CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana परियोजना
अब हम चारों शाखाओं की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालते हैं :
निर्युण काव्य-धारा
इसके अंतर्गत दो शाखाएँ आती हैं :
(क) ज्ञानमार्गी शाखा
(ख) प्रेममार्गी शाखा
(क) ज्ञानमार्गी शाखा : इस शाखा पर पाँच संप्रदायों का प्रभाव लक्षित होता है। ये हैं :
- सिद्ध संप्रदाय
- नाथ संप्रदाय
- विट्ठल संप्रदाय
- विशिष्टाद्वैत का भक्ति संप्रदाय
- सूफी संप्रदाय।
इस शाखा के प्रमुख कवि हैं :
कबीरदास : इन्हें ज्ञानमार्गी शाखा का प्रवर्तक कवि माना जाता है। ये अनपढ़ थे तथा जुलाहे का कार्य करते हुए साखी, सबद, रमैनी आदि छंदों में कविता करते थे।
- रैदास
- दादूदयाल
- मलूकदास
- सहजोबाई आदि।
प्रमुख विशेषताएँ –
निर्युण ईश्वर में विश्वास : इन सभी कवियों ने ईश्वर को निर्रुण-निराकार माना है। इनका कहना है।
निर्युण रास जयहह से भाई़।
अवयाति की साति लखख न जाई़।।
रहस्यवाद : संत कवियों में रहस्यवाद की प्रवृत्ति विट्ठल संप्रदाय से आई। कबीर आत्मा-परमात्मा के रहस्य को इन शब्दों में प्रकट करते हैं :
जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर-भीतर पानी,
फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत् कहयो ग्यानी।
विरह भावना : संत कवियों ने परमात्मा को अपना पति (प्रियतम) माना है और स्वयं को उसकी प्रेयसी। आत्मा परमात्मा की प्रतीक्षा करती है।
“आसंडियाँ झाँई पड़ी, पैथ निहारि-निहारि”
गुरु की महत्ता : सभी संत कवियों ने गुरू की महिमा का बखान किया है। गुरू को गोविंद से भी बड़ा बताया है –
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियौं बताय॥
ढोंग आडंबरों का विरोध : कबीर ने तत्कालीन समाज में व्याप्त ढोंग-आडंबरों पर डटकर प्रहार किया है। उन्होंने मूर्तिपूजा, तीर्थ, व्रत, रोज़ा-नमाज आदि की विरोध किया है। उन्होंने इसके लिए हिंदू-मुसलमान दोनों को फटकारा है।
मुसलमानों को :
कांकर पाथर जोरि के मसजिद लई बनाय।
ता चड़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥
हिंदुओं को :
पाथर पूजैं हरि मिलैं तो मैं पूजूँ पहार।
या तै वो चाकी भली, पीस खाए संसार॥
माया से सावधानी : संत कवियों ने माया से दूर रहने की उपदेश दिया। उसे महाठगिनी बताया है :
“साया सहाउताति हस जानी”
समाज सुधार की भावना : सभी संत कवि समाज सुधारक भी थे। उन्होंने जाति-पाति के आधार पर भेदभाव का विरोध किया।
भाषा-शैली : सभी संत कवियों ने सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया है। इसमें पूर्वी हिंदी, ब्रज, अवधी, पंजाबी, राजस्थानी आदि भाषाओं का मिश्रण है। इसे पंचमेल खिचड़ी भी कहा जाता है।
(ख) प्रेममार्गी शाखा (सूफ़ी काव्य) : अधिकांश सूफ़ी कवि मुसलमान थे। वे एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। इन कवियों ने भी संतों की भाँति हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों के समन्वय पर बल दिया। ‘सूफ़’ शब्द में पवित्रता का भाव निहित है। सूफ़ियों की संपूर्ण साधना प्रेम पर आधारित थी। यही कारण है कि सूफियों ने हिंदू प्रेम-गाथाओं को अपने काव्य का आधार बनाया। सूफ़ी साहित्य में नारी-प्रेम और नारी-सौंदर्य ईश्वरीय प्रेम और सौंदर्य का पर्याय बनकर आया है।
प्रमुख कबिा : मलिक मुहम्मद जायसी, कुतुबन आदि।
प्रमुख रचना : ‘पद्मावत’ (महाकाव्य) जायसी द्वारा रचित।
प्रमुख विशेषताएँ है।
निर्गुण ईश्वर में विश्वास : सूफी कवि ईश्वर के एक होने, निर्गुण-निराकार होने में विश्वास रखते थे। जायसी ने लिखा है।
‘सुमिरौ आदि एक करतारु’
आत्मा-परमात्मा का स्वरूप : सूफ़ी कवियों ने अपने प्रेमाख्यानक काव्यों में ईश्वर को स्त्री रूप में तथा आका को पुरुष रूप में माना है।
गुरु की महिमा : संत कवियों के समान सूफी कवियों ने भी अपने काव्य में गुरु को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। सूफ़ी कवियों ने गुरु को ‘पीर’ कहा है। यही पीर साधना का मार्ग प्रशस्त करता है। जायसी ने लिखा है :
‘गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा बिन गुरु भगत को निरगुन पावा॥’
साधना की चार अवस्थाएँ : सूफी मत में साधना की चार अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है : (1) नासूत (2) मलकूत (3) मारिफ़त, (4) हकीकत। अंतिम अवस्था में साधक ‘अनहलक’ अर्थात् ‘मैं ब्रह्म हूँ’ कहने लगता है।
शैतान की कल्पना : सूफ़ी कवियों ने प्रिय की प्राप्ति (साधना मार्ग) में ‘शैतान’ को बाधक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है।
लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम की प्राप्ति : सूफ़ी कवियों का मानना है कि लौकिक (सांसारिक) प्रेम के माध्यम से ही अलौकिक प्रेम (ईश्वरीय प्रेम) को पाया जा सकता है। ‘पद्मावत’ महाकाव्य में राजा रत्नसेन (आत्मा) का जो प्रेम पद्मिनी के प्रति है, वह प्रत्यक्षतः लौकिक होते हुए भी अलौकिक प्रेम है।
रहस्यात्मकता : सूफ़ी कवियों की एक बड़ी विशेषता है-उनकी रहस्यात्मक उक्तियाँ। ‘पद्मावत’ में ” गढ़ तस बाँक जैसे तोरि काया” में पिंड में ही ब्रह्म की कल्पना है।
विरह-भावना : सूफ़ियों का विरह-वर्णन अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है। ‘नागमती विरह-वर्णन’ का एक उदाहरण प्रस्तुत है –
पिय सो कहेऊ संदेसड़ा, हो भोंरा हे काग।
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग।।
प्रतीक विधान : सूफ़ी कवियों ने प्रतीकों का आश्रय लेकर अपनी बात कही है। ‘पद्मावत’ के प्रतीक हैं :
राजा रलसेन – आत्मा का प्रतीक
– परमात्मा का प्रतीक
अलाउक्दीन – माया का प्रतीक
हीरामन तोता – गुरु का प्रतीक
भाषा-शैली : सूफ़ी कवियों ने अवधी भाषा की अपनाया है। दोहा-चौपाई छंद प्रयोग किए हैं। उपमा, रूपक, उत्त्रेक्षा, यमक आदि अनेक अलंकारों का प्रयोग किया है। इन्होंने मसनवी शैली अपनाई है।
सगुण काव्य-धारा
इसके अंतर्गत दो शाखाएँ आती हैं –
(क) कृष्ण भक्ति शाखा
(ख) राम भक्ति शाखा
(क) वृष्ण भक्ति शान्खा :
हिंदी का कृष्ण भक्ति शाखा का काव्य शुद्ध धार्मिक वातावरण में रचा गया। इस शाखा के प्रमुख कवि सूरदास हैं। कृष्ण भक्ति काव्य में ‘अष्टछाप’ के कवियों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ये कवि थे – सूरदास, परमानंददास, कुंभनदास, कृष्णदास, नंददास, चतुर्भजदास, छीतस्वामी एवं गोविंद स्वामी।
ये सभी कवि प्रतिभाशाली, कीर्तनकर्ता और अच्छे गायक थे। इनके ऊपर गोसाई विट्ठलनाथ ने अपने आशीर्वाद की छाप लगाई थी। अतः इन्हें ‘अष्टछाप’ के नाम से पुकारा जाने लगा।
कृष्ण भक्ति काव्य पर निम्नलिखित संप्रदायों के दर्शन का प्रभाव फड़ा है-
- वल्लभाचार्य का पुष्टिमार्ग
- चैतन्य महाप्रभु का गौडीय संप्रदाय
- गोस्वामी हित हरिवंश का राधा-वल्लभ संप्रदाय
- स्वामी हरिदास का सखी संप्रदाय।
अन्य प्रमुख कवि : 1. रसखान, 2. मीराबाई
(मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई)
प्रमुख विशेषताएँ –
कृष्ण लीला गान : सभी कृष्ण भक्त कवियों के आराध्य श्रीकृष्ण हैं। इन कवियों ने ‘भागवत पुराण’ के आधार पर कृष्ण-लीलाओं का मनोहर वर्णन किया है। इनमें लीला के अनेक रूप कल्पित किए गए हैं :
‘घोरी करत कान्ह धरि पाए।’
‘खेलत हरि निकसे ब्रज खोरी।’
वात्सल्य रस : कृष्ण भक्त कवियों ने बाल-कृष्ण वर्णन में वात्सल्स रस का परिवाक किया है-
‘जसोदा हरि पालने झुलाबैं
मेंरे लाल को आड री निदिरिया, काहे न आन सुवाबै।
बाल कृष्ण भी –
‘मैया में नहिं माखन खायौ।’
प शृंगार रस : कृष्ण काव्य शृंगार रस के दोनों पक्ष-संयोग और वियोग का प्रभावी अंकन हुआ है।
संयोग-
‘बूझत स्याम कौन तू गौरी’
वियोग-
‘बिन गोपाल बैरन भई कुंजें’
प निर्युण ईश्वर का विरोध : सूरदास ने उद्धव के माध्यम से गोपियों द्वारा निर्रुण ब्रह्म की खिल्ली उड़वाई है। वे पूछती हैं-
‘निर्गुण कौन दैस की बासी’
पुष्टिमार्ग का प्रभाव : कृष्ण भक्त कवियों की भक्ति का दार्शनिक आधार शुद्ध द्वैतावाद है। इसका व्यावहारिक रूप पुष्टिमार्ग है। इसके अनुसार जीव और ब्रह्म मूलतः एक होते हुए भी माया के कारण अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं।
भाषा-शैली : कृष्ण भक्त कवियों ने ब्रज भाषा को अपनाया है। इसमें माधुर्य गुण की प्रधानता है। प्राय: सभी अलंकारों यथा-उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विभावना आदि का प्रयोग किया है। इन्होंने पद-शैली अपनाई है। अनेक स्थल पर दोहा, चौपाई, सवैये आदि छंदों का प्रयोग मिलता है। रसखान के सवैये प्रसिद्ध हैं।
(ख) रामभक्ति शाखा :
रामकाव्य का साहित्यिक आधार संस्कृत काव्यों और नाटकों की परंपरा थी। रामभक्ति काव्य का मुख्य लक्ष्य राम के जीवन से सामाजिक आदर्श ग्रहण कर उसे समाज में स्थापित करना था। रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास हैं। इनके द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ जन-जन में लोकप्रिय है।
उनकी अन्य रचनाएँ हैं : रामललानहछू, बरवैरामायण, जानकी मंगल, दोहावली, कवितावली, विनय-पत्रिका आदि। राम काव्य परंपरा में केशवदास का भी विशेष स्थान है। उन्होंने रामचंड्रिका की रचना की।
प्रमुख विशेषताएँ –
राम का स्वरूप : रामकाव्य में राम उपास्यदेव हैं। वे परम ब्रह्म हैं। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। इनके राम विष्णु के अवत्तार हैं। उनमें शील, शक्ति एवं सौंदर्य का समन्वय है।
दास्य भाव की भक्ति : राम-काव्य में दास्य-भाव की भक्ति को स्वीकारा गया है। इनकी भक्ति की नवधा भक्ति भी कहा जाता है। इसमें श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन का मिला-जुला रूप है। इसमें भक्त स्वयं को मूढ़ मानता है-
ऐसी मूढ़ता या मन की
परहरि राम भगति-सुस्सरिता, आस करत ओसकन की।
मर्यादा/आदर्श की प्रतिष्ठा : रामकाव्य में सर्वत्र मर्यदा का पालन किया गया है। राम आदर्श राजा हैं, लक्ष्मण, भरत आदर्श भाई हैं, सीता आदर्श पत्नी हैं, हनुमान आदर्श सेवक हैं। सभी चरित्रों में आदर्श/मयादा की प्रतिष्ठा की गई है।
लोकमंगल की भावना : संपूर्ण रामकाव्य का उद्देश्य जनकल्याण या लोकमंगल की भावना को प्रसारित करना रहा है। तुलसीदास ने परोपकार को महत्त्व देते हुए लिखा है :
परहित सरिस धर्म नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥
समन्वय की भावना : रामकाव्य में सर्वत्र समन्वय की भावना परिलक्षित होती है।
काव्य रूपों की विविधता : राम काव्य में काव्य के सभी रूपों और शैलियों का प्रयोग किया गया है। ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य है, ‘जानकी मंगल’ खंडकाव्य है तो ‘गीतावली’ गीतिकाव्य है।
भाषा-शैली : ‘रामचरितमानस’ की भाषा अवधी है। ‘कवितावली’ और ‘विनय पत्रिका’ की रचना ब्रजभाषा में हुई है। दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया आदि छंदों को अपनाया गया है। सभी रसों का प्रयोग हुआ है।
पृष्ठभूमि : हिंदी साहित्य का आधुनिक काल का प्रारंभ सन् 1850 से माना जाता है। 1850 से 1900 ई० तक का काल ‘भारतेंदु युग’ के नाम से जाना जाता है। इसी युग से हिंदी गद्य का उद्भव हुआ। अभी तक ब्रजभाषा का प्रचलन था, पर अब ‘खड़ी बोली’ में भी रचनाएँ प्रारंभ हुई। राष्ट्र-प्रेम की भावना तथा पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हो चुका था।
इसके बाद 1900 से ‘द्विवेदी युग’ का आरंभ हुआ। महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक बने। उन्होंने हिंदी भाषा को व्याकरण-सम्मत बनाने का महान कार्य किया। इस युग में मैथिलीशरण गुप्त, श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी आदि कवि उभरे। मुंशी प्रेमचंद ने इसी युग में कथा-साहित्य रचना शुरू किया। द्विवेदी युग में इतिवृतात्मकता की प्रवृत्ति अधिक थी। इसी की प्रतिक्रियास्वरूप छायावाद का जन्म हुआ।
छायावाद का प्रारंभ : सन् 1918 के आस-पास हिंदी कविता में एक नई काव्य-धारा अवतरित हुई, जिसे छायावाद का नाम दिया गया। वैसे यह नाम काव्य-धारा की अस्पष्टता को लक्षित करके व्यंग्य रूप में दिया गया था। इस काव्यधारा पर अंग्रेजी की रोमांटिक काव्य-धारा का प्रभाव लक्षित होता है।
जयशंकर प्रसाद : ये छायावादी काव्य-धारा के प्रवर्तक और प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। उन्हीं की रचना ‘झरना’ से छायावाद का प्रारंभ माना जाता है।
छायावाद के बारे में अन्य साहित्यकारों के विचार
महादेवी वर्मा : “छायावाद इतिवृत्तात्मकता के विरुद्ध मनुष्य की सारी कोमल सूक्ष्म भावनाओं का विद्रोह है। छायावाद एक विशिष्ट सूक्ष्म सौंदर्यानुभूति है जिसने सहज, स्वाभाविक अभिव्यक्ति के लिए नूतन अभिव्यंजना प्रणाली का कोमलतम कलेवर अपनाया।”
डॉ० नगेंद्र : “स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह छायावाद है।”
जयशंकर प्रसाद : “कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना या देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य-वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमय अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे ‘छायावाद’ के नाम से अभिहित किया गया।’
हजारी प्रसाद द्विवेदी : “छायावाद एक विशाल सांस्कृतिक चेतना का परिणाम है।”
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि द्विवेदी युगीन सुधारवादी, उपदेशात्मक एवं इतिवृत्तात्मक (matter of fact) कविता नीरस एवं शुष्क हो चली थी। उसी से मुक्ति पाने के लिए कवियों ने प्रकृति की ओट ली। कवियों ने प्रकृति के माध्यम से अपने मन की सौंदर्य-चेतना को प्रकट किया। इस कविता का सौंदर्य-बोध नया है। इसकी अभिव्यंजना शैली नई है।
छायावाद के आधार स्तंभ कवि –
छायावादी काव्य की प्रमुख विशेष्राएँ (प्रद्धृत्तियाँ)
सौंदर्य चेतना : इस कविता की प्रमुख प्रवृत्ति सौंदर्यानुमूति है। छायावादी सौंदर्य-बोध अशरीर ओर अमूर्त है। छायावादी कवि प्रकृति में चेतना का आरोपण (मानवीकरण) करते हैं। यह सौंदर्य चेतना प्रकृति और नारी दोनों रूपों में प्रकट हुई है।
प्रकृति-सींदर्य :
ओ विभावरी!
चाँदनी का अंग राग, माँग में सजा पराग,
रश्मि तार बाँध मृदुल चिकुर भार री!
ओ विभावरी।
मानवीय सौंदर्य (अद्धा का)
प्रेम-भावना : छायावादी कविता में प्रेम विभिन्न रूपों में व्यक्त हुआ है। यह प्रकृति-प्रेम, नारी-प्रेम, अज्ञात सत्ता के प्रति प्रेम आदि रूपों में है।
पंतजी के प्रकृति-प्रेम का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
छोड़ दुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में,
कैसे उलझा दूँ लोचन?
प्रकृति के प्रतीकों के द्वारा छायावादी कविता में शृंगार-भाव की भी अभिव्यक्ति हुई है। निराला जी की प्रसिद्ध कविता ‘जूही की कली’ से एक उदाहरण द्रष्टव्य है :
बंद कंचुकी के खोल दिए सब प्यार से,
यौवन उभार ने।
पल्लव-पर्यंक पर सोती शेफालिके,
मूक आह्नान भरे लालसी कपोलो के!
व बैयकितकता : छायावादी कविताओं में वैयक्तिक भावनाओं का चित्रण हुआ है। इसमें कवि अपने ‘स्व’ को प्रमुखता देता है। महादेवी वर्मा कह उठती हैं :
मैं नीर भरी दुख क्की बबदली।
उमड़ी क्रल श्री, मिट आत्र च्नली।
छायावादी कवि पलायनवादी हो जाता है :
‘ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे।
रहस्य-भाबना : छायावादी कविता में रहस्य की भावना प्रमुखता के साथ व्यक्त हुई है। आचार्य शुक्ल ने तो छायावाद का अर्थ रहस्यवाद के संदर्भ में ही किया है।
पंत जी कहते हैं :
मा जानि नक्षान्तों सी कौन ?
तिसंज्रा क्षैता गुझकी मौना।
महादेवी वर्मा भी अपने अज्ञात प्रियतम के लिए कहती हैं-
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल,
प्रियतम का पथ आलोकित कर।
वेदनानुभुति : छायावादी कविता में वेदना, करुणा और निराशा के भावों की अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद जी ‘आँसू’ काव्य में लिखते हैं :
जो धनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छाई।
दुर्दिन में आँसू बनकर,
वह आज बरसने आई।
महादेवी वर्मा तो पीड़ा में ही अपने प्रियतम को खोजती हैं :
तुमको पीड़ा में ढूँबा,
तुममें हूँदूँगी पीड़ा।
नारी के प्रति उदात्त दृष्टिकोण : छायावादी काव्य में नारी को वासना-तृप्ति की साधन न मानकर उसे पुरुष की प्रेरणादायिनी, जीवन-संगिनी और सहयोगिनी माना है। प्रसाद जी लिखते हैं :
नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पग-तल में,
पीयूष स्रोत-सी बहा करो,
जीवन के सुंदर समतल में॥
राष्ट्रीयता की भावना : छायावादी कविता में भारत के अतीत का गौरव-गान हुआ है। प्रसाद जी ने ‘चंद्रगुप्त’ नाटक में कार्नेलिया के मुख से कहलवाया है :
अरूण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक किनारा।
प्रकृति का मानवीकरण (Personification) : छायावादी काव्य की यह एक प्रमुख प्रवृत्ति है। इन कवियों ने प्रकृति में मानवीय भावों का आरोपण किया है।
जयशंकर प्रसाद :
‘उषा सुनहरे तीर बरसती, जय लक्ष्मी-सी उदित हुईः’
निराला :
दिवसावसान का समय,
मेघमय आसमान से उतर रही है।
वह संध्या सुंदरी, परी-सी धीरे-धीरे।
कल्पना की अतिशयता : दुखों और अभावों से भरे इस संसार की वास्तविकता से दूर स्वप्नों के संसार में जीने की प्रगाढ़ लालसा छायावादी कवियों की प्रमुख विशेषता है।
भाषा-शैली : छायावादी कवियों ने तत्सम शब्द प्रधान खड़ी बोली को अपनाया है। इसमें लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता का भरपूर समावेश है। इन कवियों ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण आदि अलंकारों का भरपूर प्रयोग किया है।
प्रमुख छायावादी कवियों का संक्षिप्त पर्टिचय
1. जयशंकर प्रसाद (1889-1937) : इन्हें छायावाद का प्रवर्तक माना जाता है। ये संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी भाषा के विद्वान थे। ये बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इनका महाकाव्य ‘कामायनी’ अत्यंत प्रसिद्ध रचना है। इनके अन्य काव्य हैं-आँसू, झरना, लहर, कानन-कुसुम आदि। नाटक हैं : चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, अजातशत्रु आदि।
2. सुमित्रानंदन पंत (1900-1977) : पंतजी को प्रकृति का सुकुमार कवि माना जाता है। इनकी कविताओं में प्रकृति-चित्रण देखते ही बनता है। इनकी काव्य-यात्रा के तीन पड़ाव हैं : छायावाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद (मार्क्सवाद)। इनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं : वीणा, पल्लव, गुंजन, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण-किरण, स्वर्ण धूलि, शिल्पी, चिंदबरा आदि। इन्हें ‘चिंदबरा’ पर ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ।
3. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (1896-1961) : इनका जन्म बंगाल के महिषादल जिले के मेदिनीपुर नामक गाँव में हुआ था। इनकी प्रथम कविता ‘जूही की कली’ बहुत लोकप्रिय हुई (1916)। ये मुक्तछंद के प्रवर्तक थे। पहले इन्होंने छायावादी कविताएँ लिखीं, फिर वे प्रगतिवाद की ओर झुक गए। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं – परिमल, अनामिका, नए पत्ते, राम की शक्ति पूजा, बादल राग, तुलसीदास (काव्य)।
उपन्यास : अलका, अप्सरा, निरुपमा।
4. महादेवी वर्मा (1907-1987) : ये छायावाद की प्रसिद्ध कवयित्री हैं। इनका जन्म फर्रूखाबाद में हुआ। संस्कृत में एम.ए, करने के बाद प्रयाग महिला विद्यापीठ से प्राचाया के पद पर रहीं। इनकी काव्य कृतियाँ हैं – यामा (ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त), नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा आदि।
इनका ‘अतीत के चलचित्र’ प्रसिद्ध संस्मरण संकलन है।
विषय : हिंदी भाषा : एक परिचय
भाषा क्या है? ‘भाषा’ शब्द ‘भाष्’ धातु से बना. है। इसका अर्थ है-बोलना। अतः जिन ध्वनियों को बोलकर मनुष्य अपनी बात कहता है, उसे भाषा कहा जाता है।
भाषा के ध्वनि-संकेत कुछ खास अर्थों में रूढ़ होते हैं अर्थात् किस प्रकार के ध्वनि-समूहों (शब्दों) से किस प्रकार का अर्थ व्यक्त होगा, इसका विधान हर भाषा में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए एक ही वस्तु के लिए हिंदी में जल, तमिल में ‘तन्नी’, उर्दू में आब तथा अंग्रेजी में ‘वाटर’ शब्द का प्रयोग होता है।
उपर्युक्त विवेचन से भाषा के निम्नलिखित लक्षण स्पष्ट होते हैं :
भाषा मूलतः ध्वनि-संकेतों की एक व्यवस्था है। यह मानव-मुख से निकली एक अभिव्यक्ति है।
यह विचारों के आदान-प्रदान का एक सामाजिक साधन है। – इनके शब्दों के अर्थ प्राय रूढ़ होते हैं। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं :
भाषा मानव-मुख से निकली वे सार्थक ध्वनियाँ हैं, जो दूसरों तक अपनी बात पहुँचाने का काम करती हैं।
भाषा के रूप : भाषा की अभिव्यक्ति दो रूपों में होती है :
(1) मौखिक (2) लिखित
– भाषा का मौखिक रूप मूल रूप है। इसे उच्चरित भाषा भी कहा जाता है। यह रूप मानव को सहज रूप से ही प्राप्त होता है।
– भाषा के लिखित रूप को सीखने के लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता है। इस रूप से भाषा की किसी भी रचना की लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
मनुष्य के जीवन और समाज के विकास-क्रम में भाषा का मौखिक रूप पहले आता है और लिखित रूप बाद में।
लिपि : मौखिक भाषा को स्थायी रूप देने के लिए लिखित भाषा का विकास हुआ। लिखित भाषा के लिए लिखित चिह्न या वर्ण बनाए गए। वर्णों की व्यवस्था ही लिपि है। वास्तव में लिपि ध्वनियों को लिखकर प्रस्तुत करने का ही ढंग है। हिंदी की लिपि देवनागरी है। संसार की विभिन्न भाषाओं की अपनी-अपनी लिपियाँ हैं।
सबसे प्राचीन लिपि ‘ब्राह्मी’ है। इसी से देवनागरी लिपि का विकास हुआ। ब्राही लिपि से ही बांग्ला, गुजराती आदि भाषाओं की लिपियाँ भी विकसित हुई। संस्कृत, हिंदी, मराठी आदि भाषाएँ ‘देवनागरी लिपि’ में लिखी जाती हैं।
भाषा-परिवार : संसार में हज़ारों भाषाएँ प्रचलित हैं। भाषाओं के परिवार भी होते हैं। ऐसी भाषाओं का समूह, जिनका जन्म एक ही मूल भाषा से हुआ हो, भाषा-परिवार कहलाता है। संसार की 3000 भाषाओं को 12 भाषा-परिवारों में बाँटा गया है। ये परिवार हैं :
- भारोपीय (भारत-यूरोपीय)
- द्रविड़
- चीनी-तिब्बती-बर्मी
- रोमेटिक
- हेमेटिक
- आग्नेय
- यूराल-अल्टाइक
- बाँटू
- अमेरिकी (रेड इंडियन)
- काकेशस
- सूडानी
- बुशमैन।
भारतीय भाषाएँ : – भारत की प्रमुख भाषाएँ दो परिवारों में बँंटी हैं : भारोपीय और द्रविड़ परिवार। तमिल, तेलुगु, कन्नड और मलयालम द्रविड़ परिवार की भाषाएँ हैं।
– भारोपीय परिवार का एक उप परिवार है-आर्य भाषा परिवार। इस परिवार में हिंदी, पंजाबी, सिंधी, गुजराती, मराठी, असमिया, उडिया, बंगला, कश्मीरी आदि भाषाएँ शामिल हैं।
इस भाषा परिवार का प्राचीनतम रूप हमें वैदिक संस्कृत में सुरक्षित मिलता है।
वैदिक संस्कृत से आधुनिक युग की भारतीय भाषाओं तक आने में इसे चार चरणों से गुजरना पड़ा :
- वैदिक संस्कृत (1500 ई०पू० से 800 ई॰पू॰ तक)
- लौकिक संस्कृत (800 ई०पू॰ से 500 ई॰पू० तक)
- पालि और प्राकृत (500 ई०पू० से 500 ई० तक)
- अपभ्रंश (500 ई० से 1000 ई० तक)
इस विकास-क्रम से स्पष्ट है कि द्रविड़-परिवार की भाषाओं को छोड़कर अन्य भारतीय भाषाओं का विकास अपभ्रंश से ही हुआ है।
हिंदी भाषा : उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिंदी भारतीय आर्य भाषा परिवार की भाषा है। संस्कृत भाषा से लेकर पालि, प्राकृत, अप्रभ्रंश आदि सोपानों से गुजरती हुई हिंदी आज समूचे भारत की संपर्क भाषा बन गई है। अब हिंदी का विकास अंतर्क्षत्रीय भाषा, राष्ट्रभाषा, राजभाषा और अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में हो रहा है। अब यह भाषा हमारे जन-जीवन, सामाजिक-सांस्कृतिक संप्रेषण, ज्ञान विज्ञान और सुजनात्मक साहित्य की भाषा के रूप में विकसित होकर पूरे विश्व की शिक्षा व्यवस्थाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुकी है। इसी का परिणाम है कि हिंदी अपने देश में मातृभाषा, प्रथम भाषा, द्वितीय भाषा आदि रूपों में पढ़ी-पढ़ाई जा रही है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1950 में हिंदी को राजभाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार राज्यों और दिल्ली एवं अंडमान-निकोबार संघ राज्य-क्षेत्रों में यह भाषा शासन और शिक्षा की भाषा है। बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब में इसका प्रयोग संपर्क भाषा के रूप में होता है। हिंदी सार्वदेशिक भाषा है।
भारत के संबिधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार- ‘संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी है।’
मानक हिंदी : भारत का भू-भाग विस्तृत है, अतः भाषा के स्वरूप में भिन्नता का आना स्वाभाविक ही है। अतः भाषा की एकरूपता और उसमें अनुशासन बनाए रखने के लिए उसके मानक रूप की आवश्यकता होती है। शिष्ट और सुशिक्षित लोगों द्वारा प्रयुक्त व्याकरण सम्मत भाषा-रूप ही मानक रूप कहलाता है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय (मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार) ने हिंदी वर्तनी का मानकीकरण इस प्रकार किया है :
– मानक हिंदी स्वर : अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।
– कुछ व्यंजनों का मानक रूप : ख छ, झ ध।
– पंचम वर्ण (बिंदु का प्रयोग) : गंगा, चंपक, झंडा।
प्रयोजनमूलक हिंदी : इसके मुख्यतः चार प्रकार हैं :
- कार्यालयी हिंदी : तत्काल, गोपनीय, आवश्यक कार्रवाई आदि।
- तकनीकी हिंदी : अल्फा, बीटा, गामा, प्रौद्योगिकी आदि।
- वाणिज्यिक हिंदी : चाँदी भड़की, सोना नरम, बाजार उछला आदि।
- जनसंचारी हिंदी : मुक्केबाजी, वक्तव्य, बाइट, साक्षात्कार आदि।
हिंदी की उपभाषाओं और बोलियों को इस तालिका से भली-भाँति समझा जा सकता है :
भाषा बोली-क्षेत्र तालिका
12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers
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