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Class 12 Hindi Antra Chapter 9 Summary – Vidyapati Ke Pad Summary Vyakhya

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विद्यापति के पद Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 9 Summary

विद्यापति के पद – विद्यापति – कवि परिचय

प्रश्न :
कवि विद्यापति के जीवन एवं साहित्य का परिचय देते हुए उनकी रचनाओं एवं भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : विद्यापति का जन्म 1380 ई. में मधुबनी (बिहार) के बिसपी गाँव के ऐसे परिवार में हुआ जो विद्या और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था। उनके जन्मकाल के संबंध में प्रामाणिक सूचना उपलब्ध नहीं है। उनके रचनाकाल और आश्रयदाता के राज्यकाल के अनुसंधान के आधार पर उनके जन्म और मृत्यु वर्ष का अनुमान किया गया है। विद्यापति मिथिला नरेश राजा शिवसिंह के अभिन्न मित्र, राजकवि और सलाहकार थे।

विद्यापति बचपन से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि और तर्कशील व्यक्ति थे। साहित्य, संस्कृति, संगीत, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, न्याय, भूगोल आदि के वे प्रकांड पंडित थे। उन्होंने संस्कृत, अवहट्ट (अपभ्रंश) और मैधिली-तीन भाषाओं मे रचनाएँ कीं। इसके अतिरिक्त उन्हें कई समकालीन भाषा-उपभाषाओं का भी ज्ञान था।

विद्यापति-के पिता गणपति ठाकुर राजा गणेश्वर प्रसाद के सभासद् थे। विद्यापति अपने पिता के साथ राज-दरबार में आया-जाया करते थे। विद्यापति के गुणों पर मुग्ध होकर राजा शिवसिंह ने बिसपी गाँव कवि विद्यापति को दान-स्वरूप दिया था। इसका उल्लेख एक ताम्रपत्र पर भी है। विद्यापति के वंशधर बहुत समय तक इसी गाँव में रहे। विद्यापति की पत्नी का नाम चंदलदेइ या चंपति देवी बताया जाता है। राजा गणेश्वर की मृत्यु के बाद विद्यापति को बहुत समय तक निराश्रित घूमना पड़ा था।

विद्यापति को मिथिला के राजा कीर्तिसिंह का आश्रय और संरक्षण प्राप्त हो गया था। इसके बाद ही कवि ने कीर्तिसिंह की प्रशंसा में ‘कीर्तिलता’ की रचना की। उस समय मिथिला में अशांति और अराजकता थी। अत: उन्होंने इस रचना में वीर रस का ही प्रयोग किया और अपभ्रंश में इसे लिखा। यह लोकभाषा थी। बाद में कीर्तिसिंह के प्रेम-प्रसंगों को लेकर ‘कीर्तिपताका’ की रचना की। राजा देवसिंह की जीवित अवस्था में ही विद्यापति को शिवसिंह और उनकी पत्नी लखिमादेवी की ओर से पूर्ण सम्मान प्राप्त होने लगा था। लखिमा देवी परम सुंदरी, विदुषी एवं कवयित्री थी।

विद्यापति दरबारी कवि अवश्य थे, किंतु उन्होंने अपने को चारण नहीं बनाया। वे राजा शिवसिंं के अंतरंग मित्र थे। वे अपने समवयस्क युवा राजा और युवती रानी लखिमा देवी के समक्ष जिन गीतों का सस्वर पाठ करते थे उनमें प्रायः राधा-कृष्ण के प्रेम, रूपासक्ति, मान और काम-कला के विविध पक्षों को स्पष्ट किया गया है।

शिवसिंह के निधन के बाद कवि विद्यापति की स्थिति बड़ी शोचनीय हो गई। प्रणय, मांसल-सौंदर्य, काम-मुद्राएँ आदि सब रंगीन दुनिया चूर-चूर हो गई। मिलन के मादक गीतों के स्थान पर विरह के स्वर फूट पड़े। इस प्रकार विद्यापति ने अपने जीवन में पूर्ण सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करके अंतिम अवस्था में इस नश्वर शरीर को 1460 ईे. में गंग में अर्मण कर दिया।

रचनाएँ : विद्यापति ने संस्कृत, अपश्रंश और मैथिली में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं। संस्कृत में उनकी रचनाओं की संख्या 11 मानी जाती है। इनमें.प्रमुख हैं – भू-परिक्रमा (राजा देवसिंह की आज्ञा से लिखी गई), पुरुष परीक्षा (राजा शिवसिंह की आज्ञा से), लिखनावली (पत्र-व्यवहार की रीति का वर्णन), शैवसर्वस्वसार (महाराजा पद्यसिंह की पत्नी विश्वास देवी की आज्ञा से), वान वाक्यावली (राजा नरसिंह देव की पत्नी धीरमति देवी की आज्ञा से) आदि।

अपभ्रंश में कीर्तिलता (महाराजा कीर्तिसिंह की कीर्ति का बखान), ‘कीर्ति पताका’ (अवहट्ट भाषा में) भी शिवसिंह की कीर्ति हो।
मैथिली में रचित ‘विद्यावती की पदावली’ में कवि के बाल्यावस्था से मृत्युपर्यत तक की कविताओं का संग्रह है। तालपत्र पर लिखी कविताओं का एक संग्रह मिथिला में उपलब्ध हुआ है।
वे आदिकाल और भक्तिकाल के संधि-कवि कहे जा सकते हैं। उनकी कीर्तिलता और कीर्तिपताका जैसी रचनाओं पर दरबारी संस्कृति और अपभ्रंश काव्य-परंपरा का प्रभाव है। उनकी पदावली के गीतों में भक्ति और प्रेम-सौंदर्य की गूँज है। विद्यापति की पदावली ही उनके यश प्रमुख स्रोत का है। वे हिंदी साहित्य के मध्यकाल के पहले ऐसे कवि हैं जिनकी पदावली में जन-भाषा में जन-संस्कृति की अभिव्यक्ति हुई है।

भाषा-शैली : महाकवि विद्यापति का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। वे संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों के स्थान पर देशी शब्दों का प्रयोग करते थे। पदावली में उन्होंने कर्ण-कटु शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। विद्यापति शब्दों के पारखी थी। उन्हें ज्ञात था कि किस स्थान पर कौन सा शब्द प्रभावोत्पादक हो सकता है। कहावतों के प्रयोग में विद्यापति सिद्धहस्त थे। विद्यापति की पदावली में मैथिली भाषा का प्रयोग है, पर उनकी भाषा में अरबी-फारसी के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं, जो स्वाभाविक ही हैं।

संक्षेप में कहा जाए तो इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं है कि संपूर्ण हिंदी साहित्य में विद्यापति उस सुललित, मधुर, सौंदर्यमयी काव्य-भाषा के जनक हैं जिसका अनुसरण कर सूर आदि परवर्ती कवियों ने काष्य रस की अजस्र मधुधारा प्रवाहित की थी। समस्त साहित्य में विद्यापति का सा भाषा-सौंदर्य अन्यत्र दुर्लभ है।

मिथिला क्षेत्र के लोक-व्यवहार में और सांस्कृतिक अनुष्ठानों में उनके पद इतने रच-बस गए हैं कि पदों की पंक्तियाँ अब वहाँ के मुहावरे बन गई हैं। लोकानुरंजन, पद-लालित्य, मानवीय-प्रेम और व्यावहारिक जीवन के विविध रंग इन पदों को मनोरम और आकर्षक बनाते हैं। राधा-कृष्ण के प्रेम के माध्यम से लौकिक प्रेम के विभिन्न रूपों का चित्रण, स्तुति-पदों में विभिन्न देवी-देवताओं की भक्ति, प्रकृति संबंधी पदों में प्रकृति की मनोहर छवि रचनाकार के अपूर्व कौशल, प्रतिभा और कल्पनाशीलता की परिचायक है। उनके पदों में प्रेम और सौंदर्य की अनुभूति की जैसी अभिव्यक्ति हुई है वैसी अन्यत्र दुर्लभ है।

Vidyapati Ke Pad Class 12 Hindi Summary

इस पाठ्यपुस्तक में विद्यापति के तीन पद लिए गए हैं। पहले में विरहिणी के बुदय के उद्गारों को प्रकट करते हुए उन्होंने उसको अत्यंत दुःखी और कातर बताया है। उसका हृदय प्रियतम द्वारा हर लिया गया है और प्रियतम गोकुल छोड़कर मधुपुर जा बसे हैं। कवि ने उनके कार्तिक मास में आने की संभावना प्रकट की है। इसमें नायिका विरह की असह्भ पीड़ा झेल रही जान पड़ती है। वह अपने दारुण दुःख के बारे में किसी से कुछ कह भी नहीं सकती। उसकी बात का कौन विश्वास करेगा।

दूसरे पद में प्रियतमा सखि से कहती है कि मैं जन्म-जन्मांतर से अपने प्रियतम का रूप ही देखती रही परंतु अभी तक नेत्र संतुष्ट नहीं हुए हैं। उनके मधुर बोल कानों में गूँजते रहते हैं। नायिका प्रियतम के पास रहकर भी अतृप्ति का अहसास करती रहती है। इसका कारण है प्रेम में नित्य नवीनता का होना। इससे उत्सुकता बनी रहती है। इस परिवर्तित प्रेम-रूप का वर्णन करना सहज नहीं है।

कविता के तीसरे पद में कवि ने विरहिणी प्रियतमा का दुःखभरा चित्र प्रस्तुत किया है। दुःख के कारण नायिका के नेत्रों से अश्रुधारा बहे चले जा रही है जिससे उसके नेत्र खुल नहीं पा रहे। वह विरह में क्षण-क्षण क्षीण होती जा रही है। अब तो उसके लिए उठ-बैठना तक कठिन हो गया है। वह वियोग की चरमावस्था में है।

विद्यापति के पद सप्रसंग व्याख्या

1. के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।
हिए नहि सहए असह दुःख रे भेल साओन मास्।
एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुःख दारुन रे जग के पतिआए।
मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल॥
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास॥

शब्दार्थ : के = कौन। पतिआ – पत्र, चिट्डी। लए जाएत = ले जाएगा। हिय = हृदय। पिअतम = प्रियतम। हिए = हृयय। सहए = सहना। असह = असह्। भेल = हुए। साओन = सावन। एकसरि = एकाकी। पिआ = पिया। रहलो = रहा। अनकर = अन्यतम, दूसरे का। वारुन = कठोर। के पतिआए = कौन विश्वास करेगा। हरि = कृष्ण। हरि लय गेल = हर कर ले गए। तेजि = त्यागकर। मधुपुर = मथुरा। अपजस = अपयश। आओत = आएगा। मनभावन = प्रियतम। एहि = इसी। कातिक = कार्तिक।

प्रसंग : प्रस्तुत पद आदिकाल के प्रसिद्ध कवि विद्यापति द्वारा रचित ‘पदावली’ से अवतरित है। इसे विरह शीर्षक से लिया गया है। इसमें नायिका की विरहावस्था का मार्मिक चित्रण किया गया है। नायिका का प्रियतम गोकुल को छोड़कर मधुपुर (मधुरा) जा बसा है। उसे कार्तिक मास में उसके लौट आने की संभावना है।

व्याख्या : सावन मास चल रहा है। विरहिणी राधा अपनी सखी से कह रही है-हे सखि! ऐसा कौन व्यक्ति है जो प्रियतम तक मेरा पत्र ले जाएगा। सावन का महीना है। मेरा हृदय वियोग के असह्ग दु:ख को सह नहीं पा रहा है। प्रिय के बिना इस सूने घर में मुझसे एकाकी नहीं रहा जाता। हे सखि! ऐसा कौन व्यक्ति है जो दूसरे के कठोर दुःख पर विश्वास कर सके। श्रीकृष्ण मेरे मन को हरकर अपने साथ ले गए हैं और उनका मन भी उंज साथ चला गया है अर्थात् उनका ध्यान मेरी ओर नहीं रहा। वे गोकुल को छोड़कर मथुरा में जा बसे हैं। इस प्रकार उन्होंने कितना ही अपयश ले लिया है। कवि विद्यापति कहते हैं-हे सुंदरी! प्रिय के आने की आशा रखो। इसी कार्तिक मास में तुम्हारे प्रियतम तुम्हारे पास आ जाएँगे।

विशेष :

  • इस पद की नायिका प्रोषितपतिका है।
  • प्रिय-वियोग में सावन मास कष्टकर प्रतीत होता है।
  • ‘हरि हर’ में यमक अलंकार है।
  • ‘सखि ‘पतिआए’ में अप्रस्तुत प्रशंसा है।
  • प्रस्तुत पद में औत्सुक्य और दैन्य भावों की प्रबलता है।
  • ‘धनि धरु’, ‘मोर मन’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • भाषा : मैथिली।
  • रस : वियोग श्रृंगार रस।

2. सखित है, कि पुछसि अनुभव मोए।
सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए।
जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।
सेहो मधुर बोल म्रवनहि सूनल सुति पथ परस न गेल।।
कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि।
लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल।।
कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख।
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक।।

शब्दार्थ : कि पूछसि = क्या पूछती है। मोय = मेरा, मुझसे। सेह = वही। पिरिति – प्रीति। बखानिअ = वर्णन करने से। तिल-तिल = क्षण-क्षण। नूतन = नई। जनम अवधि = जीवन भर। निहारल = निहारा, देखा। तिरपिति = तृप्ति। भेल = हुए। सेहो = वही, उसी को। मधुर बोल = मीठी वाणी। स्रवनहि = कानों से। सूनल = सूना। सुति पथ = कानों का रास्ता। परस = स्पर्श। कत = कितनी। मधु जामिनी = वसंत की सुहावनी रातें। रभस = कामक्रीड़ा। गमाओलि = गँवाई, व्यतीत की। बूझल = जान सकी। कइसन = कैसी। केलि = रति क्रीड़ा। हिअ = हृदय। राखल = रखा। तइओ = तो भी। जुड़ला न गेल = नही जुड़े, तृप्त नहीं हुआ। बिद्गध = विदगध, दुःखी। रस अनुमोदिए = रस का उपभोग करते हैं। पेख = देखना। जुड़ाइते = जुड़ाने के लिए, तृप्त होने के लिए। मीलल = मिला।

प्रसंग : प्रस्तुत पद आदिकाल के प्रसिद्ध कवि विद्यापति द्वारा रचित ‘विद्यापति पदावली’ से अवतरित है। यह ‘भावोल्लास’ प्रकरण से लिया गया है। नायिका और उसकी सखियाँ एक स्थान पर बैठी हुई हैं। सखियाँ नायिका राधा से उसकी प्रेमानुभूति को जानना चाहती हैं। उसने कृष्ण से जो प्रेम किया है, वह कैसा है ? नायिका उनकी जिजासा को संतुष्ट करती हुई उस प्रेम का वर्णन करती है।

व्याख्या : हे सखी! तू मुझसे मेरे प्रेम-अनुभव (मिलन सुख) के बारे में क्या पूछती है अर्थात् तुझे उस प्रेमानुभव के बारे में क्या बताऊँ ? इसके आनंद और स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। यदि उस प्रेम तथा अनुराग का वर्णन किया जाए तो वह क्षण-प्रतिक्षण नवीन-ही-नवीन दिखाई पड़ता है। अतः उसका वर्णन करना कोई सरल काम नहीं है। वर्णन तो स्थिर वस्तु का किया जा सकता है। मैं तो जीवन-भर कृष्ण के रूप को टकटकी बाँध कर देखती रही हुँ, तभी तो मेरे नेत्र अभी तक तृप्त नहीं हुए हैं। मैं उनके मधुर वचनों को सदैव कानों से सुनती रही हूँ किंतु फिर भी लगता है कि जैसे मैंने उन्हें कभी सुना ही न हो। रूप और वाणी की चिर नवीनता मुझे अतृप्त बनाए रखती है।

मैंने कितनी ही मादक एवं सुहावनी वसंत की रातें कृष्ग के साथ प्रेम-क्रीड़ा में बिता दीं फिर भी यह नहीं जान पाई कि रति-क्रीड़ा कैसी होती है ? मिलन की उत्कंठा आज भी बनी ठुई है। मैंने युग-युगों तक अर्थात् चिरकाल तक अपने हुदय को उनके हृदय से लगाए रखा फिर भी हृदय शीतल नहीं हुआ अर्थात् मिलन की प्यास वैसी की वैसी बनी रही जैसी पहले थी। मेरी तो बात क्या, कितने ही रसिकजन प्रेमरस का पान करते हैं, पर उस प्रेम का वास्तविक अनुभव कोई नहीं जानता। कवि विद्यापति कहते हैं कि उन्हें लाखों व्यक्तियों में भी एक व्यक्ति में ऐसा नहीं मिला जिसके मन ने प्रेम में पूर्ण तृप्ति का अनुभव किया हो। कारण यह है कि प्रेम की पूर्ण तृप्ति हो ही नहीं सकती। प्रेम सदा नूतन बना रहता है, इसलिए उसका सही-सही वर्णन करना संभव नहीं है।

विशेष :

  • ‘सखि ‘होए’ में अतिशयोक्ति अलंकार है।
  • ‘तिल-तिल’ में वीप्सा अलंकार है।
  • ‘नयन ‘भेल’ में विशेषोक्ति अलंकार है।
  • ‘लाख ‘गेल’ में विरोधाभास अलंकार है।
  • ‘कल ‘एक’ में अतिशयोक्ति अलंकार है।
  • भाषा मैथिली है।
  • काव्य-भाषा में माधुर्य गुण का समावेश है।
  • प्रस्ततु पद में प्रेम की चिर नवीनता का प्रतिपादन किया गया है।

भाव साम्य : (बिहारी का दोहा)
लिखन बैठि जाकी सबी; गहि-गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के चतुर चितेरे क्रूरू।
अतृप्त प्रेम ही चरम आदर्श बताया गया है।

घनानंद ने भी एक स्थान पर ‘बिद्छुर मिले प्रीतम शांति न माने’ कहकर प्रेम की अतृप्तता की ओर संकेत किया है।

3. कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,
मूदि रहए दु नयनि।
कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि,
कर देइ झाँपइ कान॥
माधब, सुन-सुन बचन हमारा।
तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूबरि-
गुनि-गुनि प्रेम तोहारा॥
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ,
पुनि तहि उठड न पारा।

शब्दार्थ : कुसुमित = प्रफुल्लित, विकसित। कानन = वन। हेरि = देखकर। कमलमुखि = कमल के समान मुख वाले। मूदि रहए दु नयन = दोनों आँखें मूँद लेती है। कोकिल = कोयल। कलरव = शब्द, ध्वनि। मधुकर = भौरा। धुनि = ध्वनि। झाँपइ = बंद कर दे। भेल = हुए। दुबरि = दुर्बल। सुंदरि = सुंदरी। गुनि-गुनि = सोच-सोचकर। तोहारा = तुम्हारा। धरनी = धरती, पृथ्वी। कत बेरि = कठिनाई से। बइसइ = बैठती है। पुनि तेहि = पुन: वहाँ से। उठइ न पारा = उठ नहीं सकती।

प्रसंग : प्रस्तुत पद आदिकालीन कवि विद्यापति द्वारा रचित “पदावली” से अवतरित है। इसे “विरह” शीर्षक से लिया गया है। राधा की सखी उसकी विरह-भावना का वर्णन कृष्ण के सम्मुख कर रही है।

व्याख्या : हे कृष्ण! विकसित प्रफुल्लित वन को देखकर वह कमल मुखी राधा अपने दोनों नेत्रों को मूँद लेती है। कोयल की मीठी कूक और भौंरों की मधुर झंकार को सुनकर वह (राधा) अपने हाथों से अपने कान बंद कर लेती है। हे कृष्ण! जरा मेरी बात सुनो! तुम्हारे गुणों एवं प्रेम का स्मरण करके राधा सुंदरी अत्यंत दुर्वल हो गई है। उसकी दुर्बलता का यह हाल है कि पृथ्वी को पकड़कर बड़ी कठिनाई से बैठ तो जाती है, पर पुन: चेष्टा करने पर भी उठ नहीं पाती।

विशेष :

  • “कुसुमित नयन” में अतिशयोक्ति अलंकार है।
  • “गुनि-गुनि”, “छन-छन”, “सुन-सुन” में वीप्सा अलंकार है।
  • “कमल-मुखि” में रूपक अलंकार है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 10 Summary – Ramchandra Chandrika Summary Vyakhya

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रामचंद्रचंद्रिका Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 10 Summary

रामचंद्रचंद्रिका – केशवदास – कवि परिचय

प्रश्न :
केशवदास का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का नामोल्लेख कीजिए तथा उनकी काष्य-भाषा पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : भक्तिकाल की राम भक्तिशाखा के प्रमुख कवि केशवदास का जन्म 1555 ई. में बेतवा नदी के तट पर स्थित ओड़छा नगर में हुआ ऐसा माना जाता है। ओड़छापति महाराज इंद्रजीत सिंह उनके प्रधान आश्रयदाता थे जिन्होंने 21 गाँव उन्हें भेंट में दिए थे। उन्हें वीरसिंह देव का आश्रय भी प्राप्त था। वे साहित्य और संगीत, धर्मशास्त्र और राजनीति, ज्योतिष और वैद्यक सभी विषयों के ग़ंभीर अध्येता थे। केशवदास की रचना में उनके तीन रूप आचार्य, महाकवि और इतिहासकार दिखाई पड़ते हैं। आचार्य का आसन ग्रहण करने पर केशवदास को संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति को हिंदी में प्रचलित करने की चिंता हुई जो जीवन के अंत तक बनी रही। केशवदास ने ही हिंदी में संस्कृत की परंपरा की व्यवस्थापूर्वक स्थापना की थी। उनके पहले भी रीतिग्रंथ लिखे गए पर व्यवस्थित और सर्वागपूर्ण ग्रंध-सबसे पहले उन्होंने प्रस्तुत किए। उनकी मृत्यु सन् 1617 में हुई है।

रचनाएँ : उनकी प्रमुख प्रामाणिक रचनाएँ हैं : रसिक प्रिया, कवि प्रिया, रामचंद्रचंद्रिका, वीर चरित्र, वीरसिंह देव चरित, विज्ञान गीता, जहाँगीर जसचंद्रिका आदि। ‘रतनबावनी’ का रचनाकाल अज्ञात है किंतु उसे उनकी सर्वप्रथम रचना माना जाता है। काव्य-भाषा : केशव की काव्य-भाषा ब्रज है। बुंदेल निवासी होने के कारण उनकी रचना में बुंदेली के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है, संस्कृति का प्रभाव तो है ही। केशव की भाषा संस्कृतनिष्ठ ब्रज भाषा है।

वह संस्कृत के बोझ से दबी जान पड़ती है। उनकी भाषा में बुदेलखंडी शब्दों एवं मुहावरों को देखा जा सकता है। संज्ञा, सर्वनामों के रूपों, कारक-चिह्नों में भी बुंदेलखंडी प्रभाव है। केशव चमत्कारवादी कवि थे अतः उनके काव्य में अलंकार प्रदर्शन की बलात् चेष्टा दर्शित होती है। केशव की काव्य-शैली के मुक्तक और प्रबंध दोनों रूप दिखाई देते हैं। केशव की वर्णनशैली प्रशंसनीय है और संवाद-योजना में उन्हें विशेष सफलता मिली है। वे श्लेष अलंकार के प्रयोग में विशेष दक्ष हैं। उनके श्लेष संस्कृत पदावली के हैं। संवादों में इनकी उक्तियाँ विशेष मार्मिक हैं। इनके प्रशस्ति काव्यों में इतिहास की सामग्री प्रचुर मात्रा में है।

Ramchandra Chandrika Class 12 Hindi Summary

इस पुस्तक में उनकी प्रसिद्ध रचना ‘रामचंद्रचंद्रिका’ का एक अंश दिया गया है। प्रथम छंद में केशवदास ने माँ सरस्वती की उदारता और वैभव का गुणगान किया है। माँ सरस्वती की महिमा का ऐसा वर्णन ऋषि, मुनियों और देवताओं के द्वारा भी संभव नहीं है। दूसरे छंद सवैया में कवि ने पंचवटी के माहात्म्य का सुंदर वर्णन किया है।

अंतिम छंद में अंगद द्वारा किया गया श्रीरामचंद्र जी के गुणों का वर्णन है। वह रावण को समझाती है कि राम का वानर हनुमान समुद्र को लाँघकर लंका में आ गया और तुमसे कुछ करते नहीं बना। इसी प्रकार तुमसे लक्ष्मण द्वारा खींची गई धनुरेखा भी पार नहीं की गई थी। तुम श्रीराम के प्रताप को पहचानो।

रामचंद्रचंद्रिका सप्रसंग व्याख्या

रामवद्वक्षिका

दंडक –

बानी जगरानी की उदारता बखानी जाइ ऐसी मति उदित उदार कौन की भई।
देवता प्रसिद्ध सिद्ध रिषिराज तपबृद्ध कहि कहि हारे सब कहि न काहू लई।
भावी भूत बर्तमान जगत बखानत है ‘केसीदास’ क्यों हू ना बखानी काहू पै गई।
पति बने चारमुख पूत बने पाँचमुख नाती बनै षट्मुख तदपि नई नई॥

शब्दार्थ : बानी = वाणी, सरस्वती। मति = बुद्धि। तपवृद्ध = बड़े-बड़े तपस्वी। रिषिराज = श्रेष्ठ ऋषि। भाषी = भविष्यत्। भूत = बीता हुआ समय। जगत = संसार। बखानता = वर्णन करता। काहू = किसी। चारमुख = चार मुख वाले ब्रह्ना। पति = स्वामी। पूत = बेटा। पाँचमुख = पाँच मुख वाला, शिव। षदमुख = छह मुख वाला, षडानन, कार्तिकेय।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश भक्तिकाल के प्रसिद्ध कवि केशवदास द्वारा रचित प्रसिद्ध रचना ‘रामचंद्रिका’ के प्रथम प्रकाश मंगलाचरण से अवतरित है। इसे ‘दंडक’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित किया गया है। इस काष्यांश में कवि ने माँ सरस्वती की उदारता और वैभव का गुणगान किया है। माँ सरस्वती की महिमा का ऐसा वर्णन ऋषि, मुनियों और देवताओं के द्वारा भी संभव नहीं है।

व्याख्या : कवि कहता है कि जगरानी (संसार की स्वामिनी) का वर्णन करना संभव नहीं है। देवी सरस्वती की उदारता का बखान कौन कर सकता है ? अर्थात् वाग्देवी की उदारता वर्णनातीत है। संसार में देवतागण, प्रसिद्ध सिद्ध पुरुष, श्रेष्ठ ॠषि-मुनि तथा उत्तम तपस्वी भी माँ सरस्वती की महिमा का कथन करते-करते थक गए फिर भी वे उसका यथार्थ वर्णन नहीं कर सके।

यह संसार वर्तमान, भूत तथा भविष्य का तो वर्णन कर सकता है, परंतु माँ सरस्वती के गुणों का बखान नहीं कर सकता। चार मुख वाले ब्रहमा उनके पति बने, पाँच मुख वाले शिवजी उनके पुत्र बने और छह मुख वाले कार्तिकेय उनके नाती बने, फिर भी माँ सरस्वती का वाणी से बखान संभव न हो सका। माँ सरस्वती नित्य नूतन दिखाई देती हैं, वे अजर-अमर हैं। उनकी महिमा का वर्णन किसी भी प्रकार से नहीं किया जा सकता।

विशेष :

  • कार्तिकेय शिव के पुत्र है। उनका पालन-पो्ण कृतिकाओं ने किया था। वे बड़े वीर थे। इसीलिए वे देवताओं के सेनापति बनाए गए। इन्होंने तारक राक्षस का वध किया था।
  • माँ सरस्वती की उदारता का वर्णन प्रभावोत्पादक ढंग से किया गया है।
  • ‘कहौं’ शब्द का प्रयोग कवि के आत्मविश्वास का द्योतक है।
  • ‘तदपि नई नई’ का भाव इस पंक्ति के समान है-
  • ‘क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदैष रूपं रमणीयताया:’
  • अलंकार –
    • अनुप्रास : केसीदास केह, भावी भूत,
    • पुनरुक्तिप्रकाश (वीप्सा) : कहि कहि, नई नई
    • अतिशयोक्ति : (सरस्वती की उदारता के वर्णन में)
  • भाषा : ब्रज भाषा
  • रस : शांत
  • गुण : प्रसाद।

लक्ष्मण –

सब जाति फटी दुःख की दुपटी कपटी न रहै जहँ एक घटी।
निघटी रुचि मीचु घटी हूँ घटी जगजीव जतीन की छूटी चटी।
अघओघ की बेरी कटी बिकटी निकटी प्रकटी गुरुज्ञान-गटी।
चहुँ ओरनि नाचति मुक्तिनटी गुन धूरजटी जटी पंचवटी॥

शब्दार्थ : दुपटी = चादर। कपटी = धोखेबाज। मीचु = मृत्यु। जतीन की =योगियों की। अघओघ = पाप-समूह। बेरी = बेड़ी, बँधन। बिकटी = विकट, भयंकर। निकटी = निकट आते ही। चहुँ ओरनि = चारों ओर। मुक्तिनटी = मोक्ष की नटी। धूरजटी = शिव।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ केशवदास द्वारा रचित ‘रामचांद्रिका’ के पंचवटी प्रसंग से ली गई हैं। इन पंक्तियों में कवि ने लक्ष्मण के मुख से पंचवटी के महत्व को व्यक्त कराया है।

व्याख्या : लक्ष्मण पंचवटी की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि यह पंचवटी नामक वन शिव के दर्शन के समान फलदायक है। यहाँ आते ही दुःख की चादर फट जाती है अर्थात् समस्त दु:ख दूर हो जाते हैं। यहाँ कपटी व्यक्ति एक घड़ी भी नहीं टिक सकता है, क्योंकि इसकी शोभा के कारण मन में सात्विक भावों का उदय हो जाता है। यहाँ के सौंदर्य से आनंदित होकर प्रत्येक संसारिक व्यक्ति को जीवन आकर्षित प्रतीत होने लगता है और वह मरना नहीं चाहता है।

यहाँ आकर योगियों की समाधि भी टूट जाती है, क्योंकि यहाँ के सौंदर्य-दर्शन से योग-साधना से भी अधिक आनंद प्राप्त हो जाता है। पंचवटी में आने से महापापों की बेड़ियाँ कट जाती हैं और गुरु-ज्ञान रूपी गठरी प्राप्त हो जाती है। अर्थात् यहाँ आने से समस्त पापों के बंधनों से व्यक्ति मुक्त हो जाता है। यहाँ मुक्ति चारों ओर नर्तकी की भाँति नाचती हुई दिखाई देती है। इन्हीं गुणों के कारण पंचवटी वन शिवजी की जटाओं के समान बना हुआ है।

विशेष :

  • कवि ने पंचवटी को शिव के दर्शन के समान मानते हुए सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्रदान करने वाला स्थान माना है।
  • सहज, स्वाभाविक तथा कोमलकांत पदावली से युक्त ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है।
  • अनुप्रास, यमक, उपमा तथा रूपक अलंकार हैं।
  • प्रकृति का आलंकारिक रूप में वर्णन किया गया है।
  • ‘ट’ वर्ग की अधिकता होते हुए भी लयात्मकता का गुण विद्यमान है।
  • शांत रस का वर्णन है।
  • अभिधात्मकता ने कवि के कथन को सरलता-सरसता प्रदान की है।
  • स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सृष्टि की है।
  • तद्भव शब्दावली की अधिकता है।

अंगद

सिंधु तरयो उनको बनरा तुम पै धनुरेख गई न तरी।
बाँधोई बाँधत सो न बन्यो उन बारिधि बाँधिकै बाट करी।
श्रीरघुनाथ-प्रताप की बात तुम्हैं दसकंठ न जानि परी।
तेलनि तूलनि पूँछि जरी न जरी, जरी लंक जराइ-जरी॥

शब्दार्थ : सिंधु = समुद्र। बनरा = वानर। धनुरेख = धनुष की रेखा। तरी = पार। बारिधि = समुद्र। बाट करी = रास्ता बना लिया। दसकंठ = रावण्। तूलनि = रुई से युक्त। जराइ-जरी = सोने-रत्नों से जड़ी लंका, जल गई।

प्रसंग : प्रस्तुत छंद केशवदास द्वारा रचित है। इस छंद में रावण की पत्नी मंदोदरी द्वारा रामचंद्र के गुणों का वर्णन किया गया है। मंदोदरी अपने पति रावण से श्रीराम के प्रताप को पहचानने का आग्रह करती है।

व्याख्या : मंदोदरी रावण को समझाते हुए कहती है कि श्रीराम का वानर अर्थात् हनुमान समुद्र को पार करके लंका तक आ गया और तुमसे लक्ष्मण के द्वारा खींची गई रेखा तक पार नहीं की गई। (लक्ष्मण ने सीता जी की सुरक्षा हेतु एक रेखा खींची थी, रावण उसे पार नहीं कर पाया था)। तुमने हनुमान को बाँधने का भरपूर प्रयास किया, पर सफल न हो सके, और दूसरी ओर श्रीराम के वानरों ने समुद्र पर पुल बाँध कर लंका में आने का रास्ता भी बना लिया। हे मेरे प्राणप्रिय पति! क्या अभी भी तुमने श्रीराम के प्रताप को नहीं पहचाना। तुमने हनुमान की पूँछ पर कपड़े, रुई बाँधकर तेल में भिगोकर आग लगाकर जलाने की पूरी कोशिश की। पर वही हनुमान आग लगी पूँछ से सोने की लंका जला गया। अभी भी वक्त है कि तुम श्रीराम के प्रताप को पहचानो। उनकी शरण में चले जाओ, तो तुम्हारा भी उद्धार हो जाएगा।

विशेष :

  • राम की प्रशंसा के बहाने रावण की निंदा की गई है।
  • ‘यमक’ अलंकार का अत्यंत सटीक प्रयोग हुआ है –
    (जरी न जरी, जरी लंक जराइ जरी)
  • अनुप्रास की छटा-
    बाँधोई बाँधत ‘बारिधि बाँधिकै बाट
  • ओज गुण का समावेश है।
  • ब्रज भाषा प्रयुक्त हुई है।
  • वीर रस की क्यंजना हुई है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 11 Summary – Ghananand Ke Kavitt / Savaiya Summary Vyakhya

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रामचंद्रचंद्रिका Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 11 Summary

घनानंद के कवित्त / सवैया – घनानंद – कवि परिचय

प्रश्न :
कवि घनानंव का संक्षिप्त जीवन-परिचय वेते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
कविवर घनानंद उत्तर मध्यकाल की रीतिमुक्त श्रृंगार काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। ये प्रेमजीवी कवि हैं। इनके रोम-रोम में प्रेम बसा था। व्यक्तिगत जीवन में भी इन्होंने स्वच्छंद प्रेम का बीज बोया था।

जीवन-परिचय : घनानंद का जन्म 1673 ई. में हुआ माना जाता है। ये मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला के दरबार में मीर मुंशी थे। ये कायस्थ थे। कहते हैं कि ‘सुजान’ नामक एक नगरवधू पर ये आसक्त हो गए थे। सुजान राजनर्तकी थी। घनानंद राजदरबार में कविता सुनाते थे। एक बार बादशाह ने किसी बात पर नाराज होकर घनानंद को राजदरबार से निकाल दिया था। सुजान ने साथ चलने से इनकार कर दिया। तब वे विरक्त होकर ब्रज भूमि वृंदावन चले गए। वहाँ वे निंबार्क संप्रदाय के वैष्णव बन गए। सुजान के प्रति अगाध प्रेम को प्रदर्शित करते हुए उन्होंने सैकड़ों कवित्तों और सवैयों की रचना कर डाली। लगभग 1760 ई. में मथुरा में अहमदशाह दुर्रानी के आक्रमण के समय आक्रमणकारियों ने इनका वध कर डाला था।

काव्यगत विशेषताएँ : घनानंद के काव्य में स्वच्छंद प्रेम काव्यधारा की सभी विशेषताएँ पाई जाती हैं, जैसे प्रेम की स्वच्छंद अभिव्यक्ति, आत्माभिव्यक्ति, भावात्मकता, व्यक्तिगत प्रेम की तीव्र अभिव्यक्ति, रीतिबद्ध शृंगार-वर्णन के स्थान पर स्वच्छंद प्रेम का वर्णन।

घनानंद के प्रेम में विरह और विषाद की छाया अधिक है। वे विरह में निमग्न प्रतीक्षा ही करते रह जाते हैं, आशा का दामन थामे रहते हैं-

रचनाएँ : यद्यपि घनानंद द्वारा रचित काव्य-ग्रंथों की संख्या 41 बताई जाती है, पर अब जो रचनाएँ मिलती हैं उनके नाम हैं-सुजानहित, सुजान सागर, प्रेम सरोवर, गोकुल विनोद, प्रिया प्रसाद, प्रेम पत्रिका आदि। ‘घनानंद ग्रंथावली’ में उनकी 16 रचनाएँ संकलित हैं। घनानंद नाम से लगभग चार हजार की संख्या में कवित्त और सवैये मिलते हैं। इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना ‘सुजानहित’ है, जिसमें 507 पद हैं। इन पदों में सुजान के प्रेम, रूप, विरह आदि का वर्णन हुआ है।

“नहिं आवनि-औधि, न रावरी आस,
इते पर एक सी बाट चहौं।”

घनानंद नायिका सुजान का वर्णन अत्यंत रुचिपूर्वक करते हैं। वे उस पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं –

रावरे रूप की रीति अनूप नयो नयो लागत ज्यों ज्यों निहारिये।
त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहू नहिं आनि तिहारिये॥

घनानंद प्रेम के मार्ग को अत्यंत सीधा-सरल बताते हैं, इसमें कहीं भी वक्रता नहीं है-

“अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।”

कवि अपनी प्रिया को अत्यधिक चतुरता दिखाने के लिए उलाहना भी देता है-

“तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं ।”

घनानंद अपनी प्रिया को प्रेम पत्र भी भिजवाता है, पर उस निष्ठुर ने उसे पढ़कर देखा तक नहीं-

“जान अजान लौं टूक कियौ पर बाँचि न देख्यो।”

रूप-सौंदर्य का वर्णन करने में कवि घनानंद का कोई सानी नहीं है। वह काली साड़ी में अपनी प्रिय नायिका को देखकर उन्मत्त सा हो जाता है। साँवरी साड़ी ने सुजान के गोरे शरीर को कितना कांतिमान बना दिया है-

स्याम घटा लिपटी थिर बीज की सौहैं अमावस-अंक उज्यारी।
धूम के पुंज में ज्वाल की माल सी पै द्वग-शीतलता-सुख-कारी॥
कै छबि छायौ सिंगार निहारि सुजान-तिया-तन-दीपति त्यारी।
कैसी फबी घनआनन्द चोपनि सों पहिरी चुनि साँवरी सारी॥

घनानंद के काव्य की एक प्रमुख विशेषता है-भाव-प्रवणता के अनुरूप अभिव्यक्ति की स्वाभाविक वक्रता।
घनानंद का प्रेम लौकिक प्रेम की भाव-भूमि से ऊपर उठकर अलौकिक प्रेम की बुलदियों को छूता हुआ नज़र आता है, तब कवि की प्रिया सुजान ही परबह्ट का रूप बन जाती है। ऐसी दशा में घनानंद प्रेमी से ऊपर उठकर भक्त बन जाते हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

“नेही सिरमौर एक तुम ही लौं मेरी दौर,
नाहि और ठॉर, काहि साँकरे सम्हारिये।”

घनानंद का वियोग भृंगार वर्णन संयोग वर्णन से अधिक सुंदर और मार्मिक बन पड़ा है।
कलापक्ष : घनानंद भाषा के धनी थे। उन्होंने अपने काव्य में ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। रीतिकाल की यही प्रमुख काव्य भाषा थी। इनकी ब्रजभाषा अरबी, फारसी, राजस्थानी, खड़ी बोली आदि के शब्दों से समृद्ध है। इन्होंने सहज-सरल लाक्षणिक व्यंजनापूर्ण भाषा का प्रयोग किया है।

घनानंद ने लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से भाषा-सौंदर्य को चार चाँद लगा दिए हैं। घनानंद ने अपने काव्य में अलंकारों का प्रयोग अत्यंत सहज ढंग से किया है। उनके काव्य में अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, उत्र्रेक्षा एवं विरोधाभास आदि अलंकारों का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है। ‘विरोधाभास’ घनानंद का प्रिय अलंकार है। आचार्य विश्वनाथ ने उनके बारे में लिखा है-

“विरोधाभास के अधिक प्रयोग से उनकी कविता भरी पड़ी है। जहाँ इस प्रकार की कृति विखाई वे, उसे निःसंकोच इनकी कृति घोषित किया जा सकता है।”

घनानंद की कविता लक्षणा प्रधान है। भावों के अनुरूप लाक्षणिक शब्दों का प्रयोग इनकी भाषा की विशेषता है।
छंद-विधान की दृष्टि से घनानंद ने कवित्त और सवैये ही अधिक लिखे हैं। वैसे उन्होंने दोहे और चौपाइयाँ भी लिखी हैं।
रस की दृष्टि से घनानंद का काव्य मुख्यत: शृंगार रस प्रधान है। इसमें वियोग शृंगार की प्रधानता है। कहीं-कहीं शांत रस का प्रयोग भी देखते बनता है। घनानंद की भाषा में चित्रात्मकता और वार्गवदगधता का गुण भी आ गया है।

Ghananand Ke Kavitt / Savaiya Class 12 Hindi Summary

यहाँ कवि घनानंद के दो कवित्त तथा दो सवैये दिए जा रहे हैं। प्रथम कवित्त में कवि ने अपनी प्रेमिका सुजान के दर्शन की अभिलाषा प्रकट करते हुए कहा है कि सुजान के दर्शन के लिए ही ये प्राण अब तक अटके हुए हैं। दूसरे कवित्त में कवि नायिका से कहता है कि तुम कब तक मिलने को आनाकानी करती रहोगी। मुझ में और तुम में एक प्रकार की होड़-सी चल रही है। तुम कब तक कानों में रुई डालकर बैठी रहोगी, कभी तो मेरी पुकार तुम्हारे कानों तक पहुँचेगी ही। आगे प्रथम सवैया में कवि ने विरह और मिलन की अवस्थाओं की तुलना की है। प्रेमी कहता है कि संयोग के समय में तो हम तुम्हें देखकर जीवित रहते थे अब वियोग में अत्यंत व्याकुल रहते हैं। अंतिम सवैया में कवि कहता है कि मेरे प्रेम पत्र को प्रियतमा ने पढ़ा भी नहीं और फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया।

घनानंद के कवित्त / सवैया सप्रसंग व्याख्या

कवित्त –

1. बहुत दिनान को अवधि आसपास परे,
खरे अरबरनि भरे है उठि जान को।
कहि कहि आवन छबीले मनभावन को,
गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को॥
झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास है कै,
अब ना घिरत घर आनंद निदान को।
अधर लगे हैं आनि करि के पयान प्रान,
चाहत चलन ये संदेसो लै सुजान को॥

प्रसंग : प्रस्तुत कवित्त हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित है। इसके रचयिता रीतिकाल की स्वच्छंद काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि घनानंद हैं। घनानंद दरबारी कवि थे। वे दरबार की नर्तकी सुजान पर आसक्त थे। किसी बात पर नाराज होकर बादशाह ने इन्हें दरबार से निकाल दिया था और वे वृंदावन में निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षित होकर काव्य रचना करने लगे। उनके मन में सुजान के लिए प्रेम अंत तक बना रहा। इस कवित्त में कवि ने अपनी प्रेयसी सुजान के दर्शन की अभिलाषा प्रकट करते हुए कहा है कि प्रिय सुजान के दर्शन के लिए ही ये प्राण अब तक अटके हुए हैं।

व्याख्या : कवि बताता है – हे सुजान ! बहुत दिनों की अवधि बीत गई अर्थात् बहुत समय बीत गया। तुम्हारी प्रतीक्षा में ही मेरे प्राण अटके हुए थे। मुझे आशा थी कि तुम आकर अवश्य दर्शन दोगी। अब मेरे प्राण बहुत हड़बड़ी में हैं अर्थात् इस संसार से उठ जाने को हैं। अब मैं अपने प्राणों को रोक पाने में असमर्थ हो रहा हूँ। अब तक छैल-छबीली प्रिया (सुजान) ने कई बार आने को कहा था पर वह नहीं आई। मैं प्रतीक्षा ही करता रह गया। अब तो समय आ गया है कि तुम आकर मेरा सम्मान रख लो अन्यथा संसार में मेरी बदनामी हो जाएगी। तुम्हारी झूठी बातों पर विश्वास करके मैं बहुत उदास हो गया हूँ। अब मैं इनसे ऊब चुका हूँ। अब तो मन को तसल्ली देने वाले बादल भी नहीं घिरते और न मुझे आनंद मिल पाता है। अब तो स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि मेरे प्राण कंठ तक आ लगे हैं। ये कभी भी प्रस्थान कर सकते हैं। ये प्राण अभी तक इसलिए अटके हुए हैं कि ये सुजान का संदेश लेकर ही जाना चाहते हैं।

विशेष :

  • कवि की अपनी प्रेयसी से मिलने की उत्कट लालसा अभिव्यक्त हुई है।
  • ‘चाहत चलन’, ‘घिरत घर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘कहि कहि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • घर आनंद में श्लेष अलंकार है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।
  • वियोग श्रृंगार रस का मार्मिक परिपाक हुआ है।
  • कवित्त छंद प्रयुक्त है।

2. आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौलौं ?
कहा मो चकति दसा त्यों न वीठि डोलि है ?
मौन हू सौं देखिहौं कितेक पन पालिहौ जू,
कूकभरी मूकता बुलाय आप बोलि है।
जान घनआनैंद यों मोहिं तुम्है पैज परी,
जानियैगो टेक टरें कौन धौ मलोलिहै।
रुई दिए रहौगे कहाँ लौ बहरायबे की ?
कबहूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलिहै।

शब्दार्थ : आनाकानी = टाल-मटोल। आरसी – स्त्रियों द्वारा अँगूठे में पहना जाने वाला शीशा जड़ा आभूषण। मौन = चुप। कूकभरी = पुकार भरी। पैज = बहस। बहरायबे = बहरा बनने का।

प्रसंग : प्रस्तुत कवित्त रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि घनानंद द्वारा रचित है। इस कवित्त में कवि अपनी प्रेयसी सुजान से कहता है कि तुम कब तक मिलने में आनाकानी करती रहोगी। मुझमें और तुममें एक प्रकार की होड़ सी चल रही है। तुम कब तक कानों में रुई डाले बैठी रहोगी। कभी न कभी तो मेरी पुकार तुम्हारे कानों तक पहुँचेगी ही।

व्याख्या : कवि अपनी प्रेमिका सुजान को संबोधित करते हुए कह रहा है कि तुम कब तक मिलने में आनाकानी करते हुए अपनी आरसी (अँगूठी के शीशे) को देखते रहने का बहाना करती रहोगी ? इसमें तो तुम्हें अपना ही प्रतिबिंब दिखाई देता है। तुम कब तक मेरी ओर दृष्टि नहीं डालोगी ? मेरी दशा की ओर तुम्हारी नजर क्यों नहीं जाती ? मैं मौन होकर देख रहा हूँ कि तुम कब तक अपनी जिद्द पर अड़ी रहती हो। तुम जिद्दी हो तो मैं भी कम जिद्दी नहीं हूँ।

तुम्हारी जिद्द न बोलने की है तो मेरी जिद्द बुलवाने की है। तुम्हें मुझसे बात करनी ही होगी। मेरी कूकभरी मूकता अर्थात् चुप्पी तुम्हें बुलवाकर रहेगी। तुम्हें अपना हठ छोड़ना होगा। तुम यह जानना चाहती हो कि पहले कौन बोलता है। तुमने अपने कानों में रुई डाल रखी है। इस प्रकार कब तक न सुनने का बहाना करती रहोगी? कभी तो मेरी पुकार तुम्हारे कानों तक पहुँचकर रहेगी ? तब तुम्हें मेरी बात सुननी होगी।

विशेष :

  • प्रिय मिलन की आशा बलवती प्रतीत होती है।
  • ‘कौौगे कौलौ’, ‘पैज परी’, ‘टेक टरै’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘कान में रुई देना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है।
  • ‘कूक भरी मूकता’ में मन की गहराई का बोध होता है।
  • ‘आनाकानी आरसी निहारिबों में अन्योक्ति का प्रयोग है।
  • भाषा : ब्रज।
  • छंब : कवित्त।
  • रस : वियोग भृंगार रस।

सवैया –

1. तब तो छबि पीवत जीवत है, अब सोचन लोचन जात जरे।
हित-तोष के तोष सु प्रान पले, विललात महा दुःख दोष भरे।
घनआनँद मीत सुजान बिना, सब ही सुख-साज-समाज टरे।
तब हार पहार से लागत हे, अब आनि के बीच पहार परे॥

शब्दार्थ : छवि पीवत = शोभा का पान करते हुए। लोचन $-$ नेत्र। तोष = संतोष। बिललात = व्याकुल। मीत = मित्र।

प्रसंग : प्रस्तुत सवैया रीतिकाल की स्वच्छंद काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि घनानंद द्वारा रचित है। कवि की प्रेयसी सुजान उससे रूठकर चली गई है। इस सवैये में कवि मिलन और विरह की अवस्थाओं की तुलना कर रहा है।

व्याख्या : कवि सुजान को संबोधित करते हुए कहता है कि संयोग काल में तो मैं तुम्हें देखकर जीवित रहता था और अब वियोग काल में अत्यंत व्याकुल रहता हूँ। अब तो मिलन काल की बात सोचने में ही नेत्र जले जाते हैं। तब तो ठृदय में संतोष के कारण प्राण पलते थे अब वियोग में व्याकुलता के बढ़ने के कारण महादुःख झेलना पड़ रहा है। यह दोषों से भरा हुआ है। कवि घनानंद कहते हैं कि मनमीत सुजान के बिना सभी प्रकार के सुख-साज टल गए हैं अर्थात् सुख दूर भाग गए हैं। मिलनावस्था में तो सुजान के गले का हार पहाड़ के समान बाधक लगता था। (दोनों के मिलन के बीच में आ जाता था।) अब तो वियोगावस्था में दोनों के बीच पहाड़ ही खड़े हो गए हैं। अब दोनों का मिलन असंभव-सा हो गया है।

विशेष :

  • मिलनावस्था के स्मरण में स्मृति बिंब साकार हो गया है।
  • मिलन और वियोग की तुलनात्मक अवस्थाएँ प्रभावी बन पड़ी हैं।
  • प्रिय सुजान की अनुपस्थिति में सभी सुख-साधन व्यर्थ प्रतीत होते हैं।
  • ‘सुख साज समाज’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • छबि पीवत (शोभा रूपी अमृत) रूपक अलंकार है।
  • ‘हार पहार से’ में उपमा अलंकार है।
  • अंतिम पंक्ति में यमक अलंकार की प्रतीति होती है।
  • भाषा : ब्रज।
  • छंव : सवैया।
  • रस : विंयोग शृंगार रस।

2. पूरन प्रेम को मंत्र महा पन जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यौ।
ताही के चारु चरित्र बिचित्रनि यों पचिकै रचि राखि बिसेख्यौ।
ऐसो हियो हितपत्र पवित्र जो आन-कथा न कहूँ अवरेख्यौ।
सो घनआनँद जान अजान लौं टूक कियौ पर बाँचि न देख्यौ।।

शब्दार्थ : पूरन = पूर्ण। पन = प्रण। जा मधि = जिसके बीच। लेख्यौ = लिखा। ताही = उसके। चारु चरित्र = सुंदर चरित्र। पचिकै = पचकर, थककर। हियो = हुदय। हितपत्र = हृदय का प्रेमपत्र। आन कथा = अन्य बात। अवरेख्यौ = अंकित किया, लिखा। अजान = अनजान। टूक = टुकड़े। बाँचि = पढ़कर। न देख्यौ = नहीं देखा।

प्रसंग : प्रस्तुत सवैया रीतिकाल की वियोग बृंगार काव्यधारा के प्रमुख कवि घनानंद द्वारा रचित है। कवि ने अपनी प्रेयसी सुजान को प्रेमपत्र लिखकर उसके प्रति प्रेम का प्रकटीकरण किया, पर उस प्रियतमा ने उसे पढ़ा तक नहीं और फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। यहाँ कवि प्रिया की निष्ठुरता को व्यंजित कर रहा है।

व्याख्या : कवि कहता है- मैंने अपने पूर्ण प्रेम के महामंत्र को बहुत सोच-विचार कर और उसके श्रेष्ठ को याद, बड़े यत्नपूर्वक एक प्रेमपत्र अपनी प्रिया को लिखा। मैंने इसमें थक-थक कर उसके सुंदर चरित्र की विचित्रता का गुणगान किया था। मैंने इसका विशेष ध्यान रखा था। इस हृदय रूपी प्रेमपत्र में किसी अन्य कथा का कोई उल्लेख न था अर्थात् उसके रुष्ट होने का कोई कारण उपस्थित न था। ऐसी प्रेम कथा कहीं अन्यत्र नहीं लिखी गई थी। यह पवित्र प्रेमकथा थी लेकिन उस निष्ठुर जान अर्थात् सुजान (कवि की प्रेयसी) ने उस पत्र को पढ़कर भी नहीं देखा और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए।

पत्र के टुकड़े करना कवि के हृदय के टुकड़े होना है। वास्तव में यह हुदय रूपी पत्रिका ही थी। कवि की प्रेयसी बड़ी निष्ठुर निकली। उसने कवि की बात को पढ़ने-समझने का कोई प्रयास तक नहीं किया।

विशेष :

  • इस सवैये में मानिनी नायिका का वर्णन है जो अपने प्रिय से बुरी तरह रूठी हुई है।
  • ‘हियौ हितपत्र’ में रूपक अलंकार का सुंदर प्रयोग है।
  • अनेक स्थलों पर अनुप्रास अलंकार की छटा है- ‘पूरन प्रेम’, ‘मंत्र महा’, ‘सोधि सुधारि’, ‘ चारु चरित्र’, ‘रचि राखि’, ‘हियौ हितपत्र’ आदि में।
  • भाषा : ब्रज
  • छंद : सवैया
  • रस : वियोग शृंगार रस।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 12 Summary – Premghan Ki Chhaya Smriti Summary Vyakhya

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प्रेमघन की छाया-स्मृति Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 12 Summary

प्रेमघन की छाया-स्मृति – रामचंद्र शुक्ल – कवि परिचय

प्रश्न :
रामचंद्र शुक्ल के जीवन एवं साहित्य का परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं के नाम एवं भाषा शैली की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
आधुनिक हिन्दी आलोचना के प्रवर्तक पं. रामचंद्र शुक्ल का जन्म बस्ती जिले के ‘अगोना’ ग्राम में सन् 1884 ई. में हुआ था। शुक्ल जी की प्रारंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी में हुई। सन् 1901 ई. में उन्होंने मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल से फाइनल (हाई स्कूल) की परीक्षा उत्तीर्ण की और कुछ समय बाद वे उसी स्कूल में ड्राइंग के मास्टर हो गए।

मिर्जापुर में हिंदी प्रेमियों की एक अच्छी-खासी मित्रमंडली शुक्ल जी को मिल गई थी। उन्होंने हिन्दी में लिखना आरंभ किया और सन् 1910 तक हिंदी लेखकों में उनकी गणना होने लगी। ‘हिन्दी शब्व-सागर’ के सहायक संपादक के रूप में कार्य करने के लिए नागरी प्रचारिणी सभा, काशी में उनकी नियुक्ति हुई। कोश-संपादन समाप्त भी न हो पाया था कि वे हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी-प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हो गए। बाबू श्यामसुन्दर दास के अवकाश ग्रहण करने पर वे हिंदी विभाग के अध्यक्ष हुए। इसी पद पर कार्य करते हुए सन् 1941 में शुक्ल जी की मृत्यु हो गई।

रचनाएँ : शुक्ल जी की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं- ‘तुलसीदास’, ‘जायसी ग्रंधावली की भूमिका’, ‘सूरदास ‘, ‘चिन्तामणि’ (तीन भाग), ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ और ‘रस मीमांसा’।

साहित्यिक विशेषताएँ : आचार्य शुक्ल हिंदी के उच्चकोटि के आलोचक, इतिहासकार और साहित्य-चिंतक हैं। विज्ञान, दर्शन, इतिहास, भाषा, विज्ञान, साहित्य और समाज के विभिन्न पक्षों से संबंधित लेखों, पुस्तकों के मौलिक लेखन, संपादन और अनुवादों के बीच से उनका जो व्यापक ज्ञान-संपन्न व्यक्तित्व उभरता है, वह बेजोड़ है। उन्होंने भारतीय साहित्य की नई अवधारणा प्रस्तुत की और हिंदी आलोचना का नया स्वरूप विकसित किया। हिंदी साहित्य के इतिहास को व्यवस्थित करते हुए उन्होंने हिंदी कवियों की सम्यक् समीक्षा की तथा इतिहास में उनका स्थान निर्धारित किया। आलोचनात्मक लेखन के अलावा उन्होंने भाव और मनोटि र संबंधी उच्चकोटि के निबंधों की भी रचना की।

उन्होंने भारतीय एवं पाश्चात्य आलोचना के सिद्धान्तों का समन्वय करके हिंदी आलोचना को नवीन रूप प्रदान किया। उन्होंने हिंदी साहित्य का प्रथम प्रामाणिक इतिहास लिखा तथा निबंध रचना के नए मानदंड स्थापित किए। उनके ‘चिंतामणि’ निबंध-संग्रह पर हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग ने ‘ मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ पुरस्कार प्रदान किया। सूर, तुलसी और जायसी पर उन्होंने विस्तृत आलोचनाएँ लिखी हैं।

भाषा-शैली : शुक्ल जी की भाषा अत्यन्त प्रौढ़, सजीव, प्रांजल एवं भावानुकूल है। उनकी भाषा इतनी सुगठित, निर्दोष तथा अर्थ-व्यंजक है कि विश्व की किसी भी सर्वोत्तम विकसित भाषा की तुलना में रखी जा सकती है।

शुक्ल जी की गद्य शैली विवेचनात्मक है। इसमें विचारशीलता एवं सूक्ष्म तर्क योजना का समावेश है। उनका शब्द-चयन एवं शब्द-संयोजन व्यापक है। सूत्रात्मक वाक्य रचना उनकी शैली की विशेषता है।

वे संस्कृत की तत्सम शब्दावली के साथ-साथ अंग्रेजी, अरबी, फारसी आदि के शब्दों तथा लोक-प्रचलित मुहावरों के प्रयोग द्वारा अपनी भाषा में विशेष प्रवाह और प्रभाव का संचार करने में सफल हुए हैं। विषय के गंभीर प्रतिपादन के साथ ही उनके निबंधों में कहीं-कहीं हास्य एवं व्यंग्य का पुट भी मिलता है। वास्तव में शुक्ल जी की शैली में उनका समग्र व्यक्तित्व प्रतिबिंबित हुआ है।

पाठ का संक्षिप्त परिचय – 

संस्मरणात्मक निबंध ‘प्रेमघन की छाया स्मृति’ में शुक्ल जी ने हिंदी-भाषा एवं साहित्य के प्रति अपने प्रारंभिक रुझानों का बड़ा रोचक वर्णन किया है। उनका बचपन साहित्यिक परिवेश से भरा पूरा था। बाल्यावस्था में ही किस प्रकार भारेंदु एवं उनके मंडल के अन्य रचनाकारों विशेषत: प्रेमघन के सान्निध्य में शुक्ल जी का साहित्यकार आकार ग्रहण करता है, उसकी अत्यंत मनोहारी झाँकी यहाँ प्रस्तुत हुई है। प्रेमघन के व्यक्तित्व ने शुक्ल जी की समवयस्क मंडली को किस तरह प्रभावित किया, हिंदी के प्रति किस प्रकार आकर्षित किया तथा रचनाकार के व्यक्तित्व निर्माण आदि संबंधी पहलुओं का बड़ा चित्ताकर्षक चित्रण इस निबंध में उकेरा गया है।

Premghan Ki Chhaya Smriti Class 12 Hindi Summary

यह पाठ संस्मरणात्मक शैली में रचित है। इस निबंध में शुक्ल जी ने हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति अपने प्रारंभिक रूझानों का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है। लेखक का बचपन साहित्यिक परिवेश से भरा पूरा था। इस निबंध में बताया गया है कि शुक्ल जी बाल्यावस्था से ही भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों के संपक में आ गए थे। विशेषकर प्रेमघन के सान्निध्य में उनका साहित्याकार निरंतर विकसित होता चला गया। इस निबंध में इस बात का भी वर्णन है कि प्रेमघन के व्यक्तित्व ने किस प्रकार शुक्ल जी की समवयस्क मंडली को प्रभावित किया।

शुक्ल जी के पिताजी फारसी के अच्छे ज्ञाता थे। वे पुरानी हिंदी-कविता के प्रेमी थे। उन्हें फारसी कवियों की उक्तियों को हिंदी-कवियों की उंक्तियों के साथ मिलाने में बड़ा मजा आता था। वे रात के समय घर के सब लोगों को एकत्रित करके ‘रामचरितमानस’ अथवा ‘रामचंद्रिका’ को पढ़कर सुनाया करते थे। उन्हें भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक प्रिय लगते थे। तब शुक्लजी की आयु आठ वर्ष थी। तब तक यह बालक (लेखक) राजा हरिश्चंद्र और कवि हरिश्चंद्र में कोई भेद नहीं कर पाता था। मिर्जापुर आने पर उन्हें पता चला कि भारतेंदु हरिश्चंद्र के एक मित्र यहाँ रहते हैं, उनका नाम था-उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी। वे हिंदी के प्रसिद्ध कवि थे। एक दिन बालकों की मंडली एकत्रित होकर चौधरी साहब के मकान की ओर चल दी। वे एक बड़े मकान के नीचे जा खड़े हुए। बरामदा तो खाली था पर लताओं के बीच एक मूत्ति खड़ी दिखाई दी। उनके कंषों पर बाल बिखरे हुए थे, एक हाथ खंभे पर था। देखते-देखते यह मूर्ति ओझल हो गई। बस यही चौधरी जी की पहली झाँकी थी।

ज्यों-ज्यों लेखक सयाना होता चला गया त्यों-ल्यों उसका झुकाव नए हिंदी साहित्य की ओर बढ़ता चला गया। उन दिनों वह क्वींस कॉलेज में पढ़ता था। लेखक पुस्तकालय से पुस्तकें लाकर पढ़ने लगा। यह पुस्तकालय पं. केदारनाथ पाठक ने खोला था। एक बार लेखक की उनसे भेंट काशी में हो गई। उस समय वे भारतेंदु जी के मकान से ही निकलकर आए थे। 76 वर्ष की आयु तक लेखक को समवयस्क हिंदी-प्र्रिमियों की खासी मंडली मिल गई। इनमें प्रमुख थे: काशीप्रसाद जायसवाल, भगवानदास हालना, पं. बदरीनाथ गौड़, पं. उमाशंकर द्विवेदी आदि। तब तक शुक्ल जी स्वयं को लेखक मानने लगे थे। उन्हीं दिनों लेखक के मुहल्ले में एक मुसलमान सब-जज आ गए। उन्होंने शुक्ल जी की सूरत देखते ही जान लिया कि यह हिंदी-प्रेमी हैं।

चौधरी साहब (प्रेमघन) से लेखक का अच्छा परिचय हो गया था। चौधरी साहब एक अच्छे खासे रईस थे। उनकी हर अदा से उनका बड़प्पन झलकता था। कंधों तक उनके बाल लटकते थे। उनकी बातों में विलक्षण वक्रता होती थी। वे लोगों को प्रायः बनाया करते थे। उन दिनों एक प्रतिभाशाली कवि थे-वामनाचार्य गिरि। वे चौधरी साहब के ऊपर एक कविता जोड़ रहे थे कि अंति छंद नहीं बन पा रहा था। उन्हें चौधरी साहब अपने बरामदे में कंधों में बाल छिटकाए दिखाई पड़े और कविता पूरी कर दी – ‘खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की।’ लेखक के सहपाठी पं. लक्ष्मीनारायण चौबे, भगवान दास हालना तथा भगवानदास मास्टर ने उद्दूं-बेगम नाम की विनोदूूर्ण पुस्तक लिखी थी, इसमें ‘उर्दू की उत्पत्ति’, प्रचार आदि का वृत्तांत कहानी के रूप में दिया गया था। उपाध्याय जी नागरी को भाषा मानते थे। उनका कहना था कि “नागर अपभ्रंश से, जो शिष्ट लोगों की भाषा विकसित हुई, वही नागरी कहलाई।” वे मिर्जापुर न लिखकर मीरजापुर लिखा करते थे। वे इसका यह अर्थ करते थे – मीर = समुद्र + जा = पुत्री + पुर।

शब्दार्थ एवं टिप्पणी –

स्मृति = याद (Memory), उत्कंठा = लालसा, बेचैनी (Curiosity), आवृत = ढका हुआ, घेरा हुआ (Covered), लता-प्रतान = लता का फैलाव, लतातंतु (Bunch of creeping plants), परिणत = अन्य रूप में बदला हुआ, परिणाम या रूपांतर को प्राप्त (Changed), मुख्तार – अधिकार प्राप्त व्यक्ति, व्यक्ति-विशेष के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने का अधिकारी, एजेंट (Agent), अमला – कर्मचारी मंडल (A group of employees), वाकिफ = जानकार, परिचित (Known), वक्रता = टेढ़ापन, कुटिलता (Curved), परिपाटी = सिलसिला, रीति (Tradition), अपश्रंश = प्राकृत भाषाओं का परवर्ती रूप जिनसे उत्तर भारत की आधुनिक आर्य-भाषाओं की उत्पत्ति मानी जाती है (Oldform of language), चित्ताकर्षक = मन को आकर्षित करने वाला (Attractive), ओझल = गायब (Disappear), कुतूहल = जिज्ञासा (Curiosity), अव्भुत = अनोखा (Strange), प्रतिभाशाली = बुद्धिमान (Intelligent), विनोदपूर्ण – आनंद से भरी (Full of enjoyment), नूतन = नया।

प्रेमघन की छाया-स्मृति सप्रसंग व्याख्या

1. भारतेंदु-मंडल की किसी सजीव स्मृति के प्रति मेरी कितनी उत्कंठा रही होगी, यह अनुमान करने की बात है। मैं नगर से बाहर रहता था। एक दिन बालकों की मंडली जोड़ी गई। जो चौधरी साहब के मकान से परिचित थे, वे अगुआ हुए। मील डेढ़ का सफर तै हुआ। पत्थर के एक बड़े मकान के सामने हम लोग जा खड़े हुए। नीचे का बरामदा खाली था। ऊपर का बरामदा सघन लताओं के जाल से आवृत था। बीच-बीच में खंभे और खुली जगह दिखाई पड़ती थी। उसी ओर देखने के लिए मुझसे कहा गया। कोई दिखाई न पड़ा। सड़क पर कई चक्कर लगे। कुछ देर पीछे एक लड़के ने उँगली से ऊपर की ओर इशारा किया। लता-प्रतान के बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई पड़ी। दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। एक हाथ खंभे पर था। देखते ही देखते यह मूर्ति दृष्टि से ओझल हो गई। बस, यही पहली झाँकी थी।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक एवं समालोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरण प्रेमघन की छाया स्मृति’ से उद्धृत है। इस संस्मरणात्मक निबंध में लेखक ने अपने साहित्यिक जीवन के प्रारंभिक भाग पर प्रकाश डाला है। किशोरावस्था में वे बदरी नारायण चौधरी के संपर्क में आए। इस निबंध में उनके प्रति आदर एबं सम्मान का भाव प्रकट किया गया है।

व्याख्या : लेखक बदरीनारायण चौधरी से मिलने के लिए बहुत उत्कंठित था। वे भारतेंदु हरिश्चंद्र के मित्र थे। लेखक चौधरी साहब से मिलकर भारतेंदु जी तक पहुँचना चाहता था। भारतेंदु जी ने लेखकों की एक मित्र-मंडली बना रखी थी। लेखक इस मंडली की किसी सजीव मूर्ति से मिलना चाहता था। लेखक उन दिनों नगर से बाहर रहता था। बदरीनारायण चौधरी के दर्शन करने की एक योजना बनाई गई। एक दिन बालकों को एकत्रित किया गया। जो बालक चौधरी साहब के घर से परिचित थे उन्हें आगे किया गया। सभी ने मिलकर चौधरी साहब के घर तक एक-डेढ़ मील तक का सफर पूरा किया।

सभी लड़के पत्थर से बने एक मकान के सामने जा खड़े हुए। मकान के नीचे का बरामदा बिल्कुल खाली था। ऊपर वाला बरामदा घनी बेलों के जाल से ढका हुआ था। बीच-बीच में केवल खंभे और खुली जगह दिखाई पड़ रही थी। लेखक को उसी ओर देखने को कहा गया पर उसे कोई दिखाई न पड़ा। फिर वह सड़क पर चक्कर लगाने लगा। तभी लड़कों ने ऊपर की ओर इशारा किया। तब लेखक को बरामदे में एक व्यक्ति दिखाई पड़ा। वह मूर्तिवत् खड़ा था। चौधरी साहब बेलों के झुंड के मध्य खड़े थे। उनका एक हाथ खंभे पर था। उनके दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। लेखक ने उनकी एक झलक भर देखी ही थी कि वह मूर्ति अचानक गायब हो गई अर्थात् चौधरी साहब दिखाई नहीं देने लगे। या तो वे चले गए अथवा लताओं की ओट में दिखाई नहीं पड़े। यही उनकी पहली झाँकी थी।

विशेष :

  1. प्रस्तुत गद्यांश से लेखक का साहित्यकारों के प्रति उत्कंठित होने का पता चलता है।
  2. वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।
  3. चित्रात्मकता देखते ही बनती है।
  4. तत्सम शब्दों का भरपूर प्रयोग है, यथा-स्मृति, उत्कंठा, लता-प्रतान, दृष्टि आदि।
  5. ‘दृष्टि से ओझल हो जाना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है।

2. एक बार एक आदमी के साथ करके मेरे पिताजी ने मुझे एक बारात में काशी भेजा। मैं उसी के साथ घूमता-फिरता चौखंभा की ओर जा निकला। वहीं पर एक घर में से पं. केवारनाथ जी पाठक निकलते विखाई पड़े। पुस्तकालय में वे मुझे प्रायः देखा करते थे। इससे मुझे देखते ही वे वहीं खड़े हो गए। बात ही बात में मालूम हुआ कि जिस मकान में से वे निकले थे, वह भारतेंदु जी का घर था। मैं बड़ी चाह और कुतूहल की वृष्टि से कुछ देर तक उस मकान की ओर, न जाने किन-किन भावनाओं में लीन होकर देखता रहा। पाठक जी मेरी यह भावुकता देख बड़े प्रसन्न हुए और बहुत ढूर मेरे साथ बातचीत करते हुए गए।

भारतेंदु जी के मकान के नीच्चे का यह हूवय-परिचय बहुत शीप्र गहरी मैत्री में परिणत हो गया। 16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते तो समवयस्क हिंदी-प्रेमियों की एक खासी मंडली मुझे मिल गई, जिनमें श्रीयुत् काशीप्रसाद जी जायसवाल, बा, भगवानदास जी हालना, पं. बदरीनाथ गौड़, पं. उमाशंकर द्विवेदी मुख्य थे। हिंदी के नए-पुराने लेखकों की चर्चा बराबर इस मंडली में रहा करती थी। मैं भी अब अपने को एक लेखक मानने लगा था।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक एवं समालोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरण प्रेमघन की छाया स्मृति’ से अवतरित है। इसमें लेखक बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ को स्परण करता है। यहाँ लेखक एक पुस्तकालय के संचालक पं. केदारनाथ पाठक के साथ हुई मित्रता का उल्ल्लेख कर रहा है।

व्याख्या : लेखक किशोरावस्था में एक बार किसी व्यक्ति के साथ एक बारात में काशी गया। वह काशी में घूमता-फिरता चौखंभा की ओर जा निकला। वहीं उसने देखा कि पं. केदारनाथ पाठक एक घर से बाहर निकल रहे थे। लेखक उनके पुस्तकालय में जाया करता था अत: वे उसे पहचानते थे। लेखक को देखकर वे वहीं रुक गए। दोनों में बातचीत होने लगी। बातों-बातों में पता चला कि जिस मकान से अभी पाठक जी निकले थे वह भारतेंदु हरिश्चंद्र का ही है। लेखक की भारतेंदु जी के प्रति बड़ी श्रद्धा थी।

अतः वे बड़ी चाह एवं जिज्ञासा से उस मकान की ओर देखने लगे। उस समय वे भावनाओं में बह रहे थे और भारतेंदु के मकान को लीन होकर देख रहे थे। पाठक जी उनकी यह दशा देखकर बहुत खुश हुए। दोनों बातचीत करते हुए काफी दूर चले गए। लेखक और पाठक जी के मध्य यह हार्दिक परिचय था, जो भारतेंदु जी के मकान के नीचे हुआ था। आगे चलकर यह परिचय गहरी मित्रता में बदल गया। जब लेखक 16 वर्ष का हुआ तब उसे अपनी आयु-वर्ग के हिंदी-प्रेमियों की एक अच्छी खासी मंडली मिल गई। इनमें अनेक प्रसिद्ध लेखक थे। इनमें मुख्य थे-काशीप्रसाद जायसवाल, बा. भगवानदास ह्रालना, पं. बदरीनाथ गौड़, पं. उमाशंकर द्विवेदी आदि। इस लेखक मंडली में नए और पुराने लेखकों के बारे में लगातार चर्चा होती रहती थी। अब शुक्ल जी भी स्वयं को लेखक मानने लगे थे।

विशेष :

  1. इस गद्यांश में लेखक का तत्कालीन बड़े लेखकों के प्रति जिज्ञासा भाव प्रकट होता है।
  2. लेखक का प्रारंभ से ही हिंदी-साहित्य के प्रति रुझान का पता चलता है।
  3. लेखक ने सीधी-सरल विवरणात्मक शैली का अनुसरण किया है।

3. मेरे मोहल्ले में कोई मुसलमान सब-जज आ गए थे। एक विन मेरे पिताजी खड़े-खड़े उनके साथ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच मैं उधर जा निकला। पिताजी ने मेरा परिचय देते हुए उनसे कहा- “इन्हें हिंदी का बड़ा शौक है।” चट जवाब मिला- “आपको बताने की जरूरत नहीं। मैं तो इनकी सूरत देखते ही इस बात से ‘वाकिफ’ हो गया।” मेरी सूरत में ऐसी क्या बात थी, यह इस समय नहीं कह सकता। आज से तीस वर्ष पहिले की बात है।

प्रसंग : प्रस्तुत गध्धांश हिंदी गद्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरण ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ से उद्धृत है। लेखक की बचपन से ही हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति गहरी रुचि थी। यहाँ इसी की झलक दिखाई देती है।

व्याख्या : लेखक के पिताजी विद्वान थे। उन्हें अपने पुत्र पर गर्व था कि वह छोटी आयु में ही अच्छी हिंदी लिखता था। एक बार की बात है कि लेखक के मोहल्ले में एक मुसलमान सब-जज रहने आए थे। लेखक के पिताजी से उनका परिचय था। एक बार लेखक के पिताजी उनसे खड़े-खड़े बातचीत कर रहे थे, तभी लेखक भी वहाँ आ पहुँचा। पिताजी ने लेखक का उन सब-जज साहब से परिचय करवाते हुए कहा कि यह मेरा पुत्र है और इसकी हिंदी में बड़ी रुचि है।

सब-जज साहब ने मुझे परखते हुए उत्तर दिया कि यह सब बताने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो इसकी सूरत देखकर ही समझ गया। इसका हिंदी-प्रेम इसकी शक्ल से झलकता है। यह शक्ल से ही पढ़ा-लिखा नौजवान लगता है। सब-जज साहब उनकी प्रतिभा को पहचान गए थे। पर लेखक के लिए यह बात रहस्य बनी रही कि उनकी सूरत की किस विशेषता से प्रभावित होकर सब-जज साहब ने यह बात कही। तब लेखक इसका विश्लेषण करने में असमर्थ था क्योंकि यह यात 30 वर्ष पहले की है। इससे उसकी किशोर आयु का अंदाजा लगाया जा सकता है।

विशेष :

  1. लेखक प्रारंभ से ही प्रतिभाशाली था। वह प्रतिभाशाली प्रतीत भी होता था।
  2. उर्दू शब्द ‘वाकिफ’ का प्रयोग प्रभावशाली है।
  3. भाषा सहज, सरल एवं विषयानुकूल है।

4. चौधरी साहब से तो अब अच्छी तरह परिचय हो गया था। अब उनके यहाँ मेरा जाना एक लेखक की हैसियत से होता था। हम लोग उन्हें एक पुरानी चीज समझा करते थे। इस पुरातत्त्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का एक अव्भुत मिश्रण रहता था। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि चौधरी साहब एक खासे हिंदुस्तानी रईस थे। वसंत पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर उनके यहाँ खूब नाचरंग और उत्सव हुआ करते थे। उनकी हर एक अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी।

कंधों तक बाल लटक रहे हैं। आप इधर से उधर टहल रहे हैं। एक छोटा-सा लड़का पान की तश्तरी लिए पीछे-पीछे लगा हुआ है। बात की काँट-छाँट का क्या कहना है! जो बातें उनके मुँह से निकलती थीं, उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत का ढंग उनके लेखों के ढंग से एकवम निराला होता था। नौकरों तक के साथ उनका संवाद सुनने लायक होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से कभी कोई गिलास वगैरह गिरा, तो उनके मुँह से यही निकला कि “कारे बचा त नाही।” उनके प्रश्नों के पहिले ‘क्यों साहब’ अक्सर लगा रहता था।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध हिंदी गद्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरणात्मक निबंध ‘प्रेमघन की छाया-स्मिति’ से अवतरित है। इसमें लेखक समकालीन कवि बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ के स्वभाव की विशेषताओं पर प्रकाश डालता है।

व्याख्या : शुक्ल जी प्रारंभ से ही चौधरी साहब से मिलने को उत्सुक रहते थे। बाद में उनके साथ लेखक का अच्छा-खासा परिचय हो गया था। अब तक शुक्ल जी भी एक लेखक के रूप में पहचाने जाने लगे थे। अतः अब वे चौधरी साहब के यहाँ एक लेखक के रूप में जाते थे। चूँकि चौधरी साहब बुजुर्ग थे अत: लेखक और उनके साथी उन्हें एक पुरानी चीज समझते थे। उनमें पुरानापन देखने में भी लेखक का प्रेम और जिज्ञासा का भाव झलकता था। वे उनके प्रति आदर-भाव रखते थे। चौधरी साहब का परिचय देते हुए लेखक बताता है कि वे एक अच्छे-खासे हिंदुस्तानी रईस थे।

उनके यहाँ वसंत पंचमी और होली आदि त्योहारों पर खूब नृत्य-संगीत और उत्सव के कार्यक्रम होते थे। उनकी हर अदा से रईसी टपकती थी। उन्हें लंबे बाल रखने का शौक था। उनके बाल कंधों तक लटकते थे। जब वे इधर-उधर टहलते थे तक एक छोटा लड़का पान की तशतरी लेकर उनके आगे-पीछे चलता रहता था ताकि इच्छा होने पर वे पान खा सकें। बात की काट-छाँट करने में भी वे अनोखे थे। उनके मुँह से निकलने वाली हर बात विलक्षणता को लिए हुए होती थी। उनकी बातचीत और लेखों के ढंग में अंतर होता था। जब वे नौकरों के साथ संवाद करते थे तो वह सुनने लायक होता था। वे ठेठ अपनी देसी भाषा में बात करते थे। जब किसी नौकर के हाथ से गिलास वगैरा गिर जाता था तब उनके मुँह से यही निकलता था-‘ कारे बचा त नाहीं।’ वे जब भी कोई प्रश्न करते तो पहले यह कहते-‘ क्यों साहब।’

विशेष :

  1. यहाँ चौधरी साहब के दबंग व्यक्तित्व एवं रईसी ठाठ की झलक प्रस्तुत की गई है।
  2. सीधी सरल भाषा का प्रयोग किया गया है।
  3. तद्भव शब्दों का प्रयोग अधिक है।

5. वे लोगों को प्राय: बनाया करते थे, इससे उनसे मिलने वाले लोग भी उन्हें बनाने की फिक्र में रहा करते थे। मिर्जापुर में पुरानी परिपाटी के एक बहुत ही प्रतिभाशाली कवि रहते थे, जिनका नाम था-वामनाचार्य गिरि। एक दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर एक कविता जोड़ते चले जा रहे थे। अंतिम चरण रह गया था कि चौधरी साहब अपने बरामदे में कंधों पर बाल छिटकाए खंभे के सहारे खड़े दिखाई पड़े। चट कवित्त पूरा हो गया और वामनजी ने नीचे से वह कवित्त ललकारा, जिसका अंतिम अंश था-“खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की।”

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हिंदी के प्रख्यात लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरणात्मक निबंध ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ से अवतरित हैं। इसमें लेखक प्रेमघन के आकर्षक व्यक्तित्व पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाश डाल रहा है।

व्याख्या : बदरीनारायण चौधरी की यह आदत थी कि वे लोगों को मूर्ख बनाया करते थे, पर उनसे मिलने वाले भी कोई कम न होते थे। वे इस प्रयास में रहते थे कि चौधरी साहब को कैसे बनाया जाए। इसी सिलसिले में लेखक एक घटना का उल्लेख करता है। उन दिनों मिर्जापुर में प्राचीन कविता के एक प्रतिभाशाली कवि रहते थे। उनका नाम था-‘ वामनाचार्य गिरि’। एक दिन की बात है कि सड़क पर चलते हुए चौधरी साहब पर एक कविता जोड़ते जा रहे थे।

बस कविता का अंतिम चरण बनना शेष रह गया था। तभी उन्हें चौधरी साहब अपने बरामदे में दिखाई पड़े। उनके बाल कंधों पर छिटके हुए थे। उस समय वे एक खंभे के सहारे खड़े थे। इसी मुद्रा में वे कवि महोदय को दिखाई पड़ गए। उन्हें देखते ही उनकी कविता का अंतिम चरण भी पूरा हो गया। वामन जी ने नीचे से ही वह कवित्त बोलकर सुनाया। उसकी अंतिम पंक्ति थी-“खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की।” अर्थात् उस समय कवि महोदय को चौधरी साहब एक मुगल स्त्री के समान प्रतीत हो रहे थे जो खंभा का सहारा लेकर खड़ी हो।

विशेष :

  1. इस गद्यांश में अप्रत्यक्ष रूप से बदरीनारायण चौधरी की सुंदरता की तुलना मुगल स्त्री से की गई है।
  2. वामनाचार्य गिरि की आशुलेखन प्रवृत्ति का पता चलता है।
  3. वर्णनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।

6. मेरे सहपाठी पं. लक्ष्मीनारायण चौबे, बा. भगवानदास हालना, बा. भगवानदास मास्टर-इन्होंने उर्दू-बेगम नाम की एक बड़ी ही विनोदपूर्ण पुस्तक लिखी थी, जिसमें उर्दू की उत्पत्ति, प्रचार आदि का वृत्तांत एक कहानी के ढंग पर दिया गया था-इत्यादि कई आदमी गर्मी के दिनों में छत पर बैठे चौधरी साहब से बातचीत कर रहे थे। चौधरी साहब के पास ही एक लैम्प जल रहा था। लैम्प की बत्ती एक बार भभकने लगी। चौधरी साहब नौकरों को आवाज देने लगे। मैंने चाहा कि बढ़कर बत्ती नीचे गिरा दूँ, पर लक्ष्मीनारायण ने तमाशा देखने के विचार से मुझे धीरे से रोक लिया। चौधरी साहब कहते जा रहे हैं, “अरे, जब फूट जाई तबै चलत आवह।” अंत में चिमनी ग्लोब के सहित चकनाचूर हो गई, पर चौधरी साहब का हाथ लैम्प की तरफ न बढ़ा।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरणात्मक निबंध ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ से अवतरित है। इसमें लेखक ने चौधरी साहब के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या : लेखक कहता है कि उसके सहपाठी पं. लक्ष्मीनारायण चौबे, बा. भगवानदास हालना तथा बा. भगवानदास मास्टर ने मिलकर ‘उर्दू-बेगम’ नामक एक बड़ी ही मनोरंजक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में उर्दू के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। उर्दू कैसे उत्पन्न हुई ? कैसे इसका प्रसार-प्रचार हुआ ? आदि पर इसमें विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। यह सारा वृत्तांत कहानी शैली में दिया गया है। कई व्यक्ति चौधरी साहब के साध छत पर बैठकर बातें कर रहे थे, गर्मी का मौसम था।

चौधरी साहब के निकट एक लैम्प जल रहा था। अचानक लैम्प की बत्ती भभकने लगी अतः लैम्प का बुझाना जरूरी हो गया। इस काम के लिए चौधरी साहब नौकरों को आवाज देने लगे। लेखक ने चाहा कि वह बत्ती को नीचे गिराकर बुझा दे पर लक्ष्मीनारायण ने रोक दिया और तमाशा देखने को कहा। चौधरी साहब स्वयं कुछ न करके कहे जा रहे थे कि जब लैम्प की चिमनी फट जाएगी, क्या तभी कोई आएगा और अंत में यही हुआ कि चिमनी ग्लोब के साथ टूटकर चकनाचूर हो गई। इसके बावजूद चौधरी साहब का हाथ लैम्य तक न गया। संभवतः यह उनके रईसी ठाठ का प्रभाव था।

विशेष :

  1. चौधरी साहब के व्यक्तित्व के एक पहलू पर प्रकाश डाला गया है।
  2. वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है।
  3. सीधी-सरल भाषा का प्रयोग है।

7. मैं भी अब अपने को एक लेखक मानने लगा था। हम लोगों की बातचीत प्राय: लिखने-पढ़ने की हिंदी में हुआ करती, जिसमें ‘निस्संदेह’ इत्यादि शब्द आया करते थे। जिस स्थान पर मैं रहता था, वहाँ अधिकतर वकील, मुख्तारों तथा कचहरी के अफ़सरों और अमलों की बस्ती थी। ऐसे लोगों के उर्दू कानों में हम लोगों की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन्होंने हम लोगों का नाम ‘निस्संदेह’ लोग रख छोड़ा था। मेरे मुहल्ले में कोई मुसलमान सब-जज आ गए थे। एक दिन मेरे पिता जी खड़े-खड़े उनके साथ कुछ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच मैं उधर जा निकला। पिता जी ने मेरा परिचय देते हुए कहा-“इन्हें हिंदी का बड़ा शौक है।” चट जबाव मिला- “आपको बताने की जरूरत नहीं। मैं तो इनकी सूरत देखते ही इस बात से ‘वाकिफ़’ हो गया।’

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित निबंध ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ से उद्धत है।

व्याख्या : हिंदी लेखकों का मित्र मंडली में आकर लेखक भी स्वयं को हिंदी का लेखक मानने लगा था। मंडली के बीच उनका अच्छा सम्मान था। इस मंडली के लेखक बातचीत भी अच्छी स्तरीय हिंदी में करते थे। वे नए-नए शब्दों का प्रयोग करते रहते थे। उनकी बातचीत में ‘निस्संदेह’ शब्द का बहुत प्रयोग होता था। लेखक जिस जगह रहता था, वहाँ अदालत-कचहरी से संबंधित लोग अधिक संख्या में रहते थे। वे अधिकतर उर्दू भाषा का प्रयोग करते थे। उन लोगों को इन लेखकों की बोली बड़ी विचित्र लगती थी। हिंदी लेखकों के ‘निस्संदेह’ शब्द को सुन-सुनकर इनका नाम ही निस्संदेह रख दिया गया। लेखक के मुहल्ले में एक मुसलमान जज रहने लगे थे। वे पिताजी के जानकार थे। पिताजी ने लेखक का उनसे परिचय कराया तो जज साहब बोले कि मैं तो इनकी शक्ल को देखते ही समझ गया था कि ये कोई लेखक हैं।

विशेष :

  1. ‘निस्संदेह’ शब्द का व्यंग्यार्थ प्रयोग हुआ है।
  2. विवरणात्मक शैली अपनाई गई है।
  3. ‘वाकिफ़’ उर्दू शब्द का प्रयोग है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 13 Summary – Sumirini Ke Manke Summary Vyakhya

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सुमिरिनी के मनके Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 13 Summary

सुमिरिनी के मनके – पंडित चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – कवि परिचय

प्रश्न :
पं. चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ के जीवन का परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं का परिचय दीजिए तथा रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म 1883 ई. में पुरानी बस्ती, जयपुर (राजस्थान) में हुआ था। उनके पिता संस्कृत के विद्वान थे अतः उन्होंने बचपन में ही उनसे संस्कृत पढ़ी। बचपन में ही उन्हें तीन-चार सौ श्लोक तथा अष्टाध्यायी के दो अध्याय कंउस्थ हो गए थे। 1899 ई. में उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से एंट्रेंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उनकी इस सफलता पर जयपुर राज्य की ओर से उन्हें स्वर्णपदक प्रदान किया गया। सन् 1903 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बी. ए. पास किया। वे दर्शनशास्त्र में एम.ए. करना चाहते थे, पर जयपुर राज्य के आग्रह पर खेतड़ी नरेश जयसिंह का संरक्षक बनकर अजमेर के मेयो कॉलेज जाना पड़ा और वहीं संस्कृत के प्राध्यापक बन गए। सन् 1920 में वे काशी विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष बन गए, पर 39 वर्ष की अल्पावस्था में 1922 में उनका देहांत हो गया।

साहित्यिक विशेषताएँ : गुलेरी जी समालोचक, निबंधकार और कहानीकार थे। उनकी साहित्यिक यात्रा की चार प्रमुख पत्रिकाएँ हैं-समालोचक (सन् 1903-06 ई॰), मर्यादा (सन् 1911-12), प्रतिभा (1918-20) और नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1920-22)। उन्हें ‘इतिहास दिवाकर’ की उपाधि से सम्मानित किया गया।

रचनाएँ : गुलेरी जी की सृजनशीलता के चार मुख्य पड़ाव हैं: समालोचक (1903-06 ई.), मर्यादा (1911-12), प्रतिभा (1918-20) और नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1920-22)। इन पत्रिकाओं में गुलेरी जी का रचनाकार व्यक्तित्व उभरकर सामने आया। उन्होंने उत्कृष्ट निबंधों के अतिरिक्त तीन कहानियाँ लिखीं-1. सुखमय जीवन, 2. बुद्ध का काँटा, 3. उसने कहा था। ‘उसने कहा था’ कहानी तो गुलेरी जी का ही पर्याय बन गई। गुलेरी जी को ‘इतिहास दिवाकर’ की उपाधि से सम्मानित किया गया।

भाषा-शिल्प : गुलेरी जी की भाषा शैली सरल, आम बोलचाल की खड़ी बोली है। उनकी भाषा सरल और स्वाभाविक होते हुए गंभीर विषयों को प्रस्तुत करने में सक्षम है। इन्होंने आम बोलचाल के शब्दों के अलावा तत्सम, तद्भव, गुजराती, पंजाबी, अंग्रेजी, उर्दू-फारसी भाषाओं के शब्दों का बहुलता से प्रयोग किया है। मुहावरों के प्रयोग ने भाषा को रोचक बनाया है। अपने साहित्य को रोचक एवं सजीव बनाए रखने के लिए लेखक ने वर्णनात्मक, विवरणात्मक एवं चित्रात्मक शैली का प्रयोग किया है।

पाठ का संक्षिप्त परिचय – 

‘सुमिरिनी के मनके’ नाम से तीन लघु निबंध-बालक बच गया, घड़ी के पुर्जे और ढेले चुन लो पाठ्यपुस्तक में दिए गए हैं। ‘बालक बच गया’ निबंध का मूल प्रतिपाद्य है शिक्षा ग्रहण की सही उम्र। लेखक मानता है कि हमें व्यक्ति के मानस के विकास के लिए शिक्षा को प्रस्तुत करना चाहिए, शिक्षा के लिए मनुष्य को नहीं। हमारा लक्ष्य है मनुष्य और मनुष्यता को बनाए रखना। मनुष्य बचा रहेगा तो वह समय आने पर शिक्षित किया जा सकेगा। लेखक ने अपने समय की शिक्षा प्रणाली और शिक्षकों की मानसिकता को प्रकट करने के लिए अपने जीवन के अनुभव को हमारे सामने अत्यंत व्यावहारिक रूप में रखा है।

लेखक ने इस उदाहरण से यह बताने की कोशिश की है कि शिक्षा हमें बच्चे पर लादनी नहीं चाहिए बल्कि उसके मानस में शिक्षा की रुचि पैदा करने वाले बीज डाले जाएँ, ‘सहज पके सो मीठा होए।’ ‘घड़ी के पुर्जे’ में लेखक ने धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म उपदेशकों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। ‘बेले चुन लो’ में लोक विश्वासों में निहित अंधविश्वासी मान्यताओं पर चोट की गई है। तीनों निबंध समाज की मूल समस्याओं पर विचार करने वाले हैं। इनकी भाषा-शैली सरल, बोलचाल की होते हुए भी गंभीर ढंग से विषय प्रवर्तन करने वाली है।

Sumirini Ke Manke Class 12 Hindi Summary

(क) बालक बच गया –

इस लघु निबंध का प्रतिपाद्य यह है कि शिक्षा ग्रहण की सही उम्र बताना। लेखक का मानना है कि हमें व्यक्ति के विकास के लिए शिक्षा को प्रस्तुत करना चाहिए, शिक्षा के लिए मनुष्य को नहीं। हमारा लक्ष्य मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखना होना चाहिए। यदि मनुष्य बचा रहेगा तो वह समय आने पर शिक्षित भी हो जाएगा। लेखक ने उदाहरण देकर यह बताने की कोशिश की है कि हमें बच्चे पर शिक्षा लादनी नहीं चाहिए बल्कि बच्चे के मन में शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न की जानी चाहिए।

लेखक एक घटना का वर्णन करता है। एक स्कूल का वार्षिक उत्सव था। लेखक को भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक (Head master) के आठ वर्षीय पुत्र की नुमाइश की जा रही थी। वैसे उसका मुँह पीला था, आँखें सफेद थीं और वे नीचे की ओर झुकी रहती थीं। उस बालक के ज्ञान को जाँचने के लिए तरह-तरह के प्रश्न पूछे जा रहे थे और वह उनके उत्तर दे रहा था। बालक ने धर्म के दस लक्षण बता दिए, नौ रसों के उदाहरण दे दिए।

उसने पानी के चार डिग्री के नीचे ठंडक में फैल जाने का तथा उससे मछलियों की प्राण रक्षा के कारण को भी बता दिया। चंद्रग्रहण का कारण भी बताया तथा इंग्लैंड के राजा हेनरी (आठवें) की स्त्रियों के नाम भी बता दिए। उसने पेशवाओं के राज के काल के बारे में भी बता दिया। फिर बालक से पूछा गया- “तू क्या करेगा?” बालक सिखाया गया उत्तर सुना दिया-“मैं जीवन भर लोगों की सेवा करूँगा।” सभी उपस्थित लोगों ने उसकी बुद्धि-चातुर्य की प्रशंसा की। उसके पिता (हैडमास्टर) का हृदय उल्लास से भरा था। एक बूढ़े महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और इनाम माँगने को कहा।

बालक का पिता और अध्यापक इसी उत्सुकता में थे कि बालक कौन सी पुस्तक माँगता है। बालक मन में बनावटी और असलियत की लड़ाई चलने लगी। वह अपने असली रूप पर उतर आया और बोला-मैं लड्डू लूँगा। उसकी इच्छा सुनते ही पिता और अध्यापक निराश हो गए। वे तो उससे किसी आदर्शवादी चीज माँगने की बात की आशा कर रहे थे। वे बच्चे की आंतरिक भावना को नकार रहे थे। बच्चे द्वारा लड्डू माँगा जाना उसकी जीवित पुकार की निशानी थी। हम बालक पर कृत्रिमता को देर तक लाद नहीं सकते। बच्चे को शच्चा ही बना रहने देना चाहिए।

(ख) घड़ी के पुर्जे –

इस पाठ में लेखक ने धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म-उपदेशकों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत के द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।

प्राय: धर्म के बारे में यह कहा जाता है कि धर्म के रहस्य को जानने की इच्छा प्रत्येक व्यक्ति को नहीं करनी चाहिए। बस जो कहा जाए, उसे सुन लिया जाए। घड़ी समय बतलाती है। किसी से पूछकर समय पूछ लो और काम चला लो अथवा स्वयं घड़ी देखना सीख लो, पर घड़ी को पीछे से खोलकर उसके पुर्जों को जानने-समझने की कोशिश मत करो। यह काम तुम्हारा नहीं है। इसी प्रकार धर्म के बारे में खोज-तर्क करना धर्माचार्यों का काम है, तुम्हारा नहीं।

क्या यह तर्क व्यक्ति की जिज्ञासा को शांत कर सकता है ? यदि इस दृष्टांत को आगे बढ़ाया जाए तो उपदेशक के बारे में कई बातें निकल सकती हैं। धर्माचार्य नहीं चाहते कि आप धर्म की बारीकियों को समझें। हमें भी धर्म के बारे में जानकारी होनी चाहिए। जिस प्रकार घड़ी को देखना, उसके पुर्जों की जानकारी होना, उनको ठीक करने की विधि का आना जरूरी है उसी प्रकार धर्म के बारे में भी जानना-परखना आवश्यक है।

(ग) ढेले चुन लो –

शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक ‘मच्चेंट ऑफ वेनिस’ (Merchant of Venice) की नायिका पोर्शिया अपने वर को बड़ी सुंदर रीति से चुनती । हरिश्चंद्र के ‘दुर्लभ बंधु’ में पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ होती हैं- एक सोने की. दूसरी चाँदी की और तीसरी पेटी लोहे की। एक पेटी में उसकी प्रतिमूर्ति है। स्वयंवर के लिए जो आता है उसे कहा जाता है कि इनमें से एक पेटी को चुन लो। अकड़बाज सोने की पेटी चुनता है और उसे लौटना पड़ता है। लोभी को चाँदी की पिटारी अँगूठा दिखाती है। हाँ, सच्चा प्रेमी लोहे की पेटी चुनता

है उसे पहला इनाम मिलता है। ठीक ऐसी ही लाटरी वैदिक काल में हिंदुओं में चलती थी। इसमें नर पूछता था, नारी को बूझना पड़ता था। स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर किसी बेटी के बाप के यहाँ पहुँच जाता था। वह उसे गौ भेंट करता। इसके बाद वह कन्या के सामने कुछ मिट्टी के ढेले रखता और कहता इनमें से एक उठा ले। नर जानता था कि वह इन ढेलों को कहाँ से लाया है। कन्या जानती न थी। यह तो लाटरी की बुझौवल ठहरी। चौराहे की मिट्टी, श्मशान की धूल आदि चीजें होती थीं। यदि वेदि का ढेला उठा ले तो संतान “वैदिक पंडित” होगी। गोबर चुना तो “पशुओं का धनी” होगा। खेत की मिट्टी छू ली तो जमींदार का पुत्र होगा। मसान की मिट्टी को हाथ लगाना अशुभ माना जाता था। यदि वह नारी ब्याही गई तो घर श्मशान के समान हो जाएगा।

जैसे राजपूत की लड़कियाँ पिछले समय में रूप देखकर, यश सुनकर स्वयंवर करती थीं, वैसे ही वैदिक काल के हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी का वरण करते थे। आप कह सकते हैं कि जन्म भर के साथी को चुनने के लिए मिट्टी के ढेलों पर विश्वास करना कहाँ तक उचित है ? हम मंगल, बृहस्पति, शनीचर की कल्पित चाल का भी कल्पित हिसाब लगाते हैं। वात्स्यायन के अनुसार आज का कबूतर कल के मोर से अच्छा है। आजा का पैसा कल की मोहर से अच्छा है। तब आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए; लाखों कोस के तेजपिंड से। कबीर ने भी कहा है-

“पत्थर पूजै हरि मिलें तो तू पूज पहार।
इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार॥”

शब्दार्थ एवं टिप्पणी – 

(क) बालक बच गया –

वार्षिकोत्सव = सालाना जलसा (Annual function), नुमाइश = प्रदर्शनी, दिखावा (Exibition), कोल्टू = तेल निकालने की मशीन जिसमें बैल बाँधकर तेल निकाला जाता है (A machine), विलक्षण = अनोखा (Strange), यावज्जन्म = जीवन भर (While Life) उल्लास = खुशी, हर्ष (Happiness), कुसीनामा = राज की अवधि (Period of rule), स्वाभाविक = कुदरती (Natural)।

(ख) घड़ी के पुर्जे –

कान ढलकाकर = कान खोलकर (Open ears), दृष्टांत = उदाहरण (Example), टंटा = झंझट, संकट (Problem), घड़ीसाजी = घड़ी बनाने की कला, घड़ी मरम्मत करने का गुर (One who repairs watch)।

(ग) ढेले चुन लो –

मर्चेट ऑफ वेनिस = शेक्सपीयर का प्रसिद्ध नाटक (Merchant of Venice), पोर्शिया = शेक्सपीयर के नाटक ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ की नायिका (Heroine of drama), प्रतिभूति = उसके ही जैसा ( Equal), अकड़बाज = अकड़ने वाला, अपने फैसले को ही सही मानने वाला, अपने आगे किसी की न मानने वाला (Arogent), जस = यश, कीर्ति (Fame), मिह्टी के डगलों = मिट्टी के ढेले (Clay)।

सुमिरिनी के मनके सप्रसंग व्याख्या

1. एक पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र जिसकी अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँखें सफेद थीं, वृष्टि भूमि से उठती नहीं था। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर वे रहा था। धर्म के दस लक्षण सुना गया, नौ रसों का उदाहरण दे गया।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पंडित चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ द्वारा रचित निबंध ‘सुमिरिनी के मनके’ के पाठ ‘बालक बच गया’ से अवतरित है। यहाँ पर लेखक ने बालक पर समय से पूर्व शिक्षा का अनावश्यक बोझ लादने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि उसे एक बार एक पाठशाला के वार्षिकोत्सव में जाने का अवसर मिला। वहाँ मंच पर एक बच्चे की बुद्धि का प्रदर्शन किया जा रहा था। वह बालक प्रधानाध्यापक का था। उसकी आयु आठ वर्ष की थी। विद्यालय के प्रधानाचार्य एवं अन्य शिक्षक बड़ी शान से उस पर लादी गई विद्वता का प्रदर्शन कर रहे थे। उस बालक को उम्र से अधिक स्तर के प्रश्नों के उत्तर

रटवाए गए थे और वह उनका रटा-रटाया उत्तर दे रहा था। उस बालक को कोल्टू के बैल की तरह जोता जा रहा था। वह वही बता रहा था जो उसे रटाया गया था। उसका सहज स्वाभाविक रूप नहीं था। उसका मुँह पीला पड़ा हुआ था। आँखें सफेद थीं, वह सामने देखने की अपेक्षा निरंतर जमीन की ओर देख रहा था। उससे जो प्रश्न पूछे जा रहे थे वह उनका उत्तर दे रहा था। (ये प्रश्नोत्तर वही थे जो उसे रटाए गए थे।) बालक से धर्म के दस लक्षण सुने गए। बालक ने नौ रसों का उदाहरण भी दे दिए। भले ही उसे धर्म और रस के बारे में यह भी न पता हो कि ये क्या होते हैं ? बच्चे का बचपन छीना जा रहा था।

विशेष :

  1. लेखक ने प्रदर्शनप्रिय लोगों पर व्यंग्य किया है।
  2. शिक्षा में रटंत को बुरा बताया गया है।
  3. वाक्य-विन्यास बेजोड़ है।
  4. खड़ी बोली का प्रयोग है।

2. मैं यावग्जन्म लोक-सेवा करूँगा। सभा ‘वाह-वाह’ करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था। एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीव्वाद दिया और कहा कि जो तू इनाम माँगे वही दें। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें यह पढ़ाई का पुतला कौन-सी पुस्तक माँगता है। बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हुवय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी।

कुछ खाँसकर, गला साफ कर नकली पड़ेे के हट जाने पर स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, ‘लड़ूू पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरा श्वास घुट रहा था। अब मैंने सुख से साँस भरी। उन सबने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठ्त नहीं रखा था। पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह ‘लड्ड़ू’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी द्वारा रचित लघु निबंध ‘बालक बच गया’ से अवतरित है। इसे उनके निबंध ‘सुमिरिनी के मनके’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित किया गया है। इसमें लेखक शिक्षा पाने की सही उम्र के बारे में विचार करता है। समयपूर्व बालक पर शिक्षा का बोझ नहीं लादना चाहिए, बल्कि उसकी स्वाभाविकता को बनाए रखना चाहिए। एक स्कूल के वार्षिकोत्सव में प्रधान अध्यपक के बालक को कुछ प्रश्नों के उत्तर रटाकर उसके बुद्धिमान होने का भौंडा प्रदर्शन लेखक को भीतर तक कचोट जाता है।

व्याख्या : जब बालक से पूछ् जाता है-तू क्या करेगा ? तब वह रटा-रटाया उत्तर दोहरा देता है कि मैं यावज्जन्म अर्थात् जीवन भर लोगों की सेवा करूँगा। शायद वह अपने उत्तर का सही मतलब तक नहीं जानता। उसका यह अपेक्षित उत्तर सुनकर सारी सभा वाह-वाह कर उठती है और उसके पिता के हृदय में खुशी छा जाती है। यह उत्तर आदर्शवादी था अतः सभी प्रसन्न हो उठे। एक बूढ़े व्यक्ति ने उस बालक के सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और इनाम माँगने को कहा। अध्यापक चाहते थे कि वह कोई पुस्तक – माँगे क्योंकि वे तो उसे पढ़ाकू सिद्ध कर रहे थे। बालक इनाम की बात सुनकर दुविधाग्रस्त स्थिति में आ गया। उसका चेहरा उसके हृदय में चल रहे मंथन को झलका रहा था। उसके ठृदय में बनावटीपन और स्वाभाविकता के भावों की लड़ाई चल रही थी।

आदर्शवादी कुछ चाहते थे और बालक का यथार्थ कुछ और ही चाहता था। बालक बनावटी रूप को छोड़कर अपनी स्वाभाविकता को प्रकट करने को उद्यत हो उठा। उसने अपनी मन:स्थिति पर काबू पाते हुए, गले को साफ किया और हैरान सा होकर कहा-मुझे लड्रू चाहिए। अध्यापकों को ऐसे उत्तर की अपेक्षा नहीं थी अत: वे निराश हो गए, लेकिन लेखक बालक के निर्णय से खुश था। वह अब से पूर्व हुए ड्रामे से घुटन का अनुभव का जो अनुभव कर रहा था, अब उससे मुक्ति की साँस ले सका।

अध्यापकों ने बालक की सहज प्रवृत्तियों को दबाने का हर संभव प्रयास किया था, पर अंतत: बालक का बालकपन बच ही गया। यह आशा इसलिए भी बलवती है क्योंकि उसके लड्डू की पुकार में उसकी जीवंतता का अहसास होता है। यह निरे पुस्तकीय ज्ञान से सर्वथा भिन्न है। इसमें उसकी स्वाभाविकता की झलक मिलती है। अब वह थोपे गए ज्ञान के बोझ से मुक्त हो चुका है। वह अपनी इच्छा का प्रकटीकरण कर सका है।

विशेष :

  1. लेखक ने एक दृष्टांत के माध्यम से बालक की सहज प्रवृत्ति की मार्मिक अभिव्यक्ति की है।
  2. लेखक की भाषा-शैली सहज एवं सुबोध है।
  3. भाषा में लाक्षणिकता का समावेश है।

3. पुर्जे खोलकर फिर ठीक करना उतना कठिन काम नहीं है, लोग सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं, अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।

प्रसंग : प्रस्तुत गध्यांश पंडित चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ द्वारा रचित लघु निबंध ‘घड़ी के पुर्जे’ से अवतरित है। इसमें लेखक धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म उपदेशकों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत द्वारा रोचक ढंग से प्रस्तुत करता है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि घड़ी के पुर्जों को खोलकर फिर से सही जगह पर लगा देना कोई मुश्किल काम नहीं है। इस काम को लोग सीखते भी हैं अतः उनसे सीखा जा सकता है। अपनी घड़ी को अनाड़ी व्यक्ति के हाथ में नहीं देना चाहिए। हाँ. जिसे इसका ज्ञान हो गया है उसके हाथ में ही अपनी घड़ी देनी चाहिए। यही बात धर्म पर भी लागू होती है। लेखक बताता है कि जैसे घड़ी के कल-पुर्जे खोलकर उन्हें फिर से व्यवस्थित करके जोड़ने वाले व्यक्ति को कोई धोखा नहीं दे सकता, उसी प्रकार धर्म का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर उसे धार्मिक दृष्टि से उल्लू नहीं बनाया जा सकता।

विशेष :

  1. लेखक ने दृष्टांत देकर अपने कथ्य को भली प्रकार समझाया है।
  2. भाषा सरल एवं सुबोध है।

4. धर्म के रहस्य जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्य न करे, जो कहा जाए वही कान ढलकाकर सुन ले, इस सत्ययुगी मत के समर्थन में घड़ी का दृष्टांत बहुत तालियाँ पिटवा कर दिया जाता है। घड़ी समय बतलाती है। किसी घड़ी देखना जानने वाले से समय पूछ लो और काम चला लो। यदि अधिक करो तो घड़ी देखना स्वयं सीख लो, कितु तुम चाहते हो कि पीछा खोलकर देखें, पुर्जे गिन लें, उन्हें खोलकर फिर जमा दें, साफ करके फिर लगा लें-यह तुमसे नहीं होगा। तुम उसके अधिकारी नहीं। यह तो वेदशास्त्रज धर्माचारियों का ही काम है कि घड़ी के पुर्जे जानें, तुम्हें इससे क्या ?

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी द्वारा रचित लघु निबंध ‘घड़ी के पुर्जे’ से अवतरित है। इसे लेखक के निबंध ‘सुमिरिनी के मनके’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित किया गया है। इसमें लेखक ने धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म उपदेश़कों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

व्याख्या : धर्माचायों का कथन होता है कि प्रत्येक मनुष्य को धर्म के रहस्य को जानने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। यह रहस्य अत्यंत गूढ़ है अतः इसे उन्हीं तक (धर्माचार्यों तक) ही सीमित रहना ठीक है। (क्योंकि वे स्वयं को धर्म का ठेकेदार मानते हैं।) सामान्य लोगों के लिए तो इतना ही काफी है कि उन्हें धर्म के बारे में जितना बताया जाए उसी को कान में ढालकर सुन लें, ज्यादा की इच्छा न करें, अर्थात् धर्माचार्य जितना बताना चाहें, वही उनके लिए पर्याप्त है। लोग उनकी बातों पर तालियाँ पीट दें, यह काफी है। लेखक यहाँ घड़ी का दृष्टांत (उदाहरण) देता है। घड़ी समय बताती है, धर्माचार्य भी धर्म के बारे में बताते हैं। यदि आपको घड़ी देखना न आता हो तो किसी अन्य घड़ी देखना जानने वाले से समय पूछ सकते हो और अपना काम चला सकते हो। उसी प्रकार यदि धर्म के बारे में स्वयं न जानते हो तो किसी अन्य से जानकारी ले सकते हो।

अच्छा तो यही है कि तुम स्वयं घड़ी देखना सीख लो, पर यदि तुम यह चाहो घड़ी को खोलकर उसके पुर्जों के बारे में जान लें और फिर से घड़ी के पुर्जों को उसमें फिट कर दें, तो यह काम सभी के वश का नहीं है क्योंकि तुम इसके योग्य नहीं हो। यह काम घड़ीसाज ही कर सकता है। यही उदाहरण वेद-शास्त्र के ज्ञाता धर्माचार्य अपने पक्ष को सही सिद्ध करने के लिए देते हैं। उनका कहना है कि वेद-शास्त्रों अर्थात् धर्म की बारीकियों को समझने के लिए आम व्यक्ति सही पात्र नहीं है। इसे तो वे स्वयं ही जान समझ सकते हैं क्योंकि वे एक घड़ीसाज के समान हैं। वे धर्म के तत्त्वों का सही विश्लेषण करने में सक्षम हैं। यह काम आम आदमी के वश का नहीं है। आम आदमी को तो धर्म की जानकारी धर्माचायों से ही लेनी चाहिए। उन्हें जिस प्रकार घड़ी के पुर्जों से मतलब नहीं उसी प्रकार धर्म के रहस्यों से भी मतलब नहीं होना चाहिए।

विशेष :

  1. लेखक ने घड़ी का दृष्टांत देकर धर्माचायों पर करारा व्यंग्य किया है।
  2. लेखक ने रोचक एवं सुबोध शैली का अनुसरण किया है।

5. पुर्जें खोलकर फिर ठीक करना उतना कठिन काम नहीं है। लोग सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं, अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाज़ का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी रचित लघु निबंध ‘घड़ी के पुर्जे’ से अवतरित है। इसे लेखक के निबंध ‘सुमिरिनी के मनके’ शीर्ष के अंतर्गत संकलित किया गया है। इसमें लेखक ने धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म उपदेशकों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

व्याख्या : इस गद्यांश में लेखक धोखेबाज धर्माचायों पर व्यंग्य करता है। वह घड़ी का दृष्टांत देकर अपनी बात स्पष्ट करता है। घड़ी के पुर्जों को ठीक करना कोई कठिन काम नहीं है। इस काम को अनेक लोग सीखते हैं और दूसरों को सिखाते भी हैं। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। पर इस बात का सदा ध्यान रखो कि तुम्हारी घड़ी किसी अनाड़ी के हाथ में न चली जाए, वह घड़ी को बिगाड़ देगा। घड़ीसाज ही घड़ी को ठीक कर सकता है। घड़ीसाज घड़ी के बारे में परीक्षा पास करके आया है, वह घड़ी ठीक करने में सक्षम है। उसे घड़ी को देखने दो। यही दशा धर्माचार्यों की है। आधे-अधूरे ज्ञान वाले लोग धर्म को हानि ही पहुँचाते हैं। योग्य, ज्ञानी व्यक्ति ही धर्म का स्वरूप जानते हैं।

विशेष : सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।

6. हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है, न पुर्जे सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते इत्यादि।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं० चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ द्वारा रचित लघु निबंध ‘घड़ी के पुर्जे’ से अवतरित है। इसमें लेखक ने धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म-उपदेशकों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत के माध्यम से रोचक ढंग से समझाया है।

व्याख्या : लेखक परदादा के समय की घड़ी को जेब में डाले फिरने की बात कहकर कटाक्ष करता है कि हम भले ही कितने सभ्य हो गए हों, फिर भी हम अपनी रूढ़ियों को आज भी ढोए चले जा रहे हैं। हम अपने दादा-परदादा के समय से चले आ रहे पुराने रीति-रिवाज्ोों को आज भी ढोए चले आ रहे हैं। समय के परिवर्तन के साथ-साथ हमारी मान्यताओं में अपेक्षित बदलाव नहीं आ रहा है। कुछ लोग तो प्राचीन मान्यताओं से टस से मस नहीं होना चाहते और यदि दूसरे लोग उन्हें विचार बदलने को कहते हैं तो यह बात उन्हें हस्तक्षेप प्रतीत होती है। हम आज भी रूढ़िवादिता के कारण प्राचीन परंपराओं को ढोए चले जा रहे हैं।

लेखक का कहना है कि अब जिन बातों का कोई अर्थ नहीं रह गया है, उन्हें छोड़ने में ही भलाई है। जो परंपराएँ अनुपयोगी हो गई हैं, उन्हें त्यागने में ही भलाई है। हमें परिस्थिति के अनुसार स्वयं को ढाल लेना चाहिए।

विशेष :

  1. उदाहरण शैली अपनाई गई है।
  2. भाषा में व्यंजना शब्द शक्ति का प्रयोग है।

7. दृष्टांत को बढ़ाया जाए तो जो उपदेशक जी कह रहे हैं उसके विरुद्ध कई बातें निकल आवें। घड़ी देखना तो सिखा दो, उसमें तो जन्म और कर्म की पंख न लगाओ, फिर दूसरे से पूछने का टंटा क्यों ? गिनती हम जानते हैं, अंक पहचानते हैं, सुइयों की चाल भी देख सकते हैं, फिर आँखें भी हैं, तो हमें ही न देखने दो, पड़ोस की घड़ियों में दोपहर के बारह बजे हैं। आपकी घड़ी में आधी रात है, जरा खोलकर देख न लेने दीजिए कि कौन-सा पेच बिगड़ रहा है, यदि पुर्जे ठीक हैं, और आधी रात ही है तो हम फिर सो जाएँगे, दूसरी घड़ियों को गलत न मान लेंगे, पर जरा देख तो लेने दीजिए। पुर्जे खोलकर फिर ठीक करना उतना कठिन काम नहीं है, लोग सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं, अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है उसे तो देखने दो। साथ ही यह भी समझा दो कि आपको स्वयं घड़ी देखना, साफ करना और सुधारना आता है कि नहीं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी के लघु निबंध ‘घड़ी के पुर्जे’ से अवतरित है। लेखक घड़ी का उदाहरण देकर धर्म के ठेकेदारों की पोल खोलता है। ये धर्म के उपदेशक धर्म के रहस्य को आम लोगों को जानने का अधिकार नहीं देते।

व्याख्या : लेखक का कहना है कि घड़ी का उदाहरण उपदेशक जी के कथन में कई विरोधी बातें ढूँढी जा सकती हैं। वे चाहते हैं कि जिस प्रकार मनुष्य को घड़ी देखना तो आ जाए, पर वह उसके पुर्जों की खोज-बीन न करे अर्थात् मनुष्य धर्म का ऊपरी-ऊपरी स्वरूप तो जान जाए पर वह जन्म और कर्म के रहस्यों को जानने के चक्कर में न पड़े। लेखक का कहना है कि हम पढ़े-लिखे समझदार हैं। हम अंकों की पहचान रखते हैं, घड़ी सुइयों की चाल को भी पहचानते हैं, आँखें भी हमारे पास हैं तो हम स्वयं ही घड़ी देख सकते हैं।

भाव यहं है कि भगवान ने हमें बुद्धि दी है तो हम भी धर्म के रहस्य को जान-समझ सकते हैं। यदि घड़ी में कुछ खराबी आ जाए तो हमें उसके पुर्जे खोलकर देखने का अधिकार है। यह काम कोई इतना कठिन भी नहीं है। लोग घड़ी खोलना और मरम्मत करना सीखते सिखाते हैं। यह ठीक है कि घड़ी अनाड़ी के हाथों में नहीं जानी चाहिए, पर जो घड़ीसाज का इम्तहान पास करके आया है, वह तो यह काम कर ही सकता है। यही स्थिति धर्म की है। जो व्यक्ति पढ़ा-लिखा, समझदार है वह धर्म के रहस्य को जानने का अधिकारी है। उसे धर्म के बारे में पूरी तरह से जानने दीजिए। आपको यह प्रकट करना चाहिए कि आपको धर्म के कारण रहस्य की जानकारी है।

विशेष :

  1. लेखक घड़ी के दृष्टांत के माध्यम से धर्म के रहस्य को जानने की बात स्पष्ट करने में सफल रहा है।
  2. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।

8. जैसे राजपूतों की लड़कियाँ पिछले समय में रूप देखकर, जस सुनकर स्वयंवर करती थीं, वैसे ही वैदिक काल के हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी करण करते थे। आप कह सकते हैं कि जन्म भर के साथी की चुनावट मिट्टी के ढेलों पर छोड़ना कैसी बुद्धिमानी है! अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों-करोड़ों कोस दूर बैठे बड़े-बड़े मिट्टी और आग के ढेलों-मंगल और शनैश्चर और बृहस्पति-की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है, यह मैं क्या कह सकता हूँ ? बकौल वात्स्यायन के, आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल के मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस की तेज पिंड से! बकौल कबीर के-

पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार। इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार॥

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ जी द्वारा रचित लघु निबंध ‘बेले चुन लो’ से अवतरित है। इसमें लेखक लोक विश्वासों में निहित अंधविश्वासों और मान्यताओं पर चोट करता है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि पुराने जमाने में राजपूतों की लड़कियाँ स्वयं अपनी इच्छा से अपने लिए वर का चुनाव करती थी। इसी प्रकार वैदिक काल में हिंदू ढेले छुआकर अपनी पत्नी का चुनाव करते थे। यह कहा जा सकता है कि जीवन भर के लिए साथी का चुनाव करना मिट्टी के ढेलों पर छोड़ देना निरी बेवकूफी है। इसे बुद्धिमानी का काम नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि जहाँ से ये मिट्टी के ढेले चुने गए हैं वह जगह तो हमने देखी है, कोई अनजान नहीं है, उन पर भरोसा किया जा सकता है।

इसकी तुलना में हम अपने से लाखों-करोड़ों कोस दूर मंगल, शनीचर और बृहस्पति की कल्पित चाल पर भरोसा क्यों कर लेते हैं। लेखक इस तर्क पर चुप रह जाता है। वात्स्यायन ने भी यह कहा है कि आज जो कुछ मिले, उसे हथिया लो, कल के ऊपर भरोसा मत करो। आज का कम भी कल से ज्यादा बेहतर है। कल अनिश्चित है। हमें वर्तमान में जीना चाहिए। इस तर्क से तो ढेला उपयोगी प्रतीत होता है। कबीर ने भी कहा कि पत्थर पूजने से भगवान की प्राप्ति हो जाए तो मैं पहाड़ को पूजने को तैयार हूँ। पत्थर की उपयोगिता तो चक्की के पाट बनने में है जिससे सारा संसार अनाज पीस कर खाता है।
लेखक अंधविश्वास का कट्टर विरोधी है। वह ढेले चुनने की प्रथा का हिमायती नहीं है।

विशेष :

  1. लेखक ने ढेले का दृष्टांत देकर अपने कथ्य को स्पष्ट किया है।
  2. सरल एवं सुबोध भाषा-शैली अपनाई गई है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 14 Summary – Kachcha Chittha Summary Vyakhya

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कच्चा चिट्ठा Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 14 Summary

कच्चा चिट्ठा – ब्रजमोहन व्यास – कवि परिचय

प्रश्न :
ब्रजमोहन व्यास के जीवन एवं साहित्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : ब्रजमोहन व्यास का जन्म 1886 ई. में इलाहाबाद (उ.प्र) में हुआ था। इन्होंने पं. गंगानाथ झा और पं. बालकृष्ण भट्ट से संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया। पं. ब्रजमोहन व्यास सन् 1921 से 1943 तक इलाहाबाद नगर पालिका के कार्यपालक अधिकारी रहे। सन् 1944 से 1951 तक ‘लीडर’ समाचारपत्र समूह के जनरल मैनेजर रहे! 23 मार्च 1963 को इलाहाबाद में ही उनकी मृत्यु हुई।

व्यास जी को मूर्तियाँ, शिलाले, सिक्के आदि एकत्रित करने का बड़ा शौक था। उन्होंने ही इलाहाबाद संग्रहालय का प्रारंभ किया तथा उसे एक नये भवन में स्थापित करा दिया। इसके लिए उन्होंने जी-तोड़ परिश्रम किया। उनके इस संग्रहालय में दो हजार पाषाण मूर्तियाँ, पाँच-छह हजार मृणमूर्तियाँ, कनिष्क के शासनकाल की प्राचीनतम बौद्ध मूर्ति, जुराहों की चंदेल प्रतिमाएँ, सैकड़ों रंगीन चित्र, सिक्के आदि एकत्रित हैं। उन्होंने संस्कृत, हिंदी, अरवी-फारसी के चौदह हजार हस्तलिखित ग्रंधों का संकलन भी किया। ये सभी इसी संग्रहालय में हैं। इस संग्रहालय के लिए वे बड़े से बड़े अधिकारी तक से भिड़ जाते थे।

रचना-परिचय : व्यास जी की प्रमुख कृतियाँ हैं- जानकी हरण (कुमारदास कृत) का अनुवाद, पं. बालकृष्ण भट्ट (जीवनी), महामना मदन मोहन मालवीय (जीवनी), मेरा कच्चा चिट्ठा (आत्मकथा)।

भाषा-शिल्प : व्यास जी ने अपने लेखन में सामान्य जन की भाषा को अपनाया है। उन्होंने कुछ विशिष्ट प्रयोग भी किए हैं, जैसे-इक्के को ठीक कर लिया, कील-काँटे से दुरुस्त था, मेरे मस्तक पर हस्बमामूल चंदन था, सुराब के पर। व्यास जी ने लोकोक्तियों का भी सटीक प्रयोग किया है। ‘कच्चा चिट्ठा’ में प्रयुक्त लोकोक्तियों के उदाहरण हैंचोर की दाढ़ी में तिनका, ना जाने केहि भेष में नारायण मिल जायँ, चोर के घर छिछोर पैठा, वह म्याऊँ का ठौर था।

पाठ का संक्षिप्त परिचय –

प्रस्तुत पाठ पं. ब्रजमोहन की आत्मकथा का एक अंश है। इसमें उनके श्रम कौशल और मेधा कार्य का कच्चा चिट्डा है। लेखक विभिन्न स्थलों से पुरातत्त्व के महत्त्व की धरोहर सामग्री को बगैर विशेष व्यय के संकलित करने में दक्ष है। इसी कला का परिचय इस पाठ में दिया गया है।

Kachcha Chittha Class 12 Hindi Summary

यह पाठ लेखक ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा ‘मेरा कच्चा चिट्र’ का एक अंश है। लेखक बिना कोई व्यय किए पुरातत्त्व संबंधी सामग्री का संकलन संग्रहालयों के लिए करते रहे हैं। यहाँ उसी प्रयास का वर्णन है। सन् 1936 के लगभग की बात है। लेखक अपने तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार कौशांबी गया था। वहाँ का काम निबटाकर उसने ढाई मील दूर पसोवा जाने का निश्चय किया। वहाँ के लिए एक इक्का ठीक कर लिया। पसोवा एक बड़ा जैन तीर्थ है। यहाँ प्राचीनकाल से प्रतिवर्ष जैनों का एक बड़ा मेला लगता है। यह भी कहा जाता है कि इसी स्थान पर एक छोटी-सी पहाड़ी थी, जिसकी गुफा में बुद्ध देव ब्यायाम करते थे। वहाँ एक विषधर सर्प रहता था। यह भी किंवदंती है कि इसी के निकट सम्राट् अशोंक ने एक स्तूप बनवाया था। इसमें महात्मा बुद्ध के थोड़े-से केश और नाखूनों के खंड रखे गए थे।

अब पसोवा में स्तूप और व्यायामशाला के चिह्न नहीं हैं पर एक पहाड़ी अवश्य है। यह पहाड़ी ही बताती है कि यह स्थान वही है। लेखक जहाँ कहीं भी जाता है वहाँ से खाली हाथ नहीं लौटता। उसे गाँव के भीतर कुछ बढ़िया मूर्तियाँ, सिक्के और मनके मिल गए। कौशांबी लौटते समय एक छोटा-से गाँव के निकट पत्थरों के ढेर के नीचे एक चतुर्मुंख शिव की मूर्ति मिली। लेखक ने उसे उठाकर इक्के पर रख लिया। उसका वजन लगभग 20 सेर था।

उसे नगरफालिका के संग्रहालय से संबंधित एक मंडप के नीचे रख दिया। इसके कुछ दिनों बाद गाँव वालों को इसका पता चल गया। उनका संदेह लेखक पर ही गया क्योंकि वह इस तरह के कामों में मशहूर हो चुका था। चपरासी ने सूचना दी कि गाँव के 15-20 आदमी मिलने आए हैं। उन्हें कमरे में बुलवा लिया गया। गाँव के मुखिया ने नतमस्तक होकर मूर्ति को वापस ले जाने की प्रार्थना की। लेखक ने उनकी प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार कर लिया। लेखक ने अपनी लॉरी से मूर्ति को सम्मान सहित अडुे तक पहुँचा दिया। गाँव वालों पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा।

लेखक उसी वर्ष या अगले वर्ष पुन: कौशांबी गया। वह किसी अच्छी चीज मिलने की तलाश में था। तभी उसे एक खेत की मेंड पर बोधिसत्व की आठ फुट लंबी एक सुंदर मूर्ति पड़ी दिखाई दी। यह मूर्ति मथुरा के लाल पत्थर की थी। जब लेखक उस मूर्ति को उठवाने लगा तभी खेत निराती एक बुढ़िया उस पर अपना हक जताने लगी। लेखक ने बुढ़िया के मुँह लगना ठीक न समझा। लेखक ने बुढ़िया को दो रुपए दिए तो बुढ़िया मूर्ति उठा देने को तैयार हो गई।

अब वह मूर्ति प्रयाग संग्रहालय में प्रदर्शित है। एक बार उसे एक फ्रांसीसी देखने आया। लेखक ने उसे मूर्ति बड़े उत्साहपूर्वक दिखाया, पर बाद में पता चला वह फ्रांस का एक बड़ा लीडर है। उसने लेखक से कहा कि वह इस मूर्ति को उसको दस हजार रुपयों में बेच दे। लेखक लालच में नहीं आया और यह मूर्ति अभी तक संग्रहालय का मस्तक ऊँचा कर रही है। यह मूर्ति उन बोधिसत्व की मूर्तियों में से है जो अब तक संसार में पाई गई मूर्तियों में सबसे पुरानी है। यह कुषाण सम्राट कनिष्क के राज्यकाल के दूसरे वर्ष स्थापित की गई थी। ऐसा लेख इस मूर्ति के पदस्थल पर अंकित है।

सन् 1938 की एक घटना का और उल्लेख किया गया है। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया का पुरातत्त्व विभाग कौशांबी में श्रीमजूमदार की देख-रेख में खुदाई करवा रहा था। उस समय के. एन. दीक्षित डायरेक्टर जनरल थे। वे लेखक के परम मित्र थे। उन्हें प्रयाग संग्रहालय से बड़ी सहानुभूति थी। खुुदाई के दौरान मजूमदार साहब को पता चला कि कौशांबी से 4-5 मील दूर एक गाँव हजियापुर है। वहाँ किसी व्यक्ति के पास भद्रमथ का एक भारी शिलालेख है। मजूमदार उसे उठवा लाना चाहते थे। गाँव के जमींदार (गुलजार मियाँ) ने इस पर ऐतराज किया।

वह लेखक को बहुत मानता था क्योंकि उन्होंने गुलजार मियाँ के भाई को म्युनिसिपैलिटी में चपरासी की नौकरी दी थी। वह शिलालेख रिपोर्ट लिखवाने के बावजूद मजूमदार साहब को नहीं मिला। उन्होंने इसकी रिपोर्ट दीक्षित साहब को लिखकर दिल्ली भिजवा दी। एक दिन दीक्षित साहब का एक अर्धसरकारी पत्र लेखक को मिला। इसमें लेखक को शिलालेख न देने के लिए गुलजार मियाँ को उकसाने का आरोप लगाया गया था तथा धमकी दी गई थी कि यदि आपका (लेखक का) यही रवैया रहा तो यह विभाग उनके कामों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रखेगा।

एक मित्र से ऐसा पत्र पाकर लेखक के बदन में आग लग गई। लेखक ने तुरंत उत्तर लिखा-“मैं आपके पत्र एवं उसकी ध्वनि का घोर प्रतिवाद करता हूँ। “मैंने किसी को नहीं उकसाया। “प्रयाग संग्रहालय ने इस भद्रमथ के शिलालेख को 25 रुपए का खरीदा है” ‘यदि आप उसे लेना चाहते हैं तो 25 रुपए देकर ले लें, मैं गुलजार को लिख दूँग।।” इसके बाद उनका एक विनम्र पत्र आया जिसमें उन्होंने पूर्व पत्र के लिए खेद प्रकट किया। गुलजार ने 25 रुपए लेकर वह शिलालेख दे दिया।

लेखक ने अन्य शिलालेख की तलाश में गुलजार मियाँ के मकान में डेरा डाल दिया। उनके मकान के सामने एक पुख्ता सजीला कुआँ था। चबूतरे के ऊपर चार पक्के खंभे थे। लेखक की दृष्टि बँडेर पर गई। इसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक ब्राही अक्षरों में एक लेख था। गुलजार ने खंभों को खुदवाकर उसे लेख को निकलवाकर लेखक के हवाले कर दिया। भद्रमथ के शिलालेख की क्षति-पूर्ति हो गई।

उसी साल मैसूर में ओरियंटल कांफ्रेंस का अधिवेशन था। लेखक ने सुन रखा था कि वह स्थान ताम्रमूर्तियों और तालपत्र पर हस्तलिखित पोथियों की मंडी है। लेखक इन्हीं के लोभ में वहाँ चला गया। लेखक ने मद्रास (चेन्नई) में सस्ते दामों में 8-10 चित्र खरीदे। पुस्तकों का मूल्य अधिक था। वहाँ के लोगों ने बताया कि श्रीनिवास जी हाईकोर्ट के वकील हैं और उनके पास सिक्कों तथा कांस्य-पीतल की मूर्तियों का अच्छा संग्रह है। उनसे लेखक ने चार-पाँच सौ रुपए की पीतल और कांस्य की मूर्तियाँ खरीदीं। बहुत से सिक्के उन्होंने मुफ्त में ही दे दिए। उनके यहाँ 4-5 बड़े-बड़े नटराज भी थे। उनके दाम $20-25$ हजार रूपए थे।

लेखक संग्रह करता है पर आशिक नहीं है। भाई कृष्णदास संग्रहकर्त्ता भी हैं और आशिक भी हैं। दोपहर बाद लेखक मैसूर स्टेशन आया। वह मैसूर पहुँचकर अधिवेशन में शामिल हुआ। वहाँ से वे रामेश्वरम् आए। अभी तक लेखक को तालपत्र की पुस्तक नहीं मिली थी। लेखक ने राजा बनकर तालपत्र पर लिखी पुस्तक लाने वाले को पंडा बनाने की घोषणा की तो एक पंडा दौड़कर आया और तालपत्र पर लिखित पुस्तकों का एक छोटा गट्रा ले आया। लेखक उन्हें लेकर प्रयाग लौट आया।

प्रयाग संग्रहालय में काफी महत्त्वपूर्ण सामग्री आ गई थी। जगह कम पड़ने लगी। 8-10 बड़े कमरे इसके लिए निर्धारित कर दिए गए थे। लेखक ने अपनी बुद्धि का प्रयोग करके ‘संग्रहालय निर्माण कोष’ बनाया। इस कोष में दस वर्ष के भीतर दो लाख रुपए एकत्रित हो गए। इसके लिए कंपनी बाग में एक भूखंड भी मिल गया। लेखक संग्रहालय भवन का शिलान्यास पं. जवाहर लाल नेहरू से करवाना चाहता था। डॉ. ताराचंद ने शिलान्यास का पूरा कार्यक्रम निश्चित कर दिया। निश्चित समय पर अभूतपूर्व समारोह में जवाहर लाल जी ने शिलान्यास कर दिया। भवन का नक्शा बन गया तथा भवन निर्मित भी हो गया। यह संग्रहालय जिन चार महानुभावों की सहायता से बन पाया वे हैं- राय बहादुर कामता प्रसाद कक्कड़ (तत्कालीन चेयरमैन), हिज हाइनेस श्री महेंद्र सिंह जू देव नागौद नरेश और उनके सुयोग दीवान लाल भार्गवेंद्रसिंह तथा लेखक का स्वामीभक्त अर्दली जगदेव।

शब्दार्थ एवं टिप्पणी –

किंवदंती = लोगों द्वारा कही गई (Saying by people), सन्निकट = पास, नजदीक (Near), छूँछे = बुद्धू (बनना, बनाना) खाली (Empty), सवारी = वाहन, यान (Conyeance), अंतर्धान = छिप जाना, गायब हो जाना (Disappear), प्रख्यात = बहुत प्रसिद्ध (Very famous), इत्तिला = सूचना, खबर (Information), सुरखाब का पर = लाल रंग वाले सुंदर एवं कोमल पक्षी के पंख (Redfeathers of a bird), उत्कीर्ण = खुदा हुआ (Engraved), प्रतिवाद = विरोध, खंडन (Opposition), बंडेर = छाजन के बीचोंबीच लगाया जाने वाला बल्ला जिस पर छप्पर टिका रहता है (A support), प्राचीन = पुराना (Old), बिसात = बिछाई जाने वाली चीज (Spreadover), लड़कांध = छोटी आयु का (Lees age), प्रभूति = इत्यादि (Etc), सहाय्य = सहायता, मदद, मैत्री (Help), न कूकुर भूँका, न पहरू जागा = जरा-सा भी खटका न होना (Nonoise), झक मारना = बेकार बात करना (Useless Talks), मुँह लगना = व्यर्थ समय बर्बाद करना (Towaste time), खून का घूँट पीकर रह जाना = गुस्से को दबा जाना (To supress anger), सुरखाब का पर लगना = खास बात होना (Special), मुँह में खून लगना = आदत पड़ जाना (Habitual), खाक छानना = भटकना, खोज करना (In search of), पानी-पानी होना = शर्मिदा होना (Ashamed), छक्के छूटना = घबरा जाना (Inpurplex), दिल फड़कना = जोश उत्पन्न करना (Excited), नून-मिर्चा लगाना = भड़काना (Toprovoke), पी जाना = छिपाना, सहन करना (To bear), डेरा डालना = अडुा जमाना (To capture), रुपये में तीन अठन्नी भुनाना = अधिकतम लाभ लेना (To gain maximum), इंगित = इशारा (Point), स्थानांतरित = बदली (Transfer), हस्तक्षेप = दखल (Interference), स्वीकृति = इजाजत (Permission), परामर्शदाता = सलाहकार (Advisor), कृतघ्नता = अहसान न मानना (Ungratefulness), संरक्षण = रक्षा में, देखभाल में (In patronage)।

कच्चा चिट्ठा सप्रसंग व्याख्या

1. मैं कहीं जाता हूँ तो छूँछे हाथ नहीं लौटता। यहाँ कोई विशेष महत्त्व की चीज तो नहीं मिली, पर गाँव के भीतर कुछ बढ़िया मृणमूर्तियाँ, सिक्के और मनके मिल गए। इक्के पर कौशांबी लौटा। एक-दूसरे रास्ते से। एक छोटे-से गाँव के निकट पत्थरों के ढेर के बीच, पेड़ के नीचे, एक चतुर्मुख शिव की मूर्ति देखी। वह वैसे ही पेड़ के सहारे रखी थी जैसे उठाने के लिए मुझे ललचा रही हो। अब आप ही बताइए, मैं करता ही क्या ? यदि चांद्रायण व्रत करती हुई बिल्ली के सामने एक चूहा स्वयं आ जाए तो बेचारी को अपना कर्त्तव्य पालन करना ही पड़ता है। इक्के से उतर कर इधर-उधर देखते हुए उसे चुपचाप इक्के पर रख लिया। 20 सेर वजन में रही होगी। “न कूकुर भूँका, न पहरू जागा।” मूर्ति अच्छी थी। पसोवे से थोड़ी-सी चीजों के मिलने की कमी इसने पूरी कर दी। उसे लाकर नगरपालिका में संग्रहालय से संबंधित एक मंडप के नीचे, अन्य मूर्तियों के साथ रख दिया।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प. ब्रजमोहन की आत्मकथा ‘कच्चा चिट्डा’ से अवतरित है। इसमें लेखक अपने जीवन में घटी घटनाओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। वह अपने संग्रहालय के लिए मूर्तियाँ, शिलालेख एवं अन्य सामग्री जुटाने के प्रयास में रहता था। यहाँ उसी एक प्रयास का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक का कहना है कि वह जहाँ कहीं जाता है, वहाँ से खाली हाथ नहीं लौटता अर्थात् कुछ-न-कुछ महत्वपूर्ण वस्तु लेकर ही आता है। अबकी बार वह कौशांबी की यात्रा पर गया हुआ था। वह पसोवा गाँच से कुछ बढ़िया मृणमूर्तियाँ, सिक्के और मनके लेकर कौशांबी लौट रहा था। उसका अबकी बार रास्ता दूसरा था। इस रास्ते में उसने गाँव के पास पत्थरों के ढेर के बीच और पेड़ के नीचे एक चतुर्भुज शिव की मूर्ति देखी। वह पेड़ के सहारे रखी हुई थी। वह मूर्ति लेखक को ललचाती सी प्रतीत होती थी। अब लेखक भला क्या करता।

लेखक की स्थिति उस बिल्ली के समान हो गई जो वैसे तो चांद्रायण का व्रत करती है पर चूहे को देखकर व्रत तोड़ने पर मजबूर हो जाती है। लेखक भी मूर्ति को देखकर उसे उठाने को मजबूर हो जाता है। पहले उसने इधर-उधर देखा और फिर मूर्ति को चुपचाप अपने इक्के पर रखवा लिया। इस मूर्ति का वजन लगभग 20 सेर रहा होगा। किसी को कुछ पता नहीं चला, कोई हलचल नहीं हुई। लेखक को इस बात की तसल्ली हुई कि पसोवे में उसे थोड़ी ही चीजें मिल पाई थीं, अब उसकी कमी इस मूर्ति ने पूरी कर दी। लेखक ने उस मूर्ति को लाकर नगरपालिका में उस स्थान पर रख दिया जहाँ अन्य मूर्तियाँ रखी हुई थीं। वह स्थान संग्रहालय से संबंधित एक मंडप था।

विशेष :

  1. आत्मकथात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
  2. लेखक ने जहाँ एक ओर देशज शब्द-‘ छूँछे’ का प्रयोग किया है, वहीं तत्सम शब्द भी प्रयुक्त किए है-चतुर्मुख, मृणमूर्ति आदि।
  3. घटना का वर्णन चित्रात्मक है।

2. यह रवैया मेरा बराबर जारी रहा। उसी वर्ष या संभवतः उसके दूसरे वर्ष मैं फिर कौशांबी गया और गाँव-गाँव, नाले-खोले घूमता-फिरता झख मारता रहा। भला यह कितने दिन ऐसे चल सकता अगर बीच-बीच में छठे-छमासे कोई चीज इतनी महत्त्वपूर्ण न मिल जाती जिससे विल फड़क उठता ? बराबर यही सोचता कि “न जाने केहि भेष में नारायण मिल जाएँ” और यही एक दिन हुआ। खेतों की डाँड़-डाँड़ जा रहा था कि एक खेत की मेड़ पर बोधिसत्व की आठ फुट लंबी एक सुंदर मूर्ति पड़ी देखी। मथुरा के लाल पत्थर की थी। सिवाए सिर के पदस्थल तक वह संपूर्ण थी।

मैं लौट कर पाँच-छह आदमी और लटकाने का सामान गाँव से लेकर फिर लौटा। जैसे ही उस मूर्ति को मैं उठवाने लगा वैसे ही एक बुढ़िया जो खेत निरा रही थी, तमककर आई और कहने लगी, “बड़े चले हैं मूरत उठावै। ई हमार है। हम न देबै। दुई दिन हमार हर रुका रहा तब हम इनका निकरवावा है। ई नकसान कउन भरी ?” मैं समझ गया। बात यह है कि मैं उस समय भले आदमी की तरह कुर्ता-शोती में था। इसीलिए उसे इस तरह बोलने की हिम्मत पड़ी। सोचा कि बुढ़िया के मुँह लगना ठीक नहीं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. ब्रजमोहन व्यास द्वारा रचित आत्मकथा ‘कच्चा चिद्डा’ से अवतरित है। लेखक नगरपालिका के संग्रहालय के लिए पुरातत्व की चीजों की खोज में इधर-उधर जाता रहता था। यहाँ उसी एक प्रयास का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक द्वारा महत्त्वपूर्ण वस्तुओं का सिलसिला चलता रहा। लेखक एक बार फिर से कौशांबी गया। वह गाँवों की खाक छान रहा था। वह कोई-न-कोई महत्त्वपूर्ण चीज की तलाश में था। वह यही सोचता था कि न जाने किस वेश में भगवान मिल जाएँ अर्थात् न जाने कहाँ कोई मूल्यवान वस्तु मिल जाए। वह खेतों की मेड़ों से जा रहा था कि उसे एक खेत की मेड़ पर बोधिसत्व की आठ फुट लंबी सुंदर मूर्ति पड़ी दिखाई दी। यह मूर्ति मथुरा के लाल पत्थर की बनी थी।

इसका सिर नहीं था, पर वह पदस्थल तक पूरी थी। वह गाँव से 5-6 आदमी और आवश्यक सामान लेकर आया। जैसे ही उसके आदमियों ने मूर्ति को उठाना चाहा, खेत में काम करती एक बुढ़िया तमतमाकर आ गई और मूर्ति को अपना बताने लगी। वह कहने लगी-यह हमारी है, इसे हम न देंगे। इसकी वजह से हमारा हल दो दिन तक नहीं चल सका। इस नुकसान को कौन भरेगा ? लेखक समझ गया कि बुढ़िया लालची है। उस समय लेखक कुर्ता-धोती में था अत: बुढ़िया इस तरह बोल रही थी। लेखक ने उस बुढ़िया के मुँह लगना ठीक नहीं समझा। (बाद में वह बुढ़िया दो रुपए लेकर मूर्ति देने को तैयार हो गई।)

विशेष :

  1. लेखक की पुरानी वस्तुओं के संग्रह की प्रवृत्ति का पता चलता है।
  2. सरल, सुबोध भाषा एवं विवरणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।

3. दूसरे की मुद्रा की झनझनाहट गरीब आदमी के हृदय में उत्तेजना उत्पन्न करती है। उसी का आश्रय लिया। मैंने अपनी जेब में पड़े हुए रुपयों को ठनठनाया। मैं ऐसी जगहों में नोट-वोट लेकर नहीं जाता। केवल ठनठनाता। उसकी बात ही और होती है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. ब्रजमोहन व्यास द्वारा रचित आत्मकथा ‘कच्चा चिट्ठा’ का अंश है। लेखक को एक स्थान पर बोधिसत्च की आठ फुट लंबी एक सुंदर मूर्ति दिखाई दी। वह उस मूर्ति को उठवा ही रहा था कि खेत पर काम कर रही बुढ़िया ने उसे रोक दिया। लेखक को वह बुढ़िया लालची लगी। उसने रुपयों का लालच देने का प्रयास किया। यहाँ उसी स्थिति का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक का कहना है कि जब गरीब व्यक्ति दूसरे की जेब में धन की आहट पा जाता है तब उसे प्राप्त करने के लिए उसकी उत्तेजना बढ़ जाती है। वह उस धन को पाने को लालायित हो उठता है। खेत में काम कर रही गरीब बुढ़िया ने जब बोधिसत्व की मूर्ति को उठाने में आनाकानी की या रोड़ा अटकाया तब लेखक ने अपनी जेब में पड़े सिक्कों को खनकाया। इसका बुढ़िया पर अपेक्षित प्रभाव पड़ा। लेखक ऐसे व्यक्तियों की मानसिकता से भली-भाँति परिचित है। अत: वह ऐसी जगहों पर नोट लेकर नहीं जाता बल्कि खनकने वाले रुपए अर्थात् सिक्के ही लेकर जाता है। सिक्कों की बात ही कुछ अनोखी होती है। सिक्कों की उनठनाहट सामने वाले व्यक्ति को आकर्षित करती है। बुढ़िया भी, इस आशा में कि उसे भी कुछ सिक्कों की प्राप्ति हो जाएगी, उस मूर्ति को देने को तैयार हो गई।

विशेष :

  1. धन का प्रभाव दर्शाया गया है।
  2. भाषा सरल एवं सहज है।
  3. ठनठनाना, झनझनाहट जैसे देशज शब्दों का प्रयोग है।

4. एक मित्र से ऐसा पत्र पाकर मेरे बदन में आग लग गई। मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ पर किसी की भी अकड़ बर्दाश्त नहीं कर सकता। आग्नेय अस्त्र से मेरे बदन में आग लग जाती है। वरुणास्त्र से पानी-पानी हो जाता हूँ। मैंने तुरंत दीक्षित जी को उत्तर दिया, जो थोड़े में इस प्रकार था-मैं आपके पत्र एवं उसकी ध्वनि का घोर प्रतिवाद करता हूँ।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश पं. ब्रजमोहन व्यास द्वारा रचित आत्मकथा ‘कच्चा चिट्ठा’ से अवतरित है। एक दिन लेखक को दीक्षित साहब का अर्धसरकारी पत्र मिला जिसका आशय यह था, “कौशांबी से मेरे पास रिपोर्ट आई है कि आपके उकसाने के कारण जमींदार गुलजार मियाँ भद्रमथ के एक शिलालेख को देने में आपत्ति करता है और फौजदारी पर आमादा है। मैं इस मामले को बढ़ाना नहीं चाहता परंतु यह कहे बिना रह भी नहीं सकता कि सरकारी काम में आपका यह हस्तक्षेप अनुचित है।” खैर, यहाँ तक तो खून का घूँट किसी तरह पिया जा सकता था पर इसके आगे उन्होंने लिखा, “यदि यही आपका रवैया रहा तो यह विभाग आपके कामों में वह सहानुभूति न रखेगा जो उसने अब तक बराबर रखी है।”

व्याख्या – एक मित्र से ऐसा पत्र पाकर लेखक के बदन में आग लग गई। वह सब-कुछ सहन कर सकता था, पर किसी की भी अकड़ बर्दाश्त नहीं कर सकता था। तुरंत दीक्षितजी को उत्तर दिया, जो थोड़े में इस प्रकार था, “मैं आपके पत्र एवं उसकी ध्वनि का घोर प्रतिवाद करता हूँ। उसमें जो कुछ मेरे संबंध में लिखा गया है, वह नितांत असत्य है। मैंने किसी को नहीं उकसाया। मैं आपसे स्पष्ट रूप से कह देना चाहता हूँ कि आपके विभाग की सहानुभूति चाहे रहे या न रहे, प्रयाग संग्रहालय की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहेगी।

प्रयोग संग्रहालय ने इस भद्रमथ के शिलालेख को 25 रूपये का खरीदा है। पर आपके विभाग से, विशेषकर आपके होते हुए झगड़ना नहीं चाहता। इसलिए यदि आप उसे लेना चाहते हैं तो 25 रुपये देकर ले लें, मैं गुलजार को लिख दूँगा ।”

5. गाँव के एक जमींदार गुलजार मियाँ थे, जिनका गाँव में दबदबा था, एतराज किया। गुलजार मियाँ हमारे भक्त थे और मैं भी उन्हें बहुत मानता था, यद्यपि उनकी भक्ति और मेरा मानना दोनों स्वार्थ से खाली नहीं थे। मैंने उनके भाई दिलदार मियाँ को म्युनिसिपैलिटी में चपरासी की नौकरी दे दी थी और उन लोगों की हर तरह से सहायता करता था। वे मुझे आस-पास के गाँवों से पाषाण-मूर्तियाँ, शिलालेख इत्यादि देते रहते थे। मजूमदार साहब ने जब उसे जबरदस्ती उठवाना चाहा तो वे लोग फौजदारी पर आमादा हो गए। बोले, “यह इलाहाबाद के अजायबघर के हाथ 25 रुपये का बिक चुका है, अगर बिना व्यास जी के पूछे इसे कोई उठावेगा तो उसका हाथ-पैर तोड़ देंगे।” मजूमदार साहब ने पच्छिम सरीरा के थाने में रपट की, पर किसी की कुछ नहीं चली। गुलजार मियाँ ने उस शिलालेख को नहीं दिया। मजूमदार साहब ने इस सबकी रिपोर्ट नोन-मिर्च लगा कर दीक्षित साहब को दिल्ली लिख भेजी। दीक्षित साहब की साधु प्रकृति के भीतर जो हाकिम पड़ा था, उसने करवट ली।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प.ं ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा ‘कच्चा चिद्धा’ से लिया गया है। एक शिलालेख को लेकर लेखक और मजूमदार साहब में ठन गई थी। गुलजार मियाँ लेखक का आदमी था, वह मजूमदार साहब के प्रयास का विरोध कर रहा था।

व्याख्या : जब मजूमदार साहब ने उस शिलालेख को उठवाना चाहा तो गाँव के एक जमींदार गुलज़ार मियाँ ने इसका सख्त विरोध किया। उसका सारे गाँव में दबदबा था। यह गुलजार मियाँ लेखक का भक्त था क्योंकि लेखक ने उसके भाई दिलदार मियाँ को म्युनिसिपैलिटी में चपरासी की नौकरी दी थी। ये लोग लेखक को पाषाणकालीन मूर्तियाँ तथा शिलालेख आदि चीजें देते रहते थे। मजूमदार साहब की जबरदस्ती पर वे लोग बिगड़ गए और फौजदारी पर आमादा हो गए। उन्होंने तर्क भी दिया यह शिलालेख इलाहाबाद के अजायबघर के लिए 25 रु. में बिक चुका है। इसे वे व्यास जी से पूछे बिना उठाने नहीं देंगे। यदि कोई ऐसा करेगा तो उसके साथ मारपीट करेंगे। मजूमदार ने इसकी थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा दी, पर गुलजार मियाँ ने वह शिलालेख उनको ले जाने नहीं दिया। मजूमदार ने चिढ़कर घटना को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर दीक्षित साहब को दिल्ली शिकायत लिख भेजी। वैसे तो दीक्षित साहब सीधे सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, पर उनके अंदर के अफसर ने इसे गंभीरता से लिया।

6. मैं संग्रह करता हूँ, आशिक नहीं। यही अंतर मुझमें और भाई कृष्णदास में है। वे संग्रहकर्ता भी हैं और आशिक भी। संग्रह कर लेने और उसे हरम (प्रयाग संग्रहालय) में डाल देने के बाद मेरा सुख समाप्त हो जाता है। भाई कृष्णदास संग्रह करने के बाद भी चीजों को बार-बार हर पहलू से देखकर उसके सुख-सागर में डूबते-उतरते रहते हैं। यदि संग्रहकर्ता आशिक भी हुआ तो भगवान ही उसकी रक्षा करे।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ पं. ब्रजमोहन व्यास द्वारा रचित आत्मकथा ‘कच्चा चिट्ठा’ से अवतरित हैं। लेखक पुरातत्व के महत्त्व की चीजों का संग्रह तो करता है पर उसके बाद उनके प्रति आसक्ति नहीं रखता।

व्याख्या : लेखक को प्राचीन मूर्तियाँ एवं अन्य चीजों के संग्रह का शौक तो है, पर वह उनका आशिक नहीं है। वह मूर्तियों को खोजकर उन्हें अपने संग्रहालय में जमा कर देता है। इसके विपरीत उनके मित्र भाई कृष्णदास ऐतिहासिक महत्त्व की चीजों का संग्रह तो करते ही हैं साथ ही उनके साथ गहरा लगाव भी रखते हैं। उनका अपनी चीजों के प्रति मोह अंत तक बना रहता है। उनका मोह आशिकी के स्तर तक चला जाता है। लेखक वस्तुओं का संग्रह करके, संग्रहालय में जमा करके, अपने सुख की इतिश्री मान लेता है।

इसके बाद वह उन वस्तुओं की कोई खास खोज खबर नहीं लेता था। उनका संग्रहालय एक हरम के समान था, जहाँ इधर-उधर से लाई रानियों (दासियों) को एकत्रित कर दिया जाता था। बाद में राजा कभी-कभार ही उनको देख पाता था। भाई कृष्पदास में दोनों गुण हैं। वे वस्तुओं का संग्रह भी करते हैं और उनके हर पहलू पर विचार करते रहते हैं। इसमें उन्हें सुख प्राप्त होता है। वे अपनी संग्रहित वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आसक्ति रखते हैं। ऐसे व्यक्ति की रक्षा भगवान ही कर सकता है। उस व्यक्ति का जुनून किसी भी स्तर तक जा सकता है।

विशेष :

  1. लेखक ने अपनी तुलना भाई कृष्णदास से की है।
  2. संग्रह और आशिकी का अंतर स्पष्ट किया है।
  3. उर्दू शब्द ‘आशिकी’ का सटीक प्रयोग हुआ है।

7. मैं तो केवल निमित्त मात्र था। अरुण के पीछे सूर्य था। मैंने पुत्र को जन्म दिया। उसका लालन-पालन किया, बड़ा हो जाने पर उसके रहने के लिए विशाल भवन बनवा दिया, उसमें उसका गृहप्रवेश करवा दिया, उसके संरक्षण और परिवर्धन के लिए एक सुयोग्य अभिभावक डॉ. सतीशचंद्र काबा को नियुक्त कर दिया और मैंने संन्यास ले लिया।
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित निबंध ‘कच्चा चिहुा’ से अवतरित है। यह निबंध ब्रजमोहन कास द्वारा रचित आत्मकथा का एक अंश है।

व्याख्या : लेखक ने अपने श्रमकौशल और प्रयासों से इलाहाबाद में एक विशाल एवं भव्य संग्रहालय स्थापित कर दिया। उसके लिए उसे काफी धन एवं भूमि की आवश्यकता थी, जिसे उसने अपने बलबूते पर एकत्रित कर दिखाया। इसके बावजूद यह लेखक की सदाशयता ही है कि वह इसका श्रेय स्वयं नहीं लेता। वह स्वयं को इस महान कार्य का निमित्त मात्र मानता है। वह इस महान कार्य के पीछे किसी अन्य की प्रेरणा को मानता है।

लेखक ने संग्रहालय को पुत्र के समान जन्म देकर इसका विकास किया और इसमें जमा सामग्री के रख-रखाव के लिए एक विशाल भवन का निर्माण करवा दिया। इसके बाद इस नव-निर्मित भवन में संग्रहालय का विधिवत् प्रवेश भी करवा दिया । अब इस विशाल संग्रहालय के कुशल संचालन के लिए तथा इसका उत्तरोत्तर विकास करने के लिए एक सुयोग्य अभिभावक की आवश्यकता थी। इस कार्य हेतु उसने एक सुयोग्य व्यक्ति डॉ. सतीशचंद्र काला की नियुक्ति कर दी। अब उसके कार्य की इतिश्री हो चुकी थी अतः उसने संन्यास ले लिया अर्थात् स्वयं को इससे मुक्त कर लिया।

विशेष :

  1. लेखक की कार्यक्षमता एवं योग्यता का पता चलता है।
  2. लेखक की विनम्रता झलकती है।
  3. भाषा सरल एवं सुबोध है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 15 Summary – Samvadiya Summary Vyakhya

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संवदिया Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 15 Summary

संवदिया – फणीश्वरनाथ रेणु – कवि परिचय

प्रश्न :
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए तथा उनकी रचनाओं का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जन्म 1921 में बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना नामक गाँव में हुआ था। उन्होंने 1942 ई. के “भारत छोड़ो” स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया। नेपाल के रणाशाही विरोधी आंदेलन में भी. उनकी सक्रिय भूमिका रही। वे राजनीति में प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे। 1953 ई. में वे साहित्य-सृजन के क्षेत्र में आए और उन्होंने कहानी, उपन्यास तथा निबंध आदि विविध साहित्यिक विधाओं में लेखन कार्य किया। उनकी मृत्यु 1977 ई. में हुई।

साहित्यिक विशेषताएँ : ‘रेणु’ हिंदी के आंचलिक कथाकार हैं। उन्होंने अंचल-विशेष को अपनी रचनाओं का आधार बनाकर, आंचलिक शब्दावली और मुहावरों का सहारा लेते हुए, वहाँ के जीवन और वातावरण का चित्रण किया है। अपनी गहरी मानवीय संवेदना के कारण वे अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा स्वयं भोगते-से लगते हैं। इस संवेदनशीलता के साथ उनका यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य के भीतर अपनी जीवन-दशा को बदल देने की अकूत ताकत छिपी हुई है।

फणीश्वरंनाथ ‘रेणु’ स्वतंत्र भारत के प्रख्यात कथाकार हैं। रेणु ने अपनी रचनाओं के द्वारा प्रेमचंद की विरासत को नई पहचान और भंगिमा प्रदान की। इनकी कला-सजग आँखें, गहरी मानवीय संवेदना और बदलते सामाजिक यथार्थ की पकड़ अपनी अलग पहचान रखते हैं। रेणु ने ‘मैला आँचल’, ‘परती परिकथा’ जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण उपन्यासों के साथ अपने शिल्प और आस्वाद में भिन्न हिंदी कहानी-परपरा को जन्म दिया। आधुनिकतावादी फैशन से दूर ग्रामीण समाज रेणु की कलम से इतना रससिक्त, प्राणवान और नया आयाम ग्रहण कर सका है कि नगर एवं ग्राम के विवादों से अलग उसे नई सांस्कृतिक गरिमा प्राप्त हुई। रेणु की कहानियों में आंचलिक शब्दों के प्रयोग से लोकजीवन के मार्मिक स्थलों की पहचान हुई है। उनकी भाषा संवेदनशील, संप्रेषणीय एवं भाव प्रधान है। मरातक पीड़ा और भावनाओं के द्वंद्व को उभारने में लेखक की भाषा अंतर्मन को छू लेती है।

रचनाएँ : उनके प्रसिद्ध कहानी-संग्रह हैं : ‘ठुमरी’, ‘अग्निखोर’, ‘आदिम रात्रि की महक’, ‘तीसरी कसम।’ ‘तीसरी कसम’ उर्फ मारे गए गुलफाम कहानी पर फिल्म भी बन चुकी है। ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ उनके उल्लेखनीय उपन्याय हैं।

एज: पाठ का संक्षिप्त परिचय – 

‘संवदिया’ कहानी में मानवीय संवेदना की गहन एवं विलक्षण पहचान प्रस्तुत हुई है। असहाय और सहनशील नारी मन के कोमल तंतु की. उसके दु:ख और करुणा की, पीड़ा तथा यातना की ऐसी सूक्ष्म पकड़ रेणु जैसे ‘आत्मा के शिल्पी’ द्वारा ही संभव है। हरगोबिन संवदिया की तरह अपने अंचल के दु:खी, विपन्न बेसहारा बड़ी बहुरिया जैसे पात्रों का संवाद लेकर रेणु पाठकों के सम्मुख उपस्थिति होते हैं। रेणु ने बड़ी बहुरिया की पीड़ा को उसके भीतर के हा-हाकार को संवदिया के माध्यम से अपनी पूरी सहानुभूति प्रदान की है। लोक भाषा की नींव पर खड़ी ‘संवदिया’ कहानी पहाड़ी झरने की तरह गतिमान है। उसकी गति, लय, प्रवाह, संवाद और संगीत पढ़ने वाले के रोम-रोम में झंकृत होने लगता है।

Samvadiya Class 12 Hindi Summary

‘संवदिया’ कहानी एक अत्यंत मार्मिक कहानी है। संवाद या समाचार ले जाने वाले व्यक्ति को संवदिया कहा जाता है। हरगोबिन एक संवदिया है। यद्यपि आज गाँव-गाँव में डाक़घर खुल गए हैं पर किसी गुप्त समाचार को ले जाने की आवश्यकता संवदिया को बुला ही लेती है। गाँव की बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया (पुत्रवधू) ने अपने मायके समाचार भेजने के लिए हरगोबिन को बुलाया। यह बड़ी हवेली कभी रौनक वाली होती थी, पर अब सब कुछ बिखर गया।

बड़े भैया के मरते ही तीन भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा करके सब कुछ आपस में बाँट लिया और वे गाँव छोड़कर शहर जा बसे। गाँव में बस रह गई बड़ी बहुरिया। उसे भूखा मरने तक की नौबत आ गई। अब उसे बथुआ-साग खाकर पेट भरना पूड़ रहा था। गाँव की मोदिआइन बूढ़ी अपना उधार वसूलने के लिए बड़ी बहुरिया को खरी-खोटी सुनाती है। उसके चली जाने के बाद ही बड़ी बहुरिया हरगोबिन को अपनी पीड़ा सुनाती है। वह उससे अपने पीहर संदेश ले जाने को कहती है- “माँ से कहना, मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूँगी।

बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन यहाँ अब नहीं’ ‘अब नहीं रह सकूँगी। कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरूँगी।’ बथुआ-साग खाकर कब तक जीऊँ। किसलिए’ किसके लिए ?” उसके इन आँसू भरे शब्दों ने हरगोबिन को भीतर तक झकझोर दिया। वह देवर-देवरानियों की बेदर्दी पर भी विचार करने लगा।

हरगोबिन राह-खर्च लिए बिना ही थाना बिंहपुर जाने वाली डाकगाड़ी में जा बैठा। वह बड़ी बहुरिया के शब्दों को याद करने और उन्हें उसी लहजे में कहने की हिम्मत जुटा रहा था। कटिहार जंक्शन पर पहुँचकर बिंहपुर स्टेशन की गाड़ी बदली। जब गाड़ी उस स्टेशन पर पहुँची तब उसका जी भारी हो गया। वह किस मुँह से बड़ी बहुरिया का संवाद सुना पाएगा। हरगोबिन को गाँव में प्रवेश करते ही गाँव वालों ने पहचान लिया कि जलालगढ़ गाँव का सँवदिया आया है।

बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने अपनी दीदी का हाल-चाल पूछा। घर पहुँचकर हरगोबिन ने बड़ी बहुरिया की बूढ़ी माता की पाँवलागी की। बूढ़ी माता ने समाचार पूछे। हरगोबिन सब ठीक बताया। उसने अपने आने का यह कारण बताया कि वह तो कल सिरसिया गाँव आया था अतः आज उन लोगों के दर्शन करने चला आया। जब बूढ़ी माता ने संवाद पूछा तो हरगोबिन टाल गया और कहा बड़ी बहुरिया ने कहा है कि छुट्टी होने पर वह दशहरा के समय गंगाजी के मेले में आकर माँ से भेंट-मुलाकात कर जाएगी। बूढ़ी माता ने अपना दुझख प्रकट करते हुए कहा भी कि वह तो बबुआ से अपनी दीदी को लिवा लाने के लिए कह रही थी।

अब उसका वहाँ रह ही क्या गया है। उसकी कोई खोज-खषर भी नहीं लेता। मेरी बेटी वहाँ अकेली है।। यह सुनकर हरगोबिन उन्हें दिलासा देता है कि जमीन-जयदाद अभी भी कुछ कम नहीं है। बड़ी बहुरिया तो गाँव की लक्ष्मी है। वह गाँव को छोड़कर शहर नहीं जा सकती। हरगोबिन बड़ी बहुरिया की दशा को लेकर इतना भाषुक हो उठा था कि उससे रात को ठीक से खाना भी नहीं खाया गया। उसे रात को नींद भी नहीं आई। वह निश्चय कर रहा था कि वह सुबह उठते ही बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद सुना देगा। उसका काम तो सही-सही संवाद पहुँचाना है। वह बूढ़ी माता के पास जा बैठा, पर सही संवाद सुनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। उसने लौटने का निश्चय प्रकट किया तो बूढ़ी माता बोली- “ऐसी जल्दी थी तो आए ही क्यों ? सोचा था, बिटिया के लिए दही-चूड़ा भेजूँगी। सो दही तो नहीं हो सकेगा आज। थोड़ा चूढ़ा है बासमती धान का, लेते जाओ।”

हरगोबिन उसे लेकर स्टेशन पर पहुँच गया। उसके पास केवल इतने पैसे थे कि वह कटिहार तक जा सकता था। वहाँ से गाँव 20 कोस दूर था। उसने पैदल चलने का निश्चय किया। वह दस कोस तो चल गया, फिर कस्बा शहर पहुँचकर पेट भर पानी पी लिया। उसे बड़ी बहुरिया की डबड़बाई.आँखें याद आ रही थीं। वह भूखी-प्यासी राह देख रही होगी। वह चलता चला गया। वह गिरता-पड़ता घर जा पहुँचा। बड़ी बहुरिया ने कहा- “हरगोबिन भाई आ गए।” क्या हुआ तुमको “।”

हरगोबिन ने हाथ से टटोलकर देखा। वह बिछ्हावन पर लेटा हुआ था। सामने बैठी छाया को छूकर बोला- “बड़ी बहुरिया।” थोड़ा दूध पीकर उसे होश आया। उसने बड़ी बहुरिया के पैर पकड़ लिए और माफी माँगी क्योंकि वह उसका संवाद उसके मायके में कह नहीं पाया। उसने बहुरिया से यह प्रार्थना की कि वह गाँव छोड़कर न जाए। वह उसे कोई कष्ट नहीं होने देगा। वह उसकी माँ है, सारे गाँव की माँ है। वह अब निठल्ला नहीं बैठेगा तथा उसका सब काम करेगा।
बड़ी बहुरिया गर्म दूध में एक मुट्डी बासमती चूड़ा डालकर मसकने लगी। वह स्वयं संवाद भेजने के बाद अपनी गलती पर पछ्छता रही थी।

जड़ शब्दार्थ एवं टिप्पणी –

संवदिया = संदेशवाहक, संदेश पहुँचाने वाला (Messenger), मार्फत = माध्यम, जरिया (Medium), परेवा = कबूतर, कोई तेज उड़ने वाला पक्षी (A bird), सूपा = छाज, सूप (Broth), रैयत = प्रजा (Subject), हिकर = बेचैन होकर पुकारना (Restless cry), अफरना = जी भरकर खाना (Full eating), चूड़ा = चिड़वा (Product of rice), बहुरिया = पुत्रवधू (Daughter-in-law), दखल = हस्तक्षेप, अधिकार माँगना (Interference), आगे नाथ न यीछे पगहा = कोई जिम्मेदारी न होना (No responsibility), कलेजा धड़कना = घबरा जाना (Restlessness), खोज खबर न लेना = जानकारी प्राप्त न करना, पूछताछ न करना (Noenquiry), खून सूख जाना = बहुत अधिक डर जाना (Too much terrorised), गुप्त = रहस्यपूर्ण (Secret), इंतजाम = प्रबंध (Arrangement), अनिच्छापूर्वक = बेमन से (Unwillingness)।

संवदिया सप्रसंग व्याख्या

1. बड़े भैया के मरने के बाद ही जैसे सब खेल खत्म हो गया। तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरु किया। रैयतों ने जमीन पर दावे करके दखल किया, फिर तीनों भाई गाँव छोड़कर शहर में जा बसे, रह गई बड़ी बहुरिया-कहाँ जाती बेचारी! भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं। नहीं तो एक घंटे की बीमारी में बड़े भैया क्यों मरते ? ‘बड़ी बहुरिया की देह से जेवर खींच-छीनकर बँटवारे की लीला हुई थी। हरगोबिन ने देखी है अपनी आँखों से द्रैपदी चीर-हरण लीला! बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दय भाइयों ने। बेचारी बड़ी बहुरिया!

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ द्वारा रचित मार्मिक कहानी ‘संवदिया’ से अवतरित है। इस कहानी में लेखक ने मानवीय संवेदना को गहराई के साथ व्यक्त किया है। बड़ी बहुरिया के माध्यम से एकाकी जीवन जीती और संघर्ष करती नारी की व्यथा व्यंजित हुई है।

व्याख्या : बड़ी हवेली में जब तक बड़े भैया जीवित रहे तब तक यह हवेली बड़ी बनी रही। यहाँ बड़ी बहुरिया और अन्य सदस्य अत्यंत सम्मानपूर्वक रहते थे, पर उनकी असमय मौत ने सारे खेल को ही खत्म कर दिया। उनके साथ परिवार की सुख-शांति भी चली गई। शेष बचे तीनों भाइयों में संपत्ति को लेकर लड़ाई-झगड़े होने लगे। जिनके पास उनकी जमीनें थीं उन्होंने दावे करके दखल कर लिया। तीनों भाइयों ने गाँव छोड़कर शहर की ओर रुख कर लिया।

अब बड़ी हवेली में केवल बड़ी बहुरिया ही रह गई। सब उसे छोड़कर चले गए। बड़ा भाई भला आदमी था और भगवान ने उसे एक घंटे की बीमारी देकर अपने पास बुला लिया। उनके मरने के बाद घर के जेवर-कपड़े का शर्मनाक बँटवारा हुआ। बड़ी बहुरिया के शरीर के जेवर खींचकर उतार लिए गए और उनको आपस में बाँट लिया गया। हरगोबिन ने बँटवारे का वह दुःखदायी दृश्य अपनी आँखों से देखा था। बड़ी बहुरिया का एक प्रकार से चीरहरण हुआ था। उसके शरीर की बनारसी साड़ी उतरवाकर उसके भी तीन टुकड़े किए गए और उन्हें आपस में बाँट लिया गया। यह भाइयों की निर्दयता की चरम सीमा थी। बड़ी बहुरिया बेचारी बनकर इस सारी पीड़ा को झेलती रही।

विशेष :

  1. स्मृति बिंब के सहारे पुरानी दुःखद स्मृतियों को साकार किया गया है।
  2. भावुकता, मार्मिकता एवं नग्न यथार्थ का समावेश हुआ है।
  3. भाषा सहज एवं सुबोध है।

2. संवाद सुनाते समय बड़ी बहुरिया सिसकने लगी। हरगोबिन की आँखें भी भर आई़। बड़ी हवेली की लक्ष्मी को पहली बार इस तरह सिसकते वेखा है हरगोबिन ने। वह बोला, “बड़ी बहुरिया, दिल को कड़ा कीजिए।” “और कितना कड़ा करूँ दिल ?” माँ से कहना, मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूँगी। बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन यहाँ अब नहीं “अब नहीं रह सकूँगी। “कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मसूँगी। ‘बथुआ-साग खाकर कब तक जीऊँ ? किसलिए ‘किसके लिए ?”

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की मार्मिक कहानी ‘संबदिया’ से अवतरित है। घर की बड़ी बहुरिया अत्यंत कष्टमय जीवन बिताने को विवश थी। वह अपनी माँ के पास जाने के लिए हरगोबिन के माध्यम से संवाद भिजवाना चाह रही है। संवाद कहते समय उसकी मन:स्थिति का चित्रण इन पंक्तियों में हुआ है।

व्याख्या : जब बड़ी बहुरिया संवाद सुना रही थी तब उसकी सिसकी बँधने लगी। उसकी आँखों में आँसू आ गए। वह बहुत व्यथित थी। हरगोबिन ने बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया को पहली बार इस प्रकार रोते देखा था। उसे तो हवेली की लक्ष्मी कहा जाता था। हरगोबिन ने उसे दिलासा देते हुए जी कड़ा करने को कहा।

इस पर बड़ी बहुरिया फूट पड़ी। वह और कितना दिल कड़ा करे। वह बुरी तरह टूट चुकी है। वह संवाद देती है कि माँ से कहना कि मैं वहीं आकर रहूँगी। वहाँ भाई-भाभियों की नौकरी करके अपना गुजारा कर लूँगी। बच्चों की जूठन खाकर एक जगह पड़ी रहूँगी, लेकिन अब यहाँ रहना कठिन हो गया है। यदि माँ मुझे यहाँ से न ले जाएगी तो मुझे आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ेगा। अब वह भला बथुआ-साग अर्थात् बेकार की चीजें खाकर कब तक गुजारा करे। उसे भला किसके लिए जीना है ? उसके जीने का कोई मकसद भी नहीं रह गया है।

विशेष :

  1. बड़ी बहुरिया की मार्मिक दशा का यथार्थ अंकन हुआ है।
  2. संवाद-शैली अपनाई गई है।
  3. भाषा सरल एवं सुबोध है।

3. हरगोबिन संवदिया!” संवाद पहुँचाने का काम सभी नहीं कर सकते। आदमी भगवान के घर से संवदिया बनकर आता है। संवाद के प्रत्येक शब्द को याद रखना, जिस सुर और स्वर में संवाद सुनाया गया है, ठीक उसी ढंग से जाकर सुनाना सहज काम नहीं। गाँव के लोगों की गलत धारणा है कि निठल्ला, कामचोर और पेटू आदमी ही संवरिया का काम करता है। न आगे नाथ, न पीछे पगहा। बिना मजदूरी लिए ही जो गाँव-गाँव संवाद पहुँचावे, उसको और क्या कहेंगे ?’“औरतों का गुलाम। जरा-सी मीठी बोली सुनकर ही नशे में आ जाए, ऐसे मर्व को भी भला मर्व कहेंगे ? किंतु, गाँव में कौन ऐसा है, जिसके घर की माँ-बेटी का संवाद हरगोबिन ने नहीं पहुँचाया है ? लेकिन ऐसा संवाद पहली बार ले जा रहा है वह।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ द्वारा रचित कहानी ‘संवदिया’ से उद्धृत है। इस गद्यांश में संबदिया के स्वरूप और काम पर प्रकाश डाला गया है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि हरगोबिन एक विशेष प्रकार का संवदिया है। संवाद पहुँचने का काम सभी नहीं कर सकते। यह भी एक कला है। एक अच्छा संवदिया भगवान के घर से ही बनकर आता है। संवदिया को दिए गए संवाद का एक-एक शध्द याद रखना पड़ता है और उसे उसी लहजे में कहना पड़ता है जैसे उसे सुनाया गया हो। ठीक उसी प्रकार संवाद को सुनाना कोई आसान काम नहीं है। वैसे गाँव के लोगों के मन में संवदिया के प्रति गलत सोच है। उनका कहना है कि संवदिया एक निठल्ला और कामचोर व्यक्ति होता है। वह खाने का पेटू होता है। ऐसा आदमी ही संवदिया का काम करता है। ऐसे व्यक्ति के आगे-पीछे कोई नहीं होता अर्थात् वह घर-गृहस्थी के बंधन से मुक्त होता है। यह संवदिया बिना कोई मजदूरी लिए अपना काम करता है और गाँव-गाँव संवाद पहुँचाता है। ऐसा व्यक्ति औरतों की गुलामी के लिए यह काम करता है। कोई औरत उससे थोड़ा मीठा बोल दे तो वह नशे में आ जाता है। ऐसे व्यक्ति को मर्द नहीं कहा जा सकता। इसके बावजूद हरगोबिन गाँव के हर घर की माँ, बहू-बेटी का संवाद पहुँचाता रहता है लेकिन वह ऐसा संवाद पहली बार ले जा रहा है। यह एक अनोखा संवाद है।

विशेष :

  1. संवदिया के काम पर प्रकाश डाला गया है।
  2. गाँव के लागों की संवदिया के बारे में धारणा को स्पष्ट किया गया है।
  3. सरल एवं सुबोध शैली अपनाई गई है।

4. हरगोबिन का मन कलपने लगा-तब गाँव में क्या रह जाएगा ? गाँव की लक्ष्मी ही गाँव छोड़कर चली जावेगी। …….. किस मुँह से वह ऐसा संवाद सुनाएगा ? कैसे कहेगा कि बड़ी बहुरिया बथुआ साग खाकर गुजारा कर रही है ? सुनने वाले हरगोबिन के गाँव का नाम लेकर थूकेंगे – कैसा गाँव है, जहाँ लक्ष्मी जैसी बहुरिया बुख भोग रही है।

प्रसंग : प्रस्तुत गध्यांश फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ द्वारा रचित मार्मिक कहानी ‘संवदिया’ से अवतरित है। गाँन की बड़ी बहुरिया हरगोबिन संवदिया के माध्यम से अपने पीहर यह संदेश भिजवाती है कि वह यहाँ घोर कष्ट में जी रही है अतः वे उसे यहाँ से ले जाएँ। हरगोबिन बड़ी बहुरिया के गाँव जा पहुँचता है।

व्याख्या : हरगोबिन ने बड़ी बहुरिया के गाँव में प्रवेश करने से पूर्व बड़ी बहुरिया की दशा पर गहराई से विचार किया। उसका मन इस स्थिति से दुखी हो गया। उसे लगा कि यदि बड़ी बहुरिया हमारा गाँव छोड़कर यहाँ चली आई तो हमारे गाँव की बड़ी हेठी हो जाएगी। बड़ी बहुरिया तो गाँव की लक्ष्मी है। उसका वहाँ से चले आना कोई सामान्य बात नहीं है। वह बड़ी बहुरिया का संवाद भला किस मुँह से सुना पाएगा अर्थात् उसमें इतनी हिम्मत ही नहीं है कि वह उस संवाद को उसके पीहर में सुना सके।

भला वह यह कैसे कह पाएगा कि बड़ी बहुरिया को खाने-पीने की चीजों का भी घोर अभाव है और वह बथुआ का साग (साधारण चीज) खाकर अपना गुजारा चला रही है। उसकी ऐसी दशा को सुनकर इस गाँव के लोग हमारे गाँव पर थूकेंगे, बुरा-भला कहेंगे। वे यह कहकर हमारे गाँव का अपमान करेंगे कि यह गाँव कितना घटिया है जो अपनी लक्ष्मी जैसी बहुरिया को दुखी जीवन जीने को विवश कर रहा है। हरगोबिन भला अपने गाँव की यह बुराई किस प्रकार सुन पाएगा।

विशेष :

  1.  हरगोबिन के अंतर्द्वद्व को कुशलतापूर्वक उभारा गया है।
  2. स्थिति का यथार्थ अंकन हुआ है।
  3. विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है।

5. बूढ़ी माता बोली, “मैं तो बबुआ से कह रही थी कि जाकर दीदी को लिवा लाओ, यहीं रहेगी। वहाँ अब क्या रह गया है ? जमीन-जायदाद तो सब चली ही गई। तीनों देवर अब शहर में जाकर बस गए हैं। कोई खोज-खबर भी नहीं लेते। मेरी बेटी अकेली”।”
नहीं मायजी! जमीन-जायदाद अभी भी कुछ कम नहीं। जो है, वही बहुत है। दूट भी गई है, है तो आखिर बड़ी हवेली ही। ‘सवांग’ नहीं है, यह बात ठीक है! मगर, बड़ी बहुरिया का तो सारा गाँव ही परिवार है। हमारे गाँव की लक्ष्मी है बड़ी बहुरिया “गाँव की लक्ष्मी गाँव को छोड़कर शहर कैसे जाएगी ? यों, देवर लोग हर बार आकर ले जाने की जिद करते हैं।”

प्रसंग : प्रस्तुत संवाद बड़ी बहुरिया की बूढ़ी माता तथा हरगोबिन के मध्य का है। इसे फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी ‘संवदिया’ से लिया गया है। बूढ़ी माता अपनी बेटी का संबाद न पाकर दु:खी होती है। वह अपनी चिता प्रकट करते हुए कहती है

व्याख्या : मैं तो अपने बेटे से कह रही थी कि वह जाकर अपनी दीदी को यहीं लिवा लाए। अब वह यहीं रहेगी। अब उसका वहाँ रह ही क्या गया है। उसकी जमीन-जायदाद तो पहले ही चली गई। उसके तीनों देवर भी शहर में जाकर रहने लगे हैं। अब उनमें से कोई भी उसकी बेटी की खोज-खबर नहीं लेता। अब उसकी बेटी तो बिल्कुल एकाकी जीवन बिता रही है।

बूढ़ी माता की इस चिंता को सुनकर हरगोबिन बात को सँभाल कर झूठी दिलासा देता है कि अभी भी वहाँ काफी जमीन-जायदाद शेष है। उसके लिए वही काफी है। हवेली दूट भले ही गई हो फिर भी काफी बड़ी है। बड़ी बहुरिया का तो सारा गाँव ही उसका अपना परिवार है। आपकी बेटी हमारे गाँव की लक्ष्मी है, बड़ी बहुरिया है। गाँव की लक्ष्मी को शहर जाना शोभा नहीं देता। उसके देवर तो हर बार उसे शहर ले जाने की जिद करते हैं।

इस प्रकार हरगोबिन वास्तविकता पर पर्दा डालने का प्रयास करता है ताकि बूढ़ी माता के चित्त को क्लेश न हो।

विशेष :

  1. हरगोबिन की व्यवहार कुशलता एवं वाक् चातुर्य देखते बनता है।
  2. संवाद-शैली अपनाई गई है।
  3. भाषा सरल एवं सुबोध है।

6. संवदिया डटकर खाता है और ‘अफर’ कर सोता है, किंतु हरगोबिन को नींद नहीं आ रही है।…….. यह उसने क्या किया ? क्या कर दिया ? वह किसलिए आया था ? वह झूठ क्यों बोला ?……. नहीं, नहीं, सुबह उठते ही वह बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद सुना देना-अक्षर, अक्षर, ‘मायजी, आपकी इकलौती बेटी बहुत कष्ट में है। आज ही किसी को भेजकर बुलवा लीजिए। नहीं तो सचमुच कुछ कर बैठेगी। आखिर, किसके लिए वह इतना सहेगी!……. बड़ी बहुरिया ने कहा है, भाभी के बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहेगी….!’

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश फणीश्वर ‘रेणु’ द्वारा रचित मार्मिक कहानी ‘संवदिया’ से अवतरित है। हरगोबिन एक संवदिया ज़रूर है, पर वह मान्य धारणा के विपरीत है। वह केवल खाने-पीने के लिए यह काम नहीं करता।

व्याख्या : संवदिया के बारे में गाँव वालों ने यह भ्रांत धारणा पाल रखी थी कि वह खूब डटकर खाना खाता है और जब उसका पेट पूरी तरह से भर जाता है, तब वह अफर कर सो जाता है। पर वास्तविकता इससे हटकर है। संवदिया जब बड़ी बहू के पीहर जाता है तब वह वहाँ खाना खाकर सोने का प्रयास करता है, पर उसे नींद नहीं आती, वह उधेड़-बुन में पड़ा रहता है। उसे अपने ऊपर ग्लानि होती है कि उसने क्या कर दिया ? वह सोचता है कि उसने झूठ क्यों बोला ? वह तो बड़ी बहुरिया का संदेश देने आया था, पर उस काम को पूरा नहीं कर सका।

उसने यह क्यों कह दिया कि कोई संवाद नहीं। उसने बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया की वास्तविक स्थिति क्यों नहीं बताई ? अब वह निश्चय करता है कि अब वह बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद अवश्य सुना देगा कि उनकी इकलौती बेटी बड़े कष्ट में है। अतः उसे आज ही अपने पास बुलवा लीजिए। वह भला इतनी तकलीफ वहाँ रहकर क्यों सहे ? बड़ी बहुरिया तो पीहर आकर रहना चाहती है, भले ही उसे भाभी के बच्चों की जूठन ही खाकर गुज़र क्यों न करनी पड़े।

विशेष :

  1. इस गद्यांश में संवदिया के मन के अंतद्वद्व को उभारा गया है।
  2. चिंतनपूर्ण शैली अपनाई गई है।
  3. विषयानुकूल, पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है।

7. हरगोबिन होश में आया। ……… बड़ी बहुरिया का पैर पकड़ लिया, “‘बड़ी बहुरिया! …. मुझे माफ़ करो। मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका। …………. तुम गाँव छोड़कर मत जाओ। तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। मैं तुम्हारा बेटा! बड़ी बहुरिया, तुम मेरी माँ, सारे गाँव की माँ हो! मैं अब निठल्ला बैठा नहीं रहूँगा। तुम्हारा सब काम करूँगा। …… बोलो, बड़ी माँ, तुम ….. तुम …….. गाँव छोड़कर चली तो नहीं जाओगी? बोलो…..!”

प्रसंग : प्रस्तुत पँंक्तियाँ हमारी पाठययुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित कहानी ‘संवदिया’ से उद्धृ है। इस कहानी के रचयिता फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हैं। हरगोबिन संवदिया बड़ी बहुरिया का संवाद लेकर उसके मायके गया तो था पर वहाँ उस संदेश को सुना नहीं पाया। वह अपने अंतर्द्वंद से उबर नहीं पाया था। वह वहाँ से अपने गाँव लौट आया और गिरता-पड़ता बड़ी बहुरिया के यहाँ पहुँचा। वह कुछ-कुछ बेहोशी की अवस्था में था।

व्याख्या : गाँव लौटकर हरगोबिन (संवदिया) बड़ी बहुरिया की हवेली पर पहुँचा। वहाँ बड़ी बहुरिया ने उसे दूध पिलाया तो वह होश में आया। सामने बड़ी बहुरिया को बैठी देखकर उसने उसके पैर पकड़ लिए और माफी माँगने लगा क्योंक वह बड़ी बहुरिया का संवाद उसके पीहर में कह नहीं पाया। वह अपनी असमर्थता पर पछता रहा था। थोड़ी हिम्मत जुटाकर वह बड़ी बहुरिया से प्रार्थना करने लगा कि वह इस गाँव को छोड़कर न जाए।

वह बोला-मैं वादा करता हूँ कि मैं यहाँ तुम्हें कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। वह स्वयं को उसका बेटा बताता है और बड़ी बहुरिया को अपनी माँ कहता है। बड़ी बहुरिया तो सारे गाँव की माँ है। हरगोबिन निश्चय प्रकट करता है कि अब वह निठल्ला नहीं बैठेगा और उसके (बड़ी बहुरिया) के सारे काम स्वयं करेगा। इतना सब कहने के बाद वह बड़ी बहुरिया से केवल यह आश्वासन चाहता है कि अब वह गाँव को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाएगी। वह इसी हवेली में रहेगी।

विशेष :

  1. हरगोबिन (संवदिया) की मनःस्थिति का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है।
  2. इसमें संवदिया का बदला स्वरूप चित्रित हुआ है।
  3. भाषा सरल, सुबोध एवं पात्रानुकूल है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 16 Summary – Gandhi Nehru Aur Yasser Arafat Summary Vyakhya

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गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफ़ात Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 16 Summary

गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफ़ात – भीष्म साहनी – कवि परिचय

प्रश्न :
भीष्म साहनी के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं के नाम तथा भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : भीष्म साहनी का जन्म 1915 ई. में रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। इन्होंने उर्दू और अंग्रेजी का अध्ययन स्कूल में किया। उच्च शिक्षा के लिए ये लाहौर आ गए। गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से आपने अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया। इसके पश्चात् पंजाब विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। देश-विभाजन से पूर्व इन्होंने व्यापार के साथ-साथ मानद (ऑनरेरी) अध्यापन का कार्य किया। विभाजन के बाद पत्रकारिता तथा इप्टा नाटक-मंडली से जुड़ गए। आप मुंबई में बेरोजगार भी रहे। ये बलराज साहनी के भाई थे। दोनों की कला एवं साहित्य के प्रति गहरी रूचि थी।

साहित्यिक विशेषताएँ : बाद में भीष्म साहनी ने अंबाला के एक कॉलेज में तथा खालसा कॉलेज अमृतसर में अध्यापन किया। कुछ समय बाद वे स्थायी रूप से दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगे। लगभग सात वर्ष तक ‘विदेशी भाषा प्रकाशन गृह’ मास्को में अनुवादक के पद पर काम करते रहे। रूस प्रवास के दौरान रूसी भाषा का अध्ययन किया तथा दो दर्जन रूसी पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। लगभग ढाई वर्ष तक ‘नयी कहानियाँ’ का कुशल संपादन किया। भीष्म साहनी ‘प्रर्गतिशील लेखक संघ’ तथा ‘अफ्रो-एशियाई लेखक संघ’ से भी जुड़े रहे। 2003 में उनका देहांत हो गया।

रचना-परिचय : भीष्म साहनी की प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं-
कहानी-संग्रह : भाग्य रेखा, पहला पाठ, भटकती राख, पटरियाँ, वाड्चू, शोभायात्रा, निशाचर, पाली, डायन। उपन्यास : झरोखे, कड़ियाँ, तमस, बसंती, मरयादास की माड़ी, कुंतो, नीलू नीलिमा नीलोफर।
नाटक : माधवी, हानूश, कबिरा खड़ा बाज़ार में, मुआवजे।
बालोपयोगी कहानियाँ : गुलेल का खेल।
भीष्म साहनी को ‘तमस’ उपन्यास के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। हिंदी अकादमी दिल्ली ने उन्हें ‘शलाका सम्मान’ से गौरवान्वित किया।

भाषा-शिल्प : भीष्म साहनी की भाषा में उर्दू शब्दों का प्रयोग है जो विषय को आत्मीयता प्रदान करता है। उनकी भाषा-शैली में पंजाबी भाषा की सोंधी महक भी महसूस की जा सकती है। साहनी जी छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग कर विषय को प्रभावी एवं रोचक बना देते हैं। संवादों के प्रयोग ने वर्णन में ताजगी ला दी है।

पाठ का संक्षिप्त परिचय –

‘गाँधी, नेहरू और यास्सेर अराफात’ उनकी आत्मकथा आज के अतीत का एक अंश है, जो कि एक संस्मरण है। इसमें लेखक ने किशोरावस्था से प्रौढ़ावस्था तक के अपने अनुभवां को स्मृति के आधार पर शब्दबद्ध किया है। सेवाग्राम में गाँधीजी का सान्निध्य, कश्मीर में जवाहरलाल नेहरू का साथ तथा फिलिस्तीन में यास्सेर अराफात के साथ व्यतीत किए गए चंद क्षणों को उन्होंने प्रभावशाली शब्द चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत संस्मरण अत्यंत रोचक, सरस एवं पठनीय बन पड़ा है क्योंकि भीष्म साहनी ने अपने रोचक अनुभवों को बीच-बीच में जोड़ दिया है। इस पाठ के माध्यम से रचनाकार के व्यक्तित्व के अतिरिक्त राष्ट्रीयता, देशप्रेम और अंतराष्ट्रीय मैत्री जैसे मुद्दे भी पाठक के सामने उजागर हो जाते हैं।

Gandhi Nehru Aur Yasser Arafat Class 12 Hindi Summary

1. गाँधीजी

1938 ई. के आसपास की बात है। लेखक के भाई बलराज साहनी ‘सेवाग्राम’ में रहकर ‘नई तालीम’ पत्रिका में सह-संपादक के रूप में काम कर रहे थे। उसी साल हरिपुरा में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था। लेखक कुछ दिन भाई के साथ बिताने की इच्छा से उनके पास चला गया। लेखक वर्धा स्टेशन पर उतरकर एक ताँगे में बैठकर देर रात सेवाग्राम पहुँचा। कहीं कोई रोशनी नहीं थी। गाँधी जी प्रातः सात बजे घूमने निकलते थे। वे लेखक के भाई के क्वार्टर के सामने से ही निकलते थे। दोनों भाइयों ने उनके साथ चलने का निश्चय किया। सुबह गाँधीजी तो निश्चित समय पर निकले, पर लेखक और उसके भाई को देर हो गई। वे कुछ कदम बढ़ाकर उनसे जा मिले। भाई ने लेखक का परिचय गाँधीजी से कराया-‘यह मेरा भाई है, कल रात ही पहुँचा है।’ गाँधीजी ने हँसकर कहा कि ‘अच्छा इसे भी घेर लिया।’ लेखक ने गाँधीजी के साथ चलने वाले कुछ लोगों को पहचान लिया-

डॉ. सुशीला नख्यर, गाँधीजी के निजी सचिव महादेव देसाई आदि को। लेखक ने गाँधीजी से बात करने के लिए उन्हें याद दिलाया कि वे बहुत साल पहले उसके शहर रावलपिंडी में आए थे। यह सुनकर गाँधीजी की आँखों में चमक आ गईं। उन्होंने मिस्टर जॉन के बारे में पूछा। वे शहर के जाने-माने बैरिस्टर थे। गाँधीजी ने उन दिनों की याद करते हुए कहा कि उन दिनों वे बहुत काम कर लेते थे। सभी लोग रावलपिंडी और कोहाट से जुड़ी अपनी यादें सुनाने लगे। शीघ्र ही वे आश्रम के अंदर चले गएं। लेखक सेवाग्राम में लगभग तीन सप्ताह तक रहा। वहाँ पालथी मारे बैठी कस्तूरबा लेखक को अपनी माँ जैसी लगती थीं। उन दिनों एक जापानी भिक्षु अपने चीवर वस्त्रों में गाँधीजी के आश्रम की प्रदक्षिणा करता। वह प्रार्थना स्थल पर पहुँचकर बड़े आदर भाव से गाँधी जी को प्रणाम करता था और एक ओर बैठ जाता था।

लेखक को सेवाग्राम में अनेक जाने-माने देशभक्त देखने को मिले। पृथ्वीसिंह आजाद वहीं आए हुए थे। उनके मुँह से वह किस्सा सुना कि उन्होंने हथकड़ियों से भागती रेलगाड़ी से कैसे छलांग लगाई और गुमनाम रहकर बरसों अध्यापन कार्य करते रहे। वहाँ मीरा बेन, खान अब्दुल गफ्फार खाँ तथा राजेंद्र बाबू को देखने का अवसर मिला।

एक बार गाँधी जी ने एक लड़के के लिए जरूरी मीटिंग छोड़ दी और उसे उल्टी करवा, उसका फूला पेट ठीक किया। गाँधी जी के चेहरे पर लेशमात्र भी क्षोभ का भाव न था। गाँधीजी एक कुटिया में टी.बी. के मरीज का हालचाल पूछते थे। उसका इलाज गाँधी जी की देख-रेख में ही चल रहा था।

2. नेहरूजी

पं. नेहरू कश्मीर यात्रा पर आए हुए थे। वहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ था। शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में झेलम नदी पर अमीराकदल तक उनकी शोभा यात्रा देखने का अवसर लेखक को प्राप्त हुआ था। यह एक अद्भुत दृश्य था। नेहरू जी को जिस बंगले पर ठहराया गया था वह लेखक के फुफेरे भाई का था। लेखक भी पंडित जी की देखभाल करने के लिए वहाँ पहुँच गया था। दिन भर नेहरूजी जगह-जगह घूमते तथा स्थानीय नेताओं के साथ बातचीत में व्यस्त रहते थे। शाम को बंगले पर खाने के समय लेखक भी और लोगों के साथ इसमें शामिल हो जाता। नेहरू जी को नजदीक से देखने का यह सुनहरा मौका था। उस रोज खाने की मेज पर बहुत ही प्रतिष्ठित व्यक्ति थे-शेख अब्दलुला, अब्दुल गफ्फार खाँ, श्रीमती रामेश्वरी नेहरू, उनके पति आदि। धर्म की बात चलने पर रामेश्वरी और नेहरूजी के बीच बहस छिड़ गई। बाद में नेहरू जी ठंडे पड़ गए। वे एक किस्सा सुनाने लगे। उन्होंने विख्यात लेखक अनातोले फ्रांस द्वारा लिखित एक मार्मिक कहानी सुनाई।

पीरस शहर में एक गरीब बाजीगर (नट) रहत्म था। क्रिसमस के पर्व पर पेरिस निवासी फूलों के गुच्छे लिए गिरजे की ओर जा रहे थे। गिरजे के बाहर वह बाजीगर हताश-सा खड़ा था। वह फटेहाल था। उसने माता मरियम को अपना करतब दिखाकर अभ्यर्थना करने की बात सोची। गिरजा खाली होने पर वह गिरजे में घुस गया और कपड़े उतारकर करतब दिखाने लगा। वह हाँफने लगता है। उसके हाँफने की आवाज बड़े पादरी के कान में पड़ गई। बाजीगर का करतब देखकर पादरी तिलमिला उठता है। उसने उसे लात मारकर बाहर निकालने का विचार किया। पादरी देखता है कि माता मरियम अपने मंच से उतर आई है और नट के माथे का पसीना पोंछकर उसके सिर को सहलाने लगी। मेज पर बैठे सभी व्यक्ति नेहरू जी की इस कहानी को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे।

नेहरू जी का कमरा ऊपर वाली मंजिल पर था। वे रात देर तक चिद्वियाँ लिखवाते रहे थे। लेखक ने सुबह उठकर देखा कि नेहरू जी फर्श पर बैठकर चरखा कात रहे थे। लेखक नीचे उतरकर अखबार पढ़ने लगा। तभी नेहरू जी के उतरने की आवाज आई। उन्हें साथियों के साथ पहलगाम के लिए रवाना होना था। नेहरू जी ने लेखक से माँगकर अखबार पढ़ा। लेखक तो उनका आग्रह सुनकर पानी-पानी हो गया।

3. यास्सेर अराफात

उन दिनों लेखक अफ्रो-एशियाई लेखक संघ में कार्यकारी महामंत्री पद पर सक्रिय था। ट्यूनीसिया की राजधानी ट्यूनिस में अफ्रो-एशियाई लेखक संघ का सम्मेलन होने जा रहा था। भारत से जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में कमलेश्वर, जोगिंदर पाल, बालूराव, अब्दुल बिस्मिल्लाह आदि थे। महामंत्री के नाते लेखक भी अपनी पत्नी के साथ वहाँ कुछ दिन पहले ही पहुँच गया था। ‘ लोटस’ लेखक संघ की पत्रिका थी। ट्यूनिस में उन दिनों फिलिस्तीनी अस्थायी सरकार का सदर मुकाम हुआ करता था। यह सरकार यास्सेर अराफात के नेतृत्व में काम कर रही थी। लेखक-संघ की गतिविधियों में इस अस्थायी सरकार का बड़ा योगदान था। एक दिन ‘लोटस’ के तत्कालीन संपादक आए और लेखक तथा उनकी पत्नी को सदर मुकाम के कार्यक्रम में ले गए। उनके वहाँ पहुँचने पर यास्सेर अराफात अपने एक दो साथियों के साथ उन्हें अंदर लिवा ले गए।

वास्तव में उन दोनों को दिन के भोजन पर आमंत्रित किया गया था। अंदर पहुँचने पर सदरमुकाम के लगभग 20 अधिकारी और कुछ फिलिस्तीनी लेखक तपाक से मिले। वहाँ लंबी सी खाने की मेज लगी हुई थी। एक बड़ा-सा भुना हुआ बकरा रखा था। लेखक और पत्नी को कमरे के बाई ओर बिठाया गया, जहाँ चाय-पानी का प्रबंध था। यास्सेर अराफात उनके साथ बैठकर बातें करने लगे। जब लेखक ने गाँधीजी तथा अन्य नेताओं का जिक्र किया तब अराफात बोले वे आपके ही नहीं, हमारे भी नेता हैं। उतने ही आदरणीय जितने आपके लिए।”

बीच-बीच में आतिथ्य चल रहा था। अराफात फल छील-छीलकर लेखक को खिला रहे थे, उनके लिए शहद की चाय बना रहे थे और भी बातें चलती रहीं। लेखक को गुसलखाने जाने की जरूरत हुई। उसे तब बड़ी झेंप हुई जब गुसलखाने के बाहर यास्सेर अराफात हाथ में तौलिया लिए खड़े थे।

शब्दार्थ एवं टिप्पणी –

गाँडा = बाजू और गले में पहने जाने वाला ताबीज या काला धागा (Atalisman), प्रदक्षिणा = परिक्रमा (Circumambulation), घुप्प = गहरा, घोर $($ Dark), झिंझोड़कर = पकड़कर जोर से हिलाना (To shake), पालथी = बैठने का एक आसन जिसमें दाहिने और बाएँ पैरों के पंजे क्रम से बाई और दाई जाँघ के नीचे दबे रहते हैं (A posture of sitting), चीवर = वस्त्र, पहनावा, बौद्ध भिक्षों का ऊपरी पहनावा (A dress of Buddhist , क्षोभ = रोषयुक्त, असंतोष (Anger), रुग्ण = बीमार, अस्वस्थ (lll), दिक् = तपेदिक (T. B.), लब्धप्रतिष्ठ = प्रसिद्धि प्राप्त हुआ, यश अर्जित करना (Famous), अभ्यर्थना = प्रार्थना, निवेदन (Request), दत्तचित्त = जिसका मन किसी कार्य में अच्छी तरह लगा हो, एकाग्र (Concentrated), लरजना = काँपना, हिलना-डुलना (Shaking), नजरसानी = पुनर्विंचार, पुनरीक्षण, नजर डालना (To review), सदरमुकाम = राजधानी (Capital), आँखों में चमक आना = प्रसन्न होना (Happiness), हाथ-पैर पटकना = बेचैन होना, तड़पना (Restlessness), पेट पालना = गुजारा करना (Livelihood), पानी-पानी होना = शर्मिदा होना (Ashamed), आँखें गाढ़ना = एक जगह नजर टिकाना (To see at one place), पुलक उठना = प्रसन्न हो जाना (To be become happy), घेर लेना = अपनी ओर कर लेना (To bring own side), तिलमिला उठना = कष्ट या पीड़ा से विकल हो जाना (Tofeel uneasy), एक नजर देखना = अवलोकन करना, ध्यान से देखना (Tosee), चल बसना = दिवंगत होना (Dead)।

गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफ़ात सप्रसंग व्याख्या

1. “याद है। मैं कोहाट से रावलपिंडी गया था “मिस्टर जॉन कैसे हैं ?”
मैंने जॉन साहब का नाम सुन रखा था। वे हमारे शहर के जाने-माने बैरिस्टर थे, मुस्लिम सज्जन थे। संभवतः गाँधीजी उनके यहाँ ठहरे होंगे।
फिर सहसा ही गाँधीजी के मुँह से निकला-
“अरे, मैं उन दिनों कितना काम कर लेता था। कभी थकता ही नहीं था।”” हमसे थोड़ा ही पीछे, महादेव देसाई, मोटा-सा लटु उठाए चले आ रहे थे। कोहाट और रावलपिंडी का नाम सुनते ही आगे बढ़ आए और उस दौरे से जुड़ी अपनी यादें सुनाने लगे और एक बार जो सुनाना शुरू किया तो आश्रम के फाटक तक सुनाते चले गए।
किसी-किसी वक्त गाँधीजी, बीच में, हँसते हुए कुछ कहते। वे बहुत धीमी आवाज में बोलते थे, लगता अपने आपसे बातें कर रहे हैं, अपने साथ ही विचार विनिमय कर रहे हैं। उन विनों को स्वयं भी याद करने लगे हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ भीष्म साहनी द्वारा रचित आत्मकथा ‘आज के अत्तीत’ के एक अंश ‘गाँँद, नेहरू और यास्सेर अराफात’ से उद्धुत हैं। यहाँ लेखक महात्मा गाँधी के साथ सेवाप्राम आश्रम की एक घटना का उल्लेख करता है। वह प्रात:कालीन सैर पर गाँधीजी के साथ है।

व्याख्या : जब लेखक गाँधीजी को उनको रावलपिंडी यात्रा की याद दिलाता है तब गाँधीजी कहते हैं कि उन्हें उस यात्रा की भली प्रकार याद है तब वे कोहाट से रावलपिंडी गए थे। वे लेखक से मिस्टर जॉन का हाल-चाल पुछते हैं। लेखक ने जॉन साहब का पूरा नाम सुन रखा था। वे रावलपिंडी के जाने-माने बैरिस्टर थे और मुस्लिम सज्जन थे। लेखक को लगा कि संभवतः वहाँ गाँधीजी ठहरे होंगे। फिर गाँधीजी अपने उन दिनों के उत्साह को याद करने लगे। तब वे बहुत काम कर लेते थे और कभी थकते नहीं थे। तभी लेखक देखता है कि गाँधीजी के निजी सचिव महादेव देसाई एक मोटा-सा लट् उठाए चले आ रहे हैं। कोहाट और रावलपिंडी का नाम सुनकर वे आगे बढ़ आते हैं और उस दौरे से संबंधित अपनी यदें सुनाने लगते हैं। उनकी यादों का सिलसिला खत्म होने को नहीं आता। वे सभी आश्रम के फाटक तक आ पहुँचते हैं।

लेखक बताता है कि कभी-कभी गाँधीजी हैसते हुए भी कुछ कहते थे। वे बड़ी धीमी आवाज में बोलते थे। इससे लगता था कि वे अपने आपसे बातें कर रहे हैं। वे उन दिनों को याद करने लगते हैं।

विशेष :

  1. इस गद्यांश से गाँधीजी के स्वभाव पर प्रकाश पड़ता है।
  2. संवाद-शैली का प्रयोग किया गया है।
  3. भाषा सरल एवं सुबोध है।

2. यह भी लगभग उसी समय की बात रही होगी। पंडित नेहरू काश्मीर यात्रा पर आए थे, जहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ था। शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में, झेलम नदी पर, शहर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक, सातवें पुल से अमीरा कदल तक, नावों में उसकी शोभा यात्रा देखने को मिली थी जब नदी के दोनों ओर हजारों हजार काश्मीर निवासी अदम्य उत्साह के साथ उनका स्वागत कर रहे थे। अद्भुत वृश्य था।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाट्युपस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित भीष्म साहनी की आत्मकथा ‘आज के अतीत’ का एक अंश है। यहाँ लेखक नेहरू जी की कश्मीर यात्रा का एक संस्मरण सुना रहा है। उस समय लेखक भी वहाँ उपस्थित था।

व्याख्या : यह घटना भी लगभग 1938 के आसपास की है। उन दिनों पंडित जवाहरलाल नेहरू कश्मीर यात्रा पर आए हुए थे। वहाँ उनके आगमन पर भष्य स्वागत का आयोजन किया गया। इस स्वागत आयोजन का नेत्वत्व शेख अब्दुल्ला ने किया था। उस समय नेहरू जी की भव्य-शोभा यात्रा निकाली गई थी। यइ शोभा-यात्रा झेलम नदी पर आयोजित की गई थी। यह शोभा यात्रा इस नदी के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक थी। सातवें पुल से लेकर अमीराकदल तक नावों में इस शोभा यात्रों को निकाला गया था। झेलम नदी के दोनों किनारों पर हजारों कश्मीरी बड़े उत्साह के साथ पंडित नेहरू का स्वागत कर रहे थे। उनका जोश देखते ही बनता था। यह दृश्य बड़ा ही अद्भुत था।

विशेष :

  1. लेखक ने पं. नेहरू के कश्मीर में हुए भव्य स्वागत का सुंदर वर्णन किया है।
  2. वर्णनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
  3. वाक्य-गठन का चमत्कार देखते बनता है।

3. दिन-भर तो पंडितजी, स्थानीय नेताओं के साथ, जगह-जगह घूमते, विचार-विमर्श करते, बड़े व्यस्त रहते, पर शाम को जब बँगले में खाने पर बैठते तो और लोगों के साथ मैं भी जा बैठता। उनका वार्तालाप सुनता, नेहरूजी को नजदीक से देख पाने का मेरे लिए यह सुनहरा मौका था।

उस रोज खाने की मेज पर बड़े लब्धप्रतिष्ठ लोग बैठे थे-शेख अब्दुल्ला, खान अब्दुल गफ्फार खाँ, श्रीमती रामेश्वरी नेहरू, उनके पति आदि। बातों-बातों में कहीं धर्म की चर्चा चली तो रामेश्वरी नेहरू और जवाहरलाल जी के बीच बहस-सी छिड़ गई। एक बार तो जवाहरलाल बड़ी गर्मजोशी के साथ तनिक तुनककर बोले, “मैं भी धर्म के बारे में कुछ जानता हूँ।” रामेश्वरी चुप रहीं। शीघ्र ही जवाहरलाल ठंडे पड़ गए और धीरे-से बोले, “आप लोगों को एक किस्सा सुनाता हूँ।” और उन्होंने फ्रांस के विख्यात लेखक, अनातोले फ्रांस द्वारा लिखित एक मार्मिक कहानी कह सुनाई।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ भीष्म साहनी की आत्मकथा ‘आज के अतीत’ के एक अंश ‘गाँधी, नेहरू और यास्सेर अराफात’ से अवतरित हैं। इसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू की कश्मीर यात्रा के समय का एक संस्मरण है।

व्याख्या : श्रीनगर में पंडित नेहरू का बड़ा व्यस्त कार्यक्रम रहता था। वे स्थानीय नेताओं के साथ बातें करते, जगह-जगह घूमते तथा लोगों से विचार-विमर्श करते रहते थे। जब वे शाम को बँगले में खाने के लिए बैठते तब लेखक भी अन्य लोगों के साथ वहाँ जा बैठता जाता था। वह उनकी बातचीत सुनता रहता था। उसके लिए नेहरूजी को नजदीक से देखने का यह सुनहरा मौका था। एक दिन की बात है कि खाने की मेज पर बड़े प्रसिद्ध व्यक्ति बैठे थे।

इनमें शेख अब्दुल्ला, खान अब्दुल गफ्फार खाँ, श्रीमती रामेश्वरी नेहरू तथा उनके पति थे। बातों-बातों में धर्म पर चर्चा छिड़ गई। रामेश्वरी नेहरू और जवाहरलाल जी के बीच गरमा-गरम बहस होने लगी। जवाहरलाल जी गर्मी में आ गए और तुनककर बोले कि वे भी धर्म के बारे में काफी जानते हैं। रामेश्वरी चुप हो गई। इससे शीप्र ही नेहरूजी ठंडे पड़ गए और कहने लगे-मैं आप लोगों को एक किस्सा सुनाता हूँ। इसके बाद उन्होंने फ्रांस के विख्यात लेखक अनातोले फ्रांस द्वारा लिखित एक मार्मिक कहानी सुनाई।

विशेष :

  1. इस गद्यांश से नेहरूजी के स्वभाव पर प्रकाश पड़ता है।
  2. वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है।

4. द्यूनीसिया की राजधानी ट्यूनिस में अफ्रो-एशियाई लेखक संघ का सम्मेलन होने जा रहा था। भारत से जाने वाले प्रतिनिधि मंडल में सर्वश्री कमलेश्वर, जोगिंदरपाल, बालू राव, अब्दुल बिस्मिल्लाह आदि थे। कार्यकारी महामंत्री के नाते मैं अपनी पत्नी के साथ कुछ दिन पहले गया था। ट्यूनिस में ही उन दिनों लेखक संघ की पत्रिका ‘लोटस’ का संपादकीय कार्यालय हुआ करता था। एकाध वर्ष पहले ही पत्रिका के प्रधान संपादक, फैज अहमद फैज चल बसे थे।

ट्यूनिस में ही उन दिनों फिलिस्तीन अस्थायी सरकार का सदरमुकाम हुआ करता था। उस समय तक फिलिस्तीन का मसला हल नहीं हुआ था और ट्यूनिस में ही, यास्सेर अराफात के नेतृत्व में यह अस्थायी सरकार काम कर रही थी। लेखक संघ की गतिविधि में भी फिलिस्तीनी लेखकों, बुद्धिजीवियों तथा अस्थायी सरकार का बड़ा योगदान था।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश भीष्म साहनी द्वारा रचित आत्मकथा ‘आज के अतीत’ के एक अंश ‘गाँधी, नेहरू और यास्सेर अराफात’ से अवतरित है। इस गद्यांश में लेखक अपने द्यूनीसिया प्रवास का वर्णन कर रहा है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि उन दिनों ट्यूनीसिया की राजधानी ट्यूनिस में अफ्रीका और एशिया के लेखकों का एक सम्मेलन होने जा रहा था। लेखक इस संघ का कार्यकारी महामंत्री था। इसमें भारत की ओर से जो प्रतिनिधि मंडल गया था, उसमें कमलेश्वर जोगिंदरपाल, बालू राव, अब्दुल बिस्मिल्लाह आदि शामिल थे। लेखक अपनी पत्नी के साथ कुछ दिन पहले ही वहाँ पहुँच गया था उन दिनों लेखक संघ की एक पत्रिका ‘लोटस’ निकला करती थी। उसका संपादकीय कार्यालय ट्यूनिस में था। उस पत्रिका के संपादक फैज अहमद फैज का निधन हो गया था।

ट्यूनिस में उन दिनों फिलिस्तीन अस्थायी सरकार की राजधानी हुआ करती थी। उस समय तक फिलिस्तीनी समस्या सुलझी नहीं थी। ट्यूनिस में यास्सेर अराफात के नेतृत्व में यह अस्थायी सरकार काम कर रही थी। लेखक संघ की गतिविधियों को चलाने में फिलिस्तीनी लेखकों, बुद्धिजीवियों तथा अस्थायी सरकार की बड़ी मदद रहती थी।

विशेष :

  1. इस गद्यांश में तत्कालीन फिलिस्तीनी आंदोलन की एक झलक मिल जाती है।
  2. वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।
  3. भाषा सरल एवं सुबोध है।

5. ऐन सात बजे, आश्रम का फाटक लाँघकर गांधी जी अपने साथियों के साथ सड़क पर आ गए थे। उन पर नज़र पड़ते ही मैं पुलक उठा। गाँधी जी हू-ब-हू वैसे ही लग रहे थे, जैसा उन्हें चित्रों में देखा था, यहाँ तक कि कमर के नीचे से लटकती घड़ी भी परिचित-सी लगी। बलराज अभी भी बेसुध सो रहे थे। हम रात देर तक बातें करते रहे थे। मैं उतावला हो रहा था। आखिर मुझसे न रहा गया और मैंने झिंझोड़कर उसे जगाया।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश भीष्म साहनी द्वारा रचित आत्मकथा ‘आज के अतीत’ का एक अंश है। यहाँ लेखक सेवाग्राम आश्रम में महात्मा गाँधी के साक्षात् दर्शन का अनुभव साझा कर रहा है।

व्याख्या : लेखक सेवाग्राम में उन दिनों रह रहे अपने बड़े भाई बलराज साहनी के पास कुछ दिनों के लिए रहने गया। वहाँ वह एक दिन तड़के उठकर कच्ची सड़क पर गाँधी जी के आने की राह देख रहा था कि ठीक सात बजे गाँधी जी आश्रम का फाटक खोलकर अपने अन्य साथियों के साथ सड़क पर प्रकट हुए। उन पर नज़र पड़ते ही लेखक का चित्त प्रसन्न हो गया। अभी तक लेखक ने गाँधी जी को केवल चित्रों में ही देखा था। प्रत्यक्ष रूप से देखने पर वे वैसे ही हू-ब-हू प्रतीत हुए जैसे चित्रों में दिखाई देते थे। अभी भी उनकी कमर के नीचे घड़ी लटक रही थी। लेखक को यह घड़ी परिचित सी लगी। इधर बाहर यह सब हो रहा था, पर लेखक के बड़े भाई बेसुध होकर सोए पड़े थे। दोनों भाई रात को देर तक बातें करते रहे थे। इसी कारण भाई सोए हुए थे। लेखक तो गाँधीजी को देखने के लिए उतावला हो रहा था। लेखक से रहा नहीं गया। उसने भाई बलराज को झिझोड़कर जगा दिया।

विशेष :

  1. वर्णनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
  2. सीधी-सरल भाषा का प्रयोग किया गया है।
  3. गाँधी जी का शब्द-चित्र प्रस्तुत है।

6. उन्हीं दिनों सेवाग्राम में अनेक जाने-माने देशभक्त देखने को मिले। पृथ्वीसिंह आज़ाद आए हुए थे, जिनके मुँह से वह सारा किस्सा सुनने को मिला कि कैसे उन्होंने हथकड़ियों समेत, भागती रेलगाड़ी में से छलाँग लगाई और निकल भागने में सफल हुए और फिर गुमनाम रहकर बरसों तक एक जगह अध्यापन कार्य करते रहे। उन्हीं दिनों वहाँ पर मीरा बेन थीं, खान अब्दुल गफ्फ़ार खान आए हुए थे, कुछ दिन के लिए राजेंद्र बाबू भी आए थे। उनके रहते यह नहीं लगता था कि सेवाग्राम दूर पार का कस्बा हो।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश भीष्म साहनी द्वारा रचित आत्मकथा ‘आज के अतीत’ से अवतरित है। लेखक कुछ दिनों के लिए गाँधी जी के आश्रम सेवाग्राम में रहने लगा। यहाँ वहीं के अनुभवों का जिक्र है।

व्याख्या : लेखक जिन दिनों सेवाग्राम में था, उन्हीं दिनों कई देशभक्त भी वहाँ थे। लेखक को उन्हें देखने का अवसर मिला। वहाँ प्रसिद्ध वीर पृथ्वीसिंह आज़ाद भी आए हुए थे। उनकी बहादुरी के चर्चे उन दिनों चर्चा में थे। उनकी बहादुरी का किस्सा लेखक को उन्हीं के मुँह से सुनने को मिला। उन्होंने बताया वे हथकड़ियों सहित चलती रेलगाड़ी से छलाँग लगाकर भाग निकलने में सफल रहे थे। फिर गुमनामी में रहकर एक जगह पढ़ाने का काम करते रहे। उन दिनों आश्रम में मीराबेन, खान अब्दुल गफ्फ़ार खान तथा राजेंद्र बाबू भी थे। उनके रहने से वहाँ खूब चहल-पहल रहती थी। तब सेवाग्राम एक महत्तपूर्ण स्थान बन गया था। तब सेवाग्राम दूर का कस्बा प्रतीत नहीं होता था।

विशेष :

  1. लेखक ने सेवाग्राम के बारे में अपने अनुभव बताए हैं।
  2. पृथ्वीसिंह आज़ाद के वीरतापूर्ण कारनामे की झलक मिलती है।
  3. भाषा सरल एवं सुबोध है।

7. नेहरू आए। मेरे हाथ में अखबार देखकर चुपचाप एक ओर को खड़े रहे। वह शायद इस इंतजार में खड़े रहे कि मैं स्वयं अखबार उनके हाथ में दे दूँगा। मैं अखबार की नज़रसानी क्या करता, मेरी तो टाँगें लरज़ने लगी थीं, डर रहा था कि नेहरू जी बिगड़ न उठें। फिर भी अखबार को थामे रहा। कुछ देर बाद नेहरू जी धीरे-से बोले-
“आपने देख लिया हो तो क्या मैं एक नज़र देख सकता हूँ?” सुनते ही मैं पानी-पानी हो गया और अखबार उनके हाथ में दे दिया।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश भीष्म साहनी द्वारा अपनी रचित आत्मकथा ‘आज के अतीत’ से लिया गया है। इस संस्मरण में लेखक ने कश्मीर यात्रा में नेहरू जी से हुई भेंट का उल्लेख किया है।

व्याख्या : लेखक अखबार पढ़ रहा था। यह अखबार नेहरू जी को भी पढ़ना था, पर वे शरारत वश इस अखबार को तब तक पढ़ते रहने का निश्चय किया जब तक नेहरूजी स्वयं न माँगें। पर वे लेखक के हाथ में अखबार देखकर शिष्टाचार वश चुपचाप एक ओर खड़े रहे और प्रतीक्षा करते रहे कि कब मैं उनके हाथ में अखबार दूँ। यह स्थिति देखकर लेखक घबरा गया। घबराहट में उसकी टाँगें काँपने लगीं। उसे लगा कि नेहरू जी कहीं नाराज़ न हो जाएँ। कुछ देर बाद नेहरू जी स्वयं बोले-‘ यदि आपने अखबार पढ़ लिया हो तो क्या मैं भी इसे एक नज़र देख सकता हूँ ?’ उनके यह कहते ही लेखक तो शमिंदा हो गया और अखबार नेहरूजी के हाथ में दे दिया।

विशेष :

  1. लेखक ने नेहरूजी के साथ हुई अपनी पहली मुलाकात का प्रभावी अंकन किया है।
  2. नेहरूजी के स्वभाव की विनम्रता झलकती है।
  3. विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है।

8. धीरे-धीरे बातों का सिलसिला शुरू हुआ। हमारा वार्तालाप ज्यादा दूर तक तो जा नहीं सकता था। फ़लिस्तीन के प्रति साम्राज्यवादी शक्तियों के अन्यायपूर्ण रवैए की हमारे देश के नेताओं द्वारा की गई भर्त्सना, फ़िलिस्तीन आंदोलन के प्रति विशाल स्तर पर हमारे देशवासियों की सहानुभूति और समर्थन आदि। दो-एक बार जब मैंने गाँधी जी और हमारे देश के अन्य नेताओं का जिक्र किया तो अराफ़ात बोले-‘वे आपके ही नहीं, हमारे भी नेता हैं। उतने ही आदरणीय जितने आपके लिए।”

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश भीष्म साहनी द्वारा रचित संस्मरणात्मक निबंध ‘गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफ़ात’ से अवतरित है। लेखक अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के सम्मेलन में भाग लेने के लिए ट्यूनिस गया था। तब तक फिलिस्तीन का मसला हल नहीं हुआ था। वहीं लेखक की भेंट यास्सेर अराफ़ात के साथ हुई। यास्सेर अराफ़ात ने लेखक को भोज पर आर्मंत्रित किया था।

व्याख्या : खाने की मेज पर यास्सेर अराफ़ात के साथ लेखक की बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। यह बातचीत लंबी नहीं जा सकती थी, क्योंकि बातचीत का दायरा सीमित था। हमारे देश के नेता फिलिस्तीन आंदोलन के प्रति सहानुभूति और समर्थन के भाव रखते थे। वे फिलिस्तीन की मुक्ति के हिमायती थे। साम्राज्यवादी शक्तियाँ अन्याय करती थीं। यास्सेर अराफ़ात भी भारतीय नेताओं के प्रति आदर-सम्मान का भाव रखते थे। गाँधी जी तथा देश के अन्य नेताओं का ज़िक्र करने पर अराफ़ात बोले-” गाँधीजी केवल आपके ही नेता नहीं, हमारे भी आदरणीय नेता हैं।” यास्सर अराफ़ात उनका बहुत आदर-सम्मान करते थे।

विशेष :

  1. लेखक की यास्सेर अराफ़ात के साथ हुई भेंट का वर्णन हुआ है।
  2. इससे भारतीय नेताओं की लोकप्रियता का पता चलता है।
  3. भाषा सरल, सुबोध एवं प्रभावपूर्ण है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 17 Summary – Sher Pehchan Char Hath Sajha Summary Vyakhya

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शेर, पहचान, चार हाथ, साझा Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 17 Summary

शेर, पहचान, चार हाथ, साझा – असगर वजाहत – कवि परिचय

प्रश्न :
असगर वजाहत का संक्षिप्त जीवन-परिचय बेते हुए उनकी रचनाओं और भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।?
उत्तर :
जीवन-परिचय : असगर वजाहत का जन्म 1946 ई. में फतेहपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा फतेहपुर में हुई तथा विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से की। सन् 1955-56 मे ही असगर वजाहत ने लेखन कार्य प्रारंभ कर दिया था। प्रारंभ में उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन कार्य किया, बाद में वे दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने लगे। वजाहत ने कहानी, उपन्यास, नाटक तथा लघु कथा तो लिखी ही हैं, साथ ही उन्होंने फिल्मों और धारावाहिकों के लिए पटकथा लेखन का काम भी किया है।

उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं : दिल्ली पहुँचना है, स्विमिंग पूल और सब कहाँ कुछ, आधी बानी; मैं हिंदू हूँ (कहानी संग्रह) फिरंगी लौट आए, इन्ना की आवाज, वीरगति, समिधा, जिस लाहौर नई देख्या तथा अकी (नाटक) सबसे सस्ता गोश्त (नुक्कड़ नाटकों का संग्रह) और रात में जागने वाले, पहर दोपहर तथा सात आसमान, कैसी अंगि लगाई (प्रमुख उपन्यास)। भाषा-शैली : असगर वजाहत की भाषा में गांभीर्य, सबल भावाभिव्यक्ति एवं व्यंग्यात्मकता है। मुहावरों तथा तद्भव शब्दों के प्रयोग से उसमें सहजता एवं सादगी आ गई है। असगत वजाहत ने ‘गजल की कहानी’ वृत्तचित्र का निर्देशन किया है तथा ‘बूँद-बूँद’ ‘ धारावाहिक का लेखन भी किया है।

एड संकलित लघु कथाओं का संक्षिप्त परिचय –

प्रतिपाद्य –

शेर, पहचान, चार हाथ और साझा नाम से उनकी चार लघुकथाएँ दी गई हैं।
1. ‘शेर’ प्रतीकात्मक और व्यंग्यात्मक लघुकथा है। शेर व्यवस्था का प्रतीक है जिसके पेट में जंगल के सभी जानवर किसी-न-किसी प्रलोभन के चलते समाते चले जा रहे हैं। ऊपर से देखने पर शेर अहिंसावादी, न्यायप्रिय और बुद्ध का अवतार प्रतीत होता है पर जैसे ही लेखक उसके मुँह में प्रवेश न करने का इरादा करता है शेर अपनी असलियत में आ जाता है और दहाड़ता हुआ उसकी ओर झपटता है। तात्पर्य यह है कि सत्ता तभी तक खामोश रहती है जब तक सब उसकी आज्ञा का पालन करते रहें। जैसे ही कोई उसकी व्यवस्था पर उँगली उठाता है या उसकी आज्ञा का मानने से इनकार करता है. वह खूँखार हो उठता है और विरोध में उठे स्वर को कुचलने का प्रयास करती है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने सुविधाभोगियों, छद्म क्रांतिकारियों, अहिंसावादियों और सह-अस्तित्ववादियों के ढोंग पर भी प्रहार किया है।

2. ‘पहचान’ में राजा को बहरी, गूँगी और अंधी प्रजा पसंद आती है जो बिना कुछ बोले, बिना कुछ सुने और बिना कुछ देखे उसकी आज्ञा का पालन करती रहे। कहानीकार ने इसी यथार्थ की पहचान कराई है। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर में इन्हें प्रगति और उत्पादन से जोड़कर संगत और जरूरी भी उहराया जा रहा है। इस छद्य प्रगति और विकास के बहाने राजा उत्पादन के सभी साधनों पर अपनी पकड़ मजबूत करता जाता है। वह लोगों के जीवन को स्वर्ग जैसा बनाने का झाँसा देकर अपना जीवन स्वर्गमय बनाता है। वह जनता को एकजुट होने से रोकता है और उन्हें भुलावे में रखता है। यही उसकी ‘सफलता’ का राज है।

3. ‘चार हाथ’ पूँजीवादी व्यवस्था में मजदूरों के शोषण को उजागर करती है। पूँजीपति भॉँति-भाँति के उपाय कर मजदूरों को पंगु बनाने का प्रयास करते हैं। वे उनके अहम् और अस्तित्व को छिन्न-भिन्न करने के नए-नए तरीके ढूँढते हैं और अंततः: उनकी अस्मिता ही समाप्त कर देते हैं। मजदूर विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं। वे मिल के कल-पुर्जें बन गए हैं और लाचारी में आधी मजदूरी पर भी काम करने के लिए तैयार हैं। मजदूरों की यह लाचारी शोषण पर आधारित व्यवस्था का पर्दाफाश करती है।

4. ‘साझा’ में उद्योगों पर कब्जा जमाने के बाद पूँजीपतियों की नजर किसानों की जमीन और उत्पाद पर जमी है। गाँव का प्रभुत्वशाली वर्ग भी इसमें शामिल है। वह किसान को साझा खेती करने का झाँसा देता है और उसकी सारी फसल हड़प लेता है। किसान को पता भी नहीं चलता और उसकी सारी कमाई हाथी के पेट में चली जाती है। यह हाथी और कोई नहीं, बल्कि समाज का धनाद्य और प्रभुत्वशाली वर्ग है जो किसानों को धोखे में डालकर उसकी सारी मेहनत हड़प कर जाता है। यह कहानी आजादी के बाद किसानों की बदहाली का वर्णन करते हुए उसके कारणों की भी पड़ताल करती है।

Sher Pehchan Char Hath Sajha Class 12 Hindi Summary

1. शेर : लेखक शहर के आदमियों से डरकर जंगल में चला गया था। वहाँ उसने पहले ही दिन बरगद के पेड़ के नीचे बैठे एक शेर को देखा। पहली नजर में वह गौतम बुद्ध का प्रतिरूप नजर आया क्योंकि लेखक बरगद के पेड़ के नीचे गौतम बुद्ध को देखने का आदी हो चुका था। शेर का मुँह खुला हुआ था। वह डर के मारे एक झाड़ी के पीछे छिप गया। लेखक ने देखा कि जंगल के छोटे-मोटे जानवर शेर के मुँह में समाते चले जा रहे हैं। शेर बिना हिले-डुले, बिना चबाए जानवरों को गटकता चला जा रहा था। यह दृश्य देखकर लेखक बेहोश होते-होते बचा।

अगले दिन उसने एक गधे को शेर के मुँह की तरफ जाते देखा। लेखक के पूछने पर उसने बताया कि वहाँ हरी घास का मैदान है। मुझे वहाँ खाने को हरी-हरी घास खूब मिलेगी। लेखक ने उसे चेताया कि वह शेर का मुँह है। गधा बोला कि वह शेर का मुँह जरूर है, पर वहाँ है हरी घास का मैदान। इतना कहकर वह शेर के मुँह में चला गया। लोमड़ी भी शेर के मुँह में इसलिए चली गई क्योंकि उसे बताया गया था कि शेर के मुँह के अंदर रोजगार दिलाने का दफ्तर है। उल्लू ने भी शेर के मुँह के अंदर स्वर्ग बताया। उसे शेर के मुँह में जाना ही निर्वाण का एकमात्र रास्ता नजर आया। अगले दिन कुत्तों का जुलूस भी शेर की तरफ बढ़ता चला गया और उसके मुँह में चला गया।

कुछ दिनों बाद लेखक ने सुना कि शेर अहिंसा और सह-अस्तित्ववाद का बहुत बड़ा समर्थक है। अब वह जंगली जानवरों का शिकार नहीं करता। लेखक ने शेर की सच्चाई जाननी आही। उसे बताया गया कि शेर के पेट में वास्तविक रोजगार-दफ्तर है जबकि बाहर का रोजगार दफ्तर मिध्या है। लेखक ने जब शेर के मुँह में जाने से इंकार कर दिया तब शेर गौतम बुद्ध वाली मुद्रा त्यागकर दहाड़ा और ड़स पर झपट पड़ा।

यह लघुकथा यह बताती है कि सत्ता (प्रतीक शेर) तभी तक चुप रहती है जब तक उसकी आज्ञा का पालन किया जाता रहे। जैसे ही कोई व्यवस्था पर उँगली उठाता है, तब यह सत्ता आक्रामक रूप धारण कर लेती है और उसे कुचलने का हरसंभव प्रयत्न करती है।

2. पहचान : राजा हुक्म देता है कि सभी लोग अपनी आँखें बंद रखें ताकि उन्हें शांति मिल सके। लोगों ने राजा की आज्ञा का पालन किया क्योंकि यही उनका धर्म है। जनता आँखें बंद किए ही अपने सारे काम करती थी। आश्चर्य की बात यह थी काम पहले के मुकाबले में बहुत अधिक और अच्छा हो रहा था। फिर राजा का हुक्म हुआ कि लोग अपने कानों में पिघला हुआ सीसा डलवा लें ताकि कुछ सुन न सकें। राजा के अनुसार सुनना जिंदा रहने के लिए कतई जरूरी नहीं है। लोगों ने इस आज्ञा का भी पालन किया। उत्पादन और भी बढ़ गया। फिर राजा का हुक्म हुआ कि लोग अपने-अपने होंठ सिलवा लें। तर्क यह था कि बोलना उत्पादन में बाधक होता है। लोगों ने काफी सस्ती दरों पर अपने होंठ सिलवा लिए, पर अब वे खा नहीं सकते थे लेकिन खाना भी काम करने के लिए जरूरी नहीं माना गया। उन्हें कई तरह की चीजें कटवाने और जुड़वाने के हुक्म मिलते रहे और वे वैसा ही करते रहे। शासन दिन-प्रतिदिन प्रगति करता रहा।

एक दिन खैराती, रामू और छिद्यू (आम जनता के प्रतीक) ने सोचा कि आँख खोलकर देखा जाए क्योंकि अब तक तो देश स्वर्ग बन गया होगा। जब तीनों ने आँखें खोलीं तो उन सबको अपने सामने केवल राजा दिखाई दिया। वे एक-दूसरे को देख न सके। यह लघुकथा हमें बताती है राजा को गूँगी, बहरी और अंधी प्रजा पसंद आती है। वह हरसंभव प्रयास करता है कि प्रजा की पहचान खो जाए और वह केवल राजा की ओर ही देखती रहे। वह जनता को एकजुट होने से रोकने को ही अपनी सफलता मानता है।

3. चार हाथ : एक मिल मालिक (पूँजीपति) के दिमाग में बड़े विचित्र ख्याल आया करते थे। वह सोचता था कि सारा संसार मिल बन जाएगा और वहाँ अन्य चीजों की तरह आदमी भी बनने लगेंगे। वह सोचता कि यदि मजदूर के दो के स्थान पर चार हाथ हों तो काम बहुत तेजी से होगा और उसका मुनाफा भी बढ़ जाएगा। उसने यह काम वैज्ञानिकों से कराने की बात सोची अतः बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को मोटी तनख्वाहों पर नौकर रखा। कई साल के प्रयोगों के बाद वैज्ञानिकों ने इसे असंभव बताया। मिल मालिक वैज्ञानिकों से नाराज हो गया और उन्हें नौकरी से निकाल दिया।

वह स्वयं इस काम को पूरा करने में जुट गया। उसने कटे हुए हाथ मागवाए और उन्हें अपने मजदूरों में फिर करवाना चाहा, पर यह हो न सका। फिर उसने मजदूरों को लकड़ी के हाथ लगवाने चाहे, पर उसका उनसे काम न हो सका। फिर उसने लोहे के हाथ फिट करवाए, पर मजदूर मर गए। आखिर में उसके एक बात समझ में आ गई। उसने मजदूरों की मजदूरी आधी कर दी और उसी पैसे में दुगुने मजदूर रख लिए।

यह लघुकथा पूँजीवादी व्यवस्था में मजदूरों के शोषण को उजागर करती है। पूँजीपति तरह-तरह के उपाय करके श्रमिक को पंगु बनाता है तथा मनचाहे ढंग से उसका शोषण करता है, मजदूर विरोध की स्थिति में नहीं होते।

4. साझाः किसान यद्यपि खेती की बारीकियों से परिचित था, पर डरा दिया गया था। अतः वह अकेले खेती करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। पहले वह शेर, चीते और मगरमच्छ के साथ साझे की खेती कर चुका था। अब हाथी (प्रभुत्वशाली वर्ग का प्रतीक) उससे अपने साथ साझे की खेती करने की जिद कर रहा था। हाथी उसे साझे की खेती के लाभ समझाता है कि इससे छोटे-मोटे जानवर खेतों को नुकसान नहीं पहुँचा पाएँगे। किसान अंतत: तैयार हो गया। उसने हाथी से मिलकर गन्ना बोया। हाथी ने गन्ने की खेती में अपने साझे का पूरे जंगल में प्रचार कर दिया। किसान फसल की सेवा करता रहा। जब गन्ने तैयार हो गए तो वह हाथी को खेत पर बुला लाया। वह चाहता था कि फसल आधी-आधी बाँट ली जाए। इस पर हाथी बिगड़ गया। वह बोला, “अपने और पराए की बात मत करो। हम दोनों ने मिलकर मेहनत की थी, हम दोनों उसके स्वामी हैं। आओ, हम मिलकर गन्ने खाएँ।”

गन्ने का एक छोर हाथी की सूँड में था और दूसरा आदमी के मुँह में। जब आदमी गन्ने के साथ-साथ हाथी की तरफ खिंचने लगा तब उसने गन्ना छोड़ दिया। हाथी बोला, “देखो, हमने एक गन्ना खा लिया।” इस तरह उनके साझे की खेती बँट गई। यह लघुकथा बताती है कि किस तरह गाँव का प्रमुख वर्ग किसानों की फसल को साझे का झाँसा देकर हड़प कर जाता है।

शब्दार्थ एवं टिप्पणी –

सींग निकलना = इसका प्रयोग प्रतीक रूप में किया गया है। गधे के सिर पर सींग निकलने की कहावत आपने सुनी होगी। यहाँ इसी कहावत को प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया गया है। यहाँ इसका अर्थ है, व्यवस्था से अलग रहना, बनी बनाई लीक से अलग चलना। (Opposition of Tradition), डुग्गी पीटना = प्रचार करना, पुराने जमाने में डुग्गी (एक प्रकार का वाद्य) बजाकर लोगों को एकत्र किया जाता था और जरूरी सूचना सुनाई जाती थी। (Toadvertise), पड्टी पढ़ाना = झाँसा देना, बेवकूफ बनाकर ठगना। (Cheating), निर्वाण = जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति (To get salvation), उल्लू बनाना = मूर्ख बनाना (To befool), मिध्या = झूठा (False), सह अस्तित्ववाद = साथ-साथ रहना (Co-existence), समर्थक = समर्थन करने वाला (Supporter), मुद्रा = दशा, स्थिति (Posture)।

शेर, पहचान, चार हाथ, साझा सप्रसंग व्याख्या

1. मैं तो शहर से या आदमियों से डरकर जंगल इसलिए भागा था कि मेरे सिर पर सींग निकल रहे थे और डर था कि किसी ने किसी दिन कसाई की नजर मुझ पर जरूर पड़ जाएगी।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश असगर वजाहत द्वारा रचित लघुकथा शेर से अवतरित हैं। इसमें लेखक शेर को व्यवस्था का प्रतीक मानता है जिसके पेट में जंगल के सभी जानवर किसी न किसी प्रलोभन के चलते समाते जा रहे हैं।

व्याख्या : लेखक बताता है कि वह अपनी सत्ता से तंग आकर दूसरे की सत्ता में जाता है। वह अपनी सत्ता से दुःखी हैं क्योंकि वहाँ केवल स्वार्थ का बोलबाला है। तब उसने सोचा कि शायद दूसरे की सत्ता में उसे सुख प्राप्त होगा। वह अपने संगी-साथियों को छोड़कर दूसरी जगह जाता है। वह कसाई की नजर से बचना चाहता था, पर उसकी यह इच्छा पूरी न हो सकी। वहाँ भी एक शेर था। यह शेर नई व्यवस्था का प्रतीक है। इसे देखकर लेखक भयभीत हो जाता है क्योंकि शेर (सत्ता) के मुख पर क्रोध झलकता है।

विशेष :

  1. प्रतीकात्मक शैली अपनाई गई है।
  2. शेर को व्यवस्था का प्रतीक बताया गया है।
  3. भाषा सहज एवं सरल है।

2. जंगल में मेरा पहला ही दिन था। जब मैंने बरगद के पेड़ के नीचे एक शेर को बैठे हुए देखा। इससे पहले चूँकि चित्रों में आँखें बरगद के पेड़ के नीचे गौतम बुद्ध को देखने की आदी थीं इसलिए पहली नजर में शेर गौतम बुद्ध नजर आया लेकिन शेर का मुँह खुला हुआ था। शेर का खुला मुँह देखकर मेरा जो हाल होना था, वही हुआ, यानी मैं डर के मारे एक झाड़ी के पीछे छिप गया। मैंने देखा कि झाड़ी की ओट भी गजब की चीज है। अगर झाड़ियाँ न हों तो शेर का मुँह-ही-मुँह हो और फिर उससे बच पाना बहुत कठिन हो जाए। कुछ देर के बाद मैंने देखा कि जंगल के छोटे-मोटे जानवर एक लाइन से चले आ रहे हैं और शेर के मुँह में घुसते चले जा रहे हैं। शेर बिना हिले-डुले, बिना चबाए, जानवरों को गटकता जा रहा है। यह दृश्य देखकर मैं बेहोश होते-होते बचा।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश असगर वजाहत द्वारा रचित लघुकथा ‘शेर’ से अवतरित है। यह एक प्रतीकात्मक एवं व्यंग्यात्मक लघुकथा है। शेर व्यवस्था का प्रतीक है जिसके पेट में जंगल के जानवर प्रलोभन में आकर समा जाते हैं।

व्याख्या : लेखक शहर से भागकर जंगल में चला गया। अभी उसका जंगल में पहला ही दिन था। वहाँ उसने एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठे एक शेर को देखा। लेखक इससे पहले चित्रों में बरगद के पेड़ के नीचे गौतम बुद्ध को देखता रहा था अत: उसे पहली नजर में शेर गौतम बुद्ध के रूप में नजर आया। (सत्ताधारी पहले ऐसा ही लगता है।) उस समय शेर का मुँह खुला हुआ था। शेर को इस रूप में देखकर लेखक का बुरा हाल हो गया। वह डरकर झाड़ी के पीछे जा छिपा। लेखक को झाड़ी का महत्त्व समझ आ गया। यदि झाड़ी न हो तो केवल शेर का मुँह-ही-मुँह रह जाएगा और इससे बचना मुश्किल हो जाएगा। (निरंकुश सत्ता से बचना कठिन हो जाएगा) लेखक ने कुछ देर बाद देखा कि जंगल के छोटे-मोटे जानवर शेर की तरफ चले आ रहे हैं और वे उसके मुँह में समाते जा रहे हैं। शेर अपने स्थान पर बैठे-बैठे बिना विशेष प्रयास किए इन जानवरों को गटकता जा रहा है। यही दशा व्यवस्था की होती है। वह भोली-भाली जनता को अपने चंगुल में फँसाती चली जाती है। लोग उसका शिकार होते रहते हैं।

विशेष :

  1. प्रतीकात्मकता का समावेश है।
  2. सीधी-सरल भाषा-शैली अपनाई गई है।

3. अगले दिन मैंने कुत्तों के एक बहुत बड़े जुलूस को देखा जो कभी हैंसते-गाते थे और कभी विरोध में चीखते-चिल्नाते थे। उनकी बड़ी-बड़ी लाल जीभें निकली हुई थीं, पर सब दुम दबाए थे। कुत्तों का यह जुलूस शेर के मुँह की तरफ बढ़ रहा था। मैंने चीखकर कुत्तों को रोकना चाहा, पर वे नहीं रुके और उन्होंने मेरी बात अनसुनी कर दी। वे सीधे शेर के मुँह में चले गए।
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश असगर वजाहत द्वारा रचित व्यंग्य कथा ‘शेर’ से अवतरित है। इसमें शेर व्यवस्था का प्रतीक है जिसके पेट में जंगल के सभी जानवर किसी न किसी प्रलोभन के चलते समाते चले जाते हैं।

व्याख्या : लेखक ने एक दिन देखा कि कुते एक जुलूस के रूप में चले आ रहे थे। ये वही कुत्ते थे जो कभी तरह-तरह की हरकतें करते रहते थे, कभी हँसते थे तो कभी गाते थे। कभी-कभी वे चीखते-चिल्लाते भी थे। अब उनकी ये सभी प्रकार की हरकतें शांत थी। उनकी बड़ी-बड़ी लाल जीभें तो निकल रही थीं पर अब वे दुम दबाकर चल रहे थे। अब वे चुपचाप जुलूस बनाकर शेर की ओर बढ़े चले जा रहे थे। व्यवस्था का ऐसा ही प्रभाव होता है, वह बड़े बड़ों को चुप करा देता है। इस समय वे किसी की नहीं सुनते। लेखक ने भी उनको रोकना चाहा था, पर उन्होने उसकी बात अनसुनी कर दी। वे सीधे शेर के मुँह में चले गए। इसी प्रकार कितने ही प्राणियों को व्यवस्था लील जाती है।

विशेष :

  1. प्रतीकात्मकता का समावेश हुआ है।
  2. लेखक ने सुविधाभोगियों छद्म क्रांतिकारियों और सह अस्तित्वादियों के ढोंग पर करारा व्यंग्य किया है।
  3. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।

4. मैंने देखा कि झाड़ी की ओर भी गज़ब की चीज़ है। अगर झाड़ियाँ न हों तो शेर का मुँह ही मुँह हो और फिर उससे बच पाना बहुत कठिन हो जाए। कुछ देर के बाद मैंने देखा कि जंगल के छोटे-मोटे जानवर एक लाइन से चले आ रहे हैं और शेर के मुँह में घुसते चले जा रहे हैं। शेर बिना हिले-डुले, बिना चबाए, जानवरों को गटकता जा रहा है। यह दृश्य देखकर मैं बेहोश होते-होते बचा।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश असगर वजाहत द्वारा रचित लघुकथा ‘शेर’ से अवतरित है। यह एक प्रतीकात्मक एवं व्यंग्यात्मक लघुकधा है। शेर व्यवस्था का प्रतीक है जिसके पेट में जंगल के सभी जानवर किसी न किसी प्रलोभन के चलते समाते जा रहे हैं।

व्याख्या : लेखक जंगल में जाकर बरगद के पेड़ के नीचे बैठे शेर को देखता है। उसका खुला मुँह देखकर लेखक का बुरा हाल हो जाता है। वह डर के मारे एक झाड़ी के पीछे छिप जाता है। वहाँ जाकर लेखक को अहसास होता है कि झाड़ी की ओट भी बड़ी गजब की चीज है। यहाँ आकर छिपा तो जा सकता है। यदि झाड़ी न हो और केवल शेर का मुँह ही मुँह हो तो उससे बच पाना कठिन है। थोड़ी देर बाद लेखक ने देखा कि जंगल के अनेक छोटे-मोटे जानवर एक लाइन बनाकर शेर की ओर बढ़े चले आ रहे हैं और बारी-बारी से शेर के मुँह में घुसते चले जा रहे हैं। बिना कोई प्रयास किए शेर का भोजन स्वयं उसके पास आ रहा है। शेर भी बिना हिले-डुले और इन जानवरों को चबाए बिना निगलता चला जा रहा है। इस दृश्य को देखकर लेखक बड़ी मुश्किल से बेहोश होते-होते बच सका।

विशेष :

  1. प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। शेर व्यवस्था का प्रतीक है। व्यवस्था लोगों को अपना शिकार बनाती है।
  2. सरल और सहज भाषा का प्रयोग किया गया है।

5. कुछ दिनों के बाद मैंने सुना कि शेर अहिंसा और सह-अस्तित्ववाद का बड़ा जबरदस्त समर्थक है इसलिए जंगली जानवरों का शिकार नहीं करता। मैं सोचने लगा, शायद शेर के पेट में वे सारी चीजें हैं जिनके लिए लोग वहाँ जाते हैं और मैं भी एक दिन शेर के पास गया। शेर आँखें बंद किए पड़ा था और उसका स्टॉफ आफिस का काम निपटा रहा था। मैंने वहाँ पूछा। “क्या यह सच है कि शेर साहब के पेट के अंदर, रोजगार का दफ्तर है?”

प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण असगर वजाहत द्वारा लिखित ‘शेर’ नामक लघुकथा से अवतरित है। इसमें लेखक ने शेर को व्यवस्था का प्रतीक माना है और उसकी कार्य प्रणाली पर व्यंग्य किया है।

व्याख्या : कुछ दिनों से सुना जा रहा है कि शेर अहिंसा तथा सह-अस्तित्व का बहुत अच्छा समर्थक हो गया है इसलिए वह जंगली जानवरों का शिकार नहीं करत॥। शेर के मुँह में सभी जानवर बिना किसी आपत्ति के घुसे चले जा रहे हैं तो शेर को शिकार करने की क्या आवश्यकता है। व्यवस्था रूपी शेर के पास सब भ्रमवश चले तो जाते हैं, किंतु उन्हें कुछ भी नहीं मिलता, केवल निराशा ही हाथ लगती है। आज देश की व्यवस्था अहिंसावादी और सह-अस्तित्ववादी होने का दंभ भर रही है, लेकिन वास्तविकता एकदम भिन्न है।

विशेष :

  1. वर्तमान समाज की भ्रष्ट व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य है।
  2. प्रतीकात्मक और व्यंग्यात्मक भाषा-शैली का प्रयोग हुआ है।
  3. तत्सम, तद्भव, उर्दू तथा अंग्रेजी शब्दों का सहज प्रयोग है।

6. राजा ने हुक्म दिया कि उसके राज में सब लोग अपनी आँखें बंद रखेंगे ताकि उन्हें शांति मिलती रहे। लोगों ने ऐसा ही किया, क्योंकि राजा की आज्ञा मानना जनता के लिए अनिवार्य है। जनता आँखें बंद किए-किए सारा काम करती थी और आश्चर्य की बात यह कि काम पहले की तुलना में बहुत अधिक और अच्छा हो रहा था। फिर हुक्म निकला कि लोग अपने-अपने कानों में पिघला हुआ सीसा डलवा लें, क्योंकि सुनना जीवित रहने के लिए बिल्कुल जरूरी नहीं है। लोगों ने ऐसा ही किया और उत्पादन आश्चर्यजनक तरीके से बढ़ गया।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश असगर वजाहत द्वारा रचित लघुकथा ‘पहचान’ से लिया गया है। इसमें बताया गया है कि राजा को बहरी, गूँगी और अंधी प्रजा पसंद आती है क्योंकि तभी वह अपना स्वार्थ सिद्ध कर पाता है।

व्याख्या : राजा अपना हित साधने के लिए प्रजा को तरह-तरह के हुक्म देता रहता है। एक बार उसने हुक्म दिया कि प्रजा के सब लोग अपनी आँखें बंद रखेंगे। इससे उन्हें शांति मिलेगी। वास्तविकता यह थी कि वह अपने कारनामों पर लोगों की नजर नहीं पड़ने देना चाहता था। राजा की आज्ञानुसार लोगों ने अपनी आँखें बंद कर लीं। वे इसी स्थिति में काम करते रहे। हैरानी की बात तो यह थी कि काम पहले की तुलना में काफी ज्यादा और अच्छा हो रहा था। लोगों का ध्यान इधर-उधर जाता ही न था। फिर राजा का हुक्म निकला कि लोग अपने कानों में पिघला हुआ सीसा डलवा लें ताकि वे कोई बात सुन न सकें। राजा के अनुसार जीने के लिए सुनना जरूरी नहीं है। लोगों ने राजा की इस आज्ञा का भी पालन कर दिखाया। इससे उत्पादन में बहुत बढ़ोतरी हो गई। इस गद्यांश का निहितार्थ यह है कि राजा अंधी-बहरी प्रजा चाहता है ताकि वह मनमानी कर सके। उत्पादन बढ़ना भी उसी के हित में है। इसका लाभ लोगों को नहीं मिलता। यह राजा सत्ताधारी है और लोगों का शोषण करता है।

7. फिर हुक्म ये निकला कि लोग अपने-अपने होंठ सिलवा लें, क्योंकि बोलना उत्पादन में सदा से बाधक रहा है। लोगों ने काफ़ी सस्ती दरों पर होंठ सिलवा लिए और फिर उन्हें पता लगा कि अब वे खा भी नहीं सकते हैं। लेकिन खाना भी काम करने के लिए बहुत आवश्यक नहीं माना गया। फिर उन्हें कई तरह की चीज़े करवाने और जुड़वाने के हुक्म मिलते रहे और वे वैसा ही करवाते रहे। राज रात-दिन प्रगति करता रहा।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश असगर वजाहत द्वारा रचित लघुकथा ‘पहचान’ से लिया गया है। इसमें बताया गया है कि राजा को बहरी, गूँगी और अंधी प्रजा पसंद आती है क्योंकि तभी वह अपना स्वार्थ सिद्ध कर पाता है।

व्याख्या : राजा अपना हित साधने के लिए प्रजा को तरह-तरह के हुक्म देता रहता है। एक बार उसने हुक्म दिया कि प्रजा के लोग अपने होठों को सिलवा लें अर्थात् बोलने पर नियंत्रण करें। राजा का तर्क था कि बोलना उत्पादन में बाधा पहुँचाता है। लोगों ने काफी सस्ती दरों पर अपने होंठ सिलवा लिए। इसके बाद लोगों को पता’चला कि होंठ सिल जाने के कारण अब वे खा भी नहीं सकते। राजी की दृष्टि में काम करना ज्यादा जरूरी था, खाना खाना नहीं। राजा और भी मूर्खतापूर्ण आज्ञाएँ देता रहा और जनता वैसा करती रही। जनता गूँगी बहरी बन गई। इससे शासन दिन-प्रतिदिन प्रगति करता चला गया अर्थात् लोगों का चुप रहना ही शासन की प्रगति का आधार है।

विशेष :

  1. प्रतीकात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
  2. भाषा सीधी, सरल एवं सुबोध है।

8. एक मिल मालिक के दिमाग में अजीब-अजीब खयाल आया करते थे जैसे सारा संसार मिल हो जाएगा, सारे लोग मजदूर और वह उनका मालिक या मिल में और चीजों की तरह आदमी भी बनने लगेंगे, तब मजदूरी भी नहीं देनी पड़ेगी, वगैरा-वगैरा। एक दिन उसके दिमाग में खयाल आया कि अगर मजदूरों के चार हाथ हों तो काम कितनी तेजी से हो और: मुनाफा कितना ज्यादा; लेकिन यह काम करेगा कौन ? उसने सोचा, वैज्ञानिक करेंगे। ये हैं किस मर्ज की दवा ? उसने यह काम करने के लिए बड़े वैज्ञानिकों को मोटी तनख्वाहों पर नौकर रखा और वे नौकर हो गए। कई साल तक शोध और प्रयोग करने के बाद वैज्ञानिकों ने कहा कि ऐसा असंभव है कि आदमी के चार हाथ हो जाएँ। मिल मालिक वैज्ञानिकों से नाराज हो गया। उसने उन्हें नौकरी से निकाल दिया और अपने-आप इस काम को पूरा करने के लिए जुट गया।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश असगर वजाहत द्वारा रचित लघुकथा ‘चार हाथ’ से अवतरित है। इसमें पूँजीवादी व्यवस्था में हो रहे मजदूरों के शोषण को उजागर किया गया है।

व्याख्या : लेखक पूँजीवादी मिल मालिक की बदनीयती का पर्दाफाश करते हुए कहता है कि उसके दिमाग में अपनी आमदनी बढ़ाने के विचित्र खयाल आया करते थे। वह तो यह चाहता था कि यह सारा संसार ही मिल बन जाए और सारे लोग उसमें काम करने वाले मजदूर बन जाएँ। वह ऐसी ही मिल का मालिक बनना चाहता था। वह तो यह भी चाहता था कि मिल में चीजों की तरह आदमी भी बनने लगें। तब तो उसे मजदूरी भी नहीं देनी पड़ेगी।

एक दिन उसके मन में विचार आया कि यदि मजदूरों के चार हाथ हो जाएँ तो उसका काम बड़ी तेजी से होगा और मुनाफा भी बहुत ज्यादा हो जाएगा। अब उसने विचार किया कि चार हाथ वाला काम कौन करेगा ? उसे वैज्ञानिक याद आए। उसने बड़े वैज्ञानिकों को मोटी तनख्वाह पर नौकर रख लिया। वे कई साल तक अपने प्रयोगों में जुटे रहे, पर सफ़ल न हो पाए। उन्होंने हाथ खड़े कर दिए और कहा कि आदमी के चार हाथ होने असंभवव हैं। मिल मालिक उनके निष्कर्ष से नाराज हो गया। उसने वैज्ञानिकों को तो नौकरी से निकाल दिया पर स्वयं अपनी इच्छा की पूर्ति के उपाय में जुट गया।

विशेष :

  1. शोषक वर्ग की मनोवृत्ति उजागर की गई है।
  2. सीधी, सरल भाषा का प्रयोग है।

9. हालांकि उसे खेती की हर बारीकी के बारे में मालूम था, लेकिन फिर भी डरा दिए जाने के कारण वह अकेला खेती करने का साहस न जुटा पाता था। इससे पहले वह शेर, चीते और मगरमच्छ के साथ साझे की खेती कर चुका था, अब उससे हाथी ने कहा कि अब वह उसके साथ साझे की खेती करे। किसान ने उसको बताया कि साझे में उसका कभी गुजारा नहीं होता और अकेले वह खेती कर नहीं सकता। इसलिए वह खेती करेगा ही नहीं। हाथी ने उसे बहुत देर तक पट्टी पढ़ाई और यह भी कहा कि उसके साथ साझे की खेती करने से यह लाभ होगा कि जंगल के छोटे-मोटे जानवर खेतों को नुकसान नहीं पहुँचा सकेंगे और खेती की अच्छी रखवाली हो जाएगी। किसान किसी-न-किसी तरह तैयार हो गया और उसने हाथी से मिलकर गन्ना बोया। हाथी पूरे जंगल में घूमकर डुग्गी पीट आया कि गन्ने में उसका साझा है इसलिए कोई जानवर खेत को नुकसान न पहुँचाए, नहीं तो अच्छा न होगा।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश असगर वजाहत द्वारा रचित लघुकथा ‘साझा’ से अवतरित है। इसमें प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा किसानों की फसलों के हड़पने की चालों का पर्दाफाश किया गया है।

व्याख्या : किसान को खेती की हर बात का ज्ञान था, लेकिन प्रभुत्व वर्ग ने उसे बुरी तरह डरा दिया था। यही कारण था कि अब वह अकेले खेती करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। इससे पहले भी साझा खेती के चक्कर में ठगा जा चुका था। शेर, चीते, मगरमच्छ उन्हीं ठगों के प्रतीक हैं। अबकी बार हाथी उसे ठगने आया था। उसने किसान को साझा खेती करने का सुझाव दिया। किसान का अनुभव था कि साझा खेती से उसे कोई लाभ नहीं मिलता और अकेले वह खेती कर नहीं सकता, अतः उसने खेती न करने का निश्चय किया। हाथी का अपना स्वार्थ था अतः उसने काफी देर तक किसान को साझा खेती के फायदों के बारे में समझाया। उसने यह भी बताया कि साझा खेती करने से जंगल के छोटे-मोटे जानवर खेतों को नुकसान भी नहीं पहुँचा पाएँगे। इससे खेती की अच्छी रखवाली हो जाएगी। किसान हाथी की बातों में आ गया और साझा खेती के लिए तैयार हो गया। उन्होंने खेत में गन्ना बोया। हाथी ने गन्ने के खेत में अपने साझे की बात का प्रचार सारे जंगल में कर दिया और जामवरों को खेत में हानि न पहुँचाने की चेतावनी दे डाली। हाथी पूँजीपति वर्ग का प्रतीक है। यह वर्ग श्रमिकों का हर प्रकार से शोषण करता है।

विशेष :

  1. पूँजीपति शोषक वर्ग के लिए हाथी का प्रतीक सटीक बन पड़ा है।
  2. सीधी, सरल भाषा का प्रयोग किया गया है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 18 Summary – Jahan Koi Wapsi Nahi Summary Vyakhya

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जहाँ कोई वापसी नहीं Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 18 Summary

जहाँ कोई वापसी नहीं – निर्मल वर्मा – कवि परिचय

प्रश्न :
निर्मल वर्मा का जीवन-परिचय देते हुए उनके साहित्यिक योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : निर्मल वर्मा का जन्म 1929 ई. में शिमला (हिमाचल प्रदेश) में हुआ। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास में एम. ए. किया और अध्यापन कार्य करने लगे। चेकोस्लोवाकिया के प्राच्य-विद्या संस्थान, प्राग के निमंत्रण पर सन् 1950 में वहाँ गए और चेक उपन्यासों तथा कहानियों का हिंदी अनुवाद किया।

निर्मल वरां को हिंदी के समान ही अंग्रेजी पर भी अधिकार प्राप्त था। उन्होंने ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ तथा ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के लिए यूरोप की सांस्कृतिक एवं राजनीतिक समस्याओं पर अनेक लेख और रिपोर्ताज लिखे हैं जो उनके निबंध संग्रहों में संकलित हैं। सन् 1970 में वे भारत लौट आए और स्वतंत्र लेखन करने लगे। 2005 ई. में उनका देहांत हुआ।

साहित्यिक योगदान : निर्मल वर्मा का मुख्य योगदान हिंदी कथा-साहित्य के क्षेत्र में है। बे नई कहानी आंदोलन के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं। ‘परिंदे ‘, ‘जलती झाड़ी’, ‘तीन एकांत’, ‘पिछली गर्मियों में’, ‘कव्वे और काला पानी’, ‘बीच बहस में’, ‘सूखा’ तथा अन्य कहानियाँ आदि कहानी-संग्रह और ‘वे दिन’, ‘लाल टीन की छत’, ‘एक चिथड़ा सुख’ तथा ‘अंतिम अरण्य’ उपन्यास इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। ‘रात का रिपोर्टर’ जिस पर सीरियल तैयार किया गया है, उनका उपन्यास है। ‘हर बारिश में’, ‘चीड़ों पर चाँदनी ‘ धुंध से उठती धुन में उनके यात्रा-संस्मरण संकलित हैं। ‘शब्द और स्मृति’ तथा ‘कला का जोखिम’ और ‘ढलान से उतरते हुए’ उनके निबंध-संग्रह हैं, जिनमें विविध विषयों का विवेचन मिलता है। सन् 1985 में ‘कव्वे और काला पानी’ पर उनको ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ मिला। इसके अतिरिक्त उन्हें कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया।

निर्मल वर्मा की भाषा-शैली में एक अनोखी कसावट है, जो विचार सूत्र की गहनता को विविध उद्धरणों से रोचक बनाती हुई विषय का विस्तार करती है। शब्द-चयन में जटिलता न होते हुए भी उनकी वाक्य-रचना में मिश्र और संयुक्त वाक्यों की प्रधानता है। स्थान-स्थान पर उन्होंने उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग किया है, जिससे उनकी भाषा-शैली में अनेक नवीन प्रयोगों की झलक मिलती है।

पाठ का संक्षिप्त परिचय –

‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ यात्रा-वृत्तांत धुंध से उठती धुन संग्रह से लिया गया है। उसमें लेखक ने पर्यावरण-संबंधी सरोकारों को ही नहीं, विकास के नाम पर पर्यावरण-विनाश से उपजी विस्थापन संबंधी मनुष्य की यातना को भी रेखांकित किया है। लेखक का यह मानना है कि अंधाधुंध विकास और पर्यावरण संबंधी सुरक्षा के बीच संतुलन होना चाहिए, नहीं तो विकास हमेशा विस्थापन और पयावरण संबंधी समस्याओं को जन्म देता रहेगा और मनुष्य अपने समाज, संस्कृति और परिवेश से विस्थापित होकर जीवन जीने के लिए विवश होता रहेगा। औद्योगिक विकास के दौर में आज प्राकृतिक सौंदर्य किस तरह नष्ट होता जा रहा है, इसका मार्मिक चित्रण इस पाठ में किया गया है। यह पाठ विस्थापितों की अनेक समस्याओं का हददयस्पर्शी चित्र प्रस्तुत करता है। इस सत्य को भी उद्घाटित करता है कि आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी में सिर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता, बल्कि उसका परिवेश, संस्कृति और आवास-स्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।

Jahan Koi Wapsi Nahi Class 12 Hindi Summary

इस पाठ में लेखक की पर्यावरणीय चिताएँ उभरकर सामने आई हैं।
सिंगरौली : 1983
जुलाई का अंत था। यह धान की रोपाई का समय था। इस समय बारिश के बाद खेतों में पानी खड़ा था। लेखक उस समय सिंगरौली क्षेत्र के नवागाँव में गया हुआ था। इस क्षेत्र की आबादी पचास हजार से ऊपर थी। यहाँ 18 छोटे-बड़े गाँव बसे थे। यहीं एक गाँव था-अमझर अर्थात् आम के पेड़ों से घिरा गाँव जहाँ आम झरते रहते थे लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों से पेड़ों पर सूनापन है। पूछन पर पता चला कि जब से सरकारी घोषणा हुई है कि अमरौली प्रोजेक्ट के अंतर्गत नवागाँव के अनेक गाँव उजाड़ दिए जाएँगे जब से आम के पेड़ सूखने लगे हैं। जब आदमी उजड़ेंगे तब पेड़ जीवित रहकर क्या करेंगे ?

लेखक के लिए यह एक अनूठा अनुभव था। लोग अपने गाँवों से विस्थापित होकर उन्मूलित होने से पहले वे कैसे परिवेश में रहते होंगे, किस तरह की जिंदगी बिताते होंगे, यह पहली बार अमझार गाँब में देखने को मिला। चारों तरफ पानी, समूची जमीन एक झील की तरह, आदमी, पशु आधे पानी में आधे ऊपर तैरते दिखाई दिए किंतु. यह भ्रम है। यह बाढ़ नहीं, पानी में ड़बे धान के खेत हैं। औरतें एक पांत में झुकी हुई धान पौधे छप-छप पानी में रोप रही हैं। धूप में उनकी काली टाँगें चमक रही हैं तथा सिर पर चटाई के किश्तीनुमा हैट हैं, जो वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते हैं। जरा-सी आहट पाते ही वे सिर उठाकर चौंकती नज़रों से देखती हैं फिर काम में डूब जाती हैं। एक क्षण के लिए यह विश्वास नहीं होता कि आने वाले वर्षों में सब कुछ मटियामेट हो जाएगा-झोंपड़े, खेत, ढोर, आम के पेड़-सब्ब एक गंदी ‘आधुनिक’-औद्योगिक कॉलोनी की ईंटों के नीचे दब जाएगा और ये हँसती-मुसकुराती औरतें शहरों की सड़कों पर पत्थर कूटती दिखाई देंगी। आने वाले बच्चों को तो यह मालूम भी न होगा यहाँ कभी आम झरा करते थे।

ये लोग आधुनिक भारत के नए ‘शरणार्थी’ हैं। इन्हें औद्योगीकरण की आँधी ने अपनी घर-जमीन उखाड़ कर निर्वासित कर दिया है। बाढ़ या भूकपप के कारण लोग अपने घर-बार को छोड़कर जाते अवश्य हैं पर आफत टल जाने के बाद दोबारा उसी परिवेश में लौट आते हैं लेकिन विकास और प्रगति के नाम पर जो लोग उजड़ते हैं वे कभी अपने घर वापस नहीं लौटते। एक भरे-पूरे ग्रामीण अंचल को कितनी निर्ममता से उजाड़ा जा सकता है, इसका ज्वलंत उदाहरण सिंगरौली है। सिंगरौली की भूमि बड़ी उपजाऊ है और यहाँ के जंगल समृद्ध हैं। 1926 से पूर्व यहाँ खैरवार जाति के आदिवासी राजा शासन किया करते थे, कितु बाद में सिंगरौली का आधा हिस्सा रीवाँ राज्य के भीतर शामिल कर लिया गया। यहाँ के जंगलों में कत्था, महुआ, बाँस, शीशम के पेड़ उगते थे।

एक पुरानी दंतकथा के अनुसार सिंगरौली का नाम ही ‘सुंगावली’ पर्वतमाला से निकला है। अपने अतुल प्राकृतिक सौंदर्य के बावजूद सिंगरौली को ‘काला पानी ‘ माना जाता था, जहाँ न लोग भीतर आते थे, न बाहर जाने का जोखिम उठाते थे। कभी-कभी किसी इलाके की संपदा ही उसका अभिशाप बन जाती है। दिल्ली के सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की आँखों से सिंगरौली की अपार खनिज संपदा छिपी न रह सकी। विस्थापन की एक लहर रिहंद बाँध बनने से आई थी, जिसके कारण हजारों गाँव उजाड़ दिए गए थे। नई योजनाओं में सेट्रल कोलफील्ड और नेशनल थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन का निर्माण हुआ। चारों ओर पक्की सड़कें और पुल बनाए गए।

अब सिंगरौली प्रर्गति के मानचित्र पर राष्ट्रीय गौरव के साथ प्रतिष्ठित हुआ। ताप विद्युत गृहों की एक पूरी श्रृखला ने पूरे प्रदेश को अपने में घेर लिया। अब यहाँ राज्य सरकार के अफसरों, इंजीनियरों और विशेषजों की कतार लग गई। सिंगरौली की घाटी और जंगलों पर ठेकेदारों, वन-अधिकारिय और सरकारी कारिंदों का आक्रमण शुरू हो गया।

विकास का यह उजला पहलू अपने पीछे व्यापक विनाश का अँधंरा लेकर आया था। इसका जायजा लेने लेखक ‘लोकायन’ संस्था की ओर से सिंगरौली गुया था। शायद 35 वर्ष पहले हम दूसरा विकल्प चुन सकते थे। पश्चिम जिस विकल्प को खो चुका था, भारत में उसकी संभावनाएँ खुली थीं। भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूजियम और संग्रहालयों में जमा नहीं थी–वह उन रिश्तों में जीवित थी, जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों अर्थात् उसके समूचे परिवेश के साथ जोड़ते थे। यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है, भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारस्परिक संबंध बनाए रखने का है। स्वातंत्य्योत्तर भारत की ट्रेजडी यही है कि उसने पश्चिम की देखा-देखी योजनाएँ बनाते समय प्रकृति-मनुष्य और संस्कृति के बीच के नाजुक संतुलन को नहीं बनाए रखा। इसे नष्ट होने से बचाया जाना चाहिए था।

एक शब्दार्थ एवं टिप्पणी – 

विस्थापन = एक जगह से दूसरी जगह उजड़ कर जाना, बसना ( Rehabilitation ), उन्मूलित = अपने मूल से कटना (Cut from roots), तिरना = अलग-थलग पड़ना, किनारे या हाशिए पर रहना (On margin ), शाश्वत = निरंतर, कभी न मिटने वाला (Continuous), झंझावात = मुसीबत, परेशानी (Trouble), लोलुप = लालची (Greedy), चक्का = चक्र, मिट्टी का ढेला, गाड़ी का पहिया (Wheel), अंतहीन = जिसका अंत न हो (Endless), निर्वासित = निकाल देना (Exiled), आक्रमण = हमला ( Attack). विकल्प = दूसरा चुनाव (Alternative), लिप्सा = लालच ( Greed), पारंपरिक = परंपरा से (Traditional)!

जहाँ कोई वापसी नहीं सप्रसंग व्याख्या

1. मेरे लिए एक दूसरी दृष्टि से भी यह अनूठा अनुभव था। लोग अपने गाँवों से विस्थापित होकर कैसी अनाथ, उन्मूलित जिंदगी बिताते हैं, यह मैंने हिंदुस्तानी शहरों के बीच बसी मजदूरों की गंदी, दम घुटती, भयावह बस्तियों और स्लम्स में कई बार देखा था, किंतु विस्थापन से पूर्व वे कैसे परिवेश में रहते होंगे, किस तरह की जिंदगी बिताते होंगे, इसका दृश्य अपने

स्वच्छ, पवित्र खुलेपन में पहली बार अमझर गाँव में देखने को मिला। पेड़ों के घने झुरमुट, साफ-सुथरे खप्पर लगे मिट्टी के झोंपड़े और पानी। चारों तरफ पानी। अगर मोटर रोड की भागती बस की खिड़की से देखो, तो लगेगा, जैसे समूची जमीन एक झील है, एक अंतहीन सरोवर, जिसमें पेड़, झोंपड़े, आदमी, ढोर-डाँगर आधे पानी में, आधे ऊपर तिरते दिखाई देते हैं, मानो किसी बाढ़ में सब कुछ डूब गया हो, पानी में धँस गया हो।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसमें लेखक ने विकास के नाम पर किए जा रहे औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप पर्यावरण के नाश एवं इससे उपजी विस्थापन की समस्या के प्रति अपनी चिंता प्रकट की है। औद्योगीकरण ने लोगों को अपने घर-जमीन से उखाड़ दिया है। वे अपने स्थान पर कभी वापस नहीं लौट पाते हैं।

व्याख्या : लेखक ने सिंगरौली में आकर एक अनूठा अनुभव किया। उसने यह तो देखा था कि लोग अपने गाँवों से विस्थापित होकर शहरों की गंदी बस्तियों में अत्यंत दयनीय और असहाय जीवन बिताते हैं। उनकी जिंदगी अनाथों जैसी होती है, वे जिन बस्तियों में रहते हैं वे गंदी, दमघोटू और भयावह होती हैं। लेखक को इस बात का कतई अंदाजा नहीं था कि वे इस विस्थापन से पहले किस प्रकार के वातावरण में रहते होंगे, उनका जीवन किस प्रकार के वातावरण में बीतता होगा।

उसने यहाँ आकर पहली बार अमझर गाँव में आकर उस परिवेश को अपनी आँखों से देखा। यहाँ स्वच्छ और पवित्र खुलापन था। यहाँ पेड़ों के घने झुरमुट थे, घर मिट्टी के झोपड़ों में थे, पर साफ-सुथरे खप्पर वाले थे। भाव यह है कि ऐसे खुले, स्वच्छ वातावरण में रहने वाले लोगों को शहरों की गंदी और दमघोटू बस्तियों में रहने को विवश होना पड़ता है। वहाँ चारों ओर पानी ही पानी दिखाई दे रहा था। दौड़ती बस की खिड़की से देखने पर सारी जमीन एक झील की तरह प्रतीत होती थी। यह एक अंतहीन तालाब की तरह लगती थी। मानो बाढ़ आ गई हो और उसमें पेड़, झोंपड़े, आदमी. पशु आधे पानी के अंदर और आधे पानी के ऊपर दिखाई देते थे। चीजें पानी में धैसी प्रतीत होती थी। ऐसा दृश्य दौड़ती बस कं अंदर से दिखाई देता था।

विशेष :

  1. लेखक ने अमझर गाँव के दृश्य को साकार कर दिया है।
  2. विस्थापितों के पूर्व परिवेश का उल्लेख चित्रात्मक शैली में हुआ है।

2. यह समूंचा दृश्य इतना साफ और सजीव है-अपनी स्वच्छ मांसलता में इतना संपूर्ण और शाश्वत-कि एक क्षण के लिए विश्वास नहीं होता कि आने वाले वर्षों में सब कुछ मटियामेट हो जाएगा-झोपड़े, खेत, ढोर, आम के पेड़-सब एक गंदी, ‘आधुनिक’ औद्योगिक कॉलोनी की ईंटों के नीचे दब जाएगा-और ये हैंसती-मुस्कुराती औरतें, भोपाल, जबलपुर या बैढ़न की सड़कों पर पत्थर कूटती दिखाई देंगी। शायद कुछ वर्षों तक उनकी स्मृति में अपने गाँव की तस्वीर एक स्वप्न की तरह धुँधलाती रहेगी, किंतु धूल में लोटते उनके बच्चों को तो कभी मालूम भी नहीं होगा कि बहुत पहले उनके पुरखों का गाँव था-जहाँ आम इरा करते थे।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। लेखक एक संस्था ‘ लोकायन’ की तरफ से विस्थापन की समस्या को देखने-समझने के लिए सिंगरौली क्षत्र के दौरे पर गया। वहाँ के अमझर गाँव के खेतों में धान को रोपाई करती स्त्रियों का दृश्य उसे लुभा जाता है। यहाँ उसी का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक पानी भरे खेतों में धान रोपने का काम तन्मयता से करती स्त्रियों को देखता है। यह सारा दृश्य अत्यंत साफ और सजीव है। वह इस दृश्य में मांसलता का पुट भी देखता है पर वह संपूर्ण और शाश्वत है। इन धान रोपती स्त्रियों का मांसल सौंदर्य कहीं से भी अश्लील प्रतीत नहीं होता। इसमें पवित्रता झलकती है। इस दृश्य को देखकर यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि आने वाले वर्षों में यह सारा परिवेश एकदम नष्ट हो जाएगा (औद्योगीकरण के कारण) तब यहाँ के झोंपड़े, खेत, पशु, आम के पेड़ अर्थात् समस्त प्राकृतिक परिवेश समाप्त होकर एक औद्योगिक बस्ती खड़ी हो जाएगी।

उसकी ईटों के नीचे यहाँ स्वाभाविकता दम तोड़ देगी। तब ये खेतों में काम करने वाली हँसती-मुस्कुराती औरतें अपने इस काम से वंचित कर शहरों की सड़कों पर पत्थर कूटने के लिए विवश कर दी जाएँगी। वे कुछ वर्षों तक ही अपने गाँव की याद को मन में बसाए रख पाएँगी. फिर यह परिवेश उनके लिए एक सपना बनकर रह जाएगा। उनकी संतान तो कभी यह जान भी नहीं पाएगी कि बहुत पहले उनके पूर्वज एक ऐसे गाँव में रहते थे जहाँ के पेड़ों से आम झरा करते थे। नई पीढ़ी तो उस परिवेश की कल्पना तक नहीं कर सकती।

विशेष :

  1. लंखक ने औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप होने वाले दुष्परिणाम की झाँकी प्रस्तुत की है।
  2. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग है।

3. ये लोग आधुनिक भारत के नए ‘शरणार्थी’ हैं, जिन्हें औद्योगीकरण के झंझावात ने अपनी घर-जमीन से उखाड़कर हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया है। प्रकृति और इतिहास के बीच यह गहरा अंतर है। बाढ़ या भूकंप के कारण लोग अपना घर-बार छोड़कर कुछ अरसे के लिए जरूर बाहर चले जाते हैं, किंतु आफत टलते ही वे दोबारा अपने जाने-पहचाने परिवेश में लौट भी आते हैं किंतु विकास और प्रगति के नाम पर जब इतिहास लोगों को उन्मूलित करता है, तो वे फिर कभी अपने घर वापस नहीं लौट सकते। आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी में सिर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता, बल्कि उसका परिवेश और आवास स्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसमें लेखक औद्योगीकरण के कारण होने वाले विस्थापन के प्रति अपनी चिंता प्रकट करता है।

व्याख्या : औद्योगीकरण के कारण जो लोग हमेशा अपने घरों, अपनी जमीन से उजड़ते हैं, लेखक उन्हें आधुनिक भारत के नए शरणार्थी कहता है। पुराने शरणार्थी वे थे जिन्होंने पाकिस्तान बनने पर वहाँ से उजड़ कर भारत में शरण ली थी। इन नए शरणार्थियो को तो औद्योगीकरण का शिकार बनना पड़ा है। इस औद्धोगीकरण की आँधी ने उन्हें अपने घर, जमीन से उखाड़कर सदा-सदा के लिए निकाल बाहर किया है। लेखक प्रकृति और इतिहास के बीच का अंतर स्पष्ट करता है। प्राकृतिक मार जैसे बाढ़ या भूकंप को कारण भी लोगों को अपना घर-बार छोड़कर कुछ समय के लिए बाहर जाना पड़ता है किंतु मुसीबत टलते ही ये लोग पुन: अपने स्थान पर लौट आते हैं।

उन्हें उनका पुराना परिवेश मिल जाता है लेकिन जब विकास और प्रगति के नाम पर जब इतिहास लोगों को उजाड़ता है तब वे पुन: अपने घर कभी भी नहीं लौट पाते। वे सदा के लिए निर्वासित हो जाते हैं और दूसरी जगह विस्थापित होते हैं। इस आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी ने मनुष्यों को ही नहीं उजाड़ा, बल्कि उसके परिवेश तथा आवास-स्थल को भी हमेशा के लिए नष्ट कर दिया। औद्योगिक विकास का यह विनाशकारी पहलू है।

विशेष : लेखक औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप बने शरणार्थियों की समस्या का विश्लेषण तार्किक ढंग से करता है।

4. एक भरे-पूरे ग्रामीण अंचल को कितनी नासमझी और निर्ममता से उजाड़ा जा सकता है, सिंगरौली इसका ज्वलंत उदाहरण है। अगर यह इलाका उजाड़ रेगिस्तान होता, तो शायद इतना क्षोभ नहीं होता, किंतु सिंगरौली की भूमि इतनी उर्वरा और जंगल इतने समृद्ध हैं कि उनके सहारे शताब्दियों से हजारों वनवासी और किसान अपना भरण-पोषण करते आए हैं। 1926 से पूर्व यहाँ खैरवार जाति के आदिवासी राजा शासन किया करते थे, किंतु बाद में सिंगरौली का आधा हिस्सा, जिसमें उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के खंड शामिल थे, रीवाँ राज्य के भीतर शामिल कर लिया गया।

बीस वर्ष पहले तक समूचा क्षेत्र विंध्याचल और कैमूर के पहाड़ों और जंगलों से घिरा हुआ था, जहाँ अधिकांशतः कत्था, महुआ, बाँस और शीशम के पेड़ उगते थे। एक पुरानी दंतकथा के अनुसार सिंगरौली का नाम ही ‘सृंगावली’ पर्वतमाला से निकला है, जो पूर्व-पश्चिम में फैली है। चारों ओर फैले घने जंगलों के कारण यातायात के साधन इतने सीमित थे कि एक जमाने में सिंगरौली अपने अतुल प्राकृतिक सौंदर्य के बावजूद – ‘काला पानी’ माना जाता था, जहाँ न लोग भीतर आते थे, न बाहर जाने का जोखिम उठाते थे।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा के यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं से अवतरित है। लेखक सिंगरौली क्षेत्र में औद्योगीकरण के कारण हुए पर्यावरणीय विनाश की झाँकी यहाँ प्रस्तुत कर रहा है।

व्याख्या : विकास और प्रगति के नाम पर बिना सोचे-समझे उद्योग स्थापित किए जा रहे हैं। यह औद्योगीकरण किस प्रकार एक भरे-पूरे ग्रामीण अंचल को बेरहमी से उजाड़ देता है, इसे सिंगौौली में देखा जा सकता है। यह क्षेत्र कभी हरा-भरा एवं प्राकृतिक दृष्टि से संपन्न था। औद्योगीकरण ने इसे उजाड़कर रेगिस्तान में बदल दिया। सिंगरौली की जमीन बहुत उपजाऊ है तथा यहाँ के जंगल खनिज संपदा से समृद्ध हैं कि उनके सहारे हजारों सालों से यहाँ के वनबासी और किसान अपना पेट पालते आए हैं। 1926 ई. से पूर्व यहाँ खैरवार जाति के आदिवासी राजा शासन किया करते थे, पर बाद में सिंगरौली का आधा हिस्सा रीवाँ राज्य में शामिल कर लिया गया।

इसमें उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के खंड शामिल थे। 1963 तक यह सारा इलाका विंध्याचल और कैमूर के पहाड़ों और जंगलों से घिरा हुआ था। यहाँ ज्यादातर कत्था, महुआ, बाँस और शीशम के पेड़ उगते थे। यहाँ यह कथा प्रचलित है कि सिंगरौली का नाम ही ‘संगावली’ पर्वतमाला से निकला है। यह पर्वतमाला पूर्व-पश्चिम में फैली है। यहाँ चारों ओर घने जंगल थे और यातायात के साधन सीमित थे। यही कारण था कि अपने भरपूर प्राकृतिक सौंदर्य के बावजूद सिंगरौली को ‘काला पानी ‘ माना जाता था। यहाँ के लोग भीतर जाने और बाहर आने का जोखिम उठाने से कतराते थे।

विशेष : औद्योगीकरण के दुष्परिणाम की झाँकी प्रस्तुत की गई है।

5. विकास का यह ‘उजला’ पहलू अपने पीछे कितने व्यापक पैमाने पर विनाश का अँधेरा लेकर आया था, हम उसका छोटा-सा जायजा लेने दिल्ली में स्थित ‘लोकायन’ संस्था की ओर से सिंगरौली गए थे। सिंगरौली जाने से पहले मेरे मन में इस तरह का कोई सुखद भ्रम नहीं था कि औद्योगीकरण का चक्का, जो स्वतंत्रता के बाद चलाया गया, उसे रोका जा सकता है। शायद पैंतीस वर्ष पहले हम कोई दूसरा विकल्प चुन सकते थे, जिसमें मानव सुख की कसौटी भौतिक लिप्सा न होकर जीवन की जरूरतों द्वारा निर्धारित होती। पश्चिम जिस विकल्प को खो चुका था भारत में उसकी संभावनाएँ खुली थीं, क्योंकि अपनी समस्त कोशिशों के बावजूद अंग्रेजी राज हिंदुस्तान को संपूर्ण रूप से अपनी ‘सांस्कृतिक कॉलोनी’ बनाने में असफल रहा था। भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूजियम और संग्रहालयों में जमा नहीं थी-वह उन रिश्तों से जीवित थी, जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों एक शब्द में कहें उसके समूचे परिवेश के साथ जोड़ते थे। अतीत का समूचा

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसमें लेखक औद्योगीकरण के कारण होने वाले दुष्परिणामों पर प्रकाश डालता है।

व्याख्या : लेखक दिल्ली की एक संस्था ‘लोकायन’ की ओर से सिंगरौली इस उद्देश्य से गया था ताकि वह अपनी आँखों से उस स्थिति का जायजा ले सके जो इस तथाकथित विकास के उजलू पहलू के पीछे छिपे अँधेरे को दर्शाता है। जब लेखक सिंगरौली गया था तब वह इस बात को भलीभाँति जानता था कि औद्योगीकरण का जो दौर चल पड़ा है, उसे रोका नहीं जा सकता। इसके बावजूद हम आजादी मिलने के बाद कोई दूसरा विकल्प चुन सकते थे। इस विकल्प में मानव सुख की कसौटी भौतिक चीजें न होकर जीवन की जरूरतें होतीं।

पाश्चात्य जगत इस विकल्प को ग्रो चुका था, पर भारत में इसकी संभावना मौजूद थी। अंग्रेजी शासन अपनी पूरी कोशिश करने के बावजूद भारत को अपनी सांस्कृतिक बस्ती नहीं बना पाया था। वह हमारी संस्कृति को मिटा नहीं पाया था। इसका कारण यह था कि जहाँ यूरोप की सांस्कृतिक विरासत संग्रहालयों की वस्तु बनकर रह गई थी, वहीं भारत की संस्कृति उन रिश्तों में मौजूद थी जो आदमी को उसके प्राकृतिक परिवेश से जोड़ती थी। यहाँ के लोगों के साथ यहाँ की धरती, यहाँ के जंगल तथा यहाँ की नदियाँ थीं। इस देश का पूरा अतीत किताबों में न होकर यहाँ के आपसी संबंधों में मौजूद रहता था। यह कोई दिखावटी रिश्ता नहीं था। विशेष : लेखक औद्योगीकरण के परिणामों पर विचार करता है।

6. यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध बनाए रखने का हो जाता है। स्वातंत्य्योत्तर भारत की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह नहीं है कि शासक वर्ग ने औद्योगीकरण का मार्ग चुना, ट्रेजेडी यह रही है कि पश्चिम की देखा-देखी और नकल में योजनाएँ बनाते समय प्रकृति-मनुष्य और संस्कृति के बीच का नाजुक संतुलन किस तरह नष्ट होने से बचाया जा सकता है, इस ओर हमारे पश्चिम-शिक्षित सत्ताधारियों का ध्यान कभी नहीं गया। हम बिना पश्चिम को मॉडल बनाए-अपनी शर्तों और मर्यादाओं के आधार पर-औद्योगिक विकास का भारतीय स्वरूप निर्धारित कर सकते हैं, कभी इसका खयाल भी हमारे शासकों को आया हो, ऐसा नहीं जान पड़ता।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। यहाँ लेखक औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप पर्यावरण बिगड़ने के प्रश्न पर चिंता प्रकट करता है।

व्याख्या : लेखक यूरोप और भारत का अंतर स्पष्ट करते हुए कहता है कि यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल (प्रकृति) के बीच संतुलन बनाए रखने का है जबकि भारत में यह प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच के संबंध को बनाए रखने का है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का सबसे दु:खद पहलू यह नहीं है कि हमारे शासक वर्ग ने औद्योगीकरण का रास्ता चुना बल्कि दुःखद पहलू तो यह है कि हमारे शासकों ने पश्चिमी देशों की अंधाधुंध नकल की और योजनाएँ बनाते समय प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के संतुलन को नष्ट कर दिया। इसे बचाया जा सकता था, पर सत्ताधारी वर्ग पश्चिम से शिक्षित था और इस बारे में सोचता ही न था। हमने पश्चिम को अपना मॉडल बनाने की भूल की जबकि हम अपनी शर्तों और मर्यादाओं के आधार पर अपने औद्योगिक विकास के भारतीय स्वरूप को तय कर सकते थे। हमारे शासकों के मन में इस प्रकार का कोई विचार तक नहीं आया। हालात को देखकर तो कुछ ऐसा ही लगता है।

विशेष :

  1. लेखक पश्चिम के अंधानुकरण का तर्कपूर्ण ढंग से विरोध करता है।
  2. भाषा सहज एवं सरल है।

7. स्वातंत्य्योत्तर भारत की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह नहीं है कि शासक वर्ग ने औद्योगीकरण का मार्ग चुना, ट्रेजेडी यह रही है कि पश्चिम की देखादेखी और नकल में योजनाएँ बनाते समय-प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के बीच का नाजुक संतुलन किस तरह नष्ट होने से बचाया जा सके-इस ओर हमारे पश्चिम-शिक्षित सत्ताधारियों का ध्यान कभी नहीं गया।
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसे उनके संग्रह ‘धुंध से उठती धुन’ से लिया गया है। इसमें लेखक ने विकास के नाम पर परावरण विनाश का यथार्थ चित्रण किया है।

व्याख्या : लेखक भारत और यूरोप की पर्यावरण संबंधी धारणा के अंतर को स्पष्ट करता है। यूरोप में पयावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के संतुलन तक सीमित है जबकि भारत में यह प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध को बनाए रखता है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद सबसे गलत बात यह हुई कि हमारे देश के शासकों ने औद्योगीकरण का मार्ग चुनते समय पश्चिम की अंधी नकल की।

उन्हीं की देखा-देखी अपने देश की योजनाएँ बनाई। इन योजनाओं को बनाते समय प्रकृति-मनुष्य और संस्कृति के नाजुक रिश्ते के संतुलन को गड़बड़ा दिया। इसे कैसे बचाया जाए, इसका उन्होंने ख्याल तक नहीं किया। हमारे सत्ताधारी पश्चिम में शिक्षा पाए हुए थे। उनका ध्यान वहीं तक सीमित था। भारत की परिस्थितियों की ओर उनका ध्यान नहीं गया। यदि हम चाहते तो पश्चिमी मॉडल को नकार कर अपने देश की शर्तों और मर्यादाओं के आधार पर अपनी औद्योगिक नीति का निर्धारण कर सकते थे। पर हमारे शासक वर्ग ने तो इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया।

विशेष :

  1. लेखक औद्योगीकरण के स्वरूप एवं कार्यान्वियन के रूप की आलोचना करता है।
  2. पश्चिम और भारत के दृष्टिकोण का अंतर स्पष्ट किया गया है।
  3. विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है।

8. ज़रा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठा कर चौंकी हुई निगाहों से हमें देखती हैं-बिल्कुल उन युवा हिरणियों की तरह, जिन्हें मैंने एक बार कान्हा के वन्य-स्थल में देखा था। किन्तु वे डरती नहीं, भागती नहीं, सिर्फ़ विस्मय से मुसकुराती हैं और फिर सिर झुकाकर अपने काम में डूब जाती हैं-यह समूचा दृश्य इतना साफ़ और सजीव है-अपनी स्वच्छ मांसलता में इतना सम्पूर्ण और शाश्वत-कि एक क्षण के लिए विश्वास नहीं होता कि आने वाले वर्षो में सब कुछ मटियामेट हो जाएगा-झोंपड़े, खेत, बोर, आम के पेड़-सब।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। लेखक एक संस्था ‘ लोकायन’ की तरफ से विस्थापन की समस्या को देखने-समझने के लिए सिंगरौली क्षेत्र के दौरे पर गया। वहाँ के अमझर गाँव के खेतों में धान की रोपाई करती स्त्रियों का दृश्य उसे लुभा जाता है। यहाँ उसी का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक वहाँ के खेतों में काम करती हुई युवतियों को देखता है। वे लेखक और उसके सार्थियों को चौंकाने वाले अंदाज़ में देखती हैं। लेखक को वे युवतियाँ युवा हिरणियों के समान प्रतीत होती हैं। ऐसा ही एक दृश्य लेखक ने कभी कान्हा के वन्य-स्थल में भी देखा था। लेखक पानी भरे खेतों में धान रोपने का काम तन्मयता से करती स्त्रियों को देखता है। यह सारा दृश्य अत्यंत साफ और सजीव है। वह इस दृश्य में मांसलता का पुट भी देखता है पर वह सम्पूर्ण और शाश्वत है। इन धान रोपती स्त्रियों का मांसल सौन्दर्य कहीं से भी अश्लील प्रतीत नहीं होता। इसमें पवित्रता झलकती है।

इस दृश्य को देखकर यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि आने वाले वर्षों में यह सारा परिवेश एकदम नष्ट हो जाएगा (औद्योगीकरण के कारण) तब यहाँ के झोंपड़े, खेत, पशु, आम के पेड़ अर्थात् समस्त प्राकृतिक परिवेश समाप्त होकर एक औद्योगिक बस्ती खड़ी हो जाएगी। उसकी ईंटों के नीचे यहाँ स्वाभाविकता दम तोड़ देगी। तब ये खेतों में काम करने वाली हँसती-मुस्कुराती औरतें अपने इस काम से वंचित कर शहरों की सड़कों पर पत्थर कूटने के लिए विवश कर दी जाएँगी। वे कुछ वर्षों तक ही अपने गाँव की याद को मन में बसाए रख पाएँगी, फिर यह परिवेश उनके लिए एक सपना बनकर रह जाएगा। उनकी संतान तो कभी यह जान भी नहीं पाएगी कि बहुत पहले उनके पूर्वज एक ऐसे गाँव में रहते थे जहाँ के पेड़ों से आम झरा करते थे। नई पीढ़ी तो उस परिवेश की कल्पना तक नहीं कर सकती।

विशेष :

  1. लेखक ने औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप होने वाले दुष्परिणाम की झाँकी प्रस्तुत की है।
  2. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग है।

9. अगर हम थोड़ी सी हिम्मत बटोर कर गाँव के भीतर चलें तब वे औरतें दिखाई देंगी जो एक पाँव में झुकी हुई ध ान के पौधे छप-छप पानी में रोप रही हैं; सुंदर, सुडौल, धूप में चमचमाती काली टाँगें और सिरों पर चटाई के किश्तीनुमा हैट, जो फोटो या फिल्मों में देखे हुए वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते हैं, ज़रा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठाकर चौंकी हुई निगाहों से हमें देखती हैं-बिल्कुल उन युवा हिरणियों की तरह, जिन्हे मैंने एक बार कान्हा वन्यस्थल में देखा था। किंतु वे डरती नहीं, भागती नहीं, सिर्फ विस्मय से मुसकराती हैं और फिर सिर झुकाकर अपने काम में डूब जाती हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। लेखक एक संस्था ‘लोकायन’ की तरफ से विस्थापन की समस्या को देखने-समझने के लिए सिंगरौली क्षेत्र के दौरे पर गया। वहाँ के अमझर गाँव के खेतों में धान की रोपाई करती स्त्रियों का दृश्य उसे लुभा जाता है। यहाँ उसी का वर्णन है।

व्याख्या : लेखक सिंगरौली की यात्रा का वर्णन करते हुए बताता है कि यदि गाँव के भीतर की ओर चलकर देखा जाए तो वहाँ ऐसी औरतें दिखाई देती हैं जो एक पाँव पर झुककर खेतों के पानी में धान के पौधे रोप रही हैं। उनकी टाँगें काली होती हैं और सिर पर चटाई से बना किश्तीनुमा हैट होता है। ये औरतें वियतनामी या चीनी औरतों की तरह प्रतीत होती हैं।

लेखक ने देखा कि वहाँ के धाम के ख़ेतों में औरतें एक पंक्ति में झुकी हुई काम कर रही हैं। लेखक-मंडली के आने की जरा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठाकर चौंकती नजरों से उन्हें देखती हैं। उस समय उनकी भाव-भंगिमा उन युवा हिरणियों की तरह होती है, जिन्हें लेखक ने एक बार कान्हा के वन-स्थल अभयारण्य में देखा था। वहाँ की हिरणियाँ तो डरकर इधर-उधर भाग जाती थीं जबकि ये युवतियाँ चौंकती तो अवश्य हैं पर वे किसी से डरती कतई नहीं हैं और कहीं भागती भी नहीं हैं। ये युवतियाँ तो विस्मय भाव से बस मुसकराती रहती हैं। थोड़ी ही देर में वे अपना सिर झुकाकर धान रोपने के काम में लग जाती हैं।

विशेष : वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।

10. जहाँ बाहर का आदमी फटकता न था, वहाँ केंद्रीय और राज्य सरकारों के अफ़सरों, इंजीनियरों और विशेषज्ञों की कतार लग गई। जिस तरह जमीन पर पड़े शिकार को देखकर आकाश में गिद्धों और चीलों का झुंड मँडराने लगता है, वैसे ही सिंगरौली की घाटी और जंगलों पर ठेकेदारों, वन अधिकारियों और सरकारी कारिंदों का आक्रमण शुरू हुआ।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश निर्मल वर्मा द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांत ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसमें औद्योगीकरण के प्रभाष या कुप्रभाव को दर्शाया गया है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि सिंगौौली अभी तक पूरे क्षेत्र से अलग-थलग पड़ा हुआ था। वहाँ बाहर के लोगों का आना-जाना लगभग न के बराबर था। अब वहाँ औद्योगिक विकास के कारण केंद्रीय और राज्य सरकारों के अफसर, इंजीनियर और विशेषज्ञों के आने का सिलसिला शुरू हो गया। जब जमीन पर कोई शिकार मरा पड़ा हो तो उसे खाने के लिए गिद्ध और चीलों के झुंड मंडराने लगते हैं। यही दशा सिंगरौली की भी हुई। यहाँ की घाटी और जंगलों पर ठेकेदारों, वन विभाग के अधिकारियों और सरकारी कर्मचारियों ने इस तरह आना शुरू कर दिया मानो कोई हमला होने जा रहा हो अर्थात् गतिविधियाँ तेजी से होने लगीं।

11. भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूज़़ियम्स और संग्रहालयों में जमा नहीं थी-वह उन रिश्तों से जीवित थी, जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों-एक शब्द में कहें-उसके समूचे परिवेश के साथ जोड़ते थे। अतीत का समूचा मिथक संसार पोथियों में नहीं, इन रिश्तों की अदृश्य लिपि में मौजूद रहता था। यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है-भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध बनाए रखने का हो जाता है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित पाठ ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से अवतरित है। इसके लेखक निर्मल वर्मा हैं। लेखक ने पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण को सबसे बड़ी ट्रेजेडी बताया है।

व्याख्या : लेखक इस गद्यांश में भारत की सांस्कृतिक विरासत और यूरोप की सांस्कृतिक विरासत के अंतर को स्पष्ट कर रहा है। यूरोप की सांस्कृतिक विरासत तो वहाँ के संग्रहालयों में जमा है, जबकि भारतीय सांस्कृतिक विरासत लोगों के उन रिश्तों में बनी रही है जो उसे उसकी धरती, जंगलों, नदियों से जोड़े हुए हैं अर्थात् यह विरासत समूचे परिवेश के साथ जुड़ी हुई है। हमारा अतीत का मिथक किन्हीं पुस्तकों में न होकर रिश्तों के अदृश्य रूप में मौजूद रहा। एक और अंतर यह है कि यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है जबकि भारत में मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच आपसी संबंध बनाए रखने का है।

विशेष :

  1. लेखक ने भारत और यूरोप की सांस्कृतिक विरासत के अंतर को स्पष्ट किया है।
  2. सरल और सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary – Yathasamay Rochte Vishvam Summary Vyakhya

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यथास्मै रोचते विश्वम् Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary

यथास्मै रोचते विश्वम् – रामविलास शर्मा – कवि परिचय

प्रश्न :
रामविलास शर्मा के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं के नाम तथा भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : डॉ. रामविलास शमा का जन्म 10 अक्तूबर, 1912 ई. को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के ऊँच गाँव में हुआ। आपने लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. करने के बाद पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की और वहीं अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हो गए। बाद में आप बलवंत राजपूत कॉलेज, आगरा में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त हुए। आप प्रगतिशील लेखक संघ के मंत्री भी रह चुके हैं। इस प्रकार आपका मार्क्सवादी साहित्य से घनिष्ठ संबंध रहा है। आपकी ख्याति आलोचक के रूप में अधिक है, किंतु आपने आलोचना के अतिरिक्त कविताएँ, निबंध आदि भी लिखे हैं। आप प्रारंभ से ही हिंदी में प्रगतिवादी समीक्षा-पद्धति के प्रमुख स्तंभ रहे हैं।

अपने विचारोत्तेजक निबंधों के द्वारा आपने हिंदी समीक्षा को नवीन दिशा प्रदान की है और संपूर्ण साहित्य नए और पुराने को मार्स्सवादी दृष्टिकोण से देखने-परखने का कार्य बड़ी क्षमता और दक्षता के साथ किया है। सैद्धांतिक तथा व्याव्रहारिक दोनों ही समीक्षा-पद्धतियों से अपने विचारों को पुष्ट करने का स्तुत्य प्रयत्न आपने किया है। ‘हंस’ के कविता विशेषांक कi और आगरा से प्रकाशित ‘समालोचक’ नामक पत्रिका का संपादन भी उन्होंने बड़ी योग्यता एवं कुशलता से किया। सन् 2000 इ. में दिल्ली में उनका देहावसान हुआ।

रचनाएँ : रामविलास शर्मा जी मुख्यतः समीक्षक के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने समीक्षात्मक निबंध ही अधिक लिखे हैं। उनकी स्वतंत्र आलोचनात्मक कृतियों में ‘प्रेमचंद और उनका युग’, ‘निराला की साहित्य-साधना’ (तीन भाग), ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’, ‘भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परंपरा ‘, ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’, ‘भाषा और समाज’, ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी’ ( तीन भाग) आदि उल्लेखनीय हैं। ‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’ (दो खंड) उनके इतिहास-बोध को प्रमाणित करती हैं। आत्मकथा शैली में ‘घर की बात’ उनकी एक अन्य महत्वपूर्ण रचना है जिसमें न केवल उनके परिवार और परिजनों का लगभग सौ वर्ष का इतिहास है, बल्कि इसे किसी सीमा तक उस अवधि का सामाजिक इतिहास भी कह सकते हैं।

साहित्यिक-परिचय : शर्मा जी महत्त्वपूर्ण विचारक और आलोचक होने के साथ-साथ एक सफल निबंधकार भी हैं। उन्होंने विचार प्रधान और व्यक्ति-व्यंजक निबंधों की रचना की है।

रामविलास शर्मा को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। ‘निराला की साहित्य-साधना’ पुस्तक पर उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कारों में ‘सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार’, उत्तर प्रदेश सरकार का ‘भारत भारती पुरस्कार’ और हिंदी अकादमी, दिल्ली का ‘शलाका सम्मान’ उल्लेखनीय हैं।

भाषा-शैली : शर्मा जी की निबंध-शैली कहीं तो विचारोत्तेजक और कहीं व्यंग्य प्रधान है। स्पष्ट कथन के कारण उनकी शैली में कहीं कबीर जैसी ओजस्विता आ जाती है। अपने कथ्य को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने उसी के अनुकूल भापा प्रयुक्त की है। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रमुखता है, परंतु अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं के प्रचलित शब्दों का यथेष्ट प्रयोग करने से उन्हें परहेज नहीं है। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ, सहज, सरस एवं विषयानुकूल है।

Jahan Koi Wapsi Nahi Class 12 Hindi Summary

प्रस्तुत लेख रामविलास शर्मा के ‘विराम चिह्’ शीर्षक निबंध संग्रह से उद्धृत है। इसके लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से करसे हुए उसे उसके कर्म के प्रति जागरूक किया है। लेखक साहित्य को समाज का प्रतिबिंब नहीं मानता। उसके अनुसार साहित्य व्यक्ति को केवल मानसिक शांति ही प्रदान नहीं करता बल्कि उसे उन्नति के पथ पर बढ़ने की प्रेणा भी देता है। लेखक उन लागों को ललकारता है जो गुलामी की बातें करते हैं। इस अपने कथ्य को स्पष्ट करने के लिए शर्मा जी ने तदनुकूल भाषा का प्रयोग किया है। उनकी भाषा में सामान्यत: तत्सम शब्दों की प्रमुखता है। लेखक के अनुसार समाज से विशेष रूप से संबंध रखना ही साहित्य की कसौटी है और इसी जनवादी साहित्य चेतना को उन्होंने मान्यता दी है।

एक शब्दार्थ एवं टिप्पणी – 

यथा = जैसे (As)। अस्मै = इसको रोचते = अच्छा लगता है (Likes)। विश्वम् = संसार (Wor/d) । तथा = वैसे इदम् = इसे, परिवर्तते = बदल देता (A Poet can change the world according to his will) प प्रजापति = ब्रह्ना। सृष्टि के रचयिता (The creator)। तुलना = समानता (Comparison)। दर्पण = शीशा (Looking glass)। यथार्थ = वास्तविक जैसा वह है (Real)। प्रतिबिबित करना = प्रतिमूर्तित करना, उसका प्रतिबिंब दिखाना (To reflect, to show image)। दर्जा = पदवी (Status)। जन्मसिद्ध अधिकार = जन्म (पैदाइश) से ही साबित हक (Birth right)। यूनानी = यूनान के (of Greece, Greek)। अफलातून = (Plato)। यूनान का एक महाविद्वान् एवं दार्शनिक (फिलास्फर) जो सुकरात का शिष्य और अरस्तू का गुरु था। बहवो दुर्लभाश्चैव……गुणा: = तुमने जो गुण गिनाए हैं, वे बहुत ज्यादा हैं, और दुर्लभ हैं (एक व्यक्ति को मिलने मुश्किल हैं)। नई सृष्टि = नवीन विश्व रचना, नई दुनिया बनाना (To create a new world)।

सृष्टि = संसृति, संसार रचना, विश्व-निर्माण (Creation)। यथार्थ जीवन = असली (हू-बहू) जिंदगी (Real life)! पाश्र्वभाग = समीप के (दाएँ-बाएँ या ऊपर-नीचे के हिस्से) (Sides)। गुणवान् = सद्गुणी वीर्यवान् = वीरता-संपन्न (Brave)। कृतज्ञ = किए हुए उपकार को मानने वाला (Thankful)। सद्यवाक्य = तुरंत उत्तर देने वाला, दृढ़व्रत अपने व्रत (दृढ़ संकल्प) पर टिकने वाला। चरित्रवान् = अच्छे चाल-चलन वाला। दयावान् = दयालु (Mercifil)। समर्थ = शक्तिवान। प्रियदर्शन = देखने में प्यारा (Handsome), नायक = कलाकार (Hero)। पाश्श्व-भूमि – पीछे की ओर (Proximity)। यथार्थवादी – वास्तविकता का वर्णनकर्ता, हकीकत बयान करने वाला (Realist)। क्षितिज = दिशांत, दिगंत (Horizon)। विश्रांति = विश्राम (Rest)। परिधि = घेरा, सहानुभूति = हमदर्दी (Sympathy)। ट्रेजेडी = दुझखांत नाटक (Tragedy)। विहग = पक्षी (Bird)। क्षुत्ध = बेचैन, क्षोभ से भरा (Restless, in angry mood) 1 रुद्ध स्वर = रुका हुआ स्वर। द्रष्टा = (भविष्य की ओर) देखने वाला (Fore sighted)। युगांतरकारी = युग परिवर्तन लाने वाला।

यथास्मै रोचते विश्वम् सप्रसंग व्याख्या

प्रस्तुत लेख में लेखक ने कवि को प्रजापति का दर्जा देते हुए उसे अपने कार्य के प्रति सचेत किया है। समाज के यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित न करके, प्रजापति द्वारा निर्मित समाज से असंतुष्ट होकर नए समाज का निर्माण करना-कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है। अरस्तू की ट्रेजेडी के समक्ष यूनानी विद्वानों के विचार-‘ कला जीवन की नकल है’ और अफलातून के विचार-‘ चूँक संसार असल का नकल है इसलिए कला नकल की नकल है’ असफल रहे।

आदि कवि वाल्मीकि ने सभी परस्पर-विरोधी एवं दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र नायक राम में दिखाकर समाज को शीशे में प्रतिबिंबित नहीं किया अपितु प्रजापति की तरह नई सृष्टि की रचना की। अतएव साहित्य समाज का दर्पण न होकर कवि की रुचि के अनुसार निर्मित ज़ीवन की यथार्थता का चित्रण है क्योंकि प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है-उज्ज्वल भविष्य की कामना लिए हुए। अतः साहित्य में व्यक्ति मात्र अपने सुख-दुःख की बात ही नहीं सुनता अपितु वह उसमें आशा के स्वर भी सुनता है। साहित्य थके हुए व्यक्ति को मानसिक विश्राम ही प्रदान नहीं करता वह उसे प्रगति के मार्ग पर आने की प्रेरणा भी देता है।

कवि असंतोष की जड़ ये सामाजिक मानव संबंध ही हैं। इसके अभाव में शायद कवि को प्रजापति बनने की आवश्यकता न होती। कवि तो विधाता पर साहित्य रचते हुए उसे भी मानवीय संबंधों के दायरे में खींच लाता है, परंतु शेक्सपीयर ने ‘हैलमेट’ में इन मानव संबंधों की दीवार को तोड़ डाला और ऐसे समय में कवि का प्रजापति रूप और भी उजागर हो जाता है, जब वह समाज के बहुसंख्यक लोगों को, जो पिंजड़े में पंख फड़फड़ाते हुए बाहर निकलने को व्याकुल थे, खुले आकाश के गीत गाकर उनके पंखों में नई शक्ति भर देता है।

15 वीं और 16 वीं शताब्दी में हिंदी साहित्य ने सामंती पिंजड़े में बंद मानव-जीवन को मुक्त करने के लिए जाति-पाँति और धर्म के सींकचों पर प्रहार करके यही भूमिका निभाई। नानक, सूर, तुलसी, मीरा, कबीर, चंडीदास, तिरुवल्लुवर आदि भिन्न-भिन्न प्रांतों के गायकों की वाणी ने पीड़ित जनता के मर्म को छूकर उसे नवजीवन प्राप्त करने की आशा दी और जीवन परिवर्तन के संघर्ष के लिए उभारा। तत्पश्चात् 17 वीं और 20 वीं शती में रींद्रनाथ, भारतेंदु हरिश्चंद्र, वीरेशलिंगम्, भारती वल्लतौल इत्यादि कवियों ने अंग्रेजी राजाओं और सामंती अवशेषों के पिंजड़ों पर पुन: प्रहार किया और दु:खी पराधीन जनता को स्वाधीन जीवन की ओर बढ़ने की प्रेरणा हो।

नाट्यशास्त्रकार भरतमुनि से लेकर भारतेंदु तक चली आ रही हमारे साहित्य की गौरवान्वित परंपरा व्यक्ति को भाग्यवादी न बनार पाज्चजन्य शंखनाद सुनकर समरभूमि में -तर आने का आल्लान करती है! इसलिए मानव संबंधों के पिंजरों में अभी भी बंदी हुई तथा खुले आकाश में उड़ने के लिए व्याकुल जनजीवन एक के बाद एक पिंजड़े की तीलियाँ तोड़ रहा है। भारतीय जनजीवन को पराधीन एवं पराभव का पाठ पढ़ाने वाले, दंभी, अतीत दृष्टा उन साहित्यकारों को धिक्कार है। साहित्य की कसौटी तो भारत भू के जन-समाज से परिसंबद्धता है। उन्हें आत्मविश्वास और दृढ़ता प्रदान करना है। तभी कवि को वास्तव में प्रजापति की संज्ञा दी जा सकती हैं।

कवि जब प्रजापति की इस अपनी भूमिका को स्मृति पटल में रखकर, असमर्थ रूप में परिवर्तन चाहने वाली जनता का पुरोगामी (अगुआ) बनकर, केवल उसे दर्पण ही न दिखाकर अग्रसर होता है तभी उसका व्यक्तित्व पूरे वेग से निखरता है और इसी परंपरा को अपनाकर हिंदी साहित्य के उन्नत और समृद्ध होने से हमारे जातीय सम्मान की रक्षा हो सकेगी।

गद्य ग्यांशों की सप्रसंग व्याख्या – 

1. यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती। कवि का काम यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना ही होता तो वह प्रजापति का दर्जा नहीं पाता। वास्तव में प्रजापति ने जो समाज बनाया है, उससे असंतुष्ट होकर नया समाज बनाना कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश जनवादी सामाजिक चेतना के समर्थ समालोचक रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत किया गया है। इसमें लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति (ब्रह्मा) से की है। कवि को उसके कार्य के प्रति सचेष्ट भी किया है।

व्याख्या : लेखक ने इस परंपरागत उक्ति के प्रति अपनी असहमति दर्शाई है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है।’ साहित्य को समाज का दर्पण कहना तर्कसंगत नहीं है। साहित्य का कार्य समाज के सत्य को दिखाना मात्र नहीं है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो समाज को बदलने का प्रश्न ही न उठता। कवि तो प्रजापति अर्थात् ब्रहा है जो सृष्टा का दायित्व निर्वाह करता है। उसका कार्य केवल इतना नहीं है कि वह समाज की यथार्थ झलक ही प्रस्तुत करके रह जाए, अपितु जीवन को परिवर्तित करने का भी कार्य करता है। ईश्वर ने जिस समाज का निर्माण किया है, कवि उसके प्रति अपना असंतोष प्रकट करता है। वह तो अपने ढंग से समाज बनाना चाहता है और यंह उसका अधिकार भी है। यहीं आकर वह प्रजापति की भूमिका का निर्वाह करता है।

विशेष :

  1. लेखक कवि-कर्म के महत्त्व को प्रतिपादित करने में पूर्णतः समर्थ रहा है।
  2. भाषा की सहजता एवं तार्किकता दर्शनीय है।
  3. लेखक ने इस मान्यता साहित्य समाज का दर्पण है-का विरोध किया है।

2. कवि की यह सृष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी ज्यों-की-त्यों आकृति भले ही न देखें, पर ऐसी आकृति जरूर देखते हैं जैसी हमें प्रिय है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं। जिन रेखाओं और रंगो से कवि चित्र बनाता है, वे उसके चारों ओर यथार्थ जीवन में बिखरे होते हैं और चमकीले रंग और सुधार रूप ही नहीं, चित्र के पाश्व्वभाग में काली छायाएँ भी वह यथार्थ जीवन से ही लेता है।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉं. रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित हैं। लेखक कवि की रचना-प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए कहता है-

व्याख्या : कवि जो कुछ भी लिखता है, उसका एक तर्कपूर्ण एवं निश्चित आधार अवश्य होता है। वह केवल कल्पना के आधार पर नहीं लिखता। हमें भले ही उसकी रचना में समाज का हू-ब-हू चित्रण न मिले, लेकिन उसमें जीवन का ऐसा चित्रण अवश्य मिलता है, जो हमें देखने में अच्छा लगता है। उसे हम अपना आदर्श भी मान लेते हैं। जिस प्रकार चित्रकार रंगों और रेखाओं से चित्र बनाता है, उसी प्रकार कवि शब्दों की सहायता से चित्र बनाता है।

वह अपनी रचना में जिन रेखाओं और रंगों का उपयोग करता है, वे उसके चारों ओर के परिवेश में बिखरे होते हैं तथा वास्तविक जीवन में भी मिलते हैं। वह केवल चमकीले रंग और सुंदर रूप ही अर्थात् अच्छी-अच्छी बातें ही समाज और परिवेश से ग्रहाण नहीं करता, बस्कि अपने चित्रण की पृष्ठभूमि में अंकित काली छायाएँ भी वह उसी समाज से ग्रहण करता है। भाव यह है कि उसकी रचना यथार्थ पर आधारित होती है। वह सभी प्रकार की स्थितियाँ और पात्र वास्तविक जीवन से ग्रहण करता है।

विशेष :

  1. कवि की रचना-प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गया है।
  2. कवि को एक कुशल एवं यथार्थ चित्रकार के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
  3. भाषा सरस एवं प्रतीकात्मक है।

3. कवि अपनी रुचि के अनुसार जब विश्व को परिवर्तित करता है तो यह भी बताता है कि विश्व में उसे असंतोष क्यों है, वह यह भी बताता है कि विश्व में उसे क्या रुचता है, जिसे वह फलता-फूलता देखना चाहता है। उसके चित्र के चमकीले रंग और पाश्र्व-भूमि की गहरी काली रेखाएँ, दोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं। इसलिए प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित डॉ. रामविलास शर्मा के निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत हैं। इनमें लेखक ने कवि को मात्र दर्पण दिखाने वाला न मानकर प्रजापति बताया है। वह साहित्य में नव-निर्माण करता है।

व्याख्या : कवि की रचना का आधार तो यही संसार होता है, परंतु वह इस संसार में परिवर्तन करना चाहता है। वह उन कारणों को स्पष्ट करता है कि उसे वर्तमान स्थिति से अरुचि क्यों है और वह किस प्रकार का परिवर्तन चाहता है। वह अपनी पसंद और नापांद को भी बताता है। वह उन बातों का स्पष्टीकरण भी देता है जिन्हें वहाँ विकसित करना चाहता है। लेखक चित्र के माध्यम से अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करता है।

चित्रण के मुख्य दृश्य में चमकीले रंग और उसकी पृष्ठ-भूंमि में काली रेखाओं का आधार रह संसार ही होता है। जिस प्रकार चित्र का आधार वास्तविक जीवन होता है वैसे ही कवि भी यथार्थवादी होता है। इस कवि को प्रजापति कहा गया है। कवि धरती का आधार ग्रहण किए रहता है। वह भविष्य के प्रति आशा भरी दृष्टि से देखता है। वह वर्तमान और भविण्य का संयोजन कर अपनी रचना प्रस्तुत करता है। वह सर्जक होता है। यहीं आकर वह प्रजापति के दायित्व का निर्वाह करने में सफल होता है।

विशेष :

  1. लेखक ने कवि-कर्तव्य पर भली प्रकार प्रकाश डाला है।
  2. चमकीला रंग ‘सत्’ का और गहरी काली रेखाएँ ‘असत्’ की प्रतीक हैं।

4. यदि समाज में मानव-संबंध वही होते जो कवि चाहता है, तो शायद उसे प्रजापति बनने की जरूरत न पड़ती। उसके असंतोष की जड़ ये मानव-संबंध ही हैं। मानव-संबंधों से परे साहित्य नही है। कवि जब विधाता पर साहित्य रचता है तो उसे भी मानव-संबंधों की परिधि में खींच लाता है।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा द्वारा रचित ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित हैं। इसमें लेखक ने कवि की निर्माणकारी भूमिका पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि कवि तो प्रजापति के समान समाज का नव-निर्माण करता है। समाज में मानव-संबंध वैसे नहीं हैं जैसे कवि चाहता है। इन संबंधों को सुधारने के लिए ही उसे प्रजापति के दायित्व का निर्वाह करना पड़ता है। समाज की वर्तमान स्थिति के प्रति उसके मन में असंतोष रहता है। साहित्य की रचना के मूल में ये मानव-संबंध ही होते हैं। कवि तो विधाता तक को नहीं बख्शाता। साहित्य-सृजन करते समय वह विधाता को भी मानव-संबंधों के दायरे में खींच लाता है।

विशेष :

  1. साहित्य की उपयोगिता पर सटीक बात कही गई है।
  2. सरल एवं प्रवाहपूर्ण भाषा-शैली का अनुसरण किया गया है।

5. ऐसे समय जब समाज के बहुसंख्यक लोगों का जीवन इन मानव-संबंधों के पिंजड़े में पंख फड़फड़ाने लगे, सींकचे तोड़कर बाहर उड़ने के लिए आतुर हो उठे, उस समय कवि का प्रजापति रूप और भी स्पष्ट हो उठता है। वह समाज का द्रष्टा और नियामक के मानव-विहग से क्षुब्ध और रुद्धस्वर को वाणी देता है। वह मुक्त गगन के गीत गाकर उस विहग के परों में नई शक्ति भर देता है।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत हा काव आदश समाज की स्थापना के लिए अपना प्रजापति रूप प्रकट करता है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि कवि का सृष्टिकर्त्ता रूप तब और अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है जब समाज के अधिकांश लोगों का जीवन समाज की रूढ़ियों के बंधन में जकड़ा हो तथा वे इससे दु:खी एवं पीड़ित हों। वे इससे मुक्ति पाने के लिए व्याकुल हो रहे हैं। ऐसी दशा में कवि का प्रजापति रूप मुखरित हो उठता है। तब कवि समाज के भविष्य को देखने वाला बनकर तथा नियामक के रूप में जनसाधारण के मन में शासक वर्ग के प्रति उत्तेजक आक्रोश को वाणी देता है। जो लोग शासन के भयवश अपनी बात नहीं कह पाते, वह (कवि) उन्हें प्रेरणा देकर उत्साहित करता है। वह स्वतंत्रता के गीत गाकर प्रेरणा देता है तथा मानव रूपी पक्षी के पैरों में नया उत्साह भर देता है। इस प्रकार उसका प्रजापति रूप उभर आता है।

विशेष :

  1. लेखक ने कवि की प्रजापति वाली भूमिका की आवश्यकता एवं महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
  2. तत्सम शब्द प्रधान भाषा का प्रयोग किया गया है।
  3. शैली में काव्यात्मकता का गुण है।

6. साहित्य का पाज्चजन्य समर-भूमि में उदासीनता का राग नहीं सुनाता। वह मनुष्य को भाग्य के आसरे बैठने और पिंजरे में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा नहीं देता। इस तरह की प्रेरणा देने वालों के वह पंख कतर देता है। वह कायरों और पराभव प्रेमियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें समर-भूमि में उतरने के लिए बुलावा देता है।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है। इसमें लंखक ने आज के युग में साहित्यकार की रचनाधर्मिता पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या : साहित्य मनुष्य के लिए सदा से प्रेरणा का स्रोत रहा है। लेखक साहित्य की तुलना श्रीकृष्ण के शंख ‘पाज्चजन्य’ रो करने हुए कहता है कि जिस प्रकार वह शंख ध्वनि करके युद्ध ने लिए प्रेरित करता था. वैसे ही साहित्य मनुष्य के लिए प्रेरणा तौर

व्याख्या : साहित्य मनुष्य के लिए सदा से प्रेरणा का स्रोत रहा है। लेखक साहित्य की तुलना श्रीकृष्ण के शंख ‘पाज्चजन्य’ से करते हुए कहता है कि जिस प्रकार वह शंख ध्वनि करके युद्ध के लिए प्रेरित करता था, वैसे ही साहित्य मनुष्य के लिए प्रेरणा और उत्साह का स्रोत होता है। साहित्यकार अपने लेखन से लोगों में व्याप्त उदासीनता एवं निराशा भगाता है।

साहित्य तो लोगों को जीवन-संग्राम में जूझने की प्रेरणा देता है। वह लोगों को भाग्य के भरोसे रहकर कष्ट और अत्याचार सहने का पाठ नहीं पढ़ाता। वह व्यक्ति को पिंजरे में बंद होकर छटपटाने और असहाय बने रहने को नहीं कहता। साहित्य तो उन लोगों को डाँटता-फटकारता है जो लोगों को भाग्यंवादी या आलसी बनाते हैं। वह तो उन व्यक्तियों को जीवन-संग्राम में जूझने को प्रेरित करता है जो पौरुषहीन, कमजोर, पराजित एवं कायर हैं। वह ऐसे व्यक्तियों में भी आत्मबल का संचार करता है, ताकि वे समय की ललकार का सामना कर सकें। साहित्यकार का दायित्व निर्माणकारी है।

विशेष :

  1. लेखक ने मुहावरेदार भाषा का प्रयोग कर कथ्य को सहज एवं प्रभावशाली बना दिया है।
  2. ‘पाञ्चजन्य’ से श्रीकृष्ण के शंख की ओर संकेत है।

7. धिक्कार है उन्हें जो तीलियाँ तोड़ने के बदले उन्हें मजबूत कर रहे हैं, जो भारतभूमि में जन्म लेकर और साहित्यकार होने का दंभ करके मानव-मुक्ति के गीत गाकर भारतीय जन को पराधीनता और पराभव का पाठ पढ़ाते हैं। ये द्रष्टा नहीं हैं, इनकी आँखें अतीत की ओर हैं। ये स्रष्टा नहीं हैं, इनके दर्पण में इन्हीं की अहंवादी विकृतियाँ दिखाई देती हैं। (पृष्ठ 145) प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत है। लेखक पराभव प्रेमी साहित्यकारों को फटकारता है।

व्याख्या : साहित्य जब भाग्य के आसरे बैठे, पिंजरे में बंद पंख फड़फड़ाते व्यक्ति को मुक्त होने की प्रेरणा देता है और आशा का संचार करता है तो उस समय उसके सामने उद्देश्यहीन कला, व्यक्तिवाद, निराशा, अहंकार, व्यक्तिवाद और पराजय के सिद्धांत-सूर्य के सामने अंधकार की तरह नहीं ठहरते और ऐसी प्रेरणा देने वाले 15 वीं-16वीं सदी के गायकों एवं तत्पश्चात् 17 वीं और 20 वीं सदी के साहित्यकारों को हमारा साधुवाद।

इन्हीं से प्रेरणा पाकर भारतीय जन-जीवन रूपी विहंग अपने को मुक्त करने के लिए पिंजरे की तीलियाँ तोड़ रहा है परंतु उन साहित्यकारों को धिक्कार है जो उन तीलियों को और मजबूत कर रहे हैं अर्थात् गुलामी की भावना को मजबूत कर रहे हैं। जो भारत भू में पैदा होकर और अपने को दंभी-अहंकारी साहित्यकार मानकर ऊपर से तो मनुष्य से मुक्त करने का गीत गाकर पर-वास्तव में जन-साधारण को पराधीनता और तिरस्कार का पाठ पढ़ा रहे हैं। ये न युग-द्रष्टा हैं. न प्रजापति की तरह स्रष्टा हैं बल्कि इन्हें शीशे में अपनी ही भद्दी सूरतें दिखाई देती हैं।

विशेष :

  1. लेखक ने परंपरावादी साहित्यकारों पर करारा व्यंग्य किया है।
  2. लेखक की स्पष्टवादिता एक प्रशंसनीय गुण है।

8. प्रजापति की अपनी भूमिका भूलकर कवि दर्पण दिखाने वाला ही रह जाता है। वह ऐसा नकलची बन जाता है जिनकी अपनी कोई असलियत न हो। कवि का व्यक्तित्व पूरे वेग से तभी निखरता है, जब वह समर्थ रूप से परिवर्तन चाहने वाली जनता के आगे कवि-पुरोहित की तरह आगे बढ़ता है। इसी परंपरा को अपनाने से हिंदी-साहित्य उन्नत और समृ क होकर हमारे जातीय सम्मान की रक्षा सकेगा।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध समालोचक रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत हैं। लेखक ने इन पंक्तियों में कवि (साहित्यकार) की भूमिका पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या : लेखक इस मान्यता का खंडन करता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। यदि यह बात सत्य होती तो साहित्यकार कभी भी प्रजापति (ब्रहा) नहीं कहलाता। प्रजापति तो नव-निर्माण करता है. न कि निर्मित वस्तु का प्रतिबिंब प्रस्तुत करता है। समाज की स्थिति का यथावत् चित्रंण करके तो वह ऐसा बन जाता है जैसा दर्पण दिखाने वाला होता है। ऐसा व्यक्ति वही दिखाता है जो मौजूद होता है। वह नकलची मात्र रह जाता है। उसमें अपनी वास्तविकता नहीं होती। इसके विपरीत कवि तो समाज को अपने विचारों के अनुरूप ढालना चाहता है।

वह समाज का पुन: निर्माण करता है। जब समाज के लोग वर्तमान स्थिति को बदल डालना चाहते हैं तो कवि उनका नेतृत्व करता है। वह उन्हे दिशा दिखाता है और उनके आगे-आगे पुरोहित बनकर चलता है। इस प्रकार वह असंतुष्ट जनता की भावनाओं को सशक्त वाणी प्रदान करता है। इस प्रकार वह साहित्य को समृद्ध एवं विकसित करता है। इससे वह हमारे जातीय-सम्मान की रक्षा करने में समर्थ सिद्ध होता है। तात्पर्य यह है कि कवि सामाजिक दशा का चित्रण मात्र नहीं करता, बल्कि उसे परिवर्तित भी करता है वह प्रजापति का दायित्व पूरा करता है।

विशेष :

  1. कवि के उत्तरदायित्व पर प्रकाश डूला है।
  2. कवि को दर्पण दिखाने वाला बनने से रोकने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
  3. भाषा सरल, सरस एवं प्रवाहयुक्त है।

9. अभी भी मानव-संबंधों के पिंजड़े में भारतीय जीवन-विहग बंदी है। मुक्त गगन में उड़ान भरने के लिए वह व्याकुल है लेकिन आज भारतीय जन-जीवन संगठित प्रहार करके एक के बाद एक पिंजड़े की तीलियाँ तोड़ रहा है। घिक्कार है उन्हें जो तीलियाँ तोड़ने के बदले उन्हें मजबूत कर रहे हैं जो भारत भूमि में जन्म लेकर और साहित्यकार होने का दंभ करके मानव मुक्ति के गीत गाकर भारतीय जन को पराधीनता और पराभव का पाठ पढ़ाते हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ.. रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित हैं। लेखक पराभव प्रेमी साहित्यकारों को फटकारता है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि अभी तक मनुष्य का जीवन मानव-संबंधों के बंधन से मुक्त नहीं हो पाया है। यद्यपि मानव खुले आकाश में उड़ान भरने के लिए बेचैन हो रहा है। आज भारतीय जन-जीवन मिलकर गुलामी के बंधनों पर चोट कर रहा है। लेखक उन साहित्यकारों को धिक्कारता है जो मानव की स्वतंत्रता के मार्ग को रोकते हैं। ऐसे तथाकथित साहित्यकार आज भी मानव-बंधनों को तोड़ने के बजाय उन्हें और मजबूत कर रहे हैं। ऐसे लोग भारत की भूमि पर जन्म लेकर और स्वयं को साहित्यकार कहलाने का दंभ करके गीत तो मानव-मुक्ति के गाते हैं, पर लोगों को गुलामी और पराजय की सीख देते हैं। ये लोग साहित्यकार की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, अतः उनका साहित्यकार होने का दंभ करना बेमानी है।

यदि ये साहित्यकार आज भी मनुष्य को पराधीनता का पाठ पढ़ाते हैं, उसे आज भी उस युग में जीने के लिए विवश करते हैं, जिससे निकलने के लिए वह छटपटा रहा है, तो हम इन साहित्यकारों को न तो द्रष्टा कह सकते हैं और न स्रष्टा। ये लोग आज भी अतीत में जी रहे हैं। इनकी कोई दृष्टि है ही नहीं। ये जिस साहित्य की रचना करते हैं, उसमें इनकों अपनी ही विकृतियाँ (गलत छवि) नजर आती हैं। लेखक इनको साहित्यकार मानने को ही तैयार नहीं है। ये किसी भी प्रकार से नए समाज का निर्माण नहीं कर सकते।

विशेष :

  1. लेखक साहित्यकार की भूमिका पर प्रकाश डाल रहा है।
  2. वह अहंवादी साहित्यकारों की कलई खोलता जान पड़ता है।
  3. व्यंजना शक्ति का प्रयोग हुआ है।
  4. विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है।

10. उसके चित्र के चमकीले रंग और पाश्व्वभूमि की गहरी काली रेखाएँ-दोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं। इसलिए प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है। ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं। इसलिए मनुष्य साहित्य में अपने सुख-दुख की बात नहीं सुनता, वह उसमें आशा का स्वर भी सुनता है। साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं है, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘रामविलास शर्मा’ द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित हैं। लेखक ने यहाँ कवि के व्यापक रूप का उल्लेख किया है। कवि अपनी रुचि के अनुसार विश्व का निर्माण करता है।

व्याख्या – कवि विश्व को जैसा देखना चाहता है वह अपनी रुचि के अनुसार विश्व का वैसा ही निर्माण कर लेता है। कवि अपनी कल्पना के संसार को कविता में उतार कर यह भी बताता है कि उसे विश्व में क्या अच्छा लगता है तथा वह किस चीज को फलते-फूलते देखना चाहता है। उसकी कविताओं में यथार्थ चित्रण होता है तथा वह जीवन के उजले और मैले दोनों पहलुओं को चित्रित करता है। उसके चित्रों में जो गहरे चमकीले रंग और काली रेखाएँ होती हैं वे कहीं न कहीं यथार्थ जीवन से जुड़ी होती हैं अर्थात् जीवन में सुख-दुःख दोनों होते हैं और उनका सरोकार कहीं न कहीं यथार्थ जीवन से ही होता है।

इसलिए विश्व की सृष्टि करने वाला कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, कवि का यथार्थ जमीन से जुड़ा होता है परंतु उसकी दृष्टि सुदूर भविष्य पर टिकी होती है। कवि भविष्य के लिए भी चितित होता है। वह ऐसी दुनिया की कल्पना करता है जो उसकी रुचि के अनुसार हो। साहित्य केवल मनुष्य के सुख-दु:ख को ही हमारे सामने प्रस्तुत नहीं करता बल्कि वह तो हममें जीवन के प्रति एक आशा भी जगाता है। साहित्य थके हुए व्यक्ति को विश्राम तो देता ही है साथ ही निरंतर उसको आगे बढ़ने के लिए भी प्रेरित करता है।

विशेष :

  1. कवि एवं कवि कर्म को स्पष्ट किया है।
  2. साहित्य का उद्देश्य मानव को आगे बढ़ने की प्रेरणा देना है।

11. जिन रेखाओं और रंगों से कवि चित्र बनाता है, वे उसके चारों ओर यथार्थ जीवन में बिखरे होते हैं और चमकीले रंग और सुघर रूप ही नहीं, चित्र के पार्श्व भाग में काली छायाएँ भी वह यथार्थ जीवन से ही लेता है। राम के साथ वह रावण का चित्र न खींचे तो गुणवान, वीर्यवान, कृतज, दृढ़क्रत, चरित्रवान, दयावान, विद्वान, समर्थ और प्रिय-दर्शन नायक का चरित्र फीका हो जाए और वास्तव में उसके गुणों के प्रकाशित होने का अवसर ही न आए।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश जनवादी सामाजिक चेतना के समर्थ समालोचक रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत किया गया है। इसमें लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति (ब्रह्या) से की है। कवि को उसके कार्य के प्रति सचेष्ट भी किया है।

व्याख्या : लेखक ने इस परंपरागत उक्ति के प्रति अपनी असहमति दर्शाई है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है।’ साहित्य को समाज का दर्पण कहना तर्कसंगत नहीं है। साहित्य का कार्य समाज के सत्य को दिखाना मात्र नहीं है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो समाज को बदलने का प्रश्न ही न उठता। कवि तो प्रजापति अर्थात् ब्रह्मा है जो सृष्टा का दायित्व निर्वाह करता है। उसका कार्य केवल इतना नहीं है कि वह समाज की यथार्थ झलक ही प्रस्तुत करके रह जाए, अपितु जीवन को परिवर्तित करने का भी कार्य करता है।

ईश्वर ने जिस समाज का निर्माण किया है, कवि उसके प्रति अपना असंतोष प्रकट करता है। वह तो अपने ढ़ंग से समाज बनाना चाहता है और यह उसका अधिकार भी है। यहीं आकर वह प्रजापति की भूमिका का निर्वाह करता है। वह राम के साथ रावण का भी चित्र खींचता है ताकि राम के व्यक्तित्व का उज्ज्वल पक्ष उभर सके। नायक के प्रशंसनीय गुण तभी प्रकाश में आते हैं जब उसके सामने का चरित्र कम महत्त्व का हो। यदि ऐसा न हो तो महान व्यक्ति की महानता उभरकर सामने महीं आ पाती।

विशेष :

  1. लेखक कवि-कर्म के महत्त्व को प्रतिपादित करने में पूर्णतः समर्थ रहा है।
  2. भाषा की सहजता एवं तार्किकता दर्शनीय है।
  3. लेखक ने इस मान्यता कि साहित्य समाज का दर्पण है-का विरोध किया है।

12. लेकिन जिन्हें इस देश की धरती से प्यार है, इस धरती पर बसने वालों से स्नेह है, जो साहित्य की युगांतरकारी भूमिका समझते हैं, वे आगे बढ़ रहे हैं। उनका साहित्य जनता का रोष और असंतोष प्रकट करता है। उसे आत्मविश्वास और दृढ़ता देता है, उनकी रुचि जनता की रुचि से मेल खाती है और कवि उसे बताता है कि इस विश्व को किस दिशा में परिवर्तित करना है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश डॉ० रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है। इसमें लेखक साहित्यकार की भूमिका पर प्रकाश डालता है।

व्याख्या : लेखक इस मान्यता का खंडन करता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्यकार तो प्रजापति की भूमिका में होता है। साहित्य की भूमिका तो युगांतकारी होती है। यह भी सत्य है कि कुछ साहित्यकार होने का दंभ अवश्य करते हैं, पर वे आगे की ओर न देखकर पराभव का पाठ पढ़ाते हैं। हाँ, जिन लोगों को इस देश की धरती के साथ लगाव है, धरती पर बसने वाले लोगों के साथ प्यार है, जो साहित्य का वास्तविक तात्पर्य समझते हैं, वे ही निरंतर प्रगति के पथ पर बढ़ते हैं। उनके साहित्य में जनता का क्रोध और असंतोष झलकता है। सच्चा साहित्यकार जनता की रुचि से तालमेल बनाकर आगे बढ़ता है। इससे आम लोगों का आत्मविश्वास मजबूत होता है। कवि अर्थात् साहित्यकार ही लोगों को बताता है कि इस संसार को किस दिशा में बदलना है।

विशेष : विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है।

13. प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं। इसलिए मनुष्य साहित्य में अपने सुख-वुख की बात ही नहीं सुनता, वह उसमें आशा का स्वर भी सुनता है। साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं है, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध गद्यकार रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है। यह एक चिंतन प्रधान निबंध है। इसमें लेखक कवि (साहित्यकार) की भूमिका पर प्रकाश डालता है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि कवि प्रजापति अर्थात् ब्रह्मा के स्थान पर होता है। वह गंभीर यथार्थवादी होता है अर्थात् यथार्थ का चित्रण करता है। वह यथार्थ की दुनिया में जीता है और उसी का वर्णन साहित्य में करता है। वह पलायनवादी नहीं होता। वह वास्तविकता की दुनिया में जीता है। वह कल्पना लोक में विचरण नहीं करता। उसके पैर वास्तविकता की धरती पर टिके रहते हैं। वह वर्तमान में जीता है, पर उसकी निगाहें भविष्य की ओर लगी रहती हैं। वह अपनी दृष्टि भविष्य पर रखता है। वह दूरदृष्टा होता है। इसके साथ-साथ वह सुष्टा भी होता है। यही कारण है कि मनुष्य साहित्य में केवल अपने सुख-दुख की बात नहीं सुनता बल्कि वह उसमें आशा का स्वर भी सुनता है। उसे सुनकर थके-हारे व्यक्ति विश्राम का अनुभव तो करते ही हैं, बल्कि आगे बढ़ने के लिए भी प्रेरित करता है।

विशेष :

  1. लेखक ने साहित्य और साहित्यकार के स्वरूप पर प्रकाश डाला है।
  2. सरल एवं विवेचनात्मक भाषा-शैली का अनुसरण किया गया है।

14. भरत मुनि से लेकर भारतेंदु तक चली आती हुई हमारे साहित्य की यह गौरवशाली परंपरा है। इसके सामने निरुद्देश्य कला, विकृत काम-वासनाएँ, अहंकार और व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के ‘सिद्धांत’ वैसे ही नहीं ठहरते जैसे सूर्य के सामने अंघकार।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित हैं। लेखक हिंदी साहित्य की गौरवशाली परपरा का उल्लेख करता है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि हिंदी साहित्य सृजन का प्रारंभ भरत मुनि से होता है। यहीं से चली साहित्य की समृद्ध गौरवशाली परंपरा भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर अभी तक चली आ रही है। यह हमारे साहित्य की महान गौरवशाली परंपरा है। यह परंपरा उच्च मूल्यों पर आधारित है। इस महान परंपरा के सामने बिना उद्देश्य वाली कला, गलत प्रकार की काम-वासनाएँ, अहंकार, व्यक्तिवाद, निराशा तथा हार के सिद्धांत टिक नहीं पाते क्योंकि ये विकृत-सिद्धांत हमारी संस्कृति से मेल नहीं खाते। जिस प्रकार सूर्य के सामने अँधेरा टिक नहीं पाता वैसे ही ये बुराइयाँ हमारी गौरवशाली परंपरा के सामने टिक नहीं पातीं। हमारे साहित्य का आधार अत्यंत दृढ़ है।

विशेष :

  1. भारतीय साहित्य की विशेषता को उभारा गया है।
  2. तत्सम शब्द की बहुलता है।
  3. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 20 Summary – Dusra Devdas Summary Vyakhya

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दूसरा देवदास Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 20 Summary

दूसरा देवदास – ममता कालिया – कवि परिचय

प्रश्न :
ममता कालिया का जीवन-परिचय देते हुए उनके साहित्यिक योगदान पर प्रकाश डालिए तथा भाषा-शैली पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : ममता कालिया का जन्म 1940 ई. में मथुरा, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनकी शिक्षा के कई पड़ाव रहे जैसे नागपुर पुणे, इंदौर, मुंबई आदि। दिल्ली विश्वविद्यालय से उन्होंने अंग्रेजी विषय से एम. ए. किया। एम. ए, करने के बाद सन् 1963-1965 तक दौलत राम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्राध्यापिका रहीं। 1966 से 1970 तक एस. एन. डी. टी. महिला विश्वविद्यालय, मुंबई में अध्यापन कार्य, फिर 1973 से 2001 तक महिला सेवा सदन डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद में प्रधानाचार्य रहीं। 2003 से 2006 तक भारततीय भाषा परिषद, कलकत्ता (कोलकाता) की निदेशक रहीं। वर्तमान में नई दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।

रचनाएँ : उनकी प्रकाशित कृतिया हैं- बेघर, नरक दर नरक, एक पत्नी के नोट्स, प्रेम कहानी, लड़कियाँ, वौड़ आदि (उपन्यास) हैं तथा 12 कहानी संग्रह प्रकाशित हैं जो ‘संपूर्ण कहानियाँ’ नाम से दो खंडों में प्रकाशित हैं। हाल ही में उनके दो कहानी संग्रह और प्रकाशित हुए हैं, जैसे पच्चीस साल की लड़की, धियेटर रोड के कौवे।

साहित्यिक योगदान : कथा साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से ‘साहित्य भूषण’ 2004 में तथा वहीं से ‘कहानी सम्मान’ 1989 में प्राप्त हुआ। उनके समग्र साहित्य पर अभिनव भारती, कलकत्ता (कोलकाता) ने रचना पुरस्कार भी दिया। इसके अतिरिक्त उन्हें सरस्वती प्रेस तथा साप्ताहिक हिंदुस्तान का ‘श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार’ भी प्राप्त है।

भाषा-शैली : ममता कालिया शब्दों की पारखी हैं। उसका भाषा ज्ञान अत्यन्त उच्चकोटि का है। साधारण शब्दों में भी अपने प्रयोग से जादुई प्रभाव उत्पन्न कर देती है। विषय के अनुरूप सहज भावाभिव्यक्ति उनकी खासियत है। व्यंग्य की सटीकता एवं सजीवता से भाषा में एक अनोखा प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। अभिव्यक्ति की सरलता एवं सुबोधता उसे विशेष रूप से मर्मस्पर्शी बना देती है।

पाठ का संक्षिप्त परिचय –

पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘दूसरा देवदास’ कहानी हर की पौड़ी, हरिद्वार के परिवेश को केंद्र में रखकर युवामन की संवेदना, भावना और विचार जगत की उथल-पुथल को आकर्षक भाषा-शैली में प्रस्तुत करती है। यह कहानी युवा हृदय में पहली आकस्मिक मुलाकात की हलचल, कल्पना और रूमानियत का उदाहरण है। ‘दूसरा देवदास’ कहानी में लेखिका ने इस तरह घटनाओं का संयोजन किया है कि अनजाने में प्रेम का प्रथम अंकुरण संभव और पारो के ह्वदय में बड़ी अजीब परिस्थितियों में उत्पन्न होता है और यह प्रथम आकर्षण और परिस्थितियों के गुंफन ही उनके प्रेम को आधार और मजबूती प्रदान करता है जिससे यह सिद्ध होता है कि प्रेम के लिए किसी निश्चित व्यक्ति, समय और स्थिति का होना आवश्यक नहीं है। वह कभी भी, कहीं भी, किसी भी समय और स्थिति में उपज सकता है, हो सकता है। कहानी के माध्यम से लेखिका ने प्रेम को बंबईया फिल्मों की परिपाटी से अलग हटाकर उसे पवित्र और स्थायी स्वरूप प्रदान किया है। कथ्य, विषय-वस्तु, भाषा और शिल्प की दृष्टि से कहानी बेजोड़ है।

Dusra Devdas Class 12 Hindi Summary

इस कहानी में लेखिका हरिद्वार के वातावरण का चित्रण करते हुए बताती है कि हर की पौढ़ी पर संध्या कुछ अलग प्रकार से उतरती है। यह समय आरती का समय होता है। पाँच बजे जो फूलों के दोने एक-एक रुपए में बिकते हैं वे आरती के समय दो-दो रूपये के हो जाते हैं। आरती शुरू होने वाली है। कुछ भक्तों ने 101 या 51 रुपये वाली स्पेशल आरती बोल रखी है। पंडित की आरती वाले गण आरती के इंतजाम में व्यस्त हैं।

पीतल में हजारों बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी गई हैं, देशी घी के डिब्बे सजे हैं तथा गंगा की मूर्ति के साथ चामुंडा, बालकृष्ण, राधा-कृष्ण, हनुमान तथा सीता-राम की मूर्तियाँ श्रृंगारपूर्ण रूप में स्थापित हैं। आप जिसे चाहें उसे आराध्य के रूप में चुन लें। आरती से पहले औरतें पवित्र गंगाजल में डुबकी लगा रही हैं। पंडे मर्दों के माथे पर चंदन-तिलक और औरतों के माथे पर सिंदूर का टीका लगा देते हैं। लोग तरह-तरह की खुशी में आरती करवा रहे हैं।

अचानक हजारों दीप जल उठते हैं। पंडित हाथ में अंगोछा लपेट कर पंचमंजिली नीलांजलि को पकड़कर आरती शुरू कर देते हैं। समवेत स्वर, घंटे-घड़ियालों की ध्वनि, फूलों की छोटी-छोटी किश्तियाँ, एक अनोखे दृश्य की सृष्टि हो जाती है। गंगापुत्र दोने में रखा पैसा उठाकर मुँह में दबा लेता है। गंगा मैया ही उसकी जीविका का साधन है। जब पुजारियों का स्वर थकने लगता है तब लाउडस्पीकरों पर लता मंगेशकर का मधुर स्वर गूँज उठता है। हर की पौड़ी ‘ओम जय जगदीश हरे’ की आरती से गुंजायमान हो जाती है। ज्यादातर औरतें गीले कपड़ों में ही खड़ी होकर आरती में शामिल हो जाती हैं। दीपकों की छवियाँ गंगाजल में दिखाई देती हैं। भक्तजन पंडितों को खुशी-खुशी दक्षिणा देते हैं। भक्तों के लिए यहाँ हुआ खर्च सुखदायी होता है।

संभव काफी देर से नहा था। जब वह घाट पर आया तो पंडे ने उसके माथे पर चंदन का तिलक लगाना चाहा तो संभव ने चेहरा हटा लिया, पर जब पंडे ने कहा कि चंदन तिलक बगैर अस्नान अधूरा है तब उसने चुपचाप तिलक लगवा लिया। तभी मंदिर के पुजारी ने आवाज लगाई-‘अरे दर्शन तो करते जाओ।’ उसकी इन चीजों में आस्था तो नहीं थी, पर नानी ने कहा था कि मंदिर में सवा रुपया चढ़ाकर आना। उसने दो रुपए का नोट निकाला, पुजारी ने चरणामृत दिया, लाल रंग का कलावा उसकी नाजुक-सी कलाई में बाँध दिया।

उसने थाली में सवा पाँच रुपए रखे। वहीं एक लड़की गीले कपड़ों में आँख मूँदकर अर्चना कर रही थी। उसके गीले बाल पीठ पर काले चमकीले शाल की तरह लग रहे थे। आकाश और जल की साँवली बेला में वह लड़की एक कांस्य प्रतिमा सी लग रही थी। आरती हो चुकी थी अत: उसने पंडित जी से कहा हम कल आरती की बेला में आएँगे। पुजारी ने इस ‘हम’ शब्द को युगल अर्थ में लिया और फल-फूलने का आशीर्वाद देकर कहा कि जब भी आओ साथ ही आक। लड़की और लड़का दोनों हैरान रह गए। दोनों की नजरें मिलीं। लड़की अपनी चप्पलें पहनकर आगे बढ़ गई। संभव ने आगे लपक कर देखना चाहा कि लड़की किस ओर गई है, पर वह ओझल हो चुकी थी। वह इधर-उधर भटकता घर पहुँचा। नानी ने खाने की जिद की, पर संभव को भूख न थी। संभव की आँख लग गई और लड़की का कल आने की बात याद हो आई। उसने नानी को जगाकर खाना माँगा।

संभव ने इसी साल एम. ए. किया था। वह सिविल सर्विसेज की प्रतियोगी परीक्षा में बैठने वाला था। अभी तक उसके जीवन में कोई लड़की नहीं आई थी। उसने इस लड़की का नाम भी नहीं पूछा, पर वह उसे भीड़ में भी पहचान सकता था। वह उस लड़की के बारे में तरह-तरह की कल्पना करने लगा। वह जेब में बीस रुपये का नोट डालकर हर की पौड़ी की ओर चल दिया। वहाँ आज भारी भीड़ थी। वहाँ उसे एक बालक मिला जो अपनी बुआ के साथ रोहतक से आया था। वह मंसादेवी भी जाने वाला था। वहाँ ‘रोप वे’ है। संभव भी वहाँ चला गया।

वहाँ तरह-तरह की चीजें बिक रही थीं। संभव को जो बच्चा हर की पौड़ी पर मिला था, वह दूर पीली कार में नजर आया। बच्चे की लाल कमीज को उसने पहचान लिया। इसे बच्चे से सटी हुई जो दुबली, पतली, साँवली-सलोनी आकृति बैठी थी, यह वही लड़की थी, जो कल शाम के समय हर की पौड़ी पर उससे टकराई थी। संभव उसे देखकर बहुत बेचैन हो गया। उसका मन हुआ कि वह पंछी की तरह उड़कर उस पीली केबिल कार में पहुँच जाए। बहुत जल्द केबिल कार नीचे पहुँच गई। संभव ने लपककर बच्चे को कंधे से थाम लिया और बोला-‘कहो दोस्त।’ तभी एक महीन सी आवाज आई-‘मन्नू घर नहीं चलना है।’ संभव ने बालक से पूछ्छ- ‘ये तुम्हारी बुआ है।’ मन्नू ने हाँ उत्तर दिया। संभव ने उस बुआ से मिलने की इच्छा प्रकट की तो वह बुआ से मिलाने लगा।

लड़की ने मीठी महीन आवाज में कहा- “ऐसे कैसे दोस्त हैं तुम्हारे, तुम्हें उनका नाम ही नहीं पता।” इस समय लड़की ने गुलाबी परिधान नहीं पहना था, सफेद साड़ी पहन रखी थी। उसने मंसा देवी पर एक और चुनरी चढ़ाने का संकल्प लेते हुए सोचा-” मनोकामना की गाँठ भी अद्भुत, अनूठी है, इधर बाँधो, उधर लग जाती है।” बालक ने बुआ का नाम पुकारा-पारो। संभव ने हँसते हुए अपना नाम बताया-‘ संभव देवदास।’

शब्दार्थ एवं टिप्पणी –

गोधूलि बेला = संध्या का समय (Evening time), ब्यालू = भोजन (Food ), नीलांजाल = आरती (Prayer) मनोरथ = मन की इच्छा, अरमान (Desire), बेखटके – बिना किसी रुकावट के (Without hurdle), कलावा = कलाई में बाँधी गई लाल डोरी, मौली (Red thread), प्रकोष्ठ = कक्ष, कमरा (Room), झुटपुटा = कुछ-कुछ अँधेरा, कुछ-कुछ उजाला (Light \& darkness), अस्फुट = अस्पष्ट (Not clear), जी खोलकर देना = उदारतापूर्वक खर्च करना (Kind hearted), आत्मसात = अपने में समा लेना (Swallow), नजरें बचाना = एक-दूसरे से कतराना (To hide), नौ दो ग्यारह होना = भाग जाना, गायब होना (To disappear)।

दूसरा देवदास सप्रसंग व्याख्या

1. हर की पौड़ी पर साँझ कुछ अलग रंग में उतरती है। दीया-बाती का समय या कह लो आरती की बेला। पाँच बजे जो फूलों के दोने एक-एक रुपये के बिक रहे थे, इस वक्त दो-दो के हो गए हैं, भक्तों को इससे कोई शिकायत नहीं। इतनी बड़ी-बड़ी मनोकामना लेकर आए हुए हैं। एक-दो रुपये का मुँह थोड़े ही देखना है। गंगा सभा के स्वयंसेवक खाकी वर्दी मे मुस्तैदी से घूम रहे हैं। वे सबको सीढ़ियों पर बैठने की प्रार्थना कर रहे हैं। शांत होकर बैठिए, आरती शुरू होने वाली है। कुछ भक्तों ने स्पेशल आरती बोल रखी है।

स्पेशल आरती यानी एक सौ एक या एक सौ इक्यावन रुपये वाली। गंगातट पर हर छोटे-बड़े मंदिर पर लिखा है – ‘गंगा जी का प्राचीन मंबिर।’ पंडितगण आरती के इंतजाम में क्यस्त हैं। पीतल की नीलांजलि में सहम्र बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी हुई हैं। सबने देशी घी के डब्ेे अपनी ईमानदारी के प्रतीक स्वरूप सजा रखे हैं। गंगा की मूर्ति के साथ-साथ चामुंडा, बालकृष्ण, राधा-कृष्ण, हनुमान, सीताराम की मूर्तियों की भृंगारपूर्ण स्थापना है। जो भी आपका आराध्य हो, चुन लें।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया द्वारा रचित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। यहाँ लेखिका हर की पौड़ी पर होने वाली आरती के दृश्य का चित्रांकन कर रही है।

व्याख्या : लेखिका बताती है कि हर की पौड़ी पर संध्या का दृश्य बड़ा मनोहारी होता है। इसका अपना रंग होता है। इसे शाम को दीपक जलाने का समय कह लीजिए अथवा सायंकालीन आरती का। पाँच बजे तक इस गंगा तट पर फूलों के दोने एक-एक रुपए में मिलते हैं पर आरती के समय इनकी कीमत दो रुपए हो जाती है, पर भक्तों को इससे कोई शिकायत नहीं होती। वे बड़ी-बड़ी मनोकामनाएँ लेकर यहाँ आते हैं अतः वे एक-दो रुपए की परवाह नहीं करते। वहाँ गंगा-सभा के स्वयंसेवक व्यवस्था करते घूमते रहते हैं। वे लोगों से प्रार्थना करते हैं वे सीढ़ियों पर बैठने की कृपा करें।

अब वे शांत हो जाएँ क्योंकि आरती होने वाली है। कुछ भक्त स्पेशल आरती कराते हैं। स्पेशल आरती 101 या 151 रुपए वाली होती है। गंगा तट पर सभी मंदिरों को गंगाजी का प्राचीन मंदिर जताया जाता है। इस समय पंडित जी आरती के प्रबंध में व्यस्त हो जाते हैं। आरती का पात्र पाँच मंजिला और पीतल का बना होता है। इसमें हजारों बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी होती हैं। अपनी ईमानदारी दिखाने के लिए वे घी के डब्बे सजाकर रखते हैं। यहाँ अनेक मूर्तियाँ स्थापित की हुई हैं। इनमें गंगाजी की मूत्ति के साथ चामुंडा, बालकृष्ग, राधाकृष्ण, हनुमान, सीताराम की मूर्तियाँ प्रमुख हैं। सभी को अपना आराध्य चुनने की छूट है।

विशेष :

  1. लेखिका ने हर की पौड़ी के दृश्य का यथार्थ एवं सजीव अंकन किया है।
  2. चित्रात्मक शैली प्रयुक्त है।

2. औरतें ज्यादातर नहाकर वस्त्र नहीं बदलतीं। गीले कपड़ों में ही खड़ी-खड़ी आरती में शामिल हो जाती हैं। पीतल की पंचमंजिली नीलांजलि गरम हो उठी है। पुजारी नीलांजलि को गंगाजल से स्पर्श कर, हाथ में लपेटे अंगोछे को नामालूम छंग से गीला कर लेते हैं। दूसरे यह दृश्य देखने पर मालूम होता है कि वे अपना संबोघन गंगाजी के गर्भ तक पहूँचा रहे हैं। पानी पर सहम्र बाती वाले दीपकों की प्रतिच्छवियाँ झिलमिला रही हैं। पूरे वातावरण में अगरू-चंबन की दिव्य सुगंध है।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ ममता कालिया द्वारा रचित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित हैं। यहाँ गंगा-तट पर सांध्यकालीन आरती के दृश्य का सजीव वर्णन हुआ है।

व्याख्या : आरती के समय औरतें गंगाजल में स्नान करती हैं। वे जो वस्त्र पहने होती हैं वे पानी की डुबकी में गीले हो जाते हैं और वे उस समय उन्हें नहीं बदलती। अतः उन्हीं गीले कपड़ों में खड़ी होकर आरती में सम्मिलित हो जाती हैं। पुजारी के हाथ में पाँच मंजिल वाली पीतल की आरती होती है। उसमें न जाने कितनी बत्तियाँ एक साथ जलती हैं। इससे वह नीलांजलि (आरती का पात्र) गरम हो उठता है। पुजारी इस आरती पात्र को गंगाजल से स्पर्श करा लेते हैं ताकि वह कुछ ठंडा हो जाए।

इसके साथ-साथ वे अपने हाथ पर लपेटे अंगोछे (वस्त्र) को गीला कर लेते हैं, इससे आरती-पात्र गरम प्रतीत नहीं होता। जब पुजारी नीलांजलि को गंगा का स्पर्श करवाता है तो दर्शकों को ऐसा लगता है कि मानो पुजारी गंगा के बिल्कुल भीतर तक अपने भावों को ले जा रहा है। उस समय नीलांजलि की यत्तियों की परछाइयाँ गंगा के जल पर पड़ती हैं। तब पानी में झिलमिलती बत्तियों की प्रतिच्छवियाँ अद्भुत दृश्य की सृष्टि कर देती हैं। यह दृश्य बड़ा ही मनमोहक प्रतीत होता है। वातावरण में चारों ओर अगरबत्ती और चंदन की सुगंध फैल जाती है।

विशेष :

  1. सांध्यकालीन आरती के दृश्य का मनमोहक दृश्य अंकित हुआ है।
  2. भक्तों की विशेषकर स्त्रियों की श्रद्धा प्रकट होती है।
  3. भाषा सरल है।
  4. वर्णनात्मक शैली का प्रयोग है।

3. अभी तक उसके जीवन में कोई लड़की किसी अहम् भूमिका में नहीं आई थी। लड़कियाँ या तो क्लास में बाई तरफ की बेंचों पर बैठने वाली एक कतार थी या फिर ताई-चाची की लड़कियाँ जिनके साथ खेलते खाते वह बड़ा हुआ था। इस तरह बिल्कुल अकेली, अनजान जगह पर, एक अनाम लड़की का सद्य-स्नात दशा में सामने आना, पुजारी का गलत समझना, आशीराद देना, लड़की का घबराना और चल देना सब मिलाकर एक नई निराली अनुभूति थी जिसमें उसे कुछ सुख और ज्यादा बेचैनी लग रही थी। उसने मन-ही-मन तय किया कि कल शाम पाँच बजे से ही वह घाट पर जाकर बैठ जाएगा। पौड़ी पर इस तरह बैठेगा कि कल वाले पुजारी के वेवालय पर सीधी आँख पड़े। (पृष्ठ 153) प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया की कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। इस कहानी का मुख्य पात्र संभव है। उसके जीवन में यह लड़की (पारो) पहली ही है।

व्याख्या : लेखिका बताती है कि अभी तक संभव के जीवन में कोई लड़की मुख्य रूप से नहीं आई थी। अभी या तो उसकी क्लास में लड़कियाँ पढ़ती थीं उसके साथ बेंचों पर दाएँ-बाएँ बैठती थीं या फिर ताई-चाची की लड़कियाँ थीं। उनके साथ खेलते हुए वह बड़ा हुआ था। हरिद्वार में गंगा-घाट पर जो लड़की उसने देखी थी वह अनोखी थी। वह बिल्कुल अनजान थी। उसे उसने उसी समय नहायी हुई दशा में देखा था।

उसे लेकर पुजारी ने गलत अर्थ ले लिया था तथा उन्हें युगल समझकर आशीर्वाद भी दे दिया था। लड़की इस स्थिति से घबरा गई थी और चल पड़ी थी। यह एक विचित्र अनुभव था। यह अनुभव जहाँ उसे सुख पहुँचा रहा था वहीं वह बेचैनी का अनुभव कर रहा था। इसी मनोदशा में उसने तय किया कि वह कल शाम को पाँच बजे से ही गंगा-तट पर जाकर बैठ जाएगा। वह पौड़ी पर इस स्थिति में बैठेगा ताकि कल वाले पुजारी पर सीधी आँख पड़े। वह इसके बहाने उस लड़की (पारो) को देखना चाहता था।

विशेष : संभव की मन:स्थिति का यथार्थ चित्रण किया गया है।

4. भीड़ लड़के ने विल्ली में भी देखी थी, बल्कि रोज देखता था। दफ्तर जाती भीड़, खरीद-फरोख्त करती भीड़, तमाशा देखती भीड़, सड़क क्रॉस करती भीड़ लेकिन इस भीड़ का अंदाज निराला था। इस भीड़ में एकसूत्रता थी। न यहाँ जाति का महत्त्व था, न भाषा का, महत्त्व उदेश्य का था और वह सबका समान था, जीवन के प्रति कल्याण की कामना। इस भीड़ में दौड़ नहीं थी, अतिक्रमण नहीं था और भी अनोखी बात यह थी कि कोई भी स्नानार्थी किसी सैलानी आनंद में डुबकी नहीं लगा रहा था बल्कि स्नान से ज्यादा समय ध्यान ले रहा था। दूर जलधारा के बीच एक आदमी सूर्य की ओर उन्मुख हाथ जोड़े खड़ा था। उसके चेहरे पर इतना विभोर, विनीत भाव था मानो उसने अपना सारा अहम् त्याग विया है, उसके अंदर ‘स्व’ से जनित कोई कुंठा शेष नहीं है, वह शुद्ध रूप से चेतनास्वरूप, आत्माराम और निर्मलानंब है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया द्वारा रचित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। इसमें लेखिका हरिद्वार के गंगा-तट का वर्णन करती है।

व्याख्या : कहानी का मुख्य पात्र संभव गंगा-तट पर भारी भीड़ देखता है। वैसे उसने भीड़ अपने दिल्ली शहर में भी देखी थी। वह वहाँ रोज ही भीड़ देखता है। वहाँ दफ्तर जाने वालों की भीड़ होती है, खरीददारों की भीड़ होती है, तमाशा देखने वालों की भीड़ होती है, सड़क पार करने वालों की भीड़ होती है। इस भीड़ में एकसूत्रता दिखाई देती है। यहाँ की भीड़ में जाति, भाषा का कोई अंतर नहीं होता। सभी का एक ही उद्देश्य है कि जीवन के प्रति कल्याण की भावना।

यहाँ दिल्ली जैसी भागमभाग नहीं थी। कोई दूसरे का अतिक्रमण भी नहीं कर रहे थे। यहाँ स्नान करने वाले व्यक्ति सैलानी भाव से नहीं, बल्कि भक्ति भाव से डुबकी लगा रहा था। संभव ने देखा कि एक व्यक्ति जलधारा के बीच खड़ा होकर सूर्य की ओर हाथ जोड़े हुए था। वह भक्तिभाव में डूबा प्रतीत होता था। उसके अंदर विनय भाव था। लगता था उसने सारा अहं भाव छोड़ दिया है। अब वह ‘स्व’ के प्रति विशेष लगाव नहीं रखता। उसके मन में कोई कुंठा नहीं है। वह शुद्ध चेतन स्वरूप, आत्मरूप एवं निर्मल प्रतीत हो रहा है। वह पूरी तरह भक्ति में निमग्न है।

विशेष : चित्रात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।

5. रोपवे के नाम में कोई धर्माडंबर नहीं था। ‘उषा ब्रेको सर्विस’ की खिड़की के आगे लंबा क्यू था। वहीं मंसा देवी पर चढ़ाने वाली चुनरी और प्रसाद की थैलियाँ बिक रही थीं। पाँच, सात और ग्यारह रुपये की। कई बच्चे बिंदी-पाउडर और उसके साँचे बेच रहे थे, तीन-तीन रुपये। उन्होंने अपनी हथेली पर कलात्मक बिंदिया बना रखी थीं। नमूने की खातिर। उससे पहले संभव ने कभी बिंदी जैसे शृंगार प्रसाधन पर ध्यान नहीं दिया था। अब यकायक उसे ये बिंदियाँ बहुत आकर्षक लगी। मन-ही-मन उसने एक बिंदी उस अज्ञातयौवना के माथे पर सजा दी। माँग में तारे भर देने जैसे कई गाने उसे आधे अधूरे याद आ कर रह गए। उसका नंबर बहुत जल्द आ गया। अब वह दूसरी कतार में था जहाँ से केबिल कार में बैठना था। सभी काम बड़ी तत्परता से हो रहे थे।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया की कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। संभव अपने मन में बसी लड़की की खोज में मनसा देवी के मंंदर जाता है। वहाँ ‘रोपवे’ से जाया जाता है। वह वहीं खड़ा है।

व्याख्या : यद्यपि हर की पौड़ी तथा उस क्षेत्र में धर्म के नाम पर अनेक आडंबर हैं, पर ‘रोपवे ‘ में ऐसा कोई धर्माडंबर नह़’ है। इस ‘उषा ब्रेको सर्विस’ चलाती है। वहाँ उसकी खिड़की पर लंबी लाइन लगी थी। उसी जगह मंसा देवी पर चढ़ाने के लिए चुनरी और प्रसाद की थैलियाँ बिक रही थीं। ये 5-7-11 रुपए में मिल रही थीं। वहाँ कई बच्चे बिंदी, पाउडर, उसके साँचे 3-3 रुपयों में बेच रहे थे। उन लड़कों ने दिखाने के लिए अपने हाथों पर कलात्मक बिंदियाँ भी बना रखी थीं।

आज से पहले संभव ने बिंदी की ओर कभी ध्यान नहीं दिया था। आज उस लड़की की वजह से उसे ये बिंदियाँ बड़ी आकर्षक लग रही थीं। उसने अपने मन में कल्पना से एक बिंदी उस अनजानी यौवना (पारो) के माथे पर लगा दी। मन में बिंदी लगाकर सोचा कि यह बिंदी कैसी लगेगी। उसे उस समय वे गाने याद आ गए जिनमें माँग भरने का उल्लेख था। यही सोचते-सोचते उसका नंबर आ गया। वह टिकट लेकर केबिल कार में चढ़ने वालों की पंक्ति में आ गया। यहाँ सभी काम तेजी के साथ किए जा रहे थे।

विशेष :

  1. वातावरण का सजीव चित्रण है।
  2. संभव की मनःस्थिति का सजीव अंकन है।

6. दूर जलधारा के बीच एक आदमी सूर्य की ओर उन्मुख हाथ जोड़े खड़ा था। उसके चेहरे पर इतना विभोर, विनीत भाव था मानो उसने अपना सारा अहम् त्याग दिया है, उसके अंदर स्व से जनित कोईं कुंठा शेष नहीं है, वह शुद्ध रूप में चेतन स्वरूप, आत्माराम और निर्मलानंद है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया द्वारा रचित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। हर की पौड़ी पर इस कहानी का नायक संभव स्नानार्थियों की भीड़ से परे हटकर एक ध्यामग्न स्नानार्थी को देखता है।

व्याख्या : गंगा की हर की पौड़ी से थोड़ा हटकर दूध जलधारा में एक व्यक्ति स्नान और भक्ति भावना का अनोखा दृश्य उपस्थित कर रहा था। उसने अपना मुख सूर्य की ओर कर रखा था और हाथ जोड़ हुए था, मानो सूर्मलससक्कार कर रहा हो। उसके चेहरे पर शांति विराजमान थी। वइ इतना भाव-विभोर था कि उसे अपना तक ध्यान में न था। वह चेहरे पर बिना भाब लिए हुए था। उसने अपना अहं भाव त्याग दिया था। ऐसा प्रतीत होता था कि उसमें ‘स्व’ में उत्पन्न कोई कुंठा भाव शेष नहीं रह गया है। वह शुद्ध रूप में चेतन स्वरूप बन गया प्रतीत होता था। वह आत्मा-परमात्मा के आनंद में डूबा हुआ था। उसके आनंद में निर्मलता झलक रही थी।

विशेष :

  1. गद्यांश में तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है।
  2. वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है।

7. यकायक सहम्र दीप जल उठते हैं, पंडित अपने आसन से उठ खड़े होते हैं। हाथ में अंगोछा लपेट के पंचमंजिली नीलांजलि पकड़ते हैं और शुरू हो जाती है आरती। पहले पुजारियों के भर्राए गले से समवेत स्वर उठता है-जय गंगे माता, जो कोई तुझको ध्याता, सारे सुख पाता, जय गंगे माता। घंटे घड़ियाल बजते हैं। मनौतियों के दिये लिए हुए फूलों की छोटी-छोटी किश्तियाँ गंगा की लहरों पर इठलाती हुई आगे बढ़ती हैं। गोताखोर दोने पकड़, उनमें रखा चढ़ावे का पैसा उठाकर मुँह में दबा लेते हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया द्वारा लिखित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। इस कहानी में लेखिका ने घटनाओं का संयोजन इस प्रकार किया है कि अनजाने में प्रणय अंकुरण संभव और पारो के हृदय में हो जाता है। यहाँ लेखिका हरिद्वार में हर की पौड़ी पर सायंकालीन आरती के दृश्य का मनोहारी चित्रण कर रही है।

व्याख्या : लेखिका बताती है कि हर की पौड़ी पर संध्या के समय आरती का दृश्य बड़ा ही मनोहर होता है। वहाँ संध्या कुछ अलग रंग में ही उतरती है। संध्या होते ही आरती के हज़ारों दीपक जल उठते हैं। तब पंडित अपने आसन से उठकर खड़े हो जाते हैं। वे अपने हाथ में अंगोछा (वस्त्र) लपेट लेते हैं, ताकि आरती की गर्मी से बच सकें। उनके हाथ में पाँच मंजिली नीलांजलि (आरती का पात्र) होता है और फिर आरती शुरू हो जाती है। सबसे पहले पुजारी अपने भर्राए गले से आरती के स्वर गुंजार करता है।

इस आरती-गाने में वह गंगा माता का गुणगान करता है। घंटे-घड़ियाल बजने लगते हैं। लोग अपनी-अपनी मनौतियाँ मनाने के लिए फूलों की छोटी-छोटी नावें गंगा की लहरों पर प्रवाहित कर देते हैं। ये छोटी-छोटी किश्तियाँ लहरों पर इठलाती हुई आगे बढ़ती चली जाती हैं। ये किशितयाँ दोने के रूप में होती हैं। गोताखोर इन दोनों को पकड़कर उनमें रखे पैसों को उठाकर अपने मुँह में दबा लेते हैं।

विशेष :

  1. लेखिका ने हर की पौड़ी पर होने वाली संध्याकालीन आरती का यथार्थ चित्रण किया है।
  2. वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है।
  3. भाषा सरल एवं सुबोध है।

8. न यहाँ जाति का महत्त्व था, न भाषा का, महत्त्व उद्देश्य का था और वह सबका समान था, जीवन के प्रति कल्याण की कामना। इस भीड़ में दौड़ नहीं थी, अतिक्रमण नहीं था और भी अनोखी बात यह थी कि कोई भी स्नानार्थी किसी सैलानी आनंद में डुबकी नहीं लगा रहा था। बल्कि स्नान से ज्यादा समय ध्यान ले रहा था।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया द्वारा रचित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। इसमें संभव की कथा उकेरी गई है जो दिल्ली से हरिद्वार आया है। यहाँ वह श्रद्धालुओं की अद्भुत, शांत व अनुशासित भीड़ देखकर चकित है।

व्याख्या : संभव दिल्ली का रहने वाला था। वह हरिद्वार में अपनी नानी के यहाँ आया हुआ था। वहाँ उसने गंगा-तट पर काफी भीड़ देखी। वैसे उसने भीड़ दिल्ली में भी देखी थी, पर यह भीड़ उससे अलग थी। यहाँ की भीड़ का ढंग अनोखा था। यहाँ की भीड़ में न तो जाति का महत्त्व था, न भाषा का। यहाँ तो सभी का ही उद्देश्य एक समान था। यहाँ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं था। सभी लोगों के मन में जीवन के प्रति कल्याण की भावना थी। यहाँ की भीड़ में भागम-भाग नहीं थी, कहीं कोई आगे निकलने का प्रयास नहीं कर रहा था। सभी कुछ अनुशासित था। संभव की एक अनोखी बात यह भी लगी कि यहाँ गंगा में स्नान करने वाले आनंद के लिए डुबकी नहीं लगा रहे थे वरन् उनका ध्यान स्नान से ज़्यादा ध्यान (ईश्वर स्मरण) की ओर था। उनमें धार्मिंक आस्था का भाव अधिक था।

विशेष :

  1. संभव गंगा-तट की भीड़ की तुलना दिल्ली की भीड़ से करता है।
  2. विभिन्नता में एकता की भावना दर्शाई गई है।
  3. सरल-सुबोध भाषा का प्रयोग है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 21 Summary – Kutaj Summary Vyakhya

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कुटज Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 21 Summary

कुटज – हजारी प्रसाद द्विवेदी – कवि परिचय

प्रश्न :
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेवी का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं तथा भाषा शैली की विशेषताएँ लिखो।
उत्तर :
जीवन-परिचय : हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया जिले में “दूबे का छपरा” नामक ग्राम में सन् 1907 ई. में हुआ। आपके पिता पं. अनमोल द्विवेदी ने पुत्र को संस्कृत एवं ज्योतिष के अध्ययन की ओर प्रेरित किया। आपने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से साहित्याचार्य एवं ज्योतिषाचार्य की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। सन् 1940 से 1950 ई. तक द्विवेदी जी ने शांति निकेतन में हिंदी भवन के निदेशक के रूप में कार्य किया। सन् 1950 ई. में द्विवेदी जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष नियुक्त हुए। सन् 1960 से 1966 ई. तक वे पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे। इसके उपरांत आपने भारत सरकार की हिंदी संबंधी योजनाओं के कार्यान्वयन का दायित्व ग्रहण किया। आप उत्तर प्रदेश सरकार की हिंदी ग्रंथ अकादमी के शासी मंडल के अध्यक्ष भी रहे। 19 मई, 1979 ई. को दिल्ली में इनका देहावसान हुआ। द्विवेदी जी का अध्ययन क्षेत्र अत्यंत व्यापक था। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बंगला आदि भाषाओं एवं इतिहास, दर्शन, संस्कृति, धर्म आदि विषयों में उनकी विशेष गति थी। इसीलिए उनकी रचनाओं में विषय-प्रतिपादन और शब्द-प्रयोग की विविधता मिलती है।

रचनाएँ : हिंदी निबंधकारों में आचार्य रामचंंर शुक्ल के पश्चात् द्विवेदी का प्रमुख स्थान है। वे उच्च कोटि के निबंधकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं :

निबंध-संग्रह : (1) अशोक के फूल (2) विचार और वितर्क (3) कल्पलता (4) कुटज (5) आलोक पर्व।
आलोचनात्मक कृतियाँ : (1) सूर-साहित्य (2) कबीर (3) हिंदी साहित्य की भूमिका (4) कालिदास की लालित्य योजना।
उपन्यास : (1) चारुचंद्रलेख (2) बाणभट्ट की आत्मकथा (3) पुनर्नवा
द्विवेदी जी की सभी रचनाएँ ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली’ के ग्यारह भागों में संकलित हैं।

भाषा-शैली : द्विवेदी जी की भाषा सरल होते हुए भी प्रांजल है। उसमें प्रवाह का गुण विद्यमान है तथा भाव-क्यंजक भी है। व्यक्ति व्यंजकता और आत्मपरकता उनकी शैली की विशेषता है।

द्विवेदी जी की भाषा अत्यन्त समृद्ध है। उसमें गंभीर चिंतन के साथ हास्य और व्यंग्य का पुट सर्वत्र मिलता है। बीच-बीच में वे संस्कृत के साहित्यिक उद्धरण भी देते चलते हैं। भाषा भावानुकूल है। संस्कृत की तत्सम शब्दावली के मध्य मुहावरों और अंग्रेजी, उर्दू आदि के शब्दों के प्रयोग से भाषा प्रभावी तथा ओजपूर्ण बन गई है। गंभीर विषय के बीच-बीच में हास्य एवं व्यंग्य के छीटे मिलते हैं। उनकी गद्य-शैली हिंदी-साहित्यकार के लिए वरदान स्वरूप है। उन्होंने हिंदी की गद्य शैली को एक नया रूप दिया है।

पाठ का संक्षिप्त परिचय – 

‘कुटज’ हिमालय पर्वत की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला एक जंगली फूल है इसी फूल की प्रकृति पर यह निबंध ‘कुटज’ लिखा गया है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए एक संदेश पाया है। ‘कुटज’ में अपराजेय जीवनशक्ति है, स्वावलंबन है, आत्मविश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी शान के साथ जीने की क्षमता है। वह समान भाव से सभी परिस्थितियों को स्वीकारता है। सामान्य से सामान्य वस्तु में भी विशेष गुण हो सकते हैं यह जताना इस निबंध का अभीष्ट है।

Kutaj Class 12 Hindi Summary

इस पाठ में लेखक शिवालिक पर्वतशृंखला पर उगने वाले कुटज वृक्ष के बारे में बताता है। कहा जाता है कि पर्वत शोभा के घर होते हैं। हिमालय को तो ‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाता है। लोग इसे शिवालिक श्रृंखला कहते हैं। शिवालिक या शिव की जटाजूट का निचला हिस्सा प्रतीत होता है। संपूर्ण हिमालय को देखकर समाधिस्थ महादेव की मूर्ति स्पष्ट होती है। यहाँ की काली-काली चट्टानों और उनके बीच की शुष्कता को सहकर भी कुछ ठिगने से दरख्त गर्मी की भयंकर मार को झेलकर जी रहे हैं। ऊपर से ये वृक्ष बेहया, मस्तमौला प्रतीत होते हैं।

पर ये पत्थरों की छाती को फाड़कर गहरी खाइयों से अपना भोग्य खींच ही लेते हैं। ये वृक्ष मुस्कुराते रहते हैं। इन्हीं में एक बहुत ही ठिगना-सा पेड़ है। लेखक इसका नाम याद करने का प्रयास करता है। नाम के बिना रूप की पहचान अधूरी रह जाती है। लेखक कहता है कि यदि इस वृक्ष को नाम की ही जरूरत हो तो कई नाम दिए जा सकते हैं; जैसे- सुस्मिता, गिरिकांता, वनप्रभा, शुभ्र किरीटिनी, मदोद्धता, विजितातपा, अलकावसंता आदि।

इसे पौरुष व्यंजक नाम भी दिए जा सकते हैं; जैसे-अकूतोभय, गिरिगौरव, कूटोल्लास, अपराजित, धरतीधकेल, पहाड़फोड़, पातालभेद आदि। पर नाम तो वह होना चाहिए जिसे समाज की स्वीकृति मिली हो, इतिहास द्वारा प्रमाणित हो और लोगों के चित्त में बसा हो। अचानक लेखक को याद आता है कि इस ठिगने से वृक्ष का नाम तो कुटज है।

यह संस्कृत साहित्य का परिचित है, पर कवियों ने इसकी उपेक्षा की है। वैसे इस वृक्ष को ‘कूटज’ कहने में विशेष आनंद मिलता है। यह मनोहारी फूलों के गुच्छों से झबराया रहता है। कालिदास ने यक्ष द्वारा मेघ की अभ्यर्थना कराते समय कुटज पुष्पों की अंजलि ही दिलाई थी। उन्हें रामगिरि पर भी उस समय कोई फूल न मिला होगा। ऐसा लगता है कि कुटज मुसीबत का साथी है। जो फूल कालिदास के काम आया, उसे ज्यादा इज्जत मिलनी चाहिए थी पर इन्जत मिलना तो भाग्य की बात है। यढ दुनिया बड़ी स्वार्थी है, अपने मतलब से मतलब रखती है। मतलब निकल जाने के बाद चूसकर छिल्का, गुठली फेंक देती है। कवि रहीम भी लोगों की बेरुखी पर मुरझा गए थे और उन्होंने इसी मन:स्थिति में बेचारे कुटज को चपत लगा दी :

वे रहीम अब बिरछ कहँ, जिनकर दाँह गंभीर।
बागन बिच-बिच देखियत, सेंहुड़ कुटज करीर।

अर्थात् ‘कुटज’ अदना-सा बिरछ (वृक्ष) हो। क्या छाया ही सब कुछ है, फूल का तो सम्मान होना चाहिए था। अब लेखक ‘कुटज’ शब्द पर जाता है। ‘कुट’ घड़े को भी कहते हैं। कहा जाता है कि घड़े से उत्पन्न होने के कारण प्रतापी अगस्त्य मुनि को भी ‘कुटज’ कहा जाता था। संस्कृत में ‘कुटिहारिका’ और ‘कुटकारिका’ दासी को कहते हैं। एक जरा गलत ढंग की दासी ‘कुटनी’ कहलाती है। संस्कृत में उसकी गलतियों को मुखर बनाने के लिए ‘कुटृनी’ कह दिया जाता है। पर कुटज तो जंगल का सैलानी वृक्ष है। फिर ये शब्द आया कहाँ से ? यह शब्द आर्य जाति का तो मालूम नहीं पड़ता। सिलवाँ लेवी ने कहा है कि संस्कृत भाषा में फूलों, वृक्षों और खेत-बागवानी के अधिकांश शब्द आग्नेय भाषा परिवार के हैं। भारत की अनेक जातियाँ वह भाषा बोलती हैं। अय हम इसे कोल परिवार की भाषा कहने लगे हैं। संस्कृत भाषा के अनेक शब्द इसी श्रेणी की भाषा के हैं। संस्कृत सर्वग्रासी भाषा है।

कुटज का पौधा नाम और रूप दोनों में अपराजेय जीवनी शक्ति की घोषणा करता है। इसकी शोभा मादक है। यह भयंकर गर्मी की लू के थपेड़े खाकर भी हरा-भरा रहता है। जब हिमालय से निकलने वाली नदियाँ अपना रास्ता खोज रही छोती हैं तब चट्टानों की ऊबड़-खाबड़ सूखी, नीरस भूमि पर कुटज आसन मारे बैठकर दिखाई देता है यह पाताल की छाती चीरकर भी अपना प्राप्य वसूल लेता है, भोग्य खींच लेता है। इसकी जीवन-शक्ति का पार नहीं पाया जा सकत्ता। जीना भी एक कला है। संसार अपने मतलब के लिए जी रहा है।

दिखाने के लिए देशोद्धार का नारा लगाया जाता है। साहित्य और कला की महिमा गाई जाती है, पर सब झूठ है। सभी कोई इनके द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है। लेखक का कहना है कि क्यक्ति की आत्मा केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, वह व्यापक है। व्यक्ति को अपने आपको सर्व के लिए न्यौछावर कर देना चाहिए। कुटज क्या केवल जीता है ? वह आत्मसम्मानी है। वह किसी के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता। वह नीति, धर्म का उपदेश देता नहीं फिरता, किसी की चापलूसी नहीं करता, वह बगलें नहीं झाँकता।

वह तो यह संदेश देता है कि चाहे सुख हो या दुःख हो, सोल्लास ग्रहण करो, शान के साथ जिओ, हार मत मानो। ऐसा व्यक्ति निश्चय ही विशाल हृदय होगा। पता नहीं कुटज को ऐसी निर्भीक जीवन-दृष्टि कहाँ से मिली। जो यह समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है, वह अबोध है और जो यह समझता है कि दूसरे उसका अपकार कर रहे हैं वह भी मूर्ख हैं। सुख पहुँचाने का अभिमान गलत है तो दुःख पहुँचाने का अभिमान भी नितांत गलत है।

दु:ख और सुख तो मन के विकल्प हैं। जिसका मन वश में है वह सुखी है, जिसका मन परवश में है वह दुःखी है। यहाँ परवश होने का अर्थ है-खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता करना। जिसका मन वश में नहीं होता वही दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। कुटज इन सभी मिथ्याचारों से मुक्त है। वह वैरागी है। वह राजा जनक की तरह संसार में रहकर भी, संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है। कुटज अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने ऊपर सवार नहीं होने देता। कुटज धन्य है।

शब्दार्थ एवं टिप्पणी –

अंतर्निरुद्ध = भीतरी रुकावट (Internal hinderence), गह्नर = गहरा, (Deep), द्वंद्वातीत = द्वंद्ध से परे (Out of perplexity), बेहाया = बेशर्म (Shameless), रक्ताभ = रक्त की आभा (Redislhs), मस्तमौला – मस्ती भरा (Carefree), समष्टि = मिला-जुला रूप (Combined), मदोद्धता = नशे या गर्व से चूर (Toxicated), विजितातपा = धूप को दूर करने वाली (Awayfrom Sunshine), अकुतोभय = जिसे कहीं या किसी से भय न हो, नितांत भयशून्य (Fearless), अवमानित = अपमानित, तिरस्कृत (Insulted), विरुद = कीर्ति-गाथा, प्रशंसासूचक पदवी (Fame), स्तबक = गुच्छा, फूलों का गुच्छा (Bunch offlowers),

लोल = चंचल, हिलता-डोलता (In movement), फकत = अकेला, केवल, एकमात्र (Lonely), अनंत्युच्च = जो बहुत ऊँचा न हो (Not very high), अविच्छेद्य = विच्छेद रहित (Without break), स्फीयमान = फैलता हुआ, विस्तृत, व्यापक (Spread over), मूर्धा = मस्तक, सिर (Head), दुरंत – जिसका पार पाना कठिन हो, प्रबल (Powerful), कार्पण्य = कृपणता, कंजूसी (Miserness), उपहत = चोट खाया हुआ, घायल नष्ट (Wounded) निपोरना = खुशामद करना, दिखाना (Flattery), अवधूत = विरक्त, संन्यासी (Unattached, Saint), नितरां = बहुत अधिक (Too much), मिथ्याचार – झूठा आचरण (False behaviour)।

कुटज सप्रसंग व्याख्या

1. संपूर्ण हिमालय को देखकर ही किसी के मन में समाधिस्थ महादेव की मूर्ति स्पष्ट हुई होगी। उसी समाधिस्थ महादेव के अलक-जाल के निचले हिस्से का प्रतिनिधित्व यह गिरि-भृंखला कर रही होगी। कहीं-कहीं अज्ञात-नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ खड़े अवश्य दिख जाते हैं, पर और कोई हरियाली नहीं। दूब तथ: सूख गई है। काली-काली चटृनों और बीच-बीच में शुष्कता की अंतर्निरुद्ध सत्ता का इजहार करने वाली रक्ताभ रेती! रस कहाँ हैं? ये जो ठिंगने-से लेकिन शानदार द्ररख्त गर्मी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जा रहे हैं, इन्हें क्या कहूँ ? सिर्फ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी नहीं रहे हैं। बेहया हैं क्या ? या मस्तमौला हैं ? कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफी गहरी पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्नर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित विचारोत्तेजक निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज के स्वरूप, मस्तमौलापन एवं उसकी सहनशीलता को दर्शाता है।

व्याख्याः ‘लेखक हिमालय को देखता है तो उसे लगता है कि सारे हिमालय को देखकर किसी के मन को लगा होगा कि यह तो समाधिस्थ महादेव (शिव) की मूर्ति है। उसी महादेव की जटाएँ फैलकर हिमालय के निचले भाग का प्रतिनिधित्व पर्वत शृंखलाएँँ कर रही होगीं। इस पर्वत पर कहीं कोई हरियाली दिखाई नहीं देती, हाँ, कहीं-कहीं बिना नाम के झाड़-झंखाड़ और बेशर्म से खड़े पेड़ अवश्य दिखाई दे जाते हैं। यहाँ तो घास तक सूख गई प्रतीत होती है।

चारों ओर काली-काली चट्वानें हैं और बीच-बीच में सूखी लाल रेत है, जिससे शुष्कता का पता चलता है। इसमें रस तो कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता। यहाँ कुछ छोटे कद के पेड़ अवश्य हैं जो गर्मी की भयंकरता को झेल रहे हैं और भूखे-प्यासे रहकर भी जी रहे हैं। इन्हें भला क्या कहना चाहिए ? ये केवल जीवित ही नहीं हैं बल्कि प्रसन्न हैं। इन्हें बेहया या मस्तमौली ही कहा जा सकता है। लेखक व्यंग्य करता है कि कभी-कभी कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं जो ऊपर से तो बेशर्म दिखाई देते हैं, पर उनकी पहुँच बहुत दूर तक होती है। वे बड़े गहरे पैठे होते हैं। इनमें इतनी जिजीविषा होती है कि ये पत्थर की छाती को भी फोड़कर गहरी खाई के बीच से भी अपना भोजन पा लेते हैं।

विशेष :

  1. लेखक हिमालय की शिवालिक पर्वतमाला के शुष्क वातावरण का यथार्थ अंकन करने में सफल है।
  2. कुटज की जिजीविषा का वर्णन हुआ है।
  3. हास्य-व्यंग्य शैली का अनुसरण किया गया है।

2. दुनिया में त्याग नहीं है, प्रेम नहीं है, परार्थ नहीं है, परमार्थ नहीं है-है केवल प्रचंड स्वार्थ। भीतर की जिजीविषा – जीते रहने की प्रचंड इच्छा ही-अगर बड़ी बात हो तो फिर यह सारी बड़ी-बड़ी बोलियाँ, जिनके बल पर दल बनाए जाते हैं, शत्रुमर्दन का अभिनय किया जाता है, देशोद्धार का नारा लगाया जाता है, साहित्य और कला की महिमा गाई जाती है, झूठ है। इसके द्वारा कोई-न-कोई अपना बड़ा स्वार्थ सिद्ध करता है। लेकिन अंतरतर से कोई कह रहा है, ऐसा सोचना ग़लत ढंग से सोचना है। स्वार्थ से भी बड़ी कोई-न-कोई बात अवश्य है, जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। याज्ञवल्क्य ऋषि बहुत बड़े ब्रह्मवादी थे। उन्होंने अपनी पत्नी को यह बात समझाने की कोशिश की थी इस संसार में सभी कुछ स्वार्थ के लिए है।

व्याख्या : उन्होंने कहा कि त्याग की बात करना बेमानी है, कहीं कोई त्याग या प्रेम नहीं है, न कोई किसी का उपकार करता है। सभी ओर है तो केवल घोर स्वार्थ। लेखक प्रश्न उठाता है कि अगर जीवित रहने की इच्छा प्रबल होती तो फिर अन्य सभी बातों का क्या महत्त्व रह जाता है। लोग बड़े-बड़े दल बनाते हैं, शत्रुओं के नाश का अभिनय किया जाता है, देश के उद्धार की लंबी-चौड़ी बातें की जाती हैं, साहित्य और कला का गुणगान किया जाता है। सब बेकार हो जाता है। क्या इनके द्वारा भी कोई अपना स्वार्थ सिद्ध करता है ? यदि ऐसा सोचा जाता है तो यह सोच गलत है। स्वार्थ ही सब कुछ नहीं है बस्कि स्वार्थ से भी बड़ी चीज कोई जरूर है। जिजीविषा तो है ही, पर उससे भी कोई अन्य प्रचंड शक्ति अवश्य है। अत: लेखक याजवल्क्य की धक्कार बात को अंतिम मानने को कतई तैयार नहीं है। संसार स्वार्थ के वशीभूत ही नहीं चल रहा, कोई बड़ी शक्ति इसे चला रही है।

विशेष :

  1. तर्कपूर्ण एवं चिंतनपूर्ण शैली का अनुसरण किया गया है।
  2. तत्सम शब्दों का प्रयोग है।

3. कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़े काफी गहरी पैठी रहती हैं। वे भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्नर से अपना भाग्य खींच लाते हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक ने कुटज के माध्यम से अपराजेय जीवन शक्ति और अपना भोग्य प्राप्त करने का संदेश दिया है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि कभी-कभी ऊपर से बेशर्म दिखने वाले व्यक्ति काफी तत्वज्ञानी होते हैं। उनसे कुछ भी कहिए, वे हँसते ही रहते हैं। कुटज भी ऊपर से बेहया दिखाई देता है क्योंकि वह काफी मस्तमौला स्वभाव का है। ऐसे लोग अपना भोग्य वसूल करने में बड़े जागरूक रहते हैं। वे उस स्थान से भी अपना प्राप्य वसूल लेते हैं जहाँ से कुछ भी पाना संभव नहीं होता। कुटज बाहर से भले ही सूखा और नीरस प्रतीत होता हो पर इसकी जड़ पत्थर को छाती को भी फोड़कर गहराई तक चली जाती हैं और पाताल की गहराई से भी अपना भोजन खींच लेती हैं। तभी तो विषम परिस्थितियों में भी उसका अस्तित्व बना रहता है।

विशेष :

  1. कुटज की विशेषता पर प्रकाश डाला गया है।
  2. तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
  3. विषयानुकूल भाषा का प्रयोग है।

4. मन नहीं मानता। नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं कि जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सेक्सन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नात।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कुटज के नाम को लेकर द्विविधा में जान पड़ता है।

व्याख्या : प्रश्न उठता है-रूप बड़ा है या नाम ? लेखक नाम को बड़ा बताता है। नाम के बिना उसका मन नहीं मानता। उसका कहना है कि नाम इसलिए बड़ा है क्योंकि नाम में सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। नाम का अपना अलग महत्व है। रूप तो व्यक्ति-सत्य होता है। रूप का संबंध व्यक्ति तक सीमित रहता है जबकि नाम का संबंध समाज के साथ होता है। नाम वह पद होता है जिस पर समाज अपनी मुहर लगा देता है अर्थात् मान्यता प्रदान कर देता है। आधुनिक युग इसी को सोशल सैंक्शन (Social Sanction) कहा जाता है। इसी कारण नाम का महत्त्व होता है। लेखक भी इस वृक्ष का वह नाम जानना चाहता है जिसे समय ने स्वीकार किया हो तथा इतिहास ने प्रमाणित किया हो। यह नाम लोगों के मन में समाया हुआ होना चाहिए।

इस प्रकार लेखक नाम का महत्त्व दर्शाता है।

विशेष :

  1. लेखक नाम को सामाजिक स्वीकृति आवश्यक मानता है।
  2. तर्कपूर्ण शैली अपनाई गई है।

5. कुटज के ये सुंदर फूल बहुत बुरे तो नहीं हैं। जो कालिदास के काम आया हो उसे ज्यादा इज्जत मिलनी चाहिए। मिली कम है पर इज्जत तो नसीब की बात है। रहीम को मैं बड़े आदर के साथ स्मरण करता हुँ। दरियादिल आदमी थे पाया सो लुटाया। लेकिन दुनिया है कि मतलब से मतलब है, रस चूस लेती है, छिलका और गुठली फेंक देती है। सुना है, रस चूस लेने के बाद रहीम को भी फेंक दिया गया था। एक बादशाह ने आदर के साथ बुलाया, दूसरे ने फेंक दिया! हुआ ही करता है। इससे रहीम का मोल घट नहीं जाता। उनकी फक्कड़ाना मस्ती कही गई नही। अच्छे-भले कद्रदान थे लेकिन बड़े लोगों पर भी कभी-कभी ऐसी वितृष्णा सवार होती है कि गलती कर बैठते हैं। मन खराब रहा होगा, लोगों की बेरुखी और बेकद्रदानी से मुरझा गए होंगे-ऐसी ही मनःस्थिति में उन्होंने बिचारे कुटज को भी एक चपत लगा दी। झुँझलाए थे, कह दियावे रहीम अब बिरछ कहाँ, जिनकर छाँह गंभीर; बागन बिच-बिच देखियत, सेंहुड़ कुटज करीर।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक लोगों द्वारा कुटज को महत्त्व न दिए जाने का बुरा मानता है।

व्याख्या : कुटज के फूल बड़े सुंदर होते हैं। इन्हें बुरा नहीं कहा जा सकता। ये फूल कभी कालिदास के काम आए थे। उसके यक्ष ने इन्हीं फूलों से मेघ की अभ्यर्थना की थी। इसी कारण से भी उन्हें सम्मान मिलना ही चाहिए था, पर वह मिला नहीं। सम्मान मिलना तो भाग्य की बात है। शायद कुटज के भाग्य में सम्मान मिलना न हो। लेखक कवि रहीम का बड़ा आदर करता है। वे खुले दिल के आदमी थे। उन्होंने लोगों पर खूब लुटाया, पर यह दुनिया बड़ी स्वार्थी है। यह बस अपना मतलब निकालती है, रस चूस लेती है और शेष को व्यर्थ समझकर फेंक देती है। रहीम का काव्य-रस चूसने के बाद उन्हें भी अनादर कर निकाल दिया गया था। एक बादशाह आदर सहित, दूसरे ने फेंक दिया।

ऐसा ही होता रहता है पर इससे रहीम का मूल्य नहीं घट जाता। वे तो वैसे ही फक्कड़-मस्त बने रहे। लोगों का स्वभाव ही ऐसा होता है। कभी-कभी उनके ऊपर वितृष्णा का ऐसा भाव सवार हो जाता है कि भूल कर बैठते हैं। रहीम का भी कभी-कभी मन ठीक नहीं रहा होगा। शायद लोगों की बेरुखी और कद्र न करने से उदास हो गए होंगे, तभी वे कुटज को भी अन्य साधारण वृक्ष की कोटि में लाए। कुटज को बाग का वृक्ष बता दिया, वह भी छायाविहीन। उन्होंने कहा कि अब ऐसे वृक्ष कहाँ रह गए हैं जिनकी गहरी छाया होती थी। अब बागों के बीच में सेंहुड़, कुटज और करीर के वृक्ष ही दिखाई देते हैं।

विशेष :

  1. कुटज के प्रति कवियों की उपेक्षा लेखक को खलती प्रतीत होती है।
  2. उद्यूं शब्दों का भरपूर प्रयोग है-दरियादिल, कद्रदान, बेरुखी आदि।

6. दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कथा में रुद्ध अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है। और मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरिकांतार में भी ऐसा मस्त बना हुआ है कि ईर्ष्या होती है। कितनी कठिन जीवन-शक्ति है प्राण ही प्राण को पुलकित करता है, जीवनी-शक्ति ही जीवनी शक्ति को प्रेरणा देती है।
उत्तर :
प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कवियों द्वारा उपेक्षित कुटज वृक्ष का गुणगान करता है।

व्याख्या – लेखक बताता है कि उसके सामने कुटज का एक लहलहाता हुआ पौधा खड़ा है। यह अपने नाम तथा रूप दोनों से अपनी हार न मानने वाली जीवन-शक्ति का सशक्त परिचय दे रहा है। इसके नाम में भी दम है और रूप में भी। यही इसके आकर्षण का रहस्य है। इसका यह नाम हजारों वर्ष से निरंतर चला आ रहा है। कितने ही नाम इस दुनिया में गुमनामी में खो गए, पर कुटज का नाम बना रहा है। संस्कृत की फैलती शब्दराशि में कुटज नाम लंबे समय से डटा हुआ है। यह बात तो नाम की हुई। इसके रूप की बात भी निराली है। लेखक इसकी मादक शोभा पर बलिहारी जाता है।

इसकी शोभा को क्रुद्ध यमराज भी कम नहीं कर पाता है। भीषण गर्मी, जब सारी धरती लू के कारण धधकती है, तब भी यह कुटज मुझझाने की बजाय हरा-भरा बना रहता है। इस पर गर्मी की मार को कोई असर नहीं पड़ता। बुरे स्वभाव के लोगों के कठोर चित्त से भी कठोर पत्थरों के नीचे रुके हुए अनजान जलस्रोत से अपने लिए रस खींचकर ले आता है और सरस बना रहता है। इसे देखकर हमें जलन होती है कि यह इस सूखे वन-क्षेत्र में भी कैसे इतना मस्त बना रहता है। लेखक इसकी जीवनी शक्ति की अपारतता को देखकर हैरान रह जाता है। प्राण ही प्राण को प्रसन्न करता है और इसकी जीवनी-शक्ति ही हमारी जीवनी शक्ति को प्रेरणा प्रदान करती है।

विशेष :

  1. लेखक कुटज के नाम, रूप और जीवन शक्ति की जमकर प्रशंसा करता है।
  2. तत्सम शब्दावली का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है।

7. दुरंत जीवन-शक्ति है। कठिन उपदेश है। जीना भी एक कला है लेकिन कला ही नहीं, तपस्या है। जियो तो प्राण ढाल दो जिंदगी में, मन ढाल दो जीवनरस के उपकरणों में! ठीक है लेकिन क्यों ? क्या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है ? सारा संसार अपने मतलब के लिए ही तो जी रहा है। याझ्ञवल्क्य बहुत बड़े ब्रह्यवादी ऋषि थे। उन्होंने अपनी पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिया नहीं होती-सब अपने मतलब के लिए प्रिय होते हैं-‘आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति!’ विचित्र नहीं है यह तर्क ? संसार में जहाँ कहीं प्रेम है, सब मतलब के लिए।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हिंदी के प्रसिद्ध निबंधकार हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कुटज के रूप, नाम और स्वभाव से अत्यधिक प्रभावित है। वे इसे एक प्रेरक वृक्ष के रूप में देखते हैं।

व्याख्या : कुटज में प्रबल जींवन-शक्ति के दर्शन होते हैं। कुटज को देखकर पता चलता है कि जीवन कैसे जिया जाता है। जीना एक कला है। इस कला को हर व्यक्ति नहीं जानता। यह केवल एक कला ही नहीं है बल्कि एक प्रकार की तपस्या है। कुटज हमें बताता है कि इस प्रकार जिओ कि इसमें प्राण ढल जाए, मन ढल जाए। जीवन रसमय हो जाए। यह सब बात तो ठीक है, पर भला

ऐसा वयों है ? क्या हमें केवल जीने के लिए ही जीना है ? देखने में तो ऐसा ही लगता है क्योंकि यह संसार स्वार्थी है और कंवन अपने मतलब के लिए जी रहा है। याज्ञलल्क्य एक बड़े ही ज्ञानी ऋषि थे। उन्होंने बड़े ढंग से पत्नी को यह समझाने की कोशिश की कि इस संसार में सब कुछ स्वार्थ हेतु हो रहा है। सारे संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। पुत्र, पत्नी सब अपने मतलब के कारण ही त्रेय लगते हैं। उनका कहना था कि अपने काम सिद्धि के लिए ही सब संबंध प्रिय लगते हैं। क्या यह तर्क कुछ विचित्र लगता है ? ससार का प्रेम केवल मतलब के लिए है। यह सारी बात इसी को सिद्ध करती है कि जीना केवल जीने के लिए है। कुटज को देखकर लगता है कि जीवन एक कला है। कला के साथ एक तपस्या भी है।

विशेष :

  1. लेखक जीवन जीने के प्रति दृष्टिकोण के विभिन्न पक्षों का विवेचन करता जान पड़ता है।
  2. विवेचनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।

8. याज्ञवल्क्य ने जो बात धक्कामार ढंग से कह दी थी वह अंतिम नहीं थी। वे ‘आत्मनः’ का अर्थ कुछ और बड़ा करना चाहते थे। व्यक्ति की ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, वह व्यापक है। अपने में सब और सबमें आप-इस प्रकार की एक समष्टि-बुद्धि जब तक नहीं आती तब तक पूर्ण सुख का आनंद भी नहीं मिलता। अपने आपको दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर जब तक ‘सर्व’ के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता तब तक ‘स्वार्थ’ खंड-सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय-कृपण-बना देता है। कार्पण्य दोष से जिसका स्वभाव उपहत हो गया है, उसकी दृष्टि म्लान हो जाती है। वह स्पष्ट नहीं देख पाता। वह स्वार्थ भी नहीं समझ पाता, परमार्थ तो दूर की बात है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कुटज के जीवन को परापकार का पर्याय मानता है। वह याझबल्क्य के कथन पर अपना स्पष्टीकरण देता है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि ऋषि याज्ञवल्क्य ने अपनी बात धक्कामार ढंग से कही थी कि सांसारिक संबंध मतलब के कारण हैं। उनकी बात को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। ‘आत्मन:’ शब्द को व्यापक अर्थ में लेना होगा। आत्मा व्यक्ति तक सीमित नहीं रहती। वह परमात्मा का रूप (अंश) है अतः वह व्यापक है। यह आत्मा सभी में मौजूद है। हमारे अंदर समष्टि (समाज) दृष्टि का आना जरूरी है। केवल अपने बारे में ही, समस्त लोगों के बारे में सोचना होगा।

तभी हमें पूरे सुख का आनंद मिल सकेगा। हमें अपने आपको पूरी तरह निचोड़कर दूसरों के लिए (सभी के लिए) न्यौछावर करना होगा। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो स्वार्थ बना रहेगा, चाहे एक खंड के रूप में ही रहे। यह स्वार्थ भावना मोह को बढ़ावा देती है, मन में लालसा उत्पन्न करती है। इसी के कारण व्यक्ति दूसरों की दया का पात्र बन जाता है।

उसकी हालत दयनीय कंजूस की-सी हो जाती है। इस कंजूसी के कारण जिसका स्वभाव चोट खाया हो जाता है, उसकी दृष्टि तो धुंधली पड़ जाती है। इसी कारण वह साफ-साफ देख नहीं पाता। उसे तो स्वार्थ का भी होश नहीं रहता। उसके लिए दूसरों की भलाई की बात तो दूर की चीज है। भाव यह है कि व्यक्ति को अपनी आत्मा का विस्तार करना चाहिए। उसे स्वयं को दूसरों के लिए न्यौछावर कर देना चाहिए।

विशेष :

1. लेखक ने ‘आत्मन’ शब्द को व्यापक अर्थ में लिया है।
2. विवेचनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।

9. कुटज क्या केवल जी रहा है। वह दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अवमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता। आत्मोन्नति हेतु नीलम नहीं धारण करता, अँगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है-काहे वास्ते किस डद्देश्य से ? कोई नहीं जानता। मगर कुछ बड़ी बात है। स्वार्थ के दायरे से बाहर की बात है। भीष्म पितामह की भाँति अवधूत की भाषा में कह रहा है-‘चाहे सुख हो या दुःख, प्रिय हो या अप्रिय’ जो मिल जाए उसे शान के साथ, हृदय से बिल्कुल अपराजित होकर, सोल्लास ग्रहण करो। हार मत मानो।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कुटज में अनेक विशेषताएँ देखता है। कुटज हमें ढंग से जीने का उपदेश देता है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि कुटज अपने ढंग से जीता है। केवल जीने के लिए ही नहीं जीता। वह स्वाभिमानपूर्वक जीता है। वह कभी दूसरों के दरवाजे पर भीख माँगने नहीं जाता। यदि कोई इसके पास आता है तो भी यह उससे डरता नहीं। वह डर के मारे अधमरा नहीं हो जाता। यह निडर है! यह आदर्शवादी भी नहीं है अत: दूसरों को नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता। यह आत्मसम्मानी है अत: दूसरों की चापलूसी नहीं करता। लेखक उन लोगों पर व्यंग्य करता है जो अफसरों के जूते चाटते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरों का बुरा चाहते हैं और इसके लिए ग्रहों की पूजा करते हैं।

अनेक लोग अपनी उन्नति के लिए नीलम आदि मूल्यवान पदार्थ पहनते हैं, उँगलियों में अनेक प्रकार की अँगूठियाँ पहनते हैं, दूसरों के आगे अपनी हीनता प्रकट करते। हैं या नजरें चुराते हैं। कुटज इन सब बातों से ऊपर है। वह तो शान के साथ जीता है। उसके उद्देश्य के बारे में कोई नहीं जानता। मगर कोई बड़ी बात अवश्य है।

कुटज तो किसी विरक्त संन्यासी की भाषा में यह कहता जान पड़ता है-चाहे तुम्हें सुख मिले, या दु:ख मिले अथवा कोई व्यक्ति या बात अच्छी लगे या वुरी लगे-सभी बातों को शान के साथ, पूरे दिल के साथ स्वीकार करो। मन में हार का भाव मत लाओ, सभी को उल्लासपूर्वक ग्रहण करना अच्छा रहता है। जीवन में कभी हार मत मानो, निराशा का भाव मत लाओ। यही कुटज के जीवन की शिक्षा है।

विशेष :

  1. कुटज का जीवन हमें प्रेरणा देता जान पड़ता है।
  2. सम्मानपूर्वक और अपराजित भाव से जीना ही जीना है-यह प्रतिपादित किया गया है।
  3. विवेचनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।

10. दु:ख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी वह है जिसका मन वशं में है, दु:खी वह है जिसका मन परवश है। परवश होने का अर्थ है खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता, हाँ-हजूरी। जिसका मन अपने वश में नहीं है वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है, अपने को छिपाने के लिए मिथ्या आडंबर रचता है, दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। कुटज इन सब मिथ्याचारों से मुक्त है। वह वशी है। वह वैरागी है। राजा जनक की तरह संसार में रहकर, संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है। जनक की ही भाँति वह घोषणा करता है-‘मैं स्वार्थ के लिए अपने मन को सदा दूसरे के मन में घुसाता नहीं फिरता, इसलिए मैं मन को जीत सका हूँ, उसे वश में कर सका हूँ।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। कुटज का जीवन लेखक को प्रेरणादायक प्रतीत होता है।

व्याख्या : लेखक का कहना है कि दु:ख और सुख तो मन के दो भाव हैं। आप सुखी भी रह सकते हैं और दुःखी भी। जिस व्यक्ति का मन उसके वश में है, वह व्यक्ति सुखी है। जिसका मन दूसरों के वश में रहता है, वह दु:खी रहता है। लेखक ‘परवश’ को स्पष्ट करते हुए बताता है कि ‘परवश’ होने से तात्पर्य है-दूसरों की खुशामद करना, स्वयं को हीन समझना, चापलूसी करना, दूसरों की हाँ में हाँ मिलाना। जिस व्यक्ति का मन उसके अपने वश में नहीं रहता वही दूसरों के मन को बदलने के चक्कर में रहता है। वह अपना असली चेहरा छिपाने के लिए तरह-तरह के ढोंग रचता है, दूसरों को अपने जाल में फँसाने का उपक्रम करता रहता है।

कुटज इस प्रकार का नहीं है। वह इन गलत कामों से सर्वथा अलग रहता है। वह तो केवल अपने वश में रहता है। वैसे वह त्यागी प्रवृत्ति का है। उसकी दशा तो राजा जनक की तरह है अर्थात् वह इसी संसार में रहता है और सभी सुखों का उपभोग करता है फिर भी इनसे मुक्त रहता है अर्थात् भोग और त्याग में संतुलन बनाकर चलता है। कुटज स्वार्थी कतई नहीं है। वह दूसरों के मन में अपने मन को नहीं घुसाता। उसने अपने मन को जीत रखा है। अतः उसका मन उसी के वश में है। अतः वह सुखी है। मन पर काबू रखने वाला व्यक्ति सदा सुखी रहता है।

विशेष :

  1. लेखक सुख की दुःख और तात्विक समीक्षा कर अपने कथ्य को स्पष्ट करने में सफल है।
  2. विवेचनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।

11. ये जो ठिगने-से लेकिन शानदार दरख्त गरमी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सह कर भी जी रहे हैं, इन्हें क्या कहूँ ? सिर्फ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी रहे हैं। बेहया हैं क्या ? या मस्तमौला हैं ? कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफी गहरी, पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्नर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित विचारोत्तेजक निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज के स्वरूप, मस्तमौलापन एवं उसकी सहनशीलता को दर्शाता है।

व्याख्या : लेखक हिमालय को देखता है तो उसे लगता है कि सारे हिमालय को देखकर किसी के मन को लगा होगा कि यह तो समाधिस्थ महादेव (शिव) की मूर्ति है। उसी महादेव की जटाएँ फैलकर हिमालय के निचले भाग (शिवालिक पर्वतमाला) का प्रतिनिधित्व कर रही होंगी। इस पर्वत पर कहीं कोई हरियाली दिखाई नहीं देती, हाँ कहीं-कहीं बिना नाम के झाड़-झंखाड़ और बेशर्म से खड़े पेड़ अवश्य दिखाई दे जाते हैं। यहाँ तो घास तक सूख गई प्रतीत होती है। चारों ओर काली-काली चट्टानें हैं और बीच-बीच में सूखी लाल रेत है, जिससे शुष्कता का पता चलता है।

इसमें रस तो कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता। यहाँ कुछ छोटे कद के पेड़ अवश्य हैं जो गर्मी की भयंकरता को झेल रहे हैं और भूखे-प्यासे रहकर भी जी रहे हैं। इन्हें भला क्या कहना चाहिए? ये केवल जीवित ही नहीं हैं बल्कि प्रसन्न हैं। इन्हें बेहया या मस्तमौला ही कहा जा सकता है। लेखक व्यंग्य करता है कि कभी-कभी कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं जो ऊपर से तो बेशर्म दिखाई देते हैं, पर उनकी पहुँच बहुत दूर तक होती है। वे बड़े गहरे पैठे होते हैं। इनमें इतनी जिजीविषा होती है कि ये पत्थर की छाती को भी फोड़कर गहरी खाई के बीच से भी अपना भोजन पा लेते हैं।

विशेष :

  1. लेखक हिमालय की शिन्नालिक पर्वतमाला के शुष्क वातावरण का यथार्थ अंकन करने में सफल है।
  2. कुटज की जिज़विषा का वर्णन हुआ है।
  3. रोचक शैली का अनुसरण किया गया है।

12. बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कृपित यमराज के दारूण निःश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है और मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरि-कांतार में भी ऐसा मस्त बना है कि ईष्या होती है। कितनी कठिन जीवनी-शक्ति है। प्राण ही प्राण को पुलकित करता है, जीवनी-शक्ति ही जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कवियों द्वारा उपेक्षित कुटज वृक्ष का गुणगान करता है।

व्याख्या – लेखक बताता है कि उसके सामने कुटज का एक लहलहाता हुआ पौधा खड़ा है। यह अपने नाम तथा रूप दोनों से अपनी हार न मानने वाली जीवन-शक्ति का सशक्त परिचय दे रहा है। लेखक इसकी मादक शोभा पर बलिहारी जाता है। इसकी शोभा को क्रुद्ध यमराज भी कम नहीं कर पाता है। भीषण गर्मी में जब सारी धरती लू के कारण धधकती है, तब भी यह कुटज मुरझाने की बजाय हरा-भरा बना रहता है। इस पर गर्मी की मार का कोई असर नहीं पड़ता।

बुरे स्वभाव के लोगों के कठोर चित्त से भी कठोर पत्थरों के नीचे रुके हुए अनजान जलस्रोत से अपने लिए रस खींचकर ले आता है और सरस बना रहता है। इसे देखकर हमें जलन होती है कि यह इस सूखे वन-क्षेत्र में भी कैसे इतना मस्त बना रहत्त है। लेखक इसकी जीवनी-शक्ति की अपारता को देखकर हैरान रह जाता है। प्राण ही प्राण को प्रसन्न करता है और इसकी जीवनी-शक्ति ही हमारी जीवनी-शक्ति को प्रेरणा प्रदान करती है।

विशेष :

  1. लेखक कुटज के नाम, रूप और जीवनी-शक्ति की जमकर प्रशंसा करता है।
  2. तत्सम शब्दावली का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है।

13. जो कालिदास के काम आया हो उसे ज्यादा इज्जत मिलनी चाहिए। मिली कम है। पर इज्जत तो नसीब की बात है। रहीम को मैं बड़े आदर के साथ स्मरण करता हूँ। दरियादिल आदमी थे, जो पाया सो लुटाया। लेकिन दुनिया है कि मतलब से मतलब है। रस चूस लेती है, छिलका और गुठली फेंक देती है। सुना है रस चूस लेने के बाद रहीम को भी फेंक दिया गया था।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक लोगों द्वारा कुटज को महत्त न दिए जाने का बुरा मानता है।

व्याख्या : कुटज के फूल बड़े सुंदर होते हैं। इन्हें बुरा नहीं कहा जा सकता। ये फूल कभी कालिदास के काम आए थे। उसके यक्ष ने इन्हीं फूलों से मेघ की अभ्यर्थना की थी। इसी कारण से भी उन्हें सम्मान मिलना ही चाहिए था, पर वह मिला नहीं। सम्मान मिलना तो भाग्य की बात है। शायद कुटज के भाग्य में सम्मान मिलना न हो। लेखक कवि रहीम का बड़ा आदर करता है। वे खुले दिल के आदमी थो। उन्होंने लोगों पर खूब लुटाया, पर यह दुनिया बड़ी स्वार्थी है।

यह बस अपना मतलब निकालती है, रस चूस लेती है और शेष को व्यर्थ समझकर फेंक देती है। रहीम का काव्य-रस चूसने के बाद उन्हें भी अनादर कर निकाल दिया गया था। एक बादशाह ने आदर दिया और दूसरे ने फेंक दिया। ऐसा ही होता रहता है पर इससे रहीम का मूल्य नहीं घट जाता। वे तो वैसे ही फक्कड़-मस्त बने रहे। लोगों का स्वभाव ही ऐसा होता है। कभी-कभी उनके ऊपर वितृष्णा का ऐसा भाव सवार हो जाता है कि भूल कर बैठते हैं।

विशेष :

  1. कुटज के प्रति कवियों की उपेक्षा लेखक को खलती प्रतीत होती है।
  2. उर्दू शब्दों का भरपूर प्रयोग है-दरियादिल, कद्रदान, बेरुखी आदि।

14. ये जो ठिगने से लेकिन शानदार दरख्त गरमी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जी रहे हैं, इन्हें क्या कहूँ ? सिर्फ़ जी ही नहीं रहे हैं, हैंस भी रहे हैं। बेहया हैं क्या ? या मस्तमौला हैं ? कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफ़ी गहरी, पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस प्रकार अतल गह्बर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित विचारात्मक निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। लेखक कुटज की जीवनी शक्ति को देखकर हैरान होता है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि शिवालिक पर्वत श्रृंखला सूखी और नीरस है। यहाँ पानी का अभाव रहता है। फिर भी यहाँ जो ठिगने से कुटज के वृक्ष शान से खड़े और जीते हुए दिखाई देते हैं। ये कुटज के वृक्ष भयंकर गर्मी की मार झेलते रहते हैं। ये भूख प्यास की चोट को भी सहते हैं। यहाँ इन्हें भोजन तक प्राप्त नहीं होता। फिर भी जीते हैं। इनकी जिजीविषा की प्रशंसा करनी पड़ेगी।

ये केवल जीते हीं नहीं, हँसते भी रहते हैं। इन्हें बेहया (बेशर्म) भी नहीं कहा जा सकता। ये तो मस्तमौला हैं। कुछ लोग ऊपर से बेशर्म प्रतीत होते हैं, पर उनकी जड़ें गहरी होती हैं। कुटज के वृक्षों की जड़ें भी गहराई तक गई होती हैं। ये तो पत्थरों की छाती को चीरकर भी अपना भोजन खींच निकाल लेते हैं। गहरी खाई से भी अपना भोग्य खींच लेते हैं। इससे उनकी जिजीविषा का पता चलता है।

विशेष :

  1. कुटज के मस्तमौला स्वभाव का वर्णन किया गया है।
  2. वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है।

15. शिवालिक की सूखी नीरस पहाड़ियों पर मुसकुराते हूए ये वृक्ष द्वंद्वातीत हैं, अलमस्त हैं। मैं किसी का नाम नहीं जानता, कुल नहीं जानता, शील नहीं जानता पर लगता है, ये जैसे मुझे अनादि काल से जानते हैं। इन्हीं में एक छोटा-सा, बहुत ही ठिगना पेड़ है, पत्ते चौड़े भी हैं, बड़े भी हैं। फूलों से तो ऐसा लदा हुआ है कि कुछ पूछिए नहीं। अजीब सी अदा है, मुसकुराता जान पड़ता है। लगता है, पूछ रहा है कि क्या तुम मुझे भी नहीं पहचानते ?

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित विचारात्मक निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। कुटज हिमालय पर्वत की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला एक जंगली फूल है। कुटज में न विशेष सौंदर्य होता है, न सुगंध फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए संदेश पाया है।

व्याख्या : कुटज के ठिगने वृक्ष हिमालय की शिवालिक की सूखी तथा नीरस पहाड़ियों पर हँसते-मुस्कराते दिखाई देते हैं। इन्हें देखकर यह लगता है कि इनके मन में कोई द्वंद्ध नहीं हैं अर्थात् ये उलझनों से मुक्त हैं। ये तो मस्ती भरा जीवन जीते हैं। लेखक इन वृक्षों के नाम, कुल-शील से सर्वथा अपरिचित है, पर उसे ऐसा लगता है कि जैसे ये मुझे अनादिकाल से जानते हैं अर्थात् परिचित से प्रतीत होते हैं। इन्हीं अनाम वृक्षों में एक है-कुटज। यह बहुत छोटा-सा, ठिगना वृक्ष है। इसके पत्े चौड़े और बड़े होते हैं। यह वृक्ष सदा फूलों से लदा रहता है अर्थात् फूलों की भरमार रहती है। लेखक को यह वृक्ष हँसता-मुस्कराता सा जान पड़ता है। लगता है कि मुझसे कुछ पूछ रहा हो।

विशेष :

  1. लेखक ने कुटज का सटीक परिचय दिया है।
  2. वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है।

16. नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सेंक्शन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानेव की चित्त-गंगा में स्नात।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा विरचित विचारात्मक निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। यहाँ लेखक कुटज के संदर्भ में नाम की आवश्यकता पर प्रकाश डाल रहा है।

व्याख्या : लेखक को इस वृक्ष का नाम यकायक याद नहीं आता। वह नाम के बारे में सोचने लगता है कि नाम की आवश्यकता ही क्या है ? नाम इसलिए बड़ा नहीं होता कि वह नाम है वरन् वह इसलिए बड़ा होता है कि नाम से उसे समाज की स्वीकृति मिली होती है। नाम से ही समाज में व्यक्ति की पहचान होती है। रूप का संबंध तो व्यक्ति तक सीमित रहता है, पर नाम का संबंध पूरे समाज के साथ होता है। नाम पर समाज की मुहर लगी होती है।

इसी तथ्य को आजकल समाज में ‘सोशल सेंक्शन’ अर्थात् सामाजिक स्वीकृति कहते हैं। वास्तव में समाज ही व्यक्ति या वस्तु को नाम देकर स्वीकृति प्रदान करता है। लेखक भी इस ठिगने-से वृक्ष का नाम याद करने का प्रयास करता है। वह इस वृक्ष का ऐसा नाम चाहता है जिसे समाज ने स्वीकार कर लिया हो और इतिहास से प्रमाणित हो और जो समाज के सभी लोगों के चित्त में समाया हुआ हो।

विशेष :

  1. लेखक ने नाम के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
  2. अंग्रेजी शब्द ‘Social section’ का प्रयोग हुआ है।

17. रूप की तो बात ही क्या है! बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलस्योत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है। और मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरि कांतार में भी ऐसा मस्त बना हुआ है कि ईष्य्या होती है। कितनी कठिन जीवनी-शक्ति है! प्राण ही प्राण को पुलकित करता है, जीवनी-शक्ति ही जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। यहाँ लेखक रूप की शोभा पर प्रकाश डाल रहा है।

व्याख्या : लेखक कुटज के रूप पर बलिहारी जाता है। उसे कुटज का रूप मादक प्रतीत होता है। यद्यपि उसके चारों ओर तेज लू के झोंके आते रहते हैं, इसके बावजूद यह हरा-भरा बना रहता है। वह अपना भोग्य वसूलने की कला में भी निपुण है। वह तो पत्थर की कठोर शिलाओं में रुके जलस्रोत से अपने लिए रस खींच लेता है और सदा सरस बना रहता है। यह शिवालिक पर्वत शृंखला के सूखे-नीरस वातावरण में मस्ती भरा जीवन जीता है। इसकी जिजीविषा को देखकर लेखक को आश्चर्य होता है। पता नहीं इसमें इतनी कठोर जीवनी-शक्ति कहाँ से आती है, जिसके बलबूते पर वह जिंदा बना रहता है। प्राण ही प्राण को हर्षित करता है और जीवनी-शक्ति ही इसे जीने की प्रेरणा देती है।

विशेष :

  1. लेखक कुटज के रूप और जीने की कला से बहुत प्रभावित है।
  2. तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antral Chapter 1 Summary – Surdas Ki Jhopdi

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सूरदास की झोंपड़ी Summary – Class 12 Hindi Antral Chapter 1 Summary

सूरदास की झोंपड़ी – प्रेमचंद – कवि परिचय

प्रश्न :
प्रेमचंद की साहित्यिक तथा भाषागत विशेषताओं का परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन परिचय : प्रसिद्ध कथाकार मुंशी प्रेमचन्द का जन्म सन् 1880 ई. में वाराणसी के समीप लमही नामक गाँव में हुआ था। उनका मूल नाम धनपतराय था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी में हुई। उन्होंने क्वींस कॉलेज वाराणसी से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1896 ई. में उनके पिता की मूत्यु हो गई, अत: उन्हें एक प्राइमरी स्कूल का अध्यापन कार्य करने के लिए विवश होना पड़ा। बाद में वे सब डिप्टी इंस्पेक्टर तक पहुँच गए। उन्होंने बी. ए, की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। सन् 1920 में महात्मा गाँधी के प्रभाव में आकर उन्होंने सरकारी नौकरी त्याग दी। इसके पश्चात् वे स्वतंत्र लेखन करते रहे। ‘प्रेमचंद’ नाम उन्होंने लेखन के लिए अपनाया और वही प्रसिद्ध हो गया। प्रारंभ में वह उर्दू में लिखते थे। कुछ वर्षों के बाद उन्होंने अपनी उर्दू रचनाएँ हिन्दी में अनूदित की। आगे चलकर उन्होंने मूल रूप से हिन्दी में ही लिखना शुरू कर दिया। उन्होंने अपना एक छापाखाना खोला और एक मासिक पत्रिका ‘हंस’ का प्रकाशन किया। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने भारत में प्रगतिशील-साहित्य के लेखन और प्रकाशन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रेमचंद साहित्य साधना में लगे रहे। सन् 1936 में उनका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक विशेषताएँ : प्रेमचंद के साहित्य का मुख्य स्वर राष्ट्रीय जागरण और समाज-सुधार है। शहर के साथ-साथ भारतीय गाँवों और उच्च वर्ग के साथ-साथ जन साधारण को अपने साहित्य का केन्द्र बनाने वालों में प्रेमचंद बेजोड़ हैं। उन्होंने भारतीय जीवन में व्याप्त कुरीतियों, शोषण, निर्धनता, नारी-दुर्दशा, वर्ण-व्यवस्था की विसंगति आदि विषयों का प्रभावशाली एवं जीवंत चित्रण किया है। भाषागत विशेषताएँ : प्रेमचंद की भाषा बड़ी सजीव, मुहावरेदार और बोल-चाल के निकट है। उन्होंने अपने पात्रों की जाति, योग्यता और देश-काल आदि को ध्यान में रखकर उपयुक्त भाषा का प्रयोग किया है। हिंदी भाषा को लोकप्रिय बनाने में उनका बहुत योगदान है।

कृतियाँ (रचनाएँ) : प्रेमचंद द्वारा रचित निर्मला, गबन, प्रेमाश्रय, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प, प्रतिज्ञा, वरदान, गोदान आदि उपन्यास हिन्दी की अमूल्य निधियाँ हैं। ‘सेवा-सदन’ में वेश्यावृत्ति की समस्या का समाधान किया गया है। निर्मला में अनमेल विवाह के दुष्परिणाम का जीता-जागता चित्र है। ‘प्रतिज्ञा’ में विधवा जीवन की विषम समस्याओं का चित्रण है। ‘रंगभूमि’. प्रेमाश्रय, गोदान और कायाकल्प में समाज के दो विशाल वर्ग-शोषित और शोषण-वर्ग का ही ददययग्राही चित्र है।

उपन्यासों के अतिरिक्त लगभग तीन सौ कहानियाँ भी लिखीं। इनकी पहली कहानी संसार का सबसे अनमोल रत्न थी। प्रेमद्वादशी, सप्तसुमन, प्रेमपचीसी, प्रेमपूर्णिमा आदि कहानियों के संग्रह हैं।
ये सभी कहानियाँ मानसरोवर के आठ भागों में संकलित हैं।

पाठ का संक्षिप्त परिचय –

‘सूरदास की झोंपड़ी’ प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का एक अंश है। एक अंधा व्यक्ति जितना बेबस और लाचार जीवन जीने को अभिशप्त होता है, सूरदास का चरित्र इसके ठीक विपरीत है। सूरदास अपनी परिस्थितियों से जितना दुःखी व आहत है उससे कहीं अधिक आहत है भैरों और जगधर द्वारा किए जा रहे अपमान से, उनकी ईर्ष्या से।

भैरों की पत्नी सुभागी भैरों की मार के डर से सूरदास की झोंपड़ी में छिप जाती है और सुभागी को मारने भैरों सूरदास की झोंपड़ी में घुस जाता है, किंतु सूरदास के हस्तक्षेप से वह उसे मार नहीं पाता। इस घटना को लेकर पूरे मुहल्ले में सूरदास की बदनामी होती है। जगधर और भैरों तथा अन्य लोग उसके चरित्र पर प्रश्न उठाते हैं। इस घटना से उसे इतनी आत्मग्लानि हुई कि वह फूट-फूटकर रोया। भैरों को उकसाने, भड़काने में जगधर की प्रमुख भूमिका रही। उसे ईप्य्या इस बात की थी कि सूरदास चैन से रहता है, खाता-पीता है, उसके चेहरे पर निराशा नहीं झलकती और जगधर को खाने-कमाने के लाले पड़े हुए हैं।

भैरों की बहुरिया सुभागी पर जगधर नजर भी रखता था। सूरदास और सुभागी के संबंधों की चर्चा पूरे मुहल्ले में इतनी हुई कि भैरों अपने अपमान और बदनामी का बदला लेने की सोच बैठा। इतनी गाँठ कर ली कि जब तक सूरे को नहीं रूलाएगा, तड़पाएगा तब तक उसे चैन नहीं मिलेगा। उसे लगा समाज में इतनी बदनामी तो हो ही गई। भोज-भात बिरादरी को कहाँ से देगा? भैरों सूरदास पर नजर रखने लगा। अंततः उसके रुपयों की थैली उठा ले गया और सूरदास की झोंपड़ी में आग लगा दी। सूरदास के चरित्र की विशेषता यह है कि झोंपड़ी के जला दिए जाने के बावजूद वह किसी से प्रतिरोध लेने में विश्वास नहीं करता बल्कि पुनर्निर्माण में विश्वास करता है और इसीलिए वह मिठुआ के सवाल कि ‘जो कोई सौ लाख बार झोंपड़ी को आग लगा दे तो ‘ जवाब में दृढ़ता के साथ उत्तर देता है-“तो हम भी सौ लाख बार बनाएँगे।”

Surdas Ki Jhopdi Class 12 Hindi Summary

‘रंगभूमि’ उपन्यास का नायक अंधा सूरदास है। वह एक झोपड़ी में रहता था। एक रात दो बजे उसकी झोंपड़ी में आग लग गई। यह आग भैरों ने लगाई थी। भैरों का अपनी पत्नी सुभागी से झगड़ा हो गया था और वह सूरदास की झोंपड़ी में रह रही थी। भैरों ने इसी का बदला लिया था। यद्यपि प्रकट रूप से उसका नाम नहीं आया था, पर भैरों ने जगधर के सामने स्वयं स्वीकार किया था -“दिल की आग तो ठंडी हो गई।”

आग लगने पर सहसा दौड़ता सूरदास आया और चुपचाप ज्वाला के प्रकाश में खड़ा हो गया। बजरंगी ने आग लगने का कारण जानना चाहा। जगधर ने पूछा-‘ अरे सूरे, क्या आज चूल्हा ठंडा नहीं किया था ?’ इसका जवाब नायकराम ने दिया-‘ चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता।’ जगधर को लगता है कि आग लगाने का शक उस पर किया जा रहा है अतः वह अपनी सफाई देकर कहता है कि उसे कुछ मालूम नहीं है।

थोड़ी देर में आग बुझ गई। लोग इस दुर्घटना पर आलोचनाएँ करते हुए विदा हो गए। सन्नाटा छा गया किंतु सूरदास वहीं पर बैठा हुआ़ा था। उसे झोपड़ी के जल जाने का दु:ख न था, दुःख था तो उस पोटली का था, जिसमें उसकी उम्र भर की कमाई थी। यही उसकी योजनाओं का आधार थी। उसने सोच कि पोटली के साथ रुपए भी जल गए होंगे। पूरे पाँच सौ रुपए थे। वह इन पैसों से पितरों को पिंड देना चाहता था, मिठुआ की शादी कर घर में बहू लाना चाहता था। सूरदास अटकल से झोंपड़े में घुसा, पर अभी राख गरम थी। उसने उसी जगह की राख को टटोलना शुरू किया जहाँ पोटली रखी थी। उसे तवा मिला, लोटा मिला, पर पोटली न मिली। उसे अपनी बेबसी पर बहुत दु:ख हुआ।

जगधर भैरों के पास गया और उसे कहा कि सब लोग तुम पर शक कर रहे हैं। नायकराम ने तो धमकी तक दे डाली है। इस पर भैरों कहता है कि उसे ऐसी धमकियों की कोई परवाह नहीं है। भैरों यह मान जाता है कि आग उसी ने लगाई है। उसने जगधर को वह थैली भी दिखाई जिसे वह सूरदास की झोंपड़ी से चुरा लाया था। उसमें पाँच सौ रुपए से ज्यादा ही थे। उसने यह भी कहा कि ‘यह सुभागी को बहका ले जाने का जरीबाना (जुर्माना) है।’ जगधर ने उसे रुपए लौटा देने की सलाह दी। यद्यपि उसकी सलाह में ईर्ष्या भावना भी थी। यदि भैरों आधे रुपये उसे दे देता तो उसे तसल्ली हो जाती। जगधर की छाती पर ईष्ष्या रूपी साँप लोट रहा था। वह भैरों के घर से लौटकर सूरदास के पास जा पहुँचा।

सूरदास को राख इधर-उधर करते देख जगधर ने पूछा-अरे सूरे क्या दूँढते हो? सूरदास थैली की बात छिपा गया और बोला- ‘लोटा-परात तवा देख रहा था।’ जगधर ने पूछा- ‘और वह थैली किसकी है, जो भैरों के पास है।’ यह सुनकर सूरदास चौंक गया। वह समझ गया कि भैरों ने आग लगाने से पहले वह थैली निकाल ली होगी, पर वह जगधर के सामने अपनी जमा-पूँजी का रहस्य प्रकट नहीं करना चाहता था। अतः बोला-” मेरे पास थैली-वैली कहाँ? होगी किसी की। थैली होती, तो भीख माँगता ?”

इतने में सुभागी वहाँ आ पहुँची। वह रात भर मंदिर के पिछवाड़े अमरूद के बाग में छिपी बैठी थी। वह जानती थी कि यह आग उसके पति भैरों ने ही लगाई है। भैरों ने उस पर कलंक लगाया था। उसी के कारण सूरदास का सर्वनाश हो गया। उसने प्रण कर लिया कि वह भैरों के घर न जाएगी। मेहनत-मजदूरी करके जीवन का निर्वाह कर लेगी। जगधर ने उसे उसके पति की करतूत बताई। सुभागी ने पूछा कि क्या उसने भैरों के पास वह थैली देखी है? जगधर ने हाँ में उत्तर दिया तो सुभागी ने सूरदास से जानना चाहा कि क्या वे रुपए उसके ही थे। सूरदास सुभागी के सामने भी रुपए अपने होने से इंकार करता है। सुभागी सूरदास के चेहरे के भावों से समझ गई कि रुपयों वाली थैली सूरदास की है। वह बोली-‘अब मैं भैरों के घर ही रहूँगी क्योंकि वहीं रहकर वह थैली मेरे हाथ लग पाएगी। जब तक मैं सूरदास के रुपए न दिला दूँगी, तक तक मुझे चैन नहीं आएगा।”

सूरदास मन में सोच रहा था कि पिछले जन्म में मैंने भैरों के रुपये चुराए होंगे, उसी का यह दंड मिला है, ये रुपये तो मैंने ही कमाए थे, क्या फिर नहीं कमा सकता। मगर इस बेचारी सुभागी का क्या होगा? भैरों उसे घर में कभी न रखेगा। वह कहाँ मारी-मारी फिरेगी? यह सब सोचकर वह रोने लगा। सुभागी जगधर के साथ भैरों के घर की ओर चली जा रही थी। सूरदास अकेला रोता रहा। तभी उसे एक आवाज सुनाई दी-तुम खेल में रोते हो। यह बात घीसू ने मिठुआ को कही थी। इस बात को सुनकर सूरदास को कुछ ज्ञान हुआ-मैं तो खेल में रोता हूँ। कितनी बुरी बात है। सच्चे खिलाड़ी कभी नहीं रोते, धक्के खाते हैं, बाजी हारते हैं, पर मैदान में डटे रहते हैं। यह सोचकर सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा। मिठुआ ने आकर पूछा-अब हम कहाँ रहेंगे? सूरदास ने कहा कि हम दूसरा घर बनाएँगे। हम हर बार नया घर बनाते जाएँगे-सौ लाख बार।

शब्दार्थ एवं टिप्पणी –

अकस्मात – अचानक, प्रतिबिंब – परछाई, उपचेतना – नींद में जागते रहने का अहसास, अग्निदाह – आग की लपटें, आग का दहन, चिताग्नि – चिता में लगी अग्न, खुटाई – खोट, तस्कीन – तसल्ली, दिलासा, भूबल – ऊपर राख नीचे आग, अदावत – दुश्मनी, ज़रीबाना – ज़ुर्माना, दण्ड, नाहक – बेमतलब, अकारण, रुपयों की गर्मी – धन का घमंड, बल्लम टेरों लुटेरों, गुंडे-बदमाश, मसक्कत – मेहनत, परिश्रम, छाती पर साँप लोटना – ईष्य्या करना, टेनी मारना – तौल सही नहीं रखना, बाट खोटे रखना – कम तौलना, ईमान गवाना – बेईमानी करना,

गुनाह बेलज्जत नहीं रहना – बिना किसी लाभ के गुनाह नहीं करना, झिझकी – संकोच, झाँसा देना – भ्रमित करना, पेट की थाह लेना – अंदर की बात जानना, ईमान बेचना – विवशता के कारण झूठा या गलत आचरण करना, गोते खाना – इधर-उधर डूबना उतरना, विजय गर्व की तरंग – विजय और खुशी की उमंग में, उद्दिष्ट – निश्चित, निर्धारित, नैराश्यपूर्ण – निराशाजनक, सत्यानाश – सब कुछ बर्बाद, संचित – जमा किया हुआ, सुभा – शक, संदेह, उत्सुक – जानने को इच्छुक, खसम – पति, असफल – सफल न होना, भस्म – राख।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antral Chapter 2 Summary – Aarohan

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आरोहण Summary – Class 12 Hindi Antral Chapter 2 Summary

आरोहण – संजीव – कवि परिचय

प्रश्न :
संजीव के जन्म एवं रचनाओं का परिचय दीजिए।
उत्तर :
संजीव का जन्म 1947 ई. में बांगरकलां, जिला सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। उन्होंने बी.एस.सी. और ए, आई. सी की शिक्षा प्राप्त की। समकालीन कहानी लेखन के क्षेत्र में संजीव एक प्रमुख नाम है। उनकी कहानियाँ अधिकतर ‘हंस’ में प्रकाशित हुई हैं।

उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं-तीस साल का सफरनामा, आप यहाँ हैं, भूमिका और अन्य कहानियाँ, दुनिया की सबसे हसीन औरत, प्रेत-मुक्ति आदि। इन्होंने एक किशोर-उपन्यास ‘रानी की सराय’ तथा कुछ अन्य उपन्यास भी लिखे, जिनमें प्रमुख हैं-किशनगढ़ की अहेरी, सर्कस, सावधान! नीचे आग है, धार आदि। संप्रति मुख्य प्रयोगशाला, सेंट्रल ग्रोथ वर्क्स (सेल); कुल्टी भारतीय इस्पात प्राधिकरण में कार्यरत हैं।

पाठ का संक्षिप्त परिचय –

पर्वतारोहण अब पाठचर्या का अंश बन गया है। यह शिक्षा के पाठ्यक्रमों में स्थान पा चुका है। इसकी पढ़ाई-लिखाई कर लोग जीविकोपार्जन से जुड़ रहे हैं। गर्मियों के दिनों में स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों से लोग पर्वतारोहण के लिए पर्वतीय प्रदेशों की यात्रा करते हैं। प्रायः पर्वतीय प्रदेश के रहने वाले ही इसके लिए कोच का काम करते हैं। वे बेहतर तरीके से गाइड कर सकते हैं क्योंकि पर्वतारोहण उनकी दिनचर्या है। पर्वतारोहण के क्षेत्र में श्रीमती बछेंद्री पाल और संतोष यादव का नाम इतिहास में दर्ज हो चुका है। आरोहण कहानी में लेखक ने पर्वतारोहण की जरूरत और वर्तमान समय में उसकी उपयोगिता को रेखांकित किया है।

पर्वतीय प्रदेश के जीवन संघर्ष तथा प्राकृतिक परिवेश से उनके संबंधों को चित्रित किया है। किस तरह पर्वतीय प्रदेशों में प्राकृतिक आपदा, भूस्खलन, पत्थरों के खिसकने से पूरा जीवन तथा समाज नष्ट हो जाता है आरोहण उसका जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करता है। लेखक का आंचलिकता, प्राकृतिक-परिवेश से आत्मीय लगाव उसे कहीं और जाने से रोकता है। आरोहण पहाड़ी लोगों की दिनचर्या का भाग है, किंतु उन्हें आश्चर्य तब होता है जब यह पता चलता है कि वही आरोहण किसी को नौकरी भी दिला सकता है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने पर्वतीय प्रदेश की बारीकियों, उनके जीवन के सूक्ष्म अनुभवों, परंपराओं, रीति-रिवाजों, उनके संघर्षों, यातनाओं को संजीदगी के साथ रचा है। मैदानी इलाकों की तुलना में पर्वतीय प्रदेशों की जिंदगी कितनी कठिन, जटिल, दु:खद और संघर्षमय होती है उसका विशद विवरण यह कहानी प्रस्तुत करती है। संजीव की भाषा शैली रोचक है। आंचलिक शब्दों, वाक्यों और पर्वतीय प्रदेश की बोलियों के जो शब्द एवं मुहावरे इस पाठ में आए हैं वे कथानक को बाँधने में सफल हुए हैं। पाठक का ध्यान भी उन्हीं प्रसंगों की ओर बार-बार जाता है, जिनमें लोक-भाषा प्रमुख है। कहानी में ये शब्द संरचनात्मक भूमिका में है, इनसे कहानी को पढ़ने-समझने में मदद मिलती है।

Aarohan Class 12 Hindi Summary

रूपसिंह पूरे ग्यारह साल बाद अपने गाँव माही लौटता है। वह शेखर कपूर के साथ देवकुंड के बस स्टॉप पर उतरता है। शेखर कपूर उसके गॉडफादर कपूर साहब का लड़का है और वह आई. ए, एस. (I.A.S.) का ट्रेनी है। अत: उसके साथ एक खास मेहमान है। रूपसिंह को एक अजीब किस्म का लाज, अपनत्व एवं झिझक हो रही थी। वह इतने लंबे अंतराल के बाद गाँव लौट रहा था। ग्यारह साल बाद भी गाँव के लिए कोई पक्की सड़क नहीं बन पाई थी। मेहमान को गाँव पैदल तो नहीं लेकर जा सकता। शेखर अपने बाइनोक्यूलर से पहाड़ों और घाटियों को देखने में रमा हुआ था।अभी वे छह हजार फीट की ऊँचाई पर थे और उन्हें 15 कि.मी. चलकर दस हजार फीट की ऊँचाई पर पहुँचना था।

चाय का गिलास थामते हुए उससे घोड़े के बारे में पूछा तो उसने अपनी भापा में पूछ्छा कि जाना कहाँ है। रूपसिंह ने माही गाँव का नाम लिया जो सरगी से पहले पड़ता है। चाय वाला अपना सिर खुजाने लगा। उसने 9-10 साल के एक लड़के को पुकारा-‘तू माही जाएगा।’ लड़का वहाँ से उठकर चुपचाप चला गया। मगर थोड़ी ही देर में वह दो घोड़ों के साथ चढ़ाई करता दिखाई पड़ा। चायवाले ने ही उसका मेहनताना तय कर दिया था-दो घोड़ों के सौ रुपए। एक घोड़े पर शेखर और दूसरे पर रूप सवार था। महीप शेखर वाले घोड़े के साथ आगे-आगे चल रहा था। चढ़ाइयाँ और ढलानें आती गई। घाटी से किसी अदृश्य नारी कंठ का कोई दर्दीला गीत सुनाई पड़ रहा था –

“ऊँची-नीची डांडियों मा,
हे कुहेड़ी न लगा तू sss ।”
“ऊँचे-नीचे पाँखों मा,
हे घसेरी न जाय तू sss”
ऊँची-नीची डांडियों में,
हे हिलांस न बास तूँ sss”

इस गीत का मतलब रूप ने यह बताया –

कुहरे से सवाल कर रही है कोई घास गढ़ने वाली पहाड़ी लड़की कि-ऐ कुहरे, ऊँची-नीची पहाड़ियों में तुम न लगो जाकर। इस पर कुहरा घास वाली लड़की से कहता है कि ऊँची-नीची पहाड़ियों में तू न जाया कर। इसी तरह हिलांस नदी के परिंदे को भी आगाह करता है कि ऊँची-नीची पहाड़ियों में अपना बसेरा न बनाया करे। यह बताते हुए रूप की आवाज भर्रा गई थी क्योंकि यह एक दर्द की पुकार थी। इसकी समानता वाला गीत है-‘छुप गया कोई रे दूर से पुकार के, दर्द अनूठा हाय दे गया प्यार के।

कुहासे का होना क्या मायने रखता है इसे तो कोई पहाड़ी ही समझ सकता है। एक जगह पर चलते-चलते रूप ठमक गया-” यहीं इसी जगह मैंने धकेला था भूप दादा को।” शेखर ने इसका कारण पूछा तो रूप ने बताया कि मैं देवकुंड घर से भाग आया था। भूप दादा ने यहाँ आते-आते मुझे पकड़ लिया था। उनसे छुटकारा पाने के लिए मैंने उन्हें धक्का दे दिया था। वे सँभल न सके और फिसल गए। मेरा हाथ उनके हाथ में था अत: मैं भी लुढ़कने लगा। एक पेड़ को हमने थाम लिया। एक ओर भूप तो दूसरी ओर मैं। भूप दादा बाहर से सख्त और अंदर से नरम थे। वे मुझे खींचकर ऊपर ले आए। वे मेरे बदन को परख रहे थे। उन्होंने कुछ पत्ते निचोड़कर मेरी खरोंचों पर लगाया। उस दिन उन्होंने जो हाथ छोड़ा कि फिर नहीं पकड़ा। फिर चढ़ाई का जिक्र छिड़ गया।

पर्वतरोहण का प्रसंग छिड़ जाने के बाद रूप और शेखर को अन्य किसी बात की सुध नहीं रही। यह आरोहण ही दोनों को एक सूत्र में जोड़े हुए था। शेखर ने सैद्धान्तिक बातों को याद किया-‘सबसे पहले तो कोई दरार तलाशते फिर रॉक पिटन लगाते। दरार न मिलने पर ड्रिल करके लगाएँगें। रूप ने मुस्कराकर पूछ-आगे ? शेखर ने बताया- ‘रॉक पिटन, फिर ऐंकर, फिर आगे-आगे डिसेंडर नो-नो, रोप लैडर-रस्सी की सीढ़ी।’ रूप ने उसे रोक कर बताया-‘कोई भी चढ़ाई हो, फर्स्ट वाच, देन गाड्रेनिंग-चौरस या समतल बनाना, फिर से देखना कि पत्थर किस जाति का है-इग्नयस है, ग्रेनाइट है, मेटाफारफिक है, सैंड स्टोन है या सिलिका है। वरना अव्वल तो सपोर्ट नहीं बना पाओगे। बन भी गया तो फ्री रैपेलिंग नहीं होगी। शेखर ने रूप की बुद्धि की प्रशंसा की। महीप ने उन्हें टोका-“साब! जल्दी करो न।” उन्हें पर्वतारोहण का अध्याय बन्द करके फिर से घोड़ों पर सवार होना पड़ा।

शेखर ने रूप से पूछा कि क्या उसने कभी प्रेम की भी पढ़ाई की है? उसे कोई तो मिली होगी जिसे देखकर मन में कुछ-कुछ हुआ होगा? रूप ने उत्तर दिया-थी तो, मगर उम्र में मुझसे काफी बड़ी थी। भेड़ चराने के दौरान ही हमारी मुलाकातें होती थीं। वह (शैला) बहुत सुंदर थी। उसका हुक्म बजाना मुझे अच्छा लगता था। वह खुद तो स्वेटर बुनती रहती थी, मैं उसकी भेड़ें हाँका करता था और उसके लिए बुरंस के फूल तोड़ लाता था। वे उसे बेहद पसंद थे। सेब या आदूरिलने पर भी सबसे पहले उसी को देता था। बदले में वह मुझे देवता की बलि में चढ़ा माँस का प्रसाद और मक्की की रोटी देती थी। बाद में मुझे पता चला कि वह स्वेटर भूप दादा के लिए बुना जा रहा था। मैं तो सिर्फ लक्ष्मण था।

शेखर को यह इलाका स्वर्ग जैसा खूबसूरत लगा। रूप बताता है कि पांडव स्वर्ग जाने के लिए इसी रास्ते से गए थे। यहाँ का आखिरी गाँव सुरी है यानी स्वर्ग। शेखर ने महीप से कहा-तेरे पाँव में दर्द होता होगा, आ जा, कुछ देर तू भी घोड़े पर बैठ जा, हम पैदल चलते हैं। लड़के महीप ने मना कर दिया तथा बातें करने से रोक दिया क्योंकि रास्ता खराब था। रूप शेखर को बताता है कि यह एक संयोग ही था आपके पापा इधर आंकर (ट्रेनिंग में) रास्ता भटक गए और उन्हें मेरी जरूरत हुई। वे मुझे मसूरी लिवा ले गए। तब से मैं मसूरी का हो गया।

महीप ने उन्हें फिर चेताया-साब, देर करने से हम लौटेंगे कैसे? अब माही मुश्किल से डेढ़ किमी. था-उस डांडी (पहाड़) के पीछे। गाँव करीब आता जा रहा था। पुरानी यादें साकार हो रही थीं-अपना घर, अपने लोग, बाबा, माँ, भूप दादा और लोग। दो अजनबियों को देखकर गाँव के कुछ लोग अपने घरों से बाहर निकल आए थे। रूप ने सौ रुपए की जगह दस की गड्डी से बारह कड़क नोट (120 रुपए) लड़के महीप को थमाते हुए कहा-देखो, तुम भी थके हो और तुम्हारे घोड़े भी। ऐसा करो, आज रात यहीं रुक जाओ, सुबह चले जाना। लड़के ने कोई प्रतिक्रिया प्रकट न करके नोटों को गिनने लगा।

रूप एक बूढ़े के पास पहुँचा। बूढ़े ने उनसे पूछा-कहाँ जाना है साब (कने जाणा छावां) ? रूप ने उन्हें बताया – बाबा, यहाँ ग्यारह साल पहले कोई रामसिंह हुआ करते थे। उनके दो बेटे थे-भूपसिंह और रूपसिंह। वोहिमांग पहाड़ के नीचे उनका घर है। बूढ़े ने याद करके कहा कि रूप तो बहुत पहले भाग गया था। अब रूप ने रहस्य पर से परदा उठाया-मैं वही रूपसिंह हूँ। वह बूढ़ा उसी का दादा तिरलोक सिंह था। रूप ने उनके पैर छुए। एक अन्य आदमी के पूछने पर रूप ने पर्वतारोहण संस्थान के बारे में बताया। सरकार उसे इसी काम के लिए चार हजार रुपये महीना वेतन देती है। रूप ने घर जाने की बात कही। बूढ़े ने बताया कि उसके माँ-बाप तो मर चुके हैं।

तब रूप ने भूप दादा के बारे में पूछा। एक औरत ने बताया-अरे वो हैं, उसकी घरवाली और एक लड़का है, लेकिन वे तो …’ यह कहकर वह चुप हो गई। असल में वह घोड़े वाला लड़का महीप भूपदादा का ही बेटा था। वह अब ढलान में तेजी से उतर रहा था। भूप तो किसी से बात ही नहीं करता। शाम होने वाली है तू इस म्याल (पहाड़) पर चढ़ जा। तभी किसी ने कहा कि लो, भूप तो इधर ही आ रहा है। धीरे-धीरे चलकर वह सामने आया तो वह कतई असाधारण नहीं लगा। गोरा-चिट्टा, चित्तीदार चेहरा, लंबोतरा चेहरा, स्थितप्रज्ञ आँखें। देखते ही रूप उनके कदमों पर झुका और बोला-” मैं रूप हूँ, तुम्हारा भगोड़ा भाई।” भाई ने भाई को देखा। भूप ने पूछा-कब आया। रूप ने शेखर का उनसे परिचय कराया। भूप उन्हें घर की ओर ले चला।

ऊँचे हिमांग की तलहटी में छोटे से भूखंड पर वहाँ गाँव बसा था। चढ़ाई शुरू हो गई थी, खड़ी चढ़ाई। फिर रूप और शेखर रुक गये। भूप ने पूछा-बस इत्ता-सा पहाड़ीपन बचा है। भूप ने कमर में मफलर बाँधकर पहले रूप को चढ़ाया, फिर शेखर को। वे जिस धैर्य, आत्मविश्वास, ताकत और कुशलता से अपने अंगों का उपयोग कर रहे थे, वह हैरत की चीज थी। अब तीनों घर पहुँच चुके थे। भूप ने अपनी पत्नी के साथ रूप का परिचय कराया-‘ रूप, तेरी भाभी।’ रूप ने उनके पैर छुए। शेखर को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ कि वह घोड़े वाला लड़का महीप इन्हीं भाभीश्री का लड़का है।

कहीं कोई गड़बड़ी है। बाहर वर्षा कहर ढा रही थी। सुबह उठे तो आसमान साफ था। इस पहाड़ पर आने का कारण बताते हुए भूप ने कहा-तेरे जाने के बाद अगले साल यहाँ बहुत बर्फ गिरी। हिमांग पहाड़ धसक गया। माँ-बाबा भी दब गए। मैं किसी तरह बच गया। चारों ओर तबाही थी। तुझे बचपन में बाबा की सुनाई कहानी याद होगी-‘ नन्हीं चिड़िया वाली ‘। उसे गीध ने कहा था-मैं तुझे खा जाऊँगा। चिड़िया डर गई। चिड़िया ने धीरज रखकर पूछा-और, अगर मैं तुझसे ऊँचा पहाड़ उड़कर दिखा दूँ तो,” गीध उसके बचकाने पर हैसा।

उसने पूरी ताकत लगा दी उड़ने में; और उड़कर जा बैठी गीध की पीठ पर। अब चिड़िया को कोई डर न था। वह हर हालत में उससे ऊँचाई पर थी। इसी तरह भूप भी मौत की पीठ पर था। थोड़ी बहुत खेती शुरू की। वह शैला को नीचे ले आया। उसके आने से खेती फैल गई। वे पानी की समस्या हल करने के लिए एक झरने को मोड़कर लाने में सफल भी हो गए। रूप ने शैला भाभी के बारे में पूछा। भूप ने बताया कि काम काफी बढ़ गया था और शैला को बच्चा होने वाला था। फिर मैं एक दूसरी औरत (यह भाभी) ले आया। शैला से एक बेटा हुआ-महीप।

महीप अभी नौ साल का था कि शैला यहीं से नदी में कूद गई। बेटा जो नीचे उतरा तो लाख समझाने पर भी ऊपर नहीं आया। वह अपनी माँ की मौत के लिए मुझे ही गुनाहगार समझता है। भूप की दूसरी पत्नी काली चाय ले आई। उनकी बकरी के बच्चे को माही वालों ने देवता की बलि चढ़ा दिया था। इसकी कारण भूपदादा माही वालों से बात नहीं करते। रूप को लगा कि भूप दादा बहुत अकेले हैं। रूप ने उनसे कहा बहुत दुःख झेले आपने। दुःखों का पहाड़ लेकर चढ़ते रहे पहाड़ पर। अब बस करो। मैं, तुम्हारा छोटा भाई, तुम्हें अपने साथ लिवा ले जाना चाहता हूँ। मुझे सरकार की ओर से पक्का क्व्वाटर मिला हुआ है। जितनी तनख्वाह मिलती है, उसमें आराम से रह लेंगे हम सभी।

भूप दादा चुप होकर रह गए। उनके पास दो बैल भी थे। यद्यपि बैलों को चढ़ा लाना कठिन था, पर वे बछड़े के रूप में उन्हें यहाँ लाया था। भूप अपने आपको अकेला अनुभव नहीं करता। वह माँ-बाप, शैला की यादों के सहारे जी रहा है। वह बाकी जिंदगी अपनी खुद्दारी के साथ जीना चाहता है। जिंदा रहने तक कोई नीचे नहीं उतरेगा।

शब्दार्थ एवं टिप्पणी –

आरोहण – चढ़ाई, खतो-किताबत – पत्र-व्यवहार, खासमखास – अति विशिष्ट, अंतरंग, जर्द – पीला पड़ना, दरियाफ्त जानकारी प्राप्त करना, पता लगाना, घाटबटी – पहाड़ के पार जाने का रास्ता, दरकना – फटना, पैबंद – थेगली, कुहेड़ी – कुछरा डांडियाँ – पहाड़ियाँ, ना बांस – न बसना, अनुतप्त – पछतावे से भरी, खोदना – लैंड स्लाइड, संभ्रांत – कुलीन, खानदानी, रईस मशगूल – व्यस्त, लगा हुआ, शख्खियत – व्यक्तित्व, वजूद – अस्तित्व, सेंटर – केन्द्र, परिंदा – पक्षी, आगाह – चेताया, सावधान,

संकरा – तंग, कच्ची उम्र – कम आयु, म्याल – पर्वत, पहाड़, भुइला – अनुज, छोटा भाई, विषयांतर – विषय से परे हटकर, खुद्दारी – स्वाभिमान, संदेह – शक, मुकम्मिल – स्थायी, तौहीन – बेइज्जती, इम्पोर्टेंड – आयातित, इया – यहाँ, चंदोव – शामियाना, चादर, पगुराना – जुगाली करना, अस्फुट – अस्पष्ट, घसेरी – घास वाली, हिंलास – एक पक्षी का नाम, गफ़लत – गलतफहमी, असावधानी, रॉक पिटन – चट्टान में गड्ढा करना, ड्रील – भू-स्खलन, सूपिन – नदी का नाम, शिनाख्त – पहचान, तिलस्म जादू, हिलकोरे – स्वर लहरी, सुधि – याद, प्रशिक्षार्थी – ट्रेनी, वाकया – घटना, दुस्साहसिक – जोखिम भरा, आरोही – सवार प्रतिक्रिया – किसी क्रिया के परिणामस्वरूप होने वाली क्रिया, भौत – बहुत, लाज़िम – जरूरी, खुदकुशी – आत्महत्या।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antral Chapter 3 Summary – Biskohar Ki Mati

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बिस्कोहर की माटी Summary – Class 12 Hindi Antral Chapter 3 Summary

बिस्कोहर की माटी – डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी – कवि परिचय

प्रश्न :
डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय-डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का जन्म 16 फरवरी, 1931 को बिस्कोहर गाँव, जिला बस्ती (सिद्धार्थ नगर) उ. प्र. में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हुई। तत्पश्चात् बलरामपुर कस्बे में आगे की शिक्षा प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए वे पहले कानपुर और बाद में वाराणसी गए। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। शुरू में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कॉलेज में अध्यापन कार्य किया, फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर में अध्यापन कार्य से जुड़े रहे। यहीं से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन कर रहे है।

रचनाएँ – उनकी रचनाओं में प्रारंभिक अवधी, हिंदी आलोचना, हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, लोकवादी तुलसीदास, मीस का काव्य, देश के इस दौर में, कुछ कहानियाँ कुछ विचार, पेड़ का हाथ, जैसा कह सका (कविता-संग्रह) प्रमुख हैं। उन्होंने आरंभ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साथ अद्हमाण (अब्दुल रहमान) के अपभ्रंश काव्य ‘संदेश रासक’ का संपादन किया। कविताएँ 1963, कविताएँ 1964, कविताएँ 1965 अजीत कुमार के साथ, ‘हिन्दी के प्रहरी रामविलास शर्मा’ अरुण प्रकार के साथ संपादित की। उनको गोकुलचन्द्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार, डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, हिंदी अकादमी दिल्ली का साहित्य सम्मान आदि से सम्मानित किया गया।

पाठ का संक्षिप्त परिचय – 

पाठ्यपुस्तक में विश्वनाथ त्रिपाठी की आत्मकथा नंगातलाई का गाँव का एक अंश ‘बिस्कोहर की माटी’ नाम से दिया गया है। आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह पाठ अपनी अभिव्यंजना में अत्यंत रोचक और पठनीय है। लेखक ने उम्र के कई पड़ाव पार करने के बाद अपने जीवन में माँ, गाँव और आस-पास के प्राकृतिक परिवेश का वर्णन करते हुए ग्रामीण जीवन शैली, लोक कथाओं, लोक-मान्यताओं को पाठक तक पहुँचाने की कोशिश की है।

गाँव, शहर की तरह सुविधायुक्त नहीं होते, बल्कि प्रकृति पर अधिक निर्भर रहते हैं। इस निर्भरता का दूसरा पक्ष प्राकृतिक सौंदर्य भी है जिसे लेखक ने बड़े मनोयोग से जिया और प्रस्तुत किया है। एक तरफ प्राकृतिक संपदा के रूप में अकाल के वक्त खाई जाने वाली कमल-ककड़ी का वर्णन है तो दूसरी ओर प्राकृतिक विपदा बाढ़ से बदहाल गाँव की तकंलीफों का जिक्र है। कमल, कोइयाँ, हरसिंगार के साथ-साथ तोरी, लौकी, भिंडी, भटकटैया, इमली … कदंब आदि के फूलों का वर्णन कर लेखक ने ग्रामीण प्राकृतिक सुषमा और संपदा को दिखाया है तो डोड़हा, मजगिदवा, धामिन, गोंहुअन, घोर कड़ाइच आदि साँपों, बिच्छुओं आदि के वर्णन द्वारा भयमिश्रित वातावरण का भी निर्माण किया है।

ग्रामीण जीवन में शहरी दवाइयों की जगह प्रकृति से प्राप्त फूल, पत्तियों के प्रयोग भी आम हैं जिसे लेखक ने रेखांकित किया है। पूरी कथा के केंद्र में है बिस्कोहर जो लेखक का गाँव है और एक पात्र ‘बिसनाथ’ जो लेखक स्वयं (विश्वनाथ) है। गर्मी, वर्षा और शरद ऋतु में गाँव में होने वाली दिक्कतों का भी लेखक के मन पर प्रभाव पड़ा है जिसका उल्लेख इस रचना में भी दिखाई पड़ता है। दस वर्ष की उम्र में करीब दस वर्ष बड़ी स्त्री को देखकर मन में उठे-बसे भावों, संवेगों के अमिट प्रभाव व उसकी मार्मिक प्रस्तुति के बीच संवादों की यथावत् आंचलिक प्रस्तुति, अनुभव की सत्यता और नैसर्गिकता का द्योतक है। पूरी रचना में लेखक ने अपने देखे-भोगे यथार्थ को प्राकृतिक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत किया है। लेखक की शैली अपने आप में अनूठी और बिल्कुल नई है।

Biskohar Ki Mati Class 12 Hindi Summary

प्रस्तुत पाठ लेखक की आत्मकथा का एक अंश है। लेखक बताता है कि पूरब टोल के तालाब में कमल फलते-फूल्ते हैं। इसी के कमल-पत्र (कमल का पत्ता) पर हिंदुओं के भोज में भोजन परोसा जाता है। कमल-पत्र को ‘पुरइन’ और कमल की नाल को भसीण कहते हैं। कमल-ककड़ी को सामान्यतः नहीं खाया जाता, पर कमल ग्टा (कमल का बीज) अवश्य खाया जाता है। कमल से ज्यादा बहार कोइयाँ की थी। इस जल-पुष्प को ‘कुमुद’ कहते हैं। इसे ‘कोका बेली’ भी कहते हैं। रेलवे लाइनों के दोनों ओर के गड्ढों में जहाँ पानी भरा होता है वहाँ इसे देखा जा सकता है।

इसकी गंध को जो पसंद करता है वही इसके महत्त्व को जानता है। इन्हीं दिनों तालाबों में सिंघाड़ा आता है। सिंघाड़े के भी फूल होते हैं-उजले और उनमें गंध भी होती है। विश्वनाथ को सिंघाड़े के फूलों से भरे तालाब से गंध के साथ एक हल्की-सी आवाज भी सुनाई देती थी। शरद ऋतु में हरसिंगार फूलता है। पितृ पक्ष में मालिन दाई के घर के दरवाजे पर हरसिंगार की राशि रखी जाती थी। गाँव की बोली में इसे ‘कुरई जात रही’ कहा जाता है। गाँव में ज्ञात-अज्ञात वनस्पतियों, जल के विविध रूपों और मिट्टि के अनेक वर्णों-आकारों का एक सजीव वातावरण था।

तब आकाश भी अपने गाँव का ही एक टोला लगता था। चंदा मामा थे। उसमें एक बुढ़िया थी जो बच्चों की दादी की सहेली थी। माँ के आँचल में छिपकर बच्चां केवल दूध ही नहीं पीता है बल्कि सुबुकता है, रोता है, माँ को मारता है, पर माँ से चिपटा रहता है, बच्चा माँ के पेट का स्पर्श गंध भोगता रहता है। बच्चे जब दाँत निकलते हैं, तो हर चीज को काटते हैं। लेखक ने भी बचपन में माँ को काट लिया था, तब माँ ने उसे जोर से थम्पड़ मारा था। माँ बच्चे की माँ ही नहीं उसे मित्र का सुख भी देती है। माँ के अंक से लिपटकर माँ का दूध पीना मानव-जीवन की सार्थकता है। पशु-माताएँ भी अपने बच्चों को यह सुख देती होंगी।

लेखक ने यह बात बहुत बाद में देखी-समझी। दिलशाद गार्डन के डियर पार्क में बत्तखे जब अंडा देने को होती हैं तब पानी छोड़कर जमीन पर आ जाती हैं। इसके लिए एक सुरक्षित काँटेदार बाड़ा था। एक बत्तख कई अंडों को से रही थी। वह पंख फुलाए उन्हें दुनिया से छिपाए रखती है। बत्तख की चोंच सख्त होती है। बत्तख अंडों को बहुत सतर्कता और कोमलता से डैनों के अंदर छिपा लेती थी। कभी-कभी वह अंडों को बड़ी सतर्कता से उलटती-पलटती भी थी।

लेखक की माँ और बत्तख की माँ की ममता प्रकृति की देन है। विश्वनाथ (लेखक) के साथ तब अत्याचार हो गया जब उसका छोटा भाई आ गया। तब माँ के दूध पर छोटे भाई का कब्जा हो गया। बालक विश्वनाथ ने अपना कब्जा छोड़ने से इंकार कर दिया। अब माँ चालाकी से स्तनों पर उबटन का लेप करके बालक विश्वनाथ को दूध पिलाने लगी। इसे कसैले स्वाद से बालक चीख पड़ा-तुम्हारा दूध खराब है, हम इसे नहीं पीते। घर वाले तो यही चाहते थे। छोटा भाई खुश होकर माँ का दूध पीता और विश्वनाथ गाय का बेस्वाद दूध। बालक विश्वनाथ का पालन-पोषण पड़ोस की कसेरिन दाई ने किया था। उसके साथ लेटे-लेटे वे चाँद को देखते रहते।

फूलों की बात-कमल, कोइयाँ, हरसिंगार की हो रही थी। ऐसे कितने ही फूल थे जिनके फूलों की चर्चा फूलों के रूप में नहीं होती और हैं वे असली फूल-तोरई, लौकी, भिंडी, भटकटेंया, इमली, अमरूद, कदंब, बैगन, कासीफल, शरीफा, आम के बौर, कटहल, बेल, अरहर, उड़द, चना, मसूर, मटर के फूल, सेमल के फूल, कदंब के फूलों से पेड़ लदबदा जाता है। खेतों में सरसों के फूलों की तेलयुक्त गंध तैरती है। विश्वनाथ के गाँव में एक फल बहुत होता है-भरभंडा। उसे ही सत्यानाशी कहा जाता है। इसका नाम चाहे जैसा हो, पर इसकी सुंदरता में कोई जवाब नहीं। फूल पीली तितली जैसा, आँखें दु:खने पर माँ उसका दूध आँख में लगाती। धान, गेहूँ, जौ के भी फूल होते हैं। जीरे की शक्ल में भुट्टे का फूल होता है।

घास पत्तों से भरी मेड़ों पर, मैदानों में, तालाब के भीटों पर तरह-तरह के साँप मिलते थे। डोंड़हा और मजगिदवा विषरहित साँप थे। डोड़हा को मारा नहीं जाता। धामिन भी विषरहित है। सबसे खतरनाक गोंहुअन होता है जिसे गाँव में ‘फेंटारा’ कहा जाता था। यह बड़ा खतरनाक होता है। इसके काट लेने पर आदमी घोड़े की तरह हिनहिनाकर मरता है। इसके बाद ‘भटिहा’ आता है। इसके दो मुँह होते हैं। आम, पीपल, केवड़े की झाड़ी में रहने वाले साँप बहुत खतरनाक होते हैं। साँप से डर भी लगता था और उनकी प्रतीक्षा भी की जाती थी। बिच्छू के काटने से दर्द तो बहुत होता था, पर उसे कोई मारता न था। गुड़हल का फूल देवी का फूल था। नीम के फूल और पत्ते चेचक में रोगी के पास रख दिए जाते हैं। फूल बेर के भी होते हैं और उनकी गंध मादक होती है।

गर्मी के दिनों में सबको सोता देखकर लेखक चुपके से घर से निकल जाते। लू से बचने के लिए माँ धोती या कमीज में गाँठ लगाकर प्याज बाँध देती थी। लू लगने की दवा थी-आम का पन्ना। कच्चे आम की हरी गंध, पकने से पहले जामुन खाना, तोड़ना-यह गर्मी की बहार थी। कटहल गर्मी का फल और तरकारी दोनों है। वर्षा एकाएक नहीं आती थी। पहले बादल घिरते-गड़गड़ाहट होती थी। पहली वर्षा में नहाने के बाद दाद-खाज, फोड़ा-फुंसी ठीक हो जाते थे। फिर गंदगी, कीचड़। जलाने की लकड़ी पहले जमा करनी

पड़ती थी। चारों ओर पानी ही पानी भर जाता था। जाड़े की धूप और चैत की चाँदनी में ज्यादा अंतर नही होता। रंखक ने विस्फाहर की औरत पहली बार बढ़नी में एक रिश्तेदार के यहाँ देखा था। विश्वनाथ की उमर उससे काफी कम है-शायद 10 वर्ष कम। वह औरत विश्वनाथ को औरत के रूप में नहीं; जूही की लता बन गई चाँदनी के रूप में लगी। विश्वनाथ आजीवन उससे शरमाते रहे। उसकी शादी बिस्कोहर में हुई। विश्वनाथ मान ही नहीं सकते कि बिस्कोहर से अच्छा कोई गाँव हो सकता है और बिस्कोहर से ज्यादा सुंदर कहीं की औरत हो सकती है।

विश्वनाथ को अपनी माँ के पेट का रंग हल्दी मिलाकर बनाई गई पूड़ी का सा लगता। नारी शरीर से उन्हें बिस्कोहर की ही फसलों की गंध आती है। तालाब की चिकनी मिद्टी की गंध. गेहूँ, भुट्टा, खीरा की गंध या पुआल की होती है। आम के बाग में आम्रमंजरी, बौर की पलट मारती हुई गंध तो साक्षात् रति गंध होती है। फूले हुए नीम की गंध को नारी-शरीर या श्रृंगार से कभी नहीं जोड़ सकते। वह गंध मादक , गंभीर और असीमित की ओर ले जाने वाली होती है।

बड़े गुलाम अली खाँ साहब ने एक ठुमरी गाई है-अब तो आओ साजन-सुनें अकेले में या याद करें-इस ठुमरी को तो रूलाई आती है और वही औरत इसमें व्याकुल नजर जाती है। वह सफेद रंग की साड़ी पहने रहती है। घने काले केश सँवारे हुए है। आँखों में व्यथा है। वह सिर्फ इंतजार करती है। नृत्य, संगीत, मूर्ति, कविता, स्थापत्य, चित्र अर्थात् हर कला रूप में वह मौजूद है। लेखक विश्वनाथ के लिए हर दुःख-सुख से जोड़ने की सेतु है।
इस स्मृति के साथ मृत्यु का बोध अजीब तौर पर जुड़ा हुआ है।

शब्दार्थ एवं टिप्पणी – 

भसीण – कमलनाल, कमल का तना, सिंघाड़ा – जलफल. काँटेदार फल जो पानी में होता है, प्रयोजन – उद्देश्य, साफ-सफ्फाक – साफ और स्वच्छ, भीटो – टीले, ढूह, सुबकना – धीमे स्वर में रोना, आँख आना – गर्मियों के मौसम में आँख का रोग होना, धिरकना – नाचना, आर्द्य, – नमी, व्यथा – पीड़ा, दर्द, असीमित – बहुत अधिक, सार्थक – जिसका कोई अर्थ हो, लता – बेल, प्रतिबिंब – परछाई, शीतलता – ठंडक, अनुभूति – अनुभव करना, कुमुद – जलपुष्प, कुइयाँ, कोकाबेली, बतिया फल का अविकसित रूप, कथरी – बिछौना, इफरात – अधिकता, बरहा – खेतों की सिंचाई के लिए बनाई गई नाली, अगाध भरपूर, स्थापत्य – भवन-निर्माण कला, अगाध – बहुत गहरा, मादक – मस्ती भरा, अंतराल – गैप, अनवरत – लगातार, सतर्कता – चौकन्नापन, सावधानी, सरोवर – तालाब, सर्वत्र – सब जगह।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antral Chapter 4 Summary – Apna Malwa Khau Ujadu Sabhyata Mein

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अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में Summary – Class 12 Hindi Antral Chapter 4 Summary

अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में – प्रभाष जोशी – कवि परिचय

प्रश्न :
प्रभाष जोशी के जन्म के बारे में बताते हुए उनका साहित्यिक परिचय दीजिए।
उत्तर :
1937 ई. में डॉ. प्रभाष जोशी का जन्म इंदौर (मध्य प्रदेश) में हुआ। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की शुरूआत नई दुनिया के संपादक राजेंद्र माथुर के सानिध्य में की और उनसे पत्रकारिता के संस्कार लिए। इंडियन एक्सप्रेस के अहमदाबाद, चंडीगढ़, संस्करणों का संपादन, प्रजापति का संपादन और सर्वोदय संदेश में संपादन सहयोग किया। 1983 में उनके संपादन में जनसत्ता अखबार निकला जिसने हिंदी पत्रकारिता को नई ऊँचाइयाँ दीं। गाँधी, बिनोवा और जयप्रकाश के आदर्शों में यकीन रखने वाले प्रभाष जी ने जनसत्ता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा। जनसत्ता में नियमित स्तंभ लेखन करते हैं। कागद कारे नाम से उनके लेखों का संग्रह प्रकाशित है। सन् 2005 में जनसत्ता में लिखे लेखों, संपादकियों का चयन हिन्दू होने का धर्म शीर्षक से पुस्तकाकार आया है।

प्रभाष जी में मालवा की मिट्टी के संस्कार गहरे तक बसे हैं और वे इसी से ताकत पाते हैं। देशज भाषा के शब्दों को मुख्यधारा में लाकर उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को एक नया तेवर दिया और उसे अनुवाद की कृत्रिम भाषा की जगह बोलचाल की भाषा के करीब लाकर टटका बनाया। प्रभाष जी ने पत्रकारिता में खेल, सिनेमा, साहित्य जैसे गैर पारंपरिक विषयों पर गंभीर लेखन की नींव डाली। क्रिकेट, टेनिस हो या कुमार गंधर्व का गायन, इन विषयों पर उनका लेखन मर्मस्पर्शी गहराइयों में ले जाता है।

पाठ का संक्षिप्त परिचय –

पाठयपुस्तक में प्रभाष जोशी का अपना मालवा (खाऊ-उजाडू सभ्यता में ) पाठ जनसत्ता 1 अक्टूबर 2006 के कागद कारे स्तंभ से लिया गया है। इस पाठ में लेखक ने मालवा प्रदेश की म्ट्टि, वर्षा, नदियों की स्थिति उद्गम एवं विस्तार तथा वहाँ के जनजीवन एवं संस्कृति को चित्रित किया है। पहले के मालवा ‘मादक धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी पग-पग नीर’ और अब के मालवा ‘नदी नाले सूख गए, पग पग नीर वाला मालवा सूखा हो गया’ से तुलना की है। जो मालवा अपनी सुख समृद्धि एवं सम्पन्नता के लिए विख्यात था, वही अब खाऊ-उजाडू सभ्यता में फँसकर उलझ गया है। यह खाऊ-उजाडू सभ्यता यूरोप और अमेरिका की देन है जिसके कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बन गई है। इससे पूरी दुनिया प्रभावित हुई है, पर्यावरण बिगड़ा है।

लेखक की पर्यावरण संबंधी चिंता सिर्फ मालवा तक सीमित न होकर सार्वभौमिक हो गई है। अमेरिका की खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति ने दुनिया को इतना प्रभावित किया है कि हम अपनी जीवन पद्धति, संस्कृति, सभ्यता तथा अपनी धरती को उजाड़ने में लगे हुए हैं। इस बहाने लेखक ने खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति के द्वारा पर्यावरणीय विनाश की पूरी तस्वीर खींची है जिससे मालवा भी नहीं बच सका है। आधुनिक औद्योगिक विकास ने हमें अपनी जड़-जमीन से अलग कर दिया है सही मायनों में हम उजड़ रहे हैं। इस पाठ के माध्यम से लेखक ने पर्यावरणीय सरोकारों को आम जनता से जोड़ दिया है तथा पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत किया है।

Apna Malwa Khau Ujadu Sabhyata Mein Class 12 Hindi Summary

उगते सूरज की साफ चमकीली धूप राजस्थान में ही रह गई। मालवा में तो आसमान बादलों से छाया हुआ था। ऐसा लगा कि अभी वर्षा त्रहु गई नहीं है। चारों ओर मटमैला बरसाती पानी भरा हुआ था। सभी छोटे-बड़े नाले बह रहे थे। इतना ज्यादा पानी यह धरती नहीं सोख सकती। ऊपर से ये बादल बरसने को तैयार। नवरात्रि की पहली सुबह थी। मालवा में घटे स्थापना की तैयारी चल रही थी। घर-आँगन को गोबर से लीपने और रंगोली सजाने का काम हो रहा था। बहू-बेटियाँ नहाने-धोने और सजकर त्योहार मनाने में लगी थीं। रास्ते में छोटे स्टेशनों पर महिलाओं की ही भीड़ थी, लेखक तो चटक-उजली धूप, ज्वार-बाजरे और सोयाबीन की फसलें देखने आया था।

क्वार का महीना मालवा में मानसून के जाने का होता है। इस बार तो वह जाते हुए भी धौंस दे रहा था। नागदा स्टेशन पर मीणाजी बिना चीनी की चाय पिलाते हैं और सारे जरूरी समाचार भी देते हैं। वे क्वालालपुर में भारत के हारने से दुःखी थे। फिर वे मौसम और खेती पर आ गए। उन्होंने बताया कि अधिक वर्षा के कारण सोयाबीन की फसल तो गल गई, पर गेहूँ, चना अच्छा होगा। उन्होंने चाय-भजिया अच्छा बनवा दिया। लेखक और उनकी पत्नी मजे से खाते-पीते उज्जैन पहुँच गए। रास्ते में शिप्रा नदी भी मिली। वह भरपूर बह रही थी। गए महीने उज्जैन में शिप्रा का पानी घरों में घुस गया था। कहीं कोई खतरा न था। अब मालवा में वैसा पानी नहीं गिरता, जैसा गिरा करता था। पहले का औसत पानी गिरा तो भी बहुत लगता है इस बार भी बरसात चालीस इंच ही हुई।

इंदौर से उतरते ही गाड़ी में सामान रखवाते हुए दव्वा को कहा कि हमें सब नदियाँ, तालाब, जलाशय देखने हैं। सब पहाड़ चढ़ने हैं। पर बाद में सोचा कि अब उमर सत्तर की हो चली है। इस उमर में शरीर भी पहले जैसा फुर्तीला, लचीला, गर्वीला नहीं हो सकता। अब नदी-नाले पार नहीं होंगे, पहाड़ नहीं चढ़े जाएँगे। इस अहसास के बावजूद दो जगहों से नर्मदा देखी।

कहीं मटमैली, कहीं छिछली तो कहीं अथाह गहरी दिखाई दी। ज्योर्तिलिंग का तीर्थधाम वह नहीं लगता था। बड़ी-बड़ी मशीनें और ट्रक गुरा रहे थे। इतने बाँधों के बावजूद नर्मदा में अब भी खूब पानी और गति है। नेमावर के पास बिजवाड़ा में नर्मदा शांत, गंभीर और भरी-पूरी थी। हम चुपचाप उसे प्रणाम कर रहे थे। रात भर हम उसके किनारे ही सोए। सवेरे उठकर उसके किनारे बैठ गए। हम नदी को माँ मानते हैं-नर्मदा मैया। उसके किनारे बैठना माँ की गोद में डूबना है।

ओंकारेश्वर और नेमावर जाते हुए दोनों बार विंध्य के घाट उतरने पड़े। एक तरफ सिमरोल कः घाट, दूसरी तरफ बिजबाड़। दोनों में सागौन के जंगल। सिमरोल के बीच से चोरल खूब बहती हुई मिली। बिजवाड़ में हर नाला बह रहा था। बचपन पर पितृपक्ष और नवरात्रि में ऐस्म ही पानी मिलता था। शिप्रा नदी छोटी होते हुए भी उज्जैन में महाकाल के पाँव पखार कर पवित्र हो गई। यह चंबल विंध्य के जामापाव पर्वत से निकलकर निमाड़, मालवा, बुंदेलखंड, ग्वालियर होती हुई इटावा के पास जमना में मिली। चंबल को लेखक ने बिलोद में देखा।

वह खूब बह रही थी। वहाँ काफी पानी था। इसके आगे बीहड़ों में डाकू रहते हैं। आगे बहुत बड़ा बाँध है। इस बार गाँधी सागर बाँध के सब फाटक खोलने पड़े। बहुत पानी भर गया था। हालोद के आगे यशवंत सागर को इस बार उसने इतना भर दिया कि पच्चीसों साइफन चलाने पड़े। 2-3 दिन तक पुल पर से पानी बहता रहा। मालवा के पठार की सब नदियाँ भर गई। नदी का सदानीरा रहना जीवन के स्रोत का सदा जीवित रहना है।

नदियों के बाद नंबर था तालाबों का। आज के इंजीनियर स्वयं को पानी का सबसे बड़ा प्रबंधक मानते हैं; पर मालवा में विक्रमादित्य; भोज और मुंज पहले से ही यह काम कर गए थे। उन्होंने पानी को रोकने के लिए तालाब, बावड़ियों का निर्माण कराया ताकि बरसात का पानी रोका जा सके। आज के इंजीनियरों ने तालाबों को गाद से भर जाने दिया और जमीन के पानी को पाताल से भी निकाल लिया। नदी-नाले सूख गए। पग-पग पर नीर वाला मालवा सूखा हो गया। कभी वहाँ की नदी को पार करने के लिए हाथी पर बैठना पड़ता था अतः हाथीपाला नाम आया है। चन्द्रभागा पुल के नीचे इतना पानी रहा करता था जितना महाराष्ट्र की चंद्रभंगा नदी में। इंदौर के बीच से निकलने वाली नदियाँ उसे हरा-भरा और गुलजार रखती थीं। शिप्रा, चंबल, गंभीर, पार्वती, कालीसिंध, चोरल-ये सदानीरा नदियाँ अब मालवा के गालों के आँसू भी नहीं बहा सकतीं।

1899 में मालवा में सिर्पक 15.75 इंच पानी गिरा था। 1973 में 77 इंच पानी गिरा। यदि 28 इंच से कम बारिश हो तो वह सूखे का साल होता है। हम जिस विकास को औद्योगिक सभ्यता कहते हैं, वह उजाड़ की अपसभ्यता है। नई दुनिया की लाइब्रेरी में कमलेश सेन अशोक जोशी ने धरती के वातावरण को गर्म करने वाली खाऊ-उजाडू सभ्यता की जो कतरनें निकाल रखी हैं वे यह बताने को काफी हैं कि मालवा की धरती गहन गंभीर क्यों नहीं है। क्यों हमारे समुद्रों का पानी गर्म हो रहा है ? क्यों हमारी धरती के ध्रुवों पर जमी बर्फ पिघल रही है? क्यों मौसम का चक्र बिगड़ रहा है? क्यों यूरोप और अमेरिका में इतनी गर्मी पड़ रही है? क्योंकि वातावरण को गर्म करने वाली कार्बनडाइऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। अमेरिका की घोषणा है कि वह अपनी खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति पर कोई समझौता नहीं करेगा। हम भी अपनी मालवा की धरती को उजाड़ने में लगे हैं। हम अपनी जीवन-पद्धति को क्या समझते हैं।

शब्दार्थ एवं टिप्पणी – 

निथरी – फैली, चमकीली, चौमासा – बारिश के चार महीने, मटमैला – मिट्टी युक्त उसी रंग का पानी, घट स्थापना – नवरात्रि के समय कलश रखना, स्थापित करना, ओटले – मुख्यद्वार, घऊँघऊँ – बादलों के गरजने की आवाज़, लहलहाती – हरी-भररी हवा के झोंके से लहलहाती, क्वार – हिंदी में भादों के बाद का महीना, पानी भोत गिरयो – पानी बहुत गिरा, बरसात बहुत हुई, फसल तो पण गली गई – फसल पानी में डूब गई और नष्ट हो गई, उनने – उन्ल्ेंने, झड़ी लगी थी – बरसात अधिक होना, निरंतर पानी गिरना, अत्ति की – बढ़ा चढ़ाकर, अतिश्योक्ति में, इत्ता पानी – इतना पानी, साइफन – पानी निकालने की पाइप, मालवा धरती गहन गंभीर – ‘मालवा की धरती गहन गंभीर है।

पश्चिम के रिनेसां – पश्चिम के पुनर्जागरण, डग-डग रोटी, पग-पग नीर जहाँ डगर-डगर पर रोटी मिलती है और पग-पग पर पानी मिलता है यानी मालवा की धरती खूब समृद्ध है’, विपुलता की आश्वस्ति -संपन्नता, समृद्धि का आश्वासन, अबकी मालवो खूब पाक्यो है – अबकी मालवा खुब समृद्ध है। यानी इतनी बरसात हुई है कि फसलें हरी-भरी हो गई हैं, नी यार पेले माता बिठायंगा – इस बार माता की मूर्ति स्थापित करूँगा, रड़का – लुढ़का, मंदे उजाले से गमक रही थी – हल्के प्रकाश में सुर्गंधित हो रही थी, चवथ का चाँद – चतुर्थी का चाँद, छप्पन का काल – 1956 का दौर, समय, दुष्काल का काल – बुरा समय, अकाल, कतरनें – अखबार की कतरन, पूर – बाढ़, गाद – झाग, कूड़ा-कचरा, कलमल करना – सँकरे रास्ते में पानी बहने की आवाज।

Hindi Antra Class 12 Summary

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CBSE Sample Papers for Class 10 Maths Standard and Basic with Solutions 2022-2023

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Solved CBSE Sample Paper 2022-2023 Class 10 Maths Standard and Basic with Solutions: Solving Pre Board CBSE Sample Papers for Class 10 Maths Standard and Basic with Solutions Answers 2022-2023 Pdf Download to understand the pattern of questions ask in the board exam. Know about the important concepts to be prepared for CBSE Class 10 Maths board exam and Score More marks. Here we have given CBSE Class 10 Maths Sample Papers. According to new CBSE Exam Pattern, MCQ Questions for Class 10 Maths Carries 20 Marks.

Board – Central Board of Secondary Education
Subject – CBSE Class 10 Maths
Year of Examination – 2023, 2022, 2021, 2020, 2019, 2018, 2017, 2016.

CBSE Sample Paper 2023 Class 10 Maths Standard and Basic with Solutions

CBSE Sample Paper 2022-2023 Class 10 Maths Standard with Solutions

CBSE Sample Paper 2022-2023 Class 10 Maths Basic with Solutions

CBSE Sample Paper 2022 Class 10 Maths Standard with Solutions Term 2 (Old Pattern)

CBSE Sample Paper 2021-2022 Class 10 Maths Basic with Solutions Term 2 (Old Pattern)

CBSE Sample Paper 2021 Class 10 Maths Standard with Solutions (Old Pattern)

CBSE Sample Paper 2020-2021 Class 10 Maths Basic with Solutions (Old Pattern)

CBSE Class 10 Maths Standard and Basic Question Paper Design 2022

Section SA I
(2 Marks)
SA II
(3 Marks)
LA
(4 Marks)

Case-based
(4 Marks)

A 6Q
(2 Internal Choice)
B 4Q
(1 Internal Choice)
C 2Q
(1 Internal Choice)
2Q
Total 12M 12M 8M 8M

 

Year of Examination Maths Sample Question Paper Answers/ Marking Scheme
2019-2020 Download PDF Download
2018-2019 Download PDF Download
2017-2018 Download PDF Download
2016-2017 PDF Download Download
2015-2016 PDF Download Download

Download Formula Book for Class 10 Maths and Science

CBSE Sample Papers 2020 Maths Basic, Maths Standard, Science, Social Science, Hindi, English, and Sanskrit

CBSE Sample Paper for Class 10 Maths Basic Set 1 CBSE Sample Paper for Class 10 Maths Standard Set 1
CBSE Sample Paper for Class 10 Maths Basic Set 2 CBSE Sample Paper for Class 10 Maths Standard Set 2
CBSE Sample Paper for Class 10 Maths Basic Set 3 CBSE Sample Paper for Class 10 Maths Standard Set 3
CBSE Sample Paper for Class 10 Maths Basic Set 4 CBSE Sample Paper for Class 10 Maths Standard Set 4
CBSE Sample Paper for Class 10 Maths Basic Set 5 CBSE Sample Paper for Class 10 Maths Standard Set 5
CBSE Sample Paper for Class 10 Science Set 1 CBSE Sample Paper for Class 10 Social Science Set 1
CBSE Sample Paper for Class 10 Science Set 2 CBSE Sample Paper for Class 10 Social Science Set 2
CBSE Sample Paper for Class 10 Science Set 3 CBSE Sample Paper for Class 10 Social Science Set 3
CBSE Sample Paper for Class 10 Science Set 4 CBSE Sample Paper for Class 10 Social Science Set 4
CBSE Sample Paper for Class 10 Science Set 5 CBSE Sample Paper for Class 10 Social Science Set 5
CBSE Sample Paper for Class 10 Hindi A Set 1 CBSE Sample Paper for Class 10 Hindi B Set 1
CBSE Sample Paper for Class 10 Hindi A Set 2 CBSE Sample Paper for Class 10 Hindi B Set 2
CBSE Sample Paper for Class 10 Hindi A Set 3 CBSE Sample Paper for Class 10 Hindi B Set 3
CBSE Sample Paper for Class 10 Hindi A Set 4 CBSE Sample Paper for Class 10 Hindi B Set 4
CBSE Sample Paper for Class 10 Hindi A Set 5 CBSE Sample Paper for Class 10 Hindi B Set 5
CBSE Sample Paper for Class 10 English Set 1 CBSE Sample Paper for Class 10 English Set 2
CBSE Sample Paper for Class 10 English Set 3 CBSE Sample Paper for Class 10 English Set 4
CBSE Sample Paper for Class 10 English Set 5 CBSE Sample Papers for Class 10 Sanskrit

CBSE Class 10 Sample Papers Bundle

How To Take CBSE Class 10 Maths Sample Papers?

Step 1 – Download the CBSE Class 10 Sample Question Papers or Pre Board Model Papers or Previous year question papers that you want to take.

Step 2 – Take the exam seriously just like you would take the real exam.

Step 3 – Evaluate your paper – mark the questions you couldn’t answer or get incorrect.

Step 4 – Revise the related concepts and topics.

Solved CBSE Sample Papers for Class 10 Maths 2019

Solved CBSE Sample Papers for Class 10 for 2018-19 are tabulated as follows:

 Solved Maths Sample Paper 2019 Set 1PDF Download Solved Maths Sample Paper 2019 Set 2PDF Download
 Solved Maths Sample Paper 2019 Set 3  Solved Maths Sample Paper 2019 Set 4
 Solved Maths Sample Paper 2019 Set 5  Solved Maths Sample Paper 2019 Set 6

CBSE Previous Year Question Papers Class 10 Maths With Solutions

CBSE Previous Year Question Papers Class 10 Maths With Solutions are tabulated as follows:

CBSE Previous Year Question Papers class 10 Maths

Last 10 Years Question Papers for Class 10 Maths are tabulated as follows:

CBSE Class 10 Maths Question Paper 2018  CBSE Class 10 Maths Question Paper 2017
CBSE Class 10 Maths Question Paper 2016  CBSE Class 10 Maths Question Paper 2015
CBSE Class 10 Maths Question Paper 2013  CBSE Class 10 Maths Question Paper 2012
 CBSE Class 10 Maths Question Paper 2011  CBSE Class 10 Maths Question Paper 2010
 CBSE Class 10 Maths Question Paper 2009  CBSE Class 10 Maths Question Paper 2008

CBSE Topper Answer Sheet Class 10 Maths

Download PDF of Last 5 Years Toppers Answer Sheet Photo Copies from the following table.

Academic Year Topper Answer Sheet
Topper Answer Sheet 2018 PDF Download
Topper Answer Sheet 2017 PDF Download
Topper Answer Sheet 2016 PDF Download
Topper Answer Sheet 2015 PDF Download
Topper Answer Sheet 2014 PDF Download

CBSE Class 10 Previous Year Question Paper Maths 2018

CBSE Class 10 Previous Year Question papers for Maths 2018 with marking scheme for main exam and compartment exam are tabulated as follows:

     CBSE Previous Year Question Paper for Class 10 Maths 2018
Maths Question Paper  2018 (Main Exam) SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download Marking Scheme
SET 3 PDF Download Marking Scheme
Maths Question Paper  2018 (Compartment) SET 1 PDF Download Answers
SET 2 PDF Download Answers
SET 3 PDF Download  Answers

CBSE Previous Year Question Paper Class 10 Maths 2017

CBSE Class 10 Previous Year Question papers for Maths 2017 with marking scheme for main exam and compartment exam are tabulated as follows:

CBSE Previous Year Question Papers for Class 10 Maths 2017 (Main Exam)
Out Side Delhi SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download
Delhi SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download
Foreign SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download
CBSE Previous Year Question Papers for Class 10 Maths 2017 (Compartment)
All India SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download
Delhi SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download

CBSE Previous Year Question Paper Class 10 Maths 2016

CBSE Class 10 Previous Year Question papers for Maths 2016 with marking scheme for main exam and compartment exam are tabulated as follows:

CBSE Previous Year Question Papers for Class 10 Maths 2016 (Main Exam)
Out Side Delhi SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download
Delhi SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download
Foreign SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download

CBSE Previous Year Question Papers Class 10 Maths 2015

CBSE Class 10 Previous Year Question papers for Maths 2015 with marking scheme for main exam and compartment exam are tabulated as follows:

CBSE Previous Year Question Paper Class 10 Maths 2015 (Main Exam)
Out Side Delhi SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download
Delhi SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download
Foreign SET 1 PDF Download Marking Scheme
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download

CBSE Previous Year Question Papers Class 10 Maths 2014

CBSE Class 10 Previous Year Question papers for Maths 2014 with marking scheme for main exam and compartment exam are tabulated as follows:

CBSE Previous Year Question Papers for Class 10 Maths 2014 (Main Exam)
Out Side Delhi SET 1 PDF Download
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download
Delhi SET 1 PDF Download
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download
Foreign SET 1 PDF Download
SET 2 PDF Download
SET 3 PDF Download

CBSE Sample Papers for Class 10 Maths SA2

CBSE Class 10 Sample Question papers for Maths 2017 SA2 are tabulated as follows:

Solved Papers For the Year 2017 :

"<yoastmark

Unsolved Papers:

More Resources for CBSE Class 10:

Importance of Solving CBSE Class 10 Maths Sample Papers

  1. By solving the CBSE Sample Papers for Class 10 Maths, students will get an idea of exam pattern, the types of questions asked and weightage of each section.
  2. Solving CBSE Class 10 sample paper will be good practice for students.
  3. These CBSE Maths Sample Papers covers all the important topics and also the questions which are repeated every year.
  4. CBSE Class 10 Maths sample question paper will help the students to analyze their performance. This will also help with time management.
  5. This will boost up the students’ confidence level.
  6. After this much of practice, students will have a good idea about what to expect in exams.

We hope the CBSE Sample Questions Papers for Class 10 Maths 2021-22 Term 1 & Term 2, help you. If you have any query regarding Maths Sample Questions papers for Class 10 2022 Term 1 & Term 2, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

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NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes Ex 13.2

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Get Free NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Ex 13.2 PDF. Surface Areas and Volumes Class 10 Maths NCERT Solutions are extremely helpful while doing your homework. Exercise 13.2 Class 10 Maths NCERT Solutions were prepared by Experienced LearnCBSE.in Teachers. Detailed answers of all the questions in Chapter 13 Maths Class 10 Surface Areas and Volumes Exercise 13.2 provided in NCERT TextBook.

Surface Areas and Volumes Class 10 Formulas PDF

Topics and Sub Topics in Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes:

Section Name Topic Name
13 Surface Areas And Volumes
13.1 Introduction
13.2 Surface Area Of A Combination Of Solids
13.3 Volume Of A Combination Of Solids
13.4 Conversion Of Solid From One Shape To Another
13.5 Frustum Of A Cone
13.6 Summary

You can also download the free PDF of  Ex 13.2 Class 10 Surface Areas and Volumes NCERT Solutions or save the solution images and take the print out to keep it handy for your exam preparation.

Board CBSE
Textbook NCERT
Class Class 10
Subject Maths
Chapter Chapter 13
Chapter Name Surface Areas and Volumes
Exercise Ex 13.2
Number of Questions Solved 8
Category NCERT Solutions

NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes Ex 13.2

NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes Ex 13.2 are part of NCERT Solutions for Class 10 Maths. Here we have given NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes Ex 13.2

Ex 13.2 Class 10 Maths Question 1.
A solid is in the shape of a cone standing on a hemisphere with both their radii being equal to 1 cm and the height of the cone is equal to its radius. Find the volume of the solid in terms of π.
Solution:
NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Pdf Q1

Ex 13.2 Class 10 Maths Question 2.
Rachel, an engineering student, was asked to make a model shaped like a cylinder with two cones attached at its two ends by using a thin aluminium sheet. The diameter of the model is 3 cm and its length is 12 cm. If each cone has a height of 2 cm, find the volume of air contained in the model that Rachel made. (Assume the outer and inner dimensions of the model to be nearly the same.)
Solution:
Ex 13.2 Class 10 Maths NCERT Solutions PDF Q2

Download NCERT Solutions For Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes PDF

Ex 13.2 Class 10 Maths Question 3.
A gulab jamun, contains sugar syrup up to about 30% of its volume. Find approximately how much syrup would be found in 45 gulab jamuns, each shaped like a cylinder with two hemispherical ends with length 5 cm and diameter 2.8 cm.
NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes Ex 13.2 Q3
Solution:
Ex 13.2 Class 10 Maths NCERT Solutions PDF Q3

Ex 13.2 Class 10 Maths Question 4.
A pen stand made of wood is in the shape of a cuboid with four conical depressions to hold pens. The dimensions of the cuboid are 15 cm by 10 cm by 3.5 cm. The radius of each of the depressions is 0.5 cm and the depth is 1.4 cm. Find the volume of wood in the entire stand.
NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes Ex 13.2 Q4
Solution:
Exercise 13.2 Class 10 Maths NCERT Solutions PDF Q4

Question 5.
A vessel is in the form of an inverted cone. Its height is 8 cm and the radius of its top, which is open, is 5 cm. It is filled with water up to the brim. When lead shots, each of which is a sphere of radius 0.5 cm are dropped into the vessel, one-fourth of the water flows out. Find the number of lead shots dropped in the vessel.
Solution:
Ch 13 Maths Class 10 Ex 13.2 NCERT Solutions PDF Q5

Ex 13.2 Class 10 Maths Question 6.
A solid iron pole consists of a cylinder of height 220 cm and base diameter 24 cm, which is surmounted by another cylinder of height 60 cm and radius 8 cm. Find the mass of the pole, given that 1 cm3 of iron has approximately 8g mass.
Solution:
Chapter 13 Maths Class 10 NCERT Solutions PDF Q6

Ex 13.2 Class 10 Maths Question 7.

A solid consisting of a right circular cone of height 120 cm and radius 60 cm standing on a hemisphere of radius 60 cm is placed upright in a right circular cylinder full of water such that it touches the bottom. Find the volume of water left in the cylinder, if the radius of the cylinder is 60 cm and its height is 180 cm.
Solution:
Class 10 Maths Chapter 13 NCERT Solutions PDF Q7.1
Class 10 Maths Chapter 13 NCERT Solutions PDF Q7.1

Ex 13.2 Class 10 Maths Question 8.
A spherical glass vessel has a cylindrical neck 8 cm long, 2 cm in diameter; the diameter of the spherical part is 8.5 cm. By measuring the amount of water it holds, a child finds its volume to be 345 cm3. Check whether she is correct, taking the above as the inside measurements, and π = 3.14.
Solution:
Surface Area And Volume Class 10 NCERT Solutions PDF Q8

NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes (Hindi Medium) Ex 13.2

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NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes Ex 13.3

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Surface Areas and Volumes Class 10 Formulas PDF

Topics and Sub Topics in Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes:

Section Name Topic Name
13 Surface Areas And Volumes
13.1 Introduction
13.2 Surface Area Of A Combination Of Solids
13.3 Volume Of A Combination Of Solids
13.4 Conversion Of Solid From One Shape To Another
13.5 Frustum Of A Cone
13.6 Summary

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Board CBSE
Textbook NCERT
Class Class 10
Subject Maths
Chapter Chapter 13
Chapter Name Surface Areas and Volumes
Exercise Ex 13.3
Number of Questions Solved 9
Category NCERT Solutions

NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes Ex 13.3

NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes Ex 13.3 are part of NCERT Solutions for Class 10 Maths. Here we have given NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes Ex 13.3

Ex 13.3 Class 10 Maths Question 1.
A metallic sphere of radius 4.2 cm is melted and recast into the shape of a cylinder of radius 6 cm. Find the height of the cylinder.
Solution:
NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Pdf 13.1 Q1

Ex 13.3 Class 10 Maths Question 2.
Metallic spheres of radii 6 cm, 8 cm and 10 cm, respectively, are melted to form a single solid sphere. Find the radius of the resulting sphere.
Solution:
Ex 13.3 Class 10 Maths NCERT Solutions PDF Q2

Download NCERT Solutions For Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes PDF

Ex 13.3 Class 10 Maths Question 3.
A 20 m deep well with diameter 7 m is dug and the earth from digging is evenly spread out to form a platform 22 m by 14 m. Find the height of the platform.
Solution:
Ex 13.3 Class 10 Maths NCERT Solutions PDF Q3

Ex 13.3 Class 10 Maths Question 4.
A well of diameter 3 m is dug 14 m deep. The earth taken out of it has been spread evenly all around it in the shape of a circular ring of width 4 m to form an embankment. Find the height of the embankment.
Solution:
Exercise 13.3 Class 10 Maths NCERT Solutions PDF Q4

Ex 13.3 Class 10 Maths Question 5.
A container shaped like a right circular cylinder having diameter 12 cm and height 15 cm is full of ice cream. The ice cream is to be filled into cones of height 12 cm and diameter 6 cm, having a hemispherical shape on the top. Find the number of such cones which can be filled with ice cream.
Solution:
Exercise 13.3 Class 10 Maths NCERT Solutions PDF Q5

Ex 13.3 Class 10 Maths Question 6.
How many silver coins, 1.75 cm in diameter and of thickness 2 mm, must be melted to form a cuboid of dimensions 5.5 cm × 10 cm × 3.5 cm?
Solution:
Ch 13 Maths Class 10 Ex 13.3 NCERT Solutions PDF Q6

Ex 13.3 Class 10 Maths Question 7.
A cylindrical bucket, 32 cm high and with radius of base 18 cm, is filled with sand. This bucket is emptied on the ground and a conical heap of sand is formed. If the height of the conical heap is 24 cm, find the radius and slant height of the heap.
Solution:
Chapter 13 Maths Class 10 NCERT Solutions Ex 13.3 PDF Q7

Ex 13.3 Class 10 Maths Question 8.
Water in a canal, 6 m wide and 1.5 m deep, is flowing with a speed of 10 km/h. How much area will it irrigate in 30 minutes, if 8 cm of standing water is needed?
Solution:
Class 10 Maths Chapter 13 NCERT Solutions Ex 13.3 PDF Q8

Ex 13.3 Class 10 Maths Question 9.
A farmer connects a pipe of internal diameter 20 cm from a canal into a cylindrical tank in her field, which is 10 m in diameter and 2 m deep. If water flows through the pipe at the rate of 3 km/h, in how much time will the tank be filled?
Solution:
Surface Area And Volume Class 10 NCERT Solutions Ex 13.3 PDF Q9

NCERT Solutions for Class 10 Maths Chapter 13 Surface Areas and Volumes (Hindi Medium) Ex 13.3

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