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Class 12 Hindi Antral Chapter 4 Question Answer अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antral Chapter 4 अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में

Class 12 Hindi Chapter 4 Question Answer Antral अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में

प्रश्न 1.
मालवा में जब सब जगह बरसात की झड़ी लगी रहती है तब मालवा के जन-जीवन पर इसका क्या असर पड़ता है?
उत्तर :
मालवा में जब सब जगह बरसात की झड़ी लगी रहती है, तब मालवा का सारा जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। बरसात का पानी घरों में घुस आता है। तब कुएँ, बावड़ी और तालाब-तलैया पानी से लबालब भर जाते हैं। नदी-नाले उफनने लगते हैं। फसलें खूब लहलहाने लगती हैं। इससे गाँव की विपुलता का पता चलता है। तब लगता है मालवा खूब पाक्यो है। इस बरसात से जहाँ जन-जीवन प्रभावित होता है, वहीं यह लोगों के जीवन में समृद्धि लाता है। अब मालवा में वैसी बरसात नहीं होती, जैसी पहले हुआ करती थी। अब तो औसत पानी गिरे तो भी लोगों को लगता है कि ज्यादा बरसात हो गई है। चालीस बरसात को वे अत्ति बोलने लगते हैं। अब तो लोगों द्वारा बरसात की झड़ी लगने पर फोन करके पूछा जाने लगता है कि कहीं खतरा तो नहीं उत्पन्न हो गया।

प्रश्न 2.
अब मालवा में वैसा पानी नहीं गिरता, जैसा गिरा करता था। इसके क्या कारण हैं?
उत्तर :
अब मालवा में वैसी बरसात नहीं होती, जैसी पहले हुआ करती थी। इसके कारण हैं-

  • कास की औद्योगिक सभ्यता ने सब कुछ उजाड़कर रख दिया है। इससे पर्यावरण बिगड़ा है। इस पर्यावरणीय विनाश से मालवा भी नहीं बच पाया है।
  • वातावरण को गर्म करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। वातावरण के गर्म होने से यह सब गड़बड़ी हो रही है।
  • अब मालवा के लोग ही मालवा की धरती को उजाड़ने में लगे हैं।

प्रश्न 3.
हमारे आज के इंजीनियर ऐसा क्यों समझते हैं कि वे पानी का प्रबंध जानते हैं और पहले जमाने के लोग कुछ नहीं जानते थे?
उत्तर :
हमारे आज के इंजीनियर अपने आपको बहुत चतुर और बुद्धिमान मानते हैं। उनके विचारानुसार पहले जमाने के लोग कुछ भी नहीं जानते थे। उन्हें अपने बारे में बहुत बड़ी गलतफहमी है। उनके अनुसार ज्ञान पश्चिम से आया था भारत के लोग कुछ नही जानते-समझत थं। उनके मत में रिनसां के वाद ही लोगों में ज्ञांन फा प्रसार हुआ। वं भांत धारणा के शिकार हैं। यह सब उनकी पाश्चात्य शिक्जा एवं तथाकथित ज्ञान के प्रति अंधमोह है।

प्रश्न 4.
मालवा में विक्रमादित्य, भोज और मुंज रिनेसा के बहुत पहले हो गए। पानी के रखरखाव के लिए उन्होंने क्या प्रबंध किए?
उत्तर :
मालवा में विक्रमादित्य, भोज और मुंज आदि राजा पानी का महत्त्व भली प्रकार समझते थे। ये राजा जानते थे कि पठार पर पानी को रोक कर रखना होगा। उन्होंने इसके लिए भरपूर प्रयास किए। उन्होंने तालाब बनवाए और बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ बनवाई ताकि बरसात के पानी को रोककर रखा जा सके और धरती के पानी को जीवंत रखा जा सके। हमारे आज के इंजीनियरों ने तालाबों को गाद से भर जाने दिया गया और जमीन के पानी को पाताल से भी निकाल दिया। इससे नदी नाले सूख गए। जिस मालवा में पग-पग पर पानी था, वही मालवा सूखा हो गया।

प्रश्न 5.
‘हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को अपने गंदे पानी के नाले बना रही है’ – क्यों और कैसे?
उत्तर :
हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को गंदे पानी के नाले बना रही है। इसका कारण है आज का औद्योगिक विकास। उद्योगों का कूड़ा-कचरा इन नदियों में गिर रहा है और नदियों कें पानी को गंदला कर रहा है। हम भी अपने शहर की गंदगी को इन नदियों में बहाकर इन्हें गंदे नाले के रूप में परिणत कर रहे हैं। आज की औद्योगिक सभ्यता ने अपसंस्कृति को बढ़ावा दिया है। यह अपसंस्कृति नदियों की पवित्रता पर ध्यान नहीं देती। अब नदियों के प्रति माँ का भाव मिटता चला जा रहा है।

प्रश्न 6.
लेखक को क्यों लगता है कि ‘हम जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं वह उजाड़ की अपसभ्यता है।’ आप क्या मानते हैं?
उत्तर :
लेखक को ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि हम एक गलतफहमी के शिकार हो रहे हैं। जिसे हम विकास की औद्योगिक सभ्यता समझने का भ्रम पाले हुए हैं, वह वास्तव में विकास न होकर उजाड़ की ओर ले जा रही है। यह अपसभ्यता है। पाश्चात्य दृष्टिकोण से अपनाई जा रही सभ्यता हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। यह हमें उजाड़कर रख देगी। यह बर्बाद करने वाली है। यह मानव जाति और प्रकृति दोनों का विनाश करने पर तुली है।

इस सभ्यता ने पर्यावरणीय असंतुलन पैदा कर दिया है, मौसम का चक्र बिगाड़ कर रख दिया है। यह खाऊ-उजाडू सभ्यता यूरोष और अमेरिका की देन है जिसके कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्ययता बन गई है। इससे पूरी दुनिया प्रभावित हुई है, पर्यावरण बिगड़ा है। लेखक की पर्यावरण संबंधी चिता सिफ्फ मालवा तक सीमित न होकर सार्वभौमिक हो गई है। अमेरिका की खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति, संस्कृति, सभ्यता तथा अपनी धरती को उजाड़ने में लगे हुए हैं।

इस बहाने लेखक ने खाऊ-उजाड्ू जीवन पद्धति के द्वारा पर्यावरण विनाश की पूरी तस्वीर खींची है जिससे मालवा भी नहीं बच सका है। आधुनिक औद्योगिक विका ने हमें अपनी जड़-जमीन से अलग कर दिया है सही मायनों में हम उजड़ रहे हैं। लेखक ने पर्यावरणीय सरोकारों को आम जनता से जोड़ दिया है तथा पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत किया है।

प्रश्न 7.
धरती का वातावरण गर्म क्यों हो रहा है? इसमें यूरोप और अमेरिका की क्या भूमिका है? टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
धरती का वातावरण इसलिए गर्म हो रहा है क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। इसमें यूरोप और अमेरिका की बड़ी भूमिका है। कार्बन डाइऑक्साइड गैसें सबसे ज्यादा अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों से ही निकलती हैं। अमेरिका इन्हें रोकने को तैयार नहीं है। वह इस बात को मानता ही नहीं कि धरती के वातावरण के गर्म होने से यह सब गड़बड़ी हो रही है। वह इस खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति पर कोई समझौता नहीं करने वाला। अत: धरती के वातावरण के गर्म होने में इन देशों की बहुत बड़ी भूमिका है।

योग्यता विस्तार –

प्रश्न 1.
क्या आपको भी पर्यावरण की चिंता है अगर है तो किस प्रकार? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
हाँ, हमें भी पर्यांवरण की चिंता है। हम अपने पर्यावरण को प्रदूषित होते हुए नहीं देख सकते। हम हर संभव प्रयास करते हैं कि पर्यावरण में प्रदूषण न फैले। हम अपने वाहनों में प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन-तेल का प्रयोग नहीं करते, वृक्षों को नहीं काटते। कल-कारखानों से निकलने वाले धुएँ से बचने का प्रयास करते हैं।

प्रश्न 2.
विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता है, खाऊ-उजाडू सभ्यता के संदर्भ में हो रहे पर्यावरण के विनाश पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता है। खाऊ-उजाडू सभ्यता ने पर्यावरण का विनाश किया है।
‘पर्यावरण’ शब्द ‘परि’ तथा आवरण के योग से बना है।
‘परि’ का अर्थ है-चारों ओर तथा ‘आवरण’ का अर्थ है-‘ ढकने वाला’ अर्थात् जो चारों ओर फैलकर हमें ढके हुए है। प्रकृति ने हमारे लिए एक स्वस्थ एवं सुखद आवरण का निर्माण किया था, परन्तु मनुष्य ने भौतिक सुखों की होड़ में उसे दूषित कर दिया है। वर्तमान समय में शहरी सभ्यता प्रदूषण की समस्या से घिरी हुई है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक उपकरण बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे प्रदूषण का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण के इस प्रदूषण से लोगों का जीवन दूभर होता जा रहा है। सरकार भी इस समस्या के प्रति जागरूक प्रतीत होती है।

प्रदूषण के कारणों की खोज करने पर प्रतीत होता है कि अंधाधुंध वृक्षों की कटाई, जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि, उद्योगों का अनियमित फैलाव, चिमनियों से आबादी के मध्य धुआँ उगलना एवं यातायात के साधनों की अभूतपूर्व वृद्धि आदि ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। कारखानों का रासायनिक जल नदियों में डाल दिया जाता है। शहरों का गंदा पानी बिना साफ किए नदियों में मिला दिया जाता है। जहाजों द्वारा समुद्रों में तेल गिरा दिया जाता है। वाहन धुआँ छोड़ते हैं और वायुमण्डल को प्रदूषित करते हैं। इस प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ पनपती है।

प्रदूषण कई प्रकार का होता है-1. जल-प्रदूषण, 2. वायु-प्रदूषण, 3. भूमि-प्रदूषण, 4 ध्वनि प्रदूषण।

जल मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है। स्वच्छ एवं निरापद पीने का पानी न मिलने के कारण अधिकांश लोग गंभीर रोगों का शिकार हो रहे हैं। जल-प्रदूषण के लिए अधिकतर कारखाने जिम्मेदार हैं। जल में अनेक विषाक्त तत्त्व मिलकर उसे अनुपयोगी बनाते हैं। शहरों के गंदे नाले भी नदियों में जाकर गिरते हैं। इससे उनका जल दूषित होता है। जल-प्रदूषण के कारण पेट के रोग बढ़ रहे हैं।

वायु में भी प्रदूषण फैल रहा है। वाहनों द्वारा छोड़ा गया धुआँ तथा कारखानों की चिमनियों से निकला धुआँ वातावरण को दूषित करता है। वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने के लिए वृक्षारोपण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। वृक्ष ऑक्सीजन छोड़ते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं, अतः यह चक्र ठीक बना रहता है। वनों के संरक्षण एवं संवर्धन द्वारा वायु प्रदूषण को रोका जा सकता है। वायु-प्रदूषण के कारण साँस के रोग बढ़ रहे हैं। ध्वनि-प्रदूषण भी शहरों में बढ़ता जा रहा है। बसों के हॉन तथा मशीनों के चलने से उठने वाली भारी कर्कश आवाज से यह प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इससे बहरेपन का खतरा बढ़ रहा है। इससे उच्च रक्तचाप, तेज सिर दर्द, अनिद्रा आदि रोग भी हो सकते हैं। इस पर काबू पाया जाना जरूरी है।

भूमि को स्वच्छ रखना चाहिए। हरियाली बनाए रखने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए। कारखानों के गंदे पानी तथा रासायनिक कचरे से भूमि प्रदूषण बढ़ता है। इस पर भी काबू पाया जाना चाहिए। आबादी नियंत्रण करने से प्रदूषण का खतरा कम होता है। प्रदूषण के प्रति जन-चेतना जागृत करनी आवश्यक है।

3. पर्यावरण को विनाश से बचाने के लिए आप क्या कर सकते हैं? उसे कैसे बचाया जा सकता है? अपने विचार लिखिए।

* पर्यावरण को विनाश से बचाने के लिए हम निम्नलिखित उपाय कर सकते हैं-

  • अधिक से अधिक वृक्ष लगाएँगे।
  • वृक्षों को काटने से रोकेंगे।
  • धुआँ देने वाले वाहनों का प्रयोग नहीं करेंगे।
  • वातावरण में गंदगी नहीं फैलाएँगे।
  • पानी की शुद्धता बनाए रखेंगे।
  • ध्वनि बढ़ाने वाले उपकरणों का प्रयोग नहीं करेंगे।
  • हम जगह-जगह कूड़ा कचरा नहीं फेकेंगे।

पर्यावरण को बचाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करना होगा। इसमें सरकार के साथ जनता की भागीदारी भी आवश्यक है। ‘भागीदारी योजना’ इस दिशा में सार्थक पहल है।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antral Chapter 4 अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में

प्रश्न 1.
विकास की औद्यागिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता है, खाऊ-उजाडू सभ्यता के संदर्भ में हो रहे पर्यावरण के विनाश पर प्रकाश अपने शब्दों में डालिए।
उत्तर :
विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता है। खाऊ-उजाडू सभ्यता ने पर्यावरण का विनाश किया है।
‘पर्यावरण’ शब्द ‘परि’ तथा आवरण के योग से बना है।
‘परि’ का अर्थ है-चारों ओर तथा ‘ आवरण’ का अर्थ है-‘ ढकने वाला’ अर्थात् जो चारों ओर फैलकर हमें ढके हुए है। प्रकृति ने हमारे लिए एक स्वस्थ एवं सुखद आवरण का निर्माण किया था, परन्तु मनुष्य ने भौतिक सुखों की होड़ से उसे दूषित कर दिया है। वर्तमान समय में शहरी सभ्यता प्रदूषण की समस्या से घिरी हुई है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक उपकरण बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे प्रदूषण का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण के इस प्रदूषण से लोगों का जीवन दूभर होता जा रहा है। सरकार भी इस समस्या के प्रति जागरूक प्रतीत होती है।

प्रदूषण के कारणों की खोज करने पर प्रतीत होता है कि अंध शुंध वृक्षों की कटाई, जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि, उद्योगों का अनियमित फैलाव, चिमनियों से आबादी के मध्य धुआँ उगलना एवं यातायात के साधनों की अभूतपूर्व वृद्धि आदि ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। कारखानों का रासायनिक जल नदियों में डाल दिया जाता है। शहरों का गंदा पानी बिना साफ किए नदियों में मिला दिया जाता है। जहाजों द्वारा समुद्रों में तेल गिरा दिया जाता है।
वाहन धुआँ छोड़ते हैं और वायुमण्डल को प्रदूषित करते हैं। इस प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ पनपती हैं।
प्रदूषण कई प्रकार का होता है-1. जल-प्रदूषण, 2. वायु-प्रदूषण, 3. भूमि-प्रदूषण, 4. ध्वनि प्रदूषण।

प्रश्न 2.
लेखक को क्या लगता है कि ‘हम जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं वह उजाड़ की अपसभ्यता है।’ आप क्या मानते हैं?
उत्तर :
लेखक को ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि हम एक गलतफहमी के शिकार हो रहे हैं। जिसे हम विकास की औद्यागिक सभ्यता समझने का भ्रम पाले हुए हैं, वह वास्तव में विकास न होकर उजाड़ की ओर ले जा रही है। यह अपसभ्यता है। पाश्चात्य दृष्टिकोण से अपनाई जा रही सभ्यता हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। यह हमें उजाड़कर रख देगी। यह बर्बाद करने वाली है। यह मानव जाति और प्रकृति दोनों का विनाश करने पर तुली है। इस सभ्यता ने पर्यावरणीय असंतुलन पैदा कर दिया है, मौसम का चक्र बिगाड़ कर रख दिया है। यह खाऊ-उजाडू सभ्यता यूरोप और अमेरिका की देन है जिसके कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बन गई है।

इससे पूरी दुनिया प्रभावित हुई है, पर्यावरण बिगड़ा है। लेखक की पर्यावरण संबंधी चिंता सिर्फ मालवा तक सीमित न होकर सार्वभौमि हो गई है। अमेरिका की खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति, संस्कृति, सभ्यता तथा अपनी धरती को उजाड़ने में लगे हुए हैं। इस बहाने लेखक ने खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति के द्वारा पर्यावरण विनाश की पूरी तस्वीर खीची है जिससे मालवा भी नहीं बच सका है। आधुनिक औद्योगिक विकास ने हमें अपनी जड़-जमीन से अलग कर दिया है सही मायनों में हम उजड़ रहे हैं। लेखक ने पर्यावरणीलय सरोकारों को आम जनता से जोड़ दिया है तथा पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत किया है।

प्रश्न 3.
आज के इंजीनियर ऐसा क्यों समझते हैं कि वे पानी का प्रबंध जानते हैं और पहले जमाने के लोग कुछ नहीं जानते थे ? क्या आप भी ऐसा समझते हैं ?
उत्तर :
आज के इंजीनियरों में यह प्रवृत्ति निम्न कारणों से आयी है-
– पश्चिमी शिक्षा के कारण
– अति आत्मविश्वास के कारण
– भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की उपेक्षा के कारण। आज के इंजीनियर यह समझते हैं कि वे पानी का बेहतर प्रबंध करना जानते हैं, जबकि पहले जमाने के लोग इस बारे में कुछ नहीं जानते थे। पर वे भ्रम के शिकार हैं। वे तो समझते हैं कि ज्ञान तो पश्चिम के रिनेसां के बाद ही आया। उन्हें भारतीय इतिहास की सही जानकारी नहीं है। मालवा में विक्रमादित्य, भोज और मुंज रिनेसां से बहुत पहले हो गए हैं। उन्हें पानी की समस्या का हल करना आता था। ये राजा जानते थे कि इस पठार पर पानी को रोकना होगा। इसके लिए इन सबने तालाब बनवाए, बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ बनवाई ताकि बरसात का पानी रुका रहे और धरती के गर्भ के पानी को जीवंत रखा जा सके। हमारे आज के नियोजकों तथा इंजीनियरों ने तालाबों का महत्त्व नहीं समझा और उन्हें गाद से भर जाने दिया और जमीन के पानी को पाताल से भी निकाल लिया। इससे नदी-नाले सूख गए। पग-पग पर नीर वाला मालवा सूख गया।
नहीं, हम ऐसा नहीं समझते। पहले लोग भी पानी का प्रबंध करना जानते थे।

प्रश्न 4.
‘हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को अपने गंवे पानी के नाले बना रही है।’ क्यों और कैसे ? अपने विचार लिखिए।
उत्तर :
हमारी आज की सभ्यता तेजी से औद्योगिक विकास की ओर अग्रसर है। मालवा की नदियाँ जल से भरी रहती थीं। हाथीपाला नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि कभी वहाँ की नदी को पार करने के लिए हाथी पर बैठना पड़ता था। चंद्रभागा पुल के नीचे उतना पानी रहा करता था जितना महाराष्ट्र की चंद्रभागा नदी में। इंदौर के बीच से निकलने वाली नदियाँ कभी इस क्षेत्र को हरा-भरा और गुलजार रखती थीं। आज स्थिति बद से बदतर हो गई है।

आज ये नदियाँ सड़े नालों में बदल गई हैं। शिप्रा, चंबल, गंभीर, पार्वती, कालीसिंध, चोरल आदि नदियों के यही हाल हैं। कभी ये नदियाँ सदानीरा कहलाती थीं, पर अब ये मालवा के गालों के आँसू, भी नहीं बहा सकतीं। अब तो ये नदियाँ वर्षा के चौमासे में ही चलती हैं। आज तथाकथित विकास की सभ्यता ने इन नदियों को गंदे पानी के नाले में बदल दिया है। इसके कुछ अन्य कारण निम्नलिखित हैं-

महत्त्वाकांक्षाओं का बढ़ना : मानव की महत्त्वाकांक्षाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही हैं। वह नित्य नए प्रयोग कर रहा है। उद्योग-धंधों का तेजी से विकास हो रहा है। इनका कूड़ा-कचरा नदियों में गिर रहा है जिससे नदियाँ गंदे नाले में परिवर्तित हो रही हैं। धार्मिक आस्थाएँ : धार्मिक परंपराओं, आस्थाओं और विश्वासों के कारण हम जल को प्रदूषित कर रहे हैं। अंतिम संस्कार करना, राख व अस्थियों को नदी के जल में प्रवाहित किया जाता है। अनेक अवसरों पर मूर्तियाँ भी नदी के जल में विसर्जित की जाती हैं।

बढ़ती जनसंख्या : अंधाधुंध बढ़ती जनसंख्या को अधिक मात्रा में पानी चाहिए। अब ये नदियाँ उसकी पूर्ति में सूखती चली जा रही हैं।

प्रश्न 5.
मालवा पहुँचकर लेखक का किस प्रकार के वातावरण से सामना हुआ?
उत्तर :
जब लेखक मालवा की धरती पर पहुँचा तब वहाँ के वातावरण को देखकर उसे लगा कि उगते सूरज की निथरी कोमल ध प तो राजस्थान में ही रह गई। मालवा आसमान बादलों से छाया हुआ था। वहाँ काले भूरे बादल थे। थोड़ी देर में लगने लगा कि चौमासा अभी गया नहीं है। जहाँ-जहाँ भी पानी भरा हुआ रह सकता था लबालब भरा हुआ था मटमैला बरसाती पानी। जितने भी छोटे-मोटे नदी-नाले दिख रहे थे, सब बह रहे थे। इससे ज्यादा पानी अब यह धरती सोख के रख नहीं सकती थी। ऊपर से बादल कि कभी भी बरस सकते थे।

उस दिन नवरात्रि की पहली सुबह थी। मालवा में घट स्थापना की तैयारी हो रही थी। गोबर से घर-आँगन लीपने और मानाजी के ओटले की रंगोली से सजाने की सुबह थी। बहू-बेटियों के नहाने-ध ने और सज कर त्योहार मनाने में लगी थी लेकिन आसमान तो घऊँ-घऊँ कर रहा था। रास्ते में छोटे स्टेशनों पर महिलाओं की ही भीड़ थी। लेखक उजली-चटक धूप, लहलहाती ज्वार-बाजरे और सोयाबीन की फसलें, पीले फूलों वाली फैलती बेलों और दमकते घर आँगन देखने आया था लेकिन लग रहा था कि पानी तो गिर के रहेगा। ऐसा नहीं कि नवरात्रि में पानी गिरते न देखा हो। क्वांर मालवा में मानसून के जाने का महीना होता है। कभी थोड़ा पहले भी चला जाता है। इस बार तो जाते हुए भी जमे रहने की धौंस दे रहा है।

प्रश्न 6.
लेखक ने ओंकारेश्वर में नर्मदा के आस-पास क्या-क्या बदलाव देखे?
उत्तर :
लेखक ने देखा नर्मदा पर ओंकारेश्वर में उस पार सामने सीमेंट-कंक्रीट का विशाल राक्षसी बाँध बनाया जा रहा है। शायद इसीलिए वह चिढ़ती और तिनतिन-फिनफिन करती बह रही थी। मटमैली, कहीं छिछली अपने तल के पत्थर दिखाती, कहीं गहरी अथाह। वे बड़ी-बड़ी नावें वहाँ नहीं थीं। शायद पूर में बहने से बचाकर कहीं रख दी गई थीं। किनारों पर टूटे पत्थर पड़े थे। ज्योतिर्लिग का तीर्थ धाम वह नहीं लग रहा था। निर्माण में लगी बड़ी-बड़ी मशीनें और गुर्राते ट्रक थे। वहीं थोड़ी देर क्वार की चिलचिलाती धूप मिली, लेकिन नर्मदा के बार-बार पूर आने के निशान चारों तरफ थे। बावजूद इतने बाँधों के नर्मदा में अब भी खूब पानी और गति है।

प्रश्न 4.
‘अपना मालवा’ पाठ के आधार पर बताइए कि विक्रमादित्य, भोज और मुंज पानी के रख-रखाव के लिए ऐसा क्या करते थे जो आज के इंजीनियर नहीं करते।
उत्तर :
मालवा में विक्रमादित्य, भोज और मुंज आदि राजा पानी का महत्त्व भली प्रकार समझते थे। ये राजा जानते थे कि पठार पर पानी को रोक कर रखना होगा। उन्होंने इसके लिए भरपूर प्रयास किए। उन्होंने तालाब बनवाए और बडी-बड़ी बावड़ियाँ बनवाई ताकि बरसात के पानी को रोककर रखा जा सके और ध रती के पानी को जीवंत रखा जा सके। हमारे आज के इंजीनियरों ने तालाबों को गाद से भर जाने दिया गया और जमीन के पानी को पाताल से भी निकाल दिया। इससे नदी नाले सूख गए। जिस मालवा में पग-पग पर पानी था, वही मालवा सूखा हो गया। आज के इंजीनियर आपने आपको उनसे श्रेष्ठ समझते हैं। वे समझते हैं कि वे ही पानी के रख-रखाव के उपाय कर सकते हैं।

प्रश्न 5.
‘अपना मालवा-खाऊ-उजाडू सभ्यता में ‘लेख के आलोक में सदानीरा नदियों के नालों में बदल जाने के कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
अपना मालवा-हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को गंदे पानी के नाले बना रही है। इसका कारण है आज का औद्योगिक विकास। उद्योगों का कूड़ा-कचरा इन नदियों में गिर रहा है और नदियों के पानी को गंदला कर रहा है। हम भी अपने शहर की गंदगी को इन नदियों में बहाकर इन्हें गंदे नाले के रूप में परिणत कर रहे हैं। आज की औद्योगिक सभ्यता ने अपसंस्कृति को बढ़ावा दिया है। यह अपसंस्कृति नदियों की पवित्रता पर ध्यान नहीं देती। अब नदियों के प्रति माँ का भाव मिटता चला जा रहा है। अब मालवा में वैसी बरसात नहीं होती, जैसी पहले हुआ करती थी। इसके कारण हैं-

-विकास की औद्योगिक सभ्यता ने सब कुछ उजाड़कर रख दिया है। इससे पर्यावरण बिगड़ा है। इस पर्यावरणीय विनाश से मालवा भी नहीं बच पाया है।
– वातावरण को गर्म करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड

प्रश्न 6.
कौन-सी कतरनें किस रहस्य का उद्घाटन करती हैं? वातावरण के इस परिवर्तन के लिए कौन दोषी है और उसका क्या दृष्टिकोण है?
उत्तर :
नई दुनिया की ही लाइब्रेरी में कमलेश सेन और अशोक जोशी ने धरती के वातावरण को गर्म करने वाली इस खाऊ-उजाड़ सभ्यता की जो कतरनें निकाल रखी थीं वे बताने को काफी हैं कि मालवा धरती गहन गंभीर क्यों नहीं है और क्यों यहाँ डग-डग रोटी और पग-पग नीर नहीं है। क्यों हमारे समुद्रों का पानी गर्म हो रहा है? क्यों हमारी धरती के ध्रुवों पर जमी बर्फ पिघल रही है? क्यों हमारे मौसमों का चक्र बिगड़ रहा है? क्यों लद्दाख में बर्फ के बजाय पानी गिरा और क्यों बाड़मेर में गाँव डूब गए? क्यों यूरोप और अमेरिका में इतनी गर्मी पड़ रही है? क्योंकि वातावरण को गर्म करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है।

ये गैसें सबसे ज्यादा अमेरिका और फिर यूरोप के विकसित देशों से निकलती हैं। अमेरिका इन्हें रोकने को तैयार नहीं है। वह नहीं मानता कि धरती के वातावरण के गर्म होने से सब गड़बड़ी हो रही है। अमेरिका की घोषणा है कि वह अपनी खाऊ-उजाड़ जीवन पद्धति पर कोई समझौता नहीं करेगा लेकिन हम अपने मालवा की गहन गंभीर और पग-पग नीर की डग-डग रोटी देने वाली धरती को उजाड़ने में लगे हुए हैं। हम अपनी जीवन पद्धति को क्या समझते हैं।

प्रश्न 7.
लेखक को क्यों लगता है कि ‘जिसे हम विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं वह उजाड़ की अपसभ्यता है’? आप क्या मानते हैं?
उत्तर :
आज जिसे पश्चिमी प्रभाव में आकर हम विकास की औद्योगिक सभ्यता कह रहे हैं वह वास्तव में उजाड़ की अपसभ्यता है। विकास की इस अंधी दौड़ ने हमारी पूरी जीवन-पद्धति को तहस-नहस करके रख दिया है। इसके बीज यूरोप तथा अमेरिका में हैं। वे खाऊ-उजाडू सभ्यता में विश्वास करते हैं। वहाँ कोई जीवन-मूल्य नहीं है। आधुनिक औद्योगिक विकास ने हमें अपनी जड़-ज़ीन से अलग कर दिया है। सही मायने में हम उजड़ रहे हैं।

हमारे नदी-नाले सूख गए हैं, पर्यावरण प्रदूषित हो गया है जिसके कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बनकर रह गई है। इस तथाकथित विकास ने धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। वातावरण को गरम करने वाली ये गैसें सबसे ज्यादा यूरोप और अमेरिका से निकली हैं। अमेरिका इन्हें रोकने के लिए तैयार नहीं है। वह अपनी खाऊ-उजाडू जीवन-पद्धति पर कोई समझौता नहीं करेगा।

प्रश्न 8.
लेखक इंदौर में गाड़ी से उतरते हुए क्या चाहता था ? फिर उसे क्या प्रतीति हुई और तब उसने क्या देखा?
उत्तर :
लेखक इंदौर में गाड़ी से उतरते ही सब नदियों, तालाबों, ताल-तलैयों को देखना चाहता था और पहाड़ों पर चढ़ना चाहता था। फिर उसे प्रतीति हुई कि वह मन से भले ही किशोर हो, पर अब शरीर वैसा फुर्तीला, लचीला नहीं रह गया है कि इन सब जगहों पर जा सके। लेखक ने इस त्रासदायी प्रतीति के बावजूद दो जगहों से नर्मदा देखी। ओंकारेश्वर में उस पार से देखी। सामने सीमेंट-कंक्रीट का विशाल राक्षसी बाँध उस पर बनाया जा रहा था। शायद इसीलिए वह चिढ़ती और तिनतिन-फिनफिन करती बह रही थी।

मटमैली, कहीं छिछली अपने तल के पत्थर दिखाती, कहीं गहरी अथाह। वे बड़ी-बड़ी नावें वहाँ नहीं थीं। शायद पूर में बहने से बचा कर कहीं रख दी गई थीं। किनारों पर टूटे पत्थर पड़े थे। ज्योतिर्लिंग का तीर्थ धाम वह नहीं लग रहा था। निर्माण में लगी बड़ी-बड़ी मशीनें और गुराते ट्रक थे। वहीं थोड़ी देर क्वांर की चिलचिलाती धूप मिली, लेकिन नर्मदा के बार-बार पूर आने के निशान चारों तरफ थे। बावजूद इतने बाँधों के नर्मदा में अब भी खूब पानी और गति है।

प्रश्न 9.
‘अपना मालवा खाक उजाड्ूू सभ्यता में’ पाठ का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘अपना मालवा खाऊ उजाडू सभ्यता में’ पाठ प्रभाष जोशी द्वारा लिखित है। इस पाठ में लेखक ने मालवा और उसके आसपास की सभ्यता और संस्कृति का हददयस्पर्शी चित्रण किया है। किसी समय मालवा धन-धान्य से पूर्ण हुआ करता था। वहाँ चहुँ ओर लहराती फसलें, जल से भरे ताल-तलैया, नदी-नाले इसकी समृद्धि की कहानी कहते प्रतीत होते थे, परंतु बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कुप्रभाव से मालवा में अब वर्षा कम होने लगी है। सदानीरा और कलकल बहती नदियाँ अब औद्योगिक अपशिष्ट और गंदा पानी होने का साधन मात्र रह गई हैं। यहाँ का पर्यावरण अब प्रदूषण का शिकार हो रहा है। वातावरण में विषाक्त गैसें बढ़ रही हैं, जो जीवन के लिए खतरा बनने लगी हैं। यह सभ्यता, अपसभ्यता में बदल चुकी है। इस प्रकार इस पाठ का उद्देश्य मालवा प्रदेश की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के साथ नदियों और पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण के प्रति जन जागरूकता फैलाना है, जिससे पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।

प्रश्न 10.
औद्योगिक विकास से कौन-कौन सी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं ?
उत्तर :
मौसम में बदलाव : औद्योगिक विकास के परिणामस्वरूप मौसम अनिश्चित होता चला जा रहा है। ग्लोबल वार्मिग इसी का दुष्परिणाम है। कारखानों से निकलने वाली गैसों से वातावरण गरम हो रहा है। इससे तापमान में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। ध्रुवीय प्रदेशों में भी तापमान बढ़ा है। समुद्रों का पानी भी गरम हो रहा है। इस प्रकार मौसम का चक्र गड़बड़ा रहा है। इस कारण आसानी से जीवन व्यतीत करना कठिन होता जा रहा है।

दूषित जल : औद्योगिक विकास ने हमारे प्राकृतिक जल स्रोतों को दूषित कर दिया है। नदियों में कारखानों की गंदगी बहा दी जाती है। अब तो गंगा नदी भी अपनी पवित्रता खो बैठी है। अब नदियाँ गंदे नालों में परिवर्तित हो गई हैं। पीने के पानी का अकाल पड़ता जा रहा है।

पेड़ों का कटान : उद्योगों के लिए भूमि चाहिए। इसके लिए पेड़ों को काटा जा रहा है। इससे वायु प्रदूषण तो बढ़ा ही है साथ ही भूमि का कटाव भी बढ़ा है। इससे मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न हो गई है।

प्रश्न 11.
‘अपना मालवा-खाऊ-उजाड़ सभ्यता में’ पाठ के आधार पर विकास के नाम पर हो रहे पर्यावरण के विनाश पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता है। खाऊ-उजाडू सभ्यता ने पर्यावरण का विनाश किया है। ‘पर्यावरण’ शब्द ‘परि’ तथा आवरण के योग से बना है। ‘परि’ का अर्थ है-चारों ओर तथा ‘आवरण’ का अर्थ है-‘ ढकने वाला’ अर्थात् जो चारों ओर फैलकर हमें ढके हुए हैं। प्रकृति ने हमारे लिए एक स्वस्थ एवं सुखद आवरण का निर्माण किया था, परंतु मनुष्य ने भौतिक सुखों की होड़ में उसे दूषित कर दिया है। वर्तमान समय में शहरी सभ्यता प्रदूषण की समस्या से घिरी हुई है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक उपकरण बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे प्रदूषण का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण के इस प्रदूषण से लोगों का जीवन दूभर होता जा रहा है। सरकार भी अब इस समस्या के प्रति जागरूक प्रतीत होती है।

प्रदूषण के कारणों की खोज करने पर प्रतीत होता है कि अंधाधुंध वृक्षों की कटाई, जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि, उद्योगों का अनियमित फैलाव, चिमनियों से आबादी के मध्य धुआँ उगलना एवं सहायता के साधनों की अभूतपूर्व वृद्धि आदि ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। कारखानों का रासायनिक जल नदियों में डाल दिया जाता है। शहरों का गंदा पानी बिना साफ किए नदियों में मिला दिया जाता है। जहाजों द्वारा समुद्रों में तेल गिरा दिया जाता है। वाहन धुआँ छोड़ते हैं और वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं। इस प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ पनपती हैं।

जल मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है। स्वच्छ एवं निरापद पीने का पानी न मिलने के कारण अधिकांश लोग गंभीर रोगों का शिकार हो रहे हैं। जल प्रदूषण के लिए अधिकतर कारखाने जिम्मेदार हैं। जल में अनेक विषाक्त तत्त्व मिलकर उसे अनुपयोगी बनाते हैं। शहरों के गंदे नाले भी नदियों में जाकर गिरते हैं। इससे उनका जल दूषित होता है। जल प्रदूषण के कारण पेट के रोग बढ़ रहे हैं।

वायु में भी प्रदूषण फैल रहा है। वाहनों द्वारा छोड़ा गया धुआँ तथा कारखानों की चिमनियों से निकला धुआँ वातावरण को दूषित करता है। वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने के लिए वृक्षारोपण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

ध्वनि प्रवूषण भी शहरों में बढ़ता जा रहा है। बसों के हॉर्न तथा मशीनों के चलने से उठने वाली भारी कर्कश आवाज से यह प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इससे बहरेपन का खतरा बढ़ रहा है।

प्रश्न 12.
‘हमारी वर्तमान सभ्यता नदियों को गंदे पानी के नाले बना रही है’-क्यों और कैसे? इस दिशा में क्या किया जा सकता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
हमारी आज की सभ्यता तेजी से औद्योगिक विकास की ओर अग्रसर है। मालवा की नदियाँ जल से भरी रहती थीं। हाथीपाला नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि कभी वहाँ की नदी को पार करने के लिए हाथी पर बैठना पड़ता था। चंद्रभागा पुल के नीचे उतना पानी रहा करता था जितना महाराष्ट्र की चंद्रभागा नदी में। इंदौर के बीच से निकलने वाली नदियाँ कभी इस क्षेत्र को हरा-भरा और गुलजार रखती थीं। आज स्थिति बद से बदतर हो गई है। आज ये नदियाँ सड़े नालों में बदल गई हैं। शिप्रा, चंबल, गंभीर, पार्वती, कालीसिंध, चोरल आदि नदियों के यही हाल हैं। कभी ये नदियाँ सदानीरा कहलाती थीं, पर अब ये मालवा के गालों के आँसू, भी नहीं बहा सकतीं। अब तो ये नदियाँ वर्षा के चौमासे में ही चलती हैं। आज तथाकथित विकास की सभ्यता ने इन नदियों को गंदे पानी के नाले में बदल दिया है।

इसके कुछ अन्य कारण निम्नलिखित हैं :
महत्त्वाकांक्षाओं का बढ़ना : मानव की महत्त्वाकांक्षाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही हैं। वह नित्य नए प्रयोग कर रहा है। उद्योग-धंधों का तेजी से विकास हो रहा है। इनका कूड़ा-कचरा नदियों में गिर रहा है जिससे नदियाँ गंदे नालों में परिवर्तित हो रही हैं।

धार्मिक आस्थाएँ : धार्मिक परंपराओं, आस्थाओं और विश्वासों के कारण हम जल को प्रदूषित कर रहे हैं। अंतिम संस्कार करना, राख व अस्थियों को नदी के जल में प्रवाहित किया जाता है। अनेक अवसरों पर मूर्तियाँ भी नदी के जल में विसर्जित की जाती हैं।

बढ़ती जनसंख्या : अंधाधुंध बढ़ती जनसंख्या को अधिक मात्रा में पानी चाहिए। अब ये नदियाँ उसकी पूर्ति में सूखती चली जा रही हैं।

क्या किया जा सकता है?
नदियों को गंदे पानी के नाले बनने से रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं –
1. नदियों में उद्योगों के मलबे और गंदे पानी को गिरने से रोकना होगा। इसके लिए उद्योगों तथा नगर निकायों को जलशोधन इकाइयाँ लगानी होंगी।
2. नदियों के जल को प्रदूषित करने वालों पर भारी आर्थिक दंड लगाया जाना चाहिए तथा इसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति को जेल भेजा जाए।
3. सामान्य जनता भी नदियों के जल को गंदा करने में पीछे नहीं है। लोग नदियों में कूड़ा-कचरा फेंकते हैं, फूल और मूर्तियाँ विसर्जित करते हैं, शवों को बहाते हैं, अस्थियाँ प्रवाहित करते हैं, गंदे कपड़े धोते हैं। इन सभी कामों पर कानूनी प्रतिबंध लगाना आवश्यक है।
सरकार ने गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त बनाने के प्रति नये सिरे से प्रतिबद्धता दिखाई है। गंगा व अन्य नदियों को प्रदूषण से बचाने के वायदे पर वह खरी उतरे, इसके लिए नागरिकों को दबाव बनाना चाहिए।

प्रश्न 13.
‘अपना मालवा-खाऊ-उजाडू सभ्यता में’ लेख के आलोक में सदानीरा नदियों के नालों में बदल जाने के कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
अपना मालवा-हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को गंदे पानी के नाले बना रही है। इसका कारण है आज का औद्योगिक विकास। उद्योगों का कूड़ा-कचरा इन नदियों में गिर रहा है और नदियों के पानी को गंदला कर रहा है। हम भी अपने शहर की गंदगी को इन नदियों में बहाकर इन्हें गंदे नाले के रूप में परिणत कर रहे हैं। आज की औद्योगिक सभ्यता ने अपसंस्कृति को बढ़ावा दिया है। यह अपसंस्कृति नदियों की पवित्रता पर ध्यान नहीं देती। अब नदियों के प्रति माँ का भाव मिटता चला जा रहा है।
अब मालवा में वैसी बरसात नहीं होती, जैसी पहले हुआ करती थी। इसके कारण हैं-

– विकास की औद्योगिक सभ्यता ने सब कुछ उजाड़कर रख दिया है। इससे पर्यावरण बिगड़ा है। इस पर्यावरणीय विनाश से मालवा भी नहीं बच पाया है।
– वातावरण को गर्म करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। वातावरण के गर्म होने से यह सब गड़बड़ी हो रही है।
– अब मालवा के लोग ही मालवा की धरती को उजाड़ने में लगे हैं।

प्रश्न 14.
‘पग-पग पर नीर’ वाला मालवा नीर विहीन कैसे हो गया? पर्यावरण और मनुष्य के संबंधों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मालवा में पहले पग-पग पर नीर (पानी) मिलता था। वहाँ पानी की भरमार थी। आज वही मालवा नीर विहीन हो गया है। अब मालवा में पहले जैसी बरसात नहीं होती। इसके दो प्रमुख कारण हैं-
1. विकास की औद्योगिक सभ्यता ने सब कुछ उजाड़कर रख दिया। इससे हुए पर्यावरणीय विनाश से मालवा भी नहीं बचा।
2. वातावरण को गर्म करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा दिया। वातावरण की गर्मी ने पानी का अभाव पैदा कर दिया। इससे पर्यावरण और मनुष्य के संबंध भी गड़बड़ा गए। पर्यावरण को अशुद्ध बनाने में औद्योगिक सभ्यता का बड़ा हाथ है। इसने अपसंस्कृति को बढ़ावा दिया है।

प्रश्न 15.
‘अपने नदी, नाले, तालाब सँभाल के रखो तो दुष्काल का साल मज़े में निकल जाता है। लेकिन जिसे हम विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं, वह उजाड़ की अपसभ्यता है।’
नदी-नाले-तालाब को सँभाल के रखने से लेखक का क्या आशय है ? यह काम पर्यावरण रक्षण से कैसे जोड़ता है ? विकास की औद्योगिक सभ्यता को उजाड़ की अपसभ्यता क्यों कहा गया है ?
उत्तर :
नदी-नाले-तालाब को सँभाल कर रखने से लेखक का आशय यह है कि हमें अपनी नदियों-नालों तथा तालाबों को ठीक हालत में बनाकर रखना चाहिए। इनमें पर्याप्त मात्रा में जल बना रहना चाहिए तथा इस जल का स्वच्छ रहना भी आवश्यक है। हमें नदी-तालाबों में कचरा नहीं बहाना चाहिए।

नदी-नालों को सँभालकर रखने के काम को पर्यावरण रक्षण से इस प्रकार जोड़कर रखना है कि जल भी पर्यावरण का ही एक अंग है। जल-प्रदूषण नहीं होना चाहिए। नदी-तालाबों तथा नालों के जल की उचित देखभाल की जानी चाहिए।

आज हम पश्चिमी प्रभाव में आकर जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कह रहे हैं, वह वास्तव में उजाड़ करने वाली अपसभ्यता है। तथाकथित विकास की इस अँधी दौड़ ने हमारी पूरी जीवन-पद्धति को तहस-नहस करके रख दिया है। इसके बीज यूरोप तथा अमेरिका में हैं। वहाँ के लोग तो खाऊ-उजाडू सभ्यता में विश्वास करते हैं। वहाँ के जीवन में कोई नैतिक जीवन-मूल्य नहीं है। इस आधुनिक औद्योगिक सभ्यता ने हमें अपनी जड़-जमीन से काटकर रख दिया है।

यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो सही मायने में हम उजड़ रहे हैं। हमारे नदी-नाले सूख रहे हैं, पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। इन्हीं के कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बनकर रह गई है। इस तथाकथित सभ्यता ने धरती के तापमान को भी तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। वातावरण को गरम करने वाली गैसें सबसे ज्यादा यूरोप और अमेरिका से निकलती हैं। पर ये देश अपनी खाऊ-उजाडू सभ्यता पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं हैं।

प्रश्न 16.
‘अपना मालवा-खाऊ उजाडू सभ्यता में’ पाठ में लेखक ने किस ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है ?
उत्तर :
इस पाठ में लेखक ने मालवा प्रदेश की मिट्टी, वर्षा, नदियों की स्थिति, उद्गम एवं विस्तार तथा वहाँ के जन-जीवन एवं संस्कृति को चित्रित किया है। लेखक ने मालवा में हो रहे परिवर्तनों की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है। पहले मालवा की धरती पर पग-पग पर नीर हुआ करता था और अब नदी-नाले सूख गए हैं, पग-पग पर नीर वाला मालवा सूखा हो गया है। पहले यही मालवा अपनी सुख-समृद्धि एवं सम्पन्नता के लिए विख्यात था, अब वहीं मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में फँसकर उलझ गया है। यह खाऊ-उजाडू सभ्यता यूरोप और अमेरिका की देन है।

इसके कारण तथाकधित विकास की सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बनकर रह गई है। इससे पूरी दुनिया पर्यावरण बिगड़ा है। लेखक की पर्यावरणीय चिंता केवल मालवा तक सीमित नहीं है, वरन् सार्वभौमिक है। अमेरिका की खाऊ-उजाडू सभ्यता ने दुनिया को इतना प्रभावित किया है कि हम भी अपनी जीवन-पद्धति, सभ्यता तथा धरती को उजाड़ने में लगे हैं। इसी खाऊ-उजाडू जीवन-पद्धति द्वारा पर्यावरणीय विनाश की पूरी तसवीर की ओर हमारा ध्यान खींचा है। उसने बताया है कि सही मायने में हम उजड़ रहे हैं। लेखक ने इस विषम स्थिति की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है।

प्रश्न 17.
चंबल को लेखक ने कहाँ देखा और क्या देखा ?
उत्तर :
चंबल को लेखक ने छाटा-बिलोप में देखा। वहाँ काफी पानी था। वह खूब बह रही थी। उसमें लड़के नहा रहे थे। इन्हें इस बात पर गर्व था कि भले ही यह यहाँ छोटी दिखाई देती है तो क्या हमारी चंबल से बस गंगा ही बड़ी है। आगे बहुत बड़ा बाँध है। वहाँ खूब पानी है। इस बार तो गाँधी सागर के सब फाटक खोलने पड़े। इतना अधिक पानी भर गया था। हालोद के आगे यशवंत सागर को इस बार फिर उसने इतना भर दिया कि पच्चीसों साइफन चलाने पड़े। 67 साल में तीसरी बार ऐसा हुआ।

पार्वती और कालीसिंध ने फिर रास्ता रोक दिया। दो दिन तक पुल पर से पानी बहता रहा। इस बार मालवा के पठार की सब नदियाँ भर गई। उसके पास बहने वाली नर्मदा में भी खूब पानी आया। बरसों बाद हजारों साल की कहावत सच हुई-” मालवा की धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर।” दक्षिण से उत्तर की ओर बलान वाले इस पठार की सभी नदियों के दर्शन हुए। खूब पानी, खूब बहाव और खूब कृपा। नदी का सदा नीर रहना ही जीवन के स्रोत का जीवित रहना है।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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CBSE Class 12 Hindi Elective अपठित बोध अपठित गद्यांश

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CBSE Class 12 Hindi Elective अपठित बोध अपठित गद्यांश

1. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

वस्तुतः बोली गोली से अधिक असरदार होती है। हम शब्दों द्वारा ही औरों को अपना बनाते हैं और शब्दों से ही अपने पराये बन सकते हैं। कौन-सा शब्द कब, कहाँ, किसके लिए बोलना है इसका ध्यान रखना ही औचित्य है और भाषा का यह औचित्य शब्द सौंदर्य का अहम ढिस्सा है। सच तो यह है कि शब्दों का दुरुपयोग प्रायः होता है और इस दुरुपयोग को रोकने का उपाय शब्दों का सदुपयोग ही है। विशेषणों के प्रयोग में हम प्रायः अति उत्साहवश या अज्ञानवश उनका दुरुपयोग करते हैं, ऐसे निरर्थक प्रयोग करते हैं कि स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। सामान्य व्यवहार के लिए हमें बहुत बड़े शब्द भंडार या साहित्यिक अभिव्यक्तियों की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि सबका शब्द ज्ञान व्यापक हो यह आवश्यक नहीं। अपनी बात को साफ शब्दों में और सफाई से कह पाना और उनसे वांछित अर्थ को प्रेषित कर पाना किसी तपस्या से कम नहीं है। तराशे हुए शब्दों से व्यक्ति का व्यक्तित्व झलकता है। शब्द बहुमूल्य होते हैं, उन्हें निरर्थक नहीं लुटाना चाहिए।

प्रश्न :
(i) आशय स्पष्ट कीजिए- ‘बोली गोली से अधिक असरदार होती है’।
(ii) भाषा के संदर्भ में ‘औचित्य’ किसे कहा गया है और क्यों ?
(iii) ‘शब्दों का दुरुपयोग’ से लेखक का क्या आशय है? उसे कैसे रोका जा सकता है?
(iv) वक्ता की स्थिति कब हास्यास्पद हो जाती है?
(v) ‘शब्द बहुमूल्य होते हैं’ – आशय समझाइए।
(vi) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(i) बोली गोली से अधिक असरदार इसलिए होती है क्योंकि गोली तो चलकर एक बार में अपना असर खो बैठती है, जबकि बोली का असर ज्यादा देर तक बना रहता है, कभी-कभी जीवन भर। बोली के शब्दों से ही व्यक्ति अपने से पराया बन जाता है।
(ii) भाषा के संदर्भ में ‘औचित्य’ उसे कहा गया है जिसमें यह ध्यान रखा जाता है कि कौन-सा शब्द कहाँ और किसके लिए बोलना है। भाषा का यह औचित्य ही शब्द का सौंदर्य बढ़ाता है।
(iii) शब्दों का दुरुपयोग से लेखक का यह आशय है-शब्दों का गलत प्रयोग करना अर्थात् असंगत शब्द प्रयोग करना। हम प्राय: अति उत्साह में आकर अथवा अज्ञानतावश गलत विशेषणों का प्रयोग कर उसका दुरुपयोग करते हैं। कई बार निर्थक शब्दों के प्रयोंग से स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। इसे रोकने के लिए हमें सरल और स्पष्ट शब्दों में अपनी बात कहनी चाहिए। बड़े शब्दों के प्रयोग तथा साहित्यिक अभिव्यक्तियों से बचना चाहिए।
(iv) वक्ता की स्थिति तब हास्यास्पद हो जाती है जब वक्ता निरर्थक शब्दों का प्रयोग करने लगता है। सामान्य व्यवहार में बहुत बड़े शब्दों का प्रयोग तथा अनावश्यक साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ भी वक्ता की स्थिति को हास्यापद बना देती हैं।
(v) ‘शब्द बहुमूल्य होते हैं’ – इसका आशय यह ₹ै कि हमें सार्थक शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। तराशे हुए शब्द अभिव्यक्ति में सक्षम होते हैं। शब्दों का प्रयोग बहुत सोच-समझकर ही करना चाहिए। शब्दों के निरर्थक प्रयोग से बचना चाहिए।
(vi) शीर्षक : शब्दों का सार्थक प्रयोग।

2. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

भारतवर्ष ने कभी भी भौतिक वस्तुओं के संग्रह को बहुत अधिक महत्त्व नहीं दिया है। उसकी दृष्टि से मनुष्य के भीतर जो महान आंतरिक तत्व स्थिर भाव से बैठा हुआ है, वही चरम और परम है। लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि विकार मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं, पर उन्हें प्रधान शक्ति मान लेना और अपने मन तथा बुद्धि को उन्हीं के इशारों पर छोड़ देना बहुत निकृष्ट आचरण है। भारतवर्ष ने उन्हें कभी उचित नहीं माना, उन्हें सदा संयम के बंधन से बाँधकर रखने का प्रयत्न किया है। परंतु भूख की उपेक्षा नहीं की जा सकती, बीमार के लिए दवा की उपेक्षा नहीं की जा सकती, गुमराह को ठीक रास्ते पर ले जाने के उपायों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हुआ यह है कि इस देश के कोटि-कोटि दरिद्र जनों की हीन अवस्था को दूर करने के लिए ऐसे अनेक कायदे-कानून बनाए गए हैं, जो कृषि, उद्योग, वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति को अधिक उन्नत और सुचारू बनाने के लक्ष्य से प्रेरित हैं. परंतु जिन लोगों को इन कार्यों में लगना है, उनका मन सब समय पवित्र नहीं होता। प्राय: ही वे लक्ष्य को भूल जाते हैं और अपनी ही सुख-सुविधा की ओर ज्यादा ध्यान देने लगते हैं।

व्यक्ति चित्त सब समय आदर्शों द्वारा चालित नहीं होता। जितने बड़े पैमाने पर इन क्षेत्रों में मनुष्य की उन्नति के विधान बनाए गए, उतनी ही मात्रा में लोभ, मोह जैसे विकार भी विस्तृत होते गए। लक्ष्य की बात भूल गए। आदर्शों को मजाक का विषय बनाया गया और संयम को दकियानूसी मान लिया गया। परिणाम जो होना था, वह हो रहा है। यह कुछ थोड़े से लोगों के बढ़ते हुए लोभ का नतीजा है, परंतु इससे भारतवर्ष के पुराने आदर्श और भी अधिक स्पष्ट रूप से महान और उपयोगी दिखाई देने लगे हैं। भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो लोग धर्मभीरू हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते।

प्रश्न :
(i) भारतवर्ष में किस बात को महत्वहीन माना गया व क्यों?
(ii) किस प्रकार के आचरण को ‘निकृष्ट’ कहा गया है?
(iii) दरिद्रजनों की हीन अवस्था को दूर करने के लिए किए गए प्रयास सफल क्यों नहीं हो पाए?
(iv) व्यक्तिचित के आदर्शों द्वारा चालित न होने का परिणाम किस रूप में देखने को मिला?
(v) कानून और धर्म में अंतर किए जाने का क्या परिणाम हुआ?
(vi) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) भारतवर्ष में भौतिक वस्तुओं के संग्रह को महत्त्वहीन माना गया। इसका कारण यह है कि भौतिक वस्तुएँ मनुष्य में लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि विकारों को बढ़ावा देती हैं। यद्यपि ये भाव मनुष्य के स्वभाव में होते हैं, पर भौतिक वस्तुएँ इन्हें उभार देती हैं।
(ii) जब मनुष्य लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि विकारों को प्रधान शक्ति मानकर अपने मन और बुद्धि को उन्हीं के इशारे पर छोड़ देता है तब इस आचरण को निकृष्ट आचरण कहा जाता है। इसमें संयम का अभाव रहता है।
(iii) दरिद्रजनों की हीन अवस्था को दूर करने के प्रयास इसलिए सफल नहीं हो पाए क्योंकि जिन लोगों को इन कार्यों में लगना था, उनका मन सब समय पवित्र नहीं रह पाया। वे प्रायः अपने लक्ष्य को भूल गए और अपनी ही सुख-सुविधा को जुटाने में लग गए।
(iv) व्यक्ति चित्त के आदर्शों से चालित न होने का परिणाम इस रूप में देखने को मिला कि विभिन्न क्षेत्रों में मनुष्य की उन्नति के लिए जितने बड़े विधान बनाए गए, उतनी ही मात्रा में लोभ, मोह जैसे विकार भी बढ़ते चले गए। लक्ष्य को भुला दिया गया और आदर्श मजाक के विषय बन गए तथा संयम को दकियानूसी मान लिया गया।
(v) भारतवर्ष सदा से कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है। यह समझा जाने लगा कि धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता जबकि कानून को दिया जा सकता है। इसका यह परिणाम हुआ है कि धर्मभीरू लोग भी कानून की त्रुटियों का लाभ उठाने में संकोच नहीं करते।
(vi) शीर्षक : मनुष्य के आदर्श और उसका आचरण।

3. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

देश-प्रेम है क्या? प्रेम ही तो है! बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। इस प्रेम का आलंबन क्या है? सारा देश अर्थात् मनुष्य, पशु-पक्षी, नदी-नाले, वन-पर्वत, सागर अर्थात् सारी भूमि और उसके सभी जीव – देश ही तो है! यह प्रेम किस प्रकार का है? यह साहचर्यगत प्रेम है। जिनके बीच हम रहते हैं. जिनका हमारा हर घड़ी का साथ रहता है, जिन्हें हम रोज आँखों से देखते हैं, जिनकी बातें हम रोज सुनते हैं अर्थात् जिनके सान्निध्य के हम अभ्यासी हो जाते हैं उनके प्रति राग या लोभ हो सकता है। पशु और बालक भी जिनके साथ अधिक रहते हैं, उनसे परच जाते हैं। यह परचना परिचय ही है और परिचय ही प्रेम का प्रवर्तक है। बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता है। यदि प्रेम वास्तव में अंतःकरण का कोई भाव है तो देश के स्वरूप से परिचित और अभ्यस्त हो जाइए।

बाहर निकलिए तो आँख खोलकर देखिए कि खेत कैसे लहलहा रहे हैं, नाले झाड़ियों के बीच कैसे बह रहे हैं, टेसू के फूलों से वनस्थली कैसी लाल हो रही है। कछारों में चौपायों के झुंड इधर-उधर चरते हैं, चरवाहे तान लड़ा रहे हैं, अमराइयों के बीच गाँव झाँक रहे हैं; उनमें घुसिए, देखिए तो क्या हो रहा है। जो मिले, उससे दो-दो बातें कीजिए, उनके साथ किसी पेड़ की छाया के नीचे घड़ी-आध-घड़ी बैठ जाइए इसलिए कि वे सब हमाः ‘े के हैं। इस प्रकार जब देश का रूप आपकी बुद्धि में समा जाएगा, आप उनके अंग-प्रत्यंग से परिचित हो जाएँगे, तब आपके अंतःकरण में इस इच्छा का सचमुच उदय होगा कि वह कभी न छूटे, वह सदा हरा-भरा और फला-फूला रहे, उसके धनधान्य की वृद्धि हो, उसके सभी प्राणी सुखी रहें।

प्रश्न :
(i) ‘परचना’ से लेखक का क्या तात्पर्य है? इसके लिए लेखक ने किस-किस का उदाहरण दिया है? स्पष्ट कीजिए।
(ii) परिचय को प्रेम का प्रवर्तक कैसे कहा जा सकता है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
(iii) देश के स्वरूप से परिचित होने के लिए लेखक ने किन बातों का उल्लेख किया है? उनमें से किन्हीं दो बातों पर प्रकाश डालिए।
(iv) देश से प्रेम हो जाने पर अंतर्मन के भावों में क्या परिवर्तन हो जाता है?
(v) देश के रूप-सौंदर्य का अभ्यस्त हो जाने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
(vi) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक् दीजिए।
उत्तर :
(i) ‘परचना’ से लेखक का तात्पर्य है-परिचित हो जाना। हम जिसके साथ अधिक समय तक रहते हैं, उससे परच जाते हैं। इसके लिए लेखक ने पशुओं और बालकों के उदाहरण दिए हैं। वे जिनके साथ अधिक रहते हैं, उनसे परच जाते हैं। यह साहचर्यगत प्रेम है।
(ii) परिचय को प्रेम का प्रवर्तक इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि प्रेम होने से पहले किसी व्यक्ति या प्राणी के साथ हमारा परिचय होता है और आगे चलकर यही परिचय प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। बिना परिचय के प्रेम हो ही नहीं सकता।
(iii) देश के स्वरूप से परिचित होने के लिए लेखक ने जिन दो बातों का उल्लेख किया है, वे हैं-(i) घर से बाहर निकलकर खेतों की हरियाली को देखिए, नाले-झाड़ियों को देखिए, टेसू के फूलों की वनस्थली को देखिए। (ii) किसी पेड़ की छाया में घड़ी-आध-घड़ी बैठकर लोगों से बातचीत कीजिए, उनकी गतिविधियों को देखिए-समझिए।
(iv) देश से प्रेम हो जाने पर हमारे अंतर्मन के भावों में यह परिवर्तन हो जाता है कि अंतःकरण में यह इच्छा उदित हो जाती है कि हमसे हमारा देश कभी न छूटे। यह सदा हरा-भरा और फूला-फला बना रहे और इसके सभी प्राणी सुख्बी रहें।
(v) देश के रूप-सौंदर्य से अभ्यस्त हो जाने के ढ़िए हमें देश के भौगोलिक स्वरूप से परिचित होना चाहिए। हमें देश के लोगों के सानिध्य में रहना चाहिए। देश की वस्तुओं से प्रेम करना चाहिए।
(vi) शीर्षक : देश-प्रेम।

4. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

पतझड़ ऋतु आने पर जेल के हमारे आँगन में नीम के पेड़ से पत्तों के गिरने पर मन में कभी-कभी चिंता होने लगती है कि यह पेड़ का काल आया है या उसका केवल कायापलट हो रहा है ? यों तो पत्तों को गिरते देखकर मन में विषाद का भाव उत्पन्न होना चाहिए, किंतु ऐसा बिल्कुल नहीं होता, उल्टा मजा आता है-पत्ते इतने इड़ते हैं मानो टिड्डी दल फैल गया हो, मालूम होता है पत्तों को कितने ही गोल-गोल चक्कर काटने पड़ते हैं, उन्हें नीचे उतरने की थोड़ी भी जल्दी नहीं होती।

और फिर गिरने के बाद क्या वे चुपचाप पड़े रहेगें ? नहीं, कदापि नहीं। छोटे बच्चे जिस प्रकार दौड़ने का और एक-दूसरे को पकड़ने का खेल खेलते हैं, उसी प्रकार ये पत्ते भी इधर से उधर और उधर से इधर गोल-गोल चक्कर काटते रहते हैं। हवा के झोकों के साथ ये हँसते-कूदते मेरी ओर दौड़े आते हैं। मुझे लगता है कि इन पत्तों को थोड़ी देर बाद पेड़ से फूटने वाली कोंपलों को झटपट जगह दे देने की ही अधिक जल्दी होती होगी। साँप जिस प्रकार अपनी कें चुली उतारकर फिर से जवान बनता है, उसी प्रकार पुराने पत्ते त्याग कर पेड़ भी वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए फिर से जवान बनने की तैयारी करता होगा। इसीलिए यह कहने का मन नहीं होता कि ये पते टूटते हैं या गिरते हैं।

ये पत्ते तो छूट जाते हैं। हाथ मे पकड़ रखा हुआ कोई पक्षी जैसे पकड़ कुछ ढीली होते ही चकमा देखकर उड़ जाता है, उसी प्रकार ये पत्ते तेजी से छूट जाते हैं। यह विचार भी मन में आता है कि ये पत्े गिरने वाले तो हैं ही, तो फिर सबके सब एक साथ क्यों नहीं गिरते। पर्णहीन वृक्ष की मुक्त शोभा तो देखने को मिलेगी। जिस पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं रहा और अँगुलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी करके जो पागल के समान खड़ा है और जो आकाश के पर्दें पर कालीन के चित्र के समान मालूम हो रहा है, उसकी शोभा कभी-कभी आपने ध्यान देकर निहारी है ? पर्णहीन टहनियों की जाली सचमुच ही बहुत सुंदर दिखाई देती है।

प्रश्न :
(i) पेड़ से पत्तों का झड़ना-गिरना देखकर लेखक ने क्या सोचा और क्यों?
(ii) पतों की तुलना टिड्डी दल से क्यों की गई है?
(iii) हवा के झोंके से पत्तों पर क्या प्रभाव पड़ा और लेखक ने उसकी तुलना किससे की है?
(iv) पत्तों के टूटने को लेखक ने छूटने की संज्ञा क्यों दी है? उसकी तुलना किससे की है?
(v) लेखक के स्वभाव में उतावलापन है-यह किस प्रकार पता चला?
(vi) साँप के उदाहरण से लेखक क्या स्पष्ट करना चाहता है?
उत्तर :
(i) पेड़ से पत्तों का झड़ना-गिरना देखकर लेखक ने यह सोचा कि यह पेड़ का काल (अंत समय) आ गया है अथवा उसका केवल कायापलट (पतझड़) हो रहा है। पत्तों के गिरने से उसके मन में विषाद के स्थान पर मजा आया, क्योंकि अब नए पत्तों को पेड़ पर स्थान मिलेगा।
(ii) पत्तों की तुलना टिड्डी-दल से इसलिए की है क्योंकि जिस तरह टिड्डी दल चारों ओर फैल जाता है, उसी प्रकार पेड़ से झड़े बहुत सारे पत्ते चारों ओर गोल-गोल चक्कर लगाते प्रतीत होते हैं।
(iii) हवा से पत्तों पर यह प्रभाव पड़ा कि वे छोटे बच्चों की तरह गोल-गोल चक्कर काटने लगे। ये बच्चों के समान दौड़ने-पकड़ने का खेल खेलते प्रतीत होने लगे। लेखक ने उसकी तुलना हँसते-खेलते-दौड़ते बच्चों से की है।
(iv) पत्तों के टूटने को लेखक ने छूटने की संज्ञ इललिए दी है क्योंकि वे पेड़ से छूटकर या अलग होकर पेड़ में फूटनेवाली नई कोंपलों के लिए स्थान खाली करते हैं। लेखक ने इस प्रक्रिया की तुलना साँप की केंचुली उतारने से दी है। जिस प्रकार साँप अपनी पुरानी केंचुली उतार कर जवान बन जाता है, उसी प्रकार पेड़ पुराने पत्ते त्यागकर नए पत्तों से वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए जवान बन जाते हैं।
(v) लेखक के स्वभाव में उतावलापन है-इसका पता इस प्रकार चलता है कि लेखक पर्णहीन वृक्ष की मुक्त शोभा को निहारने के लिए उतावला है। वह पर्णहीन टहनियों की जाली की सुंदरता देखना चाहता है।
(vi) साँप के उदाहरण से लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। परिवर्तन कुछ अच्छा ही करता है।

5. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

मैं न चाहते हुए भी बीमा कंपनी के एजेंटों के चक्कर में कैसे फँस गया? बीमा कंपनियों के सौभाग्य अथवा दुर्भाग्यवश मैं एक ऐसा जंतु था जो पेंशन वाला होते हुए भी पचास साल से कम आयु का था। जहाँ अड़ोस-पड़ोस के लोगों को मेरी परिस्थिति मालूम हुई. वहाँ एजेंटों ने मेरा पीछा करना शुरू किया। करीब-करीब उसी लगन से, जिससे कि कुँवारे ग्रेजुएट को अविवाहित लड़कियों के पिता, भाई आदि। मेरे पास ऐसा कोई दुर्ग नहीं था जहाँ जाकर छिप जाता। बीमे की चर्चा होने लगी। बीमे के प्रस्तावों के कारण मेरी नींद हराम हो गई। जान का बीमा, जी का जंजाल हो गया। औरों से तो जैसे-तैसे पीछा छुड़ा लिया किंतु एक पड़ोसी महाशय से पीछा न छुड़ा सका। मैंने उनसे पूछ-” आप काहे का बीमा कराना चाहते हैं?” उत्तर मिला “जान का।” मैंने कहा कि भाई, मैं अपनी जान कहीं

पार्सल करके नहीं भेजना चाहता, जो बीमा कराऊँ। मुझे बीमा कराकर निशिंचत होने का लालच दिया गया। एजेंट महोदय पर मेरे तर्कों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मैं जानता था चिंता और चिता में एक बिंदी का अंतर है। चिंता जो मेरी चिरसंगिनी थी, सहज में परित्याग नहीं करना चाहता था- पर एजेंट महोदय पर मेरी युक्तियों का इतना भी असर नहीं हुआ जितना कि तवे पर बूँद का। उन्होंने मेरी मौनरूपी अर्द्ध सम्मति प्राप्त कर ली और मैंने पाँच हजार के लिए आँख बंद करके दस्तखत कर दिए।

दस्तखत के बाद ही मुझसे पूछा गया कि मेरी जन्म-पत्री कहाँ है-मेरी वर्तमान आयु जानने को। यदि बीमा कंपनियों को ज्योतिष में विश्वास होता तो मैं डॉक्टरों से बच जाता। मेरी नाप-तौल की गई मानो मैं कोई क्रय-विक्रय की वस्तु हूँ। बीमार की भाँति पलंग पर लेटना पड़ा। वैसे तो मेरा शरीर रोगों का अड्डा बना हुआ था किंतु मैं बहुत से रोगों के बारे में डॉक्टर की आँखों में धूल झोंकने में सफल हो गया। एक लंबी-चौड़ी प्रश्नावली का उत्तर इस प्रकार दिया कि अदालत के सत्यमूर्ति गवाह की भाँति सच और सच के सिवाय सब कुछ कह दिया।

प्रश्न :
(i) बीमा एजेंट क्या करते हैं? उनके चक्कर में लेखक कैसे फँसा?
(ii) लेखक ने डॉक्टरों से अपने अनेक रोगों को कैसे छिपाया? क्यों?
(iii) आशय स्पष्ट कीजिए- “चिता और चिता में एक बिंदी का अंतर है।”
(iv) जान का बीमा जी का जंजाल कैसे हो गया?
(v) “अदालत के सत्यमूर्ति गवाह की भाँति”-कथन में निहित व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए।
(vi) गद्यांश के लिए उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) बीमा एजेंट हमारे जीवन का बीमा करते हैं। लेखक उनके चक्कर में इस प्रकार फँस गया क्योंकि वह पेंशन वाला होते हुए भी पचास साल से कम आयु का था। एजेंट बीमा कराने के लिए उसके पीछे पड़ गए।
(ii) यद्यपि लेखक अनेक बीमारियों से ग्रस्त था, लेकिन लेखक डॉक्टर की आँखों में धूल झोंकने में सफल हो गया। वह अनेक बीमारियों को छिपा गया।
(iii) चिता में ‘च’ पर बिंदी लगती है जबकि चिता पर नहीं। चिंता में व्यक्ति दिन-रात सोच-विचार में घुलता रहता है। चिता अंतिम समय में अपनी गोद में समा लेती है। दोनों में थोड़ा-सा ही अंतर है।
(iv) एजेंट लेखक की जान का बीमा करना चाहता था। लेखक उससे बच रहा था। बीमे के प्रस्तावों के कारण उसकी नींद हराम हो गई थी। यह बीमा उसके जी का जंजाल बन गया।
(v) अदालत में जज के सामने गवाह को सत्यमूर्ति गवाह की शपथ लेनी पड़ती है। डॉक्टर की लंबी-चौड़ी प्रश्नावली का उत्तर लेखक ने झूठे ही दिए थे, पर वह उन्हें सच बता रहा था। अदालत में भी ऐसा ही होता है।
(vi) शीर्षक : बीमा : जी का जंजाल।

6. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक एक पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

लोक-कलाएँ जीवन के अंग-प्रत्यंग से जुड़ी रहती थीं। कठिन शारीरिक श्रम के काम संगीत से हल्के किए जाते थे। पेड़ काटना, नाव चलाना, बोझ खींचना, चक्की पीसना आदि किसी-न-किसी प्रकार के संगीत से जुड़े होते थे। हर ऋतु के अपने गीत और नृत्य होते थे। जन्म, विवाह आदि के अवसर नृत्य और गायन के अवसर तो होते ही थे, उनसे चित्रांकन, मिट्टी की कलाएँ, काष्ठ शिल्प आदि भी संबद्ध होते थे। आर्थिक क्रियाओं में भी किसी न किसी तरह जाने-अनजाने कलाएँ प्रवेश पा जाती थीं।

धर्म और जादू-टोने से भी कलाएँ असंपृक्त नहीं होती थीं। सच तो यह है कि धार्मिक क्रियाओं और लोक कलाओं में सावयवी संबंध था। यह कहना शायद उचित न हो कि शुद्ध सौंदर्यवादी दृष्टि से कलात्मक सृजन होता ही नहीं था। आद्यकला – सृष्टियों के कई रूपों के संबंध में आज हम केवल अनुमान ही कर सकते हैं, उनके व्यवहारवादी पक्षों पर प्रामाणिक टिप्पणी करना संभव नहीं है। अल्जीरियाई सहारा मरस्थल के मध्य आश्चर्यजनक चित्रकला के नमूने अवशिष्ट हैं, जो कठिन यात्रा के बावजूद हर वर्ष हजारों दर्शकों को अपनी ओर खींचते हैं। आदिमानव ने इन चित्रों की रचना क्यों की? आज इस प्रश्न का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया जा सकता।

ये चित्र सौंदर्यबोध को तो प्रमाणित करते हैं, पर शायद उनके साथ कोई धार्मिक या आर्थिक कार्य भी जुड़े हों। यही प्रश्न भोपाल के समीप भीमबेटका के चित्रों को देखकर उठता है। आदिमानव ने यूरोप में ‘न्रे्नेनडार्फ की वीनस’ की प्रसिद्ध मूर्ति क्यों गढ़ी? सिंधु सभ्रूता से जुड़ी चित्रकला और मूर्तिकला के पीछे मूल भावना क्या थी? ये प्रश्न ऐसे हैं जिनका सीधा उत्तर देना संभव नहीं है किंतु निश्चित है कि ये धरोहरें

मानव मन की ओर उसकी संस्कृति की विकास यात्रा को समझने में सहायक हो सकती हैं। संस्कृति विश्लेषण की नयी विधाओं ने इस सामग्री का उपयोग कर जीवन दर्शन, सामाजिक मूल्य, सांस्कृतिक प्राथमिकताओं आदि पर गंभीर शोध किया है, जो संस्कृतियों के बाह्यरूप मात्र को देखकर संभव नहीं होता। वे कलाएँ सौंदर्यबोध की अभिव्यक्ति करती थीं और उनके द्वारा व्यक्तियों और समूहों को सृजनात्मक आनंद भी प्राप्त होता था।

प्रश्न :
(i) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ii) कैसे कह सकते हैं कि श्रमसाध्य कार्य भी लोकसंगीत से जुड़े रहते थे?
(iii) दो बिंदुओं का उल्लेख कर पुष्टि कीजिए कि लोक-कलाएँ जीवन के अंग-प्रत्यंग से जुड़ी होती थीं?
(iv) अल्जीरिया और भीमबेटका का उल्लेख क्यों हुआ है?
(v) लोक-कलाओं की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
(vi) हम कैसे कह सकते हैं कि धार्मिक क्रियाओं और लोक कलाओं में परस्पर गहरा संबंध था?
उत्तर :
(i) शीर्षक : हमारी लोक-कलाएँ।
(ii) श्रमसाध्य कार्य जैसे-पेड़ काटना, नाव चलाना, बोझ खींचना, चक्की पीसना आदि कार्य किसी-न-किसी संगीत से जुड़े होते थे। इन सभी कार्यों को करते हुए कंठ से लोक-संगीत निकलता था। इससे श्रमसाध्य काम करने वाला हल्केपन का अनुभव करता था।
(iii) लोक-कलाएँ जीवन के अंग-प्रत्यंग से जुड़ी होती थी। हर ऋतु के अपने गीत और नृत्य होते थे। जन्म, विवाह आदि अवसरों पर नृत्य और गायन होते थे। उनसे चित्रांकन, मिट्टी की कलाएँ तथा काष्ठ कला भी जुड़ जाते थे।
(iv) अल्जीरिया और भीमबेटका का उल्लेख इसलिए हुआ है क्योंकि ये दोनों स्थान अपनी आश्चर्यजनक चित्रकला के लिए विख्यात हैं। अल्जीरियाई सहारा मरुस्थल के मध्य अभी भी चित्रकला के नमूने शेष हैं। भीमबेटका भोपाल के समीप है।
(v) लोक-कलाओं की दो विशेषताएँ :
(i) (क) ये सौंदर्यबोध की अभिव्यक्ति करती है.
(ii (ख) ये व्यक्तियों के समूह को सृजनात्मक आनंद प्रदान करती हैं।
(vi) धार्मिक क्रियाओं और लोकक्रियाओं में गहरा संबंध था। धार्मिक अवसरों पर गाए वाले लोक संगीत और लोक कलाएँ एक-दूसरे से जुड़ी थीं। जन्म, विवाह आदि अवसरों पर जहाँ लोकगीत और लोकनृत्य होते थे, वहीं चित्रांकन, मिट्टी की कलाएँ भी जुड़ जाती थीं।

7. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

कौटिल्य ने जब ‘अर्थशास्त्र’ लिखा तो उन्हें स्वप्न में भी यह विचार न आया होगा कि राजनीति या नीति सूचक यह अर्थ ‘अर्थ’ के अन्य सभी अर्थो से हटकर केवल ‘रुपया’ अर्थ से ही चिपक रह जाएगा। प्राचीन भारत में अर्थ पुरुषार्थ था, मानवतामूल्य था। सबके हित को ध्यान में संग्रह करना और उसका वितरण करना अर्थ है। इसका व्यावहारिक रूप या लौकिक रूप भी है और इसका पारमार्थिक या लोकोत्तर रूप भी है। व्यावहारिक स्तर पर अर्थ धन है, संपत्ति है और समस्त चर्चा और ज्ञान का स्थूल विषय है, क्योंकि वह पदार्थ भी है। इस अर्थ से सबका सरोकार है। कामकाज इसके़े माध्यम से चलता है, लेन-देन चलता है, वार्ता चलती है, बहस चलती है।

पर इस अर्थ के साथ भी कुछ जानी-मानी अलिखित शते होती हैं, वे सामाजिक स्वीकृति और परस्पर विश्वास पर आधारित होती हैं। आप जो वाक्य कह रहे हैं उसके पीछे आपका मंतव्य स्पष्ट है और वह वही अर्थ है जो दूसरे को उस वाक्य से स्पष्ट लगता है। यह बात न हो तो आदमी एक-दूसरे से बात न करे। इसी वजन पर हम किसी से कुछ लेते हैं तो देने वाले को विश्वास रहता है कि हमारी आवश्यकता सही माने में है, लेने वाले को विश्वास रहता है कि देने वाले के पास से वह वस्तु मिल जाएगी।

सहायता देना और लेना दोनों परिस्थिति की विवशता है। धन को तो तेल की बूँद की तरह फैलना-ही फैलना है, क्योंकि लक्ष्मी स्थिर नहीं रह सकती। पर सहायता लेने वाले का भी कर्तव्य होता है कि सहायता लेते समय अपनी आवश्यकता, खर्च करने की अपनी क्षमता और उसके आधार पर अपने को समर्थतर बनाने का संकल्प कितना है, इसे नापे और उसी अनुपात में सहायता ले, उसका उचित उपयोग करे। हिंदुस्तान का किसान कर्ज से बड़ा घबराता रहा है और हिंदुस्तान का जमींदार कर्ज देना अपनी शान समझता था। आज प्रबुद्ध वर्ग कर्ज को शान समझता है और बैंक उसकी इस थोथी शान पर पनप रहे हैं। यह बात और है कि बैंकों से बड़े उद्योगपति अरबों डकार जाते हैं, पर मध्यवर्ग कुकी भोगने की स्तिति में भी पहुँच जाता है। इनमें कौन सही है. कौन गलत है, यह आने वाला समय बतलाएगा।

प्रश्न :
(i) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ii) कौटिल्य के प्रयोग और आज के प्रयोग में ‘अर्थ’ की अर्थयात्रा समझाइए।
(iii) अर्थ को पुरुषार्थ के समकक्ष क्यों रखा गया?
(iv) व्यावहारिक स्तर पर अर्थ की क्या उपयोगिता है?
(v) जानी-मानी अलिखित शर्तों से लेखक का क्या अभिप्राय है?
(vi) लेन-देन करने वालों में परस्पर विश्वास किस आधार पर होता है?
उत्तर :
(i) शीर्षक : अर्थनीति।
(ii) कौटिल्य के समय ‘अर्थ’ शब्द का प्रयोग राजनीति या नीतिसूचक था। इसलिए उनकी पुस्तक का नाम अर्थशास्त्र है। आज ‘अर्थ’ का प्रयोग केवल ‘रुपया’ (धन) से चिपक कर रह गया है।
(iii) अर्थ को पुरुषार्थ के समकक्ष इसलिए रखा गया क्योंकि यह मानव-मूल्य पर आधारित था। यह सबके हित के लिए संग्रहित और वितरित किया जाता था।
(iv) व्यावहारिक स्तर पर अर्थ धन है। सारा काम-काज इसी के माध्यम से चलता है और लेन-देन भी।
(v) अर्थ के साथ कुछ जानी-मानी अलिखित शर्तें भी होती हैं। ये शर्तें सामाजिक स्वीकृति और परस्पर विश्वास पर आधारित होती हैं। कहने वाले का मंतव्य स्पष्ट होना चाहिए।
(vi) लेन-देन करने वालों में परस्पर विश्वास होना ही चाहिए। जब हम किसी से कुछ लेते हैं तो देने वाले को विश्वास रहता हे कि हमारी आवश्यकता सही मायने में है। लेने वाले को भी विश्वास रहता है कि देने वाले से वह वस्तु मिल जाएगी।

8. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

प्राचीन काल से ही भारत में संयुक्त परिवारों का प्रचलन रहा है। एकल परिवार कभी भारतीय सोच में नहीं रहे। संयुक्त पांग्वा़ में प्रत्येक सदस्य अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त रहता था और परिवार के प्रति सम्मिलित उत्तरदायित्व और एक परिवार से सामाजिकता का बोध जागृत रहता था। संतान के लालन-पालन, गिश्त-दीक्षा, विवाह आदि सुख-दुख की चिंता सभी को रहती है और संतान भी माँ-बाप के अतिरिक्त घर-परिवार के बड़े-बूढ़ों के हाथों पलकर बड़ी होती, उनके संस्कारों से पल्लवित होती, आजीवन निश्चिंत रहने का सुख भोगती हुई बड़ों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस करती। इस प्रकार संयुक्त परिवारों में बचपन, यौवन और बुढ़ापा सभी आनंद में बीतते।

अब संयुक्त परिवार प्रथा के टूटने से परिवारों में बिखराव आ गया है। चूँकि व्यक्ति परिवार की और परिवार समाज की इकाई है, इसलिए परिवारों के टूटने से समाज में बिखराव और अलगाव दिखाई पड़ रहा है। उसकी कल्पना शायद किसी ने भी नहीं की होगी। समाज के मूल्य बदल रहे हैं। मान्यताएँ बदल रही हैं और यह बदलाव की प्रक्रिया व्यक्ति से परिवार और परिवार से समाज में परस्पर हो रही है। लगता है जैसे नई पीढ़ी अनुशासन को बंधनों का नाम देती हुई धीरे-धीरे उच्छृंखलता की ओर बढ़ रही है।

परिवारों में बिखराव के पीछे पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी का वैचारिक संघर्ष भी है। पुरानी पीढ़ी अपनी रूढ़ियों, परंपराओं को त्याग नहीं पाती और अपनी सोच को जबरदस्ती लादना अपना कर्तव्य समझती है। नई पीढ़ी का आकाश बहुत विस्तृत है। उसे पाने के लिए उसे पुरातनता सहायक नहीं लगती। विचारों का संघर्ष तो है ही, नई पीढ़ी पर नए आकर्षणों का दबाव भी है। उनमें ‘स्व’ और ‘अहम्’ प्रधान होता जा रहा है। पुरानी पीढ़ी अपने संस्कारों ट.:. मर्यादाओं में बँधी और नई पीढ़ी उन पर कुठाराघात करने को उतारू, जब तक इन दोनों में सामंजस्य न हो, परिवारों का विघटन होता रहेगा। देश के लिए यह शुभ लक्षण नहीं है। दोनों पीढ़ियों का समय और परिस्थितियों के अनुकूल अपने-अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना होगा। जब परिवारों में परस्पर सद्भावना, सहयोग, प्रेम और त्याग आदि की भावनाएँ प्रबल होंगी तो हर व्यक्ति सुखी होगा। परिवारों में खुशहाली होगी।

प्रश्न :
(i) ‘संयुक्त परिवार’ और एकल परिवार से क्या तात्पर्य है?
(ii) संयुक्त परिवार के लाभों का वर्णन कीजिए।
(iii) संयुक्त परिवारों के टूटने से नैतिक मूल्यों का विघटन कैसे हो रहा है?
(iv) व्यक्ति, परिवार और समाज के अंतः संबंधों पर टिप्पणी कीजिए।
(v) आपके विचार से दोनों पीढ़ियों में सामंजस्य कैसे संभव है?
(vi) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीषंक दीजिए।
उत्तर :
(i) संयुक्त परिवार से अभिप्राय ऐसे परिवार से है जिसमें बच्चा, माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची आदि सब एक साथ रहते हैं और एकल परिवार से अभिप्राय ऐसे परिवार से है जिसमें बच्चा उसके माता-पिता एक साथ रहते हैं।
(ii) संयुक्त परिवार के अनेक लाभ हैं, जैसे-ब्चच्चों का पालन-पोषण अच्छी तरह से हो जाता है, परिवार के सभी सदस्य स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं। परिवार के प्रति उत्तरदायित्व का अनुभव सभी सदस्य करते हैं। उनमें सामाजिकता आती है। संतान की शिक्षा, विवाह, सुख-दुख की चिंता सभी को रहती है।
(iii) संयुक्त परिवारों के टूटने से परिवारों में बिखराव आ गया है। सामाजिक मान्यताएँ बदल रही हैं, नैतिक मूल्यों का विघटन हो रहा है। नई पीढ़ी अनुशासन को बंधन और उच्छृंखलता को भूलवश स्वतंत्रता समझने लगी है।
(iv) व्यक्ति परिवार के अभिन्न अंग हैं। व्यक्तियों से ही परिवार बनता है। परिवारों से समाज बनता है। व्यक्ति परिवार की छोटी इकाई है और परिवार समाज की। इससे स्पष्ट होता है तीनों का आपस में गहरा संबंध है।
(v) हमारे विचार से नई और पुरानी पीढ़ी-दोनों दो एक-दूसरे को अच्छी प्रकार समझना होगा। पुरानी पीढ़ी बंधन मुक्त जीवन जीना चाहती है जबकि पुरानी पीढ़ी अपने संस्कारों और मरादाओं से बँधी हुई है। पुरानी पीढ़ी को अपने विचारों में समयानुकूल परिवर्तन लाना होगा।
(vi) शीर्षक : टूटते संयुक्त परिवार।

9. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

यह सत्य है कि दोनों पक्षों के वीर इस युद्ध को धर्मयुद्ध मानकर लड़ रहे थे, किंतु धर्म पर दोनों में से कोई भी अडिग नहीं रह सका। ‘लक्ष्य प्राप्त हो या न हो, किंतु हम कुमार्ग पर पाँव नहीं रखेंगे ‘-इस निष्ठा की अवहेलना दोनों ओर से हुई और दोनों पक्षों के सामने साध्य प्रमुख और साधन गौण हो गया। अभिमन्यु की हत्या पाप से की गई तो भीष्म, द्रोण, भूर्श्रवा और स्वयं दुर्योधन का वध भी धर्म सम्मत नहीं कहा जा सकता।

जिस युद्ध में भीष्म, द्रोण और श्रीकृष्ग विद्यमान हों, उस युद्ध में भी धर्म का पालन नहीं हो सके, इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि युद्ध कभी भी धर्म के पथ पर रहकर लड़ा नहीं जा सकता। हिंसा का आदि भी अधर्म है, मध्य भी अधर्म है और अंत भी अधर्म है। जिसकी आँखों पर लोभ की पट्टी नहीं बँधी है, जो क्रोध और आवेश अथवा स्वार्थ में अपने कर्तव्य को भूल नहीं गया है, जिसकी आँख गध धना की अनिवार्यता से हट कर साध्य पर ही केंद्रित नहीं हो गई है, वह युद्ध जैसे मलिन कर्म में कभी भी प्रवृत्त नहीं होगा। युद्ध में प्रवृत्त होना ही इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य अपने रागों का दास बन गया है, फिर जो रागों की दासता करता है, वह उनका नियंत्रण कैसे करेगा।

अगर यह कहिए कि विजय के लिए युद्ध अवश्यम्भावी है तो विजय को में कोई बड़ा ध्येय नहीं मानता। जिस ध्येय की प्राप्ति धर्म के मार्ग से नहीं की जा सकती, वह या तो बड़ा ध्येय नहीं है अथवा अगर है तो फिर उसे पाप के मार्ग से पाने का प्रयास व्यर्थ है। संग्राम के कोलाहल में चाहे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ा हो, किन्तु आज मैं अपनी आत्मा की इस पुकार को स्पष्ट सुन रहा हूँ कि युधिष्ठिर! तुम जो चाहते थे वह वस्तु तुम्हें नहीं मिली। संग्राम तो जैसे-तैसे समाप्त हो गया किंतु उससे देश भर में हिंसा की जो मानसिकता फैली, उसका क्या होगा ? क्या लोग हिंसा के खेल को दुछराते जाएँगे अथवा यह विचार कर शांति से काम लेंगे कि शत्रुओं का भी मस्तक उतारना बर्बरता और जंगलीपन का काम है।

प्रश्न :
(i) कौरवों और पांडवों ने महाभारत युद्ध को धैर्मयुद्ध क्यों माना? दोनों पक्षों में किस निष्ठा की बात कही गई थी?
(ii) मलिन कर्म से क्या आशय है? युद्ध को मलिन कर्म क्यों माना गया है?
(iii) साध्य और साधन से आप क्या समझते हैं? कैसे कहा जा सकता है कि महाभारत युद्ध में साध्य प्रमुख और साधन गोण हो गए?
(iv) आपके विचार में गद्यांश में विश्व शांति के लिए क्या संदेश उभरता है? स्पष्ट कीजिए।
(v) “युद्ध कभी भी धर्म के पथ पर रहकर लड़ा नहीं जा सकता है।”-पक्ष या विपक्ष में दो तर्क प्रस्तुत कीजिए।
(vi) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(i) कौरवों और पांडवों ने महाभारत का युद्ध धर्मयुद्ध मानकर लड़ा परंतु दोनों में कोई भी धर्म पर अडिग नहीं रहा। लक्ष्य प्राप्ति न हो किंतु हम कुमार्ग पर पाँव नहीं रखेंगे, इस निष्ठा का अतिक्रमण दोनों ओर से किया गया। दोनों ओर से साध्य को महत्त्व दिया गया, साधन बहुत गौण रह गया।
(ii) जो व्यक्ति हिंसा, अधर्म, लोभ, क्रोध, आवेश या स्वार्थ में अपने कर्तव्य को भूल जाता है वह मलिन कर्म करता है। युद्ध भी मलिन कर्म है। इसलिए मलिन है क्योंकि युद्ध में व्यक्ति रागों का दास बन जाता है।
(iii) साधन का अर्थ लक्ष्य है। इसे प्राप्त करने के लिए साधन का उपयोग किया जाता है। साधन से अर्थ किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनाया जाने वाला मार्ग है, उपयोग किया जाने वाला उपकरण है। महाभारत में दोनों पक्षों का लक्ष्य युद्ध में विजय प्राप्त करना था। इसमें साधन अत्यंत गौण हो गया। अभिप्राय यह है कि लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हर उपाय अपनाया गया। जैसे भी हो, साध्य प्राप्त किया गया।
(iv) इस गद्यांश में विश्व शांति के लिए संदेश दिया गया है। कहा गया है कि हिंसा का खेल दुहराना नहीं चाहिए। विचार कर शांति से काम लेना चाहिए। अगर शत्रुओं को मारना है तो यह हिंसा और बर्बरता है।
(v) युद्ध धर्म पर चलकर कभी नहीं लड़ा जा सकता। यह कहना सच है कि युद्ध का मुख्य उद्देश्य विजय प्राप्त करना ही होता है। भले ही इसके लिए धर्म या अधर्म कोई भी रास्ता अपनाया जाए।
(vi) शीर्षक : युद्ध -धर्मयुद्ध नहीं।

10. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक एढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

स्वामी विवेकानंद आदर्श और उज्ज्वल चरित्र के बहुत बड़े समर्थक थे। कठोपनिषद् का एक मंत्र है जिसका उल्लेख वे प्रायः किया करते थे : ‘उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।’ यानी उठो, जागो और ऐसे श्रेष्ठजनों के पास जाओ, जो तुम्हारा परिचय परमात्मा से करा सकें। इसमें तीन बातें निहित हैं। पहली, तुम जो निद्रा में बेसुध पड़े हो, उसका त्याग करो और उठकर बैठ जाओ। दूसरी, आँखें खोल दो अर्थांत् अपने विवेक को जाग्रत करो। तीसरी, चलो और उन उत्तम कोटि के पुरुषों के पास जाओ, जो ईश्वर यानी जीवन के चरम लक्ष्य का बोध करा सकें। जीवन-विकास के राजपथ पर स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय काम नहीं करता। यहाँ तो सत्य की तलाश में आस्था, निष्ठा, संकल्प और पुरुषार्थ ही जीवन को नई दिशा दे सकते हैं।

महावीर की वाणी है-‘उट्ठिये णो पमायए।’ यानी क्षण भर भी प्रमाद न हो। प्रमाद का अर्थ है-नैतिक मूल्यों को नकार देना, अपनों से अपने-पराए हो जाना, सही-गलत को समझने का विवेक न होना। ‘मैं’ का संवेदन भी प्रमाद है, जो दु:ख का कारण बनता है। प्रमाद में हम अपने आप की पहचान औरों के नजरिए से, मान्यता से, पसंद से, स्वीकृति से करते हैं जबकि स्वयं द्वारा स्वयं को देखने का क्षण ही चरित्र की सही पहचान बनता है। चरित्र का सुरक्षा-कबच अप्रमाद है। जहाँ जागती आँखों की पहरेदारी में बुराइयों की घुसपैठ संभव ही नहीं।

बुराइयाँ दूब की तरह फैलफें हैं, मगर उनकी जड़ें गहरी नहीं होतीं इसलिए उन्हें थोड़े से प्रयास से उखाड़ फेंका जा सकता है। जैसे ही स्वयं पर स्वयं का विश्वास और अपनी बुराइयों का बोध जागेगा, परत-दर-परत जमी बुराइयों व अपसंस्कारों में बदलाव आ जाएगा। चरित्र जितना ऊँचा और सुदृढ़ होगा, जीवन मूल्य उतनी ही तेजी से विकसित होंगे और सफलताएँ उतनी ही तेजी से कदमों को चूमेंगी, इसलिए परिस्थितियाँ बदलें, उससे पहले प्रकृति बदलनी जरूरी है। बिना आदत और संस्कारों के बदले न सुख-संभव है, न साधना और न ही साध्य।

प्रश्न :
(i) स्वामी विवेकानंद किसके समर्थक थे? वे किस मंत्र का उल्लेख करते थे? उसका क्या अर्थ है?
(ii) उपर्युक्त मंत्र में कौन-सी तीन बातें निहित हैं?
(iii) महावीर की वाणी क्या है?
(iv) प्रमाद क्या है? प्रमादी व्यक्ति अपनी पहचान किस प्रकार करता है?
(v) बुराइयों को दूब की तरह क्यों बताया गया है?
(vi) गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) स्वामी विवेकानंद आदर्श और उज्ज्वल चरित्र के समर्थक थे। उन्होंने कंठोपनिषद् के इस मंत्र का उल्लेख किया है-‘उत्तिष्ठत जाग्रत वरान्निबोधत’। इसका अर्थ है-उठो, जागो और ऐसे श्रेष्ठजनों के पास जाओ जो तुम्हारा परिचय परमात्मा से करा सकें।
(ii) उपर्युक्त मंत्र में ये तीन बातें निहित हैं :
(क) तुम जो निद्रा में पड़े हो, उसका त्याग कर उठ बैठो।
(ख) आँखें खोल दो अर्थात् अपने मन के विवेक को जगाओ।
(ग) चलो और उत्तम कोटि के पुरुषों के पास जाओ।
(iii) महावीर की वाणी है -‘उट्ठिये णो पमायए’ यानी क्षण भर भी प्रमाद न हो। प्रमाद है नैतिक मूल्यों को नकार देना।
(iv) प्रमाद है-नैतिक मूल्यों को न मानना, अपनों से दूर हो जाना, सही-गलत को समझने का विवेक न रहना। प्रमादी व्यक्ति अपनी पहचान दूसरों के नजरिए से करता है, दूसरों कां मान्यताओं से करता है, उनकी स्वीकृति से करता है।
(v) बुराइयों को दूब की तरह इसलिए बताया गया है क्योंकि बुराइयाँ दूब की तरह फैलती हैं। पर उनकी जड़ें गहरी नहीं होतीं अतः उन्हें थोड़े प्रयास से उखाड़ फेंका जा सकता है।
(vi) शीर्षक : अपनी सही चहचान करो।

11. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

बहस यह नहीं होनी चाहिए कि कितने रुपये में खाना मिल सकता है। सवाल यह है कि भारत की आबादी में कितने सारे लोग ठीकठाक, सम्मानजनक दिनचर्या पा सकते हैं। शायद इसके लिए हमें तथ्यों को समग्रता में देखना होगा। यह तमाम आँकड़ों से सिद्ध होता है कि भारत में विषमता बढ़ी है, लेकिन यह भी सही है कि उदारीकरण के बाद गरीबी के घटने की गफ्तार भी तेज़ हुई है। विषमता बढ़ने का कारण यह है कि अमीरों की आय ज्यादा तेजी से बढ़ी है, उतनी तेज़ों से गरीबों की आय नहीं बढ़ी है। यह भी तमाम आँकड़ों से सिद्ध होता है कि भारत में भुखमरी कम हुई है और ऐसे लोगों का प्रतिशत भी कम हुआ है, जिन्हें दो वक्त की रोटी नसीब नहीं है। इसके बावजूद ऐसे लोगों की तादाद अच्छी-खासी है जिनके लिए खाद्य सुरक्षा की जरूरत है। यह बात सरकार भी मानती है, तभी वह खाद्य सुरक्षा अधिनियम लेकर आई है। स्वतंत्र भारत में गरीबी शुरू से ही एक ऐसा राजनीतिक मुहावरा है, जिसके नाम पर वोट बटोरे जा सकते हैं। ऐसे में गरीबी की बहस हमेशा ही असंवेदनशीलता और सनसनी का शिकार हो जाती है। अगर गरीबी पर विचार और बहस-मुबाहिसा संतुलित तथा गरिमामय ढंग से किया जाए, तो इससे गरीबों की गरिमा भी बनी रहेगी और उनकी समस्याओं को हल करना भी आसान होगा।

प्रश्न :
(i) बहस का मुद्दा क्या नहीं होना चाहिए, क्यों?
(ii) तथ्यों को समग्रता में देखने से क्या आशय है?
(iii) आँकड़े किन विरोधी बातों को प्रदर्शित करते हैं?
(iv) विषमता बढ़ने का प्रमुख कारण क्या है?
(v) गरीबी को राजनीतिक मुहावरा क्यों कहा गया और गरीबी पर संतुलित बहस से क्या लाभ होगा?
(vi) गद्यांश के लिए शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) बहस का मुद्दा यह नहीं होना चाहिए कि खाना कितने रुपए में मिलता है। यह बहस ही निरर्थक है। बहस का मुद्दा सम्मानजनक दिनचर्या की सुविधा होना चाहिए।
(ii) तथ्यों को समग्रता से देखने से यह आशय है कि हमें तथ्यों को पूरे भारत में गरीबी के परिप्रेक्य में देखना चाहिए। पूरे भारत की गरीबी की स्थिति को ध्यान में रखना होगा।
(iii) आँकड़े इन विरोधी बातों को प्रदर्शित करते हैं कि भारत में विषमता बढ़ी है और गरीबी तेजी से घटी है। उदारीकरण के बाद गरीबी के घटने की रफ्तार तेज हुई है।
(iv) विषमता बढ़ने का प्रमुख कारण यह है कि अमीरों की आय तो ज्यादा तेजी से बढ़ी है, पर उतनी तेजी से गरीबों की आय नही बढ़ी है।
(v) गरीबी को राजनीतिक मुहावरा इसलिए कहा गया है क्योंकि गरीबों के नाम पर वोट बटोरे जाते हैं। गरीब लोग राजनीतिज्ञों के लिए सिर्फ वोट हैं। गरीबी पर संतुलित बहस होनी चाहिए। यह गरिमामयी होनी चाहिए। इससे यह लाभ होगा कि गरीबों की गरिमा भी बनी रहेगी और उनकी समस्याओं को हल करना भी आसान हो जाएगा।
(vi) शीर्षक : भारत की गरीबी : एक समस्या।

12. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

महिलाओं की मर्यादा और उनके दुर्व्यवहार के मामले भी अन्य मामलों के तरह न्यायालय में ही जाते हैं कितु पिछले कुछ दिनों से ऐसे आचरण के लिए स्वयं न्यायपालिका पर अंगुली उठाई जा रही है। काफी हद तक यह समस्या न्यायपालिका की नहीं, बल्कि हमारे पूरे समाज की कही जा सकती है। जज भी समाज का ही अंग है, इसलिए यह समस्या न्यायपालिका में भी दिखाई देती है। हमारे समाज में कानून के पालन को लेकर बहुत शिथिलता है और अक्सर कानून का पालन न करने को सामाजिक हैसियत का मानक मान लिया जाता है। वी.आई.पी. संस्कृति का मूल सिद्धांत ही यह है कि जिसे सामान्य नियम-कानून नहीं पालन करने होते वह महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता है। छोटे शहरों, कस्बों में सरकारी अफसरों की हैसियत बहुत बड़ी होती है और जज भी उन्हीं हैसियत वाले लोगों में शामिल होते हैं। ऐसे में, अगर कुछ जज यह मान लें कि वे तमाम सामाजिक मर्यादाओं से भी ऊपर हैं, तो यह हो सकता है।

माना यह जाना चाहिए कि जितने ज्यादा जिम्मेदार पद पर कोई व्यक्ति है, उस पर कानून के पालन की जिम्मेदारी भी उतनी ही ज्यादा हैं खास तौर से जिन लोगों पर कानून की रक्षा करने और दूसरों से कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारी है, उन्हें तो इस मामले में बहुत ज्यादा सतर्क होना चाहिए। लेकिन वास्तव में इससे बिल्कुल उल्टा होता है। एक समस्या की ओर कई वरिष्ठ जज और न्यायविद ध्यान दिला चुके हैं कि न्यायपालिका में निचले स्तर पर अच्छे जज नहीं मिलते। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि अच्छे न्यायिक शिक्षा संस्थानों से निकले अच्छे जज छात्र न्यायपालिका में नौकरी करना पसंद नहीं करते, क्योंकि उन्हें कामकाज की परिस्थितियाँ और आमदनी दोनों ही आकर्षक नहीं लगतीं। नेशनल लॉ इंस्टीट्यूट को तो बनाया ही इसलिए गया था कि अच्छे स्तर के जज और वकील वहाँ से निकल सकें, लेकिन देखा यह गया है कि वहाँ से निकले ज्यादातर छात्र कॉरपोरेट जगत् में चले जाते हैं। अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्र भी बजाय जज बनने के प्रैक्टिस करना पसंद करते हैं। जजों की चुनाव प्रक्रिया में भी कई खामियाँ हैं, जिन्हें दूर किया जाना जरूरी है, ताकि हर स्तर पर बेहतर गुणवत्ता के जज मिल सकें।

प्रश्न :
(i) वी.आई.पी. संस्कृति से क्या तात्पर्य है और उसका सिद्धांत क्या बताया गया है?
(ii) छोटे शहरों में अपने आपको सारी सामाजिक मान्यताओं से ऊपर क्यों मान लेते हैं?
(iii) कानून पालन के मामले में किन्ें अधिक सतर्क होना चाहिए और क्यों?
(iv) न्यायपालिका को निचले स्तरों के अच्छे जज क्यों नहीं मिल पाते?
(v) नेशनल इस्टीट्यूट का गठन क्यों किया गया था? क्या लक्ष्य प्राप्त हो सका?
(vi) गद्यांश के लिए शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) वी.आई.पी. संस्कृति में अधिकतर कानून का पालन न करने को सामाजिक हैसियत का मानक मान लिया जाता है। वी.आई.पी. संस्कृति का मूल सिद्धांत ही यह है कि जिसे सामान्य नियम-कानून पालन नहीं करने होते, वह महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता है।
(ii) छोटे शहरों, कस्बों में सरकारी अफसरों की हैसियत बहुत बड़ी होती है और जज भी उन्हीं हैसियत वाले लोगों में शामिल होते हैं। ऐसे में जज अपने को सारी सामाजिक मर्यादाओं से ऊपर मान लेते हैं।
(iii) जिन लोगों पर कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारी है , उन्हें कानून पालन के मामले में बहुत ज्यादा सतर्क होना चाहिए। इन लोगों को अधिक सतर्क इसलिए होना चाहिए, क्योंकि जब तक वे स्वयं सतर्क नहीं होंगे तब तक वे अन्य लोगों से कानून का पालन उचित प्रकार से नहीं करवा पाएँगे।
(iv) न्यायपालिका को निचले स्तरों के लिए अच्छे जज नहीं मिल पाने की वजह यह है कि अच्छे शिक्षा संस्थानों से निकले अच्छे छात्र न्यायपालिका में नौकरी करना पसंद नहीं करते, क्योंकि उन्हें कामकाज की परिस्थितियाँ और आमदनी दोनों ही आकर्षक नहीं लगतीं।
(v) नेशनल लों इंस्टीट्यूट को तो बनाया ही इसलिए गया था कि अच्छे स्तर के जज और वकील वहाँ से निकल सकें, लेकिन देखा यह गया है कि वहाँ से निकले ज्यादातर छात्र कॉरपोरेट जगत में चले जाते हैं।
(vi) शीर्षक : वर्तमान न्यायपालिका की दशा।

13. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

वर्तमान सांप्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में संत-साहित्य की उपादेयता बहुत है। संतों में शिरोमणि कबीर दास भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार पुरुष हैं। संत कबीर एक सफल साधक, प्रभावशाली उपदेशक, महान नेता और युग-द्रष्टा थे। उनका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हृदय की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को और भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार को युग-युगांतर के लिए अमरता प्रदान की।

कबीर ने धर्म को मानव धर्म के रूप में देखा था। सत्य के समर्थक कबीर हृदय में विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति लेकर अवतरित हुए थे। उन्होंने लोक-कल्याण कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-रचना की। वे पाठशाला या मकतब की देहरी से दूर जीवन के विद्यालय में ‘मसि कागद छुयो नहिं’ की दशा में जीकर सत्य, ईश्वर, विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर अनुभूति मूलक ज्ञान का प्रसार कर रहे थे। कबीर ने समाज में फैले हुए मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं।

स्वकीय भोगी हुई वेदनाओं के आक्रोश से भरकर समाज में फैले हुए ढोंग और ढकोसलों, कुत्सित विचारधाराओं के प्रति दो टूक शब्दों में जो बातें कहीं, उनसे समाज की आँखें फटी की फ़टी रह गईं और साधारण जनता उनकी वाणियों से चेतना प्राप्त कर उनकी अनुगामिनी बनने को बाध्य हो उठी। देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान वैयक्तिक जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न संत कबीर ने किया। उन्होंने बाँह उठाकर बलपूर्वक कहा-
कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ॥

प्रश्न :
(i) संत-शिरोमणि किसे माना गया है और क्यों?
(ii) कबीर ने अपनी कविता के सहारे क्या काम किया?
(iii) कैसे पता चलता है कि कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे? उनको किसका पाठ पढ़ाया?
(iv) कबीर ने समाज-सुधारक के रूप में क्या कार्य किया?
(v) कबीर ने अपनी बाँह उठाकर जो कुछ कहा, उसे अपने शब्दों में समझाइए।
(vi) गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) संत शिरोमणि कबीर को माना गया है, क्योंकि वे भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार पुरुष थे। वे एक सफल साधक, प्रभावशाली उपदेशक, महान नेता और युग-द्रष्टा थे।
(ii) कबीर ने अपनी कविता के सहारे अपने विचारों को और भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार को युग-युगांतर के लिए अमरता प्रदान की। उनका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हृदय की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है।
(iii) कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। वे पाठशाला की देहरी से दूर रहे। उनका कहना था ‘ मसि कागद छुयो नहिं’ अर्थात् कभी स्याही और कागज को छुआ तक नहीं। लेकिन उन्होंने अपने अनुभव से सत्य, ईश्वर, विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म निरपेक्षता का पाठ पढ़ा।
(iv) कबीर ने समाज में फैले मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ाईं। तत्कालीन समाज में फैले ढोंग-ढकोसलों के प्रति दो टूक शब्दों में अपना विरोध प्रकट किया।
(v) कबीर ने अपनी बाँह उठाकर बलपूर्वक कहा कि मैंने तो अपना सब कुछ गँवाकर और केवल हाथ में लाठी लेकर जन-सामान्य के बीच में आने का साहस किया है। मेरे साथ वही व्यक्ति चल सकता है जो सबसे पहले अपना घर जलाए अर्थात् मोह-माया का संपूर्ण त्याग करे।
(vi) शीर्षक : संत कबीर का जीवन-दर्शन।

14. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

जिन लेखों और विश्लेषणों को हम पढ़ते हैं वे राजनीतिक तकाज़ों से लाभ-हानि का हिसाब लगाते हुए लिखे जाते हैं, इसलिए उनमें पक्षधरता भी होती है और पक्षधरता के अनुरूप अपर पक्ष के लिए व्यर्थता भी। इसे भजनमंडली के बीच का भजन कह सकते हैं। सांप्रदायिकता, अर्थात् अपने संप्रदाय की हित-चिंता अच्छी बात है। यह अपनी व्यक्तिगत क्षुद्रता से आगे बढ़ने वाला पहला कदम है, इसके बिना मानव-मात्र की हित-चिंता, जो अभी तक मात्र एक ख़याल ही बना रह गया है, की ओर कदम नहीं बढ़ाए जा सकते। पहले कदम की कसौटी यह है कि वह दूसरे कदम के लिए रुकावट तो नहीं बन जाता।

बृहत्तर सरोकारों से लघुतर सरोकारों का अनमेल पड़ना उन्हें संकीर्ण ही नहीं बनाता, अन्य हितों से टकराव की स्थिति में लाकर एक ऐसी पंगुता पैदा करता है जिसमें हमारी अपनी बाढ़ भी रुकती है और दूसरों की बाढ़ को रोकने में भी हम एक भूमिका पेश करने लगते हैं। धर्मों, संप्रदायों और यहाँ तक कि विचारधाराओं तक की सीमाएँ यहीं से पैदा होती हैं, जिनका आरंभ तो मानवतावादी तकाज़़ों से होता है और असल में वे मानवद्रोही ही नहीं हो जाते बल्कि उस सीमित समाज का भी अहित करते हैं जिसके हित की चिंता को सर्वॉपरि मानकर ये चलते हैं।

सामुदायिक हितों का टकराव वर्चस्वी हितों से होना अवश्यंभावी है। अवसर की कमी और अस्तित्व की रक्षा के चलते दूसरे वंचित या अभावग्रस्त समुदायों से भी टकराव और प्रतिस्पर्धा की स्थिति पैदा होती है। बाहरी एकरूपता के नीचे सभी समाजों में भीतरी दायरे में कई तरह के असंतोष बने रहते हैं और ये पहले से रहे हैं। सांप्रदायिकता ऐसी कि संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय। भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है कि इसने सामाजिक अलगाव को विस्फोटक नहीं होने दिया और इसके चलते ही अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को पहले कभी जन-समर्थन नहीं- मेला।

प्रश्न :
(i) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ii) जिन लेखों को हम पढ़ते हैं वे कैसे लिखे जाते हैं? इसका क्या परिणाम होता है?
(iii) किस अर्थ में साप्रदायिकता को अच्छी बात कहा गया है?
(iv) हमारे सरोकारों की रुकावट और परस्पर टकराव के क्या परिणाम होते हैं?
(v) ‘वंचित या अभावग्रस्त’ समुदाय से क्या तात्पर्य है? इनसे टकराव की स्थिति कब पैदा होती है?
(vi) भारत में अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को जन-समर्थन क्यों नहीं मिला?
उत्तर :
(i) शीर्षक : सांप्रदायिकता।
(ii) जिन लेखों को हम पढ़ते हैं वे राजनीतिक तकाज़ों से लाभ-हानि का हिसाब लगाकर लिखे जाते हैं। इनमें पक्षधरता भी होती है। यह पक्षधरता अपर पक्ष के लिए व्यर्थ हो जाती
(iii) सांप्रदायिकता इस अर्थ में अच्छी है कि वह अपने संप्रदाय की हित-चिंता करती है। यह बात व्यक्तिगत छोटेपन से आगे बढ़ने वाला कदम है। इसी से मानव-मात्र की हित-चिंता का भाव आता है।
(iv) हमारे सरोकारों की रुकावट और परस्पर टकराव की स्थिति ऐसी पंगुता पैदा करती है जिससे हमारा विकास तो रुकता ही है, साथ ही दूसरों का विकास भी रुक जाता है।
(v) ‘वंचित या अभावग्रस्त’ समुदाय से तात्पर्य है-उन लोगों का समाज जिन्हें सामान्य सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है और जो अभावों के मध्य जीते हैं। अवसरों की कमी और अस्तित्व की रक्षा से ऐसी स्थिति पैदा होती है।
(vi) भारत में अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को जन-समर्थन इसलिए नहीं मिलता क्योंकि भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है कि इसने सामाजिक अलगाव को विस्फोटक नहीं होने दिया।

15. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

लोकतंत्र के बारे में एक कहावत है कि लोकतंत्र अच्छी प्रणाली नहीं है, किन्तु अभी तक ज्ञात शासन-प्रणालियों में लोकतंत्र सबसे अच्छी प्रणाली है। लोकतंत्र के तीन स्तंभ माने जाते हैं-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। यद्यपि संविधान में मीडिया के बारे में कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु मीडिया अब अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता है और जो एक सीमा तक ठीक भी लगता है। एक सीमा तक इसलिए कि उसके दायित्व, क्रियाशीलता और कार्य-सीमा के बारे में कोई प्रामाणिक नियम-विनियम नहीं हैं और सब कुछ उसकी ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता और विश्वसनीयता पर निर्भर करता है।

संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में मीडिया काम करता है, इसलिए सरकारी नियमन या अंकुश से बचा रहता है, किन्तु आत्मनियंत्रण या स्वयं पर अंकुश न होने से कभी-कभी अपनी सीमा का उल्लंघन कर बैठता है। ब्रिटेन में मर्डोक की अतिसक्रियता वहाँ के लोकतांत्रिक समाज के लिए बहुत बड़ा सदमा था। हमारे देश में भी पीत पत्रकारिता, चरित्रहनन, पेड न्यूज आदि के आरोप समय-समय पर मीडिया पर लगते रहे हैं। फिर भी जागरुकता लाने, भ्रष्टाचार या अन्य विकृतियों के विरुद्ध जनमत बनाने में मीडिया की विशेष भूमिका असंदिग्ध है।

प्रश्न :
(i) लोकतंत्र से आप क्या समझते हैं? परिभाग्तित कीजिए।
(ii) लोकतंत्र का चौथा स्तंभ किसे कहा जाता है? क्यों?
(iii) लेखक किस बात को एक सीमा तक ही ठीक मानता है? क्यों?
(iv) मीडिया अपने ऊपर कोई अंकुश क्यों नहीं लगाने देता?
(v) निरकुश मीडिया से प्रायः किस प्रकार की गलतियाँ होती हैं? इनसे कैसे बचा जा सकता है?
(vi) गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) लोकतंत्र ऐसी शासन प्रणाली है जो लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा राष्ट्र के शासन का संचालन करती है। यह श्रेष्ठतम शासन प्रणाली है। इसके तीन स्तंभ हैं-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका।
(ii) लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया है। इसलिए है कि यह शासन की गड़बड़ियों पर नजर रखता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करता है। जन जागरण करता है।
(iii) लेखक का मानना है कि मीडिया की स्वतंत्रता एक सीमा तक ही ठीक है। अगर मीडिया प्रशासनिक कार्यों में बहुत अधिक दखलंदाजी करता है तो कई बार अराजकता की स्थित्रिं आ सकती है। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि इसकी कार्य सीमा के बारे में कोई प्रामाणिक नियम-विनियम निर्धारित नहीं हैं। वह जितना ईमानदार होगा, उतना ही अपना काम बाखूबी निभा सकेगा।
(iv) मीडिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विश्वास करता है। इस कानून की आड़ में वह अपने ऊपर कोई नियंत्रण नहीं लगने देता। वह मानता है कि संविधान ने उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल अधिकार दिया हुआ है।
(v) निरंकुश मीडिया से कई तरह की गलतियाँ हो जाती हैं। जैसे वह अपने माध्यम को पाठकों के और निकट लाने के लिए पीत पत्रकारिता करने लग जाता है। पेड न्यूज लिखने-छापने लग जाता है। चरित्र हनन के घटिया हथकंडे अपनाने लगता है। इनसे बचने के लिए उसे आत्मनियंत्रण करना चाहिए तभी अपनी सही जिम्मेदारी निभा सकता है।
(vi) शीर्षक : लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली।

16. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

जिंदगी की दो सूरतें हैं। एक तो यह कि आदमी बड़े-से-बड़े मकसद के लिए कोशिश करे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ आँधियाली का जाल बुन रही हों, तब भी वह पाँव पीछे न हटाए। दूसरी सूरत यह है कि उन गरीबं आत्माओं का हमजोली बन जाए जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दु:ख पाने का ही संयोग है, क्योंकि वे आत्माएँ ऐसी गोधूलि में बसती हैं, जहाँ न तो जीत हँसती है और न कभी हार के रोने की आवाज सुनाई पड़ती है। इस गोधूलि वाली दुनिया के लोग बँधे हुए घाट का पानी पीते हैं, वे जिंदगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते।

साहस की जिदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी ही दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं।
प्रश्न :
(i) जिंदगी की पहली ‘सूरत’ क्या है? अपने शब्दों में समझाइए।
(ii) जीवन की दोनों स्थितियों में आप किसे अंच्छा समझते हैं और क्यों?
(iii) सबसे बड़ी जिंदगी साहसपूर्ण जिंदगी को ही क्यों कहा गया है?
(iv) ‘जनमत की उपेक्षा’ से क्या तात्पर्य है? साहसी ऐसा क्यों करता है?
(v) अड़ोस-पड़ोस को देखकर कौन चलते हैं?
(vi) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(i) जिंदगी की पहली सूरत यह है कि आदमी बड़े-से-बड़े उद्देश्य को पाने के लिए कोशिश करे, चमकती जीत को हासिल करने के लिए हाथ बढ़ाए, असफलता मिलने पर भी अपने कदम पीछे न हटाए।
(ii) जीवन की दोनों स्थितियों में हम पहली वाली स्थिति को अच्छा समझते हैं क्योंकि इसमें सक्रियता बनी रहती है। यह साहस की जिंदगी होती है। दूसरी स्थिति तो समझौतावादी होती है, इसमें व्यक्ति जोखिम नहीं उठाता।
(iii) साहसपूर्ण जिंदगी को ही सबसे बड़ी जिंदगी इसलिए कहा गया है क्योंकि यह जिंदगी निडर और बेखौफ होती है। साहसी व्यक्ति ही जीना जानता है।
(iv) जनमत की उपेक्षा से यह तात्पर्य है कि साहसी व्यक्ति इस बात की परवाह नहीं करता कि लोग उसके बारे में क्या कहते हैं। वह तो वही काम करता है जो उसका मन कहता है। साहसी व्यक्ति किसी से डरता नहीं। वह तो दुनिया को ताकत देता है। साधारण आदमी उसी को देखकर चलते हैं।
(v) अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना साधारण जीव का काम होता है। क्रांति करने वाले लोग अपनी चाल से ही चलते हैं।
(vi) शीर्षक : साहस की जिंदगी।

17. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

एक सुंदर सूत्र है आत्मकल्याण का-‘ जगत से अपेक्षाएँ न रखें, क्योंकि जगत उपेक्षा के योग्य है। अपेक्षा का अर्थ होता है चाहत, किसी से कुछ पाने की आशा रखना और उपेक्षा का अर्थ इसके विपरीत है अर्थात् जगत में किसी से भी कुछ पाने की आशा न रखना और निरपेक्ष भाव से सब में भगवद्भाव रखते हुए स्वार्थ का भाव त्याग कर सबकी सेवा करना। यह चाहत धन-संपत्ति, सुविधा, मान-सम्मान, सुरक्षा आदि किसी भी प्रकार की हो सकती है। चाहत कामना का ही दूसरा नाम है। कामना जीवन में दु:ख और अशांति को जन्म देता है।

सामान्यतः व्यक्ति स्वभाव से अहंवादी होता है। अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति, सखा, मित्र तथा परिवारजन से अपने अहं की तुष्टि की अपेक्षाएँ रखता है। वह यह चाहता है कि हर व्यक्ति उसकी परवाह करे, उसे मान-सम्मान दे। यह मान-बड़ाई की इच्छा-यह लोकैषणा ही अशांति का प्रमुख कारण है। जीवन में अपेक्षाओं की परिणति अंकार, द्वेष, ईष्ष्या, प्रतिशोध, असंतोष आदि विकारों में होती है, जबकि उपेक्षा से संतोष और शांति मिलती है। गीता का अमर संदेश है, फल की अपेक्षा न रखते हुए मनुष्य अपना स्वाभाविक कर्म करे। इससे सफल-असफल होने पर सुख-दु:ख की अनुभूति नहीं होगी, अपितु संतोष होगा व अकल्पनीय आनंद मिलेगा।

प्रश्न :
(i) अपेक्षा और उपेक्षा का अर्थ भेद समझाइए।
(ii) कामना जीवन में दु:ख का कारण क्यों बताई गई है?
(iii) अपेक्षा और उपेक्षा जीवन को कैसे प्रभाजि $ा$ करती हैं?
(iv) गीता में कर्मफल की आकांक्षा न रखने की बात क्यों कही गई है?
(v) सामान्यतः व्यक्ति स्वभाव से किस प्रकार का होता है?
(vi) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) अपेक्षा का अर्थ होता है-‘चाहत’ अर्थात् किसी से कुछ पाने की आशा रखना।
उपेक्षा का अर्थ है-इस जगत में किसी से कुछ पाने की आशा न रखना और निरपेक्ष भाव बनाए रखते हुए सद्भाव और त्याग कर सबकी सेवा करना।
(ii) कामना को जीवन में दु:ख का कारण बताया गया है। चाहत का दूसरा नाम ही कामना है। कामना जीवन में दु:ख और अशांति को जन्म देती है। जब हमारी कोई कामना पूरी नहीं होती तब हमें दुःख होता है।
(iii) अपेक्षा और उपेक्षा जीवन को बहुत प्रभावित करती हैं। जीवन में अपेक्षाओं की समाप्ति प्राय: अहंकार, द्वेष, ईर्ष्या, प्रतिशोध, असंतोष आदि विकारों में होती है। अतः जीवन में अशांति मिलती है। इसके विपरीत उपेक्षा से जीवन में संतोष और शांति मिलती है।
(iv) गीता में कर्म करने की बात तो कही गई है, पर उसका फल पाने की आकांक्षा अथवा अपेक्षा न करने को कहा गया है। यह इसलिए कहा गया है इससे सफलता या असफलता मिलने की स्थिति में सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती अपितु संतोष और आनंद मिलता है।
(v) सामान्यत: व्यक्ति स्वभाव से अहंवादी होता है। वह अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों से अपने ‘अह” की तुष्टि की अपेक्षा रखता है। वह चाहता है कि सभी उसे सम्मान दें।
(vi) शीर्षक : जीवन जीने का ढंग।

18. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

विश्व के प्राय: सभी धर्मों में अहिसा के महत्त्व पर बहुत प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। ‘अष्टांगयोग’ के प्रवर्त्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग. ‘ यम’ के अंतर्गत ‘अहिसा’ को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार गीता में भी अहिंसा के महत्त्व पर जगह-जगह प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए ‘जियो और जीने दो’ की बात कही है। अहिंसा मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीवन का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीवन या प्राणी को अकारण दु:ख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन-शैली अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन-शैली है।’

अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारंभिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है, वह उसकी बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है। परिणामत: दूसरों को दु:ख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत् हैं। मेरा किसी से वैर नहीं है, ऐसी भावना से प्रेरित होकर हम व्यावहारिक जीवन में इसे उतारने का प्रयत्न करें, तो फिर अहंकारवश उतपन्न हुआ क्रोध या द्वेष समाप्त हो जाएगा और तब अपराधी के प्रति भी हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाता है। हमें ईष्य्या तथा द्वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थांन देते हुए अहिंसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए।

प्रश्न :
(i) अहिंसात्मक जीवन-शैली से लेखक का क्या तात्पर्य है?
(ii) कैसी जीवन-शैली अनुकरणीय हो सकती है?
(iii) “जियो और जीने दो” की बात किसने कही? इसका आशय स्पष्ट कीजिए।
(iv) अहिंसा में क्रोध और द्वेष को छोड़ने की बात पर लेखक ने क्यों बल दिया है?
(v) “क्रोध अंधा बना देता है” का आशय स्पष्ट कीजिए और बताइए कि लेखक ने इसे हिंसा की प्रवृति का प्रारंभिक रूप क्यों कहा है?
(vi) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(i) प्रस्तुत गद्यांश के अनुसार अहिंसा केवल हिंसा का अभाव ही नहीं है, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी भी जीव या प्राणी को अकारण दु:ख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन-शैली को अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन-शैली ‘ है।
(ii) ईष्ष्या तथा द्वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिंसा को आधार बनकर जीने की शैली अनुकरणीय हो सकती है।
(iii) “जियो और जीने दो” की बात भगवान महावीर ने कही है। इसका आशय यह है कि हमें ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे हम स्वयं अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत कर सकें तथा दूसरों का भी जीवन सुखी बना सकें।
(iv) लेखक के अनुसार मनुष्य को क्रोध और द्वेष का भाव नहीं रखना चाहिए, क्योंकि यह हिंसा की प्रवृत्ति का प्रारंभिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है, क्रोध मनुष्य की बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, जिससे दूसरों को दु:ख व पीड़ा पहुँचती है। इसलिए लेखक इन्हें छोड़ने की बात पर बल देता है।
(v) “क्रोध अंधा बना देता है” से आशय है क्रोध का भाव मनुष्य की सोचने-समझने, निर्णाय लेने की शक्ति, उचित अनुचित भाव में अंतर करने की शक्ति को नष्ट कर देता है, इसलिए क्रोध को हिंसा की प्रवृत्ति का प्रारंभिक रूप कहा गया है, क्योंक क्रोध पर नियंत्रण न होने से मनुष्य हिंसा की ओर अग्रसर हो जाता है।
(vi) शीर्षक : अहिसा-जीवन का आदर्श रूप।

19. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

मधुर वचन वह रसायन है जो पारस की भाँति लोहे को भी सोना बना देता है। मनुष्यों की तो बात ही क्या, पशु-पक्षी भी उसके वश में हो, उसके साथ मिम्रवत् व्यवहार करने लगते हैं। व्यक्ति का मधुर व्यवहार पापाण-हृदयों को भी पिघला देता हे। कहा भी गया है-“तुलसी मीठे वचन ते, जग अपनो करि लेत।” निस्सदेह मीठे वचन औषधि की भाँति श्रोता के मन की व्यथा, उसकी पीड़ा व वेदना को हर लेते हैं। मीठे वचन सभी को प्रिय लगते हैं। कभी-कभी किसी मुदुभाषी के मधुर वचन घोर निराशा में डूबे व्यक्ति को आशा की किरण दिखा उसे उबार लेते हैं, उसमें जीवन-संचार कर देते हैं; उसे सांत्वना और सहयोग देकर यह आश्वासन देते हैं कि वह व्यक्ति अकेला व असहाय नहीं, अपितु सारा समाज उसका अपना है, उसके सुख-दुःख का साथी है। किसी ने सच कहा है-“मधुर वचन है औषधि, कटुक वचन है तीर।”

मधुर वचन श्रोता को ही नहीं, बोलने वाले को भी शांति और सुख देते हैं। बोलने वाले के मन का अंकंकार और दंभ सहज ही विनष्ट हो जाता है। उसका मन स्वच्छ और निर्मल बन जाता है। वह अपनी विनम्रता, शिष्टता एवं सदाचार से समाज में यश, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान को प्राप्त करता है। उसके कार्यों से उसे ही नहीं, समाज को भी गौरव और यश प्राप्त होता है और समाज का अभ्युत्थान होता है। इसके अभाव में समाज पारस्परिक कलह, ईप्या-द्वेष, वैमनस्य आदि का घर बन जाता है। जिस समाज में सौहार्द नहीं, सहानुभूति नहीं, किसी दुःखी मन के लिए सांत्वना का भाव नहीं, वह समाज कैसा? वह तो नरक है।

प्रश्न :
(i) मधुर वचन निराशा में डूबे व्यक्ति की सहायता कैसे करते हैं?
(ii) मधुर वचन को ‘औषधि’ की संज्ञा क्यों दी गई है? स्पष्ट कीजिए।
(iii) मधुर वचन बोंलने वाले को क्या लाभ देते हैं?
(iv) समाज के अभ्युत्थान में मधुर वचन अपनी भृमिका कैसे निभाते हैं?
(v) मधुर वचन की तुलना पारस से क्यों की गई हं?
(vi) गद्यांश के लेए एक उपयुक्त शीर्पक दीजिए।
उत्तर :
(i) मधुर वचन घोर निराशा में डूबे व्यक्ति को आशा की किरण दिखाकर उसे उबार लेते हैं। उसमें जीवन का संचार कर देते हैं, उसे सांत्वना और सहयोग देकर आश्वासन देते हैं कि सारा समाज उसका अपना व उसके सुख-दु:ख का साथी है।
(ii) जिस प्रकार औपधि व्यक्ति को रोग से मुक्ति दिलाती है उसी प्रकार मधुर वचन औपधि के समान श्रोता के मन की व्यथा, उसकी पीड़ा वेदना को हर लेते हैं।
(iii) मधुर वचन बोलने वाले व्यक्ति के मन का अहंकार और दंभ नष्ट हो जाता है। मधुर वचन बोलने से उसे शांति व सुख प्राप्त होता है, उसका मन स्वच्छ ओर निर्मल बन जाता है।
(iv) समाज के अभ्युत्थान में मधुर वचन से आपसी कलह, ईर्प्या, द्वेष, वैमनस्य की भावना समाप्त हो जाती है। अतः समाज में सौहार्द, सहानुभूति, सांत्वना आदि स्थापित करने में मधुर वचन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
(v) जिस प्रकार पारस अपने स्पर्श से लोहे को सोना बना देता है, उसी प्रकार मधुर वचन बोलने वाला व मधुर व्यवहार करने वाला पाषाण-हुदयों को भी पिघला देता है। मधुर वचन के वश में मानव ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षी भी आ जाते हैं।
(vi) शीर्षक : मधुर वचन है औषधि।

20. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
साधारणतः सत्य का अर्थ सच बोलना मात्र ही समझा जाता है. परंतु गाँधी जी ने व्यापक अर्थ में ‘सत्य’ शब्द का प्रयोग किया है। विचार में, वाणी में और आचार में उसका होना ही सत्य माना है। उनके विचार में जो सत्य को इस विशाल अर्थ में समझ ले उसके लिए जगत् में और कुछ जानना शेष नहीं रहता। परंतु इस सत्य को पाया कैसे जाए? गाँधी जी ने इस संबंध में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-एक के लिए जो सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है।

इसमें घबराने की बात नहीं है। जहाँ शुद्ध प्रयत है वहाँ भिन्न जान पड़ने वाले सब सत्य एक ही पेड़ के असंख्य भिन्न दिखाई देने वाले पत्तों के समान हैं। परमेश्वर ही क्या हर आदमी को भिन्न दिखाई नहीं देता? फिर भी हम जानते हैं कि वह एक ही है। पर सत्य नाम ही परमेश्वर का है, अतः जिसे जो सत्य लगे तदनुसार वह बरते तो उसमें दोष नहीं। इतना ही नहीं, बल्कि वही कर्तम्य है। फिर उसमें भूल होगी भी तो सुधर जाएगी, क्योंकि सत्य की खोज के साथ तपश्चर्या होती है अर्थात् आत्मकष्ट-सहन की बात होती है, उसके पीछे मर मिटना होता है, अतः उसमें स्वार्थ की तो गंध तक भी नहीं होती। ऐसी निस्वार्थ खोज में लगा हुआ आज तक कोई अंत पर्यन्त गलत रास्ते पर नहीं गयां। भटकते ही वह ठोकर खाता है और सीधे रास्ते पर चलने लगता है।

ऐसे ही अहिंसा वह स्थूल वस्तु नहीं है जो आज हमारी दृष्टि के सामने है। किसी को न मारना, इतना तो है ही। कुविचार मात्र हिंसा है, उतावली हिंसा है। मिथ्या भाषण हिंसा है। द्वेष हिंसा है। किसी का बुरा चाहना हिंसा है। जगत् के लिए जो आवश्यक वस्तु है, उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है। इनना हमें समझ लेना चाहिए कि अहिंसा के बिना सत्य की खोज असंभव है। अहिंसा और सत्य ऐसे ओत्र्रोत हैं जैसे सिक्के के दोनों रखख। इसमें किसे उल्टा कहें किसे सीधा। फिर भी अहिंसा को साधन और सत्य को साध्य मानना चाहिए। साधन अपने हाथ की बात है। हमारे मागं में चाहे जो भी संकट आए, चाहे जितनी हार होती दिखाई दे-हमें विश्वास रखना चाहिए कि जो सत्य है वही एक परमेश्वर है। जिसके साक्षात्कार का एक ही मार्ग है, और एक ही साधन है-वह है अहिंसा, उसे कभी न छोड़ेंगे।

प्रश्न :
(i) गाँधी जी के अनुसार सत्य का स्वरूप स्पट्ट कीजिए।
(ii) जो एक के लिए सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है। इस बात को गाँधी जी ने कैसे समझाया है?
(iii) गाँधी जी ने किन बातों एवं व्यवहारों को हिंसा माना है?
(iv) सत्य की खोज में लगा व्यक्ति किस प्रकार का होता है?
(v) अहिंसा और सत्य एक-दूंसरे से किस रूप में जुड़ें हुए हैं?
(vi) गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(i) गाँधी जी के अनुसार सत्य का स्वरूप यह है कि उसे व्यापक रूप में लिया जाना चाहिए। उनके अनुसार विचार, वाणी और आचार में सत्य होना चाहिए। सत्य को विशाल अर्थ में जानने के बाद जगत में कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता।
(ii) इस बात को गाँधी जी ने इस प्रकार समझाया है कि सत्य एक ही पेड़ के भिन्न-भिन्न असंख्य पत्तों के समान है। परमेश्वर एक होते हुए भी सभी लोगों को भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देता है।
(iii) गाँधी जी ने किसी को मारना, कुविचार मन में लाना, उतावली करना, मिथ्या भाषण देना, द्वेष रखना, किसी का बुरा चाहना को भी हिंसा माना है।
(iv) सत्य की खोज में लगा व्यक्ति गलत रास्ते पर इसलिए नहीं जा सकता क्योंकि वह निःस्वार्थी होता है। वह आत्मकष्ट सहता है। वह ठोकर खाकर भी सीधे रास्ते पर आ जाता है।
(v) अहिंसा और सत्य एक-दूसरे के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। सत्य की प्राप्ति लक्ष्य है और उसे अहिंसा के मार्ग पर चलकर पाया जा सकता है। अहिंसा के बिना सत्य की खोज असंभव है।
(vi) शीर्षक : सत्य और अहिंसा।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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CBSE Class 12 Hindi Elective अपठित बोध अपठित काव्यांश

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CBSE Class 12 Hindi Elective अपठित बोध अपठित काव्यांश

1. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

तुम तो, हे प्रिय बंधु, स्वर्ग-सी,
सुखद, सकल विभवों की आकर।
धरा शिरोमणि मातृभूमि में,
धन्य हुए हो जीवन पाकर।
जब तक साथ एक भी दम हो,
हो अवशिष्ट एक भी धड़कन।

रखो आत्मगौरव से ऊँची,
पलकें ऊँची सिर, ऊँचा मन।
सच्चा प्रेम वही है जिसकी,
तृप्ति आत्मबलि पर हो निर्भर।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है,
करो प्रेम पर प्राण निछावर।

प्रश्न :
(i) भारत-भूमि की दो विशेषताएँ बताइए।
(ii) भारत में जन्म लेना गौरव की बात क्यों है?
(iii) कवि ने सच्चे प्रेम की क्या पहचान बताई है?
(iv) जीवन के अंत तक हमें किस प्रकार रहना चाहिए?
(v) कविता का केंद्रीय भाव अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
(i) भारत-भूमि की दो विशेषताएँ इस प्रकार हैं :
(क) भारत-भूमि स्वर्ग के समान सुंदर है।
(ख) भारत-भूमि सुखदायक तथा सभी वैभवों की खान है।
(ii) भारत में जन्म लेना इसलिए गौरव की बात है क्योंक यहाँ की भूमि धरा-शिरोमणि है अर्थात् भूमि का सबसे अच्छा भाग भारत में है। यहाँ जन्म लेकर जीवन सफल हो जाता है।
(iii) कवि ने सच्चे प्रेम की यह पहचान बताई है कि इसमें आत्मबल होता है और इसके कारण हमें तृप्ति का अनुभव होता है।
(iv) जीवन के अंत तक हमें आत्मगौरव के साथ रहना चाहिए। हमें अपनी पलकों, सिर और मन को ऊँचा रखना चाहिए। अपने आत्मसम्मान की रक्षा अंत तक करनी चाहिए।
(v) कविता का केंद्रीय भाव यह है कि स्वर्ग के समान सुंदर, सुखद, धन-वैभव से संपन्न भूमि पर जन्म लेकर धन्य हो गए हैं। हमें इस पर रहते हुए आत्मसम्मान बनाए रखना चाहिए। इस पर अपने प्राण न्यौछावर करने को तैयार रहना चाहिए।

2. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

‘सर। पहचाना मुझे?’
बारिश में भीगता आया कोई
कपड़े कीचड़ सने और बालों में पानी
बैठा, छन भर सुस्ताया। बोला, नभ की ओर देख-
‘गंगा’ मैया पाहुन बन कर आई थीं,
झोपड़ी में रहकर लौट गई।
नैहर आई बेटी की भाँति
चार दीवारों में कुदकती-फुदकती रहीं
खाली हाथ वापस कैसे जाती।
घरवाली तो बच गई-
दीवारें बही, चूल्हा बुझा, बरतन-भांडे
जो भी था सब चला गया।

प्रसाद रूप में बचा है नैनों में थोड़ा खारा पानी
पत्नी को साथ ले, सर अब लड़ रहा हूँ
बही दीवार खड़ी कर रहा हूँ
कादा-कीचड़ निकाल फेंक रहा हूँ
मेरा हाथ जेब की ओर जाते देख
वह उठा, बोला-‘सर, पैसे नहीं चाहिए।
जरा अकेलापन महसूस हुआ तो चला आया
घर-गृहस्थी चौपट हो गई पर
रीढ़ की हड्डी मजबूत है सर।
पीठ पर हाथ थपकी देकर
आशीर्वाद दीजिए लड़ते रहो।

प्रश्न :
(i) बाढ़ की तुलना मायके आई हुई बेटी से क्यों की गई है?
(ii) बाढ़ का क्या प्रभाव पड़ा?
(iii) ‘सर’ का हाथ जेब की ओर क्यों गया?
(iv) आगंतुक ‘सर’ के घर किसलिए गया था?
(v) कैसे कह सकते हैं कि आगंतुक एक स्वाभिमानी व संघर्षशील व्यक्ति है?
उत्तर :
(i) बाढ़ की तुलना मायके में आई हुई बेटी से इसलिए की गई है क्योंकि शादी के बाद बेटी कभी-कभार ही मायके में आती है और कुछ दिन मौज-मस्ती करके तथा घर का कुछ सामान लेकर लौट जाती है। बाढ़ भी कुछ समय के लिए आती है और घर का सामान बहाकर ले जाती है।
(ii) बाढ़ का यह प्रभाव पड़ा कि घर की दीवारें ढह गई, चूल्हा बुझ गया, बर्तन-भांडे पानी में बहकर चले गए। अब तो नयनों में आँसू बचे हैं या घरवाली (पत्नी) बची है।
(iii) ‘सर’ का हाथ जेब की ओर इसलिए गया ताकि वह अपने विपदाग्रस्त सहायक की कुछ आर्थिक मदद कर सके। वह मानवीय आधार पर कुछ मदद करना चाहता था।
(iv) आगंतुक ‘सर’ (अपने बॉस) के घर इसलिए गया था ताकि वह उनसे विपदा को झेलने और घर के पुनर्निर्माण के लिए शक्ति पाने का आशीर्वाद ले सके।
(v) आगंतुक एक स्वाभिमानी और संधर्षशील व्यक्ति है। इसका पता हमें इस बात से चलता है कि वह अपने ‘सर’ के द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता को लेने से मना कर देता है। वह तो जीवन में संघर्ष करने के लिए सर से केवल आशीर्वाद चाहता है। वह परिस्थिति से लड़ने की शकित चाहता है।

3. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

जीवन में एक सितारा था,
माना, वह बेहद प्यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया।
अंबर के आनन को देखो;
कितने इसके तारे टूटे,
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई।

जीवन में वह था एक कुसुम,
थे उस पर नित्य निछावर तुम,
वह सूख गया तो सूख गया;
मधुबन की छाती को देखो,
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाईं कितनी बल्लरियाँ,
जो मुरझाई फिर कहाँ खिलीं,
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई।

प्रश्न :
(i) ‘जो बीत गई सो बात गई’ कथन का भाव समझाइए।
(ii) आकाश का उदाहरण क्यों दिया गया है?
(iii) प्रिय पात्र के बिछुड़ने पर शोक क्यों नहीं मनाना चाहिए?
(iv) कलियों और बेलों के मुरझाने से कवि का क्या तात्पर्य है?
(v) प्रस्तुत काव्यांश के मुख्य भाव को दो-तीन वाक्यों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
(i) इस कथन का भाव यह है कि हमें बंती हुई बातों के बारे में ज्यादा सोच-विचार नहीं करना चाहिए। जो समय चला गया, उस पर चर्चा करके न तो समय गँवाना चाहिए और न दुःख मनाना चाहिए।
(ii) आकाश का उदाहरण इसलिए दिया गया है क्योंकि आकाश से तो तारे टूटते रहते हैं, पर उन पर कोई शोक नहीं मनाता। यह उदाहरण देकर कवि हमें यह कहना चाहता है कि हमें भी बिद्छुड़े साथियों के लिए दु:खी नहीं होना चाहिए।
(iii) प्रिय पात्र के बिछुड़ने पर शोक इसलिए नहीं करना चाहिए. क्योंकि इसका कोई लाभ नहीं है। बिद्छुड़ने वाला प्रिय व्यक्ति लौटकर फिर आने वाला नहीं है। मरा व्यक्ति कभी जीवित नहीं होता।
(iv) कलियों और बेलों के मुरझाने से कवि का यह तात्पर्य है प्रकृति में नाश का दौर चलता रहता है। उस पर मधुबन कभी शोक नहीं मनाता। शोक मनाने से कलियाँ पुन: नहीं खिल सकतीं। इसी प्रकार मृत व्यक्ति पुन: जीवित नहीं हो सकता।
(v) प्रस्तुत काव्यांश का मुख्य भाव यह है कि जीवन आगे चलने का नाम है। गत स्मृतियों को याद करके दुझखी होने का कोई लाभ नहीं है। बीती बातों को भुला देने में ही भलाई है।

4. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

कम देकर, ज्यादा पाने की आदत बहुत बुरी है;
तन का पूरा पड़ भी जाए, मन रीता रहता है !
कभी न चुकने वाला ऋण है, जीना बहुत कठिन है;
यों मरने तक हर जीने वाला जीता रहता है !
आते हैं फल उन वृक्षों पर जो न उन्हें खाते हैं;
छाँह जहाँ मिलती औरों को छत्र वहाँ छाते हैं;
गाते हैं जो गीत, कभी अपने न गीत गाते हैं;
हेम-हिमावत कब अपने हित हिम-आतप सहता है!

प्रश्न :
(i) किस आदत को बुरा कहा गया है ? क्यों ?
(ii) ‘तन का पूरा पड़ भी जाए, पर मन रीता रहता है’-काव्य-पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
(iii) प्रस्तुत कविता से क्या संदेश मिलता है ?
(iv) वृक्ष मनुष्य के लिए क्या-क्या करते हैं ? किन्हीं दो का उल्लेख कीजिए।
(v) जीवन को कैसा ऋण कहा गया है ? क्यों ?
उत्तर :
(i) जब हग कम देकर ज्यादा पाने की इच्छा करते हैं तो यह बुरी आदत है। कवि ने इस आदत को बुरी आदत कहा है।
(ii) जब हम कम देकर ज्यादा पा लेते हैं तब हम शरीर से तो संतुष्ट हो जाते हैं पर हमारा मन संतुष्ट नहीं होता। वह खाली-खाली रहता है। हम मन से संतुष्ट नहीं हो पाते क्योंकि लगता है कि कुछ गलत हुआ है।
(iii) कवि इस कविता में संदेश देना चाहता है कि यों तो हर व्यक्ति जब तक नहीं मरता तब तक जीता रहता है पर असली जीना वह है जो दूसरों को लिए जिया जाता है।
(iv) वृक्ष पर फल लगते हैं, उसके घने पत्ते होते हैं। वृक्ष न तो अपने फल स्वयं खाते हैं और न ही स्वयं अपने पत्तों की छाया में रहते हैं। इसका उपभोग अन्य करते हैं। वृक्ष अपने में फल पैदा करते हैं पर स्त्रयं नहीं खाते, इस धरती के मनुष्य खाते हैं। वे अपने पत्तों से मनुष्य के लिए छाया देते हैं। स्वयं धूप में तपते हैं। अतः वृक्ष परोपकारी हैं।
(v) यह जीवन ऐसा है जिसका ऋण कभी चुकता नहीं हो सकता। इस संसार में उसने जन्म लिया है पर अपने लिए नहीं दूसरों के लिए लिया है। जो व्यक्ति अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीवन जीता है वह अपने जीवन जीने का ऋण उतार रहा है और यह वह मरते दम तक उतारता है।

5. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

हरा-हरा कर, हरा-
हरा कर देने वाले सपने।
कैसे कहूँ पराये, कैसे
गरब करूँ कह अपने !
भुला न देवे यह ‘पाना’-
अपनेपन का खो जाना,
यह खिलना न भुला देवे
पंखड़ियों का धो जाना,
आँखों में जिस दिन यमुना-
की तरुण बाढ़ लेती हूँ
पुतली के बंदी की
पलकों नज़र झाड़ लेती हूँ।
दूर न रह, धुन बंधने दे

मेरे अन्तर की तान,
मन के कान, अरे प्राणों के
अनुपम भोले भान।
रे कहने, सुनने, गुनने
वाले मतवाले यार
भाषा, वाक्य, विराम-बिन्दु
सब कुछ तेरा व्यापार,
किन्तु प्रश्न मत बन,
सुलझेगा-
क्योंकर सुलझाने से ?
जीवन का कागज कोरा मत
रख, तू लिख जाने दे।

प्रश्न :
(i) आँसू बहने और फिर पोछ लिए जाने पर कवयित्री ने क्या कल्पना की है ? अपने शब्दों में लिखिए।
(ii) पराजित करके भी मन को प्रसन्न कर देने वाले सपनों को लेकर कवयित्री के मन में क्या द्वंद्व है ?
(iii) मन में स्वयं प्रश्न न बनने का आग्रह क्यों किया गया है ?
(iv) अलंकार पहचानिए और मुहावरे का भाव स्पष्ट कीजिए :
‘हरा-हरा कर हरा-हरा कर देने वाले सपने’
(v) आशय स्पष्ट कीजिए : “जीवन का कागज कोरा मत रख, तू लिख जाने दे।”
उत्तर :
(i) जब विरही प्रेम में कवयित्री के आँसू बहते हैं तो उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो यमुना की वेगवती धारा प्रवाहित हो रही हो और जब उन्हें पोंछती है तो ऐसा प्रतीत होता है मानो पुतली ने बंद बंदी को झाड़ दिया है, निकाल दिया है।
(ii) कवयित्री कहती है कि मैं प्रेम में बार-बार हारती हूँ। लेकिन मेरे पास सपने भी हैं जिन्हें स्मरण कर मन आनंद में निमग्न हो जाता है। उसके मन का द्वंद्व यह है कि न तो वह उन्हें पराये मानने को तैयार है और न ही उन्हें अपना कहकर उन पर गर्व कर सकती है। इसी द्वंद्व में वह डूबी हुई है और कोई ठोस निर्णय नहीं ले पा रही है।
(iii) कवयित्री कहती है कि हे मतवाले मन ! तेरे पास सभी साधन उपलब्ध हैं। प्रेममय भाषा है, अनगिनत वाक्य हैं, विराम चिह्न हैं। सब कुछ तो तेरे पास है। ऐसे में तुम प्रश्न बनकर मेरे सामने मत खड़े हो, सक्रिय हो जाओ।
(iv) ‘हरा हरा’ कर में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। अनुप्रास भी है। ‘हरा हरा कर हरा कर देने वाले सपने ‘मुहावरे का भाव आनंद प्रदान करने से है। इसमें यमक अलंकार भी है।
(v) कवयित्री कहती है कि जीवन रूपी पृष्ठ से मुँह मत मोड़। इस पर अनन्य भाव लिख जाने दो। क्योंकि शून्य जीवन में निराशा भर देता है और दुखद बना देता है।

6. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

प्रात: बेला
टटके सूरज की ओर देखे कितने दिन बीत गए
नहीं देख पाया पेड़ों के पीछे
उसे छिप-छिप कर उगते हुए
नहीं सुन पाया भोर होने से पहले चिड़ियों का कलरव
नहीं पी पाया दुपहरी की बेला
आम के बगीचे की झुर-झुर बहती शीतल बयार
आज भी जाता होगा
किसानों, औरतों, बच्चों-बेटियों का जत्था
होते ही उजास गेरूँ काटने
घर के पिछवाड़े डालियों पत्तियों में झिलमिलाता
डूबता सूरज बहुत याद आता है।
अपने चटक रंगों को लिए गाँव के बगीचे में
झड़ते हुए पीले-पीले पत्ते कब देखूँगा ?
उसकी डालियों शाखाओं पर
आत्मा को तृप्त कर देने वाली
नई-नई कोपलें कब देखूँगा ?

प्रश्न :
(i) उगते सूर्य के बारे में कवि ने क्या कल्पना की है ?
(ii) गाँव में सुबह होने वाली हलचल का वर्णन कीजिए।
(iii) कवि के मन में डूबते सूरज का कैसा चित्र है ?
(iv) गाँव के बगीचे में दुपहरी और पतझड़ की कवि मन की स्मृतियाँ अपने शब्दों में लिखिए।
(v) भाव स्पष्ट कीजिए-
आत्मा को तृप्त कर देने वाली-
नई कोपलें कब देखूँगा ?
उत्तर :
(i) सुबह के उगते सूरज के बारे में कवि ने कल्पना की है कि ऐसा कब अवसर आएगा जब वह पेड़ों के पीछे छिप-छिप कर उगते टटके सूरज को देखेगा।
(ii) कवि को याद आती है गाँव की सुबह। उस सुबह की हलचल मनभावनी होती थी। भोर होने से पहले चिड़िया का कलरव सुनाई देने लगता था। उसे किसानों-औरतों व बच्चों-बेटियों का जत्था याद आता है जब सुबह होते ही सुनहरी गेहूँ काटने के लिए निकल पड़ता था।
(iii) कवि को घर का पिछवाड़ा याद आता है जब वह वहाँ से डालियों व पत्तियों में झिलमिलाता डूबता सूरज देखा करता था।
(iv) कवि को दुपहरी याद आती है जब आम के बगीचों की झुर-झुर बहती शीतल बयार मन भा जाती थी। उसे याद आती है पतझड़। जब गाँव के बगीचों में शाखाओं-प्रशाखाओं से चटक रंग लिए पीले पत्ते झरा करते थे।
(v) ‘आत्मा को तृप्त कर देने वाली नई-नई कोपलें कब देखूँगा’ का आशय है-कवि गाँव का वसंत याद करता है। सोचता है कि आखिर कब वसंत के दिन आएँगे जब पेड़-पौधों से नई-नई कोपलें फूटेंगी जिन्हें देखकर व अनुभव कर उसकी आत्मा तृप्त हो जाया करती थी।

7. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

किस भाँति जीना चाहिए किस भाँति मरना चाहिए,
सो सब, हमें निज पूर्वजों से याद करना चाहिए।
पद-चिह्न उनके यत्नपूर्वक खोज लेना चाहिए।
आओ, मिलो सब देश-बांधव हारा बनकर देश के
साधक बने सब प्रेम से सुख शांतिमय उद्देश्य के।
क्या सांप्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता अहो,
बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की कहो।
प्राचीन हों कि नवीन, छोड़ों रूढ़ियाँ जो हों बुरी,

बनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी।
प्राचीन बातें ही भली हैं-यह विचार अलीक है
जैसी अवस्था हो जहाँ वैसी व्यवस्था ठीक है॥
मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदा।
हैं सब स्वदेशी बंधु, उनके दुख भागी हो सदा।
देकर उन्हें साहाय्य भरसक सब विपत्ति व्यथा हरो.
निज दुख से ही दूसरों के दुख को अनुभव करो॥

प्रश्न :
(i) हमें अपने पूर्वजों का अनुसरण क्यों करना चाहिए ?
(ii) कवि देश के सभी बंधुओं का आह्नान क्यों कर रहा है ?
(iii) माला के उदाहरण से कवि ने क्या प्रतिपादित करना चाहा है ?
(iv) हमें अंधविश्वासों और रूढ़ियों को छोड़कर क्या करने की प्रेरणा दी गई है ?
(v) आशय स्पष्ट कीजिए- “मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदाI”
उत्तर :
(i) हमें अपने पूर्वजों का अनुसरण इसलिए करना चाहिए, क्योंकि हमें किस प्रकार जीना चाहिए और किस प्रकार मरना, यह ज्ञान अपने पूर्वजों से ही प्राप्त होता है।
(ii) कवि देश के सब बंधुओं का आह्वान इसलिए कर रहा है, क्योंकि वह देशवासियों को फिर से एकता के सूत्र में बाँधकर देश को विकास के पथ पर अग्रसर करने के लिए प्रेरित करना चाहता है।
(iii) कवि माला का उदाहरण देकर भारतीयों को फिर से एकता के सूत्र में बँधध जाने का आह्नान करता है, ताकि सभी देशवासी उसी तरह एक हो जाएँ जिस तरह माला में फूल होते हैं।
(iv) हमें अंधविश्वासों और रूढ़ियों को छोड़कर अपने विवेक से अच्छे बुरे कमों को पहचानने तथा हंस की तरह चतुर बनने की प्रेरणा दी गई है।
(v) काव्यांश में ” मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदा” कहने का आशय यह है कि हमें केवल अपने शब्दों से ही देश-प्रेम नहीं दर्शाना चाहिए, बल्कि अपने आचरण और कर्मों से सच्चे अर्थों में अपनी मातृभूमि की सेवा करनी चाहिए।

8. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

खोल सीना, बाँघकर मुद्ठी कड़ी
में खड़ा ललकारता हूँ।
ओ नियति!
तू सुन रही है?
मैं खड़ा तुझको स्वयं ललकारता हूँ
आज खोले वक्ष, उन्नत शीश, रक्तिम नेत्र
तुझको दे रहा हूँ, ले चुनौती
गगनभेदी घोष में
दूढ़ बाहुदंडों को उठाए।
क्योंकि मैंने आज पाया है स्वयं का ज्ञान

क्योंकि में पहचान पाया हूँ कि मैं हूँ मुक्त बंधहीन
और तू है मात्र श्रम, मन-जात, मिथ्या वंचना
इसलिए इस ज्ञान के आलोक के पल में
मिल गया है आज मुझको सत्य का आभास
और ओ मेरी नियति!
मैं छोड़कर पूजा
(क्योंकि पूजा है पराजय का विनत स्वीकार-)
बाँधकर मुट्ठी तुझे ललकारता हूँ।

प्रश्न :
(i) कवि किसे ललकार रहा है और क्यों ?
(ii) कवि की चुनौती देने वाली मुद्रा पर टिप्पणी कीजिए।
(iii) कवि ने नियति को भ्रम और मिथ्या वंचना क्यों कहा है ?
(iv) कवि ने अपनी पहचान क्या बताई है?
(v) भाव स्पष्ट कीजिए- “पूजा है पराजय का विनत स्वीकार।”
उत्तर :
(i) कवि नियति को ललकार रहा है, क्योंकि वह पहचान गया है कि नियति मात्र भ्रम, मिथ्या और वंचना है।
(ii) कवि की चुनौती देने वाली मुद्रा इस प्रकार है कि कवि छाती खोलकर, सिर ऊँचा उठाकर और गुस्से से नेत्र लाल कर नियति को चुनौती देते हुए ललकार रहा है।
(iii) कवि ने नियति को भ्रम और मिथ्या वंचना इसलिए कहा, क्योंकि उसे स्वयं का ज्ञान हो गया था। जान गया कि नियति और कुछ नहीं, बल्कि पहले से विचार किए जाने वाला भ्रम मात्र है।
(iv) कवि ने अपनी पहचान यह बताई है कि वह मुक्त है और बंधनहीन है।
(v) ‘पूजा है पराजय़ का विनत स्वीकार’ इस पंक्ति का भाव यह है कि केवल वही व्यक्ति किसी के आगे झुकेगा, जो सामर्थ्य से हीन होगा, जिसे स्वयं पर विश्वास नहीं है। किसी के आगे झुकने वाला व्यक्ति अपनी हार मान लेता है।

9. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

तरुणाई है नाम सिंधु की उठती लहरों के गर्जन का,
चट्टानों से टक्कर लेना लक्ष्य बने जिनके जीवन का।
विफल प्रयासों से भी दूना वेग भुजाओं में भर जाता,
जोड़ा करता जिनकी गति से नव उत्साह निरंतर नाता।
पर्वत के विशाल शिखरों-सा यौवन उसका ही है अक्षय,
जिसके चरणों पर सागर के होते अनगिन ज्वार सदा लय।

अचल खड़े रहते जो ऊँचा, शीश उठाए तूफानों में,
सहनशीलता, दृढ़ता हैसती, जिनके यौवन के प्राणों में।
वहीं पंथ-बाधा को तोड़े बहते हैं जैसे हों निईर्र,
प्रगति नाम को सार्थक करता यौवन दुर्गमता पर चलकर।
आज देश की भाली आशा बनी तुम्हारी ही तरुणाई
नए जन्म की श्वास तुम्हारे अंदर जगकर है लहराई।

प्रश्न :
(i) यौवन की तुलना किससे की गई है और क्यों ?
(ii) काव्यांश के आधार पर युवकों की क्षमताओं पर प्रकाश डालिए।
(iii) यौवन की सार्थकता कब मानी गई है ?
(iv) पर्वतों और युवकों में साम्य दर्शाइए।
(v) काव्यांश का केंद्रीय भाव लिखिए।
उत्तर :
(i) यौवन की तुलना समुद्र की उठती लहरों की गर्जना से की गई है। ऐसा इसलिए कहा गया है क्योंकि लहरों का स्वभाव है-चट्टानों से टक्कर लेना। यौवन भी चुनौतियों से ट़क्कर लेता है।
(ii) काव्यांश के आधार पर युवकों में चट्टान जे पी मुसीबतों से टकराने की क्षमता होती है। वे प्रयासों के विफल हो जाने पर भी स्वयं में दुगुने बल-वेग का अनुभव करते हैं।
(iii) यौवन की सार्थकता तब मानी गई है जब युवकों में संघर्ष की दृढ़ता होती है। जब उनका यौवन पर्वत के विशाल शिखर के समान होता है।
(iv) पर्वतों और युवकों में यह समानता है कि ये दोनों तूफान में अडिग खड़े रहते हैं। दोनों अपना सिर ऊपर उठाए रहते हैं अर्थात् अपने आत्म सम्मान को बनाए रहते हैं।
(v) काव्यांश का केंद्रीय भाव यह है कि आज देश की निगाहें युवा वर्ग पर टिकी हुई हैं। उन्हें कठिनाइयों से संघर्ष करके देश को प्रगति के मार्ग पर आगे ले जाना है।

10. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

चंचल पग दीपशिखा के धर
गृह, मग, वन में आया वसंत!
सुलगा फाल्गुन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनंत!
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसंत, भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह!
पल्नव-पल्लव में नवल रुधिर
पत्रों में मांसल रंग खिला,
आया नीली-पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला!

अधरों की लाली से चुपके
कोमल गुलाब के गाल लजा
आया, पंखुड़ियों को काले
पीले धब्बों से सहज सजा!
कलि के पलकों में मिलन स्वप्न
अलि के अंतर में प्रणय गान
लेकर आया, प्रेमी वसंत
आकुल जड़ चेतन स्नेह प्राण!
काली कोकिल! सुलगा उर से
स्वरमयी वेदना का अंगार,
आया वसंत, घोषित दिगंत
करती, भर पावक की पुकार!

प्रश्न :
(i) इस कविता में किस ऋतु का वर्णन है ? यह कहाँ-कहाँ दिखाई दे रहा है ?
(ii) ‘सुलगा फागुन का सूनापन’-आशय स्पष्ट कीजिए।
(iii) इस ऋतु ने फूल-पतों के स्वरूप में क्या-क्या परिवर्तन ला दिया है ?
(iv) प्रेमी के रूप में वसंत क्या कर रहा है ?
(v) इस कविता में प्रकृति-चित्रण की कौन-सी विशंषता आपको आकर्षित करती है ?
उत्तर :
(i) इस कविता में वसंत ऋतु का वर्णन है। वसंत का प्रभाव घर, मार्ग एवं वन में सर्वत्र दिखाई देता है।
(ii) फागुन मास में वसंत के आने से हृदय में कोमल भावनाएँ सुलग उठती हैं, दिल में शीतल-सी ज्वाला (विरोधाभास) जलती है, जिसकी जलन अच्छी लगती है।
(iii) वसंत ऋतु ने फूल-पत्तों में अनेक परिवर्तन ला दिए हैं। पत्तों में नई लालिमा दिखाई देती है, फूलों में पीली-नीली लौ की दीप्ति दिखाई देती है. गुलाब की लाली होठों की लाली-सी दिखाई देती है. फूलों की पंखुड़ियाँ तरह-तरह की दिखाई देती हैं।
(iv) वसंत प्रेमी के रूप में कलियों की आँखों में मिलन के स्वप्न (आकांक्षा) जगाता है। उनके हूदयों में प्रेम-गीत की गुनगुनाहट उत्पन्न करता है।
(v) इसमें प्रकृति का उद्दीपन रूप बहुत मनोहारी है। वसंत ऋतु में प्रकृति हमारे मन की कोमल भावनाओं को जागृत करती है तथा प्रेममय वातावरण का निर्माण करती जान पड़ती है।

11. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

चले चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो, चले चलो !
प्रचंड सूर्य-ताप से, न तुम जलो, न तुम गलो !
ह्रदय से तुम निकाल दो अगर हो पस्तहिम्मती,
नहीं है खेल मात्र ये, ये जिन्दगी है जिंदगी।
न रक्त है, न स्वेद है, न हर्ष है, न खेद है,
ये जिंदगी अभेद है, यही तो एक भेद है।
समझ के सब चले चलो, कदम-कदम बढ़े चलो !
पहाड़ से चली नदी, रुकी नहीं कहीं जरा,
गई जिधर, उधर किया जमीन को हरा-भरा।
चली समान रूप से, जमीन का न ख्याल कर,
मगन रही निनाद में, जमीन पर, पहाड़ पर।
उसी तरह चले चलो, उसी तरह बढ़े चलो !
अखंड दीप से जलो, सदा बहार से खिलो !

प्रश्न :
(i) कविता किसं संबोधित है ? ऐसा आप किस आधार पर मानते हैं ?
(ii) ‘पस्तहिम्मती’ किसे कहते हैं ? उन्हें क्या ध्यान में रखने को कहा गया है ?
(iii) प्रगतिशील की तुलना नदी से क्यों की गई है ?
(iv) ‘अखंड दीपक’ और ‘फूल’ का उल्लेख क्यों हुआ है ?
(v) आशय स्पष्ट कीजिए :
‘ये जिंदगी अभेद है, यही तो एक भेद है।’
उत्तर :
(i) यह कविता देश की युवा पीढ़ी को संबोधित है। कवि उन्हें निरंतर आगे बढ़ने के लिए आह्वान कर रहा है। हम ऐसा इसी आधार पर मानते हैं।
(ii) ‘पस्तहिम्मती’ उसे कहते हैं जो हिम्मत हार बैठा है। निराश व्यक्तियों को निराशा का भाव मन से निकाल देने को कहा है। उन्हें जिंदगी को खेल मात्र न समझकर, इसे जिंदगी की तरह ही लेना चाहिए।
(iii) प्रगतिशील व्यक्ति निरंतर आगे बढ़कर तरक्की करता है। नदी भी निरंतर आगे बढ़कर अपने गंतव्य तक जाती है। दोनों में काफी समानता है। नदी धरती को हरा-भरा करती है।
(iv) ‘अखंड दीपक’ निरतर जलकर प्रकाश फैलाता है और फूलों से बहार आती है। उनका उदाहरण देकर कवि ने निरतर क्रियाशील रहने और खिलने (फलने-फूलने) की प्रेरणा दी है। इसीलिए इनका यहाँ उल्लेख हुआ है।
(v) इस पंक्ति का आशय यह है कि जिंदगी का रहस्य इसी बात में छिपा है कि यह अभेद है। इसका भेद नहीं पाया जा सकता। जिंदगी को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता।

12. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

“धर्मराज, यह भूमि किसी की नहीं क्रीत है दासी,
हैं जन्मना समान परस्पर इसके सभी निवासी।
है सबका अधिकार मृत्तिका पोषक-रस पीने का,
विविध अभावों से अशंक होकर जग में जीने का।
सबको मुक्त प्रकाश चाहिए, सबको मुक्त समीरण
बाधा-रहित विकास, मुक्त आशंकाओं से जीवन।
लेकिन, विघ्न अनेक अभी इस पथ में पड़े हुए हैं,
मानवता की राह रोक कर पर्वत अड़े हुए हैं।
न्यायोचित सुख सुलभ नहीं जब तक मानव-मानव को,
चैन कहाँ धरती पर, तब तक शांति कहाँ इस भव को?
जब तक मनुज-मनुज का यह सुख-भाग नहीं सम होगा,
शमित न होगा कोलाहल, संघर्ष नहीं कम होगा।
था पथ सहज अतीव, सम्मिलित हो समग्र सुख पाना,
केवल अपने लिए नहीं, कोई सुख-भाग चुराना॥”

प्रश्न :
(i) “यह धरती किसी की खरीदी हुई दासी नहीं है” -इस कथन से कवि का क्या तात्पर्य है ?
(ii) इस धरती पर सभी को क्या-क्या अधिकार प्राप्त हैं ?
(iii) भाव स्पष्ट कीजिए- “सबको मुक्त प्रकाश चाहिए, सबको मुक्त समीरण।”
(iv) आज मानव-समाज में किस बात को लेकर संघर्ष हो रहा है ?
(v) मनुष्य इस धरती पर केवल अपने लिए ही सुख क्यों चाहता है ?
उत्तर :
(i) इस कथन से कवि का आशय यह है कि धरती पर किसी का भी एकछत्र अधिकार नहीं है। यह सभी की है। इस पर सभी का समान अधिकार है।
(ii) इस धरती पर सभी को मिट्टी का पोषक रस पीने का, निर्भय होकर जीने का तथा प्राकृतिक उपादानों के भरपूर उपयोग करने के अधिकार प्राप्त हैं।
(iii) इस पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बंधन रहित प्रकाश एवं वायु चाहिए। इनको पाने का उसे प्रकृति-प्रदत्त अधिकार है।
(iv) आज का मानव-समाज संघर्षरत है। व्यक्ति-व्यक्ति के स्वार्थ टकरा रहे हैं। सभी सुख भोगना चाहते हैं। सभी की दृष्टि अपने तक सीमित है।
(v) मनुष्य स्वार्थी हो गया है अतः वह केवल अपने तक ही सुख चाहता है। उसे किसी दूसरे के सुख की चिंता नहीं है।

13. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में, क्या जल में
बह जाते देखा है?
क्या खाएँगे? यह सोच निराशा से पागल, बेचारों को
नीरव रह जाते देखा है?
देखा ग्रामों की रंभाओं को, जिनकी आभा पर
धूल अभी तक छाई है?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक रेशम क्या,
साड़ी सही नहीं चढ़ पाई है।
पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा
भाग्यहीनों की मन में लाओगे,
जलता हो सारा देश, किंतु होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर
क्यों यह आग बुझाओगे?
चिंता हो भी क्यों तुभ्हें, गाँव के जलने से, दिल्ली में तो
रोटियाँ नहीं कम होती हैं।
धुलता न अश्रु-बूँदों से आँखों का काजल, गालों पर की
धूलियाँ नहीं नम होती हैं।
जलते हैं तो ये गाँव देश के जला करें, आराम नई दिल्ली
अपना कब छोड़ेगी,
या रखेगी मरघट में भी रेशमी महल, या आँधी की खाकर
चपेट सब छोड़ेगी।
चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर, दिल्ली, लेकिन,
ले रही लहर पुरवाई में,
है विकल देश सारा अभाव के तापों से, दिल्ली सुख से
सोई है नरम रजाई में।

प्रश्न :
(i) राजधानी में और ग्रामीण भारत में क्या अंतर है ?
(ii) ग्रामीणों को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ?
(iii) दिल्लीवासियों को गाँवों के कष्ट क्यों नहीं दिखाई पड़ते ?
(iv) ‘ग्राम की रंभा’ किन्हें कहा है? उन्हें अभागिन क्यों माना है ?
(v) भाव स्पष्ट कीजिए – “है विकल देश सारा अभाव के तापों से, दिल्ली सुख से सोई है नरम रजाई में।”
उत्तर :
(i) राजधानी में जहाँ लोग सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण वैभवपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण भारत में किसानों के पास सुख-सुविधाओं का अभाव होता है, वे निराशा एवं चिंता में अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
(ii) ग्रामीण की खेती बाढ़ से नष्ट हो जाती है, उन्हें भोजन एवं वस्त्रों के अभाव में जीना पड़ता है। उन्हें भीषण ताप एवं शीत का सामना करना पड़ता है।
(iii) दिल्लीवासियों को गाँवों के कष्ट इसलिए नहीं दिखाई पड़ते, क्योंकि उनके जीवन में सुख के सभी साधन एवं ऐशो-आराम विद्यमान होते हैं। वे उन्हीं सुख-सुविधाओं और दिखावे की दुनिया में खोए रहते हैं और स्वार्थवश दूसरों के कष्टों को देख नहीं पाते।
(iv) ‘ग्राम की रंभा’ ग्रामीण स्त्रियों को कहा गया है। उन्हें अभागिन इसलिए कहा गया है, क्योंकि उनकी स्थिति ऐसी है कि उनके शरीर पर वस्त्र ही नहीं, अपितु तन ढकने के लिए साड़ी भी उचित रूप से उपलब्ध नहीं है।
(v) प्रस्तुत पंक्तियों का भाव यह है कि जब समस्त देश के अधिकतर क्षेत्रों में ग्रामीण अभावों से व्याकुल हैं अर्थात् रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या से जूझ रहे हैं उस समय दिल्लीवासी सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण होकर अपने-अपने महलों में विश्राम कर रहे हैं एवं विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

14. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

कितने ही कटुतम काँटे तुम मेरे पथ पर आज बिछाओ,
और अरे चाहे निष्ठुर कर का भी धुँधला दीप बुझाओ।
किंतु नहीं मेरे पग ने पथ पर बढ़कर फिरना सीखा है।
मैंने बस चलना सीखा है।
कहीं छुपा दो मंजिल मेरी चारों ओर निमिर-घन छाकर,
चाहे उसे राख कर डालो नभ से अंगारे बरसाकर,
पर मानव ने तो पग के नीचे मंजिल रखना सीखा है।
मैंने बस चलना सीखा है।
कब तक ठहर सकेंगे मेरे सम्मुख ये तूफान भयंकर
कब तक मुझसे लड़ पाएगा इंद्रराज का वज्ञ प्रखरतर
मानव की ही अस्थिमात्र से वज्रों ने बनना सीखा है।
मैने बस चलना सीखा है।

प्रश्न :
(i) इस काव्यांश में किसकी महिमा बताई गई है ?
(ii) मानव के सामने क्या नहीं टिक पाता और क्यों ?
(iii) साहसी मानव की मंजिल कहाँ रहती है और क्यों ?
(iv) इस काव्यांश का मूल संदेश क्या है ?
(v) ‘अस्थिमात्र से वज्र बनना’ इस पंक्ति से किस कथा की ओर संकेत किया गया है ?
उत्तर :
(i) इस काव्यांश में मानव के अदम्य साहस व शक्ति की महिमा बताई गई है। इसी के सहारे मानव निड़ होकर मार्ग की कठिनाइयों पर विजय पाकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करके हो दम लेता है।
(ii) मानव के सामने भयंकर तूफान नहीं टिक पाता। वे भी मानव के अदम्य साहस के सामने हार मान जाते हैं।
(iii) साहसी मानव की मंजिल उसके पैरों तले रहती है। उसकी इच्छाशक्ति के सामने प्राकृतिक आपदाएँ भी शरमा जाती हैं। वह अपनी मंजिल अंधकार में भी ढूँढकर निकाल लेता है।
(iv) इस काव्यांश का मूल संदेश यह है कि मानव के बढ़ते कदमों को कोई भी शक्ति रोक नहीं पाती। रास्ते में आने वाली मुसीबतें उसके बढ़ते कदमों को पीछे लौटा नहीं सकतीं।
(v) दधीचि ऋषि द्वारा मानवता के लिए अपनी अस्थियाँ भी दान में दे देना – इस कथा की ओर संकेत है। उनकी अस्थियों से बने वज्र से ही वृत्रासुर नामक राक्षस का वध किया गया था।

15. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

जहाँ भूमि पर पड़ा कि
सोना धँसता, चाँदी धँसती,
धँसती ही जाती पृथ्वी में
बड़ों-बड़ों की हस्ती।

शक्तिहीन जो हुआ कि
बैठा भू पर आसन मारे,
खा जाते हैं उसको
मिट्टी के ढेले हत्यारे !

मातृभूमि है उसकी, जिसको
उठ जीना होता है,
दहन-भूमि है उसकी, जो
क्षण-क्षण गिरता जाता है।
भूमि खीचती है मुझको
भी, नीचे धीरे-धीरे
किंतु लहराता हूँ मैं नभ पर
शीतल-मंद-समीरे।

काला बादल आता है
गुरु गर्जन स्वर भरता है,
विद्रोही-मस्तक पर वह
अभिषेक किया करता हैं।
विद्रोही हैं हमीं, हमारे
फूलों में फल आते,
और हमारी कुर्बानी पर,
जड़ भी जीवन पाते।

प्रश्न :
(i) ‘विद्रोही हैं हमी’-पेड़ अपने आपको विद्रोही क्यों मानते हैं ?
(ii) “धँसती ही जाती पृथ्वी में बड़ों-बड़ों की हस्ती”‘काव्य पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
(iii) इस काव्यांश में कवि ने किसे ‘मातृभूमि’ के लिए उपयुक्त और किसे ‘दहन-भूमि’ के योग्य बताया है ?
(iv) काला बादल किसका अभिषेक किया करता है और क्यों ?
(v) काव्यांश का मुख्य भाव क्या है ?
उत्तर :
(i) पेड़ अपने आपको विद्रोही इसलिए मानते हैं क्योंकि भले ही भूमि उसे अपनी ओर खींचती हो. पर वह अपनी डालियों पर फूलों से फल ले आता है। उसकी कुर्बानी से जड़ को भी जीवन मिल जाता है। पेड़ में त्याग और समर्पण है।
(ii) इस काव्य-पंक्ति का आशय यह है कि समय आने पर सभी का अस्तित्व तक धरती में समा जाता है अर्थात् मिट जाता है। घमंड कभी किसी का नहीं रहता चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न रहा हो।
(iii) इस काव्यांश में कवि ने उस व्यक्ति को मातृभूमि के लिए उपयुक्त माना है जो निरंतर प्रगति कर ऊपर उठता जाता है। दहन भूमि के योग्य उसे माना है जो निरंतर अवनति की ओर जाता है।
(iv) काला बादल हमेशा विद्रोही मस्तक अर्थात् पेड़ों का अभिपेक किया करता है। वह अपना बलिदान कर दूसरों का कल्याण करता है।
(v) काव्यांश का मुख्य भाव यह है कि अहंकार का अंत अवश्य होता है तथा शक्तिहीन (कमजोर) व्यक्ति को दुनिया जीने नहीं देती। इस दुनिया में वही सफल होता है जो अदम्य साहस, दृढ़ इच्छा शक्ति से जीता है।

16. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

इस समाधि में छिपी हुई है
एक राख की ढेरी।
जल कर जिसने स्वतंत्रता की
दिव्य आरती फेरी॥
यह समाधि, यह लघु समाधि है
झाँसी की रानी की।
अंतिम लीला-स्थली यही है
लक्ष्मी मर्दानी की॥
यहीं कहीं पर बिखर गई वह
भग्न विजय-माला-सी।
उसके फूल यहाँ संचित हैं
है यह स्मृति-शाला-सी।

सहे वार पर वार अंत तक
लड़ी वीर बाला-सी।
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर
चमक उठी च्चाला-सी।
बढ़ जाता है मान वीर का
रण में बलि होने से।
मूल्यवती होती सोने की
भस्म यथा सोने से॥
रानी से भी अधिक हमें अब
यह समाधि है प्यारी।
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की
आशा की चिनगारी॥

इससे भी सुंदर समाधियाँ
हम जग में हैं पाते।
उनकी गाथा पर निशीथ में
क्षुद्र जंतु ही गाते।

पर कवियों की अमर गिरा में
इसकी अमिट कहानी।
स्नेह और श्रद्धा से गाती
है वीरों की बानी।

प्रश्न :
(i) प्रस्तुत काव्यांश में किसकी समाधि का उल्लेख किया गया है ? उसे अंतिम लीला स्थली क्यों कहा गया है ?
(ii) आशय स्पष्ट कीजिए- ‘यहीं कहीं पर बिखर गई वह भग्न विजय-माला-सी।’
(iii) व्यक्ति का मान कब बढ़ जाता है ?
(iv) इससे भी सुंदर समाधियाँ होने पर भी यह समाधि विशेष क्यों बताई गई है ?
(v) रानी से भी अधिक उसकी समाधि प्रिय होने का कारण आपके विचार से क्या हो सकता है ?
उत्तर :
(i) प्रस्तुत काव्यांश में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की समाधि का उल्लेख किया गया है। इसे रानी की अंतिम लीलास्थली इसलिए कहा गया है क्योंकि रानी ने इस स्थान पर अंग्रेजों से अंतिम बार लड़ते-लड़ते अपना अमर बलिदान दिया था।
(ii) इस कथन में रानी लक्ष्मीबाई के जीवन की माला बिखर जाने अर्थात् बलिदान देने की ओर संकेत किया गया है। उस वीरांगना का जीवन भग्न विजय माला के समान भेंट चढ़ गया था।
(iii) व्यक्ति का मान तब बढ़ जाता है जब वह युद्धक्षेत्र में अपना बलिदान दे देता है। सोना भी आग में तपकर मूल्यवान बन जाता है। सोने की भस्म अधिक कीमती हो जाती है।
(iv) अन्य समाधियाँ साज-सज्जा तथा बनावट में इस समाधि से अधिक सुंदर हो सकती हैं, पर यह रानी लक्ष्मीबाई की समाधि सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। अतः यह समाधि विशेष है।
(v) रानी से भी अधिक रानी की समाधि के प्रिय होने का कारण यह हो सकता है कि यह समाधि अन्य देशभक्तों के लिए सदा-सदा के लिए प्रेरणा-स्रोत बन गई है। यह समाधि सर्वस्व बलिदान की प्रेरणा दीर्घकाल तक देती रहेगी।

17. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

आज की दुनिया विचित्र, नवीन;
प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन।
हैं बँधे नर के करों में वारि, विद्युत्, भाप,
हुक्म पर चढ़ता-उतरता है पवन का ताप।
है नहीं बाकी कहीं व्यवधान,
लाँघ सकता नर सरित्, गिरि, सिंधु एक समान।
शीश पर आदेश कर अवधार्य,
प्रकृति के सब तत्त्व करते हैं मनुज के कार्य;
मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश,
और करता शब्दगुण अंबर वहन संदेश।

नव्य नर की सृष्टि में विकराल,
हैं सिमटते जा रहे प्रत्येक क्षण विकराल।
यह प्रगति निस्सीम ! नर का अपूर्व विकास !
चरण-तल भूगोल ! मुट्ठी में निखिल आकाश !
किंतु, है बढ़ता गया मस्तिष्क ही नि:शेष,
छूट कर पीछे गया है रह हृदय का देश;
मोम-सी कोई मुलायम चीज़
ताप पाकर जो उठे मन में पसीज-पसीज।

प्रश्न :
(i) आधुनिक युग को कवि ने विचित्र और नवीन क्यों कहा है ?
(ii) ‘कहीं कोई रुकावट शेष नहीं रही’-इसकी पुष्टि में कवि ने क्या तर्क दिया है ?
(iii) मानव द्वारा की गई वैज्ञानिक प्रगति के अद्भुत विकास को देखकर भी कवि संतुष्ट क्यों नहीं है ?
(iv) ‘प्रकृति के सब तत्व करते हैं मनुज के कार्य’-प्रमाण में एक उदाहरण दीजिए।
(v) मन में रहने वाली ‘मोम-सी कोई मुलायम चीज’ क्या हो सकती है ? उसका अभाव क्यों दिखाई पड़ता है ?
उत्तर :
(i) आज व्यक्ति ने प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है इसलिए कवि ने इस संसार को नवीन और विचित्र कहा है।
(ii) कवि कहना चाहता है कि इस समय व्यक्ति की मुट्ठी में जल, बिजली, भाप आदि हैं। वायु भी उसके संकेत पर बहता-रुकता है। वह पर्वत नदी और समुद्र आदि सभी को लांघ सकता है। इसलिए अब व्यक्ति के मार्ग में ऐसा कुछ नहीं है जो उसका रास्ता रोक सकता है।
(iii) कवि वैज्ञानिक उन्नति देखकर संतुष्ट नहीं है। वह यह मानता है कि व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास तो हो गया है परन्तु उसके हृदय की भावुकता खत्म हो रही है। वह कोसें पीछे छूट गई है।
(iv) इस समय प्रकृति व्यक्ति के संकेत पर काम कर रही है। जल-देवता वरुण उसके आदेश का पालन करता है, गगन भी मानव के संदेश का अनुपालन करता है। इन सब को व्यक्ति ने अपने वश में कर लिया है।
(v) कवि दिनकर कहते हैं कि व्यक्ति की भावनाएँ उसी तरह मुलायम होती हैं जिस तरह मोम होता है। वैज्ञानिक प्रगति तो चहुँमुखी हो रही है परन्तु भावनाएँ नगण्य हैं। विज्ञान ने मस्तिष्क पर कब्जा कर लिया है परंतु हदयय पीछे छूट गया है।

18. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

अरे! चाटते जूठे पत्ते जिस दिन देखा मैंने नर को
उस दिन सोचा : क्यों न लगा दूँ आज आग इस दुनिया भर को?
यह भी सोचा : क्यों न टेंटुआ घोटा जाए स्वर्य जगपति का?
जिसने अपने ही स्वरूप को रूप दिया इस घृणित विकृति का।
जगपति कहाँ? अरे, सदियों से वह तो हुआ राख को ढेरी;
वरना समता-संस्थापन में लग जाती क्या इतनी देरी?
छोड़ आसरा अलखशक्ति का, रे नर, स्वयं जगत्पति तू है,
तू यदि जूठे पत्ते चाटे, तो मुझ पर लानत है, थू है।
ओ भिखमंगे, अरे पराजित, ओ मजलूम, अरे चिर दोहित,
तू अखंड भंडार शक्ति का, जाग अरे निद्रा-सम्मोहित,
प्राणों को तड़पाने वाली हुँकारों से जल-थल भर दे,
अनाचार के अंबारों में अपना ज्चलित पलीता भर दे।
भूखा देख तुझे गर उमड़े आँसू नयनों में जग-जन के
तो तू कह दे : नहीं चाहिए हमको रोने वाले जनखे;
तेरी भूख, असंस्कृति तेरी, यदि न उभाड़ सके क्रोधानल,
तो फिर समझूँगा कि हो गई सारी दुनिया कायर, निर्बल।

प्रश्न :
(i) भूखे मनुष्य को जूटे पत्ते चाटते देखकर कवि के मन में क्या विचार उठा ?
(ii) राख की ढेरी कौन हो गया है? कवि ने ऐसा क्यों कहा है ?
(iii) कवि शोषित-पराजित मनुष्य को क्या कहकर प्रेरित करता है ?
(iv) आशय स्पष्ट कीजिए- “अनाचार के अंबारों में अपना ज्वरित पलीता भर दे।”
(v) किन पंक्तियों का आशय है कि दलित-शोषित भारतीय को सहानूभुति के आँसू नहीं, व्यवस्था को बदलने वाले गुस्से की ज़रूरत है ?
उत्तर :
(i) भूखे मनुष्य को जूठे पत्ते चाटते देखकर कवि के मन में यह विचार उठा कि वह पूरी दुनिया को आग लगा दे। उसने यह भी सोचा कि वह जगपति ईश्वर का गला भी घोंट दे।
(ii) कवि ने जगपति ईश्वर को राख की ढेरी होना कहा है। उसने ऐसा इसलिए कहा है उसने समाज में समानता स्थापित करने में बहुत देरी लगा दी है। वह सभी के साथ न्याय नहीं कर पाया है।
(iii) कवि शोषित पराजित मनुष्य को यह कहकर प्रेरित करता है कि वह ईश्वर का आसरा छोड़ दे और अपनी क्षमता-सामर्थ्य को पहचाने। अपनी अखंड शक्ति से वह अपना भाग्य बदल सकता है।
(iv) इस काव्य-पंक्ति का आशय यह है कि इस संसार में जहाँ-जहाँ अनाचार-अत्याचार हो रहा है, उनको जलाकर समाप्त कर दें। इन्हें जड़ से समाप्त करना होगा।
(v) यह आशय निम्नलिखित पंक्तियों का है-
“भूखा देख तुझे गर उमड़े आँसू नयनों में जग-जन के
तो तू कह दे : नहीं चाहिए हमको रोने वाले जनखे;
तेरी भूख, असंस्कृति तेरी, यदि न उभाड़ सके क्रोधानल,
तो फिर समझूँगा कि हो गई सारी दुनिया कायर, निर्बल।”

19. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

कविताओं में
पेड़-चिड़ियाँ-फूल-पौधे
और मौसम का अब जिक्र नहीं होता
कविताओं में होते हैं
संवेदनहीन लोग
जो धन के बल पर
सच-झूठ को नकारते हुए
जीवन जी रहे हैं।
कविताएँ सदा सच बोलती हैं
झूठ का भंडा फोड़ती हैं
और सच यह है कि आज का मानव
छल से, बल से लूट रहा है,
उसने काट डाले हैं
सारे के सारे वन-उपवन
धरती का चप्या-चप्पा
पट गया है भवनों से।
और लोगों ने ड्राइंग रूम में लगा दी हैं
बौना साइ़ज प्रजातियाँ पौधों की
और सजा दी हैं असंख्य पक्षियों की

कृत्रिम आकृतियाँ
कैलेंडर-पेंटिंग्स के रूप में
जिन्हें देखकर
बच्चे पूछते होंगे-
कैसे होते हैं
विशालकाय पेड़?
चिड़ियाँ कैसे चहचहाती हैं?
आकाश इतना खाली क्यों है?
पर्वत इतने निर्वस्त्र क्यों?
हवाएँ सहमी-सहमी हैं?
बादल क्यों नहीं बरसते ?
तब तुम्हारा उत्तर क्या होगा?
मैं तुम्हीं से पूछता हूँ?
तुम्हारे ड्राइंग-रूम की चिड़िया
पौधों की किस्में
प्लास्टिक के फूल
खोज पाएँगे इन सभी
प्रश्नों का समाधान?

प्रश्न :
(i) कवि की दृष्टि मे अब कविताओं में किन बातों की चर्चा नहीं होती ?
(ii) आज का मानव छल-बल से किसे लूट रहा है और क्यों ?
(iii) ड्राइंग-रूमों को देखकर बच्चों की जिज्ञासा का कारण आप क्या मानते हैं ?
(iv) ‘तब तुम्हारा उत्तर क्या होगा ?’ बताइए ऐसी स्थिति में आपका उत्तर क्या होगा ?
(v) किन पंक्तियों का संकेत बिगड़ते पर्यावरण की और है ?
उत्तर :
(i) कवि की दृष्टि में अब प्रकृति की चर्चा नहीं होती। न पेड़ की चर्चा होती है, न चिड़िया की। न फूल की चर्चा होती है. न पौधों की और न ही मौसम की चर्चा होती है।
(ii) आज का व्यक्ति प्रकृति का दुश्मन हो गया है। वह छल-बल कर प्राकृतिक संपदाओं को लूटने में लगा है। पेड़-पौधे काट रहा है और उनका इस्तेमाल कर रहा है। ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ खड़ी करने में लगा है। इस प्रकार वह प्रकृति का दोहन करने में लगा है।
(iii) बच्चों के मन में पेड़ों, चिड़िया या अन्य पक्षियों की देखने-जानने की जिज्ञासा रहती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने इन सब चीजों को अभी तक चित्र में देखा है, प्रत्यक्ष नहीं देखा है।
(iv) ऐसी स्थिति में हम बच्चों को कोई उत्तर नहीं दे सकेंगे और स्वयं को दोषी समझेंगे।
(v) इन पंक्तियों में बिगड़ते पर्यावरण का संकेत मिल सकता है-
आकाश खाली क्यों है?
पर्वत इतने निर्वस्त्र क्यों?
हवाएँ सहमी-सहमी हैं
बादल क्यों नहीं बरसते ?

20. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

मातृभूमि के पहरेदारो, हिमवानो, तुम जागो तो!
आसमान को छूने वाले पाषाणों, तुम जागो तो!
तुम जागो तो, नव भारत के जन-जन का जीवन जग जाए,
तुम जागो, तो जन्मभूमि की माटी का काण-कण जग जाए,
तुम जागो तो, जग का आँगन दीपों से जगमग हो जाए,
बैरी के पैरों के नीचे से धरती डगमग हो जाए।
युग-तरुणाई ले अंगड़ाई, तूफानो, तुम जागो तो!
मातृभूमि के पहरेदारो, हिमवानो, तुम जागो तो!
खेत-खेत में सोना बरसे, आँगन-आँगन में मोती,
शिखर-शिखर पर नई किरण की आज सरस वर्षा होती।
नव उमंग जागे प्राणों में, स्वर नवीन हुँकार उठे।
जन-भारत वनराज जागकर आज विमुक्त दहाड़ उठे।
कर जागे, करवाल जगे, ओ दीवानो, तुम जागो तो!
मातृभूमि के पहरेदारो, हिमवानो, तुम जागो तो!

प्रश्न :
(i) ‘मातृभूमि के पहरेदारो’ से कवि किन्हें संबोधित कर रहा है ? उन्हें क्यों जगाया जा रहा है ?
(ii) जब देश के प्रहरियों की चर्चा होती है तो ‘हिमवान’ का उल्लेख अवश्य होता है, ऐसा क्यों ?
(iii) युवाशक्ति जागृत हो जाए तो देश को क्या-क्या लाभ होगा ?
(iv) आशय स्पष्ट कीजिए-
खेत-खेत में सोना बरसे, आँगन-आँगन में मोती,
शिखर-शिखर पर नई किरण की आज सरस वर्षा होती।
(v) काव्यांश का केंद्रीय भाव अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
(i) कवि बर्फ से ढके हिमालयी पहाड़ों को मातृभूमि का पहरेदार कहकर संबोधित कर रहा है क्योंकि हिमालय भारत का रक्षक है इसलिए उसे सावधान रहने के लिए कह रहा है।
(ii) जब देश में भारत के पहरेदारों की चर्चा होती है तब हिमालय का नाम अवश्य लिया जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हिमालय भारत का सशक्त पहरेदार की तरह उपस्थित है। उसे पार कर आना संभव नहीं है।
(iii) अगर देश की युवाशक्ति जागृत हो जाए तो कोई भी देश पर आक्रमण की नहीं सोच सकता। युवाशक्ति देश के भ्रष्ट नेताओं को ठिकाने लगा देगी। देश भी द्रुत गति से प्रगति के मार्ग पर बढ़ता चला जाएगा।
(iv) यदि युवा शक्ति जागृत हो जाएगी तो देश धन-धान्य से संपन्न हो जाएगा। किसान मनचाही फसलें उगाएँगे। धरती सोना उगलेगी। हिमवान् के शिखरों पर नई किरणों का सौन्दर्य उभर जाएगा। देश सुखी और सपन्न हो जाएगा।
(v) भारत का पहरेदार सो रहा है। कवि चाहता है कि उसे पुन: जगाना होगा। पहरेदार के जागने से देश में नवीन चेतना का अभ्युदय होगा। धरती दिव्य हो उठेगी। चारों ओर उन्नति का प्रकाश होगा। शत्रु पराजित होंगे और देश प्रगति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होता चला जाएगा।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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CBSE Class 12 Hindi Elective रचना नए और अप्रत्याशित विषयों पर रचनात्मक लेखन

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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana नए और अप्रत्याशित विषयों पर रचनात्मक लेखन

1. नागरिकता संशोधन एक्ट – 2010
[Citizenship Amendment Act-2019 (C.A.A.)]

दिसम्बर, 2019 को भारत सरकार ने संसद के दोनों सदनों में ‘नागरिकता संशोधन बिल – 2019’ प्रस्तुत किया और संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) ने इसे बहुमत से पारित कर दिया। तत्पश्चात् राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के उपरांत अब यह कानून का रूप ले चुका है। इसी का नाम है- ‘नागरिकता संशोधन कानून – 2019’।

10 जनवरी, 2020 को भारत सरकार ने एक अधिसूचना जारी करके इसे पूरे देश में लागू कर दिया है। इस कानून को लेकर विपक्षी दल अल्पसंख्यकों को गुमराह करके इसका विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस कानून से मुसलमानों की नागरिकता खतरे में पड़ जाएगी। जबकि यह कानून लोगों को नागरिकता देता है, किसी की नागरिकता छीनता नहीं। आइए, अब इस नागरिकता संशोधन कानून के बारे में जान लें।

यह कानून पुराने नागरिकता अधिनियम-1955 में बदलाव करने वाला है। उस पुराने कानून के अंतर्गत किसी भी अवैध प्रवासी को नागरिकता देने पर पाबंदी थी। अब उस कानून में संशोधन कर बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान समेत आस-पास के देशों से प्रताड़ित होकर भारत आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी धर्म वाले लोगों को शरणार्थी मानकर नागरिकता प्रदान की जाएगी। इसके लिए उन्हें भारत में कम-से-कम छह साल बिताने होंगे, पहले नागरिकता देने का पैमाना 11 वर्ष था अर्थात् जो व्यक्ति 2014 से भारत में आकर रह रहे हैं, वे भारत की नागरिकता पाने के हकदार होगें। इसके अंतर्गत कुछ लोगों की भारत को नागरिकता दी भी जा चुकी है।

भारत सरकार का तर्क यह है कि 1947 में देश का बँटवारा धर्म के आधार पर हुआ था। इसके बाद भी पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में कई अन्य धर्मों के लोग भी रह रहे हैं। यह देखा गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यक काफी प्रताड़ित किए जाते हैं। अगर वे भारत में आकर शरण लेना चाहते हैं, तो हमें उनकी मदद करनी चाहिए। विपक्षी दल इस कानून को संविधान की धारा 14 के समानता के अधिकार का उल्लंघन बताकर विरोध कर रहे हैं। विपक्षी दलों का विरोध धर्म को लेकर है। वे इस कानून को धर्म के आधार पर बाँटने वाला बता रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून का पूर्वोत्तर के राज्य भी विरोध कर रहे हैं। वे इस कानून को यहाँ की सांस्कृतिक, भाषायी और परंपरा के साथ खिलवाड़ बता रहे हैं। यह देखने वाली बात है कि इस कानून से 25,000 से अधिक हिंदुओं, 5800 सिक्खों, 55 ईसाई, 2 बौद्ध और 2 पारसी नागरिकों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी। वे पहले से ही भारत में रह रहे हैं।

2. पर्यावरण बचाओ – क्लाइमेट चेंज के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसें

वैज्ञानिकों ने चेताया है कि यदि वर्षा वन कटे तो अनुमान से भी छह गुना नुकसान पर्यावरण को होगा। लगातार होने वाली कटाई हमारे लिए टाइम बम की तरह है। यह समय की जरूरत है कि हम जंगलों को कटने से बचाएँ, तभी हमारा पर्यावरण ठीक रहेगा। पहले अनुमान लगाया गया था कि इन जंगलों की कटाई से हर साल करीब 33.8 करोड़ मीट्रिक टन ग्रीन हाउस गैस पैदा होंगी जबकि नई स्टडी से यह तथ्य सामने आया है कि अब इसकी मात्रा करीब 212 करोड़ हो जाएगी। शोधकर्ताओं ने 2050 तक इसके प्रभाव सामने आने का अनुमान लगाया है। पहले लगाए अनुमान जंगलों की कटाई, वाइल्ड लाइफ पर आए संकट को समझने में नाकाम रहे। जंगलों में बनाई गईं सड़कें और रास्ते शिकार को बढ़ाने में मदद करते हैं। इस कारण जानवरों की प्रजाति पर संकट आता जा रहा है।

पर्यावरण पर आए इस संकट को अभी भी रोका जा सकता है। विशेषज्ञों ने कहा है कि वर्षा वनों का 35 फीसदी हिस्सा यहाँ मूल निवासियों का है। जंगलों के खत्म होने से इन पर भी अस्तित्व का संकट है। हमें मिल जुलकर इस संकट को दूर करना होगा। अब हमें ग्रीन हाउस गैस और उसके प्रभाव को जानना जरूरी है। ग्रीन हाउस गैसों का मतलब उन गैसों से है जो क्लाइमेट चेंज के लिए जिम्मेदार हैं; जैसे- कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड आदि। इन गैसों के बढ़ने से वातावरण में असंतुलन पैदा हो जाता है। मसलन, ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ने के कारण सूर्य की गर्मी का ज्यादा हिस्सा ये गैसें सोख लेती हैं। इस वजह से धरती का तापमान बढ़ रहा है। जंगलो के कम होने से ग्रीन हाउस गैस ज्यादा प्रभावी हो जाती है।

3. वॉट्सऐप में ताका झाँकी

वॉट्सऐप कॉल के जरिए फोन जासूसी के नए खुलासे चौंकाने वाले हैं। विपक्ष ने जब इसे मुद्दा बनाया तब सरकार ने भी चुस्ती दिखाते हुए वॉट्सऐप को नोटिस देकर स्पष्टीकरण माँगा है। नागरिकों की निजता पर हुए इस हमले की जानकारी हमें तब मिली जब खुद वॉटसऐप ने अमेरिका में इजरायली कंपनी एन. एस. ओ. ग्रुप के खिलाफ केस दर्ज करते हुए बताया कि इस कंपनी द्वारा विकसित सॉफ्टवेयर के जरिए दुनियाभर के 1400 लोगों के फोन से सूचनाएँ उड़ाई गई हैं। यही कारण है कि विपक्ष ने आलोचनाओं का मुँह सीधे सरकार की ओर मोड़ दिया है। इनमें जितने भारतीयों के नाम सामने आए हैं, वे किसी-न-किसी वजह से सरकार के निशाने पर रहे हैं।

अभी तो यह साफ़ होना बाकी है कि जब वॉट्सऐप को इस बात की जानकारी मिली कि उसकी सेवाओं को जरिया बनाकर उसके कुछ उपभोक्ताओं की निजता पर हमला हुआ है तो उसने अपने स्तर पर उनको सतर्क, सजग करने के लिए क्या किया? बहरहाल, सबसे ज्यादा शोर अभी भले ही निजता को लेकर हो रहा है, पर इस प्रकरण में कई और बड़े मुद्दे भी शामिल हैं। यह लोकतात्रिक चेतना को कुंद करने और राजनीतिक गतिविधियों पर अघोषित अंकुश लगाने का मामला ज्यादा लगता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे की बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। सरकार को इस मामले की निर्मम और पारदर्शी जाँच करानी चाहिए और दोषी को ऐसी सजा दिलाने की व्यवस्था होनी चाहिए, जिसे याद करके कोई भी ऐसा करने से पहले हज़ार बार सोचे।

4. धरती का तापमान बढ़ा तो जल संकट

ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रहा है। यदि यह इसी तरह बढ़ता रहा तो इस सदी के अंत तक पौधे ज्यादा पानी सोखना शुरू कर देंगे। इससे अनेक देशों के लोगों को पानी की कमी से जूझना पड़ेगा। नेचर जियोसाइंस नामक पत्रिका में छपी एक स्टडी के अनुसार जमीन से धरती के वातावरण तक पानी पहुँचाने में पौधों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इस सदी के अंत तक ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती का तापमान 4-6 डिग्री तक बढ़ जाएगा और कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दुगुनी हो जाएगी। ऐसे में यह तीन तरीकों से पौधों की वृद्धि को प्रभावित करेगा।

अभी तक यह माना जाता रहा है कि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से पौधों को फोटोसिंथेसिस यानी अपना खाना पकाने के लिए कम पानी की जरूरत पड़ती है। इससे मिट्टी में ज्यादा पानी बना रहेगा। लेकिन अब यह तथ्य सामने आया है कि इसका दूसरा प्रभाव भी हो सकता है। ज्यादा गरम दुनिया का मतलब होगा पौधों को बढ़ने के लिए ज्यादा गरम मौसम मिलेगा। इससे वे ज्यादा पानी सोखेंगे और इससे धरती सूखेगी। नदियों और जल स्रोतों पर इसका उल्टा असर पड़ेगा। पर्यावरण वैज्ञानिकों ने दुनिया भर की सरकारों से कहा है कि अगर जैव विविधता को बचाना है तो नई नीति अपनानी होगी। आर्थिक विकास की नीति ऐसी हो जो पर्यावरण पर असर न डाले। पर्यावरण से धरती के तापमान को बढ़ने से रोकने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।

5. प्रकृति से दूर होता हमारा जीवन

जीवन अत्यंत सुंदर और आकर्षक है। दुर्भाग्य से इस समय मनुष्यों के भीतर जीवन के सौंदर्य और आकर्षण को परखने व समझने की क्षमता में निरंतर गिरावट आ रही है। जिसके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था, आज वही दुर्गुण मनुष्यों पर भारी पड़ रहा है। दरअसल मनुष्य प्रकृति का अंश है, लेकिन प्रकृति के दो प्रमुख जीवनदायी तत्व वायु और जल निरंतर प्रदूषित हो रहे हैं। जंगल लगातार कम हो रहे है। गगनचुंबी इमारतें आसमान तक मनुष्य की नजरों को पहुँचने नहीं देतीं।

कुल मिलाकर मनुष्य प्रकृति से दूर होता जा रहा है। वर्षों पूर्व यदि कोई मनुष्य सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं की पीड़ाओं से गुजरता भी था तो उसे एकांत में प्रकृति का सहारा मिलता था। प्रकृति से जीवन के प्रति लगन बढ़ाने की आत्मप्रेरणा मिलती थी। वर्तमान में समाज, परिवार, शासन-प्रशासन और प्रकृति सभी व्यक्ति के लिए प्रतिकूल हो चुके हैं। अवसाद, तनाव, मनोभ्रम, मतिभ्रम, शारीरिक-मानसिक व्याधियाँ और सोचने-समझने की शक्ति के शून्य हो जाने जैसे रोग मनुष्य को बुरी तरह जकड़ चुके हैं। इन परिस्थितियों में कोई मनुष्य अपनी संवेदना को कैसे बनाए रखे, यह महत्त्वपूर्ण है।

संवेदना में अंतराल अत्पन्न होते ही मनुष्य की अंतर्दृष्टि क्षीण होने लगती है। मनुष्य का व्यवहार और आचरण असामान्य होने लगता है ऐसे में मनुष्य परिस्थिति जन्य दुर्गुणों और दुर्गतियों के वश में हो जाता है। उसका आत्मचिंतन नगण्य हो जाता है। उसकी आत्मिक चेतना अदृश्य हो जाती है। वह मौलिक विचारों और अनुभूतियों से रहित हो सर्वथा विध्वंसकारी गतिविधियों का सहज अंग बनने लगता है। आज चहुँ ओर देखने पर अधिसंख्य मनुष्य विध्वंसकारक गतिविधियों के ही अंग बने प्रतीत होते हैं। ऐसे में जीवन से लगाव रखने वाले, जीवन-सौंदर्य के बोध से रंगानुभूत, जीवन से स्नेह रख उसे कोमलता से सहेजनवाले और प्रति क्षण जीवन के उदात्त भाव से संचित रहने वाले मनुष्य संशयग्रस्त हैं।

6. नदी की शुद्धता उसके बहने में है

वर्तमान में एक विकट समस्या से हम सब घिरे हुए हैं और वह है – पर्यावरण। हमारी नदियाँ कराह रही हैं। कभी इन्हीं नदियों के किनारे हमारी सभ्यताएँ विकसित हुई थीं। फिर आज क्यों ये नदियाँ सिसक रही हैं ? इन नदियों के लिए मानव का स्पर्श ही जैसे अभिशाप हो गया है। नदियाँ जैसे ही मानव सेवा के लिए अपने किनारे खोलती हैं, मानव इनको इतना दूषित कर देता है कि इन नदियों का दम घुटने लगता है अब बात उठती है कि नदियाँ स्वच्छ कैसे हों नदियाँ इस समस्या में इंसान की वजह से फँसी हैं। आज नदियाँ निर्बाध बहने में असमर्थ हैं। उनका पानी रोका जा रहा है। बड़े-बड़े डैम बनाकर पानी को रोक रहे हैं। इनसे सिर्फ पानी नहीं रूक रहा, नदियों को शुद्ध रहने का जो बरदान मिला था वह भी भंग हो रहा है। नदियाँ जितना बहेंगी, उतनी शुद्ध होंगी, क्योंकि वे निर्बाध बहते हुए अपने अंदर डाली गईं तमाम गंदगियों को बहाकर ले जाती हैं। अगर उनका पानी रूकेगा तो उनमें गाद जमा होगी। अगर नदी बहती रहती तो वह गाद रुक नहीं पाती। नदियाँ बहकर ही शुद्ध रह सकती हैं।

अब आइए इंसान पर। जो इंसान ठहर गया, उसमें प्रदूषण आना ही है। चलता हुआ इंसान महत्त्वपूर्ण होता है। तमाम सभ्यताएँ इंसान के चलने की वजह से ही पटल पर उभरी हैं। इंसान के चलने से उसमें मौजूद तमाम गंदगी बहकर खत्म हो जाती है। चलने वाला मनुष्य ही सभी विचारों को देखता है, तर्क पर तौलता है और फिर एक नया विचार देता है। जो मनुष्य के चलने का विज्ञान समझेगा, वही नदी के बहने का विज्ञान भी समझेगा। मनुष्य अपने लिए और नदी के लिए समान रूप से सोचे। प्रकृति ने दोनों को अपनी अशुद्धियाँ दूर करने का गुण स्वयं में दिया है। बहती हुई नदी शुद्ध हो जाएगी और चलता हुआ मनुष्य शुद्ध विचार देकर जाएगा।

7. किसान : चुनावी एजेंडा

आजकल 2020 का एजेंडा तय किया जा रहा है। वैसे तो हर बार चुनावों से पहले एजेंडा तय होता है, पर इस बार एक नई बात यह है कि इस बार एजेंडा – “धर्म बनाम किसान” हो गया है। किसानों की बात तो हर चुनावों में की जाती है, लेकिन उनका जिक्र सारी पार्टियाँ सरसरी तौर पर करती हैं। इस पर परिदृश्य बदला हुआ है। केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्ष की कथित एकजुटता इसे नई हवा दे रहा है।

तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने सत्ता संभालने के 24 घंटे के अंदर अपने-अपने यहाँ किसानों के कर्ज माफ करने की घोषणा कर दी। किसानों को लेकर पार्टियों में धर्म संकट है। बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस और वामपंथी दलों ने किसानों के मुद्दों की सबसे ज्यादा मार्केटिंग की है। यद्यापि कांग्रेस की मनरेगा के नतीजे अच्छे रहे, पर उसे यादगार योजना की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अभी भी अनेक राज्यों में किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

बीजेपी ने भी कांग्रेस की गलतियों से कुछ नहीं सीखा। 2017 में यूपी ने प्रचंड जनमत पाकर योगी सरकार ने अपना वादा पूरा कर दिया। किसानों का 7371 करोड़ रुपए का कर्ज माफ़ किया गया। लेकिन लगता है कि कर्जमाफी की यह सुनहरी तस्वीर सिर्फ कागजी हैं। हकीकत में इसकी पात्रता को इतनी तकनीकी बना दिया गया कि कहीं किसान के दस रुपए कर्ज के रूप में माफ किए गए तो कहीं सौ रुपए से पाँच सौ रुपए तक।

8. घर से विद्यालय का सफर

मैं प्रतिदिन घर से विद्यालय का सफर तय करता हूँ। यह सफर मैं पैदल ही तय करता हूँ। मेरा विद्यालय ठीक आठ से प्रारंभ हो जाता है। मेरा विद्यालय घर से दो किलोमीटर दूर है। इस दूरी को मैं बीस मिनट में तय कर लेता हूँ। मैं प्रातः ठीक साढ़े सात बजे घर से विद्यालय के लिए निकलता हूँ। मेरे साथ मेरे दो मित्र भी होते हैं। हम तीनों व्यक्ति पैदल चलकर विद्यालय जाना पंसद करते हैं। पैदल चलने का अपना ही आनंद है। इसका दोहरा लाभ है-एक, हमारी किसी वाहन पर निर्भरता नहीं रहती। दूसरा, हमारी प्रातः कालीन सैर भी सम्पन्न हो जाती है।

हम तीनों मित्र बातचीत करते हुए इस सफर को पूरा करते हैं। हमारे इस सफर में कहीं कोई बाधा नहीं आती। प्रात:काल हमें प्रकृति – सौंदर्य को निहारने और आनंद उठाने का पूरा-पूरा अवसर मिलता है। इस समय पक्षियों की चहचहाट बड़ी भली प्रतीत होती है। इस वातावरण को देखकर मैं प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत की यह कविता गुनगुनाने लगता हूँ :

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि। तूने कैसे पहचाना?
कहाँ-कहाँ हे बाल विहंगिनि ! पाया, तूने यह गाना ?
कूक उठी सहसा, तरूवासिनी गा तू स्वागत का गाना।

हमारे सफ़र के मध्य में एक बड़ा सा पार्क आता है। हम देखते हैं कि पार्क में अनेक व्यक्ति व्यायाम तथा यौगिक क्रियाएँ कर रहे होते हैं। रास्ते में एक हलवाई की दुकान भी आती है। इस पर प्रातः कालीन नाश्ते के लिए जलेबियाँ – कचौड़ियाँ बनाई जा रही होती हैं। पूरे रास्ते में चहल-पहल बनी रहती है। लोग समाचार पत्र पढ़ते हुए भी दिखाई देते हैं। सड़क पर स्कूलों की पीली बसें जा रही होती हैं। यह पूरा दृश्य बहुत ही मनोरम होता है। हमारा सफर कब बीत जाता है, कुछ पता ही नहीं चलता। हम ठीक 7.40 पर स्कूल पहुँच जाते हैं। यह सफ़र आनंदप्रद होता है।

9. प्रदूषण मुक्त प्रकृति का स्वप्न

प्रकृति अपने मूलरूप में सर्वथा प्रदूषण मुक्त है। पर मानव की स्वार्थी प्रवृत्ति का अंधाधुंध दोहन करके इसमें प्रदूषण का विष घोल दिया है। प्रकृति को प्रदूषण मुक्त रूप में हमें जीवनदायिनी शक्ति प्राप्त होती है। हमें साँस लेने को स्वच्छ वायु मिलती है, पीने को स्वच्छ जल मिलता है, प्रकृति का ध्वनि प्रदूषण रहित शांत वातावरण मिलता है। यह मनुष्य ही है कि उसने वृक्षों की अंधाधुंध कटाई करके वायु प्रदूषण को बढ़ावा दिया है, नदियों के जल में अपशिष्ट घोलकर उसे गंदा किया है तथा तेज शोर वाले संगीत से ध्वनि-प्रदूषण को बढ़ाया है। अब प्रकृति भी उससे बदला ले रही है। मौसम चक्र गड़बड़ा गया है, प्राकृतिक आपदाएँ आती रहती हैं और और जान माल को भारी क्षति पहुँचाती हैं।

मैं जब-जब इस प्रकार पर्यावरण को प्रदूषित होते हुए देखता हूँ, तब तब मै कल्पना करता हूँ कि धरती को कैसे प्रदूषण मुक्त किया जा सकता है। मैं प्रदूषण मुक्त प्रकृति का स्वप्न देखा करता हूँ। न जाने वह कौन-सा दिन आएगा, जब यह प्रकृति प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त होगी और मैं स्वच्छ वातावरण में श्वास ले सकूँगा। वैसे मैं आशावादी हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ऐसा दिन निकट भविष्य में शीघ्र ही आएगा। इसके लिए जनता में चेतना आ रही है और सरकार भी अपनी ओर से पूरे प्रयास कर रही है। सभी के सम्मिलित प्रयासों से हम प्रकृति को प्रदूषण मुक्त करने में अवश्य सफल हो जाएँगे।

प्रकृति के प्रति हमें पूजनीय भाव रखना होगा। हमारी संस्कृति में अनेक प्रकार के वृक्षों की पूजा करने की परंपरा रही है। हमारी संस्कृति में वृक्षों की पूजा की जाती रही है। हमें भी मन में वृक्षों को देवता मानने का भाव जगाना होगा क्योंकि वृक्ष हमें बहुत कुछ देते हैं। वृक्ष ही हमारे पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त बनाते हैं। अतः हमें दो प्रण करने होंगे –

1. हरे-भरे वृक्षों को काटेंगे नहीं।
2. नए-नए वृक्ष लगाएँगे। विशेष अवसरों पर वृक्षारोपण कर उत्सव मनाएँगे।

हमें पूरे वातावरण को हरा-भरा बनाना ही होगा। इसके साथ-साथ नदियों के जल की स्वच्छता को बनाए रखने के हर संभव प्रयास करने होंगे। वनों का प्रतिशत बढ़ाना होगा, अभी यह काफी कम है। इन सभी प्रयत्नों से यह प्रकृति पूर्णतः प्रदूषण मुक्त हो जाएगी।

10. अगर मैं फ़िल्म बनाता

आज की चमक-दमक के वातावरण में फिल्म बनाना और फिल्म में काम करना सभी को आकर्षित करता है। मैं भी एक फिल्म बनाने का इरादा रखता हूँ। काश मुझे फिल्म बनाने का अवसर मिल पाता। मैं इस तथ्य से भली-भाँति अवगत हूँ कि फिल्म बनाना इतना आसान काम नहीं है जितना लोग सोचते है। फिल्म बनाना बड़ा टेढ़ा और श्रम – साध्य कार्य है। फिल्म बनाने के लिए अनेक प्रकार की व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं- कहानी का चुनाव करना पड़ता है, धन की व्यवस्था करनी पड़ती है, कलाकारों का चुनाव करना पड़ता है, लोकेशन ढूँढनी पड़ती है, सैट लगाने पड़ते है, पब्लिसिटी करनी पड़ती है। इन कामों में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस सारी स्थिति को मैं भली प्रकार समझता हूँ और इनका सामना करने को तैयार भी मेरे मन में एक सार्थक फिल्म बनाने की इच्छा काफी समय से है। इसका प्लॉट भी मेरे दिमाग़ में घूमता रहता है।

मुझे काल्पनिक विषयों पर फिल्म बनाना कतई पसंद नहीं है। इन दिनों राष्ट्र के सम्मुख अनेक ज्वलंत मुद्दे हैं गरीबी है, बेरोजगारी है, शिक्षा की कमी है, नारी सुरक्षा में चूक है, बलात्कार की घटनाएँ बढ़ रही है, अराजकता की स्थिति है। मैं एक ऐसी फिल्म बनाता जिसमें राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया गया हो। यदि मैं फिल्म बनाता तो क्या-क्या काम करता? इसकी स्पष्ट रूप-रेखा मेरे मन-मस्तिक में है। मैं एक सशक्त पटकथा तैयार करता। लटके-झटके वाली फिल्म मुझे पसंद नहीं है। मेरी फिल्म का संदेश स्पष्ट होता। मैं अपनी फिल्म में नए कलाकारों को स्थान देता। इसके दो लाभ होते – एक तो उनके पास पर्याप्त समय होता। अतः शूटिंग निर्धारित समय में पूरी हो जाती। खर्च भी कम आता। मैं अपनी फिल्म में संगीत को स्थान तो देता, पर यह चालू किस्म का संगीत न होकर साहित्यिक, उच्च-स्तरीय होता। यह संगीत प्रेरणा देने वाला होता। मैं अपनी फिल्म को केवल दो महीने की शूटिंग में पूरा कर लेता। मैं अपनी फिल्म का निर्देशन भी स्वयं करता। इसे अपनी मनमर्जी के मुताबिक बनाता। काश ! मुझे फिल्म बनाने का अवसर मिलता !

11. पाठ्यक्रम में आर. एस. एस. का इतिहास : औचित्य

नागपुर विश्वविद्यालय के बी. ए. इतिहास (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का परिचयात्मक इतिहास और राष्ट्र-निर्माण में उसकी भूमिका को शामिल किया गया है। इसे भारत का इतिहास (1885-1947) इकाई में एक अध्याय के रूप में जोड़ा गया है। इसमें बताया गया है कि आर. एस. एस. की स्थापना कब और किसने की तथा इसकी विचारधारा और नीतियाँ क्या हैं ? इस प्रकरण के पाठ्यक्रम में शामिल करने पर इसके औचित्य पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। इस पर चर्चा करना अनिवार्य है।

ध्यान देने योग्यबात यह है कि स्नातक के कोर्स में पहले से ही साम्यवादियों और विविध विचारधाराओं से संबंधित अध्याय हैं। पहले भाग में कांग्रेस की स्थापना और जवाहरलाल नेहरू के उदय से संबंधित जानकारी हैं। दूसरा भाग सविनय अवज्ञा आंदोलन पर आधारित है और तीसरा भाग आर. एस. एस. पर है। चूँकि विविध विचारधाराओं में यह भी एक बड़ी विचारधारा है, अत: इसी दृष्टि से इसे पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का इतिहास 2003 से ही नागपुर विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम का हिस्सा है। इसमें एक अध्याय आर.एस.एस. के संस्थापक श्री के.बी. हेडगेवार पर भी है। विश्वविद्यालय के वी.सी. सिद्धार्थ काणे बताते हैं कि यह 1885-1947 की अवधि का हिस्सा है, 1947 के बाद के आर.एस.एस. के बारे में नहीं है। वी.सी. का तर्क है कि बी. ए. के पाठ्यक्रम में कांग्रेस के इतिहास पर अध्याय है। कोई इस पर भी प्रश्न चिह्न लगा सकता है। दूसरा तर्क यह है कि जब एम.ए. के पाठ्यक्रम में संघ है तो फिर बी.ए. में गलत कैसे ? हमें पूर्वाग्रह से परे हटकर सोचना होगा।

हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि आजादी की लड़ाई सिर्फ गाँधी-नेहरू या कांग्रेस ने ही नहीं लड़ी थी। इस लड़ाई में हर व्यक्ति ने अपने तरीके से विदेशी शासन का विरोध किया था। सभी विचारधारा के लोग ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। स्वयं आर. एस. एस. के संस्थापक हेडगेवार जी ने स्कूल के निरीक्षक के सामने वंदे मातरम का जयघोष किया था जिसके परिणामस्वरूप उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया था। वे ‘क्रांतिकारी अनुशासन समिति’ से जुड़े। 1921 के सत्याग्रह – आंदोलन में गिरफ्तार होकर साल भर तक जेल में रहे। उन्होंने 1925 में आर. एस. एस. की स्थापना की। 1925-40 तक स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोग करते रहे। 1940 तक संघ का संगठन काफी व्यापक हो चुका था। यदि संघ राष्ट्र विरोधी या संविधान विरोधी होता तो अब तक देश के लोग उस खारिज कर चुके होते। अतः इसकी स्वीकार्यता को देखते हुए पाठ्यक्रम में इसके बारे में बताना उचित ही कहा जाएगा।

12. नया राष्ट्रीय शिक्षा आयोग : नई शिक्षा नीति

शिक्षा में सुधार की माँग पुरानी है। भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय ने 2015 में डॉ. के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक नौ सदस्यीय समिति का गठन किया था। इस समिति ने अपनी जो रिपोर्ट मंत्रालय को सौंपी, वह ‘नई शिक्षा नीति’ के प्रारूप में चर्चित है। इससे देश की शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की बात की जा रही है, लेकिन इसको लेकर आशंकाएँ भी कम नहीं हैं। इस प्रारूप में बच्चों की शिक्षा तीन साल की उम्र से शुरू करने की बात कही गई है। इसे आँगनवाड़ी वाली शिक्षा बोलना उपयुक्त रहेगा। इसमें खेलने-कूदने का बल है। यह कक्षा एक से पहले की शिक्षा है। इसके लिए जमीनी स्तर पर बुनियादी जरूरतों कों पूरा करना आवश्यक होगा। समिति ने यह भी सिफारिश की है कि बच्चों को पाँचवीं तक की शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी जाए। नई शिक्षा नीति में शिक्षा बजट को धीरे- धीरे बढ़ाते हुए 20 प्रतिशत तक ले जाने की बात कही गई है। अभी शिक्षा पर बहुत कम खर्च किया जा रहा है। समिति ने ‘नीति आयोग’ की तरह एक ‘राष्ट्रीय शिक्षा आयोग’ के गठन की भी सिफारिश की है।

यह प्रस्ताव केन्द्रीकरण को लाने वाला सिद्ध होगा। हमें यह ध्यान रखना होगा कि शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है। राज्य सरकारों की इस पर सहमति होनी आवश्यक है। उच्च शिक्षा के अलावा माध्यमिक शिक्षा के लिए हर राज्य का अपना अलग शिक्षा बोर्ड है। देखना होगा कि राज्य अपने शिक्षा बोर्ड को विघटित करके एक केंद्रीय बोर्ड को स्वीकार करेंगे ? यदि पूरे देश में एक बोर्ड और एक तरह की पाठ्यक्रम होगा तो विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता समाप्त हो जाएगी। प्रारूप में एक शब्द बार-बार आया है- ‘लिबरल आर्ट्स’। यह अमेरिकी शिक्षा पद्धति से जुड़ा शब्द है। इसमें सामान्य शिक्षा को बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सभी अंडरग्रेजुएट बैचलर डिग्री के विकास का लक्ष्य हर छात्र में रचनात्मक चिंतन, कौशल और योग्यता विकसित करना होता है। अभी नई शिक्षा नीति की सफलता-विफलता पर चर्चा का दौर जारी है।

13. आबादी का असंतुलन

संयुक्त राष्ट्र संघ की वैश्विक जनसंख्या रिपोर्ट- 2019 में कई ऐसे बिंदु रेखांकित किए गए हैं जो हमें हमसे सजग होने की माँग करते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक विश्व की जनसंख्या 770 करोड़ से बढ़कर 970 करोड़ हो जाएगी। हालांकि जनसंख्या वृद्धि दर में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। वैश्विक स्तर पर प्रति महिला औसत जन्मदर 1990 में 3.2 थी जो 2019 में घटकर 2.5 रह गई है। 2050 तक इसके कम होकर 2.2 हो जाने का अनुमान है। पर दुनिया के 55 देश ऐसे हैं जहाँ आबादी घट रही है। इसके लिए पलायन, अराजकता और अशांति भी कारण हैं।

कुछ ऐसे देश हैं जहाँ कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है, लेकिन रोजगार के अच्छे अवसरों की कमी उन्हें बेहतर ठिकानों की ओर जाने के लिए मजबूर कर रही है। बहरहाल, वैश्विक आबादी के इस बिगड़ते संतुलन को ध्यान में रखें तो आने वाले वर्षों में विभिन्न देश अकेले अपने स्तर पर इस समस्या का कोई हल नहीं निकाल पाएँगे। बेहतर होगा कि वैश्विक स्तर पर नीतियों, योजनाओं और कानूनों में समन्वय लाने के प्रयास अभी से किए जाएँ ताकि जो बदलाव माँग और पूर्ति की कष्टप्रद प्रक्रिया के तहत आ रहे हैं, उन्हें ज्यादा सहज तरीके से संभव बनाया जा सके।

जनसंख्या में भारी उथल-पुथल का ही दूसरा पहलू है – आबादी के अलग-अलग आयु वर्गों का बदलता अनुपात। स्वास्थ्य सुविधाएँ बढ़ने के साथ ही पूरी दुनिया में 65 साल से ऊपर के बुजुर्गों की संख्या अभी पाँच साल से कम उम्र के बच्चों से ज्यादा हो चुकी है और 2050 तक आबादी में उनका हिस्सा छोटे बच्चों का दो गुना (भारत के मामले में तीन गुना) हो चुका होगा। आबादी का ऐसा टेढ़ा अनुपात जल्दी ही हमारे सामने बुजुर्गों की देखरेख और उनकी ऊर्जा के रचनात्मक उपयोग को चुनौती पेश करेगा। इसके साथ ही हमें अपने कुछ स्थापित जीवन-मूल्यों पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करेगा।

14. उत्तराखंड का पर्यावरणीय योगदान

उत्तराखंड देश के पर्यावरण में अथक योगदान करता आया है। वनों को सुरक्षित रखने का और वन्य जीवों के साथ मैत्री भाव यहाँ के लोगों में रहा है। वे इन वन्य पशुओं से अपने जीवन व खेती-बाड़ी के नुकसान को भी झेलते हैं। वैसे देखा जाए तो केवल वन ही नहीं, यहाँ की मिट्टी, पानी, हवा सब देश के मिजाज को खुशनुमा बनाने में योगदान करते हैं। लगभग 71 प्रतिशत वन क्षेत्र वाले उत्तराखड ने देश के लिए शुद्ध हवा और वनस्पति उपलब्ध करवाई है। उत्तराखण्ड के ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों से निकली सदानीरा नदियाँ अपने साथ मिट्टी बहाकर निचले मैदानों को उपजाऊ बनाती हैं। वैसे इस उपजाऊ मिट्टी से अच्छी फसल उपजाने का श्रेय मैदानी क्षेत्रों के किसानों के पुरुषार्थ को जाता है। उत्तराखंड के योगदान का भी कुछ मूल्यांकन तो होना ही चाहिए।

अभी हाल में राज्य सरकार के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि देश की आबो-हवा को शुद्ध और जीवनदायिनी बनाए रखने के लिए उत्तराखंड हर साल करीब तीन लाख करोड़ रुपए की पर्यावरण सेवाएँ देता है। इसमें वनों का योगदान 98 हजार करोड़ रुपयों का है। इस योगदान के बदले उत्तराखंड के लोगों को कुछ नहीं मिलता।

इस पहाड़ी राज्य के गठन के पीछे यही तर्क था कि इस राज्य का विकास का मॉडल इसकी प्रकृति और जरूरतों के अनुरूप है। वह तो हुआ नहीं, प्राकृतिक संसाधनों को बचाए रखने के नाम पर तरह-तरह की पाबंदियाँ जरूर लग गईं। इन प्रतिबंधों से ऊर्जा क्षेत्र हो या बुनियादी सुविधाओं का विकास हो, इसमें रुकावटें आईं। कई जल विद्युत परियोजनाएँ रुकी हुई हैं। ‘भागीरथी इको सेंसिटिव जोन’ की वजह से विकास योजनाओं पर असर पड़ा है।

निश्चित रूप से पर्यावरण संरक्षण की जरूरत से इन्कार नहीं किया जा सकता, पर विषम भौगोलिक परिस्थितियों से जूझते इस राज्य के विकास को रोके रखना उचित नहीं है। अपनी युवा शक्ति के पलायन को रोकना उत्तराखंड की जरूरत है, उत्तराखंड के जंगल और परिवेश को बचाए रखते हुए यहाँ के युवाओं के लिए रोजगार के पर्याप्त अवसर जुटाना आवश्यक है।

15. फिल्मों में बढ़ता तकनीकी दखल

सन् 1969 में मणिकौल की फिल्म ‘उसकी रोटी’ और मृणालसेन की ‘भुवनशोम’ से भारतीय फिल्मों में एक नई धारा की शुरुआत हुई, जिसे समांतर या न्यू वेव सिनेमा कहा गया। इस न्यू वेव सिनेमा ने आधी शताब्दी पूरी कर ली है। अब मेनस्ट्रीम सिनेमा का दौर है। ये फिल्में नाम से संचालित होती हैं। इसके बिना इनका खर्च नहीं निकल पाता। उनका कला से कोई ताल्लुक नहीं होता। इस दृष्टि से मेनस्ट्रीम और कला सिनेमा की तुलना नहीं की जानी चाहिए। 1970-80 के दशक में न्यू वेब सिनेमा की अखबारों में खूब प्रशंसा होती थी। ऋत्विक दा ने एपिक फॉर्म से दर्शकों का परिचय कराया। उन्होंने बैख्यात के नाटकों का अनुवाद किया। 1967 में फ्रांस में एक गधे को केंद्र में रखकर बनाई गई उनकी फिल्म ‘बलथाजार’ में देखी गई।

भूमंडलीकरण के साथ सिनेमा की तकनीक में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं। नई तकनीक ने नए युवा फिल्मकारों का प्रयोग करने का काफी मौका दिया है। पर उन्हें ‘बलथाजार’ और ‘मेघ ठाका तारा’ की ऊँचाई तक पहुँचने में बहुत वक्त लगेगा। एक बड़ी समस्या यह है कि तकनीक का दखल मानवीय हस्तक्षेप से कहीं ज्यादा है। युवा फिल्मकारों में सत्य और सुंदर की तलाश है, पर निराश हैं क्योंकि उनके पास अवसर नहीं हैं, कोई उनको महत्त्व नहीं दे रहा।

16. डिप्रेशन में डूबते बच्चे

मानव संसाधन मंत्रलय की ओर से पेश एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 11 से 17 वर्ष की आयु वर्ग के स्कूली बच्चे उच्च तनाव के शिकार हैं। इसके कारण उनको मनोवैज्ञानिक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय स्वास्थ्य और तंत्रिका संस्थान (NIMHANS) बेंगलुरु की ओर से देश के 12 राज्यों में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण किया गया था। इस सर्वे में 34,802 वयस्क और 1191 बच्चों किशोरों से बात की गई। 13 से 17 आयु वर्ग के लगभग 8 प्रतिशत किशोरों में तनाव से पैदा मानसिक बीमारी पाई गई थी। गाँवों में 6.9 प्रतिशत तथा शहरों में 13.5 प्रतिशत बच्चों में यह बीमारी पाई गई। इसका सीधा संबंध शहरी जीवन और गलाकाट प्रतियोगिता वाली स्कूली शिक्षा प्रणाली से है।

70 हजार छात्र खराब नतीजे के कारण आत्महत्या कर चुके हैं। मानव संसाधन मंत्रालय ने कहा है कि इस रिपोर्ट के आने के बाद प्रभावी कदम उठाने की पहल की गई है। स्कूल में काउंसलिंग की व्यवस्था के अलावा तनाव रहित माहौल बनाने की दिशा में कारगर कदम उठाए जा रहे हैं। स्कूलों में ‘हैप्पीनेस पाठ्यक्रम’ भी शुरू किया गया है। पेशेवर लोगों को बुलाकर बच्चों की काउंसलिंग करवाने के लिए अलग से फंड की व्यवस्था की गई है। इस कार्यक्रम में प्रशिक्षित शिक्षकों तथा अभिभावकों को भी शामिल किया जा रहा है। इसका एक उपाय यह भी सुझाया गया है कि बच्चों के पाठ्यक्रम में प्रेरणा देने वाली कहानियों को शामिल किया जाए। इनमें कठिन हालात में संघर्ष करने की प्रेरणा देने वाली कहानियाँ भी होंगी।

मंत्रालय ने स्कूलों को कहा है कि वे बच्चों को ‘ मंद गति से सीखने वाले’ या ‘प्रतिभाशाली बच्चे’ या ‘समस्याकारी बच्चे’ आदि रूपों में न बाँटें। इस भेद से तनाव बढ़ाने वाली स्थिति पैदा होती है। स्वस्थ प्रतियोगिता का आयोजन करें, लेकिन किसी भी हालत में बच्चों में हीन भावना न आने दें। बच्चों को आस-पास के वातावरण से जोड़ा जाना चाहिए।

17. सम्मान-अपमान शब्दों के खेल हैं

शीत ऋतु में हाड़ कँपाती ठंड में गर्मी पाने के लिए अलाव की आग बड़ी सुखकर प्रतीत होती है। पर, ग्रीष्म ऋतु आने पर जब बढ़ जाती है तब दीपक की लौ भी खटकने लगती है। इसी तरह हमारे प्रति किसी के क्रोध के पीछे जब सुलगता हुआ प्रेम होता है, तब उसका भयंकर क्रोध भी हमें व्याकुल नहीं करता, अपितु अच्छा ही लगता है। लेकिन यदि उस क्रोध के पीछे तिरस्कार का भाव है तो ऐसा क्रोध करने वाले व्यक्ति का बोला गया मामूली सा भी शब्द या कृत्य हमें अपमानजनक लगता है।

सच तो यह है कि अपमान जैसी कोई स्थिति होती ही नहीं है। न किसी का अपमान होता है, न ही कोई कर सकता है। हमने अपने मन में सम्मान की इतनी अधिक अपेक्षा पाल रखी है कि जरा-सी उपेक्षा से हम अपने को अपमानित महसूस करने लगते हैं। किसी ने हमें आदर से बुलाया और किसी ने दुत्कार दिया, ये दोनों शब्द ही तो हैं। यदि हमारे मन में मान-अपमान की भावना न हो तो इन शब्दों से हमारा बनता – बिगड़ता कुछ भी नहीं।

हम सभी वैचारिक आग्रह से बँधे हुए हैं। हमारे सबके अपने-अपने गणित हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सह-जीवन के लिए वैचारिक सहिष्णुता भी अनिवार्य है। सहनशील होना औरों के लिए नहीं, अपितु अपने लिए अधिक लाभदायी है। अगर कोई अपने प्रेम का दायरा छोटा करके उससे हमें निकाल दे तो हमें अपने प्रेम के दायरे को इतना बड़ा कर लेना चाहिए जिससे उसका छोटा दायरा हमारे दायरे में समा जाए। दूसरों की भावनाओं का सम्मान जरूरी है।

ब्लाटिंग पेपर पर गिरी स्याही की एक बूँद जिस तरह दूर तक फैल जाती है, वैसे ही हृदय में प्रवेश हुई छोटी-सी शंका पूरे हृदय पर कब्जा कर परस्पर संबंधों में तीव्र कड़वाहट पैदा कर देती है। ऐसे में अपमान और तिरस्कार से परे प्रेमपूर्वक मित्रता करना ही एकमात्र उपाय है। इसके साथ ही हमारी स्मृति में यह सूत्र सदैव रहे – ‘जीवन का प्रारंभ प्रेम से और समाप्ति परमात्मा से।’

18. अपने असर से आगे बढ़ता योग

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2014 में 21 जून को ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में मनाने का प्रस्ताव पास किया। 177 देशों ने इसे बिना मतदान के मान लिया। ऐसा पहली बार हुआ और वह भी इस टिप्पणी के साथ – ‘योग मानव स्वास्थ्य और कल्याण की दिशा में संपूर्ण नजरिया है।’ आज योग इंडस्ट्री 5 लाख करोड़ रुपए का दायरा पार कर चुकी है। भारत में इसका आकार 50,000 करोड़ रुपए के आस-पास है। दुनियाभर में योग का उपयोग शारीरिक और मानसिक बीमारियों से निपटने के लिए हो रहा है। इसे धार्मिक उपक्रम की तरह नहीं, शारीरिक और मानसिक क्रिया के तौर पर अपनाया गया है।

भारत में 21 जून की तारीख करीब आते ही यह बहस जोर पकड़ लेती है कि योग हिंदू धर्म से जुड़ा कोई उपक्रम है, इसलिए सारे धर्म इसे नहीं अपना सकते। तर्क यह दिया जाता है कि प्राणायाम में ‘ओम्’ शब्द का उच्चारण जरूरी है। अत: हिंदू धर्म के अलावा दूसरे धर्म ऐसा नहीं कर सकते। वैसे धर्म की कोई मान्य परिभाषा नहीं है। पतंजलि योग दर्शन के संस्थापक माने जाते हैं। इनका योग बुद्धि के नियंत्रण की प्रणाली है। योग को उन्होंने चित्त की वृत्तिस का निरोध कहा है। उन्होंने इसके अष्टांग यानी आठ अंग सुझाए हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा (एकाग्रता), ध्यान और समाधि। हमारे प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा था- “योग भारत की प्राचीन परंपरा का अमूल्य उपहार है। यह दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक है, मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य है। यह केवल व्यायाम नहीं, अपने भीतर की भावना, दुनिया और प्रवृत्ति की खोज का विषय है।”

इसे धर्म या राजनीति के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। वैसे धर्म का मूल अनुशासित जीवन पद्धति है और योग अनुशासन सिखाता है। यदि यह लोकप्रिय हो रहा है तो अपने असर के कारण हो रहा है। अब दुनिया भर में योग पर कार्यक्रम होते हैं। यह योग की स्वीकार्यता का ही प्रमाण है। कोई चीज इतने व्यापक स्तर पर स्वीकार्य तभी होती है जब उसमें सभी को कुछ न कुछ मिल रहा होता है। योग ने दुनिया को शारीरिक, मानसिक जागृति के मंच पर एक सूत्र में पिरोया है। इसका खुले हृदय से स्वागत किया जाना चाहिए।

19. मनुष्य का शरीर – एक मशीन इसे जतन से रखना है

हमारा शरीर जिन पाँच तत्त्वों से बना है, वे हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। पृथ्वी तत्त्व से हमारा भौतिक शरीर बनता है। जिन तत्त्वों, धातुओं और अधातुओं से पृथ्वी बनी है, उन्हीं से हमारे भौतिक शरीर की भी रचना हुई है। यही कारण है कि आयुर्वेद में शरीर को स्वस्थ और बलशाली बनाने के लिए धातु की भस्मों का प्रयोग किया जाता है; जैसे- स्वर्ण भस्म। ‘जल’ तत्त्व से मतलब तरलता से है। जितने भी तरल तत्त्व शरीर में बह रहे हैं, वे जल तत्त्व हैं, चाहे वह पानी हो, खून हो अथवा रस हो। जल तत्त्व ही शरीर की ऊर्जा और पोषक तत्त्वों को पूरे शरीर में पहुँचाने का काम करता है।

अग्नि तत्त्व ऊर्जा, ऊष्मा, शक्ति और ताप का प्रतीक है। हमारे शरीर में जितनी गर्माहट है, सब अग्नि तत्त्व से है। यही अग्नि तत्त्व भोजन को पचाकर शरीर को स्वस्थ रखता है। ऊष्मा का स्तर ऊपर या नीचे जाने से शरीर बीमार हो जाता है। जिनमें प्राण है, उन सबमें वायु तत्त्व है। हम साँस के रूप में हवा (ऑक्सीजन) लेते हैं, इसी से हमारा जीवन है।

आकाश तत्त्व अभौतिक रूप में मन है। जैसे आकाश अनंत है, वैसे ही मन की भी कोई सीमा नहीं है। जैसे आकाश में कभी बादल, कभी धूल नजर आती है तो कभी बिल्कुल साफ दिखाई देता है, वैसे ही मन भी कभी खुश, कभी उदास और कभी शांत रहता है। इन पंच तत्त्वों से ऊपर एक तत्त्व है – आत्मा। इसके होने से ही ये तत्त्व अपना काम करते हैं तथा शरीर में ऊर्जा रहती है। यही इन तत्त्वों को नियंत्रण में रखता है।

मनुष्य का शरीर तंत्रिकाओं पर खड़ा है। विभिन्न प्रकार के ऊतकों से मिलकर अंगों का निर्माण हुआ है। शरीर तंत्र के मुख्य चार अवयव हैं – मस्तिष्क, प्रममस्तिष्क, मेरुदंड और तंत्रिकाओं का पुंज। मानव शरीर प्रकृति द्वारा तैयार की गई एक मशीन है। इसके सूक्ष्म संसाधनों व तंत्रों और तत्त्वों के प्रयोग की सटीक सहज क्रिया के जरिए हम अपनी ऊर्जा को निरंतर गति दे सकते हैं।

20. वर्क लोड की चिंता

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है वर्क लोड से उपजी थकान एक सामान्य बात नहीं है, अपितु यह एक बीमारी है। अत्यधिक काम का दबाव किसी कर्मचारी को ऊर्जा विहीन, असहज करता है और व्यक्ति थकान महसूस करने लगता है। धीरे-धीरे यह थकान उसकी ऊर्जा को नष्ट करते हुए उसके तनाव को बढ़ाती है। इससे स्वभाव में बदलाव आने लगता है। धीरे-धीरे नकारात्मकता, अकेलापन, उदासी, आक्रोश आदि पाँव पसारने लगते हैं। इसके अलावा काम के दौरान ऊर्जावान महसूस न करना, काम करने के लिए मन न करना, इस बीमारी के लक्षण हैं। मोटे तौर पर यही स्थिति बर्नआउट कहलाती है।

ऐसी समस्या उन लोगों में पाई जाती है जो काम को लत बना लेते हैं या जिन पर अधिक काम करने का दबाव लगातार बनाए रखा जाता है। निजी कंपनियों, कॉल सेंटरों आदि से जुड़े कार्यस्थलों पर अक्सर ऐसे मामले देखने में आते हैं। काम के बोझ का तनाव संपूर्ण शरीर पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। ज्यादा समय तक काम करने, देर रात तक जगने आदि के कारण अनिद्रा, उदासी, थकावट, छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा और चिड़चिड़ापन इसके लक्षण हैं। अगर इस समस्या को समय रहते डॉक्टरी सलाह द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाता है तो यह स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो सकती है।

व्यक्तिगत तौर पर ऐसी समस्याओं से बचने का उपाय यह है कि काम को आनंद के साथ किया जाए। काम को बोझ के रूप में न लेने और एक समय में सीमा से अधिक काम न करने पर इस समस्या से ग्रस्त होने की आशंका नहीं रहती है। इसके अलावा योग, प्राणायाम, ध्यान आदि के द्वारा इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है। अधिकारी को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कर्मचारी वह काम मजबूरी में तो नहीं कर रहा। कर्मचारियों से सीधा संवाद और जुड़ाव स्थापित किया जाना आवश्यक है। यदि खुले मन से काम किया जाए तो कार्यक्षमता बढ़ती है। यदि तनाव अधिक हो तो डॉक्टर की सलाह लेने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए।

21. जलशक्ति मंत्रालय और गंगा

भारत सरकार ने 2019 में ‘जल शक्ति मंत्रालय’ का गठन करके अपनी जल संबंधी चिंताओं के समाधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को मुखरित कर दिया है। यह मंत्रालय ही अब गंगा तथा अन्य नदियों को साफ करने के काम को देखेगा। यह एक स्वागत योग्य कदम है। यह मंत्रालय सभी उद्योगों को कहेगा कि वे अपनी गंदे पानी को साफ करके तब तक उसका पुनरुपयोग करते रहेंगे, जब तक वह पूरी तरह समाप्त न हो जाए। उन्हें एक बूँद भी गंदा पानी छोड़ने की छूट नहीं दी जाएगी। अभी तक यह सामान्य व्यवस्था रही है कि जाँच के समय 2-4 घंटे के लिखे एस.टी.पी. को चालू कर देते हैं और जाँच टीम के जाते ही गंदा पानी छोड़ने का सिलसिला शुरू हो जाता है। भ्रष्ट अधिकारियों पर नियंत्रण करना आवश्यक है।

गंगा को अविरल बनाना उतना ही जरूरी है जितना उसे निर्मल बनाना। गंगा के जल की गुणवत्ता अंततः उसमें रहने वाले जलीय जंतुओं जैसे – मछली, कालिफाज, घोंघे और कछुओं से बनती है। ये जंतु ही गंगा के पानी को साफ और जीवंत बनाते हैं। इन जंतुओं को पोषित करने के लिए यह जरूरी है कि गंगा के पानी में पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन हो और उसके बहाव में कोई अवरोध न हो ताकि जल-जंतु नदी में आगे-पीछे घूम सकें। गंगा पर जल विद्युत और सिंचाई परियोजनाओं द्वारा डैम अथवा बैराज इस प्रकार बनाए जाने चाहिएँ कि पानी का बहाव अविरल बना रहे ताकि जल-जंतु आसानी से आवागमन कर सकें। मंत्रालय ने आदेश दिया है कि जल विद्युत परियोजनाओं द्वारा 20-30 प्रतिशत और सिंचाई योजनाओं से 3 से 6 प्रतिशत पानी नदी में लगातार छोड़ा जाएगा।

सरकार द्वारा नदियों को साफ करने के कार्य को पर्यावरण मंत्रालय से हटाकर जल शक्ति मंत्रालय को दिया जाना एक शुभ संकेत है। यदि हमें नदियों को जीवित रखना है और नदी – संस्कृति को बनाए रखना है तो जल शक्ति मंत्रालय को आई.आई.टी. समूह द्वारा दिए गए सभी सुझावों को तत्परता से लागू करना होगा। गंगा के जल की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास करने होंगे।

22. आज के भगीरथ – संत सीचेवाल

पंजाब के जाने-माने पर्यावरण रक्षक संत बलवीर सिंह सीचेवाल को यदि आधुनिक भगीरथ कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इन्होंने काली मृतप्राय बेई नदी को जीवित कर दिया है। इसके साथ ही इन्होंने एक ऐसा देसी तरीका भी विकसित किया है, जिससे खेतों में फसलें और बाग-बीचों में फूल और फलों के पेड़ लहराने लगे हैं। पर्यावरण रक्षा के लिए ‘टाइम पत्रिका’ ने वर्ष 2008 में उन्हें दुनिया के 30 पर्यावरण नायकों की सूची में शामिल किया था। भारत सरकार ने भी उन्हें 2017 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया है।

गंदगी, नालों और कल-कारखानों के गंदे पानी के कारण 160 किलोमीटर लंबी काली बेई नदी का अस्तित्व समाप्त होने के कगार पर था। छह से ज्यादा नगरों तथा 40 गाँवों के लोग इसमें कूड़ा फेंकते थे। उनकी नासमझी से यह नदी गंदे नाले में परिवर्तित हो गई थी। इससे 93 गाँवों की 50,000 एकड़ भूमि सूखे की चपेट में आ गई थी। संत बलवीर सिंह ने प्रण लिया कि वह इस नदी का उद्धार करके रहेंगे। इसके लिए उन्होंने 2000 ई. में ‘जनचेतना यात्रा’ आरंभ की। इसके साथ ही कारसेवा के जरिए काली बेई नदी की सफाई शुरू की। पहले वह स्वयं इस काम में लगे। उन्हें देखकर लोग उनके साथ जुड़ते चले गए। उन सभी की मेहनत रंग लाई और काली बेई नदी सरस सलिला हो गई।

संत सीचेवाल को यह समस्या परेशान कर रही थी कि इस गंदे पानी का क्या किया जाए ? सीचेवाल ने इस समस्या पर मंथन किया और गंदे पानी को साफ करके उसका उपयोग खेती में करने का देसी तरीका निकाला। उन्होंने काली बेई में गंदे पानी को जाने से रोकने के लिए सीवर लाइन बिछाई। गंदे पानी को एक बड़े तालाब में जमा करना शुरू किया। तालाब में डालने से पहले पानी को तीन गड्ढों से गुजारा। देसी तरीके से बना यह सीवरेज प्लांट पूरी तरह सफल रहा। इस प्लांट के जरिए साफ हुए पानी का प्रयोग खेती में होने लगा। उनका कहना है कि जनता के सहयोग से अन्य नदियों को भी साफ किया जा सकता है। उनका यह भी कहना है कि प्राकृतिक जल स्रोतों को दूषित करने पर आपराधिक मामला दर्ज होना चाहिए।

कपूरथला के गाँव सीचेवाल में उनका जन्म 2 फरवरी, 1962 को हुआ। 1984 में कॉलेज छोड़ने के बाद से ही वे समाज-सेवा जुट गए थे। उन्होंने अपने गाँव में स्कूल और कॉलेज भी खोले हैं। इनमें मजदूरों के बच्चों को निःशुल्क पढ़ाया जाता है। वे ‘नशा मुक्ति अभियान’ भी चलाकर युवा पीढ़ी को सचेत कर रहे हैं। निश्चय ही वे आधुनिक युग के भगीरथी हैं।

23 गुरु पूर्णिमा का महत्त्व

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ‘गुरु पूर्णिमा’ कहा जाता है। इसे ‘व्यास पूर्णिमा’ कह कर भी संबोधित किया जाता है। यही पूर्णिमा महर्षि वेदव्यास का पावन जन्मदिन भी है। महर्षि व्यास के जन्मदिन को ही गुरु पूर्णिमा का सम्मान इसलिए दिया गया क्योंकि उन्होंने भारतीय दर्शन, धर्म एवं इतिहास पर न केवल विपुल साहित्य की रचना की, अपितु हर प्रकार से सक्रिय सहयोग दिया।

महर्षि व्यास का पूरा नाम श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास था। वे पाराशर मुनि के पुत्र थे और भीष्म पितामह के अग्रज थे। ‘महाभारत’ की रचना करके उन्होंने विश्व का उपकार किया है। कहते हैं इसमें एक लाख श्लोक थे, पर अब चौबीस हजार श्लोक ही उपलब्ध हैं। महर्षि व्यास ने समस्त वेदों को लिपिबद्ध कर दिया। इसीलिए उनका नाम वेद व्यास पड़ गया। उन्होंने अठारह पुराणों के अतिरिक्त श्रीमद्भागवत पुराण जैसा महान ग्रंथ की रचना करके मानवता का महान उपकार किया। भारतीय संस्कृति का पूर्ण दिग्दर्शन महर्षि वेदव्यास के ग्रंथों में होता है।

गुरु पूर्णिमा के दिन लोग अपने-अपने गुरुदेव की पूजा करते हैं तथा श्रद्धा और शक्ति के अनुसार वस्त्र एवं दक्षिणा प्रदान करते हैं। इस अवसर पर यह प्रश्न भी विचारणीय है कि हमें गुरु की आवश्यकता ही क्या है ? वास्तविकता यह है कि संसार के मोह-माया जाल में फँसे मनुष्य गुरु कृपा के बिना कभी भी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। गुरु ही हमारे मन को निर्मल बनाता है। कबीर ने गुरु का महत्त्व इस प्रकार समझाया है-

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाह्रै खोट ॥
+ + + +
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियौ मिलाय ॥

स्पष्ट है कि गुरु ही हमें परमात्मा से मिलाता है। एक श्लोक में गुरु को परमात्मा का ही रूप माना गया है –

गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥

अर्थात् गुरु सृष्टि रचयिता ब्रह्मा है। वह शिष्य के मन में श्रेष्ठ विचारों की रचना करता है। गुरु विष्णु अर्थात् पालन करने वाला है। गुरु शिष्य के गुणों का, संकल्पो का, सद्विचारों का पालन करता है। गुरु शिव स्वरूप है अर्थात् वह दुर्गुणों का संहार करता है। परब्रह्म परमात्मा की समस्त सकारात्मक शक्तियों को प्रकट करने वाला है। ऐसे सद्गुरु को हम प्रणाम करते हैं।

परमहंस योगानन्द जी का कहना है कि गुरु ईश्वर का संपर्क सूत्र है। सद्गुरु का यही प्रयास रहता है कि उसके शिष्य ईश्वर – प्राप्ति के योग्य बनें। पुस्तकें कंठस्थ करके कोई सद्गुरु नहीं बन सकता। भवसागर से पार होने के लिए सद्गुरु का शिष्यत्व प्राप्त होना आवश्यक है। हमें गुरु पूर्णिमा के अवसर पर अपने गुरु की पूजा करनी चाहिए। हाँ, लालची, व्यवसायी, क्रोधी और अहंकारी व्यक्ति को कभी अपना गुरु नहीं बनाना चाहिए। चमत्कारों के चक्कर में भी नहीं पड़ना चाहिए। कहा गया है –

गुरु कीजिए जानकर, पानी पीजे छानकर।
बिना विचारे गुरु करै, परै चौरासी आन कर ॥

24. प्रकृति की गोद में जीवन के शाश्वत संदेश : एक अनुभव

मैं पहली बार हिमालय की गोद में, पहाड़ियों के सुरम्य आँचल में बसे एक गाँव की छटा देखने गया। मौन तपस्वी से खड़े ध्यानस्थ पर्वत-शिखर स्थिरता, दृढ़ता और अटल निष्ठा के भाव जगा रहे थे। मैंने हिमाच्छित शिखरों पर झिलमिलाती स्वर्णिम सूर्य की रश्मियों का दर्शन प्रथम बार किया था। चोटी से नीचे उतरती धूप के साथ जैसे पहाड़ अँगड़ाई ले रहे हों, पूरी घाटी के बीच आलोकित हो रहा प्रकाश तथा पक्षियों का कलरव नए जीवन की चेतनता का संचार कर रहे थे। रास्ते में झरने और निर्मल जल धाराओं से होकर घाटी की चढ़ाई का आरोहरण कर रहा था। राह में पवन के झोंके, पक्षियों की चहचहाहट के बीच प्रकृति के रहस्यमय लोक में विचरण करता रहा।

पवन के झोंकों में झूलते वृक्ष व पौधे हमें मस्ती से जीने का सबक सिखाते हैं। हिमालय का दर्शन तो साक्षात् शिव-शक्ति का विग्रह प्रतीत होता है। मैं उसके सान्निध्य में ध्यानस्थ होकर अपने अंतस की दिव्यता के भाव को प्रगाढ़ता से अनुभव कर रहा था। इस धारणा के साथ मैं ध्यान की गहराइयों में उतरता और अपने दिव्य स्वरूप की झलक पा रहा था।

यहाँ मुझे अनुभव हुआ कि हम प्रकृति के माध्यम से स्वयं परमात्मा झर रहे हैं। हम जितना प्रकृति से जुड़ते हैं, उतना ही हम उस दिव्यता से भी जुड़ते हैं, जो वास्तव में हमारा मूल स्वरूप है। यहाँ वृक्ष मुझे मौन विषपायी शिव के समान प्रतीत हुए, जो स्वयं कार्बन-डाइऑक्साइड पीकर प्राणदायी ऑक्सीजन परिवेश में सतत छोड़ते रहते हैं। फलों से लदे वृक्ष मुझे विनीत जीवन का संदेश देते ऐसे प्रतीत हुए जैसे गुणों से लदा व्यक्ति विनम्र हो जाता है। घाटियाँ हमें जीवन के उतार-चढ़ाव भरे शाश्वत स्वरूप की याद दिलाती हैं, जहाँ राह अभी नीचे खाई की ओर जा रही है, तो अगले पल खाई से ऊपर शिखर की ओर बढ़ रही है। समय पर उदय-अस्त होते सूर्यदेव जहाँ हमें नियमितता – कर्तव्यपालन का संदेश देते हैं, वहीं दिन-रात के रूप में जीवन के विरोधाभासी स्वरूप के बीच जीवन का शाश्वत परिवर्तन चक्र लयबद्ध दिखाई देता है। यहाँ प्रकृति की नीरव गोद में मैंने अपने सोए संबंध पाए। प्रकृति के मध्य बिताए ये पल मेरे अंदर ऊर्जा का संचार करते रहे।

25. श्रम सुधार की पहल

भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने और अगले पाँच वर्षों में उसे पाँच लाख करोड़ डॉलर का आकार देने के मकसद से सरकार ने व्यापक श्रम सुधारों का अभियान शुरू कर दिया है। इसके लिए उसने 44 श्रम कानूनों को मिलाकर चार श्रम संहिताएँ बनाने का फैसला किया है। ये संहिताएँ हैं – 1. न्यूनतम वेतन और कार्यगत सुरक्षा, 2. स्वास्थ्य एवं कार्यदशा, 3. सामाजिक सुरक्षा तथा 4. औद्योगिक संबंध। बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने स्वास्थ्य और कार्यदशाओं से संबंधित बिल ‘ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन बिल 2019’ के मसौदे को मंजूरी दे दी। यह 13 श्रम कानूनों को मिलाकर बना है। न्यूनतम वेतन से संबंधित संहिता को एक हफ्ता पहले स्वीकृति दी जा चुकी है। बाकि दो संहिताओं को शीघ्र मंजूरी दी जाएगी। जहाँ तक स्वास्थ्य और कार्यदशा से संबंधित बिल का सवाल है तो इससे 40 करोड़ कर्मचारी लाभान्वित होंगे।

छोटे कारखानों में कामगारों को अक्सर बिना – नियुक्ति पत्र के काम करना पड़ता है। यह रास्ता अब बंद होने वाला है। हर साल श्रमिकों के स्वास्थ्य की जाँच जरूरी होगी। नियोक्ताओं के लिए भी प्रक्रिया आसान की गई है। रजिस्ट्रेशन, लाइसेंस और रिटर्न को आसान बनाया गया है। इनके लिए उन्हें अभी 10 से 21 तक फार्म भरने पड़ते हैं, लेकिन आगे एक-एक फार्म भरने से काम हो जाएगा। न्यूनतम वेतन से संबंधित संहिता पर श्रम एवं रोजगार मंत्री संतोष कुमार गंगवार का कहना है कि इसके जरिए देश भर के लगभग 30 करोड़ श्रमिकों को न्यूनतम वेतन पाने का अधिकार मिलेगा।

बिल में 178 रुपये का न्यूनतम वेतन सुनिश्चित किया गया है। जिन राज्यों में इससे ज्यादा की व्यवस्था है वहाँ वह जारी रहेगी। वेतन हर महीने की नियत तारीख पर मिलेगा। इस प्रावधान से मजदूरों का शोषण रुकेगा क्योंकि आज भी कुछ राज्यों में दैनिक मजदूरी 50, 60 या 100 रुपये पर अटकी पड़ी है। हालांकि कानूनों को एकरूप बनाने के फैसलों पर कई संगठनों ने सवाल भी उठाए हैं। नेशनल कैंपेन कमेटी फॉर कॉन्स्ट्रक्शन वर्कर्स का कहना है कि इससे भवन और अन्य निर्माण श्रमिक (बीओसीडब्ल्यू) एक्ट 1996 रद्द हो जाएगा, जिससे बीओसीडब्ल्यू बोर्ड बंद हो जाएंगे और लगभग चार करोड़ मजदूरों का पंजीकरण रद्द हो जाएगा।

भारतीय मजदूर संघ ने वेतन और सामाजिक सुरक्षा संबंधी लेबर कोड को ऐतिहासिक और क्रांतिकारी बताया है लेकिन औद्योगिक संबंधों से जुड़ी संहिता पर उसे गहरी आपत्ति है। उसका कहना है कि श्रम संगठनों के पदाधिकारियों के लिए पात्रता सरकार द्वारा तय किए जाने, हड़ताल करने का अधिकार सीमित करने, कर्मचारियों को एकतरफा तौर पर निकालने और एप्रेंटिस श्रमिकों को अलग करने जैसे प्रावधानों से श्रमिकों के अधिकारों में कटौती हुई है। अंतत: श्रमिकों की संतुष्टि ही उन्हें उत्पादन में बेहतर योगदान की ओर ले जाएगी, लिहाजा सरकार को सभी संहिताओं में यथासंभव सुधार करके ही उन्हें कानून की शक्ल देनी चाहिए।

26. कामनाओं पर नियंत्रण के लिए साधना जरूरी

जीवन में वही क्षण सार्थक माने जाते हैं जिनमें साधना – सत्संग करने का अवसर मिलता है। साधना से पूर्ण विश्वास हो जाता है कि संसार में सबसे बड़ा रक्षक परमात्मा ही है। साधक के हृदय में प्रभु की भक्ति, कृपा धारणा की शक्ति आ जाती है और वह निडर एवं भयमुक्त जीवन जी सकता है। इसी के साथ वह दुर्बल मन को शक्तिमान, शुद्ध और कलंक रहित बनाता है। स्वयं को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम बनाने का कार्य साधना से ही संभव है। व्यक्ति को आत्मपथ से न डिगने के लिए भी साधना की जरूरत रहती है। जीवन को अधोगामी बनाने व ध्येय से विचलित करने वाली दुष्प्रवृत्तियाँ सदैव क्रियाशील रहती हैं। इन्हें दूर करने की शक्ति साधना में है। मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि साधना का उद्देश्य क्या है ? जीवन को श्रेष्ठता के शिखर पर ले जाने के लिए साधना ही एकमात्र तरीका है। साधना आध्यात्मिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही, लौकिक दृष्टि से भी उतनी ही सार्थक है।

अग्नि में तपकर सोना कुंदन बन जाता है। इसी तरह साधक साधना से अपने जीवन को उत्तम बना सकता है। इंसान पर प्रभु की कृपा तो हमेशा बरसती है, पर जो मनुष्य अपना हृदय रूपी पात्र उनकी वर्षा का जल लेने के लिए तैयार रखता है, तो उसके पात्र का जल कभी कम नहीं होता। सांसारिक वस्तुएँ तो क्षणिक हैं। जीवन में आध्यात्मिक उन्नति के लिए साध ना जरूरी है। साधना के लिए शरीर का स्वस्थ होना और मन का एकाग्र होना आवश्यक है। जीवन में जब बुद्धि को महत्त्व दिया जाता है तब तर्क की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। तर्क से हृदय की अनुराग शक्ति कम हो जाती है।

तर्क से जीवन में सरसता नहीं रहती, परमात्मा प्रेम का अनुराग नहीं रहता और नीरसता आ जाती है। तर्क तो साधना में सहायक हो सकता है, लेकिन कुतर्क साधना से विमुख कर देता है। साधक को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि कामनाओं के कारण ही जीवन में गलतियाँ होती हैं। केवल विषय की लोलुपता ही कामना नहीं है। देखने में आता है कि सात्विक जीवन जीने वाले साधु-संतों को भी लोकेषणा का रंग लग जाता है। तब वे सात्विक जीवन छोड़कर दांभिक जीवन जीने लगते हैं। इसीलिए कामनाओं पर नियंत्रण रखना जरूरी है और यह साधना से ही संभव है।

27. मजबूती की बुनियाद : इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास को प्राथमिकता

मोदी – 2.0 सरकार के पहले बजट का मकसद अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए किए जा रहे विभिन्न प्रयासों को एक समेकित रूप देना है। सरकार ने फरवरी में पेश अपने अंतरिम बजट में अनेक कार्यक्रमों को जमीन पर उतारा था। अब उन्हें एक निश्चित दिशा और मजबूती देने की कोशिश की गई है। इस बजट का जोर इस बात पर है कि साधन संपन्न वर्ग से टैक्स वसूल कर और विनिवेश के जरिए पूँजी जुटाकर उसे आमजन के लिए योजनाओं पर खर्च किया जाए। बजट में बुनियादी क्षेत्र को खासी तवज्जो दी गई है क्योंकि इस सेक्टर में रोजगार पैरा करने की संभावनाएं काफी ज्यादा हैं। सरकार बेरोजगारी दूर करने की चुनौती से लगातार जूझ रही है।

इसलिए उसने अगले पाँच सालों में इंफ्रास्ट्रक्चर को अपग्रेड करने पर 100 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का फैसला किया है। इससे संबंधित प्रोजेक्ट गाँव और शहर के बीच खाई को कम करने का काम करेंगे। बजट में सड़क, वॉवे, मेट्रो और रेल के विकास के लिए कई प्रावधान किए गए हैं। जाहिर है ये पूँजी निवेश को आकर्षित करने में भी अहम साबित होंगे। इसके लिए कई क्षेत्रों में एफडीआई बढ़ाने की बात भी कही गई है। सरकार उड्डयन, मीडिया, एनिमेशन और बीमा में एफडीआई बढ़ाने की संभावनाओं पर विचार करेगी। बीमा क्षेत्र में तो वह 100 प्रतिशत तक एफडीआई चाहती है।

निवेश बढ़ाने के लिए प्रवासी भारतीयों के निवेश के रास्तों को आसान किया जाएगा। सरकार के सामने एक और चुनौती बाजार में माँग पैदा करना और रीयल, ऑटोमोबाइल और अन्य क्षेत्रों में कायम शिथिलता को तोड़ना भी है। इसे ध्यान में रखकर होम लोन के ब्याज पर मिलने वाले इन्कम टैक्स छूट को साल में 2 लाख से बढ़ाकर 3.5 लाख रुपये कर दिया गया है। यह छूट 45 लाख रुपये तक के मकान पर मिलेगी। इससे रीयल एस्टेट सेक्टर को प्रोत्साहन मिलेगा। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 1.95 करोड़ मकान बनाने का प्रस्ताव भी इस क्षेत्र में आए ठहराव को दूर करेगा।

बैंक ज्यादा से ज्यादा ऋण दे सकें, इसके लिए सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 70,000 करोड़ रुपये की पूँजी डालेगी। वित्त वर्ष 2019-20 के विनिवेश लक्ष्य को बढ़ाकर 1,05,000 करोड़ रुपये किया गया है। अंतरिम बजट में इसे 90,000 करोड़ रुपये रखा गया था। रेलवे में साल 2030 तक 50 लाख करोड़ रुपये के निवेश की जरूरत होगी। रेलवे स्टेशनों के आधुनिकीकरण के लिए अनेक कार्यक्रमों की शुरुआत की जाएगी जिनके लिए पीपीपी मॉडल के जरिए निवेश किया जाएगा। सरकार नई शिक्षा नीति लेकर आएगी। विदेशी छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए आकर्षित किया जाएगा। स्वच्छ पर्यावरण को बढ़ावा देना भी बजट का प्रमुख अजेंडा है। इसमें इलेक्ट्रिक कारों को लोकप्रिय बनाने के लिए सरकार ने इन पर जीएसटी की दरों में कटौती की है। साथ ही इलेक्ट्रिक कार खरीदने पर इन्कम टैक्स में भी छूट दी जाएगी। देखना है, बजट विकास दर को कितना आगे ले जाता है।

28. विकास और पर्यावरणीय चिंताएँ

विकास के मुद्दे पर भारत ही नहीं, पूरे विश्व में बहस छिड़ी हुई है। समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों का जीवन स्तर ऊपर की सीढ़ियों तक पहुँचाना ही इस विकास का मूल उद्देश्य है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या भौतिक संसाधनों की उपलब्धि सुनिश्चित कर देने को ही क्या विकास कहा जा सकता है ? सारी नदियाँ अंत में समुद्र में ही मिलती हैं। यही प्राकृतिक व्यवस्था है। लेकिन जीवन की गति के लिए बनाई गई विकास रूपी सड़क का आखिरी छोर अगर इंसानों को अंधे पातालगामी निर्जल कुओं में गिर जाने को विवश करे, तो क्या यह जीवन के लिए न्यायसंगत होगा ? हताश, निराश लोग अगर विकास की चमचमाती गगनचुंबी इमारतों को आत्महत्याओं के लांचपैड बना लें तो क्या विकास उद्देश्यहीन नहीं हो जाएगा ?

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रोज आ रही रिपोर्टों के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, ओजोन की परत छीजती जा रही है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्रों का जल स्तर बढ़ रहा है। प्रदूषण निरंतर बढ़ता चला जा रहा है। मानव जाति विलुप्ति के कगार पर है, लेकिन विश्व- समाज इस दिशा में बहुत गंभीर नजर नहीं आता। पर्यावरण को बचाने के नाम पर औपचारिक प्रयास हो रहे हैं, वास्तविकता बहुत कम है। जलवायु और पर्यावरण को लेकर दुनियाभर में बातें हो रही हैं, लेकिन जमीन पर काम नहीं हो रहा। केंद्र सरकार को एक नया नारा देना पड़ा है – ‘जलशक्ति की ओर जनशक्ति’। स्वतंत्र भारत में यदि हम प्राकृतिक व्यवस्थाओं के प्रति संवेदनशील रहते तो ऐसी नौबत नहीं आती।

हमने नदियों का क्या हाल किया है ? देश भर में अधिसंख्य तालाब पाट कर हमने उन पर मकान बना लिए हैं। यद्यपि भारत के धर्मावलंबी लोग वायु, जल, सूर्य, चंद्रमा, पीपल आदि की पूजा बड़े कृतज्ञ भाव से करते हैं, फिर भी ऐसा क्यों हुआ ? आज भी घर में हवन होता है तो लोग आम की लकड़ी, पत्तियाँ और दूसरी वानस्पतिक हवन सामग्री की तलाश करते हैं। चावल से रंगोली बनाई जाती है। तब क्या प्रकृति की पूजा, हमारे लिए कर्मकांड तक सीमित होकर रह गई है ? हमारा कर्त्तव्य-बोध लुप्त होता जा रहा है। हम जीवनदायी पौधों और वृक्षों का संरक्षण भूलते चले जा रहे हैं। हम इस सच्चाई में मुँह नहीं मोड़ सकते कि अंधाधुंध बढ़ती आबादी के लिए भौतिक विकास होगा, सड़कें तथा रेल लाइनें बनेंगी ; स्कूल-कॉलेज बनेंगे, अस्पताल बनेंगे तो बहुत सारे पेड़ काटने पड़ेंगे। इस सबके बावजूद हमें वृक्षों, पर्वतों, नदियों तथा धरती को बचाना होगा अन्यथा हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

29. टाइटन पर जीवन की संभावना

हमारे सौरमंडल के उन चंद्रमाओं या उपग्रहों में जिसने जीवन की संभावना को लेकर सबसे ज्यादा आकर्षित किया है, वह निश्चित रूप से शनि का सबसे बड़ा चंद्रमा टाइटन है। टाइटन पृथ्वी के अलावा सौरमंडल का एकमात्र ऐसा पिंड है, जिसकी सतह पर सक्रिय नदी तंत्र जैसे नहरों, सागरों आदि की मौजूदगी के सशक्त प्रमाण मिले हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि एक समय हमारी पूरी पृथ्वी टाइटन की तरह ही थी। टाइटन के वायुमंडल में बादलों की मौजूदगी और बिजली चमकने की घटनाएँ वहाँ पृथ्वी जैसे मौसम होने का एहसास कराती हैं। लिहाजा यहाँ सूक्ष्मजीवी जीवन की मौजूदगी की पूरी संभावना है।

अंतरिक्ष खोजी अभियानों के लिहाज से भी अन्य ग्रहों-उपग्रहों और तारों की तुलना में टाइटन को उपयुक्त उपग्रह माना जाता रहा है। पृथ्वी से बाहर जीवन की मौजूदगी की जिज्ञासा में वैज्ञानिक लंबे समय से टाइटन की ओर टकटकी लगाए बैठे हैं। इसी क्रम में हाल ही में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने टाइटन पर जीवन की संभावनाओं की जाँच-पड़ताल के लिए ‘ड्रैगनफ्लाई’ नामक रोबोटिक क्वाडकॉप्टर यानी हेलीकॉप्टल ड्रोन भेजने की योजना बनाई है। इस ड्रोन को 2026 में भेजा जाना है और 2034 में इसके टाइटन पर पहुँचने की संभावना है।

तकरीबन 85 करोड़ डॉलर के इस मिशन के अंतर्गत ड्रोन प्रोपेलर का इस्तेमाल करते हुए टाइटन की सतह से नमूने एकत्रित कर उसकी संरचना समझने की कोशिश होगी। प्रोपेलर ऐसे यंत्र को कहा जाता है, जो किसी भी यान को आगे धकेलने में सहायता करता है। नासा के कैसिनी मिशन के दौरान ऐसे संकेत मिले थे कि टाइटन पर कुछ ऐसे कार्बनिक पदार्थ उपस्थित हैं, जिन्हें जीवन के लिए जरूरी माना जाता है। यहाँ तक तरल जल की मौजूदगी का भी दावा किया गया था। टाइटन हमारी पृथ्वी के चंद्रमा से बहुत बड़ा है और बृहस्पति के चंद्रमा गनीमिड के बाद सौरमंडल का दूसरा सबसे बड़ा उपग्रह है।

मजे की बात यह है कि इसका आकार बुध ग्रह से भी बड़ा है! टाइटन को खोजने का श्रेय डच खगोल वैज्ञानिक क्रिस्टीयान हुयजेंस को दिया जाता है। टाइटन की सबसे बड़ी विशेषता है उसका सघन एवं विस्तृत वायुमंडल। पृथ्वी की तरह ही टाइटन का वायुमंडल नाइट्रोजन से बना है। इसकी सतह का वायुदाब पृथ्वी से 45 गुना अधिक है। वहाँ मिथेन के बादल हैं और मिथेन की बारिश होती है। वायुमंडल में दूसरे कार्बनिक रसायन भी बनते हैं जो हल्की बर्फ की तरह नीचे गिरते रहते हैं। बहरहाल, कई देशों के वैज्ञानिक उत्साह से टाइटन के रहस्यों को जानने में प्रयासरत हैं। आशा है कि ड्रैगनफ्लाई टाइटन के अपारदर्शी वायुमंडल को भेदकर उसके अनेकानेक रहस्यों से पर्दा उठाएगा।

30. पानी के लिए एकजुटता जरूरी है

देश इन दिनों पानी से जुड़े कई संकटों का सामना कर रहा है। भविष्य में जल संकट के और बढ़ने की संभावना व्यक्त की जा रही है। जलशक्ति मंत्रालय का कहना है कि भारत में दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है और विश्व के 18 प्रतिशत पशु भी यहीं हैं। इसकी तुलना में हमारे पास पीने लायक पानी कुल विश्व का 4 प्रतिशत ही है। हमारे अधिकांश जल स्रोत प्रदूषित हैं। जलवायु परिवर्तन ने हालात और अधिक बिगाड़ दिए हैं। सरकार पानी को बचाने और भूगर्भ जलस्तर को बढ़ाने के हर संभव प्रयास कर रही है। पीने और खेती की हमारी 65 प्रतिशत जरूरतें भूगर्भ जल से पूरी होती हैं। इन संसाधनों को फिर से भरने के पूरे प्रयास हो रहे हैं। प्रधानमंत्री ने भी ‘मन की बात’ में जल संरक्षण की आवश्यकता बताई है। सरकार के पास 2020 तक पूरी मैंपिंग जानकारी उपलब्ध हो जाएगी।

अब सरकार द्वारा केवल गंगा के बजाय सभी सहायक नदियों, उपनदियों को इसमें शामिल कर लिया गया है। उदाहरण के लिए – गंगा से यमुना, यमुना से चंबल और आगे के बेसिन को शामिल किया गया है। अतः अब हम यमुना को साफ किए बिना गंगा को स्वच्छ नहीं रख सकते। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट पर तेजी से काम हो रहा है। पहले कहा गया था कि भूगर्भ जल का हद से अधिक दोहन ने देश के सामने जल संकट उपस्थित कर दिया है, पर बाद में कहा गया कि पानी की समस्या इतनी भयावह नहीं है। यह ठीक है कि देश के किसी-न-किसी हिस्से में जल संकट तो बना रहता है।

राजस्थान में यह संकट गत 70 वर्षों से विद्यमान है। जल संरक्षण की पुरानी तकनीक छत पर जल जमा करने या तालाबों में पानी इकट्ठा करने की रही है। अब जलाशयों की स्थिति खराब होने से चुनौती खड़ी हो गई है। अगर पूरा देश एक साथ आकर एक दिशा में काम करे तो समस्या का समाधान हो सकता है। बरसात के रूप में हमें 4000 अरब घन मीटर पानी मिलता है। इसमें से हम केवल 1000 घन मीटर पानी ही इस्तेमाल कर पाते हैं।

यदि हम 2000 अरब घनमीटर पानी बचा लें तो देश के पास जरूरत से ज्यादा जल उपलब्ध होगा। हमारे सामने इजरायल का उदाहरण है, जिसने जल संकट को एक अवसर में बदल दिया। वहाँ भारत की तुलना में एक चौथाई वर्षा होती है लेकिन जल के मामले में वे सुरक्षित हैं। हम भी यह सब कर सकते हैं। हम घरेलू इस्तेमाल के 70 फीसदी जल को बेकार कर देते हैं। हम इसे साफ करके फिर से इस्तेमाल कर सकते हैं। सरकार ऐसी योजना पर काम कर रही है।

31. संसाधनों की चुनौती से घिरी नई शिक्षा नीति

भारत सरकार अपनी दूसरी पारी में नई शिक्षा नीति लागू करना चाहती है। प्रारूप तैयार है। चार साल पहले केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इसके लिए एक नौ सदस्यीय समिति का गठन किया था, जिसके अध्यक्ष डॉ. कृष्णास्वामी कस्तूरीरंगन बनाए गए थे। पिछले दिनों समिति ने अपनी रिपोर्ट नई शिक्षा नीति के प्रारूप की शक्ल में मंत्रालय को सौंप दी है। देश के शिक्षा ढांचे में आमूल-चूल बदलाव लाने की सरकार की इच्छा शिक्षा नीति के इस प्रारूप में प्रतिबिंबित हो रही है। इसमें शिक्षा प्रणाली को ज्यादा उदार और लचीला बनाने की सिफारिश की गई है और इसके लिए स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा तथा पेशेवर शिक्षा, तीनों स्तरों पर बदलाव के सुझाव दिए गए हैं।

छात्र / छात्राओं की सुविधा : इसमें काम-धंधे से जुड़ी वोकेशनल ट्रेनिंग को स्कूली स्तर से ही अनिवार्य बनाने पर जोर दिया गया है। पेशेवर शिक्षण संस्थाओं के ढाँचे को व्यापक रूप देने की बात कही गई है। समिति की सिफारिश है कि नीति आयोग की तरह एक राष्ट्रीय शिक्षा आयोग बनाया जाए, जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होंगे। देश के मुख्य न्यायाधीश, लोकसभा के अध्यक्ष, विपक्ष के नेता, शिक्षा मंत्री आदि इसके सदस्य होंगे। यह आयोग शिक्षा व्यवस्था की निगरानी और मार्गदर्शन करेगा। समिति का यह सुझाव दर्शाता है कि यह सरकार शिक्षा को कितना ज्यादा महत्त्व दे रही है लेकिन यह व्यवस्था उच्च शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता को नष्ट कर सकती है।

संमिति की सिफारिश है कि बच्चों को पाँचवीं कक्षा तक उनकी मातृभाषा में ही पढ़ाया जाए। बल्कि हो सके तो आठवीं तक। उसके बाद मीडियम (पढ़ाई की भाषा) बदला जा सकता है। लेकिन छठी से आठवीं तक उन्हें पहली, प्राकृत, फारसी या संस्कृत जैसी एक प्राचीन (क्लासिक) भाषा जरूर पढ़नी होगी। मसविदे में बार-बार कहा गया है कि बच्चों पर से पढ़ाई और बस्ते का बोझ कम किया जाएगा, लेकिन अगर इसके साथ त्रिभाषा फार्मूले को जोड़ कर देखें, तो उन्हें चार भाषाएँ सीखनी होंगी। जब यह रिपोर्ट प्रेस को जारी हुई थी, तो देश के दक्षिणी राज्यों में हंगामा शुरू हो गया था।

समिति ने त्रिभाषा फार्मूले की सिफारिश की थी, जिसमें हिंदी और अंग्रेजी को अनिवार्य बनाया गया था। दक्षिण के राज्यों का विरोध हिंदी की इसी अनिवार्यता को लेकर था। बहरहाल, सरकार ने तुरंत इसमें सुधार किया और हिंदी शिक्षण को भी राष्ट्र की दूसरी भाषाओं की तरह वैकल्पिक ही रखने का आश्वासन दिया। इस तरह हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मजबूत बनाने का राजनीतिक संकल्प नई शिक्षा नीति से तो नहीं पूरा होने वाला।

भारी-भरकम शब्द : नई शिक्षा नीति का यह प्रारूप अत्यंत भव्य और उत्साहपूर्ण नजर आता है, पर इसे लागू करने में भाषा नीति की तरह कुछ और व्यावहारिक समस्याएँ भी सामने आ सकती हैं। फिलहाल दो बिंदुओं पर इस प्रारूप की आलोचना हो रही है। एक तो यह कि समिति ने जिन बदलावों की सिफारिश की है, उसके लिए हमारे पास योग्य और प्रशिक्षित शिक्षक नहीं हैं। जमीनी सचाई यह है कि दूरदराज के इलाकों में स्कूल के लिए कामचलाऊ इमारतें तक नहीं हैं और उन्हें दो-चार दिन में तैयार भी नहीं किया जा सकता। दूसरी शंका इस प्रारूप में बार-बार प्रयुक्त भारतीय पद्धति, शिक्षा और संस्कृति, लिबरल आर्ट्स, ह्यूमैनिटीज, जीवन कौशलता, उदार प्रणाली तथा बुनियादी अवधारणा जैसे शब्दों को लेकर है, जो रिपोर्ट को प्रभावशाली बनाते हैं लेकिन उनका आशय स्पष्ट नहीं है।

32. आत्मघाती है बदले की भावना

धम्मपद’ में कहा गया है- ‘न हि वैरेण वैराणि शाम्यन्तीह कदाचन’

अर्थात् इस संसार में वैर से वैर कभी शांत नहीं होता। इसी प्रकार नकारात्मक वृत्तियों से नकारात्मकता का समापन नहीं किया जा सकता। बुराई को बुराई से जीतना असंभव है, फिर हम बुराई का सहारा क्यों लें ? बदले की भावना या बदला लेने की इच्छा स्वयं में एक हानिकारक तत्त्व है। जब भी हम ऐसा करने का निर्णय लेते हैं तब हमारी सारी ऊर्जा उसी में लग जाती है। बदले की भावना या बदला लेने की इच्छा हमारे आत्मिक एवं भौतिक विकास में बहुत बड़ी बाधा बन जाती है।

महाभारत के कई पात्र इसी मनोग्रंथि के शिकार हुए। महाभारत मचने के मूल में भी यही मनोग्रंथि थी। द्रौपदी भी इसी ग्रंथि की शिकार हो गई थी। इसी प्रकार द्रोणाचार्य द्रुपद द्वारा किए गए अपमान का बदला लेने की ताक में थे। अर्जुन ने द्रुपद को कैद करके उनके सम्मुख ला खड़ा कर दिया था। यद्यपि द्रोण ने द्रुपद को कोई हानि नहीं पहुँचाई, पर द्रुपद अपना अपमान बर्दाश्त नहीं कर पाए। उसने द्रोण से इसका बदला लेना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। इसी के परिणामस्वरूप द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने कुरुक्षेत्र के युद्ध में द्रोणाचार्य का वध कर दिया।

आज की दुनिया में अनेक लोग दूसरों को सब्जबाग दिखाते हैं और असंख्य लोग उनके झांसे में आकर लुट-पिटकर चुप बैठ जाते हैं। यह उनके लोभ का ही परिणाम होता है। वे बिना कमाए या कम मेहनत करके सुखपूर्वक जीने की चाह रखते हैं। यही तो द्रोण की भी चाह थी। अपने पिता द्रोण की मृत्यु से आहत होकर अश्वत्थामा ने धर्म विरुद्ध राशि में सोते हुए धृष्टद्युम्न को पैरों से कुचलकर मार डाला और साथ ही द्रौपदी के पाँचों पुत्रों का वध भी कर दिया। इसके मूल में थी द्रोण की लिप्सा – प्रतिशोध की भावना।

कई बार ऐसा होता है कि किसी उत्सव में कोई रिश्तेदार हमारा अपमान कर देता है तब हम स्वयं को अपमानित अनुभव करते हैं तथा मन में बदला लेने की भावना उत्पन्न हो जाती है। यदि आप सचमुच बदला लेना चाहते हैं तो जिससे आप आहत हैं तो उस व्यक्ति की उपेक्षा न करके, सब कुछ भूलकर सच्चे मन से उसकी आवभगत कीजिए, उसका सम्मान कीजिए। संभव है उसे अपनी गलती का अहसास हो जाए और भविष्य में वह पुनः ऐसा न करे। यदि बात संभलने में न आ रही हो तो उससे किनारा कर लें लेकिन सुशिक्षित, सुसभ्य एवं सुसंस्कृत व्यक्तियों का अपने आचरण से गिरना अथवा जैसे को तैसे वाला व्यवहार अपनाना श्रेयस्कर नहीं होता।

33. समावेशी शिक्षा : एक चुनौती

‘समावेशी शिक्षा’ का अर्थ – एक विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा से है। इस तरह के बच्चों में से कुछ में सुनने की, कुछ में बोलने की, कुछ में देखने की तथा कुछ में हाथ-पैर की विकृति होती है। कुछ का विकास पिछड़ा हुआ होता है तो कुछ को सीखने में खास प्रकार की कठिनाइयाँ आती हैं। हर एक विशेष प्रकार की आवश्यकता वाले विद्यार्थी की समस्या और उसके सीखने के तरीके में भिन्नता हो सकती है। इस प्रकार के बच्चों के लिए निःशक्त, विकलांग तथा दिव्यांग शब्द प्रचलित हैं। ‘दिव्यांग’ एक नया शब्द है।

यह सच है कि इस प्रकार के बच्चों के लिए कुछ विशेष स्कूल होते हैं, लेकिन इनकी संख्या आवश्यकता से बहुत कम है। इस प्रकार के बच्चों की संख्या कुल आबादी का 2.25 हो गई है। समावेशी शिक्षा विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य जीवन जीने और रोजमर्रा की गतिविधियों में भाग लेने का मौका प्रदान करके उनके समाजीकरण और कौशल को बढ़ा सकती है। यह शिक्षा उन्हें यह अहसास करा सकती है कि वे भी समाज के अभिन्न अंग हैं। इस प्रकार के बच्चे निम्नलिखित श्रेणी में आते हैं-

  1. दृष्टिबाधित (Blindness)
  2. कम दृष्टि वाले (Low Vision)
  3. कुष्ठ रोग से मुक्त (Leprosy Cured )
  4. श्रवण ह्रास ( Hearing Impairment)
  5. चलन निशक्तता (Loco motor disability)
  6. मानसिक मंदता (Mental retardation)
  7. मानसिक रुग्णता (Mental Illness)
  8. स्वलीनता (Autism)
  9. प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात (Cerebral Palsy)
  10. बहुविकलांगता (Multiple disabilities)

इन दस विशेष आवश्यकताओं के अतिरिक्त भी कुछ ऐसी विशेष आवश्यकताएँ हैं जिन पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता है।

अब प्रश्न उठता है कि क्या इस प्रकार के बच्चों को सामान्य विद्यालयों में पढ़ाया जा सकता है ? आमतौर पर उत्तर आता है–नहीं। क्योंकि जब भी समावेशन की बात आती है तो सबसे बड़ी चुनौती हमारी यही सोच है कि बच्चे में यदि कोई निःशक्तता है तो उसे पृथक स्कूल में भेजो। यदि हम अपनी इस सोच में परिवर्तन कर सकें, तो समावेशन को संभव बनाना कठिन भी नहीं है। इसके लिए ये उपाय करने होंगे-

दृष्टिकोण में परिवर्तन
स्कूल में बाधारहित वातावरण
प्रवेश नीति में परिवर्तन
पाठ्यक्रम का नए ढंग से निर्धारण
नई तकनीक का प्रयोग
विशेषज्ञों की सेवाएँ
परीक्षा के दौरान विशेष प्रबंध
सरकारी नौकरियों में आरक्षण
यात्रा में विशेष सुविधा देना

यह सिद्ध हो चुका है कि यदि विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के साथ पढ़ाया जाए तो उनका विकास तीव्र गति से होता है।

34. महिला सशक्तिकरण

महिला सशक्तिकरण, भौतिक या आध्यात्मिक, शारीरिक या मानसिक – सभी स्तरों पर महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा कर उन्हें सशक्त बनाने की प्रक्रिया है। महिलाओं के सामाजिक सशक्तिकरण में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। शिक्षा अज्ञानता रूपी अंधकार को दूर करके उनके विकास और उन्नति के मार्ग खोलती है। यह महिलाओं के सर्वांगीण विकास के लिए प्रथम और मूलभूत साधन है, क्योंकि महिला के शिक्षित होने पर उसमें जागरूकता, चेतना आएगी, अधिकारों के प्रति सजगता होगी, रूढ़ियों, कुरीतियों, कुप्रथाओं का अंधकार छँटेगा और वैचारिक क्रांति से प्रकाशपुंज फूट निकलेगा। शिक्षित महिलाएँ न केवल स्वयं आत्मनिर्भर एवं लाभान्वित होती हैं, अपितु भावी पीढ़ियाँ भी लाभान्वित होंगी।

आज महिलाएँ घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर रूढ़िवादी प्रवृत्तियों को पार कर विभिन्न व्यवसायों एवं सेवाओं में कार्यरत हैं, जिनसे उनमें आर्थिक आत्मनिर्भरता भी आ रही है। वे केवल आर्थिक रूप से ही सुदृढ़ नहीं हुई हैं, अपितु समाज एवं परिवार की सोच में भी सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने प्रारंभ हो गए हैं। महिलाएँ स्वयं के बल पर आगे बढ़ रही हैं। वे सामान्य शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा – सभी क्षेत्रों में अपना परचम लहरा रही हैं। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में भी वे पीछे नहीं हैं।

जब वे महिला सशक्तिकरण का दौर चला है तब से नारी के विविध रूप उभरकर सामने आ रहे हैं। अब तक कठोर कहे जाने वाले क्षेत्रों में भी नारी के सशक्त कदम पड़ रहे हैं। अब वे सेना के तीनों अंगों में महत्त्वपूर्ण पदों पर सफलतापूर्वक कार्य कर रही हैं। वे समुद्रों को खंगाल रही हैं, जहाज पर विश्व का चक्कर लगा रही हैं, सीमा पर शत्रु से लोहा ले रही हैं। राजनीति के क्षेत्र में भी उनकी भूमिका प्रशंसनीय रही है। वे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभाध्यक्ष, राज्यपाल, मंत्री आदि पदों की सफल निर्वहण करती रही हैं। वे प्रशासन के उच्च पदों पर कार्यरत हैं। खेलकूद में भी महिलाओं ने कबड्डी, कुश्ती, हॉकी, क्रिकेट, शूटिंग, बाक्सिंग में सिक्का जमा कर दिखाया है।

महिला सशक्तिकरण के दो पक्ष हैं- शारीरिक और आर्थिक। महिलाएँ दब्बूपन से बाहर निकल रही हैं। उनमें आत्मविश्वास का संचार हो रहा है। वे कुशल डॉक्टर और इंजीनियर बन रही हैं। शिक्षा के क्षेत्र में तो उनकी भूमिका विशेष उल्लेखनीय है। प्रधानमंत्री ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे के साथ उनका सम्मान बढ़ाया है। इसके लिए अनेक लाभकारी योजनाओं की शुरुआत की गई है। अब यह विकास आगे ही बढ़ता जाएगा।

35. खड़ी हो रही है नए भारत की इमारत

भारत के आर्थिक सर्वेक्षण (2017-18) में अनुमान लगाया गया कि भारत को 2040 तक इंफ्रास्ट्रक्चर में 4.5 लाख करोड़ डॉलर का निवेश करना होगा। इसका ज्यादा हिस्सा शहरी भारत में लगाना होगा क्योंकि 2030 तक भारत की 40 प्रतिशत आबादी यानी 60 करोड़ भारतीय शहरों के निवासी हो जाएँगे। इस आबादी को समायोजित करने के लिए 2030 तक हर साल 70 से 90 करोड़ वर्ग मीटर आवासीय और वाणिज्यिक क्षेत्र बनाने होंगे।

प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) में प्रत्येक भारतीय को अपना घर प्रदान करने का लक्ष्य है। इसे पूरा करने में शहरों में एक करोड़ आवासीय इकाइयाँ बनानी होंगी। इनमें से 81 लाख घरों के निर्माण की मंजूरी मिल चुकी है, 48 लाख घरों की नींव पड़ चुकी है और 26 लाख घर उनके मालिकों को दिए जा चुके हैं। यह आशा की जाती है कि 2021 तक सभी लाभार्थियों को उनका घर मिल जाएगा। यह घर महिला के नाम से या उसके साझे में होगा। यह महिलाओं को अधिकार सम्पन्न बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम है।

स्मार्ट सिटी मिशन के लिए 5,151 परियोजनाओं के माध्यम से कुल 2,05,000 करोड़ रुपए से अधिक राशि के निवेश की परिकल्पना की गई है। लगभग 15,000 करोड़ रुपए मूल्य की 896 परियोजनाएँ पूरी की जा चुकी हैं और 75,000 करोड़ रुपए मूल्य की 1895 योजनाएँ कार्यान्वयन की प्रक्रिया में हैं। अब तक सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल के तहत 26 शहरों में 2000 करोड़ की 65 परियोजनाएँ पूरी की जा चुकी हैं। 45 शहरों में 10,000 करोड़ की 116 परियोजनाएँ कार्यान्वित की जा रही हैं। 10 प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय कंपनियाँ 100 स्मार्ट शिटीज में कम-से-कम चुनिंदा 40 सिटीज में भागीदारी कर रही हैं।

‘अमृत प्रधानमंत्री आवास योजना’ और ‘स्मार्ट सिटीज मिशन’, दोनों के प्रयासों को पूर्णता प्रदान कर रही है। यह योजना एक लाख से अधिक आबादी वाले 500 शहरों में जल आपूर्ति, सीवर प्रणाली, शहर – परिवहन और सुरक्षित सार्वजनिक स्थल उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत है। मिशन पर कुल 1,00,000 करोड़ रुपए की लागत आने की संभावना है। ‘अमृत योजना’ प्रधानमंत्री के ‘सहकारी संघवाद’ के सिद्धांत पर आधारित है। इसके अंतर्गत राज्य सरकारें अवसंरचना विकास के तीनों पहलुओं- (क) अपने शहरों की जरूरतों के अनुरूप योजनाएँ बनाने, (ख) कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए राज्य वार्षिक कार्ययोजनाएँ तैयार करने और (ग) धनराशि जारी होने के बाद प्रगति पर नजर रखने की नेतृत्वकारी भूमिका में हैं।

36. इसरो ने महिलाओं को दिखाई अंतरिक्ष की राह

इसरो प्रमुख डॉ. के सिवर ने हाल में जब देश को चंद्रयान-2 की जानकारी दी तो यह अहम खुलासा भी किया कि यह भारत का पहला अंतरग्रहीय मिशन होगा जिसका संचालन दो महिलाएँ करेंगी। एम. वनिता चंद्रयान-2 की प्रॉजेक्ट डायरेक्टर होंगी और रितु करिधल मिशन डायरेक्टर। इस फैसले के जरिए इसरो ने न केवल देश की युवा महत्त्वाकांक्षी लड़कियों को अंतरिक्ष- शोध के क्षेत्र में अधिक दिलचस्पी दिखाने का संदेश दिया बल्कि विज्ञान में महिलाओं को शीर्ष नेतृत्व वाली भूमिका देकर उनकी योग्यता और क्षमता पर भरोसा भी जताया है।

इसमें दो राय नहीं कि महिलाएँ अपनी रुचि के मुताबिक पढ़ाई करने और कैरियर चुनने के मामले में आज पहले से अधिक स्वतंत्र हैं। फिर भी जब विज्ञान से जुड़ी शाखाओं वाले विषय पढ़ने और वैज्ञानिक का करियर चुनने की बात आती है तो महिलाओं की संख्या चिंताजनक ढंग से कम नजर आती है। मुल्क के 23 आईआईटी संस्थानों में दाखिला लेने वाले स्टूडेंट्स में लड़कियों का अनुपात 8-9 प्रतिशत के आसपास रहता है। इसरो की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक 2018-19 में इसरो में 20 प्रतिशत महिलाएँ हैं जिनमें 12 प्रतिशत वैज्ञानिक या तकनीकी भूमिका में हैं। देश में आज भी 14 प्रतिशत लड़कियाँ ही शोध करती हैं जबकि दुनिया में यह आँकड़ा 28.4 प्रतिशत है। इस समय अपने देश में करीब पौने तीन लाख वैज्ञानिक, टेक्नॉलजिस्ट और इंजीनियर रिसर्च व डिवेलपमेंट के लिए काम कर रहे हैं। इनमें लड़कियों की संख्या 40,000 के करीब है।

इसी 12 जून को जब इसरो प्रमुख ने चंद्रयान-2 की कमान दो महिलाओं के हाथ में दिए जाने का ऐलान किया, अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने वॉशिंगटन में अपने मुख्यालय से लगी गली का नाम बदलकर ‘हिडन फिगर्स वे’ कर दिया। ऐसा उन तीन अश्वेत महिला गण्पिातज्ञों के सम्मान में किया गया, जिन्होंने 1940-60 के दरम्यान नासा के स्पेस फ्लाइट रिसर्च में निर्णायक योगदान किया था। यह वही दौर था जब अमेरिका ने पहली मर्तबा चांद पर इंसान को भेजा था। साफ है कि साइंस, मैथ्स और स्पेस से महिलाओं का पुराना वास्ता है। इस तथ्य को पहचानने और उनके अहम योगदान को याद करने की जरूरत है। फिर यह समझते देर नहीं लगेगी कि पुरुषों का फील्ड मान और बता कर इन क्षेत्रों का कितना बड़ा नुकसान किया जाता रहा है।

37. ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब : भारत

अमेरिका और चीन के बीच चल रहे ‘व्यापार युद्ध’ से दुनिया की मैन्युफैक्चरिंग ताकत बनने का मौका भारत के हाथ लगा है। जापान और चीन पहले यह करिश्मा कर चुके हैं। अब इसको दोराने की बारी एशिया की तीसरी बड़ी इकॉनमी भारत की है, जिसकी शुरुआत अच्छी हुई है। विदेशी ब्रोकरेज फर्म यूबीएस ने अप्रेल की एक रिपोर्ट में कहा था, ‘हमें लगता है कि चीन से मैन्युफैक्चरिंग के शिफ्ट होने का कई साल चलने वाला ट्रेंड शुरू हुआ है, जो भारत के लिए सुनहरा मौका साबित हो सकता है।’

मेक इन इंडिया : मल्टीनेशनल कंपनियाँ अपनी सप्लाई चेन का रिस्क कम करने के लिए भी चीन के बजाय भारत जैसे ठिकानों की तलाश में हैं। इस रिस्क को ऐसे समझा जा सकता है कि साल 2011 में जापान में भूकंप और सूनामी के बाद प्रिंटेड सर्किट बोर्ड्स के लिए कॉपर फॉइल, चिप बनाने के लिए सिलिकॉन वेफर्स जैसे कंपोनेंट की सप्लाई प्रभावित होने से कई इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों का प्रॉडक्शन ठप हो गया था। ट्रेड वॉर से एक बार फिर ग्लोबल सप्लाई चेन को लेकर डर बढ़ गया है क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक असेंबली में चीन का दबदबा है।

जापान में भूकंप के बाद कई कंपनियों ने सप्लाई चेन के रिस्क की पहचान की थी और उसे कम करने की पहल की थी। ट्रेड वॉर की वजह से चीन को लेकर ऐसा ही ट्रेंड शुरू होता दिख रहा है। मैन्युफैक्चरिंग के लिए सस्ते श्रम, पूंजी, इंफ्रास्ट्रक्चर स्किल्ड मैनपावर और तकनीक की जरूरत है। भारत में सस्ते श्रम की कमी नहीं है। इंफ्रास्ट्रक्चर लगातार बेहतर हो रहा है। पूँजी की कमी विदेशी निवेश और हाउसहोल्ड सेविंग्स से पूरी की जा सकती है। तकनीक के लिए विदेशी कंपनियों को आकर्षित करना होगा।

पिछले तीन-चार साल में ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस और खासतौर पर अपैरल, लेदर और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे सेगमेंट में बेहतर नीतियों से भी मेन्युफैक्चरिंग को लेकर भारत का आकर्षण बढ़ा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले कार्यकाल में ‘मेक इन इंडिया’ और इंडस्ट्री को तैयार कामगार मुहैया कराने के लिए ‘स्किल इंडिया’ जैसी पहल शुरू की थी, लेकिन अब तक इनका उम्मीद के मुताबिक नतीजा नहीं निकला है। डिफेंस में मेक इन इंडिया की बड़ी गुंजाइश है। राफेल विमानों के लिए फ्रांस की दिग्गज कंपनी दस भारत में प्लांट लगाने जा रही है।

दुनिया की दिग्गज डिफेंस कंपनियाँ मेक इन इंडिया के लिए लार्सन एंड टुब्रो, रिलायंस, टाटा, महिंद्रा, भारत फोर्ज जैसे देश के बड़े कारोबारी समूहों के साथ पार्टनरशिप कर रही हैं। वित्त वर्ष 2019 में भारत का डिफेंस एक्सपोर्ट 10,000 करोड़ रुपये तक पहुँचने का अनुमान है, जो तीन साल पहले 1,500 करोड़ रुपये का था। पिछले साल जुलाई में सैमसंग ने ग्रेटर नोएडा में मोबाइल हैंडसेट बनाने का प्लांट शुरू किया, जिसकी सालाना क्षमता 12 करोड़ यूनिट्स की होगी। यह दक्षिण कोरिया की कंपनी का दुनिया में कहीं भी सबसे बड़ा प्लांट है। भारत की सबसे बड़ी स्मार्टफोन कंपनी शाओमी अपने सप्लायर्स को यहाँ प्लांट्स लगाने को कह रही है। इससे देश की मोबाइल फोन इंडस्ट्री में वैल्यू एडिशन होगा।

ऐपल भी भारत में फोन मैन्युफैक्चरिंग शुरू करने जा रही है। उसकी वेंडर फॉक्सकॉन पहले से भारत में फोन बना रही है। जापान और चीन ने दुनिया की मैन्युफैक्चरिंग ताकत बनने के लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने पहले कार्यकाल में इस मामले में अपने इरादे स्पष्ट किए थे, लेकिन बात सिर्फ इतने से नहीं बनेगी। भारत को मेक इन इंडिया को लेकर जो शुरुआती सफलता मिली है, उसे और आगे ले जाना होगा।

38. नास्तिकों की भावना का भी सम्मान हो

पूरी दुनिया में जहाँ एक ओर धर्म का ज्वार-सा उठ रहा है, वहीं नास्तिकों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। हैदराबाद के एक कृषि वैज्ञानिक भी ऐसे ही एक नास्तिक हैं। इन्होंने अपनी बेटियों का लालन-पालन धर्म और जाति की पहचान से हटकर शुद्ध इंसान के रूप में किया है। यह भी सच है कि उन्हें बार-बार परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। स्कूल में शिक्षा दिलाते समय उन पर धर्म का उल्लेख करने के लिए दबाव डाला गया। मतदान में तो ‘नोटा’ का विकल्प मिलता है, पर धर्म के मामले में ऐसा प्रावधान नहीं है।

‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में गाँधी जी ने लिखा है कि सत्य के अलावा अन्य कोई ईश्वर नहीं है अर्थात् ‘सत्य ही ईश्वर है ‘। बाद में गोरा (गोपाजु रामचंद्र राव) ने इस पर आपत्ति की। उन्होंने गाँधी जी से जानना चाहा कि उनकी योजना में नास्तिकों के लिए कोई स्थान है या नहीं ? गाँधी जी के साथ उनकी काफी लंबी बहस हुई। इसके बाद ही गाँधी जी ने पूर्व कथन को पलट कर कहा – ‘सत्य ही ईश्वर है।’ वैसे गोरा ने कहा था- ‘मैं नास्तिक हूँ, ईश्वराविहीन नहीं।’ गाँधी जी ने जब दोनों का अंतर जानना चाहा। तब उन्होंने कहा-

‘सकारात्मक रूप से नास्तिकता का अर्थ है आत्मविश्वास एवं स्वेच्छा। नास्तिकता का अर्थ नकारात्मक नहीं है जब कि इसका स्वरूप नकारात्मक है। व्याख्या के लिए इन शब्दों को देखें- नॉन- कोऑपरेशन, नॉन- वॉयलेंस, अहिंसा। इन सबका अर्थ धनात्मक है जबकि स्वरूप ऋणात्मक।’ गोरा ने गाँधी का दिल जीत लिया और उनके परिवार के सदस्य बन गए। ब्रिटेन में शपथ केवल ईश्वर के नाम पर ली जाती थी। चार्ल्स ब्रेडलॉ ने कठिन संघर्ष के बावजूद निरीश्वरवादियों के लिए भी शपथ लेने का द्वार खुलवाया। उन्होंने 1866 में नेशनल सेक्युलर सोसायटी की स्थाना की। 1880 में वह सांसद चुने गए, किंतु उन्होंने ईश्वर के नाम पर शपथ लेने से इन्कार कर दिया। वह सत्य निष्ठा के नाम पर संकल्प लेना चाहते थे। उनकी संसद की सदस्यता समाप्त कर दी गई और उनहें जेल में बंद कर दिया गया।

इसके बाद हुए उपचुनाव में वह और अधिक मतों से विजयी हुए। लेकिन एक बार फिर उनकी सदस्यता रद्द हो गई क्योंकि वह अपनी जिद पर अड़े रहे कि ईश्वर के नाम पर शपथ नहीं लेंगे। इसी तरह चार बार यह उपचुनावों में विजयी हुए और हर बार उनकी जीत का अंतर बढ़ता गया। अंततः 1886 में उन्हें बिना ईश्वर का नाम लिए शपथ लेने की इजाजत दी गई। दो वर्ष बाद उन्होंने संसद से एक नया शपथ अधिनियम पारित करवाया जिसमें कानूनी प्रावधान किया गया – सत्यनिष्ठा से शपथ लेने का।

इससे नास्तिकों के सम्मान की बात मुखर हो उठी।

यदि चार मंत्रियों ने भी ईश्वर के स्थान पर सत्यनिष्ठा के नाम पर शपथ ली तो भी निरीश्वरवादियों (नास्तिकों) का प्रतिनिधित्व तो सरकार में हो ही गया।

39. सौर ऊर्जा

विश्व के विभिन्न भागों का औसत सौर विकिरण सौर ऊर्जा वह ऊर्जा है जो सीधे सूर्य से प्राप्त की जाती है। सौर ऊर्जा ही मौसम एवं जलवायु का परिवर्तन करती है, यही धरती पर सभी प्रकार के जीवन का सहारा है। वैसे तो सौर ऊर्जा को विविध प्रकार से प्रयोग किया जाता है किंतु सूर्य की ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदलने को ही मुख्य रूप से सौर ऊर्जा के रूप में जाना जाता है। सूर्य की ऊर्जा को दो प्रकार से विद्युत ऊर्जा में बदला जा सकता है :
1. प्रकाश विद्युत सेल की सहायता से।
2. किसी तरल पदार्थ को सूर्य की ऊष्मा से गर्म करने के बाद, इससे विद्युत जनित्र चलाकर। सौर ऊर्जा सब में ऊर्जा है। यह भविष्य में उपयोग करने वाली ऊर्जा है।

विशेषताएँ: सूर्य एक दिव्य शक्ति स्रोत व पर्यावरण सुहृद प्रकृति के कारण नवीकरणीय सौर ऊर्जा को लोगों ने अपनी संस्कृति व जीवन यापन के तरीके के समरूप पाया है। सूर्य से सीधे प्राप्त होने वाली ऊर्जा में कई खास विशेषताएँ हैं। संम्पूर्ण भारतीय भू-भाग पर 5,000 लाख करोड़ किलोवाट घंटा प्रति वर्ग मीटर के बराबर सौर ऊर्जा आती है जो कि विश्व की सम्पूर्ण विद्युत खपत से कई गुना अधिक है। साफ धूप वाले दिनों में प्रतिदिन का औसत सौर ऊर्जा का सम्पात 4 से 7 किलोवाट घंटा प्रति वर्ग मीटर तक होता है। देश में वर्ष में लगभग 250-300 दिन ऐसे होते हैं जब सूर्य की रोशनी पूरे दिन उपलब्ध रहती है।

कमियाँ :

  1. महँगा।
  2. अनेक स्थानों पर सूर्य की रोशनी कम आती है अतः बेकार।
  3. बारिश में दिक्कत।

40. चमकी का अँधेरा

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि स्वास्थ्य की देखभाल, पोषण और स्वास्थ्यप्रद वातावरण लोगों के बुनियादी अधिकारों में शामिल है, और यह उन्हें मिलना ही चाहिए। कोर्ट ने बिहार के मुजफ्फरपुर में एईएस (चमकी बुखार) को लेकर दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। अदालत ने केंद्र और बिहार सरकार से 7 दिनों में रिपोर्ट माँगी है और यह स्पष्ट करने को कहा है कि अब तक इस बीमारी से निपटने के लिए क्या उपाय किए गए। उसने तीन बिंदुओं पर विशेष रूप से जानकारी उपलब्ध कराने को कहा है – जन स्वास्थ्य सेवा संबंधी सुविधाओं की उपलब्धता, बच्चों का पोषण और प्रभावित क्षेत्रों में साफ-सफाई की स्थिति। उसने यूपी सरकार को भी नोटिस जारी किया है क्योंकि कुछ समय पहले वहां भी इसी तरह बच्चे बड़ी संख्या में बीमारी के शिकार हुए थे। कैसी विडंबना है कि हमारे देश में कार्यपालिका को उसके कर्तव्यों की याद बार-बार न्यायपालिका को दिलानी पड़ती है।

स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकार के लिए भी लोगों को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है क्योंकि सरकार से उम्मीद बाँधे रहने की अब उन्हें कोई वजह नहीं दिखती। जहाँ तक बिहार का प्रश्न है तो वहाँ चमकी बुखार से डेढ़ सौ से भी ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है। बुखार के कारणों को लेकर डॉक्टरों में एक राय नहीं है। बड़े पैमाने पर इसके भड़क उठने के कारण एक झटके में इसे रोकना भी संभव नहीं है। लेकिन जिस तरह से यह बीमारी थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद फैल रही है, उससे इस संबंध में सरकारी तैयारियां की कमी का पता तो चलता ही है।

अगर किसी क्षेत्र विशेष में कोई समस्या बार-बार आ रही है तो उसे लेकर विशेष प्रॉजेक्ट चलाए जाने चाहिए थे। बिहार ही नहीं, यूपी के गोरखपुर और आस-पास के जिलों में भी मस्तिष्क ज्वर का प्रकोप होता रहता है लेकिन वहाँ भी इससे निपटने के दूरगामी उपाय नहीं किए गए, जिससे पिछले साल अगस्त में कई बच्चों की मौत हो गई। ये हादसे जन स्वास्थ्य को लेकर सरकार के उदासीन रुख को दर्शाते हैं। दरअसल देश में शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में दोहरी व्यवस्था चल रही है। हेल्थ सेक्टर को निजी क्षेत्र के लिए खोल देने के बाद सरकार की चिंता हेल्थ बीमे तक सिमट गई है।

देश का संपन्न और मध्यवर्गीय तबका स्वास्थ्य के लिए सरकारी तंत्र पर निर्भर नहीं है इसलिए सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को बेहतर बनाने का कोई खास दबाव भी सरकार पर नहीं है। स्वास्थ्य कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनता। खस्ताहाल सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने को मजबूर गरीब लोग भी शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर वोट नहीं देते। हाँ, पार्टियाँ घोषणापत्रों में स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाने का दावा जरूर करती हैं क्योंकि उन्हें पता है कि सत्ता में आने के बाद इस बारे में कोई उनसे सवाल नहीं करने वाला। यह लोकतंत्र के लिए अच्छी स्थिति नहीं है। देश की एक बड़ी आबादी को बीमारी और कुपोषण के अंधेरे में छोड़कर हम विकसित देश बनने का स्वप्न नहीं देख सकते।

41. वर्तमान शिक्षा प्रणाली

भारत स्वतंत्र हुए लगभग 74 वर्ष होने को आए, पर अभी तक भारत में कोई व्यवस्थित शिक्षा-प्रणाली लागू नहीं हो पाई है। अंग्रेजों के समय में भारत में मैकाले द्वारा जो शिक्षा प्रणाली शुरू की गई थी, उसी में थोड़ा हेर-फेर करके भारत की शिक्षा-प्रणाली निर्धारित कर ली गई थी। बाद में ‘कोबरी कमीशन’ बना। उसकी कुछ सिफारिशें लागू की गईं। इसके बाद ‘नई शिक्षा – प्रणाली’ के नाम पर कई बार नयापन लाने की कोशिशें की गईं।

हर बार यह दावा किया जाता रहा कि यह शिक्षा प्रणाली बाल केंद्रित होगी, पर वास्तविकता इससे काफी दूर रही। कभी 10+2 शिक्षा प्रणाली लाई गई तो कभी स्नातक के पाठ्यक्रम को चार वर्ष का बनाया गया। पर ढाक के वही तीन पात रहे। शिक्षा प्रणाली में मूल्यांकन पद्धति में गुणात्मक सुधार लाने का दावा किया गया तथा अंकों के स्थान पर ग्रेड सिस्टम चलाया गया। कुछ साल के प्रयोग के बाद ‘लौट के बुद्ध घर को आए’ वाली स्थिति उत्पन्न होती रही है।

वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में पुस्तकीय ज्ञान पर बल है। इसे बालकों की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं बनाया जा सका है। अभी भी शिक्षा-प्रणाली में अंग्रेजी का प्रभुत्व बरकरार है, जबकि शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए। तभी बालक की अभिव्यक्ति सार्थक हो सकेगी। बातें तो मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की बहुत होती हैं, पर क्रियान्वयन नहीं हो पाता।

वर्तमान शिक्षा-प्रणाली जीवन की वास्तविकता से बहुत दूर है। यह शिक्षा प्रणाली बालक को भावी जीवन के लिए तैयार नहीं करती। इस प्रणाली में बालक असमंजस की स्थिति में रहता है। राजनीतिक नेता और शिक्षा शास्त्री वर्तमान शिक्षा प्रणाली को दोषपूर्ण बता कर भ्रम की स्थिति उत्पन्न करते हैं। वे कोई कारगर सुझाव न तो दे पाते हैं और न लागू कर पाते हैं।

वर्तमान शिक्षा-प्रणाली बेरोजगार युवक-युवतियों की संख्या को बढ़ा रही है। बेरोजगारों की फौज इधर-उधर निराश अवस्था में भटकती रहती है। सरकार भी उन्हें थोथे आश्वासन देकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेती है। शिक्षा प्रणाली को रोजगारपरक बनाना जरूरी है। व्यावसायिक शिक्षा का एक अलग वर्ग बना दिया गया है। इसमें पढ़े युवक-युवतियाँ भी रोजगार नहीं पाते। सरकार ने ‘स्किल एजूकेशन’ योजना लागू तो की है, पर इसके केंद्रों की संख्या बहुत कम है। इनका विस्तार होना चाहिए। सी. सी. ई. प्रणाली बहुत को भी अनुपयोगी मानकर बंद कर दिया गया है। अभी तक शिक्षाशास्त्रियों को कुछ बात स्पष्ट रूप से समझ नहीं आ रही है कि वे शिक्षा प्रणाली को कैसे उपयोगी बनाएँ। वर्तमान शिक्षा प्रणाली अच्छे नागरिक भी नहीं बना पा रही है, संस्कार देने की बात तो दूर है।

अब वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। इस काम के लिए शिक्षाविदों, योग्य अनुभवी अध्यापकों, अभिभावकों तथा छात्रों की भागीदारी होनी आवश्यक है। बार-बार पाठ्यक्रम बदलने से कुछ नहीं होने वाला। बहुत सोच-विचार कर एक सुनिश्चित रूपरेखा के आधार पर शिक्षा प्रणाली निर्धारित करनी होगी और उस पर दृढ़तापूर्वक अमल करना होगा। यह शिक्षा – प्रणाली भारतीय संस्कृति के अनुरूप होनी चाहिए।

42. संचार क्रांति

‘संचार’ शब्द की उत्पत्ति ‘चर’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है-चलना अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना। ‘संचार’ से तात्पर्य है – ‘दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सूचनाओं, विचारों ओर भावनाओं का आदान-प्रदान होना। प्रसिद्ध संचार शास्त्री विल्बर श्रम के अनुसार – ” संचार अनुभवों की साझेदारी है।” इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सूचनाओं, विचारों और भावनाओं को लिखित, मौखिक या दृश्य-श्रव्य माध्यमों के जरिए सफलतापूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाना ही संचार है। इस प्रक्रिया को क्रियान्वित करने का माध्यम संचार माध्यम कहलाते हैं।

वर्तमान युग संचार क्रांति का है। चारों ओर संचार के विविध साधनों का बोलबाला है। संचार के अनेक प्रकार हैं, पर सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकार है-जनसंचार (Mass Communication)। जब कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष संवाद की बजाय किसी तकनीकी या यांत्रिक माध्यम से विशाल समूह के साथ संवाद स्थापित करता है तब इसे जनसंचार कहा जाता है। इसमें संदेश को यांत्रिक माध्यम से बहुगुणित किया जाता है ताकि उसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जा सके। इसके लिए हमें किसी-न-किसी यांत्रिक उपकरण की मदद लेनी पड़ती है। जैसे- टी. वी., कम्प्यूटर, इंटरनेट आदि। संचार के कई प्रकार हैं :
(क) मौखिक संचार, (ख) अमौखिक संचार

इनके अलावा ये प्रकार भी शामिल हैं :

  • अंतः वैयक्तिक संचार
  • अंतर वैयक्तिक संचार
  • समूह संचार
  • जनसंचार

संचार की प्रक्रिया में कई तत्त्व शामिल होते हैं। इनमें प्रमुख तत्त्व ये हैं

  • स्रोत : संचार – प्रक्रिया की शुरूआत स्रोत या संचारक से होती है। जब स्रोत एक उद्देश्य के साथ अपने विचार या संदेश किसी और तक पहुँचाना चाहता है, तब संचार प्रणाली शुरू हो जाती है।
  • भाषा : बातचीत या संदेश भेजने के लिए भाषा का सहारा लिया जाता है। भाषा असल में एक तरह का कूट चिह्न या कोड होता है। संदेश को उस भाषा में कूटीकृत या एनकोडिंग किया जाता है।
  • संदेश : संचार प्रक्रिया में अलग चरण संदेश का होता है। संदेश जितना स्पष्ट और सीधा होगा, प्राप्तकर्ता उसे उतनी ही आसानी से समझ सकेगा।
  • माध्यम (चैनल) : संदेश टेलीफोन, समाचार-पत्र, रेडियो, टी.वी., इंटरनेट के जरिए प्राप्तकर्ता तक पहुँचाया जाता है।
  • प्राप्तकर्ता : प्राप्तकर्ता (रिसीवर) प्राप्त संदेश का कूटवाचन यानी डिकोडिंग करता है और अर्थ समझने का प्रयास करता है।
  • फीडबैक : प्राप्तकर्ता की प्रतिक्रिया को फीडबैक कहा जाता है। फीडबैक के अनुसार ही संदेश में सुधार किया जाता है।

वर्तमान युग में संचार क्रांति आई हुई है। हम देखते हैं कि टी.वी. स्टुडियो में बैठे हुए ही एंकर गोष्ठी / वार्तालाप / बहस करा लेता है। हम अपने टी.वी. स्क्रीन पर इंटरनेट की मदद से किसी से भी सचित्र बातचीत कर लेते हैं। अब इसके माध्यम से कहीं भी संदेश सेकंडों में भिजवाया जा सकता है। यह इंटरनेट, टी.वी. तथा मोबाइल फोन पर सहज उपलब्ध है। वाई-फाई भी काफी मदद कर रहा है। जनसंचार की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गई है। जनसंचार के प्रमुख कार्य हैं –

  • सूचना देना
  • शिक्षित करना
  • मनोरंजन करना
  • एजेंडा तय करना
  • विचार-विमर्श के लिए मंच प्रदान करना।

अब हम संचार क्रांति से अनेक प्रकार के लाभ उठा रहे हैं।

43. अंतरिक्ष में बढ़ते भारत के कदम

भारत दुनिया के उन देशों में शामिल हो चुका है जो अंतरिक्ष में मंगलयान भेजने में सफल रहे हैं। भारत का मंगलयान मंगल ग्रह की कक्षा में 24 सितंबर, 2014 को सफलतापूर्वक प्रवेश कर गया। इसे 5 नवंबर 2013 को श्री हरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से प्रेक्षेपित किया गया था। लगभग 10 महीनों तक लगातार चक्कर काटते हुए 67 करोड़ किलोमीटर की लंबी दूरी तय करके यह मंगलयान अपने लक्ष्य को पाने में सफल हुआ। भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम काफी सफल रहा। अब भारत अंतरिक्ष के मामले में कई विकसित देशों से भी आगे निकल गया है।

भारत ने 1975-76 में ही दुनिया का सबसे बड़ा सैटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलीविजन एक्सपैरीमेंट (एस.आई.टी.ई.) लाँच किया था, जब अमेरिकी सैटेलाइट ए. टी. एस-6 के जरिए देश के 2500 से भी ज्यादा गाँवों में स्वास्थ्य, परिवार नियोजन और कृषि आदि विषयों पर शिक्षाप्रद कार्यक्रमों की शुरुआत की गई थी। फिर 1977-79 के दौरान सैटेलाइट टेलीकम्यूनिकेशन एक्सपैरीमेंट प्रोजेक्ट (एस.टी.ई.वी.) चलाया गया।

इन अनुभवों के आधार पर ही 1983 में इनसेट सिस्टम की स्थापना संभव हो सकी और आज वह दुनिया के सबसे बड़े घरेलू संचार सैटेलाइट सिस्टमों में से एक है। इनसैट ने दूरसंचार, टेलीविजन, ब्रॉडकास्टिंग, मौसम विज्ञान और खतरे की चेतावनी देने वाली सेवाओं के क्षेत्र में एक नई क्रांति ला दी। इसके जरिए सैकड़ों अर्थ स्टेशनों को जोड़ने में मदद मिल सकी, वे भी जो देश के के क्षेत्रों में और द्वीपों में स्थित थे। भारत में आज टी.वी. की पहुँच 80 प्रतिशत आबादी तक है।

इनसैट का प्रयोग न केवल दूरसंचार, टेलीविजन और मौसम की जानकारियों के लिए किया जा रहा है बल्कि इसके जरिए जमीनी स्तर पर शिक्षाप्रद कार्यक्रमों के प्रसारण और इंटरएक्टिव ट्रेनिंग में भी मदद मिल रही है। कई राज्य सरकारों और एजेंसियों ने आज इसका इस्तेमाल शिक्षा, उद्योगों में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए इंस्टीट्यूशनल ट्रेनिंग, सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के प्रशिक्षण के लिए किया है। मध्य प्रदेश में झाबुआ डेवलपमेंटल कम्युनिकेशन प्रोजेक्ट नवंबर 1996 में शुरू हुआ था, जिसके तहत इनसैट की तकनीक का इस्तेमाल कर आदिवासी लोगों के लिए स्वास्थ्य, सफाई, परिवार नियोजन और महिला अधिकारों आदि विषयों पर शिक्षाप्रद कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

दूरसंचार के क्षेत्र में तो इनसैट का प्रयोग हो ही रहा है, साथ ही मौसम विज्ञान के क्षेत्र में भी यह काफी मददगार साबित हुआ है। इसके जरिए चक्रवात की पूर्व सूचना मिल जाने से तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों और मछुआरों को पहले ही सतर्क कर दिया जाता है। इनसैट सैटेलाइट की संख्या बढ़ाए जाने की बढ़ती माँग को देखते हुए अब दूरसंचार और मौसम विज्ञान के लिए अलग-अलग सैटेलाइट छोड़ना जरूरी हो गया है। 70 के दशक में और 80 के दशक की शुरूआत में भास्कर – 1 और भास्कर – 2 सैटेलाइट छोड़े गए। रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट के क्षेत्र में आज भारत का अग्रणी स्थान है। आई. आर. एस. सैटेलाइट के जरिए देश की प्रमुख फसलों के उत्पादन, वनों का सर्वेक्षण, सूखे की भविष्यवाणी, बाढ़ के खतरों जेसे कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में मदद ली जा रही है।

भारतीय वैज्ञानिक चाँद पर जाने की अपनी महत्त्वाकांक्षी योजना को पूरा करने में जुटे हुए हैं। हालांकि यह योजना नई नहीं है। इस दिशा में प्रारंभिक तैयारी पूरी हो चुकी है। भारतीय अंतरिक्ष शोध संगठन (इसरो) ने सरकार को एक रिपोर्ट भेजी है, जिसमें दावा किया गया है कि वैज्ञानिकों ने तकनीकी क्षमता हासिल कर ली है। अंतरिक्ष में भारत को जो नवीनतम सफलता प्राप्त हुई है वह है 19 दिसंबर, 2018 को मिली सफलता। इससे भारतीय वायु सेना को अंतरिक्ष से ताकत मिलेगी।

19 दिसंबर, 2018 को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अपने कम्युनिकेशन सैटेलाइट जीएसएलवी-एफ 11/जीसैट-7 ए को बुधवार को सफलतापूर्वक लॉन्च कर दिया। लॉन्चिंग के कुछ देर बाद वह सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में प्रवेश कर गया। यह सैटलाइट भारतीय वायुसेना के लिए बहुत खास है। इसकी लागत 500-800 करोड़ रुपये बताई जा रही है। इससे 4 सोलर पैनल लगाए गए हैं, जिनके जरिये करीब 3.3 किलोवॉट बिजली पैदा की जा सकती है। इसके साथ ही इसमें कक्षा में आगे-पीछे जाने या ऊपर जाने के लिए बाई- प्रोपेरैंट का केमिकल प्रोपल्शन सिस्टम भी दिया गया है। इसके जरिये ड्रोन आधारित ऑपरेशंस में एयरफोर्स की ग्राउंड रेंज में खासा इजाफा होगा।

GSAT-7A से पहले इसरो GSAT- 7A सैटलाइट, जिसे ‘रुक्मिणि’ के नाम से जाना जाता है, भी लॉन्च कर चुका है। इजीसैट – 7ए का वजन 2,250 किलोग्राम है। यह कू – बैंड में संचार की सुविधा उपलब्ध करवाएगा।

44. मोबाइल फोन बिना सब सूना

वर्तमान वैज्ञानिक युग में मोबाइल फोन के प्रभाव से शायद ही कोई व्यक्ति बचा हो। आज हर व्यक्ति की जेब में या हाथ में मोबाइल फोन दिखाई पड़ता है। मोबाइल फोन हमारे जीवन की आवश्यकता बनकर रह गया है। इसके बिना जीवन सूना-सूना प्रतीत होता है। यह विज्ञान की एक चमत्कारी देन है। इसके नित्य नए-नए रूप बाजार में दिखाई दे रहे हैं। अब इस फोन में कैमरा भी लग गया है। इसमें बोलने वाले का चित्र भी आ जाता है। यह मोबाइल फोन सम्पत्ति भी है और विपत्ति भी। हर चीज के दो रूप होते हैं- सुखद और दुःखद।

मोबाइल का सुखद रूप यह है कि इसे कहीं भी, कभी भी आसानी से ले जाया जा सकता है। इसे जेब में रखा जा सकता है अथवा हाथ में पकड़ा जा सकता है। अब फोन सुनने या करने के लिए कहीं बैठकर समय बर्बाद करने की आवश्यकता नहीं है। आपका फोन आपकी जेब में हाजिर रहता है। इसका सर्वाधिक लाभ व्यापारी वर्ग के साथ-साथ दैनिक काम करने वाले मजदूरों को है। व्यापारियों का आधे से अधिक काम मोबाइल पर ही हो जाता है। अब उन्हें कहीं जाने की आवश्यकता ही नहीं रहती। व्यापारी के लिए एक-एक मिनट की कीमत होती है।

श्रमिक वर्ग अर्थात् छोटे-छोटे कामगार जैसे – राजमिस्त्री, पेंटर, प्लंबर, बढ़ई के पास जाने की और उन्हें ढूँढने की जरूरत नहीं रह गई है। अब उनके पास मोबाइल है। उन्हें फोन कीजिए, वे तुरंत हाजिर हो जाते हैं। आपका समय और श्रम बचता है, उन्हें काम मिलता है। उनके रोजगार के अवसर बढ़ गए हैं। अब उन्हें घर बैठे ही बुला लिया जाता है।

मोबाइल फोन के जरिए आप हर समय शेष दुनिया से जुड़े रहते हैं। आप देश के किसी भी हिस्से में हैं या विदेश में हैं। मोबाइल का बटन दबते ही सारा हाल आपको ज्ञात हो जाता है। है न कमाल। मोबाइल में कॉलों का रिकॉर्ड दर्ज रहता है अतः इसकी सहायता से अपराधियों को पकड़ना आसान हो गया है। अब तो कोर्ट द्वारा भी इसमें दर्ज बातचीत को मान्यता दे दी गई है।

मोबाइल के कुछ दुःखद रूप भी हैं। इसका दुरुपयोग अश्लील और अभद्र SMS भेजने में हो रहा है। अनचाही कॉलें लोगों का समय बर्बाद करती हैं। इसका अत्यधिक प्रयोग कानों पर बुरा असर डाल रहा है। लोगों के लिए अब यह फैशन बनता जा रहा है। इसका अधिक प्रयोग उनकी कार्यक्षमता को घटा रहा है।

अब प्रश्न उठता है कि यह मोबाइल फोन फैशन है या इसकी उपयोगिता भी है। यह सच है कि मोबाइल फोन को रखना फैशन बन गया है। एक प्रकार से यह ‘स्टेटस सिंबल’ बन गया है। मोबाइल फोन के एक से एक नए रूप सामने आ रहे हैं। इनमें से कुछ काफी महँगे भी हैं – रंगीन भी कैमरे वाले भी। इन फोन में अधिक सुविधाएँ भी मिल रही हैं। लड़कियों के लिए तो यह एक फैशन की वस्तु है। उनके हाथ में मोबाइल होता है, कानों में उससे संगीत सुनने का यंत्र।

इसके बावजूद मोबाइल फोन की उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता। अब आप हर समय, हर जगह पहुँच के अंदर रहते हैं। आप घर-दफ्तर से सीधे रूप से जुड़े रहते हैं। अब आपको घर पर बैठकर फोन की प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं रह गई है। अब आप कहीं से भी किसी से भी संपर्क कर सकते हैं। इसके साथ-साथ इससे कामगारों को काफी काम मिलना शुरू हो गया है। अब उन्हें ढूँढने की जरूरत नहीं है। आप उन्हें फोन से बुला सकते हैं। अब मोबाइल फोन इंटरनेट से जुड़ गए हैं। अतः इसके माध्यम से सारी सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं, बैंकिंग कार्य किया जाता है तथा आमने-सामने की बातचीत भी की जा सकती है।

ये मोबाइल फोन कई बार परेशानी के कारण बन जाते हैं। कई बार अनचाही कॉलों से परेशानी होती है तथा कई बार जब आप किसी मीटिंग में या अन्यं किसी काम में व्यस्त होते हैं तो मोबाइल फोन की घंटी आपको परेशान कर देती है। दफ्तर के काम-काज में भी ये बाधा उपस्थित करते हैं। एस- एम. एस. भेजने में भी इनका दुरुपयोग किया जाता है।

विद्यालय परिसर में मोबाइल फोन के प्रयोग पर प्रतिबंध लगना चाहिए। विद्यार्थियों को इसकी विशेष आवश्यकता नहीं होती। वे इस पर व्यर्थ समय बर्बाद करते हैं। इससे उनकी पढ़ाई भी बाधित होती है। शिक्षक भी पढ़ाने में रुचि कम लेते हैं, मोबाइल फोन पर बातें अधिक करते हैं। कक्षा में मोबाइल फ़ोन की घंटियाँ बजते रहना बड़ा अटपटा-सा लगता है।

45. मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना

यों तो मेरे जीवन में प्रायः घटनाएँ घटित होती रहती हैं, पर कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो अविस्मरणीय बनकर रह जाती हैं। इनमें कुछ घटनाएँ सुखद होती हैं तो कुछ दुःखद। मैं दुःखद घटना सुनाकर आपको दुःखी नहीं करना चाहूँगा। अतः अपने जीवन की एक सुखद घटना बताता हूँ। यह घटना मेरे मानस पटल पर सदैव – सदैव के लिए अंकित हो गई है।

गंगा नदी में की गई नौका विहार की घटना मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना बनकर रह गई है। हम चार मित्र गंगा तट पर पहुँचे। शरद् पूर्णिमा का अवसर था। चारों ओर शुभ चाँदनी की छटा बिखरी हुई थी। मित्रों ने नौका विहार की योजना बनाई। फिर क्या था गंगा नदी के किनारे बँधी नावों से एक नौका किराए पर ली। उस समय की गंगा को देखकर मुझे पंत जी की ये काव्य पंक्तियाँ स्मरण हो आईं :

“सैकत शय्या पर दुग्ध धवल तन्वंगी गंगा
लेटी है श्रांत कलांत निश्चल।”

नाविक ने हर-हर गंगे कहकर नाव खोल दी। हम नौका में सवार हो गए। वह कुशल नर्तकी के समान ठुमके लगाती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। ऐसे लग रहा था कि नौका हँसिनी के समान तैर रही है। शुभ्र ज्योत्स्ना बिखरी हुई थी, पवन अठखेलियाँ करता जान पड़ रहा था। वातावरण शांत और स्निग्ध था। मन में गीत उमड़-घुमड़ रहे थे। मित्रों के आग्रह पर गीतों का सिलसिला शुरू हो गया। नौका मंथर गति से तैरती आगे बढ़ रही थी।

पतवार घुमा,
नौका घूमी विपरीत धार
डाँडों के चल करतल पसार, भर-भर कर मुक्ताफल फेन- स्फार,
बिखराती जल में तार- हार।

मन खुशियों से बल्लियों उछल रहा था। संगीत की मधुर ध्वनि कानों को भली प्रतीत हो रही थी। नाविक भी मस्ती के मूड आ गया था। उसके हाथ की पतवार शीघ्रता से चल रही थी। हम लोग प्रसन्न मुद्रा में आकाश की ओर निहार रहे थे। हमारे देखते-देखते एक छोटी-सी बदली आकाश पर छा गईं। कालिमा गहराती जा रही थी। हमने विचार किया कि कहीं बारिश न होने लगे। हमने मल्लाह से शीघ्रता करने को कहा। तभी वर्षा की हल्की-हल्की बूँदें गिरने लगीं। मल्लाह तेज गति से चप्पू चला रहा था। बीच-बीच में बिजली चमक जाती थी। गंगा जल बीच-बीच में गोलाकार होकर भँवर आने की सूचना दे रहा था। कुछ ही क्षणों में हमारी नाव किनारे पर आ लगी। हमने नाव से कूदकर निकट के एक मंदिर में शरण ली। मल्लाह भी हमारे साथ था क्योंकि उसे अपना किराया लेना था। हम एक रिक्शे में बैठकर हॉस्टल की ओर लौट आए। उस समय सारा क्षेत्र निद्रा देवी की गोद में समा चुका था। चौकीदार ने हमें बड़ी खुशामद करवाकर अंदर आने दिया। उसने मुख्य द्वार खोला तो हम अंदर जा सके। यह घटना मुझे सदैव याद रहेगी।

46. हमारे गाँव

भारत गाँवों का देश है। भारत की लगभग 70 प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है। गाँवों का सभी राजनीतिक दलों ने शोषण तो बहुत किया है, पर उनके उत्थान के प्रति वे सभी लापरवाही बरतते रहे हैं। भारत के शहरों ने जब तरक्की की है, वहीं गाँवों की दशा में अभी तक अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। गाँवों के गुणगान तो सभी करते हैं, पर वहाँ जाकर रहने का साहस कोई नहीं जुटा पाता। वैसे हमारे गाँव प्रदूषण के जहर से मुक्त हैं।

वहाँ प्रकृति के मनोहारी रूप के दर्शन होते हैं। यहाँ पक्षियों की चहचहाहट कानों को बड़ी भली प्रतीत होती है। गाँव के बाहर खेत होते हैं। वहाँ लहलहाती फसलें बड़ी अच्छी लगती हैं। खेतों में अन्न उगाया जाता है। जब खेतों में हल चलते हैं तो बैलों के गले में बँधी घंटियों के स्वर सुनाई देते हैं। गाँव के कुएँ के पनघट पर स्त्रियाँ पानी भरती दिखाई देती हैं। वे वहाँ आपस में चुहुल करती हैं, बातचीत करती हैं। यह सारा दृश्य बड़ा ही अच्छा प्रतीत होता है। गाँव के लोगों को दूध-दही – घी खाने को मिलता है, अतः गाँव के लोग स्वस्थ दिखाई देते हैं। यह तो गाँवों का वह रूप है जो हमें अच्छा लगता है।

अब गाँवों की वास्तविकता पर भी दृष्टिपात कर लें। गाँवों में सुविधाओं का भारी अकाल है। अभी तक सभी गाँवों तक जाने के लिए पक्की सड़कें तक नहीं बनी हैं। अभी तक अधिकांश गाँवों में बिजली तक की सुविधा नहीं थी, पर गत 4-5 वर्षों में भारत सरकार ने अधिकांश गाँवों तक बिजली पहुँचाने का बड़ा काम कर दिखाया है। आशा की जा सकती है अगले वर्षों में प्रत्येक घर में बिजली बल्ब जलने लगेगा।

गाँवों में अभी तक लकड़ी को ईंधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है। इससे ग्रामीण स्त्रियों को चूल्हे के धुएँ को निगलना पड़ता था। अब भारत सरकार ने 5-6 करोड़ ग्रामीणों तक गैस के चूल्हे निःशुल्क पहुँचाए हैं। इससे ग्रामीण महिलाओं को बहुत राहत मिली है। हाँ, अभी तक भारत के गाँवों में शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का घोर अकाल है। अधिकांश गाँवों में केवल प्राइमरी स्कूल ही हैं। उन्हें उच्च शिक्षा के लिए शहरों का मुँह ताकना पड़ता है। बीमारी की अवस्था में उनकी दवा का कोई उपाय नहीं हो पाया है। शहर जाकर इलाज करवाना इतना आसान नहीं है। अब सरकार पाँच लाख तक निःशुल्क चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने का दावा कर रही है। अभी इसकी विश्वसनीयता की जाँच होनी शेष है।

गाँवों में बेरोजगारी भी बहुत है। किसान तीन-चार महीने काम करने के बाद निठल्ले रहते हैं। खेती से उनकी आय इतनी नहीं हो पाती कि वे साल भर पूरे परिवार का खर्च चला सकें। हजारों किसानों ने आत्महत्या करके सरकार के दावों की कलई खोल दी है। वे सदा बैंकों या साहूकारों के कर्ज तले दबे रहते हैं। उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। गाँवों में कुटीर उद्योगों का जाल बिछाया जाए तो उनकी दशा सुधर सकती है।

किसान का जीवन बहुत से कष्टों से भरा रहता है। किसानों की दशा सुधारने के लिए उन्हें खेती के उन्नत तरीकों की ट्रेनिंग देनी होगी, उन्हें साक्षर बनाना होगा तथा गाँवों को गंदगी से मुक्त करना होगा। भारत सरकार ने हर घर में शौचालय बनाने की दिशा में पर्याप्त कार्य किया है। कुछ गाँवों के किसानों में जागृति आई है। सरकार को गाँवों और किसानों की दशा सुधारने के लिए एक विस्तृत एवं व्यापक योजना बनाकर क्रियान्वित करनी होगी। गाँवों के उन्नत होने में ही भारत की उन्नति निहित है।

47. वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में सुधार के उपाय

शिक्षा व्यवस्था के बदलाव के इस दौर में आज पुरस्कारों से ज्यादा जरूरत इस बात की है कि शिक्षकों की क्रिएटिविटी और इनोवेटिव क्षमता को निखारने के लिए नए अवसर उपलब्ध कराए जाएं। निगरानी के बजाय अध्यापकों की निष्ठा पर भरोसा किया जाए। फिनलैंड, जर्मनी और नार्वे की शिक्षा-प्रणाली द्वारा नए प्रतिमान गढ़े जाने और उनके विश्व के समक्ष उदाहरण बनने का एक प्रमुख कारण है वहाँ की सरकारों द्वारा शिक्षकों के गुरुतर दायित्व के प्रति पूर्ण विश्वास। सोशल मीडिया के दुष्प्रचार के फलस्वरूप हमारे देश में समाज, सरकार, अभिभावक और बच्चों के बीच जो अविश्वास बढ़ रहा है, उसे मिटाने के लिए परस्पर सहयोग और सौहार्दपूर्ण संवाद की आवश्यकता है। शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी समस्याएँ चाहे जितनी जटिल हों, उनका पुख्ता समाधान शिक्षक, अभिभावक और सरकार के आपसी विश्वास और दीर्घकालीन प्रयत्नों से ही संभव है।

आज युवा पीढ़ी को सीधे तौर पर नैतिकता और अनुशासन का पाठ सिखाना बेहद मुश्किल है। कोई शिक्षक अपने स्टूडेंट्स की क्रिएटिविटी को तब तक नहीं निखार सकता, जब तक कि वह अपने टीचिंग मेथड को इनोवेशन स्किल्स द्वारा रुचिपूर्ण नहीं बनाता। शब्दों की जानकारी हासिल करने, गुणा-भाग सीख लेने का मतलब साक्षर होना है ना कि शिक्षित होना। शिक्षा या एजुकेशन का वास्तविक अर्थ तो छात्रों की रचनाधर्मिता व आंतरिक क्षमताओं का विकास करना है। शिक्षक के सामने एक बड़ी चुनौती यह है कि तेजी से बदलते परिवेश में वह अपने विद्यार्थियों को रटने की परंपरागत पद्धति से हटा कर उन्हें प्रॉब्लम सॉल्विंग व क्रिएटिव थिंकिंग के संदर्भ में एजुकेशन दे। वर्तमान में सीबीएसई परीक्षाओं में बच्चे इतिहास, समाजशास्त्र, हिंदी व अंग्रेजी में 100 फीसदी तक अंक हासिल तो कर रहे हैं, किंतु उन्हें टेक्स्ट बुक के अध्यायों के नाम तक याद नहीं हैं। आमतौर पर वे पाठ्यपुस्तक के अध्यायों का कॉन्सेप्ट समझने, उनका विश्लेषण करने के बजाय परीक्षा से एक-दो महीने पहले संभावित सवालों के जवाब कंठस्थ करने में व्यस्त रहते हैं।

अकल्पनीय अंक हासिल करने की लालसा और प्रतिस्पर्धा बच्चों के व्यक्तित्व विकास में सहायक नहीं है। इस पैटर्न का बड़ा नुकसान यह है कि विद्यार्थियों में सोचने, समझने और समस्याओं को सुलझाने की क्षमता विकसित नहीं हो पाती। ज्यादातर पैरंट्स अपने बच्चों के एग्जाम्स में आने वाले नंबरों को सोशल स्टेटस से जोड़कर देखते हैं। उनमें आम धारणा है कि जिस बच्चे के जितने ज्यादा मार्क्स आएं वह उतना ही इंटेलिजेंट और कामयाब है। पैरंट्स-टीचर्स मीटिंग में आमतौर पर देखा गया है कि अभिभावकों का ज्यादा जोर इस बात पर रहता है कि उनके बच्चे की पढ़ाई का लेवल क्या चल रहा है। बच्चे के चारित्रिक विकास से उनका ज्यादा सरोकार नहीं होता। प्रशासनिक दबाव की वजह से टीचर भी अपने सब्जेक्ट के बेहतर परीक्षाफल के लिए प्रयासरत रहते हैं।

संचार क्रांति के इस दौर में आज के स्टूडेंट्स को अपने ऐकडेमिक सेशन से संबंधित सिलेबस, संबंधित विषय के नोट्स और अन्य सहायक सामग्री आसानी से मिल जाते हैं। अगर कुछ दुर्लभ है तो वह है- विद्यार्थी के समग्र व्यक्तित्व – विकास की संभावना। पढ़ाई-लिखाई, भाषा – शैली, इतिहास-भूगोल और गणित-विज्ञान का अध्ययन तभी सार्थक है जब इन विषयों का ज्ञान स्टूडेंट्स में मानवीय मूल्य विकसित करे। आजकल ‘फोर्थ इंडस्ट्रियल रिवॉल्यूशन’ के अनुसार शिक्षा उपलब्ध कराने की बहुत चर्चा हो रही है। भारत डिजिटल टेक्नॉलजी पर आधारित चौथी औद्योगिक क्रांति के तहत शिक्षा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। चीन के बाद भारत की युवा आबादी मोबाइल-इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाली विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है। किंतु इंटरनेट पर क्या उसके लिए उपयोगी है क्या अनुपयोगी, यह तय करने का विवेक विद्यार्थी के अंदर एक संवेदनशील, कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक ही जागृत कर सकता है।

48. राष्ट्रभाषा हिंदी

भाषा भावों की वाहिका और विचारों की माध्यम होती है। अतएव किसी भी जाति अथवा राष्ट्र का भावोत्कर्ष और विचारों की समर्थता उसकी भाषा से स्पष्ट होती है। जब से मनुष्य ने इस भू-मंडल पर होश संभाला है, तभी से भाषा की आवश्यकता रही है। भाषा व्यक्ति को व्यक्ति से, जाति को जाति से तथा राष्ट्र को राष्ट्र से मिलाती है। भाषा द्वारा ही राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोया जा सकता है। राष्ट्र को सक्षम और धनवान बनाने के लिए भाषा और साहित्य की संपन्नता और उसका विकास परमावश्यक है।

इस संबंध में प्रेमचंद जी का कथन विचारणीय है – ” निःसंदेह काव्य और साहित्य का उद्देश्य हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ाना है; पर मनुष्य का जीवन केवल स्त्री-पुरुष प्रेम का जीवन नहीं है। साहित्य केवल मन बहलाव की चीज नहीं है। अब वह केवल नायक-नायिका के संयोग-वियोग की कहानी नहीं सुनता, किंतु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है और उन्हें हल करता है।’

भाषा का भावना से गहरा संबंध है और भावना और विचार व्यक्तित्व के आधार पर हैं। यदि हमारे भावों और विचारों को पोषक रस किसी विदेशी या पराई भाषा से मिलता है तो निश्चय ही हमारा व्यक्तित्व भी भारतीय अथवा स्वदेशी न रहकर अभारतीय अथवा विदेशी ही हो जायेगा। प्रत्येक भाषा और प्रत्येक साहित्य अपने देश – काल और धर्म से परिचित विकसित होता है। उस पर अपने महापुरुषों और चिंतकों का, उनकी अपनी परिस्थितियों के अनुसार ही प्रभाव पड़ता है। कोई दूसरा देश-काल और समाज भी उस सुंदर स्वास्थ्यकारी संस्कृति से प्रभावित हो, यह आवश्यक नहीं है।

अतएव व्यक्ति के व्यक्तित्व का समुचित विकास और उसकी शक्तियों को समुचित गति अपने ही पठन-पाठन में मिल सकती है। इसका कारण यह भी है कि मातृ-भाषा में जितनी सहज गति संभव है और इसमें जितनी कम – शक्ति – समय की आवश्यकता पड़ती है, उतनी किसी भी विदेशी और पराई भाषा में संभव नहीं है।

यह भी सच है कि हमारे देश के प्रतिभाशाली और होनहार लोग पश्चिमी भाषा और साहित्य में अपनी क्षमता को देखकर स्वयं भी चकित रह जाते हैं; जिनकी वह अपनी मातृ भाषा नहीं है। यह भी मानना पड़ेगा कि इन परिश्रमी लोगों ने अपनी जो शक्ति, समय और तन्मयता पराई भाषा के लिए खपाई, वह यदि मातृ-भाषा के लिए प्रयोग की गई होती तो एक अद्भुत चमत्कार ही हो गया होता। माइकेल मधुसूदन दत्त का दृष्टांत आपके सामने है। प्रतिभा के स्वामी इस बंगला कवि ने अंग्रेजी में काव्य रचना करके कीर्ति और गौरव कमाने के लिए भारी परिश्रम और प्रयत्न किया।

यह तथ्य उनको तब समझ में आया जब वे इंग्लैंड यात्रा के लिए गए। बहुत अच्छा लिखकर भी वह द्वितीय श्रेणी के लेखक और कवि से अधिक कुछ नहीं हो सके। यदि चाहते तो अपनी भाषा में कृतित्व के बल पर वे सहज ही प्रथम श्रेणी के कवियों में प्रतिष्ठित हो सकते थे। यह सब पता चलने के बाद उन्होंने अपनी भाषा में लिखने का निर्णय किया। प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण की क्या आवश्यकता है। श्रीमती सरोजिनी नायडू यदि अपनी मातृ भाषा में काव्य रचना करती तो निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ कवयित्री होने का गौरव प्राप्त करती। मैं देखती हूँ कि उच्च ज्ञान-विज्ञान का माध्यम अंग्रेजी होने पर भी पिछले डेढ़ सौ वर्षों में सौ करोड़ लोगों में अंग्रेजी में एक भी रवींद्रनाथ, शरतचंद्र, महादेवी वर्मा, प्रसाद, पंत और उमाशंकर जोशी आदि पैदा न कर सका। राष्ट्रभाषा राष्ट्र की उन्नति की द्योतक होती है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनुसार-

निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषाज्ञान के, मिटत न हिय को शूल ॥

अतः राष्ट्रभाषा की उन्नति में ही राष्ट्र की उन्नति है। राष्ट्रभाषा में विचार-विनिमय सरल हो जाता है, विदेशों में भी साख बनती है। विदेशी भाषा में ज्ञानार्जन करने में जितने प्रयत्न करने पड़ते हैं, निज भाषा में उससे आधे प्रयत्न में ही प्रवीणता आ जाती है।

गाँधीजी के शब्दों में- “अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा में कम से कम सोलह वर्ष लगते हैं। यदि इन्हीं विषयों की शिक्षा अपनी भाषा के माध्यम से दी जाए तो ज्यादा से ज्यादा दस वर्ष लगेंगे। विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर बोझ पड़ता है। यह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं, लेकिन उनकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ती है। माँ के दूध के साथ जो मीठे संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच में जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में दूर जाता है।”

राष्ट्रभाषा मानसिक उत्थान करती है। राष्ट्रभाषा के अभाव में मनुष्य शारीरिक रूप से न सही मानसिक रूप से दास बन जाता है। मानसिक दासता शारीरिक दासता से अधिक भयंकर होती है।
राष्ट्रभाषा की प्रेरणा देते हुए कवि कहता है –

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ॥

अतः राष्ट्रभाषा की उन्नति व्यक्ति की उन्नति है, जाति की उन्नति है, राष्ट्र की उन्नति है।

49. बेरोजगारी की समस्या

आधुनिक युग में विज्ञान की प्रगति ने मानव जीवन को प्रत्येक क्षेत्र में सुखद, समृद्ध तथा समुन्नत बनाया है। नित नयी वैज्ञानिक खोजों तथा आविष्कारों ने महाउपलब्धियाँ अर्जित की हैं। परन्तु उस विज्ञान ने कुछ ऐसी समस्याएँ भी उत्पन्न कर दी हैं जो समस्त विश्व के सामने सुरसा के मुँह की भाँति बढ़ती जा रही हैं। इन समस्याओं में प्रमुख हैं – महँगाई, जनसंख्या तथा बेरोजगारी। बेरोजगारी की समस्या इन सबमें प्रमुख है और दिन पर दिन बढ़ती जा रही है, जिसका हल भी दिखाई नहीं देता। बेरोजगारी से अभिप्राय बेकारी की समस्या से है।

यदि बेकार शब्द के अर्थों पर दृष्टिपात करें तो बेकार का अर्थ है ‘उपयोग के अयोग्य’, परंतु व्यक्ति के संदर्भ में किसी व्यक्ति की क्षमता तथा योग्यता का समाज उपयोग नहीं कर पाता। एक व्यक्ति को उसकी रुचि योग्यता- क्षमता के अनुसार कार्य नहीं मिल पाता तो वह व्यक्ति बेकार की श्रेणी में आ जाएगा। हमारे देश में बेकारी की समस्या भयंकर रूप से व्याप्त है। हम बेकार व्यक्ति को निम्न श्रेणी में वर्गीकृत कर सकते हैं-

  1. शिक्षित तथा प्रशिक्षित बेरोजगार
  2. अशिक्षित तथा अप्रशिक्षित बेरोजगार
  3. अर्धबेरोजगार, जो कभी काम पर लग जाते हैं तथा कभी बेकार हो जाते हैं।
  4. वे व्यक्ति जो अपनी योग्यता, क्षमता तथा रुचि के अनुकूल कार्य प्राप्त नहीं कर पाते तथा विवशतावश अरुचिपूर्ण कार्य में संलग्न हैं तथा असंतुष्ट हैं।

अंधाधुंध औद्योगीकरण भी बेरोजगारी की समस्या की वृद्धि में आग में घी का काम कर रहा है। अंग्रेजों ने धनार्जन तथा अधिक से अधिक लाभ कमाने के लिए हमारे देश की दस्तकारियों को बंद कराया था। कारीगरों और कुशल कारीगरों के हाथ तक कटवा दिये थे, ताकि उनकी मशीनों की बनी वस्तु की खपत तथा प्रचलन बढ़े। इससे हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई तथा हम परमुखापेक्षी बनकर रह गए। स्वतंत्रता के पश्चात् यद्यपि सरकार ने घरेलू उद्योगों के प्रचार-प्रसार का ढिंढोरा तो खूब पीटा परन्तु बड़े-बड़े उद्योगों के सामने वह टिक नहीं पाते।

वर्तमान काल में अति आधुनिक स्वचालित मशीनों तथा कम्प्यूटर ने तो बेकारी की वृद्धि में पहिए ही लगा दिए हैं तथा हमारी सरकार देश की समस्याओं को न समझकर पश्चिमी देशों की अंधाधुंध नकल कर रही है, क्योंकि पश्चिमी देशों में जनसंख्या कम है अतः उनके लिए मशीनें उपयुक्त हैं परन्तु अपने देश में मानव शक्ति प्रचुर मात्रा में है अतः हमें स्वचालित मशीनों तथा कम्प्यूटर का प्रयोग सीमित तथा सोच-समझकर ही करना चाहिए।

जनसंख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि बेरोजगारी की समस्या को दिन दूनी रात चौगुनी की गति से बढ़ा रही है। जनसंख्या जिस तीव्र वृद्धि से बढ़ रही है उस अनुपात में न तो उत्पादन हो रहा है न उद्योग-धंधों का विकास। सन् 1951 में भारत की जनसंख्या 36 करोड़ थी जो 2018 में बढ़कर एक सौ तीस करोड़ पहुँच गई है।

यह जनसंख्या वृद्धि बेरोजगारी की समस्या के समाधान में भयंकर विघ्न उत्पन्न कर रही है। यद्यपि सरकार जनसंख्या वृद्धि के नियंत्रण का भरसक प्रयत्न कर रही है परन्तु हमारे देश की अधिकतम जनता अशिक्षित तथा धार्मिक रूढ़िवादिता से ग्रस्त है। संतोनोत्पत्ति को ईश्वरीय देन समझा जाता है। दुर्भाग्य से हमारे नेता ” पर उपदेश कुशल बहुतेरे ‘ की कहावत चरितार्थ कर रहे हैं। वे भाषण देकर जनसंख्या वृद्धि में रोकथाम करने की सलाह तो जनता को देते हैं परंतु स्वयं आदर्श बनकर उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते। अतः समस्त सरकारी प्रचार केवल कागजी कार्यवाही बनकर रह जाता है।

शिक्षित तथा प्रशिक्षित बेकारी का मुख्य कारण विभिन्न सरकारी विभागों में तालमेल का अभाव है। कहने को सरकारी योजना आयोग है किंतु आगामी वर्षों में किस व्यवसाय में कितने प्रतिशत व्यक्तियों की आवश्यकता होगी ? कितने मेडीकल कॉलेज, कितने इंजीनियरिंग कॉलेज अथवा कितने अध्यापक प्रशिक्षण संस्थाएँ खोली जाएँ ? शायद योजना आयोग इसे अपनी खोज का विषय नहीं मानता, परिणामस्वरूप कभी डॉक्टर बेकार घूमने लगते हैं तो कभी इंजीनियर और कभी किसी भी श्रेणी के प्रशिक्षित व्यक्ति का अकाल पड़ जाता है।

आज बेकारी की समस्या ने अत्यंत विकट रूप धारण कर लिया है। बेकारी का पूर्णतः निराकरण असंभव प्रतीत होता है, परंतु हाथ पर हाथ रखकर बैठने से तो कोई कार्य नहीं होता। प्रयत्न तो करने ही पड़ते हैं। अतः बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाना अति आवश्यक है। स्कूलों में चमड़ा व्यवसाय, बागवानी, सिलाई, बुनाई, रंगाई, पेंटिंग, कम्प्यूटर, फोटोग्राफी तथा विद्युत कार्य आदि व्यवसायों की शिक्षा प्रारंभ की जाए। सरकार ने इस दिशा में कार्य भी किए हैं। इन व्यवसायों में दक्षता प्राप्त कर लेने पर सरकार को स्वतंत्र व्यवसाय को भी प्रोत्साहित करना पड़ेगा।

देश में कुटीर उद्योगों का विकास किया जाए। देशवासियों में कुटीर उद्योगों में निर्मित माल को उपयोग करने की प्रवृत्ति जागृत की जाए और निर्यात बढ़ाया जाए। सरकार इस दिशा में प्रयत्नशील है। घरेलू दस्तकारियाँ प्रोत्साहित की जा रही हैं लेकिन लोगों में अभी कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित माल का प्रयोग करने की भावना का अभाव है। परिवार नियोजन कार्यक्रम को और तेज किया जाए क्योंकि बढ़ती जनसंख्या ही हमारी सभी असफलताओं का कारण है।

50. महानगरीय जीवन : अभिशाप या वरदान

वर्तमान समय में भारत के अनेक प्रमुख नगर महानगरों में परिवर्तित होते जा रहे हैं। एक नई महानगरीय सभ्यता पनपती जा रही है। महानगरों का जीवन जहाँ एक ओर आकर्षित करता है, वहीं वह अभिशाप से कम नहीं है। आधुनिकता की चमक-दमक इन महानगरों में दृष्टिगोचर होती है। यह आकर्षण सामान्य नगर- कस्बे एवं गाँवों के लोगों को महानगर की ओर खींचता है, पर यहाँ की समस्याएँ उन्हें ऐसे चक्र में उलझाकर रख देती हैं जिससे बाहर निकलना आसान नहीं होता। महानगरों का जीवन जहाँ वरदान है, वहीं अभिशाप भी है।

भारत में कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई और दिल्ली जैसे महानगर हैं। इन नगरों का अपना ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व है। इनमें से तीन नगरों की जनसंख्या इक्कीसवीं सदी में प्रविष्ट होते समय एक करोड़ को पार कर गई है। इससे कम जनसंख्या वाले तो कई पूरे देश हैं। ये महानगर एक नवीन भारत की रचना में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। दुनिया भर की आधुनिकतम सुविधाएँ इन महानगरों में उपलब्ध हैं। इनका नित्य नया रूप निखर रहा है। इन महानगरों की गगनचुम्बी इमारतें सामान्य जन के लिए कौतूहल का विषय है।

यह सत्य है कि महानगरीय जीवन सम्पन्न व्यक्तियों के लिए वरदान है। उन्हें उन नगरों में स्वर्ग जैसे सुख की अनुभूति होती है। उनका व्यवसाय इन्हीं नगरों में प्रश्रय पाता है। वे ही इन नगरों को सजाने-संवारने का काम करते हैं। सरकार भी इन्हें नए-नए रूपों में विकसित कर रही है। निश्चय ही धनिक वर्ग के लिए महानगरीय जीवन वरदान है।

महानगरों में सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी होती रहती हैं। इसमें रुचि रखने वालों को यहाँ का जीवन वरदान प्रतीत होता है। उन्हें बढ़ने का अवसर प्राप्त होता है, पर महानगर के व्यस्त जीवन में अपने लिए स्थान बना पाना इतना सहज नहीं है। उसके लिए अथक परिश्रम और लग्न की आवश्यकता होती है।

अभिशाप – इसके साथ-साथ निम्न-मध्यवर्ग महानगरीय जीवन के दुष्चक्र में पिसकर रह गया है। बढ़ती जनसंख्या और सिकुड़ते साधनों ने उसका जीवन दूभर बना दिया है। महानगरों में अनेक समस्याओं से उन्हें जूझना पड़ता है। आवास की समस्या बड़ी विकराल होती जा रही है। झोपड़पट्टी नुमा बस्तियाँ बढ़ती जा रही हैं। एक ओर विशाल अट्टालिकाएँ खड़ी हैं, तो दूसरी ओर झुग्गी बस्तियाँ जन्मती जा रही हैं। एक व्यक्ति बीस-बीस कमरों में रहता है और बीस-बीस व्यक्ति एक कमरे में रहते हैं। कितना बड़ा अंतर है, महानगरीय आवास व्यवस्था में।

शहरों में खाने-पीने की कठिनाई का भी सामना करना पड़ता है। न तो वहाँ शुद्ध जल मिल पाता है, न शुद्ध दूध। हर वस्तु प्रदूषित मिलती है। यही कारण है कि महानगरों में लोग प्रायः बीमार रहते हैं। न उन्हें खुली वायु साँस लेने के लिए उपलब्ध हो पाती है और प्रदूषण न धूप। कुछ लोगों को छोड़कर अधिकांश लोगों को पौष्टिक भोजन भी उपलब्ध नहीं होता। हर ओर ही है।

प्रदूषण महानगरों में शिक्षा की सुविधाएँ अवश्य उपलब्ध हैं किन्तु इस क्षेत्र में पर्याप्त भेदभाव है, धनिक वर्ग को पब्लिक स्कूलों की सुविधाएँ मिल जाती हैं, जबकि निम्न-मध्य वर्ग सामान्य सरकारी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने के लिए विवश है। वह पब्लिक स्कूलों की महंगी शिक्षा झेल नहीं पाता है। उच्च शिक्षा की व्यवस्था महानगरों में एक वरदान के रूप में है। इसका लाभ निकटवर्ती क्षेत्रों के लोग भी उठाते हैं। महानगरों में यातायात की समस्या विकराल होती चली जा रही है। तरह-तरह के अंधाधुंध बढ़ते वाहनों के कारण जगह-जगह जाम लग जाना एक आम बात हो गई है। सामान्य लोगों के लिए अपने कार्यस्थल पर पहुँचना भी एक समस्या हो जाता है। धनी वर्ग के पास कारों की बहुतायत होने पर भी उन्हें सड़क का जाम तो झेलना ही पड़ता है।

महानगर कंकरीट के जाल बनकर रह गए हैं। यहाँ के निवासियों की मानवीय संवेदना शून्य हो गई है। सभी अपने-अपने दायरों में सिमट कर रह गए हैं। यहाँ के लोगों के बारे में विजयदेव नारायण साही ने कहा है-

इस नगर में
लोग या तो पागलों की तरह उत्तेजित होते हैं।
या दुबक कर गुमसुम हो जाते हैं।
जब वे गुमसुम होते हैं
तब अकेले होते हैं
लेकिन जब उत्तेजित होते हैं
तब और भी अकेले हो जाते हैं।

51. स्वच्छ भारत अभियान

भूमिका : यह सर्वविदित है कि 2 अक्टूबर भारतवासियों के लिए कितने महत्त्व का दिवस है। इस दिन हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जन्म हुआ था। इस युग पुरुष ने भारत सहित पूरे विश्व को मानवता की नई राह दिखाई। हमारे देश में प्रत्येक वर्ष गाँधीजी का जन्मदिवस एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है और इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनके प्रति हमारी श्रद्धा प्रति वर्ष बढ़ती जाती है। इस बार (वर्ष 2014 में) भी 2 अक्टूबर को ससम्मान गाँधीजी को याद किया गया, लेकिन ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की शुरुआत के कारण इस बार यह दिन और भी विशिष्ट रहा।

स्वच्छ भारत अभियान का आरंभ एवं लक्ष्य : ‘स्वच्छ भारत अभियान’ एक राष्ट्र-स्तरीय अभियान है। गाँधीजी की 145वीं जयंती के अवसर पर माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस अभियान के आरंभ की घोषणा की। यह अभियान प्रधानमंत्री जी की महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक है। तय कार्यक्रम के अनुसार प्रधानमंत्री जी ने 2 अक्टूबर के दिन सर्वप्रथम गाँधीजी को राजघाट पर श्रद्धांजलि अर्पित की और फिर नई दिल्ली में स्थित वाल्मीकि बस्ती में जाकर झाड़ लगाई। कहा जाता है कि वाल्मीकि बस्ती दिल्ली में गाँधीजी का सबसे प्रिय स्थान था। वे अक्सर यहाँ आकर ठहरते थे। इसके बाद, मोदी जी ने जनपथ जाकर इस अभियान की शुरुआत की और सभी राष्ट्रवासियों से स्वच्छ भारत अभियान में भाग लेने और इसे सफल बनाने की अपील की।

इस अवसर पर उन्होंने लगभग 40 मिनट का भाषण दिया और स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा, “ गाँधीजी ने आजादी से पहले नारा दिया था ‘क्विट इंडिया, क्लीन इंडिया’। आजादी की लड़ाई में उनका साथ देकर देशवासियों ने ‘क्विट इंडिया’ के सपने को तो साकार कर दिया, लेकिन अभी उनका ‘क्लीन इंडिया’ का सपना अधूरा ही है। अब समय आ गया है कि हम सवा सौ करोड़ भारतीय अपनी मातृभूमि को स्वच्छ बनाने का प्रण करें।

क्या साफ-सफाई केवल सफाई कर्मचारियों की जिम्मेदारी है? क्या यह हम सभी की जिम्मेदारी नहीं है? हमें यह नजरिया बदलना होगा। मैं जानता हूँ कि इसे केवल एक अभियान बनाने से कुछ नहीं होगा। पुरानी आदतों को बदलने में समय लगता है। यह एक मुश्किल काम है, मैं जानता हूँ। लेकिन हमारे पास वर्ष 2019 तक का समय है। ” प्रधानमंत्री जी ने पाँच साल में देश को साफ-सुथरा बनाने के लिए लोगों को शपथ दिलाई कि न मैं गंदगी करूँगा और न ही गंदगी करने दूँगा।

अपने अतिरिक्त मैं सौ अन्य लोगों को साफ-सफाई के प्रति जागरूक करूँगा और उन्हें सफाई की शपथ दिलवाऊँगा। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति साल में 100 घंटे का श्रमदान करने की शपथ ले और सप्ताह में कम-से-कम दो घंटे सफाई के लिए निकाले। अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने स्कूलों और गाँवों में शौचालय निर्माण की आवश्यकता पर भी बल दिया। साफ-सफाई के संदर्भ में देखा जाए तो यह अभियान अब तक का सबसे बड़ा स्वच्छता अभियान है। स्वच्छ भारत अभियान को करने के लिए पाँच वर्ष (2 अक्टूबर 2019) तक की अवधि निश्चित की गई है।

वर्तमान समय में स्वच्छता को लेकर भारत की स्थिति : केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री की ‘गंदगी मुक्त भारत’ की संकल्पना अच्छी है तथा इस दिशा में उनकी ओर से किए गए आरंभिक प्रयास भी सराहनीय हैं, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर क्या कारण है कि साफ – सफाई हम भारतवासियों के लिए कभी महत्त्व का विषय ही नहीं रहा? आखिर क्यों तमाम प्रयासों के बावजूद भी हम साफ – सुथरे नहीं रहते ? हमारे गाँव गंदगी के लिए बहुत पहले से बदनाम हैं, लेकिन ध्यान दिया जाए तो यह पता चलता है कि इस मामले में शहरों के हालात भी गाँवों से बहुत भिन्न नहीं हैं। आज पूरी दुनिया में भारत की छवि एक गंदे देश की है। जब-जब भारत की अर्थव्यवस्था, तरक्की, ताकत और प्रतिभा की बात होती है, तब-तब इस बात की भी चर्चा होती है कि भारत एक गंदा देश है।

पिछले ही वर्ष हमारे पड़ोसी देश चीन के कई ब्लॉगों पर गंगा में तैरती लाशों और भारतीय सड़कों पर पड़े कूड़े के ढेर वाली तस्वीरें छाई रहीं। कुछ साल पहले इंटरनेशनल हाइजीन काउंसिल ने अपने एक सर्वे में यह कहा था कि औसत भारतीय घर बेहद गंदे और अस्वास्थ्यकर होते हैं। इस सर्वे में काउंसिल ने कमरों, बाथरूम और रसोईघर की साफ-सफाई को आधार बनाया था। उसके द्वारा जारी गंदे देशों की सूची में सबसे पहला स्थान मलेशिया और दूसरा स्थान भारत को मिला था। हद तो तब हो गई जब हमारे ही एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने यहाँ तक कह दिया कि यदि गंदगी के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाता, तो वह शर्तिया भारत को ही मिलता।

उपसंहार : स्वच्छता समान रूप से हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी है और वर्तमान समय में यह हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता भी है। हमें अपने दैनिक जीवन में तो सफाई को एक मुहिम की तरह शामिल करने की जरूरत है ही, साथ ही हमें इसे एक बड़े स्तर पर भी देखने की जरूरत है, ताकि हमारा पर्यावरण भी स्वच्छ रहे। हर समय कोई सरकारी संस्था या बाहरी बल हमारे पीछे नहीं लगा रह सकता। हमें अपनी आदतों में सुधार करना होगा और स्वच्छता को अपनी आदत बनाना होगा। हालाँकि आदतों में बदलाव करना आसान नहीं होगा, लेकिन यह इतना मुश्किल भी नहीं है।

प्रधानमंत्री ने ठीक ही कहा है कि यदि हम कम-से-कम खर्च में अपनी पहली ही कोशिश में मंगल ग्रह पर पहुँच गए, तो क्या हम स्वच्छ भारत का निर्माण सफलतापूर्वक नहीं कर सकते ? कहने का तात्पर्य है कि ‘क्लीन इंडिया’ का सपना पूरा करना कठिन नहीं है। हमें हर हाल में इस लक्ष्य को वर्ष 2019 तक प्राप्त करना होगा, तभी हमारी ओर से राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को उनकी 150वीं जयंती पर सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकेगी।

स्वच्छता का महत्त्व : ये सभी बातें और तथ्य हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि हम भारतीय साफ-सफाई के मामले में भी पिछड़े हुए क्यों हैं? जबकि हम उस समृद्ध एवं गौरवशाली भारतीय संस्कृति के अनुयायी हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य सदा ‘पवित्रता’ और ‘शुद्धि’ रहा है। दरअसल, भारतीय जनमानस इसी अवधारणा के चलते एक उलझन में रहा है। उसने इसे सीमित अर्थों में ग्रहण करते हुए मन और अंत:करण की शुचिता को ही सर्वोपरि माना है, इसलिए हमारे यहाँ कहा गया है-

“मन चंगा तो कठौती में गंगा”

यह सही है कि चरित्र की शुद्धि और पवित्रता बहुत आवश्यक है, लेकिन बाहर की सफाई भी उतनी ही आवश्यक है। यदि हमारा आस-पास का परिवेश ही स्वच्छ नहीं होगा, तो मन भला किस प्रकार शुद्ध रह सकेगा ? अस्वच्छ परिवेश का प्रतिकूल प्रभाव हमारे मन पर भी पड़ता है। जिस प्रकार एक स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है, उसी प्रकार एक स्वस्थ और शुद्ध व्यक्तित्व का विकास भी स्वच्छ और पवित्र परिवेश में ही संभव है।

अतः अंत:करण की शुद्धि का मार्ग बाहरी जगत् की शुद्धि और स्वच्छता से होकर ही गुजरता है। साफ-सफाई के अभाव से हमारे आध्यात्मिक लक्ष्य तो प्रभावित होते ही हैं, साथ ही हमारी आर्थिक प्रगति भी बाधित होती है। अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आकलन का हवाला देते हुए कहा है कि गंदगी के कारण औसत रूप से प्रत्येक भारतीय को प्रति वर्ष लगभग रु. 6,500 का अतिरिक्त आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है। यदि उच्च वर्ग को इसमें शामिल न किया जाए, तो यह आँकड़ा 12 से 15 हजार तक पहुँच सकता है। इस तरह देखा जाए तो हम स्वच्छ रहकर इस आर्थिक नुकसान से बच सकते हैं।

52. भारत का मंगल अभियान

प्रस्तावना : मानव मन शुरू से ही जिज्ञासु रहा है। अपनी इस जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण वह काफी समय से अंतरिक्ष को जानने और समझने की कोशिश करता रहा है। आज मानव अंतरिक्ष के रहस्यों का भेद पाने के लिए अपनी बुद्धि और ज्ञान का प्रयोग कर न सिर्फ चंद्रमा तक जा पहुँचा है, बल्कि सौर मंडल के दूसरे ग्रहों पर भी कदम रख चुका है। हमारे सौर मंडल में चंद्रमा के बाद लाल ग्रह” मंगल ने वैज्ञानिकों को सबसे अधिक आकर्षित किया है। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि अब तक मंगल ग्रह पर चार देशों ने ही सफलता पाई है और उन चार देशों में एक देश हमारा भी है।

मंगल अभियान से जुड़ी आवश्यक जानकारी : हमारे सौर मंडल में अकेला मंगल ही ऐसा ग्रह है, जिस पर वैज्ञानिकों को पृथ्वी की तरह जीवन की प्रबल संभावना नजर आई है। इसीलिए विभिन्न देशों के वैज्ञानिक मंगल ग्रह का अध्ययन कर रहे हैं। ऐसे में भारत कैसे पीछे रह सकता था? अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में शेष विश्व के साथ कदमताल करते हुए भारत के वैज्ञानिकों ने भी मंगल ग्रह के अध्ययन की योजना बनाई और वर्ष 2012 में भारत सरकार की मंजूरी मिलने के बाद इस दिशा में काम करना आरंभ कर दिया। 5 नवंबर 2013 को श्री हरिकोटा के सतीश धवन द्वारा अंतरिक्ष केंद्र से मंगलयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण कर उसे पृथ्वी की कक्षा में स्थापित कर दिया गया। लगभग 10 महीनों तक लगातार चक्कर काटते हुए 67 करोड़ किलोमीटर की लंबी दूरी तय करके हमारा मंगलयान मंगल ग्रह की कक्षा में 24 सितंबर 2014 को सफलतापूर्वक प्रवेश कर गया।

अभियान की सफलता से लाभ : एक अंतर्ग्रहीय अभियान होने के कारण मार्स ऑर्बिटर मिशन अपेक्षाकृत अधिक कठिन और खर्चीला अभियान था परंतु इसरो के वैज्ञानिकों ने अपनी अथक मेहनत से इस अभियान को सफल बना दिया। इसरो के संस्थापकों में से एक और देश के जाने-माने वैज्ञानिक प्रोफेसर यशपाल के शब्दों में कहें तो स्वदेशी तकनीक, सीमित संसाधनों का उचित ढंग से उपयोग, कम वजन, तकनीक का अधिक-से-अधिक प्रयोग ही इस मंगल मिशन की सफलता के गुण बन गए। इससे दूसरे देशों को भी अपने अंतरिक्ष अभियानों को कम खर्च में पूरा करने की प्रेरणा मिलेगी।

मंगल ग्रह की सफलता के कारण : उल्लेखनीय है कि हमारे मंगलयान से पूर्व दुनियाभर में 51 मंगल अभियान चलाए जा चुके थे परंतु उनमें से केवल 21 ही कामयाब हो पाए थे। ऐसे में समझा जा सकता है कि यह अभियान कितना कठिन था, परंतु हमारे काबिल वैज्ञानिकों ने इस असंभव से लगने वाले काम को संभव कर दिखाया और अपनी पहली ही कोशिश में सफलतापूर्वक मंगल ग्रह पर पहुँचने का कारनामा कर दिखाया। भारत का मंगलयान अत्याधुनिक उपकरणों से युक्त है। इनमें लाइमन अल्फा फोटोमीटर, मीथेन सेंसर, थर्मल इंफ्रारेड इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर, मार्स एक्सोफेटिक न्यूट्रल कम्पोजीशन एनलाइजर और मार्स कलर कैमरा मुख्य हैं।

गौरतलब है कि मंगलयान पूरी तरह से स्वदेशी अभियान है। इस पर कुल मिलाकर रु. 450 करोड़ का खर्च आया है जो इसे विश्व का सबसे सस्ता मंगल अभियान बनाता है। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य मंगल ग्रह पर मीथेन का पता लगाना और उस पर जीवन की संभावनाओं को तलाशना है। इसका कार्यकाल 6 महीने का है, जिसे एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।

उपसंहार : भारत एक विकासशील देश है और यह भी सच्चाई है कि यहाँ लाखों लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करते हैं। इसीलिए भारत के मंगल अभियान का विरोध भी हुआ हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह की प्रौद्योगिकी पर आधारित अभियान न केवल वैश्विक स्तर पर देश की साख बढ़ाते हैं बल्कि तकनीकी रूप से देश को सशक्त भी बनाते हैं। इस अभियान की सफलता से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की आय में वृद्धि होने के पूरे-पूरे आसार हैं, जिससे इसे आत्मनिर्भर बनने में सहायता मिलेगी। साथ ही, अब विकसित देशों के साथ तकनीकी सहयोग बढ़ने की भी आशा है। निश्चय ही इन सभी का लाभ हमें निकट भविष्य में मिलने वाला है, जिसकी सहायता से हमें अपने देशवासियों का जीवन-स्तर बेहतर बनाने में मदद मिलेगी। अतः हमें अपनी इस उपलब्धि पर गर्व करना चाहिए और भविष्य में इस प्रकार के अभियानों के लिए तैयार रहना चाहिए।

53. बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ

प्रस्तावना : मैं माताओं से पूछना चाहता हूँ कि बेटी नहीं पैदा होगी तो बहू कहाँ से लाओगी? हम जो चाहते हैं समाज भी वही चाहता है। हम चाहते हैं कि बहू पढ़ी-लिखी मिले, लेकिन बेटियों को पढ़ाने के लिए तैयार नहीं होते। आखिर यह दोहरापन कब तक ‘चलेगा? यदि हम बेटी को पढ़ा नहीं सकते तो शिक्षित बहू की उम्मीद करना बेईमानी है। जिस धरती पर मानवता का संदेश दिया गया हो, वहाँ बेटियों की हत्या दुःख देती है। यह अल्ताफ हुसैन हाली की धरती है हाली ने कहा था, ” माओ, बहनों, बेटियों दुनिया की जन्नत तुमसे है।” ये उद्गार हैं भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जो 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा के पानीपत शहर से “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ” अभियान की शुरूआत कर चुके हैं। यह अभियान केंद्र सरकार के महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रमों में से एक है।

कन्या-भ्रूण हत्या के कारण : भारतीय संस्कृति में स्त्री को ” घर की लक्ष्मी” बताया गया है परंतु वर्तमान समय में भारत के लोग इसे भूल चुके हैं। पुत्र को पुत्री की अपेक्षा श्रेष्ठ समझना तथा पुत्री को बोझ मानते हुए उसकी उपेक्षा करने की मानसिकता की परिणति यह हुई है कि पुत्री को पैदा होते ही मार दिया जाता है। आधुनिक दौर में तो चिकित्सा के क्षेत्र में हुई तकनीकी उन्नति ने तो इस कार्य को और भी सरल बना दिया है अर्थात् अब गर्भ में ” कन्या भ्रूण” होने की स्थिति में उसे प्रसव पूर्व ही मार दिया जाता है। यह हमारे पितृसत्तात्मक समाज का कटु सत्य है कि स्त्री को केवल एक ” वस्तु” समझा जाता है और एक मनुष्य के रूप में उसे सदा कम करके आँका जाता है। आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक कार्यों में उसकी उपयोगिता नहीं के बराबर समझी जाती है। माता-पिता पुत्र को अपनी संपत्ति के रूप में देखते हैं परंतु पुत्री उनके लिए बोझ होती है। यही कारण है कि भारत में कन्या भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति हावी है।

इस अभियान की आवश्यकता : अब प्रश्न उठता है कि इस अभियान की जरूरत क्यों पड़ी? जाहिर है इसके पीछे कन्या-भ्रूण हत्या के कारण देश में तेजी से घटता लिंगानुपात है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या मात्र 940 है। 0-6 वर्ष के आयु वर्ग का लिंगानुपात तो केवल 914 ही है। इस आयु वर्ग में सर्वाधिक चिंताजनक स्थिति हरियाणा ( 830), पंजाब (846), जम्मू-कश्मीर (859), राजस्थान (888) और राजधानी दिल्ली (866) की है। संयुक्त राष्ट्र की मानें तो भारत में अनुमानित तौर पर प्रतिदिन 2000 अजन्मी कन्याओं की हत्या कर दी जाती है।

अभियान का लक्ष्य : कन्या भ्रूण हत्या से समाज में लिंग अनुपात में असंतुलन उत्पन्न हो गया है। पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश राज्यों में तो अविवाहित युवकों की संख्या बहुत बढ़ गई है। इन राज्यों में विवाह के लिए लड़कियाँ दूसरे राज्यों से लाई जाने लगी हैं। सुनने में तो यह भी आया है कि हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में तो लड़कियों की कमी के कारण एक ही स्त्री से एक से अधिक पुरुष विवाह कर रहे हैं। समाज से कन्या भ्रूण हत्या की कुप्रवृत्ति को मिटाने के लिए केंद्र सरकार ने “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ” अभियान की शुरुआत की है। इस कार्यक्रम के तहत भारत सरकार ने लड़कियों को बचाने, उनकी सुरक्षा करने और उन्हें शिक्षित करने के लिए निम्न बाल-लिंग अनुपात वाले 100 जिलों में इस कुरीति को समाप्त करने का लक्ष्य रखा है। यह कार्यक्रम महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संयुक्त पहल है।

54. बाल मजदूरी : मानवता पर कलंक

मजदूरी स्वरूप : ‘बाल मजदूरी’ हमारे समाज के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है। यद्यपि पिछले दशक से बाल मजदूरी (Child Labour) के विरुद्ध आवाज उठ रही है और ‘बचपन बचाओ’ आंदोलन अत्यंत सक्रियता से चल रहा है, पर फिर भी यह समस्या इतनी छोटी और सरल नहीं, जितनी यह प्रतीत होती है। आइए, हम इसके स्वरूप एवं इससे होने वाली हानियों के बारे में चर्चा कर लें।

हम देखते हैं बच्चों को घरेलू नौकर के रूप में रखा जाता है। वहाँ उनका भरपूर शोषण किया जाता है। उन्हें शिक्षा से वंचित किया जाता है तथा नाम मात्र का वेतन देकर सीमा से अधिक श्रम कराया जाता है। इसके साथ-साथ उन्हें शारीरिक रूप से दंडित भी किया जाता है। इसी प्रकार कल-कारखानों में बाल श्रमिकों की संख्या बहुत अधिक है। वहाँ उन्हें अत्यंत शोचनीय वातावरण में काम करने को विवश किया जाता है। गलीचे बुनना, चूड़ियाँ बनाने, आतिशबाजी का सामान बनाने आदि श्रमसाध्य कार्यों में बाल श्रमिकों का जमकर दोहन किया जाता है। उन्हें अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। होटल और ढाबों में बच्चों को काम करते देखा जा सकता है।

बाल मजदूरी कमाई का साधन : अब प्रश्न उठता है कि लोग बच्चों से मजदूरी क्यों करवाते हैं? ये बच्चे मजदूरी करते क्यों हैं? पहले प्रश्न का उत्तर है कि बच्चों को कम मजदूरी देनी पड़ती है। एक मजदूर की तनख्वाह में दो बाल श्रमिक रखे जाते हैं। बालक कोई समस्या भी पैदा नहीं करते और चुपचाप काम करते हैं। अब प्रश्न उठता है कि ये बालक मजदूरी करते क्यों हैं? इनके माँ-बाप की आय इतनी नहीं है कि ये घर का पूरा खर्च उठा सकें। उनके लिए बच्चे कमाई का साधन हैं। वे शिक्षा का महत्त्व नहीं समझते अतः वे बच्चों को स्कूल भेजने की अपेक्षा काम पर भेजने में ज्यादा रुचि लेते हैं।

बाल मजदूरी के कारण : अब प्रश्न उठता है कि बाल मजदूरी के कारण क्या-क्या बुराइयाँ पनप रही हैं। बच्चों की मजदूरी रोक दी जाए तो लाखों बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा। इनके हटने पर लोगों को इनकी जगह नौकरी पर रखा जाएगा, अतः बेरोजगारी की समस्या पर कुछ मात्रा में काबू पाया जा सकेगा।

उपाय : बाल मजदूरी के कारण अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सका है। इसको बंद कर देने पर इन बच्चों को स्कूलों में भेजने के लिए विवश किया जा सकेगा। यद्यपि प्रारंभ में इसमें अनेक कठिनाइयाँ आएँगी, पर इन पर काबू पाना कठिन तो है, पर असंभव कतई नहीं है। इसके दूरगामी प्रभाव होंगे। इन बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बन सकेगा। अभी वे इसका महत्त्व भले ही न समझ पा रहे हों पर बाद में उन्हें यह समझ आ जाएगा। कारखाने के मालिक अवश्य इसमें रोड़ा लगाना चाहेंगे क्योंकि इससे उनका मुनाफा घटेगा। अभी तक वे बाल श्रमिकों का हिस्सा दबाकर रखते थे। अब उन्हें यह हिस्सा बड़े आयु के मजदूरों को देना पड़ेगा।

उपसंहार : बाल मजदूरी एक सामाजिक कलंक है। इसे धोना आवश्यक है। बच्चों का भविष्य दाँव पर नहीं लगाया जा सकता। हमें उनके बारे में अभी सोचना होगा। ‘बचपन बचाओ’ आंदोलन को पूरी ईमानदारी के साथ लागू करना होगा।

55. सूचना का अधिकार

प्रस्तावना : हमारा देश भारत एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था वाला देश है. जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को सभी प्रकार की गतिविधियों से जुड़ी सूचनाएँ जानने का अधिकार है। कुछ वर्ष पूर्व तक हमारे पास कोई ऐसी कानूनी व्यवस्था नहीं थी, जिसके द्वारा हम सरकारी कार्यालयों से सूचनाएँ प्राप्त कर सकें। वास्तव में, देश की शासन व्यवस्था के सुचारू संचालन तथा भ्रष्टाचार नियंत्रण, जनता को शोषण से बचाने एवं लाल फीताशाही को खत्म करने के लिए जरूरी सूचना प्राप्त करने संबंधी अधिकार की आवश्यकता बहुत पहले से महसूस की जा रही थी।

अंततः 15 जून, 2005 को केंद्र सरकार ने सूचना का अधिकार अधिनियम पारित कर दिया, जिसे जम्मू-कश्मीर को छोड़कर शेष भारतीय राज्यों में 13 अक्टूबर, 2005 से लागू किया गया। इसे ‘आर टी आई’ भी कहा जाता है। आर टी आई का अर्थ है – ‘राइट टू इंफॉर्मेशन’ अर्थात् ‘सूचना का अधिकार’। इसे संविधान की धारा 19 (1) के अंतर्गत मूलभूत अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है। ‘सूचना का अधिकार’ अधिनियम का प्राथमिक उद्देश्य नागरिकों को अधिकार संपन्न बनाना, सरकार की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता लाना तथा उसके उत्तरदायित्वों में बढ़ोत्तरी करते हुए भ्रष्टाचार को कम करना एवं सही मायनों में लोकतंत्र को जनता के हित में कार्य करने के लिए सक्षम बनाना है। इसके द्वारा प्रत्येक नागरिक को सरकार से उसकी कार्यप्रणाली और विभिन्न मामलों में उसकी भूमिका के बारे में जानने का हक है।

सूचना के अधिकार का प्रारूप : सूचना के अधिकार के तहत माँगी गई सूचना को 30 दिनों के भीतर उपलब्ध कराना कानूनन अनिवार्य है। किसी व्यक्ति के जीवन अथवा स्वतंत्रता से जुड़ी सूचना 48 घंटे के भीतर देना जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति इस अधिनियम के तहत कोई सूचना प्राप्त करना चाहता है, तो उसे अंग्रेजी, हिंदी अथवा संबंधित क्षेत्र की राजकीय भाषा में एक सादे कागज पर लिखा आवेदन 10 रु. के ड्राफ्ट या पोस्टल ऑर्डर के साथ लोक प्राधिकारी के नाम भेजना होता है।

आवेदन शुल्क को लोक प्राधिकरण के लेखाधिकारी या केंद्रीय सहायक लोक सूचना अधिकारी के कार्यालय में नकद रूप में भी जमा किया जा सकता है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले व्यक्तियों के लिए यह प्रक्रिया निःशुल्क है। इस कानून में यह व्यवस्था की गई है कि यदि कोई अधिकारी किसी व्यक्ति को सूचना देने से मना करे या देर से अथवा गलत सूचनाएँ उपलब्ध कराए, तो उसे निजी तौर पर दंड का भागीदार मानते हुए, देरी के लिए 250 रु. प्रतिदिन के हिसाब से 25,000 रु. तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।

उपसंहार : दूसरे संवैधानिक नियम कानूनों की तरह इस जनोपयोगी कानून की भी खामियाँ और सीमाएँ हैं, जैसे इसके तहत 22 महत्त्वपूर्ण संगठनों, केंद्रीय पुलिस बल, सूचना ब्यूरो तथा प्रवर्तन निदेशालय जैसे महत्त्वपूर्ण संगठन एवं कार्यालय सम्मिलित है – को गोपनीयता के लिहाज से इस अधिनियम से अलग किया गया है। निजी क्षेत्र से जुड़े कार्यालयों, उद्यमों तथा संस्थाओं आदि के बारे में इस अधिनियम में कोई प्रावधान स्पष्ट नहीं है, जो इसकी एक महत्त्वपूर्ण कमी है, परंतु इन सबके बावजूद यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि ‘सूचना का अधिकार’ अधिनियम हमारे लोकतंत्र की विकास यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ है। आशा है कि यह भारतीय जनता की भ्रष्टाचार उन्मूलन एवं पारदर्शी प्रशासन की जनाकांक्षा की सिद्धि में मददगार साबित होगा।

56. बाढ़ की विभीषिका

अर्थ : चारों ओर जल प्रलय का दृश्य और उसमें डूबे खेत-खलिहान, मरे हुए मवेशियों की डूबती- तैरती लाशें, अपनी जान बचाने की कोशिश में सुरक्षित स्थान की तलाश के लिए पानी के बीच दौड़ते-भागते लोग, ये सभी दृश्य बाढ़ की विभीषिका को बताते हैं। विभीषिका का सामान्य अर्थ तबाही की असामान्य और असहज तथा मानव जीवन के प्रतिकूल दिखाई देने वाली स्थिति, घटना या क्रिया से लगाया जा सकता है। वास्तव में, प्राकृतिक आपदाएँ ही जब भीषण रूप में नजर आती हैं, तो वे विभीषिका बन जाती हैं। बाढ़ एक ऐसी ही प्राकृतिक आपदा है, जो अपने विकराल रूप में विभीषिका बनकर आती है और अपने प्रभाव से सामान्य जन-जीवन को अस्त-व्यस्त और नष्ट – प्राय कर देती है।

बाढ़ का भयावह दृश्य : बाढ़ की विभीषिका के बारे में चर्चा करते हुए सर्वप्रथम यह जान लेना जरूरी है कि बाढ़ वास्तव में है क्या? दरअसल बरसात के मौसम में जब नदियों के जलस्तर में वृद्धि होती है, तब उनका पानी तीव्र वेग के साथ निचले इलाकों में भर जाता है। नदियों के आस-पास के क्षेत्रों में पानी जमा होने की यह स्थिति ही ‘बाढ़’ कहलाती है। प्रति वर्ष जून से सितंबर के महीनों में हमारे देश में काफी बारिश होती है, इसलिए इस अवधि में देश के अधिकांश भागों में बाढ़ का कहर दिखाई देता है। बाढ़ की विभीषिका का दृश्य अत्यंत भयावह होता है। चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल बन जाता है, लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागते और सुरक्षित स्थानों की तलाश करते नजर आते हैं, चारों ओर चीख-पुकार मच जाती है।

असफलता : बाढ़ से जन-धन की बड़ी हानि होती है, सड़कें टूट जाती हैं, रेलमार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं, जिससे यातायात एवं परिवहन बाधित हो जाता है और जन-जीवन ठप हो जाता है। इस तरह जहाँ लोग एक तरफ बाढ़ से त्रस्त होते हैं, वहीं खाद्य सामग्री की समस्या भी उन्हें और ज्यादा मुश्किल में डाल देती है। बाढ़ के कारण लाखों एकड़ भू-क्षेत्र में उपजी फसल नष्ट हो जाती है। तटबंधों के टूटने से बस्तियाँ भी उसकी चपेट में आकर बर्बाद हो जाती हैं।

उपसंहार : बाढ़ प्रभावित लोगों के पुनर्वास की समस्या, संपत्ति के नुकसान की भरपाई में लगने वाला लंबा समय, प्रत्यक्ष एवं प्रच्छन्न बेरोजगारी की समस्या आदि बाढ़ के प्रभाव से जन्म लेते हैं। भारत में अधिकांश राज्य इस आपदा से प्रभावित हैं, लेकिन बिहार इस आपदा से सर्वाधिक प्रभावित राज्य है, जहाँ प्रति वर्ष अपार जन-धन की हानि हो जाया करती है। उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में आई बाढ़ भी काफी नुकसान कर चुकी है।

बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम की शुरूआत वैसे तो वर्ष 1954 में ही शुरू हो गई थी, लेकिन योजनाओं की अपूर्णता कहें या क्रियान्वयन में असफलता, हम इस राष्ट्रीय आपदा की विनाश लीला के मूकदर्शक बने रहने के लिए अब भी अभिशप्त हैं। अब तक सुझाए गए बचाव के स्थायी उपायों में सबसे प्रभावी उपाय राष्ट्रीय स्तर पर सभी नदियों को एक-दूसरे से जोड़ने का है, जिससे उनके जलस्तर में असमान वृद्धि न हो। वह दिन हमारे लिए वास्तविक उपलब्धि का दिन होगा, जिस दिन हम इस राष्ट्रीय आपदा का स्थायी समाधान ढूँढ लेंगे।

57. महिला सुरक्षा अथवा असुरक्षित महिलाएँ

भूमिका : भारत की राजधानी दिल्ली को भले ही नंबर एक शहर घोषित किया गया हो, पर यह अभी भी महिलाओं के लिए असुरक्षित है। यहाँ प्रतिदिन उनके साथ कुछ ऐसा घट जाता है कि उनकी सुरक्षा को लेकर एक विषम स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कभी वे बलात्कार का शिकार बनती हैं तो कभी हिंसा का। पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राओं ने छेड़छाड़ के विरुद्ध व्यापक प्रदर्शन किया था। यह स्थिति चिंताजनक है।

महिलाओं के सम्मान की संस्कृति : कुछेक महिला कार्यकर्ताओं का मानना है कि दिल्ली के नागरिकों ने महिला के सम्मान की संस्कृति को विकसित ही नहीं किया। सार्वजनिक स्थलों पर भी यौनिक हमले की शिकार औरत की मदद के लिए कोई आगे नहीं आता। पुलिस अधिकारी कभी दिल्ली में बढ़ती आबादी, सड़कों पर कम रोशनी को उसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं तो कभी कोई और वजह गिनाते हैं। अध्ययन, सर्वेक्षण, आँकड़े बताते हैं कि इस महानगरी में महिलाएँ सुरक्षित नहीं हैं।

यहाँ हर लड़की / औरत की कई निगाहें पीछा करती हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिमिनोलॉजी और फोरेंसिक साइंस द्वारा हाल में किए गए अध्ययन “दिल्ली में महिलाएँ कितनी सुरक्षित अथवा असुरक्षित हैं”, के अनुसार इस शहर की 80 फीसदी महिलाएँ खुद को बाजार व मॉल में असुरक्षित महसूस करती हैं। 70 फीसदी अंधेरे में, 30 फीसदी हमेशा हर जगह खुद को असुरक्षित पाती हैं। 50 फीसदी महिलाएँ सार्वजनिक बस को महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं मानतीं। स्लम व गाँवों में रहने वाली महिलाओं की तुलना में संभ्रांत व नवविकसित इलाकों की महिला निवासी खुद को ज्यादा असुरक्षित महसूस करती हैं। इस अध्ययन में महिलाओं का पुलिस पर कम भरोसे की दो वजह बताई गई हैं। एक, पुलिस पेट्रोलिंग का नज़र नहीं आना व दूसरा, महिला शिकायतकर्ता के साथ पुलिस का व्यवहार।

असुरक्षित भावनाएँ : दिल्ली में महिलाएँ खुद को कहाँ, किस हालत में असुरक्षित महसूस करती हैं यह जानने के लिए दिल्ली के ‘जागोरी’ नामक महिला संगठन ने (अगस्त 2005 – जुलाई 2006) दिल्ली के विभिन्न बाईस इलाकों का ‘सेफ्टी ऑडिट’ किया। इन बाईस इलाकों में दिल्ली विश्वविद्यालय, वसंत कुंज, साउथ एक्सटेंशन भाग-1, नेहरू प्लेस, साकेत, सरिता विहार, पश्चिम पुरी, मयूर विहार, कल्याण पुरी, मदनपुर खादर, बवाना, इंडिया गेट शामिल हैं। दिल्ली में पहली बार किए गए सेफ्टी ऑडिट से पता चला कि यहाँ कई जगहों पर गलियों / सड़कों की बत्ती की रोशनी या तो गुल है या बहुत कम रोशनी है। ऐसे में महिलाएँ खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करतीं।

दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएँ अंधेरा होने के बाद इच्छा के विरुद्ध कैंपस की सड़कों पर नहीं निकलती हैं क्योंकि अधिकांश सड़कों पर बहुत कम रोशनी होती है और दुपहिया व कार में बैठे पुरुष उन्हें तंग करते हैं। पुस्तकालय देर तक खुले हों तो दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएँ देर रात तक पुस्तकालय में अध्ययन के लिए बहुत कम जाती हैं। लड़कियाँ भी दिल्ली विश्वविद्यालय को उतनी ही फीस देती हैं जितनी लड़के, लेकिन वे चाहकर भी विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में उतना अध्ययन नहीं कर पातीं।

सवाल देर रात पुस्तकालय से लौट रही छात्रा का हो या देर रात होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम से लौट रह स्त्री का हो या रात की पार्टी से घर लौट रही महिला का हो, उसे सुरक्षित माहौल मुहैया कराना राज्य / पुलिस की जिम्मेदारी है। लेकिन दिल्ली पुलिस अपनी इस जवाबदेही से बचती है। यह जाहिर होता है दिल्ली पुलिस के महिला सुरक्षा विज्ञापनों से। ऐसे विज्ञापनों में दिल्ली पुलिस महिलाओं को सुनसान रास्ते पर न जाने, देर रात को अकेले घर के बाहर न निकलने की सलाह देती है।

क्या ऐसे परामर्श औरतों के शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाते ? देर शाम को होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों से दूर नहीं रखते ? क्या औरत के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के रास्तों को सील नहीं करते? कुछ महीने पहले दिल्ली पुलिस ने दिल्ली में रह रही उत्तर-पूर्वोत्तर राज्यों की लड़कियों को सुरक्षा संबंधी हिदायतें देने के लिए एक पुस्तिका तैयार की।

उपसंहार : ‘दिल्ली में महिलाएँ कितनी सुरक्षित अथवा असुरक्षित हैं’ इस विषय पर यह अध्ययन ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट के सहयोग से किया गया है। इस अध्ययन में लड़कियों को आत्मरक्षा के लिए मिर्च पाउडर या स्प्रे सस्ते दामों पर उपलब्ध कराने का सुझाव दिया गया है। दिल्ली पुलिस की महिला अपराध शाखा ने बीते पाँच वर्षों में चालीस हजार से ज्यादा लड़कियों/महिलाओं को आत्मरक्षा में प्रशिक्षित किया है। मुख्य सवाल यह है कि दिल्ली सुरक्षा की दृष्टि से महिला मैत्री शहर बने। इसके लिए पुलिस अपने भीतर बदलाव और अपनी कमियों को दूर करने के लिए कब ईमानदारी से पहल करेगी? इस आज़ाद महानगर में औरतों के प्रति पुलिस की असंवेदनशीलता के साथ-साथ पुरुष समाज का आधी आबादी के लिए वक्त की रफ्तार के साथ न बदलना भी तकलीफ पहुँचाता है।

58. पर्यावरण एवं प्रदूषण अथवा प्रदूषण की समस्या और निदान

भूमिका : मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है। जब तक वह प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता, तब तक उसका जीवन सहज और स्वाभाविक गति से चलता रहता है। विज्ञान की प्रगति के कारण औद्योगिक विकास में मनुष्य की रूचि इतनी बढ़ गई है कि वह प्रकृति के साथ अपने सामंजस्य को प्रायः समाप्त ही करता जा रहा है। यही कारण है कि वह प्रकृति जो सदैव उसकी जीवन सहचरी रही है, उससे दूर होती जा रही है। औद्योगीकरण के कारण प्रदूषण तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है।

प्रदूषण के कारण : आज के औद्योगिक युग में संयंत्रों, मोटर वाहनों, रेलों व कल-कारखानों की संख्या अत्यधिक बढ़ गई है। ये उद्योग जितने बढ़ेंगे, उतना ही प्रदूषण फैलाएँगे। धुएँ में कार्बन मोनो ऑक्साइड काफी मात्रा में निकलती है, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। अनुमान लगाया गया है कि 960 किमी. की यात्रा में एक मोटर वाहन जितनी ऑक्सीजन का प्रयोग करता है, उतनी ऑक्सीजन की आवश्यकता एक मनुष्य को पूरे एक वर्ष के लिए होती है।

हवाई जहाज, तेल शोधन, चीनी मिट्टी की मिलें, चमड़ा, कागज, रबड़ आदि के कारखानों को ईंधन की आवश्यकता होती है। इस ईंधन के जलने से जो धुआँ उत्पन्न होता है, उससे वायु प्रदूषित होती है और इस प्रकार वायु प्रदूषण फैलता है। यह प्रदूषण एक ही जगह स्थिर नहीं रहता, बल्कि वायु प्रवाह से तीव्र गति से सारे संसार को बुरी तरह से प्रभावित करता है। घनी आबादी वाले क्षेत्र इससे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। वायु प्रदूषण से श्वास संबंधी अनेक प्रकार के रोग बढ़ने लगते हैं।

विश्व के कई स्थानों पर तो प्रदूषण इतना अधिक बढ़ गया है कि हैरानी होती है। उदाहरण के लिए, जापान के विश्वप्रसिद्ध शहर टोकियो को ही ले लीजिए। यह विश्व का अधिकतम प्रदूषित नगर है। यहाँ पुलिस के लिए स्थान-स्थान पर ऑक्सीजन सिलेंडर लगे रहते हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर वें इन्हें उपयोग में ला सकें। धुएँ और कुहरे की स्थिति में हवा को छानने के लिए मुँह पर कपड़ा बाँधना पड़ता है, तब भी यहाँ आँख, नाक और गले के रोगों की अधिकता बनी रहती है। लंदन में चार घंटों तक ट्रैफिक संभालने वाले सिपाही के फेफड़ों में इतना विष भर जाता है मानो उसने 105 सिगरेट पी हों।

प्रदूषण से होने वाली हानियाँ : प्रदूषण की समस्या के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार जनसंख्या वृद्धि है। इस जनवृद्धि के कारण ही ग्रामों, नगरों तथा महानगरों को विस्तार देने की आवश्यकता का अनुभव हो रहा है। परिणामस्वरूप जंगल काटकर वहाँ बस्तियाँ बसाई जा रही हैं। वृक्षों और वनस्पतियों की कमी के कारण प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया में असंतुलन पैदा हो गया है। प्रकृति जो जीवनोपयोगी सामग्री जुटाती है, उसकी उपेक्षा हो रही है। प्रकृति का स्वस्थ वातावरण दोषपूर्ण हो गया है। यही पर्यावरण की सबसे बड़ी समस्या है।

कल-कारखानों की अधिकता के कारण वातावरण प्रदूषित हो रहा है। साथ ही वाहनों तथा मशीनों से उत्पन्न होने वाले शोर से ध्वनि प्रदूषण होता है, जिससे मानसिक तनाव, श्रवण दोष तथा कान के अन्य कई रोग उत्पन्न होते हैं। इस शोरगुल के कारण मनुष्य अनेक प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों का शिकार बनता जा रहा है। जब तक मनुष्य प्रकृति के साथ अपना तालमेल व संतुलन स्थापित नहीं करता, तब तक उसकी औद्योगिक प्रगति व्यर्थ है। इस प्रगति को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है। हम ऐसे औद्योगिक विकास से विमुख रहें, जो हमारे सहज जीवन में बाधा डालते हों। हम वनों, पर्वतों, जलाशयों और नदियों के वरदान से वंचित न हों।

समाधान : प्रदूषण की समस्या से बचने के लिए यह आवश्यक है कि विषैली गैस, रसायन तथा जल-मल को उत्पन्न करने वाले कारखानों को आवास स्थानों से दूर स्थापित किया जाए। इसके अतिरिक्त, सर्वप्रथम जनसंख्या नियंत्रित करने की आवश्यकता है। वनों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए अधिकाधिक वृक्ष लगाए जाएँ एवं अनावश्यक कटान को रोका जाए।

उपसंहार : औद्योगिक उन्नति व प्रगति की सार्थकता इसमें है कि मनुष्य सुखी, स्वस्थ एवं संपन्न बना रहे। इसके लिए अनिवार्य है कि मानव प्रकृति से अपना मैत्री संबंध स्थापित करे ताकि प्रकृति भी मित्रवत व्यवहार करती रहे, क्योंकि मानव के अत्याचार के विरोध में यदि प्रकृति स्वयं को संतुलित करने के लिए उग्र रूप धारण कर बैठती है, तो मानव का अस्तित्व घोर संकट में पड़ सकता है।

59. भारतीय संस्कृति

भूमिका : हजारों वर्ष की परंपराओं से पुष्ट भारतवर्ष किसी समय विश्व गुरु कहलाता था। जिस समय आज के उन्नत एवं सभ्य कहे जाने वाले राष्ट्र अस्तित्वहीन थे या जंगली अवस्था में थे। उस समय भारत भूमि पर वैदिक ऋचाएँ लिखी जा रही थीं, वैदिक मंत्रों का गान गूँज रहा था और यज्ञों की पवित्र ज्वालाओं का सुगंधित धुआँ पूरे वातावरण को आनंदमय बना रहा था। वृद्ध भारतवर्ष की सभ्यता और संस्कृति महान है। कविवर इकबाल ने जब लिखा है कि-

‘यूनान मिस्र रोमां सब मिट गए जहाँ से,
लेकिन बचा हुआ है, नामों निशाँ हमारा।’

तो निश्चय ही उनका संकेत भारत की महान संस्कृति की ओर ही था। हजारों वर्षों की पराधीनता का अंधकार हमें हमारी प्राचीन विरासत से वंचित नहीं कर पाया। आज भी हम वैदिक ऋषियों की संतान होने पर गौरव अनुभव करते हैं। रामायण, महाभारत, वेद-पुराण आज भी हमारे पूज्य ग्रंथ हैं। आज भी गंगा, नर्मदा, कावेरी हमारे लिए पवित्र हैं। भारतीय संस्कृति अजर-अमर है क्योंकि वह समय के साथ बदलने की क्षमता रखती हैं। इसमें मानव मात्र की रक्षा का भाव निहित है।

संस्कृति क्या है : संस्कृति वह है जो श्रेष्ठ कृति अर्थात् कर्म के रूप में व्यक्त होती है। कर्म निश्चय ही विचार पर आधारित होता है। जो ज्ञान एवं भाव संपदा हमारे कर्मों को श्रेष्ठ बनाती है वहाँ संस्कृति है। मनुष्य में पशुता और देवत्व का वास एक साथ रहता है। जो भाव या विचार हमें पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाते हैं, संस्कृति का अंग माना जाना चाहिए। मनुष्य, प्राकृतिक अवस्था में होता है। समाज के प्रभाव एवं उसके अपने अनुभव उसे प्रकृति में विकृति की ओर ले जा सकते हैं और सुकृति की ओर भी। सुकृति अर्थात् अच्छे कार्यों की ओर ले जाना ही संस्कृति का कार्य है। दूध यदि विकृति की ओर जायेगा तो वह फट जाएगा और अनुपयोगी बन जाएगा।

यदि सुकृति की ओर जाएगा तो दही, मक्खन, खोया आदि बनेगा। उसकी कीमत कहीं अधिक बढ़ जाएगी। इसी प्रकार मनुष्य यदि पशुत्व अथवा दानत्व की ओर जाएगा तो उसकी हत्या करनी पड़ेगी। यदि देवत्व की ओर जाएगा, उसकी पूजा होगी। भारतीय संस्कृति ने सदा ही अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रार्थना की है। किसी भी देश अथवा जाति की संस्कृति उसके जीवन मूल्यों, आदर्शों, रहन-सहन के तरीकों एवं आस्थाओं और मान्यताओं के रूप में सामने आती है। संस्कृति हमारे भौतिक जीवन को सुधारती है और हमारे एंद्रिक जगत् को परिष्कृत करती है। विचारों एवं भावों का परिष्कार भी संस्कृति का कार्य है। संस्कृति यह कार्य साहित्य विज्ञान एवं कलाओं का प्रचार-प्रसार करके करती है।

भारतीय संस्कृति : भारतीय संस्कृति की एक विशेषता यह है कि यह संस्कृति किसी जाति अथवा राष्ट्र तक सीमित नहीं। वैदिक ऋषि सारे विश्व को आर्य अर्थात् श्रेष्ठ बनाना चाहता है। वह अपने मंत्रों में संपूर्ण सृष्टि के लिए मंगल कामना करता है। मानव मात्र को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का प्रण दुहराता है। भारतीय संस्कृति अपने मूल रूप में मानवीय संस्कृति अथवा विश्व संस्कृति है।

भारतीय संस्कृति अध्यात्मक प्रधान संस्कृति है। भौतिक उन्नति को हमने त्याज्य नहीं माना परंतु उसे आत्मिक जीवन से ज्यादा महत्त्व नहीं दिया। साधु-महात्माओं की पर्ण कुटियों पर सम्राटों ने सदा ही सिर झुकाया है। संतोष एवं संयम को यहाँ सदा सम्मान मिला। ईश्वर में अटल विश्वास रखने वाले अधनंगे फकीरों ने यहाँ के जीव-जीवन को सम्राटों की अपेक्षा अधिक प्रभावित किया। यहाँ का भामाशाह तभी सम्मान का पात्र बना जब उसने देश-रक्षा के लिए अपना खजाना महाराणा प्रताप को समर्पित कर दिया। त्याग हमारी संस्कृति में सम्मान पाता रहा है।

भारतीय संस्कृति में नारी सदा ही सम्मान एवं पूजा की अधिकारिणी रही है। कृष्ण से पहले राधा और राम से पहले सीता का नाम केवल यहीं लिया जाता है। इसी देश में नारी को शक्ति के रूप में, ज्ञान के प्रकाश के रूप में, लक्ष्मी की उज्ज्वलता के रूप में देखा जा सकता है। विश्व की अन्य किसी भी संस्कृति में नारी शक्ति को ऐसा गौरवपूर्ण स्थान नहीं मिला।

निष्कर्ष : भारतीय संस्कृति उदार, ग्रहणशील एवं समय के साथ परिवर्तनशील रही है। अनेक विदेशी संस्कृतियाँ इससे टकराकर नष्ट हो गईं या इसी का अंग बन गईं। भारत तो मानव समुद्र है। यहाँ पर शक, कुशान, हूण, पठान, मुसलमान, पारसी, यहूदी, ईसाई सभी आए और सभी ने यहाँ की संस्कृति को पुष्ट किया। भारतीय संस्कृति इस अर्थ में समन्वित संस्कृति है। यहाँ तो सुंदर फूलों का गुलदस्ता है। सर्वधर्म स्वभाव हमारी संस्कृति की विशेषता है। सार रूप में कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति सही अर्थों में मानव संस्कृति है, उदार संस्कृति है, अध्यात्म-प्रदान आदर्श-परक संस्कृति है, मनुष्य में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा करने वाली संस्कृति है।

60. आज का विद्यार्थी – आज का भारत

भूमिका : आज का विद्यार्थी कल का नेता है। वही राष्ट्र का निर्माता है। वह देश की आशा का केन्द्र है। विद्यार्थी जीवन में वह जो सीखता है, वही बातें उसके भावी जीवन को नियंत्रण करती हैं। इस दृष्टि से उसे विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का पालन करना अनिवार्य हो जाता है।

विद्यार्थियों की समस्या : ‘विद्यार्थी’ शब्द विद्या + अर्थी के योग से बना है। इसका तात्पर्य है विद्या प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला। यों तो व्यक्ति सारे जीवन में कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है, किन्तु बाल्यकाल एवं युवावस्था का प्रारम्भिक काल अर्थात् जीवन के प्रथम 25 वर्ष का समय विद्यार्थी काल है। इस काल में विद्यार्थी जीवन की समस्त चिंताओं से मुक्त होकर विद्याध्ययन के प्रति समर्पित होता है। इस काल में गुरु का महत्त्व अत्यधिक है। सदगुरु की कृपा से ही विद्यार्थी जीवन के प्रति व्यावहारिक दृष्टि अपना सकते हैं अन्यथा मात्र पुस्तकीय ज्ञान उसे वास्तविक जीवन में कदम-कदम पर मुसीबतों का सामना कराता है। यही समय विद्या ग्रहण करने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। कवि ने कहा है :

यही तुम्हारा समयं ज्ञान संचय करने का।
संयम, शील, सुशील, सदाचारी बनने का॥
यह होगा संभव, अनुशासित बनने से।
माता-पिता गुरु की आज्ञा पालन करने से॥

वर्तमान समय उतना सरल नहीं रह गया है। आज विद्यार्थी वर्ग के सामने अनेक प्रकार की चुनौतियाँ हैं।

हमारे देश के छात्रों की अपनी समस्याएँ हैं, जो यहाँ की परिस्थितियों की ही देन हैं। यहाँ की परिस्थितियाँ दूसरे देश में और दूसरे देश की परिस्थितियाँ यहाँ पर नहीं हैं, दोनों में पूरी तरह समानता नहीं हो सकती। प्रत्येक देश में युवा असंतोष के कारणों का स्वरूप उस देश की पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यही कारण है कि छात्र विक्षोभ के कारण भी सभी देशों में अलग-अलग होते हैं। अगर हम विद्यार्थियों के विक्षोभ के कारणों की गहराई में जाएँ तो हमें कई कारण आसानी से मिल जाएँगे। इनमें प्रमुख कारण है- आर्थिक असमानता। गाँवों और शहरों में आर्थिक असमानता के अनेक रूप देखे जा सकते हैं। गाँवों के संपन्न किसान या व्यवसायी की संतान आदि अध्ययनशील है तो शहर में भी आसानी से शिक्षा अर्जित की जा सकती है।

पुत्र और पुत्री में भेद नहीं हो पाता, मगर गरीब के घर पुत्र को प्रथम वरीयता दी जाती है, भले ही पुत्री अधिक कर्मठ और मेधावी क्यों न हो। इससे उनके अंदर असंतोष की भावना पनपती है। संपन्न किसान की नालायक संतान शहर जाकर अपने को पैसे के बल पर शहरी तथा तथाकथित ‘मार्डन’ कहलाने में भी नहीं झिझकती और इन सबका राजनीतिक प्रभाव के कारण प्रवेश पाने में सफल छात्र पढ़ाई को महत्त्व नहीं देते और दूसरी तरफ एक साधारण परिवार से परन्तु मेधावी छात्र प्रवेश पाने में असफल होने पर असंतोष का शिकार हो जाता है। युवा बेरोजगारी भी एक प्रमुख कारण है, छात्र – असंतोष का। आज की शिक्षा-पद्धति का ढाँचा ऐसा कोई दावा नहीं कर पाता कि ऊँची डिग्री पाकर भी छात्र अपने लिए एक अदद नौकरी पा सकता है।

जब युवा वर्ग डिग्रियों का बंडल लिये एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर धक्के खाता फिरता है तो असंतोष और निराशा उसमें घर कर जाती है और इन सबसे उसमें असंतोष का लावा भर जाता है। यूँ तो युवा वर्ग की और भी अनेक समस्याएँ हैं, मगर सबसे ज्यादा आवश्यक है, उनका समाधान। भले ही वर्तमान सरकार ने इस विषय में कई कदम उठाए हैं, मगर इस विषय पर और भी गंभीरता से विचार करना आवश्यक है। शिक्षा पद्धति को भी रोजगारोन्मुख बनाना होगा। शिक्षा ऐसी हो जिससे आर्थिक असमानता, असंतोष दूर हो और युवाओं के चरित्र निर्माण में सहायक हो।

उपसंहार : आज के विद्यार्थी के सम्मुख देश में एकता की भावना उत्पन्न करने एवं नए समाज के निर्माण की चुनौतियाँ भी उपस्थित हैं। देश में आतंकवादी शक्तियाँ उभर रही हैं, उन्हें टक्कर देने का काम आज का विद्यार्थी वर्ग ही कर सकता है। यह एक बहुत बड़ी समस्या है। इसका हल बहुत आवश्यक है। आज के विद्यार्थी के सामने देश के नव निर्माण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की भी चुनौती है। विद्यार्थी से अपेक्षा की जाती है कि यह वर्ग देश को प्रगति की राह में आगे ले जाने के दायित्व का निर्वाह करेगा। उससे ऐसी अपेक्षा करना अनुचित नहीं है, पर असंतुष्ट विद्यार्थी भला देशोत्थान का काम क्या रुचिपूर्वक कर पाएगा? उसके असंतोष के कारण जानकर उनका निदान करना आवश्यक है।

61. प्रगति पथ पर अग्रसर भारत

भारत निरंतर प्रगति के पथ पर विकसित होता चला जा रहा है। आजाद भारत ने 70 वर्ष की यात्रा पूरी कर ली। अब उसकी योजनाओं का सुफल मिलना शुरू हो गया है। अपनी उपलब्धियों को हम अक्सर कमतर आँका करते हैं। गर्व की अनुभूति में वह ताकता है जो आम जन में आशाओं और उम्मीदों का नया संचार करके उन्हें सामान्य से असामान्य ऊँचाइयों तक पहुँचा देती है। गर्व की यह अनुभूति अवसाद और नाउम्मीदी के सबसे हताशा भरे दौर में भी एक अरब लोगों के आत्मबल को ऊँचा उठा सकती है। स्वतंत्र भारत की प्रगति पर गर्व करने लायक बहुत कुछ है।

सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हैरतअंगेज उपलब्धियाँ, अनिष्टकारी ताकतों से देश की सुरक्षा में लगी जाबांज फौज, कृषि में हरित क्रांति, फलता-फूलता स्वतंत्र मीडिया, महान् शैक्षणिक संस्थाएँ आदि। ये उपलब्धियाँ भारतीयता की भावना को बल प्रदान करते हुए मन में अहसास पैदा करती हैं कि ” अच्छे काम करो, अच्छा महसूस करो। ” ये वे चीजें हैं जो हमारा सीना गर्व से चौड़ा कर देती हैं, आँखों में खुशी के आँसू तक छलका देती हैं। भारत को प्रगति के पथ पर दर्शाने वाली कुछ प्रमुख उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं

अंतरिक्ष कार्यक्रम : अपने तीन दशक के अस्तित्व में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने एक दर्जन से अधिक आधुनिक उपग्रहों का निर्माण कर भारत को चुनिंदा देशों के अंतरिक्ष क्लब में शामिल कर दिया। इसकी शुरुआत 1975 में प्राचीन भारतीय खगोल वैज्ञानिक आर्यभट्ट के नाम वाले उपग्रह के प्रक्षेपण से हुई। ये उपग्रह संचार, मौसम का पूर्वानुमान, प्राकृतिक संसाधनों के नक्शे तैयार के मकसद से छोड़े गए थे। संगठन ने इनसेट (इंडियन सैटेलाइट सिस्टम) को घर-घर में प्रचारित कर दिया। आज दूरसंचार और टी. वी. प्रसारण का अधिकांश कार्य इनसेट के जरिए ही हो रहा है और भारत के प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को भी इसने गति दी है। अब भारत ऐसे उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए जरूरी विशालकाय रॉकेट बनाने में सक्षम हो गया है।

परमाणु शक्ति : आज भारत दुनिया का छठा परमाणु शक्ति वाला देश बन गया है। 11 मई 1998 को रक्षा अनुसंधान प्रमुख श्री ए. पी. जे. अब्दुल कलाम की अध्यक्षता में भारत ने तीन परमाणु विस्फोट किए। दुनिया और भारत का उदारपंथी खेमा भले ही बौखला उठा हो लेकिन इस टीम और उसके राजनैतिक आकाओं के लिए 1974 में किए गए परीक्षणों की तरह यह परीक्षण प्रतिरोध शक्ति देने के अलावा आत्मविश्वास बढ़ाने वाले थे। इनके चलते देश की छवि बदल गई।

भारतीय रेलवे : भारतीय रेलवे की 62,000 किमी. लंबी पटरियाँ, 7,000 स्टेशन हैं, 300 रेलवे यार्ड हैं और वह रोजाना 11,000 – ट्रेनें चलाती है और एक दिन में एक करोड़ से भी ज्यादा यात्रियों को ढोती है। दुनिया की सबसे बड़ी रेल सुरंग, दुनिया में सबसे अधिक ऊँचाई पर रेलवे स्टेशन, विश्व की चौथी सबसे बड़ी रेलवे – भारतीय रेलवे की विशेषता है।

भारतीय रेलवे देश का सबसे बड़ा रोजगारदाता है जिसके 16 लाख स्थायी कर्मचारी हैं।

फिल्मोद्योग : परी लोक की नीली पहाड़ियों और पश्चिमी घाट से परे कहीं भारतीय सिनेमा की फैक्टरी यानी बॉलीवुड स्थित है, जहाँ हर साल लगभग 300 फीचर फिल्में बनती हैं और हर साल 6000 करोड़ रुपये का राजस्व आता है, जिससे 20 लाख लोगों को रोजगार मिलता है।

सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति : सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत ने जबरदस्त तरक्की की है। विप्रो, टाटा कंसलटेंसी, इंफोसिस जैसी कंपनियों ने तेजी से विश्व के साथ कदम मिलाए। तकनीकी संस्थाओं को जोड़ा, परियोजनाएँ तैयार कीं। आज दुनियाभर में भारत की सॉफ्टवेयर कंपनियों के उत्पाद की धाक है।
उपर्युक्त उपलब्धियों को दर्शाते हुए हम स्वतंत्र भारत के उज्ज्वलमय भविष्य की कामना कर सकते हैं।

62. पहला सुख निरोगी काया
अथवा व्यायाम और स्वास्थ्य
“धर्मार्थकाममोक्षणाम् आरोग्यं मूलमुत्तमम् ”

अर्थ : महर्षि चरक ने लिखा है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों का मूल आधार स्वास्थ्य ही है। यह बात अपने में नितांत सत्य है। मानव जीवन की सफलता धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करने में ही निहित है, परन्तु सबकी आधारशिला मनुष्य का स्वास्थ्य है, उसका निरोग जीवन है। रुग्ण और अस्वस्थ मनुष्य न धर्मचिन्तन कर सकता है, न अर्थोपार्जन कर सकता है, न काम प्राप्ति कर सकता है, और न मानव जीवन के सबसे बड़े स्वार्थ मोक्ष की ही उपलब्धि कर सकता है क्योंकि इन सबका मूल आधार शरीर है, इसलिये कहा गया है कि: “शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम् !”

स्वास्थ्य रक्षा के लिये विद्वानों ने वैद्यों ने और शारीरिक विज्ञान वेत्ताओं ने अनेक साधन बताये हैं, जैसे- संतुलित भोजन, पौष्टिक पदार्थों का सेवन, शुद्ध जलवायु का सेवन, परिभ्रमण, संयम-नियम पूर्ण जीवन, स्वच्छता, विवेकशीलता, पवित्र भाषण, व्यायाम, निश्चिंतता इत्यादि। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये साधन स्वास्थ्य को समुन्नत करने के लिए रामबाण की तरह अमोघ हैं परन्तु इन सब का ‘गुरु’ व्यायाम है। व्यायाम के अभाव में स्वास्थ्यवर्धक पौष्टिक पदार्थ विष का काम करते हैं। व्यायाम के अभाव में पवित्र आचरण या विवेकशीलता भी अपना कोई प्रभाव नहीं दिखा सकती, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ विचार रहा करते हैं, जैसा किसी विद्वान् अंग्रेज ने कहा है- ” A sound mind in a sound body”. स्वास्थ्यहीन व्यक्ति अविवेकी विचारशून्य, मूर्ख, आलसी, अकर्मण्य, हठी, क्रोधी, झगड़ालू आदि सभी दुर्गुणों का भण्डार होता है। स्वास्थ्य का मूल मंत्र व्यायाम है।

व्यायाम के लाभ : व्यायाम से मनुष्य को असंख्य लाभ हैं। सबसे बड़ा लाभ यह है कि वह कभी भी वृद्ध नहीं होता और दीर्घजीवी होता है। जो व्यक्ति नियमित रूप से व्यायाम करता है उसे बुढ़ापा जल्दी नहीं घेरता, अंतिम समय तक शरीर में शक्ति बनी रहती है। आजकल तो 20-22 साल के बाद ही शरीर और मुँह की खाल पर झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं और मनुष्य वृद्धावस्था में प्रवेश करने लगता है। व्यायाम करने से हमारे उदर की पाचन क्रिया ठीक रहती है। भोजन पचने के बाद ही वह रक्त, मज्जा, माँस आदि में परिवर्तित होता है। शरीर का रक्तसंचार हमारे जीवन के लिये परम आवश्यक है। व्यायाम से शरीर में रक्तसंचार नियमित रहता है। इससे शरीर और मस्तिष्क की वृद्धि होती है। व्यायाम से मनुष्य का शरीर सुगठित और शक्ति सम्पन्न होता है। मनुष्य में आत्म-विश्वास और वीरता, आत्मनिर्भरता आदि गुणों का आविर्भाव होता है।

“वीरभोग्या वसुंधरा”

उचित समय-सारणी : व्यायाम का उचित समय प्रातः काल और सायंकाल है। प्रायः शौच इत्यादि से निवृत्त होकर बिना कुछ खाये, शरीर पर थोड़ी तेल मालिश करके व्यायाम करना चाहिये। व्यायाम करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि सभी अंग-प्रत्यंगों का व्यायाम हो, शरीर के कुछ ही अंगों पर जोर पड़ने से वे पुष्ट हो जाते हैं, परन्तु अन्य अंग कमजोर ही बने रहते हैं। इस तरह शरीर बेडौल हो जाता है। व्यायाम करते समय जब श्वास फूलने लगे तो व्यायाम करना बन्द कर देना चाहिए, अन्यथा शरीर की नसें टेढ़ी हो जाती हैं और शरीर बुरा लगने लगता है, जैसा कि अधिकांश पहलवानों को देखा जाता है, किसी की टाँगें टेढ़ी तो किसी के कान।

व्यायाम करते समय मुँह से श्वास कभी नहीं लेना चाहिये, सदैव नासिका से लेना चाहिये। व्यायाम के लिए उचित स्थान वह है, जहाँ शुद्ध वायु और प्रकाश हो और स्थान खुला हुआ हो क्योंकि फेफड़ों में शुद्ध वायु आने से उनमें शक्ति आती है, एक नवीन स्फूर्ति आती है और उनकी अशुद्ध वायु बाहर निकलती है। व्यायाम के तुरन्त पश्चात् कभी नहीं नहाना चाहिए, अन्यथा गठिया होने का भय होता है। व्यायाम के पश्चात् फिर थोड़ी तेल मालिश करनी चाहिए, जिससे शरीर की थकान दूर हो जाए।

फिर प्रसन्नतापूर्वक शुद्ध वायु में कुछ समय तक विश्राम और विचरण करना चाहिए। जब शरीर का पसीना सूख जाये और शरीर की थकान दूर हो जाए, तब स्नान करना चाहिये। इसके पश्चात् दूध आदि कुछ पौष्टिक पदार्थों का सेवन परम आवश्यक है। बिना पौष्टिक पदार्थों के व्यायाम से भी अधिक लाभ नहीं होता। व्यायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये। यदि प्रथम दिन ही आपने सौ दण्ड और सौ बैठकें कर लीं तो आप दूसरे दिन खाट से उठ भी नहीं सकते, लाभ के स्थान पर हानि होने की ही संभावना अधिक है।

63. सुबह की सैर : आज की आवश्यकता

भूमिका : सुबह की सैर अत्यंत आनंददायक कृत्य है। यह प्रकृति से साक्षात्कार का सुंदर तरीका है। यह दिनभर तरोताजा रहने का अत्यंत उत्तम उपाय है। आज की आवश्यकता को देखते ही यह स्वस्थ रहने का सबसे सरल उपाय माना जाता है।

उपयोगिता : सुबह हवा में ताजगी होती है। सुबह की नई बेला नई किरणों के साथ चारों तरफ अपनी किरणों से रोशनी फैलाती है जिसे पशु, पक्षी व लहलहाते वृक्ष उसका स्वागत करते नजर आते हैं। गाँवों में किसान सुबह की बेला देखकर खेतों की तरफ प्रस्थान करते हैं, तो दूसरी तरफ शहरी लोग सुबह होते ही अपने कार्य करने में लग जाते हैं लेकिन इन सब कार्यों के अलावा सुबह की सैर बच्चों, वृद्ध, युवा सभी के लिए उपयोगी व स्वास्थ्यवर्धक दवाई साबित होती है।

रोगों का निवारण : कुछ आलसी लोग जो सुबह समय पर नहीं उठते, उन्हें हमेशा मानसिक तनाव व अनेक बीमारियाँ घेर लेती हैं जिसमें अधिकतर लोग उच्च रक्तचाप, मधुमेह आदि संक्रामक रोगों से घिर जाते हैं। अगर व्यक्ति आलस्य को भगाकर थोड़ा परिश्रम करें तो शरीर स्फूर्तिदायक बनता है तथा उम्र में भी वृद्धि होती नजर आती है।

कुछ रहस्य है सुबह जागने में। शरीर की अनेक व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं, पेट साफ रहता है तथा चित्त में भी प्रसन्नता आती है। सैर से भूख भी अच्छी लगती है। फेफड़ों में ताजी हवा का प्रवेश होता है। शरीर का अच्छा-खासा व्यायाम हो जाता है। दिन भर मन प्रसन्न रहता है। हर काम में आनंद आता है। काम करने में थकावट कम होती है। व्यक्ति की कार्यक्षमता बढ़ती है तो उसकी आमदनी में भी बढ़ोत्तरी होती है।

मनोहारी सुबह का सुख : सुबह की सैर को निकले तो प्रकृति के नए-नए रूप में दर्शन हुए। चिड़ियों ने कलरव करते हुए लोगों का स्वागत किया। गर्मियों में ठंडी हवा के झोंकों से तन-मन पुलकित हो उठा। आसमान में उगते सूर्य को नमस्कार करके लोगों ने शक्ति के अजस्र स्रोत को धन्यवाद दिया। बागों में पहुँचे तो फूलों पर मँडराती तितलियों के दर्शन हुए। कोयल ने मधुर तान छेड़ी तो कर्णप्रिय ध्वनि से मन गद्गद होने लगा। कतारों में पेड़-पौधों को देखकर किसे हर्ष न हुआ होगा। हरी-भरी मखमली दूब पर पाँव रखकर किसने सुख न पाया होगा। फूलों की खुशबू से किसकी साँसों में ताजगी न आई होगी।

थोड़ा चले, थोड़ी दौड़ लगा ली। कुछ ने खुली जगह पर हल्की कसरत कर ली। पहलवानों ने मुगदर उठा लिया। बच्चों के हाथों में बड़ी सी गेंद थी। अतिवृद्ध लाठियों के सहारे पग बढ़ा रहे थे। खिलाड़ी पोशाकें पहने अपनी फिटनेस बढ़ाने में व्यस्त थे। कुछ स्थूलकाय लोगों ने अपना मोटापा घटाने की ठान ली थी। गृहणियों ने सोचा दिनभर घर में ही रहना है। कुछ देर सैर कर ली जाए। कुछ तो एक कदम आगे बढ़कर योगाभ्यास में संलग्न हो गए। प्रातः काल का हर कोई अपने-अपने ढंग से लाभ उठाने लगा।

उपसंहार : आज के प्रदूषण वाले शहरों में जिसमें हर व्यक्ति रोगों से घिरा हुआ है, इसमें सुबह की सैर बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।

64. महँगाई की समस्या

भूमिका : महँगाई की समस्या आज विकट हो गयी है। कुछ धनाढ्यों को छोड़कर समाज का प्रत्येक वर्ग इससे प्रभावित है। जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति में ही सबकी शक्तियाँ चुकी जा रही हैं। जब जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने में ही व्यक्ति का ध्यान केन्द्रित हो, तो वह जीवन के अन्य कलात्मक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, बौद्धिक, सौंदर्यबोध आदि ऐसे विविध पक्षों का कैसे स्पर्श कर सकता है? उसका जीवन तो मानो आर्थिक समस्याओं से जूझने का मात्र एक साधन हो गया है। व्यक्ति के जीवन की अर्थवत्ता महँगाई की समस्या से संघर्ष करने में ही परिलक्षित होने लगी है।

कमरतोड़ महँगाई के कारण समाज के बहुसंख्यक लोगों का अन्य ज्वलन्त समस्याओं की ओर ध्यान ही नहीं जाता। इनकी समस्त शारीरिक तथा बौद्धिक शक्तियाँ महँगाई की समस्या से आक्रांत हैं। इनके जीवन में रचनात्मक कार्यों का कोई स्थान हो ही नहीं सकता। धनिक वर्ग को महँगाई से कम जूझना पड़ता है किन्तु उसकी सभी शक्तियाँ किसी प्रकार से धन जोड़ने में ही लगी रहती हैं और यही वर्ग महँगाई की समस्या का निर्माण करने में बहुत कुछ उत्तरदायी है।

कहने का तात्पर्य यह है कि महँगाई ने कुछ को छोड़कर देश की अधिकांश आबादी के दिलो-दिमाग पर प्रभाव डाला है और इसका परिणम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई पड़ रहा है। मनुष्य का जीवन केवल पेट की समस्या से संघर्षरत होने तक ही यदि सीमित रहता है, तो उसकी भूमिका समाज के विभिन्न क्षेत्रों में मानवता के उन्नत स्तर की दृष्टि से दिवास्वप्न हो जाएगी। अतः इस समस्या के कारण पर ध्यान देना होगा।

घातक परिणाम : जमाखोरी तथा मुनाफाखोरी का जो सबसे बड़ा घातक परिणाम देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ा है वह है काले धन का समानान्तर अर्थव्यवस्था के रूप में अस्तित्व। ऐसा अनुमान है कि काले धन की मात्रा सकल घरेलू उत्पाद का लगभग पचास प्रतिशत है। भावों को बढ़ाने में इस काले धन की सीधी भूमिका है। काले धन वाले कालाबाजारी के धंधों में लगे हैं। महँगाई बढ़ाने में काला धन अपनी घिनौनी भूमिका अदा कर रहा है।

इस काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था को चलाने में राजनीतिज्ञों का बहुत बड़ा हाथ है। सारी चुनाव प्रक्रिया काले धन पर आधारित है। चुनाव की प्रक्रिया के महँगे होने से पैसे देने वाले व्यक्ति का महत्त्व बढ़ जाता है और पैसा लेने वाले व्यक्ति भ्रष्टाचार को रोकने की नैतिक शक्ति से रहित होकर असहाय रूप में सब प्रकार के काले धंधों को पनपने देने के लिए बाध्य होता है। इससे भी वस्तुओं के भाव बढ़ते हैं। राजनीतिज्ञों का भ्रष्ट होना भी महँगाई को बढ़ाने में सहायक है।

कारण : जनसंख्या वृद्धि भी महँगाई बढ़ाने में एक प्रमुख कारक है। देश में उपलब्ध साधन जनसंख्या की वृद्धि के अनुपात में कम हैं। जनसंख्या में वृद्धि को रोकने के अथक प्रयासों के बावजूद आबादी बढ़ती जा रही है। आज देश की आबादी एक अरब को पार कर गयी है। इस आबादी के लिए रोटी, कपड़ा तथा मकान जुटाना कितना महँगा तथा कठिन होगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। इन सुझावों के अनुरूप आचरण करने से महँगाई में काफी कमी लायी जा सकती है :

1. राष्ट्रीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि करना। इसके लिए कर्मचारियों के मन में प्रेरणा जगाना आवश्यक होगा। उद्योगपतियों को कर्मचारियों के हितों का ध्यान रखते हुए व्यवहार करना होगा तभी उत्पादन बढ़ सकेगा और वस्तुओं की पर्याप्त उपलब्धि के परिणामस्वरूप कीमतें कम होंगी और महँगाई कम होगी।

2. जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए देश में जागृति उत्पन्न करनी होगी। सरकारी तथा निजी दोनों स्तरों पर इसके लिए प्रयत्न करने होंगे।

3. चुनावी प्रक्रिया को कम खर्चीला बनाने के लिए चुनाव व्यवस्था में सुधार करने होंगे। चुनाव प्रक्रिया बहुत महँगी है। कोई भी राजनीतिज्ञ भ्रष्टाचारी हथकंडे अपनाये बिना चुनाव नहीं जीत सकता है। काले धन की महिमा इस दृष्टि से सर्वविदित है। काले धन से लड़ा गया चुनाव नैतिक मूल्यों के उत्थान का कारण नहीं बन सकता।

निष्कर्ष : महँगाई एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या है। संसार में जो कुछ होता है उससे हम अप्रभावित नहीं रह सकते। फिर भी अपने देश में बने कारणों को हम दूर कर सकते हैं, जिनके आधार पर हमारी अर्थव्यवस्था चरमराती है और महँगाई बढ़ती है।

65. कंप्यूटर : जीवन की अनिवार्यता

भूमिका : आज के युग को ‘कंप्यूटर युग’ कहना अत्युक्ति न होगा। विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे-ऐसे आविष्कार हो चुके हैं कि मनुष्य उन्हें देखकर दाँतों तले उंगली दबा लेता है। कंप्यूटर का आविष्कार वैज्ञानिक चमत्कारों में एक ऐसा ही चमत्कार है जिसने मानव के जीवन को सरल एवं सुखद बना दिया है। भारत समेत दुनिया के अनेक देशों के कंप्यूटर अपने विकास की कई अवस्थाओं से गुजरकर अपने निर्माण के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गए हैं।

कंप्यूटर ने मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में कंप्यूटर संबंधी शिक्षण भी दिया जा रहा है। सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर कंप्यूटर कोर्स चल रहे हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, फ्रांस जैसे विकसित देशों

में कंप्यूटर सॉफ्टवेयर कंपनियों जैसे इन्फोसिस, विप्रो, एच.सी.एल., निट आदि ने कंप्यूटर के क्षेत्र में पूरे विश्व में नाम कमाया है। कंप्यूटर की विभिन्न भाषाएँ हैं। जैसे लॉटस, कोबोल, पास्कल, बेसिक आदि।
आधुनिक उपयोग : हमारे आर्थिक, वैज्ञानिक, युद्ध, ज्योतिष, मौसम, इंजीनियरिंग आदि सभी क्षेत्रों में कंप्यूटर का प्रयोग हो रहा है। बैंकों तथा विभिन्न कम्पनियों के खातों का संचालन और हिसाब-किताब में इसका खुलकर प्रयोग किया जा रहा है। अमेरिका और इराक के बीच में हुए युद्ध में कंप्यूटरों का खूब इस्तेमाल किया गया। इसी प्रकार तोपों, वायुयानों समुद्री जहाजों की पनडुब्बियों के संचालन में भी इनका खुला प्रयोग किया जा रहा है। बड़े-बड़े कारखानों में मशीनों को चलाने में कंप्यूटर की सहायता ली जा रही है।

इस क्षेत्र में अमेरिका ने आशातीत प्रगति की है। कलाकार एवं चित्रकार भी अब कंप्यूटर का प्रयोग करने लगे हैं। अब वे रंग, कैनवस एवं कूचियों के अधीन नहीं रहे। संगीत तथा गीतों की रिकार्डिंग में भी कंप्यूटर का प्रयोग होने लगा है। खेलों के क्षेत्र में भी कंप्यूटर बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ है। गृहिणियों के लिए कंप्यूटरों का प्रयोग बहुत लाभकारी है। यूरोपीय महिलाएँ अपने अधिकांश गृह कार्य इन्हीं की सहायता से कर रही हैं। रेल और वायुयान यात्रा के टिकटों के आरक्षण की सुविधा कंप्यूटर से सुलभ हो गयी है। भारत में भी इसका प्रयोग खुलकर होने लगा है।

भारत के अधिकतर रेलवे आरक्षण केंद्र कंप्यूटरीकृत हैं। मानव जीवन को इसने एक नया मोड़ दिया है। भारत जैसा विकासशील राष्ट्र भी कंप्यूटर के क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है। सन् 2001-2002 में भारत ने 40,000 करोड़ रुपये का सॉफ्टवेयर निर्यात किया। भारत के कुल निर्यात में सॉफ्टवेयर निर्यात का महत्त्वपूर्ण स्थान पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में कंप्यूटर ने क्रांति ही ला दी है। अब पुस्तकें कंप्यूटर की सहायता से शीघ्र और आकर्षक रूप में छापी जाने लगी हैं। पुस्तकों के आवरण पृष्ठ को भी कंप्यूटर नई तकनीक से तैयार कर रहा है।

निष्कर्ष : इस प्रकार हम देखते हैं कि कंप्यूटर नित्य नए रूप से अवतरित हो रहा है। इसमें समयानुकूल परिवर्तन आ रहे हैं और इसे बहुउपयोगी रूप प्रदान किया जा रहा है। अब तो घर-घर में कंप्यूटर देखे जा सकते हैं।

66. वर्तमान भारतीय राजनीति में युवाओं की भूमिका

भूमिका : आज की भारतीय राजनीति में युवाओं की भूमिका निरंतर बढ़ती जा रही है। सभी पाटियों में युवाओं को उचित प्रतिनिधित्व देने की माँग जोर-शोर से उठ रही है। पुरानी पीढ़ी के राजनेताओं की सोच भी पुरानी है। उससे पीछा छुड़ाने का एक ही तरीका है, युवाओं को सक्रिय राजनीति में लाया जाए। जब समाज निर्माण के संदर्भ में युवा पीढ़ी की भूमिका की चर्चा की जाती है तो स्वभावत: अनेक प्रश्न उत्पन्न होने लगते हैं। इनमें महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि युवा पीढ़ी में किन व्यक्तियों को रखा जाए। आज सामान्य रूप से युवा पीढ़ी के अंतर्गत विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक-युवतियों को लिया जाता है, किंतु युवा पीढ़ी के अंतर्गत उन युवक-युवतियों को भी परिगणित किया जा सकता है जो स्कूल-कॉलेजों की अपेक्षा खेतों. कारखानों, मिलों, फैक्ट्रियों आदि में कार्यरत हैं।

राजनीति में प्रवेश : आशय यह है कि छात्र – छात्राओं के अतिरिक्त युवक-युवतियों को भी इसी पीढ़ी में लिया जाता है। वैसे युवा अथवा वृद्ध होना जीवन के बीते हुए वर्षों पर निर्भर नहीं करता। ऐसे अनेक प्रौढ़ अथवा वृद्ध व्यक्तियों को देखा जा सकता है जिनमें युवकों की अपेक्षा अधिक उत्साह, उल्लास, ऊर्जा है जो आलस्य व निष्क्रियता से ग्रस्त कहे जा सकते हैं। यहाँ हम यही कहना चाहते हैं कि यौवन व वृद्धावस्था का प्रत्यक्ष संबंध व्यक्ति की मानसिकता के साथ होता है। यौवन को जीवन के उपवन का वसंत कहा जाता है। जिस प्रकार वसंत ऋतु पर संपूर्ण प्रकृति के भीतर हर्षोल्लास की तरंगें उठने लगती हैं. रूप या सौंदर्य की अनेक छवियाँ अनायास प्रस्फुटित होने लगती हैं, उसी प्रकार यौवन आने पर व्यक्ति के जीवन में एक प्रकार की आशा, कर्म-प्रेरणा तथा निर्माणकारी क्षमता अंकुरित होने लगती है।

भ्रष्ट राजनीति : आज की राजनीति में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है। यदि राजनीति में युवाओं की भागीदारी बढ़ती है तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकेगा। युवा उत्साही भी होते हैं, बस उन्हें पुराने नेताओं के अनुभव का लाभ उठाना है।

नई पीढ़ी समाज के भीतर जहाँ परिवर्तन के हर नए मोड़ का स्वागत करते समय अतिरिक्त भावुकता का परिचय देती है, वहाँ पुरानी पीढ़ी अपनी सीमाओं के कारण यथास्थितिवादी, अपरिवर्तनशील तथा पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होती है। दो पीढ़ियों का यह वैचारिक मतान्तर प्रायः प्रत्येक युग में रहा है। प्रकृति का यह स्वाभाविक नियम है कि वृक्ष की शाखाओं पर लहराने वाले पत्ते पतझड़ आने पर झर जाते हैं, उनके स्थान पर नए पत्ते प्रकृति की शोभा और सज्जा करने लगते हैं। बाह्य प्रकृति का यह नियम मानव के भीतर भी देखा जा सकता है। अभिप्राय यह है कि नवीन और पुरातन एक-दूसरे के विलोम न होकर परस्पर पूरक हुआ करते हैं।

उपसंहार : यह हर्ष का विषय है कि वर्तमान संसद तथा विधान सभाओं में युवाओं की भागीदारी बढ़ रही है। अनेक युवा मंत्री हैं। वे अपने दायित्व का निर्वाह कुशलतापूर्वक कर रहे हैं। वर्तमान केंद्रीय सरकार के मंत्रिमंडल में युवा मंत्रियों को शामिल किया गया है। उन्हें महत्त्वपूर्ण विभागों का उत्तरदायित्व सौंपकर उन पर विश्वास व्यक्त किया गया है। अनेक युवा मंत्री बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। वे देश के विकास को नई दिशा प्रदान कर रहे हैं। इस प्रकार वर्तमान भारतीय राजनीति में युवाओं की भूमिका अत्यंत प्रशंसनीय हो रही है। वे सक्रिय भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। यह एक शुभ संकेत है।

67. युवा पीढ़ी और देश का भविष्य

अर्थ : जब समाज निर्माण के संदर्भ मे युवा पीढ़ी की भूमिका की चर्चा की जाती है तो स्वभावतः अनेक प्रश्न उत्पन्न होने लगते हैं। इनमें महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि युवा पीढ़ी में किन व्यक्तियों को रखा जाए। आज सामान्य रूप से युवा पीढ़ी के अंतर्गत विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक-युवतियों को लिया जाता है, किन्तु युवा पीढ़ी के अन्तर्गत उन युवक-युवतियों को भी परिगणित किया जा सकता है जो स्कूल-कॉलेजों की अपेक्षा खेतों, कारखानों, मिलों, फैक्ट्रियों आदि में कार्यरत हैं।

आशय यह है कि छात्र-छात्राओं के अतिरिक्त युवक-युवतियों को भी इसी पीढ़ी में लिया जाता है। वैसे युवा अथवा वृद्ध होना जीवन के बीते हुए वर्षों पर निर्भर नहीं करता। ऐसे अनेक प्रौढ़ अथवा वृद्ध व्यक्तियों को देखा जा सकता है जिनमें युवकों की अपेक्षा अधिक उत्साह, उल्लास, ऊर्जा है जो आलस्य व निष्क्रियता से ग्रस्त कहे जा सकते हैं। यहाँ हम यही कहना चाहते हैं कि यौवन व वृद्धावस्था का प्रत्यक्ष संबंध व्यक्ति की मानसिकता के साथ होता है। यौवन को जीवन के उपवन का वसन्त कहा जाता है। जिस प्रकार वसन्त ऋतु आने पर संपूर्ण प्रकृति के भीतर हषोल्लास की तरंगें उठने लगती हैं, रूप या सौंदर्य की अनेक छवियाँ अनायास प्रस्फुटित होने लगती हैं, उसी प्रकार यौवन आने पर व्यक्ति के जीवन में एक प्रकार की आशा, अभिलाषा, कर्म-प्रेरणा तथा निर्माणकारी क्षमता अंकुरित होने लगती है।

नई एवं पुरानी पीढ़ियों का तुलनात्मक अध्ययन : जहाँ नई पीढ़ी जीवन के अनेक क्षेत्रों में अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी का स्वाभाविक रूप से अनुकरण करती है, वहाँ अनेक क्षेत्रों में उसका पुरानी पीढ़ी के साथ मतभेद तथा कभी-कभी संघर्ष भी देखने को मिलता है। दोनों पीढ़ियाँ अपने-अपने स्थान पर स्वयं को अधिक गुणवान् और समर्थ समझती हैं। इसका परिणाम होता है दोनों पीढ़ियों में पारस्परिक संघर्ष।

नई पीढ़ी समाज के भीतर जहाँ परिवर्तन के हर नए मोड़ का स्वागत करते समय अतिरिक्त भावुकता का परिचय देती है, वहाँ पुरानी पीढ़ी अपनी सीमाओं के कारण यथास्थितिवादी, अपरिवर्तनशील तथा पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होती है। दो पीढ़ियों का यह वैचारिक मतान्तर प्रायः प्रत्येक युग में रहा है। प्रकृति का यह स्वाभाविक नियम है कि वृक्ष की शाखाओं पर लहराने वाले पत्ते पतझड़ आने पर झर जाते हैं, उनके स्थान पर नए पत्ते प्रकृति की शोभा और सज्जा करने लगते हैं। बाह्य प्रकृति का यह नियम मानव के भीतर भी देखा जा सकता है। अभिप्राय यह है कि नवीन और पुरातन एक-दूसरे के विलोम न होकर परस्पर पूरक हुआ करते हैं।

युवा पीढ़ी की अब तक की भूमिका : मध्य युग तक का इतिहास साक्षी है कि इन दोनों पीढ़ियों में सहअस्तित्व व सद्भाव बराबर बना रहा है। जैसे-जैसे आधुनिकता, विज्ञान पर आश्रित भौतिकवाद तथा पाश्चात्य जीवन-मूल्यों की छाप भारतीय जीवन पर पड़ती गई, वैसे-वैसे इन दोनों पीढ़ियों के मध्य होने वाली स्थिति का लाभ राजनीति ने सदा ही उठाया है। विगत शताब्दी में राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर घटित होने वाली घटनाएँ यही प्रमाणित करती हैं।

एक समय था जबकि देश की प्रत्येक प्रगति, चाहे वह धार्मिक हो या आर्थिक, चाहे वह सामाजिक हो या वैदेशिक, सभी राजनीति के अन्तर्गत आती थी, परन्तु आज के युग में राजनीति शब्द का अर्थ इतना संकुचित हो गया है कि अब इसका अर्थ केवल वर्तमान सरकार का विरोध करना ही समझा जाता है।

भारतवर्ष एक गणतंत्र देश है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि देश की नीति का संचालन करते हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति शासन में अपना प्रतिनिधित्व चाहता है। अपने स्वार्थ में दूसरों को बहकाने का प्रयास करता है। यह गंदी दलबंदी ही आज की राजनीति है, जिससे दूर रहने के लिये विद्यार्थियों से कहा जाता है। विद्यार्थियों के पास उत्साह है, उमंग है, परंतु साथ-साथ अनुभवहीनता के कारण जब शासन उनके विरुद्ध कार्यवाही करता है, तब उस समय उन पथभ्रष्ट करने वाले नेताओं के दर्शन भी नहीं होते। जनता कहती है कि स्वतंत्रता संग्राम में विद्यार्थियों को भाग लेने के लिये प्रेरणा देने वाले आज उन्हें राजनीति से दूर रहने के लिये क्यों कहते हैं ? निःसंदेह विद्यार्थियों को राजनीति में भाग लेने का अधिकार है, पर देश की रक्षा के लिये, उनके सम्मान एवं संवर्धन के लिये, न कि शासन के कार्य में विघ्न डालने और देश में अशांति फैलाने के लिये।

निष्कर्ष : विद्यार्थी का परम कर्त्तव्य विद्याध्ययन ही है, इसमें दो मत नहीं हो सकते। उन्हें अपनी पूरी शक्ति ज्ञानार्जन में ही लगानी चाहिये। अब भारतवर्ष स्वतंत्र है। अपने देश की सर्वांगीण उन्नति के लिये एवं पूर्ण समृद्धि के लिये हमें अभी बहुत प्रयत्न करने हैं। देश को योग्य इंजीनियरों, विद्वान डाक्टरों, साहित्य मर्मज्ञ विद्वानों, वैज्ञानिकों और व्यापारियों की आवश्यकता है, इसकी पूर्ति विद्यार्थी ही करेंगे।

68. सर्वशिक्षा अभियान

शिक्षा के बिना कोई भी बनता नहीं सत्पात्र है।
इसे पाने के लिए कुछ भी प्रयास करना मात्र है॥
सबसे पहला कर्त्तव्य है, शिक्षा बढ़ाना देश में।
शिक्षा के बिना ही हैं हम सभी क्लेश में।

अर्थ : मनुष्य सुख-शांति के लिए जन्म से ही प्रयास करता रहता है। शिक्षा के द्वारा उसे मानसिक शक्ति प्राप्ति होती रही है। समाज का शिष्ट एवं सभ्य नागरिक बनाने में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

व्यक्ति की सच्ची स्वतंत्रता निरक्षरता में नहीं, साक्षरता में है इसलिए हमारे देश के नेताओं ने देश की स्वतंत्रता से भी काफी पहले राष्ट्रीय विकास के माध्यम के रूप में शिक्षा के महत्त्व को अनुभव कर लिया था। वे यह जान चुके थे कि नैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान के लिए शिक्षा आवश्यक है। तभी गांधी जी ने बुनियादी शिक्षा की बात उठाई थी। हमारा नारा होना चाहिए था –

“कदम से कदम मिलाना है, सबको साक्षर बनाना है।
सपना साकार कर दिखाना है, बापू के सपनों का भारत बनाना है।।”

साक्षरता प्रतीक है – स्वतंत्रता एवं विकास की। शिक्षा ही गुलामी की जंजीरों तथा शोषण से हमारी रक्षा करती है। जब कोई व्यक्ति सूदखोर जमींदार को पढ़ने व समझने लगता है, जब एक खाली व कोरे कागज पर अँगूठा लगाने से इंकार कर देता है – तब होता है एक विस्फोट; जिसकी गूँज व लौ दूर-दूर तक महसूस की जा सकती है। फिर जन्म होता है – एक नए मानव का, एक साक्षर मानव का, एक स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर मानव का। इसके साथ ही समाज लेता है-एक नई अँगड़ाई, एक नई दिशा, एक नया मोड़। इसलिए-

“पहले – सा जीवन नहीं लाचार, बहुत आगे बढ़ गया है संसार।
शिक्षा में हमें बना के समर्थ, खोले सभी प्रगति के द्वारा॥”

निष्कर्ष : सभी को शिक्षा देने के आंदोलन में युवावर्ग एवं सेवानिवृत्त लोगों को बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए। इनका समाज के प्रति दायित्व भी है और उनहें पूरा करना भी चाहिए। सभी शिक्षित होंगे तो भारत शिक्षित बन जाएगा और तरक्की के रास्ते पर बढ़ चलेगा। इसी में हम सभी की भलाई है।

69. आज के विद्यार्थी के सामने चुनौतियाँ

अर्थ : आज का विद्यार्थी कल का नेता है। वही राष्ट्र का निर्माता है। वह देश की आशा का केन्द्र है। विद्यार्थी जीवन में वह जो सीखता है, वही बातें उसके भावी जीवन को नियंत्रण करती हैं। इस दृष्टि से उसे विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का पालन करना अनिवार्य हो जाता है।

‘विद्यार्थी’ शब्द विद्या + अर्थी के योग से बना है। इसका तात्पर्य है विद्या प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला। यों तो व्यक्ति सारे जीवन में कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है, किंतु बाल्यकाल एवं युवावस्था का प्रारम्भिक काल अर्थात् जीवन के प्रथम 25 वर्ष का समय विद्यार्थी काल है। इस काल में विद्यार्थी जीवन की समस्या चिंताओं से मुक्त होकर विद्याध्ययन के प्रति समर्पित होता है। इस काल में गुरु का महत्त्व अत्यधिक है। सद्गुरु की कृपा से ही विद्यार्थी जीवन के प्रति व्यावहारिक दृष्टि अपना सकते हैं अन्यथा मात्र पुस्तकीय ज्ञान उसे वास्तविक जीवन में कदम-कदम पर मुसीबतों का सामना कराता है यही समय विद्या ग्रहण करने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। कवि ने कहा है-

यही तुम्हारा समय, ज्ञान संचय करने का। संयम, शील, सुशील, सदाचारी बनने का॥
यह होगा संभव, अनुशासित बनने से। माता-पिता गुरु की आज्ञा पालन करने से॥

समस्याएँ : वर्तमान समय उतना सरल नहीं रह गया है विद्यार्थी वर्ग के सामने अनेक प्रकार की चुनौतियाँ हैं। हमारे देश के छात्रों की अपनी समस्याएँ हैं, जो यहाँ की परिस्थितियों की ही देन हैं। यहाँ की परिस्थितियाँ दूसरे देश में और दूसरे देश की परिस्थितियाँ यहाँ पर नहीं हैं, दोनों में पूरी तरह समानता नहीं हो सकती। प्रत्येक देश के युवा असंतोष के कारणों का स्वरूप उस देश की पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता हैं यही कारण है कि छात्र विक्षोभ के कारण भी सभी देशों में अलग-अलग होते हैं।

अगर हम विद्यार्थियों के विक्षोभ के कारणों की गहराई में जाएं तो हमें कई कारण आसानी से मिल जाएँगे। इनमें प्रमुख कारण है- आर्थिक असमानता। गाँवों और शहरों में आर्थिक असमानता के अनेक रूप देखे जा सकते हैं। गाँवों के संपन्न किसान या व्यवसायी की संतान यदि अध्ययनशील है तो शहर में भी आसानी से शिक्षा अर्जित की जा सकती है। पुत्र और पुत्री में भेद नहीं हो पाता, मगर गरीब के घर पुत्र को प्रथम वरीयता दी जाती है, भले ही पुत्री अधिक कर्मठ और मेधावी क्यों न हो। इससे उनके अंदर असंतोष की भावना पनपती है। संपन्न किसान की नालायक संतान शहर जाकर अपने को पैसे के बल पर शहरी तथा तथाकथित ‘माडर्न’ कहलाने में भी नहीं झिझकती। और इन सबका राजनीतिक प्रभाव के कारण प्रवेश पाने में सफल छात्र पढ़ाई को महत्त्व नहीं देते और दूसरी तरफ एक साधारण परिवार से परंतु मेधावी छात्र प्रवेश पाने में असफल होने पर असंतोष का शिकार हो जाता है।

कारण : युवा बेरोजगारी भी एक प्रमुख कारण है, छात्र- असंतोष का। आज की शिक्षा-पद्धति का ढाँचा ऐसा कोई दावा नहीं कर पाता कि ऊँची डिग्री पाकर भी छात्र अपने लिए एक अदद नौकरी पा सकता है। जब युवा वर्ग डिग्रियों का बंडल लिये एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर धक्के खाता फिरता है तो असंतोष और निराशा उसमें घर कर जाती है और इन सबसे उसमें असंतोष का लावा भर जाता है। यूँ तो युवा वर्ग की और भी अनेक समस्याएँ हैं, मगर सबसे ज्यादा आवश्यक है, उनका समाधान। भले ही वर्तमान सरकार ने इस विषय में कई कदम उठाए हैं, मगर इस विषय पर और भी गंभीरता से विचार करना आवश्यक है।

शिक्षा पद्धति को भी रोजगारोन्मुख बनाना होगा। शिक्षा ऐसी हो जिससे आर्थिक असमानता, असंतोष दूर हो और युवाओं के चरित्र निर्माण में सहायक हो। उपसंहार : आज के विद्यार्थी के सम्मुख देश में एकता की भावना उत्पन्न करने एवं नए समाज के निर्माण की चुनौतियाँ भी उपस्थित हैं। देश में आतंकवादी शक्तियाँ उभर रही हैं उन्हें टक्कर देने का काम आज का विद्यार्थी वर्ग ही कर सकता है। यह एक बहुत बड़ी समस्या है। इसका हल बहुत आवश्यक है। आज के विद्यार्थी के सामने देश के नव-निर्माण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की भी चुनौती है। विद्यार्थी से अपेक्षा की जाती है कि यह वर्ग देश को प्रगति की राह में आगे ले जाने के दायित्व का निर्वाह करेगा। उससे ऐसी अपेक्षा करना अनुचित नहीं है, पर असंतुष्ट विद्यार्थी भला देशोत्थान का काम क्या रुचिपूर्वक कर पाएगा? उसके असंतोष के कारणों को जानकर उनका निदान करना आवश्यक है।

70. भ्रष्टाचार : एक ज्वलंत समस्या

भूमिका : ‘भ्रष्टाचार’ शब्द की रचना दो शब्दों के मेल से हुई है- ‘भ्रष्ट’ तथा ‘आचार’। ‘भ्रष्ट’ के अर्थ से तो सभी लोग परिचित हैं और ‘आचार’ शब्द का अर्थ है- ‘आचरण’ या ‘व्यवहार’। इस तरह ‘भ्रष्टाचार’ वह आचरण है जो भ्रष्ट है, जो अच्छे आचरण या सदाचार का विरोधी है। हर समाज यही चाहता है कि उसके सदस्य सदाचारी हों, अच्छे-अच्छे कार्य करें, समाज ने जिन जीवनमूल्यों की स्थापना की है। सभी लोग उनका पालन करें, एक-दूसरे की मदद करें तथा एक-दूसरे के हित की चिंता करें। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि समाजसम्मत आचरण का अनुगमन करें। समाज या लोकसम्मत आचरण का अनुसरण करना ही ‘सदाचार’ है तथा इस लोकसम्मत आचरण से च्युत होना ही भ्रष्टाचार है।

भ्रष्टाचार का क्षेत्र : जिस तरह सदाचार में अनेक अच्छी बातों की हम संभावना करते हैं उसी तरह भ्रष्टाचार का क्षेत्र भी काफी विस्तृत है। बेईमानी, चोरी, तस्करी, पक्षपात, विश्वासघात, जमाखोरी, अनैतिक धन-संग्रह, भाई-भतीजावाद, खाने-पीने की चीजों में मिलावट, अधिक मुनाफा कमाना, धोखेबाजी, सट्टा व्यापार, देश के प्रति गद्दारी, अधिकारों का दुरुपयोग, काला धन आदि तो भ्रष्टाचार के अंतर्गत आते ही हैं। इनके अलावा किसी भी व्यक्ति को जानबूझकर पीड़ित करना भी भ्रष्ट आचरण ही है।

भ्रष्टाचार और सदाचार में अंतर : मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते हुए उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह सामाजिक नियमों, व्यवस्थाओं, परंपराओं का अनुसरण करते हुए मर्यादित आचरण करे परंतु जब मानव मन पर उसकी स्वार्थ एवं लालच से भरी प्रवृत्तियाँ हावी हो जाती हैं तब वह मर्यादित आचरण को भूलकर स्वेच्छाचारी हो जाता है और इसी स्वेच्छाचार से जन्म लेता है – भ्रष्टाचार। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति अपनी अपेक्षाओं और स्वार्थों के तंबू को आवश्यकता से अधिक फैला लेता है और उनको पूरा करने के लिए अनैतिक और अवैध रास्तों को अपनाता है तभी समाज में भ्रष्टाचार का उदय होता है और जब एक व्यक्ति के इस तरह के आचरण को देखकर अन्य लोग भी उसी तरह का आचरण करने लगते हैं तो सारा समाज ही भ्रष्ट हो जाता है। हमारा देश ही नहीं, भ्रष्टाचार की समस्या से आज सारा विश्व ही जूझ रहा है।

भ्रष्टाचार और राजनीति : भ्रष्टाचार को आज सभी समस्याओं में ऊपर रखा जाता है। आज शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ भ्रष्टाचार ने अपने कदम न पसारे हों। कभी यह सरकारी कार्यालयों तक ही सीमित रहता था, परंतु आज राजनीति के मंदिर, बाजार, अर्थ जगत् हर जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला है। भ्रष्टाचार के बोझ से दबकर मनुष्य की मनुष्यता छोटी और छोटी होती जा रही है। लोगों में सद्वृत्तियाँ घट रही हैं और असद्वृत्तियाँ बढ़ती जा रही हैं। मनुष्य अपनी भलाई के बाद परिजनों और संबंधियों की भलाई के लिए भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाता है और पकड़े जाने पर निर्लज्जता से स्वयं को दूसरे की साजिश का शिकार बताता है। वर्तमान राजनीति और हमारे कुछ माननीय इसके जीते-जागते उदाहरण हैं।

71. विकलांगों की समस्या तथा समाधान

भूमिका : भारत में 1981 का वर्ष विकलांग वर्ष के रूप में मनाया गया था। इस वर्ष को मनाने का प्रयोजन राष्ट्र तथा समाज का ध्यान ऐसे बच्चों तथा लोगों की ओर आकर्षित करना था जो शारीरिक या मानसिक दृष्टि से अपंग तथा विकलांग हों। प्रत्येक लोकप्रिय सरकार का यह दायित्व है कि वह विकलांगों के लिये जीविका के साधन जुटाये। जब तक कोई राष्ट्र सही रूप से विकलांगों की समस्या का समाधान नहीं करता है, तब तक उस राष्ट्र को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नत नहीं माना जा सकता है। सामान्यतया विकलांग व्यक्ति से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से होता है जो हाथ, पैर या आँख से विहीन है।

यद्यपि वैज्ञानिकों ने कृत्रिम हाथ, पैर इत्यादि की रचना करके विकलांगों की समस्या का सामाधान करने का प्रयास किया है, परन्तु फिर भी यह उनकी समस्या का पूर्ण समाधान नहीं है। विकलांगों की समस्या का समाधान करने के लिये उनके दिल में हौंसले को बढ़ाया जाना परम आवश्यक है। यदि हम किसी प्रकार से उनके मनोबल में वृद्धि कर देते हैं तो वे अपने जीवन का भार न समझते हुए उल्लासपूर्वक जीवनयापन करने में समर्थ हो सकेंगे। आज के भौतिकवादी और वैज्ञानिक युग में कोई भी व्यक्ति किसी भी क्षण विकलांग हो सकता है।

किसी व्यक्ति का हाथ या शरीर का कोई अंग जरा-सा असावधानी से मशीन में आ जाने पर वह विकलांग हो सकता है। कुछ व्यक्ति मन या मस्तिष्क की दृष्टि से या रोगग्रस्त होने पर भी विकलांग कहलाते हैं। कुछ बच्चे जन्म से ही विकलांग होते हैं एवं कुछ कालान्तर में किसी घटना के परिणास्वरूप विकलांग हो जाते हैं। विकलांग हमारे राष्ट्र के लिये एक बहुत बड़ी समस्या हैं एवं इस समस्या का शीघ्र से शीघ्र समाधान किया जाना आवश्यक है। हमारे देश में विकलांगों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है।

हमारे देश में सरकार ने अछूत, पिछड़ी जातियों, आदिवासियों, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक उत्थान के कार्य को प्राथमिकता दी है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि उनकी सामाजिक स्थिति दिन-प्रतिदिन सुधरती जा रही है, परन्तु यह बड़े दुःख का विषय है कि हमारी सरकार का ध्यान, विकलांगों की दयनीय तथा शोचनीय दशा की ओर नहीं गया है। यदि हमारी सरकार ने इसे संबंध में कुछ ध्यान दिया भी है तो वह बहुत कम है।

समस्या : आज देश में विकलांगों की समस्या इतना अधिक गंभीर बन चुकी है कि इस दिशा में तत्काल ठोस कदम उठाये जाने आवश्यक हैं। विकलांग भी हमारे समाज के उतने ही आवश्यक अंग हैं, जितने कि समाज के अन्य अंग। विकलांग व्यक्ति जैसी परिस्थितियों में जीवनयापन करते हैं, इसका अनुभव तो स्वयं उन्हें ही होता है। अतः ऐसी स्थिति में हमारी सरकार तथा समाज का यह दायित्व हो जाता है कि वह विकलांगों को यथासंभव आत्मनिर्भर बनाने में सहयोग दे। विकलांगों के प्रति भाईचारे की भावना बरतना मात्र ही विकलांगों की समस्या का समाधान नहीं है बल्कि इसके लिये ठोस कदम उठाये जाने जरूरी हैं। इस सम्बन्ध में सरकार को चाहिये कि वह जन्मजात विकलांगता की वृद्धि को रोकने के लिये, गर्भवती महिलाओं के लिये स्वास्थ्यप्रद एवं पौष्टिक आहार की व्यवस्था करे।

सरकार को चाहिये कि वह विकलांगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिये प्रशिक्षण की सुविधाएँ प्रदान करे, जिससे कि वे अपना जीवनयापन स्वयं करते हुए समाज पर बोझ न बन जायें। हमारी सरकार ने विकलांगों की समस्या का समाधान करने के लिये यद्यपि मूक-बधिर विद्यालय खोले हैं, परन्तु फिर भी ऐसे विद्यालय, विकलांगों की संख्या को देखते हुए काफी कम हैं। सरकार द्वारा ऐसे विद्यालय और भी अधिक संख्या में खोले जाने चाहिये। विकलांगों के लिये सरकारी नौकरियों में विशेष कोटा निर्धारित किया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त उन्हें आर्थिक क्षेत्र से भी आवश्यक सुविधायें प्रदान की जानी चाहिये, जिससे कि वह आत्महीनता की भावना से ग्रस्त न हो जायें।

प्रति वर्ष दिसंबर के प्रथम सप्ताह में विश्व विकलांग दिवस मनाया जाता है। भारत सरकार ने ‘विकलांग वर्ष’ को बड़ी धूमधाम से मनाया था। ‘विश्व विकलांग वर्ष’ में भारत सरकार के द्वारा विशेष डाक टिकट भी जारी किया गया था। इसके अतिरिक्त सरकार ने दूरदर्शन के माध्यम से विकलांगों के प्रशिक्षण के कार्यक्रमों को भी प्रदर्शित किया था, परन्तु विकलांगों की समस्या का समाधान करने के लिये केवल इतना मात्र करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि सरकार द्वारा इस सम्बन्ध में रचनात्मक प्रयास किये जाने चाहिये। यदि हमारी सरकार इस समस्या का समाधान करने के लिये सक्रिय एवं रचनात्मक कदम उठाती है तो यह हमारे देश के सर्वांगीण विकास की दिशा में एक ठोस एवं प्रभावी कदम होगा।

72. मेरे सपनों का भारत

भारत देश हमारे लिए स्वर्ग के समान सुंदर है। इसने हमें जन्म दिया है। इसके अन्न-जल से हमारा पालन-पोषण हुआ। इस देश का नाम भारतवर्ष है। आधुनिक भारत उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पूर्व में असम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ है। उत्तर में हिमालय का पर्वत भारतमाता के सिर पर हिममुकुट के समान सुशोभित है तथा दक्षिण में हिंद महासागर इसके चरणों को निरंतर धोता है।

भारत में प्रायः सभी धर्मों के लोग परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं। यहाँ सभी धर्मावलंबियों को अपनी-अपनी उपासना पद्धति तथा सामाजिक व्यवस्था का अनुसरण करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। भारत का आदर्श वाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ है, जिसका अर्थ है- सारा संसार एक कुटुंब के समान है। प्राकृतिक सुंदरता की दृष्टि से भारत एक अद्भुत देश है। यहाँ हिमालय का पर्वतीय प्रदेश है गंगा-यमुना का समतल मैदान है, पर्वत एवं समतल मिश्रित दक्षिण पठार है, राजस्थान का रेगिस्तान है। इस प्रकार विभिन्न प्रकार के भूमि-भाग यहाँ विद्यमान हैं और विभिन्न प्रकार जलवायु यहाँ पाई जाती है।

यही एक देश है, जहाँ समय-समय पर छः ऋतुएँ आती हैं और अपनी-अपनी विशेषताओं से इस देश को अनुगृहीत करती हैं। भारत में पर्वत, निर्झर, नदियाँ, वन- उपवन, हरे-भरे मैदान, रमणीय समुद्र-तट इस देश के विविध प्रकार की शोभा के अंग हैं। धरती का स्वर्ग एक ओर कश्मीर में दिखाई देता है, तो दूसरी ओर केरल में। संसार का सबसे ऊँचा पर्वत माउंट एवरेस्ट भारत में है। यहाँ अनेक नदियाँ हैं, जिनमें सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब, गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, कृष्णा आदि प्रमुख हैं।

भारत एक अत्यंत प्राचीन देश है। यहाँ अनेक महापुरुष हो चुके हैं, जिन्होंने मानव को संस्कृति का पाठ पढ़ाया, यहाँ ऋषि हुए, जिन्होनें वेदों का गान किया। राम हुए, जिन्होंने न्यायपूर्ण शासन का आदर्श स्थापित किया। कृष्ण हुए, जिन्होंने गीता का गान करके कर्म का पाठ पढ़ाया। भारत में विभिन्न राज्य हैं। अनेक नगर और गाँव हैं। अनेक जातियों के लोग हैं। रहन-सहन, वेश-भूषा में भिन्नता होते हुए भी इस देश के निवासियों में एक प्रकार की समान संस्कृति भी मौजूद है। यहाँ की विविधता में एकता इसका भूषण है। भारत की राजधानी दिल्ली है, राष्ट्रभाषा हिंदी है, राष्ट्रीय चिह्न अशोक स्तंभ के सिंह हैं, राष्ट्रगान ‘जन-गण-मन’ है। राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ है, राष्ट्रीय पशु ‘बाघ’ है, राष्ट्रीय पक्षी ‘मोर’ है। भारत का राजकीय आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ है।

मेरा भारत महान है। भारत एक उदार देश है। यहाँ सभी आगुंतकों का सम्मान किया जाता है। विदेशी भी कह उठते हैं- यह मधुमय देश हमारा, जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक किनारा।’ मुझे अपना देश भारत बहुत प्रिय है। यद्यपि यहाँ अभी अनेक चुनौतियाँ हैं; जैसे- गरीबी की समस्या, अशिक्षा की समस्या, बेरोजगारी की समस्या, महँगाई की समस्या, आवास की समस्या आदि, फिर भी भारत निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है। मुझे अपने देश पर गर्व है।

73. रैपिड रेल

दिल्ली की परिवहन व्यवस्था को सुधारने के प्रयास पिछले एक दशक से चल रहे हैं। इसी के अंतर्गत दिल्ली को मेट्रो जैसा वर्ल्ड क्लास पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम मिला। मोनो रेल प्रोजेक्ट पर भी काम चल रहा है। अब इसी कड़ी में अगला महत्त्वपूर्ण पड़ाव होगा ‘ रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम’ (R.R.T.S.). जिसे ‘रैपिड रेल’ कहा जा रहा है। इससे मेरठ, पानीपत और अलवर जैसे नगरों तक पहुँचना काफी आसान और आरामदायक हो जाएगा।

‘रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम’ न केवल एन. सी. आर. में शामिल यू.पी. और हरियाणा के इलाकों को सीधे दिल्ली से जोड़ेगा, बल्कि यह पहला ऐसा सुपरफास्ट ट्रांजिट सिस्टम होगा जो राजस्थान के आने वाले एन. सी. आर. के हिस्से को भी कवर करेगा। रैपिड रेल प्रोजेक्ट की सबसे बड़ी विशेषता यह होगी कि इसके द्वारा दिल्ली और एन. सी. आर. के दूरदराज के इलाके भी एक वर्ल्ड क्लास ट्रांसपोर्ट सिस्टम के द्वारा आपस में सीधे जुड़ जाएँगे। इतना ही नहीं रैपिड रेल से आने वाले यात्रियों को आगे की यात्रा के लिए मेट्रो, राज्य की बसें, डी. टी. सी. बसें और ट्रेनें भी आसानी से मिल जाएँगी।

इस प्रोजेक्ट के फेज-1 के लिए शुरूआत में तीन कॉरिडोरों की पहचान की गई है – दिल्ली-पानीपत, दिल्ली-मेरठ और दिल्ली – अलवर। ये तीनों ही कॉरिडोर दिल्ली को यू.पी, हरियाणा और राजस्थान जैसे तीन पड़ोसी राज्यों से जोड़ेंगे। इनके माध्यम से लोग कम समय में और कम पैसों में आरामदायक तरीके से अपने गंतव्य तक पहुँच सकेंगे।

पहला कॉरिडोर होगा – दिल्ली-मेरठ।

इसकी लंबाई होगी – 90.2 कि.मी.। इसमें 60 कि.मी. एलिवेटेड सेक्शन होगा तथा 302 कि.मी. अंडरग्राउंड सेक्शन होगा। इस रेल की स्पीड 160 कि.मी. प्रति घंटा होगी। अभी मेरठ पहुँचने में दो से ढाई घंटे लगते हैं। रैपिड रेल 62 मिनट में मेरठ पहुँचा देगी। इस रेल की फ्रीक्वेंसी 5 मिनट होगी। इस प्रोजेक्ट पर लगभग 16,592 करोड़ रुपयों की लागत आएगी। मेरठ से दिल्ली नौकरी, व्यापार तथा दूसरे कामों के लिए बहुत लोग रोजाना आते हैं। उन्हें इससे काफी सुविधा हो जाएगी। 2020 तक यह कॉरिडोर शुरू हो जाएगा।

रैपिड रेल का दूसरा कॉरिडोर हरियाणा के सोनीपत और पानीपत को दिल्ली से जोड़ेगा। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह होगी कि यह कॉरिडोर उत्तर पश्चिम और बाहरी दिल्ली के ग्रामीण इलाकों से होता हुआ गुजरेगा। अतः दिल्ली के ये क्षेत्र भी इस योजना से जुड़ जाएँगे। इससे लोगों का टैवल टाइम बहुत कम हो जाएगा, वहीं ट्रैफिक जाम से भी मुक्ति मिलेगी। लोग अपने व्यक्तिगत वाहन छोड़कर रैपिड रेल से ही यात्रा करेंगे। इससे सड़क पर परिवहन का भार कम हो जाएगा।

दिल्ली से पानीपत के बीच की कई महत्त्वपूर्ण जगहें रैपिड रेल से सीधी जुड़ जाएँगी। इनमें मुरथल, गन्नौर, समालखा, पानीपत सिटी प्रमुख हैं। दिल्ली-पानीपत के बीच का ट्रैवल टाइम 74 मिनट होगा। इस कॉरिडोर की लंबाई होगी – 111.2 कि.मी.। इसमें 100.7 कि.मी. एलिवेटेड सेक्शन होगा। इस प्रोजेक्ट पर 14,638 करोड़ रुपए व्यय होने का अनुमान है। यह कॉरिडोर 7 साल में पूरा होगा।

इस योजना का तीसरा कॉरिडोर है – दिल्ली – अलवर। अभी तक अलवर पहुँचने में 4 घंटे लगते हैं। रैपिड रेल में यही सफर 117 मिनट में पूरा होगा। रैपिड रेल दिल्ली और अलवर के बीच आने वाले लोगों का सफर आसान बनाने वाली साबित होगी। दिल्ली के लोगों के लिए भी यह कॉरिडोर बेहद काम का साबित होगा, क्योंकि तीनों कॉरिडोरों में यह इकलौता ऐसा कॉरिडोर है, जिसके 6 स्टेशन दिल्ली में बनेंगे, जबकि 11 स्टेशन हरियाणा में और 2 स्टेशन राजस्थान में होंगे।

इस कॉरिडोर की एक अन्य विशेषता यह होगी कि इसके जरिए लोग रैपिड रेल के दो अन्य कॉरिडोर पर इंटरचेंज भी कर सकेंगे। एक तरफ जहाँ रैपिड रेल का दिल्ली-पानीपत कॉरिडोर कश्मीरी गेट से शुरू होगा, वहीं दिल्ली – अलवर कॉरिडोर का पहला और अंतिम स्टेशन कश्मीरी गेट ही होगा। इस कॉरिडोर का एक स्टेशन सराय काले खाँ पर भी बनेगा। ऐसे में सराय काले खाँ से लोग दिल्ली-मेरठ कॉरिडोर पर भी इंटरचेंज कर सकेंगे। मेरठ कॉरिडोर सराय काले खाँ से ही शुरू होगा।

दिल्ली – अलवर कॉरिडोर न केवल रेल का एक बड़ा इंटरचेंज कॉरिडोर साबित होगा, बल्कि यह दिल्ली के दो बड़े रेलवे स्टेशनों और अंतर्राज्यीय बस अड्डों को भी आपस में जोड़ देगा। इससे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन और हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन सीधे जुड़ जाएँगे, वहीं कश्मीरी गेट बस अड्डा व सराय काले खाँ बस अड्डा भी जुड़ जाएँगे। यह कॉरिडोर दिल्ली और गुड़गाँव के 8 मेट्रो स्टेशनों से भी जुड़ा होगा। इस कॉरिडोर की लागत 24,595 करोड़ रुपए होगी। यह 6 साल में बनकर तैयार होगा। 2021 से शुरू करने का लक्ष्य है।

74. वन महोत्सव

वनों के जीवन- प्रदाता मूल्य को ध्यान में रखते हुए कहा गया है- “जो मनुष्य लोगों के हित के लिए वृक्ष लगाता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है। वृक्ष लगाने वाला मनुष्य अपने तीन हज़ार भूत और भावी पितरों को मोक्ष दिलाने में सहायक होता है। ”

कृषि – प्रधान देश भारत प्रमुख रूप से वर्षा पर ही निर्भर करता है; सघन वन वर्षा कराने में सहायक होते हैं। अतः वन हमारे आर्थिक तंत्र की प्रमुख धुरी हैं। कहा जाता है कि ‘वृक्ष ही जल हैं, जल रोटी है और रोटी ही जीवन है।’ वनों से हमें अनेक प्रकार की वस्तुएँ स्वाभाविक रूप से मिलती रहती हैं। ईंधन के साथ-साथ इमारती लकड़ी, गोंद, लाख, तेल, समस्त प्रकार के फल आदि सभी कुछ तो वनों से ही मिलता है।

वन प्रदूषण जैसी समस्या का एकमात्र हल है। जैसे-जैसे देश औद्योगिकी क्रांति की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे चिमनियों से उठता धुआँ और गैस आदि से प्रदूषण का खतरा पैदा हो रहा है। वातावरण से इस प्रदूषण को वन सोख लेता है और ऑक्सीजन देकर वायुमंडल को स्वच्छ कर देता है।

वृक्ष हमारी सुरुचिपूर्ण प्रकृति के भी प्रतीक हैं। हमारी सौंदर्य – भावना लहलहाते वृक्षों को देखकर संतुष्ट होती है। घरों के सामने और पार्कों में झूमती वृक्षावलियाँ हमारी उदासी, तपन और गर्मी को शांत करके हमें भीनी सुगंध और शीतलता से भर देती हैं।

भारत-भूमि सघन वनों की भूमि रही है, लेकिन हमारी नासमझी और स्वार्थ वृत्ति की वजह से जैसे-जैसे हम वनों को काटते गए, वैसे-वैसे भारत निर्धन होता गया। वनों के कटने से एक ओर कम वर्षा ने, तो दूसरी ओर तापमान वृद्धि से बाढ़ ने भारत को कंगाल बनाना शुरू कर दिया। प्रदूषण बढ़ गया और प्राणिमात्र को जीवन का खतरा पैदा हो गया।

हालाँकि 1950 से वन महोत्सव के रूप में एक आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन में अधिक से अधिक वृक्ष लगाने पर जोर दिया जाता है लेकिन अभी भी यह आंदोलन जन-आंदोलन नहीं बना है। कई बार पेड़ तो लगा दिए जाते हैं, लेकिन उचित रख-रखाव के अभाव में वे सूख जाते हैं। सारा परिश्रम बेकार हो जाता है। वस्तुतः अधिकतर मामलों में वन महोत्सव दिखावा बनकर रह गया है। जब तक इस काम को पूरे मनोयोग से नहीं किया जाएगा, तब तक यह फलदायी नहीं होगा। कुल मिलाकर वन हमारी अमूल्य निधि हैं, जीवन हैं, वर्तमान और भविष्य हैं; साथ-साथ वन हमारे विकास सूचक आर्थिक तंत्र की धुरी हैं।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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CBSE Class 12 Hindi Elective रचना कार्यालयी पत्र

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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana कार्यालयी पत्र

पत्र – लेखन

अपने भावों, विचारों, सूचनाओं और संदेशों को दूर-दराज तक पहुँचाने के लिए आमतौर पर पत्रों का सहारा लिया जाता है। पत्र अनेक प्रकार के होते हैं। विषय, संदर्भ, व्यक्ति और स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के पत्रों को लिखने का तरीका भी भिन्न-भिन्न होता है।
सुविधा के लिए पत्रों को दो वर्गों में रखा जा सकता है-

  1. अनौपचारिक ( Informal)
  2. औपचारिक (Formal)

1. अनौपचारिक पत्र (Informal Letter)

इस प्रकार के पत्रों में पत्र लिखने वाले और पत्र पाने वाले के बीच नजदीकी या घनिष्ठ संबंध होता है। यह संबंध पारिवारिक तथा अन्य सगे-संबंधियों का भी हो सकता है और मित्रता का भी। इन पत्रों को व्यक्तिगत पत्र भी कहते हैं। इन पत्रों की विषयवस्तु निजी और घरेलू होती है। इनका स्वरूप संबंधों के आधार पर निर्धारित होता है। इन पत्रों की भाषा-शैली प्रायः अनौपचारिक और आत्मीय होती है।

2. औपचारिक पत्र (Formal Letter)

सरकारी, अर्ध-सरकारी और गैर-सरकारी संदर्भों में औपचारिक स्तर पर भेजे जाने वाले पत्रों को औपचारिक पत्र कहते हैं। इनमें व्यावसायिक, कार्यालयी और सामान्य जीवन-व्यवहार के संदर्भ में लिखे जाने वाले पत्रों को शामिल किया जा सकता है। इन पत्रों में संक्षिप्तता, स्पष्टता और स्वत:
पूर्णता की अपेक्षा रहती है। औपचारिक पत्रों के अंतर्गत दो प्रकार के पत्र आते हैं-

(क) सरकारी, अर्ध-सरकारी और व्यावसायिक संदर्भों में लिखे जाने वाले पत्र-

इनकी विषयवस्तु प्रशासन कार्यालय और कारोबार से संबंधित होती है। इनकी भाषा शैली निश्चित साँचे में ढली होती है और प्रारूप निश्चित होता है। सरकारी कार्यालयों, बैंकों और व्यावसायिक संस्थाओं द्वारा किया जाने वाला पत्र व्यवहार इस वर्ग के अंतर्गत आता है। विभिन्न पदों के लिए लिखे गए आवेदन पत्र भी इसी श्रेणी में आते हैं।

(ख) सामान्य जीवन व्यवहार तथा अन्य विशिष्ट संदर्भों में लिखे जाने वाले पत्र-

ये पत्र परिचित एवं अपरिचित व्यक्तियों को तथा विविध क्षेत्रों से संबद्ध अधिकारियों को लिखे जाते हैं। इनकी विषयवस्तु सामान्य जीवन की विभिन्न स्थितियों से संबद्ध होती है। ये प्रायः सामान्य और औपचारिक भाषा-शैली में लिखे जाते हैं। इनके प्रारूप में प्रायः स्थिति और संदर्भ के अनुसार परिवर्तन हो सकता है। इनके अंतर्गत शुभकामना – पत्र, बधाई – पत्र, निमंत्रण-पत्र, शोक-संवेदना पत्र, पूछताछ पत्र, शिकायती पत्र, समस्यामूलक पत्र, संपादक को पत्र आदि आते हैं।

पत्र के अंग –

पत्र चाहे औपचारिक हो या अनौपचारिक, सामान्यतः पत्र के निम्नलिखित अंग होते हैं, जैसे –

  • पता और दिनांक
  • संबोधन तथा अभिवादन शब्दावली का प्रयोग
  • पत्र की सामग्री
  • पत्र की समाप्ति, स्वनिर्देश और हस्ताक्षर

आइए, अब इनके बारे में जानकारी प्राप्त कर लें –

पता और दिनांक – पत्र के बाई ओर कोने में पत्र – लेखक का पता लिखा जाता है और उसके नीचे तिथि दी जाती है। संबोधन तथा अभिवादन – जब हम किसी को पत्र लिखना शुरू करते हैं तो उस व्यक्ति के लिए किसी न किसी संबोधन शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे-

पूज्य / आदरणीय / पूजनीय / श्रद्धेय / प्रिय / प्रियवर / मान्यवर

1. प्रिय-संबोधन का प्रयोग निम्नलिखित स्थितियों में किया जाता है-

  • अपने से छोटों के लिए
  • अपने बराबर वालों के लिए
  • घनिष्ठ व्यक्तियों के लिए।

औपचारिक स्थिति में –

  • मान्यवर / प्रिय महोदय / महोदया
  • प्रिय श्री / श्रीमती / सुश्री / नाम या उपनाम
  • प्रिय – नाम – जी आदि।

2. पूज्य, पूजनीय, आदरणीय, श्रद्धेय आदि का प्रयोग अपने से बड़े उन लोगों के लिए होता है जिन्हें हम आदर देते हैं।
3. अनौपचारिक पत्रों में महोदय/ महोदया संबोधन शब्द के बाद अल्पविराम का प्रयोग नहीं किया जाता है, क्योंकि अगली पंक्ति में हमें अभिवादन के लिए कोई शब्द नहीं देना होता है।
4. अनौपचारिक पत्रों में अपने से बड़ों के लिए नमस्कार, नमस्ते, प्रणाम जैसे अभिवादनों का प्रयोग होता है।
जब स्नेह, शुभाशीष, आशीर्वाद जैसे अभिवादनों का प्रयोग होता है तो मात्र संबोधन देखते ही हम समझ जाते हैं कि संबोधित व्यक्ति लिखने वाले से आयु में छोटा है। औपचारिक पत्रों में इस प्रकार के अभिवादन की आवश्यकता नहीं रहती।

अभिवादन शब्द लिखने के बाद पूर्ण विराम अवश्य लगाना चाहिए; जैसे –

पूज्य भाई साहब,
सादर प्रणाम।
प्रिय विवेक,
प्रसन्न रहो।

पत्र की सामग्री – पत्रों में अभिवादन के बाद पत्र की सामग्री देनी होती है। पत्र के माध्यम से जो हम कहना चाहते हैं या कहने जा रहे हैं वही पत्र की सामग्री कहलाती है।
पत्र की समाप्ति, स्वनिर्देश और हस्ताक्षर – अनौपचारिक पत्र के अंत में लिखने वाले और पाने वाले की आयु, अवस्था तथा गौरव – गरिमा के अनुरूप स्वनिर्देश बदल जाते हैं; जैसे-
तुम्हारा, आपका, स्नेही
आपका आज्ञाकारी, शुभचिंतक, विनीत आदि।
औपचारिक पत्रों का अंत प्रायः निर्धारित स्वनिर्देश द्वारा होता है; यथा-
भवदीय, आपका, शुभेच्छु आदि।
इसके बाद पत्र – लेखक के हस्ताक्षर होते हैं। औपचारिक पत्रों में हस्ताक्षर के नीचे प्रायः प्रेषक का पूरा नाम और पदनाम लिखा जाता है।

औपचारिक पत्र (Formal Letters)
कार्यालयी पत्र

औपचारिक पत्र की रूपरेखा –

  1. प्रेषक विभाग / मंत्रालय / कार्यालय का नाम, पता व दिनांक
  2. प्राप्तकर्ता का नाम और पद अथवा मात्र पद, विभाग अथवा मंत्रालय / कार्यालय आदि।
  3. पत्र का विषय
  4. संदर्भ पत्र संख्या ………। संबद्ध कूट संकेत (Code Word), संबद्ध संचिका ( File), संबद्ध वर्ष (अन्य आवश्यक संकेत)। कई कार्यालयों में संदर्भ देने की प्रथा नहीं है।
  5. कथ्य / विषयवस्तु
  6. अंतिम औपचारिक वाक्य
  7. प्रेषक या उसके स्थानापन्न व्यक्ति के हस्ताक्षर
  8. पूरा नाम
  9. पद (पत्र के शीर्ष पर देने की प्रथा अधिक प्रचलन में है)
  10. संलग्न पत्र / पत्रक या सामग्री।

आवेदन पत्र (Application)

1. प्रत्येक सप्ताहांत विद्यालय में योग- कक्षाएँ आयोजित करने का अनुरोध करते हुए विद्यालय के प्रधानाचार्य को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
प्रधानाचार्य,
राजकीय प्रतिभा विद्यालय
हरी नगर,
नई दिल्ली।
विषय : विद्यालय में सप्ताहांत योग कक्षाओं का आयोजन।
महोदय,
आप योग के महत्त्व से भलीभाँति परिचित हैं। इस विद्यालय के विद्यार्थी भी योग सीखना चाहते हैं। बाहर जाना तो हमारे लिए कठिन है। अत: छात्र संघ के अध्यक्ष के नाते मैंने स्कूल में ही योग कक्षाएँ आयोजित करने का निर्णय लिया है। ये योग कक्षाएँ सप्ताहांत शनिवार-रविवार को विद्यालय परिसर में प्रातः 8 से 10 बजे तक लगेंगी। इन कक्षाओं में योग सिखाने के लिए प्रसिद्ध योगाचार्य स्वामी धर्मवीर अपनी स्वीकृति दे चुके हैं। वे यह कार्य निःशुल्क करेंगे।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप इन कक्षाओं को स्कूल परिसर में लगाने की अनुमति प्रदान कर हमें योग क्रियाएँ सीखने का अवसर प्रदान करें। सप्ताहांत होने के कारण इससे स्कूल के कार्यों में कोई बाधा नहीं आएगी। पूर्णत: अनुशासन बनाए रखने की जिम्मेदारी मैं लेता हूँ।
आपकी अति कृपा होगी।
आपका आज्ञाकारी शिष्य
रजनीकांत
अध्यक्ष छात्र संघ।
दिनांक ……

2. पुलिस मुख्यालय में कुछ जनसम्पर्क सहायकों की आवश्यकता है, जिन्होंने हाल ही में बारहवीं की परीक्षा दी हो, जिन्हें कम्प्यूटर की सामान्य जानकारी हो और लोगों से मिलना-जुलना पसंद हो। अपना व्यक्तिगत विवरण देते हुए पुलिस आयुक्त को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
पुलिस आयुक्त
दिल्ली पुलिस मुख्यालय,
आई.टी.ओ.,
नई दिल्ली
विषय : जनसम्पर्क सहायकों की भर्ती।
महोदय,
आपके द्वारा समाचार पत्रों में विज्ञापन दिया गया कि आपको मुख्यालय में कुछ जनसम्पर्क सहायकों की आवश्यकता है। मैं भी एक पद के लिए अपना आवेदन-पत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ।

नाम : मनोज सक्सेना
पिता का नाम : श्री कुंज बिहारी सक्सेना
जन्म तिथि : 20 अप्रैल, 2001
पता : डी. – 47, श्याम विहार, नई दिल्ली।
शैक्षणिक योग्यता :
1. मैंने अभी हाल ही में (मार्च 2019 ) में बारहवीं कक्षा की परीक्षा दी है। अभी परीक्षा परिणाम आना शेष है। मुझे आशा है कि 85 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण हो जाऊँगा।
2. मुझे कम्प्यूटर संचालन की सामान्य जानकारी है। बारहवीं में मेरे पास कम्प्यूटर विषय भी था।
विशेष : मैं प्रायः लोगों से मिलता-जुलता रहता हूँ। मैं समाज में काफी जाना-पहचाना जाता हूँ। मैं एक स्वयं सेवी संस्था से भी जुड़ा हुआ हूँ।
मैं आपके प्रदत्त कार्य को सफलतापूर्वक करने का आश्वासन देता हूँ।
सधन्यवाद
भवदीय
मनोज सक्सेना
मो. 9876428670
दिनांक ……..

3. अस्पतालों में चिकित्सकों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाओं पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लगभग 150 शब्दों में किसी समाचार-पत्र के संपादक को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक
दैनिक ‘हिंदुस्तान’
नई दिल्ली।
विषय : चिकित्सकों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाओं के संदर्भ में।
महोदय,
मैं आपके लोकप्रिय समाचार-पत्र के माध्यम से अस्पतालों में आए दिन हो रहे चिकित्सकों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के बारे में अपने विचार व्यक्त करना चाहता हूँ। आशा है आप जनहित में मेरा पत्र अवश्य प्रकाशित करेंगे।
पिछले कुछ दिनों से अस्पताल के चिकित्सकों के साथ मरीजों और उनके तीमारदारों के दुर्व्यवहार की घटनाएँ बढ़ने के समाचार पढ़ने और देखने को मिल रहे हैं। विशेषकर दिल्ली के सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों के साथ ये घटनाएँ अधिक घटित हो रही हैं। मरीज के परिजन डॉक्टरों के साथ हाथापाई तक पर उतर जाते हैं।

अस्पताल में भर्ती प्रत्येक मरीज अपने लिए विशेष सुविधाओं की माँग करता है। सरकारी अस्पताल की अपनी सीमाएँ होती हैं। कभी-कभी कोई दवा समाप्त हो जाती है तो बाहर से लाने को कह दिया जाता है। इसके लिए मरीज और परिजन डॉक्टर को दोषी ठहराने लगते हैं। यदि किसी मरीज की मृत्यु हो जाती है तो परिवारजनों का पूरा गुस्सा डॉक्टर पर उतरता है। डॉक्टर इस पर हड़ताल पर चले जाते हैं। अंततः अन्य मरीजों को इसकी सजा भुगतनी पड़ती है।

डॉक्टर को भगवान का रूप माना जाता है। हमें उनके साथ शालीनता का व्यवहार करना चाहिए। प्रबंधन व्यवस्था का दोष डॉक्टर पर नहीं मढ़ा जाना चाहिए। डॉक्टर भी इंसान हैं। उन्हें भी आराम की जरूरत होती है। डॉक्टरों को भी मरीजों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। दोनों को आपसी समझदारी से काम लेना होगा। हमें इस समस्या पर गहराई से सोच-विचार करने की आवश्यकता है।
भवदीय
रमाकांत गोस्वामी
संयोजक, जन मोर्चा, दिल्ली।
दिनांक …….

4. भारतीय सुरक्षा बलों में महिलाओं की बढ़ती संख्या पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए देश की रक्षा मंत्री को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
रक्षा मंत्री
भारत सरकार
नई दिल्ली।
विषय : भारतीय सुरक्षा बलों में महिलाओं की बढ़ती संख्या।
महोदया,
आज के समाचार-पत्रों में यह समाचार पढ़कर अत्यंत प्रसन्नता हुई कि आपके प्रयासों से भारतीय सुरक्षा बलों में महिलाओं की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। सर्वप्रथम, मैं इसके लिए आपको बधाई एवं धन्यवाद देना चाहूँगी।

अभी तक महिलाओं को पुरुषों की तुलना में शारीरिक दृष्टि से कमजोर माना जाता रहा है। उन्हें सुरक्षा बलों में उच्च पदों पर नहीं नियुक्त किया जाता था, विशेषकर युद्ध के दौरान उन्हें अग्रिम मोर्चे पर भेजने की परंपरा नहीं रही है किंतु अब आपके प्रयासों से और महिलाओं के दम-खम दिखाने से इस मिथ को तोड़ा गया है।

गत 4-5 वर्षों में महिला पायलटों ने बड़े-बड़े मिग विमानों को सफलतापूर्वक उड़ाया है। नेवी की महिला अफसरों ने समुद्री यात्रा से विश्व का भ्रमण किया है। स्थल सेना में भी महिलाएँ बहादुरी का परचम लहरा रही हैं। अब यह सिद्ध हो गया है कि महिलाएँ अब पुरुषों से किसी भी प्रकार कम नहीं हैं। अब अनेक युवा महिलाएँ देश की रक्षा हेतु अपने प्राण न्यौछावर करने को प्रस्तुत हैं। उन्हें भी देश के प्रति अपने कर्तव्य का भान है।
भारतीय महिलाओं को इस दिशा में आगे बढ़ाने के आपके प्रयासों की जितनी प्रशंसा की जाए, वह कम है।

भवदीया
नीलम बत्रा,
संयोजक, दिल्ली महिला संघ,
नई दिल्ली
दिनांक ……..

5. ‘दैनिक जागरण’ के संपादक को पत्र लिखिए जिसमें वरिष्ठ नागरिकों की सुरक्षा के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कोई सुझाव भी दिया गया हो।
उत्तर :
सेवा में
संपादक महोदय,
‘दैनिक जागरण’
नई दिल्ली।
मान्यवर,

मैं आपके लोकप्रिय समाचारपत्र के माध्यम से सरकार का ध्यान वरिष्ठ नागरिकों की सुरक्षा की ओर दिलाना चाहता हूँ। गत एक दशक में सरकार और समाज का ध्यान वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं की ओर आकर्षित तो हुआ है, पर अभी तक उनकी सुरक्षा का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं हो सका है। पिछले एक वर्ष में ग्रेटर कैलाश, वसंत विहार, साउथ एक्स., डिफेंस कॉलोनी आदि पॉश इलाकों में वरिष्ठ नागरिकों की हत्या की घटनाएँ समाचारपत्रों में प्रकाशित हुईं। इन घटनाओं पर उस समय तो चिंता प्रकट कर दी जाती है बाद में सब भूल जाते हैं। दिल्ली पुलिस भी दावे तो बहुत करती है, पर वास्तविकता कुछ और ही है। इन घटनाओं से वरिष्ठ नागरिकों में असुरक्षा की भावना व्याप्त है। हम अन्य नागरिक भी उनके लिए चिंतित रहते हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि वरिष्ठ नागरिकों को सम्मानपूर्वक जीवन जीने के प्रति उन्हें आश्वस्त किया जाना चाहिए। उनकी सुरक्षा की कोई ठोस योजना बनाई जानी चाहिए। इसमें अन्य लोगों का भी सहयोग लिया जाना चाहिए।
आशा है सरकार इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार कर निर्णय लेगी।
भवदीय
कमलकांत
संयोजक
जन चेतना मंच, दिल्ली
दिनांक ……

6. आपने बारहवीं कक्षा के साथ-साथ सायंकाल के समय कम्प्यूटर की ट्रेनिंग में भी दक्षता प्राप्त कर ली है। आपके विद्यालय में प्राइमरी कक्षाओं के लिए कम्प्यूटर शिक्षक के दो पद खाली हैं। अपना स्ववृत्त लिखते हुए विद्यालय के प्रध नाचार्य को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
प्रधानाचार्य,
बाल भारती स्कूल,
नई दिल्ली।
विषय : कम्प्यूटर शिक्षक हेतु आवेदन-पत्र
महोदय,
मुझे स्कूल कार्यालय से ज्ञात हुआ है कि आपके विद्यालय की प्राइमरी कक्षाओं में कम्प्यूटर शिक्षक के दो पद खाली हैं। आप इन पदों पर उपयुक्त शिक्षक की नियुक्ति करना चाहते हैं। मैंने आपके स्कूल मसे ही गत वर्ष बारहवीं कक्षा 90 प्रतिशत अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण की थी। गत एक वर्ष में मैंने एक सरकारी संस्थान से कम्प्यूटर की ट्रेनिंग भी प्राप्त कर ली है। अब मैंने कम्प्यूटर संचालन में दक्षता प्राप्त कर ली है।
अतः मैं कम्प्यूटर शिक्षक के एक पद हेतु अपना आवेदन-पत्र प्रस्तुत कर रही हूँ। आशा है आप मुझे अवसर प्रदान कर कृतार्थ करेंगे। मेरा विवरण इस प्रकार है-

नाम : वंदना कुमारी
पिता का नाम : श्री हंस कुमार शर्मा
जन्म तिथि : 25 जनवरी, 2000
पता : सी – 5/70, जनकपुरी, नई दिल्ली। मो. 9868584838
शैक्षणिक योग्यता : सीनियर सैकेण्डरी (के. मा.शि. बोर्ड) से 90 प्रतिशत अंक – 2017 में।
कम्प्यूटर ट्रेनिंग : एक वर्षीय पाठ्यक्रम (2017-18) राजकीय कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर, नई दिल्ली से।
कार्यानुभव : गत छः मास से नितिन कम्प्यूटर टीचिंग सेंटर में कार्यरत।
मैं प्रमाणित करती हूँ कि आवेदन-पत्र में दी गई जानकारियाँ पूर्णतः सत्य हैं। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि यदि मुझे प्राथमिक कक्षाओं को कम्प्यूटर शिक्षा देने के लिए अवसर प्रदान किया जाता है तो मैं अपनी पूरी योग्यता, क्षमता, कर्मठता और ईमानदारी से कार्य करूँगी।
सधन्यवाद
भवदीया
वंदना कुमारी
दिनांक …..

7. महिलाओं के विरुद्ध बढ़ रहे विविध अपराधों की चर्चा करते हुए किसी प्रतिष्ठित समाचार-पत्र के संपादक को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक
दैनिक जागरण
नई दिल्ली।

विषय : महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते अपराध।
महोदय,
मैं आपके लोकप्रिय दैनिक समाचार पत्र के माध्यम से देश में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की ओर देश की सरकार तथा समाज का ध्यान आकर्षित कराना चाहती हूँ। आशा है आप जनहित में मेरा यह पत्र अवश्य प्रकाशित कर कृतार्थ करेंगे।

प्रायः हम प्रतिदिन समाचारपत्रों और दूरदर्शन के समाचारों में देश में महिलाओं के विरुद्ध हो रहे अपराधों के बारे में पढ़ते सुनते ओर देखते रहते हैं। प्रायः इन्हें दैनिक घटनाओं का एक भाग मानकर उपेक्षित कर दिया जाता है। समाज और सरकार की ऐसी उपेक्षा कतई सही नहीं है।

महिलाएँ भी हमारे समाज की अभिन्न अंग हैं। उन्हें भी समाज में पूरा मान-सम्मान मिलना चाहिए। वैसे तो हम उन्हें देवी मानते हैं, पर व्यवहार इसके विपरीत दिखाई देता है। महिलाओं का अपहरण किया जाता है, उनके साथ सामूहिक रूप से बलात्कार किया जाता है तथा उनके साथ झपटमारी की जाती है। आज कोई महिला सड़क पर स्वयं को सुरक्षित मानकर कहीं आ-जा नहीं सकती। चेन-पर्स आदि झपट लेना तो सामान्य सी बातें हो गई हैं। पुलिस इन घटनाओं की अनदेखी करती है। एफ. आई. आर. तक दर्ज करने में आना-कानी की जाती है। सरकार महिला सुरक्षा के दावे तो बहुत करती है पर क्रियान्वयन के मामले में शून्य है।
यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। सरकार को इन अपराधों को रोकने के लिए सक्रियता से कार्रवाई करनी चाहिए।
भवदीया
रचना मैदीरत्ता
संयोजिका, महिला सुरक्षा समिति,
नई दिल्ली
दिनांक ……

8. राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान के लाभों और उसकी सीमाओं की समीक्षा करते हुए किसी प्रतिष्ठित समाचार-पत्र के संपादक को लगभग 150 शब्दों में पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक
नवभारत टाइम्स
नई दिल्ली।
विषय : स्वच्छता अभियान के लाभ और सीमाएँ।
महोदय,
मैं आपके प्रतिष्ठित दैनिक समाचार-पत्र के माध्यम से स्वच्छता अभियान के लाभों और सीमाओं की समीक्षा करते हुए अपने विचार रखना चाहता हूँ। आशा है आप जनहित में मेरे विचार प्रकाशित कर कृतार्थ करेंगे।
भारत सरकार ने गत तीन वर्षों से राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान चला रखा है। इसने देश को स्वच्छ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। लाखों घरों में शौचालय बनाए गए हैं। कई गाँव पूर्णतः खुले में शौच से मुक्त हुए हैं। सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी के ढेरों में भी कमी आई है। सबसे बड़ा लाभ तो यह हुआ है कि सामान्य लोगों में स्वच्छता के प्रति चेतना का विकास हुआ है। अब शारीरिक स्वच्छता के साथ-साथ घर और घर से बाहर के वातावरण को भी स्वच्छ बनाए रखने के प्रति लोग सचेष्ट हुए हैं। सरकारी दफ्तरों, स्कूलों, सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ रखने पर बल दिया जा रहा है।
स्वच्छता अभियान के जहाँ अनेक लाभ हैं, वहीं इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं। लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वे अपने घर के साथ-साथ बाहरी वातावरण को भी साफ कर सकें। सरकार के पास भी सफाई कर्मचारियों का अभाव है। आर्थिक संकट भी बना रहता है। सफाई कर्मचारी हड़ताल कर देते हैं। स्वच्छता अभियान में स्वैच्छिक संस्थाओं का योगदान बहुत आवश्यक है। उन्हें भी कुछ धन इस पर खर्च करना चाहिए। तभी यह अभियान सफल हो पाएगा।
भवदीय
रवि मोहन,
संयोजक, स्वच्छता अभियान कमेटी,
आगरा (उ.प्र.).
दिनांक …….

9. आपका ‘युवक मंगल दल’ मुहल्ले के एक उद्यान का रखरखाव स्वयं करना चाहता है। अपनी इस योजना का संक्षिप्त विवरण देते हुए जिला उद्यान अधिकारी को अनुमति प्रदान करने हेतु पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
जिला उद्यान अधिकारी,
उद्यान रख-रखाव विभाग
पलवल (हरियाणा)
विषय : थाईं मुहल्ले के उद्यान का रख-रखाव।
महोदय,
निवेदन है कि हमारा ‘युवक मंगल दल’ पलवल शहर के थांई मुहल्ले में स्थित उद्यान का रख-रखाव की जिम्मेदारी स्वयं उठाना चाहता है। हमें यह कार्य सम्पन्न करने की आपसे अनुमति चाहिए। हमारी योजना की रूपरेखा इस प्रकार है –
वर्तमान स्थिति में यह पार्क उजाड़ स्थिति में है। हम इसमें घास लगाना चाहते है। इस कार्य में एक मास का समय लगेगा। उद्यान के चारों कोनों तथा मध्य में वृत्ताकार क्षेत्र में विभिन्न फूलों के पौधे लगाए जाएँगे। मध्य में गुलाब की कई किस्में लगाई जाएँगी। उद्यान के बीचों-बीच सैर के लिए तीन फुट चौड़ी एक पटरी बनाई जाएगी। इस पर पत्थर की टाइलें लगाई जाएँगी। इस कार्य को नगर-निगम के सहयोग से पूरा कराया जाएगा। उनके सिविल इंजीनियर से इस पर बात हो चुकी है।
जल विभाग ने कच्चे पानी का ट्यूबवैल लगाने की स्वीकृति प्रदान कर दी है।
उद्यान में सीमेंट की दस बेंचे लगाई जाएँगी जिन पर भ्रमणार्थी बैठकर सुस्ता सकेंगे।
हम उद्यान के रख-रखाव के लिए सरकार से कोई धनराशि नहीं लेंगे। धन की व्यवस्था हम अपने स्तर पर करेंगे।
आशा है आप शीघ्र स्वीकृति प्रदान करेंगे।
सधन्यवाद।
भवदीय
मुकेश गुप्ता
मंत्री, युवक मंगल दल,
पलवल (हरियाणा)
दिनांक …….

10. भारतीय समाज में लिंग के आधार पर भेदभाव की समस्या पर किसी समाचार-पत्र के संपादक को पत्र लिखिए और समाधान का एक उपाय भी सुझाइए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक,
दैनिक हिंदुस्तान, नई दिल्ली।
विषय : भारतीय समाज में लिंग भेद की समस्या।
मान्यवर,
मैं आपके लोकप्रिय दैनिक समाचार-पत्र के माध्यम से समाज का ध्यान लिंग भेद की समस्या की ओर आकर्षित कराना चाहती हूँ। आशा है आप मेरा पत्र जनहित में अवश्य प्रकाशित करेंगे।
वर्तमान समय में हम देखते हैं कि भारतीय समाज में लिंग के आधार पर काफी भेदभाव किया जाता है। घर-परिवार में लड़के के जन्म पर खुशियाँ मनाई जाती हैं और लड़की के जन्म पर मातम। ऐसा क्यों है ? हमारी ऐसी मानसिकता क्यों बन गई है कि लड़के ही वंश को आगे ले जाते हैं और लड़कियाँ पराया धन होती हैं। इसी लिंग भेद का दुष्परिणाम है कि लड़कियों की संख्या में गिरावट आ रही है।
गत एक दशक में हमने देखा है कि लड़कियाँ हर क्षेत्र में लड़कों से बाजी मार रही हैं, चाहे वह पढ़ाई का क्षेत्र हो, नौकरी का क्षेत्र हो अथवा खेलों का क्षेत्र हो। अब लड़कियाँ किसी भी मायने में लड़कों से पीछे नहीं हैं। लड़कियाँ सेना-पुलिस में भर्ती होकर अपनी वीरता के झंडे गाड़ रही हैं। अब तो समाज में लिंग के आधार पर भेदभाव समाप्त हो जाना चाहिए। संतोष की बात यह है कि अब लोगों की सोच में परिवर्तन आ रहा है। ‘फस्ट गर्ल चाइल्ड’ या ‘ओनली गर्ल चाइल्ड’ को प्राथमिकता दी जा रही है। मैं आशा करती हूँ कि अगले कुछ वर्षों में लिंग के आधार पर भेदभाव बरतना समाप्त हो जाएगा।
भवदीया
भारती कुमारी,
मंत्री, महिला जागृति मोर्चा, नई दिल्ली
दिनांक ….

11. सड़क दुर्घटनाओं में तत्काल चिकित्सा सुविधा न मिलने के दुष्परिणाम के बारे में किसी समाचार-पत्र के संपादक को पत्र लिखिए और समाधान के दो सुझाव भी दीजिए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक
दैनिक ‘अमर उजाला’
मथुरा (उ. प्र.)
विषय : तत्काल चिकित्सा सुविधाओं के दुष्परिणाम।
महोदय,
मैं आपके लोकप्रिय समाचार-पत्र के माध्यम से सरकार का ध्यान सड़क दुर्घटनाओं में तत्काल चिकित्सा सुविधा न मिलने के दुष्परिणामों की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। आशा है आप जनहित में मेरा पत्र अवश्य प्रकाशित करेंगे।

यह एक कटु सत्य है कि सड़क दुर्घटनाओं में घायल व्यक्ति को तत्काल चिकित्सा उपलब्ध नहीं हो पाती है। इसके परिणामस्वरूप घायल व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। सरकार ने एक्सप्रेस-वे तो कई बना दिए हैं और उन पर भारी भरकम टोल टैक्स भी वसूला जाता है, पर घायलों की चिकित्सा की कोई व्यवस्था नहीं है। यमुना एक्सप्रेस वे पर गाड़ियों की गति तीव्र रहती है। अतः प्रायः दुर्घटनाएँ घटित होती रहती हैं। सड़क पर दो-तीन किलोमीटर पर चिकित्सा बूथ तथा दस किलोमीटर की दूरी पर सघन चिकित्सा कक्ष बनाये जाने चाहिएँ ताकि दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को तत्काल चिकित्सा उपलब्ध हो सके।

बहुत गंभीर स्थिति में घायल को बड़े अस्पताल तक पहुँचाने के लिए एंबुलेंस गाड़ी की सेवा भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए। यदि धन की कमी हो तो थोड़ा-बहुत शुल्क भी लिया जा सकता है, पर सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी घायल को बचाने की होनी चाहिए। टोल टैक्स का कुछ धन इस चिकित्सा सुविधा पर खर्च किया जाना चाहिए। अभी लखनऊ एक्सप्रेस भी शुरू कर दिया गया है। वहाँ पहले से ही चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था की जानी चाहिए। आशा है सरकार इस ओर उचित ध्यान देगी।
भवदीय
नरेश कुमार वर्मा
संयोजक, जनसुरक्षा अभियान,
मथुरा (उ.प्र.)
दिनांक …….

12. कुछ समाचार चैनल जाँच और सत्यापन किए बिना कभी-कभी ऐसी काल्पनिक घटनाओं के समाचार प्रस्तुत करते हैं, जिनसे समाज में वैमनस्य और अशांति फैलने की संभावना हो सकती है। उन पर तुरंत अंकुश लगाने का अनुरोध करते हुए सूचना और प्रसारण मंत्री को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
मंत्री महोदय,
सूचना प्रसारण मंत्रालय,
भारत सरकार, नई दिल्ली।
विषय : वैमनस्य और अशांति फैलाने वाले चैनलों पर अंकुश।
मान्यवर,
मैं आपका ध्यान उन समाचार चैनलों की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ जो बिना जाँच और सत्यापन के ऐसी काल्पनिक घटनाओं के समाचार प्रस्तुत करते हैं जिनसे समाज में वैमनस्य और अशांति फैलने की संभावना उत्पन्न हो सकती है। इन पर तुरंत प्रभाव से अंकुश लगाने की आवश्यकता है।
कुछ समाचार चैनलों का झुकाव किसी विशेष राजनैतिक दल के प्रति रहता है। ये दल वोट पाने के कारण जातीय एवं सांप्रदायिक समाज में ऐसी काल्पनिक बातें प्रचारित करते रहते हैं जिनसे समाज का सौहार्द्र बिगड़ता है। इन घटनाओं में कोई सत्यता भी नहीं होती। कभी ये गौकशी की अफवाह उड़ा देते हैं तो कभी मुस्लिम या दलितों पर अत्याचार की झूठी कहानियाँ गढ़ देते हैं। कुछ छुटभैये नेता इन्हें समाज के मध्य अफवाह की तरह फैला देते हैं। तब हिंसक घटनाएँ घट भी जाती हैं।
समाचार चैनलों को घटनाओं की सत्यता की जाँच करनी चाहिए। उन्हें इन छुटभैए नेताओं से बाइट लेकर समाचार नहीं गढ़ लेने चाहिए। उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास होना चाहिए। समाचार काल्पनिक घटनाओं के आधार पर न होकर वास्तविकता के आधार पर होने चाहिएँ।
मैं एक जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से आपसे माँग करता हूँ कि इस प्रकार भ्रामक समाचार प्रसारित करने वाले चैनलों को चिह्नित करके इन पर अंकुश लगाया जाए।
सधन्यवाद.
भवदीय
रजनी कांत
प्रभारी, सद्भावना कमेटी
नई दिल्ली
दिनांक …..

13. सड़क पटरियों पर दुकानदारों द्वारा किए गए अतिक्रमण से होने वाली असुविधा का उल्लेख करते हुए नगरपालिका के मेयर को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
मेयर, नगरपालिका,
गाजियाबाद (उ. प्र.)
विषय : सड़क पटरियों पर अतिक्रमण से असुविधा।
महोदय,
मैं घंटाघर से चौपला बाजार तक की सड़क पटरियों पर दुकानदारों द्वारा किए गए अतिक्रमण की समस्या की ओर आपका ध्यान आकर्षित कराना चाहता हूँ। इससे आम नागरिकों को भारी असुविधा हो रही है। इसे तुरंत हटाया जाए।
मान्यवर, घंटाघर से चौपला बाजार तक की मुख्य सड़क काफी व्यस्त सड़क है। इस पर काफी आवाजाही रहती है। पर गत 5-6 महीनों से इस सड़क के दोनों ओर तथा पटरियों पर कुछ दुकानदारों ने जबर्दस्ती कब्जा कर रखा है। कुछ बड़ी दुकानें अपना सामान पटरी तक ले आते हैं। सड़क पर अवैध लोग अपनी रेहड़ी लगाकर खड़े हो जाते हैं। लगभग तीन चौथाई सड़क पर अवैध कब्जा है। इससे लोगों के आने-जाने तथा वाहनों के संचालन में बाधा उत्पन्न हो रही है।
आपसे विनम्र प्रार्थना है कि इस सड़क व पटरियों को अतिक्रमण मुक्त कराया जाए। आपकी अति कृपा होगी।
भवदीय
राजदीप रस्तोगी
संयोजक, जन उपभोक्ता मंच
गाजियाबाद
दिनांक …..

14. एक प्रसिद्ध समाचार पत्र समूह को ग्रीष्मावकाश में घर-घर जाकर कुछ आँकड़े एकत्रित करने के लिए युवक-युवतियों की आवश्यकता है। अपनी रुचि, योग्यता और कौशलों का उल्लेख करते हुए संस्थान के मानव संसाधन प्रबंधक को आवेदन-पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
प्रबंधक
मानव संसाधन विभाग
‘हिंदुस्तान’ समाचार-पत्र
नई दिल्ली।
विषय : आँकड़े एकत्रित करने के लिए आवेदन-पत्र।
महोदय,
आपके प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित एक विज्ञापन से ज्ञात हुआ है कि आपके संस्थान को कुछ ऐसे युवक-युवतियों की आवश्यकता है जो ग्रीष्मावकाश में घर-घर जाकर आँकड़े एकत्रित कर सकें।
मैं इस कार्य हेतु अपना आवेदन-पत्र प्रस्तुत करता हूँ।
मेरा विवरण निम्नलिखित है-

नाम : निखिल भटनागर
पिता का नाम : श्री गिरीशचंद्र भटनागर
जन्म तिथि : 20 फरवरी, 2000
पता : 5/62, पंचशील एन्क्लेव, नई दिल्ली
मो. 9988776655
शैक्षणिक योग्यताएँ : 1. सैकंडरी परीक्षा सी.बी.एस.ई. से ‘ए’ ग्रेड में 2015 में उत्तीर्ण की।
2. सीनियर सैकंडरी कॉमर्स ग्रुप में सी.बी.एस.ई. से 90 प्रतिशत अंक लेकर 2017 में उत्तीर्ण की।
3. एक वर्षीय ‘डाटा संग्रह’ का कोर्स विद्या भारती से पूरा किया।
अनुभव : गत छह मास में आँगनवाड़ी क्षेत्र में कार्यरत।
रूचि : जन-संपर्क, भ्रमण, संगीत
मैं आपको पूर्ण विश्वास दिलाता हूँ कि मैं आपके द्वारा प्रदत्त कार्य को पूर्ण दक्षता, योग्यता एवं ईमानदारी से पूरा कर दिखाऊँगा। आप मुझे अवसर प्रदान कर कृतार्थ करें।
सधन्यवाद,
भवदीय
निखिल भटनागर
दिनांक …..

15. भारतीय सुरक्षा बलों में महिलाओं की बढ़ती संख्या पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए देश के रक्षा मंत्री को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में.
रक्षा मंत्रालय
रक्षा विभाग।
नई दिल्ली
विषय : भारतीय सुरक्षा बलों में महिलाओं की बढ़ती संख्या पर प्रसन्नता।
महोदय,
भारतीय सुरक्षा बल भारत का सर्वोच्च सुरक्षा बल है जो विश्वसनीय व कठोर से कठोर कार्य करने वाला बल माना जाता है जिसकी अपनी पहचान व कामयाबी है। इसमें सुरक्षा बलों की भर्ती लगातार चलती रहती है जिसमें नौजवानों का शामिल करना अनिवार्य भी होता है।
पिछले कुछ समय में भारतीय सुरक्षा बल में महिलाओं की भर्ती अधिक की जा रही है जो प्रसन्नता की सूचक भी है कि सुरक्षा बल भारतीय महिलाओं को भी सर्वोच्च सम्मान देता है तथा उनके हौंसले की इज्जत करता है। उन्हें आगे बढ़ने का मौका प्रदान करवाता है। सच में यह कार्य प्रसन्नतापूर्वक ही है।
इस प्रकार पूरे भारत में महिलाओं को किसी भी पद पर महिला कह कर न बैठने वालों का मुँह बंद हो गया है। इस कार्य के लिए उठाए गए, कदमों में रक्षा मंत्री को दिल से “शुक्रिया” अदा करता हूँ कि उन्होंने महिलाओं को सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया।
धन्यवाद सहित।
आर्यन जैन
संयोजक महिला विभाग
दिनांक …..

16. हिंदी टंकक के लिए आवेदन-पत्र
उत्तर :
सेवा में,
निदेशक
राजभाषा विभाग
गृह मंत्रालय, लोकनायक भवन, नई दिल्ली-110003
विषय : हिंदी टंकक पद के लिए आवेदन-पत्र
महोदय,
निवेदन है कि आपके मंत्रालय द्वारा 25 सितंबर 200… के ‘नवभारत टाइम्स’ में हिंदी टंकक के पद हेतु आवेदन-पत्र आमंत्रित किए गए हैं। इस संदर्भ में मैं अपना आवेदन भेज रहा हूँ। मेरा स्ववृत्त (बायोडाटा) इस प्रकार है –
1. नाम – रवि कुमार
2. पिता का नाम – श्री संपत कुमार
3. जन्मतिथि – 20.5.1988
4. घर का पता – 13/905, शास्त्री नगर, नई दिल्ली।
5. शैक्षिक योग्यता –

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना कार्यालयी पत्र 1

उपर्युक्त विवरण से संबंधित सभी प्रमाण पत्रों की एक-एक फोटो प्रतिलिपि संलग्न है।
भवदीय
(हस्ता.)
रवि कुमार
दिनांक 30 सितंबर, 20….

17. आपके ज़िले के जनगणना उपायुक्त को जनगणना के लिए कुछ सहायकों की आवश्यकता है। अपनी योग्यता, रुचि आदि का विवरण देते हुए एक आवेदन पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
उपायुक्त
जनगणना कार्यालय
फरीदाबाद जिला, हरियाणा।
विषय : जनगणना सहायकों की नियुक्ति हेतु आवेदन पत्र
महोदय,
सविनय निवेदन है कि मुझे ज्ञात हुआ है कि आपके कार्यालय को जनगणना हेतु कुछ सहायकों की आवश्यकता है। मैं इस पद पर कार्य करने का इच्छुक हूँ। मैं यह कार्य अत्यंत रुचि के साथ सम्पन्न करूँगा। मैं विभिन्न संस्थाओं के लिए सर्व कार्य करता रहता हूँ अत: यह कार्य मेरी रुचि एवं क्षमता के अनुकूल है। मेरा स्ववृत्त इस प्रकार है –

नाम – रमन सिंह
पिता का नाम – श्री श्याम सिंह
पता – 26/11, सेक्टर 22, फरीदाबाद, हरियाणा
मोबाइल फोन नं. – 9825262728
जन्मतिथि – 20 फरवरी, 1989
शैक्षणिक योग्यताएँ –

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से सीनियर सैकेंडरी परीक्षा 82% अंक लेकर 2007 में उत्तीर्ण की।

दिल्ली विश्वविद्यालय से 2010 में कला वर्ग में स्नातक की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की।

आशा है आप मुझे सेवा का अवसर देकर कृतार्थ करेंगे।
सधन्यवाद,
भवदीय
रमनसिंह
दिनांक ………..

18. आप अपने विद्यालय में गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में एक कवि सम्मेलन करना चाहते हैं। इसके लिए आपको क्या – क्या सुविधाएँ चाहिए, उनका उल्लेख करते हुए प्रधानाचार्य को पत्र द्वारा सूचना दीजिए।
उत्तर :
परीक्षा भवन
दानापुर कैट।
दिनांक 16 फरवरी, 20……
सेवा में,
प्रधानाचार्य जी,
केंद्रीय उच्च विद्यालय,
दानापुर कैंट।
विषय : विद्यालय में कवि सम्मेलन के आयोजन संबंधी सुविधाएँ उपलब्ध कराने हेतु।
महोदय,
सविनय निवेदन यह है कि मैं आपके विद्यालय के बारहवीं कक्षा का छात्र हूँ। आज से कुछ दिन पहले हम सभी छात्रों ने सामूहिक चर्चा की थी, जिसमें विचार किया गया था कि आगामी गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में एक कवि सम्मेलन का आयोजन विद्यालय की ओर से करवाया जाए। इस कवि सम्मेलन में अधिक से अधिक छात्र-छात्राओं को अपना हुनर दिखाने का अवसर मिलेगा। महोदय, हमारा आपसे अनुरोध है कि कवि सम्मेलन के आयोजन हेतु कुछ सामग्री की आवश्यकता होगी। हम आयोजन संबंधित सुविधाओं की सूची का उल्लेख कर रहे हैं, जो इस प्रकार है – दो माइक, चार साउंड बॉक्स, दस कुर्सियाँ, कुछ दरियाँ और टेंट आदि। उपरोक्त सुविधाएँ प्राप्त कराने का हम आपसे आग्रह करते हैं। आपकी अति कृपा होगी।
धन्यवाद।
आपका आज्ञाकारी शिष्य
राघव
कक्षा – बारहवी ‘अ’

शिकायती पत्र

19. पानी के मीटर की शिकायत।
उत्तर :
सेवा में,
कार्यपालक अभियंता
गंजाम जल बोर्ड, गंजाम, उड़ीसा।
विषय : पानी का मीटर बंद होने के संदर्भ में।
महोदय,
मैं बरहमपुर क्षेत्र का निवासी हूँ। मेरा मकान नं. ए-207 है। विगत चार मास से हमारे मकान पर लगा पानी का मीटर बंद पड़ा है। इस बारे में कई बार मीटर रीडर से मौखिक शिकायत की गई, किंतु अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है। अतः अब मैं लिखित शिकायत कर रहा हूँ। मीटर खराब होने के कारण पानी का अनुमानित बिल आ रहा है और मैं उसे नियमित रूप से जमा कर रहा हूँ, पर खपत का सही आकलन नहीं हो पा रहा है। अतः मेरा आपसे अनुरोध है कि या तो इस मीटर को ठीक करवाएँ अथवा इसे बदलवाने की व्यवस्था कराएँ। मैं इसका व्यय वहन करने को तैयार हूँ। आशा है आप इस समस्या का निदान तत्काल कराने की कृपा करेंगे। मैं इस पत्र के साथ पिछले तीन मास के पानी के भुगतान किए गए बिलों की फोटो प्रति संलग्न कर रहा हूँ।
‘भवदीय
नवीन पटनायक
ए. 207. अनंतनगर, दूसरी गली
बरहमपुर, गंजाम-60002, उड़ीसा
दिनांक 15 जुलाई, 200….
संलग्नक – पानी के जमा किये पुराने बिलों की फोटो प्रति

20. बढ़ती महँगाई पर चिंता व्यक्त करते किसी दैनिक समाचार-पत्र के संपादक को पत्र लिखिए। महँगाई को रोकथाम के दो उपाय भी सुझाइए।
उत्तर :
परीक्षा भवन, दिल्ली।
दिनांक 25 जून 20…….
सेवा में,
संपादक महोदय,
नवभारत टाइम्स, नई दिल्ली।
विषय : दिन-प्रतिदिन बढ़ती महँगाई की समस्या के प्रति चिंता के विषय में।
महोदय,
मैं आपके लोकप्रिय दैनिक समाचार-पत्र के माध्यम से सरकार का ध्यान बढ़ती हुई महँगाई की तरफ आकर्षित कराना चाहता हूँ। आज चाहे सब्जी के दामों की बात करें, चाहे दूध इत्यादि की या रोज़मर्रा के काम आने वाली चीज़ों की बात करें, महँगाई आसमान को छू रही है। वेतन तो कम है, लेकिन महँगाई लगातार बढ़ रही है। महँगाई रूपी दानव ने अपने विकराल बाहुपाश से हमें कस लिया है, जिससे निकल पाना असंभव है जैसे साबुन, दालें, तेल, चीनी, मसालें आदि की कीमतें निरंतर बढ़ रही हैं। ऐसा जान पड़ता है मानों सरकार का इस बढ़ती महँगाई पर नियंत्रण ही नहीं रहा। महँगाई की रोकथाम हेतु वस्तुओं के आयात-निर्यात के बीच संतुलन रखना होगा। साथ ही, वस्तुओं एवं उत्पादों की काला बाज़ारी करने वालों पर कड़ी से कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए। कृपया आप मेरे इस पत्र को अपने समाचार पत्र में छापने का कष्ट करें, ताकि निरंतर बढ़ती महँगाई पर लगाम कसकर सरकार आम जनता के जीवन को सुखद बनाए।
सधन्यवाद।
भवदीय
क. ख.ग.

21. भारत सरकार के गृह मंत्रालय के सचिव की ओर से मुख्य सचिव, महाराष्ट्र राज्य को एक सरकारी पत्र लिखें जिसमें ‘कन्या भ्रूण हत्या’ पर चिंता व्यक्त की गई हो।
उत्तर :
गृह मंत्रालय : भारत सरकार
पत्र संख्या ………..
प्रेषक
सचिव गृह मंत्रालय
भारत सरकार, नई दिल्ली।
दिनांक ………..
सेवा में
मुख्य सचिव
महाराष्ट्र सरकार,
मुंबई।
विषय : कन्या भ्रूण हत्या।
महोदय,
मुझे भारत सरकार के गृहमंत्री की ओर से निर्देश मिला है कि मैं आपके राज्य में ‘कन्या भ्रूण हत्या’ पर सरकार की चिंता से आपको अवगत कराऊँ।
भारत सरकार इस विषय को लेकर काफी परेशान है। कन्या भ्रूण हत्या मानवता के नाम पर कलंक है। यह अजन्मे शिशु के प्रति घोर अन्याय है। इसी के कारण लिंगानुपात भी गड़बड़ा रहा है। इससे सामाजिक असंतुलन पैदा हो रहा है।
भारत सरकार का गृह मंत्रालय इस समस्या के प्रति काफी संवेदनशील है। वह उन सभी उपायों का समर्थन करता है जो कन्या भ्रूण हत्या को रोकते हों। यह मंत्रालय महाराष्ट्र सरकार से यह अपेक्षा करता है कि वह इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए उचित कदम उठाएगी। आपसे अपेक्षा की जाती है कि अगली तिमाही में इसके सार्थक परिणाम दिखाएँगे।
भवदीय
हस्ता…….
सचिव, गृह मंत्रालय, भारत सरकार।

22. बिजली की समुचित आपूर्ति न होने से उत्पन्न समस्याओं का वर्णन करते हुए विद्युत विभाग के प्रबंधक को एक पत्र लिखें।
उत्तर :
सेवा में
प्रबंधक
राज्य विद्युत विभाग,
चंडीगढ़ (हरियाणा)।
विषय : फरीदाबाद में विद्युत की समुचित आपूर्ति न होना।
महोदय,
मैं आपका ध्यान फरीदाबाद शहर में विद्युत की समुचित आपूर्ति न होने की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। इस शहर की आबादी तो निरंतर बढ़ रही है और विद्युत की आपूर्ति निरंतर गिरती जा रही है। दिन में चार-पाँच घंटे तक बिजली का गायब होना सामान्य – सी बात हो गई है। इससे यहाँ के नागरिकों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ रहा है।
विद्युत विभाग के कर्मचारी जनता की परेशानियों को समझने का प्रयास नहीं करते। उनका रुख उपेक्षापूर्ण बना रहता है। बिजली संकट को लेकर जन- आक्रोश निरंतर बढ़ता जा रहा है। यहाँ के निवासी न दिन में काम कर पाते हैं और न रात को ठीक प्रकार से सो पाते हैं।
आप इस समस्या के समाधान हेतु उचित कदम उठाएँगे।
धन्यवाद सहित.
भवदीय
रमाकांत शर्मा
संयोजक, जनहित मोर्चा, फरीदाबाद (हरियाणा)
दिनांक …….

23. रेल के आरक्षित डिब्बे में अनधिकृत यात्रियों के प्रवेश से उत्पन्न असुविधाओं का उल्लेख करते हुए किसी प्रतिष्ठित समाचारपत्र के संपादक को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक, नवभारत टाइम्स,
नई दिल्ली।
महोदय.
मैं आपके दैनिक लोकप्रिय समाचार पत्र के माध्यम से रेलवे अधिकारियों का ध्यान आरक्षित डिब्बे में अनधिकृत यात्रियों के प्रवेश की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ।
प्रायः लंबी दूरी की रेलगाड़ियों के डिब्बों में यात्री सीट आरक्षित करा कर यात्रा करते हैं। पर प्रायः यह देखा जाता है कि रास्ते के स्टेशनों पर अनधिकृत यात्री इन आरक्षित डिब्बों में जबर्दस्ती घुस आते हैं और आरक्षित सीटों पर बैठे-लेटे यात्रियों को परेशान करते हैं। इससे उन्हें भारी असुविधा का सामना करना पड़ता है। रेल विभाग के टी.टी. उनसे कुछ भी नहीं कह पाते। कभी-कभी लगता है कि दोनों की मिलीभगत से यह सब हो रहा है। बड़े शहरों को जाने वाले दैनिक यात्री इस प्रकार की गड़बड़ अधिक करते हैं। अनधिकृत व्यक्ति कई बार सामान तक चुरा ले जाते हैं।
इस प्रवृत्ति को रोका जाना नितांत आवश्यक है। रेल विभाग के कर्मचारियों को सख्ती के साथ इस अवैध प्रवेश को रोकना होगा. अन्यथा सीट आरक्षित कराने का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा।
आशा है रेल विभाग इस दिशा में उचित कार्यवाही करेगा। भवदीय
उमेश सहगल,
संयोजक, जन सुविधा निगरानी मंच, नई दिल्ली।
दिनांक …..

24. भारतीय रेलवे विद्यार्थियों को टिकट में रियायत देती है, किंतु विमान कंपनियाँ ऐसी कोई सुविधा नहीं देती। शिक्षा में पर्यटन के लाभों की चर्चा करते हुए सिविल विमानन के महानिदेशक को एक पत्र लिखकर आग्रह कीजिए कि विद्यार्थियों को रियायती सुविधा दी जाए।
उत्तर :
सेवा में
महानिदेशक,
सिविल विमानन विभाग,
भारत सरकार, नई दिल्ली।
विषय : विद्यार्थियों को हवाई यात्रा में रियायत।
महोदय,
मैं आपका ध्यान विद्यार्थियों की समस्या की ओर आकर्षित कराना चाहती हूँ। भारतीय रेलवे तो विद्यार्थियों को रेल टिकट में रियायत देती है, पर विमानन कंपनियाँ ऐसी कोई रियायत नहीं देतीं। अब समय की गति के साथ-साथ विमानन कंपनियों को भी विद्यार्थियों को टिकट में रियायत देनी चाहिए। शिक्षा में पर्यटन के महत्त्व से तो आप भली-भाँति परिचित ही हैं। विद्यार्थी पर्यटन में वायुयान की सेवा लेने को इच्छुक रहते हैं। यदि आप निर्देश दें तो विमानन कंपनियाँ विद्यार्थियों को रियायती टिकट देकर पर्यटन को बढ़ावा दे सकती हैं। इससे दोनों पक्षों को लाभ होगा। विद्यार्थी विमान सेवा का लाभ उठा सकेंगे तथा कंपनियों को एकमुश्त यात्री मिल जाएँगे। आशा है आप मेरे सुझाव पर गंभीरतापूर्वक विचार कर उपयुक्त निर्णय लेंगे।
सधन्यवाद,
भवदीय
रजनीबाला,
संयोजिका विद्यार्थी हितकारी संघ, नई दिल्ली।
दिनांक …..

25. अपने नगर / राज्य के महाविद्यालयों में रैगिंग की घटनाओं की ओर ध्यान आकृष्ट कराते हुए शिक्षा मंत्री को एक पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
शिक्षा मंत्री.
उत्तर प्रदेश सरकार,
लखनऊ।
विषय : राज्य के महाविद्यालयों में रैगिंग की समस्या।
महोदय,
मैं आपका ध्यान राज्य के विभिन्न नगरों के महाविद्यालयों में रैगिंग की घटनाओं की ओर आकृष्ट कराना चाहता हूँ ताकि इन्हें रोका जा सके।
न्यायालय के निर्देशानुसार किसी भी प्रकार की रैगिंग पर कानूनी पाबंदी है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश के विभिन्न कॉलेजों में इसकी धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। विशेषकर मेरठ, आगरा, मथुरा के इंजीनियरिंग कॉलेजों में रैगिंग की घटनाएँ निरंतर बढ़ती जा रही हैं। नए विद्यार्थियों को अनेक प्रकार से प्रताड़ित किया जा रहा है। कॉलेज प्रशासन इसके प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाए रहता है। पिछले महीने इस प्रकार की अनेक दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ घटी हैं।
आपसे अनुरोध है कि रैगिंग की बढ़ती घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए उचित कदम उठाए जाएँ तथा दोषियों को दंडित किया जाए।
सधन्यवाद,
भवदीय
रवि सक्सेना
सचिव, जन चेतना विचार मंच, गाजियाबाद (उ. प्र.)
दिनांक ….

26. विभिन्न राष्ट्रीय खेलकूद प्रतियोगिताओं के लिए राष्ट्रीय स्तर के प्रतियोगियों के चुनाव में चुनावकर्ताओं के पक्षतापूर्ण रवैये की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए केंद्रीय खेलमंत्री को एक पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
खेल मंत्री,
भारत सरकार
नई दिल्ली।
विषय : राष्ट्रीय खेलकूद प्रतियोगिताओं में पक्षपातपूर्ण चुनाव।
महोदय,
निवेदन है कि मैं एक खेल प्रेमी के नाते आपका ध्यान विभिन्न राष्ट्रीय खेलकूद प्रतियोगिताओं के लिए राष्ट्रीय स्तर के प्रतियोगियों के चुनाव में चुनावकर्ताओं के पक्षपातपूर्ण रवैये की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ।
मान्यवर, राष्ट्रीय स्तर की खेल-कूद प्रतियोगिताओं के चुनाव में पारदर्शिता नहीं बरती जाती। वहाँ भाई-भतीजावाद चलता है। चुनावकर्ताओं के रिश्तेदार इन प्रतियोगिताओं में चुन लिए जाते हैं जबकि प्रतिभावान खिलाड़ी अवसर पाने से वंचित रह जाते हैं। हॉकी और बैडमिंटन के साथ कई वर्षों से ऐसा ही हो रहा है। यही कारण है कि अक्षम खिलाड़ी चुने जाते हैं और हम मैच हार जाते हैं। अच्छे खिलाड़ियों को हतोत्साहित किया जाता है। ये खिलाड़ी कहीं फरियाद भी नहीं कर पाते हैं।
आशा है आप खिलाड़ियों की चयन प्रक्रिया पर अपनी तेज नज़र रखेंगे और प्रतिभावान खिलाड़ियों को उचित अवसर पाने से वंचित नहीं होने देंगे। यह सभी के हित में रहेगा।
सधन्यवाद,
भवदीय
रमन लांबा
संयोजक, राज्यस्तरीय खेल-कूद संघ, नई दिल्ली दिनांक

27. कुछ दिन पूर्व आतंकवादियों के साथ संघर्ष में शहीद हुए पुलिस अधिकारी की स्मृति में स्थापित विद्यालय के नव-निर्मित भवन के उद्घाटन हेतु अपने क्षेत्र के लोकसभा सदस्य को एक अनुरोध पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
श्री रामपाल सिंह,
(संसद सदस्य)
क ख ग लोकसभा क्षेत्र,
उत्तर प्रदेश।
विषय : विद्यालय भवन के उद्घाटन हेतु आमंत्रण।
महोदय,
सविनय निवेदन है कि हमारे नगर कोसीकलाँ (मथुरा) में शहीद रविकुमार ( पुलिस अधिकारी) की स्मृति में एक विद्यालय स्थापित किया गया है। आपको स्मरण होगा कि श्री रविकुमार कुछ समय पूर्व आतंकवादियों के साथ संघर्ष में शहीद हो गए थे। वे इसी नगर के थे अतः उनकी पुण्य स्मृति में यह विद्यालय बनाया गया है। इस विद्यालय का नया भवन बनकर तैयार हो गया है। हमारी संस्था की हार्दिक इच्छा है कि आप अगले मास की किसी तिथि को इस भवन का उद्घाटन कर कृतार्थ करें। आप अपनी सुविधा की तारीख से सूचित कर दें। हम उसी दिन उद्घाटन कार्यक्रम तय कर देंगे। इस नवनिर्मित भवन का उद्घाटन आपके कर-कमलों से ही होगा।
हम आपके स्वीकृति – पत्र की प्रतीक्षा में हैं।
सधन्यवाद,
भवदीय
उमेश कुमार
संयोजक, विद्यालय समिति, कोसीकलाँ (मथुरा)
दिनांक …..

28. दैनिक जीवन में प्लास्टिक के उपयोग से होने वाली हानियों का उल्लेख करते हुए उस पर पाबंदी लगाने के लिए अपने राज्य के पर्यावरण मंत्री को एक पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
पर्यावरण मंत्री
हरियाणा राज्य, चड़ीगढ़।
विषय- प्लास्टिक के उपयोग से हानियाँ
महोदय,
मैं एक प्रबुद्ध नागरिक की हैसियत से आपका ध्यान प्लास्टिक के उपयोग से होने वाली हानियों की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। आशा है आप इस समस्या को गंभीरतापूर्वक लेंगे।
यद्यपि प्लास्टिक के उपयोग पर कानूनी पाबंदी है, पर हरियाणा में इसका खुला प्रयोग हो रहा है। कहीं कोई रोक-टोक नहीं है। प्लास्टिक का उपयोग कितना हानिकारक है, इससे आप भी भलीभाँति परिचित हैं। इसने पर्यावरण पर बहुत बुरा प्रभाव डाला है। प्लास्टिक कभी भी पूरी तरह से समाप्त नहीं होता। यह नित्य नए रूपों में सामने आ रहा है। इसकी थैलियों को गायें तथा अन्य पशु निगल जाते हैं। इसने पानी के स्रोतों को अवरुद्ध कर दिया है। यह न तो गलता है और न नष्ट होता है। यही सोचकर इस पर प्रतिबंध लगाया गया था पर सरकार की उदासीनता से इस कानून पर अमल नहीं हो रहा है।
मैं आपसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि प्लास्टिक के उपयोग को पूर्णतः प्रतिबंधित किया जाए तथा इस कानून के अमल को भी सुनिश्चित किया जाए।
सधन्यवाद,
भवदीय
उमाशंकर
संयोजक, जनहित मोर्चा, हरियाणा
दिनांक ….

29. दूरदर्शन केंद्र निदेशक को प्रायोजित कार्यक्रमों की अधिकता एवं उनके गिरते हुए स्तर पर चिंता व्यक्त करते हुए पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
दूरदर्शन केंद्र अधिकारी
नई दिल्ली।
महोदय,
मैं इस पत्र के माध्यम से दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की अधिकता एवं उनके गिरते हुए स्तर की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता
आजकल दूरदर्शन पर प्रायोजित कार्यक्रमों की दशा और दिशा बिगड़ती जा रही है। लोग सारे दिन का कार्य करके थके हुए घर आते हैं। वह अपने आपको तरोताजा करने के लिए टी.वी. देखते हैं। पर देखते-देखते कभी कार्यक्रम चला जाता है। कभी किसी विज्ञापन के लिए लंबा अंतराल आ जाता है जिससे कार्यक्रम देखने का मजा खराब हो जाता है। धीरे-धीरे कार्यक्रमों का स्तर भी गिरता जा रहा है।
आपसे विनम्र अनुरोध है कि कार्यक्रमों की अधिकता और गिरते हुए स्तर को बढ़ाएँ। आशा है आप इस समस्या के समाधान के लिए गंभीरता से कदम उठाएँगे।
भवदीय
क, ख, ग संयोजक
दिनांक …….

30. किसी चैनल से प्रसारित हो रहे टी.वी. सीरियल की समीक्षा करते हुए चैनल के प्रधान प्रबंधक को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
प्रधान प्रबंधक,
कलर्स चैनल, संसद मार्ग, नई दिल्ली।
महोदय,
आपके टी.वी. चैनल द्वारा आजकल एक धारावाहिक कार्यक्रम प्रसारित किया जा रहा है- ‘बालिका वधू’।
यह कार्यक्रम एक अच्छे सामाजिक उद्देश्य की ओर जन-जागरण करने का काम कर रहा है। बाल-विवाह एक कुरीति है। इस कार्यक्रम में इसके बुरे परिणामों को प्रभावी ढंग से प्रदर्शित किया जा रहा है। इस कार्यक्रम के सभी पात्रों का अभिनय एवं निर्देशन प्रशंसनीय बाल विधवा के रूप में सुगना का चरित्र जीने वाली बालिका का अभिनय तो हृदय को छूने वाला है।
इस कार्यक्रम में राजस्थान के ग्रामीण वातावरण को साकार कर दिया गया है। आपके कार्यक्रम का सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
आशा है आप भविष्य में भी ऐसे ही उद्देश्यपूर्ण कार्यक्रम प्रसारित करते रहेंगे।
धन्यवाद सहित.
भवदीय
गरिमा बंसल, संयोजिका, दूरदर्शन दर्शक मंच
नई दिल्ली
दिनांक ….

31. मोहल्ले में काफी गंदगी इधर-उधर पड़ी रहती है। मच्छरों का प्रकोप है। जानवर इधर-उधर घूमते हैं और गंदगी फैलाते हैं। सफाई की कोई व्यवस्था नहीं है। कई-कई दिन सफाई कर्मचारी नहीं आते। बीमारी फैलने की संभावना है। इस संदर्भ में अपने नगर निगम के स्वास्थ्य अधिकारी को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
स्वास्थ्य अधिकारी,
दिल्ली नगर निगम
(पश्चिमी क्षेत्र)
राजा गार्डन, नई दिल्ली।
विषय : रघुबीर नगर क्षेत्र में गंदगी
महोदय,
मैं आपका ध्यान रघुबीर नगर क्षेत्र में फैली गंदगी की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ, ताकि इसका समुचित समाधान किया जा सके। रघुबीर नगर के इलाके में जगह-जगह कूड़े के ढेर जमा हैं। सड़कों और गलियों में गंदगी बिखरी हुई है। इन पर मच्छरों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। सूअर और अन्य जानवर इधर-उधर घूमते रहते हैं। कई स्थानों पर पानी सड़ रहा है। सारा वातावरण दुर्गंधमय हो रहा है।
इस क्षेत्र में सफाई की कोई नियमित व्यवस्था ही नहीं है। यहाँ सफाई कर्मचारी कई-कई दिन तक नहीं आते और जब आते हैं तो पेड़ के नीचे बैठकर बीड़ी पीते रहते हैं। उनसे कई बार मैंने स्वयं सफाई करने का अनुरोध किया है, पर उनके कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। यहाँ मलेरिया फैलने की पूरी-पूरी संभावना है और स्वास्थ्य विभाग कानों में तेल डाले बैठा है।
आपसे विनम्र प्रार्थना है कि इस क्षेत्र की सफाई की ओर शीघ्र ध्यान दें एवं सफाई की समुचित व्यवस्था करवाएँ। आपके इस कार्य के लिए यहाँ के निवासी आपके कृतज्ञ रहेंगे।
भवदीय
रमन सिंह
सचिव
रघुवीर नगर निवासी संघ, नई दिल्ली
दिनांक 25 अगस्त, 200….

32. अनियमित डाक वितरण की शिकायत करते हुए पोस्ट मास्टर महोदय को एक पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
डाकपाल महोदय,
केन्द्रीय डाकघर, पटना।
विषय : डाक की उचित व्यवस्था के लिए प्रार्थना-पत्र
मान्यवर,
विनम्र निवेदन है कि हम श्री राम रोड पर स्थित कोठी नं. 5 में अभी-अभी बदलकर आए हैं। यहाँ पर आए हुए भी लगभग एक पखवाड़ा बीत गया है, किन्तु हमारी डाक नियमित रूप से नहीं मिल रही है। कदाचित् इसका कारण डाकिए की अनियमितता हो अथवा कुछ प्रबंध अन्य असुविधाओं एवं परिस्थितियों वश ऐसा हुआ हो।
निवेदन है कि हमारी समस्त डाक के विषय में कृपया एक सरकारी जाँच की जाए ताकि भविष्य में नियमित रूप से हमें डाक मिलती रहे और उसमें किसी प्रकार का विलम्ब न हो।
इस मास के मासिक पत्र-पत्रिकाएँ अभी तक हमारे पास नहीं पहुँच सकी हैं। कृपया इस विषय में भी हमारे क्षेत्र से संबंधित डाकिए को आवश्यक निर्देश दे दीजिए। आपकी बड़ी आभारी रहूँगी।
निवेदिका
सुनीता
5, श्रीराम रोड पटना।
दिनांक 31 अक्टूबर, 200……

33. गत कुछ दिनों से आपके क्षेत्र में अपराध बढ़ने लगे हैं। इससे आप चिंतित हैं। इन अपराधों की रोकथाम के लिए थानाध्यक्ष को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
थानाध्यक्ष महोदय
थाना मंदिर मार्ग
नई दिल्ली-110001 श्रीमान्,

मैं इस पत्र के द्वारा आपके थाने के अंतर्गत आने वाले गोल मार्किट क्षेत्र में निरंतर बढ़ते जा रहे अपराधों की ओर आपका ध्यान आकर्षित कराना चाहता हूँ। पिछले एक सप्ताह से इस क्षेत्र में निरंतर लूटपाट, छीना-झपटी की घटनाएँ हो रही हैं। अभी दो दिन पूर्व ही रात के समय दो मोटर साइकिल सवारों ने श्रीमती प्रिया के गले से सोने की जंजीर झपट ली। आज सुबह ही एक व्यक्ति से रुपयों से भरा बैग छीन लिया गया। इससे पूर्व मंदिर मार्ग पर स्थित सरकारी आवासों के एक फ्लैट से दिन-दहाड़े चोरी हो गई। लड़कियों को छेड़ने की घटनाएँ तो प्रतिदिन की कहानी बन चुकी है। मंदिर मार्ग पर स्थित एक विद्यालय की छात्रा का अपहरण करने का प्रयास भी किया गया।
क्षेत्रवासी बढ़ते अपराधों से आतंकित हैं। क्या आप इन अपराधों को रोकने के लिए कदम उठाएँगे।
धन्यवाद
भवदीय बबलू शर्मा
बी- 25, मंदिर मार्ग, नई दिल्ली
दिनांक ……

34. अपने मोहल्ले में वर्षा के कारण उत्पन्न हुए जल भराव की समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए नगरपालिका अधिकारी को पत्र लिखिए।
उत्तर :
4/307. मोती बाग
राजस्थान
दिनांक : 25 जुलाई 20….
स्वास्थ्य अधिकारी,
नगरपालिका
राजस्थान
विषय : जलभराव की समस्या हेतु शिकायती पत्र।
महोदय,
निवेदन यह है कि मैं जगाधरी गेट का निवासी हूँ। यह क्षेत्र सफाई की दृष्टि से पूरी तरह उपेक्षित है। वर्षा के दिनों में तो इसकी और बुरी हालत हो जाती है। इन दिनों प्रायः सभी गलियों में वर्षा का जल भरा हुआ है। नगरपालिका इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही।
इस जल भराव के कारण आवागमन में ही कठिनाई नहीं होती बल्कि बीमारी फैलने का भी खतरा है।
आपसे नम्र निवेदन है कि आप स्वयं एक बार आकर इस जल भराव को देखें। तभी आप हमारी कठिनाई को समझ पाएँगे। कृपया इस क्षेत्र से जल निकास का शीघ्र प्रबंध करें।
आशा है कि आप मेरी प्रार्थना की तरफ ध्यान देंगे।
भवदीय
रमन अहुजा

35. डेंगू के बढ़ते प्रकोप पर चिंता व्यक्त करते हुए स्वास्थ्य मंत्री को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
स्वास्थ्य मंत्री,
दिल्ली सरकार,
दिल्ली।
विषय : डेंगू का बढ़ता प्रकोप।
मान्यवर,
मैं आपका ध्यान दिल्ली में निरंतर बढ़ते डेंगू के प्रकोप की ओर आकर्षित करारा चाहता हूँ।
आप इस तथ्य से भली प्रकार अवगत हैं कि सितंबर मास में मलेरिया और डेंगू का प्रकोप प्रति वर्ष बढ़ जाता है। गत वर्ष इसी बीमारी ने लगभग पचास व्यक्तियों की जान ले ली थी। इस वर्ष पुनः इसके लक्षण प्रकट होने प्रारंभ हो गए हैं। मलेरिया के रोगी तो घर-घर में देखे जा सकते हैं।
इन दिनों दिल्ली में गंदगी की भरमार है। सरकार के दावों के बावजूद सड़कों और गलियों में पानी सड़ रहा है। सफाई कर्मचारी अत्यंत लापरवाही बरत रहे हैं। अस्पतालों में भी रोगियों को दाखिल करने के स्थान पर एक जगह से दूसरी जगह भगाया जा रहा है। दवाएँ भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं।
आपसे विनम्र प्रार्थना है कि दिल्ली के नागरिकों को भाग्य के भरोसे छोड़ने के स्थान पर उनके स्वास्थ्य की रक्षा की उचित व्यवस्था की जाए। सफाई कर्मचारियों की तत्परता से काम करने का निर्देश दिया जाए। आशा है, आप समुचित कार्यवाही करेंगे।
धन्यवाद
भवदीया
सहित,
पूजा मैदीरत्ता
रमेश नगर निवासी संघ
दिनांक 3 जून, 20…..

36. आपके पड़ोस में आतंकवादी रह रहा है। आपने इस मकान से कुछ आतंकवादी गतिविधियाँ देखी हैं। इसकी पूर्ण जानकारी आप अपने नगर के उच्च पुलिस अधिकारी को पत्र लिखकर दीजिए ताकि किसी दुर्घटना से पूर्व ही उचित कार्यवाही हो सके।
उत्तर :
सेवा में,
सहायक पुलिस आयुक्त
(पश्चिमी क्षेत्र)
राजौरी गार्डन, नई दिल्ली
विषय : आतंकवादी के बारे में सूचना
महोदय,
मैं रघुबीर नगर, नई दिल्ली के एच ब्लॉक का निवासी हूँ। मेरी गली के मकान एच-604 में कुछ संदिग्ध व्यक्ति गत एक मास से रह रहे हैं। ये तीन व्यक्ति हैं। इनके पास एक पुराना स्कूटर है जिसमें ये संदिग्ध सामग्री लाते हैं। इनकी गतिविधियाँ दोपहर या रात में बढ़ जाती हैं। मुझे ये लोग किसी आतंकवादी गिरोह के सदस्य लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये घर की ऊपरी मंजिल में बम बनाते रहते हैं। ये किसी मौके की तलाश में लगते हैं। मुहल्ले के लोग इन्हें जानते – पहचानते तक नहीं।
आपसे प्रार्थना है कि आप किसी दुर्घटना के घटित होने से पहले ही उचित कार्यवाही करें।
सधन्यवाद
भवदीय
क ख ग
दिनांक 15 जुलाई, 20…..

37. सार्वजनिक पद पर बने व्यक्तियों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कुछ उपाय सुझाते हुए किसी दैनिक पत्र के संपादक को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक महोदय,
दैनिक नवभारत टाइम्स,
नई दिल्ली।
विषय : सार्वजनिक पद पर बने व्यक्तियों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के उपाय।
महोदय,
मैं आपके दैनिक लोकप्रिय समाचार पत्र के माध्यम से सरकार और समाज का ध्यान सार्वजनिक पद पर बने उन व्यक्तियों की तरफ आकर्षित कराना चाहता हूँ, जो सार्वजनिक पद पर बैठकर सभी के लिए भलाई करने की वजह भ्रष्ट होते नजर आ रहे हैं। ये व्यक्ति जब सरकारी पद ग्रहण करते हैं, तो शपथ पद लेकर पूरा भरोसा जनता को देते हैं व अधिक कार्य करने का भरोसा भी जनता को देते हैं लेकिन कुर्सी पर बैठकर भूल जाना आम बात नजर आती है। इस प्रवृत्ति को रोकना आवश्यक है।
मैं इस पत्र के माध्यम से सार्वजनिक पद पर बैठे व्यक्तियों से अपील करना चाहता हूँ कि वह अपनी नीति में उपयुक्त सुधार करें, समय पर ऑफिस (दफ्तर) आएँ, घंटों उधर – इधर न बैठें, समय का ध्यान रखते हुए कार्य पर अधिक ध्यान दें, जनता का उचित मार्गदर्शन करें व उनके सहयोगी बनें।
धन्यवाद सहित,
भवदीय
ध्रुव कुमार निगम
डी०डी०ए फ्लैट,
56, झंडेवालान।

38. अपने क्षेत्र के लोकसभा सदस्य को पत्र लिखकर अपने गाँव से लगभग दो किलोमीटर पर स्थित रेलवे स्टेशन से गाँव तक सड़क बनवाने के लिए अनुरोध कीजिए।
उत्तर :
सेवा में
संसद सदस्य महोदय,
फरीदाबाद जिला, हरियाणा
विषय – दीघाट गाँव से रेलवे स्टेशन तक सड़क निर्माण मान्यवर,
सविनय निवेदन है कि हमारा गाँव दीघौट आपके निर्वाचन क्षेत्र का एक प्रमुख गाँव है। यह गाँव सभी प्रकार की जन सुविधाओं से वंचित है।
इस गाँव के निवासियों को विभिन्न कार्यों से फरीदाबाद – दिल्ली तथा मथुरा – आगरा जाना पड़ता है। इस गाँव से निकटतम रेलवे स्टेशन लगभग दो किलोमीटर है। यह स्टेशन असावटी का है। गाँव से यहाँ तक पहुँचने के लिए पैदल चलने के अलावा अन्य कोई साधन नहीं है। यह दो किलोमीटर का रास्ता कच्चा एवं टूटा-फूटा है। गाँव वालों की इच्छा है कि इस दो किलोमीटर रास्ते पर पक्की सड़क बना दी जाए ताकि वाहनों का चलना सुगम हो जाए। पक्की सड़क बनने से यह गाँव रेलवे स्टेशन से जुड़ जाएगा और यहाँ के ग्रामवासी रेल-सुविधा का पूरा लाभ उठा सकेंगे।
आप हमारे क्षेत्र के निर्वाचित सांसद हैं अतः आप यह कार्य अपनी संसद निधि से सुगमतापूर्वक करवा सकते हैं। आशा है आप जनहित में यह कार्य शीघ्र करवाने की कृपा करेंगे।
सधन्यवाद,
भवदीय
चौ. जगबीर सिंह
प्रधान, दीघौट पंचायत सभा, हरियाणा
दिनांक ……..

39. देश के महानगरों में ‘केवल महिलाओं के लिए’ आरक्षित लोकल ट्रेन चलाने की सराहना करते हुए रेलवे बोर्ड के चेयरमैन रेल भवन, नई दिल्ली को एक पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
चेयरमैन,
रेलवे बोर्ड, नई दिल्ली।
विषय- केवल महिलाओं के लिए आरक्षित लोकल ट्रेन
महोदय,
मैं, एक प्रबुद्ध नागरिक के नाते आपकी तथा आपके रेलवे बोर्ड की इस बात की सराहना करना चाहती हूँ कि आपने देश के महानगरों में ‘केवल महिलाओं के लिए आरक्षित लोकल ट्रेन चलाकर अत्यंत प्रशंसनीय कार्य किया है। इस कार्य की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है।

पिछले कुछ वर्षों से देश की महिलाओं में असुरक्षा की भावना बढ़ती जा रही है। वे अपने कार्यस्थल तक पहुँचने में अनेक प्रकार की समस्याओं से जूझती थीं। लोकल ट्रेन में इतनी भीड़ होती है कि उसमें महिलाओं का यात्रा करना बेहद तकलीफदेह अनुभव होता है। इस समस्या का निदान आपने अलग से आरक्षित ट्रेनें चलाकर कर दिया है। अब कामकाजी महिलाएँ इन ट्रेनों में बिना किसी भय के आराम से यात्रा कर रही हैं। यह एक प्रकार से नारी सम्मान को बढ़ावा देने वाला कदम है।
एक बार पुनः बधाई एवं धन्यवाद।
भवदीया
गरिमा बंसल
संयोजक, दैनिक महिला यात्री संघ, नई दिल्ली
दिनांक ……..

40. अपने प्रधानाचार्य को एक प्रार्थना पत्र लिखिए, जिसमें कई महीने से अंग्रेजी की पढ़ाई न होने के कारण उत्पन्न कठिनाई का वर्णन किया गया हो।
उत्तर :
प्रधानाचार्य
केंद्रीय विद्यालय,
जम्मू एवं कश्मीर
विषय : अंग्रेजी की पढ़ाई न हो पाने हेतु शिकायती पत्र।
मान्यवर महोदय
आप भली-भाँति जानते हैं कि हमारे अंग्रेजी के अध्यापक श्री ज्ञानचंद जी पिछले तीन सप्ताह से बीमार हैं। अभी भी उनके स्वास्थ्य में विशेष सुधार नहीं हो रहा। डॉक्टर का कहना है कि अभी श्री ज्ञानचंद जी को स्वस्थ होने में कम-से-कम दो सप्ताह और लगेंगे। पिछले तीन सप्ताह से हमारी अंग्रेजी की पढ़ाई ठीक ढंग से नहीं हो रही। आपने जो प्रबंध किया है, वह संतोषजनक नहीं है। उधर परीक्षा सिर पर आ रही हैं। अभी पाठ्यक्रम भी समाप्त नहीं हुआ है। पुनरावृत्ति के लिए भी समय नहीं बचेगा। अतः आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप हमारी अंग्रेजी की पढ़ाई का उचित एवं संतोषजनक प्रबंध करें। यदि कुछ कालांश बढ़ा दिए जाएँ तो और भी अच्छा रहेगा। आशा है कि हमारी कठिनाई को शीघ्र ही दूर करने का प्रयास करेंगे।
आपका आज्ञाकारी
अनुजा (बारहवीं)

41. अपने नगर के राजकीय चिकित्सालय में दिन-प्रतिदिन बढ़ती रोगियों की संख्या तथा डॉक्टरों एवं दवाइयों की कमी से उत्पन्न असुविधाओं की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए स्वास्थ्य निदेशक को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
स्वास्थ्य निदेशक
दिल्ली नगर निगम
महोदय,
सेवा में निवेदन है कि हिंदूराव अस्पताल में हजारों रोगी प्रतिदिन चिकित्सा कराने के लिए आते हैं। दवाई की खिड़की के पास भी रोगियों की लंबी पंक्ति होती है। रोगी को अस्पताल में जाकर डॉक्टर से मिलने के लिए तीन-चार घंटे का समय लग जाता है। इस अस्पताल. में डॉक्टरों की संख्या कम है तथा रोगियों की संख्या बढ़ती जाती है। डॉक्टर द्वारा लिखी दवाइयों में से 50 प्रतिशत दवाएँ अस्पताल में मिलती ही नहीं हैं। ऐसा लगता है कि महँगी दवाएँ अस्पताल के अधिकारियों तथा कर्मचारियों द्वारा बेच दी जाती हैं। आपसे अनुरोध है कि इस अस्पताल में आने वाले रोगियों की समस्या के समाधान के लिए शीघ्र ही उचित कदम उठाएँ।
भवदीय
आकाश जैन
पहाड़ी धीरज,
सदर बाजार, दिल्ली।

42. आपके मुहल्ले के समीप ‘बुद्धा पार्क’ की दुर्दशा की ओर निगमायुक्त का ध्यान आकर्षित करते हुए गौतम की ओर से पत्र लिखिए जिसमें पार्क के समुचित रख-रखाव की व्यवस्था का आग्रह किया हो।
उत्तर :
सेवा में
निगमायुक्त,
दिल्ली नगर निगम,
टाउन हॉल, नई दिल्ली।
विषय : कृष्ण नगर के बुद्धा पार्क की दुर्दशा
महोदय,
मैं आपका ध्यान कृष्ण नगर के विवेक मुहल्ले में बने ‘बुद्धापार्क’ की दुर्दशा की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ।
यह पार्क तीन वर्ष पूर्व बना था। दिल्ली के महापौर ने इसका उद्घाटन बड़े समारोहपूर्वक किया था। उसके बाद किसी ने इसकी सुध नहीं ली। उद्यान विभाग ने यहां के लिए न तो किसी माली की व्यवस्था की और न किसी चौकीदार की। इसी प्रकार यह पार्क गंदगी के ढेर में परिवर्तित होता चला जा रहा है। यहाँ आवारा पशु भी घूमते रहते हैं। पार्क बनाने का उद्देश्य ही खत्म हो गया है। आपसे विनम्र प्रार्थना है कि इस पार्क के समुचित रख-रखाव की व्यवस्था की ओर तुरंत ध्यान दिया जाए। यहाँ के लिए एक स्वच्छ वातावरण वाले पार्क की नितांत आवश्यकता है। आशा है कि इस पार्क के लिए माली और चौकीदार की नियुक्ति शीघ्र की जाएगी। आपकी अति कृपा होगी
धन्यवाद सहित
भवदीय
गौतम (संयोजक)
विवेक मुहल्ला, सुधार समिति, दिल्ली
दिनांक …..

43. अपने नगर के महापौर को पत्र लिखकर नगर में नियमित एवं अपर्याप्त जल-वितरण से होने वाली असुविधाओं के प्रति उनका ध्यान आकृष्ट कीजिए।
उत्तर :
सेवा में
महापौर महोदय
आगरा नगर निगम
आगरा (उ.प्र.)
विषय : जलापूर्ति की समस्या
मान्यवर,
मैं इस पत्र के माध्यम से आपका ध्यान हरिपर्वत क्षेत्र में हो रहे अनियमित एवं अपर्याप्त जल-वितरण से हो रही असुविधाओं की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ।
इस क्षेत्र में नलों में पानी आने का कोई निश्चित समय नहीं है। कभी यह चार बजे आता है तो कभी आठ बजे। इसके कारण हम कहीं जा नहीं पाते। पानी की सप्लाई भी अपर्याप्त होती है। पानी 10-15 मिनट के लिए ही आता है। इतने कम समय में हम आवश्यकता के अनुरूप जल नहीं भर पाते हैं। छत पर रखी टंकी में तो पानी चढ़ ही नहीं पाता। इस स्थिति से यहाँ के निवासियों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ रहा है। गर्मी के मौसम में तो स्थिति और भी खराब हो जाती है।
आशा है आप इस समस्या का हल तुरंत कर यहाँ के निवासियों को राहत पहुँचाएँगे।
सधन्यवाद
भवदीय
रजनीकांत (सचिव)
हरिपर्वत निवासी संघ, आगरा
दिनांक ……..

44. आपकी कॉलोनी में वाहनों की चोरी का घटनाएँ निरंतर बढ़ती जा रही हैं। क्षेत्र के पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखकर समस्या के निदान के लिए अनुरोध कीजिए।
उत्तर :
सेवा में
पुलिस अधीक्षक,
जनकपुरी थाना,
नई दिल्ली।
विषय- जनकपुरी क्षेत्र में वाहन चोरी की घटनाएँ
महोदय,
निवेदन है कि गत एक सप्ताह से जनकपुरी कॉलोनी में वाहन चोरी की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। इस कॉलोनी में निरंतर वाहनों की संख्या बढ़ रही है। नित्य नई गाड़ियाँ आ रही हैं। यहाँ गाड़ियों के लिए किसी उचित स्थान की व्यवस्था नहीं है। अभी तक कहीं भी पार्किंग नहीं बनाई गई है। अतः लोग अपने घरों के आगे सड़क पर गाड़ी खड़ी करने के लिए विवश हैं।
रात्रि के समय प्रायः वाहनों की चोरी हो जाती है। वाहन चोरों का ध्यान नई गाड़ियों पर रहता है। पिछले सप्ताह ही लगभग दस गाड़ियाँ चोरी हो चुकी हैं। पुलिस अभी तक किसी वाहन चोर को नहीं पकड़ सकी है। इससे लोगों में असुरक्षा की भावना बढ़ती जा रही है। आपसे विनम्र अनुरोध है कि इस समस्या का तुरंत निदान खोजा जाए। पुलिस की गश्त बढ़ाई जाए तथा संदिग्ध व्यक्तियों की धर-पकड़ की जाए।
आशा है आप इस समस्या की ओर तुरंत ध्यान देंगे।
सधन्यवाद,
भवदीय
उमाकांत गोयल
सचिव
जनकपुरी निवासी संघ, नई दिल्ली।
दिनांक …..

45. गाँव के प्रधान की ओर से अकाल से पीड़ित ग्रामवासियों की सहायता हेतु मुख्यमंत्री राहत कोष से आर्थिक अनुदान के लिए, मुख्यमंत्री – कार्यालय को एक पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
सचिव महोदय,
मुख्यमंत्री कार्यालय (राहत कोष)
हरियाणा सरकार, चंडीगढ़।
विषय – अकाल पीड़ितों की सहायता
मान्यवर,
सविनय निवेदन है कि हमारा गाँव पिनगवा, मेवातपुरम जिले का एक प्रमुख गाँव है। यह गाँव पिछले चार मास से अकाल पीड़ित है। यहाँ भयंकर अकालं पड़ा हुआ है। फसलें बर्बाद हो गई हैं। यहाँ के निवासी भूखे-प्यासे हैं। उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। ग्रामवासी अपनी सहायता के लिए हरियाणा सरकार की ओर देख रहे हैं।
मैं इस गाँव का प्रधान होने के नाते आपसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि इस गाँव के अकाल पीड़ितों को मुख्यमंत्री राहत कोष से आर्थिक सहायता प्रदान की जाए। आपकी सहायता से यहाँ के ग्रामवासी पुनः सामान्य जीवन जीने में समर्थ हो सकेंगे। आशा है आप अपने कार्यालय से उचित सहायता राशि की शीघ्र व्यवस्था कराने की कृपा करेंगे।
सधन्यवाद,
भवदीय
चौ. रघुबीरसिंह
प्रधान
पिनगवा ग्राम पंचायत, हरियाणा
दिनांक …..

46. आपकी कॉलोनी में दो कुख्यात डकैत, बीट कांस्टेबल के सहयोग से पकड़े गए। कॉलोनी की समिति के अध्यक्ष के रूप में उसके अपूर्व साहस एवं कर्तव्यनिष्ठा की सराहना करते हुए संबद्ध पुलिस आयुक्त को प्रशंसा पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
पुलिस आयुक्त
दिल्ली पुलिस,
पुलिस मुख्यालय, दिल्ली।
विषय-बीट कांस्टेबल की कर्तव्यनिष्ठा
महोदय,
मैं अपनी जनकपुरी कॉलोनी के अध्यक्ष के रूप में आपके ध्यान में ‘सी’ ब्लॉक के बीट कांस्टेबल श्री हरिराम के अपूर्ण साहस तथा कर्तव्यनिष्ठा की भावना को लाना चाहता हूँ।
कल रात हमारी कॉलोनी में दो कुख्यात डकैत घुस आए थे। उपर्युक्त कांस्टेबल उस समय ड्यूटी पर थे। उसने इन डकैतों को देख लिया। उसने अत्यंत तत्परता एवं कुशलता का परिचय देते हुए उन्हें धर दबोचा। अभी वे कोई वारदात नहीं कर पाए थे। इस प्रयास में हमारे चौकीदार ने भी उसकी मदद की। उसकी कर्तव्यनिष्ठा से कॉलोनी में कोई बड़ी घटना होते-होते बच गई।
हमारी कॉलोनी समिति इस बीट कांस्टेबल के अपूर्व साहस एवं कर्तव्यनिष्ठा की भूरि-भूरि सराहना करती है। हम चाहते हैं कि आपका विभाग भी उसे पुरस्कृत करे।
सधन्यवाद,
भवदीय
रमाकांत शर्मा, अध्यक्ष
जनकपुरी कल्याण समिति, नई दिल्ली
दिनांक ….

47. आपके ग्रामीण क्षेत्र से गुजरने वाली रेलगाड़ियाँ स्टेशन न होने के कारण वहाँ नहीं रुकती हैं। इस कारण शहर जाने वाले सैकड़ों यात्रियों को लगभग दस किलोमीटर की दूरी तय कर गाड़ी पकड़नी पड़ती है। क्षेत्र के लोकसभा सदस्य को पत्र लिखकर एक रेलवे स्टेशन की व्यवस्था कराने का अनुरोध कीजिए।
उत्तर :
सेवा में,
श्री रामसेवक यादव,
सांसद – आगरा निर्वाचन क्षेत्र.
नार्थ ब्लॉक, नई दिल्ली
विषय – कागारौल में रेलवे स्टेशन का न होना
महोदय,
सविनय निवेदन है कि कांगारौल नामक गाँव आगरा से दस किलोमीटर दूर बसा है। यह गाँव आपके निर्वाचन क्षेत्र का एक प्रमुख गाँव है। यहाँ की आबादी लगभग 20 हजार है।
इस गाँव में कोई रेलवे स्टेशन नहीं है। इसी कारण यहाँ से गुजरने वाली रेलगाड़ियाँ यहाँ नहीं रुक पाती। इस गाँव के निवासियों को दस किलोमीटर दूर जाकर आगरा से रेलगाड़ियाँ पकड़नी पड़ती हैं। इससे सैंकड़ों यात्रियों को प्रतिदिन परेशानी का सामना करना पड़ता है। आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप रेलमंत्री से मिलकर इस गाँव में रेलवे स्टेशन बनवाने के प्रयास करें ताकि इस गाँव के निवासी असुविधा से बच सकें। यदि आप प्रयास करेंगे तो निश्चय ही यहाँ के लिए रेलवे स्टेशन की व्यवस्था हो जाएगी।
आपकी इस कृपा के लिए इस गाँव के निवासी आपके कृतज्ञ रहेंगे।
सधन्यवाद,
भवदीय
ओमप्रकाश, सरपंच
कागारौल पंचायत समिति, आगरा
दिनांक …..

48. सड़कों पर होने वाली दुर्घटना से बचाव के लिए परिवहन विभाग के सचिव को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
महाप्रबंधक महोदय,
दिल्ली परिवहन निगम
सिंधिया हाउस, नई दिल्ली।
मान्यवर,
मैं आपका ध्यान दिल्ली परिवहन व्यवस्था की कमियों की ओर आकर्षित कराना चाहती हूँ जिसके अंतर्गत सड़कों पर दुर्घटनाओं की रफ्तार लगातार बढ़ रही है। बसें, कारें, साईकिलें, मोटर साइकिल आदि कोई भी तेजी के बगैर चलना उचित समझता ही नहीं है, फिर चाहे दुर्घटना में किसी की मौत हो या हाथ-पैर टूट जाएँ, किसी को किसी की परवाह नहीं दिखाई देती।
दिल्ली परिवहन निगम अपने नियम को थोड़ा सख्ती से लागू करते हुए, सड़क पर होने वाली दुर्घटनाओं को रोक सकते हैं जिसमें सभी को लाइन में चलने के नियम, थोड़ा सा जाम देखकर हाहाकार न करने के नियम, शिष्टता का व्यवहार करने के नियमों का पाठ लोगों को पढ़ाया जाए।
आशा है आप मेरे सुझावों पर गंभीरतापूर्वक विचार कर उन्हें लागू कराने का प्रयास करेंगे।
भवदीया
क, ख, ग संयोजिका
महिला मुक्ति मोर्चा, दिल्ली
दिनांक ……

49. एक सड़क को चौड़ा करने के बहाने आवश्यकता से बहुत अधिक पेड़ काटे गए हैं, इसकी विस्तृत जानकारी देते हुए वन और पर्यावरण विभाग को एक पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
प्रशासनिक अधिकारी,
वन एवं पर्यावरण विभाग,
दिल्ली सरकार, दिल्ली
विषय : वृक्षों का काटा जाना।
महोदय,
मैं आपका ध्यान पूर्वी दिल्ली के प्रीत विहार क्षेत्र में पेड़ों के काटे जाने की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। यहाँ पर राष्ट्रमंडलीय खेलों के आयोजन हेतु मुख्य सड़क को चौड़ा किया जा रहा है। इस काम हेतु बीच में आ रहे कुछ पेड़ों को काटा जाना था। इनकी संख्या मुश्किल से 50 थी। लेकिन यहाँ लगभग 200 पेड़ों को काटा गया है। सड़क चौड़ा करने के बहाने आवश्यकता से बहुत अधिक पेड़ काटे गए हैं। यह काम सर्वथा नियम विरुद्ध है। इससे पर्यावरण पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। यहाँ के स्थानीय निवासियों ने इसका विरोध भी किया था, पर कर्मचारी अपनी मनमानी करने पर आमादा थे। किसी उच्च अधिकारी ने मौके पर निरीक्षण करने का कष्ट तक नहीं उठाया। ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें कुछ व्यक्तियों का स्वार्थ निहित था। इस पूरे मामले की जाँच की जानी चाहिए, ताकि भविष्य में इस गलती को न दोहराया जा सके।
धन्यवाद सहित,
दिनांक : …….
भवदीय
उमाकांत (संयोजक)
पर्यावरण बचाओ अभियान,
नई दिल्ली

50. बाढ़ उतर जाने के बाद नदी के तट पर बसी बस्तियों में अनेक रोग फैलने लगे हैं। स्वास्थ्य अधिकारी को इसका समाधान सुझाते हुए तुरंत कदम उठाने का अनुरोध कीजिए।
उत्तर :
सेवा में
स्वास्थ्य अधिकारी,
दिल्ली नगर निगम (पूर्वी क्षेत्र)
शाहदरा, दिल्ली।
विषय : यमुना तट पर बसी बस्तियों में रोग संक्रमण
महोदय,
सविनय निवेदन है कि पिछले सप्ताह यमुना नदी में बाढ़ आई थी। बाढ़ का पानी तो उतर गया पर उसके पश्चात् यमुनातट के आस-पास बसी बस्तियों में अनेक रोग फैलने लगे हैं। फ्लू, चिकनगुनिया, हैजा, वायरल फीवर आदि रोग फैलते जा रहे हैं। आपका स्वास्थ्य विभाग इस ओर उचित ध्यान नहीं दे रहा है। मैं कुछ सुझाव दे रहा हूँ।
सबसे पहले तो इस क्षेत्र की सफाई की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए। सड़कों की मरम्मत तुरंत करने की आवश्यकता है। इसके बाद रोगियों को रोग निरोधक टीके लगाने का अभियान शुरू किया जाना चाहिए। रोगियों की समुचित चिकित्सा हेतु वर्तमान अस्पतालों में चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार करना आवश्यक है। पर्याप्त दवा तथा जाँच की ओर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है। इस दिशा में योजनाबद्ध ढंग से कार्य होना चाहिए तभी नागरिक सुरक्षित रह सकेंगे।
सधन्यवाद,
भवदीय
रतनलाल शर्मा
संयोजक, जन कल्याण संघ, पूर्वी दिल्ली
दिनांक ………..

51. चुनाव के दिनों में बढ़ गए शोर और ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने की अपील करते हुए थानाध्यक्ष को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
थानाध्यक्ष
राजौरी गार्डन थाना,
नई दिल्ली।
विषय-ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण
महोदय,
निवेदन है कि दिल्ली में नगर निगम के चुनाव होने के कारण इन दिनों राजौरी गार्डन क्षेत्र में शोर और ध्वनि प्रदूषण बहुत बढ़ गया है। प्रातः काल से रात्रि बारह बजे तक चारों ओर शोर ही शोर सुनाई देता है। इससे हृदय रोगियों तथा विद्यार्थियों को बहुत असुविधा का सामना करना पड़ रहा है।
इस ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने की अत्यंत आवश्यकता है। इसे 8-10 तक ही नियंत्रित किया जाना चाहिए। रात्रि 10 बजे के बाद लाउडस्पीकर बजाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. वनि के स्तर पर भी निगरानी रखनी आवश्यक है। यह कार्य पुलिस ही प्रभावी ढंग से कर सकती है। अतः आपसे निवेदन है कि शोर और ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण करने के लिए प्रभावी कदम उठाना सुनिश्चित करें।
सधन्यवाद,
भवदीय.
रमेश पोखरियाल
सचिव, जन जागृति मिशन, दिल्ली
दिनांक……………..

52. ‘तीसरी आँख’ नामक एक संस्था को घर-घर जाकर सर्वेक्षण करने के लिए कुछ युवक-युवतियों की आवश्यकता है। अपनी योग्यता, रुचि आदि का उल्लेख करते हुए संस्था के सचिव को आवेदन पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
सचिव,
‘तीसरी आँख ‘ संस्था, नई दिल्ली।
विषय – सर्वेक्षण हेतु आवेदन-पत्र
महोदय,
मुझे विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि आपकी संस्था को घर-घर जाकर सर्वेक्षण करने के लिए कुछ युवक-युवतियों की आवश्यकता है। मैं भी इस कार्य को करने के लिए प्रार्थी हूँ। मैं सर्वे कार्य में गहन रुचि रखता हूँ तथा कई संस्थाओं के लिए सर्वेक्षण कार्य कर चुका हूँ।
मेरा स्ववृत्त इस प्रकार है –

  • नाम – शिवकांत शर्मा
  • पिता का नाम – श्री हरिशंकर शर्मा
  • पता – 24 / ए- टैगोर गार्डन, नई दिल्ली- 110018
  • दूरभाष – 25523405
  • जन्मतिथि – 25 फरवरी, 1991
  • शैक्षणिक योग्यता – 2010 में दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री द्वितीय श्रेणी में प्राप्त की।
  • अनुभव – सहारा ग्रुप, पाण्ड्स प्रोडक्ट के लिए सर्वेक्षण कार्य।

सभी योग्यताओं के प्रमाणपत्रों की फोटोप्रति संलग्न हैं। आशा है आप मुझे अवसर प्रदान कर कृतार्थ करेंगे।
सधन्यवाद,
भवदीय
शिवकांत शर्मा.
दिनांक ………………

53. एक दिन सुबह जागने के बाद आपने पाया कि रात में आपके घर में चोरी हो गई है। आपने पुलिस को सूचित किया, किन्तु पुलिस नहीं आई। थाने जाने पर आपकी शिकायत भी नहीं लिखी गई। पूरी जानकारी देते हुए क्षेत्र के पुलिस अधिकारी को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
पुलिस उपायुक्त,
पश्चिमी क्षेत्र, तिलक नगर,
नई दिल्ली
विषय : चोरी की रिपोर्ट न लिखा जाना।
महोदय,
मैं आशा पार्क, जेल रोड, नई दिल्ली का निवासी हूँ। कल दिनांक …… को प्रातः जागने पर मैंने पाया कि रात के समय मेरे घर में चोरी
हो गई है। लगभग एक लाख रुपए का सामान चोरी चला गया। मैंने तुरंत स्थानीय थाने को फोन पर सूचना दी, पर वहाँ से पुलिस का कोई व्यक्ति जानकारी लेने नहीं आया। हारकर दस बजे मैं स्वयं हरिनगर थाने पहुँचा। वहाँ मेरे बार-बार अनुरोध करने के बावजूद किसी ने चोरी की शिकायत तक नहीं लिखी। पुलिस का यह रवैया बड़ा अप्रत्याशित प्रतीत हुआ। पुलिस तो ‘अपना हाथ सबके साथ’ का दावा करती है। अब मैं निराश होकर आपकी शरण में आया हूँ। मैं अपना पूरा विवरण नीचे दे रहा हूँ –

नाम : रवि सक्सेना
पता : 5/21, आशा पार्क, जेल रोड, नई दिल्ली
चोरी का दिन : 5 अप्रैल, 2009 की रात्रि

चोरी गए सामान का विवरण :

1. एक कलर टी.वी.
2 एक सोने की चेन (लगभग 20 ग्राम वजन)
3. दो सोने की चूड़ियाँ (लगभग 30 ग्राम वजन)
4. दस साड़ियाँ

आपसे निवेदन है कि आप संबंधित थाने को निर्देश देकर मेरी शिकायत दर्ज करवाएँ तथा मामले की तहकीकात करवाएँ।
धन्यवाद सहित
दिनांक : 6 अप्रैल, 20…..
भवदीय
रवि सक्सेना

54. आप विद्यालय के वार्षिकोत्सव में एक नाटक प्रस्तुत कर रहे हैं। पूर्वाभ्यास के बीच आपने पाया कि दो विद्यार्थी बाहर धूम्रपान कर रहे हैं। आपको कैसा लगा ? इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है ? अपने प्रधानाचार्य को पत्र लिखकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सेवा में
प्रधानाचार्य,
राष्ट्रीय विद्यालय, जयपुर।
महोदय,
मैं आपका ध्यान अपने विद्यालय के विद्यार्थियों में बढ़ती धूम्रपान की प्रवृत्ति की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ ताकि इस समस्या का समाधान खोजा जा सके।
आपको ज्ञात ही है कि इन दिनों विद्यालय के वार्षिकोत्सव की तैयारियाँ चल रही हैं। हमारी बारहवीं कक्षा एक नाटक का पूर्वाभ्यास कर रही है। कल जब पूर्वाभ्यास चल रहा था तब मैंने देखा कि दो विद्यार्थी बाहर धूम्रपान कर रहे हैं। मैंने उन्हें ऐसा न करने को कहा तो वे लड़ने पर उतारू हो गए। मुझे उनका व्यवहार बहुत बुरा लगा। वे मेरी ही कक्षा के विद्यार्थी हैं।
मैं चाहता हूँ कि आप इस समस्या के प्रति सचेष्ट हों और इस पर रोक लगाने का समुचित उपाय करें। मैं सहयोग करने को तैयार हूँ।
सधन्यवाद
आपका आज्ञाकारी शिष्य
सचिन लांबा
कक्षा : बारहवीं (अ)
दिनांक ……..

55. दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले किसी कार्यक्रम की समीक्षा करते हुए दूरदर्शन निदेशक को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
निदेशक,
दिल्ली दूरदर्शन केंद्र,
मंडी हाउस, नई दिल्ली।
महोदय,
मैं इस पत्र के माध्यम से दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ‘कृषि दर्शन’ की समीक्षा करना चाहता हूँ। आशा है आप इस कार्यक्रम उपयुक्त सुधार कर सकेंगे।
‘कृषि दर्शन’ कार्यक्रम किसानों को शिक्षित करने के साथ-साथ उनका मनोरंजन भी करता है। ‘कृषि दर्शन’ कार्यक्रम में कृषि वैज्ञानिकों को आमंत्रित किया जाता है तथा उनसे कृषि संबंधी जानकारी दिलाई जाती है।
इस कार्यक्रम का संचालन सही ढंग से नहीं किया जा रहा है। संचालक महोदय की भाषा आम ग्रामीणों को समझ नहीं आती है। कार्यक्रम में का समय भी सुविधाजनक नहीं है। ग्रामीणों को शिक्षा के साथ-साथ मनोरंजन का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। उनके कार्यक्रम में विविधता का होना आवश्यक है। कृषि संबंधी सूचनाएँ विस्तारपूर्वक दी जानी चाहिए।
आशा है आप इन सुझावों पर ध्यान देंगे।
सधन्यवाद,
भवदीय
उमेश वर्मा
दिनांक………..

56. हरियाणा सरकार के कृषि मंत्रालय के सचिव की ओर से जिला उपायुक्त को पत्र लिखें, जिसमें बाढ़ से निपटने के सुझाव दिए गए हों।
उत्तर :

कृषि मंत्रालय,
हरियाणा सरकार, चंडीगढ़

संख्या : हरि (कृषि) ओ.ए.-1-99-532

दिनांक 02.02.20….
सेवा में,
उपायुक्त महोदय,
रोहतक।
विषय : रोहतक जिले में बाढ़ से निपटने के सुझाव।
महोदय,
हरियाणा सरकार की ओर से मुझे आपको यह सूचित करने का निर्देश प्राप्त हुआ है कि करनाल जिले में आई बाढ़ से निपटने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएँ। राष्ट्रीय समाचार-पत्रों में इस बाढ़ के बारे में अनेक समाचार प्रकाशित हुए हैं। इस बात को लेकर हरियाणा सरकार की आलोचना की गई है कि सरकार की ओर से आवश्यक कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। अतः आप इस दिशा में तत्काल आवश्यक कार्यवाही करें।

बाढ़ से प्रभावित क्षेत्रों में तत्काल राहत सामग्री पहुँचाई जाए। समाज के पिछड़े हुए और गरीब लोगों में उपयोग की आवश्यक वस्तुएँ मुफ्त बाँटी जाएँ। जिनके मकान इस बाढ़ में गिर गए हैं, उनको तत्काल अनुदान धनराशि दी जाए। इस बाढ़ से मलेरिया आदि बीमारियाँ फैल सकती हैं। इसलिए स्वास्थ्य सेवाओं को सक्रिय किया जाए और बाढ़ से प्रभावित रोगियों के मुफ्त उपचार की तत्काल व्यवस्था भी की जाए। बाढ़ से जो सड़कें टूट गई हैं, उनकी मरम्मत करायी जाए। विशेषकर यमुना के बाँध को मजबूत बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएँ। बाढ़ के कारण जिन किसानों की फसलें नष्ट हो गई हैं उनका सर्वेक्षण करके तत्काल एक रिपोर्ट कृषि मंत्रालय को भेजी जाए ताकि किसानों के लिए कुछ अतिरिक्त सुविधाओं की घोषणा की जा सके। इस पत्र के साथ मुख्यमंत्री राहत कोष में से पाँच लाख रुपये का एक ड्राफ्ट भी भेजा जा रहा है।
आशा है आप इस दिशा में शीघ्र तथा आवश्यक कदम उठाएँगे।
भवदीय
(सचिव, कृषि मंत्रालय,
हरियाणा सरकार)

57. भारत सरकार के गृह मंत्रालय की ओर से वित्त मंत्रालय को एक कार्यालय ज्ञापन लिखिए, जिसमें वित्त मंत्रालय के सभी कर्मचारियों के लिए परिचय-पत्र की अनिवार्यता की सूचना दी गई हो।
उत्तर :
भारत सरकार (गृह मंत्रालय)
दिनांक 25.02.20….
विषय : वित्त मंत्रालय के कर्मचारियों के लिए परिचय-पत्र की अनिवार्यता।
भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के सभी कर्मचारियों के लिए यह अनिवार्य है कि वे कार्यालय में अपना परिचय-पत्र अवश्य साथ लाएँ। प्रत्येक कर्मचारी के पास परिचय-पत्र का होना नितांत आवश्यक है। इसे अविलंब क्रियान्वित किया जाए।
हस्ताक्षर
अवर सचिव, गृह मंत्रालय
भारत सरकार
नई दिल्ली।

58. खाद्य पदार्थों में मिलावट की बढ़ रही प्रवृत्ति और उससे होने वाले दुष्प्रभावों का उल्लेख करते हुए किसी समाचार-पत्र के संपादक को पत्र लिखिए और समाधान के दो उपाय भी सुझाइए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक,
दैनिक हिंदुस्तान, नई दिल्ली।
विषय : खाद्य पदार्थों में मिलावट और दुष्प्रभावों हेतु।
महोदय,
मैं देश के एक प्रबुद्ध नागरिक की हैसियत से आपके लोकप्रिय दैनिक समाचार के माध्यम से सरकार के खाद्य विभाग का ध्यान खाद्य-पदार्थों में हो रही मिलावट की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। इस मिलावट को रोकने के लिए कुछ सुझाव भी देना चाहूँगा। वर्तमान समय में कुछ स्वार्थी और असामाजिक तत्त्व खाद्य पदार्थों में मिलावट के धंधे में बुरी तरह से लिप्त हैं। दूध, घी, खोया, पनीर तथा मसालों में जमकर मिलावट हो रही है। खाद्य विभाग की लापरवाही और रिश्वतखोरी उन्हें बढ़ावा दे रही है। उनसे कई बार शिकायत की गई है, पर उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। इससे नागरिकों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है।
मैं इस मिलावट को रोकने के लिए कुछ सुझाव दे रहा हूँ। आशा है सरकार के उच्च अधिकारी इस पर अमल करेंगे।

  • मिलावटी खाद्य पदार्थों पर बिना पूर्व सूचना के छापा मारा जाए। इसमें पुलिस और किसी विशेषज्ञ की सेवाएँ भी ली जाएँ।
  • दोषी व्यक्तियों के खिलाफ कठोर दंडात्मक कार्यवाही की जाए।
  • भ्रष्ट अधिकारियों को भी सजा दी जाए।
  • दोषी व्यापारियों के नाम समाचार पत्रों में प्रकाशित किए जाएँ।

सधन्यवाद,
भवदीय
रामलाल शर्मा, सचिव, जन चेतना मंच, दिल्ली।
दिनांक ……….

59. अपने क्षेत्र के पुलिस आयुक्त को पत्र लिखकर अनुरोध कीजिए कि पुलिस गश्त की व्यवस्था और बढ़िया की जाए जिससे वहाँ के निवासी अपने को सुरक्षित अनुभव कर सकें।
उत्तर :
सेवा में,
पुलिस आयुक्त
पश्चिमी क्षेत्र,
राजौरी गार्डन, नई दिल्ली।
महोदय,
मैं आपका ध्यान रघुवीर नगर क्षेत्र में बढ़ रहे अपराधों की ओर दिलाना चाहता हूँ। यहाँ चोरी-डकैती तथा हिंसा की घटनाओं में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। यहाँ के लोग स्वयं को असुरक्षित अनुभव करते हैं।
आपसे विनम्र प्रार्थना है कि इस क्षेत्र में पुलिस की गश्त बढ़ाई जाए जिससे अपराधी तत्वों पर निगाह रखी जा सके। यह गश्त दिन और रात दोनों समयों में होनी चाहिए।
आशा है आप इस ओर उचित ध्यान देंगे।
सधन्यवाद
दिनांक : ………
भवदीय
रामअवध शर्मा
संयोजक, रघुवीर नगर निवासी संघ,
नई दिल्ली

60. बस में गुंडों द्वारा घेर लिए जाने पर एक महिला यात्री की सहायता करने वाले बस-संवाहक के साहस और कर्तव्य भावना की प्रशंसा करते हुए परिवहन निगम के मुख्य प्रबंधक को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
मुख्य प्रबंधक,
दिल्ली परिवहन निगम,
सिंधिया हाऊस, नई दिल्ली।
महोदय,
मैं आपके विभाग के एक बस संचालक श्री राधेश्याम (बैज नं. ए-72072) के साहस एवं कर्तव्य परायणता से आपको अवगत कराना चाहता हूँ।
कल RL-77 में डाबरी स्टैंड से कुछ गुंडे बस में चढ़ गए। उन्होंने सागरपुर के निकट एक महिला यात्री को बुरी तरह घेर लिया। वे छेड़खानी के साथ-साथ उसके आभूषणों को खींचने का दुष्कर्म कर रहे थे। अनेक यात्री भयभीत अवस्था में इस दृश्य को देख रहे थे। तभी बस संवाहक की नज़र उन गुंडों पर पड़ी। वह सीट से उठकर आया और उसने अकेले ही गुंडों को ललकारा। उसकी हिम्मत को देखकर तीन – चार यात्री भी उसके साथ हो गए। इन सभी ने मिलकर गुंडों को दबोच लिया और निकट के थाने बस ले जाकर वहाँ उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया।
सभी यात्री बस संवाहक के साहस एवं कर्तव्य परायणता की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। आपका यह कर्मचारी आपकी प्रशंसा एवं पुरस्कार का हकदार है। ऐसे व्यक्ति ही सरकारी संस्थान के सम्मान को बढ़ाते हैं।
आशा है आप श्री राधेश्याम को अवश्य सम्मानित कर अन्य कर्मचारियों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करेंगे।
सधन्यवाद।
भवदीय
रजनीकांत
संयोजक
दैनिक यात्री, संघ, नई दिल्ली।
दिनांक …….

61. आपने अनुभव किया होगा कि रेलयात्रा में पहले की अपेक्षा कुछ सुधार हुए हैं। विवरण देते हुए रेलमंत्री, भारत सरकार को एक पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
रेलमंत्री
भारत सरकार।
विषय : रेलयात्रा में पहले की अपेक्षा सुधार हेतु आभार व्यक्त हेतु।
महोदय,
इस पत्र के माध्यम से मैं रेल में हुए सुधारों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। आज बहुत से स्टेशनों पर पहले की तरह भीड़-भाड़ नही होती क्योंकि रेल अधिक चल रही हैं। बुकिंग के लिए भी लाइनों में घंटों नहीं खड़ा होना पड़ता। बुकिंग घर बैठे ऑनलाइन की भी सुविधा हो गई है। स्टेशनों पर पहले से अधिक साफ-सफाई रहती है। रेल के डिब्बों के अन्दर भी सुधार हुआ है, पहले यात्रा करने में काफी कठिनाई होती थी क्योंकि कोई भी किसी भी बर्थ सीट पर बैठ जाता था लेकिन आजकल ऐसा कम होता हैं रेल में सुरक्षा का भी अहसास होने लगा है। डिब्बे में स्वच्छ वातावरण होता है। शौचालयों की भी सफाई पहले से अधिक रहती है। रेल यात्रा अब एक सुगम यात्रा का अहसास बन गया है। उम्मीद है भविष्य में और भी सुधार किए जायेंगे जिससे रेल यात्रा करना एक सुखद यात्रा होगी।
मैं आपका आभार प्रकट करता हूँ कि भारत सरकार ने रेलयात्रा को सरल और सुगम बनाने का हर भरसक प्रयत्न किया है और इसके लिए आम जनता भी आपके साथ है।
धन्यवाद सहित
रविकांत शर्मा
45/273, वी.आर. के. पुरम,
नई दिल्ली
दिनांक ……

62. आप विद्यालय की वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेना चाहते हैं। इस प्रार्थना के साथ अपने प्रधानाचार्य को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
प्रधानाचार्य,
राजकीय बालिका विद्यालय,
रमेश नगर, नई दिल्ली।
विषय : वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने हेतु।
महोदया,
सविनय निवेदन है कि मुझे ज्ञात हुआ है कि परसों दिनांक …….. को विद्यालय में एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। मैं भी इस प्रतियोगिता में भाग लेना चाहती हूँ। मैं पहले भी इस प्रकार की प्रतियोगिताओं में भाग लेकर पुरस्कार जीत चुकी हूँ।
आपसे विनम्र प्रार्थना है कि मुझे इसे प्रतियोगिता में भाग लेने की अनुमति प्रदान की जाए।
सधन्यवाद
भवदीया
उर्मिला मैदीरत्ता
कक्षा – बारहवीं ‘ब’
दिनांक ……

63. पंजाब नेशनल बैंक, इलाहाबाद द्वारा एक खाताधारी के रूप में आपको दी गई चैक-बुक को आप कहीं खो बैठे हैं। बैंक प्रबंधक को सूचित करते हुए अनुरोध करें कि आपके खाते से चैकों का भुगतान रोक दिया जाए।
उत्तर :
सेवा में,
प्रबंधक, पंजाब नेशनल बैंक,
इलाहाबाद।
विषय : खाता सं. ए-476420 की चैक बुक गुम हो जाना।
महोदय,
मेरा एक बचत खाता सं. ए-476420 आपके बैंक में है। मुझसे असावधानीवश इसकी चैक-बुक गुम हो गई है। इसमें 10572 से 75 तक के पाँच चैक खाली थे। यदि इन चैकों पर कोई भुगतान माँगता है तो वह न किया जाए। इनका भुगतान रोक दिया जाए।
मुझे एक नई चैक बुक जारी की जाए।
सधन्यवाद भवदीय रामकृष्ण शर्मा
दिनांक : ……..

64. भ्रष्टाचार में संलिप्त किसी अधिकारी का कारनामा आपने अपने मोबाइल में रिकॉर्ड किया है। विवरण सहित पुलिस कमिश्नर को पत्र लिखकर प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखने का अनुरोध कीजिए।
उत्तर :
सेवा में,
श्रीमान पुलिस कमिश्नर महोदय,
दिल्ली।
विषय : भ्रष्टाचार में संलिप्त अधिकारी का कारनामा।
मान्यवर,
जैसा कि आप जानते हैं कि दिन-प्रतिदिन भ्रष्टाचार पूरे देश में फैल चुका है। भिन्न-भिन्न राज्य भ्रष्टाचार को रोकने में पूरी कोशिश कर रहे हैं परंतु अत्यधिक राज्य इसमें अभी तक सफलता प्राप्त नहीं कर सके। मैं राज कुमार निवासी दिल्ली का रहने वाला हूँ। मैंने हिंदी विषय में स्नातकोत्तर की हुई है तथा बी.एड. भी हिंदी विषय में ही किया हुआ है। दिनांक 12 दिसंबर 2015 को शिक्षा विभाग की ओर से शिक्षकों की भर्ती हेतु एक विज्ञापन आया था जिसमें 11 जनवरी 2016 को लिखित टैस्ट का आवेदन किया हुआ था। उस दिन लिखित परीक्षा हुई और लिखित परीक्षा के माध्यम से प्रतिभाशालियों को शिक्षक के लिए चयन होना था। लिखित परीक्षा होने के बाद कुछ दिन बाद मौखिक परीक्षा के लिए बुलाया गया। मौखिक परीक्षा लेने वाले अधिकारी उच्च स्तर के लगते थे जिन्होंने लिखित और मौखिक परीक्षा के अनुसार भर्ती करनी थी।

अचानक मुझे चयनकर्त्ता अधिकारियों में से एक अधिकारी ने अकेले में बात करनी चाहिए। मैं समझ गया कि दाल में कुछ काला है। मैंने तुरंत अपने मोबाइल को रिकॉर्डिंग पर लगा दिया और अधिकारी के पास गया। उस अधिकारी ने मुझसे नौकरी पाने के लिए तीस हजार रुपये रिश्वत की बात कही और मैंने हाँ कर ली। उस अधिकारी का नाम उमेश नागर है। अतः आपसे निवेदन है कि ऐसे अधिकारियों पर कार्यवाही होनी चाहिए। पत्र के साथ में आपको वह रिकॉर्डिंग भी भेज रहा हूँ।
सधन्यवाद
भवदीय
उश्नाक राय मैदीरत्ता
दिल्ली।
दिनांक ……….

65. आप 5/770 वैशाली, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश में रहने वाले दसवीं के विद्यार्थी शिवांगी / शिवम हैं। सरकारी स्कूल की अव्यवस्था से विद्यार्थियों को होने वाली परेशानी को बताते हुए शिक्षा अधिकारी, शिक्षा विभाग, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
शिक्षा अधिकारी,
शिक्षा विभाग, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।
विषय : गाजियाबाद शहर के सरकारी स्कूल में अव्यवस्था
महोदय,

सविनय निवेदन है कि मैं गाजियाबाद के सरकारी स्कूल की दसवीं (ब) कक्षा का विद्यार्थी हूँ। मैं इस पत्र के माध्यम से स्कूल की अव्यवस्था के कारण विद्यार्थियों को हो रही परेशानी की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।
इस स्कूल में लगभग 1500 विद्यार्थी पढ़ते हैं। 35 कक्षाओं के लिए केवल 25 कमरे ही बिल्डिंग में उपलब्ध हैं। बाकी कक्षाएँ बरामदे
में अथवा पेड़ों के नीचे बैठती हैं। स्कूल में पीने के पानी को भी उचित व्यवस्था नहीं है। इस स्कूल में 6-7 अध्यापकों की कमी गत 5 मास से चल रही है। इसी कारण कई पीरियड खाली चले जाते हैं और उनमें शोर मचता रहता है। पुस्तकालय से भी हमें पुस्तकें नहीं मिल पाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सारा स्कूल अव्यवस्थित ढंग से चल रहा है। इस अव्यवस्था के कारण विद्यार्थियों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। स्कूल के प्रधानाचार्य इन समस्याओं की ओर उचित ध्यान नहीं देते हैं।
आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप इस स्कूल का औचक निरीक्षण करें तथा इन समस्याओं का निदान करने की दिशा में सार्थक कदम उठाएँ। इस कार्रवाई के लिए हम आपके अत्यंत आभारी रहेंगे।
सधन्यवाद,
भवदीय
शिवम (दसवीं कक्षा)
दिनांक …………..

66. बस में यात्रा करते समय आपके कुछ जरूरी कागजात छूट गए हैं। नगर बस सेवा के “खोया-पाया” विभाग के अधिकारी को अपने कागजों का विवरण देकर एवं पूछताछ करते हुए एक पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
अध्यक्ष महोदय,
“खोया-पाया” विभाग
दिल्ली परिवहन निगम, इंद्रप्रस्थ एस्टेट, नई दिल्ली।
प्रिय महोदय,
गत सोमवार दिनांक 20 फरवरी 2016 को मैं जनकपुरी से दिल्ली परिवहन निगम की बस संख्या “डी. एल. 1 पी.सी. 1860” रूट नंबर 832, जो जनकपुरी से इंद्रलोक मेट्रो स्टेशन जाती है, में यात्रा कर रहा था। मुझे एक साक्षात्कार के संबंध में केंद्रीय सचिवालय जाना था। मैं जल्दी में था। राजा गार्डन पर उतरते समय मैं अपनी फाइल, जो भूरे रंग की थी, सीट पर ही भूल गया। केंद्रीय सचिवालय पहुँचने पर मुझे अपनी भूल का पता चला। उस फाइल में मेरी सभी परीक्षाओं के प्रमाण-पत्र अंक तालिका तथा कुछ अन्य आवश्यक कागजात, जैसे मेरे साक्षात्कार – पत्र, चरित्र प्रमाण-पत्र, रोजगार कार्यालय का पंजीकृत कार्ड आदि थे। ये कागजात मेरे लिए अत्यंत आवश्यक हैं। इनके बिना मैं भविष्य में नौकरी के लिए कोई भी आवेदन नहीं कर पाऊँगा।

महोदय, कृपया मुझे सूचित करने का कष्ट करेंगे कि क्या आपके कार्यालय में किसी संवाहक ने ऐसी फाइल जमा करवाई है या नहीं? यदि नहीं करवाई है तो उपर्युक्त बस के संवाहक से जो 20 सितंबर को उसमें सेवा कर रहा था, पूछकर पता लगाने का कष्ट करें। आशा है कि आप मेरे प्रमाण-पत्र खोजने में व्यक्तिगत रूचि लेकर मुझे कृतार्थ करेंगे।
धन्यवाद
भवदीय
राकेश मित्तल, A-51, जनकपुरी, दिल्ली
दिनांक …….
संयोजक, तकनीकी विद्यार्थी संघ, नई दिल्ली
दिनांक …….

67. हिंदी – दिवस पर विद्यालय में आयोजित गोष्ठी का विवरण देते हुए, किसी प्रतिष्ठित दैनिक पत्र के संपादक को प्रकाशनार्थ पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक
नवभारत टाइम्स
नई दिल्ली।
विषय : हिंदी-दिवस पर आयोजित गोष्ठी का प्रकाशन
महोदय,
कल 14 सितंबर को हमारे विद्यालय में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था। मैं इसका विवरण आपके लोकप्रिय समाचार पत्र में प्रकाशनार्थ भेज रहा हूँ। आशा है आप इसे जनहित में प्रकाशित कर कृतार्थ करेंगे।

हिंदी दिवस पर आयोजित गोष्ठी

राजकीय प्रतिभा विद्यालय रूप नगर, दिल्ली में 14 सितंबर को एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी की अध्यक्षता प्रसिद्ध साहित्यकार प्रो. नामवर सिंह ने की। इस गोष्ठी में, व्यावहारिक हिंदी पर प्रतिभागियों में चर्चा हुई। इस गोष्ठी में दो हिंदी लेखकों-श्री नेमिचंद एवं श्रीमती सविता शर्मा, दो हिंदी अध्यापकों एवं चार विद्यार्थियों ने अपने विचार प्रस्तुत किए। अधिकांश वक्ताओं का स्पष्ट मत था कि हिंदी को व्यावहारिक बनाने की आवश्यकता है तभी यह जन-जन की भाषा बन सकेगी। इसको क्लिष्टता से बचाना होगा। सरल एवं व्यावहारिक हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग किया जाना चाहिए।
भवदीय
रमाकांत संयोजक, विचार गोष्ठी
दिनांक ………

68. दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा सरकारी स्कूलों की उपेक्षा की ओर ध्यान आकर्षित कराते हुए किसी दैनिक समाचार पत्र के संपादक को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
संपादक महोदय,
दैनिक जागरण,
नई दिल्ली।
मान्यवर,
मैं आपके लोकप्रिय दैनिक समाचार पत्र के माध्यम से दिल्ली सरकार का ध्यान शिक्षा विभाग की उपेक्षा की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ ताकि स्थिति में सुधार लाया जा सके।
दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा लगभग एक हजार स्कूल संचालित किए जाते हैं। इनमें शायद ही किसी स्कूल में पूरे अध्यापक हों। लगभग प्रत्येक विद्यालय में 4-5 अध्यापकों की कमी है। इससे विद्यार्थियों की पढ़ाई बाधित होती है। विद्यालयों में सुविधाओं की कमी है। बिजली-पानी तक का समुचित प्रबंध नहीं है। डेस्क तो 50 प्रतिशत तक भी नहीं हैं। अनेक विद्यालय भवन जर्जर अवस्था में हैं। हर वर्ष लंबे-चौड़े दावे किए जाते हैं, किंतु उनको कार्यरूप में परिवर्तित करने की दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाए जाते। शिक्षा विभाग अपने आदेशों में भी अस्पष्ट एवं अनिश्चिता की स्थिति में रहता है। इस स्थिति में तुरंत सुधार करने की आवश्यकता है।
सधन्यवाद
भवदीय
उर्मिला मैदीरत्ता
संयोजक जन चेतना मंच

69. कुछ विभागों के सूचना पट्टी पर अशुद्ध हिंदी लिखी मिलती है। इस ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए किसी प्रसिद्ध समाचार-पत्र के संपादक के नाम एक पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
संपादक महोदय,
नवभारत टाइम्स,
बहादुरशाह जफर मार्ग,
नई दिल्ली।
महोदय,
मैं आपके दैनिक लोकप्रिय समाचार-पत्र के माध्यम से सरकार का ध्यान उसके कुछ विभागों द्वारा सूचना पट्टी पर अशुद्ध हिंदी के प्रयोग की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। प्रायः देखने में आता है कि “ शीर्षक” में ही गलती होती है- “सूचना” के स्थान पर “सुचना” लिखा होता है। “कर्मचारियों के स्थान पर “कर्मचारीयों” लिखा रहता है। इसी प्रकार “सूचित किया जाता है” के स्थान पर “सुचित किया जाता है” लिखा होता है। “विद्यालय “के स्थान पर “विधालय” और “न्यायालय” के स्थान “न्यालय” लिखना भी सामान्य-सी बात है। “आशीर्वाद” को प्रायः “आर्शिवाद” लिखा देखा जाता है।
इस प्रकार की अशुद्धियाँ बहुत अखरती हैं। देश में राजभाषा हिंदी को प्रयोग करते पचास से अधिक वर्ष बीत जाने पर भी अशुद्ध भाषा का प्रयोग उचित नहीं है। कृपया संबद्ध विभाग इस ओर ध्यान दें।
भवदीय
क, ख, ग
दिनांक …….

70. हिंदी की पाठ्यपुस्तकों में संशोधन करने हेतु राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा कुछ सुझाव आमंत्रित किए गए हैं। परिषद् के निदेशक को पत्र लिखकर उपयुक्त सुझाव दीजिए।
उत्तर :
सेवा में
निदेशक जी,
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद,
नई दिल्ली।
विषय : हिंदी की पाठयपुस्तकों में संशोधन हेतु पत्र।
महोदय,
विनम्रतापूर्वक निवेदन है कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान से जो हिंदी की पाठयपुस्तकें आती हैं उनमें हम कुछ संशोधन करवाना चाहते हैं। आप तो जानते ही हैं कि शिक्षा एक निरंतर विकासशील प्रक्रिया है। एक निश्चित समय के पश्चात् पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों में यथासंभव संशोधन एवं परिवर्तन किए जाएँ ताकि ज्ञान-विज्ञान के विकास, सामाजिक संरचना में परिवर्तन, शिक्षण के प्रति नवीन दृष्टिकोण तथा मूल्यपरक शैक्षिक आवश्यकताओं का समावेश हो सके।
आपसे निवेदन है कि इस प्रस्ताव को स्वीकार किया जाए और पाठ्यक्रम में थोड़ा संशोधन करें और नया पाठ्यक्रम जल्द से जल्द विद्यालयों में उपलब्ध करवाएँ।
सधन्यवाद
भवदीय
क.ख.ग.
दिनाक ………..

71. किसी समाचार-पत्र के संपादक को पत्र लिखकर बताइए कि आप अपने जिले की समस्याएँ सड़कें, यातायात व्यवस्था, भवन, चिकित्सा आदि कैसे सुधार सकते हैं।
उत्तर :
सेवा में,
संपादक महोदय,
दैनिक अमर उजाला, ट्रांसपोर्ट नगर, आगरा।
विषय : नगर की समस्याओं के
महोदय,
सुधार संबंधी
सुझाव।
मैं आपके लोकप्रिय दैनिक पत्र के माध्यम से अपने नगर की दुर्दशा की ओर आपका एवं संबंधित अधिकारियों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।
हमारे नगर की सड़कें, यातायात प्रबंध, भवन निर्माण, चिकित्सा, उद्योग, शिक्षा एवं सफाई आदि में अव्यवस्था के कारण यहाँ के लोगों का जीवन अत्यंत कष्टप्रद होता जा रहा है। यहाँ मकान बहुत छोटे हैं तथा सड़कें काफी तंग हैं। सड़कें टूटी-फूटी होने के कारण नालियाँ रुक जाती हैं तथा गंदगी के कारण यहाँ मच्छर-मक्खियाँ बढ़ती जा रही हैं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं।
जनसेवा विभाग से निवेदन है कि सड़कों को समतल बनाकर यहाँ नालियों का निर्माण किया जाए। सड़कें चौड़ी की जाएँ जिससे यातायात में सुधार हो सके। यातायात के संचालन के लिए सड़कों पर निर्देश तख्तियाँ लगाने से वाहनों का आना-जाना सुचारू रूप से हो सकेगा। निर्धन बच्चों के लिए प्राथमिक पाठशालाएँ खोली जाएँ। चिकित्सा हेतु एक स्वास्थ्य केंद्र की सख्त आवश्यकता है। यदि इन सुझावों पर अमल किया जाए तो स्थिति में कुछ सुधार हो सकता है।
धन्यवाद,
भवदीय,
मोहन गुप्ता
760/35, गाँधी नगर, आगरा।
दिनांक ………

72. किसी दैनिक समाचारपत्र के प्रधान संपादक को सुमन की ओर से पत्र लिखिए, जिसमें पुस्तकों के मूल्यों में निरंतर होने वाली वृद्धि पर चिंता प्रकट की गई हो।
उत्तर :
सेवा में
संपादक,
दैनिक जागरण,
नई दिल्ली।
महोदय,
मैं आपके दैनिक लोकप्रिय समाचारपत्र के माध्यम से पुस्तकों के मूल्यों में निरंतर हो रही वृद्धि पर अपनी चिंता प्रकट करना चाहता हूँ। आशा है आप इसे जनहित में अवश्य प्रकाशित करेंगे।
आजकल पाठ्यपुस्तकों की कीमतें आसमान को छू रही हैं। इस काम में सरकारी प्रकाशन और प्राइवेट पब्लिशर दोनों एक-दूसरे से होड़ ले रहे हैं। एन. सी. ई. आर. टी. की पुस्तकें, जो सस्ती कीमतों के लिए जानी जाती थीं, अब काफी महँगी होती जा रही हैं। प्राइवेट पब्लिशर तो एक मामूली सी किताब के भी 150-200 रुपये कीमत रखते हैं। इसको बेचने के लिए विक्रेता को 30-35 प्रतिशत तक कमीशन देते हैं और ग्राहक को लुटवाते हैं। पुस्तकों की कीमतों में हो रही निरंतर वृद्धि के कारण को लुटवाते हैं। पुस्तकों की कीमतों में हो रही निरंतर वृद्धि के कारण विद्यार्थियों को पूरी पुस्तकें खरीदना कठिन होता जा रहा है। शायद इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है।
मैं सभी प्रकाशकों से कहना चाहता है कि पुस्तकों के बढ़ते मूल्यों पर नियंत्रण करें। उन्हें पाठकों के हित का भी ध्यान रखना चाहिए।
सधन्यवाद
भवदीय
सुमन
संयोजक, पुस्तक हितकारी संघ, नई दिल्ली
दिनांक …….

73. अपने कार्यक्रमों के द्वारा अंधविश्वासों और रूढ़िवादी विचारधारा का प्रचार करने वाले ‘क-ख-ग’ चैनल के बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुए किसी प्रतिष्ठित समाचार-पत्र के संपादक को पत्र लिखिए।
उत्तर :
संपादक,
नवभारत टाइम्स,
बहादुरशाह जफर रोड,
नई दिल्ली।
महोदय,
मैं आपके लोकप्रिय दैनिक समाचारपत्र के माध्यम से कुछ प्रमुख चैनलों द्वारा अपने कार्यक्रमों द्वारा अंधविश्वासों और रूढ़िवादी विचारधारा पर अपनी राय व्यक्त करना चाहता हूँ। आशा है आप जनहित में इस पत्र को अवश्य प्रकाशित करेंगे।
आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान अंधविश्वासों को मिटाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। इस वैज्ञानिक युग में भी दूरदर्शन के ‘क-ख-ग’ चैनल अंधविश्वास और रूढ़िवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। उन्हें अपना चैनल चौबीसों घंटे चलाना होता है, इसी विवशता में वे दर्शकों को ऊट-पटांग कार्यक्रम परोसते हैं। इससे मानसिक विकास अवरुद्ध होता है। रूढ़िवादी विचारधारा को बढ़ावा देने से भारत की प्रगति आगे की बजाय पीछे की ओर जाती है। दूरदर्शन के चैनलों को तो अंधविश्वास और रूढ़िवाद को मिटाने के कार्यक्रम प्रस्तुत करने चाहिए।
आशा है ये चैनल अपनी नीति पर पुनर्विचार करेंगे।
सधन्यवाद,
भवदीय
रामरतन शर्मा
संयोजक, नवचेतना मंच, नई दिल्ली।
दिनांक …..

74. अपने नगर के स्थानीय समाचार-पत्र के संपादक के नाम पत्र लिखिए और बताइए कि आपके नगर में अव्यवस्थित यातायात के कारण अक्सर दुर्घटनाएँ होती रहती हैं।
उत्तर :
सेवा में,
संपादक महोदय,
दैनिक भास्कर दिल्ली।
विषय : नगर में अव्यवस्थित यातायात व दुर्घटनाएँ।
महोदय,
मैं आपके पत्र दैनिक भास्कर का नियमित पाठक हूँ। मैं इसके माध्यम से नगर में व्याप्त यातायात की शोचनीय व्यवस्था की ओर प्रशासन का ध्यान आकर्षित कर रहा हूँ। हमारा नगर धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व रखता है। यहाँ प्रति वर्ष लाखों देशी-विदेशी पर्यटक आते हैं। इनकी संख्या नित्य प्रति बढ़ रही है। दूसरी तरफ, शहर में सड़कें टूटी-फूटी हैं। इन पर यातायात का अत्यधिक दबाव है। वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण यातायात अव्यवस्थित होता जा रहा है। इसका कारण यह है कि यातायात पुलिस सही ढंग से कार्य नहीं कर रही। ये लोग चौराहों पर रिश्वत लेते हैं तथा अनियमित ढंग से निकलते वाहनों को रोकने का प्रयास नहीं करते। इससे अक्सर दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। मेरा प्रशासन से अनुरोध है कि वे इस तरह के कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करें। आशा है, आप जनता की सुरक्षा हेतु सक्रिय कदम उठाएँगे।
धन्यवाद
भवदीय
नलिन विलोचन सिंह
दिल्ली।
दिनांक …..

75. आपके क्षेत्र में बार-बार बिजली की कटौती हो रही है। समाज का हर वर्ग इससे परेशान है। आप किसी दैनिक समाचार-पत्र के संपादक के नाम पत्र लिखिए, जिसमें विद्युत विभाग की अक्षमता के बारे में बताया गया हो।
उत्तर :
सेवा में,
संपादक महोदय,
अमर उजाला।
विषय : बिजली संकट।
महोदय,
आपके लोकप्रिय दैनिक समाचार-पत्र के माध्यम से मैं अपने क्षेत्र में बिजली संकट से उत्पन्न कठिनाइयों की ओर संबंधित अधिकारियों का ध्यान आकर्षित कराना चाहता हूँ।
मैं नजफगढ़ क्षेत्र में रहने वाला नागरिक हूँ। इस क्षेत्र में आजकल जैसा बिजली संकट उत्पन्न हो गया है, वैसा इससे पहले कभी नहीं देखा गया। बिजली का न तो आने का कोई समय निश्चित है और न ही जाने का। इससे सर्वाधिक कठिनाई साधारण जनों और छात्रों को हो रही है। अनाज तीन-तीन दिन तक चक्कियों पर पड़ा रहता है। चक्कियाँ बिजली न होने के कारण दिन-भर बंद रहती हैं। बेचारा ग्राहक दिन में कई बार चक्की के चक्कर काटता है। छात्रों की परीक्षाएँ चल रही हैं, लेकिन क्षेत्र में बिजली अधिकारी उनकी कठिनाइयों से बेखबर हैं। उनसे जब भी शिकायत की जाती है, तो कहते हैं कि “बिजली की आपूर्ति पीछे से ही बंद है। हम क्या करें?” जबकि वास्तविकता यह है कि इस क्षेत्र के बड़े-बड़े उद्योगपतियों और अधिकारियों के यहाँ बिजली एक पल के लिए भी बंद नहीं रहती। कारण स्पष्ट है- उद्योगपति इन भ्रष्ट बिजली अधिकारियों को आर्थिक संरक्षण देते हैं, तो अन्य बड़े अधिकारी उन्हें प्रशासनिक संरक्षण। ऐसी स्थिति में आम जनता की कठिनाइयों का अनुमान कोई भी व्यक्ति लगा सकता है।
आशा है आप मेरी इस शिकायत को अपने समाचार-पत्र में स्थान देकर अनुगृहीत करेंगे।
धन्यवाद सहित
भवदीय
क, ख, ग
दिनांक ……..

76. खाद्य पदार्थों में मिलावट की बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त करते हुए किसी प्रतिष्ठित समाचार-पत्र के संपादक को पत्र लिखिए। इसके निराकरण के कुछ उपाय भी सुझाइए।
उत्तर :
परीक्षा भवन
दिल्ली।
दिल्ली : 28 जून, 20……..
सेवा में संपादक महोदय,
नवभारत टाइम्स,
दिल्ली,
विषय : खाद्य पदार्थों में मिलावट के संबंध में।
महोदय,
आपके प्रतिष्ठित समाचार-पत्र के माध्यम से मैं प्रशासन का ध्यान खाद्य पदार्थों में मिलावट की बढ़ती प्रवृत्ति की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। हमारे क्षेत्र में स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारी अपने कर्तव्य से विमुख हो गए हैं।
वे कई दिनों तक यहाँ नहीं आते और यदि थोड़ी देर के लिए आ भी जाते हैं, तो अपना कार्य नहीं करते। इसका परिणाम यह हुआ कि दूध की डेयरी, हलवाई, किराने आदि की दुकानों पर मिलावटी चीज़ों की बिक्री बढ़ गई है और जनता को विवशतापूर्वक इन चीज़ों को खरीदना पड़ रहा है। इन मिलावटी और कम गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थों को खाकर बच्चों तथा बूढ़ों सहित सभी लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। हमने स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों को कई बार अपनी समस्याओं से आवगत भी करवाया है, किन्तु उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। मिलावट करने वाले भी रिश्वत देकर छूट जाते हैं।
मेरा प्रशासन से विनम्र निवेदन है कि आप स्वयं अपने स्तर पर इन शिकायतों की जाँच कराने की कृपा करें। इस प्रकार मिलावट करने वालों के लिए निर्धारित सजा के कानून में परिवर्तन किया जाना चाहिए।
धन्यवाद।
भवदीय
क. ख.ग.

77. भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों पर चिंता जताते हुए किसी समाचार पत्र के संपादक को पत्र लिखिए और भ्रष्टाचार कम करने का कोई उपाय भी सुझाइए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक
नवभारत टाइम्स, नई दिल्ली
महोदय,
निवेदन है कि मैं आपके दैनिक लोकप्रिय समाचार पत्र के माध्यम से सरकार का ध्यान बढ़ते भ्रष्टाचार की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। आशा है आप मेरा पत्र जनहित में अवश्य प्रकाशित करेंगे।
आज चारों ओर भ्रष्टाचार व्याप्त है। सरकारी कार्यालयों में ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है। पिछले दिनों अनेक
मंत्रियों का भ्रष्टाचार जनता के सामने आया है। इसमें करोड़ों रुपयों का घपला हुआ है। किसी भी सरकारी कार्यालय में बिना रिश्वत लिए कोई काम नहीं किया जाता। लगता है अब तो भ्रष्टाचार शिष्टाचार का रूप ले चुका है। अन्ना हजारे भी इसी भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन आंदोलन चला रहे हैं। इस सबके बावजूद यह भ्रष्टाचार थमने का नाम नहीं ले रहा है।
इस भ्रष्टाचार को कम करने के लिए मेरा सुझाव यह है कि सभी ऑफिसों में कार्य निपटान करने का समय निर्धारित किया जाए तथा उसका विवरण लिखकर लगाया जाए। निर्धारित समय में काम पूरा न करने पर संबंधित अधिकारी को दंडित किया जाए।
इस काम में पूरी पारदर्शिता बरतना जरूरी है। प्रत्येक वर्ष काम की समीक्षा की जाए। इससे स्थिति में काफी सुधार आएगा।
सधन्यवाद,
भवदीय
रामप्रकाश गुप्ता संयोजक, जन सुविधा विचार मंच, नई दिल्ली।
दिनांक …..

78. भ्रूण हत्या में हो रही वृद्धि पर चिंता प्रकट करते हुए किसी हिंदी के दैनिक समाचार पत्र के संपादक को एक पत्र लिखिए और कोई व्यावहारिक समाधान भी सुझाइए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक
दैनिक जागरण, नई दिल्ली।
महोदय,
मैं आपके दैनिक लोकप्रिय समाचार पत्र के माध्यम से समाज और सरकार का ध्यान भ्रूण हत्या में हो रही वृद्धि की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। आशा है जनहित में मेरा पत्र अवश्य प्रकाशित कर कृतार्थ करेंगे।
गत तीन-चार वर्ष से भ्रूण हत्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। अल्ट्रासाउंड कराकर लिंग की जानकारी प्राप्त करना गैर कानूनी होते हुए भी निर्बाध रूप से जारी है। जैसे ही पता चलता है कि कोख में लड़की पल रही है, उसकी हत्या कर दी जाती है। कुछ लालची डॉक्टर गर्भपात करते समय किसी भी प्रकार की जानकारी लेना आवश्यक नहीं समझते। इसका एक दुष्परिणाम सामने यह आ रहा है कि हरियाणा तथा अन्य कई राज्यों में लिंग अनुपात गड़बड़ा गया है। कन्याओं की संख्या में गिरावट आने से लड़कों के विवाह हेतु योग्य युवतियाँ मिलना कठिन हो गया है। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। भ्रूण हत्या पर तुरंत रोक लगाना आवश्यक हो गया है। इसके लिए व्यावहारिक सुझाव यह है कि लड़कियों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। उनकी शिक्षा को निःशुल्क बनाना, उनके विवाह में आर्थिक मदद देना तथा उनके लिए कन्याधन योजना चलाना कारगर रहेगा। भ्रूण हत्या के दोषी को सख्त सजा मिलनी चाहिए।
भवदीय
राकेश मेहता
संयोजक
जनचेतना मंच, दिल्ली
दिनांक ………

79. खेलकूद की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भारत का प्रदर्शन बहुत खराब रहता है। आपके विचार से इसके क्या कारण हैं? हम अपनी स्थिति कैसे सुधार सकते हैं? किसी दैनिक पत्र के संपादक को पत्र लिखकर समझाइए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक,
नवभारत टाइम्स,
बहादुरशाह जफर मार्ग, नई दिल्ली।
महोदय,
मैं आपके लोकप्रिय दैनिक समाचार पत्र के माध्यम से खेलकूद की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारत के खराब प्रदर्शन की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ।
अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं की पदक तालिका में भारत का स्थान नीचे की ओर ही रहता है। एक अरब से अधिक लोगों के देश का यह हाल चिंता का कारण है। परंपरागत हॉकी के अच्छे प्रदर्शन को भी भारत बचा नहीं पाया। हम स्वर्ण पदक पाने की लालसा पूरी नहीं कर पाते। हाँ, बीजिंग ओलंपिक में हमें एक स्वर्ण तथा दो काँस्य पदकों पर संतोष करना पड़ा। हमारे देश को कम से कम दस पदक तो मिलने ही चाहिए थे। चीन अकेला 100 पदक हासिल करने में कामयाब रहा।
मेरे विचार से भारत की इस स्थिति के दो प्रमुख कारण हैं- खिलाड़ियों के चुनाव में भाई-भतीजावाद का बोलबाला होना तथा खिलाड़ियों को उचित प्रशिक्षण का अभाव। हमें स्कूल स्तर पर ही खेलों के अच्छे खिलाड़ी तैयार करने की ओर ध्यान देना चाहिए। उनका पक्षपात रहित चुनाव करके उन्हें गहन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। इसके लिए अच्छे कोचों तथा अच्छे स्तर की खेल सामग्री का होना भी नितांत आवश्यक है। सरकार द्वारा पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध कराया जाना भी जरूरी है। तभी हमारे खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अच्छा प्रदर्शन करने में सफल हो सकेंगे।
आशा है सरकार उचित ध्यान देगी।
भवदीय
रविकांत शर्मा, संयोजक
उभरते खिलाड़ी संघ, नई दिल्ली
दिनांक …….

80. गोरा बनाने वाले सौंदर्य प्रसाधनों के भ्रामक विज्ञापनों के चंगुल में फँसा युवा वर्ग अंततः ठगा जाता है। इस समस्या से उत्पन्न परेशानियों का उल्लेख करते हुए किसी समाचार पत्र के संपादक को पत्र लिखिए।
उत्तर :
सेवा में
संपादक,
दैनिक हिंदुस्तान,
नई दिल्ली।
महोदय,
मैं एक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में आपके लोकप्रिय दैनिक समाचार पत्र के माध्यम से टी. वी पर प्रसारित भ्रामक विज्ञापनों की ओर सरकार व समाज का ध्यान आकर्षित कराना चाहती हूँ। आशा है जनहित में आप मेरा पत्र अवश्य प्रकाशित करेंगे। आजकल लगभग सभी चैनलों पर गोरा बनाने के सौंदर्य प्रसाधनों के विज्ञापनों की बाढ़ सी आई हुई है। इनके लिए लोकप्रिय फिल्म स्टारों का सहारा लिया जा रहा है। इन विज्ञापनों में दिखाया जाता है कि अमुक क्रीम के उपयोग से कुछ ही दिनों में गोरा बना जा सकता है। इन भ्रामक विज्ञापनों का युवा वर्ग पर बहुत प्रभाव पड़ता है। वह इन विज्ञापनों के चंगुल में फँस जाता है। जब इन क्रीमों के प्रयोग से कुछ भी नहीं होता तब वह स्वयं को ठगा-सा अनुभव करता है।
मेरी माँग है कि इन भ्रामक विज्ञापनों पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए। सरकार का कोई विभाग ऐसा हो जो इनकी गुणवत्ता की जाँच करे और गलत पाए जाने पर दंडित करे। इससे युवा वर्ग को सही दिशा मिल सकेगी।
सधन्यवाद
भवदीया
रजनीबाला
सचिव, छात्र संघ,
नई दिल्ली।
दिनांक ………

81. अस्पतालों में चिकित्सकों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाओं पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लगभग 150 शब्दों में एक पत्र किसी समाचार पत्र के संपादक को लिखिए।
उत्तर :
सेवा में,
संपादक,
नवभारत टाइम्स,
नई दिल्ली।
विषय : अस्पतालों में चिकित्सकों के साथ दुर्व्यवहार की घटना पर परिचर्चा।
महोदया,

मैं आपके लोकप्रिय दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ समाचार-पत्रों के माध्यम से अस्पतालों में चिकित्सकों के साथ दुर्व्यवहार की घटना को बताना चाहता हूँ कि महिला चिकित्सकों को किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ता हैं। वह कई बार रात की ड्यूटी पर भी उपस्थित होती हैं जिसमें सीनियर डॉक्टर किसी-न-किसी बहाने से अपने पास बुलाते हैं तथा उन्हें पकड़ने की कोशिश करते हैं। इसके अलावा उन्हें कोई दवा या बेहोशी का नशा करवा कर उन्हें यौन शोषण का शिकार बनाया जाता है जिसका कई बार वह खुलासा कर देती हैं तो कई बार चुपचाप सहन कर लेती हैं। सीनियर पद का अधिकारी जूनियर पद के अधिकारी विशेष तौर पर महिला को पदोन्नति का सपना दिखाते हैं तथा अपना कार्य पूर्ण रूप से करते हैं।
मेरा संपादक महोदया से यह अनुरोध है कि वह जल्द से जल्द इन घटनाओं का खुलासा करके महिला चिकित्सकों को विशेष सुविधाएँ मुहैया कराने की कोशिश करें जिससे इन महिलाओं को स्वतंत्र व स्वेच्छापूर्ण कार्य करने का मौका प्राप्त हो सके।
धन्यवाद सहित,
भवदीय
मृदुला मैदीरत्ता
नई दिल्ली
दिनांक ………

कार्यालयी/औपचारिक पत्र

सरकारी कामकाज की गाड़ी फाइलों के पहियों पर दौड़ती है। किसी भी विषय पर बाहरी व्यक्तियों से अनेक पत्र प्राप्त होते हैं, उन्हें फाइल की दाहिनी ओर रखा जाता है। किसी प्रस्ताव या विषय पर विचार करने के लिए जो टिप्पणियाँ लिखी जाती हैं या मंतव्य प्रकट किए जाते हैं वे फाइल की बाईं तरफ लगे पृष्ठों पर होते हैं।

सरकारी कार्यालयों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए इन पत्रों को कई श्रेणियों में बाँटा जाता है। कई पत्र सूचनाएँ मँगवाने या भेजने के लिए लिखे जाते हैं। कुछ पत्रों द्वारा मुख्यालय या बड़े अधिकारी अपने अधीनस्थ कार्यालयों या अधीनस्थ कर्मचारियों को आदेश भेजते हैं।
इन पत्रों के बारे में ध्यान देने योग्य बातें हैं :

  • सरकारी पत्र औपचारिक पत्र की श्रेणी में आते हैं।
  • प्रायः ये पत्र एक कार्यालय, विभाग अथवा मंत्रालय से दूसरे कार्यालय, विभाग या मंत्रालय को लिखे जाते हैं।
  • पत्र के शीर्ष पर कार्यालय, विभाग या मंत्रालय का नाम व पता लिखा जाता है।
  • पत्र के बाईं तरफ फाइल संख्या लिखी जाती है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि पत्र किस विभाग द्वारा किस विषय के तहत, कब लिखा जा रहा है।
  • जिसे पत्र लिखा जा रहा है उसका नाम, पता आदि बाईं तरफ लिखा जाता है। कई बार अधिकारी का नाम भी दिया जाता है। सेवा में’ का प्रयोग धीरे-धीरे कम हो रहा है।
  • ‘विषय’ शीर्षक के अंतर्गत संक्षेप में यह लिखा जाता है कि पत्र किस प्रयोजन के लिए या किस संदर्भ में लिखा जा रहा है।
  • विषय के बाद बाईं तरफ ‘महोदय’ संबोधन लिखा जाता है।
  • पत्र की भाषा सरल एवं सहज लेनी चाहिए।
  • सटीक अर्थ प्रेषित करने के लिए प्रशासनिक शब्दावली का प्रयोग करना ही उचित होता है।
  • पत्र के अंत में ‘ भवदीय’ शब्द का प्रयोग अधोलेख के रूप में होता है।
  • भवदीय के नीचे पत्र भेजने वाले के हस्ताक्षर होते हैं।
  • हस्ताक्षर के नीचे कोष्ठक में पत्र लिखने वाले का नाम मुद्रित होता है।
  • नाम के नीचे पदनाम लिखा जाता है।

एक नमूना
अखिल भारतीय कला, साहित्य एवं संस्कृति संस्थान
क्षेत्रीय कार्यालय : भोपाल

दिनांक 25 सितंबर, 20 ….

फा. संख्या : भोपाल/का./27/20…./405

सेवा में,
महानिदेशक
अखिल भारतीय कलाः साहित्य एवं संस्कृति संस्थान
मंडी हाउस, नई दिल्ली-110001
विषय : टेलीफोन पर होने वाले व्यय की निर्धारित सीमा
महोदय,
कृपया अपने परिपत्र संख्या 24/12/प्र./ 20…. का स्मरण करें, जो 2 जनवरी, 20…. को जारी किया गया था। इस परिपत्र में टेलीफोन पर व्यय होने की सीमा दो हजार रुपए तक तय की गई थी।
इस संबंध में निवेदन है कि भोपाल साँस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र है। यहाँ अनेक कलाकार निवास करते हैं। उनके संपर्क में निरंतर रहना पड़ता
इनके अतिरिक्त विभिन्न कार्यशालाओं एवं गोष्ठियों के लिए मुंबई, कोलकाता आदि के कलाकारों से भी सम्पर्क करते रहना जरूरी होता है। अतः टेलीफोन का प्रयोग बहुत होता है। यद्यपि इसका रिकॉर्ड रखा जाता है, पर हर कॉल का रिकार्ड रखना संभव नहीं होता।

टेलीफोन के व्यय की सीमा दो हजार रुपए पर्याप्त नहीं है। पिछले तीन मास से प्रति मास चार हजार रुपए का बिल आ रहा है। इस कार्यालय के लिए शेष राशि को अन्य साधनों से जुटाना अत्यंत कठिन हो रहा है।
अतः आपसे निवेदन है कि भोपाल कार्यालय की विशेष स्थिति को ध्यान में रखते हुए टेलीफोन के मासिक खर्च की सीमा को चार
हजार रुपए कर दिया जाए।
भवदीय
मुकेश वर्मा
(मुकेश कुमार वर्मा)
निदेशक

जब इस पत्र का कोई उत्तर नहीं आया तब स्मरण पत्र (Reminder) भेजा गया है। जो इस प्रकार था :

स्मरण- पत्र / अनुस्मारक
अखिल भारतीय कला, साहित्य एवं संस्कृति संस्थान
क्षेत्रीय कार्यालय : भोपाल

दिनांक 25 सितंबर 20….

फा. संख्या : भोपाल/का./27/20…./465
सेवा में,
महानिदेशक
अखिल भारतीय कला, साहित्य एवं संस्कृति संस्थान
मंडी हाउस, नई दिल्ली-110001
विषय : टेलीफोन पर होने वाले व्यय की निर्धारित सीमा
महोदय,
कृपया उपर्युक्त विषय पर इस कार्यालय द्वारा भेजे गए समसंख्यक पत्र का स्मरण करें जो 25 सितंबर 20…. को भेजा गया था। निवेदन है कि टेलीफोन की मासिक व्यय सीमा को बढ़ाने संबंधी इस कार्यालय के अनुरोध पर विचार कर कृपया आवश्यक स्वीकृति जारी की जाए।
भवदीय
मुकेश वर्मा
(मुकेश कुमार वर्मा)
निदेशक

इस पत्र के उत्तर में अर्धसरकारी पत्र
अखिल भारतीय कला, साहित्य एवं संस्कृति संस्थान महानिदेशालय

नई दिल्ली, 10 नवंबर, 20….

फा. संख्या: 5/4/20…./प्र.
अली अहमद
उपमहानिदेशक
प्रिय श्री मुकेश कुमार,

कृपया 25 सिंतबर 20…. तथा 25 अक्तूबर 20… को भेजे गए अपने पत्रों का स्मरण करें जो टेलीफोन पर किए जाने वाले मासिक व्यय की सीमा बढ़ाने के बारे में थे।
आपके अनुरोध पर आवश्यक कार्रवाई की जा रही है। चूँकि व्यय-सीमा को बढ़ाने के लिए बोर्ड की अनुमति आवश्यक है अतः इस मसले को बोर्ड की अगली बैठक में प्रस्तुत किया जाएगा।
बोर्ड के निर्णय से आपको अवगत करा दिया जाएगा।

आपका
अली अहमद
(अली अहमद)

निवेदक
श्री मुकेश कुमार वर्मा
क्षेत्रीय केंद्र भोपाल

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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CBSE Class 12 Hindi Elective रचना पत्रकारीय लेखन और उसके विविध आयाम

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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana पत्रकारीय लेखन और उसके विविध आयाम

संचार –

प्रश्न 1.
संचार क्या है ? इसके प्रकार बताइए।
उत्तर :
दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सूचनाओं, विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान ही संचार है। संचार के बिना जीवन संभव नहीं है।
संचार के कई प्रकार हैं, जिनमें मौखिक और अमौखिक संचार के अलावा निम्नलिखित प्रकार शामिल हैं :

  • अंत: वैयक्तिक संचार
  • अंतर वैयक्तिक संचार
  • समूह संचार
  • जनसंचार

प्रश्न 2.
संचार के प्रमुख तत्त्व बताइए।
उत्तर :
संचास-प्रक्रिया में शामिल प्रमुख तत्त्व ये हैं :

  • स्रोत – संचार-प्रक्रिया का प्रारंभ स्रोत या संचारक से होता है।
  • भाषा – बातचीत या संदेश भेजने के लिए भाषा का सहारा लिया जाता है।
  • संदेश – संचार-प्रक्रिया में अलग चरण संदेश होता है। संदेश स्पष्ट होना चाहिए।
  • माध्यम (चैनल) – संदेश टेलीफोन, समाचार-पत्र, रेडियो, टी.वी., इंटरनेट आदि माध्यमों के जरिए प्राप्तकर्ता तक पहुँचाया जाता है।
  • प्राप्तकर्ता (रिसीवर) – प्राप्तकर्ता प्राप्त संदेश का कूटवाचन यानी डिकोडिंग करता है।
  • फीडबैक – प्राप्तकर्ता की प्रतिक्रिया को फीडबैक कहा जाता है।

संचार-प्रक्रिया में कई बाधाएँ आती हैं। इन्हें शोर (नॉयज) कहा जाता है। संचार-प्रक्रिया से शोर को हटाना जरूरी है।

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना पत्रकारीय लेखन और उसके विविध आयाम 1

जनसंचार –

प्रश्न 3.
जनसंचार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
संचार का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकार है-जनसंचार अर्थात् Mass Communication।
जब हम व्यक्तियों के समूह के साथ प्रत्यक्ष संवाद की बजाय किसी तकनीकी या यांत्रिक माध्यम के जरिए समाज के विशाल वर्ग के साथ संवाद कायम करने की कोशिश करते हैं तब इसे जनसंचार कहा जाता है। इसमें संदेश को यांत्रिक माध्यम से बहुगुणित किया जाता है।

प्रश्न 4.
जनसंचार की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :

  • जनसंचार में ‘फीडबैक’ तुरंत प्राप्त नहीं होता।
  • इसका दायरा व्यापक होता है।
  • जनसंचार के संदेश सबके लिए होते हैं।
  • जनसंचार माध्यम में कई द्वारपाल (गेटकीपर) होते हैं।
  • द्वारपाल वह व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह होता है जो प्रसारित की जाने वाली सामग्री को नियंत्रित और निर्धारित करता है।

प्रश्न 5.
जनसंचार के प्रमुख कार्य क्या हैं ?
उत्तर :
जनसंचार के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  • सूचना देना
  • जनता को शिक्षित कर जागरुक बनाना।
  • मनोरंजन करना।
  • एजेंडा तय करना (देश और समाज के लिए)
  • निगरानी करना (सरकार और संस्थाओं के कामकाज की)
  • विचार-विमर्श के लिए मंच उपलब्ध कराना।

प्रश्न 6.
वर्तमान में जनसंचार के कौन-कौन से रूप प्रचलित हैं ?
उत्तर :
वर्तमान में जनसंचार के निम्नलिखित रूप प्रचलित हैं –

  • समाचार पत्र (प्रिंट मीडिया) पत्रकारिता
  • रेडियो (ध्वनि माध्यम)
  • टेलीविजन (सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम)
  • सिनेमा
  • इंटरनेट (जनसंचार सर्वथा नया और लोकप्रिय माध्यम)

प्रश्न 7.
इंटरनेट क्या है ? इसकी खामियाँ बताइए।
उत्तर:
इंटरनेट एक अंतरक्रियात्मक माध्यम है। इसमें आप मूकदर्शक नहीं हैं। इसके माध्यम से आप सवाल-जवाब, बहस-मुबाहिसों में भाग ले सकते हैं, चैट कर सकते हैं, ब्लॉग बनाकर किसी बहस के सूत्रधार बन सकते हैं। इसमें प्रिंट मीडिया, रेडियो, टेलीविजन, किताब आदि के समस्त गुण मौजूद हैं। इसमें करोड़ों पन्नों की सामग्री भर दी गई है। यह सूचनाओं का विश्वव्यापी जाल है। इसकी रफ्तार का कोई जवाब नहीं है।

खामियाँ :

इसमें लाखों अश्लील पन्ने भर दिए गए हैं जिनका छोटे बच्चों के कोमल मन पर दुष्प्रभाव पड़ता है।
इंटरनेट का दुरुपयोग किया जा सकता है।

2. पत्रकारिता

प्रश्न 1.
पत्रकारिता क्या है ? इसके कितने प्रकार हैं ?
उत्तर :

  • पत्रकारिता का संबंध सूचनाओं को संकलित और संपादित कर पाठकों तक पहुँचाना है।
  • समाचारों के संपादन में तथ्यपरकता, वस्तुपरकता, निष्पक्षता और संतुलन जैसे सिद्धांतों का ध्यान रखना पड़ता है लेकिन पत्रकारिता का संबंध केवल
  • समाचारों तक सीमित नहीं है, इसमें संपादकीय, लेख, कार्टून और फोटो भी शामिल हैं।

पत्रकारिता के प्रमुख प्रकार ये हैं :

  • खोजपरक पत्रकारिता
  • वॉच डॉग पत्रकारिता
  • एडवोकेसी पत्रकारिता
  • विशेषीकृत पत्रकारिता
  • वैकल्पिक पत्रकारिता

प्रश्न 2.
पीत पत्रकारिता क्या है ?
उत्तर :
समाचार मीडिया में हमेशा से ही सनसनीखेज या पीत पत्रकारिता और पेज थ्री पत्रकारिता की धाराएँ मौजूद रही हैं। पीत पत्रकारिता का प्रयोग किसी व्यक्ति के चरित्र हनन के लिए भी किया जाता है। इसे पत्रकारिता का घटिया रूप माना जाता है।

प्रश्न 3.
पत्रकारिता के कौन-कौन से सिद्धांत हैं ?
उत्तर :
पत्रकारिता के सिद्धांत निम्नलिखित हैं :

  • तथ्यों की शुद्धता (Accuracy)
  • निष्पक्षता (Fairness)
  • स्रोत (Source)
  • वस्तुपरकता (Objectivity)
  • संतुलन (Balance)

प्रश्न 4.
पत्रकारिता के विविध आयामों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर :
पत्रकारिता के विविध आयाम इस प्रकार हैं :

  • संपादकीय – संपादकीय पृष्ठ को समाचार का महत्त्वपूर्ण पृष्ठ माना जाता है। इस पृष्ठ पर संपादक विभिन्न घटनाओं पर अपनी राय प्रकट करता है। इसे अखबार की आवाज माना जाता है।
  • फोटो पत्रकारिता – फोटो द्वारा की गई टिप्पणियों का असर व्यापक होता है।
  • कार्टून कोना – कार्टूनों के माध्यम से की गई सटीक टिप्पणियाँ पाठकों को छूती हैं।
  • रेखांकन/कार्टोग्राफ – ये समाचारों को न केवल रोचक बनाते हैं बल्कि टिप्पणी भी करते हैं।

प्रश्न 5.
खोजपरक पत्रकारिता क्या होती है ?
उत्तर :
खोजपरक पत्रकारिता में गहराई से छानबीन करके ऐसे तथ्यों और सूचनाओं को सामने लाने की कोशिश की जाती है जिन्हें दबाने या छिपाने का प्रयास किया गया होता है। आमतौर पर खोजी पत्रकारिता सार्वजनिक महत्त्व के मामलों में भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और गड़बड़ियों को उजागर करने का माध्यम है। खोजी पत्रकारिता का ही एक रूप ‘स्टिंग ऑपरेशन’ है।

प्रश्न 6.
वॉचडॉग पत्रकारिता क्या है ?
उत्तर :
लोकतंत्र में पत्रकारिता और समाचार मीडिया का मुख्य उत्तरदायित्व सरकार के कामकाज पर निगरानी रखना है। यदि कहीं कोई गड़बड़ी हो तो उसका पर्दाफाश करना ही वॉचडॉग पत्रकारिता है। इसका दूसरा छोर सरकारी सूत्रों पर आधारित पत्रकारिता है।

3. विभिन्न माध्यमों के लिए लेखन

प्रश्न 1.
प्रमुख जनसंचार माध्यम कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :
प्रमुख जनसंचार माध्यम ये हैं :

  • प्रिंट मीडिया (अखबार)
  • टी.वी.
  • रेडियो इंटरनेट

प्रश्न 2.
प्रिंट (मुद्रित) माध्यम की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
मुद्रित माध्यमों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • छपे शब्दों में स्थायित्व होता है।
  • इन्हें आप आराम से और धीरे-धीरे पढ़ सकते हैं।
  • इन्हें पढ़ते हुए उन पर सोच सकते हैं।
  • समझ न आने पर दोबारा पढ़ सकते हैं।
  • किसी भी समाचार या रिपोर्ट को पहले या पीछे पढ़ सकते हैं।
  • इसमें किसी भी क्रम में पढ़ने की बाध्यता नहीं है।
  • इन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रख सकते हैं और उसे संदर्भ की तरह प्रयोग कर सकते हैं।
  • यह लिखित भाषा का विस्तार है। इसमें लिखित भाषा की सभी विशेषताएँ शामिल हैं।

लिखित और मौखिक भाषा में सबसे बड़ा अंतर यह है कि लिखित भाषा अनुशासन की माँग करती है। लिखते समय भाषा, व्याकरण, वर्तनी और शब्दों के उपयुक्त इस्तेमाल का ध्यान रखना पड़ता है। इसे प्रचलित भाषा में लिखना पड़ता है ताकि अधिक से अधिक लोग इसे समझ सकें।

मुद्रित माध्यमों की एक अन्य प्रमुख विशेषता यह है कि यह चिंतन, विचार और विश्लेषण का माध्यम है। इसमें गंभीर और गूढ़ बातें लिखी जा सकती हैं, क्योंकि पाठक के पास इन्हें पढ़ने, समझने और सोचने का काफी समय होता है। मुद्रित माध्यम का पाठक साक्षर एवं विशेष योग्यता वाला व्यक्ति होता है।

प्रश्न 3.
मुद्रित माध्यम की कमियाँ क्या हैं ?
उत्तर :
मुद्रित माध्यम की कमियाँ ये हैं :

  • यह माध्यम केवल साक्षरों के लिए है। निरक्षरों के लिए मुद्रित माध्यम किसी काम का नहीं है।
  • इस माध्यम में लिखने वालों को अपने पाठकों के भाषा – ज्ञान के साथ-साथ उनकी योग्यता का भी पूरा ध्यान रखना पड़ता है।
  • मुद्रित माध्यमों की एक सीमा है। वे रेडियो, टी.वी. या इंटरनेट की तरह तुरंत घटी घटनाओं को संचालित नहीं कर सकते। समाचारपत्र एक निश्चित अवधि पर प्रकाशित होते हैं, जैसे : अखबार 24 घंटे बाद ही छपता है।
  • अखबार या पत्रिका में समाचारों या रिपोर्ट के प्रकाशन की एक निश्चित समय-सीमा होती है जिसे ‘डेडलाइन’ कहा जाता है। इसके बाद कोई सामग्री प्रकाशन के लिए स्वीकार नहीं की जाती।

प्रश्न 4.
मुद्रित माध्यम में किन-किन बातों पर ध्यान देना अपेक्षित है ?
उत्तर :
मुद्रित (प्रिंट) माध्यम में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना अपेक्षित है :

  • मुद्रित माध्यमों में लेखक को जगह (स्पेस) का पूरा ध्यान रखना चाहिए। समाचार, रिपोर्ट या फीचर की निर्धारित शब्द – सीमा को ध्यान में रखना जरूरी है। अखबार या पत्रिका में जगह सीमित होती है। महत्त्व और जगह की उपलब्धता को ध्यान में रखना चाहिए।
  • मुद्रित माध्यम के पत्रकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि छपने से पहले आलेख की सभी अशुद्धियों को दूर कर दिया गया हो। प्रकाशन के बाद गलती या अशुद्धि वहीं चिपक जाती है तथा उसका संशोधन अगले दिन के अखबार में ही हो पाता है।
  • संपादक के साथ एक पूरी संपादकीय टीम भी होती है। अतः अशुद्धियों को दूर करके सामग्री को प्रकाशन योग्य बनाया जाना जरूरी है।
  • भाषा, वर्तनी, व्याकरण और शैली पर विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। प्रचलित भाषा का प्रयोग हो।
  • लेखन में सहज प्रवाह के लिए तारतम्यता को बनाए रखना जरूरी है।

रेडियो –

प्रश्न 5.
रेडियो समाचार – लेखन की बुनियादी बातों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
रेडियो एक श्रव्य माध्यम है। इसमें पुनः सुनने की सुविधा नहीं होती।
रेडियो – समाचार लेखन की बुनियादी बातें : रेडियो के लिए समाचार कॉपी तैयार करते हुए इन बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए :

1. साफ-सुथरी टाइप्ड कॉपी : रेडियो पर समाचार वाचक के लिए ऐसी कॉपी तैयार की जानी चाहिए जिसे पढ़ने में उसे कोई दिक्कत न हो। यदि समाचार कॉपी साफ-सुथरी और टाइप्ड नहीं होगी तो वाचक पढ़ते समय अटकेगा या गलत पढ़ सकता है। इससे श्रोताओं का ध्यान बँटता है और वे भ्रमित हो जाते हैं। इसके लिए :

  • समाचार कॉपी को कंप्यूटर पर ट्रिपल स्पेस में टाइप किया जाना चाहिए।
  • कॉपी के दोनों ओर पर्याप्त हाशिया छोड़ना चाहिए।
  • एक लाइन में अधिकतम 12-13 शब्द होने चाहिए।
  • पंक्ति के आखिर में कोई शब्द विभाजित नहीं होना चाहिए।
  • पृष्ठ के आखिर में लाइन अधूरी नहीं होनी चाहिए।
  • समाचार कॉपी में जटिल और उच्चारण में कठिन शब्द, संक्षिप्ताक्षर, अंक आदि नहीं लिखने चाहिए। इनके पढ़ने में जबान लड़खड़ा सकती है।

2. डेडलाइन, संदर्भ और संक्षिप्ताक्षर का प्रयोग : रेडियो में अखबारों की तरह डेडलाइन अलग से नहीं होती, बल्कि समाचार से ही गुँथी होती है। अखबार तो दिन में एक बार ही छपकर आता है जबकि रेडियो पर समाचार चौबीसों घंटे चलते रहते हैं। रेडियो समाचार में आज सुबह, आज दोपहर, आज शाम, आज तड़के आदि का इस्तेमाल किया जाता है। इसी तरह ……. बैठक कल होगी या …… बैठक कल हुई ……. का प्रयोग किया जाता है।

संक्षिप्ताक्षर के प्रयोग में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। अच्छी बात तो यह है कि इनके प्रयोग से बचा जाए। यदि बहुत आवश्यक ही हो तो समाचार से शुरू में पहले उसे पूरा दिया जाए, फिर सक्षिप्ताक्षर का प्रयोग किया जाए। इसमें संक्षिप्ताक्षर की लोकप्रियता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए, जैसे : यूएनओ, यूनिसेफ, सार्क, आईसीआईसीआई बैंक।

प्रश्न 6.
रेडियो माध्यम की तीन खूबियों और तीन खामियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
खूबियाँ :

  1. श्रव्य माध्यम।
  2. मूलत: एक रेखीय माध्यम। इसमें शब्दों और ध्वनियों का महत्त्व होता है।
  3. निरक्षरों के लिए उपयोगी।

खामियाँ :

  1. पीछे लौटकर सुनने की सुविधा नहीं।
  2. बुलेटिन के प्रसारण समय का इंतजार करना।
  3. संक्षिप्ताक्षरों के प्रयोग में सावधानी।

टेलीविजन –

प्रश्न 7.
टेलीविजन कैसा माध्यम है ?
उत्तर :
टेलीविजन में दृश्यों का महत्त्व सबसे ज्यादा है। यह स्पष्ट है कि टेलीविज़न देखने और सुनने का माध्यम है। इसके लिए समाचार लिखते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है कि शब्द परदे पर दिखने वाले दृश्य के अनुकूल हों।

  • टेलीविज़न माध्यम अखबार और रेडियो दोनों माध्यमों से काफी अलग है।
  • टेलीविज़न के लेखन में कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा खबर बताने की कला का इस्तेमाल किया जाता है। इसीलिए टी.वी. के लिए खबर
  • लिखने की बुनियादी शर्त दृश्य के साथ लेखन है।
  • यदि दृश्य आकाश के हैं तो बातें भी आकाश की होंगी, न कि समुद्र की।

प्रश्न 8.
दूरदर्शन पर समाचार देते समय किन-किन बातों पर ध्यान रखना चाहिए ?
उत्तर :
दूरदर्शन के समाचार वाचक में निम्नलिखित गुण होने चाहिए –

  • उसकी बोली में स्पष्टता हो।
  • उसे दृश्यों के साथ तालमेल बिठाना आना चाहिए !
  • सहजता के साथ समाचार पढ़ने चाहिए।
  • विषयानुकूल मुख-मुद्रा बनानी चाहिए।
  • अपनी वेशभूषा पर भी ध्यान देना चाहिए।

प्रश्न 9.
टी.वी. खबरों के कौन-कौन से चरण हैं ?
उत्तर :
टी.वी. खबरों के विभिन्न चरण-

  • फ्लैश या ब्रेकिंग न्यूज
  • फोन-इन
  • एंकर बाइट
  • एंकर पैकेज
  • ड्राई एंकर
  • एंकर विजुअल
  • लाइव

प्रश्न 10.
रेडियो और टेलीविजन के समाचारों की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
रेडियो और टेलीविजन के समाचारों की भाषा-शैली : इनके लेखन का कोई एक निश्चित फार्मूला नहीं हो सकता। प्रयोगशीलता भाषा को समृद्ध करती है और माध्यम को भी।
रेडियो और टी.वी. आम लोगों का माध्यम है। इनके प्रयोग करने वाले श्रोता दर्शक निरक्षर और साक्षर, संपन्न वर्ग के लोग तथा किसान-मजदूर सभी हैं। इन लोगों तक पहुँचने का माध्यम भाषा है अतः भाषा ऐसी होनी चाहिए जो सभी को आसानी से समझ में आ जाए, पर भाषा के स्तर के साथ समझौता नहीं किया जाना चाहिए। अतः इन बातों को ध्यान में रखें

  • बोलचाल की भाषा का ही इस्तेमाल रेडियो, टी.वी. के समाचारों में करें।
  • वाक्य छोटे, सीधे और स्पष्ट रूप से लिखे जाएँ।
  • खबर की प्रमुख बातों को ठीक से समझने की कोशिश करें।

सरल, संप्रेषणीय एवं प्रभावी भाषा लिखें। इसकी जाँच के लिए समाचार लिखने के बाद उसे बोल-बोलकर पढ़ें।
भाषा में प्रवाह होना चाहिए।

प्रश्न 11.
रेडियो और टी.वी. समाचारों की भाषा-शैली में क्या-क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिएँ ?
उत्तर :
रेडियो और टी.वी. समाचार में भाषा और शैली के स्तर पर काफी सावधानी बरतने की जरूरत है। ऐसे अनेक शब्द हैं जिनका अखबार में धड़ल्ले से प्रयोग होता है पर रेडियो और टी.वी. में उनके प्रयोग से बचा जाता है। जैसे :
निम्नलिखित उपरोक्त, अधोहस्ताक्षरित और क्रमांक आदि शब्दों का प्रयोग टी.वी. रेडियो में मना है। ‘द्वारा’ शब्द के इस्तेमाल से भी बचा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए :
‘निरीक्षक द्वारा, नकल करते हुए दो छात्रों को पकड़ लिया।’
इसके स्थान पर :
‘निरीक्षक ने दो छात्रों को नकल करते हुए पकड़ लिया।’
अधिक स्पष्ट है।
तथा, एवं, अथवा, व, किंतु, परंतु, यथा आदि शब्दों के प्रयोग से बचा जाना चाहिए।
गैर जरूरी विशेषणों, सामासिक और तत्सम शब्दों, अतिरंजित उपमाओं आदि से भी बचना चाहिए। इनसे भाषा बोझिल बनती है।
जहाँ आवश्यक हो वहाँ मुहावरों का प्रयोग करना चाहिए। इससे भाषा आकर्षक और प्रभावी बनती है।
वाक्य छोटे हों।
एक वाक्य में एक ही बात कहने का धीरज हो।
वाक्यों में तारतम्य हो।
ऐसे शब्द प्रयोग किए जाएँ जिनका उच्चारण सहजता से हो सके।
जैसे – क्रय-विक्रय की जगह खरीद-बिक्री, ‘स्थानांतरण’ की जगह ‘तबादला’।
अधिक विद्वता दिखाने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिए।

इंटरनेट –

प्रश्न 12.
इंटरनेट क्या है ?
उत्तर :

  • इंटरनेट सिर्फ एक टूल या औजार है।
  • इसमें सूचना, मनोरंजन, ज्ञान और व्यक्तिगत या सार्वजनिक संवादों के आदान-प्रदान का माध्यम है।
  • जहाँ यह सूचनाओं के आदान-प्रदान का बेहतरीन साधन है, वहीं यह अश्लीलता, दुष्प्रचार और गंदगी फैलाने का माध्यम है।

प्रश्न 13.
इंटरनेट पत्रकारिता क्या है ?
उत्तर :
इंटरनेट पत्रकारिता को ऑनलाइन पत्रकारिता, साइबर पत्रकारिता या वेब पत्रकारिता भी कहा जाता है। जिनके पास इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है उन्हें कागज पर छपे अखबार अच्छे नहीं लगते। उन्हें हर घंटे दो घंटे में खुद को अपडेट करने की लत लग जाती है। भारत में कंप्यूटर इस्तेमाल करने वालों की संख्या निरंतर बढ़ रही है अतः इंटरनेट कनेक्शनों की संख्या भी हर साल 50-55 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। इंटरनेट पर आप देश – विदेश की खबरें एक झटके में पढ़ लेते हैं। इसमें आप दुनियाभर की चर्चाओं – परिचर्चाओं में भाग ले सकते हैं और अखबारों की पुरानी फाइलें खंगाल सकते हैं।

  • इंटरनेट पर अखबारों का प्रकाशन या खबरों का आदान-प्रदान ही वास्तव में इंटरनेट पत्रकारिता है।
  • इंटरनेट पर यदि हम किसी भी रूप में खबरों, लेखों, चर्चा-परिचर्चाओं, बहसों, फीचर, झलकियों, डायरियों के जरिए अपने समय की धड़कनों को
  • महसूस करने और दर्ज करने का काम करते हैं तो वही इंटरनेट पत्रकारिता है।
  • आज प्रायः सभी प्रमुख अखबार पूरे के पूरे इंटरनेट पर उपलब्ध हैं।
  • कई प्रकाशन समूहों ने खुद को इंटरनेट पत्रकारिता से जोड़ लिया है।
  • इंटरनेट पत्रकारिता का तरीका थोड़ा भिन्न है।

प्रश्न 14.
इंटरनेट पत्रकारिता के उपयोग कौन-कौन से हैं ?
उत्तर:
इंटरनेट के उपयोग –
1. इंटरनेट का एक माध्यम या औजार के तौर पर इस्तेमाल यानी खबरों के संप्रेषण के लिए इंटरनेट का उपयोग।
2. रिपोर्टर अपनी खबर को एक जगह से दूसरी जगह तक ई-मेल के जरिए भेजने और समाचारों के संकलन, खबरों के सत्यापन और पुष्टिकरण में भी इसका इस्तेमाल करता है।

  • रिसर्च या शोध का काम तो इंटरनेट ने बेहद आसान कर दिया है।
  • पहले खबरों की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए ढेर सारी अखबारी कतरनों की फाइलों को ढूढ़ना पड़ता था। अब चंद मिनटों में इंटरनेट बिश्वव्यापी जाल से पृष्ठभूमि खोजी जा सकती है।
  • अब एक सेकंड में 56 किलोबाइट यानी लगभग 70 हजार शब्द भेजे जा सकते हैं।

प्रश्न 15.
इंटरनेट पत्रकारिता के इतिहास पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर:
इंटरनेट पत्रकारिता का इतिहास :

  • इस प्रकार की पत्रकारिता का पहला दौर 1982 से 1992 तक का था।
  • दूसरा दौर 1993 से 2001 तक का था।
  • इस समय इंटरनेट पत्रकारिता का तीसरा दौर चल रहा है। इसमें 2002 से अब तक की पत्रकारिता आती है।
  • पहले चरण में इंटरनेट खुद प्रयोग के धरातल पर था। तब ‘एओएल’ यानी अमेरिका ऑनलाइन जैसी चर्चित कंपनियाँ सामने आईं। यह प्रयोग का दौर था।

1983 से 2002 के मध्य सच्चे अर्थों में इंटरनेट पत्रकारिता की शुरुआत हुई। इस बीच :

  • इंटरनेट का तेजी से विकास हुआ।
  • नई वेब भाषा ‘एचटीएमएल’ (हाइपर टेक्स्ट माकर्डअप लैंग्वेज) आई।
  • ई-मेल आया।
  • इंटरनेट एक्सप्लोरर और नेटस्केप नाम के ब्राउजर आए।
  • ‘ब्राउजर’ वह औजार है जिसके जरिए विश्वव्यापी जाल (इंटरनेट) में गोते लगाए जा सकते हैं।
  • लगभग सभी बड़े अखबार और टेलीविजन समूह इस विश्वव्यापी जाल में आए।

प्रश्न 16.
भारत में इंटरनेट पत्रकारिता की स्थिति क्या है ?
उत्तर :
भारत में इंटरनेट पत्रकारिता का अभी दूसरा दौर चल रहा है। यह दौर 2003 में शुरू हुआ था।
भारत में इंटरनेट पत्रकारिता की दृष्टि से ये साइटें बेहतर हैं :

  • द टाइम्स ऑफ इंडिया
  • हिंदू
  • एन.डी.टी.वी.
  • आउटलुक
  • हिंदुस्तान टाइम्स
  • ट्रिब्यून
  • आज तक
  • आई बी एन
  • इंडियन एक्सप्रेस
  • स्टेट्समैन
  • जी – न्यूज

ये साइटें नियमित रूप से अपडेट होती हैं :

हिंदू, टाइम्स ऑफ इंडिया, आउटलुक, इंडियन एक्सप्रेस, एन. डी. टी. वी., आज तक जी-न्यूज आदि।
भारत में सच्चे अर्थों में यदि कोई वेब पत्रकारिता कर रहा है तो वह ‘रीडिफ डॉट काम’, ‘इंडिया इंफोलाइन’ व ‘सीफी’ जैसी साइटें हैं।

प्रश्न 17.
हिंदी नेट संसार पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
हिंदी में पत्रकारिता ‘वेब दुनिया’ के साथ शुरू हुई। इंदौर के ‘नई दुनिया’ समूह से शुरू हुआ यह पोर्टल हिंदी का सम्पूर्ण पोर्टल है। इसके साथ ही हिन्दी के अखबारों ने भी विश्वजाल में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी।
हिंदी के इन अखबारों के वेब संस्करण शुरू हुए –

  • जागरण
  • अमर उजाला
  • नई दुनिया
  • हिंदुस्तान
  • भास्कर
  • राजस्थान पत्रिका
  • प्रभात खबर
  • राष्ट्रीय सहारा

प्रभासाक्षी नाम से शुरू हुआ अखबार प्रिंट रूप में न होकर सिर्फ इंटरनेट पर उपलब्ध है।
आज पत्रकारिता की दृष्टि से हिंदी की सर्वश्रेष्ठ साइट ‘बीबीसी’ की है।

प्रश्न 18.
हिंदी वेब पत्रकारिता की समस्या क्या है ?
उत्तर :
हिंदी वेब पत्रकारिता अभी अपने शैशव काल में ही है। इसकी सबसे बड़ी समस्या हिंदी के फोंट की है। अभी तक हमारे पास एक ‘की-बोर्ड’ नहीं है। डायनामिक फौंट की अनुपलब्धता के कारण हिंदी की ज्यादातर साइटें खुलती ही नहीं हैं। अब माइक्रोसॉफ्ट और वेब दुनिया ने यूनिकाड फौंट बनाए हैं। अभी हिंदी के की-बोर्ड का मानकीकरण होना जरूरी है।

प्रश्न 19.
विभिन्न जन संचार माध्यमों-प्रिंट, रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट से जुड़ी खूबियों और खामियों को लिखते हुए एक तालिका तैयार करें।
उत्तर :
CBSE Class 12 Hindi Elective रचना पत्रकारीय लेखन और उसके विविध आयाम 2

लघुत्तरात्मक प्रश्न –

प्रश्न 1.
आपके विचार से संचार माध्यमों में कैसी भाषा प्रयोग की जानी चाहिए ?
उत्तर :
हमारे विचार से संचार माध्यमों की भाषा सरल और व्याकरण सम्मत होनी चाहिए। वाक्य छोटे-छोटे और सारगर्भित होने चाहिए।

प्रश्न 2.
एंकर बाइट से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
घटनास्थल पर मौजूद प्रत्यक्षदर्शियों या उस घटना से संबंधित व्यक्तियों के कथन को दिखाकर व सुनकर उस खबर को प्रमाणित किया जाता है, वह एंकर बाइट कहलाता है।

प्रश्न 3.
टी. वी की भाषा की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
टी.वी. की भाषा की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) टी.वी. की भाषा सरल, स्पष्ट व आम बोलचाल की होनी चाहिए।
(ii) टी.वी. की भाषा शालीन व मर्यादित होनी चाहिए एवं इसमें छोटे वाक्यों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

प्रश्न 4.
ब्रेकिंग न्यूज़ किसे कहते हैं?
उत्तर :
किसी भी बड़ी एवं महत्त्वपूर्ण खबर को तत्काल कम से कम शब्दों में फ्लैश या ब्रेकिंग न्यूज के रूप में दर्शकों तक पहुँचाया जाता है।

प्रश्न 5.
भारत में सबसे पहला प्रिंटिंग प्रेस कब और कहाँ खोला गया?
उत्तर :
भारत में सबसे पहला प्रिंटिंग प्रेस 1556 ई. में गोवा में खोला गया। इस प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना मिशनरियों ने धर्म प्रचार की पुस्तकें छापने के लिए की थी।

प्रश्न 6.
जनसंचार के विभिन्न माध्यमों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जनसंचार के विभिन्न माध्यमों में टेलीफोन, इंटरनेट फैक्स, समाचार-पत्र, रेडियो, टेलीविजन तथा सिनेमा इत्यादि हैं। इसके द्वारा मनुष्य अपने विचार, संवेदना आदि को एक-दूसरे के बीच संप्रेषित करता है।

प्रश्न 7.
दूरदर्शन पर समाचार पढ़ते हुए वाचक को क्या सावधानी बरतनी चाहिए?
उत्तर :
दूरदर्शन पर समाचार पढ़ते हुए वाचक को भाषा, हाव-भाव आदि का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

प्रश्न 8.
मुद्रित माध्यम की तीन प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :

  1. इसे मनमर्जी स्थान (पृष्ठ) से पढ़ा जा सकता है।
  2. इसमें स्थायित्व होता है।
  3. यह लिखित भाषा का विस्तार है।

प्रश्न 9.
समाचार – लेखन की सबसे प्रभावी और प्रचलित शैली कौन-सी है ? उल्टा पिरामिड शैली की क्या विशेषता है?
उत्तर :
समाचार – लेखन की सबसे प्रभावी और प्रचलित शैली उल्टा पिरामिड शैली है। उल्टा पिरामिड शैली में समाचार के सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य को सबसे पहले लिखा जाता है और उसके बाद घटते हुए क्रम में अन्य तथ्यों और सूचनाओं को लिखा जाता है।

प्रश्न 10.
बाइट किसे कहते हैं?
उत्तर :
बाइट कथन को कहते हैं। खबर की पुष्टि के लिए बाइट दिखाई जाती है।

प्रश्न 11.
लाइव से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
किसी खबर या घटना का घटनास्थल से सीधा प्रसारण लाइव टैलीकास्ट कहलाता है।

प्रश्न 12.
इंटरनेट पत्रकारिता को अन्य किन-किन नामों से पुकारा जाता है ?
उत्तर :
इसे ऑनलाइन पत्रकारिता, साइबर पत्रकारिता और वेब पत्रकारिता के नामों से भी पुकारा जाता है।

प्रश्न 13.
इंटरनेट के बारे में बताइए।
उत्तर:
इंटरनेट सूचनाओं का विश्वव्यापी जाल है। यह सिर्फ एक टूल यानी औजार है जिसे सूचना, मनोरंजन, ज्ञान, संवादों के आदान-प्रदान के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

4. पत्रकारीय लेखन के विभिन्न रूप और लेखन प्रक्रिया

पत्रकारिता –

प्रश्न 1.
पत्रकारीय लेखन क्या है ?
उत्तर :
हमें यह समझना जरूरी है कि पत्रकारीय लेखन क्या है ? समाज में इसकी क्या भूमिका है ? अखबार पाठकों को सूचना देने, जागरूक और शिक्षित बनाने तथा उनका मनोरंजन करने का दायित्व निभाते हैं। लोकतंत्र में अखबार एक पहरेदार, शिक्षक और जनमत निर्माण का काम करते हैं। अखबार एक ऐसी खिड़की है जिसके जरिये असंख्य पाठक हर रोज सुबह देश-दुनिया और अपने पास-पड़ोस की घटनाओं, समस्याओं, मुद्दों और विचारों से अवगत होते हैं। पत्रकार इन सूचनाओं को पाठक, श्रोताओं और दर्शकों तक पहुँचाने का काम करते हैं। इसे ही पत्रकारीय लेखन कहते हैं।

प्रश्न 2.
पत्रकार कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर :
पत्रकार तीन तरह के होते हैं :

  1. पूर्णकालिक पत्रकार
  2. अंशकालिक पत्रकार
  3. फ्रीलांसर यानी स्वतंत्र पत्रकार

पूर्णकालिक पत्रकार किसी समाचार संगठन में काम करने वाला नियमित वेतनभोगी कर्मचारी होता है।
• अंशकालिक पत्रकार (स्ट्रिंगर) किसी समाचार संगठन के लिए एक निश्चित मानदेय पर काम करने वाला पत्रकार होता है।
• फ्रीलांसर पत्रकार का संबंध किसी खास अखबार से नहीं होता बल्कि वह भुगतान के आधार पर अलग-अलग अखबारों के लिए लिखता है।
पत्रकारीय लेखन का संबंध समसामयिक और वास्तविक घटनाओं व समस्याओं से है। इसका रिश्ता तथ्यों से होता है, न कि कल्पना से।

प्रश्न 3.
साहित्यिक लेखन और पत्रकारीय लेखन में क्या अंतर है ?
उत्तर :

  • साहित्यिक लेखन में कल्पना का स्थान होता है जबकि पत्रकारीय लेखन में तथ्य होते हैं।
  • पत्रकारीय लेखन अनिवार्य रूप से तात्कालिकता और पाठकों की रुचि को ध्यान में रखकर किया जाने वाला लेखन है। साहित्यिक रचनात्मक लेखन में लेखक को काफी छूट रहती है।
  • अखबार और पत्रिका को यह बात याद रखनी चाहिए कि वह एक विशाल समुदाय के लिए लिख रहा है जिसमें विद्वान से लेकर कम पढ़ा-लिखा
  • मजदूर तक शामिल है। पत्रकारीय लेखन में आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया जाता है। इसमें वाक्य छोटे और सहज होते हैं। इसमें पुनरावृत्ति से बचा जाता है।

प्रश्न 4.
समाचार कैसे लिखा जाता है ? उल्टा पिरामिड शैली क्या है ?
उत्तर :
पत्रकारीय लेखन का सबसे जाना-पहचाना रूप समाचार लेखन है। आमतौर पर अखबारों में समाचार पूर्णकालिक और अंशकालिक पत्रकार लिखते हैं। इन्हें संवाददाता या रिपोर्टर भी कहते हैं।
→ अखबारों में प्रकाशित अधिकांश समाचार एक खास शैली में लिखे जाते हैं। इन समाचारों में किसी भी घटना, समस्या या विचार के सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य, सूचना या जानकारी को सबसे पहले पैराग्राफ में लिखा जाता है।
→ उसके बाद के पैराग्राफ में उससे कम महत्त्वपूर्ण सूचना या तथ्य की जानकारी दी जाती है। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक समाचार खत्म नहीं हो जाता।
इसे समाचार लेखन की उल्टा पिरामिड शैली (इंवर्टेड पिरामिड स्टाइल) के नाम से जाना जाता है। यह समाचार लेखन की सबसे लोकप्रिय, उपयोगी और बुनियादी शैली है।

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना पत्रकारीय लेखन और उसके विविध आयाम 3

प्रश्न 5
समाचार लेखन के छः ककार कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :
किसी समाचार को लिखते हुए मुख्यतः छह ककारों (सवालों) का जवाब देने की कोशिश होती है। ये छह ककार हैं :

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना पत्रकारीय लेखन और उसके विविध आयाम 4

क्या हुआ ?
कहाँ हुआ ?
क्यों हुआ ?
किसके साथ हुआ ?
कब हुआ ?
कैसे हुआ ?

ध्यान दें – समाचार के मुखड़े (इंट्रो) यानी पहले पैराग्राफ की 2-3 पंक्तियों में आमतौर पर
3-4 ककारों को आधार बनाकर खबर लिखी जाती है। ये चार ककार हैं-
क्या, कौन, कब और कहाँ ?
इसके बाद समाचार की बॉडी में और समापन के पहले बाकी दो ककारों- ‘कैसे और क्यों’
का जवाब दिया जाता है। इस प्रकार छह ककारों के आधार पर समाचार तैयार होता है।

फ़ीचर –

प्रश्न 6.
फ़ीचर क्या है ?
उत्तर :
अखबारों में समाचारों के अलावा अन्य कई तरह का पत्रकारीय लेखन छपता है। इनमें फ़ीचर प्रमुख समाचार और फ़ीचर के बीच अंतर समझें :

  • फ़ीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है।
  • इसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने और मनोरंजन करना होता है।
  • फ़ीचर समाचार की तरह पाठकों को तात्कालिक घटनाक्रम से अवगत नहीं कराता।
  • फ़ीचर लेखन की शैली समाचार लेखन की शैली से भिन्न होती है।
  • फ़ीचर लेखक के पास अपनी राय या दृष्टिकोण और भावनाओं को जाहिर करने का अवसर होता है जबकि समाचार लेखक ऐसा नहीं कर सकता।

प्रश्न 7.
फ़ीचर लेखन में किस शैली का प्रयोग होता है ?
उत्तर :
फ़ीचर – लेखन में उल्टा पिरामिड शैली का प्रयोग नहीं होता।
फ़ीचर लेखन की शैली काफी हद तक कथात्मक शैली की तरह है।
फ़ीचर लेखन की भाषा समाचारों के विपरीत सरल, रूपात्मक, आकर्षक और मन को छूने वाली होती है।
फ़ीचर में समाचारों की तरह शब्दों की कोई अधिकतम सीमा नहीं होती। अखबारों और पत्रिकाओं में 250 शब्दों से लेकर 2000 शब्दों तक के फ़ीचर छपते हैं।
एक अच्छे और रोचक फीचर के साथ फोटो, रेखांकन, ग्राफिक्स आदि का होना जरूरी है।
हल्के-फुल्के विषयों से लेकर गंभीर विषयों और मुद्दों पर भी फ़ीचर लिखा जा सकता है।
फ़ीचर एक तरह का ट्रीटमेंट है जो आमतौर पर विषय और मुद्दे की जरूरत के मुताबिक उसे प्रस्तुत करते हुए दिया जाता है।
फ़ीचर शैली का प्रयोग हल्के-फुल्के, नरम और मानवीय रुचि के समाचारों को लिखने में भी किया जाता है।

फ़ीचर वास्तव में बहुत सारी चीजों का मिला-जुला रूप है। यह तरह-तरह से प्रकाशित किया जाता है। फ़ीचर एक लेख के रूप में भी हो सकता है और छोटी-छोटी सूचनाओं के रूप में भी। लेकिन फ़ीचर हमेशा सूचनापरक होता है और इसका कोई-न-कोई लक्ष्य होता है।

प्रश्न 8.
एक अच्छे फ़ीचर की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
फ़ीचर की विशेषताएँ :
फ़ीचर किसी सच्ची घटना पर लिखा जाता है जो पाठक के सामने उस घटना का चित्र खींचकर रख देता है।

फ़ीचर सारगर्भित होते हुए भी बोझिल नहीं होता।

किसी भी महत्त्वपूर्ण खोज, उपलब्धि या उसकी पृष्ठभूमि तथा महत्त्व को भी फ़ीचर से समझाया जा सकता है।
फ़ीचर – लेखन अतीत, वर्तमान और भविष्य से संबद्ध हो सकता है।
फ़ीचर से जिज्ञासा, सहानुभूति, संवेदनशीलता, आलोचना आदि भाव उद्दीप्त होते हैं।

प्रश्न 9.
फ़ीचर कैसे लिखा जाता है ? इसके लेखन में किन-किन बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए ?
उत्तर :
फ़ीचर लेखन में कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है :

  1. फ़ीचर को सजीव बनाने के लिए उसमें उस विषय से जुड़े लोगों यानी पात्रों की मौजूदगी जरूरी है।
  2. कहानी के पात्रों के माध्यम से उस विषय के विभिन्न पहलुओं को सामने ले आइए।
  3. कहानी को बताने का अंदाज ऐसा हो कि आपके पाठक यह महसूस करें कि वे खुद देख और सुन रहे हैं।
  4. फ़ीचर को मनोरंजक होने के साथ-साथ सूचनात्मक भी होना चाहिए।
  5. फ़ीचर को किसी बैठक या सभा की कार्यवाही के विवरण की तरह नहीं लिखा जाना चाहिए।
  6. फ़ीचर कोई नीरस शोध रिपोर्ट नहीं है।
  7. फ़ीचर आमतौर पर तथ्यों, सूचनाओं और विचारों पर आधारित कथात्मक विवरण और विश्लेषण होता है।
  8. फ़ीचर की कोई-न-कोई थीम होनी चाहिए। उस थीम के इर्द-गिर्द सूचनाएँ, तथ्य और विचार गुंथे होने चाहिए।

प्रश्न 10.
फ़ीचर के कौन से प्रकार होते हैं ?
उत्तर :
फ़ीचर के प्रकार :

  • समाचार बैकग्राउंडर फ़ीचर
  • खोजपरक फीचर
  • साक्षात्कार फ़ीचर
  • रूपात्मक फ़ीचर
  • व्यक्तिगत फ़ीचर
  • यात्रा फ़ीचर
  • जीवनशैली फ़ीचर
  • विशेष कार्य फीचर

प्रश्न 11.
फ़ीचर लेखन का ढाँचा क्या होता है ?
उत्तर :

  • फ़ीचर – लेखन का कोई निश्चित ढाँचा या फार्मूला नहीं है। इसलिए फ़ीचर को कहीं से भी शुरू कर सकते हैं। हर फ़ीचर का प्रारंभ, मध्य और अंत होता है।
  • प्रारंभ आकर्षक और जिज्ञासापूर्ण होना चाहिए। यदि फ़ीचर का प्रारंभ आकर्षक, रोचक और प्रभावी हो तो फ़ीचर पठनीय और रोचक हो जाता है। वैसे पूरे फ़ीचर को समग्रता से देखना चाहिए।
  • मध्य भाग में फ़ीचर से संबंधित कुछ करीबी लोगों और उनकी उपलब्धियों से परिचित विशेषज्ञों के आकर्षक वक्तव्यों को उद्धृत करने पर बल होना चाहिए।
  • फ़ीचर के आखिरी हिस्से में उनकी भविष्य की योजनाओं पर फोकस करना चाहिए।
  • इस तरह फ़ीचर का प्रारंभ, मध्य और अंत का यह एक संभावित ढाँचा हो सकता है।

विशेष रिपोर्ट –

प्रश्न 12.
विशेष रिपोर्ट क्या होती है ?
उत्तर :
अखबारों और पत्रिकाओं में सामान्य समाचारों के अलावा गहरी छानबीन, विश्लेषण और व्याख्या के आधार पर विशेष रिपोर्टें भी प्रकाशित होती हैं। ऐसी रिपोर्टों को तैयार करने के लिए किसी घटना, समस्या और मुद्दे की गहरी छानबीन की जाती है। उससे संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्यों को इकट्ठा किया जाता है। तथ्यों के विश्लेषण के माध्यम से परिणाम, प्रभाव और कारणों को स्पष्ट किया जाता है।

प्रश्न 13.
विशेष रिपोर्ट कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर :
विशेष रिपोर्ट के कई प्रकार होते हैं, जैसे :
ii (i) खोजी रिपोर्ट (Investigative Report)
(iii) विश्लेषणात्मक रिपोर्ट (Analgtic Report)
(ii) इन डेप्थ रिपोर्ट (In depth Report)
(iv) विवरणात्मक रिपोर्ट (Descriptive Report)

  • खोजी रिपोर्ट में रिपोर्टर मौलिक शोध और छानबीन के जरिए ऐसी सूचनाएँ और तथ्य सामने लाता है जो सार्वजनिक तौर पर पहले से उपलब्ध नहीं थीं। खोजी रिपोर्ट का प्रयोग प्रायः भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और गड़बड़ियों को उजागर करने के लिए किया जाता है।
  • इन डेप्थ रिपोर्ट में सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध तथ्यों, सूचनाओं और आँकड़ों की गहरी छानबीन की जाती है और उसके आधार पर किसी घटना,
  • समस्या या मुद्दे से जुड़े महत्त्वपूर्ण पहलुओं को सामने लाया जाता है।
  • विश्लेषणात्मक रिपोर्ट में जोर किसी घटना या समस्या से जुड़े तथ्यों के विश्लेषण और व्याख्या पर होता है।
  • विवरणात्मक रिपोर्ट में किसी घटना या समस्या के विस्तृत और बारीक विवरण को प्रस्तुत करने की कोशिश की जाती है।

प्रश्न 14.
विशेष रिपोर्ट को किस शैली में लिखा जाता है ?
उत्तर :
आम तौर पर विभिन्न प्रकार की विशेष रिपोर्टों को समाचार लेखन की उल्टा पिरामिड शैली में ही लिखा जाता है लेकिन कई बार ऐसी रिपोर्टों को फ़ीचर शैली में भी लिखा जाता है। चूँकि ऐसी रिपोर्टें सामान्य समाचारों की तुलना में बड़ी और विस्तृत होती हैं, इसलिए पाठकों की रुचि बनाए रखने के लिए कई बार उल्टा पिरामिड और फ़ीचर दोनों ही शैलियों को मिलाकर इस्तेमाल किया जाता है। यदि रिपोर्ट बहुत विस्तृत और बड़ी हो तो श्रृंखलाबद्ध करके उसे कई दिनों तक किस्तों में छापा जाता है। विशेष रिपोर्ट की भाषा सरल, सहज एवं आम बोलचाल की होनी चाहिए।

संपादकीय लेखन –

प्रश्न 15.
संपादकीय लेखन से क्या आशय है ?
उत्तर :
समाचार-पत्र में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले लेख को संपादकीय लेखन कहा जाता है। इसे संपादक स्वयं लिखता है। संपादकीय को उस अखबार की आवाज माना जाता है। संपादकीय के जरिए अखबार का संपादक किसी सामयिक समस्या या मुद्दे पर अपनी राय लिखकर प्रकट करते हैं। संपादकीय के साथ संपादक का नाम नहीं छापा जाता।

प्रश्न 16.
संपादकीय के तत्त्व / विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :

  1. समाचारों पर आधारित संपादक की टिप्पणी को संपादकीय कहते हैं।
  2. संपादकीय के लिए प्रत्येक अखबार में बीच का एक पूरा या आधा पृष्ठ अलग से निर्धारित होता है।
  3. इसमें संपादक की टिप्पणियाँ तो होती हैं, साथ ही समाचारों के विभिन्न पहलुओं पर आलोचनात्मक लेख और पाठकों की प्रतिक्रियाएँ भी प्रकाशित की जाती हैं।
  4. संपादकीय में समाचारों अथवा घटनाओं पर संपादक को अपने विचार प्रकट करने की पूरी छूट होती है।
  5. अनेक पाठक संपादकीय पढ़ने के बाद संबंधित समाचार के बारे में अपनी राय बनाते हैं।
  6. संपादकीय टिप्पणियों और लेखों के आधार पर संपादक या समाचार पत्र की विचारधारा का पता आसानी से लगाया जा सकता है।
  7. संबंधित घटनाक्रम के आधार पर संपादकीय एक ज्ञानवर्धक लेख भी होता है। संपादकीय में पाठकों को वे तमाम जानकारियाँ मिल जाती हैं जो समाचार के माध्यम से नहीं मिल पाई थीं।

प्रश्न 17.
संपादक कौन होता है ? उसका क्या काम है ?
उत्तर :
समाचार पत्र का संपादक विभिन्न डेस्कों द्वारा चयन किए गए समाचारों के लिए जिम्मेदार होता है। वह संपादकीय और फ़ीचर लिखता है। इसके साथ-साथ वह समाचार पत्र के प्रत्येक पृष्ठ की सामग्री के बीच समन्वय का काम करता है। संभावित खबरों पर उसकी निगाह रहती है। विशेष संवाददाता द्वारा दी गई खबरों तथा संवाद समिति के खबरों के समन्वय पर भी वही निर्णय लेता है। प्रथम पृष्ठ पर दी जाने वाली खबरों और चित्रों का चयन वही करता है। वह पहले पृष्ठ के मुख्य समाचार के शीर्षकों पर भी निगाह रखता है। उसकी कुछ प्रशासकीय जिम्मेदारियाँ भी हैं। वह विभिन्न पालियों में उप संपादकों की ड्यूटी लगाता है। समाचार पत्र समय पर छपने के लिए चला जाए, यह सुनिश्चित करना समाचार संपादक का काम है।

लघुत्तरात्मक प्रश्न –

प्रश्न 1.
समाचार को दो-तीन वाक्यों में परिभाषित कीजिए।
उत्तर :
समाचार का अंग्रेजी पर्याय (News) चारों दिशाओं को संकेतित करता है। अपने आस-पास के समाज एवं देश-दुनिया की घटनाओं के विषय में तात्कालिक एवं नवीन जानकारी, जो पक्षपात रहित एवं सत्य हो, समाचार कहलाती है।

प्रश्न 2.
स्टिंग ऑपरेशन से क्या समझते हैं?
उत्तर :
जब किसी टेलीविजन चैनल का पत्रकार छिपे हुए या जासूसी कैमरे के जरिए किसी गैर-कानूनी, अवैध या असामाजिक गतिविधियों को दर्शाता है और अपने चैनल पर प्रसारित करता है, तो इसे स्टिंग ऑपरेशन कहा जाता है। कई चैनल ऐसे ऑपरेशनों को गोपनीय कोड भी दे देते हैं; जैसे- ऑपरेशन चक्रव्यूह।

प्रश्न 3.
‘डेड लाइन’ का क्या आशय है?
उत्तर :
कोई भी समाचार-पत्र जिस अवधि के बाद छपता है, वह अवधि ही किसी समाचार के लिए डेड लाइन होती है। प्रायः समाचार – पत्र 24 घंटे बाद छपते हैं। अतः पिछले 24 घंटों की खबरे ही छपने योग्य होती हैं। उससे पूर्व की सूचनाएँ बेकार हो जाती हैं। अतः समाचार-पत्रों के लिए 24 घंटे की अवधि डेड लाइन होती है।

प्रश्न 4
पत्रकारिता में ‘बीट’ किसे कहते हैं?
उत्तर :
संवाददाता के कार्य का विभाजन उनकी रुचियों और ज्ञान को ध्यान में रखकर किया जाता है। मीडिया की भाषा में इसे ‘बीट’ कहते हैं।

प्रश्न 5.
संपादकीय किसे कहते हैं?
उत्तर :
संपादकीय पृष्ठ किसी भी समाचार में अहम होता है। इसमें विभिन्न घटनाओं एवं समाचारों पर संपादक द्वारा अपनी राय व्यक्त की जाती है।

प्रश्न 6.
पीत पत्रकारिता का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
पीत पत्रकारिता के अंतर्गत समाचार – पत्र अफवाहों, व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों, प्रेम-संबंधों का खुलासा, फिल्मी गपशप आदि से संबंधित समाचारों को प्रकाशित करते हैं। वास्तव में, यह पत्रकारिता सनसनी फैलाने का कार्य करती है। इस तरह की पत्रकारिता की शुरुआत 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिका में हुई थी, जब वहाँ कुछ समाचार-पत्रों के बीच पाठकों को आकर्षित करने के लिए आपस में संघर्ष प्रारंभ हो गया था।

प्रश्न 7.
स्तंभ लेखन क्या होता है ? समझाइए।
उत्तर :
कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक अपने विचारों को अखबार के स्तंभ में प्रस्तुत करते हैं। स्तंभ लेखन के अंतर्गत लेखक को अपने विषय का चुनाव करने की स्वतंत्रता होती है।

प्रश्न 8.
पत्रकारिता में स्तंभ लेखन से क्या तात्पर्य है?
उत्तर :
समाचार-पत्र व पत्रिकाओं में लेखक के विचार किसी खास विषय पर सामान्य लेखन से हटकर प्रस्तुत किए जाते हैं।

प्रश्न 9.
फ्रीलांसर पत्रकार कौन होते हैं?
उत्तर :
फ्रीलांसर पत्रकार किसी खास अखबार से नहीं जुड़ा होता। वह भुगतान के आधार पर अलग-अलग अखबारों के लिए लिखता है।

प्रश्न 10.
फ़ीचर क्या है? फ़ीचर लेखन के क्या उद्देश्य होते हैं तथा उसके साथ क्या होना जरूरी है ?
उत्तर :
फ़ीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है। फ़ीचर लेखन का उद्देश्य पाठकों को सूचना देना तथा शिक्षित करना और उनका मनोरंजन करना है। फ़ीचर के साथ फोटो, रेखांकन, ग्राफिक्स आदि का होना जरूरी है।

प्रश्न 11.
संपादकीय को क्या माना जाता है ?
उत्तर :
संपादकीय को उस अखबार की आवाज माना जाता है जिसमें वह छपा होता है।

प्रश्न 12.
संपादक के नाम पत्र में क्या होता है?
उत्तर :
इस शीर्षक के अंतर्गत संपादक के नाम पाठकों के पत्र प्रकाशित होते हैं।

प्रश्न 13.
संपादक के नाम पत्र में लेखक को क्या अवसर मिलता है ?
उत्तर :
इसमें लेखक को विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त करने का अवसर मिलता है। इससे उनके लेखन की शुरुआत का मौका मिलता है।

प्रश्न 14.
वरिष्ठ पत्रकारों द्वारा लिखे लेखों का क्या महत्त्व है?
उत्तर :
समसामयिक मुद्दों पर वरिष्ठ पत्रकार लेख लिखते हैं। इन लेखों में किसी विषय या मुद्दे पर विस्तारपूर्वक चर्चा की जाती है।

प्रश्न 15.
एक सफल साक्षात्कार करने वाले में कौन-कौन गुण होने चाहिए?
उत्तर :
ऐसे व्यक्ति में पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। इसके साथ ही उसमें संवेदनशीलता, कूटनीति, धैर्य और साहस का गुण होना चाहिए।

5. विशेष लेखन : स्वरूप और प्रकार

प्रश्न 1.
विशेष लेखन किसे कहते हैं ?
उत्तर :
विशेष लेखन से तात्पर्य है – किसी खास विषय पर सामान्य से हटकर किया गया लेखन। अधिकतर समाचार-पत्रों में विशेष लेखन के लिए अलग डेस्क होती है। इस डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों और संवाददाताओं से अपेक्षा की जाती है उनकी डेस्क से संबंधित विषय में विशेषज्ञता होगी। मीडिया की भाषा में इसे बीट कहा जाता है। इसके लिए संबंधित व्यक्तियों को काफी तैयारी करनी पड़ती है।

प्रश्न 2.
विशेष लेखन के क्षेत्र बताइए।
उत्तर :
विशेष लेखन के निम्नलिखित क्षेत्र हैं :

  • अर्थ व्यापार
  • विदेश
  • स्वास्थ्य
  • कानून आदि।
  • खेल
  • रक्षा
  • फिल्म/मनोरंजन
  • विज्ञान-प्रौद्योगिकी
  • पर्यावरण
  • अपराध
  • कृषि
  • शिक्षा
  • सामाजिक मुद्दे

प्रश्न 3.
विशेष लेखन के लिए विशेषज्ञता कैसे प्राप्त की जा सकती है ?
उत्तर :
विशेष लेखन में विशेषज्ञता प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित बातें जरूरी हैं :

  • संबंधित विषय में आपकी रूचि होनी चाहिए।
  • विषय से संबंधित पुस्तकें पढ़नी चाहिए।
  • अपने ज्ञान को अपडेट (Update) रखना जरूरी है।
  • विषय संबंधित खबरों, रिपोर्टों की कटिंग संभालकर रखें।

प्रश्न 4.
विशेष लेखन की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
विशेष लेखन की भाषा ऐसी होनी चाहिए जिसे पाठक आसानी से समझ सकें।
विशेष लेखन की भाषा सामान्य लेखन से अलग होती है।
प्रत्येक क्षेत्र की अपनी तकनीकी शब्दावली होती है। लेखक को उसी का प्रयोग करना चाहिए।
उदाहरणार्थ –
कारोबार / व्यापार की भाषा में – तेजड़िए- मंदड़िये, बिकीवाली, मुद्रास्फीति, आवक, निवेशक आदि शब्द।
सर्राफा बाजार की भाषा में सोने में उछाल, चाँदी लुढ़की।
शेयर बाजार – सेंसेक्स सातवें आसमान पर।
किराना बाजार – लालमिर्च भड़की, गुड़ लुढ़का।
खेल जगत – भारत ने पाक को धुना, जर्मनी ने घुटने टेके।

लघुत्तरात्मक प्रश्न –

प्रश्न 1.
समाचारपत्रों में विशेष लेखन के लिए कौन-सी जगह होती है?
उत्तर :
समाचारपत्रों, टीवी और रेडियो चैनलों में विशेष लेखन के लिए अलग डेस्क होता है। उस विशेष डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों का समूह भी अलग होता है।

प्रश्न 2.
बीट किसे कहते हैं?
अथवा
मीडिया की भाषा में बीट का क्या आशय है?
उत्तर :
संवाददाताओं के बीच काम का विभाजन को मीडिया की भाषा में बीट कहते हैं।

प्रश्न 3.
व्यापार जगत से जुड़ी खबरों से जुड़े कुछ शब्द लिखिए।
उत्तर :
तेजड़िए, बिकवाली, मुद्रास्फीति, राजकोषीय घाटा, चाँदी लुढ़की, सेंसेक्स आसमान पर।

प्रश्न 4.
खेल कैसा क्षेत्र है?
उत्तर :
खेल एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें अधिकांश लोगों की रूचि होती है।

प्रश्न 5.
सूचनाओं के दो प्रमुख स्रोत बताइए।
उत्तर :
दो स्रोत हैं :
1. प्रेस कांफ्रेंस।
2. इंटरनेट और दूसरे संचार माध्यम।

सभी अध्यायों से मिले-जुले प्रश्न –

1 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
(चार प्रश्न- प्रत्येक प्रश्न एक अंक का)
निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए

प्रश्न 1.
रेडियो समाचार की भाषा कैसी होनी चाहिए ?
उत्तर :
जिसमें आम बोलचाल की भाषा के साथ-साथ सटीक मुहावरों का भी प्रयोग किया गया हो।

प्रश्न 2.
बेवसाइट पर विशुद्ध पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय किस साइट को प्राप्त है ?
उत्तर :
रीडिफ डॉटकॉम को।

प्रश्न 3.
टी. वी. पर प्रसारित किए जाने वाले समाचार किन-किन चरणों से होकर दर्शकों तक पहुँचते हैं ?
उत्तर :
ये चरण हैं – फ्लैश या ब्रेकिंग न्यूज, ड्राई एंकर, फोन-इन, एंकर विजुअल, एंकर बाइट, लाइव, एंकर पैकेज।

प्रश्न 4.
विशेष रिपोर्ट के कितने प्रकार होते हैं ? लिखिए।
उत्तर :
खोजी रिपोर्ट इन डेप्थ रिपोर्ट, विश्लेषणात्मक रिपोर्ट और विवरणात्मक रिपोर्ट।

प्रश्न 5.
इंटरनेट पत्रकारिता के बहुत लोकप्रिय होने का सबसे प्रमुख कारण क्या है ?
उत्तर :
इससे न केवल समाचारों का संप्रेषण, पुष्टि या सत्यापन बल्कि खबरों के बैक ग्राउंडर तैयार करने में तत्काल सहायता मिलती है।

प्रश्न 6.
रेडियो समाचार की संरचना किस शैली पर आधारित होती है ?
उत्तर :
उल्टा पिरामिंड – शैली।

प्रश्न 7.
भारत में पहला छापाखाना कब और कहाँ खुला ?
उत्तर :
भारत में पहला छापाखाना सन् 1556 में गोवा में खुला।

प्रश्न 8.
बीट रिपोर्टिंग और विशेषीकृत रिपोर्टिंग में मुख्य अंतर क्या है ?
उत्तर :
बीट रिपोर्टिंग में संवाददाता में उस क्षेत्र के विषय में सामान्य जानकारी या दिलचस्पी होना पर्याप्त है जबकि विशेषीकृत रिपोर्टिंग में विषय से जुड़ी घटनाओं, मुद्दों और समस्याओं का बारीकी से विश्लेषण होता है।

प्रश्न 9.
पत्रकारीय लेखन किसे कहते हैं ?
उत्तर :
अखबार या अन्य समाचार माध्यमों में काम करने वाले पत्रकार अपने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं तक सूचनाएँ पहुँचाने के लिए लेखन के विभिन्न रूपों का इस्तेमाल करते हैं। इसे ही पत्रकारिता लेखन कहते हैं।

प्रश्न 10.
पत्रकार कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर :
पत्रकार तीन प्रकार के होते हैं- पूर्णकालिक, अंशकालिक और फ्रीलांसर यानी स्वतंत्र। पूर्णकालिक पत्रकार किसी संगठन में काम करने वाला नियमित वेतनभोगी कर्मचारी होता है जबकि अंशकालिक पत्रकार किसी समाचार संगठन के लिए एक निश्चित मानदेय पर काम करने वाला पत्रकार है।

प्रश्न 11.
पत्रकारीय लेखन का संबंध किनसे है ?
उत्तर :
पत्रकारीय लेखन का संबंध और दायरा समसामयिक और वास्तविक घटनाओं, समस्याओं और मुद्दों से है।

प्रश्न 12.
अखबार और पत्रिका के लिए लेखक और पत्रकार को किन-किन बातों को याद रखना चाहिए ?
उत्तर :
अखबार और पत्रिका के लिए लेखक और पत्रकार को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि वह विशाल के समुदाय लिए लिख रहा है जिसमें एक विश्वविद्यालय के कुलपति सरीखे विद्वान से लेकर कम पढ़े-लिखे मजदूर और किसान सभी शामिल हैं।

प्रश्न 13.
पत्रकारीय लेखन में कैसी भाषा का प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर :
पत्रकारीय लेखन में आलंकारिक-संस्कृतनिष्ठ भाषा-शैली के बजाय आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। पाठकों को ध्यान में रखकर ही अखबारों में सीधी, सरल, साफ-सुथरी लेकिन प्रभावी भाषा के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है।

प्रश्न 14.
अखबार में समाचार किस शैली में लिखे जाते हैं ?
उत्तर :
अखबारों में प्रकाशित अधिकांश समाचार एक खास शैली में लिखे जाते हैं। इन समाचारों में किसी भी घटना, समस्या या विचार के सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य, सूचना या जानकारी को सबसे पहले पैराग्राफ में लिखा जाता है। उसके बाद की जानकारी दी जाती है। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक समाचार खत्म नहीं हो जाता।

प्रश्न 15.
उल्टा पिरामिड शैली किसे कहते हैं ?
उत्तर :
यह समाचार लेखन की सबसे लोकप्रिय, उपयोगी और बुनियादी शैली है। यह शैली कहानी या कथा लेखन की शैली के ठीक उल्टी है जिसमें क्लाइमेक्स बिल्कुल आखिर में आता है।

प्रश्न 16.
छह ककार कौन से हैं ?
उत्तर :
किसी समाचार को लिखते हुए मुख्यतः छह सवालों का जवाब देने की कोशिश की जाती है- क्या हुआ, किसके साथ हुआ, कहाँ हुआ, कब हुआ, कैसे और क्यों हुआ ? इस क्या, किसके कहाँ, कब, क्यों और कैसे को छह ककारों के रूप में जाना जाता है।

प्रश्न 17.
फीचर क्या है ?
अथवा
फीचर लेखन किसे कहते हैं ?
उत्तर :
फीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है जिसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से उनका मनोरंजन करना होता है। फीचर समाचार की तरह पाठकों को तात्कालिक घटनाक्रम से अवगत नहीं कराता।

प्रश्न 18.
फीचर की भाषा किस प्रकार की होती है ?
उत्तर :
फीचर की भाषा में समाचारों की सपाट बयानी नहीं चलती। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि फीचर की भाषा और शैली को अलंकारिक और दुरुह बना दिया जाए।

प्रश्न 19.
फीचर को रोचक कैसे बनाया जाता है ?
उत्तर :
एक अच्छे और रोचक फीचर के साथ फोटो, रेखांकन और ग्राफिक्स का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 20.
फीचर के आखिरी में क्या होना चाहिए ?
उत्तर :
फीचर के आखिरी हिस्से में उनकी भविष्य की योजनाओं पर फोकस करना चाहिए।

प्रश्न 21.
अखबारों के किस तरह के लेख होते हैं ?
उत्तर :
अखबारों में प्रकाशित होने वाले विचारपूर्ण लेखन से उस अखबार की छवि बनती है। अखबारों में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले संपादकीय अग्रलेख, लेख और टिप्पणियाँ विचारपरक पत्रकारीय लेखन की श्रेणी में आते हैं।

प्रश्न 22.
संपादकीय लेखन क्या होता है ?
उत्तर :
संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले संपादकीय को उस अखबार की अपनी आवाज माना जाता है। संपादकीय के जरिये अखबार किसी घटना, समस्या या मुद्दे के प्रति अपनी राय प्रकट करते हैं।

प्रश्न 23.
स्तंभ लेखन क्या होता है ?
उत्तर :
स्तंभ लेखन भी विचारपरक लेखन का प्रमुख रूप है। कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक अपने खास वैचारिक रुझान के लिए जाने जाते हैं। उनकी अपनी एक लेखन – शैली भी विकसित हो जाती है।

प्रश्न 24.
संपादक के नाम पाठक के पत्र कहाँ प्रकाशित होते हैं ?
उत्तर :
अखबारों के संपादकीय पृष्ठ पर और पत्रिकाओं की शुरूआत में संपादक के नाम पाठकों के पत्र भी प्रकाशित होते हैं। सभी अखबारों में यह एक स्थायी स्तंभ होता है। यह पाठकों का अपना स्तंभ होता है। इस स्तंभ के जरिये अखबार के पाठक न सिर्फ विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त करते हैं बल्कि जन समस्याओं को भी उठाते हैं।

प्रश्न 25.
विशेष लेख लिखने वाले को किस प्रकार शुरूआत करनी चाहिए ?
उत्तर :
विशेष लेख की कोई एक निश्चित लेखन शैली नहीं होती और हर लेखक की अपनी शैली होती है लेकिन अगर आप अखबारों और पत्रिकाओं के लिए लेख लिखना चाहते हैं तो शुरूआत उन विषयों के साथ करनी चाहिए।

प्रश्न 26.
सफल साक्षात्कार के लिए क्या जरूरी है ?
उत्तर :
एक अच्छे और सफल साक्षात्कार के लिए यह जरूरी है कि आप किस विषय पर और जिस व्यक्ति के साथ साक्षात्कार करने जा रहे हैं उसके बारे में आपके पास पर्याप्त जानकारी है।

प्रश्न 27.
टी. वी. और रेडियो पर लेखन के लिए क्या प्रबंध होता है ?
उत्तर :
अधिकतर समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के अलावा टी. वी. और रेडियो चैनलों में विशेष लेखन के लिए अलग डेस्क होता है और उस विशेष डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों का समूह भी अलग होता है।

प्रश्न 28.
जनसंचार के आधुनिक माध्यमों में सबसे पुराना कौन-सा माध्यम है ?
उत्तर :
प्रिंट यानी मुद्रित माध्यम जनसंचार के आधुनिक माध्यमों में सबसे पुराना है।

प्रश्न 29.
भारत में पहला छापाखाना कब, कहाँ और किसने खोला था ?
उत्तर :
भारत में पहला छापाखाना सन् 1556 में गोवा में खुला। इसे मिशनरियों ने धर्म प्रचार की पुस्तक छापने के लिए खोला था।

प्रश्न 30.
लिखित और मौखिक भाषा में क्या अंतर है ?
उत्तर :
लिखित और मौखिक भाषा में सबसे बड़ा अंतर यह है कि लिखित भाषा अनुशासन की माँग करती है। बोलने में एक स्वत: स्फूर्तता होती है।

प्रश्न 31.
टी. वी. खबरों के विभिन्न चरण लिखिए।
उत्तर :
टी. वी. खबरों के विभिन्न चरण हैं

  1. फ्लैश या ब्रेकिंग न्यूज,
  2. ड्राई एंकर,
  3. फोन – इन,
  4. एंकर – विजुअल,
  5. एंकर – बाइट,
  6. लाइव,
  7. एंकर – पैकेज।

प्रश्न 32.
एंकर ब्राइट से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
टेलीविजन पत्रकारिता में ब्राइट का काफी महत्त्व है, टेलीविजन में किसी भी खबर को पुष्ट करने के लिए इससे संबंधित ब्राइट दिखाई जाती है। किसी घटना की सूचना देने और उसके दृश्य दिखाने के साथ ही घटना के बारे में प्रत्यक्षदर्शियों या संबंधित व्यक्तियों का कथन दिखा और सुनाकर खबर को प्रमाणिकता प्रदान की जाती है।

प्रश्न 33.
इंटरनेट और पत्रकारिता में क्या संबंध है ?
उत्तर:
इंटरनेट जहाँ सूचनाओं के आदान-प्रदान का बेहतरीन औजार है, वहीं वह अश्लीलता, दुष्प्रचार और गंदगी फैलाने का भी जरिया है। इंटरनेट पर पत्रकारिता के दो रूप हैं। पहला तो इंटरनेट का एक माध्यम या औजार के तौर पर इस्तेमाल, यानी खबरों के संप्रेषण के लिए इंटरनेट का उपयोग। दूसरा, रिपोर्टर अपनी खबर को एक जगह से दूसरी जगह तक ई-मेल के जरिये भेजने और समाचारों के संकलन, खबरों के सत्यापन और पुष्टिकरण में भी इसका इस्तेमाल करता है।

प्रश्न 34.
इंटरनेट पत्रकारिता क्या है ?
उत्तर:
इंटरनेट पर अखबारों का प्रकाशन या खबरों का आदान-प्रदान ही वास्तव में इंटरनेट पत्रकारिता है।

प्रश्न 35.
भारत में इंटरनेट पत्रकारिता कब से शुरू हुई ?
उत्तर :
भारत में इंटरनेट पत्रकारिता का अभी दूसरा दौर चल रहा है। भारत के लिए पहला दौर 1993 से शुरू माना जा सकता है जबकि दूसरा दौर सन् 2003 से शुरू हुआ है।

प्रश्न 36.
भारत में कौन-कौन सी साईट प्रयोग की जाती है ?
उत्तर :
भारत में सच्चे अर्थों में यदि कोई वेब पत्रकारिता कर रहा है तो वह ‘सीडिफ डॉटकॉम’ ‘इंडियाइंफोलाइन’ व ‘सीफी’ जैसी ही साइटें हैं। रीडिफ को भारत की पहली साइट कहा कुछ जा सकता है।

प्रश्न 37.
कौन-सा अखबार इंटरनेट पर उपलब्ध है ?
उत्तर :
‘प्रभासाक्षी’ नाम से शुरू हुआ अखबार प्रिंट रूप में न होकर सिर्फ इंटरनेट पर भी उपलब्ध है।

प्रश्न 38.
पत्रकारिता के लिहाज से हिंदी की सर्वश्रेष्ठ साइट कौन-सी है ?
उत्तर :
पत्रकारिता के लिहाज से हिंदी की सर्वश्रेष्ठ साइट बी.बी.सी. की है।

प्रश्न 39.
हिंदी की वेब पत्रकारिता की क्या समस्या है ?
उत्तर :
हिंदी की वेब पत्रकारिता की सबसे बड़ी समस्या हिंदी के फौंट की है। अभी भी हमारे पास कोई एक ‘की-बोर्ड’ नहीं है। डायनमिक फौंट की अनुपलब्धता के कारण हिंदी की ज्यादातर साइटें खुलती ही नहीं हैं।

प्रश्न 40.
एंकर- पैकेज से क्या समझते हैं ?
उत्तर :
पैकेज किसी भी खबर को संपूर्णतया के साथ पेश करने का एक जरिया है। इसमें संबंधित घटना के दृश्य, इससे जुड़े लोगों की बाइट ग्राफिक के जरिये जरूरी सूचनाएँ आदि होती हैं।

प्रश्न 41.
उल्टा पिरामिड शैली में समाचारों को किस क्रम में लिखा जाता है ?
उत्तर :
उल्टा पिरामिड शैली में समाचार के सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य को सबसे पहले लिखा जाता है और उसके बाद घटते हुए महत्त्व क्रम में अन्य तथ्यों या सूचनाओं को लिखाया या बताया जाता है। इस शैली में किसी घटना / विचार / समस्या का ब्यौरा कालानुक्रम के बजाय सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य या सूचना से शुरू होता है।

प्रश्न 42.
रेडियो क्या है ?
उत्तर :
रेडियो श्रव्य माध्यम है। इसमें सब कुछ ध्वनि, स्तर और शब्दों का खेल है।

प्रश्न 43.
मुद्रित माध्यम में लेखक को क्या ध्यान रखना चाहिए ?
उत्तर :
मुद्रित माध्यमों के लिए लेखन करने वालों को अपने पाठकों के भाषा – ज्ञान के साथ-साथ उनके शैक्षिक ज्ञान और योग्यता का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। इसके अलावा उन्हें पाठकों की रूचियों और जरूरतों का भी पूरा ध्यान रखना पड़ता है।

प्रश्न 44.
मुद्रित माध्यम की क्या विशेषता है ?
उत्तर :
मुद्रित माध्यम की सबसे बड़ी विशेषता या शक्ति यह है कि छपे हुए शब्दों में स्थायित्व होता है। उसे हम आराम से धीरे-धीरे पढ़ सकते हैं।

प्रश्न 45.
प्रसारण के लिए तैयार की जा रही समाचार कापी की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. उच्चारण में जटिल शब्द न हो।
  2. एक से दस तक के अंक शब्द में हों।
  3. पर्याप्त हाशिया दोनों ओर हो।
  4. % और $ को प्रतिशत और डॉलर लिखा जाए आदि।

प्रश्न 46.
‘उल्टा पिरामिड’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
उल्टा पिरामिड समाचारों का ढाँचा है, जिसमें आधार ऊपर और शीर्ष नीचे होता है और क्रम होता है – समापन, बॉडी, मुखड़ा।

प्रश्न 47.
खोजी पत्रकारिता का क्या आशय है ?
उत्तर :
भ्रष्टाचार, अनियमितता, गड़बड़ी आदि को उजागर करने वाली पत्रकारिता।

प्रश्न 48.
वेबसाइट पर विशुद्ध पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय किस भारतीय वेबसाइट को जाता है ?
उत्तर :
तहलका डॉट कॉम।

प्रश्न 49.
मुद्रण माध्यम (प्रिंट मीडिया) के अंतर्गत आने वाले दो माध्यमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(i) समाचार-पत्र
(ii) पत्र-पत्रिकाएँ

प्रश्न 50.
फ्लैश या ब्रेकिंग न्यूज का क्या आशय है ?
उत्तर :
कोई भी बड़ी खबर कम शब्दों में और खबरों को रोककर सबसे पहले दर्शक तक पहुँचाना।

प्रश्न 51.
व्यापार- कारोबार की भाषा की एक विशेषता लिखिए।
उत्तर :
चाँदी लुढ़की या सेंसेक्स आसमान पर, आदि विशेष भाषा का प्रयोग !

प्रश्न 52.
अंशकालिक पत्रकार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
अंशकालिक पत्रकार से आशय है सीमित या कम है समय के लिए काम करने वाला पत्रकार। इन्हें प्रकाशित सामग्री के अनुसार पारिश्रमिक दिया जाता है।

प्रश्न 53.
विशेषीकृत रिपोर्टिंग की एक प्रमुख विशेषता लिखिए।.
उत्तर :
विशेषीकृत रिपोर्टिंग की विशेषता :
(i) घटना और घटना के महत्त्व का स्पष्टीकरण।
(ii) रक्षा, विदेश – नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि क्षेत्रों में प्राथमिकता।

प्रश्न 54.
मुद्रण माध्यम के अंतर्गत कौन-कौन से माध्यम आते हैं ?
उत्तर :
मुद्रण माध्यम के अंतर्गत समाचार पत्र, पत्रिकाएँ और पुस्तकें आदि हैं।

प्रश्न 55.
फ्लैश या ब्रेकिंग न्यूज से क्या आशय है ?
उत्तर :
जब कोई प्रमुख समाचार सबसे पहले दर्शकों तक पहुँचाया जाता है तो उसे फ्लैश या ब्रेकिंग न्यूज कहते हैं।

प्रश्न 56.
ड्राई एंकर कौन होता है ?
उत्तर :
ड्राई एंकर वह होता है जो समाचार के दृश्य नहीं आने तक दर्शकों को रिपोर्टर से मिली जानकारी के आधार पर समाचार से संबंधित सूचना देता है।

प्रश्न 57.
फोन इन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
एंकर को घटनास्थल पर उपस्थित रिपोर्टर से फोन के माध्यम से घटित घटनाओं की जानकारी दर्शकों तक पहुँचाना फोन-इन कहलाता है।

प्रश्न 58.
इंटरनेट पर समाचार से संबंधित क्या-क्या सुविधाएँ उपलब्ध हैं ?
उत्तर:
इंटरनेट पर समाचार पढ़ने, सुनने और देखने की तीनों सुविधाएँ उपलब्ध हैं।

प्रश्न 59.
रेडियो कैसा जनसंचार माध्यम है ?
उत्तर :
रेडियो श्रव्य माध्यम है। इसमें ध्वनि, स्वर और शब्दों का मेल होता है।

प्रश्न 60.
विचारपरक लेखन में क्या-क्या आता है ?
उत्तर :
विचारपरक लेखन में लेख, टिप्पणियाँ, संपादकीय तथा स्तंभ-लेखन आता है।

प्रश्न 61.
‘क्लाइमेक्स’ का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
समाचार के अंतर्गत किसी घटना का नवीनतम और महत्त्वपूर्ण पक्ष क्लाइमेक्स कहलाता है।

प्रश्न 62.
समाचार पत्रों में विशेष लेखन के कौन-कौन से क्षेत्र हैं ?
उत्तर :
समाचार पत्रों में विशेष लेखन के क्षेत्र व्यापार जगत. खेल, विज्ञान, कृषि, मनोरंजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, अपराध, कानून आदि हैं।

प्रश्न 63.
समाचार पत्रों में सूचनाएँ प्राप्त करने के स्रोत कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :
समाचार पत्रों के लिए सूचनाएँ विभिन्न मंत्रालयों, प्रेस कांफ्रेंसों, विज्ञप्तियों, साक्षात्कारों, जाँच समितियों की रिपोर्ट, इंटरनेट, विभिन्न सूचना एजेंसियों से प्राप्त की जाती हैं।

प्रश्न 64.
पर्यावरण से संबंधित पत्रिकाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
पर्यावरण एबस्ट्रेक्ट, डाऊन टू अर्थ, नेशनल ज्योग्रॉफी आदि हैं।

प्रश्न 65.
भारत में पहला छापाखाना कब और कहाँ खुला था ?
उत्तर :
भारत में पहला छापाखाना 1556 ई. में गोवा में खुला था।

प्रश्न 66.
मुद्रण का प्रारंभ कहाँ से माना जाता है ?
उत्तर:
मुद्रण का प्रारंभ चीन से माना जाता है।

प्रश्न 67.
आजकल टेलीप्रिंटर पर एक सेकंड में कितने शब्द भेजे जा सकते हैं ?
उत्तर :
आजकल टेलीप्रिंटर पर एक सेकंड में 56 किलोबाइट अर्थात् 70 हजार शब्द भेजे जा सकते हैं।

प्रश्न 68.
भारत की प्रमुख वेब साइटें कौन-सी हैं ?
उत्तर :
भारत की प्रमुख वेबसाइटें हैं- रीडिफ डॉटकॉम, इंडियाइंफोलाइन, सीफी, हिंदू, तहलका डॉटकॉम आदि।

प्रश्न 69.
नई वेबभाषा को क्या कहते हैं ?
उत्तर :
नई वेब भाषा को ‘एच.टी. एम. एल’ अर्थात् हाइपर टेक्स्ट मार्डअप लैंग्वेज कहते हैं।

प्रश्न 70.
एक अच्छे और रोचक फीचर के साथ क्या होना आवश्यक है ?
उत्तर :
एक अच्छे और रोचक फीचर के साथ फोटो, रेखांकन, ग्राफिक्स आदि का होना आवश्यक है।

प्रश्न 71.
‘डेस्क’ किसे कहते हैं ?
उत्तर :
समाचारपत्रों में किसी विशेष लेखन के लिए कार्य करने वाले पत्रकारों के समूह के निश्चित समय और स्थान को डेस्क कहते हैं।

प्रश्न 72.
रेडियो समाचार की भाषा कैसी होनी चाहिए ?
उत्तर :
रेडियो समाचार की भाषा ऐसी होनी चाहिए जिसमें आम बोलचाल की भाषा के साथ-साथ सटीक मुहावरों का भी प्रयोग किया गया हो।

प्रश्न 73.
बेवसाइट पर विशुद्ध पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय किस साइट को प्राप्त है ?
उत्तर :
रीडिफ डॉटकॉम को।

प्रश्न 74.
टी. वी. पर प्रसारित किए जाने वाले समाचार किन-किन चरणों से होकर दर्शकों तक पहुँचते हैं ?
उत्तर :

  • फ्लैश या ब्रेकिंग न्यूज
  • फोन-इन
  • एंकर बाइट
  • एंकर पैकेज
  • ड्राई एंकर
  • एंकर विजुअल
  • लाइव

प्रश्न 75.
विशेष रिपोर्ट के कितने प्रकार होते हैं? लिखिए।
उत्तर :
विशेष रिपोर्ट के निम्न प्रकार होते हैं :

  • खोजी रिपोर्ट
  • विश्लेषणात्मक रिपोर्ट
  • इन डेप्थ रिपोर्ट
  • विवरणात्मक रिपोर्ट

प्रश्न 76.
इंटरनेट पत्रकारिता के बहुत लोकप्रिय होने का सबसे प्रमुख कारण क्या है ?
उत्तर :
इससे न केवल समाचारों का संप्रेषण, पुष्टि या सत्यापन होता है बल्कि खबरों के बैकग्राउंडर तैयार करने में तत्काल सहायता मिलती है।

प्रश्न 77.
रेडियो समाचार की संरचना किस शैली पर आधारित होती है ?
उत्तर :
उल्टा पिरामिड शैली पर।

प्रश्न 78.
बीट रिपोर्टिंग और विशेषीकृत रिपोर्टिंग में मुख्य अंतर क्या है ?
उत्तर :
बीट रिपोर्टिंग में संवाददाता में उस क्षेत्र के विषय में सामान्य जानकारी या दिलचस्पी होना पर्याप्त है जबकि विशेषीकृत रिपोर्टिंग में विषय से जुड़ी घटनाओं, मुद्दों और समस्याओं का बारीकी से विश्लेषण होता है।

प्रश्न 79.
‘संपादक के नाम पत्र’ स्तंभ की उपयोगिता बताइए।
उत्तर :
‘संपादक के नाम पत्र’ स्तंभ की यह उपयोगिता है कि इसमें पाठक विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त करते हैं, जन समस्याओं को उठाते हैं। यह नए लेखकों के लिए लेखन की शुरूआत करने का अच्छा अवसर प्रदान करता है।

प्रश्न 80.
किन्हीं चार 24×7 हिंदी समाचार चैनलों के नाम लिखिए।
अथवा
किन्हीं दो हिन्दी समाचार चैनलों के नाम लिखिए।
उत्तर :
24×7 हिंदी समाचार चैनल

  1. आज तक
  2. एन.डी.टी.वी.
  3. जी न्यूज
  4. स्टार न्यूज
  5. इंडिया न्यूज

प्रश्न 81.
आर्थिक मामलों की पत्रकारिता सामान्य पत्रकारिता की तुलना में जटिल क्यों होती है?
उत्तर :
आर्थिक मामलों की पत्रकारिता और सामान्य पत्रकारिता :
आर्थिक मामलों की पत्रकारिता के लिए अर्थ-व्यापार जगत की विशेष जानकारी होना आवश्यक है। इनकी अपनी एक विशिष्ट भाषा होती है। यह क्षेत्र है भी बहुत व्यापक। इसकी शब्दावली की जानकारी भी आवश्यक है। सामान्य पत्रकारिता की तुलना में आर्थिक पत्रकारिता कठिन है।

प्रश्न 82.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बहुत लोकप्रिय होने का कारण क्या है ?
उत्तर :
इलैक्ट्रानिक मीडिया के बहुत लोकप्रिय होने का कारण यह है कि इसका प्रयोग पढ़े लिखों के साथ अनपढ़ भी कर सकते हैं। इसके समाचार हर वक्त उपलब्ध होते हैं तथा सचित्र होने के कारण विश्वसनीय होते हैं।

प्रश्न 83.
पत्रकारिता की साख बनाए रखने के लिए संपादन के किन्हीं दो सिद्धांतों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर :
पत्रकारिता की साख बनाए रखने के लिए संपादन के दो सिद्धांत: – निष्पक्षता, तथ्यों की शुद्धता।

प्रश्न 84.
जनसंचार के मुद्रित माध्यमों की सबसे बड़ी विशेषता क्या है?
उत्तर :
जनसंचार माध्यमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनका रिकार्ड रखा जा सकता है।

प्रश्न 85.
विशेष रिपोर्ट के लेखन में किन बातों पर अधिक बल दिया जाता है?
उत्तर :
विशेष रिपोर्ट के लेखन में सामान्य समाचारों के अलावा गहरी छानबीन, विश्लेषण और व्याख्या के आधार पर विशेष रिपोर्ट तैयार की जाती है। ऐसी रिपोर्ट तैयार करने में महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संकलन किया जाता है, तथ्यों का विश्लेषण किया जाता है, प्रभाव व कारणों को स्पष्ट किया जाता है।

प्रश्न 86.
पत्रकार – जगत में ‘बीट’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर :
खबरें कई तरह की होती हैं- राजनीतिक, आर्थिक, खेल, फिल्म, कृषि आदि। संवाददाताओं के बीच काम का विभाजन उनकी दिलचस्पी के आधार पर कर दिया जाता है। पत्रकार जगत में इसे ‘बीट’ कहा जाता है।

प्रश्न 87.
समाचार और फीचर के बीच के अंतर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
समाचार में किसी घटना का यथातथ्य वर्णन होता है, जबकि फीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन होता है। इसका उद्देश्य सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से मनोरंजन करना होता है।

प्रश्न 88.
समाचार लेखन की उल्टा पिरामिड शैली क्या है ?
उत्तर :
इस शैली में समाचार के सबसे महत्वपूर्ण तथ्य को सबसे पहले लिखा जाता है और उसके बाद घटते हुए महत्त्व क्रम में अन्य तथ्यों या सूचनाओं को लिखा जाता है।

प्रश्न 89.
‘संपादकीय’ के साथ संपादक लेखक का नाम क्यों नही दिया जाता ?
उत्तर :
संपादकीय कोई व्यक्तिगत न होकर अखबार की आवाज़ माना जाता है अतः किसी एक का नाम नहीं दिया जा सकता।

प्रश्न 90.
प्रिंट माध्यम की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
1. इस माध्यम के शब्दों में स्थायित्व होता है।
2. लंबे समय तक संरक्षित किया जा सकता है।

प्रश्न 91.
मुद्रित माध्यमों की किन्हीं दो विशेषताओं को बताइए।
उत्तर :
मुद्रित माध्यमों की दो विशेषताएँ :

  • इस माध्यम से प्रकाशित सामग्री स्थायी होती है।
  • यह माध्यम अधिक विश्वसनीय माना जाता है।

प्रश्न 92.
पत्रकार की लेखन शैली की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
पत्रकार की लेखन शैली में आलंकारिक – संस्कृतनिष्ठ भाषा-शैली के बजाय आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। पाठकों को ध्यान में रखकर ही अखबारों में सीधी, सरल, साफ-सुथरी लेकिन प्रभावी भाषा के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है। इसमें वस्तुपरकता एवं निष्पक्षता का ध्यान रखा जाता है।

प्रश्न 93.
विशेष रिपोर्ट क्या होती है ?
अथवा
विशेष लेखन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
अखबारों में सामान्य समाचारों से हटकर गहरी छानबीन और विश्लेषण की जब आवश्यकता होती है तब उस पर विशेष रिपोर्ट तैयार की जाती है।

प्रश्न 94.
विशेष लेखन के किन्हीं तीन क्षेत्रों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर :
विशेष लेखन के क्षेत्र हैं:
(i) अर्थ – व्यापार, (ii) खेल (iii) शिक्षा।

प्रश्न 95.
स्तंभ – लेखन का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
स्तंभ-लेखन विचारपरक लेखन का एक प्रमुख रूप है। इसमें लेखक अपनी विशिष्ट शैली में वैचारिक रुझान प्रस्तुत करते हैं।

प्रश्न 96.
संपादकीय में लेखक का नाम क्यों नहीं दिया जाता ?
उत्तर :
संपादकीय में लेखक का नाम इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि संपादकीय किसी व्यक्ति विशेष का विचार नहीं होता। इसके जरिए अखबार का दृष्टिकोण व्यक्त किया जाता है। इसमें कई लोगों का सहयोग होता है।

प्रश्न 97.
हिंदी में प्रकाशित होने वाले किन्हीं चार राष्ट्रीय समाचार-पत्रों के नाम लिखिए।
उत्तर :
हिंदी में प्रकाशित होने वाले चार राष्ट्रीय समाचार पत्र इस प्रकार हैं :

  1. नवभारत टाइम्स
  2. हिंदुस्तान
  3. दैनिक जागरण
  4. राष्ट्रीय सहारा।

प्रश्न 98.
अंशकालीन संवाददाता किसे कहा जाता है ?
उत्तर :
अंशकालीन संवाददाता वे होते हैं जो कुछ समय के लिए ही किसी समाचारपत्र के लिए काम करते हैं। सभी स्थानों पर पूर्णकालीन संवाददाता रखना संभव नहीं होता।

प्रश्न 99.
‘संपादकीय’ के साथ संपादक-लेखक का नाम क्यों नहीं दिया जाता ?
उत्तर :
संपादकीय के साथ संपादक-लेखक का नाम इसलिए नहीं होता क्योंकि यह कोई व्यक्तिगत आवाज न होकर उस अखबार की आवाज मानी जाती है जिसके जरिए किसी घटना, समस्या या मुद्दे के प्रति अपनी राय प्रकट करते हैं।

प्रश्न 100.
‘प्रिंट माध्यम’ की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्रिंट माध्यम की दो विशेषताएँ : 1. छपे हुए शब्दों में स्थायित्व होता है। 2. लंबे समय तक संरक्षित किया जा सकता है।

प्रश्न 101.
हिंदी में प्रकाशित होने वाले दो दैनिक समाचार-पत्रों तथा दो समाचार – केंद्रित पत्रिकाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
दो समाचार पत्र :
1. दैनिक जागरण
2. हिन्दुस्तान।

दो समाचार – केंद्रित पत्रिकाएँ

1. इंडिया टुडे
2. आउटलुक।

CBSE की परीक्षाओं में पूछे गए अति लघूत्तरात्मक प्रश्न –

प्रश्न 1.
फीचर का क्या उद्देश्य होता है?
उत्तर :
फीचर का उद्देश्य होता है-पाठकों को सूचना देना, शिक्षित करना तथा पाठकों का मनोरंजन करना।

प्रश्न 2.
संपादकीय क्या होता है?
उत्तर :
संपादकीय समाचार पत्र में छपा एक लेख होता है जिसमें संपादक किसी मुद्दे पर समाचार पत्र का दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।

प्रश्न 3.
प्रिंट या मुद्रित माध्यम के दो रूप बताइए।
उत्तर :
(i) समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ, (ii) पुस्तकें।

प्रश्न 4.
पत्रकार का क्या दायित्व है?
उत्तर :
पत्रकार का यह दायित्व है कि वह पाठकों / दर्शकों तक नवीनतम सूचना पहुँचाए, उन्हें जागरूक एवं शिक्षित करे तथा उनका स्वस्थ मनोरंजन करे।

प्रश्न 5.
रेडियो समाचार की भाषा कैसी होनी चाहिए?
उत्तर :
रेडियो समाचार की भाषा सरल, सरस, आम बोलचाल वाली सुस्पष्ट होनी चाहिए। इसे निरक्षर व्यक्ति भी समझ सके।

प्रश्न 6.
फ्रीलांसर किसे कहा जाता है?
उत्तर :
फ्रीलांसर पत्रकार किसी अखबार के साथ बँधकर नहीं लिखता। वह भुगतान के आधार पर किसी भी अखबार के लिए लिखता है।

प्रश्न 7.
प्रिंट माध्यम क्या है?
उत्तर :
प्रिंट माध्यम में समाचार अखबारों में प्रकाशित किए जाते हैं। अखबारों के अलावा पुस्तकें भी प्रिंट माध्यम के अंतर्गत आती हैं।

प्रश्न 8.
एंकर बाइट की उपयोगिता लिखिए।
उत्तर :
एंकर बाइट द्वारा टेलीविजन पर दिखाई – सुनाई गई खबर की पुष्टि की जाती है। इसमें प्रत्यक्षदर्शियों के कथन सुनाए – दिखाए जाते हैं।

प्रश्न 9.
विज्ञापन के दो लाभ बताइए।
उत्तर :
(i) विज्ञापन से उत्पादकों का माल बिकता है।
(ii) उपभोक्ताओं को नए-नए उत्पादों के बारे में पता चलता है।

प्रश्न 10.
हिंदी के ऐसे दो समाचार पत्रों के नाम लिखिए जिनके इंटरनेट संस्करण भी उपलब्ध हैं।
उत्तर :
(i) नवभारत टाइम्स, (ii) अमर उजाला।

प्रश्न 11.
समाचार प्राप्ति के किन्हीं चार स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. संवाददाता,
  2. समाचार एजेंसियाँ
  3. सरकारी विज्ञप्तियाँ
  4. प्रेस विज्ञप्ति।

प्रश्न 12.
संपादकीय में लेखक / पत्रकार का नाम क्यों नहीं दिया जाता?
उत्तर :
संपादकीय में किसी लेखक या पत्रकार का नाम इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि इसमें किसी एक व्यक्ति के विचार न होकर यह समाचार पत्र की आवाज होती है। संपादकीय को संपादक व उसके सहयोगी मिलकर लिखते हैं।

प्रश्न 13.
‘स्टिंग आपरेशन’ क्या है?
उत्तर :
स्टिंग आपरेशन में गुप्त रूप से कैमरा लगाकर बातचीत की जाती हैं और किसी भ्रष्टाचार या अनैतिकता का भंडाफोड़ किया जाता है।

प्रश्न 14.
फीचर के दो लक्षण लिखिए।
उत्तर :
(i) सृजनात्मकता, (ii) आत्मनिष्ठता।

प्रश्न 15.
हिंदी के किन्हीं चार प्रमुख समाचार चैनलों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  1. आज तक
  2. एन.डी.टी.वी.
  3. जी न्यूज
  4. टोटल टी.वी.।

प्रश्न 16.
ड्राई एंकर से क्या तात्पर्य है?
उत्तर :
ड्राई एंकर वह होता है जो समाचार के दृश्य नहीं आने तक दर्शकों को रिपोर्ट से मिली जानकारी के आधार पर समाचार से संबंधित सूचना देता है।

प्रश्न 17.
इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की लोकप्रियता के दो कारण लिखिए।
उत्तर :
(i) यह तीव्र एवं तात्कालिक है।
(ii) यह अधिक विश्वसनीय है क्योंकि यह श्रव्य के साथ दृश्य माध्यम भी है।

प्रश्न 18.
‘पीत पत्रकारिता’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
पीत पत्रकारिता में सनसनीखेज घटनाओं को उभारा जाता है। इसका उपयोग प्रायः किसी के भी चरित्र – हनन करने के लिए किया जाता है। इसे ‘पेज थ्री’ पत्रकारिता भी कहा जाता है।

प्रश्न 19.
‘समाचार’ शब्द को परिभाषित कीजिए।
उत्तर :
समाचार किसी भी ऐसी ताजी घटना या समस्या की रिपोर्ट होती है जिसमें अधिक से अधिक लोगों की रुचि होती हैं और जिसका अधिक से अधिक लोगों पर प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 20.
रेडियो समाचार की भाषा की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
(i) बोलचाल की भाषा, (ii) मुहावरों का सटीक प्रयोग।

प्रश्न 21.
भारत में पहला छापाखाना कब और किस उद्देश्य से खोला गया?
उत्तर :
भारत में पहला छापाखाना 1556 ई. में गोवा में खोला गया। इसका उद्देश्य ईसाई धर्म की प्रचार सामग्री को प्रकाशित करना था।

प्रश्न 22.
समाचार लेखन के छह ककार कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
छह ककार ये हैं – क्या हुआ ?, किसके साथ हुआ?, कहाँ हुआ ?, कब हुआ ?, कैसे हुआ ?, क्यों हुआ?

प्रश्न 23.
इंटरनेट पत्रकारिता इन दिनों लोकप्रिय क्यों है?
उत्तर:
इंटरनेट पत्रकारिता इसलिए लोकप्रिय है क्योंकि इसमें खबरें चौबीसों घंटे और तुरंत उपलब्ध हो जाती हैं।

प्रश्न 24.
मुद्रित माध्यम से क्या तात्पर्य है?
उत्तर :
मुद्रित माध्यम से तात्पर्य है – प्रिंट मीडिया। इसमें मुख्यतः समाचार पत्र, पत्रिकाएँ और पुस्तकें आती हैं। इसमें स्थायित्व होता है।

प्रश्न 25.
खोजी रिपोर्ट से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
खोजी रिपोर्ट में रिपोर्टर मौलिक शोध और छानबीन के जरिए ऐसी सूचनाएँ और तथ्य सामने लाता है जो सार्वजनिक तौर पर पहले से उपलब्ध नहीं थीं। खोजी रिपोर्ट का प्रयोग प्रायः भ्रष्टाचार अनियमितताओं और गड़बड़ियों को उजागर करने के लिए किया जाता है।

प्रश्न 26.
वेबसाइट पर हिंदी पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय किसे दिया जाता है ?
उत्तर :
वेबसाइट पर हिंदी पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय ‘वेब दुनिया’ को दिया जाता है। इंदौर के ‘नयी दुनिया’ समूह से शुरू हुआ यह पोर्टल हिंदी का संपूर्ण पोर्टल है।

प्रश्न 27.
विशेष रिपोर्ट कैसे लिखी जाती है?
उत्तर :
विशेष रिपोर्ट के लिखने में सामान्य समाचारों के अलावा गहरी छानबीन, विश्लेषण और व्याख्या के आधार पर रिपोर्ट तैयार की जाती है। इसमें महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संकलन किया जाता है, तथ्यों का विश्लेषण किया जाता है, प्रभाव व कारणों को स्पष्ट किया जाता है।

प्रश्न 28.
संपादकीय लेखन से क्या तात्पर्य है?
उत्तर :
संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले संपादकीय को उस अखबार की आवाज माना जाता है। इसके जरिए अखबार किसी तात्कालिक घटना, समस्या या मुद्दे पर अपनी राय प्रकट करता है।

प्रश्न 29.
पत्रकारिता में ‘बीट’ किसे कहते हैं?
उत्तर :
पत्रकारिता में संवाददाताओं के बीच काम के बँटवारे को ‘बीट’ कहा जाता है।

प्रश्न 30.
भारत में नियमित अपडेटेड साइटों के नाम बताइए।
उत्तर :
भारत में नियमित अपडेटेड साइटें हैं :
1. एन. डी. टी. वी., 2. टाइम्स ऑफ इंडिया।

प्रश्न 31.
विशेष रिपोर्ट के कोई दो प्रकार बताइए।
उत्तर :
विशेष रिपोर्ट के प्रकार –

  1. खोजी रिपोर्ट,
  2. इनडेप्थ रिपोर्ट,
  3. विश्लेषणात्मक रिपोर्ट,
  4. विवरणात्मक रिपोर्ट (कोई दो प्रकार बताना अपेक्षित है)।

प्रश्न 32.
भारत में समाचार – पत्रकारिता का प्रारंभ कब एवं किससे हुआ ?
उत्तर :
भारत में समाचार पत्रकारिता का आरंभ सन् 1780 में जेम्स ऑगस्ट हिकी के ‘बंगाल गजट’ से हुआ।

प्रश्न 33.
भारत में प्रथम छापाखाना कब और कहाँ खुला था?
उत्तर :
भारत में प्रथम छापाखाना सन् 1556 में गोवा में खुला था।

प्रश्न 34.
किन्हीं दो समाचार-पत्रों के नाम बताइए जिनके वेब संस्करण इंटरनेट पर प्राप्त हैं।
उत्तर :
‘दैनिक जागरण’ तथा ‘अमर उजाला’ समाचार-पत्रों के वेब संस्करण इंटरनेट पर प्राप्त हैं।

प्रश्न 35.
विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रही भारत की किन्हीं दो संस्थाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रही भारत की दो संस्थाओं के नाम निम्नलिखित हैं :
1. डिफेंस रिसर्च एण्ड डेवलपमेन्ट ऑर्गनाइजेशन।
2. सेंट्रल स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन।

प्रश्न 36.
रेडियो समाचार की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
रेडियो समाचर की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :
1. रेडियो समाचार मूलतः एक रेखीय (लीनियर) माध्यम है।
2. रेडियो समाचार लेखन की संरचना उल्टा पिरामिड शैली पर आधारित है।

प्रश्न 37.
फीचर के किन्हीं दो प्रकारों के नाम लिखिए।
उत्तर :
फीचर के दो प्रकार निम्नलिखित हैं : 1. खोजपरक फीचर, 2. व्यक्ति चित्र फीचर।

प्रश्न 38.
पत्रकारों के किन्हीं दो प्रकारों के नाम लिखिए।
उत्तर :
पत्रकारों के दो प्रकारों के नाम निम्नलिखित हैं 1. पूर्णकालिक पत्रकार, 2. अंशकालिक एवं स्वतंत्र पत्रकार।

प्रश्न 39.
दो हिंदी समाचार-पत्रों के नाम लिखिए जिनके ‘वेब – संस्करण’ उपलब्ध हैं।
उत्तर :
हिंदी के दो समाचारपत्रों के नाम जिनके वेब संस्करण उपलब्ध हैं :
(i) नवभारत टाइम्स, (ii) हिंदुस्तान।

प्रश्न 40.
विशेष रिपोर्ट के दो प्रकारों को समझाइए।
उत्तर :
विशेष रिपोर्ट के दो प्रकार –
(i) खोजी रिपोर्ट (Investigative Report)
(ii) इन डेप्थ रिपोर्ट (Indepth Report)

प्रश्न 41.
पत्रकारिता में ‘बीट’ का क्या आशय है ?
उत्तर :
पत्रकारिता में ‘बीट’ से आशय है – संवाददाताओं के बीच उनकी दिलचस्पी और ज्ञान को लेकर काम का विभाजन। इसके लिए एक डेस्क निर्धारित कर दी जाती है।

प्रश्न 42.
उल्टा पिरामिड शैली से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
यह समाचार लेखन की सबसे लोकप्रिय, उपयोगी और बुनियादी शैली है। यह शैली कहानी अथवा कथा लेखन की शैली से ठीक उल्टी है। इसमें क्रम होता है – समापन, बॉडी, मुखड़ा अर्थात् आधार ऊपर और शीर्ष नीचे।

प्रश्न 43.
विशेष लेखन क्या होता है ?
उत्तर :
किसी खास विषय पर सामान्य लेखन से हटकर किया गया लेखन विशेष लेखन कहलाता है। इसके लिए कार्यालय में एक अलग डेस्क होता है। विशेष लेखन करने वाले पत्रकारों का समूह भी अलग होता है।

प्रश्न 44.
इंटरनेट पत्रकारिता आजकल बहुत लोकप्रिय क्यों है ?
उत्तर :
इंटरनेट पत्रकारिता आजकल बहुत लोकप्रिय इसलिए है क्योंकि यह पत्रकारिता का सर्वाधिक तीव्रगामी एवं सटीक माध्यम है। इसमें हम खबरों के अलावा चर्चा परिचर्चा, बहसों, फीचर, झलकियों आदि का भी उपयोग कर सकते हैं। यह एक अंतर्क्रियात्मक माध्यम है।

प्रश्न 45.
समाचार किसे कहते हैं ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
किसी घटना की रिपोर्ट ही समाचार है, पर हर घटना समाचार नहीं होती। समाचार किसी भी ताजा घटना, विचार या समस्या की वह रिपोर्ट होती है जिसका प्रभाव अधिक-से-अधिक लोगों पर पड़ रहा हो।

प्रश्न 46.
स्तंभ लेखन क्या होता है ? समझाइए।
उत्तर :
स्तंभ लेखन भी विचारपरक लेखन का प्रमुख रूप है। कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक अपने खास वैचारिक रुझान के लिए जाने जाते हैं। उनकी अपनी एक लेखन शैली भी विकसित हो जाती है।

प्रश्न 47.
वेबसाइट पर विशुद्ध पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय किसे दिया जाता है ?
उत्तर :
वेबसाइट पर विशुद्ध पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय ‘तहलका डॉटकॉम’ को जाता है।

प्रश्न 48.
खोजी रिपोर्ट क्या होती है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
खोजी रिपोर्ट में किसी बात की गहराई के साथ छानबीन करके उन तथ्यों और सूचनाओं को सामने लाया जाता है जिन्हें दबाने या छिपाने का प्रयास किया जा रहा है।

प्रश्न 49.
फीचर किसे कहते हैं ?
उत्तर :
फीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है जिसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से उनका मनोरंजन करना होता है। फीचर समाचार की तरह पाठकों को तात्कालिक घटनाक्रम से अवगत नहीं कराता।

प्रश्न 50.
इंटरनेट पत्रकारिता आजकल बहुत लोकप्रिय क्यों है ?
उत्तर:
इंटरनेट पत्रकारिता अधिक तीव्र एवं सटीक माध्यम होने के कारण अधिक लोकप्रिय है।

प्रश्न 51.
रेडियो- समाचार की भाषा कैसी होनी चाहिए?
उत्तर :
रेडियो समाचार की भाषा सरल, सहज एवं सुबोध होनी चाहिए।

प्रश्न 52.
समाचार-पत्र और पत्रिकाओं में विशेष रिपोर्ट किसे कहा जाता है ?
उत्तर :
समाचार पत्र और पत्रिकाओं में सामान्य समाचारों के अलावा गहरी छानबीन, विश्लेषण और व्याख्या के आधार पर तैयार की गई रिपोर्ट को विशेष रिपोर्ट कहा जाता है।

प्रश्न 53.
दूरदर्शन पर समाचार – वाचक को किन बातों का ध्यान रखना होता है ?
उत्तर :
दूरदर्शन पर समाचार वाचक को सभी चरणों का प्रयोग करना चाहिए जैसे- ब्रेकिंग न्यूज, फोन इन, विजुअल, एंकर बाइट आदि।

प्रश्न 54.
प्रिंट यानी मुद्रित माध्यमों की दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्रिंट या मुद्रित माध्यम की दो विशेषताएँ-
1. इसके समाचारों में स्थायित्व होता है।
2. इन्हें सुविधानुसार पढ़ा जा सकता है।

प्रश्न 55.
संपादकीय किसे कहा जाता है ?
उत्तर :
संपादकीय को किसी व्यक्ति की आवाज न मानकर अखबार की आवाज़ माना जाता है। यह अंदर के किसी पृष्ठ पर छपता है। इसमें किसी का नाम नहीं दिया जाता।

प्रश्न 56.
वेबसाइट पर हिन्दी पत्रकारिता शुरू का श्रेय किसे दिया जाता है ?
करने
उत्तर :
वेबसाइट पर हिन्दी पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय ‘तहलका डॉटकॉम’ को दिया जाता है।

प्रश्न 57.
पत्रकारिता में स्तम्भ लेखन से क्या तात्पर्य है?
उत्तर :
स्तंभ लेखन भी विचारपरक लेखन का प्रमुख रूप है। कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक अपने खास वैचारिक रुझान के लिए जाने जाते हैं। उनकी अपनी एक लेखन – शैली भी विकसित हो जाती है।

प्रश्न 58.
विशेष रिपोर्ट के किन्हीं दो प्रमुख प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
विशेष रिपोर्ट के दो प्रमुख प्रकार हैं।
1. खोजी रिपोर्ट
2. इन डेप्थ रिपोर्ट।
अखबारों में सामान्य समाचारों से हटकर गहरी छानबीन और विश्लेषण की जब आवश्यकता होती है तब उस पर विशेष रिपोर्ट तैयार की जाती है।

प्रश्न 59.
खोजी रिपोर्ट (इन्वेस्टीगेटिव रिपोर्ट) क्या होती है ? इसका इस्तेमाल कब किया जाता है?
उत्तर :
खोजी रिपोर्ट में किसी समस्या की गहराई से छानबीन करके ऐसे तथ्यों को सामने लाया जाता है जिन्हें दबाने या छुपाने का प्रयास किया गया है। इसका प्रयोग आमतौर पर भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और गड़बड़ियों को सामने लाने के लिए किया जाता है।

प्रश्न 60.
संपादकीय लेखन से क्या तात्पर्य है ? इसे लिखने का अधिकार किसे है?
उत्तर :
संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले संपादकीय को उस अखबार की अपनी आवाज माना जाता है। संपादकीय के जरिये अखबार किसी घटना, समस्या या मुद्दे के प्रति अपनी राय प्रकट करते हैं। इसे लिखने का अधिकार संपादक मंडल को होता है।

प्रश्न 61.
भारत में समाचार-पत्रकारिता का प्रारम्भ कब और किससे हुआ ?
उत्तर :
भारत में समाचार पत्रिका का प्रारंभ 1780 ई. में जेम्स ऑगस्ट हिकी के ‘बंगाल गजट’ से हुआ जो कलकत्ता (कोलकाता) से निकला था।

प्रश्न 62.
हिन्दी में प्रसारण करने वाले किन्हीं दो टी. वी. समाचार चैनलों के नाम लिखिए।
उत्तर :
हिन्दी के दो टी.वी. समाचार चैनल : 1. आज तक 2. आई. बी. एन. -7

प्रश्न 63.
टेलीविजन को जनसंचार का सबसे अधिक लोकप्रिय माध्यम क्यों कहा गया है ?
उत्तर :
टेलीविजन प्रायः सभी घरों में है। अब यह जनसंचार का सबसे अधिक लोकप्रिय माध्यम बन गया है।

प्रश्न 64.
मीडिया की भाषा में ‘बीट’ किसे कहा जाता है ?
उत्तर :
बीट- खबरें कई तरह की होती हैं-राजनीतिक, आर्थिक, खेल, फिल्म, कृषि आदि। संवाददाताओं के बीच काम का विभाजन उनकी दिलचस्पी और ज्ञान को ध्यान में रखकर किया जाता है। मीडिया की भाषा में इसे बीट कहते हैं।

प्रश्न 65.
फ़ीचर किसे कहते हैं ?
उत्तर :
फीचर एक सुव्यवस्थित, सृजात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है जिसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से उनका मनोरंजन करना होता है। फीचर समाचार की तरह पाठकों को तात्कालिक घटनाक्रम से अवगत नहीं करता।

प्रश्न 66.
खोजी रिपोर्ट का प्रयोग कब किया जाता है?
उत्तर :
खोजी रिपोर्ट का प्रयोग तब किया जाता है जब किसी विषय पर गइराई से छानबीन करके तथ्यों एवं सूचनाओं को सामने लाना होता है। इस प्रकार की रिपोर्ट में भ्रष्टाचार, अनियमितताओं तथा गड़बड़ियों को प्रकाश में लाया जाता है।

प्रश्न 67.
स्तंभ लेखन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर :
स्तंभ लेखन भी विचारपरक लेखन का प्रमुख रूप है। कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक अपने खास वैचारिक रूझान के लिए जाने जाते हैं। उनकी अपनी एक लेखन शैली भी विकसित हो जाती है।

प्रश्न 68.
किन्हीं दो हिन्दी समाचार चैनलों के नाम लिखिए।
उत्तर :
(i) आज तक, (ii) जी – न्यूज।

जनसंचार माध्यम और पत्रकारिता के विविध आयामों पर सी.बी.एस.ई. की परीक्षाओं में पूछे गए प्रश्न –

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
(एक-एक अंक वाले)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 20-30 शब्दों में लिखिए –
(क) समाचार किसे कहते हैं ?
(ख) संपादन से क्या तात्पर्य है ?
(ग) मुद्रित माध्यम की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
(घ) ‘पीत पत्रकारिता’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
(क) किसी सम-सामयिक घटना, समस्या अथवा विचार पर आधारित सूचना को समाचार कहा जाता है। समाचार का प्रभाव अधिक से अधिक लोगों के जीवन पर पड़ता है।
(ख) संपादन से तात्पर्य है-प्राप्त समाचारों को समाचार-पत्र में प्रकाशित होने योग्य बनाना। संपादकीय को अखबार की आवाज माना जाता है।
(ग) मुद्रित माध्यम की दो विशेषताएँ-
1. इनकी सामग्री में स्थायित्व होता है।
2. यह माध्यम अधिक विश्वसनीय होता है।
(घ) पीत पत्रकारिता में किसी सनसनीखेज घटना को उभारा जाता है। इसका उपयोग प्रायः किसी के चरित्र हनन के लिए किया जाता है।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में लिखें
(क) बीट रिपोर्टिंग और विशेषीकृत रिपोर्टिंग में मुख्य अंतर क्या है ?
(ख) भारत में पहला छापाखाना कब और कहाँ खुला था ?
(ग) समाचार लेखन के छह ककार कौन-कौन से हैं ?
(घ) इंटरनेट पत्रकारिता की लोकप्रियता के दो कारण लिखिए।
उत्तर :
(क) बीट रिपोर्टिंग के लिए संवाददाता को अपने क्षेत्र के बारे में पर्याप्त जानकारी तथा दिलचस्पी का होना जरूरी है। विशेषीकृत रिपोर्टिंग में किसी विशेष क्षेत्र या विषय से जुड़ी घटनाओं, तथ्यों एवं मुद्दों का बारीकी से विश्लेषण किया जाता है।
(ख) भारत में पहला छापाखाना 1556 ई. में गोवा में खुला था।
(ग) समाचार लेखन के छह ककार निम्नलिखित हैं-
1. क्या हुआ ?
(घ) इंटरनेट पत्रकारिता की लोकप्रियता के दो कारण- 1. इससे सूचनाएँ एवं समाचार आदि तीव्र गति से पहुँचते हैं।
2. यह खबरों के संप्रेषण, पुष्टि, सत्यापन आदि के साथ-साथ खबरों की पृष्ठभूमि तैयार करने में भी सहायक है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए-
(क) एंकर-पैकेज क्या होता है ?
(ख) स्तंभ- लेखन से क्या अभिप्राय है ?
(ग) विशेष लेखन किसे कहते हैं ?
(घ) मुद्रित माध्यम की किसी एक विशेषता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(क) एंकर-पैकेज किसी भी खबर को संपूर्णता के साथ पेश करने का एक जरिया है। इसमें संबंधित घटना के दृश्य, इससे जुड़े लोगों की बाइट, ग्राफिक के जरिए जरूरी सूचनाएँ आदि होती हैं।
(ख) स्तंभ – लेखन से अभिप्राय है- विचारपरक लेखन का प्रमुख रूप। इसमें कोई महत्त्वपूर्ण लेखक अपने खास वैचारिक रुझान के लिए जाना जाता है। उसकी अपनी एक लेखन – शैली विकसित हो जाती है।
(ग) विशेष – लेखन सामान्य लेखन से हटकर होता है। इसके लिए कार्यालय में अलग डेस्क होती है।
(घ) मुद्रित माध्यम की प्रमुख विशेषता यह है कि इसे लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इसे कभी भी पढ़ा जा सकता है।
दीजिए-

प्रश्न 4.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में
(क) समाचार लेखन के छह ककार कौन-कौन से हैं ?
(ख) उल्टा पिरामिड शैली किसे कहते हैं ?
(ग) खोजी रिपोर्ट क्या होती है ?
(घ) विशेष लेखन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
(क) समाचार लेखन के छह ककार निम्नलिखित –
1. क्या हुआ ?
2. किसके साथ हुआ ?
3. कहाँ हुआ ?
5. क्यों हुआ ?
4. कब हुआ ?
6. कैसे हुआ ?
(घ) इंटरनेट पत्रकारिता की लोकप्रियता के दो कारण –
1. इससे सूचनाएँ एवं समाचार आदि तीव्र गति से पहुँचते हैं।
2. यह खबरों के संप्रेषण, पुप्टि, सत्यापन आदि के साथ-साथ खबरों की पृष्ठभूमि तैयार करने में भी सहायक है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए-
(क) एंकर-पैकेज क्या होता है ?
(ख) स्तंभ-लेखन से क्या अभिप्राय है ?
(ग) विशेष-लेखन किसे कहते हैं ?
(घ) मुद्रित माध्यम की किसी एक विशेषता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(क) एंकर-पैकेज किसी भी खबर को संपूर्णता के साथ पेश करने का एक जरिया है। इसमें संबंधित घटना के दृश्य, इससे जुड़े लोगों की बाइट, ग्राफिक के जरिए जरूरी सूचनाएँ आदि होती हैं।
(ख) स्तंभ-लेखन से अभिप्राय है-विचारपरक लेखन का प्रमुख रूप। इसमें कोई महत्त्वपूर्ण लेखक अपने खांस वैचारिक रुझान के लिए जाना जाता है। उसकी अपनी एक लेखन-शैली विकसित हो जाती है।
(ग) विशेष-लेखन सामान्य लेखन से हटकर होता है। इसके लिए कार्यालय में अलग डेस्क होती है।
(घ) मुद्रित माध्यम की प्रमुख विशेषता बह है कि इसे लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इसे कभी भी पढ़ा जा सकता है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए-
(क) समाचार लेखन के छह ककार कौन-कौन से हैं ?
(ख) उल्टा पिरामिड शैली किसे कहते हैं ?
(ग) खोजी रिपोर्ट क्या होती है ?
(घ) विशेष लेखन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
(क) समाचार लेखन के छह ककार निम्नलिखित
1. क्या हुआ, ?
2. किसके साथ हुआ ?
3. कहाँ हुआ ?
4. कब हुआ ?
5. क्यों हुआ ?
6. कैसे हुआ ?

(ख) उल्टा पिरामिड शैली में सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य या सूचना (क्लाइमेक्स) को सबसे ऊपर रखा जाता है।
CBSE Class 12 Hindi Elective रचना पत्रकारीय लेखन और उसके विविध आयाम 5
(ग) खोजी रिपोर्ट में रिपोर्टर मौलिक शोध या छानबीन के जरिए ऐसी सूचनाएँ या तथ्य सामने लाता है जो सार्वजनिक तौर पर पहले से उपलब्ध नहीं होतीं।
(घ) विशेष लेखन में रोजमर्रा की रिपोर्टिंग और बीट को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्र इसके दायरे में आते हैं। इनमें अलग से विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए-
(क) भारत में नियमित अपडेटेड साइटों के नाम बताइए।
(ख) विशेष रिपोर्ट के कोई दो प्रकार बताइए।
(ग) भारत में समाचार-पत्रकारिता का प्रारंभ कंब एवं किससे हुआ ?
(घ) भारत में प्रथम छापाखाना कब और कहाँ खुला था ?
(ङ) किन्हीं दो समाचार-पत्रों के नाम बताइए जिनके वेब संस्करण इंटरनेट पर प्राप्त हैं।
उत्तर :
(क) भारत में नियमित अपडेटेड साइटें हैं
1. एन. डी. टी. वी. 2. टाइम्स ऑफ इंडिया एन.डी.टी.वी.
(ख) विशेष रिपोर्ट के प्रकार-
1. खोजी रिपोर्ट
2. इनडेप्थ रिपोर्ट
3. विश्लेषणात्मक रिपोर्ट
4. विवरणात्मक रिपोर्ट (कोई दो प्रकार बताना अपेक्षित है)
(ग) भारत में समाचार पत्रकारिता का आरंभ सन् 1780 में जेम्स ऑगस्ट हिकी के ‘बंगाल गजट’ से हुआ।
(घ) भारत में प्रथम छापाखाना सन् 1556 में गोवा में खुला था।
(ङ) ‘दैनिक जागरण’ तथा ‘अमर उजाला’ समाचार-पत्रों के वेब संस्करण इंटरनेट पर प्राप्त हैं।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में लिखिए-
(क) विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रही भारत की किन्हीं दो संस्थाओं के नाम लिखिए।
(ख) रेडियो समाचार की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
(ग) भारत में प्रथम छापाखाना कब और कहाँ खुला ?
(घ) फीचर के किन्हीं दो प्रकारों के नाम लिखिए।
(ङ) पत्रकारों के किन्हीं दो प्रकारों के नाम लिखिए।
उत्तर :
(क) विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रही भारत की दो संस्थाओं के नाम निम्नलिखित हैं :
1. डिफेंस रिसर्च एण्ड डेवलपमेन्ट ऑर्गनाइजेशन।
2. सेंटूल स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन।
(ख) रेडियो समाचार की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :
1. रेडियो समाचार मूलत: एक रेखीय (लीनियर) माध्यम है।
2. रेडियो समाचार लेखन की संरचना उल्टा पिरामिड शैली पर आधारित है।
(ग) भारत में प्रथम छापाखाना सन् 1556 में, गोवा राज्य में खुला था।
(घ) फीचर के दो प्रकार निम्नलिखित हैं :
1. खोजपरक फीचर, 2. व्यक्ति चित्र फीचर।
(ङ) पत्रकारों के दो प्रकारों के नाम निम्नलिखित हैं :
1. पूर्णकालिक पत्रकार।
2. अंशकालिक एवं स्वतंत्र पत्रकार।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर दीजिए –
(क) दो हिंदी समाचार-पत्रों के नाम लिखिए जिनके ‘वेब-संस्करण’ उपलब्ध हैं।
(ख) समाचार-लेखन के छह ककारों को समझाइए।
(ग) विशेष रिपोर्ट के दो प्रकारों को समझाइए।
(घ) ‘पीत पत्रकारिता’ से आप क्या समझते हैं ?
(ङ) पत्रकारिता में ‘बीट’ का क्या आशय है ?
उत्तर :
(क) हिंदी के दो समाचार पत्रों के नाम जिनके वेब संसकरण उपलब्ध हैं-
1. नवभारत टाइम्स, 2. हिंदुस्तान।
(ख) समाचार लेखन के छह ककारों के नाम-
1. क्या हुआ ?
2. किसके साथ हुआ ?
3. कहाँ हुआ ?
4. कब हुआ ?
5. क्यों हुआ ?
6. कैसे हाआ ?
(ग) विशेष रिपोर्ट के दो प्रकार- (i) खोजी रिपोर्ट (Investigative Report), (ii) इन डेच्थ रिपोर्ट (Indepth Report)।
(घ) पीत पत्रकारिता से तात्पर्य ऐसी पत्रकारिता से है जिसमें फैशन, अमीरों की बड़ी-बड़ी पार्टियों तथा लोकप्रिय लोगों के निजी जीवन के बारे में बताया जाता है। इसे ‘पेज थ्री’ पत्रकारिता भी कहा जाता है क्योंकि यह समाचारपत्र के पृष्ठ तीन पर प्रकाशित होती है। प्रायः इसका उपयोग किसी के चरित्र हनन के लिए किया जाता है।
(ङ) पत्रकारिता में ‘बीट’ से आशय है-संवाददाताओं के बीच उनकी दिलचस्पी और ज्ञान को लेकर काम का विभाजन। इसके लिए एक डेस्क निर्धारित कर दी जाती है।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए –
(क) उल्टा पिरामिड शैली से क्या तात्पर्य है ?
(ख) भारत में प्रथम छापाखाना कब और कहाँ खुला था ?
(ग) विशेष लेखन क्या होता है ?
(घ) इंटरनेट पत्रकारिता आजकल बहुत लोकप्रिय क्यों है ?
उत्तर :
(क) यह समाचार लेखन की सबसे लोकप्रिय. उपयोगी और बुनियादी शैली है। यह शैली कहानी अथवा कथा लेखन की शैली से ठीक उल्टी है। इसमें क्रम होता है – समापन, बॉडी, मुखड़ा अर्थात् आधार ऊपर और शीर्ष नीचे।
था।
(ख) भारत में पहला छापाखाना सन् 1556 में गोवा में खुला
(ग) किसी खास विषय पर सामान्य लेखन से हटकर किया गया लेखन विशेष लेखन कहलाता है। इसके लिए कार्यालय में एक अलग डेस्क होता है। विशेष लेखन करने वाले पत्रकारों का समूह भी अलग होता है।
(घ) इंटरनेट पत्रकारिता आजकल बहुत लोकप्रिय इसलिए है क्योंकि यह पत्रकारिता का सर्वाधिक तीव्रगामी एवं सटीक माध्यम है। इसमें हम खबरों के अलावा चर्चा परिचर्चा, बहसों, फीचर, झलकियों आदि का भी उपयोग कर सकते हैं। यह एक अंतर्क्रियात्मक माध्यम है।

प्रश्न 9.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए-
(क) खोजी रिपोर्ट क्या होती है ? स्पष्ट कीजिए।
(ख) फीचर किसे कहते हैं ?
(ग) इंटरनेट पत्रकारिता आजकल बहुत लोकप्रिय क्यों है ?
(घ) रेडियो- समाचार की भाषा कैसी होनी चाहिए ?
(ङ) विशेष लेखन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
(क) खोजी रिपोर्ट में किसी बात की गहराई के साथ छानबीन करके उन तथ्यों और सूचनाओं को सामने लाया जाता है जिन्हें दबाने या छिपाने का प्रयास किया जा रहा है।
(ख) फीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है जिसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से उनका मनोरंजन करना होता है। फीचर समाचार की तरह पाठकों को तात्कालिक घटनाक्रम से अवगत नहीं कराता।
(ग) इंटरनेट पत्रकारिता अधिक तीव्र एवं सटीक माध्यम होने के कारण अधिक लोकप्रिय है।
(घ) रेडियो समाचार की भाषा सरल, सहज एवं सुबोध होनी चाहिए।
(ङ) विशेष लेखन में सामान्य लेखन से हटकर लेखन किया जाता है। इसके लिए अलग से डेस्क होती है।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए-
(क) समाचार-पत्र और पत्रिकाओं में विशेष रिपोर्ट किसे कहा जाता है ?
(ख) दूरदर्शन पर समाचार-वाचक को किन बातों का ध्यान रखना होता है ?
(ग) प्रिंट यानी मुद्रित माध्यमों की दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
(घ) हिंदी के दो समाचार-पत्रों के नाम लिखिए जिनके इंटरनेट – संस्करण भी उपलब्ध हों।
(ङ) संपादकीय किसे कहा जाता है ?
उत्तर :
(क) समाचार पत्र और पत्रिकाओं में सामान्य समाचारों के अलावा गहरी छानबीन, विश्लेषण और व्याख्या के आधार पर तैयार की गई रिपोर्ट को विशेष रिपोर्ट कहा जाता है।
(ख) दूरदर्शन पर समाचार वाचक को सभी चरणों का प्रयोग करना चाहिए जैसे- ब्रेकिंग न्यूज, फोन इन, विजुअल, एंकर बाइट आदि।
(ग) प्रिंट या मुद्रित माध्यम की दो विशेषताएँ-
1. इसके समाचारों में स्थायित्व होता है।
2. इन्हें सुविधानुसार पढ़ा जा सकता है।
(घ) 1. नवभारत टाइम्स, 2. हिन्दुस्तान।
(ङ) संपादकीय को किसी व्यक्ति की आवाज न मानकर अखबार की आवाज माना जाता है। यह अंदर के किसी पृष्ठ पर छपता है। इसमें किसी का नाम नहीं दिया जाता।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए –
(क) वेबसाइट पर हिन्दी पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय किसे दिया जाता है ?
(ख) ‘उल्टा पिरामिड शैली’ का स्वरूप बताइए।
(ग) फीचर किसे कहते हैं ? स्पष्ट कीजिए।
(घ) पत्रकारिता में स्तम्भ लेखन से क्या तात्पर्य है ?
(ङ) विशेष रिपोर्ट के किन्हीं दो प्रमुख प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(क) वेबसाइट पर हिन्दी पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय ‘तहलका डॉटकॉम’ को दिया जाता है।
(ख) उल्टा पिरामिड शैली में समाचार के सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य को सबसे पहले लिखा जाता है और उसके बाद घटते हुए महत्त्व क्रम में अन्य तथ्यों या सूचनाओं को लिखाया या बताया जाता है। इस शैली में किसी घटना / विचार / समस्या का ब्यौरा कालानुक्रम के बजाय सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य या सूचना से शुरू होता है।
(ग) फीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है जिसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से उनका मनोरंजन करना होता है। फीचर समाचार की तरह पाठकों को तात्कालिक घटनाक्रम से अवगत नहीं कराता।
(घ) स्तंभ लेखन भी विचारपरक लेखन का प्रमुख रूप है। कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक अपने खास वैचारिक रुझान के लिए जाने जाते हैं। उनकी अपनी एक लेखन शैली भी विकसित हो जाती है।
(ङ) विशेष रिपोर्ट के दो प्रमुख प्रकार हैं :
1. खोजी रिपोर्ट 2. इन डेप्थ रिपोर्ट। अखबारों में सामान्य समाचारों से हटकर गहरी छानबीन और विश्लेषण की जब आवश्यकता होती है तब उस पर विशेष रिपोर्ट तैयार की जाती है।

प्रश्न 12.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए-
(क) खोजी रिपोर्ट (इन्वेस्टीगेटिव रिपोर्ट) क्या होती है ? इसका इस्तेमाल कब किया जाता है ?
(ख) संपादकीय लेखन से क्या तात्पर्य है ? इसे लिखने का अधिकार किसे है ?
(ग) भारत में समाचार – पत्रकारिता का प्रारम्भ कब और किससे हुआ ?
(घ) हिन्दी में प्रसारण करने वाले किन्हीं दो टी.वी. समाचार चैनलों के नाम लिखिए।
(ङ) टेलीविजन को जनसंचार का सबसे अधिक लोकप्रिय माध्यम क्यों कहा गया है ?
उत्तर :
(क) खोजी रिपोर्ट में किसी समस्या की गहराई से छानबीन करके ऐसे तथ्यों को सामने लाया जाता है जिन्हें दबाने या छुपाने का प्रयास किया गया है। इसका प्रयोग आमतौर पर भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और गड़बड़ियों को सामने लाने के लिए होता है।
(ख) संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले संपादकीय को उस अखबार की अपनी आवाज माना जाता है। संपादकीय के जरिये अखबार किसी घटना, समस्या या मुद्दे के प्रति अपनी राय प्रकट करते हैं। इसे लिखने का अधिकार संपादक मंडल को होता है।
(ग) भारत में समाचार पत्रिका का प्रारंभ 1780 ई. में जेम्स ऑगस्ट हिकी के ‘बंगाल गजट’ से हुआ जो कलकत्ता (कोलकाता) से निकला था।
(घ) हिन्दी के दो टी.वी. समाचार चैनल : 1. आज तक, 2. आई. बी. एन. – 7
(ङ) टेलीविजन प्रायः सभी घरों में है। अब यह जनसंचार का सबसे अधिक लोकप्रिय माध्यम बन गया है।

प्रश्न 13.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए-
(क) मीडिया की भाषा में ‘बीट’ किसे कहा जाता है ?
(ख) ‘फीचर’ के दो लक्षण बताइए।
(ग) ‘संपादकीय’ में लेखक/संपादक का नाम सामान्यत: क्यों नहीं दिया जाता ?
(घ) ‘विशेष लेखन’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ङ) ‘पीत पत्रकारिता’ को परिभाषित कीजिए।
उत्तर :
(क) बीट – खबरें कई तरह की होती हैं- राजनीतिक, आर्थिक, खेल, फिल्म, कृषि आदि। संवाददाताओं के बीच काम का विभाजन उनकी दिलचस्पी और ज्ञान को ध्यान में रखकर किया जाता है। मीडिया की भाषा में इसे बीट कहते हैं।
(ख) फीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है जिसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से उनका मनोरंजन करना होता है। फीचर समाचार की तरह पाठकों को तात्कालिक घटनाक्रम से अवगत नहीं कराता।
(ग) संपादकीय में लेखक का नाम इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि संपादकीय किसी व्यक्ति विशेष का विचार नहीं होता। इसके जरिए अखबार का दृष्टिकोण व्यक्त किया जाता है। इसमें कई लोगों का सहयोग होता है।
(घ) किसी विशेष विषय पर समान्य लेखन से हटकर लिखा गया लेख, विशेष लेखन कहलाता है।
(ङ) पीत पत्रकारिता में सनसनीखेज घटनाओं को उभारा जाता है। इसका उपयोग प्रायः किसी का चरित्र हनन करने के लिए किया जाता है। इसे पेज थ्री पत्रकारिता भी कहा जाता है।

प्रश्न 14.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए-
(क) फीचर किसे कहते हैं ?
(ख) उल्टा पिरामिड शैली से क्या तात्पर्य है ?
(ग) खोजी रिपोर्ट का प्रयोग कब किया जाता है ?
(घ) स्तंभ लेखन से क्या अभिप्राय है ?
(ङ) किन्हीं दो हिन्दी समाचार चैनलों के नाम लिखिए।
उत्तर :
(क) फीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है जिसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से उनका मनोरंजन करना होता है। फीचर समाचार की तरह पाठकों को तात्कालिक घटनाक्रम से अवगत नहीं करता।
(ख) उल्टा पिरामिड शैली में समाचार के सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य को सबसे पहले लिखा जाता है और उसके बाद घटते हुए महत्त्वपूर्ण क्रम में अन्य तथ्यों या सूचनाओं को लिखा या बताया जाता है। इस शैली में घटना / विचार / समस्या का ब्यौरा कालानुक्रम के बजाय सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य या सूचना से शुरू होता है।
(ग) खोजी रिपोर्ट का प्रयोग तब किया जाता है जब किसी विषय पर गहराई से छानबीन करके तथ्यों एवं सूचनाओं को सामने लाना होता है। इस प्रकार की रिपोर्ट में भ्रष्टाचार, अनियमितताओं तथा गड़बड़ियों को प्रकाश में लाया जाता है।
(घ) स्तंभ लेखन भी विचारपरक लेखन का प्रमुख रूप है। कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक अपने खास वैचारिक रूझान के लिए जाने जाते हैं। उनकी अपनी एक लेखन शैली भी विकसित हो जाती है।
(ङ) 1. आज तक, 2. जी – न्यूज।

प्रश्न 15.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए-
(क) पिरामिड शैली किसे कहते हैं ?
(ख) समाचार के छह ककार कौन-कौन से हैं ?
(ग) विशेष लेखन क्या है ?
(घ) स्वतंत्रता से पहले की किन्हीं दो पत्रिकाओं के नाम लिखिए।
(ङ) अंशकालिक पत्रकार किसे कहते हैं ?
उत्तर :
(क) पिरामिड शैली समाचार लेखन की एक शैली है। इस शैली में समाचार कहानी की तरह लिखे जाते हैं। इसमें समाचार का क्लाइमेक्स सबसे निचले हिस्से में होता है। यह शैली 19वीं शैली के मध्य तक चली। बाद में उल्टा पिरामिड शैली आरम्भ हुई।
(ख) समाचार लेखन के छह ककार निम्न हैं :
1. क्या हुआ ?
2. किसके साथ हुआ ?
3. कहाँ हुआ ?
4. कब हुआ ?
5. क्यों हुआ ?
6. कैसे हुआ ?
(ग) जब किसी खास विषय पर सामान्य लेखन से हटकर लिखा जाता है, उसे विशेष लेखन कहते हैं। इसमें विशेष विषय पर फीचर, टिप्पणी, साक्षात्कार, लेख, समीक्षा और स्तंभ लेखन आदि आ जाते हैं। यह लेखन विषय विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है।
(घ) स्वतंत्रता से पूर्व की पत्रिकाएँ : सरस्वती: संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी और कर्मवीर: संपादक माखनलाल चतुर्वेदी।
(ङ) अंशकालिक पत्रकार वह है जो किसी समाचार पत्र जुड़ा हुआ नहीं होता या उसका कर्मचारी नहीं होता। वह अपनी इच्छा से किसी भी समाचार पत्र को लेख, संवाद अथवा फीचर आदि भेजता है जिसके प्रकाशन पर उसे पारिश्रमिक मिलता से है।

प्रश्न 16.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए –
(क) समाचार-पत्र में संपादक की भूमिका क्या होती है ?
(ख) विज्ञापन किसे कहते हैं ?
(ग) पत्रकारिता में ‘साक्षात्कार’ का महत्त्व समझाइए।
(घ) कम्प्यूटर के लोकप्रिय होने का एक प्रमुख कारण बताइए।
(ङ) दूरदर्शन पर समाचार पढ़ते हुए वाचक को क्या सावधानी बरतनी चाहिए ?
उत्तर :
(क) समाचार पत्र के संपादक की जिम्मेदारी बहुत बड़ी है। वह उपमुख्य संपादक, उपसमाचार संपादक और समाचार संपादक की ओर से चुने गए समाचारों का जिम्मेदार होता है। संपादकीय लिखता है। समाचार-पत्र के प्रत्येक पृष्ठ के ले आउट का निर्णय करता है। कौन-सी खबर किस पृष्ठ पर प्रकाशित की जानी चाहिए, इसका निर्णय करता है। प्रथम पृष्ठ पर क्या समाचार जाना है, कौन – सा चित्र लगना है, यह निर्णय संपादक का ही होता है। वह समाचारों के शीर्षक पर नजर रखता है। इसके अतिरिक्त उपसंपादकों की ड्यूटी लगाता है कि किस संपादक को किस शिफ्ट में ड्यूटी करनी है।
(ख) उत्पादक अपने उत्पाद की जानकारी जन-जन तक पहुँचाता है। वह जिस माध्यम से उपभोक्ता तक पहुँचता है, वह माध्यम विज्ञापन है।
(ग) पत्रकारिता में ‘साक्षात्कार’ महत्त्वपूर्ण है। पत्रकार एक तरह से साक्षात्कार के जरिए समाचार, फीचर, विशेष रिपोर्ट और अन्य कई तरह के पत्रकारीय लेखन के लिए कच्चा माल जुटाता है। साक्षात्कार में पत्रकार किसी अन्य व्यक्ति से तथ्यं, उसकी राय, और भावनाएँ जानता है।
(घ) कम्प्यूटर ने पत्रकारिता और लेखन जगत में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है। संवाददाता कम्प्यूटर के जरिए दूरदराज क्षेत्र में अपना समाचार कम्प्यूटर के जरिए भेज सकता है। डेस्क का संपादक उसे कम्प्यूटर पर ही संपादित कर रीडिंग डेस्क पर भेज सकता है। रीडिंग डेस्क इसे कंप्यूटर पर ही पढ़कर पी. टी. एस. भेज सकता है। इसके अतिरिक्त सर्जनात्मक लेखन में भी आज कंप्यूटर विशेष भूमिका निर्वाहित कर रहा है। आज यह जटिल से जटिल कार्य सेकेण्डों में पूरा कर देता है।
(ङ) 1. दूरदर्शन समाचार वाचक की बोली स्पष्ट और विशिष्ट होनी चाहिए।
2. समाचार वाचक को सहजता से समाचार पढ़ने चाहिए और विषय के अनुकूल मुख की मुद्रा बनानी चाहिए।

प्रश्न 17.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए-
(क) फीचर का क्या उद्देश्य होता है ?
(ख) संपादकीय क्या होता है ?
(ग) प्रिंट या मुद्रित जनसंचार माध्यम के दो रूप बताइए।
(घ) पत्रकार का क्या दायित्व है ?
(ङ) रेडियो समाचार की भाषा कैसी होनी चाहिए ?
उत्तर :
(क) फीचर का उद्देश्य पाठकों को सूचना देना तथा शिक्षित करने के साथ-साथ उनका मनोरंजन करना होता है।
(ख) संपादकीय संपादक की ओर से लिखा गया लेख होता है। इसमें किसी तात्कालिक मुद्दे के प्रति समाचारपत्र की राय (दृष्टिकोण) होती है।
(ग) प्रिंट या मुद्रित जनसंचार माध्यम के दो रूप हैं- समाचारपत्र-पत्रिकाएँ एवं पुस्तकें।
(घ) पत्रकार का दायित्व है कि वह पाठकों / दर्शकों तक नवीनतम सूचनाएँ पहुँचाए, उन्हें जागरूक बनाए, शिक्षित करे तथा उनका मनोरंजन करे।
(ङ) रेडियो समाचार की भाषा सरल, सुबोध व सुस्पष्ट हो। यह भाषा ऐसी हो जिसे निरक्षर भी समझ सकें।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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CBSE Class 12 Hindi Elective रचना कविता / कहानी / नाटक की रचना

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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana कविता / कहानी / नाटक की रचना

(क) कविता –

प्रश्न 1.
कविता क्या है?
उत्तर :
किसी भी भाषा के साहित्य में विचारों और भावों के संप्रेषण की मुख्य रूप से दो शैलियाँ होती हैं- काव्य (कविता) और गघ्य।
कविता या तो छंद, तुक, लय, सुर, ताल में बँधी होती है अथवा अतुकांत भी होती है। दोनों ही प्रकार की कविताओं में अलग-अलग भावानुभूतियों का आनंद लिया जा सकता है।
कविता को पढ़ते-सुनते समय जो अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त होता है, उसे ही आचार्यों ने रस कहा है। कविता के बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है-
“हृदय की मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं”
जयशंकर प्रसाद ने लिखा है :
“काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है। जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। यह एक श्रेयमयी रचनात्मक ज्ञानधारा है।”
महादेवी वर्मा ने कहा है-“सत्य काव्य का साध्य और सौंदर्य उसका साधन है।”
अरस्तू ने – “काव्य को भाषा के माध्यम से होने वाली ऐसी अनुमति कहा है जो मन पर अमिट छाप छोड़ देती है।”
“… it is an imitation …. by means of words.”
-Poetics
विल्सन ने कहा है :
“Poetry is the intellect coloured by feelings.”
वर्स्सबर्थ के अनुसार :
“Poetry is spontaneous overflow of powerful feeling.”
‘कविता भावों का सहज उच्छृंखलन है।’
कविता हमारी संवेदनाओं के निकट होती है। वह हमारे मन को छू लेती है और कभी-कभी मन को झकझोर भी देती है। कविता के मूल में संवेदना है, राग-तत्व है। यह संवेदना संपूर्ण

सृष्टि से जुड़ने और उसे अपना बना लेने का बोध है। यह वही संवेदना है जिसके रत्नाकर डाकू को वाल्मीकि बना दिया और वह कह उठे-

“मा निषाद! प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती समाः।
यत्क्रौज्च मिधुनादेकमवधी: काम मोहितम”
इसी को सुमित्रानंवन पंत ने इन शब्दों में कहा है-
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान॥’

प्रश्न 2.
कविता-लेखन की प्रक्रिया क्या है? इसके संबंध में कौन-कौन से मत मिलते हैं?
उत्तर :
कविता-लेखन की प्रक्रिया के संबंध में दो मत मिलते हैं।
एक : कविता रचने या लिखने की कोई प्रणाली सिखाई या बताई नहीं जा सकती। यह स्वत: ईश्वरीय देन है।
दूसरा : कविता-लेखन एक कला है। इसे भी अन्य कलाओं की भाँति प्रशिक्षण देकर सिखाया जा सकता है। तर्क दिया जाता है कि जब चित्रकला, संगीतकला, नृत्यकला को सिखाया जा सकता है तो कविता को क्यों नहीं ? अब पश्चिम के कुछ देशों के कुछ विश्वविद्यालयों में और अब अपने यहाँ भी कहीं-कहीं कविता-लेखन के बारे में विद्यार्थियों को बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है। इतना तो कहा जा सकता है कि कविता का जादू खुलने पर भले ही आप एक अच्छे कवि न बन पाएँ, लेकिन अच्छे भावुक या सद्धदय पाठक जरूर बन जाएँगे।

कविता की बारीकियों से गुजरना उसे दोबारा रचे जाने के सुख से कम नहीं होता। दरअसल एक अच्छी कविता आर्मंत्रित करती है, बार-बार पढ़े जाने के लिए, कुछ-कुछ शास्त्रीय संगीत की तरह। जब तक आप उससे दूर रहते हैं वह रहस्यमयी लगती है। करीब आते ही उसे बार-बार और देर तक सुनने को जी चाहता है।’ अच्छी कविता आपसे सवाल करती है। सुने और पढ़े जाने के बाद भी वह भी बची रहती है, आपकी स्मृति में, बार-बार सोचने के लिए अन्य कलाओं में तो बाह्य उपकरणों की आवश्यकता होती हैं, लेकिन कविता ऐसी कला है, जिसमें किसी बाह्य उपकरण की मदद नहीं ली जा सकती। कवि अपनी इच्छानुसार शब्दों को जुटाता है और उसे लय से गठित करता है।

प्रश्न 3.
कविता के उपकरणों में पहला उपकरण कौन-सा है?
अथवा
कविता में ‘शब्द’ उपकरण का क्या महत्त्व है?
उत्तर :
कविता की दुनिया का पहला प्रमुख उपकरण है-शब्द। शब्दों के मेल-जोल से कविता बनती है। इसके बारे में अंग्रेजी कवि डब्ल्यू.एच.ऑर्डन ने कहा है-“Play with the words” अर्थात् शब्दों से खेलना सीखें। शब्दों से खेलना, उनसे मेल-जोल बढ़ाना शब्दों के भीतर छिपे अर्थ की परतों को खोलना है- कुछ-कुछ इंटरनेट की तरह। शब्दों से जुड़ना कविता की दुनिया में प्रवेश करना है। कई बार बच्चे खेल-खेल में गीत रच डालते हैं। दरअसल रचनात्मकता सबके अंदर होती है; बस उसे तराशने की आवश्यकता होती है। तुकबंदी करते-करते रचनात्मक आकार लेने लगती है :

“अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो, अस्सी नब्बे पूरे सौ।
सौ में लागा धागा, चोर निकलकर भागा।”

कई बार बड़े-बड़े कवि भी शब्दों से खेलकर कविता रच देते हैं :

“अगर कहीं मैं तोता होता,
तोता होता तो क्यों होता?
तोता होता!”

शब्दों के अर्थ के नए-नए आयाम खुलते हैं। शब्दों का यह खेल धीरे-धीरे एक ऐसी दुनिया में ले जाता है, जहाँ रिद्म है, लय है और एक व्यवस्था है। यानी शब्दों के खेल से शुरू हुई कविता के रचने की कहानी शब्दों की व्यवस्था तक जाती है।
उदाहरण के लिए –

“चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं न कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।”

इन पंक्तियों में ‘पेशे पर चोट’ यानी उचित मेहनताना नहीं मिलना है। पंक्तियों की संरचना बदलने पर अर्थ भी बदल जाएगा। जैसे-

पड़ती है पेशे पर चोट जब

यहाँ ‘चोट’ पर अधिक बल है, ‘पेशे की चोट’ पर कम। कविता में शब्दों के पर्याय नहीं होते। यदि हम उपर्युक्त उदाहरण में ‘चोट’ की जगह ‘मार’ रख दें तो कविता का भाव बदल जाता है।

प्रश्न 4.
कविता में बिंब का क्या महत्त्व है?
उत्तर :
बिंब कविता को इंद्रियों से पकड़ने में सहायक होते हैं। हमारे पास दुनिया को जानने का एकमात्र सुलभ साधन इंद्रियाँ ही हैं। बाह्य संवेदनाएँ मन के स्वर पर बिंब के रूप में बदल जाती हैं। कुछ शब्दों को सुनकर अनायास हमारे मन के भीतर कुछ चित्र कौंध जाते हैं। ये स्मृति-चित्र ही शब्दों के सहारे कविता का बिंब निर्मित करते हैं।

उदाहरणार्थ पंतजी की कविता ‘संध्या के बाद’ की इन पंक्तियों को देखिए-

‘तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप-ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य गति अंतर-रोदन।’

उपर्युक्त पंक्तियों को ध्यान से पढ़ने पर ‘बगुलों-सी वृद्धाएँ विधवाएँ”, पंक्ति से हमारी स्मृति में बगुले का आकार, उसकी सफेदी और वृद्ध विधवाओं के घुटे सिर के कारण गर्दन का आकार तथा उनके सफेद वस्त्र एकाकार हो जाते हैं।

इन चित्रों या बिंबों का मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। दृश्य बिंब अधिक बोधगम्य होते हैं, क्योंकि देखी हुई हर चीज़ हमें प्रभावित करती है। इनके लिए पंतजी ने चित्र-भाषा की आवश्यकता पर बल दिया है।

कविता की रचना करते समय शुरूआत में धीरे-धीरे दृश्य और श्रव्य बिंबों की संभावना तलाश करनी चाहिए। बिंब सभी को आकृष्ट करते हैं। कहा जाता है कि कविता ऐसी चीज़ है जिसे ज्ञानेंद्रियों (स्पर्श, स्वाद, दृश्य, घ्राण, श्रवण) रूपी पाँच उँगलियों से पकड़ा जाता है। जिस कवि में जितनी बड़ी ऐंद्रिक पकड़ होती है, वह उतनी ही प्रभावशाली कविता रचता है। कविता में बिंबों का विशिष्ट महत्त्व है। प्राकृतिक दृश्यों को सजीव एवं चेतन बिंब के रूप में प्रस्तुत करने की शैली को मानवीकरण (Personification) कहते हैं। जैसे :

बीती विभावरी जाग री
अंबर पनघट में डुबो रही,
तारा-घट उषा नागरी।

प्रश्न 5.
कविता में छंद का क्या स्थान है ?
उत्तर :
छंद को ‘आंतरिक लय’ भी कह सकते हैं। छंद कविता का अनिवार्य तत्त्व है।
मुक्त छंद कविता लिखने के लिए भी अर्थ की लय का निर्वाह होना जरूरी है।
कवि को भाषा के संगीत की पहचान होनी चाहिए। मुक्त छंद की कविता में अंत्यानुप्रास (लय) का बंधन नहीं रहता। पर लय इसमें अंत निहित या भीतर ही भीतर छिपी रहती है। यह सही है उसमें मात्राओं या वर्णों के विन्यास की दृष्टि से छंद के नियमों का पालन नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए निराला की कविता ‘वह तोड़ती पत्थर’ की ये पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :

“चढ़ रही थी धूप
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप
उठी झुलसाती हुई लू
रूई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगी छा गई
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर”

इस कविता में छंद के नियम के अनुसार पंक्तियाँ नहीं हैं। पर प्रत्येक पंक्ति में छंद अंतर्निहित (भीतर समाया हुआ) है। लय का निर्वाह किया गया है। एक अन्य उदाहरण देखिए :

बांबू जी! सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिए खड़ा है।

इस ‘मोचीराम’ शीर्षक कविता में ऊपर-ऊपर से देखने पर छंद नहीं है, लेकिन अर्थ के आधार पर अपना भीतरी छंद मौजूद है। कवि को छंद के अनुंशासन की जानकारी से होकर गुजरना जरूरी है। तभी आंतरिक लय का निर्वाह संभव है।

प्रश्न 6.
कविता के सारे घटक किससे परिचालित होते हैं?
उत्तर :
कविता के सारे घटक परिवेश और संदर्भ से परिचालित होते हैं।
उदाहरण के लिए, नागार्जुन की कविता ‘अकाल और उसके बाद’ का परिवेश गाँव का है। इस कविता में संदर्भ, अकाल और उसके बाद का परिवर्तन है। कविता की भाषा, संरचना, बिंब, छंद-सब उसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं।

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त। दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

इस कविता में ‘अकाल और उसके बाद’ होने वाले परिवर्तन को कवि ने सांगीतिक व्यवस्था के भीतर केवल कुछ संकेतों के द्वारा प्रकट करके अपनी बात कह दी है। जैसे : घर में दाने आना, ऊपर उठता हुआ धुआँ, घरवालों तथा पक्षियों की आँखों में आई चमक।

गाँव के परिवेश के लिए चूल्हा, चक्की, दाने, पाँख आदि तद्भव शब्दों का प्रयोग किया गया है। पर्यायवाची शब्द रख देने से अर्थ बदल जाएग। कविता में एक साथ ठेठ गँवई शब्दों के साथ ‘शिकस्त’, ‘गश्त’ जैसे उर्दू शब्दों का प्रयोग इसे सहज परिवेश देता है। परिवेश के साथ-साथ कविता के सभी घटक भावतत्त्व से परिचालित होते हैं। कवि की वैयक्तिक सोच, दृष्टि और दुनिया को देखने का नजरिया कविता की भाव संपदा बनती है।

प्रश्न 7.
काव्य की विभिन्न विधाओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर :
काव्य की विभिन्न विधाओं को दो आधारों पर विभाजित किया जाता है-
1. बंध के आधार पर,
2. मुक्तक काव्य के आधार पर।
बंध के आधार पर : इसके दो रूप मिलते हैं-1. प्रबंध काव्य (महाकाव्य), 2. खंड काव्य।
1. महाकाव्य : महाकाव्य का अर्थ है-महान काव्य! इसमें अनेक छंद एक कथा-सूत्र में पिरोए हुए होते हैं। इसमें किसी महापुरुष के पूर्ण जीवन की कथा वर्णित की जाती है। कहानी भी बड़ी होती है तथा इसका आकार भी बड़ा होता है। महाकाव्य में आठ या अधिक सर्ग होते हैं जो आपस में सुगठित होते हैं। कथा का नायक वीर, धीरोदात्त होता है। महाकाव्य में सभी रसों की अभिव्यक्ति होती है। इसका उद्देश्य महान होता है। “महाकाव्य कथानक की दृष्टि से एक ऐसी सुसंबद्ध रचना होती है जिसमें उत्कृष्ट या उदात्त भावों की अभिव्यक्ति हो।”
‘रामचरितमानस’, ‘साकेत’, पद्मावत’ महाकाव्य है।

2. खंडकाव्य : खंड का अर्थ है-अंश या हिस्सा। खंड काव्य में कोई एक प्रसंग, घटना या किसी बड़ी कथा का एक अंश का वर्णन होता है। इसमें जीवन की समग्रता और पूरी कथा नहीं होती। मैथिलीशरण गुप्त का ‘जयद्रथ बध’ एक खंडकाव्य है, क्योंकि इसमें ‘महाभारत’ की पूरी कथा न होकर केवल अर्जुन द्वारा जयद्रथ के मारे जाने की घटना का ही वर्णन है। ‘पंचवटी’ भी एक खंड काव्य है। दिनकर जी की रचना ‘रश्मिरथी’ कर्ण के जीवन पर आधारित खंडकाव्य है।

मुक्तक काव्य : मुक्तक स्वतंत्र तथा अपने आप में पूर्ण रचना है। यह एक ऐसा पद्य या कुछ पद्यों का समूह होता है, जो अपने आप में पूरा हो। यही मुक्तक काव्य कहलाता है।
मुक्तक दो प्रकार के होते हैं: 1. गेय मुक्तक, 2. अगेय मुक्तक।

गेय मुक्तक के विभिन्न रूप :

(क) गीत : मुक्तक का ऐसा रूप जो गाए जाने के लिए ही हो, गीत कहलाता है। प्रत्येक गीत के दो भाग होते हैं- स्थायी और अंतरा। पहली पंक्ति, जिसे बार-बार दोहराया जाता है, स्थायी कहलाती है। शेष पंक्तियाँ अंतरा कहलाती हैं। ये सभी पंक्तियाँ गायन के अनुसार ताल, लय तथा छंद में बंधी होती हैं।

(ख) प्रगीत : इसे ‘गीतिकाव्य भी कहते हैं। अंग्रेजी में इसे Lyrical Poetry कहा जाता है। प्रगीत में गीत के सभी लक्षण तो होते हैं, पर इसका गाया जाना अनिवार्य नहीं है। प्रगीत एक ऐसी लयबद्ध रचना होती है, जो छंद या मुक्त छंद में भी हो सकती है। इसमें कवि की निजी भावनाएँ तीव्रता से व्यंजित होती है। हरिवंश राय ‘बच्चन’ की रचना देखें –
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो जमीन है न बोलती न आसमान बोलता, जहान देखकर मुझे नहीं जबान खोलता नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया। इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो।
आधुनिक काव्य की कुछ अन्य विधाएँ : लंबी कविता : आधुनिक साहित्य में खंडकाव्य का स्थान लंबी कविता ने ले लिया है। लंबी कविताएँ प्राय: मुक्त छंद में लिखी जाती हैं। यह वर्णनात्मक, विवरणात्मक या भावप्रधान हो सकती हैं। ‘राम की शक्ति पूजा’ ऐसी ही लंबी कविता है।

चतुष्पदी : चतुष्पदी मुक्तक के अंतर्गत ही प्रगीत का ही एक रूप है। इसमें चार पंक्तियाँ ही होती हैं। ये चार पंक्तियाँ अपने आप में संपूर्ण कविता होती हैं।

अतुकांत कविता : आधुनिक कविता में ऐसे छंदों का प्रचलन हुआ है, जिनमें तुक का निर्वाह नहीं किया जाता। ऐसी कविता को अतुकांत कविता कहा जाता है; पर अतुकांत कविता में छंद का अनुशासन रहता है।

गज़ल : गज़ल की विधा फारसी तथा उर्दू भाषाओं में विकसित काव्य-रूप है। आजकल हिंदी में गज़लें लिखी जा रही हैं। आमतौर पर गज़ल में 5 से 25 तक शेर हो सकते हैं। पहला शेर मतला कहलाता है। दुष्यंत कुमार ने अनेक गज़लें लिखी हैं।

(ख) कहानी –

प्रश्न 8.
कहानी क्या है?
अथवा
कहानी से आप क्या समझते हैं?
उत्तरः
कहानी हमारे जीवन से इतनी निकट या उसका इतना अविभाज्य हिस्सा है कि हर आदमी किसी-न-किसी रूप में कहानी सुनता और सुनाता है। हर आदमी में अपने अनुभव बाँटने और दूसरों के अनुभवों को जानने की प्राकृतिक इच्छा रहती है अर्थात् हम सब अपनी बातें किसी को सुनाना और दूसरों की सुनना चाहते हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि हर आदमी में कहानी लिखने का मूल भाव निहित रहता है। यह बात दूसरी है कि कुछ लोगों में इस भाव को विकसित करने की कला जान जाते हैं तो कुछ इसे निक्रिसित नहीं कर पाते।

कहानी का इतिहास अत्यंत पुराना है। कहानी मानव-स्वभाव और प्रकृति का हिस्सा है। पहले कथावाचक किसी घटना-युद्ध, प्रेम, प्रतिशोध पर आधारित कथा-कहानी सुनाते थे। सच्ची घटनाओं पर आधारित कथा-कहानी सुनाते-सुनाते उसमें कल्पना का समिश्रण भी होने लगा। मनुष्य प्रायः वही सुनना चाहता है जो उसे प्रिय है। उसका कथानायक भले ही युद्ध से हार क्यों न जाए पर वह उसकी वीरता के कारनामे सुनना पसंद करता है। मौखिक रूप से कहानी कहने की परंपरा हमारे देश में बहुत पुरानी है। बाद में धर्म-प्रचारक द्वारा कही जाने वाली कहानियों ने लोकप्रियता प्राप्त कर ली। शिक्षा देने के लिए ही ‘पंचतंत्र’ की कहानियाँ रची गई। इस प्रकार कहानी में मनोरंजन के साथ-साथ उद्देश्य भी शमिल हो गया।

अब प्रश्न उठता है-कहानी क्या है?
कहानी गद्य-साहित्य का एक ऐसा प्रकार है, जिसमें जीवन के किसी एक प्रसंग, किसी एक घटना या मनः स्थिति का वर्णन होता है। यह वर्णन अपने-आप में पूर्ण होता है। कहानी की परिभाषा देते हुए कहा जा सकता है-
“यह एक ऐसा आख्यान है, जो यथार्थ का उद्घाटन करता है। आकार में छोटा होता है, इसे एक बार में पढ़ा जा सकता है और जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव डालता है।”
अथवा
“किसी घटना, पात्र या समस्या का क्रमबद्ध ब्यौरा, जिसमें परिवेश हो, द्वंद्वात्मकता हो, कथा का क्रमिक विकास हो, चरम उत्कर्ष बिंदु हो, उसे कहा जाता है।”

प्रश्न 9.
कहानी के तत्त्वों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए। उत्तर : कहानी के निम्नलिखित तत्त्व होते हैं :
1. कथानक : कहानी का कथानक किसी एक प्रसंग या कुछ प्रसंगों पर आधारित होता है। इसमें जीवन के एक अंश को दर्शाया जाता है। इसमें किसी एक घटना का चित्रण होता है। अथवा किसी विशेष प्रसंग में पात्र की मन स्तिति का चित्रण भी हो सकता है। कथानक के तीन भाग होते हैं : प्रारंभ, मध्य (विकास) और चरमोत्कर्ष।

2. पात्र या चरित्र-चित्रण : कहानी में पात्रों की संख्या सीमित होती है। पात्रों की भीड़ में लेखक के विचारों के खो जाने का भय रहता है। पात्र दो प्रकार के होते हैं-वर्गीय पात्र तथा विशिष्ट पात्र। वर्गीय पात्र किसी वर्ग विशेष के प्रतिनिधि होते हैं, जैसे पूँजीपति वर्ग, श्रमिक वर्ग, निम्नवर्ग, उच्च वर्ग आदि इनमें अपने-अपने वर्ग की विशेषताएँ होती हैं। विशिष्ट पात्र में असाधारण या निजी विशेषताएँ होती हैं। प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ कहानी के पात्र वर्गीय पात्र हैं, तो जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुंडा’ कहानी का नायक एक विशिष्ट पात्र है।

3. कथोपकथन या संवाद : कथोपकथन या संवाद दो काम करते हैं-1. कथानक का विकास करते हैं। 2. चरित्रों का स्वरूप उजागर करते हैं। पात्रों की आपसी बातचीत ही कथोकथन कहलाता है। इनसे कहानी में रोचकता और आकर्षण उत्पन्न हो जाता है। कहानी के संवाद छोटे, पात्रानुकूल एवं मन पर छाप छोड़ने वाले होने चाहिएँ।

4. देश-काल-वातावरण : कहानी का कथानक जिस प्रकार हो, उसके अनुरूप वातावरण का चित्रण होना चाहिए। यह वातावरण सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, पौराणिक आदि किसी भी प्रकार का हो सकता है। आधुनिक शब्दावली में इसे ‘ परिवेश’ कहा जाता है।

5. भाषा-शैली : कहानी की भाषा आम बोल चाल की होनी चाहिए। कहानीकार अपनी रुचि, कथानक के वातावरण के अनुरूप भाषा-शैली का अनुसरण करता है। मुख्य रूप से कहानी में वर्णनात्मक, संवादात्मक, आत्मकथात्मक, पत्र, डायरी आदि शैलियों का प्रयोग होता है।

6. उद्देश्य : कहानी उद्देश्यपूर्ण होनी चाहिए। वैसे कहानी का मुख्य उद्देश्य है-कलात्मक ढंग से जीवन की व्याख्या करना। कहानी कार किसी घटना या प्रसंग के चित्रण के द्वारा किसी विशेष भाव या विचार का संप्रेषण कर किसी समस्या की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। इससे वह सामाजिक तथा नैतिक मूल्यों की स्थापना करता है। कहानी का एक उड्देश्य पाठकों का मनोरंजन करना भी है।

प्रश्न 10.
कहानी के प्रकारों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर :
विषय की दृष्टि से कहानी मनोवैज्ञानिक ऐतिहासिक. पारिवारिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, धार्मिक आदि कई प्रकार की हो सकती है।
जैनेंद्र कुमार की कहानियाँ मनोवैज्ञानिक कहानियों के अच्छे उदाहरण हैं।
जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘ममता’ ऐतिहसिक कहानी हैं। प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ एक पारिवारिक कहानी है। प्रेमचंद की ही कहानी ‘कफन’ एक सामाज़िक कहानी है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर ने वैज्ञानिक कहानियाँ लिखी हैं।
कथानक की दृष्टि से कहानी के तीन प्रकार माने गए हैं :
1. घटना प्रधान कहानी,
2. चरित्र प्रधान कहानी,
3. वातावरण प्रधान कहानी।

प्रश्न 11.
कहानी का कथानक क्या होता है? उदाहरण सहित प्रकाश डालिए।
उत्तर :
कहानी का केंद्रीय बिंदु कथानक होता है।
अब यह जानना होगा कि कथानक क्या है?
कथानक कहानी का वह संक्षिप्त रूप होता है जिसमें प्रारंभ से अंत तक कहानी की सभी घटनाओं और पात्रों का समावेश किया जाता है। कहानी और कथानक में थोड़ा अंतर होता है। उदाहरण के लिए प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ 10-12 पृष्ठों की कहानी है, लेकिन इसका कथानक 10-12 पंक्तियों में भी लिखा जा सकता है।

उदाहरण :

घीसू और माधव गाँव के दो गरीब और आलसी किसान हैं। बुधिया माधव की पत्नी है। वह कोठरी में प्रसव-पीड़ा से तड़प रही है। कोठरी के बाहर घीसू और माधव आलू भूनकर खाने की तैयारी में व्यस्त हैं। बुधिया प्रसव-पीड़ा से मर जाती है। दोनों के पास उसका कफ़न खरीदने के पैसे नहीं है। वे गाँव के जमींदार से पैसे माँगने जाते हैं। जमींदार पैसे दे देते हैं। गाँव के अन्य सम्पन्न लोग भी पैसे दे देते हैं। घीसू और माधव कफ़न खरीदने के लिए बाज़ार जाते हैं, पर वे कफ़न खरीदने की बजाय उन पैसों से शराब लेकर पीते हैं और नशे में धुत होकर वहीं गिर जाते हैं।

इस आधार पर कहा जा सकता है कि कथानक (Plol) कहानी का एक प्रारंभिक नक्शा होता है। यह उसी प्रकार का होता है जैसे किसी मकान को बनाने से पहले उसका नक्शा कागज़ पर बनाया जाता है। कभी कहानीकार की जानकारी में पूरा कथानक आ जाता है तो कभी कथानक का सूत्र हाथ आता है। कहानीकार फिर उसे विस्तार रूप देने में जुट जाता है। विस्तार का काम कल्पना के आधार पर किया जाता है। पर कहानीकार की कल्पना कोरी कल्पना नहीं होती। वह ऐसी कल्पना करता है, जो संभव हो। यह कल्पना आगे बढ़ती है। कल्पना का सूत्र लेखक को एक परिवेश देता है, पात्र देता है, समस्या देता है। इन्हीं के आधार पर वह काल्पनिक ढाँचा तैयार करता है।

आमतौर पर कथानक में प्रारंभ, मध्य और अंत अर्थात् कथानक का पूरा स्वरूप होता है। कथानक में द्वंद्व के तत्त्व भी होते हैं जो कहानी को रोचक बनाए रखते हैं। कथानक के पूर्णता की शर्त यही होती है कि कहानी नाटकीय छंग से अपने उद्देश्य को पूरा करने के बाद समाप्त हो। अंत तक कहानी में रोचकता बनी रहनी चाहिए। यह रोचकता द्वंद्व के कारण ही बनी रह पाती है। कथानक का स्वरूप बन जाने के बाद कहानीकर कथानक के देश काल-वातावरण को समझ लेता है। लेखक जब अपने कथानक के आधार पर कहानी को विस्तार देता है तो उसमें इन सभी चीजों की जानकारियाँ होने की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 12.
(क) चरित्र-चित्रण (पात्रों) का कहानी में क्या स्थान है?
(ख) कहानी से चरित्र-चित्रण की कौन-कौन सी विधियाँ हैं?
उत्तर :
(क) कहानी में चरित्र-चित्रण अर्थात् पात्रों का अत्यंत महत्व्वपूर्ण स्थान होता है। लेखक चरित्र-चित्रण के माध्यम से ही कथा को आगे बढ़ाता है। हर पात्र का अपना स्वरूप, स्वभाव व उद्देश्य होता है। कहानी में वह विकसित भी होता है या अपना स्वरूप भी बदलता है। कहानी में पात्रों की संख्या सीमित ही होनी चाहिए। पात्रों की भीड़ होने पर कहानीकार का उद्देश्य ही गुम हो जाता है। पाठक भी उनके संबंधों के बारे में ताल-मेल नहीं बिठा पाता है।

कहानीकार के सामने पात्रों का स्वरूप जितना स्पष्ट होगा, उतनी ही आसानी से उसे पात्रों का चरित्र-चित्रण करने में तथा उनके संवाद लिखने में सुविधा होगी। इसी कारण पात्रों का अध्ययन कहानी की एक बहुत महत्त्वपूर्ण और बुनियादी शर्त है। इसी के अंतर्गत पात्रों के अतर्संबंधों पर भी विचार किया जाता है। कौन-से पात्र की किस-किस परिस्थिति में क्या प्रतिक्रिया होगी, इसका ज्ञान कहानीकार को होना चाहिए। कहानीकार और उसके पात्रों के मध्य निकटतम संबंध बना रहना चाहिए।

(ख) पात्रों का चरित्र-चित्रण करने के कई तरीके हैं। चरित्र-चित्रण का सबसे सरल तरीका पात्रों के गुणों का कहानीकार द्वारा बखान करना है। जैसे-राधेश्याम बड़ा दानी है, वह बहुत सज्जन है, दूसरों का ध्यान रखता है, परोपकारी है आदि-आदि। पर, यह तरीका प्रभावहीन और आउटडेटिड (Outdated) हैं।

इसके विपरीत पात्रों का चरित्र-चित्रण उनके क्रिया-कलापों, संवादों तथा दूसरे लोगों द्वारा उनके बारे में बोले गए संवादों के माध्यम से अधिक प्रभावशाली होता है। जैसे ” राधेश्याम ने एक गरीब आदमी को सर्दी से ठिठुरते हुए देखा तो उसे अपनी शाल दे दी “अथवा राधेश्याम ने अपनी सहपाठी राजन की फीस जमाकर उसे स्कूल से निकाले जाने से बचा लिया। मतलब यह कि पात्र जो काम करता है, उससे उसके स्वरूप का सशक्त चित्रण होता है। दूसरे पात्र भी किसी अन्य पात्र का चरित्र-चित्रण अपने संवादो के माध्यम से कर सकते हैं, जैसेरमेश अपने मित्र महेश से कहता है-” यार, इतनी बड़ी समस्या को तो राधेश्याम ही सॉल्व कर सकता है। चलो, उसी के पास चलते हैं।” पात्रों का चरित्र-चित्रण पात्रों की अभिरुचियों के माध्यम से भी होता है। समाज के अलग-अलग प्रकार के लोगों की अपने स्वभाव के अनुसार अलग-अलग अभिरुचियाँ होती हैं।

उदाहरणार्थ : एक आदमी जंगल में जाकर खूँखार जानवरों की तस्वीरें खींचता है तो वह व्यक्ति निश्चित रूप से साहसी है। दूसरा व्यक्ति झूठ बोलता है, वेश्यावृत्ति कराता है, दलाली करता है तो ऐसे व्यक्ति का स्वरूप अलग किस्म का होगा।

प्रश्न 13.
संवादों से आप क्या समझते हैं? कहानी में संवादों का क्या स्थान है?
उत्तर :
कहानी में पात्रों द्वारा बोले जाने वाले अंश को संवाद कहते हैं। इसे कथोपकथन भी कहा जाता है। यह बातचीत का अंश होता है। कहानीकार संवादों के माध्यम से दो काम करता है: 1. कथानक का विकास करता है। 2. पात्रों का चरित्र-चित्रण करता है। अर्थात् पात्रों का स्वरूप उजागर करता है। कहानी के संवाद पात्रानुकूल होने चाहिएँ। छोटे संवाद अधिक प्रभावशाली रहते हैं।

कहानी में पात्रों के संबाद महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। बिना संवाद के किसी भी पात्र की कल्पना करना युश्किल है। संवाद ही कहानी को, पात्र को स्थापित तथा विकसित करते हैं। संवाद ही कहानी को गति देते हैं, आगे बढ़ाते हैं। कहानीकार जिस घटना या प्रतिक्रया को होते हुए नहीं दिखा सकता दो संवादों के माध्यम से सामने लाता है। इसलिए संवादों का महत्व बराबर बना रहता है। पात्रों के संवाद लिखते समय इस बात को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि संवाद पात्रों के स्वभाव और पूरी पृष्ठभूमि के अनुकूल हों। संवाद उसके विश्वासों, आदर्शो तथा स्थितियों के अनुकूल भी होने चाहिए। संवाद लिखते समय लेखक तो गायब हो जाता है और पात्र स्वयं संवाद बोलने लगता है। संवाद छोटे, स्वाभाविक और उद्देश्य प्रतिलक्षित होने चाहिए। संवादों का अनावश्यक विस्तार अनेक जटिलताएँ उत्पन्न कर देता है और कहानी में झोल आ जाता है।

प्रश्न 14.
कहानी के चरम-उत्कर्ष (क्लाइमेक्स) के समय लेखक को किस बात का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर :
कथानक के अनुसार कहानी चरम-उत्कर्ष अर्थात् ‘क्लाइमेक्स’-की ओर बढ़ती है। चरम-उत्कर्ष का चित्रण बहुत ध्यानपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि भावों या पात्रों के अतिरिक्त अभिव्यक्ति चरम उत्कर्ष के प्रभाव को कम कर सकती है। कहानीकार की प्रतिबद्धता या उद्देश्य की पूर्ति के प्रति अतिरिक्त आग्रह कहानी को भाषण में बदल सकते हैं। इसका सर्वोंत्तम तरीका यह है कि चरम-उत्कर्ष पाठकों को स्वयं सोचने और लेखकीय पक्षधर की ओर आने के लिए प्रेरित करें, लेकिन पाठक को यह भी लगना चाहिए कि उसे स्वतंत्रता दी गई है और उसने जो निर्णय निकाले हैं, वे उसके अपने हैं।

प्रश्न 15.
कथानक में द्वंद्व का क्या स्थान है?
उत्तर :
कथानक के बुनियादी तत्त्वों में द्वंद्य का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। द्वंद्ध ही कथानक को आगे बढ़ाता है। उदाहरण के लिए अगर दो आदमी किसी बात पर सहमत हैं तो उनके बीच कोई द्वंद्ध नहीं है और बातचीत आमतौर पर आगे नहीं बढ़ पाती। लेकिन यदि उनमें असहमति है तो बातचीत आगे बढ़ेगी। कहानी में द्वंद्ध दो विरोधी तत्चों का टकराव या किसी की खोज में आने वाली बाधाओं, अंतर्द्व द आदि के कारण पैदा होता है। कहानीकार अपने कथानक में द्वृंद्व के बिंदुओं को जितना स्पष्ट रखेगा, कहानी भी उतनी सफलता से आगे बढ़ेगी। कहानी में द्वंद्ध आवश्यक है।

प्रश्न 16.
पटकथा से आप क्या समझते हैं? इसको लिखने की विधि संक्षेप में बताइए।
उत्तर :
‘पटकथा’ शब्द ‘पट+कथा’ से मिलकर बना है। ‘कथा’ का मतलब कहानी है और ‘पट’ का अर्थ है-परदा। अर्थात् ऐसी कथा जिसे परदे (सिनेमा-टी.वी.) पर दिखाया जा सके। मनोहर श्याम जोशी के अनुसार- “पटकथा कुछ और नहीं, कैमरे से फिल्म के परदे पर दिखाए जाने के लिए लिखी हुई कथा होती है किसी भी फिल्म या धारावाहिक बनाने के लिए एक पटकथा की आवश्यकता होती है। कथा ही नहीं होगी तो पटकथा कैसे लिखी जाएगी? इसके कई स्रोत हो सकते हैं-आस-पास की जिंदगी में घटी कोई घटना, अखबार में छपा कोई समाचार अथवः कल्पना-शक्ति से उपजी कोई कहानी, इतिहास के पन्नों से झाँकता कोई किस्सा, या साहित्य की कोई अन्य विधा। ‘पटकथा’ को अंग्रेजी में ‘स्क्रीन प्ले’ कहते हैं। इसमें पात्र होते हैं, घटनास्थल होते हैं। नाटक और पटकथा में अंतर है।

  • नाटक दृश्य लंबे होते हैं और फिल्मों में छोटे।
  • नाटक में घटनास्थल सीमित होते हैं, जबकि फिल्म में इसकी कोई सीमा नहीं होती।
  • नाटक का पूरा कार्य व्यापार एक ही मंच पर घटित होता है। जबकि फिल्म या धारावाहिक की शूटिंग अलग-अलग स्थानों पर हो सकती है।
  • नाटक में पात्रों की संख्या को सीमित रखना पड़ता है जबकि सिनेमा या टी.वी. में ऐसा कोई बंधन नहीं होता।
  • नाटक की कथा का विकास ‘लीनियर’ अर्थात् एक रेखीय होता है, जबकि सिनेमा में फ्लैश बैक या फ्लैश फारवर्ड तकनीकों का इस्तेमाल कर घटनाक्रम को किसी भी रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।

पटकथा की मूल इकाई होती है-दृश्य। एक स्थान पर एक ही समय में लगातार चल रहे कार्य व्यापार के आधार पर एक दृश्य निर्मित होता है। कथानक दृश्यों में बदलने का क्रम चलता रहता है। पटकथा लिखने का विशिष्ट ढंग यह है कि हमेशा दृश्य संख्या के साथ दृश्य की लोकेशन या घटना स्थल लिखा जाता है-वो कमरा है, पार्क है, सुबह है या शाम है। आमतौर पर ये सूचनाएँ अंग्रेजी में लिखी जाती हैं। आमतौर पर INT. (इंटीरियर) अथवा EXT शब्दों का प्रयोग होता है। पटकथा लिखने का यही अंतराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत प्रारूप है। अब तो कम्प्यूटर पर भी पटकथा लेखन का प्रारूप तैयार किय जाता है।

(ग) नाटक –

प्रश्न 17.
नाटक क्या होता है? यह कहानी से किस रूप में भिन्न होता है?
उत्तर :
भारतीय साहित्य परंपरा में नाटक को ‘श्रव्यकाव्य’ की संज्ञा दी गई है। साहित्य की अन्य विधाएँ लिखित रूप में होती हैं, जबकि नाटक लिखित रूप से दृश्यता की ओर अग्रसर होता है। जब तक नाटक अपने लिखित रूप में रहता है, तब तक वह एक आयामी ही रहता है। पर जब नाटक का मंचन हमारे सामने आता है तब जाकर उसमें संपूर्णता आती है। निष्कर्ष रूप में साहित्य की दूसरी विधाएँ पढ़ने या फिर सुनने तक की यात्रा तय करती हैं, वहीं नाटक पढ़ने, सुनने के साथ-साथ देखने के तत्त्व को भी अपने भीतर समेटे रहता है।

नाटक को काव्य का उत्कृष्ट रूप माना जाता है। इसका रंगमंच पर अभिनय किया जाता है। नाटक का वास्तविक आनंद् तभी प्राप्त होता है जब हम रंगमंच पर इसका अभिनय होते हुए देखते हैं। नाटक को तीन या अधिक अंकों में विभाजित किया जाता है। प्रत्येक-अंक दृश्यों में विभाजित होता है। इसका कथानक प्राय: किसी महान व्यक्ति के जीवन पर आधारित होता है। वही व्यक्ति नाटक का नायक कहलाता है।

नाटक में मुख्य कथा के साथ-साथ गौण या प्रासंगिक कथाएँ भी रहती हैं। नाटक में पात्रों का चरित्र-चित्रण सजीव रूप से किया जाता है। कथोपकथन (संवाद) को नाटक का प्राण माना जाता है। नाटक का उद्देश्य महान होता है। नाटक और कहानी में अंतर है। जहाँ कहानी का संबंध लेखक और पाठक से जुड़ता है, वहीं लेखक, निर्देशक, पात्र, दर्शक, श्रोता तथा अन्य लोगों से जुड़ता है। कहानी कही जाती है या पढ़ी जाती है, जबकि नाटक देखा जाता है। नाटक को मंच पर प्रस्तुत किया जाता है। नाटक में अभिनय, मंच-सज्जा, प्रकाश व्यवस्था, संगीत आदि का समावेश होता है। नाटक में द्वंद्व कहानी की तुलना में अधिक होता है।

प्रश्न 18.
आधुनिक नाटक के तत्त्वों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
आधुनिक नाटक के निम्नलिखित तत्त्व निर्धारित किए गए हैं :
1. कथावस्तु या कथानक : नाटक का कथानक ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक, सामाजिक या काल्पनिक हो सकता है। कथावस्तु के विकास की चार अवस्थाएँ मानी गई हैं- आरंभ, विकास, संघर्ष तथा चरमोत्कर्ष।
2. पात्र या चरित्र-चित्रण : नाटक में नायक, प्रतिनायक, नायिका तथा अन्य पात्र होते हैं। बिना पात्रों के कोई नाटक संभव नहीं है।
3. संवाद या कथोपकथन : जिस प्रकार नाटक बिना पात्रों के नहीं हो सकता, उसी प्रकार पात्रों में परस्पर संवादों या बातचीत के बिना नाटक संभव नहीं है। संवाद दो प्रकार के होते हैं-स्वगत और प्रकट। स्वगत कथन से आशय है कि कोई पात्र अपने मन में जो कुछ सोचता है, उसे पात्र के मुँह से कहलवाना। नाटक के मंचन के समय यह मान लिया जाता है कि किसी भी पात्र के स्वगत कथन को नाटक का कोई दूसरा पात्र नहीं सुन रहा है, केवल दर्शक उसे सुन रहे हैं। प्रकट कथन मंच पर उपस्थित किसी दूसरे पात्र को या कई पात्रों को संबोधित होता है। इसे सभी लोग सुन सकते हैं।
4. देश-काल-वातावरण : जिस प्रकार की कथावस्तु नाटक में ली गई है, उसके अनुसार देश-काल तथा वातावरण का चित्रण नाटककार को करना चाहिए। यह पात्रों के रहन-सहन, वेशभूषा तथा मंच-सज्जा से संभव है।
5. भाषा-शैली : नाटक के संवाद किसी-न-किसी भाषा में ही होते हैं। नाटक की भाषा पात्र, कथा तथा देश-काल और वातावरण के अनुरूप होती है।
6. उद्देश्य : नाटक एक ऐसी विधा है, जिसका प्रदर्शन कई लोग एक साथ देखते हैं। अत: यह आवश्यक हो जाता है कि नाटक समाज के लिए किसी प्रयोजन (उद्देश्य) की पूर्ति करे। नाटककार अपने नाटक के माध्यम से दर्शकों को कुछ संदेश देता है।
7. रंग-निर्देश : अभिनेताओं को नाटक की प्रस्तुति के समय कब क्या करना है, इस प्रकार के निर्देश रंग-निर्देश (रंग-संकेत) कहे जाते हैं।
8. अभिनेयता : नाटक की सच्ची कसौटी उसकी रंगमंच पर सफल प्रस्तुति ही है। अतः नाटक का अभिनय किया जाना जरूरी है।

प्रश्न 19.
नाटक लिखते समय ‘समय का बंधन’ को याद करना क्यों जरूरी है?
उत्तर :
नाटक लिखने में ‘समय का बंधन’ को हमेशा याद रखना जरूरी है। समय का यह बंधन नाटक की रचना पर पूरा-पूरा असर डालता है। इसीलिए नाटक को शुरू से लेकर अंत तक एक निश्चित समय-सीमा के भीतर पूरा होना होता है। नाटककार अगर अपनी रचना को भूतकाल से अथवा किसी और लेखक की रचना को भविष्यत काल से उठाए, पर इन दोनों स्थितियों में उसे नाटक को वर्तमान काल में ही संयोजित करना होता है। यही कारण है कि नाटक के मंच-निर्देश हमेशा वर्तमान काल में ही लिखे जाते हैं। चाहे काल कोई भी हो उसे एक विशेष समय में, एक विशेष स्थान पर, वर्तमान काल में ही घटित होना होता है। समय को लेकर एक और तथ्य यह है कि साहित्य को दूसरी विधाओं-कहानी, उपन्यास या कविता को हम कभी भी पढ़ते-सुनते हुए बीच में रोक सकते हैं। और कुछ समय बाद फिर वहीं से शुरु कर सकते हैं। पर नाटक के साथ ऐसा संभव नहीं है। नाटककार को यह भी सोचना जरूरी है कि दर्शक कितनी देर तक किसी घटना को घटित होते हुए देख सकता है, इसलिए उसे समय का ध्यान रखना भी जरूरी हो जाता है। नाटक में तीन अंक होते है। अतः उसे भी समय को ध्यान में रखकर बाँटने की जरूरत होती है। नाटककार से यह अपेक्षा की जाती है कि नाटक के हरेक अंक की अवधि कम-से-कम 48 मिनट की हो। यही सब समय का बंधन है।

प्रश्न 20.
‘शब्द’ को नाटक का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग क्यों माना गया है?
उत्तर :
‘शब्द’ को नाटक का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है। वैसे तो यह साहित्य की सभी विधाओं के लिए आवश्यक है, पर साहित्य को दो विधाओं-कविता और नाटक में शब्द का विशेष महत्त्व है। नाटक की दुनिया में शब्द अपनी एक नई, निजी और अलग अस्मिता ग्रहण करता है। हमारे नाट्यशास्त्र में भी वाचिक अर्थात् बोले जाने वाले शब्दों को नाटक का शरीर कहा गया है। कविता में शब्द बिंब और प्रतीक में बदलने की क्षमता रखते हैं। नाटक में कहानी हमारी आँखों के सामने घटित होती है। एक सफल नाटककार के लिए यह जरूरी है कि वह अधिक से अधिक संक्षिप्त और सांकेतिक भाषा का प्रयोग करे। उसके शब्दों में दृश्य बनाने की क्षमता भरपूर हो और वह अपने शाब्दिक अर्थ से ज्यादा व्यंजना की ओर ले जाए। अच्छा नाटक वही होता है जो लिखे या बोले गए शब्दों से भी ज्यादा उसे ध्वनित करे, जो लिखा या बोला नहीं जा रहा। नाटक का मात्र एक मौन, अंधकार या ध्वनि-प्रभाव कहानी या उपन्यास के 20-25 पृष्ठों की बराबरी कर सकता है।

प्रश्न 21.
नाटक के लिए कथ्य क्यों जरूरी होता है?
उत्तर :
नाटक के लिए जरूरी होता है-उसका कथ्य। पहले कहानी के रूप को किसी शिल्प, फॉर्म अथवा संरचना के भीतर पिरोना होता है। इसके लिए नाटककार को शिल्प या संरचना की पूरी समझ, जानकारी या अनुभव होना चाहिए। यह बात हमेशा याद रखनी होती है कि, नाटक को मंच पर मंचित होना है। अतः नाटककार को रचनाकार के साथ-साथ एक कुशल संपादक भी होना चाहिए। उसे यह आना चाहिए कि वह पहले घटनाओं, स्थितियों अथवा दृश्यों का चुनाव कैसे करें, फिर उन्हें किस क्रम में रखा जाए कि वे शून्य से शिखर की ओर आगे बढ़ सकें।

प्रश्न 22.
नाटक में संवादों का क्या स्थान है?
उत्तर :
नाटक में संवाद दो काम करते हैं। एक, कथा का विकास करते हैं, दूसरे पात्रों के चरित्र को उद्घाटित करते हैं। नाटक का काम संवादों के बिना नहीं चल सकता। नाटक के लिए तनाव, उत्सुकता, रहस्य, रोमांच और अंत में उपसंहार जैसे तत्त्व अनिवार्य हैं। इनके लिए आपस में विरोधी विचारधाराओं का संवाद होना जरूरी होता है। नाटक के संवाद पात्रानुकूल होने चाहिएँ। वह कौन-सी चीज़ है जो एक सशक्त नाटक को एक कमजोर नाटक से अलग करती है और वह है-संवादों का अपने आप में वर्णित या चित्रित न होकर क्रियात्मक होना, दृश्यात्मक होना तथा लिखे जाने वाले संवादों से भी ज्यादा उन संवादों के पीछे निहित अनलिखे एवं अनकहें संवादों की ओर ले जाना, जिन्हें अंग्रेजी भाषा में सब टैक्सट (Sub Text) कहा जाता है। जिस नाटक में इस तत्त्व की जितनी ज्यादा संभावनाएँ होंगी, वह नाटक उतना ही सफल होगा। जैसे स्कन्दगुप्त नाटक का यह संवाद- “अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है”‘- संवाद की अनगिनत संभावनाओं को उजागर कर देता है।

प्रश्न 23.
नाटक में टकराहट की स्थिति कब उत्पन्न होती है?
उत्तर :
नाटक एक जीवंत माध्यम है। कोई भी दो चरित्र आपस में मिलते हैं तो विचारों के आदान-प्रदान में टकराहट पैदा होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि रंगमंच प्रतिरोध का सबसे सशक्त माध्यम है। वह कभी भी यथास्थिति को स्वीकार नहीं कर सकता। इस कारण उसमें अस्वीकार की स्थिति बराबर बनी रहती है। क्योंकि कोई भी जीता-जागता संवेदनाशील प्राणी वर्तमान परिस्थितियों को लेकर असंतुष्टि, छटपटाहट, प्रतिरोध और अस्वीकार जैसे नकारात्मक तत्त्वों की जितनी ज्यादा उपस्थिति होगी, उतना ही वह नाटक गहरा और सशक्त नाटक होगा। हम अंधायुग. तुगलक आदि नाटकों में इसे देख सकते हैं। यही वजह है कि हमारे आधुनिक नाटककारों को राम की अपेक्षा रावण, प्रहलाद की अपेक्षा हिरण्यकश्य, कृष्ण की अपेक्षा कंस अधिक आकर्षित करते हैं।

प्रश्न 24.
नाटक के चरित्रों का विकास कैसे होना चाहिए?
उत्तर :
नाटक लिखते समय यह जरूरी है कि उसमें जो चरित्र प्रस्तुत किए जाएँ वे सपाट, सतही और टाइप्ड न हों। नाटक की कहानी में चरित्रों के विकास में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे स्थितियों के अनुसार अपनी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करते चलें। नाटककार अपने नाटक के कथानक के माध्यम से जो कुछ भी कहना चाहता है, उसे अपने चरित्रों और उनके बीच होने वाले संवादों से ही अभिव्यक्त करता है। लेकिन ऐसा कभी नहीं लगना चाहिए कि वह पहले से ही अपने निश्चित विचारों को मात्र शब्दों के माध्यम से व्यक्त कर रहा है। ऐसी स्थिति में नाटक ‘नाटक’ न रहकर सिर्फ शब्दों के रूप में विचारों का एक पुंज सा होकर रह जाता है। हमें यह याद रखना चाहिए

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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CBSE Class 12 Hindi Elective रचना समाचार लेखन / आलेख लेखन

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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana समाचार लेखन / आलेख लेखन

1. समाचार लेखन

प्रश्न 1.
समाचार क्या है?
उत्तर :
हम हर रोज समाचार पत्र पढ़ते हैं या टी.वी, रेडियो पर समाचार सुनते हैं। अब तो इंटरनेट पर भी समाचार पढ़ते-देखते हैं। इन विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए दुनिया भर के समाचार हमारे घरों तक पहुँचते हैं। समाचार-संगठनों में काम करने वाले पत्रकार देश-विदेश में घटित होने वाली घटनाओं को समाचार के रूप में परिवर्तित करके हम तक पहुँचाते हैं। वे रोज सूचनाओं का संकलन करते हैं और उन्हें समाचार के प्रारूप में ढालकर प्रस्तुत करते हैं।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं:

  • प्रेरक और उत्तेजित कर देने वाली हर सूचना समाचार होती है।
  • समय पर दी जाने वाली हर सूचना समाचार का रूप धारण कर लेती है।
  • किसी घटना की रिपोर्ट ही समाचार है।
  • समाचार जल्दी में लिखा गया इतिहास है।

समाचार को हम इन शब्दों में भी परिभाषित कर सकते हैं: “समाचार किसी भी ऐसी ताजा घटना, विचार या समस्या की रिपोर्ट हैं, जिसमें अधिक से अधिक लोगों की रुचि हो और जिसका अधिक से अधिक लोगों पर प्रभाव पड़ रहा हो।”

प्रश्न 2.
समाचार के तत्त्व कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
समाचार के तत्त्व निम्नलिखित हैं :

प्रश्न 3.
समाचार कैसे लिखा जाता है?
उत्तर :

  • पत्रकारीय लेखन का सबसे जाना-पहचाना रूप है-समाचार-लेखन।
  • आमतौर पर अखबारों में समाचार-लेखन का कार्य पूर्णकालिक और अंशकालिक पत्रकार करते हैं। अब कुछ स्थानीय संवाददाता भी घटना का सचित्र विवरण अपने मोबाइल पर खींचकर समाचार पत्र कार्यालय को प्रेषित कर देते हैं।
  • अखबारों में प्रकाशित अधिकांश समाचार एक खास शैली में लिखे जाते हैं। इस शैली को ‘उल्टा पिरामिड शैली’ कहा जाता है।

प्रश्न 4.
उल्टा पिरामिड शैली में समाचार कैसे लिखा जाता है ?
उत्तर :
उल्टा पिरामिड शैली (इंवर्टेड पिरामिड स्टाइल) समाचार-लेखन की सबसे लोकप्रिय, उपयोगी और बुनियादी शैली है।
CBSE Class 12 Hindi Elective रचना समाचार लेखन आलेख लेखन 1

यह शैली कहानी या कथा-लेखन की शैली के ठीक उल्टी है। इसमें क्लाइमेक्स बिल्कुल आखिर में आता है। इसे उल्टा पिरामिड शैली इसीलिए कहा जाता है क्योंकि इससे सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य या सूचना ‘यानी क्लाइमेक्स’ पिरामिड के सबसे निचले हिस्से में नहीं होती बल्कि इस शैली में पिरामिड को उल्टा दिया जाता है। उल्टा पिरामिड शैली में किसी भी घटना, समस्या या विचार के सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य, सूचना या जानकारी को सबसे पहले पैराग्राफ में लिखा जाता है। इसके बाद उस पैराग्राफ में उससे कम महत्त्वपूर्ण सूचना या तथ्य की जानकारी दी जाती है। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक समाचार खत्म नहीं हो जाता।

प्रश्न 5.
समाचार-लेखन के छह ककार कौन-से हैं?
उत्तर :
किसी भी समाचार को लिखते हुए मुख्यतः छह सवालों का जवाब देने की कोशिश की जाती है। इन्हें छह ककार कहा जाता है। ये छह ककार हैं :

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना समाचार लेखन आलेख लेखन 2

क्या हुआ ?
किसके साथ हुआ ?
कहाँ हुआ ?
कब हुआ ?
कैसे हुआ ?
क्यों हुआ ?

किसी भी घटना, समस्या या विचार से संबंधित खबर लिखते समय इन छह ककारों को ही ध्यान में रखा जाता है।
समाचार के मुखड़े (इंट्रो) यानी पहले पैराग्राफ या शुरूआती 2-3 पंक्तियों में आमतौर पर तीन या चार ककारों को आधार बनाकर खबर लिखी जाती है। ये चार ककार हैं-क्या, कौन, कब और कहाँ? इसके बाद समाचार की बॉडी और समापन में बाकी दो ककारों – कैसे, क्यों का जवाब दिया जाता है।
इस तरह छह ककारों के आधार पर समाचार तैयार होता है। इनमें पहले चार ककार (क्या, कौन, कब, कहाँ) सूचनात्मक और तथ्यों पर आधारित होते हैं, जबकि बाकी दो ककार (कैसे, क्यों) में विवरणात्मक, व्याख्यात्मक और विश्लेषणात्मक पहलू पर जोर दिया जाता है।

प्रश्न 5.
समाचार-लेखन के कुछ नमूने।
समाचार-लेखन के नमूने

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2. आलेख लेखन

खेल
अर्थ-व्यापार
विज्ञान-प्रौद्योगिकी
विदेश
रक्षा
पर्यावरण
शिक्षा
स्वास्थ्य
फ़ल्म-मनोरंजन
अपराध
सामाजिक मुद्दे
कानून आदि।

प्रश्न :
आलेख क्या होता है ?
उत्तर :
आलेख एक प्रकार के लेख होते हैं, जो संपादकीय पृष्ठ पर ही प्रकाशित होते हैं। ये संपादकीय से हटकर होते हैं। इन लेखों की अनिवार्य शर्त यह होती है कि वे किसी समाचार अथवा घटना क्रम पर आधारित होते हैं। ये लेख किसी भी क्षेत्र से संबंधित हो सकते हैं-राजनीति, विज्ञान, समाज, साहित्य, खेल, फैशन, फिल्म, व्यापार, पर्यटन आदि। इनमें सूचनाओं का होना अनिवार्य है। आजकल सभी अखबारों की यह कोशिश रहती है कि ऐसे लेख प्रकाशित किए जाएँ, जिनमें समाचारों और सूचना का अधिक से अधिक समावेश हो।

सी.बी.एस.ई. की विभिन्न परीक्षाओं में पूछे गए आलेख संबंधी प्रश्न

प्रश्न :
किसी एक विषय पर आलेख लिखिए।
1. गोदामों में सड़ता अनाज

आज गरीब लोग भुखमरी का शिकार होकर मर रहे हैं और सरकार दावा कर रही है कि हमारे गोदाम अनाज से भरे हुए हैं। यह कितनी हास्यास्पद स्थिति है। गोदामों में अनाज सड़ रहा है और सरकार उसे जरूरतमंदों में वितरित तक नहीं पा रही है। सड़े अनाज को सरकार फिकवा देगी, पर उसे भूखे गरीबों को मुप्त में नहीं देगी। यह कैसी विडंबना है। पिछले दिनों मध्य प्रदेश में किसानों से प्याज तो खरीदा गया, पर रख-रखाव के अभाव में वह वर्षा में सड़ गया और उसे फेंकना पड़ा। ऐसा प्रतीत होता है सरकार पर लालफीताशाही पूरी तरह से हावी है और सरकार मूकदर्शक बनकर बैठी हुई है। उसकी संवेदनहीनता आश्चर्य और दुःख का विषय है। यह तो गरीबों के साथ क्रूर मजाक हो रहा है। सरकार का गरीबों का हमदर्द होने का दावा कितना खोखला है, यह गोदामों में सड़ते अनाज से उजागर हो जाता है।

2. चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता

विभिन्न राजनैतिक दल चुनावों को लेकर तरह-तरह के प्रश्न उठाते रहते हैं। उनकी दृष्टि में चुनाव आयोग की निष्षक्षता भी संदेह के घेरे में है। चुनावों में प्रयुक्त इलेक्ट्रॉंनिक वोटिंग मशीन में प्रश्नचिह्द लगाए जाते हैं। अत: चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता का प्रश्न उठना पूरी तरह स्वाभाविक है। चुनाव व्यवस्था का पारदर्शी होना नितांत आवश्यक है। चुनाव व्यवस्था का पारदर्शी होना और दिखना दोनों बहुत जरूरी हैं। वैसे चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संस्था है और उस पर प्रत्यक्ष रूप से सरकार का कोई नियंग्रण नहीं है, फिर भी वह कुछ वर्षों से चर्चा का विषय बनी हुई है। चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता लाकर ही आयोग की विश्वसनीयता स्थापित हो सकेगी। लोकतंत्र की सफलता में चुनावों का पारदर्शी होना बहुत आवश्यक है। चुनाव आयोग को अधिक सख्ती के साथ नियमों का क्रियान्वयन करके अपनी पारदिर्शता सिद्ध करनी होगी। इस बात पर सभी सहमत हैं कि चुनाव व्यवस्था पारदर्शी होनी चाहिए।

3. अँधेरे में डूबता गाँव

इक्कीसवी सदी में भी यह कल्पना करना कि कोई गाँव अभी तक अँधरे में डूबा रहता है। विज्ञान की उन्नति अपने चरम पर है और गाँव अँधेरे में डूबा हुआ है। अभी तक अनेक ऐसे गाँव हैं जहाँ तक बिजली की रोशनी नहीं पहुँच पाई है। आदिवासी क्षेत्रों में ऐसे अनेक गाँव हैं जो अभी तक रात के समय अँधरे में डूबे रहते हैं। आजादी को आए 72 वर्ष बीत गए, पर इन गाँवों में अभी तक बिजली की रोशनी नहीं पहुँच पाई है। यह स्थिति अत्यंत चिताजनक है। सरकार दावा कर रही है कि उसने हजारों गाँवों तक बिजली पहुँचा दी है, पर घरों तक बिजली अभी भी नहीं पहुँच पाई है। यदि एक गाँव भी अभी अँधेरे में डूबा रहता है तो यह देश की तरक्की पर प्रश्नचिह्न लगाने के लिए पर्याप्त है। अँधेरा गाँव की प्रगति में बाधक है। बिजली के अभाव में कृषि कार्य भी कुशलतापूर्वक सम्पन्न नहीं हो पाता है। सरकार को ऐसी ठोस योजना बनानी और क्रियान्वित करनी होगी कि कोई गाँव अँधेरे में डूबा न रहे। तभी सच्चे अर्थों में विकास की कहानी सार्थक मानी जाएगी।

4. भारतीय कृषक की असहायता

यद्यपि भारत एक कृषि प्रधान देश है, पर भारत के कृषक भारी असहायता का दंश झेल रहे हैं। उनकी सहायता करने वाला कोई नहीं है। सभी दल स्वयं को किसानों का हमदर्द बताने में पीछे नहीं रहते, पर उनकी दशा सुधारने वाला कोई नहीं है। वैसे किसान को अन्नदाता कहकर उसके गुणगान किए जाते हैं, पर उन्हें असहाय अवस्था में छोड़ दिया जाता है। पिछले वर्षो में हजारों किसानों ने आत्महत्या कर अपनी असहाय स्थिति को दर्शा दिया है। किसान भारी कर्जे के बोझ तले दबे रहते हैं। हाँ, चुनावों के समय उनसे लंबे-चौड़े वादे अवश्य किए जाते हैं, पर चुनाव जीते के बाद उन्हें पूरी तरह से भुला दिया जाता है। किसानों की असहायता का एक बड़ा नमूना यही है कि उन्हें औने-पौने दामों पर अपनी फसल बेचने को विवश होना पड़ता है। न उनके खेतों की सिंचाई की उचित व्यवस्था है और न खाद-बीज का संतोषजनक प्रबंध है। वह कठिन परिश्रम करके भी मोहताज बना हुआ है। सरकार को यह समझना होगा कि किसानों की दशा सुधारे बिना देश की कभी तरक्की नहीं होगी। उन्हें असहाय नहीं बने रहने देना है। हमें उन्हें समर्थ बनाना होगा।

5. रोजगार के बढ़ते अवसर

भारत की एक प्रमुख समस्या है-बेरोजगारी। इस समस्या ने युवा वर्ग को दिशाहीन बना दिया है। अब सरकार का ध्यान इस समस्या के समाधान की ओर गया है। यद्यपि उसने प्रति वर्ष 2 करोड़ युवक-युवतियों को रोजगार दिलाने का वादा किया था, यह वादा तो पूरा होता नहीं दिख रहा, पर इस दिशा में प्रयास अवश्य जारी हैं। रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं। रोजगार से तात्पर्य केवल नौकरी पा जाने से नहीं लिया जाना चाहिए, बल्कि आय के साधन उपलब्ध कराए जाने से लिया जाना चाहिए। सरकार बेरोजगार युवक-युवतियों को बैंकों से बहुत कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध करा रही है ताकि वे अपना कोई काम-धंधा शुरू कर सकें। इससे वे स्वयं तो कमाएँगे ही, साथ अन्य लोगों को भी रोजगार दे सकते हैं। ऐसा होता दिखाई भी दे रहा है। लाखों युवक-युवतियों ने बैंक से ऋण लेकर अपना छोटा-मोटा उद्योग स्थापित किया है और इसके माध्यम से अन्य बेरोजगारों को रोजगार दिया है। स्कूल-कॉलेजों में तकनीकी और व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जा रहा है और रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती दिखाई दे रही है। अब कम शिक्षित युवक-युवतियों को कौशल विकास (Skill Development) के माध्यम से रोजगार उपलब्ध कराए जा रहे हैं। आशा की जा सकती है कि शीघ्र ही स्थिति में गुणात्मक सुधार होगा।

6. भारी बस्तों के बोझ से दबता बचपन

हमारे स्कूल के बच्चे भारी बस्ते के बोझ तले दबकर अपना बचपन खोते जा रहे हैं। विशेषकर पब्लिक स्कूल छोटे-छोटे बच्चों के बस्तों में इतनी अधिक किताबों का बोझ लाद देते हैं कि वह बस्ता उनसे उठाया तक नहीं जाता। यहाँ तक कि नर्सरी, के.जी. और पहली कक्षा के बच्चों को अपने वजन के बराबर का बस्ता अपनी पीठ पर लादकर स्कूल ले जाना पड़ता है। स्कूल प्रबंधन अपने कमीशन के चक्कर में अधिक से अधिक किताबें कोर्स में लगा देता है और उनके लालच का दुष्परिणाम छोटे बच्चों को भोगना पड़ता है। यद्यपि सी.बी.एस.ई. ने इस बोझ को घटाने के निर्देश अनेक बार दिए हैं, पर स्कूल हैं कि मानते नहीं। पिछले दिनों एक कमेटी ने कक्षावार बस्ते के भार की एक सूची भी जारी की थी। छोटी कक्षा के बस्ते का भार 2.5 किलो से अधिक नहीं होना चाहिए। बच्चों को टाइम टेबल के अनुसार ही किताबें और कापियाँ लेकर स्कूल जाना चाहिए। बच्चों पर अनावश्यक किताब-कापियों का बोझ लाद दिया जाता है। इससे उनका बचपन गायब होता जा रहा है। न बच्चों को खेलने का समय मिल पाता है और न मौज-मस्ती करने का। इस अनावश्यक बोझ से उन्हें मुक्ति दिलाई जानी चाहिए।

7. प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग और उसके दुष्परिणाम

देश में प्लास्टिक का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। आज बाजार में अनेक वस्तुएँ प्लास्टिक से बनी बिक रही हैं। पहले जिन वस्तुओं में धातुओं का उपयोग होता था, अब वे प्लास्टिक से बन रही हैं। यहाँ तक कि पानी की पाइपें भी प्लास्टिक की आ रही हैं और दावा किया जा रहा है कि ये धातु से अधिक मजबूत और जंगरोधी हैं। घरों की रसोई में भी प्लास्टिक से बनी चीजों की भरमार हो रही है। अव तो पीने वाली अधिकांश दवाइयाँ भी प्लास्टिक की बोतलों में आ रही हैं। शीतल पेय की तो अधिकांश बोतलें प्लास्टिक से ही बनी होती हैं। तर्क दिया जाता है कि ये हल्की एवं टिकाऊ हैं। प्लास्टिक के फर्नीचर का प्रचलन भी निरतर बढ़ता चला जा रहा है। अधिकांश चीजों की पैकिंग भी प्लस्टिक से ही की जा रही है।

जहाँ प्लास्टिक इतना बहुउपयोगी है, वहीं इसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। प्लास्टिक में रखी चीजें स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक मानी जाती हैं। प्लास्टिक का पतला रूप पॉलीथीन है। इसकी बनी थैलियाँ सामान लाने-ले जाने के लिए प्रयुक्त होती हैं। इन थैलियों को उपयोग के बाद कूड़े या सड़क पर फेंक दिया जाता है। इन्हें पशु, विशेषकर गाएँ खाद्य पदार्थों के साथ निगल जाती हैं। ये थैलियाँ उनके पेट में चली जाती हैं। प्लास्टिक के प्रयोग से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। प्लास्टिक और पॉलिथीन कभी पूरी तरह से नष्ट नहीं होती। सरकार ने इसके प्रयोग पर प्रतिबंध तो लगाया है, पर अभी भी इसका प्रयोग चल रहा है। हमें इसका उपयोग तत्काल प्रभाव से बंद करना ही होगा।

8. कहाँ नहीं है भ्रष्टाचार !

‘कहाँ नहीं है भ्रष्टाचार !’ शीर्षक यह बताने के लिए काफी है कि देश में ऐसा कोई कोना नहीं बचा है जहाँ भ्रष्टाचार देवता उस क्षेत्र की कुर्सी पर आसीन न हो। चाहे राजनीति का क्षेत्र हो, चाहे धर्म का; चाहे आर्थिक क्षेत्र हो और चाहे साहित्य का; चाहे संस्कृति का क्षेत्र हो और चाहे कला का और चाहे पुलिस का क्षेत्र हो या खाद्य का। मतलब यह है कि इंसान के जर्रे-जर्र में भ्रष्टाचार ने अपनी जड़े जमा ली हैं। यों अगर कोई भ्रष्टाचार को परिभाषित करना चाहे तो कर सकता है कि जब मर्यादा से बाहर रहकर काम किया जाने लगता है तो वह भ्रष्टाचार की सीमा में आ जाता है।

आप छोटा-सा काम करवाने के लिए किसी सरकारी दप्तर जाइए। सरकारी कर्मचारी आपका काम टालने की नई युक्तियाँ गढ़ता नज़र आएगा। अब आप जरा उस पर सुविधा शुल्क का राम-बाण छोड़ेंगे, आपका काम मिनटों में छोड़िए, सेकेण्डों में हो जाएगा। अगर आप शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं तो शिक्षक महोदय धन या यौन भावना से छात्र-छात्रा का शोषण का रास्ता निकाल लेगा। कक्षा में ज्यादा नंबर देने, या बोर्ड़ की परीक्षा में पास कराने जैसे सब्ज दिखाकर भ्रष्टाचार-व्याभिचार कर बैठेगा। यानी भ्रष्ट आचरण का परिचय देगा। आर्थिक क्षेत्र में खाद्य पदार्थों की मिलावट में भ्रष्टाचार मिल जाएगा।

मिर्च का पाउडर ले रहे हों या दूध और दूध से बनी मिठाइयाँ, मिलावट भ्रष्टाचार के रूप में साथ लगी मिलेगी। कला के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए धन और यौवन का उपयोग हो रहा है। पुलिस के महकमे की भी यही बात है। आपका थाने में काम पड़ जाए। एक अदद रिपोर्ट के लिए आपको अपनी जेब ढीली करनी पड़ जाती है। एक साधारण सिपाही जिसकी तनख्वाह का साधारण आदमी भी अंदाज लगा सकता है कैसे कुछ सालों में अकूत संपत्ति जोड़ लेता है इसकी जाँच की कभी किसी सरकार को जरूरत नहीं पड़ी। जब व्यक्ति अपनी महत्वाकांक्षा बढ़ा लेता है, तब भ्रष्टाचार का आश्रय लेकर उन्हें पूरा करता है। धार्मिक क्षेत्र में यंत्र, मंत्र और तंत्र के बल पर कथित धार्मिक नेता लोगों को बहकाकर उनसे धन ऐंठते हैं और महिलाओं से दुराचार करते हैं। राजनीति में आगे बढ़ने के लिए प्रायः ये सब चीजें इस्तेमाल करते हैं। आए दिन नेता भ्रष्टाचार-व्याभिचार में फँसते नज़र आते हैं। यह कहिए कि ‘जहाँ जहाँ पाँव पड़े भ्रष्टाचारिन के तहाँ तहाँ बंटाधार।’

9. चुन लिए जाने पर अपने चुनाव क्षेत्र की अनदेखी करने की प्रवृत्ति

भारतीय राजनीति अब देशहित से ज्यादा स्वार्थहित पर निर्भर हो गई है। चुनाव आते हैं, चुनाव में उम्मीदवार जनता के पास वोट माँगने आते हैं। उनके हित का तरह-तरह से ख़्याल रखने के आश्वासन देते हैं। इन आश्वासनों के बल पर जनता भी उन्हें चुनाव में जीत दर्ज करा देती है। चुनकर संसद, विधान सभाओं में आसीन हो जाते हैं। चुनावों में किए वादे याद रखकर भी भूल जाते हैं। जनता उनसे उम्मीद लगाए बैठे रहती है, कथित नेता उनके आश्वासन तो क्या दूर करेंगे, अपने निर्वाचन क्षेत्र में ही नहीं आते। यह प्रवृत्ति आज छोटे-बड़े सभी नेताओं की हो गई है।

चुनाव जीतकर उन्हें जनहित नहीं स्वहित दिखाई देता है। दो करोड़ रुपए चुनाव में खर्च करते हैं, और पाँच साल के भीतर बीस करोड़ अर्जित कर लेते हैं। ऐसा इसलिए है कि इन नेताओं के लिए चुनाव व्यवसाय बन गया है। यह देशहित नहीं रह गया है। राजनेता चुनाव जीतने के लिए हर हथकंडा अपनाते हैं। जब 2014 के चुनाव हुए तब उसमें करोड़ों रुपए नकद पकड़े गए, कई लीटर नशीले पदार्थ पकड़े गए। हज़ारों लीटर शराब पकड़ी गई। इन सबका उपयोग चुनाव में मतदाताओंसे वोट पाने के लिए ही तो करना था। निर्वाचन आयोग ने कुछ स्वार्थी नेताओं की यह चाल कामयाब न होने दी। जीते तो अधिकांश नेताओं को जनता ने अपने निर्वाचन क्षेत्र में कभी नहीं देखा। जो नेता अपने निर्वाचन क्षेत्रों में जनता की तकलीफों को न आकर सुनें, उनकी परेशानियों का हल न करें, उनकी संसद व विधान सभा से सदस्यता रद्द की जानी चाहिए। जब इस तरह का कानून बन जाएगा तब ये नेता स्वार्थहित के साथ-साथ जनहित की बात सोचेंगे।

10. मौसम की मार झेल रहे किसान

भारतवर्ष कृषि प्रधान देश है। इसकी 70 प्रतिशत आबादी गाँवों में निवास करती है। इनका व्यवसाय खेती है। भारतीय किसान का जीवन परिश्रम तथा त्याग की कहानी है। ये कठिन परिश्रम करके खेतों में अन्न उत्पन्न करते हैं। किसान का अन्न नगर एवं विदेशों तक पहुँचता है। इसी कारण से उसे अन्नदाता कहा जाता है। सूर्य की किरणों के निकलने से पूर्व ही किसान एक सजग प्रहरी की भाँति जाग उठता है। ये खेत को अपनी कर्म भूमि मानते हैं। किसानों को फसल की सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर होना पड़ता है क्योंकि अभी भी सारे गाँवों में सिंचाई के साधनों की व्यवस्था नहीं है।

कभी-कभी तो किसान अपने खेतों में कोई भी फसल उगा नहीं पाते। पर्यावरण असंतुलन से फसल बर्बाद हो जाती है। प्राकृतिक आपदाओं जैसे, बाढ़ एवं सूखा के कारण इनकी फसल बर्बाद हो जाती है। फसल बर्बाद होने के कारण किसान ऋण के बोझ में दब जाते हैं। बढ़ती महँगाई के कारण उनका जीवन कष्टमय ही बीतता है। आज भी 50 प्रतिशत किसान गरीब हैं। उनको दोनों समय खाने के लिए भरपेट भोजन नहीं है। टूटे-फूटे भकान एवं झोंपड़ी में रहते हैं। किसानों को फसल का उचित दाम नहीं मिलता है। अपने खुशहाल जीवन के लिए वे हर समय संघर्ष करते रहते हैं। सरकार का ध्यान किसानों पर ‘कागजी घोड़ा दौड़ाना’ के आधार पर है। किसान को समुचित बीज, खाद की पूर्ति नहीं हो पाती है। इनकी स्तिति में सुधार के लिए शिक्षा का प्रसार एवं सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध कराना अति आवश्यक है।

11. बंधुआ मजदूर की समस्या

बंधुआ मजदूर वे होते हैं जिन्हें कोई व्यक्ति (प्रायः शक्तिप्राप्त) अपना काम करने के लिए विवश किए रहता है। इन व्यक्तियों का अपना स्वतंत्र जीवन नहीं होता। इन मजदूरों ने अपने मालिक से थोड़ा-बहुत कर्ज लिया होता है और मालिक इन्हें बंधुआ मजदूर बना लेता है और इनसे मनचाहा काम करवाता है। कई बार तो किसी व्यक्ति की कई पीढ़ियाँ बंधुआ मजदूरी करते-करते बीत जाती हैं। इन मजदूरों के सिर पर चढ़ा कर्ज कभी खत्म होने का नाम नहीं लेता।मजदूर की मजदूरी तो इस कर्ज के सूद में ही चली जाती है। यह कर्ज लाइलाज बीमारी की तरह बढ़ता चला जाता है। ये बंधुआ मजदूर खेतों पर, ईंटों के भट्ठों पर कल-कारखानों में काम करते हुए मिल जाते हैं। यद्यपि अनेक स्थानों से इन बंधुओं मजदूरों को मुक्त कराया गया है, पर मुक्त कराना ही पर्याप्त नहीं है. इनका पुनर्वास कराना आवश्यक है। बंधुआ मजदूरों का जीवन नारकीय हो जाता है। उनका किसी भी प्रकार का विकास नहीं होता है। स्वामी अग्नवेश आदि लोग बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने की दिशा में सक्रिय हैं। उनके प्रयास सफल भी हो रहे हैं। पर अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।

12. हम और हमारा पर्यावरण

बहुत-से विज्ञानियों का मानना है कि द्वितीय विश्व युद्ध से पहले वायु शुद्ध थी। इस युद्ध के बाद पर्यावरण प्रदूषित होने लगा। लेकिन सच्चाई यह है कि पर्यावरण दूषित होना द्वितीय युद्ध से पहले ही आरम्भ हो गया था। यह कभी से होना शुरू हुआ हो पर इसके लिए साफ तौर पर ‘हम’ ही जिम्मेदार हैं। लकड़ी, कोयला जलाने के प्रचलन से प्रदूषण दूषित होना शुरू हुआ। इससे बचने के लिए चिमनी का आविष्कार हुआ। बाद में पता चला कि सल्फर डाइ-ऑक्साइड गैस पर्यावरण प्रदूषित कर रही है। अब तो पूरे देश खासतौर पर नगरों व महानगरों का पर्यावरण दूषित हो रहा है।

वायु प्रदूषण का प्रभाव लंबे समय तक रहता है। इससे अस्थमा, एम्फीसीमा, इसोफेगस जैसे रोग हो रहे हैं। इस वातावरण में हर जीव प्रभावित हो रहा है। पर्यावरण का प्रभाव वनस्पति, पेड़-पौधे पर पड़ रहा है। इस कारण पौधे सूखने और मुरझाने लगते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड के कारण बर्फ कम पड़ रही है। गर्मी की मात्रा बढ़ गई है। वायु शुद्ध रखने से पर्यावरण शुद्ध हो सकता है। शरीर में साँस न जाए तो व्यक्ति कुछ पल जीवित रह सकता हैं, शरीर में जल न जाए तो लोग दस-बीस या तीस दिन भी जिंदा रह सकते हैं।

वस्तुतः शरीर में वसा पिघलकर भोजन की आपूर्ति करता है। औद्योगिक क्रान्ति ने जल प्रदूषित कर दिया है। छोटे-बड़े कुटीर उद्योगों ने जल पीने लायक नहीं छोड़ा है। इस कारण व्यक्ति नाना बीमारियों से ग्रसित हैं। जल प्रदूषित न हो. इसके लिए बड़े पैमाने पर काम किया जा रहा है और भी जरूरत है। अंधाधुंध औद्योगिकीकरण पर नियंत्रण से जल प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। पर्यावरण को दूषित करने वाला ध्वनि प्रदूषण है। यह हमें असमय बहरा बना रहा है। कानफोड़ गाड़ियों पर नियंत्रण कर ध्वनि प्रदूषण से बचा जा सकता है।

इसके अतिरिक्त असमय और गैरजरूरी लाउडस्पीकर बजाने पर नियंत्रण से यह समस्या सुलझाई जा सकती है। ध्वनि प्रदूषण का सबसे बड़ा नुकसान दिल और दिमाग पर होता है। लगातार शोर सुनने से श्रवण शक्ति निर्बल होती है और हृदयाघात के खतरे बढ़ते हैं। ईंधन से प्राप्त ऊर्जा हमारे जीवन का आधार है। इसके लिए सघन वन काटे जा रहे हैं। यह काम पर्यावरण बिगाड़ रहा है। अगर पेड़ काटे जा रहे हैं तो उतनी तेजी से लगाए भी जाने चाहिए। अधिक वन वर्षा करते हैं और पर्यावरण शुद्ध रखने में सहायक हैं। अगर हम स्वस्थ रहना चाहते हैं तो पर्यावरण प्रदूषित होने से बचाना होगा। अगर इस और तेजी से कदम नहीं उठाया गया तो ऐसा दिन आ सकता है जब व्यक्ति व्यक्ति के लिए तरसेगा।

13. अजेंडे पर आए किसान

हाल में देश भर में हुए किसान आंदोलनों ने आखिरकार खेती को सरकार के अजेंडे पर ला दिया है। पिछले कुछ समय से केन्द्र सरकार किसानों को राहत देने के उपायों पर चर्चा कर रही हैं नीति आयोग ने इस संबंध में नए सुझाव पेश किए हैं, जिनका मकसद किसानों की आय बढ़ाना है। आयोग का कहना है कि न्यूनतम समर्धन मूल्य (एमएसपी) से किसानों की समस्या पूरी तरह नहीं सुलझने वाली। लिहाजा कृषि लागत-मूल्य आयोग की जगह उसने एक न्यायाधिकरण की स्थापना करने और मंडियों में बोली लगाकर कृषि उपज की खरीदारी की व्यवस्था बनाने की सिफारिश की है। उसके ये सुझाव वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा जारी ‘नये भारत @ 75 के लिए रणनीति’ दस्तावेज में दर्ज हैं।

नीति आयोग ने कहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की जगह न्यूनतम आरक्षित मूल्य (एमआरपी) तय किया जाना चाहिए, जहां से बोली की शुरुआत हो। इससे किसानों को अपनी उपज की एमएसपी से ज्यादा कीमज मिल सकेगी। एमआरपी तय करने के लिए उसने एक समूह के गठन की अनुशंसा की है। नीति आयोग का विचार है कि वायदा कारोबार को प्रोत्साहित किया जाए और बाजार को विस्तार देने के लिए उसमें प्रवेश से जुड़ी बाधाएँ हटाई जाएँ। नीति आयोग अनुबंध खेती को बढ़ावा देने के पक्ष में है। उसका सुझाव है कि सरकार को अगले पाँच से दस वर्षों को ध्यान में रखकर कृषि निर्यात नीति बनानी चाहिए, जिसकी मध्यावधि समीक्षा का भी प्रावधान हो। दस्तावेज में सिंचाई सुविधाओं. विपणन सुधार, कटाई बाद फसल प्रबंधन और बेहतर फसल बीमा उतपादों आदि में सुधार के माध्यम से कृषि क्षेत्र का आधुनिकीकरण करने जैसे सुझाव भी हैं। निश्चय ही ये प्रस्ताव बेहद अहम हैं। कृषि उपजों की बिडिंग जैसे उपाय को लागू करने पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

14. अब लड़कियाँ माँगेंगी मोटा दहेज

अब दहेज चक्र उल्टा चलने वाला है। इसका कारण है लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या का कम होना। आबादी में लैंगिक असंतुलन से सामाजिक रिश्तों में बदलाव आ रहा है। भारत में एक हजार पुरुषों पर सिर्फ 943 स्त्रियाँ हैं। भारत में 0 से 6 वर्ष की आयु के प्रति एक हजार लड़कों पर सिर्फ 919 लड़कियाँ जीवित रहती हैं। भारत में 3 करोड़ 70 लाख व्यक्ति बिना जोड़े के रहने को अभिशप्त हैं। जब इन कुँआरे युवाओं को स्त्री-संसर्ग की इच्छा होगी, तब इन्हें स्त्री नहीं मिलेगी। तब इसकी परिणति मानव-तस्करी, बलात्कार, यौन-शोषण और स्त्री उत्पीड़न में होगी।

भारत में अभी वर पक्ष की ओर से वधू पक्ष को दहेज देने की प्रथा शुरू नहीं हुई है, लेकिन शादी के लिए लड़कियों को खरीदने की खबरें जरूर आने लगी हैं। अब लड़कियाँ हर पुरुष को वर के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं और न ही उनके माता-पिता उन्हें किसी के पल्ले बाँधने को विवश हैं। वे उसके लिए विकल्प देखते हैं कि कौन ज्यादा पढ़ा-लिखा है, कौन बेहतर कमाता है, लैंगिक असंतुलन का असर विवाह पर भी पड़ना निश्चित है। अब वह दिन दूर नहीं जब लड़कियाँ अपने विवाह के लिए लड़कों से दहेज की माँग करेंगी।

15. स्वच्छ भारत-अभियान में नवयुवकों का योगदान

भारत के प्रधानमंत्री की एक महत्व्वाकांक्षी योजना है-‘स्वच्छ भारत : स्वस्थ भारत’। इस योजना को लागू करने का मुख्य उद्देश्य विश्व में भारत को सुधारना तो है ही, साथ ही भारत के लोगों में स्वच्छता के प्रति चेतना का प्रसार करना है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी भारत को स्वच्छ बनाना बहुत आवश्यक है। गत 3-4 वर्ष से सरकार ने स्वच्छता अभियान जोर-शोर से चला रखा है। इसी अभियान के अंन्तर्गत गाँवों के घरों में लाखों शौचालयों का निर्माण किया गया है।

स्वच्छता अभियान के साथ नवयुवकों को जोड़ा गया है। युवा वर्ग इसमें काफी योगदान कर रहा है। सरकार ने युवा कलाकारों, खिलाड़ियों और समाज-सेवकों को स्वच्छता की जिम्मेदारी सौपी है। अनेक युवक इस काम के लिए आगे आए भी हैं। गत वर्षों में इसके अच्छे परिणाम सामने आए हैं। नवयुवक इस काम में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं। अभी उन्हें इस काम में अधिक सक्रिय होने की आवश्यकता है। इस काम में शर्म आने जैसी कोई बात नहीं। स्वयं प्रधानमंत्री सफाई करते दिखाई देते हैं। भारत को स्वस्थ बनाने के लिए स्वच्छता पर ध्यान देना ही होगा। नवयुवकों में असीम शक्ति होती है। वे मन में जो कुछ ठान लें, उसं पूरा करके ही रहते हैं। इस दिशा में भी उनकी सक्रियता काफी कुछ कर सकती है।

6. सैकड़ों यात्री किसी प्लेटफार्म पर रेलगाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे। अचानक उद्घोषणा में बताया गया कि वह गाड़ी किसी अन्य प्लेटफार्म पर आ रही है। उसके बाद के घटनाक्रम का चित्रण करते हुए एक आलेख लगभग 150 शब्दों में लिखिए।

मैं सोमवार की सुबह ठीक 5:30 बजे प्रातः नई दिल्ली स्टेशन पर प्लेटफार्म नं. । पर भोपाल शताब्दी का इंतजार कर रहा था। मैं अपने कोंच के निकट तीन बड़े बैग लेकर खड़ा था। कभी इधर देखा तो कभी उधर फिर घड़ी की तरफ देखकर प्रतीक्षा की सांस लेता। समय धीरे-धीरे आगे चला। लोगों की भीड़ भी बढ़ी। साथ ही सामानों का बोझ भी देखने को मिला। मैं तथा अन्य यात्री भी अब्ब बेसब्री से प्लेटफार्म की तरफ देख रहे थे कि अचानक एक आवाज कानों में सुनाई पड़ी।

भोपाल शताब्दी जो ठीक 6:00 बजे प्लेटफार्म नं. 1 पर आने वाली गाड़ी प्लेटफार्म न. 3 पर पहुँच रही है। सभी यात्रियों का हाल देखने वाला था कि कौन पहले पहुँचे, कहीं गाड़ी निकल न जाए। सीढ़ी पर भीड़-आपस में आगे निकलने की दौड़, फिर घबराने वालीं स्थिति मुझे तथा अन्य लोगों को विचलित कर रही थी। ऐसी स्थिति में लोग अपना संयम खत्म कर देते हैं उन्हें प्रथम स्थान पर गाड़ी को पकड़ना होता है। ऐसी स्थिति में कई बैग रह जाते हैं कई यात्री गिर भी पड़ते हैं। कई कमजोर दिल वालों की साँसे फूलने लगती है। अगर कोई यात्री पहली बार यात्रा कर रहा है तो बस उसका बुरा हाल होता है क्योंकि पहली कोई भी परीक्षा सबक का सबसे बड़ा उदाहरण होता है। लेकिन सच तो यह है कि अगर मन में स्थिरता व धर्यपूर्वक कार्य करने की क्षमता है तो ऐसी स्थिति संयम का श्रेष्ठ उदाहरण होता है।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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CBSE Class 12 Hindi Elective रचना फीचर लेखन

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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana फीचर लेखन

फीचर-लेखन –

फ़ीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक ओर आत्मनिष्ठ लेखन है। इसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देना, शिक्षित करना तथा पाठकों का मनोरंजन करना है। फ़ीचर समाचार की भाँति तत्कालिक घटनाक्रम से अवगत नहीं कराता। फ़ीचर लेखन की शैली समाचार लेखन से सर्वथा भिन्न होती है। फ़ीचर में लेखक के पास आनी राय या दृष्टिकोण और भावनाएँ जाहिर करने का अवसर होता है। फ़ीचर-लेखन का कोई तय ढाँचा नहीं होता। फ़ीचर काफी हद तक कथात्मक शैली में लिखा जाता है।

फ़चर-लेखन के कुछ उदाहरण

1. कुछ टी.वी. चैनलों द्वारा अंधविश्वास को बढ़ावा

आजकल कुछ टी.वी. चैनल अंधविश्वास को बढ़ावा देने में लगे हैं। टी.वी. चैनलों को चौबीसों घंटे कुछ-न-कुछ कार्यक्रम चलाना पड़ता है। जब उनके पास समाचार नहीं रहते, तब वे धार्मिक क्षेत्र की ओर मुड़ जाते हैं। उनके संवाददाता ऐसी-ऐसी जगहों पर जाते हैं, जिनका लोगों ने नाम तक नहीं सुना। वे वहाँ अनोखे मंदिर. मूर्तियाँ खोज निकलाने का दावा करते हैं। वे इस प्रकार अंधविश्वासों को बढ़ावा देते हैं। कुछ्छ टी.वी. चैनल ज्योतिषियों को चैनल पर बुलाकर उनसे झूठी-सच्ची भविष्यवाणियाँ करवाते हैं।

ये ढोंगी ज्येतिषी, पंडित तथा वैद्य ढोंग-आडम्बर का ऐसा जाल फैलाते हैं कि कुछ दर्शक उनके झाँसे में आ जाते हैं। इन्हीं का यह दुष्परिणाम होता है कि लोग भ्रमजाल में फँस जाते हैं। आयुर्वेदिक दवाओं के नाम पर भी काफी अंधविश्वास फैलाया जा रहा है। टी.वी. पर कुछ स्वयंभू स्वामी तरह-तरह के अंधविश्वासी उपाय बताकर लोगों को भ्रभित कर रहे हैं। इस पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। धर्म के नाम पर अंधविश्वास नहीं फैलाया जाना चाहिए। टी.वी. चैनलों को भी अपनी जिम्मेदारी का अहसास होना चाहिए।

2. सूखते खेत और कराहता किसान

जब भी देश पर प्राकृतिक विपदा आती है, तब उसकी मार जिन लोगों को झेलनी पड़ती है उनमें किसान भी हैं। किसान बहुत आशा के साथ अपने खेतों में अन्न की बिजाई करता हे, उद्यान मालिक अपने उद्यान में फलों के अनेक पेड़ लगाता है। दोनों सोचते हैं कि जब फसल पक जाएगी, उसके घर अनाज आएगा। घर की जरूरतें पूरी होंगी। बेटी का ब्याह रखा है, और भी महत्वपूर्ण कार्य पूरे करेंगे। कर्जदार चौबीस घंटे दरवाजे पर खड़े रहते हैं, उनका पैसा चुका कर अपना जान छुड़ाएँगे। घर-गृहस्थी के झंझटों से छुटकारा मिलेगा, यह सब वह इस उम्मीद पर सोचता है कि इस बार बारिश अच्छी होगी। लेकिन उसकी इस उम्मीद पर तब तुषारापात हो जाता है, जब सूखा पड़ जाता है।

सूखे से उसकी दशा दयनीय हो जाती है। थोड़ी-सी जमीन पर फसल बोकर उसके पकने की उम्मीद पर बैठ जाता है। उसकी उम्मीदें तभी से टूटने लगती हैं जब मौसम अपना ऋतु चक्र बदलता है। जुलाई में या तो बरसा होती नहीं, अगर होती है तो मामूली। अगर होती है तो अगस्त-सितम्बर में होती है। तब तक उसका बोया बीज और लगाए पौधे नष्ट हो चुके होते हैं। खेत का किसान और उद्यान का किसान कराहने लगता है। उसे अपनी ओर अपने परिवार की मौत नजदीक दिखाई देने लगती है। उसे अपनी उम्मीद जब याद आने लगती है तब उसे अपना जीवन भार लगने लगता है। उसका मन जीने को नहीं करता और कई बार आत्महत्या कर लेता है।

एक गणना के अनुसार पिछले बीस सालों में विदर्भ और आंध्र प्रदेश में एक लाख से ज्यादा किसानों, बागवानों ने खुकुशी कर ली है। खेत बोते ही, पेड़ लगाते ही किसान व उद्यान-किसान आसमान पर टकटकी लगाकर बैठ जाता है। बरसात की इतजार करने लगता है। जब जुलाई भी बिना बारिश के निकल जाती है तब उसका धीरज जवाब दे देता है। हालाँकि आज विज्ञान ने काफी उन्नति कर ली है। जल के कृत्रिम साधन आ गए हैं।

इससे कुछ हद तक किसान व फल उद्यान का मालिक सूखे से बचा है लेकिन ये साधन भी साधन संपन्न किसानों के वश की बात है। भारत का अधिकांश किसान व फल उद्यान मालिक आज भी बरसात पर निर्भर है। सरकार जब तक किसानों को सूखे की मार से नहीं बचाएगी। उनका सरकारी स्तर पर फसल बीमा न करेगी, तब तक भारतीय किसान इसी तरह सूखे से दम तोड़ता रहेगा।

3. पृथ्वी पर कीड़ों का कहर

धरती गरमाने के साथ ही पर्यावरणविदों में ऐसे-ऐसे खौफ देखे जा रहे हैं, जिनका जिक्र कुछ समय पहले आता तो लोग यूँ ही हँस कर टाल देते। छोटे कीड़ों के एक बड़े परिवार मिज की एक खास सदस्य के व्यवहार से समस्या अचानक बढ़ जाने की बात इस शृंखला में बिल्कुल नई है। बर्मिघम यूनिवर्सिटी (ब्रिटेन) से जुड़ी जंतुविज्ञानी जेसामाइन बार्टलेट अंटार्कटिका महाद्वीप के सबसे नजदीकी गैर-बर्फीले द्वीपों में एक, सिग्नी आइलैंड पर काम कर रही थीं तो उन्होंने पाया कि इरेटमॉप्टेरा मरफी नाम के ये कीड़े द्वीप के हर वर्ग मीटर इलाके में औसतन डेढ़ लाख की तादाद में मस्त जिंदगी जी रहे हैं। इनकी कई खासियतें हैं। जैसे एक तो यही कि ये काटते नहीं।

दूसरी यह कि इनका प्रजनन जोड़े पर निर्भर नहीं करता। केवल एक नर या एक मादा भी दस-बीस वर्षों तक इनकी आबादी को बड़े इलाके में फैला देने के लिए काफी हैं। तीसरी यह कि सिर्फ 600 किलोमीटर दूर स्थित अंटार्कटिका महाद्वीप के बाहरी दायरों में ये आराम से फल-फूल सकते हैं। सिग्नी द्वीप दक्षिणी अमेरिका के निचले छोर वाले देशों चिली और अर्जंटीना से ज्यादा दूर नहीं है। जेसामाइन के शोधपत्र में चिंता इन कीड़ों के चौथे गुण को लेकर जताई गई है, जो यह है कि किसी बेहद ठंडे बंजर क्षेत्र को ये बहुत जल्दी उपजाऊ बना सकते हैं। उनका कहना है कि सिग्नी आइलैंड के रास्ते अंटार्कटिका जाने वाले शोधार्थियों के जूतों में चिपककर ये कीड़े अगर वहाँ पहुँच गए तो इनके प्रभाव से अंटार्कटिका हरा होने लगेगा और ग्लोबल वार्मिं अचानक बेकाबू हो जाएगी।

4. प्रेममय होने का अर्थ-मुक्त होना

कबीर कहते हैं-जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान। जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्रान। अर्थात् जिस हुदय में प्रेम का संचार नहीं, वह हुदय श्मशान के सभान है। मृतक के समान है वह व्यक्ति जिसका ऐसा हृदय है। प्रेमरहित व्यक्ति लुहार की भट्टी की आँच तेज करने वाली उस धौंकनी के समान है जो निर्जीव होने पर भी साँस लेती हुई प्रतीत होती है। साँस लेना जीवित होने का प्रमाण है, लेकिन साँस लेते हुए भी वह व्यक्ति निर्जीव अथवा जड़ पदार्थ के समान ही है जिसके फेफड़ों में ऑक्सीजन व रगों में रक्त के साथ-साथ मन में प्रेम का संचरण नहीं होता। प्रेम जीवन का अनिवार्य तत्व है। प्रेम के अभाव में दुनिया की सारी दौलत बेमानी है। प्रेम संसार की सबसे बड़ी दौलत है, लेकिन यह लेन-देन की वस्तु नहीं।

जब हम प्रकृति से प्रेम करते हैं तो उससे कुछ अपेक्षा नहीं करते, बस आनंदित होते हैं। फूलों को खिलते देखकर, नदियों को बहते देखकर व पर्वतों की हिमाच्छादित चोंटियों को देखने मात्र से हम आनंद सागर में डुबकियाँ लगाने लगते हैं। ठीक यही बात प्रेम के साथ भी है। जब हम अपेक्षारहित होकर प्रेम करते हैं तो वह प्रेम हमें मालामाल कर देता है। उस दौलत का अनुभव तो किया जा सकता है, वर्णन नहीं किया जा सकता। प्रेम एक आनंदानुभूति है, एक रसानुभूति है। प्रेम जीवन का रस है। इस रस के अभाव में जीवन शुष्क है, नीरस है। प्रेम का पोषण ही व्यक्ति को सरस व इस सुंदर संसार को स्वर्गतुल्य अथवा और सुंदर बनाने में सक्षम व समर्थ है। प्रेममय होने का अर्थ है कि हम मुक्त हो रहे हैं। प्रेम बाँधता नहीं, मुक्त करता है। प्रेम निरर्थक मानसिक व भौतिक संघर्ष की पीड़ा से मुक्त करता है। उन्मुक्त बना देता है।

5. कैसी कैसी होली !

होली त्योहार एक है, लेकिन पूरे देश में अगर होली खेलने के तरीके खोजने निकलें, तो इसी त्योहार के न जाने कितने रूप निकल आएँगे। दरअसल, हर जगह होली खेलने के तरीके और उससे जुड़ी अनूठी परंपराएँ हैं। जैसे कि बरसाने की लठमार होली को तो सब जानते हैं। बहुतों ने उसे टी.वी. पर या असल में देखा भी होगा, लेकिन हरियाणा में भी होली खेलने का तरीका कुछ ऐसा ही है। वहाँ लठ की जगह कोड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। एक कपड़े को, जो अक्सर महिलाओं का दुपट्टा होता है, कसकर काफी कड़ा कर लिया जाता है और उससे महिलाएँ पुरुषों की पिटाई करती हैं।

इस पिटाई के लिए भाभी-देवर का रिश्ता काफी मशहूर है। बंगाल में रंगों के लिए हर सिंगार के फूल को पूरे साल रखा जाता है, सिर्फ रंग बनाने के लिए। यह त्वचा के लिए काफी अच्छा होता है और होली इसी से खेली जाती है। लेकिन सबसे पहले कृष्ण की मूर्ति के पैरों में गुलाल डाला जाता है। होली के दिन सुबह-सुबह घर के छोटे सदस्य निकल पड़ते हैं रंग लगाने। यहाँ सुबह की होली सूखी होती है और दोपहर को हर सिंगार से निकाला हुआ रंग लगाया जाता है। लोग जब होली खेलकर घर पहुँचते हैं, तो अपने माता-पिता के पैरों में थोड़ा रंग डालते हैं। उस दिन शाम को नहाने के बाद सब एक-दूसरे के घर जाते हैं और बुजुर्गों के पैरों में चुटकी भर रंग डालकर उनका आशीवाद लेते हैं।

शांतिनिकेतन की होली तो देश भर में मशहूर है। यहाँ फूलों से होली खेली जाती है। इसकी शुरूआत विश्वभारती के संस्थापक गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने की थी, इसलिए लोग इस होली से जुड़ना गर्व की बात समझते हैं। महाराष्ट्र में कुछ जगहों पर इसे शिगमा कहा जाता है और गोवा में शिगमोत्सव। तटीय इलाकों में इस उत्सव की धूम देखने लायक होती है। मछुआरों के नृत्यों और उनकी मस्ती को देखकर तो कोई भी झूम सकता है।

पंजाब में होली का अलग ही रंग देखने को मिलता है। यहाँ होली के दौरान कुश्तियों के मुकाबले होते हैं। होली से अलग, इसी दौरान होला मोहल्ला भी मनाया जाता है, जिसमें बड़े-बड़े जुलूस निकाले जाते हैं। इन जुलूसों में तलवारों और लाठियों के करतब देखने लायक होते हैं। राजस्थान में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिलता है। यहाँ होली के दिन हार्थियों के खेल होते हैं। राजे-रजवाड़ों की होली भी यहाँ जबर्दस्त होती है। राजाओं के कुछ वंशज अपने यहाँ उसी तरह होली मनाते हैं, जैसे राजा प्रजा के साथ मनाया करते थे।

राजस्थान के ठीक दूसरी तरफ उत्तर पूर्व में मणिपुर में होली छह दिन का त्योहार होता है। इसके लिए लोग काफी दिन पहले से पैसा इकट्ठा करना शुरू करते हैं। फागुन की पूर्णिमा से इसकी शुरूआत होती है। धास-फूस से एक झोपड़ी बनाई जाती है और इसे जलाया जाता है। अगले दिन सुबह लोग गुलाल खेलने निकल पड़ते हैं। इस दौरान यहाँ कृष्ण भक्ति का आलम भी देखने लायक होता है। भक्त गुलाल खेलते हैं. कृष्ग भक्ति के गीत गाते हैं और कृष्ण मंदिर के सामने सफेद कपड़ों और पीली पगड़ियों में नृत्य करते हैं।

6. कल्पना कीजिए कि आप एक पत्रकार के रूप में उत्तराखंड के किसी ऐसे क्षेत्र में गए हैं जो आपदाग्रस्त हुआ है। वहाँ की स्थिति और संकट से जूझते लोगों पर एक फीचर लिखिए।

पिछले दिनों मैं दैनिक जागरण की ओर से संवाददाता के तौर पर उत्तराखंड स्थित जोशी मठ गया। यहाँ बादल फट गया था। इससे नदियाँ और नाले उफन पड़े। क्षेत्र की सभी सड़कें पानी से बह गई। सैकड़ों लोग पानी में बह गए। राहत दल ने खोज अभियान चलाया तब भी उनका कुछ पता न चल पाया। जोशी मठ से लेकर बदरीनाथ तक की सड़क नदी में तबदील हो गई थी। यहाँ के लोगों में कुछ ने ऊँची पहाड़ियों पर शरण ली। हालाँकि पहाड़ खिसकने का सिलसिला जारी था पर ऊँचाई पर चढ़ने के सिवाय उनके पास कोई चारा न था। कुछ ग्रामीण गाँव में बचे एक प्रार्थमिक विद्यालय में शरण लिए थे।

यह विद्यालय एक टापू में तब्दील हो गया था। आपदापीड़ितों के करीब पहुँचने पर पता चला कि उनके पास राहत सामग्री बहुत कम पहुँची है। हेलीकॉप्टर से राहत सामग्री गिराई जा रही है। उसमें बंदरबाट मची है। यह भी पता चला कि आसपास के करीब दस गाँव इसी तरह पानी में डूबे हैं। मवेशियों का पता नहीं है कि बचे हैं कि नहीं। भारतीय सैनिक दल और अन्य राहत दल पूरे मन से काम में जुटे हैं। क्षेत्रों से पानी निकलने के प्रयास जारी हैं। आपदा पीड़ितों की दशा अत्यंत शोचनीय है। बहुत-से बीमार पड़ने लगे हैं। उन्हें समय पर दवाएँ नहीं मिल पा रही हैं। आपदा पीड़ितों से पता चला कि केन्द्र सरकार अपना काम जिम्मेदारी से कर रही है लेकिन प्रदेश सरकार अभी हाथ-पाँव भी नहीं हिला रही है। इससे लोगों में भारी गुस्सा है।

7. मौसम की मार झेल रहे किसानों की कठिनाइयों पर एक फ़ीचर लिखिए।

मौसम की मार झेल रहे किसानों की कठिनाइयाँ
पर्यावरण प्रदूषण ने मौसम चक्र को अनियमित कर दिया है। इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव किसानों को झेलना पड़ रहा है। वर्षा समय पर न होकर उस समय हो रही है जब गेहूँ की फसल पककर कटने को तैयार है। यदि यही वर्षा पिछले मास हो जाती तो गेहूँ की पैदावार में मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि से काफी अच्छा परिणाम रहता। अब मार्च के महीने की वर्षा और ओलावृष्टि ने फसल को चौपट कर दिया है। गेहूँ की बालियाँ जमीन पर गिर गई हैं तथा उसके दाने काले पड़ गए हैं।

इससे मौसम की मार झेल रहे किसानों की कठिनाइयाँ बहुत बढ़ गई हैं। इस पर उसका कोई वश नहीं चल पा रहा है। सरकार मुआवजा देने में राजनीति का खेल खेल रही है। यह मुआवजा इतना कम है कि किसान की क्षतिपूर्ति आंशिक रूप में हो पा रही है, वह भी केवल कुछ चुनिंदा किसानों की ही। गरीब किसान और गरीब होता जा रहा है। इसी के कारण किसानों की आत्महत्या की घटनाएँ सामने आ रही हैं। सरकार ने फसलों का बीमा कराने की योजना की घोपणा तो की है, पर अभी तक यह योजना सही ढंग से क्रियान्वित नहीं हो पाई है। इसका व्यापक प्रचार किया जाना जरूरी है तथा इसके दायरे में अधिकाधिक किसानों को लाया जाना चाहिए।

8. आनंद हासिल करना : एक कला

एक विराट प्रश्न है-क्या आनंद का अस्तित्व हमारे भीतर मौजूद है ? विद्वानों और ऋपि-मुनियों के अनुसार इसका उत्तर ‘हाँ’ है। हमें उसको खोज निकालना है। पर सिर्फ खोज निकालना ही काफी नहीं, उस पर पड़ी धूल को हटाकर असली रूप में हासिल करना है। सोचो-सोना जब गहरी खदान से निकलता है, तब उस समय क्या वह चमकीला होता है ? नहीं, तमाम कोशिशें करके उसे चमकीला बनाया जाता है। इसी प्रकार तिल में तेल रहता तो है, पर हमें कहाँ दिखाई देता है। जब तिल की विधिवत् पिराई होती है तब उससे तेल निकलता है, मक्खन निकालने के लिए दूध को जमाकर दही बनाया जाता है फिर उसे बिलोकर मक्खन निकाला जाता है।

इसी प्रकार हमारे शरीर में भी आनंद का अजस्र स्रोत बह रहा होता है। शरीर को तपाने, मन और चेतना को जागृत करने से आनंद दिखाई देने लगता है। आनंद हमसे अलग नहीं है। पर बिना खोज किए या बिना तपे यह हमें प्रपप्त नहीं होता। इंद्रियातीत अनुभव के जागने से आनंद जाग जाता है। जो यह जान लेते हैं कि मैं आत्मा हूँ. शरीर नहीं-उनके लिए आनंद का दरवाजा खुल जाता है। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जो व्यक्ति हमेशा इंद्रिय चेतना में रहता है, वह सुख-दु:ख के चक्र में फँसा रहता है, पर जो इस चेतना से परे रहता है. वह हमेशा आनंद का जीवन जीता है।

9. सूचना का अधिकार

भारत में ‘सूचना का अधिकार’ मिले हुए एक दशक से अधिक का समय बीत चुका है। ‘सूचना का अधिकार’ पाने के लिए कुछ व्यक्तियों ने काफी संघर्ष किया। अनेक व्यक्तियों ने सूचना प्राप्त करने का रिकॉर्ड बनाया है। इस अधिकार के माध्यम से ‘एक्टिविस्ट’ सरकार के विभिन्न विभागों के कार्यकलापों पर पैनी नज़र रखते हैं। इस कानून के माध्यम से लोग जहाँ अपनी समस्याओं के समाधान की स्थिति का पता लगाते हैं, वहीं कुछ लोग सामाजिक सरोकार के विषयों से संबंधित जानकारी हासिल करते हैं। ऐसा

वे जनहित में करते हैं। सूचना का अधिकार हमें फाइलों में दफन जानकारी को भी उपलब्ध करा देता है। कई बार तो कई चमत्कारी बातें सामने आ जाती हैं। इसके माध्यम से अनेक घोटाले उजागर हुए हैं। कई बार सरकार गोपनीयता की आड़ में कुछ सूचनाओं को प्रकट करने से इंकार भी कर देती है। इस कानून की अपनी कुछ सीमाएँ भी हैं। पूरी सूचना एकत्रित करने में काफी समय, धन व शक्ति लगती है। सभी बातें सबके सामने प्रकट भी नहीं की जा सकतीं। सीमाओं के बावजूद ‘सूचना का अधिकार’ काफी लाभदायक रहा है। इससे सरकारी कामकाज में पारदर्शिता आती है। कोई भी व्यक्ति निश्चित शुल्क जमा करके अपेक्षित जानकारी पाने के लिए आवेदन कर सकता है। अपेक्षित जानकारी नियत समय-सीमा में उपलब्ध कराने की कानूनी बाध्यता है। कई बार इस कानून को सीमा में बाँधने की आवाज उठती रहती है।

‘सूचना का अधिकार’ कानून दुरुपयोग का भी शिकार हो रहा है। स्वार्थी तत्वों द्वारा इसको किसी के चरित्र-हनन का औजार भी बना दिया जाता है। इस कानून के दुरुपयोग की कई शिकायतें भी सामने आई हैं। कई बार दिए गए उत्तर को गलत ढंग से प्रचारित-प्रसारित किया जाता है। कई बार गोपनीय तथ्य भी उजागर हो जाते हैं। इन सबके बावजूद सूचना का अधिकार लोगों की स्वतंत्रता का रक्षक है। यह सरकार की कार्यप्रणाली पर नियंत्रण का काम भी करता है।

10. शिक्षा का अधिकार

केंद्र सरकार ने 2011 में ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून पास कर उसे पूरे देश में लागू किया। इसके अंतर्गत प्राथमिक शिक्षा का अधिकार (कक्षा एक से आठ तक) सभी बच्चों को दिया गया है। इसके अंतर्गत इस आयु-वर्ग के सभी बच्चों को सरकार नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करेगी। निर्धन एवं विकलांग बच्चों के लिए EWS स्कीम के अंतर्गत 25% सीटें सभी पब्लिक स्कूलों में भी अनिवार्य सूप से आरक्षित करने के आदेश दिए गए हैं। इन्हें नि:शुल्क शिक्षा प्रदान की जाएगी। हमने अपने साथियों के साथ गाँवों के कुछ प्राथमिक पाठशालाओं का दौरा किया। हमने पाया कि सरकारी पाठशालाओं में तो इसका अनुपालन हो रहा है, पर अधिकांश पब्लिक स्कूलों में इसके पालन का दिखावा किया जा रहा है।

स्कूलों में इस योजना के अंतर्गत झूठे दाखिले किए जा रहे हैं। शायद ही कोई पब्लिक स्कूल अपने 25% कोटे को पूरा करता हो। इस योजना की अपनी कुछ सीमाएँ भी हैं। गाँवों के अधिकांश स्कूलों की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि वे इस अप्रत्याशित व्यय को वहन कर सकें। वे कानून की पकड़ में न आने के लिए तरह-तरह के प्रपंच करते रहते हैं। सरकार को उन्हे आर्थिक सहायता देकर शिक्षा के अधिकार को लागू करवाने का प्रयास करवाना चाहिए, अन्यथा यह योजना निरर्थक हो जाएगी।

11. मीडिया की बढ़ती भूमिका

आज मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनकर तेजी से उभर रहा है। मीडिया की भूमिका निरंतर बढ़ती जा रही है। अब तो ऐसा प्रतीत हो रहा है मीडिया सरकार तथा समाज पर हावी होता जा रहा है। मीडिया स्टिंग ऑपरेशन करके सरकार और सामाजिक संस्थानों में व्याप्त भ्रष्टाचार की कलई खोलकर उन्हें जनता के सामने नंगा कर रहा है। अब तो मीडिया लोगों के निजी जीवन में भी ताक-झाँक करने लगा है। इससे लोगों के जीवन की गोपनीयता भंग हो रही है। यह सही है मीडिया अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहा है, पर उसे अपनी सीमाओं का भी ध्यान रखना चाहिए। मीडिया लोगों में सनसनी फैलाने में अधिक रुचि लेने लगा है। उसे हर समय अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने की चिंता रहती है।

कई बार मीडिया किसी घटना या व्यक्ति का ट्रायल स्वयं कर डालता है। बाद में वह बात निराधार साबित होती है, तब मीडिया सार्वजनिक रूप से क्षमा-याचना नहीं करता। मीडिया अति उत्साह में आकर पीत-पत्रकारिता का रूप ले लेता है। वह लोगों के व्यक्तिगत जीवन में झाँकने को अपना विशेषाधिकार मान बैठता है। मीडिया आपदाग्रस्त व्यक्ति की पीड़ा को प्रश्न पूछ-पूछकर कुरेदता है। इस रूप में मीडिया असहिष्यु तथा संवेदनहीन हो जाता है। प्रायः मीडिया के कार्यक्रम पूर्व प्रायोजित होते हैं। मीडिया को अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करना होगा।

12. जातिवाद और सांप्रदायिकता का विष

हमारे देश में विभिन्न जातियों तथा संप्रदायों के लोग रहते हैं। हमारे देश के संविधान में धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत को मान्यत दी गई है। सामान्यत: भारत के लोगों में सांप्रदायिक सद्धाव दृष्टिगोचर होता है। पर कुछ राजनीतिक दल अपने वोटों की राजनीति क खेल खेलते हैं और समाज में जातिवाद तथा संप्रदायवाद का जहर फैलाते हैं। वे देश की विभिन्न जातियों और धर्म के अनुयायियों क आपस में लड़वाते हैं, दंगा-फसाद करवाते हैं। हमारे देश में चुनाव जातिगत आधार पर लड़े जाते हैं। जाति विशेष के व्यक्ति को चुनार में खड़ा किया जाता है। लोगों से जाति के नाम पर वोट माँगे जाते हैं। इसी से जातिवाद का विद्वेष फैलता है।

सांप्रदायिकता में विभिन्न धर्मों के लोगों को धर्म के नाम पर भड़काया जाता है। धर्म एक अफीम के नशे की तरह काम करता है। गत वर्षों में उत्तर प्रदेश के कई नगरों में धर्म के नाम पर दंगे हुए। इस प्रकार की साप्रदायिकता की भीषण लपटों में हमारी राष्ट्रीय एकता को भारी धक्का पहुँचता है। हमें सभी धरों का आदर करना होगा। नेताओं की झूठी बातों में आने से स्वयं को बचाना होगा। गौहत्या के नाम पर भी सांप्रदायिक दंगों का माहौल बनाया जाता है। हमें बुद्धिमत्ता का परिचय देकर इस विष को समाज से बहिष्कृत करना ही होगा। देश का विकास तभी होगा, जब देश से जातिवाद और संप्रदायवाद समाप्त होगा।

13. आनंद हासिल करना : एक कला

एक विराट प्रश्न है-क्या आनंद का अस्तित्व हमारे भीतर मौजूद है ? विद्वानों और ऋषि-मुनियों के अनुसार इसका उत्तर ‘हाँ’ है। हमें उसको खोज निकालना है। पर सिर्फ खोज निकालना ही काफी नहीं, उस पर पड़ी धूल को हटाकर असली रूप में हासिल करना है। सोचो-सोना जब गहरी खदान से निकलता है, तब उस समय क्या वह चमकीला होता है ? नहीं, तमाम कोशिशें करके उसे चमकीला बनाया जाता है। इसी प्रकार तिल में तेल रहता तो है, पर हमें कहाँ दिखाई देता है। जब तिल की विधिवत् पिराई होती है तब उससे तेल निकलता है, मक्खन निकालने के लिए दूध को जमाकर दही बनाया जाता है फिर उसे बिलोकर मक्खन निकाला जाता है।

इसी प्रकार हमारे शरीर में भी आनंद का अजम्र स्रोत बह रहा होता है। शरीर को तपाने, मन और चेतना को जागृत करने से आनंद दिखाई देने लगता है। आनंद हमसे अलग नहीं है। पर बिना खोज किए या बिना तपे यह हमें प्राप्त नहीं होता। इंद्रियातीत अनुभव के जगने से आनंद जाग जाता है। जो यह जान लेते हैं कि मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं-उनके लिए आनंद का दरवाजा खुल जाता है। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जो व्यक्ति हमेशा इंत्रिय चेतना में रहता है, वह सुख-दु:ख के चक्र में फँसा रहता है. पर जो इस चेतना से परे रहता है, वह हमेशा आनंद का जीवन जीता है।

14. मीडिया की बढ़ती भूमिका

आज मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनकर तेजी से उभर रहा है। मीडिया की भूमिका निरंतर बढ़ती जा रही है। अब तो ऐसा प्रतीत हो रहा है मीडिया सरकार तथा समाज पर हावी होता जा रहा है। मीडिया स्टिंग ऑपरेशन करके सरकार और सामाजिक संस्थानों में व्याप्त भ्रष्टाचार की कलई खोलकर उन्हें जनता के सामने नंगा कर रहा है। अब तो मीडिया लोगों के निजी जीवन में भी ताक-झाँक करने लगा है। इससे लोगों के जीवन की गोपनीयता भंग हो रही है। यह सही है मीडिया अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहा है, पर उसे अपनी सीमाओं का भी ध्यान रखना चाहिए।

मीडिया लोगों में सनसनी फैलाने में अधिक रुचि लेने लगा है। उसे हर समय अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने की चिंता रहती है। कई ब्रार मीडिया किसी घटना या व्यक्ति का ट्रायल स्वयं कर डालता है। बाद में वह बात निराधार साबित होती है, तब मीडिया सार्वजनिक रूप से क्षमा-याचना नहीं करता। मीडिया अति उत्साह में आकर पीत-पत्रकारिता का रूप ले लेता है। वह लोगों के व्यक्तिगत जीवन में झाँकने को अपना विशेषाधिकार मान बैठता है। मीडिया आपदाग्रस्त व्यक्ति की पीड़ा को प्रश्न पूछ-पूछकर कुरेदता है। इस रूप में मीडिया असहिष्णु तथा संवेदनहीन हो जाता है। प्रायः मीडिया के कार्यक्रम पूर्व प्रायोजित होते हैं। मीडिया को अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करना होगा।

15. जातिवाद और सांप्रदायिकता का विष

हमारे देश में विभिन्न जातियों तथा संप्रदायों के लोग रहते हैं। हमारे देश के संविधान में धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत को मान्यता दी गई है। सामान्यत: भारत के लोगों में साप्रदायिक सद्भाव दृष्टिगोचर होता है। पर कुछ राजनीतिक दल अपने वोटों की राजनीति का खेल खेलते हैं और समाज में जातिवाद तथा संप्रदायवाद का जहर फैलाते हैं। वे देश की विभिन्न जातियों और धर्म के अनुयायियों को आपस में लड़वाते हैं, दंगा-फसाद करवाते हैं। हमारे देश में चुनाव जातिगत आधार पर लड़े जाते हैं। जाति विशेष के व्यक्ति को चुनाव में खड़ा किया जाता है। लोगों से जाति के नाम पर वोट माँगे जाते हैं। इसी से जातिवाद का विद्वेष फैलता है। सांप्रदायिकता में विभिन्न धर्मों के लोगों को धर्म के नाम पर भड़काया जाता है। धर्म एक अफीम के नशे की तरह काम करता है। गत वर्षों में उत्तर प्रदेश के कई नगरों में धर्म के नाम पर दंगे हुए। इस प्रकार की सांप्रदायिकता की भीषण लपटों में हमारी राष्ट्रीय एकता को भारी धक्का पहुँचता है। हमें सभी धर्मों का आदर करना होगा। नेताओं की झूठी बातों में आने से स्वयं को बचाना होगा। ौहत्या के नाम पर भी सांप्रदायिक दंगों का माहौल बनाया जाता है। हमें बुद्धिमता का परिचय देकर इस विप को समाज से बहिक्कृत हरना ही होगा। देश का विकास तभी होगा, जब देश से जातिवाद और संप्रदायवाद समाप्त होगा।

16. ‘बच्चा पढ़ेगा तो देश बढ़ेगा’

देश में अभी भी लाखों बच्चे ऐसे हैं जो शिक्षा के मूलभूत अधिकार से वंचित हैं। सरकार ने अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 बनाकर सभी बच्चों को शिक्षा के समान अवसर देने की वचनबद्धता पूरी करने का प्रयास तो किया है, पर अभी तक इसका क्रियान्वयन पूरी तरह से नहीं हो पाया है। छोटे बच्चों को स्कूल न भेजकर काम कर भेजकर उनका बचपन छीना जा रहा है। हमें गरीब माँ-बाप को भी यह बात भली प्रकार समझानी होगी कि उनके बच्चों के पढ़ने से उनका भविष्य उज्ज्वल तो बनेगा ही, साथ ही देश भी आगे बढ़ेगा। ये बच्चे ही देश के भावी सफल नाग्गरिक बनेंगे।

कल्पना कीजिए अशिक्षित युवा पीढ़ी कैसी होगी? वे भला देश के लिए क्या कर सकेंगे? अब समय आ गया है जब देश के हर बच्चे को शिक्षा पाने का अवसर प्रदान किया जाए। हमें सभी बच्चों के स्कूल में दाखिले की व्यवस्था करनी होगी। देश में सकक्षरता का प्रतिशत बढ़ाना है तो सभी बच्चों को पढ़ाना होगा। साक्षर बच्चे ही देश का भविष्य सँवार सकते हैं। सभी बच्चों को नि:शुल्क अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार का दायित्व है। इसमें समाज को भी अपनी भागीदारी निश्चित करनी होगी। गरीब बच्चों को पब्लिक स्कूलों में भी पढ़ने के अवसर देने होंगे। सरकार ने EWS कोटे के अंतर्गत 25% गरीब बच्चों को इन स्कूलों में दाखिला देने का नियम लागू किया है। जब इन बच्चों की पीढ़ी पढ़-लिखकर निकलेगी तब निश्चित रूप से देश आगे बढ़ सकेगा।

17. “मुझे जन्म देने से पहले ही मत मारो माँ!”

पुत्र पाने की लालसा में आज भी अनेक परिवार कन्या को जन्म लेने से पूर्व ही मार देते हैं। यह भूण हत्या है, यह पाप है। यद्यपि पुत्र पाने की इच्छा अस्वाभाविक नहीं है, पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि कन्या को गर्भावस्था में ही मार दिया जाए। यह सब लिंग-परीक्षण के बाद किया जाता है। इसी का यह दुष्परिणाम है कि कई राज्यों में लड़कें-लड़कियों का अनुपात गड़बड़ा गया है। हरियाणा राज्य में 1000 लड़कों के पीछे 913 लड़कियाँ ही हैं। इससे विवाह योग्य सभी लड़कों को लड़कियाँ मिल ही नहीं पाती। इसी कारण अपहरण, बलात्कार जैसी घटनाएँ घटती हैं।

कन्या को जन्म से पूर्व मारेे पर कानूनी रूप से प्रतिबंध है, पर असामाजिक तत्व इन प्रतिबंधों की कब परवाह करते हैं। समय ने यह सिद्ध कर दिया है कि लड़कियाँ भी लड़कों से किसी भी क्षेत्र में कम नहीं हैं। अब वे परिवार तथा देश के लिए गौरव का कारण बन रही हैं। वे उच्च पदों पर सफलतापूर्वक कार्य कर रही हैं, खेलों में अंतरर्ष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतकर सफलता के झंडे गाड़ रही हैं। अतः अब कोई कारण नहीं कि उन्हें जन्म लेने से पूर्व मारा जाए। हमें इस पाप को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। नीचे दी गई कविता में बेटियाँ यही कुछ बता रही हैं-

मारी जाती हैं बेटियाँ
बोए जाते हैं बेटे और उग आती है बेटियाँ
खाद-पानी बेटों में और लहलहाती है बेटियाँ
एवरेस्ट की ऊँचाइयाँ तक चढ़ जाती हैं बेटियाँ
रुलाते हैं बेटे और रोती है बेटियाँ
कभी गिरते और गिराते हैं बेटे
और संभाल लेती हैं बेटियाँ
सुख का स्वप्न दिखाते है बेटे
जीवन का यथार्थ होती हैं बेटियाँ
जीवन तो बेटों का है और मारी जाती है बेटियाँ

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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CBSE Class 12 Hindi Elective रचना श्रवण

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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana श्रवण

श्रवण (सुनना) कौशल :

वर्णित या पठित सामग्री को सुनकर अर्थग्रहण करना, वार्तालाप करना, वाद-विवाद, कविता पाठ आदि को सुनकर समझना, मूल्यांकन करना और अभिव्यक्ति के ढंग को समझना।

वाचन (बोलना) कौशल :

भाषण, सस्वर कविता पाठ, वार्तालाप और उसकी औपचारिकता, कार्यक्रम प्रस्तुति, कथा-कहानी अथवा घटना सुनाना, परिचय देना, भावानुकूल संवाद वाचन, चलचित्र की कहानी सुनाना अथवा हास्य-व्यंग्य का कोई चुटकुला सुनाना।

श्रवण कौशल का मूल्यांकन –

परीक्षक किसी प्रासंगिक विषय पर एक अनुच्छेद का स्पष्ट वाचन करेगा। अनुच्छेद तथ्यात्मक या सुझावात्मक हो सकता है। अनुच्छेद लगभग 250 शब्दों का होना चाहिए।

या

परीक्षक 2-3 मिनट का श्रव्य अंश (Audio-clip) सुनवाएगा। अंश रोचक होना चाहिए। कथ्य/घटना पूर्ण एवं स्पष्ट होनी चाहिए। वाचक का उच्चारण शुद्ध, स्पष्ट एवं विरामचिह्नों के उचित प्रयोग समेत होना चाहिए।

  • अध्यापक को सुनते-सुनते परीक्षार्थी कागज पर दिए श्रवण बोध के अभ्यासों को हल कर सकेंगे।
  • अभ्यास रिक्त-स्थान पूर्ति, बहुविकल्पी अथवा सत्य/असत्य का चुनाव आदि विधाओं में हो सकते हैं।
  • अति लघूत्तरात्मक 5 प्रश्न पूछे जाएँगे।

वाचन (बोलना) कौशल का मूल्यांकन –

  • चित्रों के क्रम पर आधारित वर्णन : इस भाग में अपेक्षा की जाएगी कि विद्यार्थी विवरणात्मक भाषा का प्रयोग करे।
  • चित्र-वर्णन : चित्र व्यक्ति, स्थान या घटना का हो सकता है।
  • निर्धारित विषय पर बोलना : इसमें विद्यार्थी अपने व्यक्तिगत अनुभव का प्रत्यास्मरण कर सकेंगे।
  • कहानी सुनाना या किसी घटना का वर्णन करना।
  • परिचय देना : स्व/परिवार/वातावरण/वस्तुव्यक्ति/पर्यावरण/कवि/लेखक आदि का।
  • हाल में पढ़ी पुस्तक या देखे हुए चलचित्र (सिनेमा) की कहानी सुनाना।

प्रक्रिया :

  • कुल तीन प्रश्न पूछे जा सकते हैं।
  • परीक्षण से पूर्व परीक्षार्थी को तैयारी के लिए कुछ समय दिया जाएगा।
  • विवरणात्मक भाषा में वर्तमान काल का प्रयोग अपेक्षित है।
  • निर्धारित विषय परीक्षार्थी के अनुभव-जगत के हों। जैसे-कोई चुटकुला या हास्य-प्रसंग।
  • जब परीक्षार्थी बोलना आरंभ करे तो परीक्षक कम-से-कम हस्तक्षेप करे।

कौशलों के अंतरण का मूल्यांकन –

इस बात का निश्चय करना कि क्या विद्यार्थी में श्रवण और वाचन की निम्नलिखित योग्यताएँ हैं :

श्रवण (सुनना) बावन (घलना)
1. विद्यार्थी में परिचित संदर्भों में प्रयुक्त शब्दों और पदों को समझने की सामान्य योग्यता है, किंतु सुसंबद्ध आशय को नहीं समझ़ पाता। 1. शिक्षार्थी केवल अलग-अलग शब्दों और पदों के प्रयोग की योग्यता प्रदर्शित करता है, कितु एक सुसंबद्ध स्तर पर नहीं बोल सकता।
2. छोटे संबद्ध कथनों को परिचित संदर्भों में समझने की योग्यता है। 2. परिचित संदर्भों में केवल छोटे संबद्ध कथनों का सीमित शुद्धता से प्रयोग करता है।
3. परिचित या अपरिचित दोनों संदर्भों में कथित सूचना को स्पष्ट समझने की योग्यता है। अशुद्धियाँ करता है जिससे प्रेषण में रुकावट आती है। 3. अपेक्षाकृत दीर्घ भाषण में अधिक जटिल कथनों के प्रयोग की योग्यता प्रदर्शित करता है, अभी भी कुछ अशुद्धियाँ करता है जिससे प्रेषण में रुकावट आती है।
4. दीर्घ कथनों की श्रृंखला को पर्याप्त शुद्धता से समझता है और निष्कर्ष निकाल सकता है। 4. अपरिचित स्थितियों में विचार को तार्किक ढंग से संगठित कर धारा प्रवाह रूप में प्रस्तुत कर सकता हैं ऐसी गलतियाँ करता है, जिनसे प्रेषण में रुकावट नहीं आती।
5. जटिल कथनों के विचार-बिंदुओं को समझने की योग्यता प्रदर्शित करता है, उद्देश्य के अनुकूल सुनने की कुशलता प्रदर्शित करता है। 5. उद्देश्य और श्रोता के लिए उपयुक्त शैली को अपना सकता है केवल मामूली गलतियाँ करता है।

उपर्युक्त दोनों कौशल मौखिक अभिव्यक्ति से संबंधित हैं।

मौखिक अभिव्यक्ति की विशेष प्रकार की प्रस्तुति को ‘मौखिक रबना’ कहा जाता है। रचना का अर्थ है-निर्माण करना, सजाना, सँवारना। संक्षेप में कहें तो मौखिक रचना का तात्पर्य है-अपने भावों और विचारों को सुव्यवस्थित कर अवसरानुकूल ऐसी भाषा में व्यक्त करना कि उसमें नवीनता और मौलिकता की झलक मिले तथा श्रोता पर भी अनुकूल प्रभाव पड़े।

हमारे जीवन के अधिकांश कार्यों में मौखिक भाषा का ही प्रयोग होता है। पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर वार्तालाप, हास-परिहास, बातचीत, सभा-समितियों में विचार-विमर्श, भाषण, धार्मिक सांस्कृतिक और राजनीतिक विचारों के आदान-प्रदान आदि कार्यों में मौखिक रचना का ही प्रयोग होता है। इसी मौखिक रचना के दो रूप हैं-बोलना (वाचन) और सुनना (श्रवण)।

अच्छी मौखिक अभिव्यकित की विशेषताएँ –

भाषागत अपेक्षाएँ –

  • – निस्संकोच बोलना : बच्चों को प्रारंभ में कक्षा तथा सभा में बोलने में झिझक का अनुभव होता है। इस झिझक को दूर करने के लिए वार्तालाप या प्रश्नोत्तर भाग लेना चाहिए।
  • – शुद्ध उच्चारण : प्रभावपूर्ण मौखिक अभिव्यक्ति के लिए उच्चारण की शुद्धता आवश्यक है। इसके लिए ध्वनियों के उच्चारण-स्थान, प्रकृति और प्रयत्न से भी परिचित होना आवश्यक है।
  • – शुद्ध भाषा का प्रयोग : व्याकरण सम्मत भाषा का प्रयोग ही शुद्ध भाषा-प्रयोग है। उपयुक्त शब्दों का यथास्थान सही प्रयोग तथा वाक्यों की शुद्ध रचना भाव-बोध में सहायक होती है। वाक्य में पदक्रम का ध्यान रखना भी आवश्यक है।
  • भावानुरूप सहज भाषा का प्रयोग : वक्ता मौखिक अभिव्यक्ति द्वारा अपने भाव और विचार श्रोता तक पहुँचाना चाहता है, इसे ही भाव या विचार-संग्रेषण कहते हैं। संप्रेषण में जो व्यक्ति जितना कुशल होता है, वह उतना ही सफल वक्ता माना जाता है।
  • मुहावरों/लोकोक्तियों तथा सूक्तियों का प्रयोग : इनके प्रयोग से वक्ता के कथन में सजीवता और रोचकता आ जाती है।
  • अवसरानुकूल भाषा का प्रयोग : अवसर और श्रोता को दृष्टि में रखते हुए भाषा का प्रयोग करना चाहिए।

किषलमत सजेषाएँ –

  • क्रमबद्धता एवं सुसंबद्धता : भावों और विचारों का पूर्वापर संबंध बनाए रखना चाहिए। अपने कथन को क्रमबद्धता पतं सुसंबद्धता बनाए रखना कथन को प्रभावी बनाता है।
  • विषय-सामग्री का चयन : विषयानुकूल सामग्री के चयन से भी मौखिक अभिव्यक्ति प्रभावी बनती है।
  • तार्किकता : विषय का प्रतिपादन तर्कपूर्ण ढंग से इस प्रकार करना चाहिए जिससे श्रोता पर अपेक्षित प्रभाव पड़ सके।

मौखिक अभिज्तित के लिखिए ज्ञा:

  1. सस्वर वाचन और कविता पाठ
  2. पठित विपयों पर वार्तालाप
  3. चित्र का मौखिक वर्णन
  4. देखी हुई घटना, दृश्य का वर्णन
  5. कहानी कथन
  6. वाद-विवाद प्रतियोगिता
  7. भाषण
  8. संवाद (वाचिक अभिनय)
  9. समाचार वाचन
  10. चलचित्र संबंधी चर्चा
  11. बाल-सभा, छात्र संसद, सदन-प्रणाली
  12. टेलीफोन वार्ता

श्रावण कौशल (सुनना)

जब बच्चा जन्म लेता है, उसी दिन से वह सुनना आरंभ कर देता है। वह अपनी माता के मुख से कई तरह की ध्वनियाँ सुनता है और उसके अनुरूप अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का प्रयास करता है। आगे चलकर वह घर में. मित्र-मंडली में, शिक्षकों की बातें ध्यानपृर्वक सुनता है। इसके बाद वह पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देता है। सुनकर अर्थग्रहण की क्षमता ही श्रवण कौशल कहलाता है। इसका परीक्षण शिक्षक निम्नलिखित रूपों से कर सकता है :

  • प्रार्थना सभा में दिए गए भाषण/उपदेश से संबंधित प्रश्न पूछकर।
  • कक्षा में पढ़ाए गए पाठ पर प्रश्न पूछकर।
  • किसी काव्यांश या गद्यांश को सुनाकर प्रश्न पूछकर।
  • कविता का मूलभाव पूछकर।

धयान रखें :

  • सुनना और समझना ही काफी नहीं है, बल्कि उसे मन में बनाए रखना भी एक कला है। यह श्रवण कला है। इसके लिए, श्रोता का पूरा ध्यान श्रवण में लगा रहना चाहिए।
  • सुनने वाला अंश विद्यार्थियों के स्तर का ही टोना चाहिए।
  • विषयों का चुनाव करते समय यह सावधानी बरतनी चाहिए कि वे विद्यार्थियों के जीवन से जुड़े हों।

श्रावण कौशल में निम्नलिखित बिंदुऔं केजायेगा आधार पर मूलयांकन किया जायेगा :

  • क्या विद्यार्थी शब्दों, पदों को समझने की योग्यता रखता है ?
  • क्या विद्यार्थी सुनाए गए गद्यांश/पद्यांश के आशय को समझ पाया है ?
  • क्या वह विषय के संदुर्भ को समझ पाया है ?
  • क्या वह निष्कर्ष निकालने में सक्षम है ?
  • क्या वह कही गई बात को स्पष्टता से समझ लेता है ?
  • क्या विद्यार्थी में कथन के विचार-बिंदुओं को समझने की योग्यता है ?

मूल्यांकन –

श्रवण-कौशल की जाँच हेतु उदाहरणस्वरूप कुछ सामग्री :

नमूना-1 : गद्यांश

विद्यार्थी को निम्नलिखित गद्यांश सुनाया जाएगा-

देश-प्रेम,प्रेम का वह अंश है जिसका आलंबन है सारा देश-उसमें व्यापक प्रत्येक कण अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत इत्यादि। यह एक सहचर्यगत् प्रेम है अर्थात् जिसके सान्निध्य का हमें अभ्यास पड़ जाता है उनके प्रति लोभ या राग हो जाता है। कोई भी व्यक्ति सच्चा देश-प्रेमी कहला सकने की तभी सामर्थ्य रखता है जब वह देश के प्रत्येक मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्ते, वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि सभी को अपनत्व की भावना से देखेगा।

इन सबकी सुधि करके विदेश में भी आँसू बहाएगा। जो व्यक्ति राष्ट्र के मूलभूत जीवन को भी नहीं जानता और उसके बाद भी देश-प्रेमी होने का दावा करे तो यह उसकी भूल है। जब तुम किसी के सुख-दुख के भागीदार ही नहीं बने तो उसे सुखी देखने के स्वप्न तुम कैसे कल्पित करोगे ? उससे अलग रहकर अपनी बोली में तुम उसके हित की बात तो करो पर उसमें प्रेम के माधुर्य जैसे भाव नहीं होंगे। प्रेम को तराजू में तोला नहीं जा सकता। ये भाव तो मनुष्य के अंतःकरण से जुड़े हुए हैं।

परिचय से प्रेम की उत्पत्ति होती है। यदि आप समझते हैं कि आपके अंतःकरण में राष्ट्र-प्रेम के भाव उजागर हों तो आप राष्ट्र के स्वरूप से परिचित हो जाइए और अपने को उस स्वरुप में समा जाने दीजिए तभी आपके अंतःस्थल में इस इच्छा का सचमुच उदय होगा कि वह हमसे कभी न छूटे। उसके धनधान्य की वृद्धि हो। सब सुखी हों।

वास्तव में आजकल देश के प्रति परिचय तथाकथित बाबुओं की लज्जा का विषय हो गया है और देश-प्रेम मात्र दिखावा रह गया है। वे देश के स्वरूप से अनजान बने रहने में अपनी शान समझते हैं। इसी संदर्भ में अपना मत प्रस्तुत करते हुए लेखक ने अतीव सरल शब्दों में व्यंग्यात्मक शेली के द्वारा उदाहरण प्रस्तुत किया है। एक बार उसके लखनवी मित्र ने महुए का नाम लेने तक को देहाती होने का लक्षण मान लिया था। लेखक को ध्यान आया कि यह वही लखनऊ है जहाँ कभी यह पूदने वाले भी थे कि गेहूँ का पेड़ आम के पेड़ से छोटा होता है या बड़ा।

एक. 5 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न –

परीक्षण प्रश्न संभावित उत्तर
1. देश प्रेम क्या है ? देश-प्रेम देश के प्रत्येक कण अर्थात् मनुष्य, पशु-पक्षी, नदी-नाले, वन, पर्वत के साथ प्रेम है।
2. किस व्यक्ति को सच्या देश-प्रेमी कहा जा सकता है ? कोई भी व्यक्ति सच्चा देश प्रेमी तभी कहलाया जा सकण है जब वह देश की सभी चीजों के प्रति अपनत्व का भाव रखता हो।
3. परिचय से प्रेम की उत्पत्ति होती है। कैसे ? राष्ट्र के स्वरूप से परिचित होने पर ही उस्से प्रेम उत्पन्न होगा।
4. कौन-सी बात बाबुओं की लज्जा का विषय हो गया है ? देश के प्रति परिचय पाना बाबुओं की लज्जा का विषय हो गया है।
5. लखनवी मित्र का उदाहरण लेखक ने किस शैली में व्यक्त किया है ? सरल शब्दों में व्यंग्यात्मक शैली में व्यक्त किया है।

नमूना-2 : कविता

विद्यार्थियों को निम्नलिखित कविता सुनाकर 5 प्रश्न पूछे जाएँगे।

संकटों से वीर घबराते नहीं,
आपदाँँ देख छिप जाते नहीं।
लग गए जिस काम में, पूरा किया,
काम करके व्यर्य पछाताते नहीं।

हो सरल अथवा कठिन हो रास्ता,
कर्मवीरों को न इससे वास्ता।
बढ़ चले तो अंत तक ही बढ़ चले,
कठिनतर गिरिशृंग ऊपर चढ़ चले।

कठिन पथ को देख मुस्काते सदा,
संकटों के बीच वे गाते सदा।
है असंभव कुछ नहीं उनके लिए,
सरल-संभव कर दिखाते वे सदा।

यह असंभव कायरों का शब्द है,
कहा था नेपोलियन ने एक दिन।
सच बताऊँ, जिंदगी ही व्यर्थ है,
दर्प बिन, उत्साह बिन, औ शक्ति बिन।

परीक्षण प्रश्न संभावित उत्तर
1. वीर किस प्रकार के होते हैं ? जो संकटों में नहीं घबराते और काम पूरा करके रहते हैं।
2. कर्मवीरों को किससे वास्ता नहीं होता ? रास्ता सरल या कठिन इससे वास्ता नहीं होता।
3. वीर कब मुस्काते हैं ? कठिन पथ को देखकर
4. असंभव शब्द किनके लिए होता है ? कायरों के लिए
5. किसके बिना जिंदगी व्यर्थ है ? दर्प, उत्साह और शक्ति के बिना

नमूना-3 : वार्तालाप

  • आदित्य : मित्र रंजन ! कहाँ से चले आ रहे हो ?
  • रंजन : अरे, क्या बताऊँ ? बिजली बोर्ड के दफ्तर से आ रहा हूँ।
  • आदित्य : क्यों, क्या बात हो गई ?
  • रंजन : बात तो कुछ नहीं हुई, ये दो हजार रुपए का बिजली-बिल आया था, जबकि हर बार यह पाँच-छह सौ रुपए का होता था।
  • आदित्य : क्या उन्होंने बिल ठीक कर दिया ?
  • रंजन : उनके मुँह तो खून लग गया है। पहले तो सुनते ही नहीं हैं और ज्यादा कहो तो पाँच सौ रुपए रिश्वत माँगते हैं।
  • आदित्य : क्या रिश्वत देने के लिए हाँ कर आए हो ?
  • रंजन : क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता। मन तो नहीं करता, पर कोई और उपाय भी नहीं सूझ रहा।
  • आदित्य : उपाय तो है। मैं बताता हूँ। इससे काम भी हो जाएगा और बिल-क्लर्क के होश भी ठिकाने आ जाएँगे।
  • रंजन : मुझे बता, वह उपाय।
  • आदित्य : हम दोनों ‘सतर्कता विभाग’ में चलकर उसकी लिखित शिकायत कर देते हैं। वे उसे रंगे हाथों पकड़ लेंगे।
  • रंजन : पर क्या यह ठीक रहेगा ? कहीं उसकी नौकरी ही न चली जाए ?
  • आदित्य : हमारी इसी कमजोर का ये लोग गलत फायदा उठाते हैं। इन्हें सबक सिखाना बहुत जरूरी है।
  • रंजन : हम किस-किसको सबक सिखाएँगे। यहाँ तो ऊपर से लेकर नीचे तक सभी भ्रष्ट हैं। राजनेता कौन-से अछूते हैं ?
  • आवित्य : पर कभी-न-कभी तो हमें इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़ा होना ही पड़ेगा। तुम डरो नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूँ।
  • रंजन : शायद तुम ठीक कहते हो। हमें इस बढ़ते भ्रष्टाचार पर लगाम लगानी ही होगी।

नमूना-4 : वाद-विवाद

विपय : साहित्य समाज का दर्षण है।
(इसके पक्ष-विपक्ष में वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने वाले के तर्क)
ज्ञानशंकर : साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य का समाज से बहुत पुराना रिश्ता है। आज तक यह रिश्ता चलता आ रहा है।
रविभोहन : साहित्य समाज का दर्पण नहीं है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती। साहित्य और समाज का रिश्ता बदलता रहता है।
ज्ञानशंकर : साहित्यकार निश्चित तौर पर सामाजिक जीवन से प्रभावित होता है। वह समाज के दबाव की उपेक्षा नहीं कर सकता। यह बात भी स्पष्ट करती है कि साहित्य समाज का दर्पण है।
रविदोहन : नहीं, बात ऐसी नहीं है। साहित्यकार को समाज के गलत दबाव की उपेक्षा करनी ही चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो नए समाज का निर्माण भी नहीं कर पायेगा। साहित्यकार तो प्रजापति होता है। वह ब्रह्मा के समान एक समाज का निर्माण करता है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो साहित्यकार का काम तो केवल दर्पण दिखाने वाले का रह जाता है।
ज्ञानशंकर : क्या साहित्यकार सामाजिक प्राणी नहीं होता ?
रविमोहन : साहित्यकार एक सामान्य व्यक्ति की भाँति एक सामाजिक प्राणी होता है। उसकी रचना का आधार भी मानव-संबंध ही होते हैं लेकिन अंतर इतना है कि साहित्यकार भानव-संबंधों में व्याप्त विषमताओं से असंतुष्ट होकर समाज को अपनी कल्पना और रुचि के अनुसार नया रूप देता है। जीवन की यथार्थता को दर्पण की भाँति प्रतिबिंबित न करके उसे अपनी रुचि के अनुसार वर्णित करके एक नवीन समाज का निर्माण करना साहित्यकार का जन्मसिद्ध अधिकार है।
ज्ञानशंकर : इससे तो यह ध्वनित होता है कि साहित्य मानव-संबंधों से परे होता है।
रविमोहन : नहीं, साहित्य मानव-संबंधों से परे नहीं है। साहित्यकार तो जब विधाता पर साहित्य-रचना करता है तो उसे भी मानव के साकार रूप में ला खड़ा कर देता है। साहित्यकार के असंतोप की जड़ में सामाजिक मानव संबंध ही हैं। साहित्यकार इस संसार में परिवर्तन करना चाहता है। वह उन कारणों को भी स्पष्ट करता है कि उसे वर्तमान स्थिति से अरुचि क्यों है और वह किस प्रकार का परिवर्तन चाहता है ? यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो वह ऐसा नकलची बन जाता है जिसकी अपनी कोई असलियत न हो।

परीक्षण प्रश्न संभावित उत्तर
1. ज्ञानशंकर की क्या मान्यता है ? वह वाहित्य को समाज का दर्पण बताता है।
2. रविमोहन साहित्य को समाज का दर्पण क्यों नहीं मानता ? साहत्य संसार को बदलने का काम करता है।
3. साहित्यकार सामाजिक प्राणी होते हुए भी काम करता है ? साहित्यकार प्रजापति (ब्रह्मा) के समान नए समाज का निर्माण करता है।
4. क्या साहित्य मानव संबंधों से परे होता है ? नहीं, साहित्यकार मानव-संबंधों के असंतोष को दूर करता है।
5. परिवर्तन न करने वाला साहित्यकार क्या बन जाता है ? वह नकलची बन जाता है।

चनूणा-5 : थापण

प्यारे भाइयो और बहनो!
मैं वर्तमान राजनीति में आई गिरावट पर आपके सम्मुख अपने विचार प्रकट करना चाहता हूँ।
वर्तमान समय में राजनीति अपने निम्न स्तर पर पहुँचती प्रतीत होती है। पुराने समय में लोगों के कुछ आदर्श होते थे, उनके कुछ जीवन-मृल्य होते थे, जिन पर चलकर वे आदर्श समाज, आदर्श राष्ट्र की कल्पना को साकार करने का प्रयास करते थे। महात्मा गाँधी, लाल बहादुर शास्त्री. सरदार पटेल जैसे नेताओं के उदाहरण हमारे सामने हैं। इन्होने देश की निःस्वार्थ सेवा की. अपना पूरा जीवन देश को समर्षित कर दिया। उन्होंने अपने घर-परिवार के लिए कुछ नहीं किया, जों कुछ किया देश के लिए किया। आज जब हम वर्तमान नेताओं को देखते हैं तो हमारा मस्तक शर्म से झुक जाता है। बताओ क्यों ? उनकी कथनी-करनी में अंतर क्यों है ? वे धन लोभी. पद-लोभी, सत्ता-लोभी हो गए हैं। उनका कोई सिद्धांत नहीं रह गया है। जिस पार्टी में स्वार्थ सिद्ध होता हे, वहीं चले जाते हैं तथा उसी का गुणगान करने लगते हैं। क्या यह उचित है ? क्या ये नेता देश का भला कर सकेंगे ? हमें ऐसे नेताओं का सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए।

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना श्रवण 1

अभ्यासार्थ :

1. गधांश

विद्वान नम्रता को स्वतंत्रता की जननी मानते हैं। साधारण लोग भ्रमवश अहंकार को उसकी माता मानते हैं। वास्तव में वह विमाता है। आत्म संस्कार हेतु स्वतंत्रता आवश्यक है। मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए आत्मनिर्भरता जरूरी है। आत्ममर्यदा हंतु आवश्यक है कि हम बड़ों से सम्मानपूर्वक, छोटों और बराबर वालों के साथ कोमलता का व्यवहार करें। युवाओं को याद करना चाहिए कि उनका ज्ञान कम है। वे अपने लक्ष्य से पीछे हैं तथा उनकी आकांक्षाएँ उनकी योग्यता से कम हैं। हम और जो कुछ भी हमारा है, सब हमसे नम्र रहने की आशा करते हैं।

नम्रता का अर्थ दूसरों का मुँह ताकना नहीं है। इससे तो प्रज्ञा मंद पड़ जाती है। संकल्प क्षीण होता है विकास रुक जाता है तथा निर्णय क्षमता नहीं आती। मनुप्य को अपना भाग्य विधाता स्वयं होना चाहिए। अपने फैसले तुम्हें स्वयं ही करने होंगे। विश्वासपात्र मिन्न भी तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं ले सकता। हमें अनुभवी लोगों के अनुभवों से लाभ उठाना चाहिए, लेकिन हमारे निर्णयों तथा हमारे विचासों से ही हमारी रक्षा व पतन होगा। हमें नजरें तो नीचे रखनी हैं लेकिन रास्ता भी देखना है। हमारा व्यवहार कोमल तथः लक्ष्य उच्च होना चाहिए।

संसार में हरिश्चंद्र और महाराणा प्रताप जैसे अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने आजीवन कष्ट उठाए लेकन सत्य और मर्यादा नहीं छोड़ी। हरिश्चंद्र की प्रतिज्ञा थी –

“ज्न्र टरै, सूरज टरै, टरै, जगत व्यवहार
प्र की हैरिशन्द्र को, टर न सत्य विघार।”

महाराणा प्रताप की स्त्री और बच्चे भूख से तड़पते आजीवन जंगलों में भटकते रहे लेकिन स्वतंत्रता नहीं छोड़ी। इसी वृत्ति के बल पर मनुष्य परिश्रम करता है, गरीबी को झेलता है ताकि उसे थोड़ा ज्ञान मिल सके। इसी चित-वृत्ति के प्रभाव से हम प्रलोभनों व कुमंत्रणाओं पर विजय प्राप्त करते हैं तथा चरित्रवान लोगों से प्रेम करते हैं। इन वृत्ति के प्रभाव से युवा पुरुष शांत और सच्चे रह सकते हैं, मर्यादा नहीं खोते तथा बुराई में नहीं पड़ते। इसी चित्त-वृत्ति के कारण बड़े-बड़े लोग महान् कार्य करके यह सिद्ध कर सके कि कोई भी अड़चन “बस यहीं तक, और आगे न बढ़ना” उन्हें रोक नहीं सकती।

इसी के प्रभाव से दरिद्र तथा अनपढ़ लोगों ने उन्नति तथा समृद्धि प्राप्त की है। “मैं राह देखूँगा या राह निकालूँगा”‘ की कहावत इसी का परिणाम है। इसी वृत्ति को उत्तेजना से शिवाजी मुगलों को छका सके और एकलव्य एक बड़ा धनुर्धर बन सका। इसी वृत्ति से मनुष्य महान बनता है, जीवन सार्थक और उद्देश्यपूर्ण बनता है तथा उत्तम संस्कार आते हैं। वही मनुष्य कर्म क्षेत्र में श्रेष्ठ और उत्तम रहते हैं जिनमें बुद्धि, चतुराई तथा दृढ़ निश्चय है वे ही दूसरों को भी श्रेष्ठ बनाते हैं।

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना श्रवण 2

2. काव्यांश
ज्यों निकलकर बादलों की गोद से,
थी अभी इक बूँद कुछ आगे बढ़ी।
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह, क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी।

देव मेरे भाग्य में है क्या बता,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में।
जल उठूँगी गिर अँगारे पर किसी,
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में।

बह उठी उस काल इक ऐसी हवा,
वह समंदर ओर आई अनमनी।
एक सुंदर सीप का था मुँह खुला,
वह उसी में जा गिरी, मोती बनी।

लोक अक्सर हैं झिझकते-सोचते,
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।
किंतु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें,
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना श्रवण 3

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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CBSE Class 12 Hindi Elective रचना वाचन

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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana वाचन

वाचन-कौशल (Speaking Skill)

वाचन या बोलना भाषा का वह रूप है जिसका प्रयोग सर्वाधिक होता है। वाचन में दक्षता लाने के लिए इसके विभिन्न रूपों का अभ्यास करना पड़ता है। वाचन के दो रूप हैं : 1 . मौन वाचन, 2 . सस्वर वाचन।
मौखिक अभिव्यक्ति में कुशलता प्राप्त करने के लिए सस्वर वाचन का अभ्यास आवश्यक है।
वाचन में निम्नलिखित गतिविधियाँ शामिल हैं :

  • भाषण
  • सस्वर कविता पाठ
  • वार्तालाप और उसकी औपचारिकता
  • कार्यक्रम-प्रस्तुति
  • कथा-कहानी अथवा घटना सुनाना
  • परिचय देना
  • भावानुकूल संवाद वाचन
  • चित्रों पर आधारित वर्णन
  • चित्र-कथा का वर्णन
  • निर्धारित विषय पर बोलना
  • हास्य-प्रसंग
  • सिनेमा की कहानी सुनाना आदि।

कुल तीन प्रश्न पूछे जा सकते हैं :

टिप्पणी : जब परीक्षार्थी बोलना आरंभ करे तो परीक्षक कम-से-कम हस्तक्षेप करे।

नमूना-1 : भाषण

भाषण वाचन (बोलने) का उत्कृष्ट रूप है। भाषण देने से पूर्व निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान देना चाहिए :

  • प्रारंभ में पूरा भाषण लिखकर याद कर लेना चाहिए।
  • भाषण के मुख्य बिंदुओं को निश्चित कर लेना चाहिए।
  • भाषण की भाषा सरल एवं रोचक होनी चाहिए।
  • भाषण के प्रारंभ में संबोधनों का प्रयोग करना चाहिए।
  • समय-सीमा का ध्यान रखना चाहिए।
  • भाषण देते समय भाव-भंगिमा का भी प्रदर्शन करना चाहिए।

परीक्षक इन्हीं बिन्दुओं पर परीक्षार्थी का मूल्यांकन करेगा।

विषय : चरित्र-निर्माण में साहित्य का योगदान

आदरणीय अध्यापक वर्ग एवं मेरे प्रिय मित्रो !
मैं आपके सम्मुख ‘चरित्र निर्माण में साहित्य के योगदान’ विषय पर अपने विचार प्रकट कर रहा हूँ।
‘ज्ञानराशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।’ साहित्य का मानव जीवन में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका प्रमुख कारण है कि साहित्य के अंदर मानव-जीवन ही प्रतिबिंबित रहता है। साहित्य मानव के ज्ञान का भंडार है। अपने मूल रूप से मानव जिन विचारों और भावों को परंपरा से संचित करता आया है, वे ही भाषा में लिपिबद्ध होकर साहित्य में संचित होते हैं।

साहित्य के रसास्वाद में मस्तिष्क का पोषण होता है। यदि साहित्य रूपी भोजन मस्तिष्क को प्राप्त न हो तो शनै: शनै: मस्तिष्क निष्क्रिय हो जाता है। मस्तिष्क को स्वस्थ और क्रियाशील रखने के लिए साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। विकृत साहित्य मस्तिष्क को दूषित बना देता है। जहाँ समाज ही साहित्य का जन्मदाता है, वहीं साहित्य भी समाज को प्रेरणा और नया रूप देता है। अत: जो समाज जितना ही समृद्ध एवं विकसित होगा, उसका साहित्य भी उतना समृद्ध एवं विकसित होगा।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे अपने चरित्र में ईश्वरीय गुणों का सौंदर्य विरासत में मिला है। अतः मनुष्य दिव्य एवं चरित्रवान है। समाज के नियम उसके व्यक्तित्व को जटिल बना देते हैं। हिंसा, प्रतिहिंसा, स्वार्थ, शोषण, अत्याचार आदि प्रवृत्तियाँ समाज की ही देन हैं। इनसे उनमें असुरत्व आ जाता है। मानव स्वभाव से देवतुल्य है, मगर जमाने के छल-प्रपंच और परिस्थितियों के वशीभूत होकर वह अपना देवत्व खो बैठता है। साहित्य इसी देवत्व को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करता है। वह यह कार्य उपदेशों से नहीं, बल्कि अपने हृदय के भावों को स्पंदित करके, मन के कोमल तारों पर चोट लगाकर प्रकृति से सामंजस्य उत्पन्न करके करता है। बिहारी के इस दोहे ने राजा जयसिंह की काम-योग मदांधता को तिरोहित कर दिया था :

“नहिं पराग नहि मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल
अलि कली ही सों बिंध्यों आगे कौन हवाल।”

तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ तो मानव-चरित्र-निर्माण की आधारशिला बन गया है। इसने हमारे सोचने-समझने की दिशा को ही बदल दिया है। प्रत्येक पात्र का चरित्र हमें दिशा-निर्देश देता-सा प्रतीत होता है। श्रीराम का चरित्र आदर्श एवं प्रजावत्सल राजा के रूप में, लक्ष्मण का चरित्र आदर्श भाई के रूप में, माता-सीता का चरित्र आदर्श पत्नी के रूप में तथा हनुमान का आदर्श सेवक के रूप में समाज में प्रतिष्ठा पा चुका है। साहित्यकार अपने साहित्य के माध्यम से समाज को दिशा दिखाता है। वह हमें हर प्रकार के अन्याय से जूझने की प्रेरणा देता है। रामविलास शर्मा के शब्दों में :

“साहित्य का पांचजन्म समरभूमि में उदासीनता का राग नहीं सुनाता। वह मनुष्य को भाग्य के आसरे बैठने और पिंजरे में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा नहीं देता। इस तरह की प्रेरणा देने वालों के पंख वह कतर देता है।”

साहित्यकार तो प्रजापति की भूमिका का निर्वाह करता है। वह व्यक्ति के चरित्र-निर्माण में महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। उसका उत्तरदायित्व अत्यंत महान है। महादेवी वर्मा लिखती हैं :

धूल पोंछ कांटे मत गिन छाले मत सहला
मत ठंडे संकल्प आँसुओं से तू बहला,
तुझसे तो यदि अन्नि-स्नान यह प्रलय महोत्सक
तभी मरण का स्वाति-गान जीवन गएएा।

साहित्य तो व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ व्यक्ति को कर्मवीर बनाने की प्रेरणा इन शब्दों में देते हैं :

“देखकर बाधा विविघ, बहु विज्न घबराते नडीं।
भूलकर वे दूसरों का, मुँह कभी ताकते नहीं “

इस प्रकार साहित्य व्यक्ति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। साहित्य की भूमिका अत्यंत विस्तृत है।

नमूना-2 : सस्वर कविता पाठ

सस्वर कविता-पाठ में निम्नलिखित बिंदुओं पर मूल्यांकन किया जाएगा-

  • कविता का प्रभावपूर्ण सस्वर वाचन।
  • शुद्ध उच्चारण।
  • सही स्वराघात-बलाघात, आरोह-अवरोह का निर्वाह।
  • कविता में उचित अनुतान, यति, गति आदि पर ध्यान।
  • कविता के रस के अनुरूप चेहरे पर भावाभिव्यक्ति।
  • आवाज का सही सुनना।

कविता के उदाहरण-

1. तोड़ती पत्बर

वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन ? भर बँँधा यौवन,
नतनयन, प्रिय कर्म-रत-मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु मलिका अद्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी शूप
गरमियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप,
उठी झुलसती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगी छा गई
प्रायः हुई दुपहर-
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्न तार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
‘मैं तोड़ती पत्थर।’

2. कर्मबीर

देखकर बाधा विविध बहु विए घराबते नहीं,
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं।
काम कितना ही कठिन हो, किंतु उकताते नहीं,
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।
हो गए इक आन में उनके बुरे दिन भी भले,
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले-फले॥
जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं,
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं।
आज-कल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं,
यत्न करने में कभी जो जी चुराते हैं नहीं।
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके किए,
वे नमूना आप बन जाते हैं, औरों के लिए।
सब तरह से आज जितने देश हैं फूले-फले,
बुद्धि, विद्या, धन, विभव के हैं जहाँ डेरे डले।
वे बनाने से उन्हीं के बन गए इतने भले,
वे सभी हैं हाथ से ऐसे सपूतों के पले।

3. ग्लोळल वारीज

‘ग्लोबल वार्मिग’, ‘ग्लोबल वार्मिग’
मच रहा है चारों ओर हाहाकार। तप उठी है धरती,
जल-प्रलय होगा संसार।
मनुष्य द्वारा किए प्रदूषण के कारण
पिघल उठेंगे सब हिम-पर्वत
धरातल के तापमान में हो जाएगी इतनी वृद्धि
कि डूब जाएगी उसमें सारी धरती।
बर्फराशियाँ पिघल जाएँगी
बिगड़ जाएगा पृथ्वी का संतुलन।
वायुमंडल में अगर हो गई CO<sub>2</sub> दुगुनी
बढ़ जाएगी मनुष्य की मुसीबत उतनी
हे मनुष्य ! अब तो तू जाग जा,
धरती को बर्बाद होने से बचा।
नियंत्रित कर ले प्रदूषण सारा,
धरती को कर दे हरा-भरा और प्यारा।

नमूना-3 : वाद-विधाद

  • वाद-विवाद का विपय पहले से ही निर्धारित कर लिया जाता है।
  • इसमें एक वक्ता पक्ष में तथा दूसरा वक्ता विपक्ष में तर्क प्रस्तुत करता है।
  • वक्ता अपना पक्ष तो मजबूती से रखता है, पर विपक्षी के तकों का खंडन करता है।
  • निर्धारित समय का पालन आवश्यक है।
  • मूल्यांकन में तकों, अभिव्यक्ति तथा वोलने के ढंग को ध्यान में रखा जाएगा।

उदाहरण-

देश के विकास के लिए हिंदी आवश्यक

पक्ष में : माननीय अध्यक्ष महोदय,
मैं देश के विकास के लिए हिंदी की आवश्यकता के पक्ष में बोल रहा हूँ। हिंदी हमारे देश की राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा है। हमें इसे अपनाना ही होगा। हिंदी जन-जन की भाषा है। हम अपने विचार हिंदी भाषा में कुशलतापूर्वक प्रकट कर सकते हैं। विदेशी भाषा से हमारी उन्नति कभी नहीं हो सकती।

हमारी संस्कृति संस्कृत और हिंदी के माध्यम से ही विकसित हुई है। हमें अपनी संस्कृति की रक्षा करनी है तो हिंदी को अपनाना ही होगा। हिंदी के अभाव में हमारी संस्कृति दम तोड़ देगी। भारत की अधिकांश जनसंख्या हिंदी बोलती और समझती है। अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या पाँच प्रतिशत से अधिक नहीं है अतः यह भाषा हमारी नहीं हो सकती। अंग्रेजी को अपनाना हमारी मानसिक गुलामी का परिचायक है। इससे हममें आत्महीनता की भावना विकसित होती है। हमें अपनी हिंदी भाषा पर गर्व होना चाहिए।

विपक्ष में : माननीय अध्यक्ष महोदय,
मेरे पूर्व वक्ता ने हिंदी की वकालत करते हुए कई दलीलें दी हैं, पर ये दलीलें पहले भी कई बार दी जा चुकी हैं। अब उनमें दम नहीं रह गया है। संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा बनाने का निर्णय पन्द्रह वर्ष के लिए स्थगित रखा था। कारण था-हिंदी में राजकाज चलाने की क्षमता का अभाव। आज भी स्थिति यह है कि अंग्रेजी के बिना राज-काज नहीं चल सकता। अतः अंग्रेजी की आवश्यकता बनी हुई है।

अब भारत में अंग्रेजी पढ़े-लिखे व्यक्तियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। सभी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं। क्यों ? वे जानते हैं कि भविष्य में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने वाला है। अंग्रेजी विश्व की भाषा है जबकि हिंदी केवल भारत की भाषा है। हमें विश्व नागरिकता की ओर बढ़ना है तो अंग्रेजी सीखनी और प्रयोग करनी होगी। मैं पूर्व वक्ता की इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ कि-अंग्रेजी से हमारी संस्कृति दम तोड़ देगी। संस्कृति का विकास किसी भी भाषा से हो सकता है। अत: अंग्रेजी भाषा के महत्व को नकारा नहीं जा सकता।

वाद-विवाद के कुछ अन्य विषय इस प्रकार हो सकते हैं –
(क) विद्यार्थियों को दूरदर्शन से दूर रहना चाहिए।
(ख) हमारे देश में गरीबी का प्रमुख कारण जनसंख्या वृद्धि है।
(ग) हिंसा पर अहिंसा की विजय होती है।
(घ) मीडिया की भूमिका आवश्यक है।

नमूना-4 : लेख का वाचन

1. नियमित टहलना-स्वस्थ जीवन का आधार

पैदल चलना हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। पैदल चलने से हमारे तन व मन को सुरक्षा मिलती है। सुबह-शाम नियमित सैर करने से हमारा शरीर सक्रिय रहता है। शरीर के स्वस्थ व सक्रिय रहने से हमारा मन भी अच्छा रहता है। मन अच्छा रहने से शरीर बीमारियों की गिरफ्त में कम आ पाता है और स्वस्थ शरीर तथा स्वच्छ मन से बढ़कर सौभाग्य और क्या हो सकता है ? इसलिए स्वास्थ्य विशेषज्ञ शरीर के लंबे समय तक स्वस्थ रहने के लिए नियमित रूप से पैदल चलने की सलाह देते हैं और प्रातःकालीन पैदल चलना तो शरीर व मन के स्वास्थ्य के लिए किसी वरदान से कम नहीं होता।

विशेषज्ञ सेहत में सुधार के लिए प्रतिदिन 6000 कदम और वजन कम करने के लिए 10,000 कदम चलने की सलाह देते हैं। वर्ष 2000 में किए गए एक शोध के अनुसार, नियमित रूप से सैर करना प्रति वर्ष सेहत पर किए जाने वाले खर्च में से 330 डॉलर यानी 20 हजार रुपये तक बचा सकता है। पहले के समय में नियमित पैदल चलना प्रत्येक की दिनचर्या में सम्मिलित था; जबकि आजकल तो छोटे बच्चे भी उतना पैदल नहीं चल पा रहे हैं, जितना पहले चला करते थे। प्राप्त आँकड़ों के अनुसार, सन् 1970 के दशक में 66 प्रतिशत बच्चे पैदल स्कूल जाते थे; जबकि वर्तमान समय में यह सिर्फ 13 प्रतिशत है और इसी कारण पहले की तुलना में वर्तमान समय में बच्चे अधिक बीमार पड़ते दिखते हैं।

शोधकर्त्ताओं की दृष्टि में पैदल चलने के चलन का कम होना दुर्भाग्यपूर्ण है; क्योंकि अब लोग पैदल चलने को छोटा काम समझते हैं और बाइक, कार आदि में घूमने में अपनी शान समझते हैं। कुछ अध्ययनों के अनुसार, प्रति सप्ताह 3 से 5 घंटे पैदल चलना कैंसर से पीड़ित लोगों में जीवन-प्रत्याशा में 50 प्रतिशत तक की वृद्धि करता है। वहीं प्रतिदिन 1 घंटे की सैर और 1500 कैलोरी का सेवन करने वाली महिलाएँ इसके द्वारा अपना वजन नियंत्रित रख सकती हैं।

इसी तरह 90 मिनट तक प्रति सप्ताह पैदल चलने वाले प्रोस्टेट कैंसर के मरीजों में जीवन-प्रत्याशा में 50 प्रतिशत तक की वृद्धि होती देखी गई हैं। जो महिलाएँ नियमित सैर करती हैं, उनमें कोलोन कैंसर की आशंका व्यायाम या सैर न करने वाली महिलाओं की तुलना में 31 प्रतिशत तक कम हो जाती है। सुबह सैर करने के फायदे भी दोगुने होते हैं, इससे शरीर को कैल्शियम व विटामिन-डी का स्तर सुधारने में बहुत मदद मिलती है।

शोध अध्ययन यह बताते हैं कि जो लोग हर सप्ताह 6 से 9 मील तक चलते हैं, उनमें बढ़ती उम्र के साथ याददाश्त कम होने की डिमेन्शिया जैसी समस्या की आशंका कम हो जाती है। डिमेन्शिया एक तंत्रिका तंत्र संबंधी समस्या है, जिसमें धीरे-धीरे व्यक्ति की याददाश्त कमजोर होने लगती है और वह संज्ञानात्मक कार्य करने में कठिनाई अनुभव करने लगता है। ऐसा व्यक्ति धीरे-धीरे अपने काम करने के लिए दूसरों पर निर्भर होने लगता है, लेकिन नियमित सैर के माध्यम से इन व्यक्तियों की स्मृति क्षमता में सुधार होते देखा गया है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, नियमित चलने से होने वाला शारीरिक व्यायाम हिप्पोकेंपस के आकार को बढ़ाने में मदद करता है; जबकि एक गतिहीन जीवनशैली हिप्पोकैंपस के आकार को कम करती है, जिससे याददाश्त कमजोर हो जाती है। सुबह-शाम सैर करने की प्रक्रिया एंडोरफिन्स नामक न्यूरोपेप्टाइड्स को स्नावित करती है, जिससे शरीर को आराम मिलता है और बेचैनी व चिड़चिड़ेपन जैसे लक्षणों में भी सुधार होता है।

प्रतिदिन 30 मिनट की सैर हृदय रोग के खतरे को भी कम करती हैं साथ ही इससे तनाव. कोलम्ट्रॉल और ब्लडप्रेशर पर काबू पाने में भी मदद मिलती है। आयरिश वैज्ञानिकों के अनुसार, हृदय रोगों के जोखिम को कम करन क लिए पैदल चलना, विशेषकर वयस्कों के लिए सबसे अच्छा व्यायाम है।

2. रोकें भोजन की बर्बादी

शादियों में खाने की बर्बादी रोकने के लिए दिल्ली सरकार ने एक पॉलिसी बनाने का निर्णय किया है। मंगलवार को उसने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह विवाह समारोहों में मेहमानों की संख्या सीमित करने और कैटरिंग सिस्टम को दुरुस्त बनाने पर विचार कर रही है। दिल्ली के मुख्य सचिव विजय कुमार देव ने जस्टिस मदन बी. लोकुर की बेंच को बताया कि कोर्ट के 5 दिसंबर के आदेश में उठाए गए इस मुद्दे पर सरकार ने गंभीरता से चर्चा की है।

इस आदेश में कोर्ट ने शादी समारोहों में खाने और पानी की बर्बादी पर चिंता व्यक्त की थी। बेंच ने मुख्य सचिव को अगले 6 हफ्ते के अंदर इस मामले में पॉलिसी तैयार करने का आदेश दिया है। पिछले कुछ वर्षों में शादियों में तामझाम काफी बढ़ा है। शादियाँ अपनी हैसियत दिखाने का जरिया बन गई हैं। इस अवसर पर खानपान में भी खूब इजाफा हुआ है, लेकिन उसका एक बड़ा हिस्सा प्रायः बेकार पड़ा रह जाता है।

अक्सर लोग अपनी आवश्यकता से अधिक खाना ले लेते हैं और बाद में कचरे में फेंक देते हैं। भारत जैसे देश में, जहाँ लगभग 19 करोड़ लोग रोज भूखे पेट हने को मजबूर हैं, भोजन की बड़े पैमाने पर बर्बादी एक त्रासदी है। मगर शादी जैसे सामाजिक मसले में हस्तक्षेप करने का साहस आम तौर पर सरकारें नहीं करती हैं। अब अगर दिल्ली सरकार यह कदम उठा रही है तो उसके साहस की प्रशंसा की जानी चाहिए। यह काम बहुत आसान नहीं है। सबसे पहले तो लोग इसका यही कहकर विरोध कर सकते हैं कि सामाजिक परंपराओं में सरकार कैसे दखल दे सकती है। लोगों ने तो इसी नाम पर सीमित मात्रा में पटाखा जलाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियाँ उड़ा दीं।

मेहमानों की संख्या सीमित करने का विचार बहुत व्यावहारिक नहीं लगता। सवाल है कि किस आधार पर संख्या तय की जाएगी ? लोग इसमें भी कई छिद्र निकाल लेंगे। हाँ, यह नियम बनाया जा सकता है कि सड़कों पर बारात किसी एक जगह पर निश्चित समय से ज्यादा खड़ी नहीं रह सकती। इससे ट्रैफिक जाम से कुछ राहत मिलेगी। विवाह-स्थल दिए जाने में कुछ शर्तें जोड़ दी जाएँ। आमतौर पर राजधानी में जितने भी बैंक्विट हॉल, फार्म हाउस और अन्य विवाह-स्थल हैं, वे किसी न किसी रूप में सरकार के रेगुलेशन के तहत आते हैं।

उनके लिए कई नियम बनाए जा सकते हैं। जैसे इनकी सेवा के बदले यह शर्त रखी जाए कि मेजबान बचे हुए खाने को किसी संस्था को दे देंगे। दिल्ली सरकार का यह प्रस्ताव महत्त्वपूर्ण है कि कैटरर और बेसहारा लोगों को खाना उपलब्ध कराने वाले एनजीओ के बीच एक व्यवस्था बनाई जाए। दिल्ली के अलावा और राज्यों को भी इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। सामाजिक-धार्मिक संगठन भी इस दिशा में सामने आएँ और इस मुद्दे पर लोगों में जागरूकता फैलाने का कार्य करें।

नमूना-5 : समाचार-वाचन

1. जब दिल्ली वालों को सर्दी में हुआ उर्दू से रोमांस

नई दिल्ली : छाप तिलक सब छीनी….कव्वाली का राग वारसी ब्रदर्स ने जश्ने रेख्ता में छेड़ा तो दिल्ली के नैशनल स्टेडियम में उर्दू का बड़ा फेस्टिवल परवान चढ़ चुका था। कव्वालियों के सुर जा जादू चला तो हजारों लोग झूमने लगे। युवाओं की तादाद बहुत थी। सर्द मौसम में दिल्ली में गर्माहट लाने वाले जश्ने रेख्ता का यह पांचवां एडिशन है। रविवार को आखिरी दिन होने प़र काफी तादाद में लोगों की पहुंचने की संभावना है। रेख्ता पाउंडेशन का ये जश्न संस्कृति का महाकुंभ बनता जा रहा है। इस बार चार बड़े हिस्सों में कार्यक्रम हो रहे हैं।

दो शायर एक क्रहानी : गीतकार जावेद अख्तर और शबाना आजमी ने जब दो शायरों की कहानी सुनाई तो सुनने वाले किसी और वक्त में जा चुके थे। शायर जां निसार अख्तर और कैफी आजमी की शायरी और जिंदगी पर उनके अपने बच्चों से अच्छा भला कौन बता सकता है। दोनों ने उनकी नज्में पढ़ीं।

खतरे में नहीं है उर्दू : जावेद जाफरी के साथ आतिका अहमद की बातचीत शुरू हुई तो लोग वाह-वाह कर उठे। जावेद जाफरी अपने व्यंग्य के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने कहा कि लोग कहते हैं उर्दू खतरे में है, मैं तो कहूँगा कि कतरे कतरे में है। आजकल नाम बदलने का सिलसिला चला है। ऐसे में अकबर इलाहबादी और मुरादाबादी जैसे शायरों का क्या होगा, सोचकर परेशान हो जाता इकबाल याद आए : उर्दू की बात हो तो अल्लामा इकबाल का जिक्र जरूर आता है। इकबाल की शायरी का अध्ययन करने वाले पौलेंड के प्रोफेसर पियोत्रे क्लोदकोवस्की ने यूरापियन नजरिये से इकबाल को पेश किया।

उनका कहना है कि मैं हिंदुस्तान में भी रहा और पाकिस्तान में भी मुझे इकबाल सूफी लगते हैं। उनकी शायरी में दार्शनिकता है। उनके साथ आए पालैंड के एम्बैसेडर एडम बुराकोवस्की ने कहा कि मैं 21 साल से हिंदी और उर्दू लिख-पढ़ रहा हूँ। जश्न में पहली बार शामिल होने पर काफी खुश दिखे। कबीर की बानी पर चर्चा : कबीर को लेकर हुई चर्चा में हिंदी के प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल और उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्ला के बीच काफी जोरदार चर्चा हुई। इस बातचीत का संचालन कर रहे कबीर को चाहने वाले पत्रकार दिबांग ने कई बार चर्चा को दिलचस्प बनाया।

वास्तानगोई, नए शायर और गजलें : मुगलों के वक्त की दास्तानगोई कला को फिर से जिंदा करने वाले दास्तानगो महमूद फारुखी को यहां लोग दमसाधे सुनते रहे। इस कला की खास बात यह है कि दास्तान सुनाते हुए मंजर गढ़े जाते हैं और लोग कल्पना करते चले जाते हैं। नए शायरों को भी मौका मिला और खुली निशित में उन्होंने अपना फन दिखाया।

2. गैर लड़ालू भूमिकाओं में सेना बढ़ाएगी महिलाओं की संख्या

भाषा, हैदराबाद : आर्मी चीफ जनरल बिपिन रावत ने शनिवार को कहा कि सेना में ट्रांलेटर और साइबर एक्सपर्ट जैसी गैर लड़ाकू भूमिकाओं में महिलाओं की संख्या बढ़ाई जाएगी। उन्होंने डुंडीगल स्थित वायुसेना अकादमी में संवाददाताओं से कहा कि सेना पुलिस में महिलाओं की भर्ती पर भी विचार किया जा रहा है।

उन्होंने कहा कि हम कह रहे हैं कि हम संख्या बढ़ाने जा रहे हैं। महिलाएँ पहले से ही सेना में हैं। अब हम धीरे-धीरे उन्हें अन्य कैडरों में भी लेने जा रहे हैं। हम भारतीय सेना में महिला अधिकारियों की संख्या बढ़ा रहे हैं। उन्होंने इस संबंध में एक सवाल के जवाब में कहा कि सेना में महिलाएँ कानून और शिक्षा के क्षेत्रों में पहले से ही हैं। आर्मी चीफ ने कहा कि मैं मिलिटरी पुलिस में भी महिला जवान चाहता हूं।

सैन्य पुलिस सेवा में सैनिक के रूप में महिलाओं की भर्ती और फिर इसके बाद देखा जाएगा कि क्या भूमिका विस्तार की कोई गुंजाइश है। पिछले महीने के शुरू में पुणे में नेशनल डिफेंस एकेडमी में 135 वें कोर्स की पासिंग आउट परेड के बाद उन्होंने कहा था कि सेना अभी लड़ाकू भूमिकाओं में महिलाओं को लेने के लिए तैयार नहीं है। ग्रेजुएट अधिकारियों में लड़ाकू पायलट प्रिया शर्मा भी शामिल थीं जो भारतीय वायुसेना की सातवीं महिला लड़ाकू पायलट और राजस्थान के झुंजुनू हिले से ताल्तुक रखने वाली तीसरी महिला लड़ाकू पायलट हैं।

नमूना-6 : चित्र-बर्णन

नीचे बने चित्र को देखकर इसका वर्णन अपने शब्दों में कीजिए :

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना वाचन 1

नमूना-7 : चित्र-कथा वर्णन

नीचे बने चित्रों को देखकर कथा का वाचन कीजिए-

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना वाचन 2

नमूना-8 : चलचित्र (सिनेमा) की कहानी कहना

1. फिल्म का नाम : स्पाइडर मैन इन टु द स्पाइडर-वर्स

स्पाइडर मैन इन टु द स्पाइडखर्स एक एनिमेशन फिल्म है. जिसमें बेहतरीन एक्शन दिखाया गया है, तो स्पाइडर मैन के फैंस के लिए आधा स्पाइडर मैन मौजुद है। यह फिल्म कांमिक्स की कहानी पर आधारित है। फिल्म की कहानी के मुताबिक माइल्स मोरेल्स न्ययॉर्क के ब्रूकलिन में रहता है। उसकी अपने पुलिस ऑफिसर पापा से ज्यादा नहीं पटती, इसलिए वह अपने अंकल के ज्यादा करीब है। एक दिन माइल्स अंकल के साथ उनके एक ठिकाने पर गया, जहाँ उसे एक रेडियो एक्टिव मकड़ी काट लेती है। उसके बाद उसे खुद के स्पाइडर मैन बनने का अहसास होता है।

उधर असली स्पाइडर मैन यानी कि पीटर पार्कर की भिड़ंत विलन किंगपिन से होती है, जो कि सुपर कोलाइडर मशीन की मदद से दूसरे ब्रह्गण्ड के लोगों को इस दुनिया में लाना चाहता है। इस लड़ाई में पीटर पार्कर मारा जाता है, लेकिन उससे पहले वह माइल्स को किंगपिन को रोकने की जिम्मेदारी सौंप जाता है। माइल्स की परेशानी यह है कि वह अभी अपनी शक्तियों का पूरी तरह इस्तेमाल नहीं कर पाता। तभी एक दिन उसकी मुलाकात एक और स्पाइडर मैन से होती है। दरअसल कोलाइडर मशीन में हुए धमाके की वजह से दूसरे ब्रहाण्ड का स्पाइडर मैन इस दुनिया में आ गया था।

वह माइल्स को स्पाइडर मैन बनने की ट्रेनिंग देता है। उसके अलावा दूसरे ब्रहांडों से कुछ और स्पाइडर मैन और वीमेन भी इस दुनिया में आ गए हैं। इन सबके सामने बस एक ही मिशन है कि उन्हें किंगपिन की सुपर कोलाइडर मशीन को बर्बाद करना है और मशीन बर्बाद होने से पहले अपने-अपने ब्रहाण्ड में वापस जाना है। दूसरे ब्रहाण्ड से आया पीटर पार्कर खुद यहाँ रक कर बाकी स्पाइडर मैन और वीमेन को वापस भेजने का बीड़ा उठाता है। इस लड़ाई का क्या अंजाम होता है ? यह जानने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा।

फिल्म के डायरेक्सर्स ने स्पाइडर मैन के चाहने वालों को बेहतरीन सरप्राइज दिया है। बेशक इतने सारे स्पाइडर मैन और बीमेन को एक साथ पर्द पर देखना फैंस के लिए किसी ट्रीट से कम नहीं था। अलग-अलग खूबियों से लैस ये सारे सुपर हीरो पर्द पर कमाल दिखाते हैं, तो फैंस हैरान रह जाते हैं। फिल्म में एनीमेशन का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है, जिसके चलते कामिक्स के कैरक्टर भी काफी हद तक आरिजिल लगते हैं। वहीं सुपर कोलाइडर मशीन के चलने और लड़ाई के सीन भी दिलचस्य हैं। फिल्म के हिंदी वर्जन में मजेदार डबिंग हुई है। फिल्म को एन्जॉय करने के लिए इसका 3 डी वर्जन देखें। स्पाइडर मैन के ढेरों अवतारों से लैस इस फिल्म को दुनियाभर में पसंद किया जा रहा है।

2. फिल्म का नाम : एक्वामैन
समंदर की रोमांचक दुनिया

डीसी कॉमिक्स के करैक्टर एक्वामैन पर बेस्ड फिल्म एक्वामैन का रिलीज से पहले ही जबर्दस्त क्रेज है। इस फिल्म की रिलीज डेट काफी पहले ही 21 दिसंबर अनाउंस कर दी गई थी। ऐसे में, इसका मुकाबला शाहरखख खान की अगले हफते रिलीज हो रही महत्वाकांक्षी फिल्म जीरो से होता। लेकिन शायद 14 दिसंबर की रिलीज डेट को कोई और हिंदी फिल्म रिलीज नही होने की वजह से एक्वामैन को इंडिया में एक हफ्ता प्रीपॉन कर दिया गया जबकि अमेरिका में यह फिल्म अगले हफ्ते ही रिलीज होगी।

फिल्म की कहानी कुछ यूं है कि अमेरिका में एक लाइट हाऊस का रखवाला थॉमस एक दिन समंदर में आए एक तूफान के दौरान एक राज्य अटलांटिस की मल्लिका अटलाना की जान बचाता है, जो अपने देश से भाग कर आई है। उन दोनों से प्यार हो जाता है और उनके बेटे आर्थर का जन्म होता है। कुछ समय बाद अटलांटिस के राजा को अटलाना की खबर लग जाती है। ऐसे में अपने बेटे और पति की हिफाजत की खातिर अटलाना अपने देश लौट जाती है।

आर्थर का सौतेला भाई ओरम अटलांटिस का राजा बन जाता है। वह धरती पर बढ़ते प्रदूषण के चलते समंदर को हो रहे नुकसान का हवाला देकर धरती वालों के खिलाफ जंग छंड़ना चाहता है। क्या आर्थर ओरम को मात देकर धरती को बचा पाता है ? यह जानने के लिए आपको सिनेमा जाना होगा। फिल्म के डायरेक्टर जेम्स वान ने बेहद रोमांचक कहानी के माध्यम से समंदर में बढ़ रहे प्रदूषण के मुद्दे को छुआ है और लोगों को संदेश देने की कोशिश की है कि अगर हम नहीं माने, तो एक दिन समंदर अपना बंला लेगा और तब हमें बचाने कोई एक्वामैन भी नहीं आएगा। समंदर के भीतर की दुनिया और वहाँ के राज्य काफी जबरदस्त लगते हैं। समंदर के भीतर बसे राज्यों की जंग देखकर आप हैरान रह जाएँगे। फिल्म की कहानी का करीब 90 फीसदी हिस्सा पानी के भीतर है, जो कि आपको रोमांचित करता है।

इस फिल्म का 3 डी वर्जन बेहद जबर्दस्त है। खासकर समंदर में लड़ाई के सीन बेहद दिलचस्प लगते हैं। पूरी फिल्म के दौरान आपको लगेगा कि आप समंदर की रोमांचक दुनिया में पहूँच गए हैं। इस फिल्म को पूरी तरह एन्जॉय करने के लिए इसे 3 डी में ही देखें। इस फिल्म को आईएमडीबी पर $8.2$ रेटिंग मिली है।

3. फिल्म का नाम : जीरो

कलाकार : शाहरुख खान, कटरीना कैफ, अनुष्का शर्मा, मोहम्मद जीशान अय्यूब, तिग्मांशु धूलिया, अभय देओल, बृज्जेंद्र काला, शीबा चड्ठा।
फिल्म की कहानी : ‘जीोो’ मेरठ में रहने वाले बउआ सिंह (शाहरुख खान) की कहानी है। शहर के मशहूर ठिकाने घंटाघर पर रहने वाले बउआ की उम्र 38 साल हो चुकी है। लेकिन अपने छोटे कद की वजह से अभी तक उसकी शादी नहीं हो पाई है। वह अपने दोस्त गुड्डू (मोहम्मद जीशान अय्यूब) के साथ मिल कर अपने लिए दुल्हन तलाशता रहता है। एक मैरिज ब्रोकर से बउआ को आफिया यूसुफजई भिंडर (अनुष्का शर्मा) के बारे में पता लगता है।

साइंटिस्ट आफिया को सेरेब्रल पाल्सी की प्रॉब्लम है। आफिया और बडआ करीब आते हैं, लेकिन बडआ सुपरस्टार बबीता कुमारी (कैटरीना कैफ) से मिलने के चक्कर में आफिया को शादी के मंडप में छोड़कर भाग जाता है। बाद में जब बउआ का प्यार आफिया के लिए दोबारा जागता है, तब वह उसे भाव नहीं देती। क्या बउआ अपनी माशूका को दोबारा हासिल कर पाता है ? यह जानने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा।

देसी फ्लेवर की फिल्मों के उस्ताद माने जाने वाले आनंद एल राय ने मेरठ के ठेठ देसी इलाके घंटाघर से फिल्म की मजेदार शुरुआत की, जो दर्शकों में एक और मजेदार फिल्म की उम्मीद जगाती है, लेकिन अफसोस कि वह बउआ जैसे शातिर इंसान और विकलांग आफिया के बीच लव स्टोरी को सही तरह से पका नहीं पाए। फर्स्ट आफ में बडआ उसके दोस्तु गुड्डू और मेरठ के सीन्स आपको गुदगुदाते हैं, लेकिन आफिया और बउआ के लंबे सीन्स आपको बोर करने लगते हैं। इंटरवल तक आप सेकंड हाफ का इंतजार करते हैं, लेकिन सेकंड हाफ में न्यूयॉर्क पहुँची कहानी पूरी तरह पटरी से उतर जाती है।

कैटरीना के साथ बउआ के सीन्स फिर भी कुछ मजेदार लगते हैं, लेकिन आफिया को दोबारा मनाने की कोशिश में जुटे बउआ के तमाम सीन्स आपको हजम नहीं हो पाएँगे। मसलन आपको सिनेमा से निकल कर यह कतई समझ नहीं आएगा कि घर से भाग गए बउआ के पास इतना पैसा कहाँ से आता है कि वह मुंबई से लेकर न्यूयॉर्क तक पहुँच जाता है। फिल्म के सेकंड हाफ में कमजोर कहानी आपको निराश करती है।

फिल्म में शाहरखख खान ने बौने के रोल में बढ़िया एक्टिंग की है। रोमांटिक फिल्मों के किंग ने मेरठ के देसी लौंडे के रोल में दर्शकों को खूब हँसाया है। वहीं अनुष्का ने आफिया ने चैलेंजिंग रोल में अच्छी एक्टिंग की है। कैटरीना का फिल्म में बहुत ज्यादा रोल नहीं है।

नमूना-9 : कहानी कहना

एक बार मोहम्मद साहब भोजन कर रहे थे। तभी एक भिखारी आया और अपना कटोरा मोहम्मद साहब के सामने फैलाकर कहने लगा अल्लाह के नाम पर कुछ दे दो। मोहम्मद साहब खाना खाते रहे। भिखारी बोला : कुछ खाने को ही दे दो। मोहम्मद साहब अब भी अपना खाना खाते रहे। जब एक रोटी बाकी रह गई, तब भिखारी बोला : अब एक रोटी तो दे दो। जब आधी रोटी रह गई तब फिर भिखारी बोला : आधी ही दे दो। लेकिन मोहम्मद साहब ने उसको कुछ भी नहीं दिया।

भिखारी बोलने लगा : कैसा आदमी है। सारी रोटी खुद खा गया। मुझे एक टुकड़ा भी नहीं दिया। मोहम्मद साहब उठे और उस भिखारी को साथ लेकर चल दिए। बाजार पहुँचे। वहां उस भिखारी से कहा : अपना ये कटोरा बेच। भिखारी का कटोरा बिकवाया। उस पैसे से कुल्हाड़ी खरीदवाई। कुल्हाड़ी खरीदने के बाद मोहम्मद साहब उस भिखारी को जंगल ले गए और भिखारी से कहा : सूखी लकड़ियाँ काट। लकड़ी कटवाने के बाद उनकी गठरी बंधवाई और भिखारी के सिर पर रखी और बाजार ले आए। लकड़ियाँ बिकवाई। अब उस भिखारी को खाने की दुकान पर ले गए और उससे कमाए पैसों से उसे खाना खिलवाया। इसके बाद मोहम्मद साहब ने उस भिखारी से कहा : ऐसा रोज करना। मेहनत करो, कर्मठ बनो, कमाओ और खाओ, भिखारी नहीं बनना।

निष्कर्ष : महानता भीख देने में नहीं बल्कि सामने वाले को इस काबिल बनाने में है कि वह किसी के आगे हाथ न फैलाएँ। चुंकि इसमें समय लगता है इसलिए व्यक्ति दान या भीख देकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। लेकिन इससे भीखवृत्ति को बढ़ावा मिलता हैं। बेहतर होगा कि अपने जीवन में ज्यादा नहीं तो किसी एक को स्वावलंबी बनाएँ। उससे जो खुशी मिलेगी वह भीख देने की खुशी से कहीं ज्यादा होगी।

गाँधीजी चरखा संघ के लिए धन इकट्ठा करने के उद्देश्य से देश भर में भ्रमण कर रहे थे। एक दिन उड़ीसा के एक आदिवासी क्षेत्र में उनकी सभा चल रही थी। श्रोताओं के बीच एक वृद्ध महिला भी थी जिसके बाल सफेद हो चुके थे, कपड़े फटे हुए थे और कमर झुकी थी। गाँधीजी के भापण से वह बहुत प्रभावित हुई। भाषण समाप्त होने के बाद वह महिला किसी तरह भीड़ में रास्ता बनाती हुई गाँधीजी के पास तक पहुँची। उसने सबसे पहले अपनी साड़ी के पल्लू में बँधा ताँबे का एक सिक्का निकाला और गाँधी जी के चरणों में रख दिया। गाँधीजी ने सावधानी से सिक्का उठाया और उसे अपने पास रख लिया। उस समय चरखा संघ का कोष जमनालाल बजाज संभाल रहे थे।

बजाज ने हँसते हुए वह सिक्का माँगा, पर गाँधी जी ने उस वृद्ध महिला का दिया सिक्का उन्हें देने से इन्कार कर दिया। जमनालाल जी ने कहा, ‘मैं चरखा संघ के लिए हजारों रुपये के चेक संभालता हूँ। अभी आप मुझ पर एक ताँबे के सिक्के के लिए भी भरोसा नहीं कर रहे हैं। एक ताँबे के सिक्के के लिए आपकी चिता मुझे परेशान कर रही है।’ इस पर गाँधीजी ने अपने मन के उद्गार को व्यक्त करते हुए कहा, ‘ यह सिक्का हजारों से कहीं अधिक कीमती है। यदि किसी के पास लाखों हैं तो वह दो हजार देता है और उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन यह सिक्का शायद उस औरत की कुल जमा पूँजी थी।

गाँधीजी ने जमनालाल बजाज को समझाते हुए कहा कि उस वृद्ध महिला ने अपना सारा धन दान दे दिया। कितनी उदारता दिखाई. उसने कितना बड़ा बलिदान किया। इसलिए इस ताँबे के सिक्के का मूल्य मेरे लिए एक करोड़ रुपये से भी अधिक है, यह अमूल्य है। इसकी कोई कीमत नहीं है। मैं इसे अपने पास रखना चाहता हूँ ताकि मुझे हमेशा उस महान दान की याद बनी रहे।

2. बहू लक्ष्मी

एक लकड़हारा था। उसके चार बेटे थे। वे सभी आलसी और निकम्मे थे। उन्हें रोज जमीदार के यहाँ एक-एक गट्ठर लकड़ियाँ पहुँचानी पड़ती थीं। उसके बदले उन्हें एक-एक किलो अनाज मिलता था। वे अपनी सुविधा से एक-एक किलो चना ले आते थे। अपने झोंपड़े में आते ही, अपने-अपने चूल्हे पर चने को भूनते और खाकर सो जाते थे। इस तरह उनके दिन कट रहे थे।

एक दिन लकड़हारे के पड़ोसी ने उससे कहा, “तुम अपने लड़कों का विवाह क्यों नहीं करते ?”
लकड़हारा बोला-” अरे, घर में यों ही खाने का ठिकाना नहीं, लड़कों का विवाह कराकर बहुओं को क्या खिलाऊँगा ? बड़े लड़के का विवाह हुए पाँच साल बीत गए, किंतु बहू का गौना अभी तक नहीं कराया।”
पड़ोसी बोला, “हाँ भाई, मैं तो भूल ही गया था। तुम्हें बड़ी बहू का गौना अवश्य करा लेना चाहिए।”
लकड़हारा झुँझलाकर बोला, “अरे, उस कलमुँही का नाम मत लो। जिस महीने लड़के का विवाह हुआ और बहू मेरे घर आई. तभी मेरी घरवाली चल बसी। अब मैं उसे यहाँ बुलाकर घर का सत्यानाश नहीं करवाऊँगा।”
पड़ोसी ने समझाया- “भाई, मरने-जीने पर मनुष्य का क्या वश! तुम्हें अपनी बहू को अवश्य बुला लेना चाहिए। उसके भाई-भौजाई आखिर उसे कब तक अपने यहाँ रखेंगे ? बहू को न बुलाने से तुम्हारी बहुत बदनामी होगी।”

इसी तरह और लोगों ने भी लकड़हारे को बहू का गौना करा लाने को कहा। आखिर उसने अपने बड़े लड़के को बहू को लिवा लाने के लिए भेज दिया। लड़का बहू को ले आया।

बहू ने आकर देखा कि घर के स्थान पर एक टूटी-फूटी झोंपड़ी खड़ी है। वह भिखमंगों का अड्डा जैसा दिखाई देती थी। झोंपड़ी में पाँच चूल्हे बने थे। घर ने कभी झाडू का मुँह तक नहीं देखा था। कहीं चने के छिलके बिखरे थे, कहीं कूड़े-करकट का ढेर लगा था। घर की दशा देखकर बहू को रोना आ गया, पर उसने भाग्य को नहीं कोसा। वह तुरंत काम में जुट गई। उसने एक चूल्हे को छोड़कर बाकी सारे चूल्हे तोड़ डाले। एक झाड़ बनाई और घर की सफाई की।

शाम को लकड़हारा अपने लड़कों के साथ घर आया। उसने घर को साफ-सुथरा देखा तो उसका मन खुश हो गया। पर जब लड़कों को अपने-अपने चूल्हे दिखाई नहीं दिए, तो वे बिगड़ गए। एक क्रोधित होकर बोला, “यह तो आते ही घर का सत्यानाश करने लगी है। देखो न अपने पति का चूल्हा तो छोड़ दिया और हमारे सभी चूल्हे फोड़ डाले। अब एक चूल्हे पर इतने चने कौन भूनेगा ? इनको भूनने में घंटों लगेंगे। भूख के मारे हमारा दम निकल रहा है।”

बहू सब कुछ सुन रही थी। उसने एक लोटे में हाथ-पैर धोने के लिए पानी दिया और बैठने के लिए एक चटाई बिछा दी। जाड़े के दिन थे। अतः उन सबके हाथ-पैर सेंकने के लिए आग भी सुलगा दी। फिर वह ससुर से बोली, “आप लोग हाथ-पैर सेकें, तब तक मैं खाना बनाकर लाती हूँ।”
यह कहकर वह चने लेकर पड़ोसिन के यहाँ चली गई। उसने सारे चने पीसे। आधे आटे की रोटियाँ बना लीं और आधा आटा बचा लिया।

इधर वे लोग भूख के मारे छटपटा रहे थे, तभी बहू रोटी-साग लेकर घर आ गई। बरसों के बाद इन लोगों को ऐसा स्वादिष्ट भोजन मिला था। रोटियाँ बहुत थीं। सबने ढूँस-ढूँस कर खाई। अब तो बूढ़ा लकड़हारा और उसके बेटे नई बहू की चतुराई पर बहुत खुश हुए। सुबह होते ही सभी लकड़हारे लकड़ियाँ लेने जंगल को जाने लगे। बहू ने रात की बची हुई रोटी का एक-एक टुकड़ा उसको नाश्ते के लिए दिया। इससे उन लोगों को आश्चर्य हुआ। पहले तो वे एक ही शाम को सारा चना फाँक लेते थे और फिर भी उनका पेट नहीं भरता था।

अब खाने वाला और बढ़ गया फिर भी उतने ही अन्न से उन्होंने खूब खाया और सुबह का नाश्ता भी किया। उन्होंने उस लक्ष्मी जैसी बहू की खूब प्रशंसा की। शाम को जब लकड़हारे घर पहुँचे, तब उन्हें रोटी और बेसन की कढ़ी तैयार मिली। यह भेजन बहू ने रात को बचाए आधे आटे से बना लिया था। अब तो हाथ-पैर धोकर सभी तुरंत भोजन करने बैठ गए। वे सभी यह सोचने लगे कि ऐसी चतुर बहू को घर में न लाकर वे वर्षो तक व्यर्थ कष्ट उठाते रहे।

तीसरे दिन लकड़हारे जंगल को जाने लगे, तो बहू ने कहा, ” आप सब थोड़ी-थोड़ी लकड़ियाँ अपने घर के लिए भी लाएँ।” वे बहू-लक्ष्मी की बात टाल न सके। घर के लिए सभी लकड़ियों का एक-एक छोटा गट्ठर लेते आए। इन लकड़ियों को बहू ने पड़ोसियों को बेचकर घर के लिए नमक, तेल, मसाले आद् का प्रबंध कर लिया।

एक दिन बहू ने ससुर से पृछा, “आप लोगों का जमींदार मजदूरी में केवल चने ही देता है या दूसरा अनाज भी दे सकता है।” ससुर बोला, “जमींदार कोई भी अनाज एक-एक किलो दे सकता है। हम लोग तो अपनी सुविधा से चने ले आते हैं।” बहू ने कहा, “तो अब से रोज नया-नया अनाज लाया कीजिए। आज मजदूरी में चावल ले आइए।”

“बहुत अच्छा” ससुर ने कहा। उस दिन सभी मजदूरी में चावल लाए। अब तो उन लोगों को भोजन में भात, कढ़ी, साग, रोटी भी मिलने लगी। ऐसा अच्छा भोजन इन लोगों ने पहले कभी नहीं खाया था। सभी बहुत खुश हुए। बूढ़ा लकड़हारा अब उसे ‘लक्ष्मी बहू’ कहता और देवर उसे ‘लक्ष्मी भाभी’।
लकड़हारे मजदूरी में अनाज बदल-बदल कर लाते थे। अब उस घर में गेहूँ, चना, दाल तथा गृहस्थी का सभी सामान जुटने लगा। बहू रोज मजदूरी के अनाज में से आधा अनाज बचाकर रखती थी। उसने मिट्टी के छोटे-छोटे बरतन बना लिए थे। अब उस झोंपड़ी में रौनक आ गई थी।

कुछ महीने बाद बहू ने बूढ़े ससुर का मजदूरी पर जाना बंद करवा दिया। उसने उसे गाँव में ही एक छोटी-सी दुकान खुलवा दी। दुकान चल निकली और उससे अच्छी आय होने लगी। अब गाँव में उन लोगों की मान-प्रतिष्ठा भी बढ़ने लगी। उन्होंने छोटी-मोटी जायदाद भी खड़ी कर ली। उनका जीवन आनंदमय हो गया। यह सब बहू-लक्ष्मी की चतुराई और मेहनत से हुआ।

नमूना-10 : हास्य-व्यंग्य

चुटकुले –

1. मोनू : क्या हो गया भाई ?

सोनू : आज मैं घर पर पुराने कागजात देख रहा था और तभी मेरे हाथ में पत्नी का 11 वीं क्लास का रिपोर्ट कार्ड आ गया।
मोनू : हाँ तो बेहोश कैसे हो गए ?
सोनू : अरे नंबरों के नीचे रिमार्क में लिखा था, मधुरभाषी और शांतिप्रिय छात्रा।

2. पापा : तुझे लड़की वाले देखने आ रहे हैं। अपनी सैलरी ज्यादा बताना।

लड़की के पिता : कितना कमा लेते हो बेटा ?
गण्पू : अंकल, सैलरी तो दो लाख है लेकिन कट-कटाकर हर महीने 8,000 मिलते हैं।

3. गण्पू : आज मैंने दुनिया को परेशान होने से बचा लिया।

टप्पू : वह कैसे ?
गण्पू : आज अमरूद के पेड़ से एक अमरूद मेरे सिर पर गिरा। मैंने चुपचाप खा लिया। न्यूटन की तरह दुनिया को परेशान थोड़े ही किया।

4. मास्टरजी के घर में 7-8 मास्टर आ गए।

बीवी : घर में चीनी नहीं है, चाय कैसे बनाऊँ ?
मास्टर : बिना चीनी की बना दो।
चाय आते ही मास्टरजी बोले-जिसके हिस्से फीकी चाय आएगी, कल सब उसके यहाँ डिनर करेंगे। सबने चाय गटक ली।

5. एक बस पेड़ से टकराई। मौके पर पहुँचे पुलिसवाले ने ड्राइवर से पूछा : बस पेड़ से कैसे टकराई ?

ड्राइवर : मुझे कुछ नहीं पता साहब।
पुलिसवाला : याद करके बताओ हुआ क्या था ?
ड्राइवर : जी, उस दिन कंडक्टर नहीं आया था और जब बस टकराई तब मैं पीछे वाले यात्रियों से किराया ले रहा था।

नमूना-11 : टेलीफोन वार्ता

टेलीफोन आज जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया है। कार्यालय, व्यवसाय, उद्योग आदि क्षेत्रों में टेलीफोन संं्रेषण एक सामान्य साधन है। ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब हमें टेलीफोन प्रयोग की आवश्यकता होती है। टेलीफोन पर बातचीत करना वाचन कला का एक माध्यम है। टेलीफोन वार्ता भी एक कला है। टेलीफोन वार्ता औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार की हो सकती है। दोनों ही स्थितियों में निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है :

  • टेलीफोन वार्ता का प्रारंभ अपने या टेलीफोन उठाने वाले व्यक्ति के परिचय और टेलीफोन करने का कारण बताने से किया जाना चाहिए।
  • वार्तालाप के समय उपयुक्त अभिवादन और शिष्टाचारयुक्त भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए।
  • वार्तालाप यथासंभव संक्षिप्त होना चाहिए।
  • गलत नंबर मिल जाने पर असुविधा के लिए खेद व्यक्त करना चाहिए।
  • कक्षा में टेलीफोन वार्ता का अभ्यास कराया जाना चाहिए।

एक उदाहरण :

  • अमित : हैलो ! गुरुजी प्रणाम ! मैं अमित बोल रहा हूँ।
  • गुरुजी : कहो बेटे अमित क्या बात है ?
  • अमित : गुरुजी, आज मुझे ज्वर आ रहा है। अत: मैं विद्यालय में आपके दर्शन करने नहीं आ पाऊँगा।
  • गुरुजी : कोई बात नहीं। तुम विश्राम करो।
  • अमित : धन्यवाद गुरुजी। मैं आपका आभारी रहूँगा।

उपर्युक्त प्रकारों के अतिरिक्त निम्नलिखित उपायों से भी वाचन कला का विकास एवं मूल्यांकन किया जा सकता है :

  • कार्यक्रम प्रस्तुति द्वारा
  • परिचय देना/परिचय प्राप्त करना

नमूना-12 : कार्यक्रम प्रस्तुति

इसमें भी वाचन-कौशल का प्रदर्शन होता है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-

  • माननीय मुख्य अतिथि एवं दर्शको-श्रोताओ ! मैं आपके सम्मुख आज की साँस्कृतिक संध्या का कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए अत्यंत हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ।
  • सर्वप्रथम प्रस्तुत है -‘सरस्वती वंदना’। इसे स्कूल की ही छात्राएँ प्रस्तुत कर रही हैं।
  • ‘सरस्वती वंदना’ के पश्चात् आपको अपनी हास्य-कविता से गुदगुदाने आ रहे हैं-नीरज गुप्ता।
  • अब आपके सम्मुख पंजाब का प्रसिद्ध ‘भंगड़ा’ डांस प्रस्तुत हैं। इस पर आप झूम उठेंगे।
  • भंगड़ा की मस्ती से बाहर निकालकर अब मैं आपको ले जा रहा हूँ-प्रकृति की गोद में। हिमाचल का लोक नृत्य आपके सम्पुख प्रस्तुत है।
  • अब आप मजा लीजिए कव्वाली का। सोनू एंड पार्टी कव्वाली पेश कर रही है।
  • अंत में मैं मुख्य अतिथि से निवेदन कर रहा हूँ कि वे हमें आशीर्वाद प्रदान कर कृतार्थ करें।

नमूना-13 : परिचर्चा

यह भी वाचन (बोलने) का एक रूप है।

प्रश्न मंच –

हमें डकार क्यों आती है ?

जब पेट की गैस ऊपर की ओर चढ़कर मुँह के रास्ते बाहर आती है, तब इसे डकार आना कहते हैं। जल्दी-जल्दी भोजन करने पर बहुत-सी हवा पेट में चली जाती है। जब हवा की मात्रा अधिक हो जाती है तब वह डकार के रूप में बाहर आती है। कई ठंडे पेय पदार्थों में अधिक मात्रा में गैस घुली रहती है। इन्हें पीने पर जल्दी-जल्दी डकारें आने लगती हैं। जब पेट में भोजन ठीक से नहीं पचता तब बड़ी मात्रा में गैस बनने लगती है और डकारें आने लगती हैं।

क्या कारण है कि ऊँचे स्थानों पर रहने वाले लोगों के गाल गुलाबी होते हैं ?

– ऐसा कई कारणों से होता है। वहाँ प्रकाश कम होता है, इस कारण उनकी त्वचा में मेलालिन वर्णक कम बनता. है। इस कारण त्वचा पारदर्शक रहती है। त्वचा के नीचे उपस्थित रुधिर कोशिकाएँ सतह पर झलकती हैं। ऊँचे स्थानों पर वायु-दाब की कमी के कारण लोगों के खून में लाल रुधिर कणिकाएँ अधिक पाई जाती हैं। कम तापमान के कारण त्वचा कुछ फटी हुई-सी रहती है। इन सब कारणों से त्वचा गुलाबी दिखाई देती है।

शरीर में श्वसन क्रिया कहाँ होती है ?

शरीर की प्रत्येक जीवित कोशिका श्वसन क्रिया करती है। कोशिका के अंदर यह क्रिया दो स्थानों पर दो चरणों में होती है। प्रथम चरण कोशिका द्रव्य में होता है। इसमें ग्लूकोज का एक अणु दो छोटे अणुओं में बँट जाता है। इस चरण में कुछ ऊर्जां उत्पन्न होती है। इस चरण में ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं पड़ती। ग्लूकोज अणु दूटने पर दो कार्बनिक अणु कोशिकांग माइटोकोंड्रिया में प्रवेश करते हैं। इस क्रिया में उनका विघटन होता है तथा ऊर्जा, कार्बन डाइऑक्साइड व जल उत्पन्न होता है। इस क्रिया में ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है।

क्या हरे पौधे श्वसन में दिन में ऑक्सीजन तथा रात में कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं ?

सभी जीव श्वसन में ऑक्सीजन लेते व कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। हरे पौधे दिन में श्वसन के साथ प्रकाश संश्लेषण की क्रिया भी करते हैं। इस क्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड ली जाती है तथा ऑक्सीजन छोड़ी जाती है। दिन में हरे पौधों में श्वसन में काम आने वाली ऑक्सीजन की तुलना में प्रकाश संश्लेषण में छोड़ी ऑक्सीजन अंधिक होती है। इस कारण श्वसन का प्रभाव छुपा रहता है।

फास्ट फूड्स हानिकारक क्यों होते हैं ?

फास्ट फूड्स (बर्गर, चिप्स, पिज्जा, चाउमीन, पेस्ट्री, पैटीज़. चॉकलेट, कोल्ड ड्रिक्स) स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हैं। दरअसल इनमें संतृप्त बसा, नमक और चीनी भरपूर मात्रा में पाई जाती है। ऐसे आहार में प्रोटीन विटामिन, खनिज लवण. रेशा और रोगनाशक तत्व नगण्य होते हैं। इनके सेवन से शरीर में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। इनमें स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाले रसायन, रंग और खुशबू आदि तत्वों का प्रयोग किया जाता है।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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CBSE Class 12 Hindi Elective रचना परियोजना

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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana परियोजना

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना परियोजना 4

अब हम चारों शाखाओं की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालते हैं :
निर्युण काव्य-धारा
इसके अंतर्गत दो शाखाएँ आती हैं :
(क) ज्ञानमार्गी शाखा
(ख) प्रेममार्गी शाखा

(क) ज्ञानमार्गी शाखा : इस शाखा पर पाँच संप्रदायों का प्रभाव लक्षित होता है। ये हैं :

  1. सिद्ध संप्रदाय
  2. नाथ संप्रदाय
  3. विट्ठल संप्रदाय
  4. विशिष्टाद्वैत का भक्ति संप्रदाय
  5. सूफी संप्रदाय।

इस शाखा के प्रमुख कवि हैं :

कबीरदास : इन्हें ज्ञानमार्गी शाखा का प्रवर्तक कवि माना जाता है। ये अनपढ़ थे तथा जुलाहे का कार्य करते हुए साखी, सबद, रमैनी आदि छंदों में कविता करते थे।

  • रैदास
  • दादूदयाल
  • मलूकदास
  • सहजोबाई आदि।

प्रमुख विशेषताएँ –

निर्युण ईश्वर में विश्वास : इन सभी कवियों ने ईश्वर को निर्रुण-निराकार माना है। इनका कहना है।

निर्युण रास जयहह से भाई़।
अवयाति की साति लखख न जाई़।।

रहस्यवाद : संत कवियों में रहस्यवाद की प्रवृत्ति विट्ठल संप्रदाय से आई। कबीर आत्मा-परमात्मा के रहस्य को इन शब्दों में प्रकट करते हैं :

जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर-भीतर पानी,
फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत् कहयो ग्यानी।

विरह भावना : संत कवियों ने परमात्मा को अपना पति (प्रियतम) माना है और स्वयं को उसकी प्रेयसी। आत्मा परमात्मा की प्रतीक्षा करती है।

“आसंडियाँ झाँई पड़ी, पैथ निहारि-निहारि”

गुरु की महत्ता : सभी संत कवियों ने गुरू की महिमा का बखान किया है। गुरू को गोविंद से भी बड़ा बताया है –

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियौं बताय॥

ढोंग आडंबरों का विरोध : कबीर ने तत्कालीन समाज में व्याप्त ढोंग-आडंबरों पर डटकर प्रहार किया है। उन्होंने मूर्तिपूजा, तीर्थ, व्रत, रोज़ा-नमाज आदि की विरोध किया है। उन्होंने इसके लिए हिंदू-मुसलमान दोनों को फटकारा है।

मुसलमानों को :

कांकर पाथर जोरि के मसजिद लई बनाय।
ता चड़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥

हिंदुओं को :

पाथर पूजैं हरि मिलैं तो मैं पूजूँ पहार।
या तै वो चाकी भली, पीस खाए संसार॥

माया से सावधानी : संत कवियों ने माया से दूर रहने की उपदेश दिया। उसे महाठगिनी बताया है :

“साया सहाउताति हस जानी”

समाज सुधार की भावना : सभी संत कवि समाज सुधारक भी थे। उन्होंने जाति-पाति के आधार पर भेदभाव का विरोध किया।

भाषा-शैली : सभी संत कवियों ने सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया है। इसमें पूर्वी हिंदी, ब्रज, अवधी, पंजाबी, राजस्थानी आदि भाषाओं का मिश्रण है। इसे पंचमेल खिचड़ी भी कहा जाता है।

(ख) प्रेममार्गी शाखा (सूफ़ी काव्य) : अधिकांश सूफ़ी कवि मुसलमान थे। वे एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। इन कवियों ने भी संतों की भाँति हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों के समन्वय पर बल दिया। ‘सूफ़’ शब्द में पवित्रता का भाव निहित है। सूफ़ियों की संपूर्ण साधना प्रेम पर आधारित थी। यही कारण है कि सूफियों ने हिंदू प्रेम-गाथाओं को अपने काव्य का आधार बनाया। सूफ़ी साहित्य में नारी-प्रेम और नारी-सौंदर्य ईश्वरीय प्रेम और सौंदर्य का पर्याय बनकर आया है।

प्रमुख कबिा : मलिक मुहम्मद जायसी, कुतुबन आदि।
प्रमुख रचना : ‘पद्मावत’ (महाकाव्य) जायसी द्वारा रचित।

प्रमुख विशेषताएँ है।

निर्गुण ईश्वर में विश्वास : सूफी कवि ईश्वर के एक होने, निर्गुण-निराकार होने में विश्वास रखते थे। जायसी ने लिखा है।

‘सुमिरौ आदि एक करतारु’

आत्मा-परमात्मा का स्वरूप : सूफ़ी कवियों ने अपने प्रेमाख्यानक काव्यों में ईश्वर को स्त्री रूप में तथा आका को पुरुष रूप में माना है।

गुरु की महिमा : संत कवियों के समान सूफी कवियों ने भी अपने काव्य में गुरु को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। सूफ़ी कवियों ने गुरु को ‘पीर’ कहा है। यही पीर साधना का मार्ग प्रशस्त करता है। जायसी ने लिखा है :

‘गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा बिन गुरु भगत को निरगुन पावा॥’

साधना की चार अवस्थाएँ : सूफी मत में साधना की चार अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है : (1) नासूत (2) मलकूत (3) मारिफ़त, (4) हकीकत। अंतिम अवस्था में साधक ‘अनहलक’ अर्थात् ‘मैं ब्रह्म हूँ’ कहने लगता है।

शैतान की कल्पना : सूफ़ी कवियों ने प्रिय की प्राप्ति (साधना मार्ग) में ‘शैतान’ को बाधक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है।

लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम की प्राप्ति : सूफ़ी कवियों का मानना है कि लौकिक (सांसारिक) प्रेम के माध्यम से ही अलौकिक प्रेम (ईश्वरीय प्रेम) को पाया जा सकता है। ‘पद्मावत’ महाकाव्य में राजा रत्नसेन (आत्मा) का जो प्रेम पद्मिनी के प्रति है, वह प्रत्यक्षतः लौकिक होते हुए भी अलौकिक प्रेम है।

रहस्यात्मकता : सूफ़ी कवियों की एक बड़ी विशेषता है-उनकी रहस्यात्मक उक्तियाँ। ‘पद्मावत’ में ” गढ़ तस बाँक जैसे तोरि काया” में पिंड में ही ब्रह्म की कल्पना है।

विरह-भावना : सूफ़ियों का विरह-वर्णन अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है। ‘नागमती विरह-वर्णन’ का एक उदाहरण प्रस्तुत है –

पिय सो कहेऊ संदेसड़ा, हो भोंरा हे काग।
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग।।

प्रतीक विधान : सूफ़ी कवियों ने प्रतीकों का आश्रय लेकर अपनी बात कही है। ‘पद्मावत’ के प्रतीक हैं :
राजा रलसेन – आत्मा का प्रतीक
– परमात्मा का प्रतीक
अलाउक्दीन – माया का प्रतीक
हीरामन तोता – गुरु का प्रतीक
भाषा-शैली : सूफ़ी कवियों ने अवधी भाषा की अपनाया है। दोहा-चौपाई छंद प्रयोग किए हैं। उपमा, रूपक, उत्त्रेक्षा, यमक आदि अनेक अलंकारों का प्रयोग किया है। इन्होंने मसनवी शैली अपनाई है।

सगुण काव्य-धारा
इसके अंतर्गत दो शाखाएँ आती हैं –
(क) कृष्ण भक्ति शाखा
(ख) राम भक्ति शाखा

(क) वृष्ण भक्ति शान्खा :
हिंदी का कृष्ण भक्ति शाखा का काव्य शुद्ध धार्मिक वातावरण में रचा गया। इस शाखा के प्रमुख कवि सूरदास हैं। कृष्ण भक्ति काव्य में ‘अष्टछाप’ के कवियों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ये कवि थे – सूरदास, परमानंददास, कुंभनदास, कृष्णदास, नंददास, चतुर्भजदास, छीतस्वामी एवं गोविंद स्वामी।

ये सभी कवि प्रतिभाशाली, कीर्तनकर्ता और अच्छे गायक थे। इनके ऊपर गोसाई विट्ठलनाथ ने अपने आशीर्वाद की छाप लगाई थी। अतः इन्हें ‘अष्टछाप’ के नाम से पुकारा जाने लगा।
कृष्ण भक्ति काव्य पर निम्नलिखित संप्रदायों के दर्शन का प्रभाव फड़ा है-

  1. वल्लभाचार्य का पुष्टिमार्ग
  2. चैतन्य महाप्रभु का गौडीय संप्रदाय
  3. गोस्वामी हित हरिवंश का राधा-वल्लभ संप्रदाय
  4. स्वामी हरिदास का सखी संप्रदाय।

अन्य प्रमुख कवि : 1. रसखान, 2. मीराबाई
(मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई)

प्रमुख विशेषताएँ –

कृष्ण लीला गान : सभी कृष्ण भक्त कवियों के आराध्य श्रीकृष्ण हैं। इन कवियों ने ‘भागवत पुराण’ के आधार पर कृष्ण-लीलाओं का मनोहर वर्णन किया है। इनमें लीला के अनेक रूप कल्पित किए गए हैं :
‘घोरी करत कान्ह धरि पाए।’
‘खेलत हरि निकसे ब्रज खोरी।’
वात्सल्य रस : कृष्ण भक्त कवियों ने बाल-कृष्ण वर्णन में वात्सल्स रस का परिवाक किया है-
‘जसोदा हरि पालने झुलाबैं
मेंरे लाल को आड री निदिरिया, काहे न आन सुवाबै।
बाल कृष्ण भी –
‘मैया में नहिं माखन खायौ।’
प शृंगार रस : कृष्ण काव्य शृंगार रस के दोनों पक्ष-संयोग और वियोग का प्रभावी अंकन हुआ है।
संयोग-
‘बूझत स्याम कौन तू गौरी’
वियोग-
‘बिन गोपाल बैरन भई कुंजें’
प निर्युण ईश्वर का विरोध : सूरदास ने उद्धव के माध्यम से गोपियों द्वारा निर्रुण ब्रह्म की खिल्ली उड़वाई है। वे पूछती हैं-
‘निर्गुण कौन दैस की बासी’
पुष्टिमार्ग का प्रभाव : कृष्ण भक्त कवियों की भक्ति का दार्शनिक आधार शुद्ध द्वैतावाद है। इसका व्यावहारिक रूप पुष्टिमार्ग है। इसके अनुसार जीव और ब्रह्म मूलतः एक होते हुए भी माया के कारण अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं।

भाषा-शैली : कृष्ण भक्त कवियों ने ब्रज भाषा को अपनाया है। इसमें माधुर्य गुण की प्रधानता है। प्राय: सभी अलंकारों यथा-उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विभावना आदि का प्रयोग किया है। इन्होंने पद-शैली अपनाई है। अनेक स्थल पर दोहा, चौपाई, सवैये आदि छंदों का प्रयोग मिलता है। रसखान के सवैये प्रसिद्ध हैं।

(ख) रामभक्ति शाखा :

रामकाव्य का साहित्यिक आधार संस्कृत काव्यों और नाटकों की परंपरा थी। रामभक्ति काव्य का मुख्य लक्ष्य राम के जीवन से सामाजिक आदर्श ग्रहण कर उसे समाज में स्थापित करना था। रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास हैं। इनके द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ जन-जन में लोकप्रिय है।

उनकी अन्य रचनाएँ हैं : रामललानहछू, बरवैरामायण, जानकी मंगल, दोहावली, कवितावली, विनय-पत्रिका आदि। राम काव्य परंपरा में केशवदास का भी विशेष स्थान है। उन्होंने रामचंड्रिका की रचना की।

प्रमुख विशेषताएँ –

राम का स्वरूप : रामकाव्य में राम उपास्यदेव हैं। वे परम ब्रह्म हैं। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। इनके राम विष्णु के अवत्तार हैं। उनमें शील, शक्ति एवं सौंदर्य का समन्वय है।

दास्य भाव की भक्ति : राम-काव्य में दास्य-भाव की भक्ति को स्वीकारा गया है। इनकी भक्ति की नवधा भक्ति भी कहा जाता है। इसमें श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन का मिला-जुला रूप है। इसमें भक्त स्वयं को मूढ़ मानता है-

ऐसी मूढ़ता या मन की
परहरि राम भगति-सुस्सरिता, आस करत ओसकन की।

मर्यादा/आदर्श की प्रतिष्ठा : रामकाव्य में सर्वत्र मर्यदा का पालन किया गया है। राम आदर्श राजा हैं, लक्ष्मण, भरत आदर्श भाई हैं, सीता आदर्श पत्नी हैं, हनुमान आदर्श सेवक हैं। सभी चरित्रों में आदर्श/मयादा की प्रतिष्ठा की गई है।

लोकमंगल की भावना : संपूर्ण रामकाव्य का उद्देश्य जनकल्याण या लोकमंगल की भावना को प्रसारित करना रहा है। तुलसीदास ने परोपकार को महत्त्व देते हुए लिखा है :

परहित सरिस धर्म नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥

समन्वय की भावना : रामकाव्य में सर्वत्र समन्वय की भावना परिलक्षित होती है।

काव्य रूपों की विविधता : राम काव्य में काव्य के सभी रूपों और शैलियों का प्रयोग किया गया है। ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य है, ‘जानकी मंगल’ खंडकाव्य है तो ‘गीतावली’ गीतिकाव्य है।

भाषा-शैली : ‘रामचरितमानस’ की भाषा अवधी है। ‘कवितावली’ और ‘विनय पत्रिका’ की रचना ब्रजभाषा में हुई है। दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया आदि छंदों को अपनाया गया है। सभी रसों का प्रयोग हुआ है।

पृष्ठभूमि : हिंदी साहित्य का आधुनिक काल का प्रारंभ सन् 1850 से माना जाता है। 1850 से 1900 ई० तक का काल ‘भारतेंदु युग’ के नाम से जाना जाता है। इसी युग से हिंदी गद्य का उद्भव हुआ। अभी तक ब्रजभाषा का प्रचलन था, पर अब ‘खड़ी बोली’ में भी रचनाएँ प्रारंभ हुई। राष्ट्र-प्रेम की भावना तथा पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हो चुका था।

इसके बाद 1900 से ‘द्विवेदी युग’ का आरंभ हुआ। महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक बने। उन्होंने हिंदी भाषा को व्याकरण-सम्मत बनाने का महान कार्य किया। इस युग में मैथिलीशरण गुप्त, श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी आदि कवि उभरे। मुंशी प्रेमचंद ने इसी युग में कथा-साहित्य रचना शुरू किया। द्विवेदी युग में इतिवृतात्मकता की प्रवृत्ति अधिक थी। इसी की प्रतिक्रियास्वरूप छायावाद का जन्म हुआ।

छायावाद का प्रारंभ : सन् 1918 के आस-पास हिंदी कविता में एक नई काव्य-धारा अवतरित हुई, जिसे छायावाद का नाम दिया गया। वैसे यह नाम काव्य-धारा की अस्पष्टता को लक्षित करके व्यंग्य रूप में दिया गया था। इस काव्यधारा पर अंग्रेजी की रोमांटिक काव्य-धारा का प्रभाव लक्षित होता है।

जयशंकर प्रसाद : ये छायावादी काव्य-धारा के प्रवर्तक और प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। उन्हीं की रचना ‘झरना’ से छायावाद का प्रारंभ माना जाता है।

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना परियोजना 3

छायावाद के बारे में अन्य साहित्यकारों के विचार

महादेवी वर्मा : “छायावाद इतिवृत्तात्मकता के विरुद्ध मनुष्य की सारी कोमल सूक्ष्म भावनाओं का विद्रोह है। छायावाद एक विशिष्ट सूक्ष्म सौंदर्यानुभूति है जिसने सहज, स्वाभाविक अभिव्यक्ति के लिए नूतन अभिव्यंजना प्रणाली का कोमलतम कलेवर अपनाया।”
डॉ० नगेंद्र : “स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह छायावाद है।”
जयशंकर प्रसाद : “कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना या देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य-वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमय अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे ‘छायावाद’ के नाम से अभिहित किया गया।’
हजारी प्रसाद द्विवेदी : “छायावाद एक विशाल सांस्कृतिक चेतना का परिणाम है।”
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि द्विवेदी युगीन सुधारवादी, उपदेशात्मक एवं इतिवृत्तात्मक (matter of fact) कविता नीरस एवं शुष्क हो चली थी। उसी से मुक्ति पाने के लिए कवियों ने प्रकृति की ओट ली। कवियों ने प्रकृति के माध्यम से अपने मन की सौंदर्य-चेतना को प्रकट किया। इस कविता का सौंदर्य-बोध नया है। इसकी अभिव्यंजना शैली नई है।

छायावाद के आधार स्तंभ कवि –

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना परियोजना 1

छायावादी काव्य की प्रमुख विशेष्राएँ (प्रद्धृत्तियाँ)
सौंदर्य चेतना : इस कविता की प्रमुख प्रवृत्ति सौंदर्यानुमूति है। छायावादी सौंदर्य-बोध अशरीर ओर अमूर्त है। छायावादी कवि प्रकृति में चेतना का आरोपण (मानवीकरण) करते हैं। यह सौंदर्य चेतना प्रकृति और नारी दोनों रूपों में प्रकट हुई है।

प्रकृति-सींदर्य :

ओ विभावरी!
चाँदनी का अंग राग, माँग में सजा पराग,
रश्मि तार बाँध मृदुल चिकुर भार री!
ओ विभावरी।

मानवीय सौंदर्य (अद्धा का)

प्रेम-भावना : छायावादी कविता में प्रेम विभिन्न रूपों में व्यक्त हुआ है। यह प्रकृति-प्रेम, नारी-प्रेम, अज्ञात सत्ता के प्रति प्रेम आदि रूपों में है।
पंतजी के प्रकृति-प्रेम का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

छोड़ दुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में,
कैसे उलझा दूँ लोचन?

प्रकृति के प्रतीकों के द्वारा छायावादी कविता में शृंगार-भाव की भी अभिव्यक्ति हुई है। निराला जी की प्रसिद्ध कविता ‘जूही की कली’ से एक उदाहरण द्रष्टव्य है :

बंद कंचुकी के खोल दिए सब प्यार से,
यौवन उभार ने।
पल्लव-पर्यंक पर सोती शेफालिके,
मूक आह्नान भरे लालसी कपोलो के!

व बैयकितकता : छायावादी कविताओं में वैयक्तिक भावनाओं का चित्रण हुआ है। इसमें कवि अपने ‘स्व’ को प्रमुखता देता है। महादेवी वर्मा कह उठती हैं :

मैं नीर भरी दुख क्की बबदली।
उमड़ी क्रल श्री, मिट आत्र च्नली।

छायावादी कवि पलायनवादी हो जाता है :

‘ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे।

रहस्य-भाबना : छायावादी कविता में रहस्य की भावना प्रमुखता के साथ व्यक्त हुई है। आचार्य शुक्ल ने तो छायावाद का अर्थ रहस्यवाद के संदर्भ में ही किया है।

पंत जी कहते हैं :

मा जानि नक्षान्तों सी कौन ?
तिसंज्रा क्षैता गुझकी मौना।

महादेवी वर्मा भी अपने अज्ञात प्रियतम के लिए कहती हैं-

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल,
प्रियतम का पथ आलोकित कर।

वेदनानुभुति : छायावादी कविता में वेदना, करुणा और निराशा के भावों की अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद जी ‘आँसू’ काव्य में लिखते हैं :

जो धनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छाई।
दुर्दिन में आँसू बनकर,
वह आज बरसने आई।

महादेवी वर्मा तो पीड़ा में ही अपने प्रियतम को खोजती हैं :

तुमको पीड़ा में ढूँबा,
तुममें हूँदूँगी पीड़ा।

नारी के प्रति उदात्त दृष्टिकोण : छायावादी काव्य में नारी को वासना-तृप्ति की साधन न मानकर उसे पुरुष की प्रेरणादायिनी, जीवन-संगिनी और सहयोगिनी माना है। प्रसाद जी लिखते हैं :

नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पग-तल में,
पीयूष स्रोत-सी बहा करो,
जीवन के सुंदर समतल में॥

राष्ट्रीयता की भावना : छायावादी कविता में भारत के अतीत का गौरव-गान हुआ है। प्रसाद जी ने ‘चंद्रगुप्त’ नाटक में कार्नेलिया के मुख से कहलवाया है :

अरूण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक किनारा।

प्रकृति का मानवीकरण (Personification) : छायावादी काव्य की यह एक प्रमुख प्रवृत्ति है। इन कवियों ने प्रकृति में मानवीय भावों का आरोपण किया है।

जयशंकर प्रसाद :
‘उषा सुनहरे तीर बरसती, जय लक्ष्मी-सी उदित हुईः’

निराला :
दिवसावसान का समय,
मेघमय आसमान से उतर रही है।
वह संध्या सुंदरी, परी-सी धीरे-धीरे।

कल्पना की अतिशयता : दुखों और अभावों से भरे इस संसार की वास्तविकता से दूर स्वप्नों के संसार में जीने की प्रगाढ़ लालसा छायावादी कवियों की प्रमुख विशेषता है।

भाषा-शैली : छायावादी कवियों ने तत्सम शब्द प्रधान खड़ी बोली को अपनाया है। इसमें लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता का भरपूर समावेश है। इन कवियों ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण आदि अलंकारों का भरपूर प्रयोग किया है।

प्रमुख छायावादी कवियों का संक्षिप्त पर्टिचय

1. जयशंकर प्रसाद (1889-1937) : इन्हें छायावाद का प्रवर्तक माना जाता है। ये संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी भाषा के विद्वान थे। ये बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इनका महाकाव्य ‘कामायनी’ अत्यंत प्रसिद्ध रचना है। इनके अन्य काव्य हैं-आँसू, झरना, लहर, कानन-कुसुम आदि। नाटक हैं : चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, अजातशत्रु आदि।

2. सुमित्रानंदन पंत (1900-1977) : पंतजी को प्रकृति का सुकुमार कवि माना जाता है। इनकी कविताओं में प्रकृति-चित्रण देखते ही बनता है। इनकी काव्य-यात्रा के तीन पड़ाव हैं : छायावाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद (मार्क्सवाद)। इनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं : वीणा, पल्लव, गुंजन, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण-किरण, स्वर्ण धूलि, शिल्पी, चिंदबरा आदि। इन्हें ‘चिंदबरा’ पर ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ।

3. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (1896-1961) : इनका जन्म बंगाल के महिषादल जिले के मेदिनीपुर नामक गाँव में हुआ था। इनकी प्रथम कविता ‘जूही की कली’ बहुत लोकप्रिय हुई (1916)। ये मुक्तछंद के प्रवर्तक थे। पहले इन्होंने छायावादी कविताएँ लिखीं, फिर वे प्रगतिवाद की ओर झुक गए। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं – परिमल, अनामिका, नए पत्ते, राम की शक्ति पूजा, बादल राग, तुलसीदास (काव्य)।
उपन्यास : अलका, अप्सरा, निरुपमा।

4. महादेवी वर्मा (1907-1987) : ये छायावाद की प्रसिद्ध कवयित्री हैं। इनका जन्म फर्रूखाबाद में हुआ। संस्कृत में एम.ए, करने के बाद प्रयाग महिला विद्यापीठ से प्राचाया के पद पर रहीं। इनकी काव्य कृतियाँ हैं – यामा (ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त), नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा आदि।
इनका ‘अतीत के चलचित्र’ प्रसिद्ध संस्मरण संकलन है।

विषय : हिंदी भाषा : एक परिचय
भाषा क्या है? ‘भाषा’ शब्द ‘भाष्’ धातु से बना. है। इसका अर्थ है-बोलना। अतः जिन ध्वनियों को बोलकर मनुष्य अपनी बात कहता है, उसे भाषा कहा जाता है।
भाषा के ध्वनि-संकेत कुछ खास अर्थों में रूढ़ होते हैं अर्थात् किस प्रकार के ध्वनि-समूहों (शब्दों) से किस प्रकार का अर्थ व्यक्त होगा, इसका विधान हर भाषा में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए एक ही वस्तु के लिए हिंदी में जल, तमिल में ‘तन्नी’, उर्दू में आब तथा अंग्रेजी में ‘वाटर’ शब्द का प्रयोग होता है।
उपर्युक्त विवेचन से भाषा के निम्नलिखित लक्षण स्पष्ट होते हैं :
भाषा मूलतः ध्वनि-संकेतों की एक व्यवस्था है। यह मानव-मुख से निकली एक अभिव्यक्ति है।
यह विचारों के आदान-प्रदान का एक सामाजिक साधन है। – इनके शब्दों के अर्थ प्राय रूढ़ होते हैं। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं :
भाषा मानव-मुख से निकली वे सार्थक ध्वनियाँ हैं, जो दूसरों तक अपनी बात पहुँचाने का काम करती हैं।
भाषा के रूप : भाषा की अभिव्यक्ति दो रूपों में होती है :
(1) मौखिक (2) लिखित
– भाषा का मौखिक रूप मूल रूप है। इसे उच्चरित भाषा भी कहा जाता है। यह रूप मानव को सहज रूप से ही प्राप्त होता है।
– भाषा के लिखित रूप को सीखने के लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता है। इस रूप से भाषा की किसी भी रचना की लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

मनुष्य के जीवन और समाज के विकास-क्रम में भाषा का मौखिक रूप पहले आता है और लिखित रूप बाद में।

लिपि : मौखिक भाषा को स्थायी रूप देने के लिए लिखित भाषा का विकास हुआ। लिखित भाषा के लिए लिखित चिह्न या वर्ण बनाए गए। वर्णों की व्यवस्था ही लिपि है। वास्तव में लिपि ध्वनियों को लिखकर प्रस्तुत करने का ही ढंग है। हिंदी की लिपि देवनागरी है। संसार की विभिन्न भाषाओं की अपनी-अपनी लिपियाँ हैं।

सबसे प्राचीन लिपि ‘ब्राह्मी’ है। इसी से देवनागरी लिपि का विकास हुआ। ब्राही लिपि से ही बांग्ला, गुजराती आदि भाषाओं की लिपियाँ भी विकसित हुई। संस्कृत, हिंदी, मराठी आदि भाषाएँ ‘देवनागरी लिपि’ में लिखी जाती हैं।

भाषा-परिवार : संसार में हज़ारों भाषाएँ प्रचलित हैं। भाषाओं के परिवार भी होते हैं। ऐसी भाषाओं का समूह, जिनका जन्म एक ही मूल भाषा से हुआ हो, भाषा-परिवार कहलाता है। संसार की 3000 भाषाओं को 12 भाषा-परिवारों में बाँटा गया है। ये परिवार हैं :

  1. भारोपीय (भारत-यूरोपीय)
  2. द्रविड़
  3. चीनी-तिब्बती-बर्मी
  4. रोमेटिक
  5. हेमेटिक
  6. आग्नेय
  7. यूराल-अल्टाइक
  8. बाँटू
  9. अमेरिकी (रेड इंडियन)
  10. काकेशस
  11. सूडानी
  12. बुशमैन।

भारतीय भाषाएँ : – भारत की प्रमुख भाषाएँ दो परिवारों में बँंटी हैं : भारोपीय और द्रविड़ परिवार। तमिल, तेलुगु, कन्नड और मलयालम द्रविड़ परिवार की भाषाएँ हैं।
– भारोपीय परिवार का एक उप परिवार है-आर्य भाषा परिवार। इस परिवार में हिंदी, पंजाबी, सिंधी, गुजराती, मराठी, असमिया, उडिया, बंगला, कश्मीरी आदि भाषाएँ शामिल हैं।
इस भाषा परिवार का प्राचीनतम रूप हमें वैदिक संस्कृत में सुरक्षित मिलता है।
वैदिक संस्कृत से आधुनिक युग की भारतीय भाषाओं तक आने में इसे चार चरणों से गुजरना पड़ा :

  1. वैदिक संस्कृत (1500 ई०पू० से 800 ई॰पू॰ तक)
  2. लौकिक संस्कृत (800 ई०पू॰ से 500 ई॰पू० तक)
  3. पालि और प्राकृत (500 ई०पू० से 500 ई० तक)
  4. अपभ्रंश (500 ई० से 1000 ई० तक)

इस विकास-क्रम से स्पष्ट है कि द्रविड़-परिवार की भाषाओं को छोड़कर अन्य भारतीय भाषाओं का विकास अपभ्रंश से ही हुआ है।

हिंदी भाषा : उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिंदी भारतीय आर्य भाषा परिवार की भाषा है। संस्कृत भाषा से लेकर पालि, प्राकृत, अप्रभ्रंश आदि सोपानों से गुजरती हुई हिंदी आज समूचे भारत की संपर्क भाषा बन गई है। अब हिंदी का विकास अंतर्क्षत्रीय भाषा, राष्ट्रभाषा, राजभाषा और अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में हो रहा है। अब यह भाषा हमारे जन-जीवन, सामाजिक-सांस्कृतिक संप्रेषण, ज्ञान विज्ञान और सुजनात्मक साहित्य की भाषा के रूप में विकसित होकर पूरे विश्व की शिक्षा व्यवस्थाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुकी है। इसी का परिणाम है कि हिंदी अपने देश में मातृभाषा, प्रथम भाषा, द्वितीय भाषा आदि रूपों में पढ़ी-पढ़ाई जा रही है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1950 में हिंदी को राजभाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार राज्यों और दिल्ली एवं अंडमान-निकोबार संघ राज्य-क्षेत्रों में यह भाषा शासन और शिक्षा की भाषा है। बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब में इसका प्रयोग संपर्क भाषा के रूप में होता है। हिंदी सार्वदेशिक भाषा है।

भारत के संबिधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार- ‘संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी है।’
मानक हिंदी : भारत का भू-भाग विस्तृत है, अतः भाषा के स्वरूप में भिन्नता का आना स्वाभाविक ही है। अतः भाषा की एकरूपता और उसमें अनुशासन बनाए रखने के लिए उसके मानक रूप की आवश्यकता होती है। शिष्ट और सुशिक्षित लोगों द्वारा प्रयुक्त व्याकरण सम्मत भाषा-रूप ही मानक रूप कहलाता है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय (मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार) ने हिंदी वर्तनी का मानकीकरण इस प्रकार किया है :
– मानक हिंदी स्वर : अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।
– कुछ व्यंजनों का मानक रूप : ख छ, झ ध।
– पंचम वर्ण (बिंदु का प्रयोग) : गंगा, चंपक, झंडा।

प्रयोजनमूलक हिंदी : इसके मुख्यतः चार प्रकार हैं :

  1. कार्यालयी हिंदी : तत्काल, गोपनीय, आवश्यक कार्रवाई आदि।
  2. तकनीकी हिंदी : अल्फा, बीटा, गामा, प्रौद्योगिकी आदि।
  3. वाणिज्यिक हिंदी : चाँदी भड़की, सोना नरम, बाजार उछला आदि।
  4. जनसंचारी हिंदी : मुक्केबाजी, वक्तव्य, बाइट, साक्षात्कार आदि।

हिंदी की उपभाषाओं और बोलियों को इस तालिका से भली-भाँति समझा जा सकता है :

भाषा बोली-क्षेत्र तालिका

CBSE Class 12 Hindi Elective रचना परियोजना 2

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 1 Summary – Devsena Ka Geet, Karneliya Ka Geet Summary Vyakhya

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देवसेना का गीत, कार्नेलिया का गीत Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 1 Summary

देवसेना का गीत, कार्नेलिया का गीत – जयशंकर प्रसाद – कवि परिचय

प्रश्न :
जयशंकर प्रसाद के जीवन एवं साहित्य का परिचय देते हुए उनकी काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जयंशंकर प्रसाद आधुनिक पुनर्जागरण-कालीन चेतना के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। छायावाद को आधुनिक हिन्दी कविता का स्वर्णकाल कहा गया है। जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रवर्तक कवि हैं। उनकी काव्य-रचना ‘झरना’ से छायावाद का प्रारंभ माना जाता है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार जयशंकर प्रसाद ने हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं को अपनी साहित्य-चेतना के बल पर नई दिशाएँ प्रदान कीं। कवि, नाटककार, एकांकीकार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबंधकार के रूप में जयशंकर प्रसाद को युग प्रवर्तक कहा जा सकता है।

जीवन-पंरिचय : प्रसाद जी छायावाद के आधुनिक हिंदी कविता के प्रवर्तक कवि का जन्म वाराणसी के एक धनी परिवार में सन् 1889 ई. में हुआ। इनके पिता देवीप्रसाद सुंघनी साहू तम्बाकू के प्रसिद्ध व्यापारी थे। वे बड़े ही काव्य-प्रेमी तथा रसिक व्यक्ति थे। इस प्रकार लक्ष्मी की झंकार और सरस्वती की स्वर लहरी के मधुर मिश्रण के बीच इनका लालन-पालन हुआ। ये मितभाषी, अत्यन्त विनम्र, सहनशील और धार्मिक प्रवृत्ति के संयमी व्यक्ति थे।

प्रसाद जी की शिक्षा घर पर ही हुई। ये संस्कृत, अंग्रेजी तथा हिन्दी भाषाओं के विद्वान थे। अपने पिता की मृत्यु के बाद इन्होंने वेदों तथा उपनिषदों का भी अध्ययन किया। इन्हें उर्दू तथा बंगाली का भी अच्छा ज्ञान था। प्रसाद जी की प्रतिभा बहुमुखी थी। अत: इन्होंने साहित्य के विविध अंगों-कविता, नाटक, उपन्यास तथा कहानी-में उत्कृष्ट रचनाएँ कीं। सन् 1937 ई. में इनकी मृत्यु हो गई।

रचनाएँ : प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं :
(क) महाकाव्य : कामायनी।
(ख) खण्डकाव्य : आँसू प्रेमपथिक और महाराणा का महत्त्व।
(ग) काव्यरूपक : करुणालय।
(घ) चम्पू-काव्य : उर्वशी।
(ड.) गीति-काव्य : कानन-कुसुम, चित्राधार, शोकोच्छ्वास, झरना और लहर।

  • नाटक : सज्जन, कल्याणी, प्रायश्चित, जनमेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त, अजातशत्रु, ध्रुवस्वामिनी आदि।
  • उपन्यास : कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण)
  • कहानी संग्रह : छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी, इन्द्रजाल।
  • निबंध-संग्रह : काव्य और कला तथा अन्य निबंध।

साहित्यिक विशेषताएँ : प्रसाद जी भारतीय संस्कृति के प्रतीक पुरुष थे। उन्होंने वेद, पुराण, इतिहास, पुरातत्त्व, साहित्य, दर्शन शास्त्र आदि का गहन अध्ययन किया था। उनका अध्ययन-क्षेत्र बहुत विशाल था। उन्होंने अपने यत्न से भारतीय इतिहास को सहेजा और वर्तमान युग के साथ उसका ताल-मेल बिठाया।

प्रसाद जी मूलतः कवि थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी छायावादी कवियों में प्रसाद सर्वाधिक आकर्षित करते हैं। उन्हें अतीत से प्रेम था और वे वर्तमान में उसकी भूमिका भी पहचानना चाहते थे। उन्होंने ‘विशाख’ नाटक की भूमिका में स्वयं लिखा है-‘मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के प्रकाशित अंश में उन प्रकांड घटनाओं का विग्वर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने में बहुत प्रयत्न किया है।”

काव्य-शिल्प : प्रसाद जी के काष्य का शिल्प-विधान अत्यंत संक्षम है। उनका शब्द-चयन तथा वाक्य-विन्यास मनोहर है। लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता दथा चित्रात्मकता उनकी काव्य-भाषा की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

उनकी प्रारंभिक रचनाओं की भाषा सरल और सुबोध है। परवर्ती रचनाओं में भाषा तत्सम शब्द प्रधान और लाक्षणिकता होती चली गई है। वस्तुत: प्रसाद ज़ी अभिधा के नहीं, लक्षणा और व्यंजना के कवि हैं। प्रसाद जी ने शुदुध साहित्यिक खड़ी बोली को अपनाया है। उनकी खड़ी बोली में तत्सम शब्दों की प्रधानता है।

प्रसाद जी की कविताओं से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-अनलशिखा, रक्तिम, क्रंदन-ध्वनि, निर्दयता, महादंभ का दानव तुरंग आदि। प्रसाद जी की भाषा भावानुकूल है। खड़ी बोली को लाक्षणिकता की दृष्टि से समृद्ध बनाने में प्रसाद जी की विशेष भूमिका है।

अलंकार-विघान : प्रसाद जी ने छायावादी काव्य-शैली के अनुरूप मानवीकरण का अधिक प्रयोग किया है। वैसे संकलित कविताओं में रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकार भी पर्याप्त रूप में प्रयुक्त हुए हैं।

उदाहरणार्थ –

मानवीकरण – ‘मिले चूमते जब सरिता के
हरित कूल युग मधुर अधर थे।’
रूपकातिशयोक्ति – ‘रस जलकन मालती-मुकुल से।’
रूपक – ‘मानस-सागर के तट पर।’
अनुप्रास – ‘करुणा कलित हृदय में।’
उपमा – ‘पगली-सी देती फेरी’
+         +           +
‘प्यासी मछली-सी आँखें।’
विरोधाभास – ‘शीतल-ज्वाला जलती है।’

कवि ने लक्षणा शक्ति का भरपूर प्रयोग किया है। उपादान लक्षणा का एक उदाहरण प्रस्तुत है-

‘विश्व के हुवय-पटल पर।’

शैली – प्रसाद जी ने प्रबन्ध शैली एवं मुक्तक शैली-दोनों का अनुसरण किया है। कामायनी (महाकाव्य)’ प्रबंध शैली का उदाहरण है तो ‘आँसू’ व ‘अशोक की चिंता’ मुक्तक शैली में रचे गए हैं। ‘आँसू’ में क्रमबद्धता अवश्य है। प्रसाद जी के कांव्य में बिम्ब विधान, अप्रस्तुत विधान, संगीतात्मकता, चित्रात्मकता आदि गुण भी पाए जाते हैं। प्रकृति चित्रण में वे सिद्धहस्त हैं।

Devsena Ka Geet, Karneliya Ka Geet Class 12 Hindi Summary

1. देवसेना का गीत यह गीत जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक ‘स्कंदगुप्त’ से लिया गया है। देवसेना इस नाटक की नायिका है। वह मालवा के राजा बंधुवर्मा की बहन थी। आर्यावर्त पर हूणों का आक्रमण हुआ और बंधुवर्मा सहित परिवार के अन्य लोग वीरगति को प्राप्त हुए। देवसेना ने भाई के स्वप्नों को साकार करने के लिए राष्ट्र-सेवा का व्रत ले लिया। जीवन में देवसेना स्कंदगुप्त को पाना चहतती थी, पर उस समय स्कंदगुप्त मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया के स्वप्न देखते थे।

हाँ, जीवन के अंतिम मोड़ पर स्कंदगुप्त देवसेना को पाना चाहते थे किंतु तब तक देवसेना वृद्ध पर्णदत्त के साथ आश्रम में गाना गाकर भीख माँगने लगती है। स्कंदगुप्त के अनुनय-विनय करने पर भी जब वह तैयार नहीं होती तब स्कंदगुप्त आजीबन कुँवारा रहने का व्रत ले लेता है। इधर देवसेना कहती है- “हुदय की कोमलता कल्पना सो जा। जीवन में जिसकी संभावना नहीं, जिसे द्वार पर आए लौटा दिया था, उसके लिए पुकार मचाना क्या तेरे लिए अच्छी बात है ?

आज जीवन के भावी सुख, आशा और आकांक्षा-सबसे विदा लेती हूँ।” इसी अवसर पर वह गीत गाती है. “आह! वेदना मिली विदाई!” इस गीत में देवसेना अपने जीवन पर दृष्टिगत करती है। वह अपने अनुभवों में अर्जित वेदनामय क्षणों को याद करती है। अपने जीवन की संध्या-वेला में वह अपने यौवन के क्रिया-कलापों का स्मरण करती है।

वह अपने यौवनकाल के क्रियाकलापों को भ्रमवश किए गए करों की श्रेणी में रखती है। वह उस समय की गई अपनी नादानियों पर पछताती है। इसी कारण उसकी आँखों से आँसुओं की अनस्र धारा बहने लगती है। उसे अपने आस-पास सभी की निगाहें प्यासी दिखाई पड़ाती हैं और वह स्वयं को उनसे बचाने का प्रयास करती है। उसे इस बात का दुख है कि वह अपने जीवन की पूँजी, कमाई को बचा नहीं सकी। उसके जीवन की यही विडंबना है और यही वेदना है। प्रलय स्वयं देवसेना के रथ पर सवार है। वह अपनी दुर्बलताओं और हारने की निश्चितता के बावजूद प्रलय से लोहा लेती रही है। गीत शिल्प में रची गई यह कविता वेदना के क्षणों में मनुष्य और प्रकृति के संबंधों को भी व्यक्त करती चलती है।

2. ‘कार्नेलिया का गीत’ शीर्षक गीत जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित है। यह उनके नाटक ‘चंच्रगुप्त’ के द्वितीय अंक के प्रारंभ से लिया गया है। इस नाटक में सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया गाती है। इस गीत में कवि की भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रति अगाध आस्था व्यक्त हुई है। पिता के साथ भारत में रहते हुए कार्नेलिया यहाँ के मनोरम प्राकृतिक पर्यावरण, भारतीयों की ज्ञान-गरिमा, प्रेम, करुण आदि उदात्त मानवीय भावनाओं से परिचित और प्रभावित हुई थी। इस गीत में वह इन्हीं हृदयानुभूतियों को अभिव्यक्त करती है।

इस कविता का प्रारंभ प्राकृतिक सौंदर्य से होता है। यहाँ की भूमि पर सूर्य की प्रथम किरणें पड़ती हैं। प्राची दिशा में स्वर्ण कलश की भाँति दीप्तिमान सूर्य पहले अपनी लालिमा और फिर अपने प्रकाश की सुनहरी आभा से सारे प्राकृतिक वातावरण को आलोकित कर देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तालाबों में खिलते कमल के फूल की आभा नाच रही हो। सूर्य की किरणें वृक्षों की शाखाओं से छन-छनकर पुष्पों पर पड़ती हैं और नृत्य करती सी जान पड़ती हैं।

हर सुबह नवीन सुख, उल्लास और स्कूर्ति जीवन को स्पंदित करती है। सूर्योदय के समय खिलते कमल का सौंदर्य, शीतल पवन के साथ इठलाते वृक्ष, आकाश में उड़ते रंग-बिंरगे पक्षी, समुद्र में उठती तथा किनारों से टकराती लहरें वातवरण को जीवंत बनाती हैं। प्रकृति भारत की भूमि पर मंगल कामना करती हुई चारों ओर कुंकुम और केसर की वर्षा कर देती है। लाल-सुनहरे प्रकाश की किरणें कुंकुम और केसर की भाँति प्रतीत होती हैं। छोटे-छोटे पक्षी अपने पंख फैलाए हुए जिस दिशा की ओर उड़कर घोसलों की ओर लौटते हैं वह देश भारत ही है।

वे छोटे-छोटे इंद्रधनुषों के साथ उड़ते चले आते हैं। भारतवर्ष के लोग दया, करुणा, सहानुभूति के भावों से ओत-प्रोत हैं। ये दूसरों की पीड़ा को देखकर द्रवित हो जाते हैं और आँखों से अश्रु बरसाने लगते हैं। जिस प्रकार सगर की विद्रोही लहरें सागर-तट से टकराती रहती हैं, पर उन्हें आश्रय भी वहीं मिलता है। इसी प्रकार भारत भी सभी की शरणस्थली है। यहाँ सभी को आश्रय मिल जाता है। यहाँ आकर उन्हें शांति एवं संतोष का अनुभव होता है।

सूर्योंदय से कुछ देर पहले उषा प्राची दिशा में प्रकट होती है। ऐसा लगता है कि उषा रूपी पनहारिन आकाश रूपी कुएँ से अपने सुनहरे कलश में सुनहरा जल भरकर लाती है और उसे यहाँ लुढ़का देती है। इसी के परिणामस्वरूप समस्त वातावरण में सुनहरी आभा बिखर जाती है। तात्पर्य यह है कि इस देश के सूरोंदय का दृश्य अवर्णनीय है। यह कविता द्विअर्थक है। कवि ने प्राकृतिक सुषमा के ब्याज से भारतीय सभ्यता संस्कृति की उत्कृष्टता और भारतीयों के उदात्त मानवीय गुणों को आरेखित किया है।

देवसेना का गीत, कार्नेलिया का गीत सप्रसंग व्याख्या

देवसेना का गीत –

1. आह! वेदना मिली विदाई!
मैंने भ्रम-वश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई।
छलछल थे संध्या के श्रमकण,
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थी-
नीरवता अनंत अँगड़ाई।

शब्दार्थ : वेदना = दुख, पीड़ा! भ्रमवश = भ्रम के कारण। संचित = एकत्रित। मधुकरियों = पके हुए अन्न की भिक्षा। श्रमकण = श्रम के कारण उत्पन्न पसीने की बूँदें। प्रतिक्षण = प्रत्येक पल। नीरवता = खामोशी। अनंत = अंतहीन।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘स्कंदगुप्त’ से अवतरित ‘देवसेना का गीत’ से लिया गया है। देवसेना मालवा के राजा बंधुवर्मा की बहन है। जीवन के प्रारंभिक भाग में देवसेना को स्कंदगुप्त की चाह थी, पर तब स्कंदगुप्त मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया के स्वप्न देखते थे। जीवन के अंतिम मोड़ पर स्कंदगुप्त देवसेना को पाना चाहते हैं, पर तब देवसेना तैयार नहीं होती और आजीवन कुँआरा रहने का व्रत ले लेती है। तभी देवसेना यह गीत गाती है।

व्याख्या : देवसेना स्वयं से कहती है-जीवन की इस सांध्य वेला में आज मैं जीवन के भावी सुख, आशा और आकांक्षा से वेदनापूर्ण विदाई लेती हूँ। मैने भ्रम में पड़कर जीवन भर स्कंदगुप्त से प्रेम किया और सारी एकत्रित अभिलाषा रूपी भिक्षा को लुटा दिया अर्थात् मैं जीवन भर की आकांक्षाओं की पूँजी को बचा न पाई।

देवसेना का जीवन वेदनापूर्ण स्थितियों से गुजरता रहा। उसका पूरा परिवार वीरगति को प्राप्त हुआ। उसने जिसे (स्कंदगुप्त) को प्यार किया, उसने उसे ठुकरा दिया। अब वह इन वेदनामय क्षणों से विदाई लेना चाहती है। वह अपने यौवनकालीन क्रियाकलापों को अपनी नादानी मानती है।

अब देवसेना की आँखों से अश्रुपात हो रहा है। जीवन की सांध्यबेला में अर्थात् जीवन के अंतिम पड़ाव में श्रम करने से उत्पन्न हुई पसीने की बूँदें, आँसू की तरह हर क्षण गिरती रहती हैं। मेरी यात्रा पर खामोशी अंतहीन अँगड़ाई लेती है। भाव यह है कि देवसेना का समस्त जीवन दुखों से भरा रहा। वह जीवन भर जिस सुख की कामना करती रही, वह उसे प्राप्त न हो सका। उसे आँसुओं के अतिरिक्त कुछ न मिला। उसका पूरा जीवन संघर्ष करते हुए व्यतीत हो गया। अब तक वह चुपचाप वेदना को सहन करती चली आई है।

विशेष :

  • ‘आह वेदना मिली विदाई’ पंक्ति देवसेना की आंतरिक वेदना को इंगित करती है। वह जीवन के अंतिम भाग में इससे विदाई लेना चाहती है।
  • ‘आँसू से गिरते’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘मधुकरियों की भीख’ में रूपक अलंकार है।
  • ‘छलछल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘नीरवता’ का मानवीकरण किया गया है।
  • तत्सम शब्द बहुला भाषा का प्रयोग किया गया है।
  • भाषा में चित्रात्मकता, संगीतात्मकता का गुण है।
  • प्रसाद गुण का समावेश है।

2. श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन-विपिन की तरु-छाया में,
पधिक उनींदी श्रुति में किसने-
यह विहाग की तान उठाई।
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कबकी।
मेरी आशा आह! बावली,
तूने खो दी सकल कमाई।

शब्दार्थ : श्रमित = परिश्रम करके थका हुआ। गहन = गहरा। विपिन = जंगल, वन। तरु-छाया = पेड़ों की छाया। पथिक = मुसाफिर। उन्नींदी = नींद से भरी हुई। श्रुति = सुनने की क्रिया। विहाग = अर्धरात्रि में गाए जाने वाला राग। सतृष्ण = तृष्णा के साथ। दीठ = दृष्टि। सकल = सारी।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा (भाग-2) में संकलित कविता ‘देवसेना का गीत’ से अवतरित हैं। यह गीत जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘स्कंदगुप्त’ से लिया गया है। देवसेना जीवन के प्रारंभिक भाग में स्कंदगुप्त का प्रेम पाने में असफल रही थी। जीवन की सांध्यबेला में वह स्कंदगुप्त के प्रणय निवेदन को अस्वीकार कर देती है। इस अवसर पर वह अपनी कामनाओं से विदा लेते हुए अपने विगत जीवन का स्मरण करती है।

व्याख्या : जीवन के अंतिम पड़ाव पर स्कंदगुप्त का प्रणय-निवेदन उसे इस प्रकार का प्रतीत होता है जैसे कोई पथिक थककर पेड़ की छाया में विश्राम कर रहा हो और उसे उनींदी दशा में कोई मधुर राग सुनाई पड़ जाए। देवसेना को स्कंदगुप्त का प्रणय निवेदन भी ऐसे ही विहाग-राग के समान प्रतीत हुआ।

भाव यह है कि जीवन भर संघर्ष करती रही देवसेना सुख की आकांक्षा के मीठे सपने देखती रही, पर वे पूरे न हो सके। अब वह थककर, निराश होकर इन सबसे विदाई लेती है। अब उसे कोई गीत सुख नहीं पहुँचा सकता।

देवसेना कहती है कि मेरे यौवनावस्था में तो सबकी तृष्णा भरी प्यासी नजरें मुझ पर लगी रहती थीं और मैं स्वयं को उनसे बचाए फिरती थी। अपने भरपूर प्रयास के बावजूद मैंने अपने जीवन की सारी कमाई (पूँजी) गँवा दी अर्थात् मैं उसकी रक्षा नहीं कर पाई। तब वह केवल स्कंदंगुप्त के प्रमम के सपने देखती थी और स्वयं को अन्य की नजरों से बचाने का प्रयास करती थी। इस प्रकार मैंने अपना समस्त यौवनकाल गँँवा दिया। मैं अपनी पागल आशा के कारण अपनी जीवन भर की पूँजी, अपनी कमाई को बचा नहीं पाई। मुझे प्रेम के बदले प्रेम और सुख प्राप्त न हो सका।

विशेष :

  • इन पंक्तियों में देवसेना की वेदना और अंतद्वृद्व साकार हो उठा है।
  • म स्मृति बिंब की अवतारणा हुई है।
  • प्रतीकात्मकता का समावेश है।
  • ‘स्वप्न’ का मानवीकरण किया गया है।
  • ‘श्रमित स्वप्न’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • भाषा में चित्रात्मकता का गुण है।
  • भाषा में संगीतात्मकता एवं प्रवाहमयता है।

3. चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर,
प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर,
उससे हारी-होड़ लगाई।
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुगा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इससे मन की लाज गँवाई।

शब्दार्थ : जीवन-रथ = जीवन रूपी रथ। प्रलय = तूफान। पथ = रास्ता। दुर्बल = कमजोर। पद-बल = पैरों की ताकत। थाती = उत्तराधिकार। विश्व = संसार।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश प्रसिद्ध छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक ‘स्कंदगुप्त’ के एक गीत ‘देवसेना का गीत’ से अवतरित है। देवसेना ने अपने यौवनकाल में स्कंदगुप्त को चाहा था, पर तब वह मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया की ओर आकर्षित थे। देवसेना जीवन भर वियोग की पीड़ा को झेले हुए कष्पूर्ण जीवन बिताती रही। जीवन की अतिम वेला में स्कंद्युप्त उसके सम्मुख प्रणय-निवेदन करता है, तब वह उसे स्वीकार नहीं कर पाती है। वह अपने जीवन की दशा का विश्लेषण एक रूपक के माध्यम से करती है।

व्याख्या : देवसेना स्वयं से कहती है – मेरे जीवन रूपी रथ पर सवार होकर प्रलय अपने रास्ते से चला जा रहा है। मैं अपने दुर्बल पैरों के बल पर उस प्रलय में ऐसी प्रतिस्पर्धा कर रही हुँ, जिसमें मेरी हार सुनिश्चित है। मैं अब तक हार की निश्चितता के बावजूद इस प्रलय (झंझावात) से लोहा लेती रही हूँ। मैंने कमजोर होने के बावजूद इस भारी विषम परिस्थिति से होड़ लगाई है। देवसेना संसार को (अप्रत्यक्ष रूप से प्रिय को) संबोधित करते हुए कहती है कि तुम अपनी इस धरोहर (प्रेम) को वापस ले लो, क्योंकि अब और मैं इसे सँभाल नहीं पांऊँगी। अबं मेरी करुणा मुझे कमजोर बना रही है। इसी प्रेम के कारण मैं अपने मन की लाज तक को गँवा बैठी हूँ।

भाव यह है कि देवसेना अब जीवन-संघर्ष से निराश हो चुकी है। अब तो प्रलय स्वयं देवसेना के जीवन रथ पर सवार है। अब तक वह अपनी दुर्बलताओं और हारने की निश्चितता के बावजूद प्रलय से लोहा लेती रही है, उसका पूरा जीवन इसी संघर्ष में बीत गया। जीवन के अंतिम काल में अब वह इस वेदना को और देर तक संभाले रखने में असमर्थ है।

विशेष :

  • इस काष्यांश में देवसेना की मन:स्थिति का यथार्थ अंकन हुआ है।
  • जीवन रथ में रूपक अलंकार है।
  • ‘पथ पर’, ‘हारी होड़ और ‘लौटा लो’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • ‘प्रलय चल रहा अपने पथ पर’ में प्रलय का मानवीकरण है।
  • निराशा और वेदना का मार्मिक चित्रण हुआ है।
  • भाषा में गंभीरता के बावजूद प्रवाहमयता का गुण विद्यमान है।
  • संगीतात्मकता का समावेश है।

कार्नेलिया का गीत –

अरुण यह मधुमय देश हमारा!

4. जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा!
सरस तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा!
लघु सुरधुन से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा!

शब्दार्थ : अरुण = लाल। मधुमय = मधुरिमा से युक्त। क्षितिज = वह स्थान जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते दिखाई देते हैं। तामरस = कमल। विभा = चमक। तरुशिखा = वृक्ष की चोटी। मनोहर = सुंदर। लघु = छोटे। सुरधनु-इंद्रधनुष। शीतल = ठंडा। समीर = हवा। मलप = सुर्गंधित। खग = पक्षी। नीड़ = घोसला। निज = अपना।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग $-2$ में संकलित कविता ‘कार्नेलिया का गीत’ से अवतरित है। यह गीत जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘चंच्रगुप्त’ के द्वितीय अंक से लिया गया है। कार्नेलिया सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी है। वह सिंधु नदी के तट पर एक ग्रीक शिविर के पास बैठी इस गीत को गा रही है। उसे भारत से प्रेम है और वह इस गीत में भारत की विशेषताओं का गान करती है।

व्याख्या : कार्नेलिया गाती है-हमारा यह देश भारतवर्ष लालिमा से युक्त और मिठास से परिपूर्ण है। यहाँ प्राची दिशा में सूर्य की अरुण आभा बिखर जाती है। यह अरुणिमा ऐसी है जैसे लाल कमल के भीतर लालिमा होती है। इस देश में अपरिचित क्षितिज को भी सहारा मिल जाता है अर्थात् यहाँ अनजान लोगों को भी आश्रय प्राप्त हो जाता है।

भारत के प्राकृतिक सौंदर्य का उल्लेख करते हुए कार्नेलिया कहती है कि सूर्योदय के समय सरोवरों में कमल के फूल खिलते हैं। कमल नाल पर पेड़ की सुंदर चोटी का सौंदर्य नाचता सा प्रतीत होता है अर्थात् जब सूर्य की सुनहली किरणें वृक्षों की चोटियों और शाखाओं से छनती हुई पुष्पों पर नृत्य करती हैं तब उस समय की शोभा देखते ही बनती है। पौधों की हरियाली पर बिखरी हुई यह केसर जैसी लालिमा मंगलमय जीवन का संदेश देती है।

छोटे-छोटे इंद्रधनुषों के समान पंख फैलाए हुए पक्षी मलय पर्वत से आती हुई शीतल हवा के सहारे अपने प्यारे घोंसलों की ओर मुँह किए हुए उड़ रहे हैं। कार्नोलिया कल्पना करती है कि पक्षी सूर्य को अपना घोंसला समझकर उसी ओर उड़ते चले जा रहे हैं। भारत सभी को शरण प्रदान करता है।

विशेष :

  • इस काष्यांश में भारत के प्राकृतिक सौंदर्य का अत्यंत मनोहारी चित्रण किया गया है।
  • भारत की आश्रय देने की विशेषता का उल्लेख है।
  • ‘लघु सुरधनु से’ में उपमा अलंकार है।
  • रूपकातिशयोक्ति अलंकार – तामरस गर्भ विभा, मंगल कुंकुम
  • मानवीकरण : तरुशिखा का नाचना
  • अनुप्रास : पंख पसारे, समीर सहारे, नीड़ निज में
  • कोमलकांत पदावली का प्रयोग है।

5. बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनंत की, पाकर जहाँ किनारा!
हेम-कुंभ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब, जग कर रजनी-भर तारा।

शब्दार्थ : हेमकुंभ = सोने का घड़ा (सूर्यरूपी घड़ा)। मदिर = यात्री। रजनी = रात।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘चंद्रगुप्त’ में गाए ‘कार्नेलिया के गीत’ से अवतरित है। सिंधु नदी के तट पर ग्रीक शिविर के निकट बैठी सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया भारत की विशेषताओं का गुणगान करते हुए कहती है –

व्याख्या : भारतवर्ष दया, सहानुभूति एवं करुणा वाला देश है। यहाँ के लोगों की आँखों से करुणापूर्ण आँसू बहते रहते हैं। वे किसी की पीड़ा को नहीं देख सकते। उनकी आँखों से निकले अश्रु जल से भरे बादल बन जाते हैं। यहाँ तो अनंत से आती हुई लहरें भी किनारा (आश्रय) पाकर टकराने लगती हैं और यहीं शांत हो जाती हैं। इसी प्रकार विभिन्न देशों से आए व्याकुल एवं विक्षुब्ध प्राणी भारत में आकर अपार शांति का अनुभव करते हैं। उन्हें भी यहाँ किनारा अर्थात् ठिकाना मिल जाता है। दूसरों को किनारा देना भारतवर्ष की विशेषता है।

कार्नेलिया भारत की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन करते हुए कहती है कि इस देश का सूर्योदय का दृश्य अवर्णनीय है। सूर्योदय से पूर्व उषा स्वयं स्वर्णकलश लेकर (सूर्य के रूप में) इस देश के ऊपर सुखों की वर्षा करती है। जब रात भर जगने के बाद तारे मस्ती में ऊँघते रहते हैं अर्थात् छिपने की तैयारी कर रहे होते हैं तब उषा रूपी नायिका आकाश रूपी कुएँ से अपने सुनहरी कलश में सुख रूपी पानी भर कर लाती है और उसे भारत भूमि पर लुढ़का देती है अर्थात् रात बीत जाने पर पर जब प्रात:कालीन किरणें धरती पर छाने लगती हैं तब सुखद अनुभूति होती है।

विशेष :

  • कवि ने कार्नेलिया के माध्यम से भारत के प्राकृतिक सौंदर्य का अत्यंत मनोहारी चित्रण किया है।
  • भारतीय संस्कृति की करुणा भावना का गौरवपूर्ण चित्रण हुआ है।
  • अनुप्रास, श्लेष और रूपक अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है।
  • गीत पर छायावादी प्रभाव स्पष्ट है।
  • कोमलकांत पदावली प्रयुक्त है।
  • उषाकाल के आकर्षक बिंब का सृजन हुआ है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 2 Summary – Geet Gane Do Mujhe, Saroj Smriti Summary Vyakhya

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गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 2 Summary

गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति – सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ – कवि परिचय

प्रश्न :
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के जीवन एवं साहित्य का परिचय दीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : निराला जी का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर जिले में सन् 1897 में हुआ था। इनके पिता पं. रामसहाय त्रिपाठी उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले के रहने वाले थे। घर पर ही इनकी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ। उनकी प्रकृति में प्रारंभ से ही स्वच्छंदता थी अत: मैट्रिक से आगे शिक्षा न चल सकी। चौदह वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह मनोहरा देवी के साथ हो गया। पिताजी की मृत्यु के बाद इन्होंने मेदिनीपुर रियासत में नौकरी कर ली। पिता की मृत्यु का आघात अभी भूल भी न पाए थे कि बाईस वर्ष की अवस्था में इनकी पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया।

आर्थिक संकटों, संघर्षों तथा जीवन की यथार्थ अनुभूतियों ने निराला जी के जीवन की दिशा ही मोड़ दी। ये रामकृष्ण मिशन, अद्वैत आश्रम, बैलूर मठ चले गए। वहाँ इन्होंने दर्शन शास्त्र का गहन अध्ययन किया और आश्रम के ‘समन्वय’ नामक पत्र के संपादन का कार्य भी किया। फिर ये लखनऊ में रहने के बाद इलाहाबाद चले गए और अन्त तक स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहकर तथा आर्थिक संकटों एवं अभावों में रहते हुए भी इन्होंने बहुमुखी साहित्य की सृष्टि की। निराला जी गष्भीर दार्शनिक, आत्माभिमानी एवं मानवतावादी थे। करुणा, दयालुता, दानशीलता और संबेदनशीलता इनके जीवन की चिरसंगिनी थी। दीन-दुःखियों और असहायों का सहायक यह साहित्य महारथी 15 अक्तूबर, 1961 ई. को भारतभूमि को सदा के लिए त्यागकर स्वर्ग सिधार गया।

रचनाएँ : निराला जी ने साहित्य के सभी अंगों पर विद्विता एवं अधिकारपूर्ण लेखनी चलाई है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैंकाव्य : परिमल, गीतिका, तुलसीदास अनामिका, अर्चना, आराधना, कुकुरमुत्ता आदि।

  • उपन्यास : अप्सरा, अलका, निरूपमा, प्रभावती, काले कारनामे आदि।
  • कहानी : सुकुल की बीवी, लिली, सखी, अपने घर, चतुरी चर्मकार आदि।
  • निबंध : प्रबंध पद्य, प्रबंध प्रतिभा, चाबुक, रवंद्र कानन आदि।
  • रेखाचित्र : कुल्ली भाट, बिल्लेसुर आदि।
  • जीवनी : राणा प्रताप, भीष्म, महाभारत, प्रड्डाद, ध्रुव, शकुन्तला।
  • अनूदित : कपाल; कुंडल, चन्द्रशेखर आदि।

काव्यगत विशेषताएँ : निराला बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। निराला जी के काव्य में जहाँ एक ओर शक्ति और अदम्य पौरुष है, वहाँ दूसरी ओर शृंगार भी है जहाँ एक ओर दार्शनिकता है, वहाँ दूसरी ओर मानवता के प्रति करुणा, संवेदना और टीस है। जहाँ एक ओर वृद्धि तत्त्व है, वहाँ दूसरी ओर हृदय तत्त्व। कहीं जागरण है तो कहीं उन्माद और कहीं सिंह गर्जना। कहीं छायावादी निराला है तो कहीं रहस्यवादी। कहीं प्रगतिवादी तो कहीं मानवतावादी।

सन् 1916 में उन्होंने प्रसिद्ध कविता ‘जूही की कली’ लिखी जिससे बाद में उनको बहुत प्रसिद्धि मिली और वे मुक्त छंद के प्रवर्तक भी माने गए। निराला सन् 1922 में रामकृष्ण मिशन द्वारा प्रकाशित पत्रिका समन्वय के संपादन से जुड़े। सन् 1923-24 में वे मतवाला के संपादक मंडल में शामिल हुए। वे जीवनभर पारिवारिक और आर्थिक कष्टों से जुझते रहे। अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारण निराला कहीं टिककर काम नहीं कर पाए। अंत में इलाहाबाद आकर रहे और वहीं उनका देहांत हुआ।

छायावाद और हिंदी की स्वच्छंदवादिता कविता के प्रमुख आधार स्तंभ निराला का काव्य-संसार बहुत व्यापक है। उनमें भारतीय इतिहास, दर्शन और परंपरा का व्यापक बोध है और समकालीन जीवन के यथार्थ के विभिन्न पक्षों का चित्रण भी। भावों और विचारों की जैसी विविधता, व्यापकता और गहराई निराला की कविताओं में मिलती है वैसी बहुत कम कवियों में है। उन्होंने भारतीय प्रकृति और संस्कृति के विभिन्न रूपों का गंभीर चित्रण अपने काव्य में किया है। भारतीय किसान जीवन से उनका लगाव उनकी अनेक कविताओं में व्यक्त हुआ है।

यद्यपि निराला मुक्त छंद के प्रवर्तक माने जाते हैं तथापि उन्होंने विभिन्न छंदों में भी कविताएँ लिखी हैं। उनके काव्य-संसार में काव्य-रूपों की भी विविधता है। एक ओर उन्होंने राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास जैसी प्रबंधात्मक कविताएँ लिखीं तो दूसरी ओर प्रगीतों की भी रचना की। उन्होंने हिंदी भाषा में गजलों की भी रचना की है। उनकी सामाजिक आलोचना व्यंग्य के रूप में उनकी कविताओं में जगह-जगह प्रकट हुई है।

भाषा : निराला जी की भाषा खड़ी बोली है। संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्राधान्य है। बंगला के प्रभाव के कारण भाषा में संगीतात्मकता है। क्रिया पदों का लोप अर्थ की दुर्बोधता में सहायक है। प्रगतिवादी कविताओं की भाषा सरल और बोधगम्य है। उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं।

शैली : निराला जी की शैली अतुकांत गीत है, जो बंगला शैली से प्रभावित है। क्रिया पदों से रहित, समासान्त पदों का प्रयोग इनकी शैली की विशेषता है। शैली ओज एवं प्रभावपूर्ण है। संगीतात्मकता इसका विशेष गुण है। निराला जी की शैली मौलिक है। वे अपनी शैली के स्वयं जन्मदाता हैं। लाक्षणिक शैली तथा संवेदना पक्ष में सूक्ष्म दार्शनिकता, नूतन प्रतीक-योजना तथा नवीन अप्रस्तुत विधान ने निराला को क्रांतिकारी कवि बना दिया है।

Geet Gane Do Mujhe, Saroj Smriti Class 12 Hindi Summary

1. गीत गाने दो मुझे कविता में निराला ने ऐसे समय की ओर इशारा किया है जिसमें चोट खाते-खाते, संघर्ष करते-करते होश वालों के होश खो गए हैं यानी जीवन जीना आसान नहीं रह गया है। जो कुछ मूल्यवान था वह लुट रहा है। पूरा संसार हार मानकर जहर से भर गया है। पूरी मानवता हा-हाकार कर रही है लगता है मानो पृथ्वी की लौ बुझ गई है, मनुष्य में जिजीविषा खत्म हो गई है। इसी लौ को जगाने की बात कवि कर रहा है और वेदना-पीड़ा को छिपाने के लिए, उसे रोकने के लिए गीत गाना चाहता है। निराशा में आशा का संचार करना चाहता है।

2. सरोज स्मृति कविता निराला की दिवंगता पुत्री सरोज पर कंंद्रित है। यह् कविता नौजवान बेटी के दिवंगत होने पर पिता का विलाप है। पिता के इस विलाप में कवि को कभी शकुंतला की याद आती है कभी अपनी स्वर्गीय पत्नी की। बेटी के रूप रंग में पत्नी का रूप रंग दिखाई पड़ता है, जिसका चित्रण निराला ने किया है। यही नहीं इस कविता में एक भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज से उसके संबंध, पुत्री के प्रति बहुत कुछ न कर पाने का अकर्मण्यता बोध भी प्रकट हुआ है। इस कविता के माध्यम से निराला का जीवन संघर्ष भी प्रकट हुआ है। तभी तो वह कहते हैं-दुःख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही।

गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति सप्रसंग व्याख्या

गीत गाने दो मुझे –

1. गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।
चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रुकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।

शब्दार्थ : वेदना = पीड़ा। राह”रास्ता। पाथेय॰ संबल, सहारा। कंठ = गला। पृथा = पृथ्वी। ठाकुर = मालिक, स्वामी।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘गीत गाने दो मुझे’ से अवतरित है। इस कविता में कवि ने ऐसे समय की ओर इशारा किया है जिसमें चोट खाते-खाते, संघर्ष करते-करते होश वालों के होश खो गए हैं यानी जीवन जीना आसान नहीं रह गया है। कवि इस कविता के माध्यम से निराशा में आशा का संचार करना चाहता है।

व्याख्या : कवि कहता है कि वेदना को रोकने के लिए मुझे गीत गाने दो। जीवन में चोट खाते-खाते और संघर्ष करते होश वालों के भी होश छूट गए हैं। यानी अब जीवन जीना आसान नहीं रह गया है। जो कुछ मूल्यवान था, वह लुट रहा है। जो कुछ भी लोगों के पास था उसे ठगों-लुटेरों ने रात को अंधकार में लूट लिया है। कंठ की आवाज बंद होती जा रही है। देखो, काल आ रहा है। भाव यह है कि संसार की दशा यह हो गई है कि अब यहाँ जीवन जीना कठिन हो गया है। जीवन की कठिनाइयों का सामना करते हुए लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए हैं। जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान था वह लुटता जा रहा है। लोग कुछ कह नहीं पा रहे हैं। इस दशा में कविता ही लोगों की व्यथा को रोक सकती है, उसमें चेतना जगा सकती है।

विशेष :

  • कवि निराशा के वातावरण में आशा की लौ जगाना चाहता है।
  • ‘ठग-ठाकुरों शोषक वर्ग के प्रतीक हैं।
  • ‘गीत गाने’ तथा ‘ठग-ठाकुरों में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘पाथेय’ शब्द को मानवीय मूल्यों के रूप में चित्रित किया गया है।
  • भाषा सरल, सुबोध एवं प्रवाहमयी है।

2. भर गया है जहर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित कविता ‘गीत गाने दो मुझे’ से अवतरित है। इस कविता के रचयिता सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं। कवि ने इन पंक्तियों में संसार की भयावह स्थिति का वर्णन किया है। लगता है पूरी मानवता हाहाकार कर रही है। लोगों की जिजीविषा खत्म हो गई है।

व्याख्या : कवि कहता है कि पूरा संसार हार मानकर जहर से भर गया है। मनुष्य को उसकी सही पहचान नहीं मिल रही है। लोग एक-दूसरे को अपरिचित निगाहों से देख रहे हैं अर्थांत् पूरी मानवता हार मान चुकी है। लोगों की जीने की इच्छा मर चुकी है। लोगों का सौहार्द समाप्त हो चुका है। पृथ्वी की लौ बुझ गई है। इसे पुन: जगाने की आवश्यकता है। इसके लिए कवि लोगों का आह्नान करता है कि इस बुझती हुई लौ को पुनः जलाने के लिए तुम जल उठो अर्थात् संसार की विसंगतियों को दूर करने के लिए संघर्षरत हो जाओ। तुम इस प्रकार जलो कि तुम्हारे तेज से यह धरा अलोकित हो जाए।

विशेष :

  • उद्बोधनात्मक गीत है।
  • कवि निराशा में आशा का संचार करता है।
  • ‘भर गया है ……… जैसे हार खाकर’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘लोग लोगों’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • शब्द-प्रयोग अत्यंत सटीक है।
  • भाषा सरल, सहज एवं लाक्षणिक है।

सरोज स्मृति –

1. देखा विवाह आमूल नवल
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल,
देखती मुझे तू हैंसी मंद,
होठों में बिजली फँसी, स्पंद
उर में भर झूली छवि सुंदर
प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखो मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति-

शब्दार्थ : आमूल = जड़ तक, पूरी तरह। नवल = नया। कलश = घड़। स्पंद = धड़कन। उर = हृदय। उच्छुवास = ऊपर खींची गई साँस, आह भरना। स्तब्ध – हैरान। नतनयन = झुकी आँखें। आलोक = रोशनी, प्रकाश। अधर = होठ। धीति = प्यास, पान।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘सरोज-स्मृति’ से अवतरित हैं। यह कविता कवि की दिवंगता पुत्री सरोज पर केन्द्रित है। यह कविता एक शोक गीत है। यह कविता कवि के हदय का विलाप है। इस कविता में एक भाग्यहीन पिता का जीवन संघर्ष एवं कुछ न कर पाने का अकर्मण्यता बोध है।

व्याख्या : कवि पुत्री सरोज को संबोधित करके कहता है कि मैंने तेरा विवाह देखा। तूने पूरी तरह से एक नया रूप धारण किए हुआ था। तुझ पर पवित्र कलश का शुभ जल छिड़का गया। उस समय तू मुझे मंद मुसकराहट के साथ देख रही थी। तब ऐसा लगता था कि तेरे होठों में बिजली की चमक फँसी हुई है। उस समय तेरे हृदय में प्रिय पति की छवि झूल रही थी। यह बात शब्दों में नहीं, थृंगार में मुखरित हो रही थी। तुम्हारा रूप-सौंदर्य एक उच्छ्वास की तरह विकसित होकर अंग-प्रत्यंग में स्थिर हो गया था।

यह पति के प्रति तुम्हारे प्रगाढ़ प्यार तथा अचल विश्वास का प्रतीक था। लज्जा व संकोच से झुकी हुई तुम्हारी आँखों में एक नया प्रकाश उभर आया था। सौंदर्य का वह प्रकाश आँखों से उतरकर तुम्हारे होठों पर आ गया था। इस प्रकार तुम्हारे अधरों में एक स्वाभाविक कंपन हो उठा था। उस समय मैंने देखा कि मेरे प्रथम गीति की प्यास उस मूर्ति में साकार हो उठी थी।

विशेष :

  • स्मृति-बिंब साकार हो उठा है।
  • ‘नत नयनों में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘मूर्ति-धीति’ में मानवीकरण है।
  • ‘अंग-अंग’, ‘थर-थर-थर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग है।
  • कविता छंद बंधन से मुक्त है।

2. शृंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वंसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग-
भरता प्राणों में राग रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन
कोई थे नहीं, न आमंत्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।

शब्दार्थ : निराकार = जिसका आकार न हो। रति रूप = कामदेव की पत्नी रति जैसी सुंदर। मही =धरती। निशि = रात। दिवस = दिन। मौन = चुप्पी।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा (भाग दो) में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से अवर्तरित हैं। इस काव्यांश में कवि ने पुत्री सरोज के सौन्दर्य में अपनी पत्नी के रूप-रंग की झलक देखी है। विवाह की सादगी का भी यहाँ चित्रण हुआ है।

व्याख्या : कवि पुत्री सरोज को संबोधित करके कहता है कि मैंने अपनी कविताओं में सौदर्य के जिस निराकार भाव को अभिव्यक्त किया था, वही भाव तुम्हारे रूप-सौंदर्य में साकार हो उठा था। मेरी कविताओं में रस की जो उच्छ्वासित धारा बह रही थी और जिस प्रेम-गीत को मैंने अपनी स्वर्गीया पत्नी के साथ मिलकर गाया था, वह आज भी मेरे प्राणों में अनुरागपूर्ण उत्साह का संचार कर रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मेरी वे श्रृंगारिक कल्पनाएँ आकाश से उतरकर पृथ्वी पर आ गई हैं।

तुम्हारा विवाह संपन्न हो गया, परंतु इस विवाह में कोई भी आत्मीय या स्वजन सम्मिलित नहीं हुआ। उनको आमंत्रित ही नहीं किया गया था। विवाह अत्यंत सादगीपूर्ण ढंग से संपन्न हुआ। इस विवाह में कोई राग-रंग नहीं हुआ, कोई गीत नही गाए गए, घर में किसी प्रकार की चहल-पहल नहीं हुई। रात भर भी कोई नहीं जागा। बस सर्वत्र एक मौन भरा संगीत समाया हुआ था। इस प्रकार चुपचाप तुम्हारा नया जीवन प्रारंभ हो गया।

विशेष :

  • निराला जी की कल्पना शक्ति देखते ही बनती है।
  • सरोज के सौंदर्य की विशिष्टता को साकार किया गया है।
  • ‘राग रंग’, ‘रति रूप’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • स्मृति-बिंब मूर्तिमान हो उठा है।
  • भाषा सरल एवं सुबोध है।

3. माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, “वह शकुंतला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।”
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुःख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूँदे दृग वर महामरण !

शब्दार्थ : पुष्प सेज = फूलों की शय्या। शकुंतला = कालिदास के नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की नायिका। समोद = खुशी के साथ। जलद = बादल। न्यस्त = निहित।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ निराला जी द्वारा रचित शोक गीत ‘सरोज स्मृति’ से अवतरित हैं। इन पंक्तियों में कवि ने अपनी पुत्री सरोज के विवाह के पश्चात् की स्त्थिति का वर्णन किया है।

व्याख्या : कवि कहता है- हे पुत्री! तेरी माँ तो तुझे बचपन में ही छोड़कर स्वर्ग सिधार गई धी अत: मैंने ही तुझे वे सभी शिक्षाएं दीं जो तेरी माँ को देनी थी। तेरे विवाह के उपरांत मैंने ही तेरी पुष्प-सेज को तैयार किया। उस समय मैं मन में यह सोच रहा था कि मैं भी तुझे उसी प्रकार विदा करूँगा जैसे कण्व ऋषि ने शकुन्तला को विदा किया था अर्थात् मुझे भी कण्व ऋषि के समान वेदना हो रही थी। यद्यापि तुम्हें शकुंतला वाला पाठ नहीं पढ़ाया गया था।

तुम्हारे जीवन और यौवन की कलाएँ भी शंकुतला से सर्वथा भिन्न थीं। पुत्री. तुमने कुछ दिन अपनी ससुराल में व्यतीत किए और फिर अपनी नानी की स्नेहमयी गोद में पुन: जा बैठी अतः नानी के घर आ गई। वहाँ तुझे मामा-मामी का भरपूर स्नेह मिला। उन्होंने तुझ पर स्नेह की वर्षा उसी प्रकार की जिस प्रकार बादल धरती पर जल बरसाते हैं। तेरे मामा-मामी ही सदा तेरे रक्षक और हित-चिंतक बने रहे। वे सदा तेरे कामों में लगे रहे।

तेरी माँ भी उसी कुल की एक लता थी, जिसमें तू एक कली के रूप में विकसित हुई थी और बाद में सरोज बनकर खिली। तुझे नानी की गोद में पलने का अवसर मिला और जीवन घड़ी में भी तूने नानी की गोद में शरण ली। वहीं तूने अपने नेत्र मूँदकर दुनिया से महाप्रयाण किया।

विशेष :

  • सरोज के अंतिम समय का मार्मिक वर्णन है।
  • ‘भरे जलद —- अपार में’ में उत्प्रेक्षा एवं उदाहरण अलंकार हैं।
  • ‘मामा-मामी’. ‘सदा समस्त’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग है।
  • कविता छंद बंधन से मुक्त है।

4. मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुःख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों श्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करत़् मैं तेरा तर्पण!

शब्दार्थ : संबल = सहारा। विकल = बेचैन। वज्रपात = भारी विपत्ति। नत = झुका हुआ। सकल = सारा। शतदल = कमल। अर्पण = चढ़ाना, भेंट करना।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘सरोज स्मृति’ से अवतरित है। यह कविता बेटी के आकस्मिक निधन पर एक पिता का विलाप है। इस कविता में एक भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज से उसके संबंध, पुत्री के प्रति बहुत कुछ न कर पाने का अकर्मण्यता बोध भी प्रकट हुआ है। इस कविता के माध्यम से कवि निराला का जीवन-संघर्ष भी प्रकट हुआ है।

व्याख्या : कवि अपनी पुत्री सरोज को संबोधित करते हुए कहता है – हे पुत्री! तू मुझ भाग्यहीन पिता का एकमात्र सहारा थी। मैंने तेरी स्मृतियों को काफी लंबे समय तक हुदय में संजोए रखा, परंतु अब मैं अत्यधिक व्याकुल हो गया हूँ। अतः उसे प्रकट कर रहा हूँ। मेरा तो सारा जीवन ही दुखों की कहानी बनकर रह गया है। मैं अपने दुख की कथा को आज इस कविता के माध्यम से प्रकट कर रहा हूँ. जिसे मैं आज तक नहीं कह पाया था।

मेरे कर्म पर वज्रपात भी हो जाए तब भी मेरा सिर इसी मार्ग पर झुका रहेगा। मैं अपने मानवीय धर्म की रक्षा करता रहूँगा। मैं अपने मार्ग से विचलित नहीं हूँगा। यदि अपने कर्तव्य और धर्म का पालन करते हुए मेरे समस्त सत्कार्य शीत के कमल दल की भाँति नष्ट हो जाएँ तब भी मुझे कोई चिंता नहीं है। कवि अपनी इच्छा प्रकट करते हुए कहता है – हे पुत्री ! मैं अपने विगत जीवन के सभी पुण्य कार्यों का फल तुझे अर्पित कर तेरा तर्पण कर रहा हूँ। इसी प्रकार मैं तेरा श्राद्ध कर रहा हूँ। यही मेरी तेरे प्रति श्रद्धाँजलि है।

विशेष :

  • कवि-हृदय की असीम वेदना को अभिव्यक्ति मिली है।
  • ‘शीत के से शतदल’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘क्या कहूँ आज, जो नहीं कही’ में वक्रोक्ति अलंकार है।
  • क्या कहूँ, पथ पर, कर करता, तेरा तर्पण में अनुप्रास अलंकार है।
  • तत्सम शब्द प्रधान भाषा का प्रयोग है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 3 Summary – Yah Deep Akela, Maine Dekha, Ek Boond Summary Vyakhya

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यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 3 Summary

यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद – सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यान ‘अज्ञेय’ – कवि परिचय

प्रश्न :
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानव नियति और प्राकृतिक सौंदर्य के घिसे-पिटे वक्तव्यों और गढ़ी-गढ़ाई शैली से हटकर अपने अंतर्मन की वाणी देने वाले सफल साहित्यकार के अज्ञेय में दर्शन होते हैं।

जीवन-परिचय : अज्ञेय जी का जन्म मार्च 1911 में कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इनका बचपन अपने विद्वान पिता के साथ लखनऊ, कश्मीर, बिहार में बीता। इन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अंग्रेजी और संस्कृत में प्राप्त की। उन्होंने बी. एस. सी. पास करने के बाद एम. ए. (अंग्रेजी) की पढ़ाई आरंभ की। उन्हीं दिनों देशक्यापी स्वतंत्रता संग्राम अपना व्यापक रूप धारण कर रहा था। ये भी क्रांतिकारियों से जा मिले। सन् 1930 में ये गिरफ्तार कर लिए गए। उनको चार वर्ष जेल में काटने पड़े और दो वर्ष नजरबंदी में। इन्होंने किसान आंदोलन में भी सक्रिय भाग लिया, साथ ही सन् 1943 से 1946 तक कुछ वर्ष सेना में रहे। संसार के अनेक देशों की यात्राएँ की और वहाँ की प्रकृति, भावनाओं तथा विचारों का अध्ययन किया। 4 अप्रैल, 1987 को नई दिल्ली में इनका निधन हो गया।

साहित्यिक परिचय : उन्होंने कई नौकरियाँ की और छोड़ीं। कुछ समय तक वे जोधपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भी रहे। वे हिंदी के प्रसिद्ध समाचार साप्ताहिक दिनमान के संस्थापक संपादक थे। कुछ दिनों तक उन्होंने नवभारत टाइम्स का भी संपादन किया। इसके अलावा उन्होंने सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, नया प्रतीक आदि अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। आजादी के बाद की हिंदी कविता पर उनका व्यापक प्रभाव है। उन्होंने सप्तक परंपरा का सूत्रपात करते हुए तार सप्तक, दूसरा सप्तक, तीसरा सप्तक तथा चौथा सप्तक का संपादन किया। प्रत्येक सप्तक में सात कवियों की कविताएँ संगृहीत हैं, जो शताब्दी के कई शब्दों की काव्य-चेतना को प्रकट करती हैं।

अज्ञेय ने कविता के साथ-साथ कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, निबंध, आलोचना आदि अनेक साहित्यिक विधाओं में लेखन कार्य किया है। वे हिंदी में प्रयोगवाद और नई कविता के प्रवर्तक माने जाते हैं। ‘कितनी नावों में कितनी बार’ काव्य-संग्रह पर इन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। अजेय प्रकृति-प्रेम और मानव मन के अंतर्द्वश्शें के कवि हैं। उन पर फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद का प्रभाव है।

रचनाएँ : अजेय जी की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं : भग्नदूत, चिंता, इत्यलम, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्रधनु रौंदे हुए थे, अरी ओ करुणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, सागर मुद्रा, नदी के बाँक पर, छाया, कितनी नावों में कितनी बार, सन्नाटा, बुनता हूँ आदि।

अज्ञेय ने तार सप्तक (1943 ई.), दूसरा सप्तक (1952), तीसरा सप्तक (1959) और चौथा सप्तक (1979) का भी संपादन किया। इसके अतिरिक्त इन्होंने कई कहानी संग्रह, यात्रा-साहित्य, ललित निबंध, उपन्यास और आलोचनाएँ भी लिखी हैं।

काव्यगत विशेषताएँ –

भावपक्ष : ‘अज्ञेय’ जी ने काव्य जगत में उस समय प्रवेश किया जब प्रगतिवादी आंदोलन जोरों पर था। कविता छायावादी प्रभाव से मुक्त होकर अंतर्मुखी प्रवृत्ति छोड़कर बाहरी जगत की ओर ध्यान देने लगी थी। काव्य क्षेत्र में आंदोलन की लहर दौड़ रही थी। उसका प्रवर्तन अज्ञेय जी ने ‘ तार सप्तक’ के संकलन द्वारा किया। इस संकलन में संकलित रचनाएँ विभिन्न कवियों की हैं जो कलाकारों को प्रेरित करती हैं कि युगों से चली आ रही घिसी-पिटी परंपराओं को छोड़कर नवीन परंपराओं को अपनाएँ।

इनके प्रयोगवाद में एक ओर रहस्यवाद का खंडन दृष्टिगोचर होता है तो दूसरी ओर उसका समर्थन भी। प्रगतिवादी कवि असीम सत्ता में विलीन होने का विरोधी है। उसके लिए व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है। असीम सत्ता को वह परवशता का रूप देता है। यथा-

“वह हमें शतरंज के प्यादों सरीखा है हटाता।
काश हम में शक्ति होती, भाग्य को हम झेल सकते।”

रहस्यवाद का समर्थन करता हुआ वह कहता है-

“दीप थे अगणित, जीवन
शून्य की आरती।
बहा दूँ सब दीप! बुझने दो,
अगर है स्नेह कम! सारी शिखाएँ।”

अक्षेय जी ने अपने सूक्ष्म कलात्मक बोध, व्यापक जीवन अनुभूति और समृद्ध कल्पना तथा किंतु संकेतमयी अभिव्यंजना के द्वारा परिचित भावनाओं को नूतन तथा अनछुए रूपों में व्यक्त किया है। “मेंने आहुति बनकर देखा”-कविता में वे कितने प्रभावोत्पादक ढंग से भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। देखिए –

“मैं कब कहता हूँ जब मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने”
+ + +
काँटा कठोर है, तीखा, उसमें मर्यादा है
मैं कब कहता हूँ यह घटकर प्राँतर की ओछा फूल बने ?”
+ + +
“मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपव की धूल ब्ने-
+ + +
मैं विदग्ध हो जान लिया, अंतिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बनकर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्चाला है।”

कलापक्ष : अज्ञेय जी ने परंपरागत काव्य के शिल्प विधान तथा शैली में परिवर्तन एवं संशोधन करके उसे अपनी भावों की अभिव्यक्ति के अनुकूल बनाया है।

भाषा : इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ, स्वच्छ तथा परिष्कृत खड़ी बोली है। उनका शब्द प्रयोग सजग और सुंदर है। भाषा भाव और विचारों के अनुरूप है। प्रत्येक शब्द का उसकी शक्ति के अनुरूप प्रयोग हुआ है। उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता। कहीं-कहीं संस्कृत शब्दों का आधिक्य अखरने लगता है। भाषा पर इनके व्यक्तित्व की छाप है।

छंद : वे अपनी रचनाओं में छंदों की मान्यता तोड़ते हुए प्रतीत होते हैं। इन्होंने छंद विधान के स्थान पर स्वर तथा गद्यमयता को महत्त्व दिया है। अतुकांत छंद इनको प्रिय थे।

अलंकार : अज्ञेय जी अलंकार प्रयोग के पक्ष में नहीं थे। इन्होंने बिंब विधान प्रतीक योजना और जीवन की समानांतर समीपस्थ अभिव्यक्ति को अपनाया है। ये कविता के भाव अर्थ को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे।

Yah Deep Akela, Maine Dekha, Ek Boond Class 12 Hindi Summary

1. यह दीप अकेला कविता में अकेय ऐसे दीप की बात करते हैं जो स्नेह भरा है, गर्व भरा है, मदमाता भी है कितु अकेला है। अहंकार का मद हमें अपनों से अलग कर देता है। कवि कहता है कि इस अकेले दीप को भी पंक्ति में शामिल कर लो। पंक्ति में शामिल करने से उस दीप की महत्ता एवं सार्थकता बढ़ जाएगी। दीप सब कुछ है, सारे गुण एवं शक्तियाँ उसमें हैं, उसकी व्यक्तिगत सत्ता भी कम नहीं है फिर भी पंक्ति की तुलना में वह एक है, एकाकी है।

दीप का पंक्ति या समूह में विलय ही उसकी ताकत का, उसकी सत्ता का सार्वभौमीकरण है, उसके लक्ष्य एवं उद्देश्य का सर्वव्यापीकरण है। ठीक यही स्थिति मनुष्य की भी है। व्यक्ति सब कुछ है, सर्वशक्तिमान है, सर्वगुणसंपन्न है फिर भी समाज में उसका विलय, समाज के साथ उसकी अंतरंगता से समाज मजबूत होगा, राष्ट्र मजबूत होगा। इस कविता के माध्यम से अक्षेय ने व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता के साथ जोड़ने पर बल दिया है। दीप का पंक्ति में विलय व्यष्टि का समष्टि में विलय है और आत्मबोध का विश्वबोध में रूपांतरण।

2. मैंने देखा एक बूँद कविता में अज्ञेय ने समुद्र से अलग प्रतीत होती बूँद की क्षणभंगुरता को व्याख्यायित किया है। यह क्षणभंगुरता बूँद की है समुद्र की नहीं। बूँद क्षणभर के लिए ढलते सूरज की आग से रंग जाती है। क्षणभर का यह दृश्य देखकर कवि को एक दार्शनिक तत्त्व भी दीखने लग जाता है। विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग दिखना नश्वरता के दाग से, नष्टीकरण के बोध से मुक्ति का अहसास है। इस कविता के माध्यम से कवि ने जीवन में क्षण के महत्त्व को, क्षणभंगुरता को प्रतिष्ठापित किया है।

यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद सप्रसंग व्याख्या

यह दीप अकेला –

1. यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है – गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा ?
पनडुब्बा – ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा ?
यह समिधा – ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्वितीय – यह मेरा – यह मैं स्वयं विसर्जित –
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।

शब्दार्थ : स्नेह = तेल, प्रेम। मदमाता = मस्ती में भरा। पनडुब्बा = गोताखोर, एक जलपक्षी जो पानी में ड्बब-डूब कर मछलियाँ पकड़ता है। कृती = भाग्यवान। समिधा = यज्ञ की लकड़ी। बिरला $=$ बहुतों में एक। अद्वितीय – अनोखा। विसर्जित = त्यागा हुआ।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध प्रयोगवादी कवि अज्ञेय द्वारा रचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से अवतरित हैं। यह कविता अज्ञेय की रचना ‘बावरा अहेरी’ से संकलित है। इस कविता में अजेय एक ऐसे दीप की बात करता है जो स्नेह (तेल) से भरा है, गर्व से भरा है, मदमाता भी है कितु अकेला है। कवि चाहता है कि इस अकेले दीप को भी पंक्ति में शामिल कर लिया जाए। इससे इसकी महत्ता और सार्थकता बढ़ जाएगी। दीप का पंक्ति में विलय ही उसकी ताकत है। उसकी सत्ता का सार्वभौमिकरण है। ठीक यही स्थिति मनुष्य की भी है।

व्याख्या : कवि कहता है कि यह दीप अकेला है। यह स्नेह और गर्व से भरा हुआ है और यह मदमाता भी है, अर्थात् यह अहंकार की मस्ती में चूर है। फिर भी यह अकेला है। अतः इस दीप को पंक्ति में शामिल करने की आवश्यकता है, अर्थात् मनुष्य की व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता के साथ जोड़ दो।

यह गीत गाता हुआ मनुष्य है। इसे भी समूह में शामिल कर लो नहीं तो इन गीतों को और कौन गाएगा ? यह जल में डुबकी लगाने वाला ऐसा गोताखोर है जो सागर की अतल गहराई में जाकर सच्चे मोती निकालकर लाता है। इसी भी साथ ले लो, नहीं तो कौन कुशल व्यक्ति सच्चे मोतियों को ढूँढकर लाएगा ? अर्थात् इसे भी समाज में सम्मिलित कर लो। इससे इसका और समाज का दोनों का लाभ होगा।

यह वह जलती हुई हवन की समिधा (लकड़ी) है जो अन्य सभी समिधाओं में अद्वितीय स्थान की अधिकारिणी है। इसके जैसा काम कोई दूसरा नहीं कर पाएगा। यह मेरा ‘स्व’ का भाव है। इसे अपनी व्यक्तिगत सत्ता को कायम रखते हुए भी सामाजिक सत्ता में विलय होना है। यह दीप अकेला है। स्नेह से भरा हुआ है, गर्व से भरा हुआ है, अहंकार के नशे में चूर है। इसके बावजूद उसे पंक्ति में जगह दे दो अर्थात् व्यष्टि का समष्टि में विलय कर लो।

विशेष :

  • कवि ने व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता के साथ जोड़ने का संदेश दिया है। यह विलय ही उसकी सत्ता का सार्वभौमीकरण है।
  • ‘गाता गीत’, ‘कौन कृति’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • प्रतीकात्मकता का समावेश है – ‘दीप’ व्यक्ति का तथा ‘पंक्ति’ समाज का प्रतीक है।
  • रूपक अलंकार का भी प्रयोग है।
  • भाषा में लाक्षणिकता का समावेश है।

2. यह मधु है – स्वयं काल की मौना का युग-संचय
यह गोरस – जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर – फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुतः इस को भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इस को भी पंक्ति को दे दो।

शब्दार्थ : मधु = शहद। गोरस = दूध-दही। कामघेनु = एक गाय जिसके दूध को पीने से कामनाएँ पूरी होती हैं। मौना = टोकरा, पिटारा। पय = दूध। निर्भय – निडर। प्रकृत = स्वाभाविक, प्रकृति के अनुरूप। स्वयंभू = स्वयं पैदा हुआ, ब्रह्या। अमृत-पूत पय देवपुत्र पय अर्थात् अमृत। अयुतः = पृथक्, असंबद्ध।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग- 2’ में संकलित कविता ‘यह दीप अकेला’ से अवतरित है। इसमें कवि ने यह बताया है कि व्यक्ति का समाज में विलय ही उसकी सार्थकता है।

व्याख्या : कवि कहता है कि यह मधु है। इसे काल के टोकरे में युग-युग तक स्वयं संचित किया गया है। यह एक ऐसा दूध है जो जीवन रूपी कामधेनु का अमृत पय है। यह वह अंकुर है जो धरती को फोड़कर निर्भयतापूर्वक सूर्य की ओर देखता है। यह प्रकृति के अनुरूप स्वयं पैदा हुआ, ब्रह्म और सर्वथा पृथक है। इसको भी शक्ति दे दो। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति में सारे गुण व शक्तियाँ विद्यमान हैं। वह स्वयं में पूर्ण है। फिर भी समाज के साथ उसकी अंतरंगता से समाज मजबूत होगा।

कवि कहता है कि यह दीपक अकेला है, स्नेह से परिपूर्ण है, गर्व से भरा हुआ है। इसमें अहं भाव भी है। पर इसको पंक्ति में जगह दे दो अर्थात् अकेले व्यक्ति को समाज में सम्मिलित कर लो। समाज में इसके विलय से समाज और राष्ट्र मजबूत होगा।

विशेष :

  • इस काव्यांश में ‘दीप’ की उपमा अनेक वस्तुओं से दी गई है।
  • ‘जीवन-कामधेनु’ में रूपक अलंकार है।
  • संस्कृत के शब्दों का प्रयोग है।
  • प्रतीकात्मकता का समावेश है।
  • लाक्ष्षणिक प्रयोग द्रष्टव्य है।

3. यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कडुवे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लंब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो-
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इस को भी पंक्ति को दे दो।

शब्दार्थ : लघुता = छोटापन। पीड़ा = दुःख। कुत्सा = निंदा, घुणा। अपमान = बेइज्जती। तम = अंधकार। द्रवित = पिघला हुआ। उल्लंब बाहु = उठी हुई बाँह वाला।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ अजेय द्वारा रचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से अवतरित हैं। यहाँ कवि दीपक के प्रतीक के माध्यम से मनुष्य को विश्वास से परिपूर्ण, दुखों में सहनशील, जागरूक और प्रयुद्ध बताते हुए सर्वगुण संपन्न दर्शाता है। इसके बावजूद उसे पंक्ति में जगह देने की बात कहकर कवि व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता से जोड़ने का संदेश देता है।

व्याख्या : कवि कहता है कि यह दीपक उस विश्वास का ही एक रूप है जो अपने छोटे होने के बावजूद काँपता नहीं। यह वह पीड़ा है, जिसकी गहराई को उसने स्वयं नाप लिया है अर्थात् दीपक रूपी व्यक्ति में आत्मविश्वास भरा हुआ है और इसमें गहरे दुख को भी सहन करने की क्षमता है।

निंदा. अपमान, अनादर के धुंधलाते कठोर अंधकार में यह हमेशा द्रवित अर्थात् करुणा से भरा हुआ, दीर्घकाल से जागरूक, अनुराग युक्त नेत्रों वाला, गले लगाने को उठी हुई बाँहों वाला और दीघ समय से सम्पूर्ण आत्मीयता से भरा हुआ है। यह ज्ञान प्राप्ति के लिए उत्सुक, जागृत, भ्रद्धा से युक्त है। इसको भक्ति दे दो।

यह दीप अकेला है, स्नेह से भरा हुआ है, गर्व से भी भरा है और यह अहं भाव से परिपूर्ण है। फिर भी इसे पंक्ति में जगह दे दो। तात्पर्य यह है कि दीपक रूपी व्यक्ति में सभी अच्छे गुणों का समावेश है फिर भी इसे समाज में शामिल करने की आवश्यकता है। समाज के साथ इसकी अंतरंगता से समाज को मजबूती मिलेगी।

विशेष :

  • इस काव्यांश में व्यक्ति और समाज के संबंधों की क्याख्या की गई है।
  • ‘दीप’ का प्रतीकात्मक प्रयोग दर्शनीय है।
  • लाक्षणिकता का समावेश है।
  • तत्सम शब्द बहुला भाषा का प्रयोग किया गया है।
  • श शब्द-चयन अत्यंत सटीक है।

मैंने देखा, एक बूँद –

मैंने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से :
रंग गई क्षण-भर
ढलते सूरज की आग से
मुझ को दीख गया :
सूने विराद् के सम्मुख
हर आलोक-छुपा अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से!

शब्दार्थ : सहसा = अचानक। सागर – समुद्र। विराट = बहुत बड़ा, ब्रहम, परम सत्ता। सम्मुख = सामने। आलोक = प्रकाश। उन्मोचन = मुक्ति, ढीला करना। नश्वरता = नाशबान, नष्ट होने वाला।

प्रसंग : प्रस्तुत लघु कविता प्रयोगवाद के जनक कवि अक्षेय द्वारा रचित है। उनकी यह कविता ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ में संकलित हैं। इस कविता में अजेय ने समुद्र से अलग प्रतीत होती बूँद की क्षणभंगुरता को व्याख्यायित किया है। यह क्षणभंगुरता बूँद की है, समुद्र की नहीं। बूँद क्षण भर के लिए ढलते सूरज की आग से रंग जाती है। क्षण भर का यह दृश्य कवि को दार्शनिक तत्व का रहस्य समझा जाता है। विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग दिखना नश्वरता के दाग से नष्ट होने के बोध से मुक्ति का अहसास है। इस कविता के माध्यम से कवि ने जीवन में क्षण के महत्त्व को, क्षण-भंगुरता को प्रतिपादित किया है।

व्याख्या : एक दिन कवि ने संध्या की अरुणिमा बेला में देखा कि अचानक समुद्र के झाग के मध्य से एक छोटी-सी बूँद उछली और पुनः उसी में समा गई। यद्यपि उस बूँद का अस्तित्व क्षणिक था। तथापि निरर्थक कतई नहीं था। इसका कारण यह था कि वह बूँद एक क्षण में ही अस्त होते सूर्य की स्वर्णिम रश्मियों के द्वारा रंग गई थी और स्वर्ण की भाँति चमक उठी थी। कवि इस दृश्य को देखकर एक दार्शनिक तत्व की खोज में लीन हो जाता है। व्यक्ति की स्थिति भी समष्टि में ऐसी ही है जैसे सागर में बूँद की, लेकिन जैसे बूँद-बूँद से समुद्र बनता है वैसे ही व्यक्ति-व्यक्ति मिलकर समाज का निर्माण करते हैं। अतः व्यक्ति को नकारा नहीं जा सकता।

बूँद का इस प्रकार ‘चमककर समुद्र में विलीन हो जाना कवि को आत्मबोध कराता है कि यद्यपि विराट सत्ता शून्य या निराकार है तथापि मानव जीवन में आने वाले मधुर मिलन के आलोक से दीप्त क्षण मानव को नश्वरता के कलंक से मुक्त कर देते हैं। आलोकमय क्षण की स्मृति ही उसके जीवन को सार्थक कर देती है। कवि को खंड में भी सत्य का दर्शन हो जाता है। वह आश्वस्त हो जाता है कि वह अपने क्षणिक नश्वर जीवन को भी बूँद की भाँति अनश्वरता और सार्थकता प्रदान कर सकता है। उसकी स्थिति वैसी ही सात्विक है, जैसी उस साधक की जो पाप से मुक्त हो गया है।

विशेष :

  • इस कविता में कवि ने क्षण के महत्त्व को, क्षणभंगुरता को प्रतिष्ठित किया है।
  • यह कविता प्रयोगवादी शैली के अनुरूप है।
  • यह कविता प्रतीकात्मकता को लिए हुए है। इसमें ‘बूँद’ व्यक्ति का और ‘सागर’ समाज का प्रतीक है।
  • कवि ने व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा की है।
  • कवि पश्चिम के अस्तित्ववाद से भी प्रभावित है।
  • ‘ढलते सूरज की आग’ में ‘आग’ का प्रयोग आलोक के अर्थ में साभिप्राय है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 4 Summary – Banaras, Disha Summary Vyakhya

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बनारस, दिशाSummary – Class 12 Hindi Antra Chapter 4 Summary

बनारस, दिशा – केदारनाथ सिंह – कवि परिचय

प्रश्न :
केवारनाथ सिंह का जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए तथा उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : केदारनाथ सिंह का जन्म 7 जुलाई, 1934 को बलिया जिले के चकिया गाँव में हुआ। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए, करने के बाद उन्होंने वहीं से ‘आधुनिक हिंदी कविता में बिंब विधान’ विषय पर पी-एच. डी. उपाधि प्राप्त की। कुछ समय गोरखपुर में हिंदी के प्राध्यापक रहे फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के प्रोफेसर के पद पर रहते हुए अवकाश प्राप्त किया। आजकल दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

साहित्यिक विशेषताएँ : केदारनाथ सिंह मूलत: मानवीय संवेदनाओं के कवि हैं। अपनी कविताओं में उन्होंने बिंब-विधान पर अधिक बल दिया है। केदारनाथ सिंह की कविताओं में शोर-शराबा न होकर, विद्रोह का शांत और संयत स्वर सशक्त रूप में उभरता है। ‘जमीन पक रही है’ संकलन में ‘जमीन’, ‘ रोटी’ ‘ बैल’ आदि उनकी इसी प्रकार की कविताएँ हैं। संवेदना और विचारबोध उनकी कविताओं में साथ-साथ चलते हैं।

‘तीसरा सप्तक’ के अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा है-“प्रकृति बहुत शुरू से मेरे भावों का आलंबन रही है-कछार, मक्का के खेत और दूर-दूर तक फैली पगडंडियों की छाप आज भी मेरे मन पर उतनी ही स्पष्ट है। समाज के प्रगतिशील तत्त्वों और मानव के उच्चतर मूल्यों की परख मेरी रचनाओं में आ सकी है या नहीं, मैं नहीं जानता, पर उनके प्रति मेरे भीतर एक विश्वास, एक लालसा, एक ललक जरूर है, जिसे मैं हर प्रतिकूल झोंके से बचाने की कोशिश कराता हूँ, करता रहूँगा।”

जीवन के बिना प्रकृति और वस्तुएँ कुछ भी नहीं हैं-यह अहसास उन्हें अपनी कविताओं में आदमी के और समीप ले आया है। इस प्रक्रिया में केदारनाथ सिंह की भाषा और श्री नम्य और पारदर्शक हुई है और उनमें एक नई ऋजुता और बेलौसपन आया है। उनकी कविताओं में रोजमरा के जीवन के अनुभव परिचित बिंबों में बदलते दिखाई देते हैं। शिल्प में बातचीत की सहजता और अपनापन अनायास ही दृष्टिगोचर होता है। ‘अकाल में सारस’ कविता संग्रह पर उनको 1989 के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से और 1994 में मध्य प्रदेश शासन द्वारा संचालित मैधिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय सम्मान तथा कुमारन आशान, व्यास सम्मान, दयावती मोदी पुरस्कार आदि अन्य कई सम्मानों से भी सम्मानित किया गया है।

रचनाएँ : अब तक केदारनाथ सिंह के चार काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं-अभी बिल्कुल अभी, जमीन पक रही है, यहाँ से देखो, अकाल में सारस, उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएँ और बाघ। ‘कल्पना और छायावाद ‘ उनकी आलोचनात्मक पुस्तक और ‘मेरे समय के शब्द’ निबंध संग्रह हैं। हाल ही में उनकी चुनी हुई कविताओं का संग्रह प्रतिनिधि कविताएँ नाम से प्रकाशित हुआ है। ‘ताना-बाना’ नाम से विविध भारतीय भाषाओं का हिंदी में अनूदित काव्य संग्रह हाल ही में प्रकाशित हुआ है।

Banaras, Disha Class 12 Hindi Summary

1. बनारस कविता में प्राचीनतम शहर बनारस के सांस्कृतिक वैभव के साथ ठेठ बनारसीपन पर भी प्रकाश डाला गया है। बनारस शिव की नगरी और गंगा के साथ विशिष्ट आस्था का केंद्र है। बनारस में गंगा, गंगा के घाट, मंदिर तथा मंदिरों और घाटों के किनारे बैठे। भिखारियों के कटोरे जिनमें वसंत उतरता है। इस शहर के साथ मिथकीय आस्था-काशी और गंगा के सान्निध्य से मोक्ष की अवधारणा जुड़ी है। गंगा में बँधी नाव एक ओर मंदिरों-घाटों पर जलने वाले दीप तो दूसरी तरफ एभी न बुझेने वाली चितागिन, उनसे तथा हवन इत्यादि से उठने वाला धुआँ-यही तो है बनारस। यंहाँ हर कार्य अपनी ‘रौ’ में होता है। यह बनारस का चरित्र है। आस्था, श्रद्धा, विरक्ति, विश्वास-आश्चर्य और भक्ति का मिला-जुला रूप बनारस है। काशी की अति प्राचीनता, आध्यात्मिकता एवं भव्यता के साथ आधुनिकता का समाहार ‘ बनारस’ कविता में मौजूद है। यह कविता एक पुरातन शहर के रहस्यों को खोलती है, बनारस एक मिथक बन चुका शहर है, इस शहर की दार्शिनक व्याख्या यह कविता करती है। कविता भाषा संरचना के स्तर पर सरल है और अर्थ के स्तर पर गहरी। कविता का शिल्प विवरणात्मक होने के साथ ही कवि की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है।

2. दिशा कविता बाल मनोविज्ञान से संबंधित है। जिसमें पतंग उड़ाते बच्चे से कवि पूछता है हिमालय किधर है। बालक का उत्तर बाल सुलभ है-कि हिमालय उधर है जिधर उसकी पतंग भागी जा रही है। हर व्यक्ति का अपना यथार्थ होता है-बच्चे यथार्थ को अपने ढंग से देखते हैं। कवि को यह बाल सुलभ संज्ञान मोह लेता है। कविता लघु आकार की है और यह कहती है कि हम बच्चों से कुछ-न-कुछ सीख सकते हैं। कविता की भाषा सहज और सीधी है।

बनारस, दिशा सप्रसंग व्याख्या

बनारस –

1. इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है

शब्दार्थ : लहरतारा या मडुवाडीह = बनारस के मोहल्लों के नाम। बवंडर = आँधी, तूफान।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश आधुनिक काल के कवि केदारनाध सिंह द्वारा रचित कविता ‘बनारस’ से अवतरित है। इस कविता में कवि ने प्राचीनतम शहर बनारस के सांक्कृतिक वैभव के साथ ठे बनारसीपन पर प्रकाश डाला है। बनारस शिव की नगरी और गंगा के साथ विशिष्ट आस्था का केंद्र है। बनारस में गंगा, गंगा के घाट, मेंदर और घाटों के किनारे बैठे भिखारियों के कटोरे जिनमें वसंत उतरता है। बनारस का हर कार्य अपनी रौ में होता है। यह बनारस का चरित्र है।

व्याख्या : कवि बताता है कि बनारस शहर में वसंत का आगमन अचानक ही हो जाता है। कवि ने देखा है कि यहाँ जब वसंत आता है तब बनारस के लहरतारा या मडुवाडीह मोहल्ले की ओर से धूल भरी आँधी उठती है। उस समय यह धूल इस पुराने महान शहर के प्रत्येक हिस्से में समा जाती है। धूल की किरकिराहट हर किसी की जीप पर महसूस होने लगती है। कहने का तात्पर्य यह है कि बनारस में वसंत के मौसम में आँधी के कारण संपूर्ण वातावरण धूल में भर जाता है। इस धूल के साथ यहाँ वसंत का प्रारंभ हो जाता है।

विशेष :

  • यहाँ कवि ने बनारस में वसंत के आगमन के साथ धूल उड़ने का वर्णन किया है।
  • ‘इस महान —-” लगती है’ में प्रभावी बिंब योजना है।
  • मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है।
  • शब्द-चयन सटीक है।
  • भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है।

2. जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब-सी नमी है

शब्दार्थ : सुगबुगाना = जागने की क्रिया। पचखियाँ = अंकुरण।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश केदारनाथ सिंह की कविता “बनारस” से अवतरित है। इन पंक्तियों में कवि ने बनारस में वसंत के आगमन को चित्रित किया है।

व्याख्या : कवि कहता है कि जब बनारस के वाताचरण में बसंत की हवा चलती है तो जो है अर्थात् जो अस्तित्वमान है, उसमें सुगबुगाहट होने लगती है। यानी उसमें जागृति होने लगती है। जो अस्तित्वमान नहीं होता अर्थात् जिसमें चेतना का रूप दिखाई नहीं देता, उसमें भी नया अंकुरण होने लगता है। वह परिवर्तन पूरे वातावरण को प्रभावित करता है। लोग विगत असफलताओं के बीच भी नई उमंग और नए संकल्प से भर उठते हैं। इस प्रकार पूरे वातावरण में नया उल्लास आ जाता है। नए जीवन का संचार होने लगता है।दशाश्वमेघ घाट पर जाने वाला हर व्यक्ति यह महसूस करता है कि गंगा नदी को स्पर्श करता हुआ घाट का आखिरी पत्थर कुछ और नरम हो गया है। उसकी कठोरता में कमी आ गई है अर्थात् पाषाण हृदय व्यक्ति के व्यवहार में भी सहजता आ जाती है। घाट पर बैठे बंदरों की आँखों में एक अलग प्रकार की नमी दृष्टिगोचर होने लगती है।

विशेष :

  • भाषा, सहज एवं सरल है।
  • बैठे बंदरों, के कटोरों का में अनुप्रास अलंकार है।

3. तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़-रोज़ एक अनंन शव
ले जाते है कंधे
अंधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ

शब्दार्थ : अनंत = जिसका अंत न हो। शव = लाश, मुर्दा व्यक्ति।

प्रसंग : प्रस्तुत पक्तियाँ केदारनाथ सिंह की कविता ‘बनारस’ से अवतरित हैं। इस काव्यांश में वसंत के प्रभाव को दर्शाया गया है। वसंत आने पर भिखारियों के कटोरों में भी चमक आने का बिंबात्मक चित्रण हुआ है। शहर के भरने और खाली होने का भी प्रभावी चित्रण हुआ है।

व्याख्या : कवि प्रश्न पूछता है क्या तुमने कभी खाली कटोरों में वसंत का उतरना देखा है ? अर्थात् बनारस में वसंत के समय भिखारियों तक के चेहरों पर चमक आ जाती है क्योंकि भीख मिलने के कारण उनके खाली कटोरे भरने लगते हैं। कवि कहता है कि यह शहर इसी तरह खुलता है अर्थात् यहाँ हर दिन की शुरुआत ऐसे ही उल्लास के साथ होती है। हर दशा में प्रसन्न रहना बनारस का चरित्र है। इसके साथ-साथ यह शरीर इसी तरह खाली भी होता रहता है।

भरने और खाली होने का यह सिलसिला चलता रहता है। यहाँ प्रतिदिन अंतहीन शवों को उठाकर कंधों पर लाने का सिलसिला चलता रहता है। लोग अंधेरी गली से निकलकर चमकती हुई गंगा की तरफ शवों को ले जाते रहते हैं अर्थात् वे मृत्यु रूपी अंधकार से मोक्षदायिनी गंगा के पास शव को ले जाकर मृतक का दाह-संस्कार करते हैं। इस प्रकार कहीं खुशी तो कहीं गम की अनुभूति होती रहती है। इन दोनों का मिला-जुला रूप है – बनारस। यह सिलसिला प्राचीनकाल से चला आ रहा है।

विशेष :

  • इस काव्यांश में कवि ने बनारस के हर्ष-विषादमय चरित्र का प्रभावी चित्रण किया है।
  • शहर के खुलने, भरने, खाली होने का बिंबात्मक चित्रण किया है।
  • ‘रोज-रोज’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • शब्द-चयन सटीक है।
  • ‘खाली कटोरों में वसंत का उतरना’ प्रयोग दर्शनीय है।

4. इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है।
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधधी है नाव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से

शब्दार्थ : दृढ़ता = मजबूती। सामूहिक = मिला-जुल।।

प्रसंग : प्रस्तुंत पंक्तियाँ केदारनाथ सिंह की कविता ‘बनारस’ से अवतरित हैं। इन पंक्तियों में बताया गया है कि हर काम को धीरे-धीरे करना बनारस की जीवन-शैली का अभिन्न अंग है।

व्याख्या : कवि बताता है कि बनारस में धूल धीरे-धीरे उड़ती है। यहाँ लोग भी धीरे-धीरे चलते हैं। मंदिर और घाटों पर घंटे भी धीरे-धीरे बजते हैं। यहाँ शाम भी धीरे-धीरे होती है अर्थात् हर काम को धीरे-धीरे करना बनारस की जीवन शैली का हिस्सा है। यहाँ हर काम अपनी ‘रौ’ में होता है।

सभी कामों का धीरे-धीरे होना यहाँ का स्वाभाविक चरित्र है। यह एक सामूहिक लय है। इस सामूहिक गति ने पूरे शहर को मजबूती से बाँध रखा है। इसी मजबूत बंधन के कारण यहाँ कुछ भी गिरता नहीं, कुछ भी हिलता नहीं। जो चीज जहाँ पर थी, वह अब भी वहीं पर रखी हुई है। गंगा भी वहीं है अर्थात् गंगा के प्रति लोगों की आस्था और श्रद्धा उसी प्रकार बनी हुई है जो पहले थी। नाव भी वहीं बँधी है। सैकड़ों वर्ष से तुलसीदास की खड़ाऊँ भी वहीं रखी हुई है। भाव यह है कि सैकड़ों वर्षों से बनारस के चरित्र में कोई बदलाव नहीं आया है। पुराने मूल्य, पुरानी मान्यताएँ, आस्था, श्रद्धा, विश्वास सभी कुछ अभी धरोहर की तरह सुरक्षित है। काशी की प्राचीन आध्यात्मिकता और भव्यता अभी तक उसी प्रकार बनी हुई है।

विशेष :

  • इन पंक्तियों में बनारस के अपरिवर्तित रूप की झाँकी प्रस्तुत की गई है।
  • ध्वन्यात्मकता का गुण विद्यमान है।
  • ‘धीरे-धीरे’ को कवि ने सामूहिक लय का नाम दिया है।
  • ‘धीरे-धीरे’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • आकर्षक बिंबो का प्रयोग हुआ है।

5. कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आथा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है

शब्दार्थ : सई-साँझ = शाम की शुरुआत। आलोक = प्रकाश, रोशनी।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश केदारनाथ सिंह की कविता ‘बनारस’ से उद्धृत है। इसमें बनारस के सांध्यकालीन संंदर्य एवं विविधता का चित्रण किया गया है।

व्याख्या : कवि कहता है कि कभी संध्या के समय बिना किसी सूचना के बनारस शहर में प्रवेश कर जाओ और आरती के प्रकाश में इस शहर को देखो। तब तुम्हें कई आश्चर्यजनक चीजें दिखाई देंगी। तब तुम्हें दिखाई देगा कि यह शहर आधा जल में है और आधा मंत्र में है (मंत्रोच्चार सुनाई पड़ता है); आधा शहर फूल में है अर्थात् संध्या के समय मंदिर-घाटों पर बनारस शहर जल, मंत्र और फूल भगवान की आरती करते हुए भक्ति में सराबोर दिखाई देता है।

उसी समय घाटों पर चिता की अग्नि भी दिखाई दे जाती है। इस प्रकार बनारस शहर आधा शव में नजर आता है। आधा शहर नींद में खोया प्रतीत होता है तो आधा शहर शंख की ध्वनि में जागता प्रतीत होता है अर्थात् इस शहर में कहीं नींद की बोझिलता है तो कहीं पूजा-पाठ का जागरण है। कवि कहता है कि यदि तुम ध्यान से देखो तो यह शहर आधा है और आधा नहीं है अर्थात् आधा बनारस प्राचीन संस्कृति के अनुरूप अपना मिथकीय स्वरूप बनाए हुए है और ‘आधा नहीं है’ का तात्पर्य है कि इस शहर में प्राचीनता और आध्यात्मिकता के साथ-साथ आधुनिकता का भी समावेश हो रहा है।

विशेष :

  • इन पंक्तियों में काशी की प्राचीन आध्यात्मिकता के साथ-साथ आधुनिकता का समावेश भी दर्शाया गया है।
  • ‘आधा’ शब्द के बार-बार प्रयोग से अर्थ और भाव में विशिष्टता आ गई है।
  • आकर्षक बिंबों का सुजन हुआ है।
  • लाक्षणिकता दर्शनीय है।
  • ‘सई-साँझ’ में अनुप्रास अलंकार है।

6. जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तंभ के
जो नहीं है उसे थामे हैं
राख और रोशनी के ऊँचे-ऊँचे स्तंभ
आग के स्तंभ
और पानी के स्तंभ
धुएँ के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंभ
किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिल्कुल बेखबर!

शब्दार्थ : स्तंभ = खंभा। अलक्षित = जिसकी ओर किसी का लक्ष्य न हो, अज्ञात, न देखा हुआ। अर्घ्य = देवता के सामने दिए जाने वाला जल।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश केदारनाथ सिंह द्वारा रचित कविता ‘बनारस’ से अवतरित है। इन पंक्तियों में बनारस के प्राचीन आध्यात्मिक एवं भव्य स्वरूप के साथ आधुनिकता की भी झाँकी प्रस्तुत की गई है।

व्याख्या : कवि कहता है कि बनारस में जो विद्यमान है वह बिना किसी खंभे के खड़ा है अर्थात् यहाँ की प्राचीनता, आध्यात्मिकता, श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, सामूहिक गति आदि सभी कुछ बिना किसी सहारे के अपने आप ही बने हुए हैं। यह सब विरासत के रूप में जन-जीवन में समाए हुए हैं। इसी प्रकार काशी का मिथकीय स्वरूप बिना किसी सहारे के सुरक्षित है। यह बनारस शहर जो खड़ा है उसे गंगा में बहती हुई मुदों की राख, रोशनी की ऊँचाइयों के स्तंभ, दहकती आग की लपटों के स्तंभ, धुएँ की ऊपर उठती ऊँचाइयाँ, खुशबू की ऊँचाई, प्रार्थना के लिए ऊपर उठते हुए हाथ, इस शहर को संभाले हुए हैं। किसी अलक्षित सूर्य को यह शहर शताब्दियों से अर्घ्य देता चला आ रहा है। यह शहर गंगा में एक टाँग पर खड़ा होकर प्रार्थना में लीन है। उस समय उसका दूसरे पैर की ओर ध्यान नहीं जाता। बनारस की प्राचीनता एवं आध्यात्मिकता अपनी भव्यता के साथ स्थिर है।

विशेष :

  • कवि ने बनारस की आध्यात्मिकता के साथ आधुनिकता का भी मेल कराया है।
  • ‘स्तंभ’ शब्द की आवृत्ति से कविता में भाव-सौंदर्य आ गया है।
  • दृश्य बिंब, ध्वनि बिंब एवं गंध बिंब की सुंदर योजना हुई है।
  • ‘बिल्कुल बेबर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘टाँग’ का प्रतीकात्मक प्रयोग दर्शनीय है।
  • ‘सूर्य’ को अलक्षित बताकर उसे अदृश्य सत्ता के प्रतीक के रूप में लिया है।
  • भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है।

दिशा – 

1. हिमालय किधर है ?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था
उधर-उधर-उसने कहा
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी
मैं स्वीकार करूँ
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है!

प्रसंग : प्रस्तुत लघु कविता ‘दिशा’ केदारनाथ सिंह द्वारा रचित है। इस कविता में कवि पतंग उड़ाते बच्चे से पूछता है कि हिमालय किधर है ? उसका बाल सुलभ उत्तर कवि को कुछ सोचने को विवश कर देता है। हर व्यक्ति का अपना यथार्थ होता है।

व्याख्या : कवि स्कूल के बाहर पतंग उड़ाते एक बच्चे से पूछता है कि बताओ, हिमालय किधर है ? बच्चा पतंग उड़ाने में व्यस्त है अतः वह भागती पतंग की दिशा की ओर इशारा करके बताता है कि हिमालय उधर की ओर है। उसे तो हर चीज पतंग की दिशा में प्रतीत होती है। कवि कहता है कि मैंने पहली बार जाना कि हिमालय किधर है अर्थात् कवि को यह ज्ञान हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना यथार्थ होता है। बच्चे दुनिया को अपने ढंग से देखते-अनुभव करते हैं। उनका सरोकार अपनी दुनिया से होता है। कवि को यह बाल-सुलभ संज्ञान मोह लेता है। हम भी बच्चों से कुछ न कुछ सीख सकते हैं।

विशेष :

  • ‘उधर-उधर’ में द्विरक्ति है – इसमें दृढ़ता है कि हिमालय उधर ही है।
  • ‘स्कूल के बाहर’ में यह व्यंजना है कि स्कूली लादे ज्ञान से परे।
  • मैं स्वीकार ….. में अनुभव सापेक्ष ज्ञान की स्वीकृति है।
  • भाषा में चित्रात्मकता है।
  • भाषा सरल, सहज एवं सरस है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 5 Summary – Ek Kam, Satya Summary Vyakhya

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एक कम, सत्य Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 5 Summary

एक कम, सत्य – विष्णु खरे – कवि परिचय

प्रश्न :
विष्णु खरे के जीवन का परिचय वेते हुए उनके साहित्यिक जीवन एवं रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिघय : विष्णु खरे का जन्म 1940 ई. में छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश में हुआ। क्रिश्चियन कॉलेज, इंदौर से 1936 में उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. किया। 1962-63 में दैनिक ‘ इदौर समाचार’ में उप संपादक रहे। 1963-75 तक मध्य प्रदेश तथा दिल्ली के महाविद्यालयों में अध्यापन से भी जुड़े। इसी बीच 1966-67 में लघु-पत्रिका ‘व्यास’ का संपादन किया। तत्पश्चात् 1976-84 तक साहित्य अकादमी में उप सचिव (कार्यक्रम) पद पर पदासीन रहे। 1985 से नवभारत टाइम्स में प्रभारी कार्यकारी संपादक के पद पर कार्य किया। बीच में लखनऊ संस्करण तथा रविवारीय ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ (हिंदी) और अंग्रेजी टाइम्स ऑफ इंडिया में भी संपादन कार्य से जुड़े रहे। 1993 में जयपुर नवभारत टाइम्स के संपादक के रूप में भी कार्य किया। इसके बाद जबाहर लाल नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में दो वर्ष वरिष्ठ अध्येता रहे। अब स्वतंत्र लेखन तथा अनुवाद कार्य में रत हैं।

साहित्य-सेवा : औपचारिक रूप से उनके लेखन प्रकाशन का आरंभ 1956 से हुआ। पहला प्रकाशन टी. एस. इलियट का अनुवाद ‘मरू प्रदेश और अन्य कविताएँ’ 1960 में! दूसरा कविता संग्रह ‘एक गैर-रूमानी समय में’ 1970 में प्रकाशित हुआ। तीसरा संग्रह ‘खुद अपनी आँख से’ 1978 में, चौथा ‘सबकी आवाज के पर्दे में’, 1944 में पाँचवाँ ‘पिछला बाकी’ तथा छठवाँ ‘काल और अवधि के दरमियान’ प्रकाशित हुए। एक समीक्षा-पुस्तक ‘आलोचना की पहली किताब’ 1983 में प्रकाशित।

रचनाएँ : उन्होंने विदेशी कविताओं का हिंदी तथा हिंदी-अंग्रेजी अनुवाद अत्यधिक किया है। उनको फिनलैंड के राष्ट्रीय सम्मान ‘नाइट ऑफ दि आर्डर ऑफ दि द्वाइट रोज’ से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त रघुवीर सहाय सम्मान, शिखर सम्मान हिंदी अकादमी दिल्ली का ‘साहित्यकार सम्मान’, मैधिलीशरण गुप्त सम्मान मिल चुका है। इनकी कविताओं में भाषा के माध्यम से अभ्यस्त जड़ताओं और अमानवीय स्थितियों के विरुद्ध सशक्त नैतिक स्वर को अभिव्यक्ति दी गई है।

Ek Kam, Satya Class 12 Hindi Summary

1. एक कम कविता के माध्यम से कवि ने स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में प्रचलित हो रही जीवन-शैली को रेखांकित किया है। आजादी हासिल करने के बाद सब कुछ वैसा ही नहीं रहा जिसकी आजादी के सेनानियों ने कल्पना की थी। पूरे देश का या कहें आस्थावान, ईमानदार और संवेदनशील जनता का मोहभंग हुआ। यह कहना ज्यादा बेहतर है कि पहले हम दूसरे देश के लोगों के द्वारा छले जा रहे थे और आजादी के बाद अपने ही लोगों द्वारा छले जाने लगे।

परिणाम यह हुआ कि आपसी विश्वास, परस्पर भाई-चारा और सामूहिकता का स्थान धोखाधड़ी, आपसी खींचतान ने ले लिया और नितांत स्वार्थपरकता का माहौल बनता चला गया। स्थिति बद से बदतर होती गई। यह पतनोन्मुख यात्रा अभी भी जारी है। हालात ऐसे हैं कि जो ईमानदार है वह एक चाय या दो रोटी के लिए भी समर्थ नहीं है और दूसरों के आगे हाथ फैलाने को विवश है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि आज आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील समाज की संकल्पना में धोखेबाजी और निर्लज्जता आ जुड़े हैं। ऐसे समाज में ईमानदार लोगों की भूमिका नगण्य हो गई है।

कवि इस माहौल में स्वयं को असमर्थ पाते हुए भी ईमानदारों के प्रति अपनी सहानुभूति स्पष्ट रूप से रखता है तथा कुछ न करने की स्थिति में होने के बावजूद स्वयं को ऐसे लोगों के जीवन-संघर्ष में बाधक नहीं बनाना चाहता। इसलिए वह कम-से-कम एक व्यवधान तो कम कर ही सकता है जो कि वह करता है, यही कविता का संदेश भी है।

2. सत्य कविता में कवि ने महाभारत के पौराणिक संदर्भों और पात्रों के द्वारा जीवन में सत्य की महत्ता को स्पष्ट करना चाहा है। अतीत की कथा का आधार लेकर अपनी बात प्रभावशाली ढंग से कही जा सकती है, यह कविता इसका प्रमाण है। युधिष्ठिर, विदुर और खांडवप्रस्थ-इंद्रस्थस के द्वारा सत्य को, सत्य की महत्ता को ऐतिहासिक परिंप्रेक्ष्य के साथ प्रस्तुत करना ही यहाँ कवि का अभीष्ट है।

जिस समय और समाज में कवि जी रहा है उसमें सत्य की पहचान और उसकी पकड़ कितनी मुश्किल होती जा रही है यह कविता उसका प्रमाण है। सत्य कभी दिखता है और कभी ओझल हो जाता है। आज सत्य का कोई एक स्थिर रूप आकार, या पहचान नहीं है जो उसे स्थायी बना सके। सत्य के प्रति संशय का विस्तार होने के बावजूद वह हमारी आत्मा की आंतरिक शक्ति है-यह भी इस कविता का संदेश है। उसका रूप वस्तु, स्तिति और घटनाओं, पात्रों के अनुसार बदलता रहा है। जो एक व्यक्ति के लिए सत्य है वही शायद दूसरे के लिए सत्य नहीं है। बदलते हालात और मानवीय संबंधों में हो रहे निरंतर परिवर्तनों से सत्य की पहचान और उसकी पकड़ मुश्किल होते जाने के सामाजिक यधार्थ को कवि ने जिस तरह ऐतिहासिक, पौराणिक घटनाक्रम के द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है वह प्रशंसनीय है।

एक कम, सत्य सप्रसंग व्याख्या

एक कम –

1947 के बाद से
इतने लोगों को इतने तरीकों से
आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है
कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है
पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए
तो जान लेता हूँ
मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है
मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी
या मैं भला चंगा हूँ और कामचोर और
एक मामूली धोखेबाज
लेकिन पूरी तरह तुम्हारे संकोच लज्जा परेशानी
या गुस्से पर आश्रित
तुम्हारे सामने बिल्कुल नंगा निर्लज्ज और निराकांक्षी
मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से
मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंदी या हिस्सेदार नहीं
मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम
कम-से-कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो।

शब्दार्थ : आत्मनिर्भर = स्वयं पर निर्भर। मालामाल = धनी। कंगाल = गरीब। संकोच = झिझक। आभ्रित = निर्भर, किसी के सहारे। निर्ल्लज = बेशर्म। निराकांक्षी = इच्छा रहित। प्रतिद्वंद्वी = विपक्षी, विरोधी। निश्चिंत = बेफिक्र।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित विष्णु खरे की कविता ‘एक कम’ से अवतरित हैं। इस कविता के माध्यम से कवि ने स्वाधीनता के बाद भारतीय समाज में प्रचलित हो रही जीवन-शैली को रेखांकित किया है। इससे पूरे देश का या कहें कि आस्थावान, ईमानदार और संवेदनशील जनता का मोहभंग हुआ है। आपसी विश्वास, भाईचारे का स्थान धोखाधड़ी और आपसी खींचतान ने ले लिया है। ऐसे माहौल में कवि स्वयं को असमर्थ पाते हुए भी इमानदारों के प्रति अपनी सहानुभूति स्पष्ट रूप से रखता है । वह किसी के जीवन-संघर्ष में बाधक नहीं बनना चाहता। इस प्रकार बह कम से कम एक व्यवधान तो कम कर सकता है।

व्याख्या : कवि कहता है कि मैंने 1947 के बाद (स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद) बहुत से लोगों को अपने-अपने तरीकों से आत्मनिर्भर होते देखा है। वे लोग गलत हथकंडे अपनाकर मालामाल हो गए हैं। मैंने उन्हें उन्नति के पथ पर आगे बढ़ते देखा है। लोगों ने आर्थिक संपन्नता के लिए झूठ, छल-कपट, बेईमानी, धोखाधड़ी आदि का रास्ता अपना लिया। चारों ओर स्वार्थपरता का वातावरण बनता चला गया।

इस माहौल में ईमानदार लोग दूसरों के आगे हाथ फैलाने को विवश हो गए हैं। जब कोई पच्चीस पैसे, एक चाय या दो रोटी के लिए हाथ फैलाता है; तब मैं जान लेता हूँ कि मेरे आगे हाथ फैलाने वाला व्यक्ति ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है। उसके हाथ फैलाने में यह स्वीकार करने का भाव है कि मैं विवश हूँ, एक कंगाल या कोढ़ी हूँ। अथवा यह भाव होता है कि मैं अच्छ भला स्वस्थ हूँ, कामचोर और एक साधारण धोखेबाज हूँ।

तात्पर्य यह है कि भीख माँगने वाला या तो वास्तव में अत्यंत लाचार होता है अथवा स्वस्थ होते हुए भी कामचोर या छोटा-मोटा धोखेबाज हो सकता है। पर वह अपना असली रूप बिना किसी धोखे के प्रकट कर देता है। कवि कहता है कि उस याचक के मन में यह स्वीकृति का भाव भी होता है कि मैं पूर्ण रूप से तुम्हारे संकोचपूर्वक या लज्जा के साथ अथवा परेशान होकर या क्रोधित होकर दिए गए दान के सहारे ही जीवित हूँ अथवा उसका जीवन दूसरों के दान पर ही निर्भर है, चाहे दान देते समय मनुष्य के मन में कैसी भी भावना रही हो।

इस तरह हाथ फैलाते हुए वह यह भाव प्रकट कर देता है कि मैंने तुम्हारे सामने, आत्मसम्मान को खो दिया है। मैने लज्जा का भी त्याग कर दिया है और मैने सारी आकांकाओं को भी छोड़ दिया है। इस प्रकार मैंने हर प्रतिस्पर्धा से स्वयं को हटा लिया है। मैं तुम्हारा विरोधी, प्रतिद्धंदी या हिस्सेदार नहीं हूँ अर्थात् धन कमाने की लालसा, उन्नति के रास्ते से स्वयं को हटा लिया है। मैं तुम्ठारी राह का बाधक नहीं हूँ। तुम चाहे कुछ दो या न दो परंतु कम से कम एक आदमी से तो चितामुक्त रह सकते हो अर्थात् तुम्हें मुझसे कोई खतरा नहीं है।

विशेष :

  • आजादी के बाद की स्थिति से मोहभंग हुआ है।
  • व्यंजना शक्ति का प्रयोग हुआ है।
  • पच्चीस पैसे, कंगाल या कोढ़ी, नंगा निर्लज्ज, हर होड़ में अनुप्रास अलंकार है।
  • शब्द-चयन अत्यंत सटीक है।
  • कविता मुक्त छंद में है।

सत्य –

1. जब हम सत्य को पुकारते हैं
तो वह छमसे परे हटता जाता है
जैसे गुहारते हुए युधिष्ठिर के सामने से
भागे थे विदुर और घने जंगलों में
सत्य शायद जानना चाहता है
कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं।

शब्दार्थ : गुहारते हुए = गुहार लगाते हुए।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से अवतरित है। इस कविता में कवि ने सत्य की महत्ता, उसकी पहचान तथा उसकी पकड़ को स्पष्ट किया है।

व्याख्या : कवि कहता है कि जब हम सत्य को पुकारते हैं तब वह हमसे और भी दूर चला जाता है। यह स्थिति कुछ इस प्रकार की होती है जैसे युधिष्ठिर के दीनतापूर्वक ऊँचे स्वर में पुकारने के बावजूद विदुर और भी दूर घने जंगलों की ओर भाग जाते हैं। वे युधिष्ठर के पुकारने पर भी नहीं रुकते। सत्य शायद यह जानना चाहता है कि हम उसके पीछे-पीछे कितनी दूर तक भटक सकते हैं। भाव यह है कि जिस प्रकार युधिष्ठिर के पुकारने पर भी सत्य का पालन करने वाले विदुर घने जंगलों में चले गए थे, उसी प्रकार जब हम सत्य को दीनतापूर्वक पुकारते हैं तब वह हमसें और अधिक दूरी बना लेता है। संभवतः सत्य हमारी निष्ठा की परीक्षा लेना चाहता है।

विशेष :

  • युधिष्ठिर और विदुर का प्रयोग प्रतीक रूप में किया गया है। विदुर ‘सत्य’ का तथा युधिष्ठिर ‘सत्य के अन्वेषक’ का प्रतीक है।
  • वृष्टांत अलंकार का प्रयोग है।
  • भाषा में सरलता एवं सजीवता है।
  • ‘सत्य’ का मानवीकरण किया गया है।

2. कभी दिखता है सत्य
और कभी ओझल हो जाता है
और हम कढते रह जाते हैं कि रुको यह हम हैं
जैसे धर्मराज के बार-बार दुहाई देने पर
कि ठहरिए स्वामी विदुर
यह मैं हूँ आपका सेवक कुंतीनंदन युधिष्ठिर
वे नहीं ठिठकते।

शब्दार्थ : ओझल = गायब हो जाना।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित कविता ‘सत्य’ से अवतरित हैं। इसके रचयिता विष्णु खरे हैं। इस कविता में कवि ने महाभारत के पौराणिक संदर्भों और पात्रों के द्वारा जीवन में सत्य की महत्ता को स्पष्ट करना चाहा है। युधिष्ठिर, विद्धर और खांडवप्रस्थ- इंद्रप्थस्थ के द्वारा सत्य को, सत्य की महत्ता को ऐंतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ प्रस्तुत करना ही यहाँ कवि का अभीष्ट है। जिस समय और समाज में कवि जी रहा है उसमें सत्य की पहचान और उसकी पकड़ कितनी मुश्शिल होती जा रही है, यह कविता उसका प्रमाण है।

व्याख्या : कवि कहता है कि सत्य का कोई स्थिर रूप नहीं है। वह कभी हमें दिखाई देता है और कभी आँखों के आगे से ओझल हो जाता है। हम उससे यह कहते ही रह जाते हैं कि रुको, यह हम हैं अर्थात् सत्य का कोई एक स्थिर रूप, आकार या पहचान नहीं है। जब तक हम उसे अनुभूत कर पाते हैं तब तक वह लुप्त हो चुका होता है और हम उसे रुकने के लिए पुकारते ही रह जाते हैं। कवि धर्भाज युधिष्ठिर और नीतिज्ञ विदुर के खांडवप्रस्थ के प्रसंग का उल्लेख करके बताता है कि धर्मराज युधिष्ठिर बार-बार दुहाई दे रहे थे कि स्वामी विदुर ठहर जाइए। मैं आपका सेवक कुतीपुत्र युधिष्ठिर हूँ परंतु वे उसकी पुकार को अनसुना कर देते हैं और वहाँ नहीं रुकते। इसी प्रकार हमारे रोकने पर भी सत्य रुकता नहीं। वह हमारी आँखों के सामने से ही ओझल हो जाता है। इस प्रकार सत्य हमारे हाथ से, हमारी पकड़ से बाहर हो जाता है।

विशेष :

  • पौराणिक प्रसंग को मिथकीय रूप में प्रकट किया गया है।
  • यह बताया गया है कि परिस्थितियों के अनुसार सत्य का स्वरूप बदलता रहता है।
  • ‘बार-बार’ में पुनुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • दृष्टांत अलंकार का सुंदर प्रयोग किया गया है।
  • ‘सत्य’ का मानवीकरण किया गया है।
  • कविता मुक्त छंद में है।
  • भाषा सरल एवं सुवोध है।

3. यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते हैं
तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य
लेकिन पलटकर सिर्फ खड़ा ही रहता है वह दृक्निश्चयी
अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ
अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें
और उसमें से उसी का हल्का सा प्रकाश जैसा आकार
समा जाता है हममें

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से अवतरित हैं। इस कविता में कवि बताता है कि दृढ़निश्चयी व्यक्ति का सत्य से साक्षात्कार हो पाता है।

व्याख्या : कवि बताता है कि सत्य की प्राप्ति दृढ़ संकल्प के बिना संभव नहीं है। जब हम युधिष्ठिर के समान दृढ़ संकल्प के साथ सत्य की खोज में उसके पीछे लग जाते हैं तब एक न एक दिन वह कुछ सोचकर रुक जाता है। अंततः लगता है कि सत्य हमें देख रहा है। हम भी उसे केवल देख पाते हैं, उससे कोई संवाद नहीं कर पाते। उस समय वह कहीं और देखती हुई नजर से हमारी आँखों में देखते हुए ऐसा लगता है कि जैसे अंतिम बार देख रहा हो। इस प्रकार सत्य से हमारा वह अंतिम साक्षात्कार होता है। उस समय उसमें से एक हल्का सा प्रकाश जैसा आकार निकलकर हममें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् हम सत्य को अंनुभूत कर लेते हैं, तब सत्य हमें अपने प्रकाश से भर देता है। फिर हमें उसको दूँढने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह हमारे अंदर समा जाता है।

विशेष :

  • सत्य की अनुभूति के लिए दृढ़ संकल्प की आवश्यकता बताई गई है।
  • सत्य की अनुभूति होने पर आत्मा प्रकाशित हो उठती है।
  • भाषा अत्यंत सरल एवं सहज है।
  • ‘यदि हम ….. पा जाते हैं’ में उपमा अलंकार है।

4. जैसी शमी वृक्ष के तने से टिककर
न पहचानने में पहचानते हुए विदुर ने धर्मराज को
निर्निमेष देखा था अंतिम बार
और उनमें से उनका आलोक धीरे-धीरे आगे बढ़कर
मिल गया था युधिष्ठिर में
सिर झुकाए निराश लौटते हैं हम
कि सत्य अंत तक हमसे कुछ नहीं बोला
हाँ हमने उसके आकार से निकलता वह प्रकाश-पुंज देखा था
हम तक आता हुआ
वह हममें विलीन ढुआ या हमसे होता हुआ आगे बढ़ गया।

शब्दार्थ : निर्मिमेष = बिना पलक झपके, लगातार, आलोक = प्रकाश, प्रकाशपुंज = रोशनी का समूह। विलीन = मिलकर गायब हो जाना।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से अवतरित हैं। कवि बताता है कि सत्य हमारे अंदर अपना प्रकाश तो भर देता है, पर उससे हमारा कोई संवाद नहीं होता। तब हमें उसकी उपस्थिति के प्रति संशय उत्पन्न हो जाता है।

व्याख्या : कवि कहता है कि सत्य का प्रकाश हमारे अंदर वैसे ही समा जाता है जैसे विदुर ने शमी वृक्ष के तने के सहारे खड़े होकर धर्मराज युधिष्ठिर को अनजान जैसे देखते हुए भी पहचानकर अंतिम बार बिना पलक झपकाए देखा था। तब उनका प्रकाश उनमें से निकलकर धीरे-धीरे आगे बढ़कर युधिष्ठिर में मिल गया था। दृढ़ संकल्प से तलाशने पर सत्य हमारे अंदर अपना प्रकाश भर देता है।

कवि कहता है कि सत्य का साक्षात्कार होने के बाद भी हम सिर झुकाकर निराश अवस्था में लौटते हैं। हम यह सोचते हैं कि सत्य हमसे बोला नहीं। हमने उसे अपने आकार से निकलते और हममें विलीन होते देखा अवश्य था फिर वह आगे बढ़ गया। इस प्रकार सत्य की उपस्थिति के बारे में हमारे मन में संशय बना रहता है।

कवि के कहने का भाव यह है कि दृढ़ संकल्प से हमें सत्य से साक्षात्कार तो होता है, पर यह सुनिश्चित नहीं होता कि हमने सत्य को धारण भी कर लिया है या नहीं। इस प्रकार हमारे मन में संशय बना रहता है कि सत्य हमारे भीतर मौजूद है भी या नहीं।

विशेष :

  • सत्य के प्रति संशय को युधिष्ठिर-विदुर के दृष्टांत के माध्यम से व्यक्त किया गया है।
  • ‘धीरे-धीरे’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • काव्यांश में दृष्टांत अलंकार है।
  • अंतिम पंक्तियों में विरोधाभास अलंकार है।
  • ‘सत्य’ का मानवीकरण किया गया है।

5. हम कह नहीं सकते
न तो हममें कोई स्कुरण हुआ और न ही कोई ज्वर
किंतु शेष सारे जीवन हम सोचते रह जाते हैं
कैसे जानें कि सत्य का वह प्रतिबिंब हममें समाया या नहीं
हमारी आत्मा में जो कभी-कभी दमक उठता है
क्या वह उसी की छुअन है
जैसे
विदुर कहना चाहते तो वही बता सकते थे
सोचा होगा माथे के साथ अपना मुकुट नीचा किए
युधिष्ठिर ने
खांडवप्रस्थ से इंद्रप्रस्थ लौटते हुए।

शब्दार्थ : ज्वर = बुखार। प्रतिबिंब = परछाई। स्फुरण = कँपकँपी।

प्रसंग : उस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से अवतरित हैं। कवि का कहना है कि सत्य के आकार से प्रकाशपुंज हमारे पास आता तो है पर मन के अंदर संदेह बना रहता है कि वह हमारे अंदर विलीन हुआ या बाहर चला गया।

व्याख्या : कवि कहता है कि सत्य का प्रकाश हमारे पास आया तो हमारे अंदर कोई कपकँपीं नहीं हुई, न कोई ज्वर हुआ, न कोई कंपन हुआ, न किसी विशेष उष्मा की अनुभूति हुई। अर्थात् हमने अपने अंदर किसी परिवर्तन का अनुभव नहीं किया। अत: हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि सत्य हमारे अंदर समाया अथवा नहीं।

हमारी आत्मा में कभी-कभी जो विशेष दीप्ति आ जाती है क्या वह आत्मा की आंतरिक शक्ति सत्य से प्रकाशित हो जाने के कारण है। जैसे खांडवप्रस्थ से इंद्रस्थ लौटते हुए युधिष्ठिर ने मुकुट पहने सिर को नीचा किए हुए सोचा होगा कि यदि विदुर कहना चाहते तो वहीं बता देते। कवि का भाव यह है कि युधिष्ठिर ने अपने अहं का त्याग करते हुए यह सोचा होगा कि उनकी अंतर आत्मा में जो सत्य और न्याय का प्रकाश है, वही उस अनकहे सत्य के प्रकाश का प्रतिबिंब है। सत्य के प्रकाश ने ही उसकी आत्मा को कांतिमान बना दिया है।

विशेष :

  • सत्य की उपस्थिति चाहे कितनी भी संशयग्रस्त रहे, पर सत्य का प्रकाश हमारी अंतरात्मा को प्रतिभासित अवश्य करता है।
  • काव्यांश में दृष्टांत अलंकार है।
  • ‘कभी-कभी’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है।
  • भाषा में गंभीरता एवं सजीवता है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 6 Summary – Vasant Aaya, Todo Summary Vyakhya

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वसंत आया, तोड़ो Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 6 Summary

वसंत आया, तोड़ो – रघुवीर सहाय – कवि परिचय

प्रश्न :
रघुवीर सहाय के जीवन परिचय एवं साहित्यिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : रघुवीर सहाय का जन्म 1929 ई॰ में लखनऊ (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उनकी संपूर्ण शिक्षा लखनऊ में ही हुई। वहीं से उन्होंने 1951 में अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया। रघुवीर सहाय पेशे से पत्रकार थे। आरंभ में उन्होंने ‘प्रतीक’ पत्रिका में सहायक संपादक के रूप में काम किया। फिर वे आकाशवाणी के समाचार विभाग में रहे। कुछ समय तक वे हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘कल्पना’ के संपादन से भी जुड़े रहे। कई वर्षों तक ‘दिनमान’ का भी संपादन किया। 1990 ई० में इनका देहांत हो गया।

काव्यगत विशेषताएँ : रघुवीर सहाय ‘नयी कविता’ के कवि हैं। उनकी कुछ कविताएँ अजेय द्वारा संपादित ‘दूसरा सप्तक’ में संकलित हैं। उनके काव्य-संसार में आत्मपरक अनुभवों की जगह जनजीवन के अनुभवों की रचनात्मक अभिव्यक्ति अधिक है। वे व्यापक सामाजिक संदर्भों के निरीक्षण, अनुभव और बोध को कविता में व्यक्त करते हैं। उन्होंने अपनी काव्य-रचना में अपनी पत्रकार-दृष्टि का सर्जनात्मक उपयोग किया है। मानवीय पीड़ा को अभिव्यक्त करना उनकी कविता की विशेषता है।

रचना-परिचय : रघुवीर सहाय की प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं- सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरूद्ध, हँसो-हँसो जल्दी हँसो, लोग भूल गए हैं।
उनकी रचनाएँ – ‘रछुवीर सहाय रचनावली’ छः खंडों में प्रकाशित हुई है।
उन्हें ‘लोग भूल गए हैं’ काव्य-संग्रह पर ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ मिला था।

भाषा-शिल्प :

  • रघुवीर सहाय की काव्य-भाषा सटीक, दो टूक और विवरण प्रधान है।
  • वे अनावश्यक शब्दों के प्रयोग से प्रयासपूर्वक बचते हैं।
  • भयाक्रांत अनुभव की आवेगरहित अभिव्यक्ति उनकी कविता की प्रमुख विशेषता है।
  • रघुबीर सहाय ने मुक्त छंद के साथ-साथ छंद में भी काव्य-रचना की है।
  • वे जीवन के अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए कथा या वृत्तांत का उपयोग भी करते हैं।
  • रघुवीर सहाय ने अलंकारों का पर्याप्त प्रयोग किया है।

Vasant Aaya, Todo Class 12 Hindi Summary

1. वसंत आया कविता में कवि ने प्रकट किया है कि आज मनुष्य का प्रकृति से रिश्ता टूट गया है। वसंत ऋतु का आना अब अनुभव करने के बजाए कैलेंडर से जाना जाता है। ऋतुओं में परिवर्तन पहले की तरह ही स्वभावत: घटित होते रहते हैं। पत्ते झड़ते हैं, कोपलें फूटती हैं, हवा बहती है, ढाक के जंगल दहकते हैं-कोयल-भ्रमर अपनी मस्ती में झूमते हैं, पर हमारी निगाह उन पर नहीं जाती। हम निरपेक्ष बने रहते हैं। वास्तव में कवि ने आज के मनुष्य की आधुनिक जीवन शैली पर व्यंग्य किया है।

इस कविता की भाषा में जीवन की विडंबना छिपी हुई है। प्रकृति से अंतरगता को व्यक्त करने के लिए कवि ने देशज (तद्भव) शब्दों और क्रियाओं का भरपूर प्रयोग किया है। अशोक, मदन महीना, पंचमी, नंदन-वन, जैसे परंपरा में रचे-बसे जीवनानुभवों की भाषा ने इस कविता को आधुनिकता के सामने एक चुनौती की तरह खड़ा कर दिया है। कविता में बिंबों और प्रतीकों का भी सुंदर प्रयोग हुआ है।

2. तोड़ो : यह कविता उद्बोधन शैली में रची गई है। इसमें कवि नव-निर्माण से पूर्व उसके लिए उपयुक्त भूमि को तैयार करने हेतु लोगों को आद्नान करता है। इसके लिए चट्टानें तोड़नी होंगी, ऊसर और बंजर को भी तोड़ना होगा। परती भूमि को उपजाऊ खेत में बदलना सृजन की आरंभिक परंतु अत्यंत महत्व्वपूर्ण प्रक्रिया है। इस कविता का कवि विध्वंस के लिए नहीं उकसाता वरन् सुजन के लिए प्रेरित करता है। कवि ने प्रकृति से मन की तुलना करके इसको नया आयाम दे दिया है। बंजर प्रकृति के साथ-साथ मन में भी होता है। कवि मन में समाई ऊब और खाझ को तोड़ने की बात करता है। मन के भीतर की ऊब सुजन में बाधक है। कवि सृजन का आकांक्षी है। कवि मन के बारे में प्रश्न उठाकर आगे बढ़ जाता है।

वसंत आया, तोड़ो सप्रसंग व्याख्या

वसंत आया –

1. जैसे बहन ‘दा’ कहती है
ऐसे किसी बँगले के किसी तरु (अशोक?) पर कोई चिड़िया कुऊकी
चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरुरुए पाँव तले
ऊँचे तुरवर से गिरे
बड़े-बड़े पियराए पत्ते
कोई छ: बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो
खिली हुई हवा आई, फिरकी सी आई, चली गई।
ऐसे, फुटपाथ पर चलते चलते चलते।
कल मैंने जाना कि वसंत आया।

शब्बार्थ : तर = पेड़। कुऊकी = चिड़िया की स्वाभाविक आवाज। चुरुराए = चरमराने की आवाज। तरुवर = वृक्ष। पियराए = पीले हुए। फिरकी = फिरहरी, लकड़ी का खिलौना जो जमीन पर गोल-गोल घूमता है।

प्रसंगः प्रसुत पंक्सियाँ नई कविता के प्रतिनिधि कवि रुुवीर सहाय द्वारा रचित कविता ‘बसंत आया’ से अवत्तरित हैं। इस कविता में कवि ने यह प्रकट किया है कि आज मुुष्य का प्रकृति से रिश्ता दूट गया है। अब वसंत छतु का आना अनुभव करने के बजाय कैलैंडर से जाना जाता है। इसमें कवि ने आज के मनुष्य की आधुनिक जीवन-शैली पर व्यंग किया है।

व्याख्या : कवि कहता है कि जिस प्रकार बहन अपने भाई को सेहपूर्ण स्वर में ‘दा’ कहती है, वैसी ही मिठास भरी आवाज में किसी बंगले के अशोक के वृक्ष पर बैठी चिड़िया कुक्तती है। चहल-पहल भरी सड़क के किनारे बिडी लाल बजरी पर ऊँचे घने पेड़ां से गिरे बड़े-बड़े पीले पत्ते चरमराने की आवाज करते हुए पाँवों के नीचे आ जाते हैं। सुबह के लगभग छह बजे गरम पानी से नहाकर आई हुई सी खिली-खिली हवा गोल-गोल घूमती हुई फिरकी जैसी आई और चली गई। इस प्रकार फुटपाथ पर चलते हुए कल मैंने जाना कि वसंत आ गया है। भाव यह है कि प्रकुति में परिवर्तन स्वाभाविक रूप से ही हो रहा है। वसंत ऋतु के आने पर चिड़ियों का चहचहाना, पेड़ों से सूखे पत्तों का गिरना, नई कोंपलों का उगना, सुबह-सुबह की हवा का मस्ती में बहना, सब कुछ पहले जैसा हो रहा है, परंतु शहरी संस्कृति में प्रकृति से रिश्ता दूट सा गया है। हम अपने भीतर वसंत का उल्लास अनुभव नहीं कर पाते। बस राह चलते उसका आना जान भर लेते हैं।

विशेष :

  • आधुनिक जीवन-शैली पर व्यंग्य किया गया है।
  • ‘पियराए पते’ तथा ‘हुई हवा में’ अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘बड़े-बड़े’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘जैसे गरम पानी से नहाई हो’ में उत्त्रेक्षा अलंकार है।
  • ‘फिरकी सी आई’ में उपमा अलंकार है।
  • चित्रात्पकता का गुण विद्यमान है।
  • आकर्षक बिंब का सुजन किया गया है।
  • भाषा में सरलता एवं सहजता है।

2. और यह कैलेंडर से मालूम था
अमुक दिन अमुक बार मदनमहीने की होवेगी पंचमी
दफ्तर में छुद्डी थी-यह था प्रमाण
और कविताएँ पत़ते रहने से यह पता था
कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं बाक के जंगल
आम बौर आवेंगे
रंग-रस-गंध से लदे-फँचे दुर के विदेश के
वे नंदन-वन होवेंगे यशस्वी
मधुमस्त पिक भौर आदि अपना-अपना कृतित्व
अभ्यास करके दिखावेंगे
यही नहीं जाना था कि आज के नगण्य दिन जानूँगा
जैसे मैंने जाना, कि वसंत आया।

शब्दार्थ : मदनमहीना = कामदेव का महीना (वसंत)। दहर-दहर = धधक-धधक कर। दहकना = लपट के साथ जलना। नगण्य = न गिनने योग्य। मधुमस्त = फूलों का रस पीकर मस्त। पिक = कोयल। ढाक = पलाश। कृतित्व = कार्य।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश रघुवीर सहाय द्वारा रचित कविता ‘वसंत आया’ से अवतरित है। कवि का व्यंग्य है कि आधुनिक जीवन-शैली में वसंत का आगमन अनुभव से नहीं बल्कि कैलेंडर से जाना जाता है। आज का मनुष्य प्रकृति से दूर होता चला जा रहा है।

व्याख्या : कवि कहता है कि मुझे कैलेंडर से इस बात का पता चला कि अमुक दिन, अमुक वार को कामदेव के महीने अर्थांत् वसंत पंचमी होगी। इस बात का प्रमाण यह भी था कि उस दिन दप्तर में छुट्टी थी। तात्पर्य यह है कि आधुनिक जीवन शैली में वसंत की केवल सूचना मिल पाती है, उसका वास्तविक अनुभव नहीं हो पाता। कवि आगे बताता है कि कविताएँ पढ़ते रहने से मुझे यह पता चला कि वसंत के आने पर कहीं पलाश के जंगल धधक-धधक कर जल उठेंगे अर्थात् वसंत में वन प्रदेश पलाश के लाल-लाल फूलों के सौंदर्य से दमकने लगेगा। आम के पेड़ मंजरियों से लद जाएँगे। दूर देश के आनंदमयी वन आकर्षक रंगों, फूलों-फलों के रस और गंध के भार से लदे अत्यंत शोभा पाते हुए यश को प्राप्त करेंगे अर्थात् दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो जाएँगे। फूलों का रस पीकर मस्त हुई कोयल और भँरि आदि अपने-अपने कार्यों का अभ्यास करके दिखाएँगे।कवि कहता है कि वसंत आने के बारे में सारी बातें मैं कैलेंडर और किताबों से जानता था। बस यही बात मैं न जानता था कि आज के तुच्छ दिन वसंत के आगमन के बारे में इस प्रकार जानूँगा। आज मैंने पहली बार वसंत के आगमन को हृदय से अनुभव किया। प्रकृति के साहचर्य की अनुभूति ही हमें जीवन का वास्तविक आनंद दे सकती है।

विशेष :

  • इन पंक्तियों में आधुनिक जीवन-शैली पर करारा व्यंग्य किया गया है।
  • ‘दहर-दहर दहकेंगे’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘अपना-अपना’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • वर्णन में चित्रात्मकता है।
  • होवेगी, आवेंगी, लदे-फँदे जैसे देशज शब्दों का प्रयोग हुआ है।

तोड़ो – 

1. तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये पत्थर ये चट्टानें
ये झूठे बंधन दूटें
तो धरती को हम जानें
सुनते हैं मिंद्टी में रस है जिससे उगती दूब है
अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है
आधे आधे गाने

शब्दार्थ : दूष = घास। व्यापी = फैली हुई, व्याप्त।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित कविता ‘तोड़ो’ से अवतरित हैं। इसके रचयिता रघुवीर सहाय हैं। यह एक उद्देश्यपरक कविता है। इसमें कवि सृजन हेतु भूमि तैयार करने के लिए चट्टानें, ऊसर और बंजर को तोड़ने का आद्कान करता है।

व्याख्या : कवि कहता है कि इन पत्थरों को इन चट्टानों को तोड़ डालो। ये झूठे बंधन टूट जाएँ ताकि हम धरती को जान सकेे। हम सुनते हैं कि मिट्टी में रस है, जिसमें दूब उगती है। हमारे मन रूपी मैदानों पर कैसी ऊब व्याप्त है अर्थात् अरुचि समा गई है। इस पर आधे-अधूरे गानों का ही सृजन हो सका है। भाव यह है कि जिस तरह उपजाऊ धरती पर पत्थर की चट्टानें आ जाने से उसके अंदर रस भरा होने पर भी वह सृजन करने अर्थात् पेड़-पौधों को उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाती है। इसी प्रकार मन के भीतर की ऊब भी सृजन में बाधक बन जाती है। यदि हम उस दशा में सृजन का प्रयास भी करें तो वह आधा-अधूरा ही हो पाता है। व्यक्ति के मन की उर्वर भावनाओं का रस प्राप्त होने पर ही एक संपूर्ण एवं प्रभावशाली रचना का सृजन किया जा सकता है।

विशेष :

  • इन पंक्तियों में ‘धरती’ और चट्टानों के प्रतीक के माध्यम से मनुष्य की सृजनात्मकता की बाधाओं को दूर करने की प्रेरणा दी गई है।
  • ‘तोड़ो तोड़ो तोड़ो’ तथा ‘आधे-आधे’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘मन के मैदानों’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • पत्थर, चट्टानों, धरती का प्रतीकात्मक प्रयोग है।
  • भाषा सरल एवं सुबोध है।

2. तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये ऊसर बंजर तोड़ो
ये चरती परती तोड़ो
सब खेत बनाकर छोड़ो
मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को
हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को ?
गोड़ो गोड़ो गोड़ो

शब्दार्थ : ऊसर-बंजर = अनुपजाऊ जमीन। चरती परती = पशुओं के चरागाह के लिए छोड़ी गई जमीन।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश रघुवीर सहाय की कविता ‘तोड़ो’ से अवतरित है। इसमें कवि ने बंजर जमीन को तोड़ने और सृजन कार्य करने का आह्लान किया है।

व्याख्या : कवि कहता है कि इस बंजर ऊसर भूमि को तोड़ डालो अर्थात् अनुपजाऊ जमीन की ऊपरी सतह को तोड़ दो। इस चारागाह और खाली छोड़ी गई भूमि को तोड़ दो। इन सबको खेत बनाकर ही छोड़ो। तात्पर्य यह है कि अनुपजांक और खाली पड़ी सारी भूमि को खोदकर खेत बनाकर ही दम लो। मिट्टी के अंदर रस होता ही है। धरती उस रस से बीज का पोषण करेगी। कवि कहता है कि मैं अपने मन की खीज का क्या करूँ। धरती को तो खोदकर उपजाऊ बनाया जा सकता है, पर मन की खीज या झुंझलाहट को हटाए बिना सृजन कार्य कैसे संभव है ? कवि मन में व्याप्त ऊब और खीज को तोड़ने की बात कहता है। मन के भीतर की ऊब सृजन में बाधक है और कवि सृजन का आकांक्षी है। अतः इसे दूर करने की बात कहता है।

विशेष :

  • कवि ने मन की खीज को निकालकर सृजनशीलता बनाने की प्रेरणा दी है।
  • ‘तोड़ो तोड़ो तोड़ो’ तथा ‘गोड़ो गोड़ो गोड़ो’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘क्या कर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ध्वन्यात्मकता का समावेश है।
  • भाषा सरस एवं प्रवाहमयी है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 7 Summary – Bharat Ram Ka Prem, Tulsidas Ke Pad Summary Vyakhya

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भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पदSummary – Class 12 Hindi Antra Chapter 7 Summary

भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद – तुलसीदास – कवि परिचय

प्रश्न :
तुलसीवास के जीवन का संक्षिप्त परिचय वेते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : तुलसीदास सचमुच हिंदी साहित्य के जाज्वल्यमान सूर्य हैं; इनका काव्य-हिंदी साहित्य का गौरव है। गोस्वामी तुलसीदास रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। वैसे वे समूचे भक्ति काव्य के प्रमुख आधार-स्तंभ हैं। उन्होंने समस्त वेदों, शास्त्रों, साधनात्मक मत-वादों और देवी-देवताओं का समन्वय कर जो महान् कार्य किया, वह बेजोड़ है।

कहा जाता है कि तुलसीदास का जन्म सन् 1532 ई. में बाँदा जिले (उ. प्र.) के राजापुर नामक गाँव में हुआ धा। उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। ये मूल नक्षत्र में पैदा हुए थे। इस नक्षत्र में बालक का जन्म अशुभ माना जाता है। इसलिए उनके माता-पिता ने उन्हें जन्म से ही त्याग दिया था। इसी के कारण बालक तुलसीदास को भिक्षाटन का कष्ट उठाना पड़ा और मुसीबत भरा बचपन बिताना पड़ा।

कुछ समय उपरांत बाबा नरहरिदास ने बालक तुलसीदास का पालन-पोषण किया और उन्हें शिक्षा-दीक्षा प्रदान की। तुलसीदास का विवाह दीनबंधु पाठक की सुपुत्री रत्नावली से हुआ। पत्नी के प्रति अत्यधिक आसक्ति होने के कारण एक बार वे पत्नी के मायके जाने पर उसके पीछे-पीछे ससुराल जा पहुँचे थे। तब पत्नी ने उन्हें फटकारते हुए कहा थालाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ। घिक-धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथा। अस्थि चर्ममय देह मम, तामैं ऐसी प्रीति। ऐसी जो श्रीराम में, होति न भवभीति॥

पत्नी की इस फटकार ने पत्नी-आसक्त विषयी तुलसी को महान् रामभक्त एवं महाकवि बना दिया। उनका समस्त जीवन प्रवाह ही बदल गया। इसे सुनने के पश्चात् सरस्वती के वरद् पुत्र की साधना प्रारंभ हो गई। वे कभी चित्रकूट, कभी अयोध्या तो कभी काशी में रहने लगे। उनका अधिकांश समय काशी में ही बीता। रामभक्ति की दीक्षा उन्होंने स्वामी रामानंद से प्राप्त की और उन्हें अपना गुरु माना। उन्होंने काशी और चित्रकूट में रहकर अनेक काव्यों की रचना की। उन्होंने श्रमण भी खूब किया। सन् 1623 ई. (सम्वत् 1680 वि.) को श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन तुलसीदास ने काशी के असीघाट (गंगा तट) पर प्राण त्यागे थे। उनकी मृत्यु के बारे में कहा जाता है-

संवत् सोलह सौ असी, असि गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तजौ शरीर।

रचनाएँ : ‘रामचरितमानस’ तुलसीदास द्वारा रचित विश्व-प्रसिद्ध रचना है। उनके द्वारा रचित ग्रंधों की संख्या 40 तक बताई जाती है. पर अब तक केवल 12 रचनाएँ प्रामाणिक सिद्ध हो सकी हैं; इनके नाम हैं-
(1) रामलला नहछ्छू, (2) वैराग्य संदीपनी, (3) बरवै रामायण, (4) रामचरितमानस, (5) पार्वती मंगल, (6) जानकी मंगल, (7) रामाज्ञा प्रश्नावली, (8) दोहावली, (9) कवितावली, (10) गीतावली, (11) श्रीकृष्ण गीतावली (12) विनय-पत्रिका। ‘रामचरितमानस’ तुलसीदास का सबसे वृछद् और सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। विश्व साहित्य में इसका उच्च स्थान है। ‘कवितावली’, ‘गीतावली’ और ‘श्रीकृष्ण गीतावली’ तुलसीदास की सुंद्र और सरस रचनाएँ हैं। ‘विनय-पत्रिका’ में भक्त तुलसीदास का दार्शनिक रूप उच्च कोटि के कवित्व के रूप में सामने आया है। ‘दोहावली’ में तुलसीदास की सूक्ति शैली है। ‘बरवै रामायण’ और ‘रामलला नहछू’ ग्रामीण अवधी की मिठास लिए तुलसी की प्रतिभा के सुंदर उदाहरण हैं।

साहित्यिक विशेषताएँ : तुलसीदास का साहित्य भारतीय साहित्य का ही नहीं, विश्व साहित्य का गौरव है। अपने साहित्य में तुलसीदास ने दार्शनिक, सामाजिक, पारिवारिक तथा वैयक्तिक आदर्शों को इतनी व्यापकता से प्रतिपादित किया है कि विदेशी विचारक भी उन्हें ‘सबसे बड़ा लोकनायक’ मानने को विवश हो गए हैं।

तुलसीदास की भक्ति-भावना लोक मंगलमयी और लोक संग्रहकारी है। तुलसीदास जन-जन के ऐसे कवि हैं जो लोकनायक और राष्ट्रकवि का दर्जा पाते हैं। तुलसीदास की रचनाओं, विशेषत: ‘रामचरितमानस’ ने समग्र हिंदू जाति और भारतीय समाज को राममय बना दिया। तुलसीदास ने राम में सगुण तथा निर्रुण का समन्वय करते हुए उनके शील, शक्ति और सौंदर्य के समन्वित स्वरूप की प्रतिष्ठा करके भारतीय जीवन और साहित्य को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। भक्ति भावना की दृष्टि से भी तुलसीदास जी ने समन्वयवादी दृष्टि का परिचय दिया है। राम को ही एकमात्र आराध्य मानकर तुलसी ने चातक को आदर्श बनाया-

एक भरोसो एक बल, एक आस, बिस्वास।
एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास।

कला पक्ष : तुलसीदास के काव्य का कलापक्ष अत्यंत सुदृढ़ है। तुलसीदास बहुमुखी प्रतिभा के कवि हैं। हिंदी में प्रचलित सभी काव्य-शैलियों का उन्होंने अत्यंत सफल प्रयोग किया है। क्या प्रबंध काव्य-शैली, क्या मुक्तक काव्य-सबके सृजन में उन्होंने महारत हासिल की। उनका ‘रामचरितमानस’ तो प्रबंध पद्धति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करता ही है, वह उच्च कोटि का महाकाव्य भी है। उनकी कवितावली, जानकी मंगल, पार्वती मंगल आदि और भी कई रचनाओं में उनकी प्रबंध शैली का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है। विनयपत्रिका, दोहावली आदि में तुलसी की मुक्तक काव्य-शैली का उत्कर्ष दिखाई देता है। ‘विनय-पत्रिका’ जैसी मुक्तक पद-शैली का चरमोत्कर्ष अन्यत्र कहाँ है ?

तुलसीदास ने सभी प्रचलित छंद-शैलियों का प्रयोग किया है-दोहा-चौपाई शैली, सोरठा, बरवै, कवित्त, सवैया शैली, छप्पय शैली आदि सभी का सफल प्रयोग उनके साहित्य में मिलता है। रामचरितमानस की रचना दोहा-चौपाई छंद-शैली में है। ‘गीतावली’, ‘कृष्ण गीतावली’ तथा ‘विनय-पत्रिका’ गेयपद शैली की रचनाएँ हैं। ‘कवितावली’ कवित्त-सवैया छंद में रचित उत्कृष्ट रचना है।

अलंकारों की दृष्टि से तुलसी का काव्य अत्यंत समृद्ध है। उन्होंने सांगरूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक आदि अलंकारों का सुष्ठ प्रयोग किया है। सांगरूपक का एक उदाहरण प्रस्तुत है-

उदित उदय गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृंग।

अनुप्रास की छटा देखिए-

तुलसी असमय के सखा, धीरज धरम बिबेक।
साहित साहस सत्यब्रत, राम भरोसो एक ॥

तुलसीदास का काव्य रसों की दृष्टि से तो गहन-गंभीर सागर है। ‘रामचरितमानस’ में भक्ति, वीर, शृंगार, करुण, वात्सल्य, वीभत्स, शांत, अद्भुत, भयानक, रौद्र, हास्य आदि सभी रसों का उदात्त, व्यापक एवं गह़न चित्रण हुआ है। कुछ अन्य उदाहरण द्रष्टव्य हैं

शृंगार रस –

देखि-देखि रघुवीर तन उर मनाव धरि धीर।
भरे विलोचन प्रेमजल पुलकावलि शरीर।

वीर रस –

जौ हैं अब अनुसासन पावौं
तो चंद्रमहि निचोरि घैल ज्यौं, आनि सुधा सिर नावौं।

शांत रस –

अब लौ नसानी, अब न नसैहोें।

इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि तुलसीदास हिंदी साहित्य के अप्रतिम कवि हैं। रामभक्ति की जो अजस्र धारा उन्होंने प्रवाहित की वह आज तक सहदयजनों एवं भक्तों को रस-प्लावित करती आ रही है। तुलसी के बिना हिंदी साहित्य अधूरा है।

भाषा : तुलसी का अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। उनकी रचना ‘रामचरितमानस’ (महाकाष्य) अवधी भाषा में है तो ‘गीतावली’, ‘कवितावली’, ‘ विनयपत्रिका’ आदि रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं।

Bharat Ram Ka Prem, Tulsidas Ke Pad Class 12 Hindi Summary

1. भरत-राम का प्रेम : पाठ्यपुस्तक में प्रस्तुत चौपाई और दोहों को ‘रामचरित मानस’ से लिया गया है। इन छंदों में राम वन गमन के पश्चात् भरत की मनोदशा का वर्णन किया गया है। भरत भावुक हदय से बताते हैं कि राम का उनके प्रति अत्यधिक प्रेमभाव है। वे बचपन से ही भरत को खेल में भी सहयोग देते रहते थे और उनका मन कभी नहीं तोड़ते थे। वे कहते हैं कि इस प्रेमभाव को भाग्य सहन नहीं कर सका और माता के रूप में उसने व्यवधान उपस्थित कर दिया। राम के वन गमन से अन्य माताएँ और अयोध्या के सभी नगरवासी अत्यंत दु:खी हैं। इस प्रसंग में भरत का राम के प्रति श्रद्धाभाव और अपने प्रति परिताप का भाव प्रकट होता है। इस प्रसंग से श्रीराम एवं भरत दोनों के चरित्र स्पष हो जाते हैं। इसमें भरत में अहंकार न होने का भाव प्रकट होता है।

2. पद : इस अंश में ‘गीतावली’ के दो पद दिए गए हैं जिनमें से प्रथम पद में राम के वन गमन के बाद माता कौशल्या के ढदय की विरह-वेदना का वर्णन किया गया है। वे राम की वस्तुओं को देखकर उनका स्मरण करती हैं और बहुत दुःखी हो जाती हैं। वे राम के बच्चपन का भी स्मरण करती हैं। राम के धनुष-बाण तथा जूतियों को देखकर भी भाव-विहलल हो उठती हैं। ।ूसरे पद में माँ कौशल्या राम के वियोग में दुखी अश्वों को देखकर राम से एक बार पुनः अयोध्यापुरी आने का निवेदन करती हैं। वे अश्वों की गिरती दशा का वर्णन करके राम को अयोध्या बुलाती हैं। उनको अंदेशा है कि कहीं अपने स्वामी के स्नेह स्पर्श के अभाव में ये अश्व दम न तोड़ दें।

भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद सप्रसंग व्याख्या

भरत-राम का प्रेम – 

1. पुलकि समीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।
मैं जानऊँ निज नाथ सुभाऊा अपराधिढ़ पर कोह न काऊ।
मो पर कृपा सनेह बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।
सिसुपन तें परिहरेजँ न संगू। कबहुँ न कीन मोर मन भंगू।
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेंहु खेल जितावहिं मोही।
महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तुपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।

शब्बार्थ : पुलकि = पुलकित होकर। समीर = हवा। ठाढ़े – खड़े हो गए। नीरज = कमल। नयन = नेत्र। मोर = मेरे। निज = अपना। सुभाऊ = स्वभाव। सनेह – स्नेह। बिसेखी = विशेष। खुनिस = क्रोध, अप्रसनता। सिसुपन = बालपन। बैन = वचन। तृषित = प्यासा। पेम पिआसे – प्रेम प्यासे।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामभक्ति शाखा के प्रवर्तक कवि गोस्वामी वुलसीदास द्वारा रचित महाकाष्य ‘रामचरित मानस’ के ‘अयोध्याकांड’ से अवतरित हैं। इनमें राम के बन-गमन के पश्चात् भरत की मनोदशा का वर्णन किया गया है। भरत राम के बन चले जाने के उपरांत उनसे भेंट करने वन में जाते हैं। श्रीराम भरत की बड़ी प्रशंसा करते हैं। तब मुनि वशिष्ठ ने भरत से कहा कि तुम अपना संकोच छोड़कर अपने हददय की बात दया के सागर श्रीरम से स्वयं कहो। मुनि की आज्ञा सुनकर और श्रीराम का अनुकूल रुख पाकर भरतजी विचार करने लगे।

व्याख्या : भरतजी शरीर से पुलकित होकर सभा में खड़े हो गए। उनके कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई। वे बोले-मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया अर्थात् जो कुछ मैं कहना चहता था वह उन्होंने ही कह दिया। इससे अधिक मैं क्या कहूँ ? मैं अपने स्वामी का स्वभाव भली प्रकार जानता हूँ। वे तो अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी अप्रसन्नता नहीं देखी। मैंने बचपन से उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी कभी मेरे मन को नहीं तोड़ा। मैंने प्रभु की कृपा की रीति को भलीभाँति देखा है। वे खेलने में मेरे हारने पर भी मुझे जिता देते थे।

मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी अपना मुँह नहीं खोला अर्थात् कुछ नहीं कहा। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु के दर्शनों से तृप्त नहीं हुए हैं। आज भी मेरी आँखें तलाशती रहती है।

विशेष :

  • भरत की विनम्रता की अभिव्यक्ति हुई है।
  • भरत का राम के प्रति अनन्य प्रेम अभिव्यक्त हुआ है।
  • यह वर्णन भक्ति रस को निर्मल गंगा का प्रतीक है।
  • ‘नीरज नयन’ में रूपक एवं अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘खेलते खुनिस’ तथा ‘सनेह सकोच’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • भाषा : अवधी।
  • छंव : चौपाई-दोहा।
  • रस-शांत।

2. बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नींच बीचु जननी मिसु पारा।
यहड कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि कोभा।
मातु मंदि भइँ साथु सुचाली। उर सन आनत कोटि कुचाली।
फर कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।
बिनु समझें निज अघ परिपाकू। जारिडँ जायँ जननि कहि काकू।
ह्वदयँँ हेरि हारेउँ सब ओराँ। एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा।
गुरु गोसाँइ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू॥
साधु सभाँ गुरु प्रभु निकट कहउँ सुथल सतिभाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहि मुनि रघुराउ।

शब्दार्थ : बिधि = भाग्य। मोर = मेरा। मिसु = बहाना। जननी = माता। सुचि = पवित्र। मातु = माता। उर = हृदय। कुचाली = बुरी चाल। कोवव = मोटा चावल। बालि = बाल। मुसाली = धान। मुकुता = मोती। संबुक = घोंघा। उदधि = समुद्र। अवगादू = डूबना। अय = पाप। काकू = कटुवचन। नीक = ठीक, सही। निकट = पास।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामभक्त कवि तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ के ‘अयोध्याकांड’ से अवतरित हैं। राग. वन-गाम के पश्चात् भरत उनसे भेंट करने वन में जाते हैं। उनके साथ माताएँ, गुरु वशिष्ठ तथा अन्य अयोध्यावासी हैं। यहाँ भरत मुनि वशिष्ठ के कहने पर अपने बड़े भाई राम के प्रति अपने आदर-श्रद्धापूर्ण उद्गार प्रकट कर रहे हैं।

व्याख्या : भाव विह्लल होकर भरत कहते हैं कि विधाता को श्रीराम का मेरे प्रति दुलार सहन नहीं हो सका। उसबे (विधाता ने) पड्यंत्र करके मेरी माता का बहाना लेकर मेरे तथा मेरे स्वामी के बीच अंतर डाल दिया। मुझे आज यह कहना शोभा तो नहीं देता क्योंकि अपनी समझ में कौन साधु और कौन पवित्र है, यह कहा नहीं जा सकता। इसका निर्णय दूसरे लोग ही करते हैं अर्थात् माता नीच है और मैं सदाचारी या साधु हूँ. ऐसी बात हदयय में लाना भी करोड़ों दुराचारों के समान है।

मैं स्वप्न में भी किसी को दोष देना नहीं चाहता। क्या कोदों की बाली से उत्तम धान पैदा हो सकता है ? क्या काली घोंघी उत्तम कोटि के मोती उत्पन्न कर सकती है? अर्थात् नहीं। वास्तव में मेरा दुर्भाग्य ही अथाह समुद्र और प्रबल है। मैंने अपने पूर्व जन्म के पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कदु वचन कहकर उन्हें बहुत जलाया या दुखी किया है। मैंने अपने हृदय में बहुत खोज की, पर सब ओर ढूँढकर मैं हार गया हूँ। मुझे भलाई का कोई साधन नहीं सूझता। निश्चित रूप से केवल एक ही प्रकार से मेरा भला हो सकता है और वे हैं मेरे गुरु महाराज सर्व समर्थ हैं और मेरे स्वामी सीताराम हैं। इन्हीं के द्वारा मुझे अच्छे परिणाम की आशा बँध रही है।

भरत कहते हैं : साधुओं (सज्जनों) की सभा में गुरुजी और स्वामी जी के समीप इस पवित्र तीर्थ स्थान में मैं सत्य भाव से कहता हूँ। मेरा यह कथन प्रेम है या प्रपंच (छल-कपट), झूठ या सच, इस बात को मुनि वशिष्ठ जी और श्री रघुनाथ जी भली प्रकार जानते हैं।

विशेष :

  • भरत जी अपनी इस स्थिति के लिए विधाता को दोषी ठहराते हैं।
  • दृष्टांत अलंकार (मुकुता ………. काली) का सटीक प्रयोग है।
  • अनेक स्थलों पर अनुप्रास अलंकार की छटा है- मातु मंदि, समुझि साधु, सुचि, जारहिं जायँ जननि, गुरु गोसाँइ, साहिब सिय आदि।
  • भाषा : अवधी।
  • छंब : चौपाई-दोहा।
  • रस : करुण रस।

3. भूपति मरनु पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।
देखिन जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिऊँ सब सूला।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि वेष लखनु सिय साथा।
बिन पानहिन्ह पयादे हि पाएँ। संकरु साखि रहेऊँ साखि रहेऊँ ऐहि घाएँ।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भएक न बेहू।
अब सबु आँखिन देखेडँ आई। जिअत जीव जड़ सबड सहाई।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछीं। तजहिं विषम बिषु तापस तीछं।।
तेई रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुःख दैव सहावड काहि।।

शब्दार्थ : भूपति = राजा। जननी = माता। कुमति = बुरी बुद्धि। साखी = साक्षी। बिकल = बेचैन। महतारीं = माताएँ। महीं = पृथ्वी। सकल. = सारी। सूला = शूल, काँट।। गवनु = जाना। पानहिन्ह = जूते, चप्पल। पयादेहि = पैदल। संकरू = शंकरा निहारि = देखकर। कुलिस = कठोर। उर = हृदय। बेहू = भेदन। निरखि = देखकर। मग = रास्ता। बीछी = बिच्छू। तजहिं = त्यागना। विषु = विष।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामभक्त कवि तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ के ‘अयोध्याकांड’ से अवतरित हैं। राम वन-गमन के पश्चात् भरत उनसे भेंट करने वन में जाते हैं। उनके साथ माताएँ, गुरु वशिष्ठ तथा अन्य अयोध्यावासी हैं। यहाँ भरत मुनि वशिष्ठ के कहने पर अपने बड़े भाई राम के प्रति अपने आदर-श्रद्धापूर्ण उद्गार प्रकट कर रहे हैं।

व्याख्या : भरत जी कहते हैं-राजा के मरण ने उनके प्रेम के प्रण की लाज रख ली। महाराज के मरने और माता की कुबुद्धि का साक्षी तो सारा संसार है। माताएँ व्याकुल हैं और उनकी यह दशा देखी नहीं जाती। अवधपुरी के समस्त नर-नारी दुसह (कठिन) ताप से जल रहे हैं। भरत जी कहने लगे-मैं ही इन सब अनर्थों का मूल हूँ, यह सब सुन और समझकर ही सब दुझख सहा है। श्री रघुनाथ जी लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का सा वेष धारण करके, बिना जूता पहने ही पैदल ही वन को चले गए, यह सुनकर मैं घाव से जीवित रह गया, इसके साक्षी शंकरजी हैं। (यह सुनते ही मेरे प्राण क्यों न निकल गए)।

फिर निषादराज का प्रेम देखकर भी मेरे वज्र से भी कठोर हृदय में छेद नहीं हुआ (यह फटा नहीं)। यह निश्चय ही पत्थर से भी सख्त है। यह़ाँ आकर मैंने सब अपनी आँखों से देख लिया है। इस मूर्ख जड़ जीव के जीते-जी सब सहना पड़ा। रास्ते के साँप और बिच्छू भी जिनको देखकर अपने भयानक विष और तीक्ष्ण क्रोध को त्याग देते हैं।

वही श्री रघुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु मालूम हुए, उस कैकेयी के पुत्र को (मुझको) छोड़कर दैव और किसे कठिन दुःख सहावेगा।

विशेष :

  • भरत की भावाकुल दशा का मार्मिक अंकन हुआ है। वे प्रायश्चित करते जान पड़ते हैं।
  • ‘पायहिन्द पयादेहि’, ‘ निहारि निषाद’, ‘कुलिस कठिन’, ‘जिअत जीव जड़’, ‘विषम विषु’ आदि स्थलों पर अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • भाषा-अवधी
  • छंद-चौपाई-दोहा

पद – 

1. जननी निरखति बान धनुहियाँ।
बार-बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ॥
कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे।
“उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे॥”
कबहुँ कहति यों “बड़ी बार भड जाहु भूप पहँँ, भैया।
बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया।”
कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी।
तुलसिदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी॥

शब्दार्थ : जननी = माता। निरखति = देखती है। धनुहियाँ = धनुष। उर = हुदय। नैननि = आँखों से। पनहियाँ = जूते। सवारे = सुबह। बदन = मुख। अनुज = छोटे भाई। सखा = मित्र। भूप = राजा। चित्रलिखी सी = चित्र के समान। सिखी = मोरनी।

प्रसंग : प्रस्तुत अंश रामभक्त कवि तुलसीदास द्वारा रचित ‘गीतावली’ से अवतरित है। इसमें कवि ने राम के वन-गमन के बाद माता कौशल्या की हदय-वेदना का मार्मिक अंकन किया है। माता कौशल्या राम से संबंधित वस्तुओं को देखकर अपने पुत्र राम का स्मरण करती हैं और दु:खी हो जाती हैं। कवि तुलसीदास बताते हैं-

व्याख्या : माता कौशल्या राम के बचपन की चीजों को देखकर और स्मरण करके अत्यंत व्याकुल हो जाती हैं। ये चीजें उनकी वेदना को बढ़ाने में उद्दीपन का काम करती हैं। वे श्रीराम के बचपन के छोटे-छोटे धनुष बाण को देखती हैं। श्रीराम की शैशवकालीन जूतियों को देखकर उन्हें बार-बार अपने ह्वदय और नेत्रों से लगाती हैं। वे यह भूल जाती हैं कि अब उनके पुत्र श्रीराम यहाँ नहीं हैं और वे पहले की तरह प्रिय वचन बोलती हुई राम के शयन कक्ष में जाती हैं और उन्हें जगाते हुए कहती हैं- हे पुत्र! उठो। तुम्हारी माता तुम्हारे मुख पर बलिहारी जाती है।

उठो, दरवाजे पर तुम्हारे सभी सखा और अनुज खड़े होकर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। कभी वे कहती हैं-भैया, महाराज के पास जाओ, तुम्हें बहुत देर हो गई है। अपने भाइयों तथा साथियों को बुला लो, जो रुचिकर लगे वह खा लो। तुम्हारी माँ तुम पर न्यौछावर जाती है। किंतु जैसे ही उनको स्मरण होता है कि राम यहाँ नहीं हैं, वे तो वन को चले गए हैं, तब वे चित्रवत् होकर रह जाती हैं अर्थात् चित्र के समान स्तब्ध और चकित रह जाती हैं। तुलसीदास जी का कहना है कि माता कौशल्या की इस स्थिति का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उनकी दशा तो उस मोरनी के समान है जो प्रसन्न होकर नाचती रहती है, पर जब अंत में वह अपने पैरों की ओर देखती है तो रो पड़ती है। यही दशा कौशल्या की है।

विशेष :

  • माता कौशल्या की अर्धविक्षिप्तावस्था का मार्मिक चित्रण हुआ है।
  • वात्सल्य रस का प्रभावी चित्रण है।
  • श्रीराम की वस्तुएँ विरह-व्यथा को बढ़ाती हैं अत: वे उद्दीपन का काम करती हैं।
  • ‘चकि चित्रलिखी’, ‘जाइ जगावति’, ‘ज्यो जाइ’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘चि रलिखी-सी’, ‘सिखी-सी’ में उपमा अलंकार है।
  • बार-बार में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

2. राघौ! एक बार फिरि आवौ।
ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ॥
जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे।
क्यों जीवहिं, मेरे राम लाडिले! ते अब निपट बिसरे॥
भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे।
तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे॥
सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन कहियो मातु संदेसो।
तुलसी मोहिं और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो॥

शब्दार्थ : बाजि-घोड़ा। बिलोकि = देखकर। कर-पंकज = हाथ रूपी कमल। राघौ = राम। बर = श्रेष्ठ, सुंदर। पय = पानी। सार = देखभाल। झाँवरे = कुम्हलाने। मनहु- मानो। हिममारे = बर्फ के मारे। मातु = माता। अंदेसो = अंदेशा। पोखि-सहलाना, प्यार करना।

प्रसंगः प्रस्तुत पद हमारी पाठ्ययुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित है। इसे तुलसीदास की रचना ‘गीतावली’ से अवतरित किया गया है। राम वन में हैं। उनके वियोग में माता कौशल्या तो दुखी है ही, साथ ही उनका प्रिय अश्व अत्यंत दुर्बल हो गया है। माता कौशल्या अश्व के बहाने राम को एक बार अयोध्या लौट आने का निवेदन करती है।

व्याख्या : माता कौशल्या राम के वन-गमन से दुखी हैं। राम से संबंधित चीजों को देखकर उनकी व्यथा और भी बढ़ जाती है। राम के अश्व की दशा उनसे देखी नहीं जाती। वे कहती हैं – हे राघव! तुम एक बार अयोध्या लौट आओ। एक बार अपने प्रिय घोड़े को देखकर फिर पुन: वन को भले ही चले जाना। जिस घोड़े को तुम अपने कमल रूपी कोमल हाथों से सहलाते थे, बार-बार पुचकारते थे. जल पिलाते थे, वह घोड़ा तुम्हारे विरह में दुखी है। है मेरे लाडले राम ! भला वह तुम्हारे बिना जीवित क्यों रहे ? तुमने तो उसे पूरी तरह से भुला दिया है। यह तुम्हारा सबसे प्रिय घोड़ा था, इसी बात का विचार करके भरत इसकी सौ गुनी देखभाल करते हैं फिर भी यह घोड़ा मुरझाता चला जा रहा है। यह सुस्त हो गया है और ऐसे शिथिल हो गया है मानो कमल पर हिमपात हो गया हो (पाला पड़ने से कमल मुरझा जाता है)। माता कौशल्या पथिक को संबोधित करके कहती है – हे पथिक । यदि वन में तुम्हें कहीं राम मिल जाएँ तो उनसे मेरा यह संदेश दे देना कि मुझे इन घोड़ों की बड़ी चिंता रहती है। अतः वे एक बार आकर इन्हें सांत्वना दे जाएँ।

विशेष :

  • माता कौशल्या अश्व के बहाने राम को देखना चाह रही है।
  • वात्सल्य रस के वियोग का मार्मिक चित्रण हुआ है।
  • ‘कर-पंकज’ में रूपक अलंकार है।
  • ‘तदपि ……. हिम मारे’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
  • अनेक स्थलों पर अनुप्रास अलंकार की छटा है- बर बाजि, बतुरो बनहि, सौगुनि सार।
  • ‘वार-वार’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

Hindi Antra Class 12 Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 8 Summary – Barahmasa Summary Vyakhya

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बारहमासा Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 8 Summary

बारहमासा – मलिक मुहम्मद जायसी – कवि परिचय

प्रश्न :
मलिक मुहम्मद जायसी का संक्षिप्त जीवन-परिचय बेते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए एवं भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : प्रेम की पीर के गायक, सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म 1492 ई. में जायस (उ. प्र.) नामक ग्राम में हुआ था। पिता की मृत्यु इनके बचपन में ही हो गई थी। अतः इनका पालन-पोषण ननिहाल में छी हुआ। उनका बाह्म व्यक्तित्व आकर्षक न था, पर वे उदार सूफी संत होने के साथ-साथ संवेदनशील कवि थे। उन्होंने सैयद अशरफ जहाँगीर और मेंहदी शेख बुरहान का उल्लेख अपने गुरु के रूप में किया है। 1542 ई. में इनकी मृत्यु हुई।

रचनाएँ : जायसी द्वारा रचित बारह ग्रंथ बताए जाते हैं, किंतु अभी तक केवल सात ही उपलब्ध हैं-‘पप्यावत’, ‘अखरावट’, ‘आखिरी कलाम’, ‘चित्रेखा’, ‘कहरनामा’, ‘मसलानामा’ और ‘कान्हावत’।

इनमें पद्मावत (महाकाव्य) उनकी प्रसिद्धि का प्रमुख आधार है।
काव्यगत विशेषताएँ : प्रेमाख्यान-परंपरा के कवियों में जायसी सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। उनकी अमर कृति ‘पद्मावत’ एक आध्यात्मिक प्रेम-गाथा है। उन्होंने प्रेम तत्त्व के व्यापक रूप को सरलतापूर्वक चित्रित करने में कुशलता दर्शायी है। उन्होंने अपने काव्य को भारतीय जीवन की पृष्ठभूमि में अंकित किया है। ‘पद्मावत’ में अन्य सूफी कवियों की भाँति कोरी कल्पना की प्रसिद्धि हिंदू लोक-कथा को आधार बनाया है।

भाषा-शैली : जायसी की भाषा बोलचाल की अवधी है, किंतु उनकी काव्य-शैली प्रौढ़ और गंभीर है। उन्होंने लोकभाषा में घुले-मिले शब्द-रूपों को ही अपनाया है; जैसे – पून्यो, जिउ, खेमा, ततखन आदि। जायसी ने मुख्यत: दोहा-चौपाई शैली (कड़वक) को अपनाया है।

उनके काव्य में अलंकार-योजना भी सुंदर बन पड़ी है। उन्होंने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, समासोक्ति, विरोधाभास आदि अलंकारों का प्रयोग कुशलतापूर्वक किया है। कुछ उदाहरण द्रष्ट्य हैं-
– उत्प्रेक्षा : पद्मावती सब सखी बुलाई। जनु फुलवारि सबै चलि आई।
– रूपकातिशयोक्ति : ‘नागिन झांपि लीन्ह चहुँ पासा’
– भ्रांतिमान : भूलि चकोर दीठि मुख लावा।
मेघ घटा महँ चंद देखावा।
– समासोक्ति के प्रयोग में जायसी अत्यंत कुशल हैं। इस अलंकार में दो अर्थ साथ-साथ चलते हैं; जैसे-
‘ऐ रानी! मनु देखि विचारी। एहि नैहर रहना दिन चारी।।
इसमें एक अर्थ पद्यावती के लिए और दूसरा अर्थ परमात्मा के लिए है।
जायसी ने शृंगार रस के दोनों पक्षों (संयोग और वियोग) की सुंदर व्यंजना की है। जायसी भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से श्रेष्ठ कवि हैं।

Barahmasa Class 12 Hindi Summary

पाठ्युस्तक में जायसी की प्रसिद्ध रचना ‘पद्यावत’ के बारहमासा का एक अंश दिया गया है। प्रस्तुत पाठ में कवि ने नायिका नागमती के-विरह का वर्णन किया है। कवि ने शीत के अगहन और पूस माह में नायिका की विरह दशा का चित्रण किया है। प्रथम पद में प्रेमी के वियोग में नायिका विरह की अग्नि में जल रही है और भँवरे तथा काग के समक्ष अपनी स्थिथियों का वर्णन करते हुए नायक को संदेश भेज रही है। द्वितीय पद में विरहिणी नायिका के वर्णन के साथ-साथ शीत से उसका शरीर काँपने तथा वियोग से हदयय काँपने का सुंदर चित्रण है। चकई और कोकिला से नायिका के विरह की तुलना की गई है। नायिका विरह में शंख के समान हो गई है। तीसरे अंश में माघ महीने में जाड़े से काँपती हुई नागमती की विरह दशा का वर्णन है। वर्षा का होना तथा पवन का बहना भी विहह-ताप को बढ़ा रहा है। अंतिम अंश में फागुन मास में चलने वाले पवन शकोरे शीत को चौगुना बढ़ा रहे हैं। सभी फाग खेन रहे हैं परतु नायिका विरह-ताप में और अधिक संतप्त होती जाती है।

बारहमासा सप्रसंग व्याख्या

1. अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दु:ख सो जाइ किमि काढ़ी।
अब धनि देवस बिरह भा राती। जर बिरह ज्यों बीपक बाती।
काँपा हिया जनाबा सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ।
घर-घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रँग लै गा नाहू।
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिर फिरै रँग सोईं।
सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।
पिय सौं कहेहू सँदेसरा ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि गई तेहिक धुआँ हम लाग॥

शब्दार्थ : वेवस = दिन। निसि = रात। दूभर = कठिन। विरह = वियोग। हिया = हदयय। जनावा = प्रतीत हुआ। सीऊ = शीत। पीऊ = प्रिय, पति। चीर = वस्त्र। नाहू = नाथ। बहुरा – लौटकर। सियरि = शीतल, ठंडी। हिय = हदय। वगधै – दाध, जलना। कंतू = प्रिय, पति। जोबन = यौवन। भसमंतू = भस्म करना। काग = कौआ। धनि = पत्नी, प्रिया।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुह्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्यावत’ के ‘नागमती वियोग खंड’ से अवतरित हैं। इसमें कवि ने रानी नागमती के विरह का वर्णन किया है। नागमती का पति रलसेन बाहर गया हुआ है। शीत ऋतु है। आगहन मास में प्रमी (पति) के वियोग में नायिका विरह की अगिन में जल रही है। वह भँवरे तथा काग के समक्ष अपनी दशा का वर्णन करते हुए वह नायक (राजा रलसेन) को संदेश भिजवा रही है।

व्याख्या : अगहन का महीना आ गया है। इस मास में दिन छोटा हो जाता है और रात बड़ी होने लगती है। यह दुःख झेलना बहुत कठिन हो गया है। इसे कैसे सहा जाए ? नागमती को विरह के कारण छोटे दिन भी बड़े लगने लगते हैं। उसे दिन भी रात के समान लग रहे हैं। वह इस विरह की अगिन में दीपक की बत्ती की भातत रात-दिन जलती रहती है। अब आगहन मास में ठंड के कारण हृदय काँपा जाता है। इसे तभी सहा जा सकता है जब पति (प्रिय) का संग हो। उसके होने पर ही शीत कम हो सकता है। पति के घर पर होने पर स्त्रियाँ रंग-बिंगे वस्त्र धारण किए रहती हैं लेकिन मेरा सारा रंगरूप तो मेरे पति अपने साथ ही ले गए हैं अर्थात् पति के बिना भला मैं भृशंगर कैसे कर सकती हूँ ? उन्होंने तो पलटकर भी इधर नहीं देखा। वे अभी वहीं फिर रहे हैं। इस शीत से बचने के लिए जगह-जगह अगिन जलाई जा रही है पर यह विरहिणियों के हदयय को तो जला रही है। यह अगि सुलग-सुलग कर मेंरे तन को दाध कर रही है और जलाकर राख किए दे रही है। मेरे इस तरह जलने के दुःख को मेरा पति नहीं जानता। मेरा यौवन मुझको भस्म किए डाल रहा है।

दोहा : नागमती भौँरा और काग से कहती है कि तुम जाकर मेरे पति को यह संदेश दे दो कि तुम्हारी पल्ी विरह की अग्नि में जलकर मर गई। उसी आग से जो धुआँ निकला है, उसी से हमारा शरीर काला हो गया है।

विशेष :

  • नागमती की विरह-व्यथा का मार्मिक चित्रण किया गया है।
  • बारहमासा वर्णन के अंतर्गत अगहन मास के शीत का प्रभाव दर्शाया गया है।
  • विरह की तीव्रता का अंकन हुआ है।
  • भौरें और कौए के माध्यम से विरहिणी ने अपनी विरहाकुल दशा का मार्मिक अंकन किया है।

अलंकार :
विरोधाभास : सियरि अगनि “‘( हेतूत्र्रेक्षा),
उत्त्रेक्षा : जरै बिरह ‘बाती,
अनुप्रास : दूभर दुःख, किमि काढ़ी, रूप-रंग,
वीप्सा : घर घर, सुलगि सुलगि।
भौरा और काग को दूत बनाकर भेजा गया है।
भाषा : अवधी।
छंब : चौपाई-दोहा।
रस : वियोग श्थृंगार रस।

2. पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक विसि तापा।
बिरह बाढ़ि भा दारुन सीऊ। कँपि-कँपि मरौं लेहि हरि जीऊ।
कंत कहाँ हौं लागौं हियरें। पंथ अपार सूझ नहिं नियरें।
सौर सुपेती आवै जूड़ी। जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।
चकई निसि बिद्धुं विन मिला। हौं निसि बासर बिरह कोकिला।
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसें जिऔं बिछोही पंखी।
बिरह सैचान भैवै तन चाँड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।
रकत बरा माँसू गरा हाड़ भए संब संख।
धनि सारस होई ररि मुई आइ समेटहु पंख।

शब्दार्थ : सुरुज = सूरज। लंक = लंका, दक्षिण दिशा। दारुन = कठिन। हियरें = हुदय से। पंथ = रास्ता। नियरें = निकट। सौर = रजाई, वस्त्र। सुपेती = हल्की। जूड़ी = ठंडी। सेज = बिस्तर। हिवंचल = हिमाचल, बर्फ से ढकी हुई। बूती = डूबी हुई। निसि = रात। बासर = दिन। रैनि = रात। पंखी = पक्षी। सैचान = बाज पक्षी। चाँड़ा = भयंकर, भोजन। रकत = रक्त। गरा = गल गया। ररि = रटकर। मुई = मरी।

प्रसंग : प्रसिद्ध काव्यांश मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाष्य ‘पघ्यावत’ के ‘नागमती वियोग खंड’ से अवतरित है। इस काव्यांश में विरहिणी नागमती की वियोग व्यथा का पूस मास की सदी में चित्रण किया गया है। शीत से नायिका का शरीर काँपता है तो वियोग से उसका उदय काँपता है। चकई और कोकिला से नायिका के विरह की तुलना की गई है। नायिका विरह में शंख के समान हो गई है।

व्याख्या : पूस का महीना आ गया है। इसमें इतनी सर्दी पड़ती है कि शरीर थर-थर काँपने लगता है। सूरज दक्षिण दिशा को चला जाता है अतः ठंडा मालूम होता है। हर प्राणी काँपता हुआ लगता है। विरहिणी नायिका कहती है- हे प्रियतम 1 तुम कहाँ हो? मैं इस शीत में काँप-काँप कर मरी जा रही हूँ। तुम यहाँ आकर मेरे गले से लग जाओ, तो मुझे कुछ चैन मिले। मुझे तुम तक आने का रास्ता नहीं सूझ रहा है, रास्ता कठिन है। मेरी सौर (रजाई) भी हल्की है। इसे ओढ़ने पर भी जूड़ी (ठंड) लगती है। बिस्तर इतना ठंडा लगता है कि हिमालय की बर्फ में डूबा हो।

चकवी रात के समय भले ही चकवे से अलग रहती है पर प्रातः होने पर प्रिय से मिल जाती है किंतु मैं तो रात-दिन पीऊ-पीऊ (प्रिय-प्रिय) की रट लगाए रहती हूँ फिर भी तुमसे भेंट नहीं हो पाती। रात्रि के समय कोई भी सखी मेरे पास नहीं होती, तब मैं बिल्कुल अकेली होती हूँ। भला मैं अकेली रहकर बिहुड़े पक्षी की भाँति किस प्रकार जीबित रहूँ ? विरह रूपी बाज मेरे शरीर पर दृष्टि गड़ाए हुए है। यह मुझे जीते जी खा रहा है। यह मरने पर भी मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा।

दोहा : नागमती कहती है कि इस विरह के कारण मेरे शरीर का सारा रक्त आँसू के माध्यम से बह रहा है। सारा माँस गल चुका है। मेरी सारी हड्डियाँ शंख के समान दिखाई दे रही हैं। मैं सारस की जोड़ी की भाँति प्रियतम का नाम रटते-रटते मर गई हूँ। अब मैं मरणावस्था में हूँ। अब इस अवस्था में मेरे पंखों को समेट लो।

विशेष :

नागमती की विरह-वेदना का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन हुआ है।
प्रकृति का उद्दीपन रूप चित्रित हुआ है।

अलंकार :
बिरह बाढ़ि, कंत कहाँ, सौर सुपेती, बासर बिरह में अनुप्रास अलंकार है।
रूपक : बिरह सैचान (विरह रूपी बाज)।
उत्प्रेक्षा : जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।
भाषा : अवधी।
छंद : चौपाई-दोहा।
रस : वियोग श्रृंगार रस।

3. लागेउ माँह परै अब पाला। बिरह काल भएड जड़काला।
पहल पहल तन रुई जो झाँपै। हहलि हहलि अधिकौ हिय काँँ।।
आई सूर होइ तपु रे नाहाँ। तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहाँ।
एहि मास उपजै रस मूलू। तूँ सो भँवर मोर जोबन फूलू।
नैन चुवहिं जस माँहुट नीरू। तेहि जल अंग लाग सर चीरू।
टूटहिं बुंद परहिं जस ओला। बिरह पवन होइ मारैं झोला।
केहिक सिंगार को पहिर पटोरा। गियँ नहिं हार रही होइ डोरा।
तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई तन तिनुवर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उड़ावा झोल॥

शब्दार्थ : पाला = ठंड। जड़काला = मृत्यु। झाँपै = छिपाना। हिय = हुदय। नाहाँ = पति। माहाँ = माघ का महीना। मूलू = जड़ों में। माँहुट = माघ की वर्षा। नीरू = नीर, जल। चीरू = चीर, वस्त्र। झोला = झकझोड़ना। पटोरा = रेशमी वस्त्र। गियँ = गरदन। तिनुवर = तिनका। भा = हो गया। झोल = राख। खर = बाण।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित ‘पद्यावत’ के ‘बारहमासा’ प्रसंग से ली गई हैं। इस प्रसंग में कवि ने राजा रत्नसेन के वियोग में संतप्त उसकी पत्नी रानी नागमती के विरह का वर्णन किया है।

व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि माघ के मास में विरह संतप्त नागमती की दशा का वर्णन करते हुए लिखता है कि माघ का महीना लग गया है और पाला पड़ने लगा है। विरहावस्था में जाड़ा काल बन जाता है। शरीर के प्रत्येक पहलू को रूई से ढकने का प्रयल्न करने पर भी हृदय थर-थर काँपने लगता है। माघ के महीने में ठंड इतनी अधिक है कि जब रूई के वस्त्रों से शरीर को ढकने का प्रयत्न करते हैं तो वस्त्रों के ठंडे होने के कारण शरीर और भी अधिक काँपने लगता है। नागमती कहती है कि हे स्वामी! आप मेरे समीप आकर सूर्य बनकर तपिए। यदि आप मेरे पास आ जाओगे तो मुझे सूर्य के समान सुखद लगोगे। तुम्हारे अभाव में मेरा यह माघ महीने का शीत नहीं छूट सकता। इसी माह में वनस्पतियों की जड़ों में रस पड़ना प्रारंभ होता है। विरहरूपी पवन झकझोरों से मुझे मार रही है।

मेरे नेत्रों से माघ महीने की वर्षा जैसी झड़ी लगी रहती है। आपके वियोग में मेरी आँखों से अश्रुपात होता रहता है। मैं अपनी गर्दन में हार भी नहीं डाल सकती क्योंकि मेरी गर्दन सूख कर डोरे जैसी हो गई है। तुम्हारे अभाव में मुझे माहौट की वर्षा की बूँदें ओलों की भाँति कष्टकर प्रतीत होती हैं। इससे भीगे हुए वस्त्र मुझे बाणों की तरह चुभते हैं। अब मैं किसके लिए शृंगार करूँ और किसके लिए स्वयं को रेशमी वस्त्रों से सुसज्जित करूँ? क्योंकि तुम ही वह भ्रमर हो जो मेरे यौवन-रूपी पुष्प का उपभोग कर सकता है। नागमती कहती है कि हे स्वामी! आपके विरह में मैं बहुत हल्की अथवा दुर्बल हो गई हूँ। मेरा शरीर तिनकों के समान हिलता रहता है। इस पर विरह की आग मुझे जलाकर राख के समान उड़ा देना चाहती है।

विशेष :

  • नागमती का विरह सर्दियों में और भी अधिक तीव्र हो जाता है। अपने प्रियतम के वियोग में वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है।
  • अवधी भाषा का सहज रूप से प्रयोग किया गया है।
  • विप्रलंभ श्वृंगार में करुण रस की धारा प्रवाहित हो रही है।
  • उपमा, रूपक, पुनरुक्ति प्रकाश और अनुप्रास अलंकार हैं।
  • ‘लोगठ माँह …….. जो वन फूलू’ में चौपाई छंद और ‘तुम्ह बिनु ……… झोल’ में दोहा छंद है।
  • तत्सम तद्भव शब्दावली की सहज-समन्वित प्रयोग किया गया है।
  • स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सृष्टि की है।

4. पनागुन पवन झँको रै बहा। चौगुन सीड जाइ किमि सहा।
तन जस पियर पात भा मोरा। बिरह न रह पवन होइ झोरा।
तरिवर झरै झरै बन बाँखा। भइ अनपत्त फूल फर साखा।
करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासू। मो कहैं भा जग दून उदासू।
फाग करहि सब चाँचरि जोरी। मोहिं जिय लाइ दीन्हि जसि होरी।
जौं पै पियहि जरत अस भावा। जरत मरत मोहि रोस न आवा।
रातिहु दे वस इहै मन मोरें। लागौं कंत छार जेऊँ तोरें।
यह तन जारौं छार कै, कहौं कि पवन उड़ाउ।
मकु तेहि मारग होइ परौं, कंत धरैं जहँ पाउ।

शब्दार्थ : पवन – हवा। किमि = कैसे। झोरा = झकझोरना। बाँखा = वृक्ष। अनपत्त = बिना पत्ते क। बनाफति = वनस्पति। हुलासू = उत्साह। चाँचरि = शृंगारपरक स्वांग, एक-दूसरे पर रंग डालना। रोस = रोष, गुस्सा। रातिहु = रात। कंत = पति, प्रिय। छार = राख। तन = शरीर। जारौं = जलाऊँ। मकु = मानो, कदाचित, शायद। मारग = मार्ग, रास्ता।

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नागमती वियोग खंड’ से अवतरित है। फागुन मास में चलने वाले पवन के झकोरे शीत को चौगुना बढ़ा रहे हैं। सभी तो फाग (होली) खेल रहे हैं, पर नायिका नागमती विरह-ताप में संतप्त होती जा रही है। व्याख्या : फागुनी हवा झकझोर रही है। इस महीने में शीत लहर चलती है। विरहिणी नागमती को इसे सहना कठिन हो गया है। उसका शरीर पीले पत्तों के समान पीला पड़ गया है।

विरह-पवन उसके शरीर को झकझोर रही है। इस मास में पेड़ों से पत्ते झड़ते जा रहे हैं। वे बिना पत्तों के हो गए हैं तथा वन ढाँखों के बिना हो गए हैं। फूल वाले पौधों पर नई कलियाँ आ रही हैं। इस प्रकार वनस्पतियाँ तो उल्लसित हो रही हैं पर नागमती की उदासी दुगुनी हो गई है। इस मास में सभी चाँचर जोड़कर परस्पर नृत्य कर रहे हैं और गीत गा रहे हैं।

वे फाग भी खेल रहे हैं। पर मेरे (नागमती के) हृदय में तो विरह की होली जल रही है। यदि मेरे प्रिय को मेरा इस प्रकार जलना पसंद है तो यही सही। मैं इस दुख को सह लूँगी। हे कंत। मेरे हुदय में रात-दिन यही विचार आता है कि राख बनकर ही तुम्हारे हृदय से लग जाॅँ। दोहा : नागमती कहती है – मैं इस शरीर को जलाकर राख कर देना चाहती हूँ ताकि पवन इसे उड़ाकर ले जाए और पति के मार्ग में बिछा दे। वे इस राख पर पैर रखेंगे तो मैं उनका स्पर्श पा जाऊँगी।

विशेष :

नागमती के विरह की चरम सीमा व्यंजित हुई है।
नागमती के विरह में त्याग की भावना निहित है। वह पति के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देना चाहती है।

अलंकार :
उपमा : तन जस ” मोरा
रूपक : विरह-पवन
अनुप्रास : मन मोरे।
भाषा : अवधी।
छंद : चौपाई-दोहा।
रस : वियोग श्रृंगार रस।

Hindi Antra Class 12 Summary

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