CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana नए और अप्रत्याशित विषयों पर रचनात्मक लेखन
1. नागरिकता संशोधन एक्ट – 2010
[Citizenship Amendment Act-2019 (C.A.A.)]
दिसम्बर, 2019 को भारत सरकार ने संसद के दोनों सदनों में ‘नागरिकता संशोधन बिल – 2019’ प्रस्तुत किया और संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) ने इसे बहुमत से पारित कर दिया। तत्पश्चात् राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के उपरांत अब यह कानून का रूप ले चुका है। इसी का नाम है- ‘नागरिकता संशोधन कानून – 2019’।
10 जनवरी, 2020 को भारत सरकार ने एक अधिसूचना जारी करके इसे पूरे देश में लागू कर दिया है। इस कानून को लेकर विपक्षी दल अल्पसंख्यकों को गुमराह करके इसका विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस कानून से मुसलमानों की नागरिकता खतरे में पड़ जाएगी। जबकि यह कानून लोगों को नागरिकता देता है, किसी की नागरिकता छीनता नहीं। आइए, अब इस नागरिकता संशोधन कानून के बारे में जान लें।
यह कानून पुराने नागरिकता अधिनियम-1955 में बदलाव करने वाला है। उस पुराने कानून के अंतर्गत किसी भी अवैध प्रवासी को नागरिकता देने पर पाबंदी थी। अब उस कानून में संशोधन कर बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान समेत आस-पास के देशों से प्रताड़ित होकर भारत आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी धर्म वाले लोगों को शरणार्थी मानकर नागरिकता प्रदान की जाएगी। इसके लिए उन्हें भारत में कम-से-कम छह साल बिताने होंगे, पहले नागरिकता देने का पैमाना 11 वर्ष था अर्थात् जो व्यक्ति 2014 से भारत में आकर रह रहे हैं, वे भारत की नागरिकता पाने के हकदार होगें। इसके अंतर्गत कुछ लोगों की भारत को नागरिकता दी भी जा चुकी है।
भारत सरकार का तर्क यह है कि 1947 में देश का बँटवारा धर्म के आधार पर हुआ था। इसके बाद भी पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में कई अन्य धर्मों के लोग भी रह रहे हैं। यह देखा गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यक काफी प्रताड़ित किए जाते हैं। अगर वे भारत में आकर शरण लेना चाहते हैं, तो हमें उनकी मदद करनी चाहिए। विपक्षी दल इस कानून को संविधान की धारा 14 के समानता के अधिकार का उल्लंघन बताकर विरोध कर रहे हैं। विपक्षी दलों का विरोध धर्म को लेकर है। वे इस कानून को धर्म के आधार पर बाँटने वाला बता रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून का पूर्वोत्तर के राज्य भी विरोध कर रहे हैं। वे इस कानून को यहाँ की सांस्कृतिक, भाषायी और परंपरा के साथ खिलवाड़ बता रहे हैं। यह देखने वाली बात है कि इस कानून से 25,000 से अधिक हिंदुओं, 5800 सिक्खों, 55 ईसाई, 2 बौद्ध और 2 पारसी नागरिकों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी। वे पहले से ही भारत में रह रहे हैं।
2. पर्यावरण बचाओ – क्लाइमेट चेंज के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसें
वैज्ञानिकों ने चेताया है कि यदि वर्षा वन कटे तो अनुमान से भी छह गुना नुकसान पर्यावरण को होगा। लगातार होने वाली कटाई हमारे लिए टाइम बम की तरह है। यह समय की जरूरत है कि हम जंगलों को कटने से बचाएँ, तभी हमारा पर्यावरण ठीक रहेगा। पहले अनुमान लगाया गया था कि इन जंगलों की कटाई से हर साल करीब 33.8 करोड़ मीट्रिक टन ग्रीन हाउस गैस पैदा होंगी जबकि नई स्टडी से यह तथ्य सामने आया है कि अब इसकी मात्रा करीब 212 करोड़ हो जाएगी। शोधकर्ताओं ने 2050 तक इसके प्रभाव सामने आने का अनुमान लगाया है। पहले लगाए अनुमान जंगलों की कटाई, वाइल्ड लाइफ पर आए संकट को समझने में नाकाम रहे। जंगलों में बनाई गईं सड़कें और रास्ते शिकार को बढ़ाने में मदद करते हैं। इस कारण जानवरों की प्रजाति पर संकट आता जा रहा है।
पर्यावरण पर आए इस संकट को अभी भी रोका जा सकता है। विशेषज्ञों ने कहा है कि वर्षा वनों का 35 फीसदी हिस्सा यहाँ मूल निवासियों का है। जंगलों के खत्म होने से इन पर भी अस्तित्व का संकट है। हमें मिल जुलकर इस संकट को दूर करना होगा। अब हमें ग्रीन हाउस गैस और उसके प्रभाव को जानना जरूरी है। ग्रीन हाउस गैसों का मतलब उन गैसों से है जो क्लाइमेट चेंज के लिए जिम्मेदार हैं; जैसे- कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड आदि। इन गैसों के बढ़ने से वातावरण में असंतुलन पैदा हो जाता है। मसलन, ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ने के कारण सूर्य की गर्मी का ज्यादा हिस्सा ये गैसें सोख लेती हैं। इस वजह से धरती का तापमान बढ़ रहा है। जंगलो के कम होने से ग्रीन हाउस गैस ज्यादा प्रभावी हो जाती है।
3. वॉट्सऐप में ताका झाँकी
वॉट्सऐप कॉल के जरिए फोन जासूसी के नए खुलासे चौंकाने वाले हैं। विपक्ष ने जब इसे मुद्दा बनाया तब सरकार ने भी चुस्ती दिखाते हुए वॉट्सऐप को नोटिस देकर स्पष्टीकरण माँगा है। नागरिकों की निजता पर हुए इस हमले की जानकारी हमें तब मिली जब खुद वॉटसऐप ने अमेरिका में इजरायली कंपनी एन. एस. ओ. ग्रुप के खिलाफ केस दर्ज करते हुए बताया कि इस कंपनी द्वारा विकसित सॉफ्टवेयर के जरिए दुनियाभर के 1400 लोगों के फोन से सूचनाएँ उड़ाई गई हैं। यही कारण है कि विपक्ष ने आलोचनाओं का मुँह सीधे सरकार की ओर मोड़ दिया है। इनमें जितने भारतीयों के नाम सामने आए हैं, वे किसी-न-किसी वजह से सरकार के निशाने पर रहे हैं।
अभी तो यह साफ़ होना बाकी है कि जब वॉट्सऐप को इस बात की जानकारी मिली कि उसकी सेवाओं को जरिया बनाकर उसके कुछ उपभोक्ताओं की निजता पर हमला हुआ है तो उसने अपने स्तर पर उनको सतर्क, सजग करने के लिए क्या किया? बहरहाल, सबसे ज्यादा शोर अभी भले ही निजता को लेकर हो रहा है, पर इस प्रकरण में कई और बड़े मुद्दे भी शामिल हैं। यह लोकतात्रिक चेतना को कुंद करने और राजनीतिक गतिविधियों पर अघोषित अंकुश लगाने का मामला ज्यादा लगता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे की बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। सरकार को इस मामले की निर्मम और पारदर्शी जाँच करानी चाहिए और दोषी को ऐसी सजा दिलाने की व्यवस्था होनी चाहिए, जिसे याद करके कोई भी ऐसा करने से पहले हज़ार बार सोचे।
4. धरती का तापमान बढ़ा तो जल संकट
ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रहा है। यदि यह इसी तरह बढ़ता रहा तो इस सदी के अंत तक पौधे ज्यादा पानी सोखना शुरू कर देंगे। इससे अनेक देशों के लोगों को पानी की कमी से जूझना पड़ेगा। नेचर जियोसाइंस नामक पत्रिका में छपी एक स्टडी के अनुसार जमीन से धरती के वातावरण तक पानी पहुँचाने में पौधों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इस सदी के अंत तक ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती का तापमान 4-6 डिग्री तक बढ़ जाएगा और कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दुगुनी हो जाएगी। ऐसे में यह तीन तरीकों से पौधों की वृद्धि को प्रभावित करेगा।
अभी तक यह माना जाता रहा है कि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से पौधों को फोटोसिंथेसिस यानी अपना खाना पकाने के लिए कम पानी की जरूरत पड़ती है। इससे मिट्टी में ज्यादा पानी बना रहेगा। लेकिन अब यह तथ्य सामने आया है कि इसका दूसरा प्रभाव भी हो सकता है। ज्यादा गरम दुनिया का मतलब होगा पौधों को बढ़ने के लिए ज्यादा गरम मौसम मिलेगा। इससे वे ज्यादा पानी सोखेंगे और इससे धरती सूखेगी। नदियों और जल स्रोतों पर इसका उल्टा असर पड़ेगा। पर्यावरण वैज्ञानिकों ने दुनिया भर की सरकारों से कहा है कि अगर जैव विविधता को बचाना है तो नई नीति अपनानी होगी। आर्थिक विकास की नीति ऐसी हो जो पर्यावरण पर असर न डाले। पर्यावरण से धरती के तापमान को बढ़ने से रोकने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।
5. प्रकृति से दूर होता हमारा जीवन
जीवन अत्यंत सुंदर और आकर्षक है। दुर्भाग्य से इस समय मनुष्यों के भीतर जीवन के सौंदर्य और आकर्षण को परखने व समझने की क्षमता में निरंतर गिरावट आ रही है। जिसके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था, आज वही दुर्गुण मनुष्यों पर भारी पड़ रहा है। दरअसल मनुष्य प्रकृति का अंश है, लेकिन प्रकृति के दो प्रमुख जीवनदायी तत्व वायु और जल निरंतर प्रदूषित हो रहे हैं। जंगल लगातार कम हो रहे है। गगनचुंबी इमारतें आसमान तक मनुष्य की नजरों को पहुँचने नहीं देतीं।
कुल मिलाकर मनुष्य प्रकृति से दूर होता जा रहा है। वर्षों पूर्व यदि कोई मनुष्य सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं की पीड़ाओं से गुजरता भी था तो उसे एकांत में प्रकृति का सहारा मिलता था। प्रकृति से जीवन के प्रति लगन बढ़ाने की आत्मप्रेरणा मिलती थी। वर्तमान में समाज, परिवार, शासन-प्रशासन और प्रकृति सभी व्यक्ति के लिए प्रतिकूल हो चुके हैं। अवसाद, तनाव, मनोभ्रम, मतिभ्रम, शारीरिक-मानसिक व्याधियाँ और सोचने-समझने की शक्ति के शून्य हो जाने जैसे रोग मनुष्य को बुरी तरह जकड़ चुके हैं। इन परिस्थितियों में कोई मनुष्य अपनी संवेदना को कैसे बनाए रखे, यह महत्त्वपूर्ण है।
संवेदना में अंतराल अत्पन्न होते ही मनुष्य की अंतर्दृष्टि क्षीण होने लगती है। मनुष्य का व्यवहार और आचरण असामान्य होने लगता है ऐसे में मनुष्य परिस्थिति जन्य दुर्गुणों और दुर्गतियों के वश में हो जाता है। उसका आत्मचिंतन नगण्य हो जाता है। उसकी आत्मिक चेतना अदृश्य हो जाती है। वह मौलिक विचारों और अनुभूतियों से रहित हो सर्वथा विध्वंसकारी गतिविधियों का सहज अंग बनने लगता है। आज चहुँ ओर देखने पर अधिसंख्य मनुष्य विध्वंसकारक गतिविधियों के ही अंग बने प्रतीत होते हैं। ऐसे में जीवन से लगाव रखने वाले, जीवन-सौंदर्य के बोध से रंगानुभूत, जीवन से स्नेह रख उसे कोमलता से सहेजनवाले और प्रति क्षण जीवन के उदात्त भाव से संचित रहने वाले मनुष्य संशयग्रस्त हैं।
6. नदी की शुद्धता उसके बहने में है
वर्तमान में एक विकट समस्या से हम सब घिरे हुए हैं और वह है – पर्यावरण। हमारी नदियाँ कराह रही हैं। कभी इन्हीं नदियों के किनारे हमारी सभ्यताएँ विकसित हुई थीं। फिर आज क्यों ये नदियाँ सिसक रही हैं ? इन नदियों के लिए मानव का स्पर्श ही जैसे अभिशाप हो गया है। नदियाँ जैसे ही मानव सेवा के लिए अपने किनारे खोलती हैं, मानव इनको इतना दूषित कर देता है कि इन नदियों का दम घुटने लगता है अब बात उठती है कि नदियाँ स्वच्छ कैसे हों नदियाँ इस समस्या में इंसान की वजह से फँसी हैं। आज नदियाँ निर्बाध बहने में असमर्थ हैं। उनका पानी रोका जा रहा है। बड़े-बड़े डैम बनाकर पानी को रोक रहे हैं। इनसे सिर्फ पानी नहीं रूक रहा, नदियों को शुद्ध रहने का जो बरदान मिला था वह भी भंग हो रहा है। नदियाँ जितना बहेंगी, उतनी शुद्ध होंगी, क्योंकि वे निर्बाध बहते हुए अपने अंदर डाली गईं तमाम गंदगियों को बहाकर ले जाती हैं। अगर उनका पानी रूकेगा तो उनमें गाद जमा होगी। अगर नदी बहती रहती तो वह गाद रुक नहीं पाती। नदियाँ बहकर ही शुद्ध रह सकती हैं।
अब आइए इंसान पर। जो इंसान ठहर गया, उसमें प्रदूषण आना ही है। चलता हुआ इंसान महत्त्वपूर्ण होता है। तमाम सभ्यताएँ इंसान के चलने की वजह से ही पटल पर उभरी हैं। इंसान के चलने से उसमें मौजूद तमाम गंदगी बहकर खत्म हो जाती है। चलने वाला मनुष्य ही सभी विचारों को देखता है, तर्क पर तौलता है और फिर एक नया विचार देता है। जो मनुष्य के चलने का विज्ञान समझेगा, वही नदी के बहने का विज्ञान भी समझेगा। मनुष्य अपने लिए और नदी के लिए समान रूप से सोचे। प्रकृति ने दोनों को अपनी अशुद्धियाँ दूर करने का गुण स्वयं में दिया है। बहती हुई नदी शुद्ध हो जाएगी और चलता हुआ मनुष्य शुद्ध विचार देकर जाएगा।
7. किसान : चुनावी एजेंडा
आजकल 2020 का एजेंडा तय किया जा रहा है। वैसे तो हर बार चुनावों से पहले एजेंडा तय होता है, पर इस बार एक नई बात यह है कि इस बार एजेंडा – “धर्म बनाम किसान” हो गया है। किसानों की बात तो हर चुनावों में की जाती है, लेकिन उनका जिक्र सारी पार्टियाँ सरसरी तौर पर करती हैं। इस पर परिदृश्य बदला हुआ है। केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्ष की कथित एकजुटता इसे नई हवा दे रहा है।
तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने सत्ता संभालने के 24 घंटे के अंदर अपने-अपने यहाँ किसानों के कर्ज माफ करने की घोषणा कर दी। किसानों को लेकर पार्टियों में धर्म संकट है। बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस और वामपंथी दलों ने किसानों के मुद्दों की सबसे ज्यादा मार्केटिंग की है। यद्यापि कांग्रेस की मनरेगा के नतीजे अच्छे रहे, पर उसे यादगार योजना की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अभी भी अनेक राज्यों में किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
बीजेपी ने भी कांग्रेस की गलतियों से कुछ नहीं सीखा। 2017 में यूपी ने प्रचंड जनमत पाकर योगी सरकार ने अपना वादा पूरा कर दिया। किसानों का 7371 करोड़ रुपए का कर्ज माफ़ किया गया। लेकिन लगता है कि कर्जमाफी की यह सुनहरी तस्वीर सिर्फ कागजी हैं। हकीकत में इसकी पात्रता को इतनी तकनीकी बना दिया गया कि कहीं किसान के दस रुपए कर्ज के रूप में माफ किए गए तो कहीं सौ रुपए से पाँच सौ रुपए तक।
8. घर से विद्यालय का सफर
मैं प्रतिदिन घर से विद्यालय का सफर तय करता हूँ। यह सफर मैं पैदल ही तय करता हूँ। मेरा विद्यालय ठीक आठ से प्रारंभ हो जाता है। मेरा विद्यालय घर से दो किलोमीटर दूर है। इस दूरी को मैं बीस मिनट में तय कर लेता हूँ। मैं प्रातः ठीक साढ़े सात बजे घर से विद्यालय के लिए निकलता हूँ। मेरे साथ मेरे दो मित्र भी होते हैं। हम तीनों व्यक्ति पैदल चलकर विद्यालय जाना पंसद करते हैं। पैदल चलने का अपना ही आनंद है। इसका दोहरा लाभ है-एक, हमारी किसी वाहन पर निर्भरता नहीं रहती। दूसरा, हमारी प्रातः कालीन सैर भी सम्पन्न हो जाती है।
हम तीनों मित्र बातचीत करते हुए इस सफर को पूरा करते हैं। हमारे इस सफर में कहीं कोई बाधा नहीं आती। प्रात:काल हमें प्रकृति – सौंदर्य को निहारने और आनंद उठाने का पूरा-पूरा अवसर मिलता है। इस समय पक्षियों की चहचहाट बड़ी भली प्रतीत होती है। इस वातावरण को देखकर मैं प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत की यह कविता गुनगुनाने लगता हूँ :
प्रथम रश्मि का आना रंगिणि। तूने कैसे पहचाना?
कहाँ-कहाँ हे बाल विहंगिनि ! पाया, तूने यह गाना ?
कूक उठी सहसा, तरूवासिनी गा तू स्वागत का गाना।
हमारे सफ़र के मध्य में एक बड़ा सा पार्क आता है। हम देखते हैं कि पार्क में अनेक व्यक्ति व्यायाम तथा यौगिक क्रियाएँ कर रहे होते हैं। रास्ते में एक हलवाई की दुकान भी आती है। इस पर प्रातः कालीन नाश्ते के लिए जलेबियाँ – कचौड़ियाँ बनाई जा रही होती हैं। पूरे रास्ते में चहल-पहल बनी रहती है। लोग समाचार पत्र पढ़ते हुए भी दिखाई देते हैं। सड़क पर स्कूलों की पीली बसें जा रही होती हैं। यह पूरा दृश्य बहुत ही मनोरम होता है। हमारा सफर कब बीत जाता है, कुछ पता ही नहीं चलता। हम ठीक 7.40 पर स्कूल पहुँच जाते हैं। यह सफ़र आनंदप्रद होता है।
9. प्रदूषण मुक्त प्रकृति का स्वप्न
प्रकृति अपने मूलरूप में सर्वथा प्रदूषण मुक्त है। पर मानव की स्वार्थी प्रवृत्ति का अंधाधुंध दोहन करके इसमें प्रदूषण का विष घोल दिया है। प्रकृति को प्रदूषण मुक्त रूप में हमें जीवनदायिनी शक्ति प्राप्त होती है। हमें साँस लेने को स्वच्छ वायु मिलती है, पीने को स्वच्छ जल मिलता है, प्रकृति का ध्वनि प्रदूषण रहित शांत वातावरण मिलता है। यह मनुष्य ही है कि उसने वृक्षों की अंधाधुंध कटाई करके वायु प्रदूषण को बढ़ावा दिया है, नदियों के जल में अपशिष्ट घोलकर उसे गंदा किया है तथा तेज शोर वाले संगीत से ध्वनि-प्रदूषण को बढ़ाया है। अब प्रकृति भी उससे बदला ले रही है। मौसम चक्र गड़बड़ा गया है, प्राकृतिक आपदाएँ आती रहती हैं और और जान माल को भारी क्षति पहुँचाती हैं।
मैं जब-जब इस प्रकार पर्यावरण को प्रदूषित होते हुए देखता हूँ, तब तब मै कल्पना करता हूँ कि धरती को कैसे प्रदूषण मुक्त किया जा सकता है। मैं प्रदूषण मुक्त प्रकृति का स्वप्न देखा करता हूँ। न जाने वह कौन-सा दिन आएगा, जब यह प्रकृति प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त होगी और मैं स्वच्छ वातावरण में श्वास ले सकूँगा। वैसे मैं आशावादी हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ऐसा दिन निकट भविष्य में शीघ्र ही आएगा। इसके लिए जनता में चेतना आ रही है और सरकार भी अपनी ओर से पूरे प्रयास कर रही है। सभी के सम्मिलित प्रयासों से हम प्रकृति को प्रदूषण मुक्त करने में अवश्य सफल हो जाएँगे।
प्रकृति के प्रति हमें पूजनीय भाव रखना होगा। हमारी संस्कृति में अनेक प्रकार के वृक्षों की पूजा करने की परंपरा रही है। हमारी संस्कृति में वृक्षों की पूजा की जाती रही है। हमें भी मन में वृक्षों को देवता मानने का भाव जगाना होगा क्योंकि वृक्ष हमें बहुत कुछ देते हैं। वृक्ष ही हमारे पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त बनाते हैं। अतः हमें दो प्रण करने होंगे –
1. हरे-भरे वृक्षों को काटेंगे नहीं।
2. नए-नए वृक्ष लगाएँगे। विशेष अवसरों पर वृक्षारोपण कर उत्सव मनाएँगे।
हमें पूरे वातावरण को हरा-भरा बनाना ही होगा। इसके साथ-साथ नदियों के जल की स्वच्छता को बनाए रखने के हर संभव प्रयास करने होंगे। वनों का प्रतिशत बढ़ाना होगा, अभी यह काफी कम है। इन सभी प्रयत्नों से यह प्रकृति पूर्णतः प्रदूषण मुक्त हो जाएगी।
10. अगर मैं फ़िल्म बनाता
आज की चमक-दमक के वातावरण में फिल्म बनाना और फिल्म में काम करना सभी को आकर्षित करता है। मैं भी एक फिल्म बनाने का इरादा रखता हूँ। काश मुझे फिल्म बनाने का अवसर मिल पाता। मैं इस तथ्य से भली-भाँति अवगत हूँ कि फिल्म बनाना इतना आसान काम नहीं है जितना लोग सोचते है। फिल्म बनाना बड़ा टेढ़ा और श्रम – साध्य कार्य है। फिल्म बनाने के लिए अनेक प्रकार की व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं- कहानी का चुनाव करना पड़ता है, धन की व्यवस्था करनी पड़ती है, कलाकारों का चुनाव करना पड़ता है, लोकेशन ढूँढनी पड़ती है, सैट लगाने पड़ते है, पब्लिसिटी करनी पड़ती है। इन कामों में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस सारी स्थिति को मैं भली प्रकार समझता हूँ और इनका सामना करने को तैयार भी मेरे मन में एक सार्थक फिल्म बनाने की इच्छा काफी समय से है। इसका प्लॉट भी मेरे दिमाग़ में घूमता रहता है।
मुझे काल्पनिक विषयों पर फिल्म बनाना कतई पसंद नहीं है। इन दिनों राष्ट्र के सम्मुख अनेक ज्वलंत मुद्दे हैं गरीबी है, बेरोजगारी है, शिक्षा की कमी है, नारी सुरक्षा में चूक है, बलात्कार की घटनाएँ बढ़ रही है, अराजकता की स्थिति है। मैं एक ऐसी फिल्म बनाता जिसमें राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया गया हो। यदि मैं फिल्म बनाता तो क्या-क्या काम करता? इसकी स्पष्ट रूप-रेखा मेरे मन-मस्तिक में है। मैं एक सशक्त पटकथा तैयार करता। लटके-झटके वाली फिल्म मुझे पसंद नहीं है। मेरी फिल्म का संदेश स्पष्ट होता। मैं अपनी फिल्म में नए कलाकारों को स्थान देता। इसके दो लाभ होते – एक तो उनके पास पर्याप्त समय होता। अतः शूटिंग निर्धारित समय में पूरी हो जाती। खर्च भी कम आता। मैं अपनी फिल्म में संगीत को स्थान तो देता, पर यह चालू किस्म का संगीत न होकर साहित्यिक, उच्च-स्तरीय होता। यह संगीत प्रेरणा देने वाला होता। मैं अपनी फिल्म को केवल दो महीने की शूटिंग में पूरा कर लेता। मैं अपनी फिल्म का निर्देशन भी स्वयं करता। इसे अपनी मनमर्जी के मुताबिक बनाता। काश ! मुझे फिल्म बनाने का अवसर मिलता !
11. पाठ्यक्रम में आर. एस. एस. का इतिहास : औचित्य
नागपुर विश्वविद्यालय के बी. ए. इतिहास (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का परिचयात्मक इतिहास और राष्ट्र-निर्माण में उसकी भूमिका को शामिल किया गया है। इसे भारत का इतिहास (1885-1947) इकाई में एक अध्याय के रूप में जोड़ा गया है। इसमें बताया गया है कि आर. एस. एस. की स्थापना कब और किसने की तथा इसकी विचारधारा और नीतियाँ क्या हैं ? इस प्रकरण के पाठ्यक्रम में शामिल करने पर इसके औचित्य पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। इस पर चर्चा करना अनिवार्य है।
ध्यान देने योग्यबात यह है कि स्नातक के कोर्स में पहले से ही साम्यवादियों और विविध विचारधाराओं से संबंधित अध्याय हैं। पहले भाग में कांग्रेस की स्थापना और जवाहरलाल नेहरू के उदय से संबंधित जानकारी हैं। दूसरा भाग सविनय अवज्ञा आंदोलन पर आधारित है और तीसरा भाग आर. एस. एस. पर है। चूँकि विविध विचारधाराओं में यह भी एक बड़ी विचारधारा है, अत: इसी दृष्टि से इसे पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का इतिहास 2003 से ही नागपुर विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम का हिस्सा है। इसमें एक अध्याय आर.एस.एस. के संस्थापक श्री के.बी. हेडगेवार पर भी है। विश्वविद्यालय के वी.सी. सिद्धार्थ काणे बताते हैं कि यह 1885-1947 की अवधि का हिस्सा है, 1947 के बाद के आर.एस.एस. के बारे में नहीं है। वी.सी. का तर्क है कि बी. ए. के पाठ्यक्रम में कांग्रेस के इतिहास पर अध्याय है। कोई इस पर भी प्रश्न चिह्न लगा सकता है। दूसरा तर्क यह है कि जब एम.ए. के पाठ्यक्रम में संघ है तो फिर बी.ए. में गलत कैसे ? हमें पूर्वाग्रह से परे हटकर सोचना होगा।
हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि आजादी की लड़ाई सिर्फ गाँधी-नेहरू या कांग्रेस ने ही नहीं लड़ी थी। इस लड़ाई में हर व्यक्ति ने अपने तरीके से विदेशी शासन का विरोध किया था। सभी विचारधारा के लोग ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। स्वयं आर. एस. एस. के संस्थापक हेडगेवार जी ने स्कूल के निरीक्षक के सामने वंदे मातरम का जयघोष किया था जिसके परिणामस्वरूप उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया था। वे ‘क्रांतिकारी अनुशासन समिति’ से जुड़े। 1921 के सत्याग्रह – आंदोलन में गिरफ्तार होकर साल भर तक जेल में रहे। उन्होंने 1925 में आर. एस. एस. की स्थापना की। 1925-40 तक स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोग करते रहे। 1940 तक संघ का संगठन काफी व्यापक हो चुका था। यदि संघ राष्ट्र विरोधी या संविधान विरोधी होता तो अब तक देश के लोग उस खारिज कर चुके होते। अतः इसकी स्वीकार्यता को देखते हुए पाठ्यक्रम में इसके बारे में बताना उचित ही कहा जाएगा।
12. नया राष्ट्रीय शिक्षा आयोग : नई शिक्षा नीति
शिक्षा में सुधार की माँग पुरानी है। भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय ने 2015 में डॉ. के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक नौ सदस्यीय समिति का गठन किया था। इस समिति ने अपनी जो रिपोर्ट मंत्रालय को सौंपी, वह ‘नई शिक्षा नीति’ के प्रारूप में चर्चित है। इससे देश की शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की बात की जा रही है, लेकिन इसको लेकर आशंकाएँ भी कम नहीं हैं। इस प्रारूप में बच्चों की शिक्षा तीन साल की उम्र से शुरू करने की बात कही गई है। इसे आँगनवाड़ी वाली शिक्षा बोलना उपयुक्त रहेगा। इसमें खेलने-कूदने का बल है। यह कक्षा एक से पहले की शिक्षा है। इसके लिए जमीनी स्तर पर बुनियादी जरूरतों कों पूरा करना आवश्यक होगा। समिति ने यह भी सिफारिश की है कि बच्चों को पाँचवीं तक की शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी जाए। नई शिक्षा नीति में शिक्षा बजट को धीरे- धीरे बढ़ाते हुए 20 प्रतिशत तक ले जाने की बात कही गई है। अभी शिक्षा पर बहुत कम खर्च किया जा रहा है। समिति ने ‘नीति आयोग’ की तरह एक ‘राष्ट्रीय शिक्षा आयोग’ के गठन की भी सिफारिश की है।
यह प्रस्ताव केन्द्रीकरण को लाने वाला सिद्ध होगा। हमें यह ध्यान रखना होगा कि शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है। राज्य सरकारों की इस पर सहमति होनी आवश्यक है। उच्च शिक्षा के अलावा माध्यमिक शिक्षा के लिए हर राज्य का अपना अलग शिक्षा बोर्ड है। देखना होगा कि राज्य अपने शिक्षा बोर्ड को विघटित करके एक केंद्रीय बोर्ड को स्वीकार करेंगे ? यदि पूरे देश में एक बोर्ड और एक तरह की पाठ्यक्रम होगा तो विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता समाप्त हो जाएगी। प्रारूप में एक शब्द बार-बार आया है- ‘लिबरल आर्ट्स’। यह अमेरिकी शिक्षा पद्धति से जुड़ा शब्द है। इसमें सामान्य शिक्षा को बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सभी अंडरग्रेजुएट बैचलर डिग्री के विकास का लक्ष्य हर छात्र में रचनात्मक चिंतन, कौशल और योग्यता विकसित करना होता है। अभी नई शिक्षा नीति की सफलता-विफलता पर चर्चा का दौर जारी है।
13. आबादी का असंतुलन
संयुक्त राष्ट्र संघ की वैश्विक जनसंख्या रिपोर्ट- 2019 में कई ऐसे बिंदु रेखांकित किए गए हैं जो हमें हमसे सजग होने की माँग करते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक विश्व की जनसंख्या 770 करोड़ से बढ़कर 970 करोड़ हो जाएगी। हालांकि जनसंख्या वृद्धि दर में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। वैश्विक स्तर पर प्रति महिला औसत जन्मदर 1990 में 3.2 थी जो 2019 में घटकर 2.5 रह गई है। 2050 तक इसके कम होकर 2.2 हो जाने का अनुमान है। पर दुनिया के 55 देश ऐसे हैं जहाँ आबादी घट रही है। इसके लिए पलायन, अराजकता और अशांति भी कारण हैं।
कुछ ऐसे देश हैं जहाँ कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है, लेकिन रोजगार के अच्छे अवसरों की कमी उन्हें बेहतर ठिकानों की ओर जाने के लिए मजबूर कर रही है। बहरहाल, वैश्विक आबादी के इस बिगड़ते संतुलन को ध्यान में रखें तो आने वाले वर्षों में विभिन्न देश अकेले अपने स्तर पर इस समस्या का कोई हल नहीं निकाल पाएँगे। बेहतर होगा कि वैश्विक स्तर पर नीतियों, योजनाओं और कानूनों में समन्वय लाने के प्रयास अभी से किए जाएँ ताकि जो बदलाव माँग और पूर्ति की कष्टप्रद प्रक्रिया के तहत आ रहे हैं, उन्हें ज्यादा सहज तरीके से संभव बनाया जा सके।
जनसंख्या में भारी उथल-पुथल का ही दूसरा पहलू है – आबादी के अलग-अलग आयु वर्गों का बदलता अनुपात। स्वास्थ्य सुविधाएँ बढ़ने के साथ ही पूरी दुनिया में 65 साल से ऊपर के बुजुर्गों की संख्या अभी पाँच साल से कम उम्र के बच्चों से ज्यादा हो चुकी है और 2050 तक आबादी में उनका हिस्सा छोटे बच्चों का दो गुना (भारत के मामले में तीन गुना) हो चुका होगा। आबादी का ऐसा टेढ़ा अनुपात जल्दी ही हमारे सामने बुजुर्गों की देखरेख और उनकी ऊर्जा के रचनात्मक उपयोग को चुनौती पेश करेगा। इसके साथ ही हमें अपने कुछ स्थापित जीवन-मूल्यों पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करेगा।
14. उत्तराखंड का पर्यावरणीय योगदान
उत्तराखंड देश के पर्यावरण में अथक योगदान करता आया है। वनों को सुरक्षित रखने का और वन्य जीवों के साथ मैत्री भाव यहाँ के लोगों में रहा है। वे इन वन्य पशुओं से अपने जीवन व खेती-बाड़ी के नुकसान को भी झेलते हैं। वैसे देखा जाए तो केवल वन ही नहीं, यहाँ की मिट्टी, पानी, हवा सब देश के मिजाज को खुशनुमा बनाने में योगदान करते हैं। लगभग 71 प्रतिशत वन क्षेत्र वाले उत्तराखड ने देश के लिए शुद्ध हवा और वनस्पति उपलब्ध करवाई है। उत्तराखण्ड के ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों से निकली सदानीरा नदियाँ अपने साथ मिट्टी बहाकर निचले मैदानों को उपजाऊ बनाती हैं। वैसे इस उपजाऊ मिट्टी से अच्छी फसल उपजाने का श्रेय मैदानी क्षेत्रों के किसानों के पुरुषार्थ को जाता है। उत्तराखंड के योगदान का भी कुछ मूल्यांकन तो होना ही चाहिए।
अभी हाल में राज्य सरकार के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि देश की आबो-हवा को शुद्ध और जीवनदायिनी बनाए रखने के लिए उत्तराखंड हर साल करीब तीन लाख करोड़ रुपए की पर्यावरण सेवाएँ देता है। इसमें वनों का योगदान 98 हजार करोड़ रुपयों का है। इस योगदान के बदले उत्तराखंड के लोगों को कुछ नहीं मिलता।
इस पहाड़ी राज्य के गठन के पीछे यही तर्क था कि इस राज्य का विकास का मॉडल इसकी प्रकृति और जरूरतों के अनुरूप है। वह तो हुआ नहीं, प्राकृतिक संसाधनों को बचाए रखने के नाम पर तरह-तरह की पाबंदियाँ जरूर लग गईं। इन प्रतिबंधों से ऊर्जा क्षेत्र हो या बुनियादी सुविधाओं का विकास हो, इसमें रुकावटें आईं। कई जल विद्युत परियोजनाएँ रुकी हुई हैं। ‘भागीरथी इको सेंसिटिव जोन’ की वजह से विकास योजनाओं पर असर पड़ा है।
निश्चित रूप से पर्यावरण संरक्षण की जरूरत से इन्कार नहीं किया जा सकता, पर विषम भौगोलिक परिस्थितियों से जूझते इस राज्य के विकास को रोके रखना उचित नहीं है। अपनी युवा शक्ति के पलायन को रोकना उत्तराखंड की जरूरत है, उत्तराखंड के जंगल और परिवेश को बचाए रखते हुए यहाँ के युवाओं के लिए रोजगार के पर्याप्त अवसर जुटाना आवश्यक है।
15. फिल्मों में बढ़ता तकनीकी दखल
सन् 1969 में मणिकौल की फिल्म ‘उसकी रोटी’ और मृणालसेन की ‘भुवनशोम’ से भारतीय फिल्मों में एक नई धारा की शुरुआत हुई, जिसे समांतर या न्यू वेव सिनेमा कहा गया। इस न्यू वेव सिनेमा ने आधी शताब्दी पूरी कर ली है। अब मेनस्ट्रीम सिनेमा का दौर है। ये फिल्में नाम से संचालित होती हैं। इसके बिना इनका खर्च नहीं निकल पाता। उनका कला से कोई ताल्लुक नहीं होता। इस दृष्टि से मेनस्ट्रीम और कला सिनेमा की तुलना नहीं की जानी चाहिए। 1970-80 के दशक में न्यू वेब सिनेमा की अखबारों में खूब प्रशंसा होती थी। ऋत्विक दा ने एपिक फॉर्म से दर्शकों का परिचय कराया। उन्होंने बैख्यात के नाटकों का अनुवाद किया। 1967 में फ्रांस में एक गधे को केंद्र में रखकर बनाई गई उनकी फिल्म ‘बलथाजार’ में देखी गई।
भूमंडलीकरण के साथ सिनेमा की तकनीक में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं। नई तकनीक ने नए युवा फिल्मकारों का प्रयोग करने का काफी मौका दिया है। पर उन्हें ‘बलथाजार’ और ‘मेघ ठाका तारा’ की ऊँचाई तक पहुँचने में बहुत वक्त लगेगा। एक बड़ी समस्या यह है कि तकनीक का दखल मानवीय हस्तक्षेप से कहीं ज्यादा है। युवा फिल्मकारों में सत्य और सुंदर की तलाश है, पर निराश हैं क्योंकि उनके पास अवसर नहीं हैं, कोई उनको महत्त्व नहीं दे रहा।
16. डिप्रेशन में डूबते बच्चे
मानव संसाधन मंत्रलय की ओर से पेश एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 11 से 17 वर्ष की आयु वर्ग के स्कूली बच्चे उच्च तनाव के शिकार हैं। इसके कारण उनको मनोवैज्ञानिक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय स्वास्थ्य और तंत्रिका संस्थान (NIMHANS) बेंगलुरु की ओर से देश के 12 राज्यों में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण किया गया था। इस सर्वे में 34,802 वयस्क और 1191 बच्चों किशोरों से बात की गई। 13 से 17 आयु वर्ग के लगभग 8 प्रतिशत किशोरों में तनाव से पैदा मानसिक बीमारी पाई गई थी। गाँवों में 6.9 प्रतिशत तथा शहरों में 13.5 प्रतिशत बच्चों में यह बीमारी पाई गई। इसका सीधा संबंध शहरी जीवन और गलाकाट प्रतियोगिता वाली स्कूली शिक्षा प्रणाली से है।
70 हजार छात्र खराब नतीजे के कारण आत्महत्या कर चुके हैं। मानव संसाधन मंत्रालय ने कहा है कि इस रिपोर्ट के आने के बाद प्रभावी कदम उठाने की पहल की गई है। स्कूल में काउंसलिंग की व्यवस्था के अलावा तनाव रहित माहौल बनाने की दिशा में कारगर कदम उठाए जा रहे हैं। स्कूलों में ‘हैप्पीनेस पाठ्यक्रम’ भी शुरू किया गया है। पेशेवर लोगों को बुलाकर बच्चों की काउंसलिंग करवाने के लिए अलग से फंड की व्यवस्था की गई है। इस कार्यक्रम में प्रशिक्षित शिक्षकों तथा अभिभावकों को भी शामिल किया जा रहा है। इसका एक उपाय यह भी सुझाया गया है कि बच्चों के पाठ्यक्रम में प्रेरणा देने वाली कहानियों को शामिल किया जाए। इनमें कठिन हालात में संघर्ष करने की प्रेरणा देने वाली कहानियाँ भी होंगी।
मंत्रालय ने स्कूलों को कहा है कि वे बच्चों को ‘ मंद गति से सीखने वाले’ या ‘प्रतिभाशाली बच्चे’ या ‘समस्याकारी बच्चे’ आदि रूपों में न बाँटें। इस भेद से तनाव बढ़ाने वाली स्थिति पैदा होती है। स्वस्थ प्रतियोगिता का आयोजन करें, लेकिन किसी भी हालत में बच्चों में हीन भावना न आने दें। बच्चों को आस-पास के वातावरण से जोड़ा जाना चाहिए।
17. सम्मान-अपमान शब्दों के खेल हैं
शीत ऋतु में हाड़ कँपाती ठंड में गर्मी पाने के लिए अलाव की आग बड़ी सुखकर प्रतीत होती है। पर, ग्रीष्म ऋतु आने पर जब बढ़ जाती है तब दीपक की लौ भी खटकने लगती है। इसी तरह हमारे प्रति किसी के क्रोध के पीछे जब सुलगता हुआ प्रेम होता है, तब उसका भयंकर क्रोध भी हमें व्याकुल नहीं करता, अपितु अच्छा ही लगता है। लेकिन यदि उस क्रोध के पीछे तिरस्कार का भाव है तो ऐसा क्रोध करने वाले व्यक्ति का बोला गया मामूली सा भी शब्द या कृत्य हमें अपमानजनक लगता है।
सच तो यह है कि अपमान जैसी कोई स्थिति होती ही नहीं है। न किसी का अपमान होता है, न ही कोई कर सकता है। हमने अपने मन में सम्मान की इतनी अधिक अपेक्षा पाल रखी है कि जरा-सी उपेक्षा से हम अपने को अपमानित महसूस करने लगते हैं। किसी ने हमें आदर से बुलाया और किसी ने दुत्कार दिया, ये दोनों शब्द ही तो हैं। यदि हमारे मन में मान-अपमान की भावना न हो तो इन शब्दों से हमारा बनता – बिगड़ता कुछ भी नहीं।
हम सभी वैचारिक आग्रह से बँधे हुए हैं। हमारे सबके अपने-अपने गणित हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सह-जीवन के लिए वैचारिक सहिष्णुता भी अनिवार्य है। सहनशील होना औरों के लिए नहीं, अपितु अपने लिए अधिक लाभदायी है। अगर कोई अपने प्रेम का दायरा छोटा करके उससे हमें निकाल दे तो हमें अपने प्रेम के दायरे को इतना बड़ा कर लेना चाहिए जिससे उसका छोटा दायरा हमारे दायरे में समा जाए। दूसरों की भावनाओं का सम्मान जरूरी है।
ब्लाटिंग पेपर पर गिरी स्याही की एक बूँद जिस तरह दूर तक फैल जाती है, वैसे ही हृदय में प्रवेश हुई छोटी-सी शंका पूरे हृदय पर कब्जा कर परस्पर संबंधों में तीव्र कड़वाहट पैदा कर देती है। ऐसे में अपमान और तिरस्कार से परे प्रेमपूर्वक मित्रता करना ही एकमात्र उपाय है। इसके साथ ही हमारी स्मृति में यह सूत्र सदैव रहे – ‘जीवन का प्रारंभ प्रेम से और समाप्ति परमात्मा से।’
18. अपने असर से आगे बढ़ता योग
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2014 में 21 जून को ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में मनाने का प्रस्ताव पास किया। 177 देशों ने इसे बिना मतदान के मान लिया। ऐसा पहली बार हुआ और वह भी इस टिप्पणी के साथ – ‘योग मानव स्वास्थ्य और कल्याण की दिशा में संपूर्ण नजरिया है।’ आज योग इंडस्ट्री 5 लाख करोड़ रुपए का दायरा पार कर चुकी है। भारत में इसका आकार 50,000 करोड़ रुपए के आस-पास है। दुनियाभर में योग का उपयोग शारीरिक और मानसिक बीमारियों से निपटने के लिए हो रहा है। इसे धार्मिक उपक्रम की तरह नहीं, शारीरिक और मानसिक क्रिया के तौर पर अपनाया गया है।
भारत में 21 जून की तारीख करीब आते ही यह बहस जोर पकड़ लेती है कि योग हिंदू धर्म से जुड़ा कोई उपक्रम है, इसलिए सारे धर्म इसे नहीं अपना सकते। तर्क यह दिया जाता है कि प्राणायाम में ‘ओम्’ शब्द का उच्चारण जरूरी है। अत: हिंदू धर्म के अलावा दूसरे धर्म ऐसा नहीं कर सकते। वैसे धर्म की कोई मान्य परिभाषा नहीं है। पतंजलि योग दर्शन के संस्थापक माने जाते हैं। इनका योग बुद्धि के नियंत्रण की प्रणाली है। योग को उन्होंने चित्त की वृत्तिस का निरोध कहा है। उन्होंने इसके अष्टांग यानी आठ अंग सुझाए हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा (एकाग्रता), ध्यान और समाधि। हमारे प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा था- “योग भारत की प्राचीन परंपरा का अमूल्य उपहार है। यह दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक है, मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य है। यह केवल व्यायाम नहीं, अपने भीतर की भावना, दुनिया और प्रवृत्ति की खोज का विषय है।”
इसे धर्म या राजनीति के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। वैसे धर्म का मूल अनुशासित जीवन पद्धति है और योग अनुशासन सिखाता है। यदि यह लोकप्रिय हो रहा है तो अपने असर के कारण हो रहा है। अब दुनिया भर में योग पर कार्यक्रम होते हैं। यह योग की स्वीकार्यता का ही प्रमाण है। कोई चीज इतने व्यापक स्तर पर स्वीकार्य तभी होती है जब उसमें सभी को कुछ न कुछ मिल रहा होता है। योग ने दुनिया को शारीरिक, मानसिक जागृति के मंच पर एक सूत्र में पिरोया है। इसका खुले हृदय से स्वागत किया जाना चाहिए।
19. मनुष्य का शरीर – एक मशीन इसे जतन से रखना है
हमारा शरीर जिन पाँच तत्त्वों से बना है, वे हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। पृथ्वी तत्त्व से हमारा भौतिक शरीर बनता है। जिन तत्त्वों, धातुओं और अधातुओं से पृथ्वी बनी है, उन्हीं से हमारे भौतिक शरीर की भी रचना हुई है। यही कारण है कि आयुर्वेद में शरीर को स्वस्थ और बलशाली बनाने के लिए धातु की भस्मों का प्रयोग किया जाता है; जैसे- स्वर्ण भस्म। ‘जल’ तत्त्व से मतलब तरलता से है। जितने भी तरल तत्त्व शरीर में बह रहे हैं, वे जल तत्त्व हैं, चाहे वह पानी हो, खून हो अथवा रस हो। जल तत्त्व ही शरीर की ऊर्जा और पोषक तत्त्वों को पूरे शरीर में पहुँचाने का काम करता है।
अग्नि तत्त्व ऊर्जा, ऊष्मा, शक्ति और ताप का प्रतीक है। हमारे शरीर में जितनी गर्माहट है, सब अग्नि तत्त्व से है। यही अग्नि तत्त्व भोजन को पचाकर शरीर को स्वस्थ रखता है। ऊष्मा का स्तर ऊपर या नीचे जाने से शरीर बीमार हो जाता है। जिनमें प्राण है, उन सबमें वायु तत्त्व है। हम साँस के रूप में हवा (ऑक्सीजन) लेते हैं, इसी से हमारा जीवन है।
आकाश तत्त्व अभौतिक रूप में मन है। जैसे आकाश अनंत है, वैसे ही मन की भी कोई सीमा नहीं है। जैसे आकाश में कभी बादल, कभी धूल नजर आती है तो कभी बिल्कुल साफ दिखाई देता है, वैसे ही मन भी कभी खुश, कभी उदास और कभी शांत रहता है। इन पंच तत्त्वों से ऊपर एक तत्त्व है – आत्मा। इसके होने से ही ये तत्त्व अपना काम करते हैं तथा शरीर में ऊर्जा रहती है। यही इन तत्त्वों को नियंत्रण में रखता है।
मनुष्य का शरीर तंत्रिकाओं पर खड़ा है। विभिन्न प्रकार के ऊतकों से मिलकर अंगों का निर्माण हुआ है। शरीर तंत्र के मुख्य चार अवयव हैं – मस्तिष्क, प्रममस्तिष्क, मेरुदंड और तंत्रिकाओं का पुंज। मानव शरीर प्रकृति द्वारा तैयार की गई एक मशीन है। इसके सूक्ष्म संसाधनों व तंत्रों और तत्त्वों के प्रयोग की सटीक सहज क्रिया के जरिए हम अपनी ऊर्जा को निरंतर गति दे सकते हैं।
20. वर्क लोड की चिंता
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है वर्क लोड से उपजी थकान एक सामान्य बात नहीं है, अपितु यह एक बीमारी है। अत्यधिक काम का दबाव किसी कर्मचारी को ऊर्जा विहीन, असहज करता है और व्यक्ति थकान महसूस करने लगता है। धीरे-धीरे यह थकान उसकी ऊर्जा को नष्ट करते हुए उसके तनाव को बढ़ाती है। इससे स्वभाव में बदलाव आने लगता है। धीरे-धीरे नकारात्मकता, अकेलापन, उदासी, आक्रोश आदि पाँव पसारने लगते हैं। इसके अलावा काम के दौरान ऊर्जावान महसूस न करना, काम करने के लिए मन न करना, इस बीमारी के लक्षण हैं। मोटे तौर पर यही स्थिति बर्नआउट कहलाती है।
ऐसी समस्या उन लोगों में पाई जाती है जो काम को लत बना लेते हैं या जिन पर अधिक काम करने का दबाव लगातार बनाए रखा जाता है। निजी कंपनियों, कॉल सेंटरों आदि से जुड़े कार्यस्थलों पर अक्सर ऐसे मामले देखने में आते हैं। काम के बोझ का तनाव संपूर्ण शरीर पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। ज्यादा समय तक काम करने, देर रात तक जगने आदि के कारण अनिद्रा, उदासी, थकावट, छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा और चिड़चिड़ापन इसके लक्षण हैं। अगर इस समस्या को समय रहते डॉक्टरी सलाह द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाता है तो यह स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो सकती है।
व्यक्तिगत तौर पर ऐसी समस्याओं से बचने का उपाय यह है कि काम को आनंद के साथ किया जाए। काम को बोझ के रूप में न लेने और एक समय में सीमा से अधिक काम न करने पर इस समस्या से ग्रस्त होने की आशंका नहीं रहती है। इसके अलावा योग, प्राणायाम, ध्यान आदि के द्वारा इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है। अधिकारी को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कर्मचारी वह काम मजबूरी में तो नहीं कर रहा। कर्मचारियों से सीधा संवाद और जुड़ाव स्थापित किया जाना आवश्यक है। यदि खुले मन से काम किया जाए तो कार्यक्षमता बढ़ती है। यदि तनाव अधिक हो तो डॉक्टर की सलाह लेने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए।
21. जलशक्ति मंत्रालय और गंगा
भारत सरकार ने 2019 में ‘जल शक्ति मंत्रालय’ का गठन करके अपनी जल संबंधी चिंताओं के समाधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को मुखरित कर दिया है। यह मंत्रालय ही अब गंगा तथा अन्य नदियों को साफ करने के काम को देखेगा। यह एक स्वागत योग्य कदम है। यह मंत्रालय सभी उद्योगों को कहेगा कि वे अपनी गंदे पानी को साफ करके तब तक उसका पुनरुपयोग करते रहेंगे, जब तक वह पूरी तरह समाप्त न हो जाए। उन्हें एक बूँद भी गंदा पानी छोड़ने की छूट नहीं दी जाएगी। अभी तक यह सामान्य व्यवस्था रही है कि जाँच के समय 2-4 घंटे के लिखे एस.टी.पी. को चालू कर देते हैं और जाँच टीम के जाते ही गंदा पानी छोड़ने का सिलसिला शुरू हो जाता है। भ्रष्ट अधिकारियों पर नियंत्रण करना आवश्यक है।
गंगा को अविरल बनाना उतना ही जरूरी है जितना उसे निर्मल बनाना। गंगा के जल की गुणवत्ता अंततः उसमें रहने वाले जलीय जंतुओं जैसे – मछली, कालिफाज, घोंघे और कछुओं से बनती है। ये जंतु ही गंगा के पानी को साफ और जीवंत बनाते हैं। इन जंतुओं को पोषित करने के लिए यह जरूरी है कि गंगा के पानी में पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन हो और उसके बहाव में कोई अवरोध न हो ताकि जल-जंतु नदी में आगे-पीछे घूम सकें। गंगा पर जल विद्युत और सिंचाई परियोजनाओं द्वारा डैम अथवा बैराज इस प्रकार बनाए जाने चाहिएँ कि पानी का बहाव अविरल बना रहे ताकि जल-जंतु आसानी से आवागमन कर सकें। मंत्रालय ने आदेश दिया है कि जल विद्युत परियोजनाओं द्वारा 20-30 प्रतिशत और सिंचाई योजनाओं से 3 से 6 प्रतिशत पानी नदी में लगातार छोड़ा जाएगा।
सरकार द्वारा नदियों को साफ करने के कार्य को पर्यावरण मंत्रालय से हटाकर जल शक्ति मंत्रालय को दिया जाना एक शुभ संकेत है। यदि हमें नदियों को जीवित रखना है और नदी – संस्कृति को बनाए रखना है तो जल शक्ति मंत्रालय को आई.आई.टी. समूह द्वारा दिए गए सभी सुझावों को तत्परता से लागू करना होगा। गंगा के जल की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास करने होंगे।
22. आज के भगीरथ – संत सीचेवाल
पंजाब के जाने-माने पर्यावरण रक्षक संत बलवीर सिंह सीचेवाल को यदि आधुनिक भगीरथ कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इन्होंने काली मृतप्राय बेई नदी को जीवित कर दिया है। इसके साथ ही इन्होंने एक ऐसा देसी तरीका भी विकसित किया है, जिससे खेतों में फसलें और बाग-बीचों में फूल और फलों के पेड़ लहराने लगे हैं। पर्यावरण रक्षा के लिए ‘टाइम पत्रिका’ ने वर्ष 2008 में उन्हें दुनिया के 30 पर्यावरण नायकों की सूची में शामिल किया था। भारत सरकार ने भी उन्हें 2017 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया है।
गंदगी, नालों और कल-कारखानों के गंदे पानी के कारण 160 किलोमीटर लंबी काली बेई नदी का अस्तित्व समाप्त होने के कगार पर था। छह से ज्यादा नगरों तथा 40 गाँवों के लोग इसमें कूड़ा फेंकते थे। उनकी नासमझी से यह नदी गंदे नाले में परिवर्तित हो गई थी। इससे 93 गाँवों की 50,000 एकड़ भूमि सूखे की चपेट में आ गई थी। संत बलवीर सिंह ने प्रण लिया कि वह इस नदी का उद्धार करके रहेंगे। इसके लिए उन्होंने 2000 ई. में ‘जनचेतना यात्रा’ आरंभ की। इसके साथ ही कारसेवा के जरिए काली बेई नदी की सफाई शुरू की। पहले वह स्वयं इस काम में लगे। उन्हें देखकर लोग उनके साथ जुड़ते चले गए। उन सभी की मेहनत रंग लाई और काली बेई नदी सरस सलिला हो गई।
संत सीचेवाल को यह समस्या परेशान कर रही थी कि इस गंदे पानी का क्या किया जाए ? सीचेवाल ने इस समस्या पर मंथन किया और गंदे पानी को साफ करके उसका उपयोग खेती में करने का देसी तरीका निकाला। उन्होंने काली बेई में गंदे पानी को जाने से रोकने के लिए सीवर लाइन बिछाई। गंदे पानी को एक बड़े तालाब में जमा करना शुरू किया। तालाब में डालने से पहले पानी को तीन गड्ढों से गुजारा। देसी तरीके से बना यह सीवरेज प्लांट पूरी तरह सफल रहा। इस प्लांट के जरिए साफ हुए पानी का प्रयोग खेती में होने लगा। उनका कहना है कि जनता के सहयोग से अन्य नदियों को भी साफ किया जा सकता है। उनका यह भी कहना है कि प्राकृतिक जल स्रोतों को दूषित करने पर आपराधिक मामला दर्ज होना चाहिए।
कपूरथला के गाँव सीचेवाल में उनका जन्म 2 फरवरी, 1962 को हुआ। 1984 में कॉलेज छोड़ने के बाद से ही वे समाज-सेवा जुट गए थे। उन्होंने अपने गाँव में स्कूल और कॉलेज भी खोले हैं। इनमें मजदूरों के बच्चों को निःशुल्क पढ़ाया जाता है। वे ‘नशा मुक्ति अभियान’ भी चलाकर युवा पीढ़ी को सचेत कर रहे हैं। निश्चय ही वे आधुनिक युग के भगीरथी हैं।
23 गुरु पूर्णिमा का महत्त्व
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ‘गुरु पूर्णिमा’ कहा जाता है। इसे ‘व्यास पूर्णिमा’ कह कर भी संबोधित किया जाता है। यही पूर्णिमा महर्षि वेदव्यास का पावन जन्मदिन भी है। महर्षि व्यास के जन्मदिन को ही गुरु पूर्णिमा का सम्मान इसलिए दिया गया क्योंकि उन्होंने भारतीय दर्शन, धर्म एवं इतिहास पर न केवल विपुल साहित्य की रचना की, अपितु हर प्रकार से सक्रिय सहयोग दिया।
महर्षि व्यास का पूरा नाम श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास था। वे पाराशर मुनि के पुत्र थे और भीष्म पितामह के अग्रज थे। ‘महाभारत’ की रचना करके उन्होंने विश्व का उपकार किया है। कहते हैं इसमें एक लाख श्लोक थे, पर अब चौबीस हजार श्लोक ही उपलब्ध हैं। महर्षि व्यास ने समस्त वेदों को लिपिबद्ध कर दिया। इसीलिए उनका नाम वेद व्यास पड़ गया। उन्होंने अठारह पुराणों के अतिरिक्त श्रीमद्भागवत पुराण जैसा महान ग्रंथ की रचना करके मानवता का महान उपकार किया। भारतीय संस्कृति का पूर्ण दिग्दर्शन महर्षि वेदव्यास के ग्रंथों में होता है।
गुरु पूर्णिमा के दिन लोग अपने-अपने गुरुदेव की पूजा करते हैं तथा श्रद्धा और शक्ति के अनुसार वस्त्र एवं दक्षिणा प्रदान करते हैं। इस अवसर पर यह प्रश्न भी विचारणीय है कि हमें गुरु की आवश्यकता ही क्या है ? वास्तविकता यह है कि संसार के मोह-माया जाल में फँसे मनुष्य गुरु कृपा के बिना कभी भी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। गुरु ही हमारे मन को निर्मल बनाता है। कबीर ने गुरु का महत्त्व इस प्रकार समझाया है-
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाह्रै खोट ॥
+ + + +
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियौ मिलाय ॥
स्पष्ट है कि गुरु ही हमें परमात्मा से मिलाता है। एक श्लोक में गुरु को परमात्मा का ही रूप माना गया है –
गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥
अर्थात् गुरु सृष्टि रचयिता ब्रह्मा है। वह शिष्य के मन में श्रेष्ठ विचारों की रचना करता है। गुरु विष्णु अर्थात् पालन करने वाला है। गुरु शिष्य के गुणों का, संकल्पो का, सद्विचारों का पालन करता है। गुरु शिव स्वरूप है अर्थात् वह दुर्गुणों का संहार करता है। परब्रह्म परमात्मा की समस्त सकारात्मक शक्तियों को प्रकट करने वाला है। ऐसे सद्गुरु को हम प्रणाम करते हैं।
परमहंस योगानन्द जी का कहना है कि गुरु ईश्वर का संपर्क सूत्र है। सद्गुरु का यही प्रयास रहता है कि उसके शिष्य ईश्वर – प्राप्ति के योग्य बनें। पुस्तकें कंठस्थ करके कोई सद्गुरु नहीं बन सकता। भवसागर से पार होने के लिए सद्गुरु का शिष्यत्व प्राप्त होना आवश्यक है। हमें गुरु पूर्णिमा के अवसर पर अपने गुरु की पूजा करनी चाहिए। हाँ, लालची, व्यवसायी, क्रोधी और अहंकारी व्यक्ति को कभी अपना गुरु नहीं बनाना चाहिए। चमत्कारों के चक्कर में भी नहीं पड़ना चाहिए। कहा गया है –
गुरु कीजिए जानकर, पानी पीजे छानकर।
बिना विचारे गुरु करै, परै चौरासी आन कर ॥
24. प्रकृति की गोद में जीवन के शाश्वत संदेश : एक अनुभव
मैं पहली बार हिमालय की गोद में, पहाड़ियों के सुरम्य आँचल में बसे एक गाँव की छटा देखने गया। मौन तपस्वी से खड़े ध्यानस्थ पर्वत-शिखर स्थिरता, दृढ़ता और अटल निष्ठा के भाव जगा रहे थे। मैंने हिमाच्छित शिखरों पर झिलमिलाती स्वर्णिम सूर्य की रश्मियों का दर्शन प्रथम बार किया था। चोटी से नीचे उतरती धूप के साथ जैसे पहाड़ अँगड़ाई ले रहे हों, पूरी घाटी के बीच आलोकित हो रहा प्रकाश तथा पक्षियों का कलरव नए जीवन की चेतनता का संचार कर रहे थे। रास्ते में झरने और निर्मल जल धाराओं से होकर घाटी की चढ़ाई का आरोहरण कर रहा था। राह में पवन के झोंके, पक्षियों की चहचहाहट के बीच प्रकृति के रहस्यमय लोक में विचरण करता रहा।
पवन के झोंकों में झूलते वृक्ष व पौधे हमें मस्ती से जीने का सबक सिखाते हैं। हिमालय का दर्शन तो साक्षात् शिव-शक्ति का विग्रह प्रतीत होता है। मैं उसके सान्निध्य में ध्यानस्थ होकर अपने अंतस की दिव्यता के भाव को प्रगाढ़ता से अनुभव कर रहा था। इस धारणा के साथ मैं ध्यान की गहराइयों में उतरता और अपने दिव्य स्वरूप की झलक पा रहा था।
यहाँ मुझे अनुभव हुआ कि हम प्रकृति के माध्यम से स्वयं परमात्मा झर रहे हैं। हम जितना प्रकृति से जुड़ते हैं, उतना ही हम उस दिव्यता से भी जुड़ते हैं, जो वास्तव में हमारा मूल स्वरूप है। यहाँ वृक्ष मुझे मौन विषपायी शिव के समान प्रतीत हुए, जो स्वयं कार्बन-डाइऑक्साइड पीकर प्राणदायी ऑक्सीजन परिवेश में सतत छोड़ते रहते हैं। फलों से लदे वृक्ष मुझे विनीत जीवन का संदेश देते ऐसे प्रतीत हुए जैसे गुणों से लदा व्यक्ति विनम्र हो जाता है। घाटियाँ हमें जीवन के उतार-चढ़ाव भरे शाश्वत स्वरूप की याद दिलाती हैं, जहाँ राह अभी नीचे खाई की ओर जा रही है, तो अगले पल खाई से ऊपर शिखर की ओर बढ़ रही है। समय पर उदय-अस्त होते सूर्यदेव जहाँ हमें नियमितता – कर्तव्यपालन का संदेश देते हैं, वहीं दिन-रात के रूप में जीवन के विरोधाभासी स्वरूप के बीच जीवन का शाश्वत परिवर्तन चक्र लयबद्ध दिखाई देता है। यहाँ प्रकृति की नीरव गोद में मैंने अपने सोए संबंध पाए। प्रकृति के मध्य बिताए ये पल मेरे अंदर ऊर्जा का संचार करते रहे।
25. श्रम सुधार की पहल
भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने और अगले पाँच वर्षों में उसे पाँच लाख करोड़ डॉलर का आकार देने के मकसद से सरकार ने व्यापक श्रम सुधारों का अभियान शुरू कर दिया है। इसके लिए उसने 44 श्रम कानूनों को मिलाकर चार श्रम संहिताएँ बनाने का फैसला किया है। ये संहिताएँ हैं – 1. न्यूनतम वेतन और कार्यगत सुरक्षा, 2. स्वास्थ्य एवं कार्यदशा, 3. सामाजिक सुरक्षा तथा 4. औद्योगिक संबंध। बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने स्वास्थ्य और कार्यदशाओं से संबंधित बिल ‘ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन बिल 2019’ के मसौदे को मंजूरी दे दी। यह 13 श्रम कानूनों को मिलाकर बना है। न्यूनतम वेतन से संबंधित संहिता को एक हफ्ता पहले स्वीकृति दी जा चुकी है। बाकि दो संहिताओं को शीघ्र मंजूरी दी जाएगी। जहाँ तक स्वास्थ्य और कार्यदशा से संबंधित बिल का सवाल है तो इससे 40 करोड़ कर्मचारी लाभान्वित होंगे।
छोटे कारखानों में कामगारों को अक्सर बिना – नियुक्ति पत्र के काम करना पड़ता है। यह रास्ता अब बंद होने वाला है। हर साल श्रमिकों के स्वास्थ्य की जाँच जरूरी होगी। नियोक्ताओं के लिए भी प्रक्रिया आसान की गई है। रजिस्ट्रेशन, लाइसेंस और रिटर्न को आसान बनाया गया है। इनके लिए उन्हें अभी 10 से 21 तक फार्म भरने पड़ते हैं, लेकिन आगे एक-एक फार्म भरने से काम हो जाएगा। न्यूनतम वेतन से संबंधित संहिता पर श्रम एवं रोजगार मंत्री संतोष कुमार गंगवार का कहना है कि इसके जरिए देश भर के लगभग 30 करोड़ श्रमिकों को न्यूनतम वेतन पाने का अधिकार मिलेगा।
बिल में 178 रुपये का न्यूनतम वेतन सुनिश्चित किया गया है। जिन राज्यों में इससे ज्यादा की व्यवस्था है वहाँ वह जारी रहेगी। वेतन हर महीने की नियत तारीख पर मिलेगा। इस प्रावधान से मजदूरों का शोषण रुकेगा क्योंकि आज भी कुछ राज्यों में दैनिक मजदूरी 50, 60 या 100 रुपये पर अटकी पड़ी है। हालांकि कानूनों को एकरूप बनाने के फैसलों पर कई संगठनों ने सवाल भी उठाए हैं। नेशनल कैंपेन कमेटी फॉर कॉन्स्ट्रक्शन वर्कर्स का कहना है कि इससे भवन और अन्य निर्माण श्रमिक (बीओसीडब्ल्यू) एक्ट 1996 रद्द हो जाएगा, जिससे बीओसीडब्ल्यू बोर्ड बंद हो जाएंगे और लगभग चार करोड़ मजदूरों का पंजीकरण रद्द हो जाएगा।
भारतीय मजदूर संघ ने वेतन और सामाजिक सुरक्षा संबंधी लेबर कोड को ऐतिहासिक और क्रांतिकारी बताया है लेकिन औद्योगिक संबंधों से जुड़ी संहिता पर उसे गहरी आपत्ति है। उसका कहना है कि श्रम संगठनों के पदाधिकारियों के लिए पात्रता सरकार द्वारा तय किए जाने, हड़ताल करने का अधिकार सीमित करने, कर्मचारियों को एकतरफा तौर पर निकालने और एप्रेंटिस श्रमिकों को अलग करने जैसे प्रावधानों से श्रमिकों के अधिकारों में कटौती हुई है। अंतत: श्रमिकों की संतुष्टि ही उन्हें उत्पादन में बेहतर योगदान की ओर ले जाएगी, लिहाजा सरकार को सभी संहिताओं में यथासंभव सुधार करके ही उन्हें कानून की शक्ल देनी चाहिए।
26. कामनाओं पर नियंत्रण के लिए साधना जरूरी
जीवन में वही क्षण सार्थक माने जाते हैं जिनमें साधना – सत्संग करने का अवसर मिलता है। साधना से पूर्ण विश्वास हो जाता है कि संसार में सबसे बड़ा रक्षक परमात्मा ही है। साधक के हृदय में प्रभु की भक्ति, कृपा धारणा की शक्ति आ जाती है और वह निडर एवं भयमुक्त जीवन जी सकता है। इसी के साथ वह दुर्बल मन को शक्तिमान, शुद्ध और कलंक रहित बनाता है। स्वयं को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम बनाने का कार्य साधना से ही संभव है। व्यक्ति को आत्मपथ से न डिगने के लिए भी साधना की जरूरत रहती है। जीवन को अधोगामी बनाने व ध्येय से विचलित करने वाली दुष्प्रवृत्तियाँ सदैव क्रियाशील रहती हैं। इन्हें दूर करने की शक्ति साधना में है। मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि साधना का उद्देश्य क्या है ? जीवन को श्रेष्ठता के शिखर पर ले जाने के लिए साधना ही एकमात्र तरीका है। साधना आध्यात्मिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही, लौकिक दृष्टि से भी उतनी ही सार्थक है।
अग्नि में तपकर सोना कुंदन बन जाता है। इसी तरह साधक साधना से अपने जीवन को उत्तम बना सकता है। इंसान पर प्रभु की कृपा तो हमेशा बरसती है, पर जो मनुष्य अपना हृदय रूपी पात्र उनकी वर्षा का जल लेने के लिए तैयार रखता है, तो उसके पात्र का जल कभी कम नहीं होता। सांसारिक वस्तुएँ तो क्षणिक हैं। जीवन में आध्यात्मिक उन्नति के लिए साध ना जरूरी है। साधना के लिए शरीर का स्वस्थ होना और मन का एकाग्र होना आवश्यक है। जीवन में जब बुद्धि को महत्त्व दिया जाता है तब तर्क की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। तर्क से हृदय की अनुराग शक्ति कम हो जाती है।
तर्क से जीवन में सरसता नहीं रहती, परमात्मा प्रेम का अनुराग नहीं रहता और नीरसता आ जाती है। तर्क तो साधना में सहायक हो सकता है, लेकिन कुतर्क साधना से विमुख कर देता है। साधक को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि कामनाओं के कारण ही जीवन में गलतियाँ होती हैं। केवल विषय की लोलुपता ही कामना नहीं है। देखने में आता है कि सात्विक जीवन जीने वाले साधु-संतों को भी लोकेषणा का रंग लग जाता है। तब वे सात्विक जीवन छोड़कर दांभिक जीवन जीने लगते हैं। इसीलिए कामनाओं पर नियंत्रण रखना जरूरी है और यह साधना से ही संभव है।
27. मजबूती की बुनियाद : इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास को प्राथमिकता
मोदी – 2.0 सरकार के पहले बजट का मकसद अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए किए जा रहे विभिन्न प्रयासों को एक समेकित रूप देना है। सरकार ने फरवरी में पेश अपने अंतरिम बजट में अनेक कार्यक्रमों को जमीन पर उतारा था। अब उन्हें एक निश्चित दिशा और मजबूती देने की कोशिश की गई है। इस बजट का जोर इस बात पर है कि साधन संपन्न वर्ग से टैक्स वसूल कर और विनिवेश के जरिए पूँजी जुटाकर उसे आमजन के लिए योजनाओं पर खर्च किया जाए। बजट में बुनियादी क्षेत्र को खासी तवज्जो दी गई है क्योंकि इस सेक्टर में रोजगार पैरा करने की संभावनाएं काफी ज्यादा हैं। सरकार बेरोजगारी दूर करने की चुनौती से लगातार जूझ रही है।
इसलिए उसने अगले पाँच सालों में इंफ्रास्ट्रक्चर को अपग्रेड करने पर 100 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का फैसला किया है। इससे संबंधित प्रोजेक्ट गाँव और शहर के बीच खाई को कम करने का काम करेंगे। बजट में सड़क, वॉवे, मेट्रो और रेल के विकास के लिए कई प्रावधान किए गए हैं। जाहिर है ये पूँजी निवेश को आकर्षित करने में भी अहम साबित होंगे। इसके लिए कई क्षेत्रों में एफडीआई बढ़ाने की बात भी कही गई है। सरकार उड्डयन, मीडिया, एनिमेशन और बीमा में एफडीआई बढ़ाने की संभावनाओं पर विचार करेगी। बीमा क्षेत्र में तो वह 100 प्रतिशत तक एफडीआई चाहती है।
निवेश बढ़ाने के लिए प्रवासी भारतीयों के निवेश के रास्तों को आसान किया जाएगा। सरकार के सामने एक और चुनौती बाजार में माँग पैदा करना और रीयल, ऑटोमोबाइल और अन्य क्षेत्रों में कायम शिथिलता को तोड़ना भी है। इसे ध्यान में रखकर होम लोन के ब्याज पर मिलने वाले इन्कम टैक्स छूट को साल में 2 लाख से बढ़ाकर 3.5 लाख रुपये कर दिया गया है। यह छूट 45 लाख रुपये तक के मकान पर मिलेगी। इससे रीयल एस्टेट सेक्टर को प्रोत्साहन मिलेगा। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 1.95 करोड़ मकान बनाने का प्रस्ताव भी इस क्षेत्र में आए ठहराव को दूर करेगा।
बैंक ज्यादा से ज्यादा ऋण दे सकें, इसके लिए सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 70,000 करोड़ रुपये की पूँजी डालेगी। वित्त वर्ष 2019-20 के विनिवेश लक्ष्य को बढ़ाकर 1,05,000 करोड़ रुपये किया गया है। अंतरिम बजट में इसे 90,000 करोड़ रुपये रखा गया था। रेलवे में साल 2030 तक 50 लाख करोड़ रुपये के निवेश की जरूरत होगी। रेलवे स्टेशनों के आधुनिकीकरण के लिए अनेक कार्यक्रमों की शुरुआत की जाएगी जिनके लिए पीपीपी मॉडल के जरिए निवेश किया जाएगा। सरकार नई शिक्षा नीति लेकर आएगी। विदेशी छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए आकर्षित किया जाएगा। स्वच्छ पर्यावरण को बढ़ावा देना भी बजट का प्रमुख अजेंडा है। इसमें इलेक्ट्रिक कारों को लोकप्रिय बनाने के लिए सरकार ने इन पर जीएसटी की दरों में कटौती की है। साथ ही इलेक्ट्रिक कार खरीदने पर इन्कम टैक्स में भी छूट दी जाएगी। देखना है, बजट विकास दर को कितना आगे ले जाता है।
28. विकास और पर्यावरणीय चिंताएँ
विकास के मुद्दे पर भारत ही नहीं, पूरे विश्व में बहस छिड़ी हुई है। समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों का जीवन स्तर ऊपर की सीढ़ियों तक पहुँचाना ही इस विकास का मूल उद्देश्य है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या भौतिक संसाधनों की उपलब्धि सुनिश्चित कर देने को ही क्या विकास कहा जा सकता है ? सारी नदियाँ अंत में समुद्र में ही मिलती हैं। यही प्राकृतिक व्यवस्था है। लेकिन जीवन की गति के लिए बनाई गई विकास रूपी सड़क का आखिरी छोर अगर इंसानों को अंधे पातालगामी निर्जल कुओं में गिर जाने को विवश करे, तो क्या यह जीवन के लिए न्यायसंगत होगा ? हताश, निराश लोग अगर विकास की चमचमाती गगनचुंबी इमारतों को आत्महत्याओं के लांचपैड बना लें तो क्या विकास उद्देश्यहीन नहीं हो जाएगा ?
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रोज आ रही रिपोर्टों के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, ओजोन की परत छीजती जा रही है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्रों का जल स्तर बढ़ रहा है। प्रदूषण निरंतर बढ़ता चला जा रहा है। मानव जाति विलुप्ति के कगार पर है, लेकिन विश्व- समाज इस दिशा में बहुत गंभीर नजर नहीं आता। पर्यावरण को बचाने के नाम पर औपचारिक प्रयास हो रहे हैं, वास्तविकता बहुत कम है। जलवायु और पर्यावरण को लेकर दुनियाभर में बातें हो रही हैं, लेकिन जमीन पर काम नहीं हो रहा। केंद्र सरकार को एक नया नारा देना पड़ा है – ‘जलशक्ति की ओर जनशक्ति’। स्वतंत्र भारत में यदि हम प्राकृतिक व्यवस्थाओं के प्रति संवेदनशील रहते तो ऐसी नौबत नहीं आती।
हमने नदियों का क्या हाल किया है ? देश भर में अधिसंख्य तालाब पाट कर हमने उन पर मकान बना लिए हैं। यद्यपि भारत के धर्मावलंबी लोग वायु, जल, सूर्य, चंद्रमा, पीपल आदि की पूजा बड़े कृतज्ञ भाव से करते हैं, फिर भी ऐसा क्यों हुआ ? आज भी घर में हवन होता है तो लोग आम की लकड़ी, पत्तियाँ और दूसरी वानस्पतिक हवन सामग्री की तलाश करते हैं। चावल से रंगोली बनाई जाती है। तब क्या प्रकृति की पूजा, हमारे लिए कर्मकांड तक सीमित होकर रह गई है ? हमारा कर्त्तव्य-बोध लुप्त होता जा रहा है। हम जीवनदायी पौधों और वृक्षों का संरक्षण भूलते चले जा रहे हैं। हम इस सच्चाई में मुँह नहीं मोड़ सकते कि अंधाधुंध बढ़ती आबादी के लिए भौतिक विकास होगा, सड़कें तथा रेल लाइनें बनेंगी ; स्कूल-कॉलेज बनेंगे, अस्पताल बनेंगे तो बहुत सारे पेड़ काटने पड़ेंगे। इस सबके बावजूद हमें वृक्षों, पर्वतों, नदियों तथा धरती को बचाना होगा अन्यथा हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
29. टाइटन पर जीवन की संभावना
हमारे सौरमंडल के उन चंद्रमाओं या उपग्रहों में जिसने जीवन की संभावना को लेकर सबसे ज्यादा आकर्षित किया है, वह निश्चित रूप से शनि का सबसे बड़ा चंद्रमा टाइटन है। टाइटन पृथ्वी के अलावा सौरमंडल का एकमात्र ऐसा पिंड है, जिसकी सतह पर सक्रिय नदी तंत्र जैसे नहरों, सागरों आदि की मौजूदगी के सशक्त प्रमाण मिले हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि एक समय हमारी पूरी पृथ्वी टाइटन की तरह ही थी। टाइटन के वायुमंडल में बादलों की मौजूदगी और बिजली चमकने की घटनाएँ वहाँ पृथ्वी जैसे मौसम होने का एहसास कराती हैं। लिहाजा यहाँ सूक्ष्मजीवी जीवन की मौजूदगी की पूरी संभावना है।
अंतरिक्ष खोजी अभियानों के लिहाज से भी अन्य ग्रहों-उपग्रहों और तारों की तुलना में टाइटन को उपयुक्त उपग्रह माना जाता रहा है। पृथ्वी से बाहर जीवन की मौजूदगी की जिज्ञासा में वैज्ञानिक लंबे समय से टाइटन की ओर टकटकी लगाए बैठे हैं। इसी क्रम में हाल ही में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने टाइटन पर जीवन की संभावनाओं की जाँच-पड़ताल के लिए ‘ड्रैगनफ्लाई’ नामक रोबोटिक क्वाडकॉप्टर यानी हेलीकॉप्टल ड्रोन भेजने की योजना बनाई है। इस ड्रोन को 2026 में भेजा जाना है और 2034 में इसके टाइटन पर पहुँचने की संभावना है।
तकरीबन 85 करोड़ डॉलर के इस मिशन के अंतर्गत ड्रोन प्रोपेलर का इस्तेमाल करते हुए टाइटन की सतह से नमूने एकत्रित कर उसकी संरचना समझने की कोशिश होगी। प्रोपेलर ऐसे यंत्र को कहा जाता है, जो किसी भी यान को आगे धकेलने में सहायता करता है। नासा के कैसिनी मिशन के दौरान ऐसे संकेत मिले थे कि टाइटन पर कुछ ऐसे कार्बनिक पदार्थ उपस्थित हैं, जिन्हें जीवन के लिए जरूरी माना जाता है। यहाँ तक तरल जल की मौजूदगी का भी दावा किया गया था। टाइटन हमारी पृथ्वी के चंद्रमा से बहुत बड़ा है और बृहस्पति के चंद्रमा गनीमिड के बाद सौरमंडल का दूसरा सबसे बड़ा उपग्रह है।
मजे की बात यह है कि इसका आकार बुध ग्रह से भी बड़ा है! टाइटन को खोजने का श्रेय डच खगोल वैज्ञानिक क्रिस्टीयान हुयजेंस को दिया जाता है। टाइटन की सबसे बड़ी विशेषता है उसका सघन एवं विस्तृत वायुमंडल। पृथ्वी की तरह ही टाइटन का वायुमंडल नाइट्रोजन से बना है। इसकी सतह का वायुदाब पृथ्वी से 45 गुना अधिक है। वहाँ मिथेन के बादल हैं और मिथेन की बारिश होती है। वायुमंडल में दूसरे कार्बनिक रसायन भी बनते हैं जो हल्की बर्फ की तरह नीचे गिरते रहते हैं। बहरहाल, कई देशों के वैज्ञानिक उत्साह से टाइटन के रहस्यों को जानने में प्रयासरत हैं। आशा है कि ड्रैगनफ्लाई टाइटन के अपारदर्शी वायुमंडल को भेदकर उसके अनेकानेक रहस्यों से पर्दा उठाएगा।
30. पानी के लिए एकजुटता जरूरी है
देश इन दिनों पानी से जुड़े कई संकटों का सामना कर रहा है। भविष्य में जल संकट के और बढ़ने की संभावना व्यक्त की जा रही है। जलशक्ति मंत्रालय का कहना है कि भारत में दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है और विश्व के 18 प्रतिशत पशु भी यहीं हैं। इसकी तुलना में हमारे पास पीने लायक पानी कुल विश्व का 4 प्रतिशत ही है। हमारे अधिकांश जल स्रोत प्रदूषित हैं। जलवायु परिवर्तन ने हालात और अधिक बिगाड़ दिए हैं। सरकार पानी को बचाने और भूगर्भ जलस्तर को बढ़ाने के हर संभव प्रयास कर रही है। पीने और खेती की हमारी 65 प्रतिशत जरूरतें भूगर्भ जल से पूरी होती हैं। इन संसाधनों को फिर से भरने के पूरे प्रयास हो रहे हैं। प्रधानमंत्री ने भी ‘मन की बात’ में जल संरक्षण की आवश्यकता बताई है। सरकार के पास 2020 तक पूरी मैंपिंग जानकारी उपलब्ध हो जाएगी।
अब सरकार द्वारा केवल गंगा के बजाय सभी सहायक नदियों, उपनदियों को इसमें शामिल कर लिया गया है। उदाहरण के लिए – गंगा से यमुना, यमुना से चंबल और आगे के बेसिन को शामिल किया गया है। अतः अब हम यमुना को साफ किए बिना गंगा को स्वच्छ नहीं रख सकते। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट पर तेजी से काम हो रहा है। पहले कहा गया था कि भूगर्भ जल का हद से अधिक दोहन ने देश के सामने जल संकट उपस्थित कर दिया है, पर बाद में कहा गया कि पानी की समस्या इतनी भयावह नहीं है। यह ठीक है कि देश के किसी-न-किसी हिस्से में जल संकट तो बना रहता है।
राजस्थान में यह संकट गत 70 वर्षों से विद्यमान है। जल संरक्षण की पुरानी तकनीक छत पर जल जमा करने या तालाबों में पानी इकट्ठा करने की रही है। अब जलाशयों की स्थिति खराब होने से चुनौती खड़ी हो गई है। अगर पूरा देश एक साथ आकर एक दिशा में काम करे तो समस्या का समाधान हो सकता है। बरसात के रूप में हमें 4000 अरब घन मीटर पानी मिलता है। इसमें से हम केवल 1000 घन मीटर पानी ही इस्तेमाल कर पाते हैं।
यदि हम 2000 अरब घनमीटर पानी बचा लें तो देश के पास जरूरत से ज्यादा जल उपलब्ध होगा। हमारे सामने इजरायल का उदाहरण है, जिसने जल संकट को एक अवसर में बदल दिया। वहाँ भारत की तुलना में एक चौथाई वर्षा होती है लेकिन जल के मामले में वे सुरक्षित हैं। हम भी यह सब कर सकते हैं। हम घरेलू इस्तेमाल के 70 फीसदी जल को बेकार कर देते हैं। हम इसे साफ करके फिर से इस्तेमाल कर सकते हैं। सरकार ऐसी योजना पर काम कर रही है।
31. संसाधनों की चुनौती से घिरी नई शिक्षा नीति
भारत सरकार अपनी दूसरी पारी में नई शिक्षा नीति लागू करना चाहती है। प्रारूप तैयार है। चार साल पहले केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इसके लिए एक नौ सदस्यीय समिति का गठन किया था, जिसके अध्यक्ष डॉ. कृष्णास्वामी कस्तूरीरंगन बनाए गए थे। पिछले दिनों समिति ने अपनी रिपोर्ट नई शिक्षा नीति के प्रारूप की शक्ल में मंत्रालय को सौंप दी है। देश के शिक्षा ढांचे में आमूल-चूल बदलाव लाने की सरकार की इच्छा शिक्षा नीति के इस प्रारूप में प्रतिबिंबित हो रही है। इसमें शिक्षा प्रणाली को ज्यादा उदार और लचीला बनाने की सिफारिश की गई है और इसके लिए स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा तथा पेशेवर शिक्षा, तीनों स्तरों पर बदलाव के सुझाव दिए गए हैं।
छात्र / छात्राओं की सुविधा : इसमें काम-धंधे से जुड़ी वोकेशनल ट्रेनिंग को स्कूली स्तर से ही अनिवार्य बनाने पर जोर दिया गया है। पेशेवर शिक्षण संस्थाओं के ढाँचे को व्यापक रूप देने की बात कही गई है। समिति की सिफारिश है कि नीति आयोग की तरह एक राष्ट्रीय शिक्षा आयोग बनाया जाए, जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होंगे। देश के मुख्य न्यायाधीश, लोकसभा के अध्यक्ष, विपक्ष के नेता, शिक्षा मंत्री आदि इसके सदस्य होंगे। यह आयोग शिक्षा व्यवस्था की निगरानी और मार्गदर्शन करेगा। समिति का यह सुझाव दर्शाता है कि यह सरकार शिक्षा को कितना ज्यादा महत्त्व दे रही है लेकिन यह व्यवस्था उच्च शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता को नष्ट कर सकती है।
संमिति की सिफारिश है कि बच्चों को पाँचवीं कक्षा तक उनकी मातृभाषा में ही पढ़ाया जाए। बल्कि हो सके तो आठवीं तक। उसके बाद मीडियम (पढ़ाई की भाषा) बदला जा सकता है। लेकिन छठी से आठवीं तक उन्हें पहली, प्राकृत, फारसी या संस्कृत जैसी एक प्राचीन (क्लासिक) भाषा जरूर पढ़नी होगी। मसविदे में बार-बार कहा गया है कि बच्चों पर से पढ़ाई और बस्ते का बोझ कम किया जाएगा, लेकिन अगर इसके साथ त्रिभाषा फार्मूले को जोड़ कर देखें, तो उन्हें चार भाषाएँ सीखनी होंगी। जब यह रिपोर्ट प्रेस को जारी हुई थी, तो देश के दक्षिणी राज्यों में हंगामा शुरू हो गया था।
समिति ने त्रिभाषा फार्मूले की सिफारिश की थी, जिसमें हिंदी और अंग्रेजी को अनिवार्य बनाया गया था। दक्षिण के राज्यों का विरोध हिंदी की इसी अनिवार्यता को लेकर था। बहरहाल, सरकार ने तुरंत इसमें सुधार किया और हिंदी शिक्षण को भी राष्ट्र की दूसरी भाषाओं की तरह वैकल्पिक ही रखने का आश्वासन दिया। इस तरह हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मजबूत बनाने का राजनीतिक संकल्प नई शिक्षा नीति से तो नहीं पूरा होने वाला।
भारी-भरकम शब्द : नई शिक्षा नीति का यह प्रारूप अत्यंत भव्य और उत्साहपूर्ण नजर आता है, पर इसे लागू करने में भाषा नीति की तरह कुछ और व्यावहारिक समस्याएँ भी सामने आ सकती हैं। फिलहाल दो बिंदुओं पर इस प्रारूप की आलोचना हो रही है। एक तो यह कि समिति ने जिन बदलावों की सिफारिश की है, उसके लिए हमारे पास योग्य और प्रशिक्षित शिक्षक नहीं हैं। जमीनी सचाई यह है कि दूरदराज के इलाकों में स्कूल के लिए कामचलाऊ इमारतें तक नहीं हैं और उन्हें दो-चार दिन में तैयार भी नहीं किया जा सकता। दूसरी शंका इस प्रारूप में बार-बार प्रयुक्त भारतीय पद्धति, शिक्षा और संस्कृति, लिबरल आर्ट्स, ह्यूमैनिटीज, जीवन कौशलता, उदार प्रणाली तथा बुनियादी अवधारणा जैसे शब्दों को लेकर है, जो रिपोर्ट को प्रभावशाली बनाते हैं लेकिन उनका आशय स्पष्ट नहीं है।
32. आत्मघाती है बदले की भावना
धम्मपद’ में कहा गया है- ‘न हि वैरेण वैराणि शाम्यन्तीह कदाचन’
अर्थात् इस संसार में वैर से वैर कभी शांत नहीं होता। इसी प्रकार नकारात्मक वृत्तियों से नकारात्मकता का समापन नहीं किया जा सकता। बुराई को बुराई से जीतना असंभव है, फिर हम बुराई का सहारा क्यों लें ? बदले की भावना या बदला लेने की इच्छा स्वयं में एक हानिकारक तत्त्व है। जब भी हम ऐसा करने का निर्णय लेते हैं तब हमारी सारी ऊर्जा उसी में लग जाती है। बदले की भावना या बदला लेने की इच्छा हमारे आत्मिक एवं भौतिक विकास में बहुत बड़ी बाधा बन जाती है।
महाभारत के कई पात्र इसी मनोग्रंथि के शिकार हुए। महाभारत मचने के मूल में भी यही मनोग्रंथि थी। द्रौपदी भी इसी ग्रंथि की शिकार हो गई थी। इसी प्रकार द्रोणाचार्य द्रुपद द्वारा किए गए अपमान का बदला लेने की ताक में थे। अर्जुन ने द्रुपद को कैद करके उनके सम्मुख ला खड़ा कर दिया था। यद्यपि द्रोण ने द्रुपद को कोई हानि नहीं पहुँचाई, पर द्रुपद अपना अपमान बर्दाश्त नहीं कर पाए। उसने द्रोण से इसका बदला लेना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। इसी के परिणामस्वरूप द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने कुरुक्षेत्र के युद्ध में द्रोणाचार्य का वध कर दिया।
आज की दुनिया में अनेक लोग दूसरों को सब्जबाग दिखाते हैं और असंख्य लोग उनके झांसे में आकर लुट-पिटकर चुप बैठ जाते हैं। यह उनके लोभ का ही परिणाम होता है। वे बिना कमाए या कम मेहनत करके सुखपूर्वक जीने की चाह रखते हैं। यही तो द्रोण की भी चाह थी। अपने पिता द्रोण की मृत्यु से आहत होकर अश्वत्थामा ने धर्म विरुद्ध राशि में सोते हुए धृष्टद्युम्न को पैरों से कुचलकर मार डाला और साथ ही द्रौपदी के पाँचों पुत्रों का वध भी कर दिया। इसके मूल में थी द्रोण की लिप्सा – प्रतिशोध की भावना।
कई बार ऐसा होता है कि किसी उत्सव में कोई रिश्तेदार हमारा अपमान कर देता है तब हम स्वयं को अपमानित अनुभव करते हैं तथा मन में बदला लेने की भावना उत्पन्न हो जाती है। यदि आप सचमुच बदला लेना चाहते हैं तो जिससे आप आहत हैं तो उस व्यक्ति की उपेक्षा न करके, सब कुछ भूलकर सच्चे मन से उसकी आवभगत कीजिए, उसका सम्मान कीजिए। संभव है उसे अपनी गलती का अहसास हो जाए और भविष्य में वह पुनः ऐसा न करे। यदि बात संभलने में न आ रही हो तो उससे किनारा कर लें लेकिन सुशिक्षित, सुसभ्य एवं सुसंस्कृत व्यक्तियों का अपने आचरण से गिरना अथवा जैसे को तैसे वाला व्यवहार अपनाना श्रेयस्कर नहीं होता।
33. समावेशी शिक्षा : एक चुनौती
‘समावेशी शिक्षा’ का अर्थ – एक विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा से है। इस तरह के बच्चों में से कुछ में सुनने की, कुछ में बोलने की, कुछ में देखने की तथा कुछ में हाथ-पैर की विकृति होती है। कुछ का विकास पिछड़ा हुआ होता है तो कुछ को सीखने में खास प्रकार की कठिनाइयाँ आती हैं। हर एक विशेष प्रकार की आवश्यकता वाले विद्यार्थी की समस्या और उसके सीखने के तरीके में भिन्नता हो सकती है। इस प्रकार के बच्चों के लिए निःशक्त, विकलांग तथा दिव्यांग शब्द प्रचलित हैं। ‘दिव्यांग’ एक नया शब्द है।
यह सच है कि इस प्रकार के बच्चों के लिए कुछ विशेष स्कूल होते हैं, लेकिन इनकी संख्या आवश्यकता से बहुत कम है। इस प्रकार के बच्चों की संख्या कुल आबादी का 2.25 हो गई है। समावेशी शिक्षा विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य जीवन जीने और रोजमर्रा की गतिविधियों में भाग लेने का मौका प्रदान करके उनके समाजीकरण और कौशल को बढ़ा सकती है। यह शिक्षा उन्हें यह अहसास करा सकती है कि वे भी समाज के अभिन्न अंग हैं। इस प्रकार के बच्चे निम्नलिखित श्रेणी में आते हैं-
- दृष्टिबाधित (Blindness)
- कम दृष्टि वाले (Low Vision)
- कुष्ठ रोग से मुक्त (Leprosy Cured )
- श्रवण ह्रास ( Hearing Impairment)
- चलन निशक्तता (Loco motor disability)
- मानसिक मंदता (Mental retardation)
- मानसिक रुग्णता (Mental Illness)
- स्वलीनता (Autism)
- प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात (Cerebral Palsy)
- बहुविकलांगता (Multiple disabilities)
इन दस विशेष आवश्यकताओं के अतिरिक्त भी कुछ ऐसी विशेष आवश्यकताएँ हैं जिन पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता है।
अब प्रश्न उठता है कि क्या इस प्रकार के बच्चों को सामान्य विद्यालयों में पढ़ाया जा सकता है ? आमतौर पर उत्तर आता है–नहीं। क्योंकि जब भी समावेशन की बात आती है तो सबसे बड़ी चुनौती हमारी यही सोच है कि बच्चे में यदि कोई निःशक्तता है तो उसे पृथक स्कूल में भेजो। यदि हम अपनी इस सोच में परिवर्तन कर सकें, तो समावेशन को संभव बनाना कठिन भी नहीं है। इसके लिए ये उपाय करने होंगे-
दृष्टिकोण में परिवर्तन
स्कूल में बाधारहित वातावरण
प्रवेश नीति में परिवर्तन
पाठ्यक्रम का नए ढंग से निर्धारण
नई तकनीक का प्रयोग
विशेषज्ञों की सेवाएँ
परीक्षा के दौरान विशेष प्रबंध
सरकारी नौकरियों में आरक्षण
यात्रा में विशेष सुविधा देना
यह सिद्ध हो चुका है कि यदि विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के साथ पढ़ाया जाए तो उनका विकास तीव्र गति से होता है।
34. महिला सशक्तिकरण
महिला सशक्तिकरण, भौतिक या आध्यात्मिक, शारीरिक या मानसिक – सभी स्तरों पर महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा कर उन्हें सशक्त बनाने की प्रक्रिया है। महिलाओं के सामाजिक सशक्तिकरण में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। शिक्षा अज्ञानता रूपी अंधकार को दूर करके उनके विकास और उन्नति के मार्ग खोलती है। यह महिलाओं के सर्वांगीण विकास के लिए प्रथम और मूलभूत साधन है, क्योंकि महिला के शिक्षित होने पर उसमें जागरूकता, चेतना आएगी, अधिकारों के प्रति सजगता होगी, रूढ़ियों, कुरीतियों, कुप्रथाओं का अंधकार छँटेगा और वैचारिक क्रांति से प्रकाशपुंज फूट निकलेगा। शिक्षित महिलाएँ न केवल स्वयं आत्मनिर्भर एवं लाभान्वित होती हैं, अपितु भावी पीढ़ियाँ भी लाभान्वित होंगी।
आज महिलाएँ घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर रूढ़िवादी प्रवृत्तियों को पार कर विभिन्न व्यवसायों एवं सेवाओं में कार्यरत हैं, जिनसे उनमें आर्थिक आत्मनिर्भरता भी आ रही है। वे केवल आर्थिक रूप से ही सुदृढ़ नहीं हुई हैं, अपितु समाज एवं परिवार की सोच में भी सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने प्रारंभ हो गए हैं। महिलाएँ स्वयं के बल पर आगे बढ़ रही हैं। वे सामान्य शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा – सभी क्षेत्रों में अपना परचम लहरा रही हैं। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में भी वे पीछे नहीं हैं।
जब वे महिला सशक्तिकरण का दौर चला है तब से नारी के विविध रूप उभरकर सामने आ रहे हैं। अब तक कठोर कहे जाने वाले क्षेत्रों में भी नारी के सशक्त कदम पड़ रहे हैं। अब वे सेना के तीनों अंगों में महत्त्वपूर्ण पदों पर सफलतापूर्वक कार्य कर रही हैं। वे समुद्रों को खंगाल रही हैं, जहाज पर विश्व का चक्कर लगा रही हैं, सीमा पर शत्रु से लोहा ले रही हैं। राजनीति के क्षेत्र में भी उनकी भूमिका प्रशंसनीय रही है। वे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभाध्यक्ष, राज्यपाल, मंत्री आदि पदों की सफल निर्वहण करती रही हैं। वे प्रशासन के उच्च पदों पर कार्यरत हैं। खेलकूद में भी महिलाओं ने कबड्डी, कुश्ती, हॉकी, क्रिकेट, शूटिंग, बाक्सिंग में सिक्का जमा कर दिखाया है।
महिला सशक्तिकरण के दो पक्ष हैं- शारीरिक और आर्थिक। महिलाएँ दब्बूपन से बाहर निकल रही हैं। उनमें आत्मविश्वास का संचार हो रहा है। वे कुशल डॉक्टर और इंजीनियर बन रही हैं। शिक्षा के क्षेत्र में तो उनकी भूमिका विशेष उल्लेखनीय है। प्रधानमंत्री ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे के साथ उनका सम्मान बढ़ाया है। इसके लिए अनेक लाभकारी योजनाओं की शुरुआत की गई है। अब यह विकास आगे ही बढ़ता जाएगा।
35. खड़ी हो रही है नए भारत की इमारत
भारत के आर्थिक सर्वेक्षण (2017-18) में अनुमान लगाया गया कि भारत को 2040 तक इंफ्रास्ट्रक्चर में 4.5 लाख करोड़ डॉलर का निवेश करना होगा। इसका ज्यादा हिस्सा शहरी भारत में लगाना होगा क्योंकि 2030 तक भारत की 40 प्रतिशत आबादी यानी 60 करोड़ भारतीय शहरों के निवासी हो जाएँगे। इस आबादी को समायोजित करने के लिए 2030 तक हर साल 70 से 90 करोड़ वर्ग मीटर आवासीय और वाणिज्यिक क्षेत्र बनाने होंगे।
प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) में प्रत्येक भारतीय को अपना घर प्रदान करने का लक्ष्य है। इसे पूरा करने में शहरों में एक करोड़ आवासीय इकाइयाँ बनानी होंगी। इनमें से 81 लाख घरों के निर्माण की मंजूरी मिल चुकी है, 48 लाख घरों की नींव पड़ चुकी है और 26 लाख घर उनके मालिकों को दिए जा चुके हैं। यह आशा की जाती है कि 2021 तक सभी लाभार्थियों को उनका घर मिल जाएगा। यह घर महिला के नाम से या उसके साझे में होगा। यह महिलाओं को अधिकार सम्पन्न बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम है।
स्मार्ट सिटी मिशन के लिए 5,151 परियोजनाओं के माध्यम से कुल 2,05,000 करोड़ रुपए से अधिक राशि के निवेश की परिकल्पना की गई है। लगभग 15,000 करोड़ रुपए मूल्य की 896 परियोजनाएँ पूरी की जा चुकी हैं और 75,000 करोड़ रुपए मूल्य की 1895 योजनाएँ कार्यान्वयन की प्रक्रिया में हैं। अब तक सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल के तहत 26 शहरों में 2000 करोड़ की 65 परियोजनाएँ पूरी की जा चुकी हैं। 45 शहरों में 10,000 करोड़ की 116 परियोजनाएँ कार्यान्वित की जा रही हैं। 10 प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय कंपनियाँ 100 स्मार्ट शिटीज में कम-से-कम चुनिंदा 40 सिटीज में भागीदारी कर रही हैं।
‘अमृत प्रधानमंत्री आवास योजना’ और ‘स्मार्ट सिटीज मिशन’, दोनों के प्रयासों को पूर्णता प्रदान कर रही है। यह योजना एक लाख से अधिक आबादी वाले 500 शहरों में जल आपूर्ति, सीवर प्रणाली, शहर – परिवहन और सुरक्षित सार्वजनिक स्थल उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत है। मिशन पर कुल 1,00,000 करोड़ रुपए की लागत आने की संभावना है। ‘अमृत योजना’ प्रधानमंत्री के ‘सहकारी संघवाद’ के सिद्धांत पर आधारित है। इसके अंतर्गत राज्य सरकारें अवसंरचना विकास के तीनों पहलुओं- (क) अपने शहरों की जरूरतों के अनुरूप योजनाएँ बनाने, (ख) कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए राज्य वार्षिक कार्ययोजनाएँ तैयार करने और (ग) धनराशि जारी होने के बाद प्रगति पर नजर रखने की नेतृत्वकारी भूमिका में हैं।
36. इसरो ने महिलाओं को दिखाई अंतरिक्ष की राह
इसरो प्रमुख डॉ. के सिवर ने हाल में जब देश को चंद्रयान-2 की जानकारी दी तो यह अहम खुलासा भी किया कि यह भारत का पहला अंतरग्रहीय मिशन होगा जिसका संचालन दो महिलाएँ करेंगी। एम. वनिता चंद्रयान-2 की प्रॉजेक्ट डायरेक्टर होंगी और रितु करिधल मिशन डायरेक्टर। इस फैसले के जरिए इसरो ने न केवल देश की युवा महत्त्वाकांक्षी लड़कियों को अंतरिक्ष- शोध के क्षेत्र में अधिक दिलचस्पी दिखाने का संदेश दिया बल्कि विज्ञान में महिलाओं को शीर्ष नेतृत्व वाली भूमिका देकर उनकी योग्यता और क्षमता पर भरोसा भी जताया है।
इसमें दो राय नहीं कि महिलाएँ अपनी रुचि के मुताबिक पढ़ाई करने और कैरियर चुनने के मामले में आज पहले से अधिक स्वतंत्र हैं। फिर भी जब विज्ञान से जुड़ी शाखाओं वाले विषय पढ़ने और वैज्ञानिक का करियर चुनने की बात आती है तो महिलाओं की संख्या चिंताजनक ढंग से कम नजर आती है। मुल्क के 23 आईआईटी संस्थानों में दाखिला लेने वाले स्टूडेंट्स में लड़कियों का अनुपात 8-9 प्रतिशत के आसपास रहता है। इसरो की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक 2018-19 में इसरो में 20 प्रतिशत महिलाएँ हैं जिनमें 12 प्रतिशत वैज्ञानिक या तकनीकी भूमिका में हैं। देश में आज भी 14 प्रतिशत लड़कियाँ ही शोध करती हैं जबकि दुनिया में यह आँकड़ा 28.4 प्रतिशत है। इस समय अपने देश में करीब पौने तीन लाख वैज्ञानिक, टेक्नॉलजिस्ट और इंजीनियर रिसर्च व डिवेलपमेंट के लिए काम कर रहे हैं। इनमें लड़कियों की संख्या 40,000 के करीब है।
इसी 12 जून को जब इसरो प्रमुख ने चंद्रयान-2 की कमान दो महिलाओं के हाथ में दिए जाने का ऐलान किया, अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने वॉशिंगटन में अपने मुख्यालय से लगी गली का नाम बदलकर ‘हिडन फिगर्स वे’ कर दिया। ऐसा उन तीन अश्वेत महिला गण्पिातज्ञों के सम्मान में किया गया, जिन्होंने 1940-60 के दरम्यान नासा के स्पेस फ्लाइट रिसर्च में निर्णायक योगदान किया था। यह वही दौर था जब अमेरिका ने पहली मर्तबा चांद पर इंसान को भेजा था। साफ है कि साइंस, मैथ्स और स्पेस से महिलाओं का पुराना वास्ता है। इस तथ्य को पहचानने और उनके अहम योगदान को याद करने की जरूरत है। फिर यह समझते देर नहीं लगेगी कि पुरुषों का फील्ड मान और बता कर इन क्षेत्रों का कितना बड़ा नुकसान किया जाता रहा है।
37. ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब : भारत
अमेरिका और चीन के बीच चल रहे ‘व्यापार युद्ध’ से दुनिया की मैन्युफैक्चरिंग ताकत बनने का मौका भारत के हाथ लगा है। जापान और चीन पहले यह करिश्मा कर चुके हैं। अब इसको दोराने की बारी एशिया की तीसरी बड़ी इकॉनमी भारत की है, जिसकी शुरुआत अच्छी हुई है। विदेशी ब्रोकरेज फर्म यूबीएस ने अप्रेल की एक रिपोर्ट में कहा था, ‘हमें लगता है कि चीन से मैन्युफैक्चरिंग के शिफ्ट होने का कई साल चलने वाला ट्रेंड शुरू हुआ है, जो भारत के लिए सुनहरा मौका साबित हो सकता है।’
मेक इन इंडिया : मल्टीनेशनल कंपनियाँ अपनी सप्लाई चेन का रिस्क कम करने के लिए भी चीन के बजाय भारत जैसे ठिकानों की तलाश में हैं। इस रिस्क को ऐसे समझा जा सकता है कि साल 2011 में जापान में भूकंप और सूनामी के बाद प्रिंटेड सर्किट बोर्ड्स के लिए कॉपर फॉइल, चिप बनाने के लिए सिलिकॉन वेफर्स जैसे कंपोनेंट की सप्लाई प्रभावित होने से कई इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों का प्रॉडक्शन ठप हो गया था। ट्रेड वॉर से एक बार फिर ग्लोबल सप्लाई चेन को लेकर डर बढ़ गया है क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक असेंबली में चीन का दबदबा है।
जापान में भूकंप के बाद कई कंपनियों ने सप्लाई चेन के रिस्क की पहचान की थी और उसे कम करने की पहल की थी। ट्रेड वॉर की वजह से चीन को लेकर ऐसा ही ट्रेंड शुरू होता दिख रहा है। मैन्युफैक्चरिंग के लिए सस्ते श्रम, पूंजी, इंफ्रास्ट्रक्चर स्किल्ड मैनपावर और तकनीक की जरूरत है। भारत में सस्ते श्रम की कमी नहीं है। इंफ्रास्ट्रक्चर लगातार बेहतर हो रहा है। पूँजी की कमी विदेशी निवेश और हाउसहोल्ड सेविंग्स से पूरी की जा सकती है। तकनीक के लिए विदेशी कंपनियों को आकर्षित करना होगा।
पिछले तीन-चार साल में ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस और खासतौर पर अपैरल, लेदर और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे सेगमेंट में बेहतर नीतियों से भी मेन्युफैक्चरिंग को लेकर भारत का आकर्षण बढ़ा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले कार्यकाल में ‘मेक इन इंडिया’ और इंडस्ट्री को तैयार कामगार मुहैया कराने के लिए ‘स्किल इंडिया’ जैसी पहल शुरू की थी, लेकिन अब तक इनका उम्मीद के मुताबिक नतीजा नहीं निकला है। डिफेंस में मेक इन इंडिया की बड़ी गुंजाइश है। राफेल विमानों के लिए फ्रांस की दिग्गज कंपनी दस भारत में प्लांट लगाने जा रही है।
दुनिया की दिग्गज डिफेंस कंपनियाँ मेक इन इंडिया के लिए लार्सन एंड टुब्रो, रिलायंस, टाटा, महिंद्रा, भारत फोर्ज जैसे देश के बड़े कारोबारी समूहों के साथ पार्टनरशिप कर रही हैं। वित्त वर्ष 2019 में भारत का डिफेंस एक्सपोर्ट 10,000 करोड़ रुपये तक पहुँचने का अनुमान है, जो तीन साल पहले 1,500 करोड़ रुपये का था। पिछले साल जुलाई में सैमसंग ने ग्रेटर नोएडा में मोबाइल हैंडसेट बनाने का प्लांट शुरू किया, जिसकी सालाना क्षमता 12 करोड़ यूनिट्स की होगी। यह दक्षिण कोरिया की कंपनी का दुनिया में कहीं भी सबसे बड़ा प्लांट है। भारत की सबसे बड़ी स्मार्टफोन कंपनी शाओमी अपने सप्लायर्स को यहाँ प्लांट्स लगाने को कह रही है। इससे देश की मोबाइल फोन इंडस्ट्री में वैल्यू एडिशन होगा।
ऐपल भी भारत में फोन मैन्युफैक्चरिंग शुरू करने जा रही है। उसकी वेंडर फॉक्सकॉन पहले से भारत में फोन बना रही है। जापान और चीन ने दुनिया की मैन्युफैक्चरिंग ताकत बनने के लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने पहले कार्यकाल में इस मामले में अपने इरादे स्पष्ट किए थे, लेकिन बात सिर्फ इतने से नहीं बनेगी। भारत को मेक इन इंडिया को लेकर जो शुरुआती सफलता मिली है, उसे और आगे ले जाना होगा।
38. नास्तिकों की भावना का भी सम्मान हो
पूरी दुनिया में जहाँ एक ओर धर्म का ज्वार-सा उठ रहा है, वहीं नास्तिकों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। हैदराबाद के एक कृषि वैज्ञानिक भी ऐसे ही एक नास्तिक हैं। इन्होंने अपनी बेटियों का लालन-पालन धर्म और जाति की पहचान से हटकर शुद्ध इंसान के रूप में किया है। यह भी सच है कि उन्हें बार-बार परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। स्कूल में शिक्षा दिलाते समय उन पर धर्म का उल्लेख करने के लिए दबाव डाला गया। मतदान में तो ‘नोटा’ का विकल्प मिलता है, पर धर्म के मामले में ऐसा प्रावधान नहीं है।
‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में गाँधी जी ने लिखा है कि सत्य के अलावा अन्य कोई ईश्वर नहीं है अर्थात् ‘सत्य ही ईश्वर है ‘। बाद में गोरा (गोपाजु रामचंद्र राव) ने इस पर आपत्ति की। उन्होंने गाँधी जी से जानना चाहा कि उनकी योजना में नास्तिकों के लिए कोई स्थान है या नहीं ? गाँधी जी के साथ उनकी काफी लंबी बहस हुई। इसके बाद ही गाँधी जी ने पूर्व कथन को पलट कर कहा – ‘सत्य ही ईश्वर है।’ वैसे गोरा ने कहा था- ‘मैं नास्तिक हूँ, ईश्वराविहीन नहीं।’ गाँधी जी ने जब दोनों का अंतर जानना चाहा। तब उन्होंने कहा-
‘सकारात्मक रूप से नास्तिकता का अर्थ है आत्मविश्वास एवं स्वेच्छा। नास्तिकता का अर्थ नकारात्मक नहीं है जब कि इसका स्वरूप नकारात्मक है। व्याख्या के लिए इन शब्दों को देखें- नॉन- कोऑपरेशन, नॉन- वॉयलेंस, अहिंसा। इन सबका अर्थ धनात्मक है जबकि स्वरूप ऋणात्मक।’ गोरा ने गाँधी का दिल जीत लिया और उनके परिवार के सदस्य बन गए। ब्रिटेन में शपथ केवल ईश्वर के नाम पर ली जाती थी। चार्ल्स ब्रेडलॉ ने कठिन संघर्ष के बावजूद निरीश्वरवादियों के लिए भी शपथ लेने का द्वार खुलवाया। उन्होंने 1866 में नेशनल सेक्युलर सोसायटी की स्थाना की। 1880 में वह सांसद चुने गए, किंतु उन्होंने ईश्वर के नाम पर शपथ लेने से इन्कार कर दिया। वह सत्य निष्ठा के नाम पर संकल्प लेना चाहते थे। उनकी संसद की सदस्यता समाप्त कर दी गई और उनहें जेल में बंद कर दिया गया।
इसके बाद हुए उपचुनाव में वह और अधिक मतों से विजयी हुए। लेकिन एक बार फिर उनकी सदस्यता रद्द हो गई क्योंकि वह अपनी जिद पर अड़े रहे कि ईश्वर के नाम पर शपथ नहीं लेंगे। इसी तरह चार बार यह उपचुनावों में विजयी हुए और हर बार उनकी जीत का अंतर बढ़ता गया। अंततः 1886 में उन्हें बिना ईश्वर का नाम लिए शपथ लेने की इजाजत दी गई। दो वर्ष बाद उन्होंने संसद से एक नया शपथ अधिनियम पारित करवाया जिसमें कानूनी प्रावधान किया गया – सत्यनिष्ठा से शपथ लेने का।
इससे नास्तिकों के सम्मान की बात मुखर हो उठी।
यदि चार मंत्रियों ने भी ईश्वर के स्थान पर सत्यनिष्ठा के नाम पर शपथ ली तो भी निरीश्वरवादियों (नास्तिकों) का प्रतिनिधित्व तो सरकार में हो ही गया।
39. सौर ऊर्जा
विश्व के विभिन्न भागों का औसत सौर विकिरण सौर ऊर्जा वह ऊर्जा है जो सीधे सूर्य से प्राप्त की जाती है। सौर ऊर्जा ही मौसम एवं जलवायु का परिवर्तन करती है, यही धरती पर सभी प्रकार के जीवन का सहारा है। वैसे तो सौर ऊर्जा को विविध प्रकार से प्रयोग किया जाता है किंतु सूर्य की ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदलने को ही मुख्य रूप से सौर ऊर्जा के रूप में जाना जाता है। सूर्य की ऊर्जा को दो प्रकार से विद्युत ऊर्जा में बदला जा सकता है :
1. प्रकाश विद्युत सेल की सहायता से।
2. किसी तरल पदार्थ को सूर्य की ऊष्मा से गर्म करने के बाद, इससे विद्युत जनित्र चलाकर। सौर ऊर्जा सब में ऊर्जा है। यह भविष्य में उपयोग करने वाली ऊर्जा है।
विशेषताएँ: सूर्य एक दिव्य शक्ति स्रोत व पर्यावरण सुहृद प्रकृति के कारण नवीकरणीय सौर ऊर्जा को लोगों ने अपनी संस्कृति व जीवन यापन के तरीके के समरूप पाया है। सूर्य से सीधे प्राप्त होने वाली ऊर्जा में कई खास विशेषताएँ हैं। संम्पूर्ण भारतीय भू-भाग पर 5,000 लाख करोड़ किलोवाट घंटा प्रति वर्ग मीटर के बराबर सौर ऊर्जा आती है जो कि विश्व की सम्पूर्ण विद्युत खपत से कई गुना अधिक है। साफ धूप वाले दिनों में प्रतिदिन का औसत सौर ऊर्जा का सम्पात 4 से 7 किलोवाट घंटा प्रति वर्ग मीटर तक होता है। देश में वर्ष में लगभग 250-300 दिन ऐसे होते हैं जब सूर्य की रोशनी पूरे दिन उपलब्ध रहती है।
कमियाँ :
- महँगा।
- अनेक स्थानों पर सूर्य की रोशनी कम आती है अतः बेकार।
- बारिश में दिक्कत।
40. चमकी का अँधेरा
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि स्वास्थ्य की देखभाल, पोषण और स्वास्थ्यप्रद वातावरण लोगों के बुनियादी अधिकारों में शामिल है, और यह उन्हें मिलना ही चाहिए। कोर्ट ने बिहार के मुजफ्फरपुर में एईएस (चमकी बुखार) को लेकर दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। अदालत ने केंद्र और बिहार सरकार से 7 दिनों में रिपोर्ट माँगी है और यह स्पष्ट करने को कहा है कि अब तक इस बीमारी से निपटने के लिए क्या उपाय किए गए। उसने तीन बिंदुओं पर विशेष रूप से जानकारी उपलब्ध कराने को कहा है – जन स्वास्थ्य सेवा संबंधी सुविधाओं की उपलब्धता, बच्चों का पोषण और प्रभावित क्षेत्रों में साफ-सफाई की स्थिति। उसने यूपी सरकार को भी नोटिस जारी किया है क्योंकि कुछ समय पहले वहां भी इसी तरह बच्चे बड़ी संख्या में बीमारी के शिकार हुए थे। कैसी विडंबना है कि हमारे देश में कार्यपालिका को उसके कर्तव्यों की याद बार-बार न्यायपालिका को दिलानी पड़ती है।
स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकार के लिए भी लोगों को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है क्योंकि सरकार से उम्मीद बाँधे रहने की अब उन्हें कोई वजह नहीं दिखती। जहाँ तक बिहार का प्रश्न है तो वहाँ चमकी बुखार से डेढ़ सौ से भी ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है। बुखार के कारणों को लेकर डॉक्टरों में एक राय नहीं है। बड़े पैमाने पर इसके भड़क उठने के कारण एक झटके में इसे रोकना भी संभव नहीं है। लेकिन जिस तरह से यह बीमारी थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद फैल रही है, उससे इस संबंध में सरकारी तैयारियां की कमी का पता तो चलता ही है।
अगर किसी क्षेत्र विशेष में कोई समस्या बार-बार आ रही है तो उसे लेकर विशेष प्रॉजेक्ट चलाए जाने चाहिए थे। बिहार ही नहीं, यूपी के गोरखपुर और आस-पास के जिलों में भी मस्तिष्क ज्वर का प्रकोप होता रहता है लेकिन वहाँ भी इससे निपटने के दूरगामी उपाय नहीं किए गए, जिससे पिछले साल अगस्त में कई बच्चों की मौत हो गई। ये हादसे जन स्वास्थ्य को लेकर सरकार के उदासीन रुख को दर्शाते हैं। दरअसल देश में शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में दोहरी व्यवस्था चल रही है। हेल्थ सेक्टर को निजी क्षेत्र के लिए खोल देने के बाद सरकार की चिंता हेल्थ बीमे तक सिमट गई है।
देश का संपन्न और मध्यवर्गीय तबका स्वास्थ्य के लिए सरकारी तंत्र पर निर्भर नहीं है इसलिए सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को बेहतर बनाने का कोई खास दबाव भी सरकार पर नहीं है। स्वास्थ्य कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनता। खस्ताहाल सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने को मजबूर गरीब लोग भी शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर वोट नहीं देते। हाँ, पार्टियाँ घोषणापत्रों में स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाने का दावा जरूर करती हैं क्योंकि उन्हें पता है कि सत्ता में आने के बाद इस बारे में कोई उनसे सवाल नहीं करने वाला। यह लोकतंत्र के लिए अच्छी स्थिति नहीं है। देश की एक बड़ी आबादी को बीमारी और कुपोषण के अंधेरे में छोड़कर हम विकसित देश बनने का स्वप्न नहीं देख सकते।
41. वर्तमान शिक्षा प्रणाली
भारत स्वतंत्र हुए लगभग 74 वर्ष होने को आए, पर अभी तक भारत में कोई व्यवस्थित शिक्षा-प्रणाली लागू नहीं हो पाई है। अंग्रेजों के समय में भारत में मैकाले द्वारा जो शिक्षा प्रणाली शुरू की गई थी, उसी में थोड़ा हेर-फेर करके भारत की शिक्षा-प्रणाली निर्धारित कर ली गई थी। बाद में ‘कोबरी कमीशन’ बना। उसकी कुछ सिफारिशें लागू की गईं। इसके बाद ‘नई शिक्षा – प्रणाली’ के नाम पर कई बार नयापन लाने की कोशिशें की गईं।
हर बार यह दावा किया जाता रहा कि यह शिक्षा प्रणाली बाल केंद्रित होगी, पर वास्तविकता इससे काफी दूर रही। कभी 10+2 शिक्षा प्रणाली लाई गई तो कभी स्नातक के पाठ्यक्रम को चार वर्ष का बनाया गया। पर ढाक के वही तीन पात रहे। शिक्षा प्रणाली में मूल्यांकन पद्धति में गुणात्मक सुधार लाने का दावा किया गया तथा अंकों के स्थान पर ग्रेड सिस्टम चलाया गया। कुछ साल के प्रयोग के बाद ‘लौट के बुद्ध घर को आए’ वाली स्थिति उत्पन्न होती रही है।
वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में पुस्तकीय ज्ञान पर बल है। इसे बालकों की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं बनाया जा सका है। अभी भी शिक्षा-प्रणाली में अंग्रेजी का प्रभुत्व बरकरार है, जबकि शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए। तभी बालक की अभिव्यक्ति सार्थक हो सकेगी। बातें तो मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की बहुत होती हैं, पर क्रियान्वयन नहीं हो पाता।
वर्तमान शिक्षा-प्रणाली जीवन की वास्तविकता से बहुत दूर है। यह शिक्षा प्रणाली बालक को भावी जीवन के लिए तैयार नहीं करती। इस प्रणाली में बालक असमंजस की स्थिति में रहता है। राजनीतिक नेता और शिक्षा शास्त्री वर्तमान शिक्षा प्रणाली को दोषपूर्ण बता कर भ्रम की स्थिति उत्पन्न करते हैं। वे कोई कारगर सुझाव न तो दे पाते हैं और न लागू कर पाते हैं।
वर्तमान शिक्षा-प्रणाली बेरोजगार युवक-युवतियों की संख्या को बढ़ा रही है। बेरोजगारों की फौज इधर-उधर निराश अवस्था में भटकती रहती है। सरकार भी उन्हें थोथे आश्वासन देकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेती है। शिक्षा प्रणाली को रोजगारपरक बनाना जरूरी है। व्यावसायिक शिक्षा का एक अलग वर्ग बना दिया गया है। इसमें पढ़े युवक-युवतियाँ भी रोजगार नहीं पाते। सरकार ने ‘स्किल एजूकेशन’ योजना लागू तो की है, पर इसके केंद्रों की संख्या बहुत कम है। इनका विस्तार होना चाहिए। सी. सी. ई. प्रणाली बहुत को भी अनुपयोगी मानकर बंद कर दिया गया है। अभी तक शिक्षाशास्त्रियों को कुछ बात स्पष्ट रूप से समझ नहीं आ रही है कि वे शिक्षा प्रणाली को कैसे उपयोगी बनाएँ। वर्तमान शिक्षा प्रणाली अच्छे नागरिक भी नहीं बना पा रही है, संस्कार देने की बात तो दूर है।
अब वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। इस काम के लिए शिक्षाविदों, योग्य अनुभवी अध्यापकों, अभिभावकों तथा छात्रों की भागीदारी होनी आवश्यक है। बार-बार पाठ्यक्रम बदलने से कुछ नहीं होने वाला। बहुत सोच-विचार कर एक सुनिश्चित रूपरेखा के आधार पर शिक्षा प्रणाली निर्धारित करनी होगी और उस पर दृढ़तापूर्वक अमल करना होगा। यह शिक्षा – प्रणाली भारतीय संस्कृति के अनुरूप होनी चाहिए।
42. संचार क्रांति
‘संचार’ शब्द की उत्पत्ति ‘चर’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है-चलना अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना। ‘संचार’ से तात्पर्य है – ‘दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सूचनाओं, विचारों ओर भावनाओं का आदान-प्रदान होना। प्रसिद्ध संचार शास्त्री विल्बर श्रम के अनुसार – ” संचार अनुभवों की साझेदारी है।” इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सूचनाओं, विचारों और भावनाओं को लिखित, मौखिक या दृश्य-श्रव्य माध्यमों के जरिए सफलतापूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाना ही संचार है। इस प्रक्रिया को क्रियान्वित करने का माध्यम संचार माध्यम कहलाते हैं।
वर्तमान युग संचार क्रांति का है। चारों ओर संचार के विविध साधनों का बोलबाला है। संचार के अनेक प्रकार हैं, पर सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकार है-जनसंचार (Mass Communication)। जब कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष संवाद की बजाय किसी तकनीकी या यांत्रिक माध्यम से विशाल समूह के साथ संवाद स्थापित करता है तब इसे जनसंचार कहा जाता है। इसमें संदेश को यांत्रिक माध्यम से बहुगुणित किया जाता है ताकि उसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जा सके। इसके लिए हमें किसी-न-किसी यांत्रिक उपकरण की मदद लेनी पड़ती है। जैसे- टी. वी., कम्प्यूटर, इंटरनेट आदि। संचार के कई प्रकार हैं :
(क) मौखिक संचार, (ख) अमौखिक संचार
इनके अलावा ये प्रकार भी शामिल हैं :
- अंतः वैयक्तिक संचार
- अंतर वैयक्तिक संचार
- समूह संचार
- जनसंचार
संचार की प्रक्रिया में कई तत्त्व शामिल होते हैं। इनमें प्रमुख तत्त्व ये हैं
- स्रोत : संचार – प्रक्रिया की शुरूआत स्रोत या संचारक से होती है। जब स्रोत एक उद्देश्य के साथ अपने विचार या संदेश किसी और तक पहुँचाना चाहता है, तब संचार प्रणाली शुरू हो जाती है।
- भाषा : बातचीत या संदेश भेजने के लिए भाषा का सहारा लिया जाता है। भाषा असल में एक तरह का कूट चिह्न या कोड होता है। संदेश को उस भाषा में कूटीकृत या एनकोडिंग किया जाता है।
- संदेश : संचार प्रक्रिया में अलग चरण संदेश का होता है। संदेश जितना स्पष्ट और सीधा होगा, प्राप्तकर्ता उसे उतनी ही आसानी से समझ सकेगा।
- माध्यम (चैनल) : संदेश टेलीफोन, समाचार-पत्र, रेडियो, टी.वी., इंटरनेट के जरिए प्राप्तकर्ता तक पहुँचाया जाता है।
- प्राप्तकर्ता : प्राप्तकर्ता (रिसीवर) प्राप्त संदेश का कूटवाचन यानी डिकोडिंग करता है और अर्थ समझने का प्रयास करता है।
- फीडबैक : प्राप्तकर्ता की प्रतिक्रिया को फीडबैक कहा जाता है। फीडबैक के अनुसार ही संदेश में सुधार किया जाता है।
वर्तमान युग में संचार क्रांति आई हुई है। हम देखते हैं कि टी.वी. स्टुडियो में बैठे हुए ही एंकर गोष्ठी / वार्तालाप / बहस करा लेता है। हम अपने टी.वी. स्क्रीन पर इंटरनेट की मदद से किसी से भी सचित्र बातचीत कर लेते हैं। अब इसके माध्यम से कहीं भी संदेश सेकंडों में भिजवाया जा सकता है। यह इंटरनेट, टी.वी. तथा मोबाइल फोन पर सहज उपलब्ध है। वाई-फाई भी काफी मदद कर रहा है। जनसंचार की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गई है। जनसंचार के प्रमुख कार्य हैं –
- सूचना देना
- शिक्षित करना
- मनोरंजन करना
- एजेंडा तय करना
- विचार-विमर्श के लिए मंच प्रदान करना।
अब हम संचार क्रांति से अनेक प्रकार के लाभ उठा रहे हैं।
43. अंतरिक्ष में बढ़ते भारत के कदम
भारत दुनिया के उन देशों में शामिल हो चुका है जो अंतरिक्ष में मंगलयान भेजने में सफल रहे हैं। भारत का मंगलयान मंगल ग्रह की कक्षा में 24 सितंबर, 2014 को सफलतापूर्वक प्रवेश कर गया। इसे 5 नवंबर 2013 को श्री हरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से प्रेक्षेपित किया गया था। लगभग 10 महीनों तक लगातार चक्कर काटते हुए 67 करोड़ किलोमीटर की लंबी दूरी तय करके यह मंगलयान अपने लक्ष्य को पाने में सफल हुआ। भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम काफी सफल रहा। अब भारत अंतरिक्ष के मामले में कई विकसित देशों से भी आगे निकल गया है।
भारत ने 1975-76 में ही दुनिया का सबसे बड़ा सैटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलीविजन एक्सपैरीमेंट (एस.आई.टी.ई.) लाँच किया था, जब अमेरिकी सैटेलाइट ए. टी. एस-6 के जरिए देश के 2500 से भी ज्यादा गाँवों में स्वास्थ्य, परिवार नियोजन और कृषि आदि विषयों पर शिक्षाप्रद कार्यक्रमों की शुरुआत की गई थी। फिर 1977-79 के दौरान सैटेलाइट टेलीकम्यूनिकेशन एक्सपैरीमेंट प्रोजेक्ट (एस.टी.ई.वी.) चलाया गया।
इन अनुभवों के आधार पर ही 1983 में इनसेट सिस्टम की स्थापना संभव हो सकी और आज वह दुनिया के सबसे बड़े घरेलू संचार सैटेलाइट सिस्टमों में से एक है। इनसैट ने दूरसंचार, टेलीविजन, ब्रॉडकास्टिंग, मौसम विज्ञान और खतरे की चेतावनी देने वाली सेवाओं के क्षेत्र में एक नई क्रांति ला दी। इसके जरिए सैकड़ों अर्थ स्टेशनों को जोड़ने में मदद मिल सकी, वे भी जो देश के के क्षेत्रों में और द्वीपों में स्थित थे। भारत में आज टी.वी. की पहुँच 80 प्रतिशत आबादी तक है।
इनसैट का प्रयोग न केवल दूरसंचार, टेलीविजन और मौसम की जानकारियों के लिए किया जा रहा है बल्कि इसके जरिए जमीनी स्तर पर शिक्षाप्रद कार्यक्रमों के प्रसारण और इंटरएक्टिव ट्रेनिंग में भी मदद मिल रही है। कई राज्य सरकारों और एजेंसियों ने आज इसका इस्तेमाल शिक्षा, उद्योगों में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए इंस्टीट्यूशनल ट्रेनिंग, सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के प्रशिक्षण के लिए किया है। मध्य प्रदेश में झाबुआ डेवलपमेंटल कम्युनिकेशन प्रोजेक्ट नवंबर 1996 में शुरू हुआ था, जिसके तहत इनसैट की तकनीक का इस्तेमाल कर आदिवासी लोगों के लिए स्वास्थ्य, सफाई, परिवार नियोजन और महिला अधिकारों आदि विषयों पर शिक्षाप्रद कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।
दूरसंचार के क्षेत्र में तो इनसैट का प्रयोग हो ही रहा है, साथ ही मौसम विज्ञान के क्षेत्र में भी यह काफी मददगार साबित हुआ है। इसके जरिए चक्रवात की पूर्व सूचना मिल जाने से तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों और मछुआरों को पहले ही सतर्क कर दिया जाता है। इनसैट सैटेलाइट की संख्या बढ़ाए जाने की बढ़ती माँग को देखते हुए अब दूरसंचार और मौसम विज्ञान के लिए अलग-अलग सैटेलाइट छोड़ना जरूरी हो गया है। 70 के दशक में और 80 के दशक की शुरूआत में भास्कर – 1 और भास्कर – 2 सैटेलाइट छोड़े गए। रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट के क्षेत्र में आज भारत का अग्रणी स्थान है। आई. आर. एस. सैटेलाइट के जरिए देश की प्रमुख फसलों के उत्पादन, वनों का सर्वेक्षण, सूखे की भविष्यवाणी, बाढ़ के खतरों जेसे कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में मदद ली जा रही है।
भारतीय वैज्ञानिक चाँद पर जाने की अपनी महत्त्वाकांक्षी योजना को पूरा करने में जुटे हुए हैं। हालांकि यह योजना नई नहीं है। इस दिशा में प्रारंभिक तैयारी पूरी हो चुकी है। भारतीय अंतरिक्ष शोध संगठन (इसरो) ने सरकार को एक रिपोर्ट भेजी है, जिसमें दावा किया गया है कि वैज्ञानिकों ने तकनीकी क्षमता हासिल कर ली है। अंतरिक्ष में भारत को जो नवीनतम सफलता प्राप्त हुई है वह है 19 दिसंबर, 2018 को मिली सफलता। इससे भारतीय वायु सेना को अंतरिक्ष से ताकत मिलेगी।
19 दिसंबर, 2018 को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अपने कम्युनिकेशन सैटेलाइट जीएसएलवी-एफ 11/जीसैट-7 ए को बुधवार को सफलतापूर्वक लॉन्च कर दिया। लॉन्चिंग के कुछ देर बाद वह सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में प्रवेश कर गया। यह सैटलाइट भारतीय वायुसेना के लिए बहुत खास है। इसकी लागत 500-800 करोड़ रुपये बताई जा रही है। इससे 4 सोलर पैनल लगाए गए हैं, जिनके जरिये करीब 3.3 किलोवॉट बिजली पैदा की जा सकती है। इसके साथ ही इसमें कक्षा में आगे-पीछे जाने या ऊपर जाने के लिए बाई- प्रोपेरैंट का केमिकल प्रोपल्शन सिस्टम भी दिया गया है। इसके जरिये ड्रोन आधारित ऑपरेशंस में एयरफोर्स की ग्राउंड रेंज में खासा इजाफा होगा।
GSAT-7A से पहले इसरो GSAT- 7A सैटलाइट, जिसे ‘रुक्मिणि’ के नाम से जाना जाता है, भी लॉन्च कर चुका है। इजीसैट – 7ए का वजन 2,250 किलोग्राम है। यह कू – बैंड में संचार की सुविधा उपलब्ध करवाएगा।
44. मोबाइल फोन बिना सब सूना
वर्तमान वैज्ञानिक युग में मोबाइल फोन के प्रभाव से शायद ही कोई व्यक्ति बचा हो। आज हर व्यक्ति की जेब में या हाथ में मोबाइल फोन दिखाई पड़ता है। मोबाइल फोन हमारे जीवन की आवश्यकता बनकर रह गया है। इसके बिना जीवन सूना-सूना प्रतीत होता है। यह विज्ञान की एक चमत्कारी देन है। इसके नित्य नए-नए रूप बाजार में दिखाई दे रहे हैं। अब इस फोन में कैमरा भी लग गया है। इसमें बोलने वाले का चित्र भी आ जाता है। यह मोबाइल फोन सम्पत्ति भी है और विपत्ति भी। हर चीज के दो रूप होते हैं- सुखद और दुःखद।
मोबाइल का सुखद रूप यह है कि इसे कहीं भी, कभी भी आसानी से ले जाया जा सकता है। इसे जेब में रखा जा सकता है अथवा हाथ में पकड़ा जा सकता है। अब फोन सुनने या करने के लिए कहीं बैठकर समय बर्बाद करने की आवश्यकता नहीं है। आपका फोन आपकी जेब में हाजिर रहता है। इसका सर्वाधिक लाभ व्यापारी वर्ग के साथ-साथ दैनिक काम करने वाले मजदूरों को है। व्यापारियों का आधे से अधिक काम मोबाइल पर ही हो जाता है। अब उन्हें कहीं जाने की आवश्यकता ही नहीं रहती। व्यापारी के लिए एक-एक मिनट की कीमत होती है।
श्रमिक वर्ग अर्थात् छोटे-छोटे कामगार जैसे – राजमिस्त्री, पेंटर, प्लंबर, बढ़ई के पास जाने की और उन्हें ढूँढने की जरूरत नहीं रह गई है। अब उनके पास मोबाइल है। उन्हें फोन कीजिए, वे तुरंत हाजिर हो जाते हैं। आपका समय और श्रम बचता है, उन्हें काम मिलता है। उनके रोजगार के अवसर बढ़ गए हैं। अब उन्हें घर बैठे ही बुला लिया जाता है।
मोबाइल फोन के जरिए आप हर समय शेष दुनिया से जुड़े रहते हैं। आप देश के किसी भी हिस्से में हैं या विदेश में हैं। मोबाइल का बटन दबते ही सारा हाल आपको ज्ञात हो जाता है। है न कमाल। मोबाइल में कॉलों का रिकॉर्ड दर्ज रहता है अतः इसकी सहायता से अपराधियों को पकड़ना आसान हो गया है। अब तो कोर्ट द्वारा भी इसमें दर्ज बातचीत को मान्यता दे दी गई है।
मोबाइल के कुछ दुःखद रूप भी हैं। इसका दुरुपयोग अश्लील और अभद्र SMS भेजने में हो रहा है। अनचाही कॉलें लोगों का समय बर्बाद करती हैं। इसका अत्यधिक प्रयोग कानों पर बुरा असर डाल रहा है। लोगों के लिए अब यह फैशन बनता जा रहा है। इसका अधिक प्रयोग उनकी कार्यक्षमता को घटा रहा है।
अब प्रश्न उठता है कि यह मोबाइल फोन फैशन है या इसकी उपयोगिता भी है। यह सच है कि मोबाइल फोन को रखना फैशन बन गया है। एक प्रकार से यह ‘स्टेटस सिंबल’ बन गया है। मोबाइल फोन के एक से एक नए रूप सामने आ रहे हैं। इनमें से कुछ काफी महँगे भी हैं – रंगीन भी कैमरे वाले भी। इन फोन में अधिक सुविधाएँ भी मिल रही हैं। लड़कियों के लिए तो यह एक फैशन की वस्तु है। उनके हाथ में मोबाइल होता है, कानों में उससे संगीत सुनने का यंत्र।
इसके बावजूद मोबाइल फोन की उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता। अब आप हर समय, हर जगह पहुँच के अंदर रहते हैं। आप घर-दफ्तर से सीधे रूप से जुड़े रहते हैं। अब आपको घर पर बैठकर फोन की प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं रह गई है। अब आप कहीं से भी किसी से भी संपर्क कर सकते हैं। इसके साथ-साथ इससे कामगारों को काफी काम मिलना शुरू हो गया है। अब उन्हें ढूँढने की जरूरत नहीं है। आप उन्हें फोन से बुला सकते हैं। अब मोबाइल फोन इंटरनेट से जुड़ गए हैं। अतः इसके माध्यम से सारी सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं, बैंकिंग कार्य किया जाता है तथा आमने-सामने की बातचीत भी की जा सकती है।
ये मोबाइल फोन कई बार परेशानी के कारण बन जाते हैं। कई बार अनचाही कॉलों से परेशानी होती है तथा कई बार जब आप किसी मीटिंग में या अन्यं किसी काम में व्यस्त होते हैं तो मोबाइल फोन की घंटी आपको परेशान कर देती है। दफ्तर के काम-काज में भी ये बाधा उपस्थित करते हैं। एस- एम. एस. भेजने में भी इनका दुरुपयोग किया जाता है।
विद्यालय परिसर में मोबाइल फोन के प्रयोग पर प्रतिबंध लगना चाहिए। विद्यार्थियों को इसकी विशेष आवश्यकता नहीं होती। वे इस पर व्यर्थ समय बर्बाद करते हैं। इससे उनकी पढ़ाई भी बाधित होती है। शिक्षक भी पढ़ाने में रुचि कम लेते हैं, मोबाइल फोन पर बातें अधिक करते हैं। कक्षा में मोबाइल फ़ोन की घंटियाँ बजते रहना बड़ा अटपटा-सा लगता है।
45. मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना
यों तो मेरे जीवन में प्रायः घटनाएँ घटित होती रहती हैं, पर कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो अविस्मरणीय बनकर रह जाती हैं। इनमें कुछ घटनाएँ सुखद होती हैं तो कुछ दुःखद। मैं दुःखद घटना सुनाकर आपको दुःखी नहीं करना चाहूँगा। अतः अपने जीवन की एक सुखद घटना बताता हूँ। यह घटना मेरे मानस पटल पर सदैव – सदैव के लिए अंकित हो गई है।
गंगा नदी में की गई नौका विहार की घटना मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना बनकर रह गई है। हम चार मित्र गंगा तट पर पहुँचे। शरद् पूर्णिमा का अवसर था। चारों ओर शुभ चाँदनी की छटा बिखरी हुई थी। मित्रों ने नौका विहार की योजना बनाई। फिर क्या था गंगा नदी के किनारे बँधी नावों से एक नौका किराए पर ली। उस समय की गंगा को देखकर मुझे पंत जी की ये काव्य पंक्तियाँ स्मरण हो आईं :
“सैकत शय्या पर दुग्ध धवल तन्वंगी गंगा
लेटी है श्रांत कलांत निश्चल।”
नाविक ने हर-हर गंगे कहकर नाव खोल दी। हम नौका में सवार हो गए। वह कुशल नर्तकी के समान ठुमके लगाती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। ऐसे लग रहा था कि नौका हँसिनी के समान तैर रही है। शुभ्र ज्योत्स्ना बिखरी हुई थी, पवन अठखेलियाँ करता जान पड़ रहा था। वातावरण शांत और स्निग्ध था। मन में गीत उमड़-घुमड़ रहे थे। मित्रों के आग्रह पर गीतों का सिलसिला शुरू हो गया। नौका मंथर गति से तैरती आगे बढ़ रही थी।
पतवार घुमा,
नौका घूमी विपरीत धार
डाँडों के चल करतल पसार, भर-भर कर मुक्ताफल फेन- स्फार,
बिखराती जल में तार- हार।
मन खुशियों से बल्लियों उछल रहा था। संगीत की मधुर ध्वनि कानों को भली प्रतीत हो रही थी। नाविक भी मस्ती के मूड आ गया था। उसके हाथ की पतवार शीघ्रता से चल रही थी। हम लोग प्रसन्न मुद्रा में आकाश की ओर निहार रहे थे। हमारे देखते-देखते एक छोटी-सी बदली आकाश पर छा गईं। कालिमा गहराती जा रही थी। हमने विचार किया कि कहीं बारिश न होने लगे। हमने मल्लाह से शीघ्रता करने को कहा। तभी वर्षा की हल्की-हल्की बूँदें गिरने लगीं। मल्लाह तेज गति से चप्पू चला रहा था। बीच-बीच में बिजली चमक जाती थी। गंगा जल बीच-बीच में गोलाकार होकर भँवर आने की सूचना दे रहा था। कुछ ही क्षणों में हमारी नाव किनारे पर आ लगी। हमने नाव से कूदकर निकट के एक मंदिर में शरण ली। मल्लाह भी हमारे साथ था क्योंकि उसे अपना किराया लेना था। हम एक रिक्शे में बैठकर हॉस्टल की ओर लौट आए। उस समय सारा क्षेत्र निद्रा देवी की गोद में समा चुका था। चौकीदार ने हमें बड़ी खुशामद करवाकर अंदर आने दिया। उसने मुख्य द्वार खोला तो हम अंदर जा सके। यह घटना मुझे सदैव याद रहेगी।
46. हमारे गाँव
भारत गाँवों का देश है। भारत की लगभग 70 प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है। गाँवों का सभी राजनीतिक दलों ने शोषण तो बहुत किया है, पर उनके उत्थान के प्रति वे सभी लापरवाही बरतते रहे हैं। भारत के शहरों ने जब तरक्की की है, वहीं गाँवों की दशा में अभी तक अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। गाँवों के गुणगान तो सभी करते हैं, पर वहाँ जाकर रहने का साहस कोई नहीं जुटा पाता। वैसे हमारे गाँव प्रदूषण के जहर से मुक्त हैं।
वहाँ प्रकृति के मनोहारी रूप के दर्शन होते हैं। यहाँ पक्षियों की चहचहाहट कानों को बड़ी भली प्रतीत होती है। गाँव के बाहर खेत होते हैं। वहाँ लहलहाती फसलें बड़ी अच्छी लगती हैं। खेतों में अन्न उगाया जाता है। जब खेतों में हल चलते हैं तो बैलों के गले में बँधी घंटियों के स्वर सुनाई देते हैं। गाँव के कुएँ के पनघट पर स्त्रियाँ पानी भरती दिखाई देती हैं। वे वहाँ आपस में चुहुल करती हैं, बातचीत करती हैं। यह सारा दृश्य बड़ा ही अच्छा प्रतीत होता है। गाँव के लोगों को दूध-दही – घी खाने को मिलता है, अतः गाँव के लोग स्वस्थ दिखाई देते हैं। यह तो गाँवों का वह रूप है जो हमें अच्छा लगता है।
अब गाँवों की वास्तविकता पर भी दृष्टिपात कर लें। गाँवों में सुविधाओं का भारी अकाल है। अभी तक सभी गाँवों तक जाने के लिए पक्की सड़कें तक नहीं बनी हैं। अभी तक अधिकांश गाँवों में बिजली तक की सुविधा नहीं थी, पर गत 4-5 वर्षों में भारत सरकार ने अधिकांश गाँवों तक बिजली पहुँचाने का बड़ा काम कर दिखाया है। आशा की जा सकती है अगले वर्षों में प्रत्येक घर में बिजली बल्ब जलने लगेगा।
गाँवों में अभी तक लकड़ी को ईंधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है। इससे ग्रामीण स्त्रियों को चूल्हे के धुएँ को निगलना पड़ता था। अब भारत सरकार ने 5-6 करोड़ ग्रामीणों तक गैस के चूल्हे निःशुल्क पहुँचाए हैं। इससे ग्रामीण महिलाओं को बहुत राहत मिली है। हाँ, अभी तक भारत के गाँवों में शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का घोर अकाल है। अधिकांश गाँवों में केवल प्राइमरी स्कूल ही हैं। उन्हें उच्च शिक्षा के लिए शहरों का मुँह ताकना पड़ता है। बीमारी की अवस्था में उनकी दवा का कोई उपाय नहीं हो पाया है। शहर जाकर इलाज करवाना इतना आसान नहीं है। अब सरकार पाँच लाख तक निःशुल्क चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने का दावा कर रही है। अभी इसकी विश्वसनीयता की जाँच होनी शेष है।
गाँवों में बेरोजगारी भी बहुत है। किसान तीन-चार महीने काम करने के बाद निठल्ले रहते हैं। खेती से उनकी आय इतनी नहीं हो पाती कि वे साल भर पूरे परिवार का खर्च चला सकें। हजारों किसानों ने आत्महत्या करके सरकार के दावों की कलई खोल दी है। वे सदा बैंकों या साहूकारों के कर्ज तले दबे रहते हैं। उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। गाँवों में कुटीर उद्योगों का जाल बिछाया जाए तो उनकी दशा सुधर सकती है।
किसान का जीवन बहुत से कष्टों से भरा रहता है। किसानों की दशा सुधारने के लिए उन्हें खेती के उन्नत तरीकों की ट्रेनिंग देनी होगी, उन्हें साक्षर बनाना होगा तथा गाँवों को गंदगी से मुक्त करना होगा। भारत सरकार ने हर घर में शौचालय बनाने की दिशा में पर्याप्त कार्य किया है। कुछ गाँवों के किसानों में जागृति आई है। सरकार को गाँवों और किसानों की दशा सुधारने के लिए एक विस्तृत एवं व्यापक योजना बनाकर क्रियान्वित करनी होगी। गाँवों के उन्नत होने में ही भारत की उन्नति निहित है।
47. वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में सुधार के उपाय
शिक्षा व्यवस्था के बदलाव के इस दौर में आज पुरस्कारों से ज्यादा जरूरत इस बात की है कि शिक्षकों की क्रिएटिविटी और इनोवेटिव क्षमता को निखारने के लिए नए अवसर उपलब्ध कराए जाएं। निगरानी के बजाय अध्यापकों की निष्ठा पर भरोसा किया जाए। फिनलैंड, जर्मनी और नार्वे की शिक्षा-प्रणाली द्वारा नए प्रतिमान गढ़े जाने और उनके विश्व के समक्ष उदाहरण बनने का एक प्रमुख कारण है वहाँ की सरकारों द्वारा शिक्षकों के गुरुतर दायित्व के प्रति पूर्ण विश्वास। सोशल मीडिया के दुष्प्रचार के फलस्वरूप हमारे देश में समाज, सरकार, अभिभावक और बच्चों के बीच जो अविश्वास बढ़ रहा है, उसे मिटाने के लिए परस्पर सहयोग और सौहार्दपूर्ण संवाद की आवश्यकता है। शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी समस्याएँ चाहे जितनी जटिल हों, उनका पुख्ता समाधान शिक्षक, अभिभावक और सरकार के आपसी विश्वास और दीर्घकालीन प्रयत्नों से ही संभव है।
आज युवा पीढ़ी को सीधे तौर पर नैतिकता और अनुशासन का पाठ सिखाना बेहद मुश्किल है। कोई शिक्षक अपने स्टूडेंट्स की क्रिएटिविटी को तब तक नहीं निखार सकता, जब तक कि वह अपने टीचिंग मेथड को इनोवेशन स्किल्स द्वारा रुचिपूर्ण नहीं बनाता। शब्दों की जानकारी हासिल करने, गुणा-भाग सीख लेने का मतलब साक्षर होना है ना कि शिक्षित होना। शिक्षा या एजुकेशन का वास्तविक अर्थ तो छात्रों की रचनाधर्मिता व आंतरिक क्षमताओं का विकास करना है। शिक्षक के सामने एक बड़ी चुनौती यह है कि तेजी से बदलते परिवेश में वह अपने विद्यार्थियों को रटने की परंपरागत पद्धति से हटा कर उन्हें प्रॉब्लम सॉल्विंग व क्रिएटिव थिंकिंग के संदर्भ में एजुकेशन दे। वर्तमान में सीबीएसई परीक्षाओं में बच्चे इतिहास, समाजशास्त्र, हिंदी व अंग्रेजी में 100 फीसदी तक अंक हासिल तो कर रहे हैं, किंतु उन्हें टेक्स्ट बुक के अध्यायों के नाम तक याद नहीं हैं। आमतौर पर वे पाठ्यपुस्तक के अध्यायों का कॉन्सेप्ट समझने, उनका विश्लेषण करने के बजाय परीक्षा से एक-दो महीने पहले संभावित सवालों के जवाब कंठस्थ करने में व्यस्त रहते हैं।
अकल्पनीय अंक हासिल करने की लालसा और प्रतिस्पर्धा बच्चों के व्यक्तित्व विकास में सहायक नहीं है। इस पैटर्न का बड़ा नुकसान यह है कि विद्यार्थियों में सोचने, समझने और समस्याओं को सुलझाने की क्षमता विकसित नहीं हो पाती। ज्यादातर पैरंट्स अपने बच्चों के एग्जाम्स में आने वाले नंबरों को सोशल स्टेटस से जोड़कर देखते हैं। उनमें आम धारणा है कि जिस बच्चे के जितने ज्यादा मार्क्स आएं वह उतना ही इंटेलिजेंट और कामयाब है। पैरंट्स-टीचर्स मीटिंग में आमतौर पर देखा गया है कि अभिभावकों का ज्यादा जोर इस बात पर रहता है कि उनके बच्चे की पढ़ाई का लेवल क्या चल रहा है। बच्चे के चारित्रिक विकास से उनका ज्यादा सरोकार नहीं होता। प्रशासनिक दबाव की वजह से टीचर भी अपने सब्जेक्ट के बेहतर परीक्षाफल के लिए प्रयासरत रहते हैं।
संचार क्रांति के इस दौर में आज के स्टूडेंट्स को अपने ऐकडेमिक सेशन से संबंधित सिलेबस, संबंधित विषय के नोट्स और अन्य सहायक सामग्री आसानी से मिल जाते हैं। अगर कुछ दुर्लभ है तो वह है- विद्यार्थी के समग्र व्यक्तित्व – विकास की संभावना। पढ़ाई-लिखाई, भाषा – शैली, इतिहास-भूगोल और गणित-विज्ञान का अध्ययन तभी सार्थक है जब इन विषयों का ज्ञान स्टूडेंट्स में मानवीय मूल्य विकसित करे। आजकल ‘फोर्थ इंडस्ट्रियल रिवॉल्यूशन’ के अनुसार शिक्षा उपलब्ध कराने की बहुत चर्चा हो रही है। भारत डिजिटल टेक्नॉलजी पर आधारित चौथी औद्योगिक क्रांति के तहत शिक्षा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। चीन के बाद भारत की युवा आबादी मोबाइल-इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाली विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है। किंतु इंटरनेट पर क्या उसके लिए उपयोगी है क्या अनुपयोगी, यह तय करने का विवेक विद्यार्थी के अंदर एक संवेदनशील, कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक ही जागृत कर सकता है।
48. राष्ट्रभाषा हिंदी
भाषा भावों की वाहिका और विचारों की माध्यम होती है। अतएव किसी भी जाति अथवा राष्ट्र का भावोत्कर्ष और विचारों की समर्थता उसकी भाषा से स्पष्ट होती है। जब से मनुष्य ने इस भू-मंडल पर होश संभाला है, तभी से भाषा की आवश्यकता रही है। भाषा व्यक्ति को व्यक्ति से, जाति को जाति से तथा राष्ट्र को राष्ट्र से मिलाती है। भाषा द्वारा ही राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोया जा सकता है। राष्ट्र को सक्षम और धनवान बनाने के लिए भाषा और साहित्य की संपन्नता और उसका विकास परमावश्यक है।
इस संबंध में प्रेमचंद जी का कथन विचारणीय है – ” निःसंदेह काव्य और साहित्य का उद्देश्य हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ाना है; पर मनुष्य का जीवन केवल स्त्री-पुरुष प्रेम का जीवन नहीं है। साहित्य केवल मन बहलाव की चीज नहीं है। अब वह केवल नायक-नायिका के संयोग-वियोग की कहानी नहीं सुनता, किंतु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है और उन्हें हल करता है।’
भाषा का भावना से गहरा संबंध है और भावना और विचार व्यक्तित्व के आधार पर हैं। यदि हमारे भावों और विचारों को पोषक रस किसी विदेशी या पराई भाषा से मिलता है तो निश्चय ही हमारा व्यक्तित्व भी भारतीय अथवा स्वदेशी न रहकर अभारतीय अथवा विदेशी ही हो जायेगा। प्रत्येक भाषा और प्रत्येक साहित्य अपने देश – काल और धर्म से परिचित विकसित होता है। उस पर अपने महापुरुषों और चिंतकों का, उनकी अपनी परिस्थितियों के अनुसार ही प्रभाव पड़ता है। कोई दूसरा देश-काल और समाज भी उस सुंदर स्वास्थ्यकारी संस्कृति से प्रभावित हो, यह आवश्यक नहीं है।
अतएव व्यक्ति के व्यक्तित्व का समुचित विकास और उसकी शक्तियों को समुचित गति अपने ही पठन-पाठन में मिल सकती है। इसका कारण यह भी है कि मातृ-भाषा में जितनी सहज गति संभव है और इसमें जितनी कम – शक्ति – समय की आवश्यकता पड़ती है, उतनी किसी भी विदेशी और पराई भाषा में संभव नहीं है।
यह भी सच है कि हमारे देश के प्रतिभाशाली और होनहार लोग पश्चिमी भाषा और साहित्य में अपनी क्षमता को देखकर स्वयं भी चकित रह जाते हैं; जिनकी वह अपनी मातृ भाषा नहीं है। यह भी मानना पड़ेगा कि इन परिश्रमी लोगों ने अपनी जो शक्ति, समय और तन्मयता पराई भाषा के लिए खपाई, वह यदि मातृ-भाषा के लिए प्रयोग की गई होती तो एक अद्भुत चमत्कार ही हो गया होता। माइकेल मधुसूदन दत्त का दृष्टांत आपके सामने है। प्रतिभा के स्वामी इस बंगला कवि ने अंग्रेजी में काव्य रचना करके कीर्ति और गौरव कमाने के लिए भारी परिश्रम और प्रयत्न किया।
यह तथ्य उनको तब समझ में आया जब वे इंग्लैंड यात्रा के लिए गए। बहुत अच्छा लिखकर भी वह द्वितीय श्रेणी के लेखक और कवि से अधिक कुछ नहीं हो सके। यदि चाहते तो अपनी भाषा में कृतित्व के बल पर वे सहज ही प्रथम श्रेणी के कवियों में प्रतिष्ठित हो सकते थे। यह सब पता चलने के बाद उन्होंने अपनी भाषा में लिखने का निर्णय किया। प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण की क्या आवश्यकता है। श्रीमती सरोजिनी नायडू यदि अपनी मातृ भाषा में काव्य रचना करती तो निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ कवयित्री होने का गौरव प्राप्त करती। मैं देखती हूँ कि उच्च ज्ञान-विज्ञान का माध्यम अंग्रेजी होने पर भी पिछले डेढ़ सौ वर्षों में सौ करोड़ लोगों में अंग्रेजी में एक भी रवींद्रनाथ, शरतचंद्र, महादेवी वर्मा, प्रसाद, पंत और उमाशंकर जोशी आदि पैदा न कर सका। राष्ट्रभाषा राष्ट्र की उन्नति की द्योतक होती है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनुसार-
निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषाज्ञान के, मिटत न हिय को शूल ॥
अतः राष्ट्रभाषा की उन्नति में ही राष्ट्र की उन्नति है। राष्ट्रभाषा में विचार-विनिमय सरल हो जाता है, विदेशों में भी साख बनती है। विदेशी भाषा में ज्ञानार्जन करने में जितने प्रयत्न करने पड़ते हैं, निज भाषा में उससे आधे प्रयत्न में ही प्रवीणता आ जाती है।
गाँधीजी के शब्दों में- “अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा में कम से कम सोलह वर्ष लगते हैं। यदि इन्हीं विषयों की शिक्षा अपनी भाषा के माध्यम से दी जाए तो ज्यादा से ज्यादा दस वर्ष लगेंगे। विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर बोझ पड़ता है। यह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं, लेकिन उनकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ती है। माँ के दूध के साथ जो मीठे संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच में जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में दूर जाता है।”
राष्ट्रभाषा मानसिक उत्थान करती है। राष्ट्रभाषा के अभाव में मनुष्य शारीरिक रूप से न सही मानसिक रूप से दास बन जाता है। मानसिक दासता शारीरिक दासता से अधिक भयंकर होती है।
राष्ट्रभाषा की प्रेरणा देते हुए कवि कहता है –
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ॥
अतः राष्ट्रभाषा की उन्नति व्यक्ति की उन्नति है, जाति की उन्नति है, राष्ट्र की उन्नति है।
49. बेरोजगारी की समस्या
आधुनिक युग में विज्ञान की प्रगति ने मानव जीवन को प्रत्येक क्षेत्र में सुखद, समृद्ध तथा समुन्नत बनाया है। नित नयी वैज्ञानिक खोजों तथा आविष्कारों ने महाउपलब्धियाँ अर्जित की हैं। परन्तु उस विज्ञान ने कुछ ऐसी समस्याएँ भी उत्पन्न कर दी हैं जो समस्त विश्व के सामने सुरसा के मुँह की भाँति बढ़ती जा रही हैं। इन समस्याओं में प्रमुख हैं – महँगाई, जनसंख्या तथा बेरोजगारी। बेरोजगारी की समस्या इन सबमें प्रमुख है और दिन पर दिन बढ़ती जा रही है, जिसका हल भी दिखाई नहीं देता। बेरोजगारी से अभिप्राय बेकारी की समस्या से है।
यदि बेकार शब्द के अर्थों पर दृष्टिपात करें तो बेकार का अर्थ है ‘उपयोग के अयोग्य’, परंतु व्यक्ति के संदर्भ में किसी व्यक्ति की क्षमता तथा योग्यता का समाज उपयोग नहीं कर पाता। एक व्यक्ति को उसकी रुचि योग्यता- क्षमता के अनुसार कार्य नहीं मिल पाता तो वह व्यक्ति बेकार की श्रेणी में आ जाएगा। हमारे देश में बेकारी की समस्या भयंकर रूप से व्याप्त है। हम बेकार व्यक्ति को निम्न श्रेणी में वर्गीकृत कर सकते हैं-
- शिक्षित तथा प्रशिक्षित बेरोजगार
- अशिक्षित तथा अप्रशिक्षित बेरोजगार
- अर्धबेरोजगार, जो कभी काम पर लग जाते हैं तथा कभी बेकार हो जाते हैं।
- वे व्यक्ति जो अपनी योग्यता, क्षमता तथा रुचि के अनुकूल कार्य प्राप्त नहीं कर पाते तथा विवशतावश अरुचिपूर्ण कार्य में संलग्न हैं तथा असंतुष्ट हैं।
अंधाधुंध औद्योगीकरण भी बेरोजगारी की समस्या की वृद्धि में आग में घी का काम कर रहा है। अंग्रेजों ने धनार्जन तथा अधिक से अधिक लाभ कमाने के लिए हमारे देश की दस्तकारियों को बंद कराया था। कारीगरों और कुशल कारीगरों के हाथ तक कटवा दिये थे, ताकि उनकी मशीनों की बनी वस्तु की खपत तथा प्रचलन बढ़े। इससे हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई तथा हम परमुखापेक्षी बनकर रह गए। स्वतंत्रता के पश्चात् यद्यपि सरकार ने घरेलू उद्योगों के प्रचार-प्रसार का ढिंढोरा तो खूब पीटा परन्तु बड़े-बड़े उद्योगों के सामने वह टिक नहीं पाते।
वर्तमान काल में अति आधुनिक स्वचालित मशीनों तथा कम्प्यूटर ने तो बेकारी की वृद्धि में पहिए ही लगा दिए हैं तथा हमारी सरकार देश की समस्याओं को न समझकर पश्चिमी देशों की अंधाधुंध नकल कर रही है, क्योंकि पश्चिमी देशों में जनसंख्या कम है अतः उनके लिए मशीनें उपयुक्त हैं परन्तु अपने देश में मानव शक्ति प्रचुर मात्रा में है अतः हमें स्वचालित मशीनों तथा कम्प्यूटर का प्रयोग सीमित तथा सोच-समझकर ही करना चाहिए।
जनसंख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि बेरोजगारी की समस्या को दिन दूनी रात चौगुनी की गति से बढ़ा रही है। जनसंख्या जिस तीव्र वृद्धि से बढ़ रही है उस अनुपात में न तो उत्पादन हो रहा है न उद्योग-धंधों का विकास। सन् 1951 में भारत की जनसंख्या 36 करोड़ थी जो 2018 में बढ़कर एक सौ तीस करोड़ पहुँच गई है।
यह जनसंख्या वृद्धि बेरोजगारी की समस्या के समाधान में भयंकर विघ्न उत्पन्न कर रही है। यद्यपि सरकार जनसंख्या वृद्धि के नियंत्रण का भरसक प्रयत्न कर रही है परन्तु हमारे देश की अधिकतम जनता अशिक्षित तथा धार्मिक रूढ़िवादिता से ग्रस्त है। संतोनोत्पत्ति को ईश्वरीय देन समझा जाता है। दुर्भाग्य से हमारे नेता ” पर उपदेश कुशल बहुतेरे ‘ की कहावत चरितार्थ कर रहे हैं। वे भाषण देकर जनसंख्या वृद्धि में रोकथाम करने की सलाह तो जनता को देते हैं परंतु स्वयं आदर्श बनकर उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते। अतः समस्त सरकारी प्रचार केवल कागजी कार्यवाही बनकर रह जाता है।
शिक्षित तथा प्रशिक्षित बेकारी का मुख्य कारण विभिन्न सरकारी विभागों में तालमेल का अभाव है। कहने को सरकारी योजना आयोग है किंतु आगामी वर्षों में किस व्यवसाय में कितने प्रतिशत व्यक्तियों की आवश्यकता होगी ? कितने मेडीकल कॉलेज, कितने इंजीनियरिंग कॉलेज अथवा कितने अध्यापक प्रशिक्षण संस्थाएँ खोली जाएँ ? शायद योजना आयोग इसे अपनी खोज का विषय नहीं मानता, परिणामस्वरूप कभी डॉक्टर बेकार घूमने लगते हैं तो कभी इंजीनियर और कभी किसी भी श्रेणी के प्रशिक्षित व्यक्ति का अकाल पड़ जाता है।
आज बेकारी की समस्या ने अत्यंत विकट रूप धारण कर लिया है। बेकारी का पूर्णतः निराकरण असंभव प्रतीत होता है, परंतु हाथ पर हाथ रखकर बैठने से तो कोई कार्य नहीं होता। प्रयत्न तो करने ही पड़ते हैं। अतः बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाना अति आवश्यक है। स्कूलों में चमड़ा व्यवसाय, बागवानी, सिलाई, बुनाई, रंगाई, पेंटिंग, कम्प्यूटर, फोटोग्राफी तथा विद्युत कार्य आदि व्यवसायों की शिक्षा प्रारंभ की जाए। सरकार ने इस दिशा में कार्य भी किए हैं। इन व्यवसायों में दक्षता प्राप्त कर लेने पर सरकार को स्वतंत्र व्यवसाय को भी प्रोत्साहित करना पड़ेगा।
देश में कुटीर उद्योगों का विकास किया जाए। देशवासियों में कुटीर उद्योगों में निर्मित माल को उपयोग करने की प्रवृत्ति जागृत की जाए और निर्यात बढ़ाया जाए। सरकार इस दिशा में प्रयत्नशील है। घरेलू दस्तकारियाँ प्रोत्साहित की जा रही हैं लेकिन लोगों में अभी कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित माल का प्रयोग करने की भावना का अभाव है। परिवार नियोजन कार्यक्रम को और तेज किया जाए क्योंकि बढ़ती जनसंख्या ही हमारी सभी असफलताओं का कारण है।
50. महानगरीय जीवन : अभिशाप या वरदान
वर्तमान समय में भारत के अनेक प्रमुख नगर महानगरों में परिवर्तित होते जा रहे हैं। एक नई महानगरीय सभ्यता पनपती जा रही है। महानगरों का जीवन जहाँ एक ओर आकर्षित करता है, वहीं वह अभिशाप से कम नहीं है। आधुनिकता की चमक-दमक इन महानगरों में दृष्टिगोचर होती है। यह आकर्षण सामान्य नगर- कस्बे एवं गाँवों के लोगों को महानगर की ओर खींचता है, पर यहाँ की समस्याएँ उन्हें ऐसे चक्र में उलझाकर रख देती हैं जिससे बाहर निकलना आसान नहीं होता। महानगरों का जीवन जहाँ वरदान है, वहीं अभिशाप भी है।
भारत में कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई और दिल्ली जैसे महानगर हैं। इन नगरों का अपना ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व है। इनमें से तीन नगरों की जनसंख्या इक्कीसवीं सदी में प्रविष्ट होते समय एक करोड़ को पार कर गई है। इससे कम जनसंख्या वाले तो कई पूरे देश हैं। ये महानगर एक नवीन भारत की रचना में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। दुनिया भर की आधुनिकतम सुविधाएँ इन महानगरों में उपलब्ध हैं। इनका नित्य नया रूप निखर रहा है। इन महानगरों की गगनचुम्बी इमारतें सामान्य जन के लिए कौतूहल का विषय है।
यह सत्य है कि महानगरीय जीवन सम्पन्न व्यक्तियों के लिए वरदान है। उन्हें उन नगरों में स्वर्ग जैसे सुख की अनुभूति होती है। उनका व्यवसाय इन्हीं नगरों में प्रश्रय पाता है। वे ही इन नगरों को सजाने-संवारने का काम करते हैं। सरकार भी इन्हें नए-नए रूपों में विकसित कर रही है। निश्चय ही धनिक वर्ग के लिए महानगरीय जीवन वरदान है।
महानगरों में सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी होती रहती हैं। इसमें रुचि रखने वालों को यहाँ का जीवन वरदान प्रतीत होता है। उन्हें बढ़ने का अवसर प्राप्त होता है, पर महानगर के व्यस्त जीवन में अपने लिए स्थान बना पाना इतना सहज नहीं है। उसके लिए अथक परिश्रम और लग्न की आवश्यकता होती है।
अभिशाप – इसके साथ-साथ निम्न-मध्यवर्ग महानगरीय जीवन के दुष्चक्र में पिसकर रह गया है। बढ़ती जनसंख्या और सिकुड़ते साधनों ने उसका जीवन दूभर बना दिया है। महानगरों में अनेक समस्याओं से उन्हें जूझना पड़ता है। आवास की समस्या बड़ी विकराल होती जा रही है। झोपड़पट्टी नुमा बस्तियाँ बढ़ती जा रही हैं। एक ओर विशाल अट्टालिकाएँ खड़ी हैं, तो दूसरी ओर झुग्गी बस्तियाँ जन्मती जा रही हैं। एक व्यक्ति बीस-बीस कमरों में रहता है और बीस-बीस व्यक्ति एक कमरे में रहते हैं। कितना बड़ा अंतर है, महानगरीय आवास व्यवस्था में।
शहरों में खाने-पीने की कठिनाई का भी सामना करना पड़ता है। न तो वहाँ शुद्ध जल मिल पाता है, न शुद्ध दूध। हर वस्तु प्रदूषित मिलती है। यही कारण है कि महानगरों में लोग प्रायः बीमार रहते हैं। न उन्हें खुली वायु साँस लेने के लिए उपलब्ध हो पाती है और प्रदूषण न धूप। कुछ लोगों को छोड़कर अधिकांश लोगों को पौष्टिक भोजन भी उपलब्ध नहीं होता। हर ओर ही है।
प्रदूषण महानगरों में शिक्षा की सुविधाएँ अवश्य उपलब्ध हैं किन्तु इस क्षेत्र में पर्याप्त भेदभाव है, धनिक वर्ग को पब्लिक स्कूलों की सुविधाएँ मिल जाती हैं, जबकि निम्न-मध्य वर्ग सामान्य सरकारी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने के लिए विवश है। वह पब्लिक स्कूलों की महंगी शिक्षा झेल नहीं पाता है। उच्च शिक्षा की व्यवस्था महानगरों में एक वरदान के रूप में है। इसका लाभ निकटवर्ती क्षेत्रों के लोग भी उठाते हैं। महानगरों में यातायात की समस्या विकराल होती चली जा रही है। तरह-तरह के अंधाधुंध बढ़ते वाहनों के कारण जगह-जगह जाम लग जाना एक आम बात हो गई है। सामान्य लोगों के लिए अपने कार्यस्थल पर पहुँचना भी एक समस्या हो जाता है। धनी वर्ग के पास कारों की बहुतायत होने पर भी उन्हें सड़क का जाम तो झेलना ही पड़ता है।
महानगर कंकरीट के जाल बनकर रह गए हैं। यहाँ के निवासियों की मानवीय संवेदना शून्य हो गई है। सभी अपने-अपने दायरों में सिमट कर रह गए हैं। यहाँ के लोगों के बारे में विजयदेव नारायण साही ने कहा है-
इस नगर में
लोग या तो पागलों की तरह उत्तेजित होते हैं।
या दुबक कर गुमसुम हो जाते हैं।
जब वे गुमसुम होते हैं
तब अकेले होते हैं
लेकिन जब उत्तेजित होते हैं
तब और भी अकेले हो जाते हैं।
51. स्वच्छ भारत अभियान
भूमिका : यह सर्वविदित है कि 2 अक्टूबर भारतवासियों के लिए कितने महत्त्व का दिवस है। इस दिन हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जन्म हुआ था। इस युग पुरुष ने भारत सहित पूरे विश्व को मानवता की नई राह दिखाई। हमारे देश में प्रत्येक वर्ष गाँधीजी का जन्मदिवस एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है और इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनके प्रति हमारी श्रद्धा प्रति वर्ष बढ़ती जाती है। इस बार (वर्ष 2014 में) भी 2 अक्टूबर को ससम्मान गाँधीजी को याद किया गया, लेकिन ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की शुरुआत के कारण इस बार यह दिन और भी विशिष्ट रहा।
स्वच्छ भारत अभियान का आरंभ एवं लक्ष्य : ‘स्वच्छ भारत अभियान’ एक राष्ट्र-स्तरीय अभियान है। गाँधीजी की 145वीं जयंती के अवसर पर माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस अभियान के आरंभ की घोषणा की। यह अभियान प्रधानमंत्री जी की महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक है। तय कार्यक्रम के अनुसार प्रधानमंत्री जी ने 2 अक्टूबर के दिन सर्वप्रथम गाँधीजी को राजघाट पर श्रद्धांजलि अर्पित की और फिर नई दिल्ली में स्थित वाल्मीकि बस्ती में जाकर झाड़ लगाई। कहा जाता है कि वाल्मीकि बस्ती दिल्ली में गाँधीजी का सबसे प्रिय स्थान था। वे अक्सर यहाँ आकर ठहरते थे। इसके बाद, मोदी जी ने जनपथ जाकर इस अभियान की शुरुआत की और सभी राष्ट्रवासियों से स्वच्छ भारत अभियान में भाग लेने और इसे सफल बनाने की अपील की।
इस अवसर पर उन्होंने लगभग 40 मिनट का भाषण दिया और स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा, “ गाँधीजी ने आजादी से पहले नारा दिया था ‘क्विट इंडिया, क्लीन इंडिया’। आजादी की लड़ाई में उनका साथ देकर देशवासियों ने ‘क्विट इंडिया’ के सपने को तो साकार कर दिया, लेकिन अभी उनका ‘क्लीन इंडिया’ का सपना अधूरा ही है। अब समय आ गया है कि हम सवा सौ करोड़ भारतीय अपनी मातृभूमि को स्वच्छ बनाने का प्रण करें।
क्या साफ-सफाई केवल सफाई कर्मचारियों की जिम्मेदारी है? क्या यह हम सभी की जिम्मेदारी नहीं है? हमें यह नजरिया बदलना होगा। मैं जानता हूँ कि इसे केवल एक अभियान बनाने से कुछ नहीं होगा। पुरानी आदतों को बदलने में समय लगता है। यह एक मुश्किल काम है, मैं जानता हूँ। लेकिन हमारे पास वर्ष 2019 तक का समय है। ” प्रधानमंत्री जी ने पाँच साल में देश को साफ-सुथरा बनाने के लिए लोगों को शपथ दिलाई कि न मैं गंदगी करूँगा और न ही गंदगी करने दूँगा।
अपने अतिरिक्त मैं सौ अन्य लोगों को साफ-सफाई के प्रति जागरूक करूँगा और उन्हें सफाई की शपथ दिलवाऊँगा। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति साल में 100 घंटे का श्रमदान करने की शपथ ले और सप्ताह में कम-से-कम दो घंटे सफाई के लिए निकाले। अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने स्कूलों और गाँवों में शौचालय निर्माण की आवश्यकता पर भी बल दिया। साफ-सफाई के संदर्भ में देखा जाए तो यह अभियान अब तक का सबसे बड़ा स्वच्छता अभियान है। स्वच्छ भारत अभियान को करने के लिए पाँच वर्ष (2 अक्टूबर 2019) तक की अवधि निश्चित की गई है।
वर्तमान समय में स्वच्छता को लेकर भारत की स्थिति : केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री की ‘गंदगी मुक्त भारत’ की संकल्पना अच्छी है तथा इस दिशा में उनकी ओर से किए गए आरंभिक प्रयास भी सराहनीय हैं, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर क्या कारण है कि साफ – सफाई हम भारतवासियों के लिए कभी महत्त्व का विषय ही नहीं रहा? आखिर क्यों तमाम प्रयासों के बावजूद भी हम साफ – सुथरे नहीं रहते ? हमारे गाँव गंदगी के लिए बहुत पहले से बदनाम हैं, लेकिन ध्यान दिया जाए तो यह पता चलता है कि इस मामले में शहरों के हालात भी गाँवों से बहुत भिन्न नहीं हैं। आज पूरी दुनिया में भारत की छवि एक गंदे देश की है। जब-जब भारत की अर्थव्यवस्था, तरक्की, ताकत और प्रतिभा की बात होती है, तब-तब इस बात की भी चर्चा होती है कि भारत एक गंदा देश है।
पिछले ही वर्ष हमारे पड़ोसी देश चीन के कई ब्लॉगों पर गंगा में तैरती लाशों और भारतीय सड़कों पर पड़े कूड़े के ढेर वाली तस्वीरें छाई रहीं। कुछ साल पहले इंटरनेशनल हाइजीन काउंसिल ने अपने एक सर्वे में यह कहा था कि औसत भारतीय घर बेहद गंदे और अस्वास्थ्यकर होते हैं। इस सर्वे में काउंसिल ने कमरों, बाथरूम और रसोईघर की साफ-सफाई को आधार बनाया था। उसके द्वारा जारी गंदे देशों की सूची में सबसे पहला स्थान मलेशिया और दूसरा स्थान भारत को मिला था। हद तो तब हो गई जब हमारे ही एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने यहाँ तक कह दिया कि यदि गंदगी के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाता, तो वह शर्तिया भारत को ही मिलता।
उपसंहार : स्वच्छता समान रूप से हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी है और वर्तमान समय में यह हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता भी है। हमें अपने दैनिक जीवन में तो सफाई को एक मुहिम की तरह शामिल करने की जरूरत है ही, साथ ही हमें इसे एक बड़े स्तर पर भी देखने की जरूरत है, ताकि हमारा पर्यावरण भी स्वच्छ रहे। हर समय कोई सरकारी संस्था या बाहरी बल हमारे पीछे नहीं लगा रह सकता। हमें अपनी आदतों में सुधार करना होगा और स्वच्छता को अपनी आदत बनाना होगा। हालाँकि आदतों में बदलाव करना आसान नहीं होगा, लेकिन यह इतना मुश्किल भी नहीं है।
प्रधानमंत्री ने ठीक ही कहा है कि यदि हम कम-से-कम खर्च में अपनी पहली ही कोशिश में मंगल ग्रह पर पहुँच गए, तो क्या हम स्वच्छ भारत का निर्माण सफलतापूर्वक नहीं कर सकते ? कहने का तात्पर्य है कि ‘क्लीन इंडिया’ का सपना पूरा करना कठिन नहीं है। हमें हर हाल में इस लक्ष्य को वर्ष 2019 तक प्राप्त करना होगा, तभी हमारी ओर से राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को उनकी 150वीं जयंती पर सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकेगी।
स्वच्छता का महत्त्व : ये सभी बातें और तथ्य हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि हम भारतीय साफ-सफाई के मामले में भी पिछड़े हुए क्यों हैं? जबकि हम उस समृद्ध एवं गौरवशाली भारतीय संस्कृति के अनुयायी हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य सदा ‘पवित्रता’ और ‘शुद्धि’ रहा है। दरअसल, भारतीय जनमानस इसी अवधारणा के चलते एक उलझन में रहा है। उसने इसे सीमित अर्थों में ग्रहण करते हुए मन और अंत:करण की शुचिता को ही सर्वोपरि माना है, इसलिए हमारे यहाँ कहा गया है-
“मन चंगा तो कठौती में गंगा”
यह सही है कि चरित्र की शुद्धि और पवित्रता बहुत आवश्यक है, लेकिन बाहर की सफाई भी उतनी ही आवश्यक है। यदि हमारा आस-पास का परिवेश ही स्वच्छ नहीं होगा, तो मन भला किस प्रकार शुद्ध रह सकेगा ? अस्वच्छ परिवेश का प्रतिकूल प्रभाव हमारे मन पर भी पड़ता है। जिस प्रकार एक स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है, उसी प्रकार एक स्वस्थ और शुद्ध व्यक्तित्व का विकास भी स्वच्छ और पवित्र परिवेश में ही संभव है।
अतः अंत:करण की शुद्धि का मार्ग बाहरी जगत् की शुद्धि और स्वच्छता से होकर ही गुजरता है। साफ-सफाई के अभाव से हमारे आध्यात्मिक लक्ष्य तो प्रभावित होते ही हैं, साथ ही हमारी आर्थिक प्रगति भी बाधित होती है। अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आकलन का हवाला देते हुए कहा है कि गंदगी के कारण औसत रूप से प्रत्येक भारतीय को प्रति वर्ष लगभग रु. 6,500 का अतिरिक्त आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है। यदि उच्च वर्ग को इसमें शामिल न किया जाए, तो यह आँकड़ा 12 से 15 हजार तक पहुँच सकता है। इस तरह देखा जाए तो हम स्वच्छ रहकर इस आर्थिक नुकसान से बच सकते हैं।
52. भारत का मंगल अभियान
प्रस्तावना : मानव मन शुरू से ही जिज्ञासु रहा है। अपनी इस जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण वह काफी समय से अंतरिक्ष को जानने और समझने की कोशिश करता रहा है। आज मानव अंतरिक्ष के रहस्यों का भेद पाने के लिए अपनी बुद्धि और ज्ञान का प्रयोग कर न सिर्फ चंद्रमा तक जा पहुँचा है, बल्कि सौर मंडल के दूसरे ग्रहों पर भी कदम रख चुका है। हमारे सौर मंडल में चंद्रमा के बाद लाल ग्रह” मंगल ने वैज्ञानिकों को सबसे अधिक आकर्षित किया है। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि अब तक मंगल ग्रह पर चार देशों ने ही सफलता पाई है और उन चार देशों में एक देश हमारा भी है।
मंगल अभियान से जुड़ी आवश्यक जानकारी : हमारे सौर मंडल में अकेला मंगल ही ऐसा ग्रह है, जिस पर वैज्ञानिकों को पृथ्वी की तरह जीवन की प्रबल संभावना नजर आई है। इसीलिए विभिन्न देशों के वैज्ञानिक मंगल ग्रह का अध्ययन कर रहे हैं। ऐसे में भारत कैसे पीछे रह सकता था? अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में शेष विश्व के साथ कदमताल करते हुए भारत के वैज्ञानिकों ने भी मंगल ग्रह के अध्ययन की योजना बनाई और वर्ष 2012 में भारत सरकार की मंजूरी मिलने के बाद इस दिशा में काम करना आरंभ कर दिया। 5 नवंबर 2013 को श्री हरिकोटा के सतीश धवन द्वारा अंतरिक्ष केंद्र से मंगलयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण कर उसे पृथ्वी की कक्षा में स्थापित कर दिया गया। लगभग 10 महीनों तक लगातार चक्कर काटते हुए 67 करोड़ किलोमीटर की लंबी दूरी तय करके हमारा मंगलयान मंगल ग्रह की कक्षा में 24 सितंबर 2014 को सफलतापूर्वक प्रवेश कर गया।
अभियान की सफलता से लाभ : एक अंतर्ग्रहीय अभियान होने के कारण मार्स ऑर्बिटर मिशन अपेक्षाकृत अधिक कठिन और खर्चीला अभियान था परंतु इसरो के वैज्ञानिकों ने अपनी अथक मेहनत से इस अभियान को सफल बना दिया। इसरो के संस्थापकों में से एक और देश के जाने-माने वैज्ञानिक प्रोफेसर यशपाल के शब्दों में कहें तो स्वदेशी तकनीक, सीमित संसाधनों का उचित ढंग से उपयोग, कम वजन, तकनीक का अधिक-से-अधिक प्रयोग ही इस मंगल मिशन की सफलता के गुण बन गए। इससे दूसरे देशों को भी अपने अंतरिक्ष अभियानों को कम खर्च में पूरा करने की प्रेरणा मिलेगी।
मंगल ग्रह की सफलता के कारण : उल्लेखनीय है कि हमारे मंगलयान से पूर्व दुनियाभर में 51 मंगल अभियान चलाए जा चुके थे परंतु उनमें से केवल 21 ही कामयाब हो पाए थे। ऐसे में समझा जा सकता है कि यह अभियान कितना कठिन था, परंतु हमारे काबिल वैज्ञानिकों ने इस असंभव से लगने वाले काम को संभव कर दिखाया और अपनी पहली ही कोशिश में सफलतापूर्वक मंगल ग्रह पर पहुँचने का कारनामा कर दिखाया। भारत का मंगलयान अत्याधुनिक उपकरणों से युक्त है। इनमें लाइमन अल्फा फोटोमीटर, मीथेन सेंसर, थर्मल इंफ्रारेड इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर, मार्स एक्सोफेटिक न्यूट्रल कम्पोजीशन एनलाइजर और मार्स कलर कैमरा मुख्य हैं।
गौरतलब है कि मंगलयान पूरी तरह से स्वदेशी अभियान है। इस पर कुल मिलाकर रु. 450 करोड़ का खर्च आया है जो इसे विश्व का सबसे सस्ता मंगल अभियान बनाता है। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य मंगल ग्रह पर मीथेन का पता लगाना और उस पर जीवन की संभावनाओं को तलाशना है। इसका कार्यकाल 6 महीने का है, जिसे एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
उपसंहार : भारत एक विकासशील देश है और यह भी सच्चाई है कि यहाँ लाखों लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करते हैं। इसीलिए भारत के मंगल अभियान का विरोध भी हुआ हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह की प्रौद्योगिकी पर आधारित अभियान न केवल वैश्विक स्तर पर देश की साख बढ़ाते हैं बल्कि तकनीकी रूप से देश को सशक्त भी बनाते हैं। इस अभियान की सफलता से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की आय में वृद्धि होने के पूरे-पूरे आसार हैं, जिससे इसे आत्मनिर्भर बनने में सहायता मिलेगी। साथ ही, अब विकसित देशों के साथ तकनीकी सहयोग बढ़ने की भी आशा है। निश्चय ही इन सभी का लाभ हमें निकट भविष्य में मिलने वाला है, जिसकी सहायता से हमें अपने देशवासियों का जीवन-स्तर बेहतर बनाने में मदद मिलेगी। अतः हमें अपनी इस उपलब्धि पर गर्व करना चाहिए और भविष्य में इस प्रकार के अभियानों के लिए तैयार रहना चाहिए।
53. बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ
प्रस्तावना : मैं माताओं से पूछना चाहता हूँ कि बेटी नहीं पैदा होगी तो बहू कहाँ से लाओगी? हम जो चाहते हैं समाज भी वही चाहता है। हम चाहते हैं कि बहू पढ़ी-लिखी मिले, लेकिन बेटियों को पढ़ाने के लिए तैयार नहीं होते। आखिर यह दोहरापन कब तक ‘चलेगा? यदि हम बेटी को पढ़ा नहीं सकते तो शिक्षित बहू की उम्मीद करना बेईमानी है। जिस धरती पर मानवता का संदेश दिया गया हो, वहाँ बेटियों की हत्या दुःख देती है। यह अल्ताफ हुसैन हाली की धरती है हाली ने कहा था, ” माओ, बहनों, बेटियों दुनिया की जन्नत तुमसे है।” ये उद्गार हैं भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जो 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा के पानीपत शहर से “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ” अभियान की शुरूआत कर चुके हैं। यह अभियान केंद्र सरकार के महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रमों में से एक है।
कन्या-भ्रूण हत्या के कारण : भारतीय संस्कृति में स्त्री को ” घर की लक्ष्मी” बताया गया है परंतु वर्तमान समय में भारत के लोग इसे भूल चुके हैं। पुत्र को पुत्री की अपेक्षा श्रेष्ठ समझना तथा पुत्री को बोझ मानते हुए उसकी उपेक्षा करने की मानसिकता की परिणति यह हुई है कि पुत्री को पैदा होते ही मार दिया जाता है। आधुनिक दौर में तो चिकित्सा के क्षेत्र में हुई तकनीकी उन्नति ने तो इस कार्य को और भी सरल बना दिया है अर्थात् अब गर्भ में ” कन्या भ्रूण” होने की स्थिति में उसे प्रसव पूर्व ही मार दिया जाता है। यह हमारे पितृसत्तात्मक समाज का कटु सत्य है कि स्त्री को केवल एक ” वस्तु” समझा जाता है और एक मनुष्य के रूप में उसे सदा कम करके आँका जाता है। आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक कार्यों में उसकी उपयोगिता नहीं के बराबर समझी जाती है। माता-पिता पुत्र को अपनी संपत्ति के रूप में देखते हैं परंतु पुत्री उनके लिए बोझ होती है। यही कारण है कि भारत में कन्या भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति हावी है।
इस अभियान की आवश्यकता : अब प्रश्न उठता है कि इस अभियान की जरूरत क्यों पड़ी? जाहिर है इसके पीछे कन्या-भ्रूण हत्या के कारण देश में तेजी से घटता लिंगानुपात है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या मात्र 940 है। 0-6 वर्ष के आयु वर्ग का लिंगानुपात तो केवल 914 ही है। इस आयु वर्ग में सर्वाधिक चिंताजनक स्थिति हरियाणा ( 830), पंजाब (846), जम्मू-कश्मीर (859), राजस्थान (888) और राजधानी दिल्ली (866) की है। संयुक्त राष्ट्र की मानें तो भारत में अनुमानित तौर पर प्रतिदिन 2000 अजन्मी कन्याओं की हत्या कर दी जाती है।
अभियान का लक्ष्य : कन्या भ्रूण हत्या से समाज में लिंग अनुपात में असंतुलन उत्पन्न हो गया है। पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश राज्यों में तो अविवाहित युवकों की संख्या बहुत बढ़ गई है। इन राज्यों में विवाह के लिए लड़कियाँ दूसरे राज्यों से लाई जाने लगी हैं। सुनने में तो यह भी आया है कि हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में तो लड़कियों की कमी के कारण एक ही स्त्री से एक से अधिक पुरुष विवाह कर रहे हैं। समाज से कन्या भ्रूण हत्या की कुप्रवृत्ति को मिटाने के लिए केंद्र सरकार ने “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ” अभियान की शुरुआत की है। इस कार्यक्रम के तहत भारत सरकार ने लड़कियों को बचाने, उनकी सुरक्षा करने और उन्हें शिक्षित करने के लिए निम्न बाल-लिंग अनुपात वाले 100 जिलों में इस कुरीति को समाप्त करने का लक्ष्य रखा है। यह कार्यक्रम महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संयुक्त पहल है।
54. बाल मजदूरी : मानवता पर कलंक
मजदूरी स्वरूप : ‘बाल मजदूरी’ हमारे समाज के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है। यद्यपि पिछले दशक से बाल मजदूरी (Child Labour) के विरुद्ध आवाज उठ रही है और ‘बचपन बचाओ’ आंदोलन अत्यंत सक्रियता से चल रहा है, पर फिर भी यह समस्या इतनी छोटी और सरल नहीं, जितनी यह प्रतीत होती है। आइए, हम इसके स्वरूप एवं इससे होने वाली हानियों के बारे में चर्चा कर लें।
हम देखते हैं बच्चों को घरेलू नौकर के रूप में रखा जाता है। वहाँ उनका भरपूर शोषण किया जाता है। उन्हें शिक्षा से वंचित किया जाता है तथा नाम मात्र का वेतन देकर सीमा से अधिक श्रम कराया जाता है। इसके साथ-साथ उन्हें शारीरिक रूप से दंडित भी किया जाता है। इसी प्रकार कल-कारखानों में बाल श्रमिकों की संख्या बहुत अधिक है। वहाँ उन्हें अत्यंत शोचनीय वातावरण में काम करने को विवश किया जाता है। गलीचे बुनना, चूड़ियाँ बनाने, आतिशबाजी का सामान बनाने आदि श्रमसाध्य कार्यों में बाल श्रमिकों का जमकर दोहन किया जाता है। उन्हें अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। होटल और ढाबों में बच्चों को काम करते देखा जा सकता है।
बाल मजदूरी कमाई का साधन : अब प्रश्न उठता है कि लोग बच्चों से मजदूरी क्यों करवाते हैं? ये बच्चे मजदूरी करते क्यों हैं? पहले प्रश्न का उत्तर है कि बच्चों को कम मजदूरी देनी पड़ती है। एक मजदूर की तनख्वाह में दो बाल श्रमिक रखे जाते हैं। बालक कोई समस्या भी पैदा नहीं करते और चुपचाप काम करते हैं। अब प्रश्न उठता है कि ये बालक मजदूरी करते क्यों हैं? इनके माँ-बाप की आय इतनी नहीं है कि ये घर का पूरा खर्च उठा सकें। उनके लिए बच्चे कमाई का साधन हैं। वे शिक्षा का महत्त्व नहीं समझते अतः वे बच्चों को स्कूल भेजने की अपेक्षा काम पर भेजने में ज्यादा रुचि लेते हैं।
बाल मजदूरी के कारण : अब प्रश्न उठता है कि बाल मजदूरी के कारण क्या-क्या बुराइयाँ पनप रही हैं। बच्चों की मजदूरी रोक दी जाए तो लाखों बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा। इनके हटने पर लोगों को इनकी जगह नौकरी पर रखा जाएगा, अतः बेरोजगारी की समस्या पर कुछ मात्रा में काबू पाया जा सकेगा।
उपाय : बाल मजदूरी के कारण अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सका है। इसको बंद कर देने पर इन बच्चों को स्कूलों में भेजने के लिए विवश किया जा सकेगा। यद्यपि प्रारंभ में इसमें अनेक कठिनाइयाँ आएँगी, पर इन पर काबू पाना कठिन तो है, पर असंभव कतई नहीं है। इसके दूरगामी प्रभाव होंगे। इन बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बन सकेगा। अभी वे इसका महत्त्व भले ही न समझ पा रहे हों पर बाद में उन्हें यह समझ आ जाएगा। कारखाने के मालिक अवश्य इसमें रोड़ा लगाना चाहेंगे क्योंकि इससे उनका मुनाफा घटेगा। अभी तक वे बाल श्रमिकों का हिस्सा दबाकर रखते थे। अब उन्हें यह हिस्सा बड़े आयु के मजदूरों को देना पड़ेगा।
उपसंहार : बाल मजदूरी एक सामाजिक कलंक है। इसे धोना आवश्यक है। बच्चों का भविष्य दाँव पर नहीं लगाया जा सकता। हमें उनके बारे में अभी सोचना होगा। ‘बचपन बचाओ’ आंदोलन को पूरी ईमानदारी के साथ लागू करना होगा।
55. सूचना का अधिकार
प्रस्तावना : हमारा देश भारत एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था वाला देश है. जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को सभी प्रकार की गतिविधियों से जुड़ी सूचनाएँ जानने का अधिकार है। कुछ वर्ष पूर्व तक हमारे पास कोई ऐसी कानूनी व्यवस्था नहीं थी, जिसके द्वारा हम सरकारी कार्यालयों से सूचनाएँ प्राप्त कर सकें। वास्तव में, देश की शासन व्यवस्था के सुचारू संचालन तथा भ्रष्टाचार नियंत्रण, जनता को शोषण से बचाने एवं लाल फीताशाही को खत्म करने के लिए जरूरी सूचना प्राप्त करने संबंधी अधिकार की आवश्यकता बहुत पहले से महसूस की जा रही थी।
अंततः 15 जून, 2005 को केंद्र सरकार ने सूचना का अधिकार अधिनियम पारित कर दिया, जिसे जम्मू-कश्मीर को छोड़कर शेष भारतीय राज्यों में 13 अक्टूबर, 2005 से लागू किया गया। इसे ‘आर टी आई’ भी कहा जाता है। आर टी आई का अर्थ है – ‘राइट टू इंफॉर्मेशन’ अर्थात् ‘सूचना का अधिकार’। इसे संविधान की धारा 19 (1) के अंतर्गत मूलभूत अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है। ‘सूचना का अधिकार’ अधिनियम का प्राथमिक उद्देश्य नागरिकों को अधिकार संपन्न बनाना, सरकार की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता लाना तथा उसके उत्तरदायित्वों में बढ़ोत्तरी करते हुए भ्रष्टाचार को कम करना एवं सही मायनों में लोकतंत्र को जनता के हित में कार्य करने के लिए सक्षम बनाना है। इसके द्वारा प्रत्येक नागरिक को सरकार से उसकी कार्यप्रणाली और विभिन्न मामलों में उसकी भूमिका के बारे में जानने का हक है।
सूचना के अधिकार का प्रारूप : सूचना के अधिकार के तहत माँगी गई सूचना को 30 दिनों के भीतर उपलब्ध कराना कानूनन अनिवार्य है। किसी व्यक्ति के जीवन अथवा स्वतंत्रता से जुड़ी सूचना 48 घंटे के भीतर देना जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति इस अधिनियम के तहत कोई सूचना प्राप्त करना चाहता है, तो उसे अंग्रेजी, हिंदी अथवा संबंधित क्षेत्र की राजकीय भाषा में एक सादे कागज पर लिखा आवेदन 10 रु. के ड्राफ्ट या पोस्टल ऑर्डर के साथ लोक प्राधिकारी के नाम भेजना होता है।
आवेदन शुल्क को लोक प्राधिकरण के लेखाधिकारी या केंद्रीय सहायक लोक सूचना अधिकारी के कार्यालय में नकद रूप में भी जमा किया जा सकता है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले व्यक्तियों के लिए यह प्रक्रिया निःशुल्क है। इस कानून में यह व्यवस्था की गई है कि यदि कोई अधिकारी किसी व्यक्ति को सूचना देने से मना करे या देर से अथवा गलत सूचनाएँ उपलब्ध कराए, तो उसे निजी तौर पर दंड का भागीदार मानते हुए, देरी के लिए 250 रु. प्रतिदिन के हिसाब से 25,000 रु. तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।
उपसंहार : दूसरे संवैधानिक नियम कानूनों की तरह इस जनोपयोगी कानून की भी खामियाँ और सीमाएँ हैं, जैसे इसके तहत 22 महत्त्वपूर्ण संगठनों, केंद्रीय पुलिस बल, सूचना ब्यूरो तथा प्रवर्तन निदेशालय जैसे महत्त्वपूर्ण संगठन एवं कार्यालय सम्मिलित है – को गोपनीयता के लिहाज से इस अधिनियम से अलग किया गया है। निजी क्षेत्र से जुड़े कार्यालयों, उद्यमों तथा संस्थाओं आदि के बारे में इस अधिनियम में कोई प्रावधान स्पष्ट नहीं है, जो इसकी एक महत्त्वपूर्ण कमी है, परंतु इन सबके बावजूद यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि ‘सूचना का अधिकार’ अधिनियम हमारे लोकतंत्र की विकास यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ है। आशा है कि यह भारतीय जनता की भ्रष्टाचार उन्मूलन एवं पारदर्शी प्रशासन की जनाकांक्षा की सिद्धि में मददगार साबित होगा।
56. बाढ़ की विभीषिका
अर्थ : चारों ओर जल प्रलय का दृश्य और उसमें डूबे खेत-खलिहान, मरे हुए मवेशियों की डूबती- तैरती लाशें, अपनी जान बचाने की कोशिश में सुरक्षित स्थान की तलाश के लिए पानी के बीच दौड़ते-भागते लोग, ये सभी दृश्य बाढ़ की विभीषिका को बताते हैं। विभीषिका का सामान्य अर्थ तबाही की असामान्य और असहज तथा मानव जीवन के प्रतिकूल दिखाई देने वाली स्थिति, घटना या क्रिया से लगाया जा सकता है। वास्तव में, प्राकृतिक आपदाएँ ही जब भीषण रूप में नजर आती हैं, तो वे विभीषिका बन जाती हैं। बाढ़ एक ऐसी ही प्राकृतिक आपदा है, जो अपने विकराल रूप में विभीषिका बनकर आती है और अपने प्रभाव से सामान्य जन-जीवन को अस्त-व्यस्त और नष्ट – प्राय कर देती है।
बाढ़ का भयावह दृश्य : बाढ़ की विभीषिका के बारे में चर्चा करते हुए सर्वप्रथम यह जान लेना जरूरी है कि बाढ़ वास्तव में है क्या? दरअसल बरसात के मौसम में जब नदियों के जलस्तर में वृद्धि होती है, तब उनका पानी तीव्र वेग के साथ निचले इलाकों में भर जाता है। नदियों के आस-पास के क्षेत्रों में पानी जमा होने की यह स्थिति ही ‘बाढ़’ कहलाती है। प्रति वर्ष जून से सितंबर के महीनों में हमारे देश में काफी बारिश होती है, इसलिए इस अवधि में देश के अधिकांश भागों में बाढ़ का कहर दिखाई देता है। बाढ़ की विभीषिका का दृश्य अत्यंत भयावह होता है। चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल बन जाता है, लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागते और सुरक्षित स्थानों की तलाश करते नजर आते हैं, चारों ओर चीख-पुकार मच जाती है।
असफलता : बाढ़ से जन-धन की बड़ी हानि होती है, सड़कें टूट जाती हैं, रेलमार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं, जिससे यातायात एवं परिवहन बाधित हो जाता है और जन-जीवन ठप हो जाता है। इस तरह जहाँ लोग एक तरफ बाढ़ से त्रस्त होते हैं, वहीं खाद्य सामग्री की समस्या भी उन्हें और ज्यादा मुश्किल में डाल देती है। बाढ़ के कारण लाखों एकड़ भू-क्षेत्र में उपजी फसल नष्ट हो जाती है। तटबंधों के टूटने से बस्तियाँ भी उसकी चपेट में आकर बर्बाद हो जाती हैं।
उपसंहार : बाढ़ प्रभावित लोगों के पुनर्वास की समस्या, संपत्ति के नुकसान की भरपाई में लगने वाला लंबा समय, प्रत्यक्ष एवं प्रच्छन्न बेरोजगारी की समस्या आदि बाढ़ के प्रभाव से जन्म लेते हैं। भारत में अधिकांश राज्य इस आपदा से प्रभावित हैं, लेकिन बिहार इस आपदा से सर्वाधिक प्रभावित राज्य है, जहाँ प्रति वर्ष अपार जन-धन की हानि हो जाया करती है। उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में आई बाढ़ भी काफी नुकसान कर चुकी है।
बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम की शुरूआत वैसे तो वर्ष 1954 में ही शुरू हो गई थी, लेकिन योजनाओं की अपूर्णता कहें या क्रियान्वयन में असफलता, हम इस राष्ट्रीय आपदा की विनाश लीला के मूकदर्शक बने रहने के लिए अब भी अभिशप्त हैं। अब तक सुझाए गए बचाव के स्थायी उपायों में सबसे प्रभावी उपाय राष्ट्रीय स्तर पर सभी नदियों को एक-दूसरे से जोड़ने का है, जिससे उनके जलस्तर में असमान वृद्धि न हो। वह दिन हमारे लिए वास्तविक उपलब्धि का दिन होगा, जिस दिन हम इस राष्ट्रीय आपदा का स्थायी समाधान ढूँढ लेंगे।
57. महिला सुरक्षा अथवा असुरक्षित महिलाएँ
भूमिका : भारत की राजधानी दिल्ली को भले ही नंबर एक शहर घोषित किया गया हो, पर यह अभी भी महिलाओं के लिए असुरक्षित है। यहाँ प्रतिदिन उनके साथ कुछ ऐसा घट जाता है कि उनकी सुरक्षा को लेकर एक विषम स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कभी वे बलात्कार का शिकार बनती हैं तो कभी हिंसा का। पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राओं ने छेड़छाड़ के विरुद्ध व्यापक प्रदर्शन किया था। यह स्थिति चिंताजनक है।
महिलाओं के सम्मान की संस्कृति : कुछेक महिला कार्यकर्ताओं का मानना है कि दिल्ली के नागरिकों ने महिला के सम्मान की संस्कृति को विकसित ही नहीं किया। सार्वजनिक स्थलों पर भी यौनिक हमले की शिकार औरत की मदद के लिए कोई आगे नहीं आता। पुलिस अधिकारी कभी दिल्ली में बढ़ती आबादी, सड़कों पर कम रोशनी को उसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं तो कभी कोई और वजह गिनाते हैं। अध्ययन, सर्वेक्षण, आँकड़े बताते हैं कि इस महानगरी में महिलाएँ सुरक्षित नहीं हैं।
यहाँ हर लड़की / औरत की कई निगाहें पीछा करती हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिमिनोलॉजी और फोरेंसिक साइंस द्वारा हाल में किए गए अध्ययन “दिल्ली में महिलाएँ कितनी सुरक्षित अथवा असुरक्षित हैं”, के अनुसार इस शहर की 80 फीसदी महिलाएँ खुद को बाजार व मॉल में असुरक्षित महसूस करती हैं। 70 फीसदी अंधेरे में, 30 फीसदी हमेशा हर जगह खुद को असुरक्षित पाती हैं। 50 फीसदी महिलाएँ सार्वजनिक बस को महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं मानतीं। स्लम व गाँवों में रहने वाली महिलाओं की तुलना में संभ्रांत व नवविकसित इलाकों की महिला निवासी खुद को ज्यादा असुरक्षित महसूस करती हैं। इस अध्ययन में महिलाओं का पुलिस पर कम भरोसे की दो वजह बताई गई हैं। एक, पुलिस पेट्रोलिंग का नज़र नहीं आना व दूसरा, महिला शिकायतकर्ता के साथ पुलिस का व्यवहार।
असुरक्षित भावनाएँ : दिल्ली में महिलाएँ खुद को कहाँ, किस हालत में असुरक्षित महसूस करती हैं यह जानने के लिए दिल्ली के ‘जागोरी’ नामक महिला संगठन ने (अगस्त 2005 – जुलाई 2006) दिल्ली के विभिन्न बाईस इलाकों का ‘सेफ्टी ऑडिट’ किया। इन बाईस इलाकों में दिल्ली विश्वविद्यालय, वसंत कुंज, साउथ एक्सटेंशन भाग-1, नेहरू प्लेस, साकेत, सरिता विहार, पश्चिम पुरी, मयूर विहार, कल्याण पुरी, मदनपुर खादर, बवाना, इंडिया गेट शामिल हैं। दिल्ली में पहली बार किए गए सेफ्टी ऑडिट से पता चला कि यहाँ कई जगहों पर गलियों / सड़कों की बत्ती की रोशनी या तो गुल है या बहुत कम रोशनी है। ऐसे में महिलाएँ खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करतीं।
दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएँ अंधेरा होने के बाद इच्छा के विरुद्ध कैंपस की सड़कों पर नहीं निकलती हैं क्योंकि अधिकांश सड़कों पर बहुत कम रोशनी होती है और दुपहिया व कार में बैठे पुरुष उन्हें तंग करते हैं। पुस्तकालय देर तक खुले हों तो दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएँ देर रात तक पुस्तकालय में अध्ययन के लिए बहुत कम जाती हैं। लड़कियाँ भी दिल्ली विश्वविद्यालय को उतनी ही फीस देती हैं जितनी लड़के, लेकिन वे चाहकर भी विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में उतना अध्ययन नहीं कर पातीं।
सवाल देर रात पुस्तकालय से लौट रही छात्रा का हो या देर रात होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम से लौट रह स्त्री का हो या रात की पार्टी से घर लौट रही महिला का हो, उसे सुरक्षित माहौल मुहैया कराना राज्य / पुलिस की जिम्मेदारी है। लेकिन दिल्ली पुलिस अपनी इस जवाबदेही से बचती है। यह जाहिर होता है दिल्ली पुलिस के महिला सुरक्षा विज्ञापनों से। ऐसे विज्ञापनों में दिल्ली पुलिस महिलाओं को सुनसान रास्ते पर न जाने, देर रात को अकेले घर के बाहर न निकलने की सलाह देती है।
क्या ऐसे परामर्श औरतों के शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाते ? देर शाम को होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों से दूर नहीं रखते ? क्या औरत के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के रास्तों को सील नहीं करते? कुछ महीने पहले दिल्ली पुलिस ने दिल्ली में रह रही उत्तर-पूर्वोत्तर राज्यों की लड़कियों को सुरक्षा संबंधी हिदायतें देने के लिए एक पुस्तिका तैयार की।
उपसंहार : ‘दिल्ली में महिलाएँ कितनी सुरक्षित अथवा असुरक्षित हैं’ इस विषय पर यह अध्ययन ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट के सहयोग से किया गया है। इस अध्ययन में लड़कियों को आत्मरक्षा के लिए मिर्च पाउडर या स्प्रे सस्ते दामों पर उपलब्ध कराने का सुझाव दिया गया है। दिल्ली पुलिस की महिला अपराध शाखा ने बीते पाँच वर्षों में चालीस हजार से ज्यादा लड़कियों/महिलाओं को आत्मरक्षा में प्रशिक्षित किया है। मुख्य सवाल यह है कि दिल्ली सुरक्षा की दृष्टि से महिला मैत्री शहर बने। इसके लिए पुलिस अपने भीतर बदलाव और अपनी कमियों को दूर करने के लिए कब ईमानदारी से पहल करेगी? इस आज़ाद महानगर में औरतों के प्रति पुलिस की असंवेदनशीलता के साथ-साथ पुरुष समाज का आधी आबादी के लिए वक्त की रफ्तार के साथ न बदलना भी तकलीफ पहुँचाता है।
58. पर्यावरण एवं प्रदूषण अथवा प्रदूषण की समस्या और निदान
भूमिका : मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है। जब तक वह प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता, तब तक उसका जीवन सहज और स्वाभाविक गति से चलता रहता है। विज्ञान की प्रगति के कारण औद्योगिक विकास में मनुष्य की रूचि इतनी बढ़ गई है कि वह प्रकृति के साथ अपने सामंजस्य को प्रायः समाप्त ही करता जा रहा है। यही कारण है कि वह प्रकृति जो सदैव उसकी जीवन सहचरी रही है, उससे दूर होती जा रही है। औद्योगीकरण के कारण प्रदूषण तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है।
प्रदूषण के कारण : आज के औद्योगिक युग में संयंत्रों, मोटर वाहनों, रेलों व कल-कारखानों की संख्या अत्यधिक बढ़ गई है। ये उद्योग जितने बढ़ेंगे, उतना ही प्रदूषण फैलाएँगे। धुएँ में कार्बन मोनो ऑक्साइड काफी मात्रा में निकलती है, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। अनुमान लगाया गया है कि 960 किमी. की यात्रा में एक मोटर वाहन जितनी ऑक्सीजन का प्रयोग करता है, उतनी ऑक्सीजन की आवश्यकता एक मनुष्य को पूरे एक वर्ष के लिए होती है।
हवाई जहाज, तेल शोधन, चीनी मिट्टी की मिलें, चमड़ा, कागज, रबड़ आदि के कारखानों को ईंधन की आवश्यकता होती है। इस ईंधन के जलने से जो धुआँ उत्पन्न होता है, उससे वायु प्रदूषित होती है और इस प्रकार वायु प्रदूषण फैलता है। यह प्रदूषण एक ही जगह स्थिर नहीं रहता, बल्कि वायु प्रवाह से तीव्र गति से सारे संसार को बुरी तरह से प्रभावित करता है। घनी आबादी वाले क्षेत्र इससे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। वायु प्रदूषण से श्वास संबंधी अनेक प्रकार के रोग बढ़ने लगते हैं।
विश्व के कई स्थानों पर तो प्रदूषण इतना अधिक बढ़ गया है कि हैरानी होती है। उदाहरण के लिए, जापान के विश्वप्रसिद्ध शहर टोकियो को ही ले लीजिए। यह विश्व का अधिकतम प्रदूषित नगर है। यहाँ पुलिस के लिए स्थान-स्थान पर ऑक्सीजन सिलेंडर लगे रहते हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर वें इन्हें उपयोग में ला सकें। धुएँ और कुहरे की स्थिति में हवा को छानने के लिए मुँह पर कपड़ा बाँधना पड़ता है, तब भी यहाँ आँख, नाक और गले के रोगों की अधिकता बनी रहती है। लंदन में चार घंटों तक ट्रैफिक संभालने वाले सिपाही के फेफड़ों में इतना विष भर जाता है मानो उसने 105 सिगरेट पी हों।
प्रदूषण से होने वाली हानियाँ : प्रदूषण की समस्या के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार जनसंख्या वृद्धि है। इस जनवृद्धि के कारण ही ग्रामों, नगरों तथा महानगरों को विस्तार देने की आवश्यकता का अनुभव हो रहा है। परिणामस्वरूप जंगल काटकर वहाँ बस्तियाँ बसाई जा रही हैं। वृक्षों और वनस्पतियों की कमी के कारण प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया में असंतुलन पैदा हो गया है। प्रकृति जो जीवनोपयोगी सामग्री जुटाती है, उसकी उपेक्षा हो रही है। प्रकृति का स्वस्थ वातावरण दोषपूर्ण हो गया है। यही पर्यावरण की सबसे बड़ी समस्या है।
कल-कारखानों की अधिकता के कारण वातावरण प्रदूषित हो रहा है। साथ ही वाहनों तथा मशीनों से उत्पन्न होने वाले शोर से ध्वनि प्रदूषण होता है, जिससे मानसिक तनाव, श्रवण दोष तथा कान के अन्य कई रोग उत्पन्न होते हैं। इस शोरगुल के कारण मनुष्य अनेक प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों का शिकार बनता जा रहा है। जब तक मनुष्य प्रकृति के साथ अपना तालमेल व संतुलन स्थापित नहीं करता, तब तक उसकी औद्योगिक प्रगति व्यर्थ है। इस प्रगति को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है। हम ऐसे औद्योगिक विकास से विमुख रहें, जो हमारे सहज जीवन में बाधा डालते हों। हम वनों, पर्वतों, जलाशयों और नदियों के वरदान से वंचित न हों।
समाधान : प्रदूषण की समस्या से बचने के लिए यह आवश्यक है कि विषैली गैस, रसायन तथा जल-मल को उत्पन्न करने वाले कारखानों को आवास स्थानों से दूर स्थापित किया जाए। इसके अतिरिक्त, सर्वप्रथम जनसंख्या नियंत्रित करने की आवश्यकता है। वनों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए अधिकाधिक वृक्ष लगाए जाएँ एवं अनावश्यक कटान को रोका जाए।
उपसंहार : औद्योगिक उन्नति व प्रगति की सार्थकता इसमें है कि मनुष्य सुखी, स्वस्थ एवं संपन्न बना रहे। इसके लिए अनिवार्य है कि मानव प्रकृति से अपना मैत्री संबंध स्थापित करे ताकि प्रकृति भी मित्रवत व्यवहार करती रहे, क्योंकि मानव के अत्याचार के विरोध में यदि प्रकृति स्वयं को संतुलित करने के लिए उग्र रूप धारण कर बैठती है, तो मानव का अस्तित्व घोर संकट में पड़ सकता है।
59. भारतीय संस्कृति
भूमिका : हजारों वर्ष की परंपराओं से पुष्ट भारतवर्ष किसी समय विश्व गुरु कहलाता था। जिस समय आज के उन्नत एवं सभ्य कहे जाने वाले राष्ट्र अस्तित्वहीन थे या जंगली अवस्था में थे। उस समय भारत भूमि पर वैदिक ऋचाएँ लिखी जा रही थीं, वैदिक मंत्रों का गान गूँज रहा था और यज्ञों की पवित्र ज्वालाओं का सुगंधित धुआँ पूरे वातावरण को आनंदमय बना रहा था। वृद्ध भारतवर्ष की सभ्यता और संस्कृति महान है। कविवर इकबाल ने जब लिखा है कि-
‘यूनान मिस्र रोमां सब मिट गए जहाँ से,
लेकिन बचा हुआ है, नामों निशाँ हमारा।’
तो निश्चय ही उनका संकेत भारत की महान संस्कृति की ओर ही था। हजारों वर्षों की पराधीनता का अंधकार हमें हमारी प्राचीन विरासत से वंचित नहीं कर पाया। आज भी हम वैदिक ऋषियों की संतान होने पर गौरव अनुभव करते हैं। रामायण, महाभारत, वेद-पुराण आज भी हमारे पूज्य ग्रंथ हैं। आज भी गंगा, नर्मदा, कावेरी हमारे लिए पवित्र हैं। भारतीय संस्कृति अजर-अमर है क्योंकि वह समय के साथ बदलने की क्षमता रखती हैं। इसमें मानव मात्र की रक्षा का भाव निहित है।
संस्कृति क्या है : संस्कृति वह है जो श्रेष्ठ कृति अर्थात् कर्म के रूप में व्यक्त होती है। कर्म निश्चय ही विचार पर आधारित होता है। जो ज्ञान एवं भाव संपदा हमारे कर्मों को श्रेष्ठ बनाती है वहाँ संस्कृति है। मनुष्य में पशुता और देवत्व का वास एक साथ रहता है। जो भाव या विचार हमें पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाते हैं, संस्कृति का अंग माना जाना चाहिए। मनुष्य, प्राकृतिक अवस्था में होता है। समाज के प्रभाव एवं उसके अपने अनुभव उसे प्रकृति में विकृति की ओर ले जा सकते हैं और सुकृति की ओर भी। सुकृति अर्थात् अच्छे कार्यों की ओर ले जाना ही संस्कृति का कार्य है। दूध यदि विकृति की ओर जायेगा तो वह फट जाएगा और अनुपयोगी बन जाएगा।
यदि सुकृति की ओर जाएगा तो दही, मक्खन, खोया आदि बनेगा। उसकी कीमत कहीं अधिक बढ़ जाएगी। इसी प्रकार मनुष्य यदि पशुत्व अथवा दानत्व की ओर जाएगा तो उसकी हत्या करनी पड़ेगी। यदि देवत्व की ओर जाएगा, उसकी पूजा होगी। भारतीय संस्कृति ने सदा ही अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रार्थना की है। किसी भी देश अथवा जाति की संस्कृति उसके जीवन मूल्यों, आदर्शों, रहन-सहन के तरीकों एवं आस्थाओं और मान्यताओं के रूप में सामने आती है। संस्कृति हमारे भौतिक जीवन को सुधारती है और हमारे एंद्रिक जगत् को परिष्कृत करती है। विचारों एवं भावों का परिष्कार भी संस्कृति का कार्य है। संस्कृति यह कार्य साहित्य विज्ञान एवं कलाओं का प्रचार-प्रसार करके करती है।
भारतीय संस्कृति : भारतीय संस्कृति की एक विशेषता यह है कि यह संस्कृति किसी जाति अथवा राष्ट्र तक सीमित नहीं। वैदिक ऋषि सारे विश्व को आर्य अर्थात् श्रेष्ठ बनाना चाहता है। वह अपने मंत्रों में संपूर्ण सृष्टि के लिए मंगल कामना करता है। मानव मात्र को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का प्रण दुहराता है। भारतीय संस्कृति अपने मूल रूप में मानवीय संस्कृति अथवा विश्व संस्कृति है।
भारतीय संस्कृति अध्यात्मक प्रधान संस्कृति है। भौतिक उन्नति को हमने त्याज्य नहीं माना परंतु उसे आत्मिक जीवन से ज्यादा महत्त्व नहीं दिया। साधु-महात्माओं की पर्ण कुटियों पर सम्राटों ने सदा ही सिर झुकाया है। संतोष एवं संयम को यहाँ सदा सम्मान मिला। ईश्वर में अटल विश्वास रखने वाले अधनंगे फकीरों ने यहाँ के जीव-जीवन को सम्राटों की अपेक्षा अधिक प्रभावित किया। यहाँ का भामाशाह तभी सम्मान का पात्र बना जब उसने देश-रक्षा के लिए अपना खजाना महाराणा प्रताप को समर्पित कर दिया। त्याग हमारी संस्कृति में सम्मान पाता रहा है।
भारतीय संस्कृति में नारी सदा ही सम्मान एवं पूजा की अधिकारिणी रही है। कृष्ण से पहले राधा और राम से पहले सीता का नाम केवल यहीं लिया जाता है। इसी देश में नारी को शक्ति के रूप में, ज्ञान के प्रकाश के रूप में, लक्ष्मी की उज्ज्वलता के रूप में देखा जा सकता है। विश्व की अन्य किसी भी संस्कृति में नारी शक्ति को ऐसा गौरवपूर्ण स्थान नहीं मिला।
निष्कर्ष : भारतीय संस्कृति उदार, ग्रहणशील एवं समय के साथ परिवर्तनशील रही है। अनेक विदेशी संस्कृतियाँ इससे टकराकर नष्ट हो गईं या इसी का अंग बन गईं। भारत तो मानव समुद्र है। यहाँ पर शक, कुशान, हूण, पठान, मुसलमान, पारसी, यहूदी, ईसाई सभी आए और सभी ने यहाँ की संस्कृति को पुष्ट किया। भारतीय संस्कृति इस अर्थ में समन्वित संस्कृति है। यहाँ तो सुंदर फूलों का गुलदस्ता है। सर्वधर्म स्वभाव हमारी संस्कृति की विशेषता है। सार रूप में कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति सही अर्थों में मानव संस्कृति है, उदार संस्कृति है, अध्यात्म-प्रदान आदर्श-परक संस्कृति है, मनुष्य में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा करने वाली संस्कृति है।
60. आज का विद्यार्थी – आज का भारत
भूमिका : आज का विद्यार्थी कल का नेता है। वही राष्ट्र का निर्माता है। वह देश की आशा का केन्द्र है। विद्यार्थी जीवन में वह जो सीखता है, वही बातें उसके भावी जीवन को नियंत्रण करती हैं। इस दृष्टि से उसे विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का पालन करना अनिवार्य हो जाता है।
विद्यार्थियों की समस्या : ‘विद्यार्थी’ शब्द विद्या + अर्थी के योग से बना है। इसका तात्पर्य है विद्या प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला। यों तो व्यक्ति सारे जीवन में कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है, किन्तु बाल्यकाल एवं युवावस्था का प्रारम्भिक काल अर्थात् जीवन के प्रथम 25 वर्ष का समय विद्यार्थी काल है। इस काल में विद्यार्थी जीवन की समस्त चिंताओं से मुक्त होकर विद्याध्ययन के प्रति समर्पित होता है। इस काल में गुरु का महत्त्व अत्यधिक है। सदगुरु की कृपा से ही विद्यार्थी जीवन के प्रति व्यावहारिक दृष्टि अपना सकते हैं अन्यथा मात्र पुस्तकीय ज्ञान उसे वास्तविक जीवन में कदम-कदम पर मुसीबतों का सामना कराता है। यही समय विद्या ग्रहण करने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। कवि ने कहा है :
यही तुम्हारा समयं ज्ञान संचय करने का।
संयम, शील, सुशील, सदाचारी बनने का॥
यह होगा संभव, अनुशासित बनने से।
माता-पिता गुरु की आज्ञा पालन करने से॥
वर्तमान समय उतना सरल नहीं रह गया है। आज विद्यार्थी वर्ग के सामने अनेक प्रकार की चुनौतियाँ हैं।
हमारे देश के छात्रों की अपनी समस्याएँ हैं, जो यहाँ की परिस्थितियों की ही देन हैं। यहाँ की परिस्थितियाँ दूसरे देश में और दूसरे देश की परिस्थितियाँ यहाँ पर नहीं हैं, दोनों में पूरी तरह समानता नहीं हो सकती। प्रत्येक देश में युवा असंतोष के कारणों का स्वरूप उस देश की पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यही कारण है कि छात्र विक्षोभ के कारण भी सभी देशों में अलग-अलग होते हैं। अगर हम विद्यार्थियों के विक्षोभ के कारणों की गहराई में जाएँ तो हमें कई कारण आसानी से मिल जाएँगे। इनमें प्रमुख कारण है- आर्थिक असमानता। गाँवों और शहरों में आर्थिक असमानता के अनेक रूप देखे जा सकते हैं। गाँवों के संपन्न किसान या व्यवसायी की संतान आदि अध्ययनशील है तो शहर में भी आसानी से शिक्षा अर्जित की जा सकती है।
पुत्र और पुत्री में भेद नहीं हो पाता, मगर गरीब के घर पुत्र को प्रथम वरीयता दी जाती है, भले ही पुत्री अधिक कर्मठ और मेधावी क्यों न हो। इससे उनके अंदर असंतोष की भावना पनपती है। संपन्न किसान की नालायक संतान शहर जाकर अपने को पैसे के बल पर शहरी तथा तथाकथित ‘मार्डन’ कहलाने में भी नहीं झिझकती और इन सबका राजनीतिक प्रभाव के कारण प्रवेश पाने में सफल छात्र पढ़ाई को महत्त्व नहीं देते और दूसरी तरफ एक साधारण परिवार से परन्तु मेधावी छात्र प्रवेश पाने में असफल होने पर असंतोष का शिकार हो जाता है। युवा बेरोजगारी भी एक प्रमुख कारण है, छात्र – असंतोष का। आज की शिक्षा-पद्धति का ढाँचा ऐसा कोई दावा नहीं कर पाता कि ऊँची डिग्री पाकर भी छात्र अपने लिए एक अदद नौकरी पा सकता है।
जब युवा वर्ग डिग्रियों का बंडल लिये एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर धक्के खाता फिरता है तो असंतोष और निराशा उसमें घर कर जाती है और इन सबसे उसमें असंतोष का लावा भर जाता है। यूँ तो युवा वर्ग की और भी अनेक समस्याएँ हैं, मगर सबसे ज्यादा आवश्यक है, उनका समाधान। भले ही वर्तमान सरकार ने इस विषय में कई कदम उठाए हैं, मगर इस विषय पर और भी गंभीरता से विचार करना आवश्यक है। शिक्षा पद्धति को भी रोजगारोन्मुख बनाना होगा। शिक्षा ऐसी हो जिससे आर्थिक असमानता, असंतोष दूर हो और युवाओं के चरित्र निर्माण में सहायक हो।
उपसंहार : आज के विद्यार्थी के सम्मुख देश में एकता की भावना उत्पन्न करने एवं नए समाज के निर्माण की चुनौतियाँ भी उपस्थित हैं। देश में आतंकवादी शक्तियाँ उभर रही हैं, उन्हें टक्कर देने का काम आज का विद्यार्थी वर्ग ही कर सकता है। यह एक बहुत बड़ी समस्या है। इसका हल बहुत आवश्यक है। आज के विद्यार्थी के सामने देश के नव निर्माण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की भी चुनौती है। विद्यार्थी से अपेक्षा की जाती है कि यह वर्ग देश को प्रगति की राह में आगे ले जाने के दायित्व का निर्वाह करेगा। उससे ऐसी अपेक्षा करना अनुचित नहीं है, पर असंतुष्ट विद्यार्थी भला देशोत्थान का काम क्या रुचिपूर्वक कर पाएगा? उसके असंतोष के कारण जानकर उनका निदान करना आवश्यक है।
61. प्रगति पथ पर अग्रसर भारत
भारत निरंतर प्रगति के पथ पर विकसित होता चला जा रहा है। आजाद भारत ने 70 वर्ष की यात्रा पूरी कर ली। अब उसकी योजनाओं का सुफल मिलना शुरू हो गया है। अपनी उपलब्धियों को हम अक्सर कमतर आँका करते हैं। गर्व की अनुभूति में वह ताकता है जो आम जन में आशाओं और उम्मीदों का नया संचार करके उन्हें सामान्य से असामान्य ऊँचाइयों तक पहुँचा देती है। गर्व की यह अनुभूति अवसाद और नाउम्मीदी के सबसे हताशा भरे दौर में भी एक अरब लोगों के आत्मबल को ऊँचा उठा सकती है। स्वतंत्र भारत की प्रगति पर गर्व करने लायक बहुत कुछ है।
सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हैरतअंगेज उपलब्धियाँ, अनिष्टकारी ताकतों से देश की सुरक्षा में लगी जाबांज फौज, कृषि में हरित क्रांति, फलता-फूलता स्वतंत्र मीडिया, महान् शैक्षणिक संस्थाएँ आदि। ये उपलब्धियाँ भारतीयता की भावना को बल प्रदान करते हुए मन में अहसास पैदा करती हैं कि ” अच्छे काम करो, अच्छा महसूस करो। ” ये वे चीजें हैं जो हमारा सीना गर्व से चौड़ा कर देती हैं, आँखों में खुशी के आँसू तक छलका देती हैं। भारत को प्रगति के पथ पर दर्शाने वाली कुछ प्रमुख उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं
अंतरिक्ष कार्यक्रम : अपने तीन दशक के अस्तित्व में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने एक दर्जन से अधिक आधुनिक उपग्रहों का निर्माण कर भारत को चुनिंदा देशों के अंतरिक्ष क्लब में शामिल कर दिया। इसकी शुरुआत 1975 में प्राचीन भारतीय खगोल वैज्ञानिक आर्यभट्ट के नाम वाले उपग्रह के प्रक्षेपण से हुई। ये उपग्रह संचार, मौसम का पूर्वानुमान, प्राकृतिक संसाधनों के नक्शे तैयार के मकसद से छोड़े गए थे। संगठन ने इनसेट (इंडियन सैटेलाइट सिस्टम) को घर-घर में प्रचारित कर दिया। आज दूरसंचार और टी. वी. प्रसारण का अधिकांश कार्य इनसेट के जरिए ही हो रहा है और भारत के प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को भी इसने गति दी है। अब भारत ऐसे उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए जरूरी विशालकाय रॉकेट बनाने में सक्षम हो गया है।
परमाणु शक्ति : आज भारत दुनिया का छठा परमाणु शक्ति वाला देश बन गया है। 11 मई 1998 को रक्षा अनुसंधान प्रमुख श्री ए. पी. जे. अब्दुल कलाम की अध्यक्षता में भारत ने तीन परमाणु विस्फोट किए। दुनिया और भारत का उदारपंथी खेमा भले ही बौखला उठा हो लेकिन इस टीम और उसके राजनैतिक आकाओं के लिए 1974 में किए गए परीक्षणों की तरह यह परीक्षण प्रतिरोध शक्ति देने के अलावा आत्मविश्वास बढ़ाने वाले थे। इनके चलते देश की छवि बदल गई।
भारतीय रेलवे : भारतीय रेलवे की 62,000 किमी. लंबी पटरियाँ, 7,000 स्टेशन हैं, 300 रेलवे यार्ड हैं और वह रोजाना 11,000 – ट्रेनें चलाती है और एक दिन में एक करोड़ से भी ज्यादा यात्रियों को ढोती है। दुनिया की सबसे बड़ी रेल सुरंग, दुनिया में सबसे अधिक ऊँचाई पर रेलवे स्टेशन, विश्व की चौथी सबसे बड़ी रेलवे – भारतीय रेलवे की विशेषता है।
भारतीय रेलवे देश का सबसे बड़ा रोजगारदाता है जिसके 16 लाख स्थायी कर्मचारी हैं।
फिल्मोद्योग : परी लोक की नीली पहाड़ियों और पश्चिमी घाट से परे कहीं भारतीय सिनेमा की फैक्टरी यानी बॉलीवुड स्थित है, जहाँ हर साल लगभग 300 फीचर फिल्में बनती हैं और हर साल 6000 करोड़ रुपये का राजस्व आता है, जिससे 20 लाख लोगों को रोजगार मिलता है।
सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति : सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत ने जबरदस्त तरक्की की है। विप्रो, टाटा कंसलटेंसी, इंफोसिस जैसी कंपनियों ने तेजी से विश्व के साथ कदम मिलाए। तकनीकी संस्थाओं को जोड़ा, परियोजनाएँ तैयार कीं। आज दुनियाभर में भारत की सॉफ्टवेयर कंपनियों के उत्पाद की धाक है।
उपर्युक्त उपलब्धियों को दर्शाते हुए हम स्वतंत्र भारत के उज्ज्वलमय भविष्य की कामना कर सकते हैं।
62. पहला सुख निरोगी काया
अथवा व्यायाम और स्वास्थ्य
“धर्मार्थकाममोक्षणाम् आरोग्यं मूलमुत्तमम् ”
अर्थ : महर्षि चरक ने लिखा है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों का मूल आधार स्वास्थ्य ही है। यह बात अपने में नितांत सत्य है। मानव जीवन की सफलता धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करने में ही निहित है, परन्तु सबकी आधारशिला मनुष्य का स्वास्थ्य है, उसका निरोग जीवन है। रुग्ण और अस्वस्थ मनुष्य न धर्मचिन्तन कर सकता है, न अर्थोपार्जन कर सकता है, न काम प्राप्ति कर सकता है, और न मानव जीवन के सबसे बड़े स्वार्थ मोक्ष की ही उपलब्धि कर सकता है क्योंकि इन सबका मूल आधार शरीर है, इसलिये कहा गया है कि: “शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम् !”
स्वास्थ्य रक्षा के लिये विद्वानों ने वैद्यों ने और शारीरिक विज्ञान वेत्ताओं ने अनेक साधन बताये हैं, जैसे- संतुलित भोजन, पौष्टिक पदार्थों का सेवन, शुद्ध जलवायु का सेवन, परिभ्रमण, संयम-नियम पूर्ण जीवन, स्वच्छता, विवेकशीलता, पवित्र भाषण, व्यायाम, निश्चिंतता इत्यादि। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये साधन स्वास्थ्य को समुन्नत करने के लिए रामबाण की तरह अमोघ हैं परन्तु इन सब का ‘गुरु’ व्यायाम है। व्यायाम के अभाव में स्वास्थ्यवर्धक पौष्टिक पदार्थ विष का काम करते हैं। व्यायाम के अभाव में पवित्र आचरण या विवेकशीलता भी अपना कोई प्रभाव नहीं दिखा सकती, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ विचार रहा करते हैं, जैसा किसी विद्वान् अंग्रेज ने कहा है- ” A sound mind in a sound body”. स्वास्थ्यहीन व्यक्ति अविवेकी विचारशून्य, मूर्ख, आलसी, अकर्मण्य, हठी, क्रोधी, झगड़ालू आदि सभी दुर्गुणों का भण्डार होता है। स्वास्थ्य का मूल मंत्र व्यायाम है।
व्यायाम के लाभ : व्यायाम से मनुष्य को असंख्य लाभ हैं। सबसे बड़ा लाभ यह है कि वह कभी भी वृद्ध नहीं होता और दीर्घजीवी होता है। जो व्यक्ति नियमित रूप से व्यायाम करता है उसे बुढ़ापा जल्दी नहीं घेरता, अंतिम समय तक शरीर में शक्ति बनी रहती है। आजकल तो 20-22 साल के बाद ही शरीर और मुँह की खाल पर झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं और मनुष्य वृद्धावस्था में प्रवेश करने लगता है। व्यायाम करने से हमारे उदर की पाचन क्रिया ठीक रहती है। भोजन पचने के बाद ही वह रक्त, मज्जा, माँस आदि में परिवर्तित होता है। शरीर का रक्तसंचार हमारे जीवन के लिये परम आवश्यक है। व्यायाम से शरीर में रक्तसंचार नियमित रहता है। इससे शरीर और मस्तिष्क की वृद्धि होती है। व्यायाम से मनुष्य का शरीर सुगठित और शक्ति सम्पन्न होता है। मनुष्य में आत्म-विश्वास और वीरता, आत्मनिर्भरता आदि गुणों का आविर्भाव होता है।
“वीरभोग्या वसुंधरा”
उचित समय-सारणी : व्यायाम का उचित समय प्रातः काल और सायंकाल है। प्रायः शौच इत्यादि से निवृत्त होकर बिना कुछ खाये, शरीर पर थोड़ी तेल मालिश करके व्यायाम करना चाहिये। व्यायाम करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि सभी अंग-प्रत्यंगों का व्यायाम हो, शरीर के कुछ ही अंगों पर जोर पड़ने से वे पुष्ट हो जाते हैं, परन्तु अन्य अंग कमजोर ही बने रहते हैं। इस तरह शरीर बेडौल हो जाता है। व्यायाम करते समय जब श्वास फूलने लगे तो व्यायाम करना बन्द कर देना चाहिए, अन्यथा शरीर की नसें टेढ़ी हो जाती हैं और शरीर बुरा लगने लगता है, जैसा कि अधिकांश पहलवानों को देखा जाता है, किसी की टाँगें टेढ़ी तो किसी के कान।
व्यायाम करते समय मुँह से श्वास कभी नहीं लेना चाहिये, सदैव नासिका से लेना चाहिये। व्यायाम के लिए उचित स्थान वह है, जहाँ शुद्ध वायु और प्रकाश हो और स्थान खुला हुआ हो क्योंकि फेफड़ों में शुद्ध वायु आने से उनमें शक्ति आती है, एक नवीन स्फूर्ति आती है और उनकी अशुद्ध वायु बाहर निकलती है। व्यायाम के तुरन्त पश्चात् कभी नहीं नहाना चाहिए, अन्यथा गठिया होने का भय होता है। व्यायाम के पश्चात् फिर थोड़ी तेल मालिश करनी चाहिए, जिससे शरीर की थकान दूर हो जाए।
फिर प्रसन्नतापूर्वक शुद्ध वायु में कुछ समय तक विश्राम और विचरण करना चाहिए। जब शरीर का पसीना सूख जाये और शरीर की थकान दूर हो जाए, तब स्नान करना चाहिये। इसके पश्चात् दूध आदि कुछ पौष्टिक पदार्थों का सेवन परम आवश्यक है। बिना पौष्टिक पदार्थों के व्यायाम से भी अधिक लाभ नहीं होता। व्यायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये। यदि प्रथम दिन ही आपने सौ दण्ड और सौ बैठकें कर लीं तो आप दूसरे दिन खाट से उठ भी नहीं सकते, लाभ के स्थान पर हानि होने की ही संभावना अधिक है।
63. सुबह की सैर : आज की आवश्यकता
भूमिका : सुबह की सैर अत्यंत आनंददायक कृत्य है। यह प्रकृति से साक्षात्कार का सुंदर तरीका है। यह दिनभर तरोताजा रहने का अत्यंत उत्तम उपाय है। आज की आवश्यकता को देखते ही यह स्वस्थ रहने का सबसे सरल उपाय माना जाता है।
उपयोगिता : सुबह हवा में ताजगी होती है। सुबह की नई बेला नई किरणों के साथ चारों तरफ अपनी किरणों से रोशनी फैलाती है जिसे पशु, पक्षी व लहलहाते वृक्ष उसका स्वागत करते नजर आते हैं। गाँवों में किसान सुबह की बेला देखकर खेतों की तरफ प्रस्थान करते हैं, तो दूसरी तरफ शहरी लोग सुबह होते ही अपने कार्य करने में लग जाते हैं लेकिन इन सब कार्यों के अलावा सुबह की सैर बच्चों, वृद्ध, युवा सभी के लिए उपयोगी व स्वास्थ्यवर्धक दवाई साबित होती है।
रोगों का निवारण : कुछ आलसी लोग जो सुबह समय पर नहीं उठते, उन्हें हमेशा मानसिक तनाव व अनेक बीमारियाँ घेर लेती हैं जिसमें अधिकतर लोग उच्च रक्तचाप, मधुमेह आदि संक्रामक रोगों से घिर जाते हैं। अगर व्यक्ति आलस्य को भगाकर थोड़ा परिश्रम करें तो शरीर स्फूर्तिदायक बनता है तथा उम्र में भी वृद्धि होती नजर आती है।
कुछ रहस्य है सुबह जागने में। शरीर की अनेक व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं, पेट साफ रहता है तथा चित्त में भी प्रसन्नता आती है। सैर से भूख भी अच्छी लगती है। फेफड़ों में ताजी हवा का प्रवेश होता है। शरीर का अच्छा-खासा व्यायाम हो जाता है। दिन भर मन प्रसन्न रहता है। हर काम में आनंद आता है। काम करने में थकावट कम होती है। व्यक्ति की कार्यक्षमता बढ़ती है तो उसकी आमदनी में भी बढ़ोत्तरी होती है।
मनोहारी सुबह का सुख : सुबह की सैर को निकले तो प्रकृति के नए-नए रूप में दर्शन हुए। चिड़ियों ने कलरव करते हुए लोगों का स्वागत किया। गर्मियों में ठंडी हवा के झोंकों से तन-मन पुलकित हो उठा। आसमान में उगते सूर्य को नमस्कार करके लोगों ने शक्ति के अजस्र स्रोत को धन्यवाद दिया। बागों में पहुँचे तो फूलों पर मँडराती तितलियों के दर्शन हुए। कोयल ने मधुर तान छेड़ी तो कर्णप्रिय ध्वनि से मन गद्गद होने लगा। कतारों में पेड़-पौधों को देखकर किसे हर्ष न हुआ होगा। हरी-भरी मखमली दूब पर पाँव रखकर किसने सुख न पाया होगा। फूलों की खुशबू से किसकी साँसों में ताजगी न आई होगी।
थोड़ा चले, थोड़ी दौड़ लगा ली। कुछ ने खुली जगह पर हल्की कसरत कर ली। पहलवानों ने मुगदर उठा लिया। बच्चों के हाथों में बड़ी सी गेंद थी। अतिवृद्ध लाठियों के सहारे पग बढ़ा रहे थे। खिलाड़ी पोशाकें पहने अपनी फिटनेस बढ़ाने में व्यस्त थे। कुछ स्थूलकाय लोगों ने अपना मोटापा घटाने की ठान ली थी। गृहणियों ने सोचा दिनभर घर में ही रहना है। कुछ देर सैर कर ली जाए। कुछ तो एक कदम आगे बढ़कर योगाभ्यास में संलग्न हो गए। प्रातः काल का हर कोई अपने-अपने ढंग से लाभ उठाने लगा।
उपसंहार : आज के प्रदूषण वाले शहरों में जिसमें हर व्यक्ति रोगों से घिरा हुआ है, इसमें सुबह की सैर बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
64. महँगाई की समस्या
भूमिका : महँगाई की समस्या आज विकट हो गयी है। कुछ धनाढ्यों को छोड़कर समाज का प्रत्येक वर्ग इससे प्रभावित है। जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति में ही सबकी शक्तियाँ चुकी जा रही हैं। जब जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने में ही व्यक्ति का ध्यान केन्द्रित हो, तो वह जीवन के अन्य कलात्मक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, बौद्धिक, सौंदर्यबोध आदि ऐसे विविध पक्षों का कैसे स्पर्श कर सकता है? उसका जीवन तो मानो आर्थिक समस्याओं से जूझने का मात्र एक साधन हो गया है। व्यक्ति के जीवन की अर्थवत्ता महँगाई की समस्या से संघर्ष करने में ही परिलक्षित होने लगी है।
कमरतोड़ महँगाई के कारण समाज के बहुसंख्यक लोगों का अन्य ज्वलन्त समस्याओं की ओर ध्यान ही नहीं जाता। इनकी समस्त शारीरिक तथा बौद्धिक शक्तियाँ महँगाई की समस्या से आक्रांत हैं। इनके जीवन में रचनात्मक कार्यों का कोई स्थान हो ही नहीं सकता। धनिक वर्ग को महँगाई से कम जूझना पड़ता है किन्तु उसकी सभी शक्तियाँ किसी प्रकार से धन जोड़ने में ही लगी रहती हैं और यही वर्ग महँगाई की समस्या का निर्माण करने में बहुत कुछ उत्तरदायी है।
कहने का तात्पर्य यह है कि महँगाई ने कुछ को छोड़कर देश की अधिकांश आबादी के दिलो-दिमाग पर प्रभाव डाला है और इसका परिणम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई पड़ रहा है। मनुष्य का जीवन केवल पेट की समस्या से संघर्षरत होने तक ही यदि सीमित रहता है, तो उसकी भूमिका समाज के विभिन्न क्षेत्रों में मानवता के उन्नत स्तर की दृष्टि से दिवास्वप्न हो जाएगी। अतः इस समस्या के कारण पर ध्यान देना होगा।
घातक परिणाम : जमाखोरी तथा मुनाफाखोरी का जो सबसे बड़ा घातक परिणाम देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ा है वह है काले धन का समानान्तर अर्थव्यवस्था के रूप में अस्तित्व। ऐसा अनुमान है कि काले धन की मात्रा सकल घरेलू उत्पाद का लगभग पचास प्रतिशत है। भावों को बढ़ाने में इस काले धन की सीधी भूमिका है। काले धन वाले कालाबाजारी के धंधों में लगे हैं। महँगाई बढ़ाने में काला धन अपनी घिनौनी भूमिका अदा कर रहा है।
इस काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था को चलाने में राजनीतिज्ञों का बहुत बड़ा हाथ है। सारी चुनाव प्रक्रिया काले धन पर आधारित है। चुनाव की प्रक्रिया के महँगे होने से पैसे देने वाले व्यक्ति का महत्त्व बढ़ जाता है और पैसा लेने वाले व्यक्ति भ्रष्टाचार को रोकने की नैतिक शक्ति से रहित होकर असहाय रूप में सब प्रकार के काले धंधों को पनपने देने के लिए बाध्य होता है। इससे भी वस्तुओं के भाव बढ़ते हैं। राजनीतिज्ञों का भ्रष्ट होना भी महँगाई को बढ़ाने में सहायक है।
कारण : जनसंख्या वृद्धि भी महँगाई बढ़ाने में एक प्रमुख कारक है। देश में उपलब्ध साधन जनसंख्या की वृद्धि के अनुपात में कम हैं। जनसंख्या में वृद्धि को रोकने के अथक प्रयासों के बावजूद आबादी बढ़ती जा रही है। आज देश की आबादी एक अरब को पार कर गयी है। इस आबादी के लिए रोटी, कपड़ा तथा मकान जुटाना कितना महँगा तथा कठिन होगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। इन सुझावों के अनुरूप आचरण करने से महँगाई में काफी कमी लायी जा सकती है :
1. राष्ट्रीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि करना। इसके लिए कर्मचारियों के मन में प्रेरणा जगाना आवश्यक होगा। उद्योगपतियों को कर्मचारियों के हितों का ध्यान रखते हुए व्यवहार करना होगा तभी उत्पादन बढ़ सकेगा और वस्तुओं की पर्याप्त उपलब्धि के परिणामस्वरूप कीमतें कम होंगी और महँगाई कम होगी।
2. जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए देश में जागृति उत्पन्न करनी होगी। सरकारी तथा निजी दोनों स्तरों पर इसके लिए प्रयत्न करने होंगे।
3. चुनावी प्रक्रिया को कम खर्चीला बनाने के लिए चुनाव व्यवस्था में सुधार करने होंगे। चुनाव प्रक्रिया बहुत महँगी है। कोई भी राजनीतिज्ञ भ्रष्टाचारी हथकंडे अपनाये बिना चुनाव नहीं जीत सकता है। काले धन की महिमा इस दृष्टि से सर्वविदित है। काले धन से लड़ा गया चुनाव नैतिक मूल्यों के उत्थान का कारण नहीं बन सकता।
निष्कर्ष : महँगाई एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या है। संसार में जो कुछ होता है उससे हम अप्रभावित नहीं रह सकते। फिर भी अपने देश में बने कारणों को हम दूर कर सकते हैं, जिनके आधार पर हमारी अर्थव्यवस्था चरमराती है और महँगाई बढ़ती है।
65. कंप्यूटर : जीवन की अनिवार्यता
भूमिका : आज के युग को ‘कंप्यूटर युग’ कहना अत्युक्ति न होगा। विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे-ऐसे आविष्कार हो चुके हैं कि मनुष्य उन्हें देखकर दाँतों तले उंगली दबा लेता है। कंप्यूटर का आविष्कार वैज्ञानिक चमत्कारों में एक ऐसा ही चमत्कार है जिसने मानव के जीवन को सरल एवं सुखद बना दिया है। भारत समेत दुनिया के अनेक देशों के कंप्यूटर अपने विकास की कई अवस्थाओं से गुजरकर अपने निर्माण के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गए हैं।
कंप्यूटर ने मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में कंप्यूटर संबंधी शिक्षण भी दिया जा रहा है। सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर कंप्यूटर कोर्स चल रहे हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, फ्रांस जैसे विकसित देशों
में कंप्यूटर सॉफ्टवेयर कंपनियों जैसे इन्फोसिस, विप्रो, एच.सी.एल., निट आदि ने कंप्यूटर के क्षेत्र में पूरे विश्व में नाम कमाया है। कंप्यूटर की विभिन्न भाषाएँ हैं। जैसे लॉटस, कोबोल, पास्कल, बेसिक आदि।
आधुनिक उपयोग : हमारे आर्थिक, वैज्ञानिक, युद्ध, ज्योतिष, मौसम, इंजीनियरिंग आदि सभी क्षेत्रों में कंप्यूटर का प्रयोग हो रहा है। बैंकों तथा विभिन्न कम्पनियों के खातों का संचालन और हिसाब-किताब में इसका खुलकर प्रयोग किया जा रहा है। अमेरिका और इराक के बीच में हुए युद्ध में कंप्यूटरों का खूब इस्तेमाल किया गया। इसी प्रकार तोपों, वायुयानों समुद्री जहाजों की पनडुब्बियों के संचालन में भी इनका खुला प्रयोग किया जा रहा है। बड़े-बड़े कारखानों में मशीनों को चलाने में कंप्यूटर की सहायता ली जा रही है।
इस क्षेत्र में अमेरिका ने आशातीत प्रगति की है। कलाकार एवं चित्रकार भी अब कंप्यूटर का प्रयोग करने लगे हैं। अब वे रंग, कैनवस एवं कूचियों के अधीन नहीं रहे। संगीत तथा गीतों की रिकार्डिंग में भी कंप्यूटर का प्रयोग होने लगा है। खेलों के क्षेत्र में भी कंप्यूटर बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ है। गृहिणियों के लिए कंप्यूटरों का प्रयोग बहुत लाभकारी है। यूरोपीय महिलाएँ अपने अधिकांश गृह कार्य इन्हीं की सहायता से कर रही हैं। रेल और वायुयान यात्रा के टिकटों के आरक्षण की सुविधा कंप्यूटर से सुलभ हो गयी है। भारत में भी इसका प्रयोग खुलकर होने लगा है।
भारत के अधिकतर रेलवे आरक्षण केंद्र कंप्यूटरीकृत हैं। मानव जीवन को इसने एक नया मोड़ दिया है। भारत जैसा विकासशील राष्ट्र भी कंप्यूटर के क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है। सन् 2001-2002 में भारत ने 40,000 करोड़ रुपये का सॉफ्टवेयर निर्यात किया। भारत के कुल निर्यात में सॉफ्टवेयर निर्यात का महत्त्वपूर्ण स्थान पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में कंप्यूटर ने क्रांति ही ला दी है। अब पुस्तकें कंप्यूटर की सहायता से शीघ्र और आकर्षक रूप में छापी जाने लगी हैं। पुस्तकों के आवरण पृष्ठ को भी कंप्यूटर नई तकनीक से तैयार कर रहा है।
निष्कर्ष : इस प्रकार हम देखते हैं कि कंप्यूटर नित्य नए रूप से अवतरित हो रहा है। इसमें समयानुकूल परिवर्तन आ रहे हैं और इसे बहुउपयोगी रूप प्रदान किया जा रहा है। अब तो घर-घर में कंप्यूटर देखे जा सकते हैं।
66. वर्तमान भारतीय राजनीति में युवाओं की भूमिका
भूमिका : आज की भारतीय राजनीति में युवाओं की भूमिका निरंतर बढ़ती जा रही है। सभी पाटियों में युवाओं को उचित प्रतिनिधित्व देने की माँग जोर-शोर से उठ रही है। पुरानी पीढ़ी के राजनेताओं की सोच भी पुरानी है। उससे पीछा छुड़ाने का एक ही तरीका है, युवाओं को सक्रिय राजनीति में लाया जाए। जब समाज निर्माण के संदर्भ में युवा पीढ़ी की भूमिका की चर्चा की जाती है तो स्वभावत: अनेक प्रश्न उत्पन्न होने लगते हैं। इनमें महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि युवा पीढ़ी में किन व्यक्तियों को रखा जाए। आज सामान्य रूप से युवा पीढ़ी के अंतर्गत विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक-युवतियों को लिया जाता है, किंतु युवा पीढ़ी के अंतर्गत उन युवक-युवतियों को भी परिगणित किया जा सकता है जो स्कूल-कॉलेजों की अपेक्षा खेतों. कारखानों, मिलों, फैक्ट्रियों आदि में कार्यरत हैं।
राजनीति में प्रवेश : आशय यह है कि छात्र – छात्राओं के अतिरिक्त युवक-युवतियों को भी इसी पीढ़ी में लिया जाता है। वैसे युवा अथवा वृद्ध होना जीवन के बीते हुए वर्षों पर निर्भर नहीं करता। ऐसे अनेक प्रौढ़ अथवा वृद्ध व्यक्तियों को देखा जा सकता है जिनमें युवकों की अपेक्षा अधिक उत्साह, उल्लास, ऊर्जा है जो आलस्य व निष्क्रियता से ग्रस्त कहे जा सकते हैं। यहाँ हम यही कहना चाहते हैं कि यौवन व वृद्धावस्था का प्रत्यक्ष संबंध व्यक्ति की मानसिकता के साथ होता है। यौवन को जीवन के उपवन का वसंत कहा जाता है। जिस प्रकार वसंत ऋतु पर संपूर्ण प्रकृति के भीतर हर्षोल्लास की तरंगें उठने लगती हैं. रूप या सौंदर्य की अनेक छवियाँ अनायास प्रस्फुटित होने लगती हैं, उसी प्रकार यौवन आने पर व्यक्ति के जीवन में एक प्रकार की आशा, कर्म-प्रेरणा तथा निर्माणकारी क्षमता अंकुरित होने लगती है।
भ्रष्ट राजनीति : आज की राजनीति में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है। यदि राजनीति में युवाओं की भागीदारी बढ़ती है तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकेगा। युवा उत्साही भी होते हैं, बस उन्हें पुराने नेताओं के अनुभव का लाभ उठाना है।
नई पीढ़ी समाज के भीतर जहाँ परिवर्तन के हर नए मोड़ का स्वागत करते समय अतिरिक्त भावुकता का परिचय देती है, वहाँ पुरानी पीढ़ी अपनी सीमाओं के कारण यथास्थितिवादी, अपरिवर्तनशील तथा पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होती है। दो पीढ़ियों का यह वैचारिक मतान्तर प्रायः प्रत्येक युग में रहा है। प्रकृति का यह स्वाभाविक नियम है कि वृक्ष की शाखाओं पर लहराने वाले पत्ते पतझड़ आने पर झर जाते हैं, उनके स्थान पर नए पत्ते प्रकृति की शोभा और सज्जा करने लगते हैं। बाह्य प्रकृति का यह नियम मानव के भीतर भी देखा जा सकता है। अभिप्राय यह है कि नवीन और पुरातन एक-दूसरे के विलोम न होकर परस्पर पूरक हुआ करते हैं।
उपसंहार : यह हर्ष का विषय है कि वर्तमान संसद तथा विधान सभाओं में युवाओं की भागीदारी बढ़ रही है। अनेक युवा मंत्री हैं। वे अपने दायित्व का निर्वाह कुशलतापूर्वक कर रहे हैं। वर्तमान केंद्रीय सरकार के मंत्रिमंडल में युवा मंत्रियों को शामिल किया गया है। उन्हें महत्त्वपूर्ण विभागों का उत्तरदायित्व सौंपकर उन पर विश्वास व्यक्त किया गया है। अनेक युवा मंत्री बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। वे देश के विकास को नई दिशा प्रदान कर रहे हैं। इस प्रकार वर्तमान भारतीय राजनीति में युवाओं की भूमिका अत्यंत प्रशंसनीय हो रही है। वे सक्रिय भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। यह एक शुभ संकेत है।
67. युवा पीढ़ी और देश का भविष्य
अर्थ : जब समाज निर्माण के संदर्भ मे युवा पीढ़ी की भूमिका की चर्चा की जाती है तो स्वभावतः अनेक प्रश्न उत्पन्न होने लगते हैं। इनमें महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि युवा पीढ़ी में किन व्यक्तियों को रखा जाए। आज सामान्य रूप से युवा पीढ़ी के अंतर्गत विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक-युवतियों को लिया जाता है, किन्तु युवा पीढ़ी के अन्तर्गत उन युवक-युवतियों को भी परिगणित किया जा सकता है जो स्कूल-कॉलेजों की अपेक्षा खेतों, कारखानों, मिलों, फैक्ट्रियों आदि में कार्यरत हैं।
आशय यह है कि छात्र-छात्राओं के अतिरिक्त युवक-युवतियों को भी इसी पीढ़ी में लिया जाता है। वैसे युवा अथवा वृद्ध होना जीवन के बीते हुए वर्षों पर निर्भर नहीं करता। ऐसे अनेक प्रौढ़ अथवा वृद्ध व्यक्तियों को देखा जा सकता है जिनमें युवकों की अपेक्षा अधिक उत्साह, उल्लास, ऊर्जा है जो आलस्य व निष्क्रियता से ग्रस्त कहे जा सकते हैं। यहाँ हम यही कहना चाहते हैं कि यौवन व वृद्धावस्था का प्रत्यक्ष संबंध व्यक्ति की मानसिकता के साथ होता है। यौवन को जीवन के उपवन का वसन्त कहा जाता है। जिस प्रकार वसन्त ऋतु आने पर संपूर्ण प्रकृति के भीतर हषोल्लास की तरंगें उठने लगती हैं, रूप या सौंदर्य की अनेक छवियाँ अनायास प्रस्फुटित होने लगती हैं, उसी प्रकार यौवन आने पर व्यक्ति के जीवन में एक प्रकार की आशा, अभिलाषा, कर्म-प्रेरणा तथा निर्माणकारी क्षमता अंकुरित होने लगती है।
नई एवं पुरानी पीढ़ियों का तुलनात्मक अध्ययन : जहाँ नई पीढ़ी जीवन के अनेक क्षेत्रों में अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी का स्वाभाविक रूप से अनुकरण करती है, वहाँ अनेक क्षेत्रों में उसका पुरानी पीढ़ी के साथ मतभेद तथा कभी-कभी संघर्ष भी देखने को मिलता है। दोनों पीढ़ियाँ अपने-अपने स्थान पर स्वयं को अधिक गुणवान् और समर्थ समझती हैं। इसका परिणाम होता है दोनों पीढ़ियों में पारस्परिक संघर्ष।
नई पीढ़ी समाज के भीतर जहाँ परिवर्तन के हर नए मोड़ का स्वागत करते समय अतिरिक्त भावुकता का परिचय देती है, वहाँ पुरानी पीढ़ी अपनी सीमाओं के कारण यथास्थितिवादी, अपरिवर्तनशील तथा पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होती है। दो पीढ़ियों का यह वैचारिक मतान्तर प्रायः प्रत्येक युग में रहा है। प्रकृति का यह स्वाभाविक नियम है कि वृक्ष की शाखाओं पर लहराने वाले पत्ते पतझड़ आने पर झर जाते हैं, उनके स्थान पर नए पत्ते प्रकृति की शोभा और सज्जा करने लगते हैं। बाह्य प्रकृति का यह नियम मानव के भीतर भी देखा जा सकता है। अभिप्राय यह है कि नवीन और पुरातन एक-दूसरे के विलोम न होकर परस्पर पूरक हुआ करते हैं।
युवा पीढ़ी की अब तक की भूमिका : मध्य युग तक का इतिहास साक्षी है कि इन दोनों पीढ़ियों में सहअस्तित्व व सद्भाव बराबर बना रहा है। जैसे-जैसे आधुनिकता, विज्ञान पर आश्रित भौतिकवाद तथा पाश्चात्य जीवन-मूल्यों की छाप भारतीय जीवन पर पड़ती गई, वैसे-वैसे इन दोनों पीढ़ियों के मध्य होने वाली स्थिति का लाभ राजनीति ने सदा ही उठाया है। विगत शताब्दी में राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर घटित होने वाली घटनाएँ यही प्रमाणित करती हैं।
एक समय था जबकि देश की प्रत्येक प्रगति, चाहे वह धार्मिक हो या आर्थिक, चाहे वह सामाजिक हो या वैदेशिक, सभी राजनीति के अन्तर्गत आती थी, परन्तु आज के युग में राजनीति शब्द का अर्थ इतना संकुचित हो गया है कि अब इसका अर्थ केवल वर्तमान सरकार का विरोध करना ही समझा जाता है।
भारतवर्ष एक गणतंत्र देश है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि देश की नीति का संचालन करते हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति शासन में अपना प्रतिनिधित्व चाहता है। अपने स्वार्थ में दूसरों को बहकाने का प्रयास करता है। यह गंदी दलबंदी ही आज की राजनीति है, जिससे दूर रहने के लिये विद्यार्थियों से कहा जाता है। विद्यार्थियों के पास उत्साह है, उमंग है, परंतु साथ-साथ अनुभवहीनता के कारण जब शासन उनके विरुद्ध कार्यवाही करता है, तब उस समय उन पथभ्रष्ट करने वाले नेताओं के दर्शन भी नहीं होते। जनता कहती है कि स्वतंत्रता संग्राम में विद्यार्थियों को भाग लेने के लिये प्रेरणा देने वाले आज उन्हें राजनीति से दूर रहने के लिये क्यों कहते हैं ? निःसंदेह विद्यार्थियों को राजनीति में भाग लेने का अधिकार है, पर देश की रक्षा के लिये, उनके सम्मान एवं संवर्धन के लिये, न कि शासन के कार्य में विघ्न डालने और देश में अशांति फैलाने के लिये।
निष्कर्ष : विद्यार्थी का परम कर्त्तव्य विद्याध्ययन ही है, इसमें दो मत नहीं हो सकते। उन्हें अपनी पूरी शक्ति ज्ञानार्जन में ही लगानी चाहिये। अब भारतवर्ष स्वतंत्र है। अपने देश की सर्वांगीण उन्नति के लिये एवं पूर्ण समृद्धि के लिये हमें अभी बहुत प्रयत्न करने हैं। देश को योग्य इंजीनियरों, विद्वान डाक्टरों, साहित्य मर्मज्ञ विद्वानों, वैज्ञानिकों और व्यापारियों की आवश्यकता है, इसकी पूर्ति विद्यार्थी ही करेंगे।
68. सर्वशिक्षा अभियान
शिक्षा के बिना कोई भी बनता नहीं सत्पात्र है।
इसे पाने के लिए कुछ भी प्रयास करना मात्र है॥
सबसे पहला कर्त्तव्य है, शिक्षा बढ़ाना देश में।
शिक्षा के बिना ही हैं हम सभी क्लेश में।
अर्थ : मनुष्य सुख-शांति के लिए जन्म से ही प्रयास करता रहता है। शिक्षा के द्वारा उसे मानसिक शक्ति प्राप्ति होती रही है। समाज का शिष्ट एवं सभ्य नागरिक बनाने में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
व्यक्ति की सच्ची स्वतंत्रता निरक्षरता में नहीं, साक्षरता में है इसलिए हमारे देश के नेताओं ने देश की स्वतंत्रता से भी काफी पहले राष्ट्रीय विकास के माध्यम के रूप में शिक्षा के महत्त्व को अनुभव कर लिया था। वे यह जान चुके थे कि नैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान के लिए शिक्षा आवश्यक है। तभी गांधी जी ने बुनियादी शिक्षा की बात उठाई थी। हमारा नारा होना चाहिए था –
“कदम से कदम मिलाना है, सबको साक्षर बनाना है।
सपना साकार कर दिखाना है, बापू के सपनों का भारत बनाना है।।”
साक्षरता प्रतीक है – स्वतंत्रता एवं विकास की। शिक्षा ही गुलामी की जंजीरों तथा शोषण से हमारी रक्षा करती है। जब कोई व्यक्ति सूदखोर जमींदार को पढ़ने व समझने लगता है, जब एक खाली व कोरे कागज पर अँगूठा लगाने से इंकार कर देता है – तब होता है एक विस्फोट; जिसकी गूँज व लौ दूर-दूर तक महसूस की जा सकती है। फिर जन्म होता है – एक नए मानव का, एक साक्षर मानव का, एक स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर मानव का। इसके साथ ही समाज लेता है-एक नई अँगड़ाई, एक नई दिशा, एक नया मोड़। इसलिए-
“पहले – सा जीवन नहीं लाचार, बहुत आगे बढ़ गया है संसार।
शिक्षा में हमें बना के समर्थ, खोले सभी प्रगति के द्वारा॥”
निष्कर्ष : सभी को शिक्षा देने के आंदोलन में युवावर्ग एवं सेवानिवृत्त लोगों को बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए। इनका समाज के प्रति दायित्व भी है और उनहें पूरा करना भी चाहिए। सभी शिक्षित होंगे तो भारत शिक्षित बन जाएगा और तरक्की के रास्ते पर बढ़ चलेगा। इसी में हम सभी की भलाई है।
69. आज के विद्यार्थी के सामने चुनौतियाँ
अर्थ : आज का विद्यार्थी कल का नेता है। वही राष्ट्र का निर्माता है। वह देश की आशा का केन्द्र है। विद्यार्थी जीवन में वह जो सीखता है, वही बातें उसके भावी जीवन को नियंत्रण करती हैं। इस दृष्टि से उसे विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का पालन करना अनिवार्य हो जाता है।
‘विद्यार्थी’ शब्द विद्या + अर्थी के योग से बना है। इसका तात्पर्य है विद्या प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला। यों तो व्यक्ति सारे जीवन में कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है, किंतु बाल्यकाल एवं युवावस्था का प्रारम्भिक काल अर्थात् जीवन के प्रथम 25 वर्ष का समय विद्यार्थी काल है। इस काल में विद्यार्थी जीवन की समस्या चिंताओं से मुक्त होकर विद्याध्ययन के प्रति समर्पित होता है। इस काल में गुरु का महत्त्व अत्यधिक है। सद्गुरु की कृपा से ही विद्यार्थी जीवन के प्रति व्यावहारिक दृष्टि अपना सकते हैं अन्यथा मात्र पुस्तकीय ज्ञान उसे वास्तविक जीवन में कदम-कदम पर मुसीबतों का सामना कराता है यही समय विद्या ग्रहण करने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। कवि ने कहा है-
यही तुम्हारा समय, ज्ञान संचय करने का। संयम, शील, सुशील, सदाचारी बनने का॥
यह होगा संभव, अनुशासित बनने से। माता-पिता गुरु की आज्ञा पालन करने से॥
समस्याएँ : वर्तमान समय उतना सरल नहीं रह गया है विद्यार्थी वर्ग के सामने अनेक प्रकार की चुनौतियाँ हैं। हमारे देश के छात्रों की अपनी समस्याएँ हैं, जो यहाँ की परिस्थितियों की ही देन हैं। यहाँ की परिस्थितियाँ दूसरे देश में और दूसरे देश की परिस्थितियाँ यहाँ पर नहीं हैं, दोनों में पूरी तरह समानता नहीं हो सकती। प्रत्येक देश के युवा असंतोष के कारणों का स्वरूप उस देश की पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता हैं यही कारण है कि छात्र विक्षोभ के कारण भी सभी देशों में अलग-अलग होते हैं।
अगर हम विद्यार्थियों के विक्षोभ के कारणों की गहराई में जाएं तो हमें कई कारण आसानी से मिल जाएँगे। इनमें प्रमुख कारण है- आर्थिक असमानता। गाँवों और शहरों में आर्थिक असमानता के अनेक रूप देखे जा सकते हैं। गाँवों के संपन्न किसान या व्यवसायी की संतान यदि अध्ययनशील है तो शहर में भी आसानी से शिक्षा अर्जित की जा सकती है। पुत्र और पुत्री में भेद नहीं हो पाता, मगर गरीब के घर पुत्र को प्रथम वरीयता दी जाती है, भले ही पुत्री अधिक कर्मठ और मेधावी क्यों न हो। इससे उनके अंदर असंतोष की भावना पनपती है। संपन्न किसान की नालायक संतान शहर जाकर अपने को पैसे के बल पर शहरी तथा तथाकथित ‘माडर्न’ कहलाने में भी नहीं झिझकती। और इन सबका राजनीतिक प्रभाव के कारण प्रवेश पाने में सफल छात्र पढ़ाई को महत्त्व नहीं देते और दूसरी तरफ एक साधारण परिवार से परंतु मेधावी छात्र प्रवेश पाने में असफल होने पर असंतोष का शिकार हो जाता है।
कारण : युवा बेरोजगारी भी एक प्रमुख कारण है, छात्र- असंतोष का। आज की शिक्षा-पद्धति का ढाँचा ऐसा कोई दावा नहीं कर पाता कि ऊँची डिग्री पाकर भी छात्र अपने लिए एक अदद नौकरी पा सकता है। जब युवा वर्ग डिग्रियों का बंडल लिये एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर धक्के खाता फिरता है तो असंतोष और निराशा उसमें घर कर जाती है और इन सबसे उसमें असंतोष का लावा भर जाता है। यूँ तो युवा वर्ग की और भी अनेक समस्याएँ हैं, मगर सबसे ज्यादा आवश्यक है, उनका समाधान। भले ही वर्तमान सरकार ने इस विषय में कई कदम उठाए हैं, मगर इस विषय पर और भी गंभीरता से विचार करना आवश्यक है।
शिक्षा पद्धति को भी रोजगारोन्मुख बनाना होगा। शिक्षा ऐसी हो जिससे आर्थिक असमानता, असंतोष दूर हो और युवाओं के चरित्र निर्माण में सहायक हो। उपसंहार : आज के विद्यार्थी के सम्मुख देश में एकता की भावना उत्पन्न करने एवं नए समाज के निर्माण की चुनौतियाँ भी उपस्थित हैं। देश में आतंकवादी शक्तियाँ उभर रही हैं उन्हें टक्कर देने का काम आज का विद्यार्थी वर्ग ही कर सकता है। यह एक बहुत बड़ी समस्या है। इसका हल बहुत आवश्यक है। आज के विद्यार्थी के सामने देश के नव-निर्माण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की भी चुनौती है। विद्यार्थी से अपेक्षा की जाती है कि यह वर्ग देश को प्रगति की राह में आगे ले जाने के दायित्व का निर्वाह करेगा। उससे ऐसी अपेक्षा करना अनुचित नहीं है, पर असंतुष्ट विद्यार्थी भला देशोत्थान का काम क्या रुचिपूर्वक कर पाएगा? उसके असंतोष के कारणों को जानकर उनका निदान करना आवश्यक है।
70. भ्रष्टाचार : एक ज्वलंत समस्या
भूमिका : ‘भ्रष्टाचार’ शब्द की रचना दो शब्दों के मेल से हुई है- ‘भ्रष्ट’ तथा ‘आचार’। ‘भ्रष्ट’ के अर्थ से तो सभी लोग परिचित हैं और ‘आचार’ शब्द का अर्थ है- ‘आचरण’ या ‘व्यवहार’। इस तरह ‘भ्रष्टाचार’ वह आचरण है जो भ्रष्ट है, जो अच्छे आचरण या सदाचार का विरोधी है। हर समाज यही चाहता है कि उसके सदस्य सदाचारी हों, अच्छे-अच्छे कार्य करें, समाज ने जिन जीवनमूल्यों की स्थापना की है। सभी लोग उनका पालन करें, एक-दूसरे की मदद करें तथा एक-दूसरे के हित की चिंता करें। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि समाजसम्मत आचरण का अनुगमन करें। समाज या लोकसम्मत आचरण का अनुसरण करना ही ‘सदाचार’ है तथा इस लोकसम्मत आचरण से च्युत होना ही भ्रष्टाचार है।
भ्रष्टाचार का क्षेत्र : जिस तरह सदाचार में अनेक अच्छी बातों की हम संभावना करते हैं उसी तरह भ्रष्टाचार का क्षेत्र भी काफी विस्तृत है। बेईमानी, चोरी, तस्करी, पक्षपात, विश्वासघात, जमाखोरी, अनैतिक धन-संग्रह, भाई-भतीजावाद, खाने-पीने की चीजों में मिलावट, अधिक मुनाफा कमाना, धोखेबाजी, सट्टा व्यापार, देश के प्रति गद्दारी, अधिकारों का दुरुपयोग, काला धन आदि तो भ्रष्टाचार के अंतर्गत आते ही हैं। इनके अलावा किसी भी व्यक्ति को जानबूझकर पीड़ित करना भी भ्रष्ट आचरण ही है।
भ्रष्टाचार और सदाचार में अंतर : मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते हुए उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह सामाजिक नियमों, व्यवस्थाओं, परंपराओं का अनुसरण करते हुए मर्यादित आचरण करे परंतु जब मानव मन पर उसकी स्वार्थ एवं लालच से भरी प्रवृत्तियाँ हावी हो जाती हैं तब वह मर्यादित आचरण को भूलकर स्वेच्छाचारी हो जाता है और इसी स्वेच्छाचार से जन्म लेता है – भ्रष्टाचार। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति अपनी अपेक्षाओं और स्वार्थों के तंबू को आवश्यकता से अधिक फैला लेता है और उनको पूरा करने के लिए अनैतिक और अवैध रास्तों को अपनाता है तभी समाज में भ्रष्टाचार का उदय होता है और जब एक व्यक्ति के इस तरह के आचरण को देखकर अन्य लोग भी उसी तरह का आचरण करने लगते हैं तो सारा समाज ही भ्रष्ट हो जाता है। हमारा देश ही नहीं, भ्रष्टाचार की समस्या से आज सारा विश्व ही जूझ रहा है।
भ्रष्टाचार और राजनीति : भ्रष्टाचार को आज सभी समस्याओं में ऊपर रखा जाता है। आज शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ भ्रष्टाचार ने अपने कदम न पसारे हों। कभी यह सरकारी कार्यालयों तक ही सीमित रहता था, परंतु आज राजनीति के मंदिर, बाजार, अर्थ जगत् हर जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला है। भ्रष्टाचार के बोझ से दबकर मनुष्य की मनुष्यता छोटी और छोटी होती जा रही है। लोगों में सद्वृत्तियाँ घट रही हैं और असद्वृत्तियाँ बढ़ती जा रही हैं। मनुष्य अपनी भलाई के बाद परिजनों और संबंधियों की भलाई के लिए भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाता है और पकड़े जाने पर निर्लज्जता से स्वयं को दूसरे की साजिश का शिकार बताता है। वर्तमान राजनीति और हमारे कुछ माननीय इसके जीते-जागते उदाहरण हैं।
71. विकलांगों की समस्या तथा समाधान
भूमिका : भारत में 1981 का वर्ष विकलांग वर्ष के रूप में मनाया गया था। इस वर्ष को मनाने का प्रयोजन राष्ट्र तथा समाज का ध्यान ऐसे बच्चों तथा लोगों की ओर आकर्षित करना था जो शारीरिक या मानसिक दृष्टि से अपंग तथा विकलांग हों। प्रत्येक लोकप्रिय सरकार का यह दायित्व है कि वह विकलांगों के लिये जीविका के साधन जुटाये। जब तक कोई राष्ट्र सही रूप से विकलांगों की समस्या का समाधान नहीं करता है, तब तक उस राष्ट्र को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नत नहीं माना जा सकता है। सामान्यतया विकलांग व्यक्ति से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से होता है जो हाथ, पैर या आँख से विहीन है।
यद्यपि वैज्ञानिकों ने कृत्रिम हाथ, पैर इत्यादि की रचना करके विकलांगों की समस्या का सामाधान करने का प्रयास किया है, परन्तु फिर भी यह उनकी समस्या का पूर्ण समाधान नहीं है। विकलांगों की समस्या का समाधान करने के लिये उनके दिल में हौंसले को बढ़ाया जाना परम आवश्यक है। यदि हम किसी प्रकार से उनके मनोबल में वृद्धि कर देते हैं तो वे अपने जीवन का भार न समझते हुए उल्लासपूर्वक जीवनयापन करने में समर्थ हो सकेंगे। आज के भौतिकवादी और वैज्ञानिक युग में कोई भी व्यक्ति किसी भी क्षण विकलांग हो सकता है।
किसी व्यक्ति का हाथ या शरीर का कोई अंग जरा-सा असावधानी से मशीन में आ जाने पर वह विकलांग हो सकता है। कुछ व्यक्ति मन या मस्तिष्क की दृष्टि से या रोगग्रस्त होने पर भी विकलांग कहलाते हैं। कुछ बच्चे जन्म से ही विकलांग होते हैं एवं कुछ कालान्तर में किसी घटना के परिणास्वरूप विकलांग हो जाते हैं। विकलांग हमारे राष्ट्र के लिये एक बहुत बड़ी समस्या हैं एवं इस समस्या का शीघ्र से शीघ्र समाधान किया जाना आवश्यक है। हमारे देश में विकलांगों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है।
हमारे देश में सरकार ने अछूत, पिछड़ी जातियों, आदिवासियों, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक उत्थान के कार्य को प्राथमिकता दी है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि उनकी सामाजिक स्थिति दिन-प्रतिदिन सुधरती जा रही है, परन्तु यह बड़े दुःख का विषय है कि हमारी सरकार का ध्यान, विकलांगों की दयनीय तथा शोचनीय दशा की ओर नहीं गया है। यदि हमारी सरकार ने इसे संबंध में कुछ ध्यान दिया भी है तो वह बहुत कम है।
समस्या : आज देश में विकलांगों की समस्या इतना अधिक गंभीर बन चुकी है कि इस दिशा में तत्काल ठोस कदम उठाये जाने आवश्यक हैं। विकलांग भी हमारे समाज के उतने ही आवश्यक अंग हैं, जितने कि समाज के अन्य अंग। विकलांग व्यक्ति जैसी परिस्थितियों में जीवनयापन करते हैं, इसका अनुभव तो स्वयं उन्हें ही होता है। अतः ऐसी स्थिति में हमारी सरकार तथा समाज का यह दायित्व हो जाता है कि वह विकलांगों को यथासंभव आत्मनिर्भर बनाने में सहयोग दे। विकलांगों के प्रति भाईचारे की भावना बरतना मात्र ही विकलांगों की समस्या का समाधान नहीं है बल्कि इसके लिये ठोस कदम उठाये जाने जरूरी हैं। इस सम्बन्ध में सरकार को चाहिये कि वह जन्मजात विकलांगता की वृद्धि को रोकने के लिये, गर्भवती महिलाओं के लिये स्वास्थ्यप्रद एवं पौष्टिक आहार की व्यवस्था करे।
सरकार को चाहिये कि वह विकलांगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिये प्रशिक्षण की सुविधाएँ प्रदान करे, जिससे कि वे अपना जीवनयापन स्वयं करते हुए समाज पर बोझ न बन जायें। हमारी सरकार ने विकलांगों की समस्या का समाधान करने के लिये यद्यपि मूक-बधिर विद्यालय खोले हैं, परन्तु फिर भी ऐसे विद्यालय, विकलांगों की संख्या को देखते हुए काफी कम हैं। सरकार द्वारा ऐसे विद्यालय और भी अधिक संख्या में खोले जाने चाहिये। विकलांगों के लिये सरकारी नौकरियों में विशेष कोटा निर्धारित किया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त उन्हें आर्थिक क्षेत्र से भी आवश्यक सुविधायें प्रदान की जानी चाहिये, जिससे कि वह आत्महीनता की भावना से ग्रस्त न हो जायें।
प्रति वर्ष दिसंबर के प्रथम सप्ताह में विश्व विकलांग दिवस मनाया जाता है। भारत सरकार ने ‘विकलांग वर्ष’ को बड़ी धूमधाम से मनाया था। ‘विश्व विकलांग वर्ष’ में भारत सरकार के द्वारा विशेष डाक टिकट भी जारी किया गया था। इसके अतिरिक्त सरकार ने दूरदर्शन के माध्यम से विकलांगों के प्रशिक्षण के कार्यक्रमों को भी प्रदर्शित किया था, परन्तु विकलांगों की समस्या का समाधान करने के लिये केवल इतना मात्र करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि सरकार द्वारा इस सम्बन्ध में रचनात्मक प्रयास किये जाने चाहिये। यदि हमारी सरकार इस समस्या का समाधान करने के लिये सक्रिय एवं रचनात्मक कदम उठाती है तो यह हमारे देश के सर्वांगीण विकास की दिशा में एक ठोस एवं प्रभावी कदम होगा।
72. मेरे सपनों का भारत
भारत देश हमारे लिए स्वर्ग के समान सुंदर है। इसने हमें जन्म दिया है। इसके अन्न-जल से हमारा पालन-पोषण हुआ। इस देश का नाम भारतवर्ष है। आधुनिक भारत उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पूर्व में असम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ है। उत्तर में हिमालय का पर्वत भारतमाता के सिर पर हिममुकुट के समान सुशोभित है तथा दक्षिण में हिंद महासागर इसके चरणों को निरंतर धोता है।
भारत में प्रायः सभी धर्मों के लोग परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं। यहाँ सभी धर्मावलंबियों को अपनी-अपनी उपासना पद्धति तथा सामाजिक व्यवस्था का अनुसरण करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। भारत का आदर्श वाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ है, जिसका अर्थ है- सारा संसार एक कुटुंब के समान है। प्राकृतिक सुंदरता की दृष्टि से भारत एक अद्भुत देश है। यहाँ हिमालय का पर्वतीय प्रदेश है गंगा-यमुना का समतल मैदान है, पर्वत एवं समतल मिश्रित दक्षिण पठार है, राजस्थान का रेगिस्तान है। इस प्रकार विभिन्न प्रकार के भूमि-भाग यहाँ विद्यमान हैं और विभिन्न प्रकार जलवायु यहाँ पाई जाती है।
यही एक देश है, जहाँ समय-समय पर छः ऋतुएँ आती हैं और अपनी-अपनी विशेषताओं से इस देश को अनुगृहीत करती हैं। भारत में पर्वत, निर्झर, नदियाँ, वन- उपवन, हरे-भरे मैदान, रमणीय समुद्र-तट इस देश के विविध प्रकार की शोभा के अंग हैं। धरती का स्वर्ग एक ओर कश्मीर में दिखाई देता है, तो दूसरी ओर केरल में। संसार का सबसे ऊँचा पर्वत माउंट एवरेस्ट भारत में है। यहाँ अनेक नदियाँ हैं, जिनमें सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब, गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, कृष्णा आदि प्रमुख हैं।
भारत एक अत्यंत प्राचीन देश है। यहाँ अनेक महापुरुष हो चुके हैं, जिन्होंने मानव को संस्कृति का पाठ पढ़ाया, यहाँ ऋषि हुए, जिन्होनें वेदों का गान किया। राम हुए, जिन्होंने न्यायपूर्ण शासन का आदर्श स्थापित किया। कृष्ण हुए, जिन्होंने गीता का गान करके कर्म का पाठ पढ़ाया। भारत में विभिन्न राज्य हैं। अनेक नगर और गाँव हैं। अनेक जातियों के लोग हैं। रहन-सहन, वेश-भूषा में भिन्नता होते हुए भी इस देश के निवासियों में एक प्रकार की समान संस्कृति भी मौजूद है। यहाँ की विविधता में एकता इसका भूषण है। भारत की राजधानी दिल्ली है, राष्ट्रभाषा हिंदी है, राष्ट्रीय चिह्न अशोक स्तंभ के सिंह हैं, राष्ट्रगान ‘जन-गण-मन’ है। राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ है, राष्ट्रीय पशु ‘बाघ’ है, राष्ट्रीय पक्षी ‘मोर’ है। भारत का राजकीय आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ है।
मेरा भारत महान है। भारत एक उदार देश है। यहाँ सभी आगुंतकों का सम्मान किया जाता है। विदेशी भी कह उठते हैं- यह मधुमय देश हमारा, जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक किनारा।’ मुझे अपना देश भारत बहुत प्रिय है। यद्यपि यहाँ अभी अनेक चुनौतियाँ हैं; जैसे- गरीबी की समस्या, अशिक्षा की समस्या, बेरोजगारी की समस्या, महँगाई की समस्या, आवास की समस्या आदि, फिर भी भारत निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है। मुझे अपने देश पर गर्व है।
73. रैपिड रेल
दिल्ली की परिवहन व्यवस्था को सुधारने के प्रयास पिछले एक दशक से चल रहे हैं। इसी के अंतर्गत दिल्ली को मेट्रो जैसा वर्ल्ड क्लास पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम मिला। मोनो रेल प्रोजेक्ट पर भी काम चल रहा है। अब इसी कड़ी में अगला महत्त्वपूर्ण पड़ाव होगा ‘ रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम’ (R.R.T.S.). जिसे ‘रैपिड रेल’ कहा जा रहा है। इससे मेरठ, पानीपत और अलवर जैसे नगरों तक पहुँचना काफी आसान और आरामदायक हो जाएगा।
‘रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम’ न केवल एन. सी. आर. में शामिल यू.पी. और हरियाणा के इलाकों को सीधे दिल्ली से जोड़ेगा, बल्कि यह पहला ऐसा सुपरफास्ट ट्रांजिट सिस्टम होगा जो राजस्थान के आने वाले एन. सी. आर. के हिस्से को भी कवर करेगा। रैपिड रेल प्रोजेक्ट की सबसे बड़ी विशेषता यह होगी कि इसके द्वारा दिल्ली और एन. सी. आर. के दूरदराज के इलाके भी एक वर्ल्ड क्लास ट्रांसपोर्ट सिस्टम के द्वारा आपस में सीधे जुड़ जाएँगे। इतना ही नहीं रैपिड रेल से आने वाले यात्रियों को आगे की यात्रा के लिए मेट्रो, राज्य की बसें, डी. टी. सी. बसें और ट्रेनें भी आसानी से मिल जाएँगी।
इस प्रोजेक्ट के फेज-1 के लिए शुरूआत में तीन कॉरिडोरों की पहचान की गई है – दिल्ली-पानीपत, दिल्ली-मेरठ और दिल्ली – अलवर। ये तीनों ही कॉरिडोर दिल्ली को यू.पी, हरियाणा और राजस्थान जैसे तीन पड़ोसी राज्यों से जोड़ेंगे। इनके माध्यम से लोग कम समय में और कम पैसों में आरामदायक तरीके से अपने गंतव्य तक पहुँच सकेंगे।
पहला कॉरिडोर होगा – दिल्ली-मेरठ।
इसकी लंबाई होगी – 90.2 कि.मी.। इसमें 60 कि.मी. एलिवेटेड सेक्शन होगा तथा 302 कि.मी. अंडरग्राउंड सेक्शन होगा। इस रेल की स्पीड 160 कि.मी. प्रति घंटा होगी। अभी मेरठ पहुँचने में दो से ढाई घंटे लगते हैं। रैपिड रेल 62 मिनट में मेरठ पहुँचा देगी। इस रेल की फ्रीक्वेंसी 5 मिनट होगी। इस प्रोजेक्ट पर लगभग 16,592 करोड़ रुपयों की लागत आएगी। मेरठ से दिल्ली नौकरी, व्यापार तथा दूसरे कामों के लिए बहुत लोग रोजाना आते हैं। उन्हें इससे काफी सुविधा हो जाएगी। 2020 तक यह कॉरिडोर शुरू हो जाएगा।
रैपिड रेल का दूसरा कॉरिडोर हरियाणा के सोनीपत और पानीपत को दिल्ली से जोड़ेगा। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह होगी कि यह कॉरिडोर उत्तर पश्चिम और बाहरी दिल्ली के ग्रामीण इलाकों से होता हुआ गुजरेगा। अतः दिल्ली के ये क्षेत्र भी इस योजना से जुड़ जाएँगे। इससे लोगों का टैवल टाइम बहुत कम हो जाएगा, वहीं ट्रैफिक जाम से भी मुक्ति मिलेगी। लोग अपने व्यक्तिगत वाहन छोड़कर रैपिड रेल से ही यात्रा करेंगे। इससे सड़क पर परिवहन का भार कम हो जाएगा।
दिल्ली से पानीपत के बीच की कई महत्त्वपूर्ण जगहें रैपिड रेल से सीधी जुड़ जाएँगी। इनमें मुरथल, गन्नौर, समालखा, पानीपत सिटी प्रमुख हैं। दिल्ली-पानीपत के बीच का ट्रैवल टाइम 74 मिनट होगा। इस कॉरिडोर की लंबाई होगी – 111.2 कि.मी.। इसमें 100.7 कि.मी. एलिवेटेड सेक्शन होगा। इस प्रोजेक्ट पर 14,638 करोड़ रुपए व्यय होने का अनुमान है। यह कॉरिडोर 7 साल में पूरा होगा।
इस योजना का तीसरा कॉरिडोर है – दिल्ली – अलवर। अभी तक अलवर पहुँचने में 4 घंटे लगते हैं। रैपिड रेल में यही सफर 117 मिनट में पूरा होगा। रैपिड रेल दिल्ली और अलवर के बीच आने वाले लोगों का सफर आसान बनाने वाली साबित होगी। दिल्ली के लोगों के लिए भी यह कॉरिडोर बेहद काम का साबित होगा, क्योंकि तीनों कॉरिडोरों में यह इकलौता ऐसा कॉरिडोर है, जिसके 6 स्टेशन दिल्ली में बनेंगे, जबकि 11 स्टेशन हरियाणा में और 2 स्टेशन राजस्थान में होंगे।
इस कॉरिडोर की एक अन्य विशेषता यह होगी कि इसके जरिए लोग रैपिड रेल के दो अन्य कॉरिडोर पर इंटरचेंज भी कर सकेंगे। एक तरफ जहाँ रैपिड रेल का दिल्ली-पानीपत कॉरिडोर कश्मीरी गेट से शुरू होगा, वहीं दिल्ली – अलवर कॉरिडोर का पहला और अंतिम स्टेशन कश्मीरी गेट ही होगा। इस कॉरिडोर का एक स्टेशन सराय काले खाँ पर भी बनेगा। ऐसे में सराय काले खाँ से लोग दिल्ली-मेरठ कॉरिडोर पर भी इंटरचेंज कर सकेंगे। मेरठ कॉरिडोर सराय काले खाँ से ही शुरू होगा।
दिल्ली – अलवर कॉरिडोर न केवल रेल का एक बड़ा इंटरचेंज कॉरिडोर साबित होगा, बल्कि यह दिल्ली के दो बड़े रेलवे स्टेशनों और अंतर्राज्यीय बस अड्डों को भी आपस में जोड़ देगा। इससे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन और हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन सीधे जुड़ जाएँगे, वहीं कश्मीरी गेट बस अड्डा व सराय काले खाँ बस अड्डा भी जुड़ जाएँगे। यह कॉरिडोर दिल्ली और गुड़गाँव के 8 मेट्रो स्टेशनों से भी जुड़ा होगा। इस कॉरिडोर की लागत 24,595 करोड़ रुपए होगी। यह 6 साल में बनकर तैयार होगा। 2021 से शुरू करने का लक्ष्य है।
74. वन महोत्सव
वनों के जीवन- प्रदाता मूल्य को ध्यान में रखते हुए कहा गया है- “जो मनुष्य लोगों के हित के लिए वृक्ष लगाता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है। वृक्ष लगाने वाला मनुष्य अपने तीन हज़ार भूत और भावी पितरों को मोक्ष दिलाने में सहायक होता है। ”
कृषि – प्रधान देश भारत प्रमुख रूप से वर्षा पर ही निर्भर करता है; सघन वन वर्षा कराने में सहायक होते हैं। अतः वन हमारे आर्थिक तंत्र की प्रमुख धुरी हैं। कहा जाता है कि ‘वृक्ष ही जल हैं, जल रोटी है और रोटी ही जीवन है।’ वनों से हमें अनेक प्रकार की वस्तुएँ स्वाभाविक रूप से मिलती रहती हैं। ईंधन के साथ-साथ इमारती लकड़ी, गोंद, लाख, तेल, समस्त प्रकार के फल आदि सभी कुछ तो वनों से ही मिलता है।
वन प्रदूषण जैसी समस्या का एकमात्र हल है। जैसे-जैसे देश औद्योगिकी क्रांति की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे चिमनियों से उठता धुआँ और गैस आदि से प्रदूषण का खतरा पैदा हो रहा है। वातावरण से इस प्रदूषण को वन सोख लेता है और ऑक्सीजन देकर वायुमंडल को स्वच्छ कर देता है।
वृक्ष हमारी सुरुचिपूर्ण प्रकृति के भी प्रतीक हैं। हमारी सौंदर्य – भावना लहलहाते वृक्षों को देखकर संतुष्ट होती है। घरों के सामने और पार्कों में झूमती वृक्षावलियाँ हमारी उदासी, तपन और गर्मी को शांत करके हमें भीनी सुगंध और शीतलता से भर देती हैं।
भारत-भूमि सघन वनों की भूमि रही है, लेकिन हमारी नासमझी और स्वार्थ वृत्ति की वजह से जैसे-जैसे हम वनों को काटते गए, वैसे-वैसे भारत निर्धन होता गया। वनों के कटने से एक ओर कम वर्षा ने, तो दूसरी ओर तापमान वृद्धि से बाढ़ ने भारत को कंगाल बनाना शुरू कर दिया। प्रदूषण बढ़ गया और प्राणिमात्र को जीवन का खतरा पैदा हो गया।
हालाँकि 1950 से वन महोत्सव के रूप में एक आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन में अधिक से अधिक वृक्ष लगाने पर जोर दिया जाता है लेकिन अभी भी यह आंदोलन जन-आंदोलन नहीं बना है। कई बार पेड़ तो लगा दिए जाते हैं, लेकिन उचित रख-रखाव के अभाव में वे सूख जाते हैं। सारा परिश्रम बेकार हो जाता है। वस्तुतः अधिकतर मामलों में वन महोत्सव दिखावा बनकर रह गया है। जब तक इस काम को पूरे मनोयोग से नहीं किया जाएगा, तब तक यह फलदायी नहीं होगा। कुल मिलाकर वन हमारी अमूल्य निधि हैं, जीवन हैं, वर्तमान और भविष्य हैं; साथ-साथ वन हमारे विकास सूचक आर्थिक तंत्र की धुरी हैं।
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