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Class 12 Hindi Antra Chapter 1 Summary – Devsena Ka Geet, Karneliya Ka Geet Summary Vyakhya

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देवसेना का गीत, कार्नेलिया का गीत Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 1 Summary

देवसेना का गीत, कार्नेलिया का गीत – जयशंकर प्रसाद – कवि परिचय

प्रश्न :
जयशंकर प्रसाद के जीवन एवं साहित्य का परिचय देते हुए उनकी काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जयंशंकर प्रसाद आधुनिक पुनर्जागरण-कालीन चेतना के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। छायावाद को आधुनिक हिन्दी कविता का स्वर्णकाल कहा गया है। जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रवर्तक कवि हैं। उनकी काव्य-रचना ‘झरना’ से छायावाद का प्रारंभ माना जाता है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार जयशंकर प्रसाद ने हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं को अपनी साहित्य-चेतना के बल पर नई दिशाएँ प्रदान कीं। कवि, नाटककार, एकांकीकार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबंधकार के रूप में जयशंकर प्रसाद को युग प्रवर्तक कहा जा सकता है।

जीवन-पंरिचय : प्रसाद जी छायावाद के आधुनिक हिंदी कविता के प्रवर्तक कवि का जन्म वाराणसी के एक धनी परिवार में सन् 1889 ई. में हुआ। इनके पिता देवीप्रसाद सुंघनी साहू तम्बाकू के प्रसिद्ध व्यापारी थे। वे बड़े ही काव्य-प्रेमी तथा रसिक व्यक्ति थे। इस प्रकार लक्ष्मी की झंकार और सरस्वती की स्वर लहरी के मधुर मिश्रण के बीच इनका लालन-पालन हुआ। ये मितभाषी, अत्यन्त विनम्र, सहनशील और धार्मिक प्रवृत्ति के संयमी व्यक्ति थे।

प्रसाद जी की शिक्षा घर पर ही हुई। ये संस्कृत, अंग्रेजी तथा हिन्दी भाषाओं के विद्वान थे। अपने पिता की मृत्यु के बाद इन्होंने वेदों तथा उपनिषदों का भी अध्ययन किया। इन्हें उर्दू तथा बंगाली का भी अच्छा ज्ञान था। प्रसाद जी की प्रतिभा बहुमुखी थी। अत: इन्होंने साहित्य के विविध अंगों-कविता, नाटक, उपन्यास तथा कहानी-में उत्कृष्ट रचनाएँ कीं। सन् 1937 ई. में इनकी मृत्यु हो गई।

रचनाएँ : प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं :
(क) महाकाव्य : कामायनी।
(ख) खण्डकाव्य : आँसू प्रेमपथिक और महाराणा का महत्त्व।
(ग) काव्यरूपक : करुणालय।
(घ) चम्पू-काव्य : उर्वशी।
(ड.) गीति-काव्य : कानन-कुसुम, चित्राधार, शोकोच्छ्वास, झरना और लहर।

  • नाटक : सज्जन, कल्याणी, प्रायश्चित, जनमेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त, अजातशत्रु, ध्रुवस्वामिनी आदि।
  • उपन्यास : कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण)
  • कहानी संग्रह : छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी, इन्द्रजाल।
  • निबंध-संग्रह : काव्य और कला तथा अन्य निबंध।

साहित्यिक विशेषताएँ : प्रसाद जी भारतीय संस्कृति के प्रतीक पुरुष थे। उन्होंने वेद, पुराण, इतिहास, पुरातत्त्व, साहित्य, दर्शन शास्त्र आदि का गहन अध्ययन किया था। उनका अध्ययन-क्षेत्र बहुत विशाल था। उन्होंने अपने यत्न से भारतीय इतिहास को सहेजा और वर्तमान युग के साथ उसका ताल-मेल बिठाया।

प्रसाद जी मूलतः कवि थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी छायावादी कवियों में प्रसाद सर्वाधिक आकर्षित करते हैं। उन्हें अतीत से प्रेम था और वे वर्तमान में उसकी भूमिका भी पहचानना चाहते थे। उन्होंने ‘विशाख’ नाटक की भूमिका में स्वयं लिखा है-‘मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के प्रकाशित अंश में उन प्रकांड घटनाओं का विग्वर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने में बहुत प्रयत्न किया है।”

काव्य-शिल्प : प्रसाद जी के काष्य का शिल्प-विधान अत्यंत संक्षम है। उनका शब्द-चयन तथा वाक्य-विन्यास मनोहर है। लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता दथा चित्रात्मकता उनकी काव्य-भाषा की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

उनकी प्रारंभिक रचनाओं की भाषा सरल और सुबोध है। परवर्ती रचनाओं में भाषा तत्सम शब्द प्रधान और लाक्षणिकता होती चली गई है। वस्तुत: प्रसाद ज़ी अभिधा के नहीं, लक्षणा और व्यंजना के कवि हैं। प्रसाद जी ने शुदुध साहित्यिक खड़ी बोली को अपनाया है। उनकी खड़ी बोली में तत्सम शब्दों की प्रधानता है।

प्रसाद जी की कविताओं से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-अनलशिखा, रक्तिम, क्रंदन-ध्वनि, निर्दयता, महादंभ का दानव तुरंग आदि। प्रसाद जी की भाषा भावानुकूल है। खड़ी बोली को लाक्षणिकता की दृष्टि से समृद्ध बनाने में प्रसाद जी की विशेष भूमिका है।

अलंकार-विघान : प्रसाद जी ने छायावादी काव्य-शैली के अनुरूप मानवीकरण का अधिक प्रयोग किया है। वैसे संकलित कविताओं में रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकार भी पर्याप्त रूप में प्रयुक्त हुए हैं।

उदाहरणार्थ –

मानवीकरण – ‘मिले चूमते जब सरिता के
हरित कूल युग मधुर अधर थे।’
रूपकातिशयोक्ति – ‘रस जलकन मालती-मुकुल से।’
रूपक – ‘मानस-सागर के तट पर।’
अनुप्रास – ‘करुणा कलित हृदय में।’
उपमा – ‘पगली-सी देती फेरी’
+         +           +
‘प्यासी मछली-सी आँखें।’
विरोधाभास – ‘शीतल-ज्वाला जलती है।’

कवि ने लक्षणा शक्ति का भरपूर प्रयोग किया है। उपादान लक्षणा का एक उदाहरण प्रस्तुत है-

‘विश्व के हुवय-पटल पर।’

शैली – प्रसाद जी ने प्रबन्ध शैली एवं मुक्तक शैली-दोनों का अनुसरण किया है। कामायनी (महाकाव्य)’ प्रबंध शैली का उदाहरण है तो ‘आँसू’ व ‘अशोक की चिंता’ मुक्तक शैली में रचे गए हैं। ‘आँसू’ में क्रमबद्धता अवश्य है। प्रसाद जी के कांव्य में बिम्ब विधान, अप्रस्तुत विधान, संगीतात्मकता, चित्रात्मकता आदि गुण भी पाए जाते हैं। प्रकृति चित्रण में वे सिद्धहस्त हैं।

Devsena Ka Geet, Karneliya Ka Geet Class 12 Hindi Summary

1. देवसेना का गीत यह गीत जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक ‘स्कंदगुप्त’ से लिया गया है। देवसेना इस नाटक की नायिका है। वह मालवा के राजा बंधुवर्मा की बहन थी। आर्यावर्त पर हूणों का आक्रमण हुआ और बंधुवर्मा सहित परिवार के अन्य लोग वीरगति को प्राप्त हुए। देवसेना ने भाई के स्वप्नों को साकार करने के लिए राष्ट्र-सेवा का व्रत ले लिया। जीवन में देवसेना स्कंदगुप्त को पाना चहतती थी, पर उस समय स्कंदगुप्त मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया के स्वप्न देखते थे।

हाँ, जीवन के अंतिम मोड़ पर स्कंदगुप्त देवसेना को पाना चाहते थे किंतु तब तक देवसेना वृद्ध पर्णदत्त के साथ आश्रम में गाना गाकर भीख माँगने लगती है। स्कंदगुप्त के अनुनय-विनय करने पर भी जब वह तैयार नहीं होती तब स्कंदगुप्त आजीबन कुँवारा रहने का व्रत ले लेता है। इधर देवसेना कहती है- “हुदय की कोमलता कल्पना सो जा। जीवन में जिसकी संभावना नहीं, जिसे द्वार पर आए लौटा दिया था, उसके लिए पुकार मचाना क्या तेरे लिए अच्छी बात है ?

आज जीवन के भावी सुख, आशा और आकांक्षा-सबसे विदा लेती हूँ।” इसी अवसर पर वह गीत गाती है. “आह! वेदना मिली विदाई!” इस गीत में देवसेना अपने जीवन पर दृष्टिगत करती है। वह अपने अनुभवों में अर्जित वेदनामय क्षणों को याद करती है। अपने जीवन की संध्या-वेला में वह अपने यौवन के क्रिया-कलापों का स्मरण करती है।

वह अपने यौवनकाल के क्रियाकलापों को भ्रमवश किए गए करों की श्रेणी में रखती है। वह उस समय की गई अपनी नादानियों पर पछताती है। इसी कारण उसकी आँखों से आँसुओं की अनस्र धारा बहने लगती है। उसे अपने आस-पास सभी की निगाहें प्यासी दिखाई पड़ाती हैं और वह स्वयं को उनसे बचाने का प्रयास करती है। उसे इस बात का दुख है कि वह अपने जीवन की पूँजी, कमाई को बचा नहीं सकी। उसके जीवन की यही विडंबना है और यही वेदना है। प्रलय स्वयं देवसेना के रथ पर सवार है। वह अपनी दुर्बलताओं और हारने की निश्चितता के बावजूद प्रलय से लोहा लेती रही है। गीत शिल्प में रची गई यह कविता वेदना के क्षणों में मनुष्य और प्रकृति के संबंधों को भी व्यक्त करती चलती है।

2. ‘कार्नेलिया का गीत’ शीर्षक गीत जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित है। यह उनके नाटक ‘चंच्रगुप्त’ के द्वितीय अंक के प्रारंभ से लिया गया है। इस नाटक में सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया गाती है। इस गीत में कवि की भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रति अगाध आस्था व्यक्त हुई है। पिता के साथ भारत में रहते हुए कार्नेलिया यहाँ के मनोरम प्राकृतिक पर्यावरण, भारतीयों की ज्ञान-गरिमा, प्रेम, करुण आदि उदात्त मानवीय भावनाओं से परिचित और प्रभावित हुई थी। इस गीत में वह इन्हीं हृदयानुभूतियों को अभिव्यक्त करती है।

इस कविता का प्रारंभ प्राकृतिक सौंदर्य से होता है। यहाँ की भूमि पर सूर्य की प्रथम किरणें पड़ती हैं। प्राची दिशा में स्वर्ण कलश की भाँति दीप्तिमान सूर्य पहले अपनी लालिमा और फिर अपने प्रकाश की सुनहरी आभा से सारे प्राकृतिक वातावरण को आलोकित कर देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तालाबों में खिलते कमल के फूल की आभा नाच रही हो। सूर्य की किरणें वृक्षों की शाखाओं से छन-छनकर पुष्पों पर पड़ती हैं और नृत्य करती सी जान पड़ती हैं।

हर सुबह नवीन सुख, उल्लास और स्कूर्ति जीवन को स्पंदित करती है। सूर्योदय के समय खिलते कमल का सौंदर्य, शीतल पवन के साथ इठलाते वृक्ष, आकाश में उड़ते रंग-बिंरगे पक्षी, समुद्र में उठती तथा किनारों से टकराती लहरें वातवरण को जीवंत बनाती हैं। प्रकृति भारत की भूमि पर मंगल कामना करती हुई चारों ओर कुंकुम और केसर की वर्षा कर देती है। लाल-सुनहरे प्रकाश की किरणें कुंकुम और केसर की भाँति प्रतीत होती हैं। छोटे-छोटे पक्षी अपने पंख फैलाए हुए जिस दिशा की ओर उड़कर घोसलों की ओर लौटते हैं वह देश भारत ही है।

वे छोटे-छोटे इंद्रधनुषों के साथ उड़ते चले आते हैं। भारतवर्ष के लोग दया, करुणा, सहानुभूति के भावों से ओत-प्रोत हैं। ये दूसरों की पीड़ा को देखकर द्रवित हो जाते हैं और आँखों से अश्रु बरसाने लगते हैं। जिस प्रकार सगर की विद्रोही लहरें सागर-तट से टकराती रहती हैं, पर उन्हें आश्रय भी वहीं मिलता है। इसी प्रकार भारत भी सभी की शरणस्थली है। यहाँ सभी को आश्रय मिल जाता है। यहाँ आकर उन्हें शांति एवं संतोष का अनुभव होता है।

सूर्योंदय से कुछ देर पहले उषा प्राची दिशा में प्रकट होती है। ऐसा लगता है कि उषा रूपी पनहारिन आकाश रूपी कुएँ से अपने सुनहरे कलश में सुनहरा जल भरकर लाती है और उसे यहाँ लुढ़का देती है। इसी के परिणामस्वरूप समस्त वातावरण में सुनहरी आभा बिखर जाती है। तात्पर्य यह है कि इस देश के सूरोंदय का दृश्य अवर्णनीय है। यह कविता द्विअर्थक है। कवि ने प्राकृतिक सुषमा के ब्याज से भारतीय सभ्यता संस्कृति की उत्कृष्टता और भारतीयों के उदात्त मानवीय गुणों को आरेखित किया है।

देवसेना का गीत, कार्नेलिया का गीत सप्रसंग व्याख्या

देवसेना का गीत –

1. आह! वेदना मिली विदाई!
मैंने भ्रम-वश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई।
छलछल थे संध्या के श्रमकण,
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थी-
नीरवता अनंत अँगड़ाई।

शब्दार्थ : वेदना = दुख, पीड़ा! भ्रमवश = भ्रम के कारण। संचित = एकत्रित। मधुकरियों = पके हुए अन्न की भिक्षा। श्रमकण = श्रम के कारण उत्पन्न पसीने की बूँदें। प्रतिक्षण = प्रत्येक पल। नीरवता = खामोशी। अनंत = अंतहीन।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘स्कंदगुप्त’ से अवतरित ‘देवसेना का गीत’ से लिया गया है। देवसेना मालवा के राजा बंधुवर्मा की बहन है। जीवन के प्रारंभिक भाग में देवसेना को स्कंदगुप्त की चाह थी, पर तब स्कंदगुप्त मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया के स्वप्न देखते थे। जीवन के अंतिम मोड़ पर स्कंदगुप्त देवसेना को पाना चाहते हैं, पर तब देवसेना तैयार नहीं होती और आजीवन कुँआरा रहने का व्रत ले लेती है। तभी देवसेना यह गीत गाती है।

व्याख्या : देवसेना स्वयं से कहती है-जीवन की इस सांध्य वेला में आज मैं जीवन के भावी सुख, आशा और आकांक्षा से वेदनापूर्ण विदाई लेती हूँ। मैने भ्रम में पड़कर जीवन भर स्कंदगुप्त से प्रेम किया और सारी एकत्रित अभिलाषा रूपी भिक्षा को लुटा दिया अर्थात् मैं जीवन भर की आकांक्षाओं की पूँजी को बचा न पाई।

देवसेना का जीवन वेदनापूर्ण स्थितियों से गुजरता रहा। उसका पूरा परिवार वीरगति को प्राप्त हुआ। उसने जिसे (स्कंदगुप्त) को प्यार किया, उसने उसे ठुकरा दिया। अब वह इन वेदनामय क्षणों से विदाई लेना चाहती है। वह अपने यौवनकालीन क्रियाकलापों को अपनी नादानी मानती है।

अब देवसेना की आँखों से अश्रुपात हो रहा है। जीवन की सांध्यबेला में अर्थात् जीवन के अंतिम पड़ाव में श्रम करने से उत्पन्न हुई पसीने की बूँदें, आँसू की तरह हर क्षण गिरती रहती हैं। मेरी यात्रा पर खामोशी अंतहीन अँगड़ाई लेती है। भाव यह है कि देवसेना का समस्त जीवन दुखों से भरा रहा। वह जीवन भर जिस सुख की कामना करती रही, वह उसे प्राप्त न हो सका। उसे आँसुओं के अतिरिक्त कुछ न मिला। उसका पूरा जीवन संघर्ष करते हुए व्यतीत हो गया। अब तक वह चुपचाप वेदना को सहन करती चली आई है।

विशेष :

  • ‘आह वेदना मिली विदाई’ पंक्ति देवसेना की आंतरिक वेदना को इंगित करती है। वह जीवन के अंतिम भाग में इससे विदाई लेना चाहती है।
  • ‘आँसू से गिरते’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘मधुकरियों की भीख’ में रूपक अलंकार है।
  • ‘छलछल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘नीरवता’ का मानवीकरण किया गया है।
  • तत्सम शब्द बहुला भाषा का प्रयोग किया गया है।
  • भाषा में चित्रात्मकता, संगीतात्मकता का गुण है।
  • प्रसाद गुण का समावेश है।

2. श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन-विपिन की तरु-छाया में,
पधिक उनींदी श्रुति में किसने-
यह विहाग की तान उठाई।
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कबकी।
मेरी आशा आह! बावली,
तूने खो दी सकल कमाई।

शब्दार्थ : श्रमित = परिश्रम करके थका हुआ। गहन = गहरा। विपिन = जंगल, वन। तरु-छाया = पेड़ों की छाया। पथिक = मुसाफिर। उन्नींदी = नींद से भरी हुई। श्रुति = सुनने की क्रिया। विहाग = अर्धरात्रि में गाए जाने वाला राग। सतृष्ण = तृष्णा के साथ। दीठ = दृष्टि। सकल = सारी।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा (भाग-2) में संकलित कविता ‘देवसेना का गीत’ से अवतरित हैं। यह गीत जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘स्कंदगुप्त’ से लिया गया है। देवसेना जीवन के प्रारंभिक भाग में स्कंदगुप्त का प्रेम पाने में असफल रही थी। जीवन की सांध्यबेला में वह स्कंदगुप्त के प्रणय निवेदन को अस्वीकार कर देती है। इस अवसर पर वह अपनी कामनाओं से विदा लेते हुए अपने विगत जीवन का स्मरण करती है।

व्याख्या : जीवन के अंतिम पड़ाव पर स्कंदगुप्त का प्रणय-निवेदन उसे इस प्रकार का प्रतीत होता है जैसे कोई पथिक थककर पेड़ की छाया में विश्राम कर रहा हो और उसे उनींदी दशा में कोई मधुर राग सुनाई पड़ जाए। देवसेना को स्कंदगुप्त का प्रणय निवेदन भी ऐसे ही विहाग-राग के समान प्रतीत हुआ।

भाव यह है कि जीवन भर संघर्ष करती रही देवसेना सुख की आकांक्षा के मीठे सपने देखती रही, पर वे पूरे न हो सके। अब वह थककर, निराश होकर इन सबसे विदाई लेती है। अब उसे कोई गीत सुख नहीं पहुँचा सकता।

देवसेना कहती है कि मेरे यौवनावस्था में तो सबकी तृष्णा भरी प्यासी नजरें मुझ पर लगी रहती थीं और मैं स्वयं को उनसे बचाए फिरती थी। अपने भरपूर प्रयास के बावजूद मैंने अपने जीवन की सारी कमाई (पूँजी) गँवा दी अर्थात् मैं उसकी रक्षा नहीं कर पाई। तब वह केवल स्कंदंगुप्त के प्रमम के सपने देखती थी और स्वयं को अन्य की नजरों से बचाने का प्रयास करती थी। इस प्रकार मैंने अपना समस्त यौवनकाल गँँवा दिया। मैं अपनी पागल आशा के कारण अपनी जीवन भर की पूँजी, अपनी कमाई को बचा नहीं पाई। मुझे प्रेम के बदले प्रेम और सुख प्राप्त न हो सका।

विशेष :

  • इन पंक्तियों में देवसेना की वेदना और अंतद्वृद्व साकार हो उठा है।
  • म स्मृति बिंब की अवतारणा हुई है।
  • प्रतीकात्मकता का समावेश है।
  • ‘स्वप्न’ का मानवीकरण किया गया है।
  • ‘श्रमित स्वप्न’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • भाषा में चित्रात्मकता का गुण है।
  • भाषा में संगीतात्मकता एवं प्रवाहमयता है।

3. चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर,
प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर,
उससे हारी-होड़ लगाई।
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुगा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इससे मन की लाज गँवाई।

शब्दार्थ : जीवन-रथ = जीवन रूपी रथ। प्रलय = तूफान। पथ = रास्ता। दुर्बल = कमजोर। पद-बल = पैरों की ताकत। थाती = उत्तराधिकार। विश्व = संसार।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश प्रसिद्ध छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक ‘स्कंदगुप्त’ के एक गीत ‘देवसेना का गीत’ से अवतरित है। देवसेना ने अपने यौवनकाल में स्कंदगुप्त को चाहा था, पर तब वह मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया की ओर आकर्षित थे। देवसेना जीवन भर वियोग की पीड़ा को झेले हुए कष्पूर्ण जीवन बिताती रही। जीवन की अतिम वेला में स्कंद्युप्त उसके सम्मुख प्रणय-निवेदन करता है, तब वह उसे स्वीकार नहीं कर पाती है। वह अपने जीवन की दशा का विश्लेषण एक रूपक के माध्यम से करती है।

व्याख्या : देवसेना स्वयं से कहती है – मेरे जीवन रूपी रथ पर सवार होकर प्रलय अपने रास्ते से चला जा रहा है। मैं अपने दुर्बल पैरों के बल पर उस प्रलय में ऐसी प्रतिस्पर्धा कर रही हुँ, जिसमें मेरी हार सुनिश्चित है। मैं अब तक हार की निश्चितता के बावजूद इस प्रलय (झंझावात) से लोहा लेती रही हूँ। मैंने कमजोर होने के बावजूद इस भारी विषम परिस्थिति से होड़ लगाई है। देवसेना संसार को (अप्रत्यक्ष रूप से प्रिय को) संबोधित करते हुए कहती है कि तुम अपनी इस धरोहर (प्रेम) को वापस ले लो, क्योंकि अब और मैं इसे सँभाल नहीं पांऊँगी। अबं मेरी करुणा मुझे कमजोर बना रही है। इसी प्रेम के कारण मैं अपने मन की लाज तक को गँवा बैठी हूँ।

भाव यह है कि देवसेना अब जीवन-संघर्ष से निराश हो चुकी है। अब तो प्रलय स्वयं देवसेना के जीवन रथ पर सवार है। अब तक वह अपनी दुर्बलताओं और हारने की निश्चितता के बावजूद प्रलय से लोहा लेती रही है, उसका पूरा जीवन इसी संघर्ष में बीत गया। जीवन के अंतिम काल में अब वह इस वेदना को और देर तक संभाले रखने में असमर्थ है।

विशेष :

  • इस काष्यांश में देवसेना की मन:स्थिति का यथार्थ अंकन हुआ है।
  • जीवन रथ में रूपक अलंकार है।
  • ‘पथ पर’, ‘हारी होड़ और ‘लौटा लो’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • ‘प्रलय चल रहा अपने पथ पर’ में प्रलय का मानवीकरण है।
  • निराशा और वेदना का मार्मिक चित्रण हुआ है।
  • भाषा में गंभीरता के बावजूद प्रवाहमयता का गुण विद्यमान है।
  • संगीतात्मकता का समावेश है।

कार्नेलिया का गीत –

अरुण यह मधुमय देश हमारा!

4. जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा!
सरस तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा!
लघु सुरधुन से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा!

शब्दार्थ : अरुण = लाल। मधुमय = मधुरिमा से युक्त। क्षितिज = वह स्थान जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते दिखाई देते हैं। तामरस = कमल। विभा = चमक। तरुशिखा = वृक्ष की चोटी। मनोहर = सुंदर। लघु = छोटे। सुरधनु-इंद्रधनुष। शीतल = ठंडा। समीर = हवा। मलप = सुर्गंधित। खग = पक्षी। नीड़ = घोसला। निज = अपना।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग $-2$ में संकलित कविता ‘कार्नेलिया का गीत’ से अवतरित है। यह गीत जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘चंच्रगुप्त’ के द्वितीय अंक से लिया गया है। कार्नेलिया सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी है। वह सिंधु नदी के तट पर एक ग्रीक शिविर के पास बैठी इस गीत को गा रही है। उसे भारत से प्रेम है और वह इस गीत में भारत की विशेषताओं का गान करती है।

व्याख्या : कार्नेलिया गाती है-हमारा यह देश भारतवर्ष लालिमा से युक्त और मिठास से परिपूर्ण है। यहाँ प्राची दिशा में सूर्य की अरुण आभा बिखर जाती है। यह अरुणिमा ऐसी है जैसे लाल कमल के भीतर लालिमा होती है। इस देश में अपरिचित क्षितिज को भी सहारा मिल जाता है अर्थात् यहाँ अनजान लोगों को भी आश्रय प्राप्त हो जाता है।

भारत के प्राकृतिक सौंदर्य का उल्लेख करते हुए कार्नेलिया कहती है कि सूर्योदय के समय सरोवरों में कमल के फूल खिलते हैं। कमल नाल पर पेड़ की सुंदर चोटी का सौंदर्य नाचता सा प्रतीत होता है अर्थात् जब सूर्य की सुनहली किरणें वृक्षों की चोटियों और शाखाओं से छनती हुई पुष्पों पर नृत्य करती हैं तब उस समय की शोभा देखते ही बनती है। पौधों की हरियाली पर बिखरी हुई यह केसर जैसी लालिमा मंगलमय जीवन का संदेश देती है।

छोटे-छोटे इंद्रधनुषों के समान पंख फैलाए हुए पक्षी मलय पर्वत से आती हुई शीतल हवा के सहारे अपने प्यारे घोंसलों की ओर मुँह किए हुए उड़ रहे हैं। कार्नोलिया कल्पना करती है कि पक्षी सूर्य को अपना घोंसला समझकर उसी ओर उड़ते चले जा रहे हैं। भारत सभी को शरण प्रदान करता है।

विशेष :

  • इस काष्यांश में भारत के प्राकृतिक सौंदर्य का अत्यंत मनोहारी चित्रण किया गया है।
  • भारत की आश्रय देने की विशेषता का उल्लेख है।
  • ‘लघु सुरधनु से’ में उपमा अलंकार है।
  • रूपकातिशयोक्ति अलंकार – तामरस गर्भ विभा, मंगल कुंकुम
  • मानवीकरण : तरुशिखा का नाचना
  • अनुप्रास : पंख पसारे, समीर सहारे, नीड़ निज में
  • कोमलकांत पदावली का प्रयोग है।

5. बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनंत की, पाकर जहाँ किनारा!
हेम-कुंभ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब, जग कर रजनी-भर तारा।

शब्दार्थ : हेमकुंभ = सोने का घड़ा (सूर्यरूपी घड़ा)। मदिर = यात्री। रजनी = रात।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘चंद्रगुप्त’ में गाए ‘कार्नेलिया के गीत’ से अवतरित है। सिंधु नदी के तट पर ग्रीक शिविर के निकट बैठी सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया भारत की विशेषताओं का गुणगान करते हुए कहती है –

व्याख्या : भारतवर्ष दया, सहानुभूति एवं करुणा वाला देश है। यहाँ के लोगों की आँखों से करुणापूर्ण आँसू बहते रहते हैं। वे किसी की पीड़ा को नहीं देख सकते। उनकी आँखों से निकले अश्रु जल से भरे बादल बन जाते हैं। यहाँ तो अनंत से आती हुई लहरें भी किनारा (आश्रय) पाकर टकराने लगती हैं और यहीं शांत हो जाती हैं। इसी प्रकार विभिन्न देशों से आए व्याकुल एवं विक्षुब्ध प्राणी भारत में आकर अपार शांति का अनुभव करते हैं। उन्हें भी यहाँ किनारा अर्थात् ठिकाना मिल जाता है। दूसरों को किनारा देना भारतवर्ष की विशेषता है।

कार्नेलिया भारत की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन करते हुए कहती है कि इस देश का सूर्योदय का दृश्य अवर्णनीय है। सूर्योदय से पूर्व उषा स्वयं स्वर्णकलश लेकर (सूर्य के रूप में) इस देश के ऊपर सुखों की वर्षा करती है। जब रात भर जगने के बाद तारे मस्ती में ऊँघते रहते हैं अर्थात् छिपने की तैयारी कर रहे होते हैं तब उषा रूपी नायिका आकाश रूपी कुएँ से अपने सुनहरी कलश में सुख रूपी पानी भर कर लाती है और उसे भारत भूमि पर लुढ़का देती है अर्थात् रात बीत जाने पर पर जब प्रात:कालीन किरणें धरती पर छाने लगती हैं तब सुखद अनुभूति होती है।

विशेष :

  • कवि ने कार्नेलिया के माध्यम से भारत के प्राकृतिक सौंदर्य का अत्यंत मनोहारी चित्रण किया है।
  • भारतीय संस्कृति की करुणा भावना का गौरवपूर्ण चित्रण हुआ है।
  • अनुप्रास, श्लेष और रूपक अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है।
  • गीत पर छायावादी प्रभाव स्पष्ट है।
  • कोमलकांत पदावली प्रयुक्त है।
  • उषाकाल के आकर्षक बिंब का सृजन हुआ है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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