CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana श्रवण
श्रवण (सुनना) कौशल :
वर्णित या पठित सामग्री को सुनकर अर्थग्रहण करना, वार्तालाप करना, वाद-विवाद, कविता पाठ आदि को सुनकर समझना, मूल्यांकन करना और अभिव्यक्ति के ढंग को समझना।
वाचन (बोलना) कौशल :
भाषण, सस्वर कविता पाठ, वार्तालाप और उसकी औपचारिकता, कार्यक्रम प्रस्तुति, कथा-कहानी अथवा घटना सुनाना, परिचय देना, भावानुकूल संवाद वाचन, चलचित्र की कहानी सुनाना अथवा हास्य-व्यंग्य का कोई चुटकुला सुनाना।
श्रवण कौशल का मूल्यांकन –
परीक्षक किसी प्रासंगिक विषय पर एक अनुच्छेद का स्पष्ट वाचन करेगा। अनुच्छेद तथ्यात्मक या सुझावात्मक हो सकता है। अनुच्छेद लगभग 250 शब्दों का होना चाहिए।
या
परीक्षक 2-3 मिनट का श्रव्य अंश (Audio-clip) सुनवाएगा। अंश रोचक होना चाहिए। कथ्य/घटना पूर्ण एवं स्पष्ट होनी चाहिए। वाचक का उच्चारण शुद्ध, स्पष्ट एवं विरामचिह्नों के उचित प्रयोग समेत होना चाहिए।
- अध्यापक को सुनते-सुनते परीक्षार्थी कागज पर दिए श्रवण बोध के अभ्यासों को हल कर सकेंगे।
- अभ्यास रिक्त-स्थान पूर्ति, बहुविकल्पी अथवा सत्य/असत्य का चुनाव आदि विधाओं में हो सकते हैं।
- अति लघूत्तरात्मक 5 प्रश्न पूछे जाएँगे।
वाचन (बोलना) कौशल का मूल्यांकन –
- चित्रों के क्रम पर आधारित वर्णन : इस भाग में अपेक्षा की जाएगी कि विद्यार्थी विवरणात्मक भाषा का प्रयोग करे।
- चित्र-वर्णन : चित्र व्यक्ति, स्थान या घटना का हो सकता है।
- निर्धारित विषय पर बोलना : इसमें विद्यार्थी अपने व्यक्तिगत अनुभव का प्रत्यास्मरण कर सकेंगे।
- कहानी सुनाना या किसी घटना का वर्णन करना।
- परिचय देना : स्व/परिवार/वातावरण/वस्तुव्यक्ति/पर्यावरण/कवि/लेखक आदि का।
- हाल में पढ़ी पुस्तक या देखे हुए चलचित्र (सिनेमा) की कहानी सुनाना।
प्रक्रिया :
- कुल तीन प्रश्न पूछे जा सकते हैं।
- परीक्षण से पूर्व परीक्षार्थी को तैयारी के लिए कुछ समय दिया जाएगा।
- विवरणात्मक भाषा में वर्तमान काल का प्रयोग अपेक्षित है।
- निर्धारित विषय परीक्षार्थी के अनुभव-जगत के हों। जैसे-कोई चुटकुला या हास्य-प्रसंग।
- जब परीक्षार्थी बोलना आरंभ करे तो परीक्षक कम-से-कम हस्तक्षेप करे।
कौशलों के अंतरण का मूल्यांकन –
इस बात का निश्चय करना कि क्या विद्यार्थी में श्रवण और वाचन की निम्नलिखित योग्यताएँ हैं :
श्रवण (सुनना) | बावन (घलना) |
1. विद्यार्थी में परिचित संदर्भों में प्रयुक्त शब्दों और पदों को समझने की सामान्य योग्यता है, किंतु सुसंबद्ध आशय को नहीं समझ़ पाता। | 1. शिक्षार्थी केवल अलग-अलग शब्दों और पदों के प्रयोग की योग्यता प्रदर्शित करता है, कितु एक सुसंबद्ध स्तर पर नहीं बोल सकता। |
2. छोटे संबद्ध कथनों को परिचित संदर्भों में समझने की योग्यता है। | 2. परिचित संदर्भों में केवल छोटे संबद्ध कथनों का सीमित शुद्धता से प्रयोग करता है। |
3. परिचित या अपरिचित दोनों संदर्भों में कथित सूचना को स्पष्ट समझने की योग्यता है। अशुद्धियाँ करता है जिससे प्रेषण में रुकावट आती है। | 3. अपेक्षाकृत दीर्घ भाषण में अधिक जटिल कथनों के प्रयोग की योग्यता प्रदर्शित करता है, अभी भी कुछ अशुद्धियाँ करता है जिससे प्रेषण में रुकावट आती है। |
4. दीर्घ कथनों की श्रृंखला को पर्याप्त शुद्धता से समझता है और निष्कर्ष निकाल सकता है। | 4. अपरिचित स्थितियों में विचार को तार्किक ढंग से संगठित कर धारा प्रवाह रूप में प्रस्तुत कर सकता हैं ऐसी गलतियाँ करता है, जिनसे प्रेषण में रुकावट नहीं आती। |
5. जटिल कथनों के विचार-बिंदुओं को समझने की योग्यता प्रदर्शित करता है, उद्देश्य के अनुकूल सुनने की कुशलता प्रदर्शित करता है। | 5. उद्देश्य और श्रोता के लिए उपयुक्त शैली को अपना सकता है केवल मामूली गलतियाँ करता है। |
उपर्युक्त दोनों कौशल मौखिक अभिव्यक्ति से संबंधित हैं।
मौखिक अभिव्यक्ति की विशेष प्रकार की प्रस्तुति को ‘मौखिक रबना’ कहा जाता है। रचना का अर्थ है-निर्माण करना, सजाना, सँवारना। संक्षेप में कहें तो मौखिक रचना का तात्पर्य है-अपने भावों और विचारों को सुव्यवस्थित कर अवसरानुकूल ऐसी भाषा में व्यक्त करना कि उसमें नवीनता और मौलिकता की झलक मिले तथा श्रोता पर भी अनुकूल प्रभाव पड़े।
हमारे जीवन के अधिकांश कार्यों में मौखिक भाषा का ही प्रयोग होता है। पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर वार्तालाप, हास-परिहास, बातचीत, सभा-समितियों में विचार-विमर्श, भाषण, धार्मिक सांस्कृतिक और राजनीतिक विचारों के आदान-प्रदान आदि कार्यों में मौखिक रचना का ही प्रयोग होता है। इसी मौखिक रचना के दो रूप हैं-बोलना (वाचन) और सुनना (श्रवण)।
अच्छी मौखिक अभिव्यकित की विशेषताएँ –
भाषागत अपेक्षाएँ –
- – निस्संकोच बोलना : बच्चों को प्रारंभ में कक्षा तथा सभा में बोलने में झिझक का अनुभव होता है। इस झिझक को दूर करने के लिए वार्तालाप या प्रश्नोत्तर भाग लेना चाहिए।
- – शुद्ध उच्चारण : प्रभावपूर्ण मौखिक अभिव्यक्ति के लिए उच्चारण की शुद्धता आवश्यक है। इसके लिए ध्वनियों के उच्चारण-स्थान, प्रकृति और प्रयत्न से भी परिचित होना आवश्यक है।
- – शुद्ध भाषा का प्रयोग : व्याकरण सम्मत भाषा का प्रयोग ही शुद्ध भाषा-प्रयोग है। उपयुक्त शब्दों का यथास्थान सही प्रयोग तथा वाक्यों की शुद्ध रचना भाव-बोध में सहायक होती है। वाक्य में पदक्रम का ध्यान रखना भी आवश्यक है।
- भावानुरूप सहज भाषा का प्रयोग : वक्ता मौखिक अभिव्यक्ति द्वारा अपने भाव और विचार श्रोता तक पहुँचाना चाहता है, इसे ही भाव या विचार-संग्रेषण कहते हैं। संप्रेषण में जो व्यक्ति जितना कुशल होता है, वह उतना ही सफल वक्ता माना जाता है।
- मुहावरों/लोकोक्तियों तथा सूक्तियों का प्रयोग : इनके प्रयोग से वक्ता के कथन में सजीवता और रोचकता आ जाती है।
- अवसरानुकूल भाषा का प्रयोग : अवसर और श्रोता को दृष्टि में रखते हुए भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
किषलमत सजेषाएँ –
- क्रमबद्धता एवं सुसंबद्धता : भावों और विचारों का पूर्वापर संबंध बनाए रखना चाहिए। अपने कथन को क्रमबद्धता पतं सुसंबद्धता बनाए रखना कथन को प्रभावी बनाता है।
- विषय-सामग्री का चयन : विषयानुकूल सामग्री के चयन से भी मौखिक अभिव्यक्ति प्रभावी बनती है।
- तार्किकता : विषय का प्रतिपादन तर्कपूर्ण ढंग से इस प्रकार करना चाहिए जिससे श्रोता पर अपेक्षित प्रभाव पड़ सके।
मौखिक अभिज्तित के लिखिए ज्ञा:
- सस्वर वाचन और कविता पाठ
- पठित विपयों पर वार्तालाप
- चित्र का मौखिक वर्णन
- देखी हुई घटना, दृश्य का वर्णन
- कहानी कथन
- वाद-विवाद प्रतियोगिता
- भाषण
- संवाद (वाचिक अभिनय)
- समाचार वाचन
- चलचित्र संबंधी चर्चा
- बाल-सभा, छात्र संसद, सदन-प्रणाली
- टेलीफोन वार्ता
श्रावण कौशल (सुनना)
जब बच्चा जन्म लेता है, उसी दिन से वह सुनना आरंभ कर देता है। वह अपनी माता के मुख से कई तरह की ध्वनियाँ सुनता है और उसके अनुरूप अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का प्रयास करता है। आगे चलकर वह घर में. मित्र-मंडली में, शिक्षकों की बातें ध्यानपृर्वक सुनता है। इसके बाद वह पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देता है। सुनकर अर्थग्रहण की क्षमता ही श्रवण कौशल कहलाता है। इसका परीक्षण शिक्षक निम्नलिखित रूपों से कर सकता है :
- प्रार्थना सभा में दिए गए भाषण/उपदेश से संबंधित प्रश्न पूछकर।
- कक्षा में पढ़ाए गए पाठ पर प्रश्न पूछकर।
- किसी काव्यांश या गद्यांश को सुनाकर प्रश्न पूछकर।
- कविता का मूलभाव पूछकर।
धयान रखें :
- सुनना और समझना ही काफी नहीं है, बल्कि उसे मन में बनाए रखना भी एक कला है। यह श्रवण कला है। इसके लिए, श्रोता का पूरा ध्यान श्रवण में लगा रहना चाहिए।
- सुनने वाला अंश विद्यार्थियों के स्तर का ही टोना चाहिए।
- विषयों का चुनाव करते समय यह सावधानी बरतनी चाहिए कि वे विद्यार्थियों के जीवन से जुड़े हों।
श्रावण कौशल में निम्नलिखित बिंदुऔं केजायेगा आधार पर मूलयांकन किया जायेगा :
- क्या विद्यार्थी शब्दों, पदों को समझने की योग्यता रखता है ?
- क्या विद्यार्थी सुनाए गए गद्यांश/पद्यांश के आशय को समझ पाया है ?
- क्या वह विषय के संदुर्भ को समझ पाया है ?
- क्या वह निष्कर्ष निकालने में सक्षम है ?
- क्या वह कही गई बात को स्पष्टता से समझ लेता है ?
- क्या विद्यार्थी में कथन के विचार-बिंदुओं को समझने की योग्यता है ?
मूल्यांकन –
श्रवण-कौशल की जाँच हेतु उदाहरणस्वरूप कुछ सामग्री :
नमूना-1 : गद्यांश
विद्यार्थी को निम्नलिखित गद्यांश सुनाया जाएगा-
देश-प्रेम,प्रेम का वह अंश है जिसका आलंबन है सारा देश-उसमें व्यापक प्रत्येक कण अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत इत्यादि। यह एक सहचर्यगत् प्रेम है अर्थात् जिसके सान्निध्य का हमें अभ्यास पड़ जाता है उनके प्रति लोभ या राग हो जाता है। कोई भी व्यक्ति सच्चा देश-प्रेमी कहला सकने की तभी सामर्थ्य रखता है जब वह देश के प्रत्येक मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्ते, वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि सभी को अपनत्व की भावना से देखेगा।
इन सबकी सुधि करके विदेश में भी आँसू बहाएगा। जो व्यक्ति राष्ट्र के मूलभूत जीवन को भी नहीं जानता और उसके बाद भी देश-प्रेमी होने का दावा करे तो यह उसकी भूल है। जब तुम किसी के सुख-दुख के भागीदार ही नहीं बने तो उसे सुखी देखने के स्वप्न तुम कैसे कल्पित करोगे ? उससे अलग रहकर अपनी बोली में तुम उसके हित की बात तो करो पर उसमें प्रेम के माधुर्य जैसे भाव नहीं होंगे। प्रेम को तराजू में तोला नहीं जा सकता। ये भाव तो मनुष्य के अंतःकरण से जुड़े हुए हैं।
परिचय से प्रेम की उत्पत्ति होती है। यदि आप समझते हैं कि आपके अंतःकरण में राष्ट्र-प्रेम के भाव उजागर हों तो आप राष्ट्र के स्वरूप से परिचित हो जाइए और अपने को उस स्वरुप में समा जाने दीजिए तभी आपके अंतःस्थल में इस इच्छा का सचमुच उदय होगा कि वह हमसे कभी न छूटे। उसके धनधान्य की वृद्धि हो। सब सुखी हों।
वास्तव में आजकल देश के प्रति परिचय तथाकथित बाबुओं की लज्जा का विषय हो गया है और देश-प्रेम मात्र दिखावा रह गया है। वे देश के स्वरूप से अनजान बने रहने में अपनी शान समझते हैं। इसी संदर्भ में अपना मत प्रस्तुत करते हुए लेखक ने अतीव सरल शब्दों में व्यंग्यात्मक शेली के द्वारा उदाहरण प्रस्तुत किया है। एक बार उसके लखनवी मित्र ने महुए का नाम लेने तक को देहाती होने का लक्षण मान लिया था। लेखक को ध्यान आया कि यह वही लखनऊ है जहाँ कभी यह पूदने वाले भी थे कि गेहूँ का पेड़ आम के पेड़ से छोटा होता है या बड़ा।
एक. 5 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न –
परीक्षण प्रश्न | संभावित उत्तर |
1. देश प्रेम क्या है ? | देश-प्रेम देश के प्रत्येक कण अर्थात् मनुष्य, पशु-पक्षी, नदी-नाले, वन, पर्वत के साथ प्रेम है। |
2. किस व्यक्ति को सच्या देश-प्रेमी कहा जा सकता है ? | कोई भी व्यक्ति सच्चा देश प्रेमी तभी कहलाया जा सकण है जब वह देश की सभी चीजों के प्रति अपनत्व का भाव रखता हो। |
3. परिचय से प्रेम की उत्पत्ति होती है। कैसे ? | राष्ट्र के स्वरूप से परिचित होने पर ही उस्से प्रेम उत्पन्न होगा। |
4. कौन-सी बात बाबुओं की लज्जा का विषय हो गया है ? | देश के प्रति परिचय पाना बाबुओं की लज्जा का विषय हो गया है। |
5. लखनवी मित्र का उदाहरण लेखक ने किस शैली में व्यक्त किया है ? | सरल शब्दों में व्यंग्यात्मक शैली में व्यक्त किया है। |
नमूना-2 : कविता
विद्यार्थियों को निम्नलिखित कविता सुनाकर 5 प्रश्न पूछे जाएँगे।
संकटों से वीर घबराते नहीं,
आपदाँँ देख छिप जाते नहीं।
लग गए जिस काम में, पूरा किया,
काम करके व्यर्य पछाताते नहीं।
हो सरल अथवा कठिन हो रास्ता,
कर्मवीरों को न इससे वास्ता।
बढ़ चले तो अंत तक ही बढ़ चले,
कठिनतर गिरिशृंग ऊपर चढ़ चले।
कठिन पथ को देख मुस्काते सदा,
संकटों के बीच वे गाते सदा।
है असंभव कुछ नहीं उनके लिए,
सरल-संभव कर दिखाते वे सदा।
यह असंभव कायरों का शब्द है,
कहा था नेपोलियन ने एक दिन।
सच बताऊँ, जिंदगी ही व्यर्थ है,
दर्प बिन, उत्साह बिन, औ शक्ति बिन।
परीक्षण प्रश्न | संभावित उत्तर |
1. वीर किस प्रकार के होते हैं ? | जो संकटों में नहीं घबराते और काम पूरा करके रहते हैं। |
2. कर्मवीरों को किससे वास्ता नहीं होता ? | रास्ता सरल या कठिन इससे वास्ता नहीं होता। |
3. वीर कब मुस्काते हैं ? | कठिन पथ को देखकर |
4. असंभव शब्द किनके लिए होता है ? | कायरों के लिए |
5. किसके बिना जिंदगी व्यर्थ है ? | दर्प, उत्साह और शक्ति के बिना |
नमूना-3 : वार्तालाप
- आदित्य : मित्र रंजन ! कहाँ से चले आ रहे हो ?
- रंजन : अरे, क्या बताऊँ ? बिजली बोर्ड के दफ्तर से आ रहा हूँ।
- आदित्य : क्यों, क्या बात हो गई ?
- रंजन : बात तो कुछ नहीं हुई, ये दो हजार रुपए का बिजली-बिल आया था, जबकि हर बार यह पाँच-छह सौ रुपए का होता था।
- आदित्य : क्या उन्होंने बिल ठीक कर दिया ?
- रंजन : उनके मुँह तो खून लग गया है। पहले तो सुनते ही नहीं हैं और ज्यादा कहो तो पाँच सौ रुपए रिश्वत माँगते हैं।
- आदित्य : क्या रिश्वत देने के लिए हाँ कर आए हो ?
- रंजन : क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता। मन तो नहीं करता, पर कोई और उपाय भी नहीं सूझ रहा।
- आदित्य : उपाय तो है। मैं बताता हूँ। इससे काम भी हो जाएगा और बिल-क्लर्क के होश भी ठिकाने आ जाएँगे।
- रंजन : मुझे बता, वह उपाय।
- आदित्य : हम दोनों ‘सतर्कता विभाग’ में चलकर उसकी लिखित शिकायत कर देते हैं। वे उसे रंगे हाथों पकड़ लेंगे।
- रंजन : पर क्या यह ठीक रहेगा ? कहीं उसकी नौकरी ही न चली जाए ?
- आदित्य : हमारी इसी कमजोर का ये लोग गलत फायदा उठाते हैं। इन्हें सबक सिखाना बहुत जरूरी है।
- रंजन : हम किस-किसको सबक सिखाएँगे। यहाँ तो ऊपर से लेकर नीचे तक सभी भ्रष्ट हैं। राजनेता कौन-से अछूते हैं ?
- आवित्य : पर कभी-न-कभी तो हमें इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़ा होना ही पड़ेगा। तुम डरो नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूँ।
- रंजन : शायद तुम ठीक कहते हो। हमें इस बढ़ते भ्रष्टाचार पर लगाम लगानी ही होगी।
नमूना-4 : वाद-विवाद
विपय : साहित्य समाज का दर्षण है।
(इसके पक्ष-विपक्ष में वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने वाले के तर्क)
ज्ञानशंकर : साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य का समाज से बहुत पुराना रिश्ता है। आज तक यह रिश्ता चलता आ रहा है।
रविभोहन : साहित्य समाज का दर्पण नहीं है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती। साहित्य और समाज का रिश्ता बदलता रहता है।
ज्ञानशंकर : साहित्यकार निश्चित तौर पर सामाजिक जीवन से प्रभावित होता है। वह समाज के दबाव की उपेक्षा नहीं कर सकता। यह बात भी स्पष्ट करती है कि साहित्य समाज का दर्पण है।
रविदोहन : नहीं, बात ऐसी नहीं है। साहित्यकार को समाज के गलत दबाव की उपेक्षा करनी ही चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो नए समाज का निर्माण भी नहीं कर पायेगा। साहित्यकार तो प्रजापति होता है। वह ब्रह्मा के समान एक समाज का निर्माण करता है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो साहित्यकार का काम तो केवल दर्पण दिखाने वाले का रह जाता है।
ज्ञानशंकर : क्या साहित्यकार सामाजिक प्राणी नहीं होता ?
रविमोहन : साहित्यकार एक सामान्य व्यक्ति की भाँति एक सामाजिक प्राणी होता है। उसकी रचना का आधार भी मानव-संबंध ही होते हैं लेकिन अंतर इतना है कि साहित्यकार भानव-संबंधों में व्याप्त विषमताओं से असंतुष्ट होकर समाज को अपनी कल्पना और रुचि के अनुसार नया रूप देता है। जीवन की यथार्थता को दर्पण की भाँति प्रतिबिंबित न करके उसे अपनी रुचि के अनुसार वर्णित करके एक नवीन समाज का निर्माण करना साहित्यकार का जन्मसिद्ध अधिकार है।
ज्ञानशंकर : इससे तो यह ध्वनित होता है कि साहित्य मानव-संबंधों से परे होता है।
रविमोहन : नहीं, साहित्य मानव-संबंधों से परे नहीं है। साहित्यकार तो जब विधाता पर साहित्य-रचना करता है तो उसे भी मानव के साकार रूप में ला खड़ा कर देता है। साहित्यकार के असंतोप की जड़ में सामाजिक मानव संबंध ही हैं। साहित्यकार इस संसार में परिवर्तन करना चाहता है। वह उन कारणों को भी स्पष्ट करता है कि उसे वर्तमान स्थिति से अरुचि क्यों है और वह किस प्रकार का परिवर्तन चाहता है ? यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो वह ऐसा नकलची बन जाता है जिसकी अपनी कोई असलियत न हो।
परीक्षण प्रश्न | संभावित उत्तर |
1. ज्ञानशंकर की क्या मान्यता है ? | वह वाहित्य को समाज का दर्पण बताता है। |
2. रविमोहन साहित्य को समाज का दर्पण क्यों नहीं मानता ? | साहत्य संसार को बदलने का काम करता है। |
3. साहित्यकार सामाजिक प्राणी होते हुए भी काम करता है ? | साहित्यकार प्रजापति (ब्रह्मा) के समान नए समाज का निर्माण करता है। |
4. क्या साहित्य मानव संबंधों से परे होता है ? | नहीं, साहित्यकार मानव-संबंधों के असंतोष को दूर करता है। |
5. परिवर्तन न करने वाला साहित्यकार क्या बन जाता है ? | वह नकलची बन जाता है। |
चनूणा-5 : थापण
प्यारे भाइयो और बहनो!
मैं वर्तमान राजनीति में आई गिरावट पर आपके सम्मुख अपने विचार प्रकट करना चाहता हूँ।
वर्तमान समय में राजनीति अपने निम्न स्तर पर पहुँचती प्रतीत होती है। पुराने समय में लोगों के कुछ आदर्श होते थे, उनके कुछ जीवन-मृल्य होते थे, जिन पर चलकर वे आदर्श समाज, आदर्श राष्ट्र की कल्पना को साकार करने का प्रयास करते थे। महात्मा गाँधी, लाल बहादुर शास्त्री. सरदार पटेल जैसे नेताओं के उदाहरण हमारे सामने हैं। इन्होने देश की निःस्वार्थ सेवा की. अपना पूरा जीवन देश को समर्षित कर दिया। उन्होंने अपने घर-परिवार के लिए कुछ नहीं किया, जों कुछ किया देश के लिए किया। आज जब हम वर्तमान नेताओं को देखते हैं तो हमारा मस्तक शर्म से झुक जाता है। बताओ क्यों ? उनकी कथनी-करनी में अंतर क्यों है ? वे धन लोभी. पद-लोभी, सत्ता-लोभी हो गए हैं। उनका कोई सिद्धांत नहीं रह गया है। जिस पार्टी में स्वार्थ सिद्ध होता हे, वहीं चले जाते हैं तथा उसी का गुणगान करने लगते हैं। क्या यह उचित है ? क्या ये नेता देश का भला कर सकेंगे ? हमें ऐसे नेताओं का सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए।
अभ्यासार्थ :
1. गधांश
विद्वान नम्रता को स्वतंत्रता की जननी मानते हैं। साधारण लोग भ्रमवश अहंकार को उसकी माता मानते हैं। वास्तव में वह विमाता है। आत्म संस्कार हेतु स्वतंत्रता आवश्यक है। मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए आत्मनिर्भरता जरूरी है। आत्ममर्यदा हंतु आवश्यक है कि हम बड़ों से सम्मानपूर्वक, छोटों और बराबर वालों के साथ कोमलता का व्यवहार करें। युवाओं को याद करना चाहिए कि उनका ज्ञान कम है। वे अपने लक्ष्य से पीछे हैं तथा उनकी आकांक्षाएँ उनकी योग्यता से कम हैं। हम और जो कुछ भी हमारा है, सब हमसे नम्र रहने की आशा करते हैं।
नम्रता का अर्थ दूसरों का मुँह ताकना नहीं है। इससे तो प्रज्ञा मंद पड़ जाती है। संकल्प क्षीण होता है विकास रुक जाता है तथा निर्णय क्षमता नहीं आती। मनुप्य को अपना भाग्य विधाता स्वयं होना चाहिए। अपने फैसले तुम्हें स्वयं ही करने होंगे। विश्वासपात्र मिन्न भी तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं ले सकता। हमें अनुभवी लोगों के अनुभवों से लाभ उठाना चाहिए, लेकिन हमारे निर्णयों तथा हमारे विचासों से ही हमारी रक्षा व पतन होगा। हमें नजरें तो नीचे रखनी हैं लेकिन रास्ता भी देखना है। हमारा व्यवहार कोमल तथः लक्ष्य उच्च होना चाहिए।
संसार में हरिश्चंद्र और महाराणा प्रताप जैसे अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने आजीवन कष्ट उठाए लेकन सत्य और मर्यादा नहीं छोड़ी। हरिश्चंद्र की प्रतिज्ञा थी –
“ज्न्र टरै, सूरज टरै, टरै, जगत व्यवहार
प्र की हैरिशन्द्र को, टर न सत्य विघार।”
महाराणा प्रताप की स्त्री और बच्चे भूख से तड़पते आजीवन जंगलों में भटकते रहे लेकिन स्वतंत्रता नहीं छोड़ी। इसी वृत्ति के बल पर मनुष्य परिश्रम करता है, गरीबी को झेलता है ताकि उसे थोड़ा ज्ञान मिल सके। इसी चित-वृत्ति के प्रभाव से हम प्रलोभनों व कुमंत्रणाओं पर विजय प्राप्त करते हैं तथा चरित्रवान लोगों से प्रेम करते हैं। इन वृत्ति के प्रभाव से युवा पुरुष शांत और सच्चे रह सकते हैं, मर्यादा नहीं खोते तथा बुराई में नहीं पड़ते। इसी चित्त-वृत्ति के कारण बड़े-बड़े लोग महान् कार्य करके यह सिद्ध कर सके कि कोई भी अड़चन “बस यहीं तक, और आगे न बढ़ना” उन्हें रोक नहीं सकती।
इसी के प्रभाव से दरिद्र तथा अनपढ़ लोगों ने उन्नति तथा समृद्धि प्राप्त की है। “मैं राह देखूँगा या राह निकालूँगा”‘ की कहावत इसी का परिणाम है। इसी वृत्ति को उत्तेजना से शिवाजी मुगलों को छका सके और एकलव्य एक बड़ा धनुर्धर बन सका। इसी वृत्ति से मनुष्य महान बनता है, जीवन सार्थक और उद्देश्यपूर्ण बनता है तथा उत्तम संस्कार आते हैं। वही मनुष्य कर्म क्षेत्र में श्रेष्ठ और उत्तम रहते हैं जिनमें बुद्धि, चतुराई तथा दृढ़ निश्चय है वे ही दूसरों को भी श्रेष्ठ बनाते हैं।
2. काव्यांश
ज्यों निकलकर बादलों की गोद से,
थी अभी इक बूँद कुछ आगे बढ़ी।
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह, क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी।
देव मेरे भाग्य में है क्या बता,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में।
जल उठूँगी गिर अँगारे पर किसी,
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में।
बह उठी उस काल इक ऐसी हवा,
वह समंदर ओर आई अनमनी।
एक सुंदर सीप का था मुँह खुला,
वह उसी में जा गिरी, मोती बनी।
लोक अक्सर हैं झिझकते-सोचते,
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।
किंतु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें,
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।
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