कुटज Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 21 Summary
कुटज – हजारी प्रसाद द्विवेदी – कवि परिचय
प्रश्न :
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेवी का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं तथा भाषा शैली की विशेषताएँ लिखो।
उत्तर :
जीवन-परिचय : हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया जिले में “दूबे का छपरा” नामक ग्राम में सन् 1907 ई. में हुआ। आपके पिता पं. अनमोल द्विवेदी ने पुत्र को संस्कृत एवं ज्योतिष के अध्ययन की ओर प्रेरित किया। आपने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से साहित्याचार्य एवं ज्योतिषाचार्य की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। सन् 1940 से 1950 ई. तक द्विवेदी जी ने शांति निकेतन में हिंदी भवन के निदेशक के रूप में कार्य किया। सन् 1950 ई. में द्विवेदी जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष नियुक्त हुए। सन् 1960 से 1966 ई. तक वे पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे। इसके उपरांत आपने भारत सरकार की हिंदी संबंधी योजनाओं के कार्यान्वयन का दायित्व ग्रहण किया। आप उत्तर प्रदेश सरकार की हिंदी ग्रंथ अकादमी के शासी मंडल के अध्यक्ष भी रहे। 19 मई, 1979 ई. को दिल्ली में इनका देहावसान हुआ। द्विवेदी जी का अध्ययन क्षेत्र अत्यंत व्यापक था। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बंगला आदि भाषाओं एवं इतिहास, दर्शन, संस्कृति, धर्म आदि विषयों में उनकी विशेष गति थी। इसीलिए उनकी रचनाओं में विषय-प्रतिपादन और शब्द-प्रयोग की विविधता मिलती है।
रचनाएँ : हिंदी निबंधकारों में आचार्य रामचंंर शुक्ल के पश्चात् द्विवेदी का प्रमुख स्थान है। वे उच्च कोटि के निबंधकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं :
निबंध-संग्रह : (1) अशोक के फूल (2) विचार और वितर्क (3) कल्पलता (4) कुटज (5) आलोक पर्व।
आलोचनात्मक कृतियाँ : (1) सूर-साहित्य (2) कबीर (3) हिंदी साहित्य की भूमिका (4) कालिदास की लालित्य योजना।
उपन्यास : (1) चारुचंद्रलेख (2) बाणभट्ट की आत्मकथा (3) पुनर्नवा
द्विवेदी जी की सभी रचनाएँ ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली’ के ग्यारह भागों में संकलित हैं।
भाषा-शैली : द्विवेदी जी की भाषा सरल होते हुए भी प्रांजल है। उसमें प्रवाह का गुण विद्यमान है तथा भाव-क्यंजक भी है। व्यक्ति व्यंजकता और आत्मपरकता उनकी शैली की विशेषता है।
द्विवेदी जी की भाषा अत्यन्त समृद्ध है। उसमें गंभीर चिंतन के साथ हास्य और व्यंग्य का पुट सर्वत्र मिलता है। बीच-बीच में वे संस्कृत के साहित्यिक उद्धरण भी देते चलते हैं। भाषा भावानुकूल है। संस्कृत की तत्सम शब्दावली के मध्य मुहावरों और अंग्रेजी, उर्दू आदि के शब्दों के प्रयोग से भाषा प्रभावी तथा ओजपूर्ण बन गई है। गंभीर विषय के बीच-बीच में हास्य एवं व्यंग्य के छीटे मिलते हैं। उनकी गद्य-शैली हिंदी-साहित्यकार के लिए वरदान स्वरूप है। उन्होंने हिंदी की गद्य शैली को एक नया रूप दिया है।
पाठ का संक्षिप्त परिचय –
‘कुटज’ हिमालय पर्वत की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला एक जंगली फूल है इसी फूल की प्रकृति पर यह निबंध ‘कुटज’ लिखा गया है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए एक संदेश पाया है। ‘कुटज’ में अपराजेय जीवनशक्ति है, स्वावलंबन है, आत्मविश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी शान के साथ जीने की क्षमता है। वह समान भाव से सभी परिस्थितियों को स्वीकारता है। सामान्य से सामान्य वस्तु में भी विशेष गुण हो सकते हैं यह जताना इस निबंध का अभीष्ट है।
Kutaj Class 12 Hindi Summary
इस पाठ में लेखक शिवालिक पर्वतशृंखला पर उगने वाले कुटज वृक्ष के बारे में बताता है। कहा जाता है कि पर्वत शोभा के घर होते हैं। हिमालय को तो ‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाता है। लोग इसे शिवालिक श्रृंखला कहते हैं। शिवालिक या शिव की जटाजूट का निचला हिस्सा प्रतीत होता है। संपूर्ण हिमालय को देखकर समाधिस्थ महादेव की मूर्ति स्पष्ट होती है। यहाँ की काली-काली चट्टानों और उनके बीच की शुष्कता को सहकर भी कुछ ठिगने से दरख्त गर्मी की भयंकर मार को झेलकर जी रहे हैं। ऊपर से ये वृक्ष बेहया, मस्तमौला प्रतीत होते हैं।
पर ये पत्थरों की छाती को फाड़कर गहरी खाइयों से अपना भोग्य खींच ही लेते हैं। ये वृक्ष मुस्कुराते रहते हैं। इन्हीं में एक बहुत ही ठिगना-सा पेड़ है। लेखक इसका नाम याद करने का प्रयास करता है। नाम के बिना रूप की पहचान अधूरी रह जाती है। लेखक कहता है कि यदि इस वृक्ष को नाम की ही जरूरत हो तो कई नाम दिए जा सकते हैं; जैसे- सुस्मिता, गिरिकांता, वनप्रभा, शुभ्र किरीटिनी, मदोद्धता, विजितातपा, अलकावसंता आदि।
इसे पौरुष व्यंजक नाम भी दिए जा सकते हैं; जैसे-अकूतोभय, गिरिगौरव, कूटोल्लास, अपराजित, धरतीधकेल, पहाड़फोड़, पातालभेद आदि। पर नाम तो वह होना चाहिए जिसे समाज की स्वीकृति मिली हो, इतिहास द्वारा प्रमाणित हो और लोगों के चित्त में बसा हो। अचानक लेखक को याद आता है कि इस ठिगने से वृक्ष का नाम तो कुटज है।
यह संस्कृत साहित्य का परिचित है, पर कवियों ने इसकी उपेक्षा की है। वैसे इस वृक्ष को ‘कूटज’ कहने में विशेष आनंद मिलता है। यह मनोहारी फूलों के गुच्छों से झबराया रहता है। कालिदास ने यक्ष द्वारा मेघ की अभ्यर्थना कराते समय कुटज पुष्पों की अंजलि ही दिलाई थी। उन्हें रामगिरि पर भी उस समय कोई फूल न मिला होगा। ऐसा लगता है कि कुटज मुसीबत का साथी है। जो फूल कालिदास के काम आया, उसे ज्यादा इज्जत मिलनी चाहिए थी पर इन्जत मिलना तो भाग्य की बात है। यढ दुनिया बड़ी स्वार्थी है, अपने मतलब से मतलब रखती है। मतलब निकल जाने के बाद चूसकर छिल्का, गुठली फेंक देती है। कवि रहीम भी लोगों की बेरुखी पर मुरझा गए थे और उन्होंने इसी मन:स्थिति में बेचारे कुटज को चपत लगा दी :
वे रहीम अब बिरछ कहँ, जिनकर दाँह गंभीर।
बागन बिच-बिच देखियत, सेंहुड़ कुटज करीर।
अर्थात् ‘कुटज’ अदना-सा बिरछ (वृक्ष) हो। क्या छाया ही सब कुछ है, फूल का तो सम्मान होना चाहिए था। अब लेखक ‘कुटज’ शब्द पर जाता है। ‘कुट’ घड़े को भी कहते हैं। कहा जाता है कि घड़े से उत्पन्न होने के कारण प्रतापी अगस्त्य मुनि को भी ‘कुटज’ कहा जाता था। संस्कृत में ‘कुटिहारिका’ और ‘कुटकारिका’ दासी को कहते हैं। एक जरा गलत ढंग की दासी ‘कुटनी’ कहलाती है। संस्कृत में उसकी गलतियों को मुखर बनाने के लिए ‘कुटृनी’ कह दिया जाता है। पर कुटज तो जंगल का सैलानी वृक्ष है। फिर ये शब्द आया कहाँ से ? यह शब्द आर्य जाति का तो मालूम नहीं पड़ता। सिलवाँ लेवी ने कहा है कि संस्कृत भाषा में फूलों, वृक्षों और खेत-बागवानी के अधिकांश शब्द आग्नेय भाषा परिवार के हैं। भारत की अनेक जातियाँ वह भाषा बोलती हैं। अय हम इसे कोल परिवार की भाषा कहने लगे हैं। संस्कृत भाषा के अनेक शब्द इसी श्रेणी की भाषा के हैं। संस्कृत सर्वग्रासी भाषा है।
कुटज का पौधा नाम और रूप दोनों में अपराजेय जीवनी शक्ति की घोषणा करता है। इसकी शोभा मादक है। यह भयंकर गर्मी की लू के थपेड़े खाकर भी हरा-भरा रहता है। जब हिमालय से निकलने वाली नदियाँ अपना रास्ता खोज रही छोती हैं तब चट्टानों की ऊबड़-खाबड़ सूखी, नीरस भूमि पर कुटज आसन मारे बैठकर दिखाई देता है यह पाताल की छाती चीरकर भी अपना प्राप्य वसूल लेता है, भोग्य खींच लेता है। इसकी जीवन-शक्ति का पार नहीं पाया जा सकत्ता। जीना भी एक कला है। संसार अपने मतलब के लिए जी रहा है।
दिखाने के लिए देशोद्धार का नारा लगाया जाता है। साहित्य और कला की महिमा गाई जाती है, पर सब झूठ है। सभी कोई इनके द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है। लेखक का कहना है कि क्यक्ति की आत्मा केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, वह व्यापक है। व्यक्ति को अपने आपको सर्व के लिए न्यौछावर कर देना चाहिए। कुटज क्या केवल जीता है ? वह आत्मसम्मानी है। वह किसी के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता। वह नीति, धर्म का उपदेश देता नहीं फिरता, किसी की चापलूसी नहीं करता, वह बगलें नहीं झाँकता।
वह तो यह संदेश देता है कि चाहे सुख हो या दुःख हो, सोल्लास ग्रहण करो, शान के साथ जिओ, हार मत मानो। ऐसा व्यक्ति निश्चय ही विशाल हृदय होगा। पता नहीं कुटज को ऐसी निर्भीक जीवन-दृष्टि कहाँ से मिली। जो यह समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है, वह अबोध है और जो यह समझता है कि दूसरे उसका अपकार कर रहे हैं वह भी मूर्ख हैं। सुख पहुँचाने का अभिमान गलत है तो दुःख पहुँचाने का अभिमान भी नितांत गलत है।
दु:ख और सुख तो मन के विकल्प हैं। जिसका मन वश में है वह सुखी है, जिसका मन परवश में है वह दुःखी है। यहाँ परवश होने का अर्थ है-खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता करना। जिसका मन वश में नहीं होता वही दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। कुटज इन सभी मिथ्याचारों से मुक्त है। वह वैरागी है। वह राजा जनक की तरह संसार में रहकर भी, संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है। कुटज अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने ऊपर सवार नहीं होने देता। कुटज धन्य है।
शब्दार्थ एवं टिप्पणी –
अंतर्निरुद्ध = भीतरी रुकावट (Internal hinderence), गह्नर = गहरा, (Deep), द्वंद्वातीत = द्वंद्ध से परे (Out of perplexity), बेहाया = बेशर्म (Shameless), रक्ताभ = रक्त की आभा (Redislhs), मस्तमौला – मस्ती भरा (Carefree), समष्टि = मिला-जुला रूप (Combined), मदोद्धता = नशे या गर्व से चूर (Toxicated), विजितातपा = धूप को दूर करने वाली (Awayfrom Sunshine), अकुतोभय = जिसे कहीं या किसी से भय न हो, नितांत भयशून्य (Fearless), अवमानित = अपमानित, तिरस्कृत (Insulted), विरुद = कीर्ति-गाथा, प्रशंसासूचक पदवी (Fame), स्तबक = गुच्छा, फूलों का गुच्छा (Bunch offlowers),
लोल = चंचल, हिलता-डोलता (In movement), फकत = अकेला, केवल, एकमात्र (Lonely), अनंत्युच्च = जो बहुत ऊँचा न हो (Not very high), अविच्छेद्य = विच्छेद रहित (Without break), स्फीयमान = फैलता हुआ, विस्तृत, व्यापक (Spread over), मूर्धा = मस्तक, सिर (Head), दुरंत – जिसका पार पाना कठिन हो, प्रबल (Powerful), कार्पण्य = कृपणता, कंजूसी (Miserness), उपहत = चोट खाया हुआ, घायल नष्ट (Wounded) निपोरना = खुशामद करना, दिखाना (Flattery), अवधूत = विरक्त, संन्यासी (Unattached, Saint), नितरां = बहुत अधिक (Too much), मिथ्याचार – झूठा आचरण (False behaviour)।
कुटज सप्रसंग व्याख्या
1. संपूर्ण हिमालय को देखकर ही किसी के मन में समाधिस्थ महादेव की मूर्ति स्पष्ट हुई होगी। उसी समाधिस्थ महादेव के अलक-जाल के निचले हिस्से का प्रतिनिधित्व यह गिरि-भृंखला कर रही होगी। कहीं-कहीं अज्ञात-नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ खड़े अवश्य दिख जाते हैं, पर और कोई हरियाली नहीं। दूब तथ: सूख गई है। काली-काली चटृनों और बीच-बीच में शुष्कता की अंतर्निरुद्ध सत्ता का इजहार करने वाली रक्ताभ रेती! रस कहाँ हैं? ये जो ठिंगने-से लेकिन शानदार द्ररख्त गर्मी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जा रहे हैं, इन्हें क्या कहूँ ? सिर्फ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी नहीं रहे हैं। बेहया हैं क्या ? या मस्तमौला हैं ? कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफी गहरी पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्नर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित विचारोत्तेजक निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज के स्वरूप, मस्तमौलापन एवं उसकी सहनशीलता को दर्शाता है।
व्याख्याः ‘लेखक हिमालय को देखता है तो उसे लगता है कि सारे हिमालय को देखकर किसी के मन को लगा होगा कि यह तो समाधिस्थ महादेव (शिव) की मूर्ति है। उसी महादेव की जटाएँ फैलकर हिमालय के निचले भाग का प्रतिनिधित्व पर्वत शृंखलाएँँ कर रही होगीं। इस पर्वत पर कहीं कोई हरियाली दिखाई नहीं देती, हाँ, कहीं-कहीं बिना नाम के झाड़-झंखाड़ और बेशर्म से खड़े पेड़ अवश्य दिखाई दे जाते हैं। यहाँ तो घास तक सूख गई प्रतीत होती है।
चारों ओर काली-काली चट्वानें हैं और बीच-बीच में सूखी लाल रेत है, जिससे शुष्कता का पता चलता है। इसमें रस तो कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता। यहाँ कुछ छोटे कद के पेड़ अवश्य हैं जो गर्मी की भयंकरता को झेल रहे हैं और भूखे-प्यासे रहकर भी जी रहे हैं। इन्हें भला क्या कहना चाहिए ? ये केवल जीवित ही नहीं हैं बल्कि प्रसन्न हैं। इन्हें बेहया या मस्तमौली ही कहा जा सकता है। लेखक व्यंग्य करता है कि कभी-कभी कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं जो ऊपर से तो बेशर्म दिखाई देते हैं, पर उनकी पहुँच बहुत दूर तक होती है। वे बड़े गहरे पैठे होते हैं। इनमें इतनी जिजीविषा होती है कि ये पत्थर की छाती को भी फोड़कर गहरी खाई के बीच से भी अपना भोजन पा लेते हैं।
विशेष :
- लेखक हिमालय की शिवालिक पर्वतमाला के शुष्क वातावरण का यथार्थ अंकन करने में सफल है।
- कुटज की जिजीविषा का वर्णन हुआ है।
- हास्य-व्यंग्य शैली का अनुसरण किया गया है।
2. दुनिया में त्याग नहीं है, प्रेम नहीं है, परार्थ नहीं है, परमार्थ नहीं है-है केवल प्रचंड स्वार्थ। भीतर की जिजीविषा – जीते रहने की प्रचंड इच्छा ही-अगर बड़ी बात हो तो फिर यह सारी बड़ी-बड़ी बोलियाँ, जिनके बल पर दल बनाए जाते हैं, शत्रुमर्दन का अभिनय किया जाता है, देशोद्धार का नारा लगाया जाता है, साहित्य और कला की महिमा गाई जाती है, झूठ है। इसके द्वारा कोई-न-कोई अपना बड़ा स्वार्थ सिद्ध करता है। लेकिन अंतरतर से कोई कह रहा है, ऐसा सोचना ग़लत ढंग से सोचना है। स्वार्थ से भी बड़ी कोई-न-कोई बात अवश्य है, जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। याज्ञवल्क्य ऋषि बहुत बड़े ब्रह्मवादी थे। उन्होंने अपनी पत्नी को यह बात समझाने की कोशिश की थी इस संसार में सभी कुछ स्वार्थ के लिए है।
व्याख्या : उन्होंने कहा कि त्याग की बात करना बेमानी है, कहीं कोई त्याग या प्रेम नहीं है, न कोई किसी का उपकार करता है। सभी ओर है तो केवल घोर स्वार्थ। लेखक प्रश्न उठाता है कि अगर जीवित रहने की इच्छा प्रबल होती तो फिर अन्य सभी बातों का क्या महत्त्व रह जाता है। लोग बड़े-बड़े दल बनाते हैं, शत्रुओं के नाश का अभिनय किया जाता है, देश के उद्धार की लंबी-चौड़ी बातें की जाती हैं, साहित्य और कला का गुणगान किया जाता है। सब बेकार हो जाता है। क्या इनके द्वारा भी कोई अपना स्वार्थ सिद्ध करता है ? यदि ऐसा सोचा जाता है तो यह सोच गलत है। स्वार्थ ही सब कुछ नहीं है बस्कि स्वार्थ से भी बड़ी चीज कोई जरूर है। जिजीविषा तो है ही, पर उससे भी कोई अन्य प्रचंड शक्ति अवश्य है। अत: लेखक याजवल्क्य की धक्कार बात को अंतिम मानने को कतई तैयार नहीं है। संसार स्वार्थ के वशीभूत ही नहीं चल रहा, कोई बड़ी शक्ति इसे चला रही है।
विशेष :
- तर्कपूर्ण एवं चिंतनपूर्ण शैली का अनुसरण किया गया है।
- तत्सम शब्दों का प्रयोग है।
3. कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़े काफी गहरी पैठी रहती हैं। वे भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्नर से अपना भाग्य खींच लाते हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक ने कुटज के माध्यम से अपराजेय जीवन शक्ति और अपना भोग्य प्राप्त करने का संदेश दिया है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि कभी-कभी ऊपर से बेशर्म दिखने वाले व्यक्ति काफी तत्वज्ञानी होते हैं। उनसे कुछ भी कहिए, वे हँसते ही रहते हैं। कुटज भी ऊपर से बेहया दिखाई देता है क्योंकि वह काफी मस्तमौला स्वभाव का है। ऐसे लोग अपना भोग्य वसूल करने में बड़े जागरूक रहते हैं। वे उस स्थान से भी अपना प्राप्य वसूल लेते हैं जहाँ से कुछ भी पाना संभव नहीं होता। कुटज बाहर से भले ही सूखा और नीरस प्रतीत होता हो पर इसकी जड़ पत्थर को छाती को भी फोड़कर गहराई तक चली जाती हैं और पाताल की गहराई से भी अपना भोजन खींच लेती हैं। तभी तो विषम परिस्थितियों में भी उसका अस्तित्व बना रहता है।
विशेष :
- कुटज की विशेषता पर प्रकाश डाला गया है।
- तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
- विषयानुकूल भाषा का प्रयोग है।
4. मन नहीं मानता। नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं कि जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सेक्सन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नात।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कुटज के नाम को लेकर द्विविधा में जान पड़ता है।
व्याख्या : प्रश्न उठता है-रूप बड़ा है या नाम ? लेखक नाम को बड़ा बताता है। नाम के बिना उसका मन नहीं मानता। उसका कहना है कि नाम इसलिए बड़ा है क्योंकि नाम में सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। नाम का अपना अलग महत्व है। रूप तो व्यक्ति-सत्य होता है। रूप का संबंध व्यक्ति तक सीमित रहता है जबकि नाम का संबंध समाज के साथ होता है। नाम वह पद होता है जिस पर समाज अपनी मुहर लगा देता है अर्थात् मान्यता प्रदान कर देता है। आधुनिक युग इसी को सोशल सैंक्शन (Social Sanction) कहा जाता है। इसी कारण नाम का महत्त्व होता है। लेखक भी इस वृक्ष का वह नाम जानना चाहता है जिसे समय ने स्वीकार किया हो तथा इतिहास ने प्रमाणित किया हो। यह नाम लोगों के मन में समाया हुआ होना चाहिए।
इस प्रकार लेखक नाम का महत्त्व दर्शाता है।
विशेष :
- लेखक नाम को सामाजिक स्वीकृति आवश्यक मानता है।
- तर्कपूर्ण शैली अपनाई गई है।
5. कुटज के ये सुंदर फूल बहुत बुरे तो नहीं हैं। जो कालिदास के काम आया हो उसे ज्यादा इज्जत मिलनी चाहिए। मिली कम है पर इज्जत तो नसीब की बात है। रहीम को मैं बड़े आदर के साथ स्मरण करता हुँ। दरियादिल आदमी थे पाया सो लुटाया। लेकिन दुनिया है कि मतलब से मतलब है, रस चूस लेती है, छिलका और गुठली फेंक देती है। सुना है, रस चूस लेने के बाद रहीम को भी फेंक दिया गया था। एक बादशाह ने आदर के साथ बुलाया, दूसरे ने फेंक दिया! हुआ ही करता है। इससे रहीम का मोल घट नहीं जाता। उनकी फक्कड़ाना मस्ती कही गई नही। अच्छे-भले कद्रदान थे लेकिन बड़े लोगों पर भी कभी-कभी ऐसी वितृष्णा सवार होती है कि गलती कर बैठते हैं। मन खराब रहा होगा, लोगों की बेरुखी और बेकद्रदानी से मुरझा गए होंगे-ऐसी ही मनःस्थिति में उन्होंने बिचारे कुटज को भी एक चपत लगा दी। झुँझलाए थे, कह दियावे रहीम अब बिरछ कहाँ, जिनकर छाँह गंभीर; बागन बिच-बिच देखियत, सेंहुड़ कुटज करीर।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक लोगों द्वारा कुटज को महत्त्व न दिए जाने का बुरा मानता है।
व्याख्या : कुटज के फूल बड़े सुंदर होते हैं। इन्हें बुरा नहीं कहा जा सकता। ये फूल कभी कालिदास के काम आए थे। उसके यक्ष ने इन्हीं फूलों से मेघ की अभ्यर्थना की थी। इसी कारण से भी उन्हें सम्मान मिलना ही चाहिए था, पर वह मिला नहीं। सम्मान मिलना तो भाग्य की बात है। शायद कुटज के भाग्य में सम्मान मिलना न हो। लेखक कवि रहीम का बड़ा आदर करता है। वे खुले दिल के आदमी थे। उन्होंने लोगों पर खूब लुटाया, पर यह दुनिया बड़ी स्वार्थी है। यह बस अपना मतलब निकालती है, रस चूस लेती है और शेष को व्यर्थ समझकर फेंक देती है। रहीम का काव्य-रस चूसने के बाद उन्हें भी अनादर कर निकाल दिया गया था। एक बादशाह आदर सहित, दूसरे ने फेंक दिया।
ऐसा ही होता रहता है पर इससे रहीम का मूल्य नहीं घट जाता। वे तो वैसे ही फक्कड़-मस्त बने रहे। लोगों का स्वभाव ही ऐसा होता है। कभी-कभी उनके ऊपर वितृष्णा का ऐसा भाव सवार हो जाता है कि भूल कर बैठते हैं। रहीम का भी कभी-कभी मन ठीक नहीं रहा होगा। शायद लोगों की बेरुखी और कद्र न करने से उदास हो गए होंगे, तभी वे कुटज को भी अन्य साधारण वृक्ष की कोटि में लाए। कुटज को बाग का वृक्ष बता दिया, वह भी छायाविहीन। उन्होंने कहा कि अब ऐसे वृक्ष कहाँ रह गए हैं जिनकी गहरी छाया होती थी। अब बागों के बीच में सेंहुड़, कुटज और करीर के वृक्ष ही दिखाई देते हैं।
विशेष :
- कुटज के प्रति कवियों की उपेक्षा लेखक को खलती प्रतीत होती है।
- उद्यूं शब्दों का भरपूर प्रयोग है-दरियादिल, कद्रदान, बेरुखी आदि।
6. दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कथा में रुद्ध अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है। और मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरिकांतार में भी ऐसा मस्त बना हुआ है कि ईर्ष्या होती है। कितनी कठिन जीवन-शक्ति है प्राण ही प्राण को पुलकित करता है, जीवनी-शक्ति ही जीवनी शक्ति को प्रेरणा देती है।
उत्तर :
प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कवियों द्वारा उपेक्षित कुटज वृक्ष का गुणगान करता है।
व्याख्या – लेखक बताता है कि उसके सामने कुटज का एक लहलहाता हुआ पौधा खड़ा है। यह अपने नाम तथा रूप दोनों से अपनी हार न मानने वाली जीवन-शक्ति का सशक्त परिचय दे रहा है। इसके नाम में भी दम है और रूप में भी। यही इसके आकर्षण का रहस्य है। इसका यह नाम हजारों वर्ष से निरंतर चला आ रहा है। कितने ही नाम इस दुनिया में गुमनामी में खो गए, पर कुटज का नाम बना रहा है। संस्कृत की फैलती शब्दराशि में कुटज नाम लंबे समय से डटा हुआ है। यह बात तो नाम की हुई। इसके रूप की बात भी निराली है। लेखक इसकी मादक शोभा पर बलिहारी जाता है।
इसकी शोभा को क्रुद्ध यमराज भी कम नहीं कर पाता है। भीषण गर्मी, जब सारी धरती लू के कारण धधकती है, तब भी यह कुटज मुझझाने की बजाय हरा-भरा बना रहता है। इस पर गर्मी की मार को कोई असर नहीं पड़ता। बुरे स्वभाव के लोगों के कठोर चित्त से भी कठोर पत्थरों के नीचे रुके हुए अनजान जलस्रोत से अपने लिए रस खींचकर ले आता है और सरस बना रहता है। इसे देखकर हमें जलन होती है कि यह इस सूखे वन-क्षेत्र में भी कैसे इतना मस्त बना रहता है। लेखक इसकी जीवनी शक्ति की अपारतता को देखकर हैरान रह जाता है। प्राण ही प्राण को प्रसन्न करता है और इसकी जीवनी-शक्ति ही हमारी जीवनी शक्ति को प्रेरणा प्रदान करती है।
विशेष :
- लेखक कुटज के नाम, रूप और जीवन शक्ति की जमकर प्रशंसा करता है।
- तत्सम शब्दावली का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है।
7. दुरंत जीवन-शक्ति है। कठिन उपदेश है। जीना भी एक कला है लेकिन कला ही नहीं, तपस्या है। जियो तो प्राण ढाल दो जिंदगी में, मन ढाल दो जीवनरस के उपकरणों में! ठीक है लेकिन क्यों ? क्या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है ? सारा संसार अपने मतलब के लिए ही तो जी रहा है। याझ्ञवल्क्य बहुत बड़े ब्रह्यवादी ऋषि थे। उन्होंने अपनी पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिया नहीं होती-सब अपने मतलब के लिए प्रिय होते हैं-‘आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति!’ विचित्र नहीं है यह तर्क ? संसार में जहाँ कहीं प्रेम है, सब मतलब के लिए।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हिंदी के प्रसिद्ध निबंधकार हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कुटज के रूप, नाम और स्वभाव से अत्यधिक प्रभावित है। वे इसे एक प्रेरक वृक्ष के रूप में देखते हैं।
व्याख्या : कुटज में प्रबल जींवन-शक्ति के दर्शन होते हैं। कुटज को देखकर पता चलता है कि जीवन कैसे जिया जाता है। जीना एक कला है। इस कला को हर व्यक्ति नहीं जानता। यह केवल एक कला ही नहीं है बल्कि एक प्रकार की तपस्या है। कुटज हमें बताता है कि इस प्रकार जिओ कि इसमें प्राण ढल जाए, मन ढल जाए। जीवन रसमय हो जाए। यह सब बात तो ठीक है, पर भला
ऐसा वयों है ? क्या हमें केवल जीने के लिए ही जीना है ? देखने में तो ऐसा ही लगता है क्योंकि यह संसार स्वार्थी है और कंवन अपने मतलब के लिए जी रहा है। याज्ञलल्क्य एक बड़े ही ज्ञानी ऋषि थे। उन्होंने बड़े ढंग से पत्नी को यह समझाने की कोशिश की कि इस संसार में सब कुछ स्वार्थ हेतु हो रहा है। सारे संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। पुत्र, पत्नी सब अपने मतलब के कारण ही त्रेय लगते हैं। उनका कहना था कि अपने काम सिद्धि के लिए ही सब संबंध प्रिय लगते हैं। क्या यह तर्क कुछ विचित्र लगता है ? ससार का प्रेम केवल मतलब के लिए है। यह सारी बात इसी को सिद्ध करती है कि जीना केवल जीने के लिए है। कुटज को देखकर लगता है कि जीवन एक कला है। कला के साथ एक तपस्या भी है।
विशेष :
- लेखक जीवन जीने के प्रति दृष्टिकोण के विभिन्न पक्षों का विवेचन करता जान पड़ता है।
- विवेचनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
8. याज्ञवल्क्य ने जो बात धक्कामार ढंग से कह दी थी वह अंतिम नहीं थी। वे ‘आत्मनः’ का अर्थ कुछ और बड़ा करना चाहते थे। व्यक्ति की ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, वह व्यापक है। अपने में सब और सबमें आप-इस प्रकार की एक समष्टि-बुद्धि जब तक नहीं आती तब तक पूर्ण सुख का आनंद भी नहीं मिलता। अपने आपको दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर जब तक ‘सर्व’ के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता तब तक ‘स्वार्थ’ खंड-सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय-कृपण-बना देता है। कार्पण्य दोष से जिसका स्वभाव उपहत हो गया है, उसकी दृष्टि म्लान हो जाती है। वह स्पष्ट नहीं देख पाता। वह स्वार्थ भी नहीं समझ पाता, परमार्थ तो दूर की बात है।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कुटज के जीवन को परापकार का पर्याय मानता है। वह याझबल्क्य के कथन पर अपना स्पष्टीकरण देता है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि ऋषि याज्ञवल्क्य ने अपनी बात धक्कामार ढंग से कही थी कि सांसारिक संबंध मतलब के कारण हैं। उनकी बात को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। ‘आत्मन:’ शब्द को व्यापक अर्थ में लेना होगा। आत्मा व्यक्ति तक सीमित नहीं रहती। वह परमात्मा का रूप (अंश) है अतः वह व्यापक है। यह आत्मा सभी में मौजूद है। हमारे अंदर समष्टि (समाज) दृष्टि का आना जरूरी है। केवल अपने बारे में ही, समस्त लोगों के बारे में सोचना होगा।
तभी हमें पूरे सुख का आनंद मिल सकेगा। हमें अपने आपको पूरी तरह निचोड़कर दूसरों के लिए (सभी के लिए) न्यौछावर करना होगा। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो स्वार्थ बना रहेगा, चाहे एक खंड के रूप में ही रहे। यह स्वार्थ भावना मोह को बढ़ावा देती है, मन में लालसा उत्पन्न करती है। इसी के कारण व्यक्ति दूसरों की दया का पात्र बन जाता है।
उसकी हालत दयनीय कंजूस की-सी हो जाती है। इस कंजूसी के कारण जिसका स्वभाव चोट खाया हो जाता है, उसकी दृष्टि तो धुंधली पड़ जाती है। इसी कारण वह साफ-साफ देख नहीं पाता। उसे तो स्वार्थ का भी होश नहीं रहता। उसके लिए दूसरों की भलाई की बात तो दूर की चीज है। भाव यह है कि व्यक्ति को अपनी आत्मा का विस्तार करना चाहिए। उसे स्वयं को दूसरों के लिए न्यौछावर कर देना चाहिए।
विशेष :
1. लेखक ने ‘आत्मन’ शब्द को व्यापक अर्थ में लिया है।
2. विवेचनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
9. कुटज क्या केवल जी रहा है। वह दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अवमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता। आत्मोन्नति हेतु नीलम नहीं धारण करता, अँगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है-काहे वास्ते किस डद्देश्य से ? कोई नहीं जानता। मगर कुछ बड़ी बात है। स्वार्थ के दायरे से बाहर की बात है। भीष्म पितामह की भाँति अवधूत की भाषा में कह रहा है-‘चाहे सुख हो या दुःख, प्रिय हो या अप्रिय’ जो मिल जाए उसे शान के साथ, हृदय से बिल्कुल अपराजित होकर, सोल्लास ग्रहण करो। हार मत मानो।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कुटज में अनेक विशेषताएँ देखता है। कुटज हमें ढंग से जीने का उपदेश देता है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि कुटज अपने ढंग से जीता है। केवल जीने के लिए ही नहीं जीता। वह स्वाभिमानपूर्वक जीता है। वह कभी दूसरों के दरवाजे पर भीख माँगने नहीं जाता। यदि कोई इसके पास आता है तो भी यह उससे डरता नहीं। वह डर के मारे अधमरा नहीं हो जाता। यह निडर है! यह आदर्शवादी भी नहीं है अत: दूसरों को नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता। यह आत्मसम्मानी है अत: दूसरों की चापलूसी नहीं करता। लेखक उन लोगों पर व्यंग्य करता है जो अफसरों के जूते चाटते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरों का बुरा चाहते हैं और इसके लिए ग्रहों की पूजा करते हैं।
अनेक लोग अपनी उन्नति के लिए नीलम आदि मूल्यवान पदार्थ पहनते हैं, उँगलियों में अनेक प्रकार की अँगूठियाँ पहनते हैं, दूसरों के आगे अपनी हीनता प्रकट करते। हैं या नजरें चुराते हैं। कुटज इन सब बातों से ऊपर है। वह तो शान के साथ जीता है। उसके उद्देश्य के बारे में कोई नहीं जानता। मगर कोई बड़ी बात अवश्य है।
कुटज तो किसी विरक्त संन्यासी की भाषा में यह कहता जान पड़ता है-चाहे तुम्हें सुख मिले, या दु:ख मिले अथवा कोई व्यक्ति या बात अच्छी लगे या वुरी लगे-सभी बातों को शान के साथ, पूरे दिल के साथ स्वीकार करो। मन में हार का भाव मत लाओ, सभी को उल्लासपूर्वक ग्रहण करना अच्छा रहता है। जीवन में कभी हार मत मानो, निराशा का भाव मत लाओ। यही कुटज के जीवन की शिक्षा है।
विशेष :
- कुटज का जीवन हमें प्रेरणा देता जान पड़ता है।
- सम्मानपूर्वक और अपराजित भाव से जीना ही जीना है-यह प्रतिपादित किया गया है।
- विवेचनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
10. दु:ख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी वह है जिसका मन वशं में है, दु:खी वह है जिसका मन परवश है। परवश होने का अर्थ है खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता, हाँ-हजूरी। जिसका मन अपने वश में नहीं है वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है, अपने को छिपाने के लिए मिथ्या आडंबर रचता है, दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। कुटज इन सब मिथ्याचारों से मुक्त है। वह वशी है। वह वैरागी है। राजा जनक की तरह संसार में रहकर, संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है। जनक की ही भाँति वह घोषणा करता है-‘मैं स्वार्थ के लिए अपने मन को सदा दूसरे के मन में घुसाता नहीं फिरता, इसलिए मैं मन को जीत सका हूँ, उसे वश में कर सका हूँ।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। कुटज का जीवन लेखक को प्रेरणादायक प्रतीत होता है।
व्याख्या : लेखक का कहना है कि दु:ख और सुख तो मन के दो भाव हैं। आप सुखी भी रह सकते हैं और दुःखी भी। जिस व्यक्ति का मन उसके वश में है, वह व्यक्ति सुखी है। जिसका मन दूसरों के वश में रहता है, वह दु:खी रहता है। लेखक ‘परवश’ को स्पष्ट करते हुए बताता है कि ‘परवश’ होने से तात्पर्य है-दूसरों की खुशामद करना, स्वयं को हीन समझना, चापलूसी करना, दूसरों की हाँ में हाँ मिलाना। जिस व्यक्ति का मन उसके अपने वश में नहीं रहता वही दूसरों के मन को बदलने के चक्कर में रहता है। वह अपना असली चेहरा छिपाने के लिए तरह-तरह के ढोंग रचता है, दूसरों को अपने जाल में फँसाने का उपक्रम करता रहता है।
कुटज इस प्रकार का नहीं है। वह इन गलत कामों से सर्वथा अलग रहता है। वह तो केवल अपने वश में रहता है। वैसे वह त्यागी प्रवृत्ति का है। उसकी दशा तो राजा जनक की तरह है अर्थात् वह इसी संसार में रहता है और सभी सुखों का उपभोग करता है फिर भी इनसे मुक्त रहता है अर्थात् भोग और त्याग में संतुलन बनाकर चलता है। कुटज स्वार्थी कतई नहीं है। वह दूसरों के मन में अपने मन को नहीं घुसाता। उसने अपने मन को जीत रखा है। अतः उसका मन उसी के वश में है। अतः वह सुखी है। मन पर काबू रखने वाला व्यक्ति सदा सुखी रहता है।
विशेष :
- लेखक सुख की दुःख और तात्विक समीक्षा कर अपने कथ्य को स्पष्ट करने में सफल है।
- विवेचनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
11. ये जो ठिगने-से लेकिन शानदार दरख्त गरमी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सह कर भी जी रहे हैं, इन्हें क्या कहूँ ? सिर्फ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी रहे हैं। बेहया हैं क्या ? या मस्तमौला हैं ? कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफी गहरी, पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्नर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित विचारोत्तेजक निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज के स्वरूप, मस्तमौलापन एवं उसकी सहनशीलता को दर्शाता है।
व्याख्या : लेखक हिमालय को देखता है तो उसे लगता है कि सारे हिमालय को देखकर किसी के मन को लगा होगा कि यह तो समाधिस्थ महादेव (शिव) की मूर्ति है। उसी महादेव की जटाएँ फैलकर हिमालय के निचले भाग (शिवालिक पर्वतमाला) का प्रतिनिधित्व कर रही होंगी। इस पर्वत पर कहीं कोई हरियाली दिखाई नहीं देती, हाँ कहीं-कहीं बिना नाम के झाड़-झंखाड़ और बेशर्म से खड़े पेड़ अवश्य दिखाई दे जाते हैं। यहाँ तो घास तक सूख गई प्रतीत होती है। चारों ओर काली-काली चट्टानें हैं और बीच-बीच में सूखी लाल रेत है, जिससे शुष्कता का पता चलता है।
इसमें रस तो कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता। यहाँ कुछ छोटे कद के पेड़ अवश्य हैं जो गर्मी की भयंकरता को झेल रहे हैं और भूखे-प्यासे रहकर भी जी रहे हैं। इन्हें भला क्या कहना चाहिए? ये केवल जीवित ही नहीं हैं बल्कि प्रसन्न हैं। इन्हें बेहया या मस्तमौला ही कहा जा सकता है। लेखक व्यंग्य करता है कि कभी-कभी कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं जो ऊपर से तो बेशर्म दिखाई देते हैं, पर उनकी पहुँच बहुत दूर तक होती है। वे बड़े गहरे पैठे होते हैं। इनमें इतनी जिजीविषा होती है कि ये पत्थर की छाती को भी फोड़कर गहरी खाई के बीच से भी अपना भोजन पा लेते हैं।
विशेष :
- लेखक हिमालय की शिन्नालिक पर्वतमाला के शुष्क वातावरण का यथार्थ अंकन करने में सफल है।
- कुटज की जिज़विषा का वर्णन हुआ है।
- रोचक शैली का अनुसरण किया गया है।
12. बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कृपित यमराज के दारूण निःश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है और मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरि-कांतार में भी ऐसा मस्त बना है कि ईष्या होती है। कितनी कठिन जीवनी-शक्ति है। प्राण ही प्राण को पुलकित करता है, जीवनी-शक्ति ही जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कवियों द्वारा उपेक्षित कुटज वृक्ष का गुणगान करता है।
व्याख्या – लेखक बताता है कि उसके सामने कुटज का एक लहलहाता हुआ पौधा खड़ा है। यह अपने नाम तथा रूप दोनों से अपनी हार न मानने वाली जीवन-शक्ति का सशक्त परिचय दे रहा है। लेखक इसकी मादक शोभा पर बलिहारी जाता है। इसकी शोभा को क्रुद्ध यमराज भी कम नहीं कर पाता है। भीषण गर्मी में जब सारी धरती लू के कारण धधकती है, तब भी यह कुटज मुरझाने की बजाय हरा-भरा बना रहता है। इस पर गर्मी की मार का कोई असर नहीं पड़ता।
बुरे स्वभाव के लोगों के कठोर चित्त से भी कठोर पत्थरों के नीचे रुके हुए अनजान जलस्रोत से अपने लिए रस खींचकर ले आता है और सरस बना रहता है। इसे देखकर हमें जलन होती है कि यह इस सूखे वन-क्षेत्र में भी कैसे इतना मस्त बना रहत्त है। लेखक इसकी जीवनी-शक्ति की अपारता को देखकर हैरान रह जाता है। प्राण ही प्राण को प्रसन्न करता है और इसकी जीवनी-शक्ति ही हमारी जीवनी-शक्ति को प्रेरणा प्रदान करती है।
विशेष :
- लेखक कुटज के नाम, रूप और जीवनी-शक्ति की जमकर प्रशंसा करता है।
- तत्सम शब्दावली का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है।
13. जो कालिदास के काम आया हो उसे ज्यादा इज्जत मिलनी चाहिए। मिली कम है। पर इज्जत तो नसीब की बात है। रहीम को मैं बड़े आदर के साथ स्मरण करता हूँ। दरियादिल आदमी थे, जो पाया सो लुटाया। लेकिन दुनिया है कि मतलब से मतलब है। रस चूस लेती है, छिलका और गुठली फेंक देती है। सुना है रस चूस लेने के बाद रहीम को भी फेंक दिया गया था।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक लोगों द्वारा कुटज को महत्त न दिए जाने का बुरा मानता है।
व्याख्या : कुटज के फूल बड़े सुंदर होते हैं। इन्हें बुरा नहीं कहा जा सकता। ये फूल कभी कालिदास के काम आए थे। उसके यक्ष ने इन्हीं फूलों से मेघ की अभ्यर्थना की थी। इसी कारण से भी उन्हें सम्मान मिलना ही चाहिए था, पर वह मिला नहीं। सम्मान मिलना तो भाग्य की बात है। शायद कुटज के भाग्य में सम्मान मिलना न हो। लेखक कवि रहीम का बड़ा आदर करता है। वे खुले दिल के आदमी थो। उन्होंने लोगों पर खूब लुटाया, पर यह दुनिया बड़ी स्वार्थी है।
यह बस अपना मतलब निकालती है, रस चूस लेती है और शेष को व्यर्थ समझकर फेंक देती है। रहीम का काव्य-रस चूसने के बाद उन्हें भी अनादर कर निकाल दिया गया था। एक बादशाह ने आदर दिया और दूसरे ने फेंक दिया। ऐसा ही होता रहता है पर इससे रहीम का मूल्य नहीं घट जाता। वे तो वैसे ही फक्कड़-मस्त बने रहे। लोगों का स्वभाव ही ऐसा होता है। कभी-कभी उनके ऊपर वितृष्णा का ऐसा भाव सवार हो जाता है कि भूल कर बैठते हैं।
विशेष :
- कुटज के प्रति कवियों की उपेक्षा लेखक को खलती प्रतीत होती है।
- उर्दू शब्दों का भरपूर प्रयोग है-दरियादिल, कद्रदान, बेरुखी आदि।
14. ये जो ठिगने से लेकिन शानदार दरख्त गरमी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जी रहे हैं, इन्हें क्या कहूँ ? सिर्फ़ जी ही नहीं रहे हैं, हैंस भी रहे हैं। बेहया हैं क्या ? या मस्तमौला हैं ? कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफ़ी गहरी, पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस प्रकार अतल गह्बर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित विचारात्मक निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कुटज की जीवनी शक्ति को देखकर हैरान होता है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि शिवालिक पर्वत श्रृंखला सूखी और नीरस है। यहाँ पानी का अभाव रहता है। फिर भी यहाँ जो ठिगने से कुटज के वृक्ष शान से खड़े और जीते हुए दिखाई देते हैं। ये कुटज के वृक्ष भयंकर गर्मी की मार झेलते रहते हैं। ये भूख प्यास की चोट को भी सहते हैं। यहाँ इन्हें भोजन तक प्राप्त नहीं होता। फिर भी जीते हैं। इनकी जिजीविषा की प्रशंसा करनी पड़ेगी।
ये केवल जीते हीं नहीं, हँसते भी रहते हैं। इन्हें बेहया (बेशर्म) भी नहीं कहा जा सकता। ये तो मस्तमौला हैं। कुछ लोग ऊपर से बेशर्म प्रतीत होते हैं, पर उनकी जड़ें गहरी होती हैं। कुटज के वृक्षों की जड़ें भी गहराई तक गई होती हैं। ये तो पत्थरों की छाती को चीरकर भी अपना भोजन खींच निकाल लेते हैं। गहरी खाई से भी अपना भोग्य खींच लेते हैं। इससे उनकी जिजीविषा का पता चलता है।
विशेष :
- कुटज के मस्तमौला स्वभाव का वर्णन किया गया है।
- वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है।
15. शिवालिक की सूखी नीरस पहाड़ियों पर मुसकुराते हूए ये वृक्ष द्वंद्वातीत हैं, अलमस्त हैं। मैं किसी का नाम नहीं जानता, कुल नहीं जानता, शील नहीं जानता पर लगता है, ये जैसे मुझे अनादि काल से जानते हैं। इन्हीं में एक छोटा-सा, बहुत ही ठिगना पेड़ है, पत्ते चौड़े भी हैं, बड़े भी हैं। फूलों से तो ऐसा लदा हुआ है कि कुछ पूछिए नहीं। अजीब सी अदा है, मुसकुराता जान पड़ता है। लगता है, पूछ रहा है कि क्या तुम मुझे भी नहीं पहचानते ?
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित विचारात्मक निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। कुटज हिमालय पर्वत की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला एक जंगली फूल है। कुटज में न विशेष सौंदर्य होता है, न सुगंध फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए संदेश पाया है।
व्याख्या : कुटज के ठिगने वृक्ष हिमालय की शिवालिक की सूखी तथा नीरस पहाड़ियों पर हँसते-मुस्कराते दिखाई देते हैं। इन्हें देखकर यह लगता है कि इनके मन में कोई द्वंद्ध नहीं हैं अर्थात् ये उलझनों से मुक्त हैं। ये तो मस्ती भरा जीवन जीते हैं। लेखक इन वृक्षों के नाम, कुल-शील से सर्वथा अपरिचित है, पर उसे ऐसा लगता है कि जैसे ये मुझे अनादिकाल से जानते हैं अर्थात् परिचित से प्रतीत होते हैं। इन्हीं अनाम वृक्षों में एक है-कुटज। यह बहुत छोटा-सा, ठिगना वृक्ष है। इसके पत्े चौड़े और बड़े होते हैं। यह वृक्ष सदा फूलों से लदा रहता है अर्थात् फूलों की भरमार रहती है। लेखक को यह वृक्ष हँसता-मुस्कराता सा जान पड़ता है। लगता है कि मुझसे कुछ पूछ रहा हो।
विशेष :
- लेखक ने कुटज का सटीक परिचय दिया है।
- वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है।
16. नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सेंक्शन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानेव की चित्त-गंगा में स्नात।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा विरचित विचारात्मक निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। यहाँ लेखक कुटज के संदर्भ में नाम की आवश्यकता पर प्रकाश डाल रहा है।
व्याख्या : लेखक को इस वृक्ष का नाम यकायक याद नहीं आता। वह नाम के बारे में सोचने लगता है कि नाम की आवश्यकता ही क्या है ? नाम इसलिए बड़ा नहीं होता कि वह नाम है वरन् वह इसलिए बड़ा होता है कि नाम से उसे समाज की स्वीकृति मिली होती है। नाम से ही समाज में व्यक्ति की पहचान होती है। रूप का संबंध तो व्यक्ति तक सीमित रहता है, पर नाम का संबंध पूरे समाज के साथ होता है। नाम पर समाज की मुहर लगी होती है।
इसी तथ्य को आजकल समाज में ‘सोशल सेंक्शन’ अर्थात् सामाजिक स्वीकृति कहते हैं। वास्तव में समाज ही व्यक्ति या वस्तु को नाम देकर स्वीकृति प्रदान करता है। लेखक भी इस ठिगने-से वृक्ष का नाम याद करने का प्रयास करता है। वह इस वृक्ष का ऐसा नाम चाहता है जिसे समाज ने स्वीकार कर लिया हो और इतिहास से प्रमाणित हो और जो समाज के सभी लोगों के चित्त में समाया हुआ हो।
विशेष :
- लेखक ने नाम के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
- अंग्रेजी शब्द ‘Social section’ का प्रयोग हुआ है।
17. रूप की तो बात ही क्या है! बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलस्योत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है। और मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरि कांतार में भी ऐसा मस्त बना हुआ है कि ईष्य्या होती है। कितनी कठिन जीवनी-शक्ति है! प्राण ही प्राण को पुलकित करता है, जीवनी-शक्ति ही जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। यहाँ लेखक रूप की शोभा पर प्रकाश डाल रहा है।
व्याख्या : लेखक कुटज के रूप पर बलिहारी जाता है। उसे कुटज का रूप मादक प्रतीत होता है। यद्यपि उसके चारों ओर तेज लू के झोंके आते रहते हैं, इसके बावजूद यह हरा-भरा बना रहता है। वह अपना भोग्य वसूलने की कला में भी निपुण है। वह तो पत्थर की कठोर शिलाओं में रुके जलस्रोत से अपने लिए रस खींच लेता है और सदा सरस बना रहता है। यह शिवालिक पर्वत शृंखला के सूखे-नीरस वातावरण में मस्ती भरा जीवन जीता है। इसकी जिजीविषा को देखकर लेखक को आश्चर्य होता है। पता नहीं इसमें इतनी कठोर जीवनी-शक्ति कहाँ से आती है, जिसके बलबूते पर वह जिंदा बना रहता है। प्राण ही प्राण को हर्षित करता है और जीवनी-शक्ति ही इसे जीने की प्रेरणा देती है।
विशेष :
- लेखक कुटज के रूप और जीने की कला से बहुत प्रभावित है।
- तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है।
Hindi Antra Class 12 Summary
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