अमीरों की आय तो ज्यादा तेजी से बढ़ी है, पर उतनी तेजी से गरीबों की आय नही बढ़ी है।
(v) गरीबी को राजनीतिक मुहावरा इसलिए कहा गया है क्योंकि गरीबों के नाम पर वोट बटोरे जाते हैं। गरीब लोग राजनीतिज्ञों के लिए सिर्फ वोट हैं। गरीबी पर संतुलित बहस होनी चाहिए। यह गरिमामयी होनी चाहिए। इससे यह लाभ होगा कि गरीबों की गरिमा भी बनी रहेगी और उनकी समस्याओं को हल करना भी आसान हो जाएगा।
(vi) शीर्षक : भारत की गरीबी : एक समस्या।

12. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

महिलाओं की मर्यादा और उनके दुर्व्यवहार के मामले भी अन्य मामलों के तरह न्यायालय में ही जाते हैं कितु पिछले कुछ दिनों से ऐसे आचरण के लिए स्वयं न्यायपालिका पर अंगुली उठाई जा रही है। काफी हद तक यह समस्या न्यायपालिका की नहीं, बल्कि हमारे पूरे समाज की कही जा सकती है। जज भी समाज का ही अंग है, इसलिए यह समस्या न्यायपालिका में भी दिखाई देती है। हमारे समाज में कानून के पालन को लेकर बहुत शिथिलता है और अक्सर कानून का पालन न करने को सामाजिक हैसियत का मानक मान लिया जाता है। वी.आई.पी. संस्कृति का मूल सिद्धांत ही यह है कि जिसे सामान्य नियम-कानून नहीं पालन करने होते वह महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता है। छोटे शहरों, कस्बों में सरकारी अफसरों की हैसियत बहुत बड़ी होती है और जज भी उन्हीं हैसियत वाले लोगों में शामिल होते हैं। ऐसे में, अगर कुछ जज यह मान लें कि वे तमाम सामाजिक मर्यादाओं से भी ऊपर हैं, तो यह हो सकता है।

माना यह जाना चाहिए कि जितने ज्यादा जिम्मेदार पद पर कोई व्यक्ति है, उस पर कानून के पालन की जिम्मेदारी भी उतनी ही ज्यादा हैं खास तौर से जिन लोगों पर कानून की रक्षा करने और दूसरों से कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारी है, उन्हें तो इस मामले में बहुत ज्यादा सतर्क होना चाहिए। लेकिन वास्तव में इससे बिल्कुल उल्टा होता है। एक समस्या की ओर कई वरिष्ठ जज और न्यायविद ध्यान दिला चुके हैं कि न्यायपालिका में निचले स्तर पर अच्छे जज नहीं मिलते। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि अच्छे न्यायिक शिक्षा संस्थानों से निकले अच्छे जज छात्र न्यायपालिका में नौकरी करना पसंद नहीं करते, क्योंकि उन्हें कामकाज की परिस्थितियाँ और आमदनी दोनों ही आकर्षक नहीं लगतीं। नेशनल लॉ इंस्टीट्यूट को तो बनाया ही इसलिए गया था कि अच्छे स्तर के जज और वकील वहाँ से निकल सकें, लेकिन देखा यह गया है कि वहाँ से निकले ज्यादातर छात्र कॉरपोरेट जगत् में चले जाते हैं। अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्र भी बजाय जज बनने के प्रैक्टिस करना पसंद करते हैं। जजों की चुनाव प्रक्रिया में भी कई खामियाँ हैं, जिन्हें दूर किया जाना जरूरी है, ताकि हर स्तर पर बेहतर गुणवत्ता के जज मिल सकें।

प्रश्न :
(i) वी.आई.पी. संस्कृति से क्या तात्पर्य है और उसका सिद्धांत क्या बताया गया है?
(ii) छोटे शहरों में अपने आपको सारी सामाजिक मान्यताओं से ऊपर क्यों मान लेते हैं?
(iii) कानून पालन के मामले में किन्ें अधिक सतर्क होना चाहिए और क्यों?
(iv) न्यायपालिका को निचले स्तरों के अच्छे जज क्यों नहीं मिल पाते?
(v) नेशनल इस्टीट्यूट का गठन क्यों किया गया था? क्या लक्ष्य प्राप्त हो सका?
(vi) गद्यांश के लिए शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) वी.आई.पी. संस्कृति में अधिकतर कानून का पालन न करने को सामाजिक हैसियत का मानक मान लिया जाता है। वी.आई.पी. संस्कृति का मूल सिद्धांत ही यह है कि जिसे सामान्य नियम-कानून पालन नहीं करने होते, वह महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता है।
(ii) छोटे शहरों, कस्बों में सरकारी अफसरों की हैसियत बहुत बड़ी होती है और जज भी उन्हीं हैसियत वाले लोगों में शामिल होते हैं। ऐसे में जज अपने को सारी सामाजिक मर्यादाओं से ऊपर मान लेते हैं।
(iii) जिन लोगों पर कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारी है , उन्हें कानून पालन के मामले में बहुत ज्यादा सतर्क होना चाहिए। इन लोगों को अधिक सतर्क इसलिए होना चाहिए, क्योंकि जब तक वे स्वयं सतर्क नहीं होंगे तब तक वे अन्य लोगों से कानून का पालन उचित प्रकार से नहीं करवा पाएँगे।
(iv) न्यायपालिका को निचले स्तरों के लिए अच्छे जज नहीं मिल पाने की वजह यह है कि अच्छे शिक्षा संस्थानों से निकले अच्छे छात्र न्यायपालिका में नौकरी करना पसंद नहीं करते, क्योंकि उन्हें कामकाज की परिस्थितियाँ और आमदनी दोनों ही आकर्षक नहीं लगतीं।
(v) नेशनल लों इंस्टीट्यूट को तो बनाया ही इसलिए गया था कि अच्छे स्तर के जज और वकील वहाँ से निकल सकें, लेकिन देखा यह गया है कि वहाँ से निकले ज्यादातर छात्र कॉरपोरेट जगत में चले जाते हैं।
(vi) शीर्षक : वर्तमान न्यायपालिका की दशा।

13. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

वर्तमान सांप्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में संत-साहित्य की उपादेयता बहुत है। संतों में शिरोमणि कबीर दास भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार पुरुष हैं। संत कबीर एक सफल साधक, प्रभावशाली उपदेशक, महान नेता और युग-द्रष्टा थे। उनका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हृदय की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को और भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार को युग-युगांतर के लिए अमरता प्रदान की।

कबीर ने धर्म को मानव धर्म के रूप में देखा था। सत्य के समर्थक कबीर हृदय में विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति लेकर अवतरित हुए थे। उन्होंने लोक-कल्याण कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-रचना की। वे पाठशाला या मकतब की देहरी से दूर जीवन के विद्यालय में ‘मसि कागद छुयो नहिं’ की दशा में जीकर सत्य, ईश्वर, विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर अनुभूति मूलक ज्ञान का प्रसार कर रहे थे। कबीर ने समाज में फैले हुए मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं।

स्वकीय भोगी हुई वेदनाओं के आक्रोश से भरकर समाज में फैले हुए ढोंग और ढकोसलों, कुत्सित विचारधाराओं के प्रति दो टूक शब्दों में जो बातें कहीं, उनसे समाज की आँखें फटी की फ़टी रह गईं और साधारण जनता उनकी वाणियों से चेतना प्राप्त कर उनकी अनुगामिनी बनने को बाध्य हो उठी। देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान वैयक्तिक जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न संत कबीर ने किया। उन्होंने बाँह उठाकर बलपूर्वक कहा-
कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ॥

प्रश्न :
(i) संत-शिरोमणि किसे माना गया है और क्यों?
(ii) कबीर ने अपनी कविता के सहारे क्या काम किया?
(iii) कैसे पता चलता है कि कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे? उनको किसका पाठ पढ़ाया?
(iv) कबीर ने समाज-सुधारक के रूप में क्या कार्य किया?
(v) कबीर ने अपनी बाँह उठाकर जो कुछ कहा, उसे अपने शब्दों में समझाइए।
(vi) गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) संत शिरोमणि कबीर को माना गया है, क्योंकि वे भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार पुरुष थे। वे एक सफल साधक, प्रभावशाली उपदेशक, महान नेता और युग-द्रष्टा थे।
(ii) कबीर ने अपनी कविता के सहारे अपने विचारों को और भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार को युग-युगांतर के लिए अमरता प्रदान की। उनका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हृदय की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है।
(iii) कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। वे पाठशाला की देहरी से दूर रहे। उनका कहना था ‘ मसि कागद छुयो नहिं’ अर्थात् कभी स्याही और कागज को छुआ तक नहीं। लेकिन उन्होंने अपने अनुभव से सत्य, ईश्वर, विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म निरपेक्षता का पाठ पढ़ा।
(iv) कबीर ने समाज में फैले मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ाईं। तत्कालीन समाज में फैले ढोंग-ढकोसलों के प्रति दो टूक शब्दों में अपना विरोध प्रकट किया।
(v) कबीर ने अपनी बाँह उठाकर बलपूर्वक कहा कि मैंने तो अपना सब कुछ गँवाकर और केवल हाथ में लाठी लेकर जन-सामान्य के बीच में आने का साहस किया है। मेरे साथ वही व्यक्ति चल सकता है जो सबसे पहले अपना घर जलाए अर्थात् मोह-माया का संपूर्ण त्याग करे।
(vi) शीर्षक : संत कबीर का जीवन-दर्शन।

14. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

जिन लेखों और विश्लेषणों को हम पढ़ते हैं वे राजनीतिक तकाज़ों से लाभ-हानि का हिसाब लगाते हुए लिखे जाते हैं, इसलिए उनमें पक्षधरता भी होती है और पक्षधरता के अनुरूप अपर पक्ष के लिए व्यर्थता भी। इसे भजनमंडली के बीच का भजन कह सकते हैं। सांप्रदायिकता, अर्थात् अपने संप्रदाय की हित-चिंता अच्छी बात है। यह अपनी व्यक्तिगत क्षुद्रता से आगे बढ़ने वाला पहला कदम है, इसके बिना मानव-मात्र की हित-चिंता, जो अभी तक मात्र एक ख़याल ही बना रह गया है, की ओर कदम नहीं बढ़ाए जा सकते। पहले कदम की कसौटी यह है कि वह दूसरे कदम के लिए रुकावट तो नहीं बन जाता।

बृहत्तर सरोकारों से लघुतर सरोकारों का अनमेल पड़ना उन्हें संकीर्ण ही नहीं बनाता, अन्य हितों से टकराव की स्थिति में लाकर एक ऐसी पंगुता पैदा करता है जिसमें हमारी अपनी बाढ़ भी रुकती है और दूसरों की बाढ़ को रोकने में भी हम एक भूमिका पेश करने लगते हैं। धर्मों, संप्रदायों और यहाँ तक कि विचारधाराओं तक की सीमाएँ यहीं से पैदा होती हैं, जिनका आरंभ तो मानवतावादी तकाज़़ों से होता है और असल में वे मानवद्रोही ही नहीं हो जाते बल्कि उस सीमित समाज का भी अहित करते हैं जिसके हित की चिंता को सर्वॉपरि मानकर ये चलते हैं।

सामुदायिक हितों का टकराव वर्चस्वी हितों से होना अवश्यंभावी है। अवसर की कमी और अस्तित्व की रक्षा के चलते दूसरे वंचित या अभावग्रस्त समुदायों से भी टकराव और प्रतिस्पर्धा की स्थिति पैदा होती है। बाहरी एकरूपता के नीचे सभी समाजों में भीतरी दायरे में कई तरह के असंतोष बने रहते हैं और ये पहले से रहे हैं। सांप्रदायिकता ऐसी कि संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय। भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है कि इसने सामाजिक अलगाव को विस्फोटक नहीं होने दिया और इसके चलते ही अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को पहले कभी जन-समर्थन नहीं- मेला।

प्रश्न :
(i) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ii) जिन लेखों को हम पढ़ते हैं वे कैसे लिखे जाते हैं? इसका क्या परिणाम होता है?
(iii) किस अर्थ में साप्रदायिकता को अच्छी बात कहा गया है?
(iv) हमारे सरोकारों की रुकावट और परस्पर टकराव के क्या परिणाम होते हैं?
(v) ‘वंचित या अभावग्रस्त’ समुदाय से क्या तात्पर्य है? इनसे टकराव की स्थिति कब पैदा होती है?
(vi) भारत में अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को जन-समर्थन क्यों नहीं मिला?
उत्तर :
(i) शीर्षक : सांप्रदायिकता।
(ii) जिन लेखों को हम पढ़ते हैं वे राजनीतिक तकाज़ों से लाभ-हानि का हिसाब लगाकर लिखे जाते हैं। इनमें पक्षधरता भी होती है। यह पक्षधरता अपर पक्ष के लिए व्यर्थ हो जाती
(iii) सांप्रदायिकता इस अर्थ में अच्छी है कि वह अपने संप्रदाय की हित-चिंता करती है। यह बात व्यक्तिगत छोटेपन से आगे बढ़ने वाला कदम है। इसी से मानव-मात्र की हित-चिंता का भाव आता है।
(iv) हमारे सरोकारों की रुकावट और परस्पर टकराव की स्थिति ऐसी पंगुता पैदा करती है जिससे हमारा विकास तो रुकता ही है, साथ ही दूसरों का विकास भी रुक जाता है।
(v) ‘वंचित या अभावग्रस्त’ समुदाय से तात्पर्य है-उन लोगों का समाज जिन्हें सामान्य सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है और जो अभावों के मध्य जीते हैं। अवसरों की कमी और अस्तित्व की रक्षा से ऐसी स्थिति पैदा होती है।
(vi) भारत में अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को जन-समर्थन इसलिए नहीं मिलता क्योंकि भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है कि इसने सामाजिक अलगाव को विस्फोटक नहीं होने दिया।

15. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

लोकतंत्र के बारे में एक कहावत है कि लोकतंत्र अच्छी प्रणाली नहीं है, किन्तु अभी तक ज्ञात शासन-प्रणालियों में लोकतंत्र सबसे अच्छी प्रणाली है। लोकतंत्र के तीन स्तंभ माने जाते हैं-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। यद्यपि संविधान में मीडिया के बारे में कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु मीडिया अब अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता है और जो एक सीमा तक ठीक भी लगता है। एक सीमा तक इसलिए कि उसके दायित्व, क्रियाशीलता और कार्य-सीमा के बारे में कोई प्रामाणिक नियम-विनियम नहीं हैं और सब कुछ उसकी ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता और विश्वसनीयता पर निर्भर करता है।

संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में मीडिया काम करता है, इसलिए सरकारी नियमन या अंकुश से बचा रहता है, किन्तु आत्मनियंत्रण या स्वयं पर अंकुश न होने से कभी-कभी अपनी सीमा का उल्लंघन कर बैठता है। ब्रिटेन में मर्डोक की अतिसक्रियता वहाँ के लोकतांत्रिक समाज के लिए बहुत बड़ा सदमा था। हमारे देश में भी पीत पत्रकारिता, चरित्रहनन, पेड न्यूज आदि के आरोप समय-समय पर मीडिया पर लगते रहे हैं। फिर भी जागरुकता लाने, भ्रष्टाचार या अन्य विकृतियों के विरुद्ध जनमत बनाने में मीडिया की विशेष भूमिका असंदिग्ध है।

प्रश्न :
(i) लोकतंत्र से आप क्या समझते हैं? परिभाग्तित कीजिए।
(ii) लोकतंत्र का चौथा स्तंभ किसे कहा जाता है? क्यों?
(iii) लेखक किस बात को एक सीमा तक ही ठीक मानता है? क्यों?
(iv) मीडिया अपने ऊपर कोई अंकुश क्यों नहीं लगाने देता?
(v) निरकुश मीडिया से प्रायः किस प्रकार की गलतियाँ होती हैं? इनसे कैसे बचा जा सकता है?
(vi) गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) लोकतंत्र ऐसी शासन प्रणाली है जो लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा राष्ट्र के शासन का संचालन करती है। यह श्रेष्ठतम शासन प्रणाली है। इसके तीन स्तंभ हैं-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका।
(ii) लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया है। इसलिए है कि यह शासन की गड़बड़ियों पर नजर रखता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करता है। जन जागरण करता है।
(iii) लेखक का मानना है कि मीडिया की स्वतंत्रता एक सीमा तक ही ठीक है। अगर मीडिया प्रशासनिक कार्यों में बहुत अधिक दखलंदाजी करता है तो कई बार अराजकता की स्थित्रिं आ सकती है। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि इसकी कार्य सीमा के बारे में कोई प्रामाणिक नियम-विनियम निर्धारित नहीं हैं। वह जितना ईमानदार होगा, उतना ही अपना काम बाखूबी निभा सकेगा।
(iv) मीडिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विश्वास करता है। इस कानून की आड़ में वह अपने ऊपर कोई नियंत्रण नहीं लगने देता। वह मानता है कि संविधान ने उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल अधिकार दिया हुआ है।
(v) निरंकुश मीडिया से कई तरह की गलतियाँ हो जाती हैं। जैसे वह अपने माध्यम को पाठकों के और निकट लाने के लिए पीत पत्रकारिता करने लग जाता है। पेड न्यूज लिखने-छापने लग जाता है। चरित्र हनन के घटिया हथकंडे अपनाने लगता है। इनसे बचने के लिए उसे आत्मनियंत्रण करना चाहिए तभी अपनी सही जिम्मेदारी निभा सकता है।
(vi) शीर्षक : लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली।

16. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

जिंदगी की दो सूरतें हैं। एक तो यह कि आदमी बड़े-से-बड़े मकसद के लिए कोशिश करे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ आँधियाली का जाल बुन रही हों, तब भी वह पाँव पीछे न हटाए। दूसरी सूरत यह है कि उन गरीबं आत्माओं का हमजोली बन जाए जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दु:ख पाने का ही संयोग है, क्योंकि वे आत्माएँ ऐसी गोधूलि में बसती हैं, जहाँ न तो जीत हँसती है और न कभी हार के रोने की आवाज सुनाई पड़ती है। इस गोधूलि वाली दुनिया के लोग बँधे हुए घाट का पानी पीते हैं, वे जिंदगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते।

साहस की जिदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी ही दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं।
प्रश्न :
(i) जिंदगी की पहली ‘सूरत’ क्या है? अपने शब्दों में समझाइए।
(ii) जीवन की दोनों स्थितियों में आप किसे अंच्छा समझते हैं और क्यों?
(iii) सबसे बड़ी जिंदगी साहसपूर्ण जिंदगी को ही क्यों कहा गया है?
(iv) ‘जनमत की उपेक्षा’ से क्या तात्पर्य है? साहसी ऐसा क्यों करता है?
(v) अड़ोस-पड़ोस को देखकर कौन चलते हैं?
(vi) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(i) जिंदगी की पहली सूरत यह है कि आदमी बड़े-से-बड़े उद्देश्य को पाने के लिए कोशिश करे, चमकती जीत को हासिल करने के लिए हाथ बढ़ाए, असफलता मिलने पर भी अपने कदम पीछे न हटाए।
(ii) जीवन की दोनों स्थितियों में हम पहली वाली स्थिति को अच्छा समझते हैं क्योंकि इसमें सक्रियता बनी रहती है। यह साहस की जिंदगी होती है। दूसरी स्थिति तो समझौतावादी होती है, इसमें व्यक्ति जोखिम नहीं उठाता।
(iii) साहसपूर्ण जिंदगी को ही सबसे बड़ी जिंदगी इसलिए कहा गया है क्योंकि यह जिंदगी निडर और बेखौफ होती है। साहसी व्यक्ति ही जीना जानता है।
(iv) जनमत की उपेक्षा से यह तात्पर्य है कि साहसी व्यक्ति इस बात की परवाह नहीं करता कि लोग उसके बारे में क्या कहते हैं। वह तो वही काम करता है जो उसका मन कहता है। साहसी व्यक्ति किसी से डरता नहीं। वह तो दुनिया को ताकत देता है। साधारण आदमी उसी को देखकर चलते हैं।
(v) अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना साधारण जीव का काम होता है। क्रांति करने वाले लोग अपनी चाल से ही चलते हैं।
(vi) शीर्षक : साहस की जिंदगी।

17. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

एक सुंदर सूत्र है आत्मकल्याण का-‘ जगत से अपेक्षाएँ न रखें, क्योंकि जगत उपेक्षा के योग्य है। अपेक्षा का अर्थ होता है चाहत, किसी से कुछ पाने की आशा रखना और उपेक्षा का अर्थ इसके विपरीत है अर्थात् जगत में किसी से भी कुछ पाने की आशा न रखना और निरपेक्ष भाव से सब में भगवद्भाव रखते हुए स्वार्थ का भाव त्याग कर सबकी सेवा करना। यह चाहत धन-संपत्ति, सुविधा, मान-सम्मान, सुरक्षा आदि किसी भी प्रकार की हो सकती है। चाहत कामना का ही दूसरा नाम है। कामना जीवन में दु:ख और अशांति को जन्म देता है।

सामान्यतः व्यक्ति स्वभाव से अहंवादी होता है। अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति, सखा, मित्र तथा परिवारजन से अपने अहं की तुष्टि की अपेक्षाएँ रखता है। वह यह चाहता है कि हर व्यक्ति उसकी परवाह करे, उसे मान-सम्मान दे। यह मान-बड़ाई की इच्छा-यह लोकैषणा ही अशांति का प्रमुख कारण है। जीवन में अपेक्षाओं की परिणति अंकार, द्वेष, ईष्ष्या, प्रतिशोध, असंतोष आदि विकारों में होती है, जबकि उपेक्षा से संतोष और शांति मिलती है। गीता का अमर संदेश है, फल की अपेक्षा न रखते हुए मनुष्य अपना स्वाभाविक कर्म करे। इससे सफल-असफल होने पर सुख-दु:ख की अनुभूति नहीं होगी, अपितु संतोष होगा व अकल्पनीय आनंद मिलेगा।

प्रश्न :
(i) अपेक्षा और उपेक्षा का अर्थ भेद समझाइए।
(ii) कामना जीवन में दु:ख का कारण क्यों बताई गई है?
(iii) अपेक्षा और उपेक्षा जीवन को कैसे प्रभाजि $ा$ करती हैं?
(iv) गीता में कर्मफल की आकांक्षा न रखने की बात क्यों कही गई है?
(v) सामान्यतः व्यक्ति स्वभाव से किस प्रकार का होता है?
(vi) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) अपेक्षा का अर्थ होता है-‘चाहत’ अर्थात् किसी से कुछ पाने की आशा रखना।
उपेक्षा का अर्थ है-इस जगत में किसी से कुछ पाने की आशा न रखना और निरपेक्ष भाव बनाए रखते हुए सद्भाव और त्याग कर सबकी सेवा करना।
(ii) कामना को जीवन में दु:ख का कारण बताया गया है। चाहत का दूसरा नाम ही कामना है। कामना जीवन में दु:ख और अशांति को जन्म देती है। जब हमारी कोई कामना पूरी नहीं होती तब हमें दुःख होता है।
(iii) अपेक्षा और उपेक्षा जीवन को बहुत प्रभावित करती हैं। जीवन में अपेक्षाओं की समाप्ति प्राय: अहंकार, द्वेष, ईर्ष्या, प्रतिशोध, असंतोष आदि विकारों में होती है। अतः जीवन में अशांति मिलती है। इसके विपरीत उपेक्षा से जीवन में संतोष और शांति मिलती है।
(iv) गीता में कर्म करने की बात तो कही गई है, पर उसका फल पाने की आकांक्षा अथवा अपेक्षा न करने को कहा गया है। यह इसलिए कहा गया है इससे सफलता या असफलता मिलने की स्थिति में सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती अपितु संतोष और आनंद मिलता है।
(v) सामान्यत: व्यक्ति स्वभाव से अहंवादी होता है। वह अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों से अपने ‘अह” की तुष्टि की अपेक्षा रखता है। वह चाहता है कि सभी उसे सम्मान दें।
(vi) शीर्षक : जीवन जीने का ढंग।

18. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

विश्व के प्राय: सभी धर्मों में अहिसा के महत्त्व पर बहुत प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। ‘अष्टांगयोग’ के प्रवर्त्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग. ‘ यम’ के अंतर्गत ‘अहिसा’ को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार गीता में भी अहिंसा के महत्त्व पर जगह-जगह प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए ‘जियो और जीने दो’ की बात कही है। अहिंसा मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीवन का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीवन या प्राणी को अकारण दु:ख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन-शैली अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन-शैली है।’

अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारंभिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है, वह उसकी बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है। परिणामत: दूसरों को दु:ख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत् हैं। मेरा किसी से वैर नहीं है, ऐसी भावना से प्रेरित होकर हम व्यावहारिक जीवन में इसे उतारने का प्रयत्न करें, तो फिर अहंकारवश उतपन्न हुआ क्रोध या द्वेष समाप्त हो जाएगा और तब अपराधी के प्रति भी हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाता है। हमें ईष्य्या तथा द्वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थांन देते हुए अहिंसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए।

प्रश्न :
(i) अहिंसात्मक जीवन-शैली से लेखक का क्या तात्पर्य है?
(ii) कैसी जीवन-शैली अनुकरणीय हो सकती है?
(iii) “जियो और जीने दो” की बात किसने कही? इसका आशय स्पष्ट कीजिए।
(iv) अहिंसा में क्रोध और द्वेष को छोड़ने की बात पर लेखक ने क्यों बल दिया है?
(v) “क्रोध अंधा बना देता है” का आशय स्पष्ट कीजिए और बताइए कि लेखक ने इसे हिंसा की प्रवृति का प्रारंभिक रूप क्यों कहा है?
(vi) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(i) प्रस्तुत गद्यांश के अनुसार अहिंसा केवल हिंसा का अभाव ही नहीं है, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी भी जीव या प्राणी को अकारण दु:ख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन-शैली को अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन-शैली ‘ है।
(ii) ईष्ष्या तथा द्वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिंसा को आधार बनकर जीने की शैली अनुकरणीय हो सकती है।
(iii) “जियो और जीने दो” की बात भगवान महावीर ने कही है। इसका आशय यह है कि हमें ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे हम स्वयं अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत कर सकें तथा दूसरों का भी जीवन सुखी बना सकें।
(iv) लेखक के अनुसार मनुष्य को क्रोध और द्वेष का भाव नहीं रखना चाहिए, क्योंकि यह हिंसा की प्रवृत्ति का प्रारंभिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है, क्रोध मनुष्य की बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, जिससे दूसरों को दु:ख व पीड़ा पहुँचती है। इसलिए लेखक इन्हें छोड़ने की बात पर बल देता है।
(v) “क्रोध अंधा बना देता है” से आशय है क्रोध का भाव मनुष्य की सोचने-समझने, निर्णाय लेने की शक्ति, उचित अनुचित भाव में अंतर करने की शक्ति को नष्ट कर देता है, इसलिए क्रोध को हिंसा की प्रवृत्ति का प्रारंभिक रूप कहा गया है, क्योंक क्रोध पर नियंत्रण न होने से मनुष्य हिंसा की ओर अग्रसर हो जाता है।
(vi) शीर्षक : अहिसा-जीवन का आदर्श रूप।

19. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

मधुर वचन वह रसायन है जो पारस की भाँति लोहे को भी सोना बना देता है। मनुष्यों की तो बात ही क्या, पशु-पक्षी भी उसके वश में हो, उसके साथ मिम्रवत् व्यवहार करने लगते हैं। व्यक्ति का मधुर व्यवहार पापाण-हृदयों को भी पिघला देता हे। कहा भी गया है-“तुलसी मीठे वचन ते, जग अपनो करि लेत।” निस्सदेह मीठे वचन औषधि की भाँति श्रोता के मन की व्यथा, उसकी पीड़ा व वेदना को हर लेते हैं। मीठे वचन सभी को प्रिय लगते हैं। कभी-कभी किसी मुदुभाषी के मधुर वचन घोर निराशा में डूबे व्यक्ति को आशा की किरण दिखा उसे उबार लेते हैं, उसमें जीवन-संचार कर देते हैं; उसे सांत्वना और सहयोग देकर यह आश्वासन देते हैं कि वह व्यक्ति अकेला व असहाय नहीं, अपितु सारा समाज उसका अपना है, उसके सुख-दुःख का साथी है। किसी ने सच कहा है-“मधुर वचन है औषधि, कटुक वचन है तीर।”

मधुर वचन श्रोता को ही नहीं, बोलने वाले को भी शांति और सुख देते हैं। बोलने वाले के मन का अंकंकार और दंभ सहज ही विनष्ट हो जाता है। उसका मन स्वच्छ और निर्मल बन जाता है। वह अपनी विनम्रता, शिष्टता एवं सदाचार से समाज में यश, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान को प्राप्त करता है। उसके कार्यों से उसे ही नहीं, समाज को भी गौरव और यश प्राप्त होता है और समाज का अभ्युत्थान होता है। इसके अभाव में समाज पारस्परिक कलह, ईप्या-द्वेष, वैमनस्य आदि का घर बन जाता है। जिस समाज में सौहार्द नहीं, सहानुभूति नहीं, किसी दुःखी मन के लिए सांत्वना का भाव नहीं, वह समाज कैसा? वह तो नरक है।

प्रश्न :
(i) मधुर वचन निराशा में डूबे व्यक्ति की सहायता कैसे करते हैं?
(ii) मधुर वचन को ‘औषधि’ की संज्ञा क्यों दी गई है? स्पष्ट कीजिए।
(iii) मधुर वचन बोंलने वाले को क्या लाभ देते हैं?
(iv) समाज के अभ्युत्थान में मधुर वचन अपनी भृमिका कैसे निभाते हैं?
(v) मधुर वचन की तुलना पारस से क्यों की गई हं?
(vi) गद्यांश के लेए एक उपयुक्त शीर्पक दीजिए।
उत्तर :
(i) मधुर वचन घोर निराशा में डूबे व्यक्ति को आशा की किरण दिखाकर उसे उबार लेते हैं। उसमें जीवन का संचार कर देते हैं, उसे सांत्वना और सहयोग देकर आश्वासन देते हैं कि सारा समाज उसका अपना व उसके सुख-दु:ख का साथी है।
(ii) जिस प्रकार औपधि व्यक्ति को रोग से मुक्ति दिलाती है उसी प्रकार मधुर वचन औपधि के समान श्रोता के मन की व्यथा, उसकी पीड़ा वेदना को हर लेते हैं।
(iii) मधुर वचन बोलने वाले व्यक्ति के मन का अहंकार और दंभ नष्ट हो जाता है। मधुर वचन बोलने से उसे शांति व सुख प्राप्त होता है, उसका मन स्वच्छ ओर निर्मल बन जाता है।
(iv) समाज के अभ्युत्थान में मधुर वचन से आपसी कलह, ईर्प्या, द्वेष, वैमनस्य की भावना समाप्त हो जाती है। अतः समाज में सौहार्द, सहानुभूति, सांत्वना आदि स्थापित करने में मधुर वचन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
(v) जिस प्रकार पारस अपने स्पर्श से लोहे को सोना बना देता है, उसी प्रकार मधुर वचन बोलने वाला व मधुर व्यवहार करने वाला पाषाण-हुदयों को भी पिघला देता है। मधुर वचन के वश में मानव ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षी भी आ जाते हैं।
(vi) शीर्षक : मधुर वचन है औषधि।

20. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
साधारणतः सत्य का अर्थ सच बोलना मात्र ही समझा जाता है. परंतु गाँधी जी ने व्यापक अर्थ में ‘सत्य’ शब्द का प्रयोग किया है। विचार में, वाणी में और आचार में उसका होना ही सत्य माना है। उनके विचार में जो सत्य को इस विशाल अर्थ में समझ ले उसके लिए जगत् में और कुछ जानना शेष नहीं रहता। परंतु इस सत्य को पाया कैसे जाए? गाँधी जी ने इस संबंध में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-एक के लिए जो सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है।

इसमें घबराने की बात नहीं है। जहाँ शुद्ध प्रयत है वहाँ भिन्न जान पड़ने वाले सब सत्य एक ही पेड़ के असंख्य भिन्न दिखाई देने वाले पत्तों के समान हैं। परमेश्वर ही क्या हर आदमी को भिन्न दिखाई नहीं देता? फिर भी हम जानते हैं कि वह एक ही है। पर सत्य नाम ही परमेश्वर का है, अतः जिसे जो सत्य लगे तदनुसार वह बरते तो उसमें दोष नहीं। इतना ही नहीं, बल्कि वही कर्तम्य है। फिर उसमें भूल होगी भी तो सुधर जाएगी, क्योंकि सत्य की खोज के साथ तपश्चर्या होती है अर्थात् आत्मकष्ट-सहन की बात होती है, उसके पीछे मर मिटना होता है, अतः उसमें स्वार्थ की तो गंध तक भी नहीं होती। ऐसी निस्वार्थ खोज में लगा हुआ आज तक कोई अंत पर्यन्त गलत रास्ते पर नहीं गयां। भटकते ही वह ठोकर खाता है और सीधे रास्ते पर चलने लगता है।

ऐसे ही अहिंसा वह स्थूल वस्तु नहीं है जो आज हमारी दृष्टि के सामने है। किसी को न मारना, इतना तो है ही। कुविचार मात्र हिंसा है, उतावली हिंसा है। मिथ्या भाषण हिंसा है। द्वेष हिंसा है। किसी का बुरा चाहना हिंसा है। जगत् के लिए जो आवश्यक वस्तु है, उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है। इनना हमें समझ लेना चाहिए कि अहिंसा के बिना सत्य की खोज असंभव है। अहिंसा और सत्य ऐसे ओत्र्रोत हैं जैसे सिक्के के दोनों रखख। इसमें किसे उल्टा कहें किसे सीधा। फिर भी अहिंसा को साधन और सत्य को साध्य मानना चाहिए। साधन अपने हाथ की बात है। हमारे मागं में चाहे जो भी संकट आए, चाहे जितनी हार होती दिखाई दे-हमें विश्वास रखना चाहिए कि जो सत्य है वही एक परमेश्वर है। जिसके साक्षात्कार का एक ही मार्ग है, और एक ही साधन है-वह है अहिंसा, उसे कभी न छोड़ेंगे।

प्रश्न :
(i) गाँधी जी के अनुसार सत्य का स्वरूप स्पट्ट कीजिए।
(ii) जो एक के लिए सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है। इस बात को गाँधी जी ने कैसे समझाया है?
(iii) गाँधी जी ने किन बातों एवं व्यवहारों को हिंसा माना है?
(iv) सत्य की खोज में लगा व्यक्ति किस प्रकार का होता है?
(v) अहिंसा और सत्य एक-दूंसरे से किस रूप में जुड़ें हुए हैं?
(vi) गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) गाँधी जी के अनुसार सत्य का स्वरूप यह है कि उसे व्यापक रूप में लिया जाना चाहिए। उनके अनुसार विचार, वाणी और आचार में सत्य होना चाहिए। सत्य को विशाल अर्थ में जानने के बाद जगत में कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता।
(ii) इस बात को गाँधी जी ने इस प्रकार समझाया है कि सत्य एक ही पेड़ के भिन्न-भिन्न असंख्य पत्तों के समान है। परमेश्वर एक होते हुए भी सभी लोगों को भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देता है।
(iii) गाँधी जी ने किसी को मारना, कुविचार मन में लाना, उतावली करना, मिथ्या भाषण देना, द्वेष रखना, किसी का बुरा चाहना को भी हिंसा माना है।
(iv) सत्य की खोज में लगा व्यक्ति गलत रास्ते पर इसलिए नहीं जा सकता क्योंकि वह निःस्वार्थी होता है। वह आत्मकष्ट सहता है। वह ठोकर खाकर भी सीधे रास्ते पर आ जाता है।
(v) अहिंसा और सत्य एक-दूसरे के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। सत्य की प्राप्ति लक्ष्य है और उसे अहिंसा के मार्ग पर चलकर पाया जा सकता है। अहिंसा के बिना सत्य की खोज असंभव है।
(vi) शीर्षक : सत्य और अहिंसा।

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