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Class 12 Hindi Antra Chapter 5 Question Answer एक कम, सत्य

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 5 एक कम, सत्य

Class 12 Hindi Chapter 5 Question Answer Antra एक कम, सत्य

एक कम –

प्रश्न 1.
कवि ने लोगों के आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील होने से किन तरीकों की ओर संकेत किया है ? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
कवि ने लोगों के आत्मनिर्भर, मालामाता और गतिशील होने में भ्रष्ट तरीकों की ओर संकेत किया है। लोग धोखाधड़ी का सहारा लेकर एक-दूसरे को ठगने का तरीका अपनाते हैं। चारों ओर नितांत स्वार्थपरता का माहौल बन गया है। यह पतन का रास्ता अभी भी जारी है। लोगों ने ईमानदारी को ताक पर रखकर धन बटोरना शुरू कर दिया है। ये लोग धन पाने के लिए बड़े से बड़ा झूठ बोलने को तैयार हो जाते हैं। ये विश्वासघात करने से भी बाज नहीं आते।

प्रश्न 2.
हाथ फैलाने वाले व्यक्ति को कवि ने ईमानदार क्यों कहा है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
हाथ फैलाने वाले व्यक्ति को कवि ने ईमानदार इसलिए कहा है क्योंकि ईमानदारी का जीवन बिताने के कारण ही वह व्यक्ति गरीब रह गया। यदि वह भी अन्य व्यक्तियों की तरह श्रष्ट आचरण अपना लेता तो वह भी मालामाल हो जाता और उसे किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत ही नहीं रह जाती। यह उसे ईमानदार होने की सजा मिली है। वह अपनी वास्तविक स्थिति को छिपाता नहीं। यदि वह भी अन्य लोगों की तरह भ्रष्ट साधन अपना लेता तो वह भी अमीर बन जाता। अत: वह ईमानदार है।

प्रश्न 3.
कवि ने स्वयं को लाचार, कामचोर, धोखेबाज क्यों कहा है ?
उत्तर :
कवि ने स्वयं को लाचार, कामचोर और धोखेबाज इसलिए कहा है क्योंकि वह अपनी आँखों से सब कुछ गलत होते हुए देखता रहता है और कुछ नहीं कर पाता। वह किसी भी गलत काम का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। वह स्वयं को लाचार पाता है। कवि न तो स्वयं कुछ कर पाता है और न दूसरों की कुछ सहायता कर पाता है। वह स्वयं को कामचोर भी बताता है। वर्तमान माहौल में ईमानदार लोग भी दूसरों के आगे हाथ फैलाने को विवश हो गए हैं। वह स्वयं उनके जीवन-संघर्ष में सहायक नहीं बन पाता। इस प्रकार वह एक प्रकार से ईमानदारी को धोखा दे रहा है। अन्याय को चुपचाप देखते रहना और कुछ न कहना भी एक प्रकार का धोखा ही तो है। कवि स्वयं को असहाय स्थिति में पाता है।

प्रश्न 4.
‘मैं तुम्हारा विरोधी, प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं’ से कवि का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर :
इससे कवि का यह अभिप्राय है कि वह देश में अनैतिक तरीकों से फल-फूल रहे लोगों का विरोध करके उनसे प्रतिद्वंद्विता नहीं करना चाहता। एक ईमानदार और लाचार व्यक्ति कभी किसी का विरोध नहीं कर सकता। वह किसी के लिए चुनौती भी नहीं बन सकता। उससे किसी को कोई खतरा नहीं होता। समाज में हाशिए पर चला गया व्यक्ति विकास की दौड़ से बाहर हो जाता है। असमर्थ व्यक्ति से किसी को कोई खतरा नहीं होता।

प्रश्न 5.
भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए :
(क) ‘1947 के बाद से …………… गतिशील होते देखा है’।
(ख) ‘मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ ………….’एक मामूली धोखेबाज।’
(ग) ‘तुम्हारे सामने बिल्कुल ……………. लिया है हर होड़ से।’
उत्तर :
(क) 1947 अर्थात् स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत उसने बहुत सारे लोगों को भ्रष्ट तरीकों से धन एकत्रित करके धनी बनते देखा है। ये लोग स्वयं को आत्मनिर्भर और गतिशील (सक्रिय) बताते हैं। उनकी यह आत्मनिर्भरता और गतिशीलता धोखाधड़ी करने के कारण ही है।
(ख) कवि ईमानदार लोगों की लड़ाई लड़ने में स्वयं को विवश पाता है। वह चाहकर भी उनके लिए कुछ नहीं कर पाता। वह स्वयं को लाचार, कंगाल, कामचोर और मामूली धोखेबाज मानता है। वह कुछ कर नहीं पा रहा है अत: लाचार है, कुछ करता नहीं अतः कामचोर है और कथनी को कार्यरूप में न ढाल पाने का धोखा देता है अतः मामूली धोखेबाज है।
(ग) कवि ईमानदार लोगों के सम्मुख स्वयं को बिल्कुल बेशर्म और इच्छा रहित व्यक्ति के रूप में दर्शाता है। वह किसी होड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहता। वह टकराव से बचता है।

प्रश्न 6.
शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए :
(क) ‘कि अब जब कोई ………….. या बच्चा खड़ा है।’
(ख) ‘मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्धंद्वी’…………….. निश्चित रह सकते हो।’
उत्तर :
(क) कवि यह मानता है कि गरीब व्यक्ति ही विवशतावश दूसरों के सामने हाथ फैलाता है। ‘हाथ फैलाना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है। चाय या रोटी ‘भूख’ का प्रतीक है। लाक्षणिक भाषा का प्रयोग किया गया है। ‘पच्चीस पैसे’ में अनुप्रास अलंकार है। भाषा में सरलता एवं सजीवता का समावेश है। रचना मुक्तछंद में है।
(ख) कवि जीवन-संघर्ष कर रहे व्यक्तियों के मार्ग में नहीं आता। सामने वाले व्यक्ति के तीन रूप ही. हो सकते हैं-विरोधी, प्रतिद्धंदी या हिस्सेदार। कवि इन किसी भी रूप में नहीं है। प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग है। व्यंजना शैली का प्रयोग किया गया है।

सत्य –

प्रश्न 1.
सत्य क्या पुकारने से मिल सकता है ? युधिष्ठिर विदुर को क्यों पुकार रहे हैं-महाभारत के प्रसंग से ‘सत्य’ के अर्थ खोलें।
उत्तर :
नहीं, सत्य को पुकारने से वह नहीं मिल सकता। युधिष्ठिर विदुर से सत्य कहलवाना चाह रहे थे, विदुर इससे बच कर भागे चले जा रहे थे, परंतु युधिष्ठिर के दृढ़ संकल्प को देखकर उन्हें रुकना ही पड़ा। उन्होंने एक बार अपलक नेत्रों से युधिष्ठिर की ओर देखा और उनके सत्य का प्रकाश युधिष्ठिर की अंतर्रात्मा में समा गया, जिसकी दमक से उनकी आत्मा दीप्त हो उठी। फिर भी उनके मन में संशय बना रहा कि सत्य मेरे भीतर समाया या नहीं। सत्य को पाने के लिए दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है, तभी हमारे अंदर उसका प्रकाश समाता है।

प्रश्न 2.
सत्य का दिखना और ओझल होना से कवि का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
सत्य कभी तो स्पष्ट दिखाई देता है, पर कभी हमारी दृष्टि से परे भी हो जाता है।
इससे कवि का यह तात्पर्य है कि सत्य हर समय हमारे सामने उपस्थित नहीं रहता। आज सत्य की कोई स्थिर पहचान नहीं रह गई है। उसका कोई ऐसा रूप नहीं जो उसे स्थिरता प्रदान कर सके। सत्य का रूप वस्तु स्थिति, घटनाओं तथा पात्रों के अनुसार बदलता रहता है। सत्य को रोकने की यदि हमारे अंदर दृढ़ संकल्प शक्ति नहीं है तो वह हमारी आँखों से ओझल हो जाता है। सत्य को पकड़ने के लिए हमारे अंदर युधिष्ठिर जैसी संकल्प शक्ति का होना जरूरी है।

प्रश्न 3.
सत्य और संकल्प के अंतर्संबंध पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर :
सत्य को पाने के लिए दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है। बिना संकल्प के सत्य को नहीं पाया जा सकता। दोनों में गहरा संबंध है। ज्यों-ज्यों हमारी संकल्प शक्ति क्षीण होती चली जाती है, सत्य हमसे दूर होता चला जाता है। सत्य को दृढ़ संकल्प के बलबूते पर ही पाया जा सकता है।

प्रश्न 4.
‘युधिष्ठिर जैसा संकल्प’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर :
कवि का युधिष्ठिर जैसा संकल्प से यह अभिप्रायः है-
युधिष्ठिर एक दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति थे। उनमें सत्य को पकड़ने की दृढ़ इच्छा शक्ति थी। वे किसी भी स्थिति में सत्य और धर्म के मार्ग से विचलित नहीं हुए। हमें भी उनके साथ संकल्पित दृढ़ व्यक्ति होना चाहिए।

युधिष्ठिर ने जय और पराजय की चिंता किए बिना अपने पूरे जीवन में दृढ़ संकल्प शक्ति का परिचय दिया। उनके दृढ़ संकल्प के कारण ही विदुर की सत्य दृष्टि उनमें समा पाई थी।
अत: यदि मनुष्य युधिष्ठिर के समान दृढ़ संकल्प कर ले तो वह अपने उद्देश्य को अवश्य प्राप्त कर लेगा।

प्रश्न 5.
सत्य की पहचान हम कैसे करें ? कविता के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सत्य की पहचान के लिए हमें अपने मन में युधिष्ठिर जैसा दृढ़ संकल्प पैदा करने की आवश्यकता होती है। इसे हम अपनी आत्मा में खोज सकते हैं। वैसे सत्य की पहचान आसान नहीं है, क्योंकि सत्य का कोई स्थिर रूप या आकार या पहचान नहीं है। वर्तमान समय में बदलते हालात और मानवीय संबंधों में हो रहे परिवर्तन सत्य की पहचान में बाधक बन रहे हैं। सत्य को पाने के लिए हमें वैसी ही गुहार लगानी पड़ती है, जैसी युधिष्ठिर ने विदुर को रोकने के लिए लगाई थी। ऐसे में सत्य की पहचान के लिए कवि ने कविता में यह संकेत किया है कि किसी समय जिस बात, घटना या विचार पर हमारी आत्मा विशेष आभा के लिए दमक उठे, उस समय हमें समझना चाहिए कि सत्य ने हमारा स्पर्श कर लिया है। इस प्रकार हमारी अंतरात्मा ही सत्य को पहचानने में हमारी सहायता करती है।

प्रश्न 6.
कविता में बार-बार प्रयुक्त ‘हम’ कौन हैं और उसकी चिंता क्या है ?
उत्तर :
कविता में बार-बार प्रयुक्त ‘हम’ उन व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त है जो सत्य को जानना चाहते हैं। व्यक्ति की चिंता यह है कि सत्य का एक स्थिर रूप, आकार या पहचान नहीं है। ऐसा होने पर ही वह स्थायी बन सकता है। जो बात एक व्यक्ति के लिए सत्य है वही दूसरों के लिए सत्य नहीं है। सत्य का रूप वस्तु स्थिति, घटनाओं एवं पात्रों के अनुसार बदलता रहता है। अतः सत्य की पहंचान और पकड़ मुश्किल होती जा रही है। ऐसे में सत्य को कैसे पहचानें यही आज के मनुष्य की चिंता है।

प्रश्न 7.
“सत्य की राह पर चल। अगर अपना भला चाहता है तो सच्चाई को पकड़।” इन पंक्तियों के यथार्थ में कविता का मर्म खोलिए।
उत्तर :
कवि भी इस कविता में यही चाहता है कि सत्य के रास्ते पर चलने से ही व्यक्ति का भला हो सकता है। हमें सच्चाई को पकड़कर रखना चाहिए। आज के समय और समाज में सत्य की पहचान और उसकी पकड़ मुशिकल होती जा रही है। यह कविता उसी का प्रमाण है। इसका कारण यह भी है कि सत्य कभी दिखाई देता है तो कभी ओझल हो जाता है। सत्य की कोई स्थिर पहचान होनी चाहिए। सत्य हमारी आत्मा की शक्ति है।

योग्यता विस्तार –

1. आप ‘सत्य’ को अपने अनुभव के आधार पर परिभाषित कीजिए।
सत्य (ईश्वर) की खोज, उसकी आराधना मानव जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। हमारा प्रत्येक कार्य सत्य प्रेरित हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण सत्य की आराधना में व्यतीत होना चाहिए। हम सत्य की आराधना के लिए ही जिएं तथा सत्य के लिए ही मरें। हमारा संसार में अस्तित्व ही सत्य की प्राप्ति के लिए होना चाहिए। सत्य की प्राप्ति ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। यदि हम सत्य के लिए जीना सीख जाते हैं तो अन्य सभी नियम आसानी से हमारे काबू में आ जाते हैं। ऐसा करने पर अन्य नियम भी हमारी समझ में आ जाते हैं। सत्य के बिना किसी भी नियम का पालन नहीं किया जा सकता। भाव यह है कि सत्य ही जीवन का आधार है।

2. आजादी के बाद बदलते परिवेश का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करने वाली कविताओं का संकलन कीजिए तथा एक विद्यालय पत्रिका तैयार कीजिए।
विद्यार्थी पत्रिका तैयार करें।

3. ‘ईमानदारी और सत्य की राह आत्म सुख प्रदान करती है’ इस विषय पर कक्षा में परिचर्चा कीजिए।
4. गाँधी जी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ की कक्षा में चर्चा कीजिए।
5. ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्म पर चर्चा कीजिए।
6. कविता में आए महाभारत के कथा-प्रसंगों को जानिए।
ये सभी कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 5 एक कम, सत्य

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न –

निम्नलिखित काव्यांशों में निहित काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए –

1. 1947 के बाद से
इतने लोगों को इतने तरीकों से
आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है।
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : इन पंक्तियों में यह भाव प्रकट किया गया है कि देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद देश की आस्थावान, ईमानदार और संवेदनशील जनता का मोहभंग हुआ है।
स्वार्थी तत्वों ने झूठ बोलकर, विश्वासघात तथा धोखाधड़ी

करके धन-संपत्ति तथा मान-सम्मान को हथिया लिया है। अब वे आत्मनिर्भर, धनी एवं गतिशील दिखाई देने लगे हैं।
शिल्प-सौंदर्य :

  • व्यंजनापूर्ण भाषा का प्रयोग हुआ है।
  • ‘इतने तरीकों शब्द का प्रयोग कर कवि ने अमूर्त भावों की अभिव्यक्ति अत्यंत आकर्षक रूप में की है।
  • सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।

2. मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी
या मैं भला चंगा हूँ और कामचोर और
एक मामूली धोखेबाज।
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : इन पंक्तियों में कवि ने मदद के लिए हाथ फैलाने वाले व्यक्ति की ईमानदारी का भावपूर्ण चित्रण किया है।

  • यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसे लोग अपनी स्थिति को प्रकट करने में ईमानदारी का परिचय देते हैं।
  • माँगने वाले की दो स्थिति हो सकती हैं – या तो वह गरीब अथवा अपंग है।
  • यदि वह स्वस्थ है तो वह कामचोर एवं मामूली किस्म का धोखेबाज हो सकता है।
  • पर ऐसा व्यक्ति भ्रष्ट एवं बेईमान नहीं हो सकता। शिल्प-सौंदर्य :-सरल एवं सुबोध शब्दों का प्रयोग किया गया है।
  • कंगाल, कोढ़ी में अनुप्रास अलंकार है।
  • लाक्षणिकता का समावेश है।

3. कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है
पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए तो जान लेता है
मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्या खड़ा है।
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : इन पंक्तियों में समाज में माँगकर खाने वाले व्यक्ति की विवशता एवं ईमानदारी का यथार्थ चित्रण किया गया है। उनके प्रति सहानुभूति प्रकट की गई है। यदि वह ईमानदार न होता तो उसे हाथ फैलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, वह भी प्रष्ट तरीकों को अपनाकर धनी बन सकता था।

शिल्प-सौंदर्य :

  • ‘पच्चीस पैसे’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘हाथ फैलाना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है।
  • चाय या रोटी ‘भूख’ का प्रतीक है।
  • लाक्षणिक भाषा का प्रयोग किया गया है।

4. मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्धंदी या हिस्सेदार नहीं
मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम
कम से कम एक आदमी से तो निश्चित
रह सकते हो।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य-आज के धोखाधड़ी, आपसी खींचतान, स्वार्थपरता के वातावरण में कवि हाथ फैलाने वाले ईमानदार व्यक्ति के प्रति सहानुभूति रखता है। यद्यपि वह कुछ कर नहीं पाता, पर वह उस व्यक्ति के जीवन-संघर्ष में बाधक नहीं बनना चाहता। उसकी ओर से निश्चिंत रहा जा सकता है। वह प्रतिद्वंद्विता से बाहर है।

शिल्प-सौंदर्य –

  • ‘प्रतिद्वंद्वी’ शब्द में गहरी अर्थव्यंजना निहित है।
  • भापा में गंभीरता है।
  • व्यंजनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
  • शब्द-चयन सटीक है।
  • कविता छंद-बंधन से मुक्त है।

5. अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें
और उसमें से उसी का हल्का-सा
प्रकाश जैसा आकार
समा जाता है हममें।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य-इस काव्यांश में कवि ‘सत्य’ को आत्मा का प्रकाश बताता है, उसे आत्मा की आंतरिक शक्ति बताता है। सत्य कई बार हमारी तरफ इस तरह से देखता है कि मानो वह हमें अंतिम बार देख रहा हो। इस प्रकार सत्य से हमारा अंतिम साक्षात्कार होता है। उस समय उसी का हल्का-सा प्रकाश फैल जाता है और वह हमारे अंदर प्रवेश कर जाता है अर्थात् जब हम सत्य का अनुभव कर लेते हैं, तब सत्य हमें अपने प्रकाश से भर देता है। फिर उसे कहीं ढूँढने की आवश्यकता नहीं रह जाती है।

शिल्प-सौंदर्य –

  • इसमें सत्य (अमूर्त भाव) को मानवीय क्रियाएँ करते हुए दर्शाया गया है। अत: यह मानवीकरण अलंकार का प्रयोग हुआ है।
  • अनुप्रास अलंकार का भी प्रयोग है।
  • शब्द-चयन सटीक है।
  • कविता छंद-बंधन से मुक्त है।

प्रतिपाद्य संबंधी प्रश्न –

प्रश्न 1.
‘एक कम’ कविता का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘एक कम’ कविता के माध्यम से कवि ने स्वांतत्र्योत्तर भारतीय समाज में प्रचलित हो रही जीवन-शैली को रेखांकित किया है। आजादी हासिल करने के बाद सब कुछ वैसा नहीं रहा जैसा स्वतंत्रता सेनानियों ने सोचा था। इस स्थिति से आस्थावान, ईमानदारी और संवेदनशील जनता का मोहभंग हुआ है। अब सर्वत्र स्वार्थपरता का वातावरण बनता जा रहा है। इस माहौल में कवि स्वयं को असमर्थ पाते हुए भी ईमानदारी के प्रति सहानुभूति रखता है। वह उनके जीवन-संघर्ष में बाधक नहीं बनना चाहता। इस प्रकार वह एक व्यवधान तो कम कर ही सकता है।

प्रश्न 2.
‘सत्य’ कविता का प्रतिपाद्य लिखिए।
उत्तर :
इस कविता में कवि ने जीवन में सत्य की महत्ता को स्पष्ट करना चाहा है। कवि और हम जिस समय और समाज में रह रहे हैं, उसमें सत्य की पहचान और उसकी पकड़ मुशिकल होती जा रही है। सत्य कभी दिखाई देता है तो कभी ओझल हो जाता है। आज सत्य का कोई स्थिर रूप, आकार या पहचान नहीं है जो उसे स्थायी बना सके। सत्य के प्रति संशय का विस्तार होने के बावजूद वह हमारी आत्मा की आंतरिक शक्ति है। जो एक व्यक्ति के लिए सत्य है, वही शायद दूसरे के लिए सत्य नहीं है। बदलते हालात और मानवीय संबंधों में हो रहे निरंतर परिवर्तनों से सत्य की पहचान और पकड़ भुशिकल होती जा रही है।

प्रश्न 3.
आशय स्पष्ट कीजिए :
कभी विखता है सत्य
और कभी ओझल हो जाता है।
उत्तर :
इन पंक्तियों का आशय स्पष्ट करते हुए कवि कहता है कि सत्य का कोई स्थिर रूप नहीं है। वह कभी हमें दिखाई देता है और कभी आँखों के आगे से ओझल हो जाता है। हम उससे यह कहते ही रह जाते हैं कि रुको, यह हम हैं अर्थात् सत्य को कोई एक स्थिर रूप, आकार या पहचान नहीं है। जब तक हम उसे अनुभूति कर पाते हैं तब तक वह लुप्त हो चुका होता है और हम उसे रुकने के लिए पुकारते ही रक जाते हैं।

प्रश्न 4.
सत्य को पुकारने से कवि का क्या तात्पर्य है? पुकारने पर सत्य दूर क्यों चला जाता है ? ‘सत्य’ कविता के आधार पर बताइए।
उत्तरः
सत्य को पुकारने से कवि का तात्पर्य है-अपने अंदर सत्य को धारण करने के लिए उसकी तलाश करना। कवि का ऐसा मानना है कि जब हम सत्य को पुकारते हैं, तब वह हमसे दूर हटता चला जाता है। इसका आशय यह है कि दूँढने पर सत्य हमारी पकड़ से बाहर हो जाता है। सत्य के दूर चले जाने का कारण यह है कि वह जानना चाहता है कि हम उसके पीछे कितनी दूर तक भटक सकते हैं अर्थात् सत्य हमारे संकल्प की दृढ़ता की परीक्षा लेता है।

प्रश्न 5.
‘सत्य’ कविता में मिथकों/पौराणिक संदर्भों का प्रयोग कवि ने क्यों किया है? कविता का संदेश स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘सत्य’ कविता में कवि ने मिथकों और पौराणिक संद्भों का प्रयोग किया है। इसमें विदुर और युधिष्ठिर का प्रयोग है। विदुर ‘सत्य’ का तथा युधिष्ठिर ‘सत्य के अन्वेषक’ के रूप हैं।
‘सत्य’ कविता में कवि ने महाभारत के पौराणिक संद्भों और पात्रों के द्वारा जीवन में सत्य की महत्ता को स्पष्ट करना चाहा है। अतीत की कथा का आधार लेकर अपनी बात प्रभावशाली ढंग से कही जा सकती है, यह कविता इसका प्रमाण है। युधिष्ठिर, विदुर और खांडवप्रस्थ-इंद्रप्रस्थ के द्वारा सत्य को, सत्य की महत्ता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ प्रस्तुत करना ही यहाँ कवि का अभीष्ट है।

कविता का संदेश स्पष्ट है –
जिस समय और समाज में कवि जी रहा है उसमें सत्य की पहचान और उसकी पकड़ कितनी मुश्किल होती जा रही है यह कविता उसका प्रमाण है। सत्य कभी दिखता है और कभी ओझल हो जाता है। आज सत्य का कोई एक स्थिर रूप आकार या पहचान नहीं है जो उसे स्थायी बना सके। सत्य के प्रति संशय का विस्तार होने के बावजूद वह हमारी आत्मा की आंतरिक शक्ति है-यह भी इस कविता का संदेश है। उसका रूप वस्तु, स्थिति और घटनाओं, पात्रों के अनुसार बदलता रहा है। जो एक व्यक्ति के लिए सत्य है वही शायद दूसरे के लिए सत्य नहीं है। बद्लते हालात और मानवीय संबंधों में हो रहे निरंतर परिवर्तनों से सत्य की पहचान और उसकी पकड़ मुश्किल होते जाने के सामाजिक यथार्थ को कवि ने जिस तरह ऐतिहासिक, पौराणिक घटनाक्रम के द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है वह प्रशंसनीय है।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 6 Question Answer वसंत आया, तोड़ो

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Class 12 Hindi Chapter 6 Question Answer Antra वसंत आया, तोड़ो

वसंत आया – 

प्रश्न 1.
वसंत आगमन की सूचना कवि को कैसे मिली ?
उत्तर :
वसंत आगमन की सूचना कवि को प्रकृति में आए परिवर्तनों से मिली। बंगले के पीछे के पेड़ पर चिड़िया कुहकने लगी, सड़क के किनारे की बजरी पर पेड़ों से गिरे पीले पत्ते पाँव के नीचे आकर चरमराने लगे, सुबह छह बजे खुली ताजा गुनगुनी हवा आई और फिरकी की तरह घूमकर चली गई। फुटपाथ के चलते हुए कवि ने इन परिवर्तनों को देखा और इनके प्रभाव का अनुभव किया। उन्हीं से उसे वसंत के आगमन की सूचना मिली।

प्रश्न 2.
‘कोई छः बजे सुबह’ फिरकी सी आई, चली गई’-पंक्ति में निहित भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
वसंत ऋतु में प्रातःकाल छः बजे के आसपास चलने वाली हवा की अनुभूति कुछ इस प्रकार की होती है जैसे कोई युवती गरम पानी से नहाकर आई हो। हवा में गुनगुनापन होता है। तब की हवा फिरकी की तरह गोल घूम जाती है और शीघ्र चली भी जाती है अर्थात् समाप्त भी हो जाती है। उसमें हाड़ को कँपा देने वाली ठंडक नहीं रहती। उसकी शीतलता घट जाती है और हल्की गरमाहट का अहसास होने लगता है।

प्रश्न 3.
‘वसंत पंचमी’ के अमुक दिन होने का प्रमाण कवि ने क्या बताया और क्यों ?
उत्तर :
वसंत पंचमी के अमुक दिन होने का प्रमाण कवि ने यह बताया कि उस दिन दफ्तर में छुट्टी थी। दफ्तर में छ्छ्टी होने से यह पता चल जाता है कि उस दिन कोई विशेष त्योहार है। वसंत पंचमी के आने का पता भी दफ्तर की छुट्टी और कैलेंडर से चला। इसका कारण है कि आधुनिक जीवन-शैली में व्यक्ति का प्रकृति के साथ संबंध टूटता जा रहा है अतः वह प्राकृतिक परिवर्तनों से अनजान रहता है।

प्रश्न 4.
‘और कविताएँ पढ़ते रहने से’ आम बौर आवेंगे में’ निहित व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस काव्य-पंक्ति में यह व्यंग्य निहित है कि लोगों को वसंत के बारे में जानकारी कविताओं को पढ़ने से मिलती है। वे स्वयं वसंत के आगमन का अनुभव नहीं कर पाते। वसंत में होने वाले प्राकृतिक परिवर्तनों की जानकारी भी उन्हें कविता से ही मिलती है। कविताओं को पढ़कर ही वे यह जान पाते हैं कि वसंत ऋतु में पलाश के जंगल दहकते हैं, आमों में बौर लगता है। आज के लोग स्वयं इन दृश्यों को अपनी आँखों से देखने का कष्ट नहीं करते। वे तो कविताओं में ही वसंत का वर्णन पढ़ते हैं। यह आज के जीवन की विडंबना है। आज का व्यक्ति आंडबरपूर्ण जीवन-शैली जी रहा है। अब वह प्रकृति की जानकारी पुस्तकों से पाता है।

प्रश्न 5.
अलंकार बताइए :
(क) बड़े-बड़े पियराए पत्ते
(ख) कोई छः बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो
(ग) खिली हुई हवा आई, फिरकी सी आई, चली
(घ) कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल
उत्तर :
(क) बड़े-बड़े – पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार पियराए पत्ते – अनुप्रास अलंकार
(ख) मानवीकरण अलंकार
(ग) उपमा अलंकार, अनुप्रास अलंकार
(घ) पुनरुक्ति प्रकाश एवं अनुप्रास अलंकार

प्रश्न 6.
किन पंक्तियों से ज्ञात होता है कि आज का मनुष्य प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य की अनुभूति से वंचित है ?
उत्तर :
निम्नलिखित पंक्तियों से यह ज्ञात होता है कि आज का मनुष्य प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य की अनुभूति से वंचित है :

यह कैलेंडर से मालूम था
अमुक दिन अमुक बार मदन महीने की होवेगी पंचमी
दफ्तर में छुट्टी थी-यह था प्रमाण
और कविताएँ पढ़ते रहने से यह पता था
कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल आम बौर आवेंगे
रंग-रस-गंध से लदे-फँदे दूर के विदेश के वे नंदन वन होरेंगे यशस्वी
मधुमस्त पिक और आदि अपना-अपना कृतित्व अभ्यास करके दिखावेंगे
यही नहीं जाना था कि आज के नगण्य दिन जानूँगा जैसे मैंने जाना, कि वसंत आया।

प्रश्न 7.
‘प्रकृति मनुष्य की सहचरी है’ इस विषय पर विचार व्यक्त करते हुए आज के संदर्भ में इस कथन की वास्तविकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
यह कथन बिल्कुल सही है कि प्रकृति मनुष्य की सहचरी है। प्रकृति ही मनुष्य का साथ शुरू से अंत तक निबाहती है। प्रकृति हर समय उसके साथ रहती है। मनुष्य आँखें खोलते ही प्रकृति के दर्शन करता है। सूर्य, चंद्रमा, पर्वत, नदी, भूमि, बृक्ष-सभी प्रकृति के विभिन्न रूप हैं। हमारा जीवन पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर है। अन्य लोग भले ही हमारा साथ छोड़ दें, पर प्रकृति सहचरी बनकर हमारे साथ रहती है। प्रकृति हमें अपनी ओर आकर्षित करती है। प्रकृति का आमंत्रण मौन भले ही हो, पर वह काफी प्रभावशाली होता है।

प्रश्न 8.
‘वसंत आया’ कविता में कवि की चिंता क्या है ? उसका प्रतिपाद्य लिखिए।
उत्तर :
‘वसंत आया’ कविता में कवि की चिता यह है कि मनुष्य का प्रकृति से नाता टूट गया है, यह अच्छी बात नहीं है। लोगों का जीवन इतना व्यस्त और मशीनी हो गया है कि वह प्रकृति में आ रहे परिवर्तनों को न तो देख पाता है और न अनुभव कर पाता है। वह संवेद्नहीन होता चला जा रहा है। मनुष्य की आधुनिक जीवन शैली कवि की चिता का विषय बन गई है। इस जीवन-शैली में वसंत जैसी मादक ऋतु भी लोगों को आह्लादित नहीं कर पाती। वसंत पंचमी का पता भी उसे दफ्तर की छुट्टी से ही लगता है। पेड़ों से पत्तों का गिरना, नई कोंपलों का फूटना, हवा का बहना, ढ़ाक-वन का सुलगना, कोयल-भ्रमर की मस्ती आद् पर आज के मनुष्य की निगाह का न जाना चिंता का विषय है। हमें प्रकृति-सौंदर्य का भरपूर आनंद उठाना चाहिए। कवि इस बात के लिए चिंतित है कि मनुष्य का प्रकृति से एकात्मकता का संबंध समाप्त होता जा रहा है। इसे पुनः स्थापित किया जाना आवश्यक है।

तोड़ो – 

प्रश्न 1.
‘पत्थर’ और ‘चट्टान’ शब्द किसके प्रतीक हैं?
उत्तर :
‘पत्थर’ और ‘चट्टान’ शब्द् बाधाओं और रुकावट्टों के प्रतीक हैं। कविता ‘तोड़ो’ में इन दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ –

हैतोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये पत्थर ये चट्टानें
ये झूठे बंधन टूटें
तो धरती को हम जानें।

अर्थात् ये दोनों बंधन झूटे हैं। इनके नीचे वास्तविकता छिपी रहती है। ये दोनों बंधन कवि-कर्म अर्थात् सृजनकर्ता में भी बाधा उपस्थित करते हैं। ये बंधन बंजर धरती में हैं तो मानव-मन में भी हैं। धरती को उर्वर बनाने के लिए जिस प्रकार पत्थर और चट्टानों को तोड़ना पड़ता है उसी प्रकार सृजनकार्य के लिए मन की ऊब और खीज़ भी मिटाना पड़ता है। इस संद्भ में पत्थर-चट्टान मन की ऊब और खीज के प्रतीक बन जाते हैं।

प्रश्न 2.
कवि को धरती और मन की भूमि में क्या-क्या समानताएँ दिखाई पड़ती हैं ?
उत्तर :
कवि को धरती और मन की भूमि में निम्नलिखित समानताएँ दिखाई पड़ती हैं :

  • धरती और मन दोनों की भूमि में बंजरपन है। इससे सृजन में बाधा आती है।
  • धरती में कठोरता तथा पत्थर आदि हैं जबकि मन में ऊब तथा खीझ है।
  • बंजर धरती अपने भीतर बीज का पोषण नहीं कर पाती और मन की भूमि की झुझलाहट के कारण भावों या विचारों का पोषण नहीं हो पाता।
  • जिस प्रकार धरती की गुड़ाई कर भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकता है उसी प्रकार मन की भूमि से खीझ को खोदकर निकालने से वह भी सृजन के योग्य बन जाती है।

प्रश्न 3.
भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए :
मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को ?
गोड़ो गोड़ो गोड़ो
उत्तर :
इन पंक्तियों में यह भाव निहित है कि मिट्टी का रस ही बीज का पोषण करता है। मिट्टी में रस का होना अत्यंत आवश्यक है। मन की खीझ को भी मिटाना (तोड़ना) आवश्यक है। सृजन के लिए ऊब को मिटाना जरूरी है। तब नव-निर्माण हो सकेगा। ‘गोड़ो’ शब्द की बार-बार आवृत्ति कर कवि ने यह संदेश दिया है कि मन रूपी भूमि की बार-बार गुडाई करना अत्यंत आवश्यक है। इससे बाधक तत्व हट जाएँगे और सुजनात्मकता को बढ़ाया जा सकता है।

प्रश्न 4.
कविता का आरंभ ‘तोड़ो तोड़ो तोड़ो’ से हुआ है और अंत ‘गोड़ो गोड़ो गोड़ो’ से। विचार कीजिए कि कवि ने ऐसा क्यों किया ?
उत्तर :
कविता का आंरभ ‘तोड़ो तोड़ो तोड़ो’ से हुआ है और अंत ‘गोड़ो गोड़ो गोड़ो’ से हुआ है। कवि ने ऐसा इसलिए कहा होगा क्योंकि पहले जमीन को समतल बनाने के लिए पत्थरों को तोड़ना आवश्यक है। पथरीली जमीन को उपजाऊ खेत में बदलना आवश्यक है। इसके बाद ही गोड़ने की क्रिया आरंभ होती है। धरती में गुड़ाई करके बीज का पोषण किया जा सकता है। इसी प्रकार मन में भावों और विचारों के पोषण के लिए झुँझलाहट, चिढ़, कुढ़न आदि को निकाल फेंकना आवश्यक है। इसी प्रकार मन की खीझ और ऊब को तोड़ने के बाद ही उसमें सृजन की प्रक्रिया का आरंभ होगा। यह प्रक्रिया ही गोड़ना है।

प्रश्न 5.
ये झूठे बंधन टूटें
तो धरती को हम जानें
यहाँ पर झूठे बंधनों और धरती को जानने से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर :
यहाँ पर ‘झूठे बंधनों को तोड़ने का आह्नान है। धरती का बंजरपन और चट्टानें उसके झूठे बंधन हैं। यह स्थिति मन की भी है। इसके कृत्रिम बंधनों को भी तोड़ना जरूरी है। ‘धरती को जानने’ से अभिप्राय यह है कि धरती में निहित उर्वरा शक्ति और उसके रस का जानना-पहचानना आवश्यक है। इसी प्रकार मन की वास्तविकता को जानना भी जरूरी है। इसकी ऊब को दूर करना आवश्यक है। तभी हम मन की अंतनिर्हित शक्तियों को जान पाएँगे।

प्रश्न 6.
‘आधे- आधे गाने’ के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है ?
उत्तर :
‘आधे-आधे गाने’ के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि जब तक मन में ऊब और खीझ व्याप्त रहती है तब तक मन से पूरा गाना नहीं निकलता। मन जब उल्लासित होता है तभी पूरा गाना निकलता है। मन का स्पष्ट होना आवश्यक है। मन की संजनात्मक क्षमता बढ़ाने के लिए मन की बाधाओं को दूर करना आवश्यक है।

योग्यता विस्तार – 

1. ‘वसंत ऋतु’ पर किन्हीं दो कवियों की कविताएँ खोजिए और इस कविता से उनका मिलान कीजिए।

1. बरन बरन तरु फूले उपवन बन,
सोई चतुरंग संग दल लहियत है।
बंदी जिमि बोलत बिरद बीर कोकिल हैं,
गुंजत मधुप गान गुन गहियत है।
आवै आस-पास पुहुपन की सुवास सोई
सौँधे के सुगंध माँझ सने रहियत है।
सोभा कों समाज, सेनापति सुख-साज, आज
आवत बसंत रितुराज कहियत है।
– सेनापति

2. हार गले पहना फूलों का
ऋतुपति सकल सुकृत कूलों का
स्नेह सरस भर देगा उर सा
स्मरहर को वरेगी
वसन वसंती लेगी।
– निराला

3. आए महंत वसंत।
मखमल के झूल पड़े हाथी-सा-टीला
बैठ किंशुक छत्र लगा बांध पाग पीला,
चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत।
आए महंत वसंत।

4. औरै भाँति कुंजन में गुंजरत भीर भौंर,
औरै डौर झौरन पै बौरन के ह्ने गए।
ऐसे ऋतुराज के न आज दिन द्वै गए। – पद्याकर

2. भारत में ऋतुओं का चक्र बताइए और उनके लक्षण लिखिए।

भारत में ऋतुओं का चक्र
(क) गर्मी : वैशाख-जेठ मास में भयंकर गर्मी पड़ती है. लू चलती है।
(ख) वर्षा : आषाढ़-सावन-भादों में गर्मी पड़ती है और वर्षा पड़ती है। सावन में रिमझिम फुहारें पड़ती हैं।
(ग) शरद् : क्वार-कार्तिक में हल्की-हल्की ठंड पड़ती है।
(घ) हेमंत : अगहन-पूस में सरीं पड़ती है, ठंड बढ़ जाती है।
(ङ) पतझड़ (शिशिर) : माघ में पेड़ों से पत्ते झड़ते हैं, ठंडी हवाएँ चलती हैं।
(च) वसंत : फागुन-चैत में पेड़ों पर नए पत्ते आते हैं, वागों में फूलों की बहार आ जाती है, मस्ती भरा वातावरण रहता है।

3. मिद्टी और बीज से संबंधित और भी कविताएँ हैं, जैसे सुमित्रानंदन पंत की ‘बीज’। अन्य कवियों की ऐसी कविताओं का संकलन कीजिए और भित्ति पत्रिका में उनका उपयोग कीजिए।

सुमित्रा नंदन पंत की कविता बीज
मिट्टी का गहरा अंधकार,
डूबा है उसमें एक बीज।
वह खो न गया, मिट्टी न बना,
कोदों, सरसों से क्षुद्र चीज।
उस छोटे उर में छिपे हुए हैं,
डाल-पात औ’ स्कंध-मूल।
गहरी हरीतिमा की संसृति,
बहु रूप-रंग, फल और फूल।
वह है मुट्ठी में बंद किए,
वह के पादप का महाकार।
संसार एक, आश्चर्य एक,
वह एक बूँद सागर अपार।
बंदी उसमें जीवन-अंकुर
जो तोड़ है निज सत्व-मुक्ति,
जड़ निद्रा से जग, बन चेतन।
मिट्टी का गहरा अंधकार,
सोया है उसमें एक बीज।
उसका प्रकाश उसके भीतर,
वह अमर पुत्र! वह तुच्छ चीज।
विद्यार्थी भित्ति पत्रिका स्वयं तैयार करें।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 6 वसंत आया, तोड़ो

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न

प्रश्न :
निम्नलिखित पंक्तियों में निहित काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए –
वसंत आया
क. चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरमुराए पाँव तले
ऊँचे तरुवर से गिरे
बड़े-बड़े पियराए पत्ते
कोई छः बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो –
खिली हुई हवा आई, फिरकी-सी आई, चली गई।
उत्तर :
इन काव्य-पंक्तियों में वसंत आगमन के अवसर पर पेड़ों में नए पत्ते आने से पूर्व पीले पत्तों का झड़कर नीचे गिर जाना और उनका पैरों के नीचे चरमराने की आवाज करने का बिंब है। बजरी पर गिरे पत्ते ज्यादा आवाज करते हैं। यह पतझर के अंतिम दौर का सूचक है।
दूसरा बिंब एक नवयुवती का है जो सुबह छः बजे गरम पानी से नहाई है। उसके शरीर से गरम पानी की भाप उठ रही है। ऐसी ही सुबह खिली हवा आती है और फिरकी की तरह घूमकर चली जाती है।

  • ‘बड़े-बड़े’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘पियराए पत्ते’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘फिरकी-सी’ में उपमा अलंकार है।
  • भाषा में तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग कर वातावरण को सजीव बनाया गया है।

ख. कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो
खिली हुई हवा आई, फिरकी-सी आई, चली गई।
ऐसे, फुटपाथ पर चलते-चलते
कल मैंने जाना कि वसंत आया।
उत्तरः
इन काव्य-पंक्तियों में वसंत आगमन के अवसर पर पेड़ों में नए पत्ते आने से पूर्व पीले पत्तों का झड़कर नीचे गिर जाना और उनका पैरों के नीचे चरमराने की आवाज करने का बिंब है। बजरी पर गिरे पत्ते ज्यादा आवाज करते हैं। यह पतझर के अंतिम दौर का सूचक है।
दूसरा बिंब एक नवयुवती का है जो सुबह छः बजे गर्म पानी से नहाई है। उसके शरीर से गर्म पानी की भाप उठ रही है। ऐसी ही सुबह खिली हवा आती है और फिरकी की तरह घूमकर चली जाती है।

  • ‘बड़े-बड़े’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘फिरकी- सी’ में उपमा अलंकार है।
  • भाषा में तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग कर वातावरण को सजीव बनाया गया है।

ग. ऊँचे तरुवर से गिरे
बड़े-बड़े पियराए पत्ते
कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो
खिली हुई हवा आई, फिरकी-सी आई, चली गई।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य-इन काव्य पंक्तियों में कवि ने वसंत ऋतु के आगमन के प्रभाव को दर्शाया है। इस ऋतु में ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के पीले-पीले पत्ते नीचे गिर जाते हैं। यह स्थिति पतझड़ की अंतिम अवस्था की सूचक है।
अगली दो पंक्तियों में एक ऐसी नवयुवती का बिंब है, जो सुबह-सुबह छह बजे गरम पानी से नहाई है। उसके शरीर से गरम पानी की भाप उठ रही है। इसी प्रकार वसंत की सुबह खुली हवा आती है और फिरकी की तरह घूमकर चली जाती है।

शिल्प-सौंदर्य-

  • ‘बड़े-बड़े’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘पियराए पत्ते’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘फिरकी-सी’ में उपमा अलंकार है।
  • हवा का मानवीकरण किया गया है, अतः मानवीकरण अलंकार है।
  • भाषा में चित्रात्मकता है।

घ. कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल आम बौर आवेंगे
रंग-रस-गंध से लदे-फँदे दूर के विदेश के
वे नंदन-वन होवेंगे यशस्वी।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य-इस काव्यांश में कवि ने वसंत ऋतु के प्रभाव का अंकन किया है। इस ऋतु में पलाश के वन धधक उठते हैं अर्थात् वसंत के आगमन के साथ ही वन में पलाश के लाल-लाल फूलों की चमक-दमक से आग से दहकने का भ्रम हो जाता है। इस ऋतु में आम के पेड़ आम-मंजरियों से लद जाते हैं। दूर-दूर तक उनकी गंध महक जाती है। ये वृक्ष रंग, रस, गंध के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो जाएँगे। नंदन वन यश के भागी हो जाएँगे।

शिल्प-सौँदर्य –

  • ‘दहर-दहर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘दहर-दहर दहकेंगे’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • बिंब विधान हुआ है।
  • शब्द-चयन सटीक है।
  • सामासिक शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
  • भाषा में चित्रात्मकता है।

तोड़ो – 

ङ. तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये ऊसर बंजर तोड़ो
ये चरती परती तोड़ो
सब खेत बनाकर छोड़ो
मिद्टी से रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को
हम इसको क्या कर डाले इस अपने मन की खीज को गोड़ो गोड़ो गोड़ो।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य : ‘तोड़ो’ कविता प्रसिद्ध प्रयोगवादी कवि रघुवीर सहाय की एक उद्बोधनात्मक कविता है जिसमें कवि एक ओर चट्टानों और बंजर भूमि को तोड़ने को कहता है तो दूसरी ओर मन में व्याप्त ऊब और खीज को भी तोड़ने का आह्वान करता है। कवि के बाह्य जगत के ऊसरपन और अंतर्जगत के ऊब और रिक्तता पैदा करने वाले बंजरपन-दोनों को ही तोड़ने का आह्वान किया है। मन में व्याप्त ऊब तथा खीज की यह सादृश्य-धर्मिता बहुत ही सशक्त बन पड़ी है।

शिल्प-सौंदर्य : इस कविता में नए उपमानों द्वारा कवि ने अपने क्रान्तिकारी विचार प्रस्तुत किए हैं। ‘तोड़ो-तोड़ो’ और ‘गोड़ो-गोड़ो’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार हैं। इसमें तुकांत शब्द का सुंदर प्रयोग द्रष्टवय है। भाषा सरल-सुबोध है। च. मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को ?
गोड़ो गोड़ो गोड़ो ।
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : इन पंक्तियों में बताया गया है कि चट्टान-पत्थरों को तोड़कर अलग करने के बाद धरती की खूब गुड़ाई की जाए तो मिट्टी रसयुक्त होकर उर्वर हो जाएगी। इस प्रकार की धरती में डाला गया बीज अंकुरित भी होगा तथा पोषित भी होगा। इसी प्रकार मनुष्य के द्वारा भी सृजन-कार्य संभव हो सकता है। मनुष्य में भाव होने चाहिएँ।

‘खीज’ को सृजन कार्य में बाधक बताया है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • ‘गोड़ो’ शब्द की आवृत्ति की गई है। इसमें पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘क्या कर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • भाषा सरल एवं सुबोध है।

प्रतिपाद्य संबंधी प्रश्न – 

प्रश्न 1.
‘वसंत आया’ कविता का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘वसंत आया’ शीर्षक कविता रघुवीर सहाय द्वारा रचित है। यह कविता व्यंग्य शैली में रची गई है। इस कविता में कवि उस स्थिति पर अपनी चिंता प्रकट करता है जिसमें आज के मनुष्य का प्रकृति से रिश्ता टूट गया है। अब मनुष्य वसंत के आगमन का अनुभव ही नहीं कर पाता है। वह उसे कैलेंडर या कविताओं के माध्यम से जानता है। ऋतुओं में परिवर्तन तो पहले की तरह ही होते रहते हैं। इस ऋतु में पत्ते झड़ते हैं. कोंपलें फूटती हैं, नए पत्ते आते हैं, हवा बहती है, ढाक के जंगल दहकते हैं, कोयल-भ्रमर अपनी मस्ती में झूमते हैं, पर हमारी निगाह उन पर नहीं जा पाती। हम प्रकृति-सौंदर्य के प्रति निरपेक्ष बने रहते हैं। इस कविता में आधुनिक जीवन-शैली की विडंबना को रेखांकित किया गया है। मनुष्य को प्रकृति के साथ अंतरंगता बनाए रखनी चाहिए।

प्रश्न 2.
तोड़ो कविता का प्रतिपाद्य लिखिए।
उत्तर :
‘तोड़ो’ कविता का प्रतिपाद्य
तोड़ो उद्बोधन कविता प्रतीत होती है। इसमें कवि सृजन हेतु भूमि को तैयार करने के लिए चट्टानें, ऊसर और बंजर को तोड़ने का आह्नान करता है। परती को खेत में बदलना सृजन की आंरभिक परंतु अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। यहाँ कवि विध्वंस के लिए नहीं उकसाता वरन सृजन के लिए प्रेरित करता है। कविता का ऊपरी ढाँचा सरल प्रतीत होता है, परंतु प्रकृति से मन की तुलना करते हुए कवि ने इसको नया आयाम दे दिया है। यह बंजर प्रकृति में है तो मानव-मन में भी है। कवि मन में व्याप्त ऊब तथा खीज को भी तोड़ने की बात करता है अर्थात् उसे भी उर्वर बनाने की बात करता है। मन के भीतर की ऊब सृजन में बाधक है। कवि सृजन का आकांक्षी है इसलिए उसको दूर करने की बात करता है। इसलिए कवि मन के बारे में प्रश्न उठाकर आगे बढ़ जाता है। इससे कविता का अर्थ विस्तार होता है।

अन्य उपयोगी प्रश्न – 

प्रश्न 1.
‘वसंत आया’ कविता में वसंत के आने के बारे में कवि की कल्पना और जानकारी क्या थी ?
उत्तर :
कवि की कल्पना यह थी कि वसंत में ढाक के वन दहकने लगेंगे, आम बौर आएँगे। नंदन वन फल-फूलों से लद जाएँगे। वसंत आगमन की सूचना कवि को प्रकृति में आए परिवर्तनों से मिली। बंगले के पीछे के पेड़ पर चिड़िया कुहकने लगी, सड़क के किनारे की बजरी पर पेड़ों से गिरे पीले पत्ते पाँव के नीचे आकर चरमराने लगे, सुबह छह बजे खुली ताजा गुनगुनी हवा आई. और फिरकी की तरह घूमकर चली गई। फुटपाथ के चलते हुए कवि ने इन परिवर्तनों को देखा और इनके प्रभाव का अनुभव किया। उन्दीं से उसे वसंत के आगमन की सूचना मिली।

प्रश्न 2.
‘वसंत आया’ कविता में कवि की चिंता क्या है ? इसे वसंत आगमन की सूचना कैसे मिली ?
उत्तर :
‘वसंत आया’ कविता में कवि की चिंता यह है कि मनुष्य का प्रकृति से नाता टूट गया है, यह अच्छी बात नहीं है। लोगों का जीवन इतना व्यस्त और मशीनी हो गया है कि वह प्रकृति में आ रहे परिवर्तनों को न तो देख पाता है और न अनुभव कर पाता है। वह संवेदनहीन होता चलाजा रहा है। मनुष्य की आधुनिक जीवन शैली कवि की चिंता का विषय बन गई हैं इस जीवन-शैली में वसंत जैसी मादक ऋतु भी लोगों के आद्धादित नहीं कर पाती। वसंत पंचमी का पता भी उसे दफ्तर की छुट्टी से ही लगता है। पेड़ों से पत्तों का गिरना, नई कोंपलों का फूटना, हवा का बहना, ढाक-वन का सुलगना, कोयल-भ्रमर की मस्ती आदि पर आज के मनुष्य की निगाह का न जाना चिंता का विषय है। हमें प्रकृति-सौंदर्य का भरपूर आनंद उठाना चाहिए।

प्रश्न 3.
‘वसंत आया’ कविता में वसंत के आने के बारे में कवि की कल्पना और जानकारी क्या थी?
उत्तर :
कवि की कल्पना यह थी कि वसंत में ढाक के वन दहकने लगेंगे, आम बौर आएँगे। नंदन वन फल-फूलों से लद जाएँगे। वसंत आगमन की सूचना कवि को प्रकृति में आए परिवर्तनों से मिली। बंगले के पीछे के पेड़ पर चिड़िया कुहकने लगी, सड़क के किनारे की बजरी पर पेड़ों से गिरे पीले पत्ते पाँव के नीचे आकर चरमराने लगे, सुबह छह बजे खुली ताजा गुनगुनी हवा आई और फिरकी की तरह घूमकर चली गई। फुटपाथ के चलते हुए कवि ने इन परिवर्तनों को देखा और इनके प्रभाव का अनुभव किया। उन्हीं से उसे वसंत के आगमन की सूचना मिली।

प्रश्न 4.
‘वसंत आया’ कविता की मूल संवेदना स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘वसंत आया’ कविता में कवि की चिता यह है कि मनुष्य का प्रकृति से नाता टूट गया है, यह अच्छी बात नहीं है। लोगों का जीवन इतना व्यस्त और मशीनी हो गया है कि वह प्रकृति में आ रहे परिवर्तनों को न तो देख पाता है और न अनुभव कर पाता है। वह संवेदनहीन होता चला जा रहा है। मनुष्य की आधुनिक जीवन शैली कवि की चिंता का विषय बन गई है। इस जीवन-शैली में वसंत जैसी मादक ऋतु भी लोगों को आछ्धादित नहीं कर पाती। वसंत पंचमी का पता भी उसे दफ्तर की छुट्यी से ही लगता है। पेड़ों से पत्तों का गिरना, नई कोंपलों का फूटना, हवा का बहना, ढाक-वन का सुलगना, कोयल-भ्रमर की मस्ती आदि पर आज के मनुष्य की निगाह का न जाना चिंता का विषय है। हमें प्रकृति-सौंदर्य का भरपूर आनंद उठाना चाहिए। कवि इस बात के लिए चिंतित है कि मनुष्य का प्रकृति से एकात्मकता का संबंध समाप्त होता जा रहा है। इसे पुन: स्थापित किया जाना आवश्यक है।

प्रश्न 5.
‘वसंत आया’ कविता में कवि की चिंता क्या है?
उत्तर :
आज मनुष्य का नाता प्रकृति से टूट रहा है, यही कवि की मुख्य चिंता है। उसे ऋतु परिवर्तन का ज्ञान प्राकृतिक परिवर्तनों को देखकर महसूस करके नहीं अपितु कैलेंडर को देखकर होता है। उसे वसंत पंचमी का आगमन प्रकृति के सानिध्य में रहकर पत्तों का झड़ना, नई कोंपलों का फूटना, सुर्गंधित मंद समीर का बहना, ढाक के जंगलों का दहकना, कोयलों का कुहुकना आदि को देखकर नहीं होता, वह कैलेंडर देखकर जानता है कि आज वसंत पंचमी है।

प्रश्न 6.
‘वसंत आया’ कविता में “कवि ने आज के मनुष्य की जीवन-शैली पर व्यंग्य किया है।” इस कथन पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
‘वसंत आया’ शीर्षक कविता रघुवीर सहाय द्वारा रचित है। यह कविता व्यंग्य शैली में रची गई है। इस कविता में कवि उस स्थिति पर अपनी चिंता प्रकट करता है जिसमें आज के मनुष्य का प्रकृति से रिश्ता टूट गया है। अब मनुष्य वसंत के आगमन का अनुभव ही नहीं कर पाता है। वह उसे कैलेंडर या कविताओं के माध्यम से जानता है। ऋतुओं में परिवर्तन तो पहले की तरह ही होते रहते हैं। इस ऋतु में पत्ते झड़ते हैं, कोपलें फूटती हैं, नए पत्ते आते हैं, हवा बहती है, ढाक के जंगल दहकते हैं, कोयल-भ्रमर अपनी मस्ती में झूमते हैं, पर हमारी निगाह उन पर नहीं जा पाती। हम प्रकृति-सौंदर्य के प्रति निरपेक्ष बने रहते हैं। इस कविता में आधुनिक जीवन-शैली की विडंबना को रेखांकित किया गया है। मनुष्य को प्रकृति के साथ अंतरंगता बनाए रखनी चाहिए।

प्रश्न 7.
‘तोड़ो’ कविता के प्रतिपाद्य को लिखिए और बताइए कि कवि तोड़ने की प्रक्रिया में क्यों विश्वास करता है?
उत्तर :
‘तोड़ो’ उद्बोधन कविता प्रतीत होती है। इसमें कवि सृजन हेतु भूमि को तैयार करने के लिए चट्टानें, ऊसर और बंजर को तोड़ने का आह्वान करता है। परती को खेत में बदलना सृजन की आरंभिक परन्तु अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। यहाँ कवि विध्वंस के लिए नहीं उकसाता। वरन सृजन के लिए प्रेरित करता है। कविता का ऊपरी ढाँचा सरल प्रतीत होता है, परन्तु प्रकृति से मन की तुलना करते हुए कवि ने इसको नया आयाम दे दिया है। यह बंजर प्रकृति में है तो मानव-मन में भी है। कवि मन में व्याप्त ऊब तथा खीज को भी तोड़ने की बात करता है अर्थात् उसे भी उर्वर बनाने की बात करता है। मन के भीतर की ऊब सृजन में बाधक है। कवि सृजन का आकांक्षी है इसलिए उसको दूर करने की बात में विश्वास करता है।

प्रश्न 8.
‘तोड़ो’ कविता में कवि विध्वंस के लिए नहीं उकसाता, वरन सृजन के लिए प्रेरित करता है। टिप्पणी कीजिए।
उत्तरः
‘तोड़ो’ कविता में कवि किसी प्रकार के विध्वंस की बात नहीं करता बल्कि वह तो सृजन अर्थात् नव-निर्माण के लिए उपयुक्त भूमि निर्माण करने की प्रेरणा देता है। वह तो चट्टानों और ऊसर भूमि को तोड़ने की बात करता है ताकि सृजन की प्रक्रिया शुरू की जा सके। यह आरंभिक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। इस कविता का कवि विध्वंस के लिए नहीं उकसाता वरन् सृजन के लिए प्रेरित करता है। कवि ने प्रकृति से मन की तुलना करके इसको नया आयाम दे दिया है। बंजर प्रकृति के साथ-साथ मन में भी होता है। कवि मन में समाई ऊब और खीझ को तोड़ने की बात करता है। मन के भीतर की ऊब सृजन में बाधक है। कवि सृजन का आकांक्षी है। कवि मन के बारे में प्रश्न उठाकर आगे बढ़ जाता है।

प्रश्न 9.
‘तोड़ो’ कविता में पत्थर और चट्टानें किसके प्रतीक हैं? कवि उन्हें तोड़ने का आहूवान क्यों करता है?
उत्तर :
‘तोड़ो’ कविता में ‘पत्थर’ और ‘चट्टान’ शब्द रूकावटों (बाधाओं) के प्रतीक हैं। ये जीवन-मार्ग में आने वाली रुकावटें हैं। इनको तोड़ना आवश्यक है। ये सृजन में बाधक हैं। ‘तोड़ो’ कविता में कवि सृजन हेतु भूमि को तैयार करने के लिए चट्टानें, ऊसर और बंजर को तोड़ने का आह्नान करता है। परती को खेत में बदलना सृजन की आरंभिक परंतु अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। यहाँ कवि विध्वंस के लिए नहीं उकसाता वरन सृजन के लिए प्रेरित करता है। कविता का ऊपरी ढाँचा सरल प्रतीत होता है, परंतु प्रकृति से मन की तुलना करते हुए कवि ने इसको नया आयाम दे दिया है। यह बंजर प्रकृति में है तो मानव-मन में भी है। कवि मन में व्याप्त ऊब तथा खोज को भी तोड़ने की बात करता है अर्थात् उसे भी उर्वर बनाने की बात करता है। मन के भीतर की ऊब सृजन में बाधक है। कवि सृजन का आकांक्षी है इसलिए उसको दूर करने की बात करता है। इसलिए कवि मन के बारे में प्रश्न उठाकर आगे बढ़ जाता है। इससे कविता का अर्थ विस्तार होता है।

प्रश्न 10.
‘तोड़ो’ कविता में कवि मन में व्याप्त ऊब तथा खीज को तोड़ने की बात क्यों कहता है? उसे स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘तोड़ो’ उद्बोधन कविता प्रतीत होती है। इसमें कवि सृजन हेतु भूमि को तैयार करने के लिए चट्टानें, ऊसर और बंजर को तोड़ने का आह्वान करता है। परती को खेत में बदलना सृजन की आरंभिक परन्तु अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। यहाँ कवि विध्वंस के लिए नहीं उकसाता वरन सृजन के लिए प्रेरित करता है। कविता का ऊपरी ढाँचा सरल प्रतीत होता है, परन्तु प्रकृति से मन की तुलना करते हुए कवि ने इसको नया आयाम दे दिया है। यह बंजर प्रकृति में है तो मानव-मन में भी है। कवि मन में व्याप्त ऊब तथा खीज को भी तोड़ने की बात करता है अर्थात् उसे भी उर्वर बनाने की बात करता है। मन के भीतर की ऊब सृजन में बाधक है। कवि सृजन का आकांक्षी है इसलिए उसको दूर करने की बात कहता है। कवि मन के बारे में प्रश्न उठाकर आगे बढ़ जाता है। इससे कविता के अर्थ का विस्तार होता है।

प्रश्न 11.
‘वसंत आया’ कविता में कवि ने आज के मनुष्य की जीवन-शैली पर व्यंग्य किया है।’-इस कथन की पुष्टि उदाहरण देकर कीजिए।
उत्तर :
‘वसंत आया’ कविता में कवि ने आज के मनुष्य की जीवन-शैली पर करारा व्यंग्य किया है। आधुनिक जीवन-शैली में मनुष्य और प्रकृति के बीच दूरी बढ़ती चली जा रही है। मनुष्य का प्रकृति के साथ रिश्ता टूटता जा रहा है। इस रिश्ते को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है। आज का मनुष्य इतना व्यस्त हो गया है कि उसे वसंत के आगमन का पता, प्रकृति के परिवर्तनों से नहीं, कलैंडर से चलता है। आज का मानव प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों के प्रति निरपेक्ष बना रहता है। उसे पौधों पर कोपलों के फूटने, ढाक-वन में पलाश के दहकने, भ्रमरों की गुंजार का पता ही नहीं चल पाता। यही आज के जीवन की विडंबना है।

प्रश्न 12.
‘तोड़ो’ कविता के माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाहता है ?
उत्तर :
‘तोड़ो’ कविता के माध्यम से कवि यह संदेश देना चाहता है कि सृजन हेतु मन की ऊब और खीज को मिटाना होगा। ये दोनों तत्त्व सृजन-कार्य में बाधक हैं। कवि इसे धरती के माध्यम से समझता है। जिस प्रकार बंजर धरती से पत्थर और चट्टानों को हटाना जरूरी है, उसी प्रकार मन को सृजन हेतु तैयार करने के लिए उससे ऊब और खीज को हटाना जरूरी है। कवि कहता है कि पत्थरों और चट्टानों को तोड़ने के बाद ही हम धरती को उर्वर बना सकते हैं। इसके अंदर दबे रस को पहचान सकते हैं। इसी प्रकार हमें मन की अरुचि और नीरसता को दूर कर उसे सर्जनात्मक बनाना होगा। मन में व्याप्त झुँझलाहट और कुढ़न को समूल नष्ट करके ही मन के उदात्त भावों को उभारा जा सकता है। तभी सृजनात्मक शक्ति प्रस्सुटित होती है।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 7 Question Answer भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 7 भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद

Class 12 Hindi Chapter 7 Question Answer Antra भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद

भरत-राम का प्रेम – 

प्रश्न 1.
‘हारेंहु खेल जितावहिं मोही’ भरत के इस कथन का क्या आशय है ?
उत्तर :
भरत के इस कथन का आशय है कि श्रीराम में बचपन से ही बड़प्पन की भावना थी। वे अपने छोटे भाइयों को अत्यधिक स्नेह करते थे। वे कभी भी उनका दिल दुखी नहीं करते थे। खेल खेलते समय भी वे जानबूझ कर इसलिए हार जाते थे ताकि भरत के दिल को चोट न पहुँचे। वे भरत को जान-बूझकर जिता देते थे, जिससे उसका उत्साह बढ़ा रहे। जहाँ राम अपने अनुज के प्रति स्नेह रखते थे वहीं भरत के मन में बड़े भाई राम के प्रति कृतजता का भाव है। वे उस भाव का ही यहाँ प्रकटीकरण कर रहे हैं।

प्रश्न 2.
‘मैं जानड़ं निज नाथ सुभाऊ’ में राम के स्वभाव की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है ?
अथवा
तुलसीदास के भरत-राम का प्रेम पद में भरत ने राम के स्वभाव की किन विशेषताओं का उल्लेख किया है?
उत्तर :
इस काव्य-पंक्ति में राम के स्वभाव की निम्नलिखित विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है :

  • राम तो अपराधी व्यक्ति तक पर क्रोध नहीं करते, फिर सामान्य व्यक्ति पर क्रोध करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
  • भरत पर उनकी विशेष कृपा रहती थी क्योक वे उनके अनुज थे।
  • राम तो खेलने में भी कभी खुनिस नहीं निकालते थे। वे अपनी अप्रसन्नता प्रकट नहीं करते थे।
  • राम ने बचपन से ही उनका साथ दिया है।
  • वे के कभी भरत का दिल नहीं दुःखा सकते थे। अतः खेल में जीतकर भी हार जाते थे और भरत को जिता देते थे।

प्रश्न 3.
भरत का आत्म परिताप उनके चरित्र के किस उज्ज्वल पक्ष की ओर संकेत करता है ?
उत्तर :
भरत अपनी माता द्वारा की गई भयंकर भूल के लिए स्वयं परिताप करते हैं। वे इस दुखद स्थिति के लिए स्वयं को दोषी ठहराते हैं। वे माता को दोषी और स्वयं को साधु के रूप में नहीं दर्शाना चाहते। वे इस स्थिति को अपने पापों का परिणाम बताते हैं। वह अपने माता के प्रति कटु वचनों के लिए भी पछताते हैं और कहते हैं कि मैंने उनको कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया। इस प्रकार भरत का आत्म परिताप दोहरा है। वह अपने स्वामी राम के समक्ष भी अपना परिताप करते हैं और माता कैकेयी के प्रति कहे गए कटु वचनों के लिए भी परिताप करते हैं। वे कहते हैं कि मैं ही सब अनर्थों का मूल हूँ। वे तो इतना दारुण दुःख झेलकर स्वयं के जीवित रह जाने पर भी हैरानी प्रकट करते हैं। भरत का यह आत्म परिताप उनके हुदय की पवित्रता तथा बड़े भाई के प्रति अथाह प्रेम एवं श्रद्धा के उज्ज्वल पक्ष की ओर संकेत करता है।

प्रश्न 4.
राम के प्रति अपने श्रद्धा भाव को भरत किस प्रकार प्रकट करते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भरत के मन में अपने बड़े भाई राम के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव है। वे उनके समक्ष खड़े होकर पुलकित हो जाते हैं तथा श्रद्धा भाव की अधिकता के कारण उनके नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़-सी आ जाती है। वे अपने बड़े भाई को श्रद्धावश बार-बार स्वामी कहते हैं। वे प्रभु के स्वभाव की विशेषताओं का उल्लेख करके उनके प्रति अपने श्रद्धा भाव की अभिव्यक्ति करते हैं। वे सीताराम को देखकर अच्छे परिणाम की उम्मीद करते हैं। वे वन में श्रीराम की दशा देखकर अत्यंत व्याकुल होते हैं। उनकी यह व्याकुलता राम के प्रति श्रद्धा रखे के कारण ही तो है।

प्रश्न 5.
‘मही सकल अनरथ कर मूला’ पंक्ति द्वारा भरत के विचारों-भावों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस पंक्ति के द्वारा भरत के विचार-भावों के बारे में यह पता चलता है कि भरत पृथ्वी पर होने वाले सभी अनर्थों के लिए स्वयं को दोषी मानते हैं। उनके मन में प्रायश्चित की भावना है। वे स्वयं को अपराधी की भाँति मानते हैं। इस पंक्ति से यह भी पता चलता है कि उनके मन में किसी के प्रति कलुष भाव शेष नहीं रह गया है। वे तो माता कैकेयी को कहे गए अपने कटु वचनों के लिए भी खेद प्रकट करते हैं। वे सारा दोष अपने ऊपर ले लेते हैं। यह उनके हृदय की विशालता का परिचायक है।

प्रश्न 6.
‘फरै कि कोदव बलि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।’-पंक्ति में छिपे भाव और शिल्प-सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव : भरत यह दृष्टांत देकर यह स्पष्ट करना चाहते हैं जिस प्रकार कोदों की बाली में उत्तम धान (चावल) नहीं फल सकता और तालाब की काली घोंघी में मोती नहीं बनता, उसी प्रकार अच्छी बात या वस्तु के लिए वातावरण की पवित्रता आवश्यक है। गलत स्थान पर गलत किस्म की चीज ही उत्पन्न होती है। भरत के इस कथन से उसके चरित्र की उदात्र भावना प्रकट होती है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • दृष्टांत अलंकार का सटीक प्रयोग किया गया है।
  • ‘कि कोदव’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • अवधी भाषा प्रयुक्त है।
  • चौपाई छंद है।

पद –

प्रश्न 1.
राम के वन-गमन के बाद उनकी वस्तुओं को देखकर माँ कौशल्या कैसा अनुभव करती हैं ? अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।
उत्तर :
राम के वन-गमन के बाद उनकी वस्तुओं को देखकर माँ कौशल्या अत्यंत भावुक हो उठती हैं। वह व्याकुलता का अनुभव करती हैं। राम से संबंधित वस्तुएँ उन्हें पुत्र राम का स्मरण करा देती हैं। वह राम के धनुष-बाण को देखती हैं, राम की जूतियों को देखती हैं और भावविहललता वश उन्हें अपने हृदय और नेत्रों से लगाती हैं। राम के घोड़े भी उन्हें आर्शंकित कर देते हैं कि कहीं वे मर न जाएँ क्योंकि वे दिन-प्रतिदिन दुर्बल होते जा रहे हैं।

प्रश्न 2.
‘रहि चकि चित्रलिखी-सी’ पंक्ति का मर्म
उत्तर :
इस पंक्ति का मर्म यह है कि राम का स्मरण करके माता कौशल्या चित्रवत् मनःस्थिति में आ जाती हैं। वह इधर-उधर हिलती-डुलती तक नहीं। वह चकित-सी रह जाती हैं। जिस प्रकार चित्र में कोई आकृति स्थिर रहती है, वही दशा कौशल्या की हो गई। जो कौशल्या अभी तक राम की वस्तुओं को देखकर और राम के बचपन का स्मरण करके मुग्धावस्था में थी, वही राम के वन-गमन को याद करके स्थिर चित्र-सी हो जाती है।

प्रश्न 3.
गीतावली से संकलित पद ‘राघौ एक बार फिरि आवौ’ में निहित करुणा और संदेश को अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘राघौ एक बार फिरि आवौ’ में माता कौशल्या की करुणा और संदेश निहित है। माता कौशल्या इस पंक्ति के माध्यम से राम को पुनः अयोध्या लौटने का आग्रह करती हैं। अबकी बार वह अपने लिए न कहकर घोड़ों के लिए आने को कहती हैं। राम के वियोग में उनके अश्वों का दु:ख उससे देखा नहीं जाता और वे दिन-प्रतिदिन दुर्बल होते जा रहे हैं। अपने स्वामी राम के हाथों का स्पर्श पाकर वे भली प्रकार जी सकेंगे। इस पद में पशुओं के प्रति करुणा भाव दर्शाया गया है। इस पद में राघौ (रघुपति राम) को अयोध्या लौट आने का संदेश दिया गया है। हमारे लिए यह संदेश है कि पशुओं के प्रति भी हमें दया का भाव रखना चाहिए।

प्रश्न 4.
(क) उपमा अलंकार के दो उदाहरण छाँटिए।
उत्तर :
उपमा अलंकार के दो उदाहरण –
1. रहि चकि चित्रलिखी-सी
2. लागति प्रीति सिखी-सी।

(ख) उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग कहाँ और क्यों किया गया है ? उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जब उपमेय में उपमा की संभावना प्रकट की जाती है तब उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग माना जाता है।
‘गीतावली’ से संकलित दूसरे पद में अश्वों की मुरझाई दशा में हिम की मार झेलते कमलों की संभावना प्रकट की गई है’…’मनहुँ कमल हिममारे।’

प्रश्न 5.
पठित पदों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि तुलसीदास का भाषा पर पूरा अधिकार था।
उत्तर :
हमने ‘गीतावली’ के दो पद पढ़े हैं। इन पदों को पढ़कर पता चलता है कि तुलसी का भाषा पर पूरा अधिकार है। उन्होंने जहाँ ‘रामचरितमानस’ में अवधी भाषा का प्रयोग किया है वहीं गीतावली में ब्रज भाषा का प्रयोग हुआ है। तुलसीदास का अवधी और ब्रज-दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। ‘गीतावली’ की रचना उन्होंने पद-शैली में की है।
गीतावली के पदों की भाषा में ब्रजभाषा का माधुर्य उभर कर आया है। उन्होंने इन पदों की भाषा में अलंकारों का सटीक प्रयोग किया है।
उदाहरणार्थ : उपमा अलंकार – चित्रलिखी-सी, सिखी-सी
अनुप्रास अलंकार – बंधु बोलि, चकि चित्रलिखी
उत्रेक्षा अलंकार – “मनहु कमल हिम मारे
तुलसी की भाषा में भावों की गहराई है।

प्रश्न 6.
पाठ के किन्हीं चार स्थानों पर अनुप्रास के स्वाभाविक एवं सहज प्रयोग हुए हैं, उन्हें छाँटकर लिखिए।
उत्तर :
अनुप्रास अलंकार के चार प्रयोग स्थल –

  1. नीरज नयन नेह जल बाढ़े। (‘न’ वर्ण की आवृत्ति)
  2. प्रेम प्रपंचु कि” (‘प’ वर्ण की आवृत्ति)
  3. दुसह दुःख दैव सहावइ (‘द’ वर्ण की आवृत्ति)
  4. ज्यों जाइ जगावत” (‘ज़’ वर्ण की आषृत्ति)

योग्यता विस्तार –

1. ‘महानता लाभ-लोभ से मुक्ति तथा समर्पण, त्याग से हासिल होती है’ को केंद्र में रखकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।

महानता हासिल करने के लिए लोभ से मुक्ति पाना आवश्यक है। अपने कार्य के प्रति समर्पण तथा दूसरों के लिए त्याग की भावना भी आवश्यक है। महानता ऐसे ही नहीं मिल जाती। इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। लोभ से छुटकारा पाना तथा दूसरों के लिए त्याग करना ही इसकी कीमत है।

2. भरत के त्याग और समर्पण के अन्य प्रसंगों को भी जानिए।

भरत ने अयोध्या के राजसिंहासन पर भाई राम की चरण-पादुकाएँ रखकर ही राज-काज चलाया। कभी स्वयं को अयोध्या का राजा नहीं माना। उन्होंने अत्यंत साधारण जीवन बिताया। वे राम के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे। वन से लौटने पर उन्हीं को अयोध्या की सत्ता सौंप दी।

3. आज के संदर्भ में राम और भरत जैसा भातृप्रेम क्या संभव है ? अपनी राय लिखिए।

यद्यपि आज सर्वत्र स्वार्थ का बोल-बाला है फिर भी राम और भरत जैसे भातृप्रेम की संभावना को सिरे से नकारा नहीं जा सकता। कई स्थानों पर भाई-भाइयों में गहरा प्रेम देखा जा सकता है।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 7 भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न – 

प्रश्न 1.
निम्नलिखित काव्यांशों में निहित भाव-सौंदर्य और शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
(क) पुलकि समीर सभाँ भए ठाढे।
नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥
उत्तर :
भाव-सौंदर्य : इस चौपाई में भरत की मनोदशा का मार्मिक चित्रण हुआ है। मुनि वशिष्ठ के परामर्श पर भरत अपनी बात कहने के लिए जब प्रभु के राम के समक्ष खड़े होते हैं तो उनके शरीर में पुलक का अनुभव होता है। इस पुलक को समीर (वायु) की भॉँति बताया गया है। भरत की भावाकुल मनोदशा का पता उनकी आँखों में उमड़ती अश्रुधारा से भली प्रकार चल जाता है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • ‘पुलकि समीर’ में रूपक अलंकार का प्रयोग है।
  • नीरज नयन (कमल के समान नेत्र) में उपमा अलंकार है। (यहाँ वाचक शब्द लुप्त है।)
  • ‘नीरज नयन नेह’ में ‘न’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।.
  • अवधी भाषा प्रयुक्त है।
  • चौपाई छंद है।

(ख) फरै कि कोदव बालि सुसाली।
मुकुता प्रसव कि संबुक काली।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य : इस चौपाई में कवि ने दो दृष्टांत देकर अपने कथ्य को स्पष्ट किया है-
1. कोदों की बाली में अच्छा धान नहीं फलता।
2. तालाब की काली घोंघी में मोती उत्पन्न नहीं होता। कवि भरत के माध्यम से यह स्पष्ट करना चाहता है कि बड़ी चीज़ें बड़े स्थानों पर ही जन्म लेती हैं। तुच्छ वस्तु बड़ी चीज़ नहीं बना सकती। कवि ने यह बात माता कैकेयी के बुरे व्यवहार को ध्यान में रखकर ही कही है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • ‘मुकुता प्रसव’ में शिशु के जन्म की कल्पना की है।
  • ‘कि कोदव’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • दृष्टांत अलंकार का प्रयोग है।
  • भाषा-अवधी, छंद-चौपाई।

(ग) कबहुँ समुझि वन-गमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी।
उत्तर :
उपर्युक्त काव्य-पंक्ति में कवि तुलसी ने माता कौशल्या की मनोदशा का मार्मिक चित्रण किया है। माता को जब याद आता है कि राम तो वन को गया है तब वह चित्र के समान स्थिर हो जाती है। वह चकित होकर देखती रह जाती है।

  • ‘चकि चित्रलिखी’ में ‘च’ वर्ण की आवृत्ति है अतः अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘चित्रलिख-सी’ में उपमा अलंकार का सुंदर प्रयोग किया गया है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

(घ) जे पय च्याइ पोखि, कर-पंकज वार वार चुचुकारे।
उत्तर :
उपर्युक्त काव्य-पंक्ति में राम के अश्वों की दशा का उल्लेख है। उन अश्वों को पानी पिलाकर कमल जैसे कोमल हाथों से पुचकारा जाता है। इसके बावजूद इनकी दशा बिगड़ती जा रही है। ये राम के हाथों का स्पर्श चाहते हैं।

  • ‘पय प्याइ पोखि’ में ‘प’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘कर-पंकज’ में रूपक अलंकार है।
  • ‘वार वार’ में वीप्सा अलंकार है।
  • ब्रज भाषा प्रयुक्त हुई है।

(ङ) तेइ रघुनंदन लखनु सिय अनहित लागे जाहि। तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावड काहि॥
उत्तर :
भाव-सौंदर्य : यहाँ पर भरत की आत्म परिताप स्वयं पर कंटाक्ष के रूप में दर्शाया गया है। भरत स्वयं को अधम मानकर कष्ट सहने के लिए उपयुक्त मानते हैं। देव उस जैसे अधम को दुख देगा ही।

शिल्प-सौंदर्य :

  • ‘तासु तनय तजि’ में ‘त’ वर्ण की आवृत्ति तथा ‘ दुसह दुख दैउ’ में ‘द’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
  • शब्द चयन जटिल किंतु प्रभावोत्पादक है।
  • अवधी भाषा की दुरूहता लक्षित होती है।
  • दोहा, छंद प्रयुक्त है।

(च) भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे। तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे॥
उत्तर :
माता कौशल्या राम के अश्व की दुर्दशा के बहाने अपने मन की व्यथा को व्यंजित करती है। यद्यपि भरत उसकी सौ गुनी देखभाल करते हैं पर आपका यह घोड़ा मुरझाता चला जा रहा है। लगता है मानो कमल पर हिमपात हो गया है।

  • ‘तदपि …. मारे’ में उत्र्रेक्षा अलंकार है ।
  • ‘सौगुनी सार’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • भाषा ब्रज है।

(छ) भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे। तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे।।
उत्तर :
माता कौशल्या राम के अश्व की दुर्दशा के बहाने अपने मन की व्यथा को व्यंजित करती है। यद्यपि भरत उसकी सौ गुनी देखभाल करते हैं पर आपका यह घोड़ा मुरझाता चला जा रहा है। लगता है मानो कमल पर हिमपात हो गया है।

  • ‘तदपि …. मारे’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
  • ‘सौगुनी सार’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • भाषा ब्रज है।

(ज) जननी निरखति बान धनुहियाँ।
बार-बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ।
कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय वचन सवारे।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य : माता कौशल्या राम के बचपन की चीजों को देखकर और स्मरण करके अत्यंत व्याकुल हो जाती हैं। ये चीजें उनकी वेदना को बढ़ाने में उद्दीपन का काम करती हैं। वे श्रीराम के बचपन के छोटे-छोटे धनुषबाण को देखती हैं। श्रीराम की शैशवकालीन जूतियों को देखकर उन्हें बार-बार अपने हृदय और नेत्रों से लगाती हैं। वे यह भूल जाती हैं कि अब उनके पुत्र श्रीराम यह नहीं हैं और वे पहले की तरह प्रिय वचन बोलती हुई राम के शयन कक्ष में जाती हैं और उन्हें जगाते हुए कहती हैं हे पुत्र। उठो। तुलसीदास जी का कहना है कि माता कौशल्या की इस स्थिति का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उनकी हालत तो उस मोरनी के समान है जो प्रसन्न होकर नाचती रहती है पर जब अंत में वह अपने पैरों की ओर देखती हैं तो रो पड़ती है। यही दशा कौशल्या का है।

शिल्प सौंदर्य :

  • माता कौशल्या की अर्धविक्षिप्तावस्था का मार्मिक चित्रण हुआ है।
  • वात्सल्य रस का प्रभावी चित्रण है।
  • बार-बार में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार हैं।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

(झ) निम्नलिखित दोहे का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए:
तेइ रघुनंदन लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुःख दैउ सहावइ काहि।।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य – यहाँ भरत का परिताप व्यंजित हुआ है। इसमें वे कटाक्ष भी करते जान पड़ते हैं। वे स्वयं को दुख का भागी मानते हैं क्योंकि वे उसी माता कैकेयी के पुत्र हैं जिसे रघुनंदन राम, लक्ष्मण और सीता शत्रु मालूम हुए। अतः दैव मुझे ही कठिन दुख सहावेगा।

शिल्प-सौंदर्य –

  • ‘तनय तजि’ तथा’ दुसह दुख’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • दोहे की भाषा अवधी है, पर उसमें तत्सम शब्दों (तनय, दुसह) का मणिकांचन संयोग है।
  • शब्द-चयन जटिल पर प्रभावशाली है।
  • भाषा, भाव, अलंकार के गुंफन के कारण यह दोहा शिल्प की दृष्टि से विशिष्ट बन पड़ा है।

अन्य प्रश्न –

प्रश्न 1.
राम के जूतों को देखकर कौशल्या पर क्या प्रतिक्रिया होती है?
उत्तर :
राम वनवास को चले गए। कौशल्या उनकी चीजों को देखकर व्याकुल हो जाती है। वह राम की सुंदर जूतियों को कभी आँखों से छूती है और कभी उसे हृदय से लगा लेती है। जूतों के माध्यम से कौशल्या को राम की निकटता, स्पर्श, महसूस होता है। ये जूते राम की स्मृति के लिए उद्दीपन का कार्य करते हैं।

प्रश्न 2.
भरत और राम के प्रेम को वर्तमान के लिए आप कितना प्रासंगिक मानते हैं?
उत्तर :
भरत और राम के काल को आस्था और विश्वास का काल कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। लोग परस्पर प्रेम-सौहार्द्र बनाए हुए भातृवत रहते थे। दो सहोदर भाइयों में यह भावना और भी घनिष्ठ हुआ करती थी। भरत और राम का परस्पर प्रेम सराहनीय और अनुकरणीय था। वर्तमान युग भौतिकवादी है। लोग धन के लिए हर अच्छे-बुरे कर्म करने को तैयार हैं। ज़मीन-ज़ायदाद के लिए भाई-भाई की हत्या करता है। रिश्ते-नाते अपनी मर्यादा खोते जा रहे हैं। ऐसे समय में भरत और राम का प्रेम और भी प्रासंगिक हो जाता है। यदि सभी मनुष्य ऐसा ही प्रेम करने लगे तो बहुत-सी सामाजिक समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी।

प्रश्न 3.
पठित कविता के आधार पर तुलसी की काव्य-भाषा पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
हमारी पाठ्यपुस्तक ‘रामचरितमानस’ के अयोध्या कांड का कुछ अंश तथा ‘गीतावली’ के दो पद संकलित हैं। इनके आधार पर तुलसी की काव्य भाषा के बारे में यह कहा जा सकता है कि भाषा पर तुलसी का असाधारण अधिकार है। तुलसीदास ने क्रज एवं अवधी दोनों भाषाओं का अधिकारपूर्ण प्रयोग किया है। ‘रामचरितमानस’ में अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है, तो ‘कवितावली’, ‘गीतावली’, ‘ दोहावली’ और ‘विनयपत्रिका’ में ब्रजभाषा प्रयुक्त हुई है। तुलसी की भाषा सुगठित, भावानुकूल तथा परिमार्जित है। उनकी काव्यगत विशेषताएँ इस प्रकार हैं –

1. अलंकार विधान : तुलसीदास ने काव्य में भावों का उत्कर्ष करने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया है। उन्होंने रूपक, सांगरूपक, रूपकातिशयोक्ति, उपमा, उत्र्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं –

  • उपमा अलंकार : चित्रलिखी-सी, सिखी-सी
  • रूपक अलंकार : कर-पंकज
  • उत्र्रेक्षा अलंकार : मनहुँ कमल हिममारे
  • अनुप्रास अलंकार : बाजि बिलोकि, नीरज नयन, मातु
  • मंदि दृष्टांत : मुकुता ‘काली

2. छंद-विधानः तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में चौपाई-दोहा छंद शैली को अपनाया है। ‘गीतावली’ में पद है। अन्य काव्यों में सवैया और छप्पय छंद भी अपनाए गए हैं।

3. काव्य-रूप : तुलसीदास ने प्रबंध एवं मुक्तक दोनों काव्य-रूपों में रचना की। ‘रामचरितमानस’ प्रबंध काव्य है तो ‘दोहावली’, ‘गीतावली’ मुक्तक शैली में हैं।

प्रश्न 5.
व्याख्या कीजिए :
मातु मंबि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली॥ फरइ कि कोदब बालि सुसाली। मुकुता प्रसब कि संबुक काली।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू॥ बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारेउँ जायं जननि कहि काकू॥
व्याख्या : भाव विद्धल होकर भरत कहते हैं कि मुझे आज यह कहना शोभा तो नहीं देता क्योंकि अपनी समझ में कौन साधु और कौन पवित्र है, यह कहा नहीं जा सकता। इसका निर्णय दूसरे लोग ही करते हैं अर्थात् माता नीच है और मैं सदाचारी या साधु हूँ. ऐसी बात हृदय में लाना भी करोड़ों दुराचारों के समान है । मैं स्वप्न में भी किसी को दोष देना नहीं चाहता। क्या कोदों की बाली से उत्तम धान पैदा हो सकता है ? क्या काली घोंघी उत्तम कोटि के मोती उत्पन्न कर सकती है ? अर्थात् नहीं। वास्तव में मेरा दुर्भाग्य ही अथाह समुद्र और प्रबल है। मैंने अपने पूर्व जन्म के पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर उन्हें बहुत जलाया या दुखी किया है।

विशेष :

  1. भरत जी अपनी इस स्थिति के लिए विधाता को दोषी ठहराते हैं।
  2. दृष्टांत अलंकार (मुकुता ……. काली) का सटीक प्रयोग है ।
  3. अनेक स्थलों पर अनुप्रास अलंकार की छटा है-मातु मंदि, समुझि साधु, सुचि, जारहिं जायँ जननि, गुरु गोसाँइ, साहिब सिय आदि।
  4. भाषा : अवधी।
  5. छंद : चौपाई-दोहा।
  6. रस : करुण रस।

प्रश्न 6.
राम के वन-गमन के बाद उनकी माँ की दशा का वर्णन तुलसीदास के पद के आधार पर कीजिए।
उत्तर :
राम के वन-गमन के बाद उनकी वस्तुओं को देखकर माँ कौशल्या अत्यंत भावुक हो उठती हैं। वह व्याकुलता का अनुभव करती हैं। राम से संबंधित वस्तुएँ उन्हें पुत्र राम का स्मरण करा देती हैं। वह राम के धनुष-बाण को देखती हैं, राम की जूतियों को देखती हैं और हृदय तथा नेत्रों से लगाती हैं। माता कौशल्या चित्रवत् मनःस्थिति में आ जाती हैं। वह इधर-उधर हिलती-डुलती तक नहीं। वह चकित-सी रह जाती हैं। जिस प्रकार चित्र में कोई आकृति स्थिर रहती है, वही दशा कौशल्या की हो गई। जो कौशल्या अभी तक राम की वस्तुओं को देखकर और राम के बचपन का स्मरण करके मुग्धावस्था में थी, वही राम के वन-गमन को याद करके स्थिर चित्र-सी हो जाती हैं।

प्रश्न 7.
‘गीतावली’ के पद ‘जननी निरखति बान ध नुहियाँ” के आधार पर राम के वन-गमन के पश्चात् माँ कौशल्या की मनःस्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
माता कौशल्या राम के बचपन की चीजों को देखकर और स्मरण करके अत्यंत व्याकुल हो जाती हैं। ये चीजें उनकी वेदना को बढ़ाने में उद्दीपन का काम करती हैं। वे श्रीराम के बचपन के छोटे-छोटे धनुष बाण को देखती हैं। श्रीराम की शैशवकालीन जूतियों को देखकर उन्हें बार-बार अपने हुदय और नेत्रों से लगाती हैं। वे यह भूल जाती हैं कि अब उनके पुत्र श्रीराम यहाँ नहीं हैं और वे पहले की तरह प्रिय वचन बोलती हुई राम के शयन कक्ष में जाती हैं और उन्हें जगाते हुए कहती हैं-हे पुत्री ! उठो। तुम्हारी माता तुम्हारे मुख पर बलिहारी जाती है। उठो, दरवाजे पर तुम्हारे सभी सखा और अनुज खड़े होकर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। कभी वे कहती हैं-भैया, महाराज के पास जाओ, तुम्हें बहुत देर हो गई है। अपने भाइयों तथा साथियों को बुला लो, जो रुचिकर लगे वह खा लो। तुम्हारी माँ तुम पर न्यौछावर जाती है। किन्तु जैसे ही उनको स्मरण होता है कि राम यहाँ नहीं हैं, वे तो वन को चले गए हैं, तब वे चित्रवत् होकर रह जाती हैं अर्थात् चित्र के समान स्तब्ध और चकित रह जाती हैं।

प्रश्न 8.
‘गीतावली’ में संकलित पद ‘राधौ ! एक बार फिरि आवौ’ में निहित करुणाजनक संदेश को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
‘राधौ एक बार फिरि आवौ’ में माता कौशल्या की करुणा और संदेश निहित है। माता कौशल्या इस पंक्ति के माध्यम से राम को पुनः अयोध्या लौटने का आग्रह करती हैं। अब की बार वह अपने लिए न कहकर घोड़ों के लिए आने को कहती हैं। राम के वियोग में उनके अश्वों का दु:ख उससे देखा नहीं जाता और वे दिन-प्रतिदिन दुर्वल होते जा रहे हैं। अपने स्वामी राम के हाथों का स्पर्श पाकर वे भली प्रकार जी सकेंगे। इस पद में पशुओं के प्रति करुणा भाव दर्शाया गया है। इस पद में राघौ (रघुपति राम) को अयोध्या लौट आने का संदेश दिया गया है। हमारे लिए यह संदेश है कि पशुओं के प्रति भी हमें दया का भाव रखना चाहिए।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 8 Question Answer बारहमासा

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 8 बारहमासा

Class 12 Hindi Chapter 8 Question Answer Antra बारहमासा

प्रश्न 1.
अगहन मास की विशेषता बताते हुए विरहिणी (नागमती) की व्यथा-कथा का चित्रण अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर :
अगहन मास में दिन छोटे हो जाते हैं और रातें लंबी हो जाती हैं। विरहिणी नायिका के लिए ये लंबी रातें काटनी अत्यंत दुःखदायी होती हैं। रात के समय वियोग की पीड़ा अधिक कष्टदायक प्रतीत होती है। नागमती को तो दिन भी रात के समान प्रतीत होते हैं। वह तो विरहागिन में दीपक की बत्ती के समान जलती रहती है। अगहन मास की ठंड उसके हुदय को कँपा जाती है। इस ठंड को प्रियतम के साथ तो झेला जा सकता है, पर उसके प्रियतम तो बाहर चले गए हैं। जब वह अन्य स्त्रियों को सं-बिंगे वस्त्रों में सजी-धजी देखती है तब उसकी व्यथा और भी बढ़ जाती है। इस मास में शीत से बचने के लिए जगह-जगह आग जलाई जा रही है, पर विरहिणियों को तो विरह की आग ज़ला रही है। नागमती के हृदय में विरह की अग्नि जल रही है और उसके तन को दग्ध किए दे रही है।

प्रश्न 2.
‘जीयत खाइ मुएँ नहि छाँड़ा’ पंक्ति के संदर्भ में नायिका की विरह-दशा का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर :
नागमती (नायिका) विरह को बाज के समान बताती है। बाज नोंच-नोंच कर खाता है। यह विरह रूपी बाज भी नायिका के शरीर पर नजर गढ़ाए हुए है। वह उसे जीते-जी खा रहा है। उसे लगता है कि उसके मरने पर भी यह उसका पीछा नहीं छोड़ेगा। नायिका विरह-दशा को झेलते-झेलते तंग आ चुकी है। अब इसे सहना कठिन हो गया है। शीत में अकेले काँप-काँप कर वह मरी जा रही है। इस विरह के कारण नायिका के शरीर का सारा रक्त बहता चला जा रहा है। उसका सारा मांस गल चुका है और हड्डुयाँ शंख के समान सफेद दिखाई देने लगी हैं। वह प्रिय-प्रिय रटती रहती है। वह मरणासन्न दशा में है। वह चाहती है कि उसका पति आकर उसके पंखों को तो समेट ले।

प्रश्न 3.
माघ महीने में विरहिणी को क्या अनुभूति होती है?
उत्तर :
माघ मास में शीत चरमसीमा पर होता है। अब पाला पड़ने लगता है। दिरहिणी के लिए माघ मास के जाड़े में विरह को झेलना मृत्यु के समान प्रतीत होता है। पति के आए बिना माघ मास का जाड़ा उसका पीछा नहीं छोड़ेगा। अब विरहिणी नायिका के मन में काम भाव उत्पन्न हो रहा है, अतः उसे प्रिय-मिलन की इच्छा हो रही है। माघ मास में वर्षा भी होती है। वर्षा के कारण नायिका के कपड़े गीले हो जाते हैं और वे बाण के समान चुभते हैं। वियोग के कारण न तो वह रेशमी वस्त्र पहन पा रही है और न गले में हार पहन पाती है। विरह में वह सूखकर तिनके की भाँति हो गई है। विरह उसे जलाकर राख बनाकर उड़ा देने पर तुला प्रतीत होता है।

प्रश्न 4.
वृक्षों से पत्तियाँ तथा वनों से ढाँखें किस माह में गिरते हैं ? इससे विरहिणी का क्या संबंध है ?
उत्तर :
वृक्षों से पत्तियाँ तथा वनों से ढाँखें फागुन मास में गिरते हैं। इससे विरहिणी का यह संबंध है कि उसकी उदासी भी दुगुनी हो जाती है। उसकी आशाएँ भी पत्तों के समान झड़ती चली जा रही हैं। विरहिणी शरीर भी पत्ते के समान पीला पड़ता जा रहा है। विरहिणी नागमती का दु:ख तो दुगुना हो गया है। फागुन मास के अंत में वृक्षों पर तो नए पत्ते और फूल आ जाएँगे पर उस विरहिणी के जीवन में खुशियाँ कब लौट पाएँगी, यह अनिश्चित है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्तियों की व्याख्या कीजिए –
(क) पिय सो कहेहु संदेसरा ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि गई तेहिक धुआँ हम लाग।।
(ख) रकत ढरा माँसू गरा हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई आइ समेटहु पंख।।
(ग) तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई तन तिनुवर भा डोल।
नेहि पर बिरह जराई कै चहै उड़ावा झोल।।
(घ) यह तन जारौं छार कै कहौं कि पवन उड़ाउ।
मकु तेहि मारग होइ परौं कंत धरें जहँ पाउ।।
उत्तर :
(क) विरहिणी नागमती भौंरा और कौए के माध्यम से अपनी विरह-व्यथा का हाल प्रियतम तक ले जाने का आग्रह करती है। वह कहती है कि मेरे प्रियतम (राजा रत्नसेन) से जाकर कहना कि तुम्हारी पत्नी तो तुम्हारे विरह की अगिन में जल मरी। उसी आग से जो धुआँ उठा उसी के कारण हमारा रंग काला हो गया है। (अतिशयोक्ति)

(ख) विरहिणी नायिका नागमती कहती है कि विरह के कारण मेरे शरीर का सारा रक्त ढर गया (बह गया), मेरे शरीर का सारा मांस गल चुका है और सारी हड्डियाँ शंख के समान हो गई हैं। मैं तो सारस की जोड़ी की भाँति प्रिय को रटती हुई मरी जा रही हूँ। अब मैं मरणावस्था में हूँ। अब तो मेरे प्रिय यहाँ आकर मेरे पंखों को समेट लें।

(ग) विरहिणी नायिका अपनी दीन दशा का वर्णन करते हुए कहती है कि हे प्रिय! तुम्हारे बिना, मैं विरह में सूखकर तिनके के समान दुबली-पतली हो गई हूँ। मेरा शरीर वृक्ष की भाँति हिलता है। इस पर भी यह विरह की आग मुझे जलाकर राख बनाने पर तुली है। यह इस राख को भी उड़ा देना चाहता है अर्थात् मेरे अस्तित्व को मिटाने पर तुला है।

(घ) नागमती त्याग भावना को व्यंजित करने हुए कहती है कि पति के लिए मैं अपने शरीर को जलाकर राख बना देने को तैयार हूँ। पवन मेरे शरीर की राख को उड़ाकर ले जाए और मेरे पति के मार्ग में बिछा दे ताकि मेरा प्रियतम मेरी राख पर अपने पैर रख सके। इस प्रकार मैं भी उनके चरणों का स्पर्श पा जाऊँगी।

प्रश्न 6.
प्रथम दो छंदों में से अलंकार छाँटकर लिखिए और उनसे उत्पन्न काव्य-सौंदर्य पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
प्रथम दो छंदों में आए अलंकार प्रथम पद
सियरि अगिनि बिरहिनि जिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।

‘अग्न को सियरि ठंडी’ बताने में विरोधाभास अलंकार का प्रयोग है क्योंकि अग्नि शीतल नहीं होती।

  • दूभर दुख – अनुप्रास अलंकार
  • किमि काढ़ी – अनुप्रास अलंकार
  • घर-घर – पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार

‘जिय जारा’ में अनुप्रास अलंकार है। (‘ज’ वर्ण की आवृत्ति)
‘सुलगि सुलगि’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
‘जरै बिरह ज्यौं दीपक बाती ‘ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।

दूसरा पद –

  • बिरह सैचान (विरह रूपी बाज)-रूपक अलंकार (विरह को बाज के रूप में दर्शाया गया है।)
  • ‘रकत ‘संख’ में अतिशयोक्ति अलंकार है। (वियोग की पीड़ा का बढ़-चढ़कर वर्णन है।)
  • ‘सौर सुपेती,’ ‘बासर बिरह’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • कंत कहाँ – अनुप्रास अलंकार
  • ‘कॅपि काँप’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

योग्यता विस्तार –

1. पाठ में आए तत्सम और तद्भव शब्दों की सूची तैयार कीजिए।

तत्सम शब्द – तद् भव शब्द

दीपक – पीक
भँवरा – धुआँ
काग – सेज
चीर – हिय
वासर – सिंगार
कंत – साखा
रक्त – मारग
पवन – भैवर
विरह

2. किसी अन्य कवि द्वारा रचित विरह वर्णन की दो कविताएँ चुनकर लिखिए और अपने अध्यापक को दिखाइए।

(क) सूनी साँझ : शिवमंगल सिंह सुमन
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।
पेड़ खड़े फैलाए बाँहे
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधूलि! साथ नहीं हो तुम।
कुलबुल कुलबुल नीड़-नीड़ में
चहचह चहचह भीड़-भीड़ में
धुन अलबेली, साथ नहीं हो तुम।
जागी-जागी, सोई-सोई
पास पड़ी है खोई खोई
निशा लजीली, साथ नहीं हो तुम।

(ख) मीराबाई
दरस बिन दूखण लागे नैण।
जब तें तुम बिछुरे प्रभु मोरे! कबहुँ न पायो चैण।
बिरह कथा का सूँ कहूँ सजनी! बह गई करवत ऐण।
कल न परत पल हरि मग जोवत, भई छ-मासी रैण।
मीरा के प्रभु! कब रे मिलोगे, दुःख-मेटण सुख दैण।

(ग) विद्यापति
अनुखन माधव माधव सुमिरइते, सुंदरि भेलि मधाई।
ओ निज भाव सुभाबहि बिसरल, अपनेहि गुन लुबुधाई।।
माधव, अपरुब तोहर सिनेह।
अपनेहि बिरहें अपन तनु जरजर, जिबइते भले संदेह॥
भोरहिं सहचरि कातर दिठि हेरु, छल-छल लोचन पानि।
अनुखन राधा राधा रटइत, आधा आधा बानि।।
राधा सँग जब पुन तहि माधब, माधब सँग जब राधा।
दारुन प्रेम तबहिं नहिं टूटत बाढ़त बिरहक बाधा।।
दुहुदिसि दारु-दहन जैसे दगधइ, आकुल कीट परान।
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि, कवि विद्यापति भान॥।

3. ‘नागमती वियोग खंड’ पूरा पढ़िए और जायसी के बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए।

विद्यार्थी इस खंड को पढ़कर जानकारी प्राप्त करें।

नागमति वियोग खंड

राजा रतसेन पद्मावती को पाने के लिए सिंहलद्वीप चला गया था। जब राजा बहुत दिनों तक नहीं लौटा तो उसे बहुत चिंता हुई। हीरामन तोते ने उसके पति को उससे छीन लिया। नागमती वियोग की पीड़ा में कृशकाय हो गई। वह पगला-सी गई और हर समय पी-पी पुकारती रहती थी। विरह में कामदेव का बाण उसके शरीर में इस प्रकार बिंध गया कि उससे निकले रक्त से उसकी चोली तक भीग गई। उसकी सखी उसे प्रमर का उदाहरण देकर पति के लौटने का विश्वास दिलाती है।

फिर बारहमासा वर्णन है। प्रत्येक मास अपनी-अपनी बारी से आता है और उस विरहिणी की व्यथा को और बढ़ा जाता है। नाममती ने रोते-रोते बारह महीने बिता दिए। फिर भी उसका पति नहीं लौटा तो उसने वन में रहना प्रारंभ कर दिया। वह पक्षियों के माध्यम से प्रिय तक संदेश भिजवाने का प्रयास करती है। नागमती जिस पक्षी के पास बैठकर अपनी विरह-व्यथा सुनाती है, वह वृक्ष और उस पर बैठा पक्षी जल जाता है। नागमती कोयल की भाँति चीख-चीख कर रोने लगती है। उसके नेत्रों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं। फिर भी वह स्वामी के लौटने की आशा मन में बनाए रखती है।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 8 बारहमासा

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न –

(क) यह तन जारौं छार कै कहौं कि पवन उड़ाउ। मकु तेहि मारग होइ परौं कंत धरै जहँ पाउ।
उत्तर :
प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर जायसी ने नागमती की विरह-वेदना का अतिश्योक्तिपूर्ण चित्रण करते हुए कहा है कि वियोगारिन में अपने इस शरीर को जलाकर राख कर दूँगी। इस राख को पवन उड़ाकर ले जाए और मेरे प्रियतम के मार्ग में बिछा दे, ताकि मेरा प्रियतम उस राख पर अपने कदम रखकर चल सके। चलो, कम-से-कम मैं इस तरह तो उनका स्पर्श प्राप्त कर ही लूँगी। इस प्रकार कवि ने अतिश्योक्ति द्वारा अपनी विरह-वेदना का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। इन पंक्तियों में चौपाई छंद है, भाषा अवधी है और रस वियोग भृंगार है।

(ख) सयरि अगिनि बिरहिनि जिय जारा।
सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।
यह दुख दगध न जानै कंतू।
जोबन जरम करै भसमंतू॥
पिय सौं कहेहु सँदेसरा ऐ भैवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहे जरि गई तेहिक धुआँ हम लाग।।
उत्तर :
इन पंक्तियों में अगहन मास में विरहिणी की दशा का मार्मिक अंकन किया गया है। इस मास की सियराती हवा विरहणी के हदय को ठंडक पहुँचाने के स्थान पर जलाती है। नायिका की जवानी प्रिय के वियोग में भस्म होती जा रही है। यहाँ नायिका भौरे और कौए को अपना संदेशवाहक दूत बनाती है और प्रिय तक संदेशा पहुँचाने का प्रयास करती है।

शिल्प सौंदर्य :

  • ‘सिमरि सिमरि बिरहिनि जिय जारा’ में विरोधाभास अलंकार है।
  • अंतिम पंक्ति में अंतिश्योक्ति अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘सियरि सियरि’. ‘सुलगि सुलगि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • दुख दगध में अनुप्रास अलंकार है।
  • अवधी भाषा का प्रयोग है।
  • चौपाई दोहा छंद प्रयुक्त है।

(ग) सौर सुपेती आवै जूड़ी।
जानहूँ सेज हिवंचल बूढ़ी।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य : इन काव्य-पंक्तियों में पूस मास की भयंकरता तथा उसका प्रभाव वियोगिनी नायिका (नागमती) पर दर्शाया गया है। भयंकर शीत ने नायिका को जूड़ी चढ़ा दी है। उसकी सर्दी बिस्तर में जाने के बाद भी नहीं जाती। बिस्तर तो बर्फ में डूबा प्रतीत होता है।

शिल्य-सौंदर्य :

  • इस काव्यांश में उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग है क्योंकि उपमेय (सेज) में उपमान (हिवंचल) की संभावना प्रकट की गई है।
  • ‘सौर सुपेती’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • भाषा अवधी है।
  • चौपाई छंद का प्रयोग है।
  • वियोग श्रृंगार रस ।

(घ) बिरह सैचान भैवैं तन चाँड़ा।
जीयत खाइ मुएँ नहीं छाँड़ा ॥
उत्तर :
भाव-सौंदर्य : इसमें नागमती की वियोग में मरणासन्न दशा का मार्मिक वर्णन है। विरह रूपी बाज (सैचान) एक ऐसा पक्षी है जो जीते हुए (जीवित) व्यक्ति का माँस खाता है। वैसे पक्षी मरे हुए व्यक्ति का माँस खाते हैं किंतु विरह संतप्त नागमती की दशा मरे हुए के समान हो गई है। उसी को कवि ने बाज के द्वारा खाया बताया है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • ‘विरह-सैचान’ (विरह रूपी बाज) में रूपक अलंकार का प्रयोग है।
  • विरह का मानवीकरण किया गया है।
  • वियोग की चरमावस्था है।
  • अवधी भाषा का प्रयोग है।
  • चौपाई छंद है।

(ङ) पिय सौं कहेहु सँदेसरा, ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहे जरि गई, तेहिक घुआँ हम लाग॥
उत्तर :
जायसी द्वारा रचित इस दोहे में कवि नागमती की विरह-व्यथा का मार्मिक चित्रण करता है। नागमती भौंरा और काग से कहती है कि तुम जाकर मेरे पति को यह संदेश दे दो कि तुम्हारी पत्नी विरह की अगिन में जलकर मर गई । उसी आग से जो धुआँ निकला है, उसी से हमारा शरीर काला हो गया है।

  • नागमती की विरह-व्यथा का मार्मिक चित्रण किया गया है।
  • बारहमासा वर्णन के अंतर्गत अगहन मास के शीत का प्रभाव दर्शाया गया है।
  • संबोधन शैली का प्रयोग है।
  • भौंरा और काग को दूत बनाकर भेजा गया है।
  • अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग हुआ है।
  • भाषा-अवधी।
  • छंद -दोहा।

(च) तन जस पियर पात भा मोरा।
बिरह न रहै पवन होइ झोरा।।
तरिवर ढरै ढरै बन ढाँखा।
भइ अनपत्त फूल फर साखा।
उत्तर :
इस काव्यांश में जायसी ने फागुन मास में नागमती की विरह अवस्था का मार्मिक चित्रण किया है। फागुनी हवा झकझोर रही है। इस महीने में शीत लहर चलती है। विरहिणी नागमती को इसे सहना कठिन हो गया है। उसका शरीर पीले पत्तों के समान पीला पड़ गया है। विरह-पवन उसके शरीर को झकझोर रही है। इस मास में पेड़ों से पत्ते झड़ते जा रहे हैं। वे बिना पत्तों के हो गए हैं तथा वन ढाँखों के बिना हो गए हैं। फूल वाले पौधों पर नई कलियाँ आ रही हैं। इस प्रकार वनस्पतियाँ तो उल्लसित हो रही हैं पर नागमती की उदासी दुगुनी हो गई है।

  • नागमती के विरह की चरम सीमा व्यंजित हुई है।
  • नागमती के विरह में त्याग की भावना निहित है। वह पति के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देना चाहती है।
  • अलंकार – उपमाः तन जस….मोरा – रूपक : विरह-पवन – अनुप्रास : फूल फर
  • भाषा : अवर्धी ।
  • छंद : चौपाई-दोहा।
  • रस : वियोग श्रृंगार रस।

(छ) तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई तन तिनुवर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ के चहै उड़ावा झोल ॥
उत्तर :
इस दोहे में विरहिणी नागमती की वियोगावस्था का मार्मिक चित्रण किया गया है। वह प्रियतम के अभाव में सूखकर काँटा हो गई है। उसका शरीर वृक्ष की भाँति हिल रहा है। इस पर भी विरह उसे जलाकर राख किए दे रहा है। वह उसे राख बना कर उड़ा देना चाहता है।

  • नागमती की विरह-वेदना अभिव्यक्त हुई है।
  • ‘तनु तिनुवर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • अतिश्योक्ति अलंकार का भी प्रयोग है।
  • भाषा-अवधी।
  • छंद-दोहा।

(ज) रकत ढरा आँसू गरा हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होड ररि मुई आइ समेटहु पंख।।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य : विरहिणी नायिका नागमती कहती है कि विरह के कारण मेरे शरीर का सारा रक्त ढर गया (बह गया). मेरे शरीर का सारा मांस गल चुका है और सारी हड्डियाँ शंख के समान हो गई हैं। मैं तो सारस की जोड़ी की भाँति प्रिय को रटती हुई मरी जा रही हूँ। अब में मरणावस्था में हूँ। अब तो मेरे प्रिय यहाँ आकर मेरे पंखों को समेट लें।

शिल्प-सौंदर्य :

  • नागमती की विरह-व्यथा का मार्मिक चित्रण हुआ है।
  • अतिशयोक्ति अलंकार का प्रभावी वर्णन है।
  • ‘सब संख’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • भाषा अवधी है।
  • दोहा छंद है।
  • वियोग शृंगार रस है।

(झ) रैनि अकेलि साथ नहिं सखी।
कैसें जिऔं बिछोही पँखी।
बिरह सैचान भँवै तन चाँड़ा।
जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।
रकत ढरा आँसू गरा हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई आइ समेटहु पंख।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य : इन पंक्तियों में कवि जायसी ने जागमती की विरहावस्था का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया हैं पूस के महीने में भयंकर सर्दी पड़ रही है। उसका प्रियतम उसके पास नहीं है। भला वह एक बिछुड़े पक्षी की भाँति किस प्रकार जीवित रह पाएगी ? विरह रूपी बाज ने उसके शरीर पर नजर गड़ा रखी है। वह अभी तो जीते जी खा रहा है, मरने पर भी यह उसका पीछा छोड़ने वाला नहीं है। विरह के कारण उसका रक्त आँसुओं के माध्यम से बह गया है, आँख गल चुकी हैं, हड्डियाँ शंख के समान दिखाई दे रही हैं। अब तो वह मरणावस्था में है अतः वह पंखों को समेटने की प्रार्थना अपने प्रियतम से करती है।

शिल्प-सौन्दर्य :

  • नागमती की विरह-वेदना का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन हुआ है।
  • प्रकृति का उद्दीपन रूप चित्रित हुआ है।
  • अलंकार : अनुप्रास : सब संख
  • रूपक : बिरह सैचान (विरह रूपी बाज)।
  • उत्प्रेक्षा : जान सेज हिवंचल बूढ़ी।
  • भाषा : अवधी।
  • छंद : चौपाई-दोहा।
  • रस : वियोग श्रृंगार रस।

(ट) लागेड माँह परै अब पाला।
बिरह काल भएउ जड़काला।
पहल पहल तन रुई जो झाँपै।
हहलि हहलि अधिकौ हिय काँपै।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य – इन काव्य-पंक्तियों में माघ मास में विरहिणी नागमती की वियोगावस्था का मार्मिक चित्रण किया गया है। माघ मास की भयंकर सर्दी पड़ रही है, पाला भी पड़ रहा है। माघ मास का जाड़ा विरहिणी नायिका नागमती के लिए काल के समान बन गया है। वह अपने शरीर के प्रत्येक अंग को रूई से ढ़कने का प्रयास करती है, पर वे इस भयंकर जाड़े में अनुपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। विरहिणी नागमती जाड़े के कारण बुरी तरह काँप रही है।

शिल्प-सौंदर्य –

  • ‘बिरह काल’ में रूपक अलंकार है।
  • ‘हहलि-हहलि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • वियोग शृंगार रस का परिपाक हुआ है।
  • भाषा अवधी है।
  • चौपाई छंद प्रयुक्त हुआ है।

(ठ) नैन चुवहिं जस माँहुर नीरू।
तेहि जल अंग लाग सर चीरू।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य-जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ की नायिका नागमती विरहाग्नि में जल रही है। उसका पति रत्नसेन परदेश गया है। इस वियोगावस्था में नागमती की आँखों से आँसू ऐसे टपक रहे हैं जैसे माघ महीने में वर्षा का जल बरसता है। अश्रुओं की झड़ी के कारण उसके सारे कपड़े गीले हो गए हैं। इससे पानी उसके शरीर के अंगों से लग रहा है। उसे ये बूँदें बाण के समान प्रतीत होती हैं। कवि ने माघ मास में होने वाली वर्षा के प्रभाव का मार्मिक चित्रण किया है। इस ऋतु में शीत पराकाष्ठा पर होता है। इस मास में विरह-व्यथा असहनीय हो जाती है।

शिल्प-सौंदर्य –

  • ‘नैन चुवहिं जस माँहुर नीरू’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘माहुँर’ शब्द माघ मास की वर्षा के लिए प्रयुक्त हुआ है।
  • चौपाई छंद् है।
  • वियोग थृंगार रस का परिपाक हुआ है।

अन्य प्रश्न –

प्रश्न 1.
रहस्यवाद में विरह का क्या स्थान है ?
उत्तर :
सूफी प्रेममूलक रहस्यवाद में विरह की मार्मिक व्यंजना हुई है। जायसी ने भी नागमती के विरह-वर्णन में इसका चित्रण किया है। विरही प्रियतम (परमात्मा) के विरह में जलता भी है और काँपता भी है। यह विरह उसी परम सत्ता का है। यह लौकिक विरह नहीं है। यह प्रियतम तक पहुँचने का माध्यम है। सारी सृष्टि उसी परम तत्त्व में लीन होने को व्याकुल रहती है और अंततः उसी में मिल जाती है। जायसी ने रहस्यवाद के विभिन्न रूपों को विशेषकर साधनात्मक रहस्यवाद को अत्यंत सरस एवं मधुर बना दिया है।

प्रश्न 2.
पूस के महीने में विरहिणी की क्या दशा होती है?
उत्तर :
पूस के महीने में भयंकर ठंड पड़ती है। इतनी सर्दी के कारण विरहिणी का पूरा शरीर थर-थर काँपता रहता है। इस मास में सूरज भी ठंड को दूर करने में समर्थ नहीं हो पाता क्योंकि वह दक्षिण दिशा में चला जाता है। विरहिणी अपने प्रियतम को इसलिए बुलाती है ताकि उसकी ठंड दूर हो सको।

प्रश्न 3.
फाल्गुन मास में जायसी की विरहिणी नायिका की वेदना-अनुभूति का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
फागुन मास की झकझोर देने वाली हवाएँ विरहिणी की विरहग्नि को और भी तीव्र कर देती हैं। उसका शरीर सूखकर पीले पत्ते की भाँति हो गया है। उसका शरीर पीला पड़ गया है।

प्रश्न 4.
माघ मास नायिका को कैसे व्यथित करता है?
उत्तर :
माघ मास में पाला पड़ने लगता है। इसके साथ-साथ वर्षा और ओले भी पड़ने लग जाते हैं। ऐसे में नायिका की विरह-वेदना और अधिक बढ़ जाती है। वह अपने प्रियतम के विरह में व्यथित होकर रोने लगती है। उसे आभास होता है कि अब तो विरह रूपी अग्नि उसे जलाकर नष्ट कर देगी। वह निरंतर दुर्बल होती जाती है।

प्रश्न 5.
अगहन मास का नागमती के मन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
अगहन मास में अधिक सर्दी होती है इसलिए इस मास की शीतलता नागमती की विरह-वेदना को और अधिक बढ़ा देती है। इस मास में दिन छोटे तथा रातें लंबी होती हैं, इससे वियोग अधिक बढ़ जाता है। रातें लंबी होने के कारण नायिका अपने प्रियतम के वियोग में व्यथित हो जाती है।

प्रश्न 6.
होलिका दहन का नायिका पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
नायिका विरह से पीड़ित है। होलिका दहन देखकर उसे लगता है कि किसी ने उसके शरीर में आग लगा दी है। ऐसे में यदि उसका प्रिय साथ हो तो उसे कोई दुख नहीं होता। वह प्रिय के संग स्वयं को नष्ट करने में नहीं हिचकती।

प्रश्न 7.
नायिका क्या-क्या कामनाएँ करती हैं?
उत्तर :
नायिका निम्नलिखित कामनाएँ करती हैं –

  1. भौरै और कौवे अपने काले रंग का कारण नायिका के शरीर से उठे धुएँ को बताएँ।
  2. वह चाहती है कि रत्नसेन रूपी सूर्य उसके शरीर को ताप पहुँचाए ताकि विरह रूपी शीत की ठिठुरन कम हो सके।
  3. वह चाहती है कि उसके पंखों को प्रियतम समेटे।
  4. वह अपने शरीर की राख को उस मार्ग पर बिछाना चाहती है जहाँ पर प्रियतम पैर रखते हैं।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 9 Question Answer विद्यापति के पद

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 9 विद्यापति के पद

Class 12 Hindi Chapter 9 Question Answer Antra विद्यापति के पद

प्रश्न 1.
प्रियतमा के दुःख के क्या कारण हैं ?
उत्तर :
प्रियतमा के दु:ख के कारण निम्नलिखित हैं –

  • सावन मास में प्रियतमा का दुःख बढ़ जाता है। यह मास वर्षा ऋतु में आता है और वर्षा ऋतु में विरह की पीड़ा असह्य हो जाती है।
  • प्रियतमा के पास उसका प्रियतम नहीं है। यह सावन के महीने में भी अकेली है।
  • वर्षा ऋतु में विरह की पीड़ा असहा हो जाती है।
  • प्रियतमा का प्रियतम उसके मन को हराकर अपने साथ ले गया है।
  • प्रियतमा अपनी प्रियतम की उपेक्षा का शिकार है। अब उसका मन इस प्रियतम की ओर नहीं रह गया है।

प्रश्न 2.
कवि ‘नयन न तिरपित भेल’ के माध्यम से विरहिणी नायिका की किस मनोदशा को व्यक्त करना चाहता है ?
उत्तर :
उपर्युक्त पंक्ति के माध्यम से नायिका के नयनों की अतृप्त दशा का वर्णन किया गया है। कवि कहता है कि नायिका कृष्ण से अति प्रेम करती है। वह जन्मभर प्रिय का रूप निहारती रही. परंतु उसकी आँखें तृप्त नहीं हुई। इस अतुप्ति का कारण उसके प्रिय का मनोहारी एवं सुंदर रूप-सौंदर्य है; जिसे जितनी भी बार देखो उसमें नयापन दिखता है। यह रूप सौददर्य नित प्रतिपल बदलता रहता है। वह मु?ा नायिका है। वह कृष्ण के साथ बिताए हुए पलों को भूल नहीं पाई है।

प्रश्न 3.
नायिका के प्राण तृप्त न हो पाने का कारण अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
नायिका के प्राण तृप्ति का अनुभव नहीं करते। इसका कारण है कि प्रेम और अनुराग क्षण-प्रतिक्षण नवीनता धारण कर लेता है। उसका न तो वर्णन किया जा सकता है और न उससे पूर्ण तृप्ति का अनुभव किया जा सकता है। प्रियतम के रूप और वाणी की चिर नवीनता नायिका के प्राण को अतृप्त बनाए रखती है। नायिका के मन में मिलन की उत्कंठा बनी ही रहती है। उसके हृदय की प्यास अभी भी वैसी ही है जैसी पहले थी।

प्रश्न 4.
‘सेह पिरित अनुराग बखानिअ तिल-तिल नूतन होए’-से लेखक का क्या आशय है ?
उत्तर :
नायिका की एक सखी उससे उसकी प्रेमानुभूति के बारे में जानना चाहती है तो नायिका इस अनुभव का वर्णन करने में स्वयं को असमर्थ पाती है। इस प्रीति (प्रेम) और अनुराग का वर्णन करना इसलिए कठिन है क्योंकि यह क्षण-क्षण नवीन होता जान पड़ता है। नवीन होती चीज में स्थिरता नहीं होती। इस कथन में लेखक का आशय यही है कि प्रेम कोई स्थिर वस्तु या भाव नहीं है, इसमें हर समय बदलाव आता रहता है।

प्रश्न 5.
कोयल और भौरा की कलरव ध्वनि का नायिका पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर :
कोयल की मीठी कूक और भौंरों की मधुर झंकार को सुनकर नायिका अपने हाथों से अपने कान बंद कर लेती है। इसका कारण है कि ये ध्वनियाँ नायिका को प्रियतम का स्मरण कराती हैं। नायिका प्रिय की वियोगावस्था को झेलती-झेलती दु:खी हो गई है। अब उसे ये ध्वनियाँ सहन नहीं होतीं। ये ध्वनियाँ उद्दीपन का काम करती हैं और नायिका की विरह-व्यथा की ओर बढ़ा देती है।

प्रश्न 6.
कातर दृष्टि से चारों तरफ प्रियतम को ढूँढने की मनोदशा को कवि ने किन शब्दों में व्यक्त किया है ?
उत्तर :
नायिका कातर दृष्टि से चारों तरफ प्रियतम को ढूँढती रहती है। कवि उसकी मनोदशा का वर्णन इन शब्दों में करता हैकातर दिठि करि, चौदिस हेरि-हेरि नयन गरए जल धारा। कवि बताता है नायिका का शरीर विरह दशा में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के समान क्षीण हो गया है। नयनों से अश्रुधारा बहती रहती है अर्थात् हर समय रोती रहती है और इधर-उधर प्रियतम को ढूँढने का प्रयास करती रहती है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए :
तिरपित, छन, बिदगध, निहारल, पिरित, साओन, अपजस, छिन, तोहारा, कातिक।
उत्तर :

  • तिरपित = तृप्त
  • निहारल = निहारना
  • अपजस = अपयश
  • छन = क्षण
  • पिरित = प्रीति
  • छिन = क्षण, क्षीण
  • विदगध = विदाध
  • साओन = सावन (श्रावण)
  • तोहारा = तुम्हारा
  • कातिक = कार्तिक।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए :
(क) एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखिख अनकर दु :ख दारुन रे जग के पतिआएा।
(ख) जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।
सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल सुति पथ परस न गेल।।
(ग) कुसुमति कानन हेरि कमलमुखि मुदि रहए दु नयनि।
कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि, कर देइ झाँपइ कान।।
उत्तर :
(क) इस काव्यांश का आशय यह है कि नायिका घर में अकेली है। उसका प्रियतम बाहर गया हुआ है। यह नायिका प्रोषितपतिका है। नायिका प्रिय के बिना इस सूने घर में नहीं रह पाती है। वह नायिका अपनी सखी से जानना चाहती है कि भाला ऐसा कौन व्यक्ति है जो दूसरे के दारुण (कठोर) दुःख पर विश्वास कर सके अर्थात् कोई किसी के कठोर दुझख की गंभीरता को नहीं समझता।

(ख) नायिका संयोग काल में भी अतृप्त रहती है। वह जन्म-जन्म से अपने प्रियतम के रूप को निहारती चली आ रही है फिर भी आज तक उसके नेत्र तृप्त नहीं हो सके हैं। वह प्रिय के मधुर वचनों को भी अपने कानों से सुनती चली आ रही है फिर भी उसके बोल पहले से सुने नहीं लगते। रूप एवं वाणी में सर्वथा नवीनता बनी रहती है और यही अतृप्ति के कारण हैं।

(ग) इन पंक्तियों का आशय यह है कि नायिका को संयोग कालीन प्राकृतिक वातावरण अच्छा प्रतीत नहीं होता क्योंकि वह स्वयं वियोगावस्था में है। वियोगावस्था में यही मनःस्थिति होती है। नायिका न तो विकसित अर्थात् खिलते फूलों को देखना चाहती है और न कोयल और भौँर की मधुर ध्वनि को सुनना चाहती है। वह आँख-कान बंद् कर लेती है। इन्हें देखने-सुनने से उसकी विरह-व्यथा और भी बढ़ जाती है।

योग्यता विस्तार –

1. पठित पाठ के आधार पर विद्यापति के काव्य में प्रयुक्त भाषा की पाँच विशेषताएँ उदाहरण सहित लिखिए।

पठित पाठ के आधार पर विद्यापति के काव्य में प्रयुक्त भाषा की पाँच विशेषताएँ अग्रलिखित हैं :

– विद्यापति ने मैथिली भाषा का प्रयोग किया है। मैथिली भाषा के कुछ शब्द-गेल, भेल, अनकर, राखल, मीलल आदि। – विद्यापति की काव्य-भाषा में अलंकारों का सटीक प्रयोग हुआ है। जैसे :
हरि हर (यमक)
धनि धरु, मोर मन (अनुप्रास)
लाख ‘गेल ( विरोधाभास)
कत “एक (अतिशयोक्ति)

  • चित्रात्मकता-कोकिल कलरव, मधुर धुनि सुन
  • तद्भव शब्दों का प्रयोग – दिठि, चौदसि
  • पुनरुक्त शब्द : गुनि-गुनि, सुन-सुन।

2. विद्यापति के गीतों का ऑडियो रिकॉर्ड बाजार में उपलब्ध है, उसको सुनिए।

विद्यार्थी बाजार से खरीदकर सुनें।

3. विद्यापति और जायसी प्रेम के कवि हैं। दोनों की तुलना कीजिए।
जायसी और विद्यापति दोनों प्रेम के कवि हैं। जायसी के प्रेम में अलौकिकता का समावेश है। उन्होंने लोकाकथा के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना की है।
विद्यापति की व्यंजना शुद्ध रूप में लौंकिक है। यह शृंगार-वर्णन है। इसमें संयोग और वियोग दोनों दशाओं का वर्णन है।

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काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न –

प्रश्न : निम्नलिखित काव्यांशों में निहित काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए –
(क) मोर मन हरि हर लए गेल रे, अपनो मन गेल
उत्तर :
भाव सौंदर्य – इस काव्य-पंक्ति में विरहिणी नायिका की मनोदशा का मार्मिक अंकन किया गया है। नायिका बड़ी विचित्र स्थिति में फँस जाती है। उसके मन को तो प्रिय (कृष्ण) हर कर ले गए और उनका मन भी उनके पास है अर्थात् नायिका पूरी तरह खाली है। वह नायक (कृष्ण) की उपेक्षा का भी शिकार बन रही है।

शिल्प सौंदर्य :

  • ‘मोर मन’ तथा ‘हरि हर’ में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘हरि हर’ में यमक अलंकार भी है। (हरि = कृष्ण, हर = हर लेना)
  • मैथिली भाषा का प्रयोग है।
  • वियोग शृंगार रस का चित्रण है।

(ख) जनम अवधि हम रूप निहारल, नयन न तिरपित भेल।
सेह्रो मधुर बोल स्रवनहि सूनल पथ परस न गेल॥
उत्तर :
भाव सौंदर्य – इन काव्य-पंक्तियों में नायिका की दशा की विचित्रता का उल्लेख है। वह लंबे से प्रियतम को निहारती चली आ रही है पर उसके नयन तृप्त नहीं होते। वह कानों में प्रियतम की मधुर वाणी निरंतर सुनती आ रही है फिर भी हर बार उसकी वाणी अनसुनी लगती है अर्थात् वस्तु है फिर भी अतुप्ति है। यह सब प्रेम की नवीनता का परिचायक है। इसी कारण क्षण-क्षण परिवर्तन आता रहता है।

शिल्प सौंदर्य :

  • वस्तु के उपस्थित होने पर भी काम न बनने के कारण यहाँ विशेषोक्ति अलंकार का सुंदर प्रयोग है।
  • निहारल नयन, स्रवनहि सूनल, पथ परस में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • संयोगकाल में भी अतृप्ति की अनुभूति है।
  • भाषा : मैथिली।

(ग) तोहर बिरह दिन छन छन तनु छिन चौदसि चाँद समान
उत्तर :
भाव्य सौंदर्य – इस काव्यांश में विरहिणी नायिका की मनोद्शा का मार्मिक अंकन किया गया है। वियोगिनी नायिका प्रियतम के विरह में प्रतिदिन प्रतिक्षण क्षीण होती चली जा रही है। अब तो उसकी दशा कृष्ण पक्ष की चौदहवीं के चाँद के समान हो गई है अर्थात् वह बहुत दुर्बल हो गई है।

शिल्प सौंदर्य –

  • वियोग की चरमावस्था का अंकन है।
  • ‘छन-छन’ में वीप्सा अलंकार है।
  • ‘चौदसि चाँद समान’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘चौदसि चाँद’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • मैथिली भाषा का प्रयोग है।

(घ) कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि, मूदि रहए दु नयान।
कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि, कर देइ झाँपइ कान।।
उत्तर :
भाव सौंदर्य : इन पंक्तियों में दूतिका अपनी स्वामिनी की विरह-दशा का वर्णन कृष्ण के सम्मुख करती है। वियोगिनी प्रफुल्लित वन के सौंदर्य को निहार नही पाती क्योंकि इससे उसे कष्ट पहुँचता है। वियोगावस्था में सुखकारी वस्तुएँ दुख को बढ़ा देती है। नायिका दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • प्रकृति का उद्दीपन रूप चित्रित हुआ है।
  • कुसुमित कानन, कोकिल कलख में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘कमलमुखि’ में रूपक अलंकार है।
  • अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग है।
  • मैथिली प्रयुक्त हुई है।

(ङ) धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ
पुनि तहि उठइ न पारा
कातर दिठिकरि चौदिस हेरि-हेरि
नयन गरए जलधारा।
उत्तर :
इस काव्यांश में नायिका (राधा) की वियोगावस्था का मार्मिक अंकन किया गया है। राधा सुंदरी अत्यंत दुर्बल हो गई है। उसकी दुर्बलता का यह हाल है कि पृथ्वी को पकड़कर बड़ी कठिनाई से बैठ तो जाती है, पर पुन: चेष्टा करने पर भी उठ नहीं पाती। वह दैन्यपूर्ण कातर दृष्टि से तुम्हें चारों ओर खोजती है तथा उसके नेत्रों से लगातार आँसुओं की धारा बहती रहती है। हे कृष्ण! तुम्हारे विरह में राधा का शरीर कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के समान प्रतिदिन, प्रतिक्षण क्षीण होता चला जा रहा है।

शिल्य सौंदर्य :

  • अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग हुआ है।
  • ‘हेरि-हेरि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • प्रोषित पतिका नायिका का चित्रण है।
  • भाषा : ब्रज भाषा।

अन्य प्रश्न –

प्रश्न 1.
विद्यापति के पहले पद की नायिका किस प्रकार की नायिका है ? वह क्यों दु:खी है ? कवि उसे क्या आशा दिलाता है ?
उत्तर :
विद्यापति के पहले पद की नायिका प्रोषितपतिका नायिका है। इस प्रकार की नायिका का प्रियतम बाहर रहता है। नायिका वियोग की पीड़ा झेलने को विवश होती है। नायिका एकाकी जीवन बिताने में असमर्थ है। उसका मन भी उसके पास नहीं है। कवि उसे यह आशा दिलाता है कि उसका प्रियतम कार्तिक मास में लौट आएगा।

प्रश्न 2.
प्रेम के अनुभव को बताना कठिन क्यों है ?
उत्तर :
नायिका के लिए प्रेम के अनुभव को बताना अत्यंत कठिन है। प्रेम का स्वरूप प्रतिक्षण बदलता रहता है। नवीनता के कारण मन में उत्सुकता बनी रहती है। प्रेम कोई स्थिर वस्तु तो है नहीं इसमें आने वाले क्षण-क्षण परिवर्तन के कारण प्रेम में अतृप्ति बनी रहती है। अतः प्रेम के अनुभच का वर्णन कठिन है।

प्रश्न 3.
पठित पदों के आधार पर विद्यापति की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
महाकवि विद्यापति के इन तीनों पदों की भाषा मैथिली है। उनका भाषा पर पूर्ण नियंत्रण है। उन्होंने संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों के स्थान पर देशी शब्दों का अधिक प्रयोग किया है। उन्होंने सर्वत्र भाषा की कोमलता पर ध्यान रखा है। उनके पदों की भाषा श्रुतिकटुत्व के दोष से मुक्त है। विद्यापति शब्दों के पारखी प्रतीत होते हैं।
विद्यापति की भाषा मैधिली है। उन्होंने अपनी काव्य-भाषा में अलंकारों का सटीक प्रयोग किया है। यथा :

  • ‘चौदसि चाँद समाना’ (उपमा-अनुप्रास)
  • ‘गुनि-गुनि, सुन-सुन’ (वीप्सा अलंकार)
  • ‘कमल मुखि’ (उपमा अलंकार)

विद्यापति ने विशेषोक्ति, अतिशयोक्ति, रूपक आदि अलंकारों का भी प्रयोग किया है।

प्रश्न 4.
तीसरे पद की नायिका का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर :
तीसरे पद की नायिका भी प्रोषितपतिका है। उसका प्रियतम भी अन्यत्र जा बसा है। उसके वियोग में नायिका को कुछ भी अच्छा नहीं लगता। वह सुखकारक वस्तुओं को न तो देखती

  • ‘चौदसि-चाँद’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • मैथिली भाषा का प्रयोग है।
  • वियोग शृंगार रस का परिपाक हुआ है।

अन्य प्रश्न –

प्रश्न 1.
विद्यापति के पहले पद की नायिका किस प्रकार की नायिका है ? वह क्यों दु:खी है ? कवि उसे क्या आशा दिलाता है ?
उत्तर :
विद्यापति के पहले पद की नायिका प्रोपितपतिका नायिका है। इस प्रकार की नायिका का प्रियतम बाहर रहता है। नायिका वियोग की पीड़ा झेलने को विवश होती है। नायिका एकाकी जीवन बिताने में असमर्थ है। उसका मन भी उसके पास नहीं है। कवि उसे यह आशा दिलाता है कि उसका प्रियतम कार्तिक मास में लौट आएगा।

प्रश्न 2.
प्रेम के अनुभव को बताना कठिन क्यों है ?
उत्तर :
नायिका के लिए प्रेम के अनुभव को बताना अत्यंत कठिन है। प्रेम का स्वरूप प्रतिक्षण बदलता रहता है। नवीनता के कारण मन में उत्सुकता बनी रहती है। प्रेम कोई स्थिर वस्तु तो है नहीं इसमें आने वाले क्षण-क्षण परिवर्तन के कारण प्रेम में अतृप्ति बनी रहती है। अतः प्रेम के अनुभव का वर्णन कठिन है।

प्रश्न 3.
पठित पदों के आधार पर विद्यापति की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
महाकवि विद्यापति के इन तीनों पदों की भाषा मैथिली है। उनका भाषा पर पूर्ण नियंत्रण है। उन्होंने संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों के स्थान पर देशी शब्दों का अधिक प्रयोग किया है। उन्होंने सर्वत्र भाषा की कोमलता पर ध्यान रखा है। उनके पदों की भाषा श्रुतिकटुत्व के दोष से मुक्त है। विद्यापति शब्दों के पारखी प्रतीत होते हैं।

विद्यापति की भाषा मैथिली है। उन्होंने अपनी काव्य-भाषा में अलंकारों का सटीक प्रयोग किया है। यथा :

  • ‘चौदसि चाँद समाना’ (उपमा-अनुप्रास)
  • ‘गुनि-गुनि, सुन-सुन’ (वीप्सा अलंकार)
  • ‘कमल मुखि’ (उपमा अलंकार)

विद्यापति ने विशेषोक्ति, अतिशयोक्ति, रूपक आदि अलंकारों का भी प्रयोग किया है।

प्रश्न 4.
तीसरे पद की नायिका का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर :
तीसरे पद की नायिका भी प्रोषितपतिका है। उसका प्रियतम भी अन्यत्र जा बसा है। उसके वियोग में नायिका को कुछ भी अच्छा नहीं लगता। वह सुखकारक वस्तुओं को न तो देखती है और न सुनती है। वह प्रिय वियोग में इतनी क्षीण हो गई है कि बड़ी कठिनाई से धरती को पकड़कर बैठ पाती है और उद्न नहीं पाती। उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहती रहती है। वह तो कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के चाँद के समान क्षीण हो गई है। उसकी दशा देखी नहीं जाती।

प्रश्न 5.
“जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल” काव्य-पंक्ति में विद्यापति ने विरहिणी नायिका की किस मनोदशा को व्यक्त किया है?
उत्तर :
‘जनम अवधधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल ‘ के माध्यम से कवि नायिका की इस मनोदशा को व्यक्त करना चाहता है कि सच्चे प्रेम में कभी तृप्ति की अनुभूति नहीं होती। जन्म-जन्मांतर तक साथ रहने के बावजूद तृप्ति न होना ही प्रेम की प्रवृत्ति बने रहने का सूचक है। नायिका लंबे काल से अपने प्रियतम के निकट है फिर भी उसे अभी तक पूर्ण तृप्ति का अनुभव नहीं हुआ। इसका कारण है रूप क्षण-क्षण परिवर्तित होता है। उसमें स्थिरता नहीं होती। नायिका तृप्ति का वर्णन करने में भी स्वयं को असमर्थ पाती है। प्रेम में कभी भी पूर्ण तृप्ति संभव नहीं है।

प्रश्न 6.
आशय स्पष्ट कीजिए।
“कोकिल-कलरव, मधुकर धुनि सुनि,
कर देड झाँपइ कान॥”-
उत्तर :
इन पंक्तियों का आशय यह है-कोयल की मीठी कूक और भौंरों की मधुर झंकार को सुनकर नायिका अपने हाथों सें अपने कान बंद कर लेती है। इसका कारण है कि ये ध्वनियाँ नायिका को प्रियतम का स्मरण कराती हैं। नायिका प्रिय की वियोगावस्था को झेलती-झेलती दु:खी हो गई है। अब उसे ये ध्वनियाँ सहन नहीं होतीं।

प्रश्न 7.
“कुसुमित कानन हेरि, कमलमुखि मुंदि रहए दु नयनि” पद में चित्रित वियोगिनी नायिका की मनोदशा का चित्रण अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर :
विकसित प्रफुल्लित वन को देखकर वह कमल मुखी नायिका अपने दोनों नेत्रों को मूँद लेती है। कोयल की मीठी कूक और भौंरों की मधुर झंकार को सुनकर वह (राधा) अपने हाथों से अपने कान बंद कर लेती है। हे कृष्ग ! जरा मेरी बात सुनो! तुम्हारे गुणों एवं प्रेम का स्मरण करके राधा सुंदरी अत्यंत दुर्बल हो गई है। उसकी दुर्बलता का यह हाल है कि पृथ्वी को पकड़कर बड़ी कठिनाई से बैठ तो जाती है, पर पुन: चेष्टा करने पर भी उठ नहीं पाती। वह दैन्यपूर्ण कातर दृष्टि से तुम्हें चारों ओर खोजती है तथा उसके नेत्रों से लगातार आँसुओं की धारा बहती रहती है। हे कृष्ण ! तुम्हारे विरह में राधा का शरीर कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के समान प्रतिदिन, प्रति क्षण क्षीण होता चला जा रहा है।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 10 Question Answer रामचंद्रचंद्रिका

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Class 12 Hindi Chapter 10 Question Answer Antra रामचंद्रचंद्रिका

प्रश्न 1.
देवी सरस्वती की उदारता का गुणगान क्यों नहीं किया जा सकता ?
उत्तर :
देवी! सरस्वती की उदातरता का गुणगान इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि यह बहुत अधिक है। सरस्वती की उदारता का वर्णन करने में देवता, सिद्ध, ऋषि-मुनि और बड़े-बड़े तेजस्वी भी असमर्थ रहे। वे उनकी उदारता का बखान करते-करते थक गए, किंतु पूर्ण सफलता न मिली। सरस्वती की उदारता का वर्णन पहले से ही होता चला आ रहा है और भविष्य में भी होता रहेगा। उनकी उदारता वर्णनातीत है ब्रह्या, शिव तथा कार्तिकेय तक भी इसका वर्णन पूरी तरह से नहीं कर पाए हैं। यह नित्य नए रूप में प्रकट होती रहती है। अतः संपूर्ण वर्णन संभव नहीं है।

प्रश्न 2.
चारमुख, पाँच मुख और षद्मुख किन्हें कहा गया है और उनका वेवी सरस्वती से क्या संबध है ?
उत्तर :

  • चार मुख (चतुर्मुख) : ब्रहाजी को कहा गया है, वे सरस्वती के पति हैं।
  • पाँच मुख (पंचानन) : शिवजी को कहा गया है। वे सरस्वती के पुत्र हैं।
  • षट्मुख (घड़ानन) : कार्तिकेय को कहा जाता है। वे सरस्वती के नाती हैं।

प्रश्न 3.
कविता में पंचवटी के किन गुणों का उल्लेख किया गया है ?
उत्तर :
कविता में पंचवटी के प्राकृत्तिक सौंदर्य और महिमा का गुणगान किया गया है।
(क) यह पंचवटी का गुण ही है कि इसके समीप आते ही सारे दुःख मिट जाते हैं अर्थात् यहाँ पवित्रता की भावना व्याप्त है।
(ख) यहाँ कपटी व्यक्ति टिक नहीं पाता। पंचवटी का प्रभाव उसे सात्विक बना देता है।
(ग) पंचवटी की शोभा अपार है। इसे देखकर लोगों को अपार सुख की अनुभूति होती है।
(घ) यहाँ पापों की बेड़ी कट जाती है और उनसे पूरी तरह मुक्ति मिल जाती है। यहाँ मोक्ष-प्राप्ति जैसे आनंद की प्राप्ति होती है। अपने उपुर्यक्त गुणों के कारण पंचवटी शिव के समान बनी हुई है।

प्रश्न 4.
तीसरे छंद में संकेतित कथाएँ अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
तीसरे छंद में संकेतित कथाएँ –

‘धनुरेख गई न तरी’ –
जब कपटी मृग ने ‘हे राम’ पुकारा तब सीताजी ने लक्ष्मण से तुरंत वहाँ जाने का आग्रह किया। लक्ष्मण सीताजी की सुरक्षा को ध्यान में रखकर उनके चारों ओर अपने धनुष से एक रेखा खींच गए थे और उसे पार न करने का निर्देश भी दे गए थे। रावण (जो एक भिक्षुक के वेश में था) से वह धनुष की रेखा तक पार नहीं की जा सकी। उसने सीता को रेखा से बाहर निकलकर भिक्षा देने का अनुरोध किया।

बारिधि बाँधि कै बाट करी –
श्रीराम ने लंका तक पहुँचने के लिए समुद्र को बाँधकर पत्थरों की सहायता से पुल का निर्माण किया और लंका तक जाने का रास्ता बना लिया।

हनुमान की पूँछ में आग लगाना –
राषण की आज्ञा पर हनुमान की पूँछ में रुई बाँधकर और तेल छिड़ककर आग लगा दी गई, पर इससे छनुमान का तो कुछ नहीं बिगड़ा उल्टे स्वर्णजटित लंका ही जल गई।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्तियों का काव्य-सौंवर्य स्पष्ट कीजिए –
(क) पति बने चारमुख, पूत बने पंचमुख, नाती बने षद्युख तदपि नई नई।
उत्तरः
इस काव्य-प्रोक्ति में सरस्वती की उदारता का बखान करने में मुख की शक्ति की हेयता दर्शाई गई है। एक मुख वाले

व्यक्ति का तो क्या कहना, चार मुख वाले ब्रह्मा, पाँच मुख वाले शिव और छह मुख वाले कार्तिकेय भी इसका बखान करने में असमर्थ हैं। कारण – नयेपन का समाविष्ट हो जाना।

  • अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘नई-नई ‘में पुनरुक्तिप्रकाश’ अलंकार है।
  • ब्याजस्तुति अलंकार का भी प्रयोग है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

(ख) चहुँ ओरनि नाचति मुक्ति नटी गुन धूरजटी जटी पंचवटी।
उत्तर :
पंचवटी के सौंदर्य का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से किया गया है। यहाँ तो मुक्ति भी नटी की तरह नाचती प्रतीत होती है। यहाँ का वातावरण ही मुक्ति का-सा अहसास करा देता है। पंवचटी के गुण उसे शिव के समान बना देते हैं।

  • ‘मुक्ति नटी’ में रूपक अलंकार है।
  • ‘जटी जटी’ में यमक अलंकार है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

(ग) सिंधु तरूयौ उनको बनरा, तुम पै धनुरेख गई न तरी।
उत्तर :
इस काव्य-पंक्ति में अंगद रावण पर व्यंग्य करता जान पड़ता है। वह रावण को राम की शक्ति का परिचय देता है कि उनका एक वानर (हनुमान) समुद्र को पार करके तुम्हारी लंका तक में चला आया और तुमसे लक्ष्मण द्वारा खींची गई धनुष-रेखा तक लाँघी नहीं गई। फिर भी तुम अपनी शक्ति का बखान करते नहीं अघाते। (तुम्हें धिक्कार है।)

  • व्यंजना शब्द शक्ति का प्रयोग है।
  • ब्रज भाषा अपनाई गई है।

(घ) तेलनि तूलनि पूँछ जरी न जरी, जरी लंक जराइ जरी। उत्तर : इस काव्य-पंक्ति में रावण को उसकी विफलता का अहसास कराया गया है। रावण हनुमान का कुछ भी न बिगाड़ पाया जबकि हनुमान ने पूँछ में लगाई उसी की आग से उसकी स्वर्ण-रत्न जटित लंका को जलाकर राख कर दिया। हनुमान की वीरता और कुशलता का परिचय दिया गया है।

  • ब्याजस्तुति अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘तेलनि तूलनि’, ‘जराइ जरी’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • ‘जरी जरी’ में यमक अलंकार है।
    (जरी = जली, जरी = जड़ी हुई)
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए –
(क) भावी, भूत, वर्तमान जगत बखानत
‘केसीदास’ क्यौं हूँ ना बखानी काहू पै गई।
उत्तर :
इस पंक्ति का भाव यह है कि माँ सरस्वती की महिमा अपरंपार है। इसका बखान करना न कभी, किसी के लिए संभव था, न है, न रहेगा क्योंकि इसमें नित्य नवीनता का समावेश हो जाता है। इसका बखान कोई नहीं कर सकता, यह वर्णनातीत है।

(ख) अघ ओघ की बेरी कटी बिकटी,
निकटी प्रकटी गुरुज्ञान गटी।
उत्तर :
इस काव्य-पंक्ति का भाव यह है कि पंचवटी में इतनी पवित्रता है कि यहाँ आकर पापों की बेड़ी (बंधन) से छुटकारा मिल जाता है। यहाँ ज्ञान का भंडार है। वह यहाँ प्रकट हो जाता है। यहाँ के वातावरण में पाप को नाश करने और पुण्यों के उदित करने की शक्ति है।

योग्यता विस्तार –

1. केशववास की ‘रामचंद्रिका’ से रूपक अलंकार के कुछ अन्य उदाहरणों का संकलन कीजिए।
जिनको यश हंसा (यश रूपी हंस)
– जेहि जस परिमल मत्त,
चांचरीक चारन फिरत।
(यश रूपी सुर्गंधि, भ्रमर रूपी चारण)

2. पाठ में आए छंदों का गायन कर कक्षा में सुनाइए।
विद्यार्थी कक्षा में गाकर सुनाएँ।

3. ‘केशवदास कठिन काव्य के प्रेत हैं।’-इस विषय पर वाद-विवाद कीजिए।

केशवदास का काव्य कठिन है। इसे समझना सरल नहीं है।
विद्यार्थी इस पर कक्षा में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 10 रामचंद्रचंद्रिका

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न –

प्रश्न 1.
निम्नलिखित काव्यांशों में निहित का काव्यसौंदर्य स्पष्ट कीजिए :
(क) सब जाति फटी दुःख की दुपटी
कपटी न रह जहँ एक घटी।
निघटी रुचि मीचु घटी हूँ घटी
जगजीव जतीन की छूटी चटी।
अघओघ की बेरी कटी विकटी
निकटी प्रकटी गुरुज्ञान-गटी।
चहुँ ओरनि नाचति मुक्तिनटी
गुन धूरजटी जटी पंचवटी।
उत्तर :
भाव सौंदर्य :
यहाँ लक्ष्मण द्वारा पंचवटी का महात्म्य का सुंदर वर्णन किया गया है। लक्ष्मण पंचवटी की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि इस पंचवटी के समीप आते ही दुःख की चादर फट जाती है अर्थात् सारे दु:ख दूर हो जाते हैं। यहाँ पर कपटी व्यक्ति घड़ी भर नहीं ठहर सकता क्योंकि इसकी अपार शोभा के कारण उसके भाव भी सात्विक हो जाते हैं। यहाँ आकर जगत के प्राणियों की मृत्यु के प्रति रुचि घट जाती है अर्थात् यहाँ आकर कोई भी मरना नहीं चाहता, क्योंकि पंचवटी का सौंदर्य देखकर मनुष्य को अपार आनंद मिलता है।

यहाँ तो योगियों की योगावस्था छूट जाती है। इसका कारण यह है कि योग-साधना में जिस प्रकार का आनंद प्राप्त होता है, उससे भी अधिक आनंद पंचवटी के सौंदर्य को निहारने में मिल जाता है। यहाँ आकर पाप-समूह की भयानक बेड़ी कट जाती है और इसके निकट आते ही ज्ञान की भारी गठरी प्रकट हो जाती है अर्थात् यहाँ आकर ज्ञान-लाभ होता है। इसके चारों ओर मुक्ति नटी बनकर नाच रही है, क्योंकि मुक्ति से जो आनंद प्राप्त होता है, वैसा ही आनंद इसके चारों ओर देखने से मिल रहा है। अपने इन्हीं गुणों के कारण यह पंचवटी वन शिव के समान बना हुआ है। शिव के दर्शन से जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब कुछ इस वन में आने से मिल जाता है।

विशेष :

  1.  पंचवटी की शोभा का मनोहारी चित्रण किया गया है।
  2. अलंकार : अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक।
  3. भाषा : ब्रज।
  4. रस : शांत।
  5. गुणः प्रसाद।

(ख) पति बने चारमुख, पूत बने पंचमुख,
नाती बने षट्मुख तदपि नई नई।
उत्तर :
काव्य सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : इस काव्य-पंक्ति में सरस्वती की उदारता का बखान करने में मुख की शक्ति की हेयता दर्शाई गई है। एक मुख वाले व्यक्ति का तो क्या कहना, चार मुख वाले ब्रह्मा, पाँच मुख वाले शिव और छह मुख वाले कार्तिकेय भी इसका बखान करने में असमर्थ हैं। कारण – नयेपन का समाविष्ट हो जाना।

शिल्प-सौंदर्य :

  • अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘नई-नई’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
  • ब्याजस्तुति अलंकार का भी प्रयोग है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

(ग) चहुँ ओरनि नाचति मुक्ति नटी
गुन धूरजटी जटी पंचवटी
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : पंचवटी के सौंदर्य का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से किया गया है। यहाँ तो मुक्ति भी नटी की तरह नाचती प्रतीत होती है। यहाँ का वातावरण ही मुक्ति का-सा अहसास करा देता है। पंचवटी के गुण उसे शिव के समान बना देते हैं।

शिल्प-सौंदर्य :

  • ‘मुक्ति नटी’ में रूपक अलंकार है।
  • ‘जटी जटी’ में यमक अलंकार है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

(घ) सिंधु तर्यो उनको बनरा तुम पै धनुरेख गई न तरी।
बाँधोई बाँधत सो न बन्यो उन बारिधि बाँधिके बाट करी।
उत्तर :
काव्य सौंदर्य : इन पंक्तियों में रावण की शक्ति की सीमा पर सशक्त ढंग से व्यंग्य किया गया है। श्रीराम का दूत समुद्र पार कर लंका तक चला आया जबकि रावण लक्ष्मण द्वारा धनुष से खींची गई रेखा तक को पार नहीं कर पाया। वानरों ने समुद्र पर पुल तक बाँध दिया जबकि रावण एक वानर (हनुमान) तक को नहीं बाँध पाया।

शिल्प-सौंदर्य :

  • राम की प्रशंसा के बहाने रावण की निंदा की गई है।
  • अनुप्रास की छटा- बाँधोई बाँधत …… बारिधि बाँधिकै बाट
  • ओज गुण का समावेश है।
  • ब्रज भाषा प्रयुक्त हुई है।
  • वीर रस की व्यंजना हुई है।

(ङ) तेलनि तूलनि पूँछ जरी न जरी, जरी लंक जराइ जरी।
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : इस काव्य-पंक्ति में रावण को उसकी विफलता का अहसास कराया गया है। रावण हनुमान का कुछ भी न बिगाड़ पाया जबकि हनुमान ने पूँछ में लगाई उसी की आग से उसकी स्वर्ण-रत्न जटित लंका को जलाकर राख कर दिया। हनुमान की वीरता और कुशलता का परिचय दिया गया है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • ब्याजस्तुति अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘तेलनि तूलनि’, ‘जराइ जरी ‘ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • ‘जरी जरी ‘ में यमक अलंकार है।
    (जरी = जली, जरी = जड़ी हुई)
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

(च) श्री रघुनाथ-प्रताप की बात, तुम्हें दसकंठ न जानि परी।
तेलनि तूलनि पूँछि जरी न जरी, जरी लंक जराय जरी॥
उत्तर :
भाव सौंदर्य : इस काव्य-पंक्ति में रावण को उसकी विफलता का अहसास कराया गया है। रावण हनुमान का कुछ भी न बिगाड़ पाया जबकि हनुमान ने पूँछ में लगाई उसी की आग से उसकी स्वर्ण-रल्न जटित लंका को जलाकर राख कर दिया। हनुमान की वीरता और कुशलता का परिचय दिया गया है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • ब्याजस्तुति अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘तेलनि तूलनि’, ‘जराइ जरी’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • ‘जरी जरी’ में यमक अलंकार है। (जरी = जली, जरी = जड़ी हुई)
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

प्रश्न 2.
पंचवटी किसके समान फलदायक है? यहाँ क्या-क्या फल मिलते हैं?
उत्तर :
पंचवटी शिव के दर्शन के समान फलदायक है। यहाँ पहुँचते ही सब पाप मिट जाते हैं। संपूर्ण सांसारिक बंधन टूट जाते हैं। सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं। यहाँ का सौंदर्य आनंद से भर देता है। यहाँ ज्ञान-रूपी गठरी प्राप्त होती है।

प्रश्न 3.
रावण की लंका किसने जलाई और क्यों?
उत्तर :
रावण की लंका हनुमान ने जलाई, क्योंकि रावण समझता था कि एक वानर को अपनी पूँछ ही सबसे प्यारी होती है. इसलिए हनुमान को दंड देने के लिए रावण ने हनुमान की पूँछ में आग लगवा दी थी। उसी पूँछ से हनुमान ने सोने की लंका को जलाकर राख कर दिया।

प्रश्न 4.
मंदोदरी को क्यों लगता है कि ‘श्री रधुनाथ-प्रताप की बात’ रावण की समझ में नहीं आ रही है? केशवदास के सवैये के आधार पर लिखिए।
उत्तर :
मंदोदरी को इसलिए लगता है कि श्री रधुनाथ-प्रताप की बात रावण की समझ में नहीं आ रहीं क्योंकि रावण अहंकारी एवं घमंडी राजा है। सोने की लंका नष्ट होने के उपरांत भी उसका घमंड चूर नहीं हुआ है। इतना होने पर भी वह सीता माता को छोड़ने की तैयार नहीं हो रहा।

अन्य प्रश्न –

प्रश्न 1.
पंचवटी में कपटी व्यक्तियों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
कवि पंचवटी के प्रभाव का वर्णन करता है। पंचवटी तपस्वी स्थल है। यहाँ कपट नहीं रह सकता। उसकी मृत्यु हो जाती है। यहाँ मृत्यु भी नहीं फटक सकती। यहाँ तपस्वियों को मोक्ष मिलता है। पंचवटी का सौंदर्य इतना मनोरम है कि यह सौंदर्य कपटी व्यक्ति के हृदय में सात्विक भाव जगा देता है और व्यक्ति कपट त्यागकर सात्विक भाव-विचार वाला बन जाता है।

प्रश्न 2.
‘बाँधोई बाँधत सो न बन्यो उन बारिधि बाँधि के बाट करी’ – पंक्ति में निहित उपकथा को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
लंकाराज रावण सीता का हरण करके लंका लाया। उसने हनुमान और अंगद के साथ दुर्व्यवहार किया। जिस किसी ने भी रावण को समझाने का प्रयास किया, रावण ने उसे अपमानित किया। उसका मिथ्याभिमान उसकी बुद्धि पर हावी हो चुका था। तब मंदोदरी ने उस पर आक्षेप करते हुए कहा कि श्रीराम का अनुयायी एक वानर लंका आया। तुमने उसे बाँधना चाहा पर वह तुमसे न बाँधा गया। उसने तुम्हारी लंका जला दी। तुम श्रीराम की शक्ति नहीं जानते। उन्होंने तो समुद्र को बाँध लिया और उस पर रास्ता बनाया।

प्रश्न 3.
‘दंडक’ पद का कथ्य क्या है? समझाइए।
उत्तर :
इस पद में कवि ने सरस्वती की स्तुति की है। वह बताता है कि सरस्वती की महानता का कोई वर्णन नहीं कर सकता। देव, सिद्धपुरूष, तपस्वी आदि उसका वर्णन करते-करते थक गए, परंतु कोई भी उनकी उदारता का गुणगान न कर सका। स्वयं ब्रह्मजी ने अपने चार मुखों से, शिवजी ने अपने पाँच मुँह से और कार्तिकेय ने षटमुख से वर्णन किया, परंतु यह वर्णन अधूरा ही रहा। संसार में कोई भी इसके पूर्ण रूप को नहीं जान पाया। यह नित नए रूप में प्रकट होती है।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 11 Question Answer घनानंद के कवित्त / सवैया

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 11 घनानंद के कवित्त / सवैया

Class 12 Hindi Chapter 11 Question Answer Antra घनानंद के कवित्त / सवैया

प्रश्न 1.
कवि ने ‘चाहत चलन ये संदेसो ले सुजान को’ क्यों कहा है ?
उत्तर :
कवि अपनी प्रेयसी सुजान के दर्शन की अभिलाषा काफी समय से कर रहा है। वह आने का झूठा वायदा करती है और आती नहीं है। कवि इससे उदास हो जाता है। वह प्रतीक्षा करता-करता थक गया है। अब तो उसके प्राण निकलने को ही हैं। वे अधर तक आ गए हैं। वे अभी भी अटके हुए हैं। उनकी चाहत है कि निकलने से पहले वे सुजान का संदेशा ले लें अर्थात् सुजान के संदेश या आगमन की प्रतीक्षा में उसके प्राण अटके हुए हैं। इसीलिए कवि ने ऐसा कहा है।

प्रश्न 2.
कवि मौन होकर प्रेमिका के कौन से प्रण पालन को देखना चाहता है ?
उत्तर :
कवि घनानंद मौन होकर प्रेमिका सुजान के उस प्रण-पालन (प्रतिज्ञा) को देखना चाहता है जो उसने पूर्व-काल में उससे प्रेम करते समय किया था। तब उसने उससे मिलते रहने का वादा करते हुए सदा-सदा के लिए उसके साथ बनी रहने की प्रण किया था। अब उसकी नायिका सुजान रूठ गई है और संभवतः अपना प्रण भूल बैठी है। अब वह उसकी ओर ध्यान नहीं देती। कवि ने भी मौन साध रखा है और वह इस मौन के माध्यम से उस घड़ी की प्रतीक्षा कर रहा है कि कब उसकी प्रेयसी प्रण का पालन करके उसके पास आती है।

प्रश्न 3.
कवि ने किस प्रकार की पुकार से ‘कान खोलि है’ की बात कही है ?
उत्तर :
कवि ने अपनी पुकार से नायिका के कान खोलने की बात कही है-‘कबहूँ तो मेरियै पुकार कान खोलि है।’ कवि कहता है कि तुम कब तक कानों में रुई दिए रहोगी ? कब तक बहरे होने का ढोंग करती रहोगी ? कभी तो तुम्हारे कानों में मेरे दिल की आवाज पहुँचेगी और तुम्हारे कान खुलेंगे।

प्रश्न 4.
प्रथन सवैये के आधार पर बताइए कि प्राण पहले कैसे पल रहे थे और अब क्यों दुःखी हैं ?
उत्तर :
प्रथम सवैये में बताया गया है कि पहले संयोगावस्था थी अतः कवि प्रेयसी को देखकर जीवित रहता था। तब उसके प्राण बड़े संतोष के साथ पल रहे थे। तब हुदय में संतोष रहता था। अब वियोगावस्था में उसके प्राण बड़े व्याकुल रहते हैं। वे बिलबिलाते हैं, दुःखी रहते हैं क्योंकि अब उसकी प्रेमिका सुजान उसके पास नहीं है। उसको सब कुछ फीका-फीका प्रतीत होता है।

प्रश्न 5.
घनानंद की रचनाओं की भाषिक विशेषताओं को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
घनानंद की रचनाओं की भाषिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  • घनानंद की भाषा परिष्कृत और साहित्यिक ब्रजभाषा है।
  • घनानंद भाषा की व्यंजकता बढ़ाने में कुशल थे।
  • वे ब्रजभाषा प्रवीण तो थे ही, साथ ही सर्जनात्मक काव्य-भाषा के प्रणेता भी थे।
  • घनानंद की भाषा में लाक्षणिकता का समावेश है।
  • घनानंद अलंकारों के प्रयोग में अत्यंत कुशल थे। वे अनुप्रास, यमक, उपमा, वक्रोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग दक्षता के साथ. करते हैं।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों की पहचान कीजिए-
(क) कहि कहि आवत छबीले मनभावन को, गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को।
(ख) कूक भरी मूकता बुलाय आप बोलि है।
(ग) अब ना घिरत घन आनंद निदान को।
उत्तर :
(क) पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार
(ख) विरोधाभास अलंकार
(ग) अनुप्रास, श्लेष।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) बहुत दिनान की अवधि आसपास परे/खरे बरबरनि भरे है उठि जान को।
(ख) मौन हू सौं देखिहौं कितेक पन पालिहौ जूकूकभरी मूकता बुलाय आप बोलि है।
(ग) तब तो छबि पीवत जीवत है, अब सोचन लोचन जात जरे।
(घ) सो घनआनँद जान अजान लों ट्रक कियौ पर वाँचि न देख्यो।
(ङ) तब हार पहार से लागत हे, अब बीच में आन पहार परे।
उत्तर :
(क) बहुत दिनों की अवधि आस में बीत गई। अब तो मेरे (कवि के) प्राण उठ जाने या निकल जाने की हड़बड़ी में हैं अर्थात् अब प्राण छूटने ही वाले हैं। अब उसकी जान पर बन आई है।
(ख) कवि मौन (चुप) होकर प्रिय के प्रण का निर्वाह देखना चाहता है। कूकभरी मौनता उसे कब बोलने पर विवश करती है। कवि की पुकार उसे बोलने के लिए विवश कर देगी।
(ग) संयोगकाल में कवि प्रिय सुजान को देखकर जीवित रहता था, तब उसके सौंदर्य की छवि का पान करता था। वियोगावस्था में अब उस स्थिति के सोचने से ही नेत्र जले जाते हैं। नेत्रों में अभी भी मिलन की प्यास बनी हुई है।
(घ) घनानंद ने अपने हृदय की बातों को प्रेमपत्र में लिखा, पर उस निष्ठुर सुजान ने अनजान बनते हुए उस पत्र को टुकड़े-टुकड़े कर दिया, पर पढ़कर नहीं देखा। उसने कवि के दिल को ही तोड़ दिया। उसकी भावनाओं को नहीं समझा।
(ङ) मिलन की घड़ी में नायिका के गले का हार पहाड़ के समान (बाधक) लगता था अब तो नायक-नायिका के बीच में वियोग रूपी पहाड़ ही खड़ा हो गया है अर्थात् दोनों का मिलन दूभर हो गया है।

8. संवर्भ सहित व्याख्या कीजिए-
(क) झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास है, कै चाहत चलन ये संदेसो लै सुजान को।
(ख) जान घनआँन यों मोहिं तुम्है पैज परी ………. कबहूँ तौ मेरियै पुकार वचन खोलि है।
(ग) तब तौ छबि पीवत जीवत है ……….. विललात महा दुःख दोष भरे।
(घ) ऐसो हियो हित पत्र पवित्र ……….. टूक कियौ पर न देख्यौ।

व्याख्या भाग देखें।

योग्यता विस्तार –

1. निम्नलिखित कवियों के तीन-तीन कवित्त और सवैया एकत्रित कर याद कीजिए-तुलसीदास, रसखान, पद्याकर, सेनापति।

तुलसीदास

1. दूलह राम, सिय दुलही री।
घन-दामिनि-बर बरन, हरन मन
सुंदरता नखसिख निबही, री।।
ब्याह-विभूषन-बसन-विभूषित,
सखि-अवली लखि ठगि सी रही, री।
ज़ीवन-जनम-लाहु लोचन-फल है इतिनोइ,
लह्यो आजु सही, री॥
सुखमा-सुरभि सिंगार-छीर दुहि,
मयन अमिय-मय कियो है दही, री।
मथि माखन सिय राम संवारे,
सकल-भुवन-छबि-मनहु मही, री।
तुलसीदास जोरी देखत सुख शोभा,
अतुल न जाति कही, री!
रूय रासि बिरजी बिरंचि मनो,
सिला लवनि रति काम लही, री।।

2. मन पछितैहें अवसर बीते।
दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु करम बचन अरु ही ते॥
सहसबाहु, दसवदन आदि नृप बचे न काल बली ते।
हम हम करि धन धाम संवारे, अंत चले उठि रीते॥।
सुत, बनितादि जानि स्वारथ-रत न करु नेह सबही तें।
अंतहुं तोहिं तजैंगे, पामर! तू न तजै अबही तें।।
अब नाथाहिं अनुराग जागु जड़, त्याग दुरासा जी ते।
बुझै न काम-अंगिनि तुलसी कहुँ विषय-भोग बहु बी तें।।

3. खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सौं ‘कहाँ जाइ का करी’?
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम! रावरे कृपा करी।।
दारिद-दसानन दवाई दुनी, दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।।

सेनापति

ग्रीष्म

वृष कौ तरनि तेज सहसो किरन करि
ज्वालन के जाल बिकराल बरसत है।
तपति धरनि, जग जरत झरनि सीरी
छाँह कौं पकरि पंथी-पंछी बिरमत हैं।।
सेनापति नैक दुपहरी के ढरत होत
धमका विषम, ज्यौं न पात खरकत हैं।
मेरे जान पौनौं सीरी ठौर कौ पकरि कौनों,
घरी एक बैठि कहूं घामें बितवत हैं।।

वर्षा

दामिनी दमक सोई मंद बिहसनी, बग –
माल है बिसाल सोई मोतिन कौ हारों है।
बरन-बरन घन रंगित बसन तन,
गरज गरूर सोई बाजत नगारौ है।।
सेनापति सावन कौ बरसा नवल वधु,
मानो है बराति साजि सकज सिगारौ है।
त्रिबिध बरन परयौ इंद्र कौ धनुष लाल
पन्ना सौं जटित मानौं हेम खगवारौ है।

शरव

कातिक की राति थोरी-थोरी सियराति,
सेनापति है सुहाति सुखी जीवन के गन हैं।
फूले हैं कुमुद, फूली मालती सघन वन,
फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं।।
उदित बिमल चंद, चाँदनी छिटकि रही,
राम कैसौ जस अंध ऊरध गगन हैं।
तिमिर हरन भयौ सेत हैं बरन सब,
मानहु जगत छीर-सागर मगन हैं।।

रसखान

मानुष हों तो वही ‘रसखानि’,
बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पशु हौं तो कहा बस मेरो,
चरौं नित नंद की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हों तो बसेगों करौं नित, कालिंदी कूल कदेंब की डारन।
गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के
जौ लगि कछू को कछू भाखत भनै नहीं।
कहै पद्याकर परोस पिछवारन कै
द्वारन के दौरि गुन औगुण गनें नहीं
तौ लौं चलि चतुर सहेली याहि कोऊ कहूँ,
नीके कै निचोरे ताहि करत मनै नहीं।
हों तो स्याम रंग में चुराइ चित चोरा चोरी,
बोरत तों बोर्यो पै निचोरत बनै नहीं।

2. पठित अंश में से अनुप्रास अलंकार की पहचान कर एक सूची तैयार कीजिए।

अनुप्रास अलंकार की सूची

  • घिरत घन आनंद निदान को
  • चाहत चलन’
  • पन पालिहौ..
  • टेक टरें”
  • जात जरें”
  • सुख साज समाज
  • पूरन प्रेम “
  • सोचि सुधारि
  • चारु चरित्र “
  • रचि राखिख
  • हियो हितपत्र

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काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न –

प्रश्न :
निम्नलिखित काव्यांशों में निहित काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
(क) अधर लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान, चाहत चलन ये संदेसौ लै सुजान को।
उत्तर :
कवि अपनी प्रिय सुजान की प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री से करता है। वह उसकी प्रतीक्षा करते-करते मरणासन्न दशा को पहुँच गया है। अब तो उसके प्राण अधर (होठों) तक आ लगे हैं। अब उसके प्राण प्रयाण करने ही वाले हैं अर्थात् वह मरने ही वाला है। पर उसके प्राण इसलिए अटके हुए हैं क्योंकि वे प्रिय सुजान का संदेशा लेकर ही निकलना चाहते हैं।

  • वियोगावस्था का मार्मिक चित्रण किया गया है।
  • वियोग श्रृंगार रस का परिपाक हुआ है।
  • ‘पयान प्रान’ तथा ‘चाहत चलन’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • ब्रजभाषा का माधुर्य झलकता प्रतीत होता है।

(ख) रुई विए रहौगे कहाँ लौं बहारायबे की ?
कबहूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलि है।
उत्तर :
कवि की प्रेयसी सुजान बड़ी निष्ठुर है। उसने कानों में रुई डाल रखी है अर्थात् कवि की बात अनसुनी कर देती है और बहरा बनने का नाटक करती है। कवि का विश्वास अभी तक टूटा नहीं है। उसे आशा है कि उसकी पुकार को नायिका लंबे समय तक अनसुनी नहीं कर पाएगी। उसे कान खोलने ही पड़ंगे। – ‘कानों में रुई दिए रहना ‘ तथा ‘कान खोलना’ मुहावरों का सटीक प्रयोग हुआ है।

  • उपालंभ शौली प्रयुक्त हुई है।
  • ब्रजभाषा का माधुर्य झलकता है।

(ग) तब हार पहार से लागत है,
अब आनि के बीच पहार परे।
उत्तर :
कवि संयोगकालीन और वियोगकालीन अवस्थाओं के अंतर को अभिव्यक्त करता है। संयोगावस्था में नायिका सुजान के गले में पड़ा हार दोनों के मिलन (आलिंगन) में बाधक बनता था। अब वियोगावस्था में वियोग के पहाड़ आकर खड़े हो गए हैं।

  • ‘हार पहार से’ – में उपमा अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘पहार’ में यमक अलंकार है।
  • ‘पहार परे’ में ‘प’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
  • ब्रजभाषा का प्रयोग है।
  • शृंगार रस की व्यंजना हुई है।

(घ) सो घनआँव जान अजान लौं टूक कियो, पर बाँचि न वेख्यो।
उत्तर :
कवि घनानंद् ने अपनी प्रिय सुजान को प्रेमपत्र लिखा और उसमें अपने दिल का हाल वर्णन किया पर निष्ठुर सुजान ने उस पत्र को पढ़कर भी न देखा और उसे फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इससे कवि का दिल टूट गया।

  • पत्र को टुकड़े-टुकड़े करना, कवि हृदय के टुकड़े-टुकड़े करना है।
  • इसमें प्रतीकात्मकता एवं लाक्षणिकता का समावेश है।
  • ‘जान अजान’ में यमक अलंकार है।
  • ब्रजभाषा का प्रयोग है।

(ङ) कहि-कहि आवन छबीले मनभावन को, गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को॥ झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास हवै कै, अब न घिरत घन आनँद निदान को। अधर लगे हैं आनि करि के पयान प्रान, चाहत चलन ये सँदेसो ले सुजान को॥
उत्तर :
कवि अपनी प्रिय सुजान की प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री से करता है। वह उसकी प्रतीक्षा करते-करते मरणासन्न दशा को पहुँच गया है। अब तो उसके प्राण अधर (होठों) तक आ लगे हैं। अब उसके प्राण प्रयाण करने ही वाले हैं अर्थात् वह मरने ही वाला है। पर उसके प्राण इसलिए अटके हुए हैं क्योंकि वे प्रिय सुजान का संदेशा लेकर ही निकलना चाहते हैं। – वियोगावस्था का मार्मिक चित्रण किया गया है।

  • वियोग श्रृंगार रस का परिपाक हुआ है।
  • ‘पयान प्रान’ तथा ‘चाहत चलन’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • त्रजभाषा का माधुर्य झलकता प्रतीत होता है।

(च) घन आनँद मीत सुजान बिना, सब ही सुख-साज-समाज टरे।
तब हार पहार से लागत हे, अब आनि कै बीच पहार परे।।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य : कवि संयोगकालीन और वियोगकालीन अवस्थाओं के अंतर को अभिव्यक्त करता है। संयोगावस्था में नायिका सुजान के गले में पड़ा हार दोनों के मिलन ‘आलिंगन’ में बाधक बनता था। अब वियोगावस्था में वियोग के पहाड़ आकर खड़े हो गए हैं। उसे अपनी प्रिय के बिना सभी सुख व्यर्थ के प्रतीत होते हैं।

शिल्प सौंदर्य :

  • ‘हार पहर से’ में उपमा अलंकार का प्रयोग है।
  • ‘पहार’ में यमक अलंकार है।
  • ‘पहर परे’ में ‘प’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘सुख साज समाज’ में ‘अनुप्रास अलंकार’ है।
  • ब्रजभाषा का प्रयोग है।
  • शृंगार रस की व्यंजना हुई है।

भाव-सौंदर्य संबंधी प्रश्न –

प्रश्न 1.
वियोग के समय प्रेमी की हालत खराब हो जाती है। प्रथम सवैये के आधार पर बताइए।
उत्तर :
कवि ने बताया है कि वियोग के समय प्रेम की दशा करूण हो जाती है। उसकी आँखें जलने लगती हैं। प्रेमी के बिना उसके प्राण तड़पने लगते हैं। समाज के सारे सुख निरर्थक लगते हैं तथा हर सुख अब मिलन में बाधक लगता है। उसकी स्थिति ऐसी हो जाती है कि वह न मर पाता है और न जी पाता है। उसे लगता है कि प्रिय से मिलने की चाह में ही उसके प्राण अटके हुए हैं अन्यथा उसके प्राण कब के निकल गए होते।

प्रश्न 2.
घनानंद के ‘हियौ हित पत्र’ में क्या-क्या बातें थी और नायिका ने उसके साथ क्या व्यवहार किया ?
उत्तर :
कवि अपने प्रेमपत्र का वर्णन करते हुए कहता है कि उसने अपनी प्रियतमा को, अपने हृदय रूपी प्रेमपत्र में, प्रेम की संपूर्णता का मंत्र पूरी प्रतिज्ञा के साथ बहुत सोच-विचार के साथ लिखा था। अर्थात् कवि ने बहुत सोच-समझकर अपनी प्रियतमा को एक प्रेमपत्र लिखा था। उसमें उसने उसके प्रति अपने एकनिष्ठ प्रेम की अभिव्यक्ति की थी। उस प्रेमपत्र में मंत्र जैसी पवित्रता और निश्छलता थी। पत्र बहुत सोच-विचार करके लिखा गया था। उस प्रेमपत्र में प्रियतमा के सुंदर चरित्र और अद्भुत कायो को परिश्रमपूर्वक लिखा गया था। इस प्रेमपत्र में प्रियतमा के अतिरिक्त किसी अन्य की बातों का उल्लेख तक नहीं था। कवि कहता है कि उसके हृदय रूपी पवित्र प्रेमपत्र को चतुर प्रियतमा ने बिना पढ़े ही अज्ञानियों की तरह फाड़कर, टुकड़े-टुकड़े कर दिए। आशय यह है कि प्रियतमा ने कवि के प्रेमपत्र को फाड़कर, उसके हुदय की भावनाओं की उपेक्षा कर, हृदय तोड़ दिया।

प्रश्न 3.
कवित्त में नायिका से कवि की क्या होड़ चल रही थी?
उत्तर :
कवि नायिका सुजान से कहता है कि तुम कब तक मिलने में आनाकानी करती रहोगी। मुझमें और तुममें एक प्रकार की होड़ चल रही है। मैं तुम्हें मिलने के लिए पुकार रहा हूँ और तुम मेरी उस पुकार को सुनकर भी अनसुना किए जा रही हो। इस तरह हमारे बीच पुकारने और सुनने की होड़ चल रही है। देखता हूँ कि तुम कब तक अपने कानों में रूई डालकर बैठी रहोगी। तुम्हारे कानों तक कभी तो मेरी पुकार पहुँचेगी और तुम मिलने आओगी।

प्रश्न 4.
अंतिम सवैये में प्रेमिका ने कवि घनानंद के ह्रदय रूपी प्रेम-पत्र का क्या किया?
उत्तर :
कवि घनानंद ने बताया है कि उसने पूर्ण प्रेम के महामंत्र की कसम को एक सूत्र में सुंदर बनाकर लिखा। उसने प्रयास से आराध्य सुजान के सुंदर चरित्र की रचना की। यह हृदय का पवित्र प्रेम-पत्र था जिसमें किसी अन्य की चर्चा नहीं थी, परंतु प्रेमिका ने उसे बिना पढ़े ही फाड़ दिया। कवि घनानंद सुजान से पवित्र प्रेम करते थे, परंतु सुजान ने कवि के प्रेम को महत्त्व नहीं दिया।

प्रश्न 5.
प्रथम कवित्त के भाव-सौंदर्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
इस कवित्त को विरह के चरमोत्कर्ष का उदाहरण माना जा सकता है। विरही कवि की सारी आशाएँ और सारे विश्वास विगलित हो गए हैं, प्राण अधरों से आ लगे हैं। वे अभी प्रयाण इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे चलते-चलते भी प्रिय का कुछ संदेश प्राप्त कर लेना चाहते हैं। बहुत दिनों तक आशा के व्यर्थ पाश में आबद्ध रहकर अब चलने को आतुर प्राण प्रिय की झूठी बातों पर विश्वास भी छोड़ चुके हैं। फिर भी उसका कुशल समाचार लेने के लिए रुके हुए हें। यदि प्रेमी को यह विश्वास हो जाए कि उसकी मृत्यु पर प्रिय के मुख से सहानुभूति का एक शब्द अवश्य निकलेगा तो वह जीने की अपेक्षा मृत्यु का वरण कर लेगा।

प्रश्न 6.
घनानंद के प्रेम के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
घनानंद ने काव्य में प्रेम का चित्रण ही नहीं किया है, अपितु वे जीवन में भी प्रेममार्ग के धीर पथिक रहे हैं। घनानंद का प्रेम स्वच्छंद प्रेम है। उनके प्रेम में प्रिय को देखने की अभिलाषा कभी समाप्त नहीं होती। वे कहते हैं-
‘भोर तें साँझ लौं कानन ओर, निहारति बावरी नेकु न हारति’ कवि प्रिय सुजान की निष्ठुरता को जानकर भी उसके प्रति एकनिष्ठ भाव से उन्मुख रहता है। स्वयं पीड़ा झेलकर भी प्रिय की मंगल-कामना करता है। प्रेमी एकनिष्ठ भाव से उसका मार्ग जोहता रहता है। कवि के जीवन का एकांतिक प्रेम उसका प्रेमादर्श रहा है। वह अपने प्रेम का प्रतिदान भी नहीं चाहता। घनानंद के प्रेम को निष्कामता की स्थिति तक पहुँचा हुआ वासना-विहीन प्रेम कहा जा सकता है।

प्रश्न 7.
घनानंद के कलापक्ष पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
घनानंद ब्रजभाषा के प्रयोग में पारंगत थे। घनानंद ने सर्वत्र ब्रजभाषा के व्याकरण और शब्द-रूपों का ध्यान रखा है। घनानंद एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने लक्षणा और व्यंजना शब्द-शक्तियों का भरपूर प्रयोग किया है। लाक्षणिकता घनानंद की भाषा की प्रधान विशेषता है।
घनानंद ने अपनी काव्य-भाषा में मुहावरे-लोकोक्तियों का भी भरपूर प्रयोग किया है। उनका झुकाव लोकोक्तियों की अपेक्षा मुहावरों की ओर अधिक है-
– ‘गहि बाँह न बोरियै जू’ (बाँह पकड़कर डुबोना)
– ‘जान न कान करैं’ (ध्यान न देना।)
घनानंद अलंकारों के प्रयोग में भी सिद्धहस्त हैं।
अनुप्रास अलंकार घनानंद का प्रिय अलंकार है।
– कौौगे कौलौ, पैज परी
घनानंद ने यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा और विरोधाभास आदि अलंकारों का भी सटीक प्रयोग किया है।
श्लेष का भी बहुत प्रयोग हुआ है-जान, सुजान, घन, आनंद के घन आदि स्थलों पर श्लेष है।

प्रश्न 8.
घनानंद के सवैये के आधार पर पूर्ण प्रेम-पत्र की विशेषता बताइए। प्रेमिका ने उस प्रेम-पत्र के साथ क्या किया और क्यों ?
उत्तर :
घनानंद ने अपनी प्रेयसी को प्रेमपत्र लिखकर भेजा। इस पत्र में उसने अपने पूर्ण प्रेम के महामंत्र को बहुत सोच-विचारकर और उसके श्रेष्ठ को याद, बड़े यल्नपूर्वक एक प्रेमपत्र अपनी प्रिया को लिखा। उसने इसमें थक-थक कर उसके सुंदर चरित्र की विचित्रता का गुणगान किया था। इसका उसने विशेष ध्यान रखा था। इस हृदय रूपी प्रेमपत्र में किसी अन्य कथा का कोई उल्लेख न था अर्थात् उसके रुष्ट होने का कोई कारण उपस्थित न था। ऐसी प्रेम कथा कही अन्यत्र नहीं लिखी गई थी। यह पवित्र प्रेमकथा थी लेकिन उस निष्ठुर जान अर्थात् सुजान (कवि की प्रेयसी) ने उस पत्र को पढ़कर भी नहीं देखा और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
कवि की प्रेयसी निष्ठुर थी। उसने पत्र को पढ़कर देखा तक नहीं।

प्रश्न 9.
घनानंद की रचनाओं की भाषिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
घनानंद के काव्य की भाषिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

  • घनानंद की भाषा ब्रजभाषा है। यह साहित्यिक और परिष्कृत ब्रजभाषा है।
  • उनकी काव्य-भाषा में कोमलता और माधुर्य गुण का समावेश है।
  • घनानंद भाषा की व्यंजकता बढ़ाने में अत्यंत कुशल हैं।
  • घनानंद ब्रजभाषा प्रवीण ही नहीं, सर्जनात्मक ब्रजभाषा के प्रणेता भी हैं।
  • घनानंद की भाषा में अनेक अलंकारों का सुंदर प्रयोग मिलता है। जैसे-अनुप्रास, रूपक, उपमा आदि अलंकार प्रयुक्त हुए हैं।
  • उनके प्रिय छंद हैं-कवित्त और सवैया।
  • घनानंद की भाषा विरह की मार्मिक अभिव्यक्ति करने में सक्षम है।
  • उनकी भाषा में लाक्षणिकता के दर्शन होते हैं।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 12 Question Answer प्रेमघन की छाया-स्मृति

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 12 प्रेमघन की छाया-स्मृति

Class 12 Hindi Chapter 12 Question Answer Antra प्रेमघन की छाया-स्मृति

प्रश्न 1.
लेखक शुक्ल जी ने अपने पिता की किन-किन विशेषताओं का उल्लेख किया है ?
उत्तर :
लेखक ने अपने पिता की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है : – पिताजी फारसी के अच्छे ज्ञाता थे। – वे पुरानी हिंदी के बड़े प्रेमी थे। – उन्हें फारसी कवियों की उक्तियों को हिंदी कवियों की उवितयों के साथ मिलाने में बड़ा आनंद आता था। – वे रात के समय ‘रामचरितमानस’ और रामचंद्रिका’ ‘को घर के लोगों के सम्मुख बड़े चित्राकर्षक ढंग से पढ़ा करते थे। – उन्हें भारतेंदु जी के नाटक बहुत पसंद थे। – वे लेखक की पढ़ाई को ध्यान में रखकर घर में आई पुस्तकों को छिपा देते थे।

प्रश्न 2.
बचपन में लेखक के मन में भारतेंदु जी के संबंध में कैसी भावना जगी रहती थी ?
उत्तर :
बचपन में शुक्ल जी के मन में भारतेंदु जी के संबंध में एक अपूर्व मधुरता की भावना जगी रहती थी। उनकी आयु उस समय केवल आठ वर्ष की थी। उनकी बाल बुद्धि ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक के नायक राजा हरिश्चंद्र और कवि हरिश्चंद्र में कोई भेद नहीं कर पाती थी। वे दोनों को एक ही समझते थे। हरिश्चंद्र शब्द से दोनों ही एक मिली-जुली भावना का अनुभव करते थे। उनके बारे में एक अपूर्व माधुर्य का संचार उनके मन में होता रहता था। जब उन्हें पता चला कि मिर्जापुर में भारतेंदु के एक मित्र रहते हैं तो उनके बारे में उत्कंठा जाग गई।

प्रश्न 3.
उपाध्याय बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ की पहली झलक लेखक ने किस प्रकार देखी ?
उत्तर :
लेखक मिर्जापुर में नगर से बाहर रहते थे। वहीं उन्हें पता चला कि भारतेन्दु जी के मित्र उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ रहते हैं। – डेढ़ मील का सफर तय करके सभी बालक एक मकान के नीचे पहुँचे। – प्रेमघन से मिलने की योजना बनाई गई। कुछ उन बालकों को एकत्रित किया गया जो चौधरी साहब के मकान से परिचित थे। उन्हें आगे किया गया। – नीचे का बरामदा खाली था। ऊपर का बरामदा लताओं के जाल से आवृत्त था। – लेखक ने ऊपर की ओर देखा। काफी देर बाद लताओं के बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई दी। – ये ही चौधरी प्रेमघन थे। उनके दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। – देखते ही देखते यह मूर्ति दृष्टि से ओझल हो गई। यही बदरीनारायण चौधरी की पहली झलक थी, जो लेखक ने देखी।

प्रश्न 4.
लेखक का हिंदी-साहित्य के प्रति झुकाव किस प्रकार बढ़ता गया ?
उत्तर :
लेखक के घर में हिंदी का वातावरण तो बचपन से ही था। वह ज्यों-ज्यों सयाना होता गया, त्यों-त्यों हिंदी-साहित्य की ओर उसका झुकाव बढ़ता गया। जब वह क्वींस कॉलेज में पढ़ता था तब स्व. रामकृष्ण वर्मा उनके पिताजी के सहपाठियों में से एक थे। लेखक के घर में भारत जीवन प्रेस की पुस्तके आया करती थीं, पर पिताजी उन्हें इसलिए छिपा कर रखते थे कि कहीं बेटे का चित्त स्कूल की पढ़ाई से न हट जाए। उन्हीं दिनों पं. केदारनाथ पाठक ने एक हिंदी पुस्तकालय खोला था। लेखक वहाँ से पुस्तकें लाकर पढ़ा करता था। बाद में लेखक की पाठक जी के साथ गहरी मित्रता हो गई। 16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते उसे समवयस्क हिंदी-प्रेमियों की अच्छी-खासी मंडली मिल गई। इनमें प्रमुख थे-काशी प्रसाद जायसवाल, भगवानदास हालना, पं. बदरीनाथ गौड़, पं. उमाशंकर द्विवेदी आदि। इस मंडली में हिंदी के नए-पुराने लेखकों की चर्चा होती रहती थी। अब शुक्ल जी भी स्वयं को लेखक मानने लगे थे। इस प्रकार उनका झुकाव हिंदी-साहित्य के प्रति बढ़ता चला गया।

प्रश्न 5.
‘निस्संदेह’ शब्द को लेकर लेखक ने किस प्रसंग का जिक्र किया है ?
उत्तर :
लेखक और उनके मित्रों की बातचीत प्रायः लिखने-पढ़ने की हिंदी में हुआ करती थी। इसमें ‘निस्संदेह’ शब्द प्राय: आया करता था। जिस स्थान पर लेखक रहता था, वहाँ अधिकतर वकील, मुख्तार, कचहरी के अफसर और कर्मचारी रहते थे। वे प्रायः उर्दू का प्रयोग करते थे। उनके उर्दू करनों में लेखक-मंडली की हिंदी बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी कारण उन लोगों ने इस लेखक-मंडली के लोगों का नाम ‘निस्संदेह’ रख छोड़ा था।

प्रश्न 6.
पाठ में कुछ रोचक घटनाओं का उल्लेख है। ऐसी तीन घटनाएँ चुनकर उन्हें अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
पहली रोचक घटना : एक बार की बात है कि मिर्जापुर में एक प्रतिभाशाली कवि वामनाचार्य गिरि रहते थे। एक दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर एक कविता जोड़ते चले जा रहे थे। अंतिम चरण अभी रह गया था कि उन्हें बरामदे में चौधरी साहब कंधों पर बाल छिटकाए खंभे के सहारे खड़े दिखाई दिए। बस वामन जी का कवित्त इस पंक्ति के साथ पूरा हो गया- “खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की।” (अर्थात् चौधरी साहब मुगल-रानी के समान लग रहे थे।)

दूसरी रोचक घटना : एक दिन चौधरी साहब के एक पड़ोसी उनके यहाँ पहुँचे। उन्हें देखते ही सवाल पूछा-” क्यों साहब, एक लफ्ज (शब्द) मैं अक्सर सुना करता हूँ, पर उसका अर्थ ठीक से समझ में नहीं आया है। आखिर ‘घनचक्कर’ शब्द के क्या मानी है। उसके लक्षण क्या हैं ?” पड़ोसी महाशय तुरंत बोले- ” वाह, यह क्या मुश्किल बात है। एक दिन रात को सोने से पहले कागज-कलम लेकर सवेरे से रात तक जो-जो काम किए हों, सब लिख जाइए और पढ़ जाइए।” (अर्थात् ऐसा व्यक्ति ही घनचक्कर होता है-व्यंग्य)

तीसरी रोचक घटना : एक बार गमी के दिनों में कई आदमी छत पर बैठकर चौधरी साहब से बातचीत कर रहे थे। चौधरी साहब के पास एक लैम्प जल रहा था तभी लैम्प की बत्ती भभकने लगी। चौधरी साहब इसे बुझाने के लिए नौकरों को आवाज देने लगे। लेखक ने चाहा कि वह आगे बढ़कर बत्ती को नीचे गिरा दे पर पं. बदरीनारायण ने तमाशा देखने के विचार से लेखक को रोक दिया। चौधरी साहब कहते जा रहे थे- अरे, जब फूट जाई तबै चलत आवह” और अंत में चिमनी ग्लोब सहित चकनाचूर हो गई, पर चौधरी साहब का हाथ लैम्य की तरफ न बढ़ा।

प्रश्न 7.
“इस पुरातत्त्व की दृष्टि से प्रेम और कुतूल का अद्भुत मिश्रण रहता था।” यह कथन किसके संदर्भ में कहा गया है और क्यों ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :

  • यह कथन बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन के संदर्भ में कहा गया है।
  • लेखक का उनसे अच्छा परिचय हो गया था। अतः अब वह वहाँ एक लेखक की हैसियत से जाता था।
  • लेखक की मित्र-मंडली उन्हें एक पुरानी चीज समझती थी।
  • उनमें प्रेम और कौतूहल का अद्भुत मिश्रण रहता था। लेखक और उनके मित्र उन्हें महत्त्वपूर्ण व्यक्ति मानकर उनके बारे में जानने को उत्सुक रहते थे।

प्रश्न 8.
प्रस्तुत संस्मरण में लेखक ने चौधरी साहब के व्यक्तित्व के किन-किन पहलुओं को उजागर किया है ?
उत्तर :
प्रस्तुत संस्मरण में लेखक ने चौधरी साहब के व्यक्तित्व के निम्नलिखित पहलुओं को उजागर किया है :
– आकर्षक व्यक्तित्व
चौधरी साहब एक आकर्षक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे। उनके बाल कंधों पर बिखरे रहते थे। वे एक भव्य मूर्ति के समान प्रतीत होते थे। तभी वामनाचार्य जी ने उन्हें देखकर ‘मुगलानी नारी’ कहा था।
– रईसी प्रवृत्ति वाले
चौधरी साहब एक अच्छे-खासे हिंदुस्तानी रईस थे। उनकी हर अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। जब वे टहलते थे तब एक छोटा-सा लड़का पान की तश्तरी लिए उनके पीछे-पीछे लगा रहता था।
– उत्सव प्रेमी
चौधरी साहब के यहाँ वसंत पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर खूब नाचरंग और उत्सव हुआ करते थे।
– वचन-वक्रता
चौधरी साहब बात की काँट-छाँट करने में अनोखे थे। उनके मुँह से जो बात निकलती थी, उसमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत का ढंग निराला होता था। नौकरों के साथ उनका संवाद सुनने लायक होता था।
– प्रसिद्ध कवि
चौधरी साहब एक प्रसिद्ध कवि थे। उनका पूरा नाम था-उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’। उनके घर पर लेखकों की भीड़ रहती थी।

प्रश्न 9.
समवयस्क हिंदी-प्रेमियों की मंडली में कौन-कौन से लेखक मुख्य थे ?
उत्तर :
लेखक की समवयस्क हिंदी-प्रेमियों की मंडली में निम्नलिखित लेखक मुख्य थे :

  • काशीप्रसाद जायसवाल
  • बा. भगवानदास हालना
  • पं. बदरीनाथ गौड़
  • पं. उमाशंकर द्विवेदी।

प्रश्न 10.
‘भारतेंदु जी के मकान के नीचे का यह हृदय-परिचय बहुत शीघ्र गहरी मैत्री में परिणत हो गया।’कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लेखक,एक बार एक बारात में काशी गया। वह घूमता हुआ निकला तो उसे पें, केदारनाथ पाठक दिखाई पड़े।
लेखक उनके पुस्तकालय में प्रायः जाया करता था, अतः पाठक जी लेखक को देखते ही वहीं खड़े हो गए। दोनों में वहीं बातचीत होने लगी। इसी बातचीत में मालूम हुआ कि पाठक जी जिस मकान से निकले थे वह भारतेंदु जी का ही घर था। लेखक बड़ी चाह और कुतूहल की दृष्टि से उस मकान की ओर देखता रहा। उस समय लेखक भावों में लीन था। पाठक जी लेखक की ऐसी भावुकता देकर बड़े प्रसन्न हुए। उन दिनों का यह हृदय-परिचय भारतेंदु के मकान के नीचे हुआ था, जो आगे चलकर शीघ्र ही गहरी मित्रता में बदल गया। वे दोनों गहरे मित्र बन गए।

भाषा-अध्ययन –

प्रश्न 1.
हिंदी-उर्दू के विषय में लेखक के विचारों को देखिए। आप दोनों को एक ही भाषा की दो शैलियाँ मानते हैं या भिन्न भाषाएँ ?
उत्तर :
लेखक हिंदी-उर्दू दोनों भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करता है। उनका काल संक्रमण का काल था। गध में खड़ी बोली का आगमन हो रहा था अतः उस समय के सभी लेखक हिंदी-उर्दू शब्दों का एक समान प्रयोग करते थे। हम इन दोनों भाषाओं को अलग-अलग मानते हैं। हिंदुस्तानी की ये दोनों शैलियाँ हो सकती हैं, पर हिंदी-उर्दू दोनों भाषाओं में अंतर है। ये दोनों भिन्न भाषाएँ हैं।

प्रश्न 2.
चौधरी जी के व्यक्तित्व को बताने के लिए पाठ में कुछ मजेदार वाक्य आए हैं-उन्हें छाँटकर उनका संदर्भ लिखिए।
उत्तर :
कुछ मजेदार वाक्य :

  1. ‘दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे ‘ : इस वाक्य से पता चलता है कि चौधरी साहब को लंबे बाल रखने का शौक था।
  2. ‘जो बातें उनके मुँह से निकलती थीं उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी।’ : इस वाक्य से पता चलता है कि चौधरी साहब बातचीत की कला में बड़े कुशल थे।
  3. ‘अरे जब फूट जाई तबै चलत आवत’ : इस वाक्य से पता चलता है कि वे घर में अपनी स्थानीय (देशज) भाषा में बात करते थे।

प्रश्न 3.
पाठ की शैली की रोचकता पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ पाठ की शैली रोचक है। सामान्यतः शुक्ल जी की शैली को काफी क्लिष्ट माना जाता है, किन्तु यह पाठ इस धारणा का अपवाद है। इस पाठ में लेखक ने रोचक शैली का अनुसरण किया है। पाठ में वर्णित विभिन्न घटनाएँ रोचक शैली में वर्णित की गई हैं। प्रेमघन जी के मुँह से जो बातें कहलाई गई हैं वे स्थानीय भाषा में हैं अतः रोचक हैं। लेखक अपने बारे में भी रोचक ढंग से बताता है। एक-दो स्थलों पर रोचक प्रसंगों का समावेश हुआ है।

योग्यता विस्तार –

1. भारतेंदु मंडल के प्रमुख लेखकों के नाम और उनकी प्रमुख रचनाओं की सूची बनाकर स्पष्ट कीजिए कि आधुनिक हिंदी गद्य के विकास में इन लेखकों का क्या योगदान रहा?

भारतेंदु मंडल के प्रमुख लेखक और उनकी प्रमुख रचनाएँ :

  1. बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन – प्रेमघन सर्वस्व
  2. बालमुकुंद गुप्त – देश प्रेम
  3. प्रतापनारायण मिश्र – प्रेम पुष्पावली, मन की लहर
  4. राधाचरण गोस्वामी – नवभक्तमाल
  5. राधाकृष्ण दास – देशदशा
  6. भारतेंदु हरिश्चंद्र – प्रेम मालिका, प्रेमसरोवर।

भारतेंदु युग (सन् 1850-1900 तक): िंदी निबंध को विकसित करने कां श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके समकालीन लेखकों को है। इस युग में बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ आदि प्रमुख थे। बालकृष्ण भट्ट ने विविध प्रकार के निबंध रचे। उनके निबंधों में ‘मेला-ठेला’, ‘ वकील’ (वर्णनात्मक), आँसू, सहानुभूति ( भावनात्मक), खटका, इंगलिश पढ़ें तो बाबू होय (हास्य-व्यंग्य) प्रसिद्ध हैं। भारतेंदु जी ने अनेक विषयों पर निबंध रचे; जैसे-कश्मीर कुसुम, कालचक्र, वैद्यनाथ धाम, हरिद्वार, कंकण स्तोत्र आदि। बालमुकुंद गुप्त ने ‘शिवशंभू के चिट्टे’ में हास्य-व्यंग्य की छटा बिखेरी है। प्रताप नारायण मिश्र ने भौं, दाँत, नमक, आदि पर निबंध लिखे। इस युग के निबंधों की विशेषताएँ इस प्रकार थीं :
(क) निबंधों के विषय विविधमुखी थे।
(ख) इन निबंधों में व्याकरण संबंधी दोष पाए जाते हैं।
(ग) इन निबंधों की भाषा में देशज एवं स्थानीय शब्दों का प्रयोग हुआ है।
(घ) इस युग के लेखन में देश-भक्ति, समाज सुधार की भावना है।
(ङ) इस युग में नवीन विचारों का स्वागत किया गया है।

2. आपको जिस व्यक्ति ने सर्वाधिक प्रभावित किया है, उसके व्यक्तित्व की विशेषताएँ बताइए।

मुझे जिस व्यक्ति ने सर्वाधिक प्रभावित किया है, वह है-मैथिलीशरण गुप्त। उनके व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं :

  • गुप्त जी भारतीय संस्कृति के अमर गायक हैं।
  • गुप्त जी के काव्य में सरलता है। ऐसा ही उनका सरल व्यक्तित्व था।
  • गुप्त जी ने नारी पात्रों का गौरव स्थापित किया, जैसे-उर्मिला, यशोधरा आदि का।
  • गुप्त जी का व्यक्तित्व भारतीय संस्कृति के अनुरूप था।
  • उन्हें राष्ट्रकवि होने का गौरव प्राप्त हुआ।
  • उनकी भाषा सहज एवं सरल थी। इसे सभी पाठक आसानी से समझ लेते हैं।
  • गुप्त जी ने प्रचुर मात्रा में साहित्य-सृजन किया।

3. यदि आपको किसी साहित्यकार से मिलने का अवसर मिले तो उनसे क्या-क्या पूछना चाहेंगे और क्यों ?

हम साहित्यकार से निम्नलिखित प्रश्न पूछना चाहेंगे:

  • आपकी रचनाओं पर किस वाद का प्रभाव है ? अर्थात् आप किससे प्रभावित हैं ?
  • आप समाज-परिवर्तन में साहित्यकार की भूमिका को किस रूप में देखते हैं ?
  • साहित्य समाज का दर्पण है अथवा नहीं। यदि ‘है’ तो फिर साहित्यकार को करने के लिए क्या बचता है ?
  • साहित्यकार को राजनीति में भाग लेना चाहिए अथवा नहीं ?
  • साहित्यकार बनने के लिए क्या करना होगा ?

4. संस्पंरण साहित्य क्या है ? इसके बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए।

संस्मरण : संस्मरण किसी दृश्य, घटना या व्यक्ति का भी हो सकता है। स्मृति के माध्यम से लेखक उन गुणों को रेखांकित करता है, जो जिदंगी जीने के लिए अनुकरणीय हैं। संस्मरण में लेखक का निजी व्यक्तित्व भी समाविष्ट हो जाता है।

हिंदी में, द्विवेदी युग में ‘सरस्वती’ मासिक पत्रिका के माध्यम से संस्परण प्रकाशित होने आरंभ हुए। ये संस्मरण अधिकांश प्रवासी भारतीयों ने लिखे हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामकुमार खेमका, जगतबिहारी सेठ, पांडुंग, प्यारेलाल, काशीप्रसाद जायसवाल, जगन्नाथ खन्ना आदि उल्लेख योग्य संस्मरण लेखक हैं।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 12 प्रेमघन की छाया-स्मृति

प्रश्न 1.
इस पाठ में कई स्थलों पर हास्य-व्यंग्य के छींटे बिखेरे गए हैं। ऐसे दो प्रसंगों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
इस पाठ में हास्य-व्यंग्य के कई प्रसंग हैं। उनमें से दो का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है :
1. एक दिन कई लोग बैठे बातचीत कर रहे थे कि इतने में एक पंडित जी आ गए। चौधरी साहब ने पूछा “कहिए क्या हाल है ?” पंडित जी बोले-” कुछ नहीं, आज एकादशी थी, कुछ जल खाया है और चले जा रहे हैं।” प्रश्न हुआ- “जल ही खाया है कि कुछ फलाहार भी पिया है ?”

2. एक दिन चौधरी साहब के एक पड़ोसी उनके यहाँ पहुँचे। देखते ही सवाल हुआ-” क्यों साहब, एक लफ्ज मैं अक्सर सुना करता हूँ, पर उसका ठीक अर्थ समझ में न आया। आखिर घनचक्कर के क्या मानी है। उसके क्या लक्षण हैं ?” पड़ोसी महाशय बोले-“वाह. यह क्या मुश्किल बात है। एक दिन रात को सोने के पहले कागज-कलम लेकर सवेरे से रात तक जो-जो काम किए हों, सब लिख जाइए और पढ़ जाइए।”

प्रश्न 2.
मुसलमान सब-जज ने लेखक के बारे में क्या कहा?
उत्तर :
लेखक के पिता की बदली मिर्जापुर में हो गई। उनके पड़ोस में मुसलमान सब-जज आ गए थे। एक दिन लेखक के पिता तथा सब-जज आपस में बात कर रहे थे। तभी लेखक वहाँ से गुजरा तो लेखक के पिता ने कहा कि इन्हें हिंदी पढ़ने का बड़ा शौक है। सब-जज ने कहा कि आपको बताने की ज़रूरत नहीं। इनकी सूरत देखते ही मुझे इस बात का पता चल गया था।

प्रश्न 3.
‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ का कथ्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ में लेखक ने बताया है कि किस प्रकार उसका रूझान हिंदी भाषा तथा साहित्य की तरफ बढ़ा। उसका बचपन साहित्यिक परिवेश से परिपूर्ण था। उसने बचपन से ही भारतेंदु तथा उनके साथी रचनाकारों का सानिध्य पाया तथा साहित्य का रसास्वादन किया। प्रेमघन के व्यक्तित्व ने लेखक मंडली को किस प्रकार आकर्षित तथा प्रभावित किया, इसकी झाँकी भी यहाँ मिलती है।

प्रश्न 4.
‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ पाठ के आधार पर रामचंद्न शुक्ल की भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
आचार्य रामचंद्र शुक्ल बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं। उनकी भाषा-शैली सरस, सजीव और भावानुकूल है। ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ नामक पाठ विवेचनात्मक शैली में है जिसमें व्यंग्य एवं विनोद का पुट है। उनका शब्द-चयन अत्यंत प्रभावशाली है। साहित्यिक खड़ी बोली में तत्सम शब्दावली का प्रयोग है। जगह-जगह उर्दू शब्दों का सहज प्रयोग है। उन्होंने भाषा की प्रवाहमयता बनाने के लिए देशज और तद्भव शब्दों से परहेज़ भी नहीं किया है। विचार-प्रधान सूत्रात्मक वाक्य-रचना उनकी गद्य-शैली की विशेषता रही है।

प्रश्न 5.
“प्रेमधन के सान्ििध्य में शुक्ल जी का साहित्यकार आकार ग्रहण करता है।” ‘प्रेमघन की स्मृति-छाया’ पाठ के आधार पर इस कथन की तर्कसम्मत पुष्टि कीजिए।
उत्तर :
जब शुक्ल जी को प्रेमघन का सान्निध्य प्राप्त हुआ तो शुक्ल का साहित्यकार रूप आकार ग्रहण करता चला गया। प्रेमघन के व्यक्तित्व ने शुक्ल जी समवरूस्क मंडली को बहुत प्रभावित किया था। लेखक प्रेमघन से मिलने को बहुत उत्सुक था। परिचय होने के बाद शुक्ल जी का उनसे खासा परिचय हो गया। प्रेमघन के यहाँ शुक्ल जी एक लेखक के रूप में जाने पहचाने लगे। प्रेमघन के यहाँ साहित्यिक कार्यक्रम होते रहते थे। शुक्ल जी भी उनमें भाग लेते थे। शुक्लजी के हिंदी के प्रति झुकाव में प्रेमघन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

प्रश्न 6.
लेखक के मुहल्ले में किस प्रकार के सब-जज आए थे। लेखक के बारे में उनका क्या विचार था ?
उत्तर :
लेखक के मुहल्ले में कोई मुसलमान सब-जज आ गए थे। एक दिन लेखक के पिताजी खड़े-खड़े उनके साथ कुछ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच लेखक उधर जा निकला। पिताजी ने उनका परिचय देते हुए उनसे कहा-” इन्हें हिंदी का बड़ा शौक है।” चट जवाब मिला-” आपको बताने की जरूरत नहीं। मैं तो इनकी सूरत देखते ही इस बात से ‘वाकिफ’ हो गया।” लेखक की सूरत में ऐसी क्या बात थी, यह वह इस समय नहीं कह सकता। यह आज से तीस वर्ष पहले की बात है। (अब तो और भी पुरानी हो गई)

प्रश्न 7.
लेखक शुक्लजी ने चौधरी साहब से परिचय हो जाने के बाद उन्हें कैसा पाया ?
उत्तर :
जब लेखक के पिता की बदली हमीरपुर जिले की राठ तहसील से मिर्जापुर हुई, तब उनकी आयु केवल आठ वर्ष की थी। तब उनकी भारतेन्दु हरिश्चंद्र के प्रति विशेष भावना थी। उन्हीं के एक मित्र उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी वहीं रहते थे। एक दिन उनसे भेंट हो गई। चौधरी साहब से उनका अच्छा परिचय हो गया। बाद में उनका वहाँ जाना एक लेखक की हैसियत से होता था। पहले शुक्लजी उन्हें एक पुरानी चीज़ समझते थे, अतः कुतूहल मिश्रित जिज्ञासा बनी रहती थी।

लेखक ने चौधरी साहब को पाया कि वे एक खासे हिंदुस्तानी रईस हैं। उनके यहाँ वसंत पंचमी, होली आदि अवसरों पर नाच रंग और उत्सव हुआ करता था। उनकी हर अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। उनके बाल कंधे तक लटके रहते थे। एक छोटा-सा लड़का पान की तश्तरी लिए उनके पीछे-पीछे लगा रहता था। उनके मुँह से जो बाते निकालती थी, वे विलक्षण होती थीं। उनके वक्रता रहती थी। वे लोगों को प्रायः बनाया करते थे। अन्य लोग भी उन्हें बनाने की फिक्र में रहते थे। वे नागरी को भाषा मानते थे।

प्रश्न 8.
16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते लेखक की हिंदी प्रेमी मंडली के बारे में बताइए।
उत्तर :
जब लेखक रामचंद्र शुक्ल 16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचे, तब उन्हें हिंदी-प्रेमियों की एक खासी मित्र-मंडली मिल गई। इस मित्र मंडली में काशी प्रसाद जायसवाल, भगवानदास हालना, पं० बद्रीनाथ गौड़, पं० उमाशंकर द्विवेदी प्रमुख थे। इस मंडली में हिंदी के नए-पुराने लेखकों के बारे में चर्चा बराबर होती रहती थी। तब तक शुक्ल भी स्वयं को एक लेखक मानने लगे थे। इन हिंदी-प्रेमियों की बातचीत प्रायः लिख्रने-पढ़ने की हिंदी में हुआ करती थी। इस बातचीत में ‘निस्संदेह ‘ शब्द का बहुत प्रयोग होता था। कुछ उर्दू प्रेमियों ने उन लोगों का नाम ‘निस्संदेह’ ही रख छोड़ा था।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 13 Question Answer सुमिरिनी के मनके

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 13 सुमिरिनी के मनके

Class 12 Hindi Chapter 13 Question Answer Antra सुमिरिनी के मनके

(क) बालक बच गया –

प्रश्न 1.
बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊूपर के कौन-कौन से प्रश्न पूछे गए ?
उत्तर :
बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के निम्नलिखित प्रश्न पूछे गए : 1. धर्म के कितने लक्षण हैं ? उनके नाम बताइए। 2. रस कितने हैं ? उनके उदाहरण दीजिए। 3. पानी के चार डिग्री नीचे शीतलता फैल जाने का क्या कारण है ? 4. चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक कारण बताइए। 5. इंग्लैंड के राजा हेनरी आठवें की स्त्रियों (पत्नियों) के नाम बताइए। 6. पेशवाओं के शासन की अवधि के बारे में बताओ।

प्रश्न 2.
बालक ने क्यों कहा कि मैं यावज्जन्म लोक सेवा करूँगा ?
उत्तर :
‘बालक बच गया’ लघु निबंध में एक आठ साल के बालक से बड़े-बड़े प्रश्नों के उत्तर पूछे जा रहे थे। बालक उनके सही उत्तर दे रहा था। अंत में जब उससे यह पूछा गया कि ‘तू क्या करेगा?’ तो बालक ने उत्तर दिया-” मैं यावज्जन्म लोक सेवा करूँगा।'” पूरी सभा उसका उत्तर सुनकर ‘वाह-वाह’ कर उठी, पिता का हुदय भी उल्लास से भर गया। अब प्रश्न उठता है कि बालक ने ऐसा उत्तर क्यों दिया ? बालक को शायद् अपने उत्तर का मतलब तक भी पता नहीं होगा। पर उसे जो कुछ सिखाया गया था, वही रटा-रटाया उत्तर बालक ने दे दिया।

प्रश्न 3.
बालक द्वारा इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने सुख की साँस क्यों भरी ?
उत्तर :
लेखक देख रहा था कि बालक को अपने प्राकृतिक स्वभाव के अनुरूप बोलने नहीं दिया जा रहा था। उसे रटी-रटाई बातें कहने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा था। उसे समय से पूर्व वह सब बताया जा रहा था जिसे वह जानता-समझता नहीं था। लेखक को बालक से किए गए प्रश्न और उनके रटे-रटाए उत्तर अस्वाभाविक लग रहे थे। अंत में जब बालक से उसकी इनाम लेने के बारे में इच्छा पूछी गई तब उसने बालकोचित वस्तु लट्ट् माँगा। इसे सुनकर लेखक को अच्छा लगा और उसने सुख की साँस ली, क्योंकि ऐसा माँगना बालक के लिए स्वाभाविक ही था।

प्रश्न 4.
बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटना अनुचित है, पाठ में ऐसा आभास किन स्थलों पर होता है कि उसकी प्रवृत्तियों का गला घोंटा जाता है ?
उत्तर :
यह बात बिल्कुल सही है कि बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटना अनुचित है। उसकी प्रवृत्तियों को सहज रूप से अभिव्यक्त होने देना चाहिए। तभी उसका पूर्ण विकास हो सकेगा। पाठ में ऐसा आभास निम्नलिखित स्थलों पर होता है कि बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटा जा रहा है। – जब बालक से ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं जिनको समझने और उत्तर देने की अभी उसकी आयु नहीं है। – बालक की दृष्टि भूमि से उठ नहीं रही थी अर्थात् वह भारी तनाव की स्थिति में था। – बालक की आँखों में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई साफ झलक रही थी।

प्रश्न 5.
“बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह ‘लड्ड्द’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं” कथन के आधार पर बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
बालक से उसके शिक्षक जो कुछ कहलवा रहे थे, वह सब अस्वाभाविक था। बालक से जब वृद्ध महाशय ने इनाम में मनपसंद वस्तु माँगने को कहा, तब इसके द्वारा लड्डू माँगा जाना, उसकी-बाल सुलभ स्वाभाविकता को इंगित करता है। इससे लेखक को लगा कि अभी इस बालक के बचने की आशा है अर्थात् इसका बचपन बचाया जा सकता है। जिस प्रकार जीवित वृक्ष हरे पत्तों के माध्यम से अपनी जीवंतता का परिचय देता है उसी प्रकार बालक के लड्डू माँगने से उसकी स्वाभाविकता का पता चलता था। बालक को किसी स्वार्थवश नियमों के बंधन में बाँधने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

(ख) घड़ी के पुर्जे –

प्रश्न 1.
लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए ‘घड़ी के पुर्जें का दृष्टांत क्यों दिया है ?
उत्तर :
लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए घड़ी के पुर्जे का दृष्टांत इसलिए दिया है –

  • घड़ी पुर्जों के बलबूते पर चलती है और इसी प्रकार धर्म अपने नियम-कायदों पर चलता है।
  • जिस प्रकार हमारा काम घड़ी से समय जानना होता है, उसी प्रकार धर्म से हमारा काम धर्म के ऊपरी स्वरूप को जानना होता है। (धर्म के ठेकेदारों पर व्यंग्य)
  • आम आदमी को घड़ी की बनावट, उसके पुर्जों की जानकारी नहीं होती, उसी प्रकार आम आदमी को धर्म की संरचना को जानने की जरूरत नहीं है। उसे उतना ही जानना चाहिए जितना धर्मोपदेशक बताएँ।

इस दृष्टांत से लेखक ने यह बताना चाहा है कि धर्मोपदेशक धर्म को रहस्य बनाए रखना चाहते हैं ताकि वे लोगों को अपने इशारों पर चला सकें। वे केवल ऊपरी-ऊपरी बातें बताते हैं।

प्रश्न 2.
‘धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्न धर्माचार्यों का ही काम है’ आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं ? धर्म संबंधी अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर :
धर्म का रहस्य जानना केवल वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम नहीं है, यह हमारा भी काम है। धर्म का प्रभाव हम सभी पर पढ़ता है और जिस बात का प्रभाव हम सभी पर पड़ता है उसको जानना हमारा अधिकार है। जब तक हम धर्म का रहस्य नहीं जानते तब तक ये धर्माचार्य हमें मूर्ख बनाते रहेंगे और हमारी अज्ञानता का लाभ उठाते रहेंगे। हमें धर्म के स्वरूप के बारे में जानना चाहिए। हमें यह भी समझना चाहिए कि क्या-क्या बातें धर्मानुकूल हैं और क्या बातें धर्म के प्रतिकूल हैं। धर्म आस्था का विषय है। धर्म के नाम पर शोषण नहीं किया जाना चाहिए। धर्म के बारे में हमारा अज्ञान ही हमारा शोषण करता है। ये तथाकथित धर्माचार्य धर्म के रहस्यों पर से परदा हटाने की बजाय उसको और अधिक रहस्यमय बना देते हैं ताकि वे अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे।

प्रश्न 3.
घड़ी समय का ज्ञान कराती है। क्या धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार अपने समय का बोध नहीं कराते ?
उत्तर :
घड़ी समय का ज्ञान कराती है बशर्त कि हमें घड़ी में समय देखना आता हो। धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार भी अपने समय का बोध कराती हैं। धर्म की कोई भी मान्यता यह बताती है कि उस समय किस परिस्थिति में इसें स्वीकारा गया। धर्म के विचार भी अपने काल का बोध कराते हैं। इसके लिए हमें धर्म के रहस्य को जानना होगा। धर्म की मान्यताओं और विचारों को धर्माचार्य अपने ढंग से परिभाषित करते हैं और उनका वास्तविक स्वरूप आम लोगों के सामने नहीं आने देते।

प्रश्न 4.
घड़ीसाजी का इम्तहान पास करने से लेखक का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
घड़ीसाजी का इम्तहान पास करने से लेखक का यह तात्पर्य है कि वह घड़ी के कल-पुर्जां की पूरी जानकारी प्राप्त कर चुका है। वह घड़ी को खोलकर फिर से ठीक प्रकार से जोड़ सकता है। उसके हाथों में घड़ी पूरी तरह से सुरक्षित है। उसे घड़ी के बारे में कोई धोखा नहीं दे सकता। घड़ीसाज के माध्यम से लेखक हमें यह बताना चाहता है कि हमें धर्म के रहस्यों की पूरी जानकारी हासिल करनी चाहिए ताकि कोई हमें मूर्ख न बना सके। हमें धर्म का इम्तहान पास करना होगा। हमें भी धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझना चाहिए।

प्रश्न 5.
धर्म अगर कुछ विशेष लोगों, वेदशास्वज्ञ, धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुडी में है तो आम आदमी और समाज का उससे क्या संबंध होगा ? अपनी राय लिखिए।
उत्तर :
धर्म अगर कुछ विशेष लोगों जैसे वेदशास्त्रजों, धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में रहता है तो आम आदमी तो मूख्ख बनता रहेगा। धर्म के ये ठेकेदार आम आदमी को धर्म का वास्तविक रहस्य जानने ही नहीं देते। वे अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए धर्म को अपने कब्जे में रखते हैं। वे तो लोगों को उतना ही बताते हैं जितना वे चाहते हैं। धर्म के ये तथाकधित ठेकेदार आम आदमी और समाज को अपने पाखंड का शिकार बनाते हैं, धार्मिक अंधविश्वास फैलाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं धर्म के बारे में जानने का प्रयास करना चाहिए। धर्म पर किसी का एकाधिकार नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 6.
‘जहाँ धर्म पर कुछ मुद्ठी भर लोगों का एकाधिकार धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है वहीं धर्म का आम आदमी से संबंध उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है।’ तर्क सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर :
यह बात पूर्णतः सत्य है कि जब धर्म पर मुट्ठी भर लोगों का आधिपत्य हो जाता है तब धर्म संकुचित हो जाता है अर्थात् धर्म का स्वरूप सिकुड़ जाता है। धर्म के तथाकथित ठेकेदार धर्म का उपयोग अपने हित-साधन के लिए करते हैं। ये लोग धर्म को अपने तक सीमित रखते हैं। जब धर्म का संबंध आम आदमी के साथ जुड़ता है तब धर्म का विकास होता है और धर्म विस्तार पा जाता है। इसका अर्थ हुआ कि धर्म का संबंध आम लोगों से है। जब धर्म उनके साथ जुड़ जाता है तब वह विस्तार पा जाता है। धर्म को व्यापक बनाने के लिए उसे धर्माचार्यों के चंगुल से निकालकर सामान्य जन तक ले जाना होगा।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए :
(क) ‘वेदशास्त्र, धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्जे जानें, तुम्हें इससे क्या ?’
(ख) ‘अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।
(ग) ‘हमें तो धोखा होता है कि पड़दादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्जे सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।
उत्तर :
(क) वेदशास्त्रों को जानने वाले धर्माचार्य धर्म के ठेकेदार बनते हैं। वे ही धर्म के रहस्य को अपनी दृष्टि से हमें समझाते हैं। वे एक प्रकार से घड़ीसाज का सा काम करते हैं। उनका ऐसा करना उचित नहीं है। हमें भी धर्म की जानकारी होनी चाहिए। धर्म का संबंध हम सभी से है। हमें इन तथाकथित धर्माचायों को बेवजह इतना अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए।
(ख) यह ठीक है कि अनाड़ी आदमी घड़ी को बिगाड़ देगा, पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास करके आया है अर्थात् घड़ी का पूरा जानकार है, उसे घड़ी देने में कोई हर्ज नहीं है। इसी प्रकार की स्थिति धर्म की है। जो धर्म का जानकार नहीं है, उससे तो खतरा हो सकता है, पर जो धर्म की पूरी जानकारी रखता है, उसे तो धर्म की व्याख्या करने दो।
(ग) जिस प्रकार पुराने जमाने की घड़ी को जेब में डाले रहने पर यह भ्रम तो बना ही रहता है कि मेरे पास घड़ी है, चाहे वह बंद ही क्यों न हो। इसी प्रकार की स्थिति धर्म की भी है। हम धर्म के पुराने स्वरूप को लेकर इस भ्रम में रहते हैं कि हम धार्मिक हैं और धर्म के बारे में सब कुछ जानते हैं। इस स्थिति को सुधारने की आवश्यकता है।

(ग) ढेले चुन लो –

प्रश्न 1.
वैदिककाल में हिंदुओं में कैसी लाटरी चलती थी जिसका जिक्र लेखक ने किया है?
उत्तर :
वैदिक काल में हिंदुओं में जो लाटरी चलती थी उसमें नर पूछता था और नारी को बूझना पड़ता था। नर स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर, सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के घर पहुँच जाता था। वह उसे गौ भेंट करता था। पीछे वह कन्या के सामने मिट्टी के कुछ ढेले रख देता और उससे कहता कि इनमें से एक उठा लें। ये ढेले प्रायः सात तक होते थें। नर जानता था कि वह ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया है और इनमें किस-किस जगह की मिट्टी है। कन्या इनके बारे में कुछ जानती न थी। यही लॉटरी की बुझौवल थी। इन ढेलों में वेदी, गौशाला, खेत, चौराहे, मसान (श्मशान) की मिट्टी होती थी। यदि वह वेदी का ढेला उठा ले तो संतान वैदिक पंडित, गोबर चुना तो पशुओं का धनी, खेत की मिट्टी छू ली तो जमींदार-पुत्र होगा। मसान की मिट्टी अशुभ मानी जाती थी। यदि किसी नर के सामने वह वेदी का ढेला उठा ले और ब्याही जाए। इस प्रकार वैदिक काल में हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी वरण करते थे।

प्रश्न 2.
‘दुर्लभ बंधु’ की पेटियों की कथा लिखिए।
उत्तर :
बबुआ हरिश्चंद्र के ‘दुर्लभ बंधु’ में पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ हैं –
एक सोने की, दूसरी चाँदी की और तीसरी लोहे की। तीनों में से किसी एक में उसकी प्रतिमूर्ति है। जो व्यक्ति स्वयंवर के लिए आता है उसे इन तीन पेटियों में से एक को चुनने के लिए कहा जाता है। अकड़बाज सोने की पेटी चुनता है और उसे उलटे पैरों लौटना पड़ता है। चाँदी की पेटी लोभी को अँगूठा दिखा देती है। सच्चा प्रेमी लोहे की पेटी को छूता है और घुड़दौड़ का पहला इनाम पाता है।

प्रश्न 3.
‘जीवन साथी’ का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के कौन-कौन से फल प्राप्त होते हैं ?
उत्तर :
जीवन साथी के चुनाव में मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के जो-जो फल प्राप्त होते हैं, वे इस प्रकार हैं :

  • यदि वेदि का ढेला उठा ले तो संतान वैदिक पंडित होगा।
  • यदि गोबर चुना तो पशुओं का धनी होगा।
  • यदि खेत की मिट्टी छू ली तो ‘जमींदार पुत्र’ होगा।
  • मसान की मिट्टी को हाथ लगाना अशुभ माना जाता था। यदि ऐसी नारी ब्याही जाए तो घर मसान हो जाएगा और वह जन्म भर जलाती रहेगी।

प्रश्न 4.
मिट्टी के छेलों के संदर्भ में कबीर की साखी की व्याख्या कीजिए-
पत्थर पूजै हरि मिलें तो तू पूज पहार।
इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार॥
उत्तर :
कबीर की इस साखी में बताया गया है कि पत्थर के पूजने से (मूर्ति पूजा से) भगवान नहीं मिलते। यदि पत्थर को पूजने से भगवान मिंल जायें तो मैं तो पहाड़ को पूजने लगूँ, पर यह व्यर्थ है। पत्थर का उपयोग तो आटा पीसने की चक्की में अच्छा होता है क्योंकि उसके आटे से लोगों का भोजन बनता है। यही बात मिट्टी के ढेलों पर भी लागू होती है। मिट्टी के ढेलों की बात भी एक ढोंग से बढ़कर कुछ नहीं है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए :
(क) ‘अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों-करोड़ों कोस दूर बैठे बेड़े-बेड़े मिट्टी और आग के ढेलों-मंगल, शनिश्चर और बृहस्पति की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है।
(ख) ‘आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेज पिंड से।
उत्तर :
(क) इस कथन में ढोंग-आडंबरों पर चोट की गई है। अपने द्वारा चुने गए मिट्टी के ढेलों पर इस प्रकार का विश्वास करना उचित नहीं है। यही स्थिति ग्रह चालों की है। हम मंगल, शनीचर और बृहस्पति की चाल की कल्पना करके अपने भाग्य का मिलान उसके साथ करते हैं। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। जिस जगह को आप जानते हैं वही ठीक है। दूर की काल्पनिक बातें व्यर्थ हैं।
(ख) यह कथन वात्स्यायन का है। जो चीज हैमारे हाथ में है वह उससे अधिक अच्छी है जिसकी हमें कले मिलने की संभावना है। संभव है वह चीज हमें हम कल मिले ही नहीं अतः वर्तमान में जीना बेहतर है। आज हमें कम पैसा मिल रहा है और कल काफी धन मिलने की संभावना है तो हाथ का पैसा ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।

योग्यता विस्तार –

(क) बालक बच गया –

(क) बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विकास में ‘रटना’ बाधक है। कक्षा में संवाद कीजिए।
(ख) ज्ञान के क्षेत्र में ‘रटने’ का निषेध है किंतु क्या आप रटने में विश्वास करते हैं अपने विचार प्रकट कीजिए।
(क) ‘रटना’ बालक के स्वाभाविक विकास में रोड़ा अटकाता है। बच्चे की समझ बढ़नी अधिक आवश्यक है। उसे स्वयं समझने और अनुभव करने दीजिए। छात्र कक्षा में इस विषय पर संवाद करें।
(ख) हम रटने में विश्वास नहीं करते। रटने में हम अपने विवेक का प्रयोग नहीं करते, बल्कि रटकर सामग्री को उलट देते हैं।

(ख) घड़ी के पुर्जे –

(क) कक्षा में धर्म संसद का आयोजन कीजिए।
(ख) धर्म संबंधी अपनी मान्यता पर लेख/निबंध लिखिए।
(ग) ‘धर्म का रहस्य जानना सिर्फ धर्माचार्यों का काम नहीं कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस रहस्य को जानने की कोशिश कर सकता है, अपनी राय दे सकता है’-टिण्पणी कीजिए।
(क) विद्यार्थी कक्षा में धर्म संसद का आयोजन करें।
(ख) विद्यार्थी धर्म के बारे में अपने विचार लिखें।
(ग) यह कथन पूर्णतः सत्य है। धर्म पर किसी का एकाधिकार नहीं है। धर्म का संबंध सभी के साथ है। सभी को धर्म के रहस्य को जानने का अधिकार है। धर्माचायों का एकाधिकार समाप्त होना चाहिए।

(ग) ढेले चुन लो –

1. समाज में धर्म संबंधी अंधविश्वास पूरी तरह व्याप्त है। वैज्ञानिक प्रगति के संदर्भ में धर्म, विश्वास और आस्था पर निबंध लिखिए।
2. अपने घर में या आस-पास दिखाई देने वाले किसी रिवाज या अंधविश्वास पर एक लेख लिखिए।

1. धर्म और विज्ञान
चरमोन्नत जग में जब कि आज विज्ञान ज्ञान,
यह भौतिक साधन, यंत्र, वैभव, महान
सेवक हैं विद्युत, वाष्प शक्ति, धन बल नितांत
फिर क्यों जग में उत्पीड़न ? जीवन यों अशांत

वर्तमान युग में धर्म और विज्ञान के बीच जबरदस्त संघर्ष हो रहा है विज्ञान का प्रभाव आज विश्वव्यापी है। धीरे-धीरे लोगों में नास्तिकता आती जा रही है। इसका एकमात्र कारण है विज्ञान की उन्नति। आज से दो शताब्दी पूर्व जनता विज्ञान और वैज्ञानिकों को घृणा से देखती थी। उनका विचार था कि विज्ञान धार्मिक ग्रंथों के प्रतिकूल है। आज भी कुछ ऐसी विचारधारा जनता में है। मनुस्मृति में धर्म की परिभाषा इस प्रकार दी गई है

धृतिः क्षम दमोडस्तेयं शोचमिन्द्रिय निग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम्।

धैर्य, क्षमा, पवित्रता, आत्मसंयम, सत्य, अक्रोध आदि-आदि सदगुणों को धारण करना ही वास्तविक धर्म है। धर्म का उद्देश्य लोक कल्याण है। सच्चा धार्मिक व्यक्ति सम्पूर्ण संसार के कल्याण की कामना करता है।

धर्म और विज्ञान दोनों ने ही मानव जाति के उत्थान में पूर्ण सहयोग दिया है। धर्म ने मानव के हृदय को परिष्कृत किया और विज्ञान ने बुद्धि को। यदि मनुष्य इस समाज में सामान्य स्थान प्राप्त करके जीवनयापन कर सकता है, तो उसे सांसारिक सुख-शांति भी आवश्यक है। अत: संसार में धर्म और विज्ञान दोनों ही मानव कल्याण के लिए आवश्यक तत्व हैं।

धर्म मानव हृदय की उच्च और पवित्र भावना है। धार्मिक भावना से मनुष्य में सात्विक प्रवृत्तियों का उदय होता है। धर्म के लिए मनुष्य को शुभ कर्म करते रहना चाहिए और अशुभ कार्यों को त्याग देना चाहिए। धार्मिक मनुष्य को भौतिक सुखों की अवहेलना करनी चाहिए। वह कर्म के मार्ग से विचलित नहीं होता। हिंदू धर्म के अनुसार मनुष्य की आत्मा अमर है और शरीर नाशवान है। मृत्यु के पश्चात् भी मनुष्य अपने सूक्ष्म शरीर से अपने किए हुए शुभ और अशुभ कमों का फल भोगता है। धार्मिक लोगों का विचार है कि इस अल्प जीवन में सुख भोगने की अपेक्षा पुण्य कार्य करना चाहिए।

जो धर्म समाज को उन्नति की ओर ले जा रहा था, वह अंधविश्वास और अंध श्रद्धा में ढलकर पतन का कारण बन गया। अंधविश्वास के अंधकार से निकलकर मानव ने बुद्धि और तर्क की शरण ली। लोगों में आँखों देखी बात या तर्क की कसौटी पर कसी हुई बात पर विश्वास करने की प्रवृत्ति जागृत हुई। विज्ञान की भी मूल प्रवृत्ति यही है, धर्मग्रंथों में लिखी हुई या उपदेशों द्वारा कही हुई बात को वह सत्य नहीं मानता, जब तक कि नेत्रों के प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा तर्क सिद्ध न हो जाए।

धर्म की आड़ लेकर जो अपने स्वार्थ साधन में संलग्न थे, उनके हितों को विज्ञान से धक्का पहुँचा, वे वैज्ञानिकों के मार्ग में विघ्न उपस्थित करने लगे, “उघरे अंत न होई निबाहू “। अब धर्म के बाह्य आडंबरों की पोल ख़ुल गई तो जनता सत्य के अन्वेषण में प्राणप्रण से लग गई। जो सुख और समृद्धि धार्मिकों की स्वर्गीय कल्पना में थे, उन्हें वैज्ञानिकों ने अपनी खोजों से इस संसार में प्रस्तुत कर दिखाया। धर्म ईश्वर की पूजा करना था, विज्ञान ने प्रकृति की उपासना की। विज्ञान ने पाँचों तत्त्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) को अपने वश में किया। उसने अपनी रचचि के अनुसार भिन्न-भिन्न सेवायें लीं, इस प्रकार मानव ने जीवन और जगत को सुखी और समृद्ध बना दिया। वैज्ञानिकों ने अपने अनेक आश्चर्यजनक परीक्षणों से जनता में तर्क बुद्धि उत्पन्न करके उनके अंधविश्वासों को समाप्त कर दिया। आज के वैज्ञानिक मानव ने क्या नहीं कर दिखाया।

यह मनुज,
जिसका गगन में जा रहा है यान
काँपते जिसके करों को देखकर परमाणु।
खोल कर अपना ह्ददय गिरि, सिंधु, भू, आकाश,
है सुना जिसको चुके निज गूढ़तम इतिहास।
खुल गये परदे, रहा अब क्या अज्ञेय
किंतु नर को चाहिये नित विघ्न कुछ दुर्जेय।

धर्म का स्वरूप विकृत होकर जिस प्रकार बाह्माडंबरों में परिवर्तित हो गया था, उसी प्रकार विज्ञान भी अपनी विकृति की ओर है। विज्ञान ने जब तक मानव की मंगल कामना की, तब तक वह उत्तरोत्तर उन्नतिशील रहा। जो विज्ञान मानव-कल्याण के लिए था, आज उसी से मानवता भयभीत है। परमाणु आयुधों के विध्वंसकारी परीक्षणों ने समस्त मानव जगत को भयभीत कर दिया है। धर्म के विस्तृत स्वरूप ने जनता को मूर्खता की ओर अग्रसर किया था, विज्ञान का दुरुपयोग जनता को प्रलय की ओर अग्रसर कर रहा है।

वर्तमान समय में लोगों ने धर्म और संप्रदाय को एक मान लिया है। सांप्रदायिक बुद्धि विनाश का रास्ता दिखाती है। यह ऐसी प्रतिगामी शक्ति है जो हमें पीछे की ओर धकेलती है। मानव को इस प्रवृत्ति से बचना है। अपने-अपने धर्मों का पालन करते हुए भी हमें टकराव की स्थिति उत्पन्न होने नहीं देनी चाहिए। मानव धर्म को स्वीकार कर लेने से सभी शांतिपूर्वक रह सकेंगे। धर्म के नाम पर हमारे देश का पहले ही विभाजन हो चुका है, अब हमें इसे और विभाजित करने के प्रयास नहीं करने चाहिए।

मानव को वर्तमान युग की माँग की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। समस्त विश्व के मानव हमारे भाई हैं, यही भाव विकसित करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। धर्म कभी संकुचित दृष्टिकोण अपनाने के लिए नहीं कहता, अपितु वह तो हमें विशालता प्रदान करता है।

धर्म को लोगों ने धोखे की दुकान बना रखा है। वे उसकी आड़ में स्वार्थ सिद्ध करते हैं। कुछ लोग धर्म को छोड़कर संप्रदाय के जाल में फँस रहे हैं। ये संप्रदाय बाह्य कृत्यों पर जोर देते हैं। ये चिह्नों को अपना कर धर्म के सार-तत्व को मसल देते हैं। धर्म मनुष्य को अंतर्मुखी बनाता है, उसके हृदय के किवाड़ों को खोलता है, उसकी आत्मा को विशाल बनाता है। धर्म व्यक्तिगत विषय है।

धर्म के नाम पर राजनीति करना अत्यंत घृणित कार्य है। सरकार भी धर्म को राजनीति से पृथक् करने का कानून बनाने पर विचार कर रही है। हमारे संविधान में प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई है। प्रत्येक मानव को अपने विश्वास के अनुसार धर्म अपनाने की पूरी छूट है।

2. हमारे घर के आस-पास एक छोटा-सा मंदिर बना है। लोगों का अंधविश्वास है कि यदि कोई उसके आगे से बिना सिर झुकाए चला जाता है तो उसका कुछ-न-कुछ बुरा अवश्य हो जाता है। यह मात्र एक अंधविश्वास है।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 13 सुमिरिनी के मनके

प्रश्न 1.
जब बच्चे को पुरस्कार माँगने को कहा गया तो बच्चे के भावों में क्या परिवर्तन आया?
उत्तर :
जब बच्चे को कहा कि वह अपनी इच्छा से कुछ भी माँग ले। इस पर बालक सोचने लगा। पिता और अध्यापकों की सोच थी कि वह पुस्तक माँगेगा। बच्चे के मुख पर रंग बदल रहे थे। उसके हदयय में कृत्रिम तथा स्वाभाविक भावों में पढ़ाई हो रही थी जो आँखों में स्पष्ट झलक रही थी। अंत में उसने लड्डू माँगा। यहाँ बालक के स्वाभाविक भावों ने कृत्रिम भावों पर विजय प्राप्त कर ली और कृत्रिम भाव दबकर रह गए।

प्रश्न 2.
‘बालक बच गया’ पाठ का उद्देश्य बताइए।
उत्तर :
‘बालक बच गया’ निबंध का मूल प्रतिपाद्य है-शिक्षा ग्रहण की सही उम्रे। लेखक मानता है कि हमें व्यक्ति के मानस के विकास के लिए शिक्षा को प्रस्तुत करना चाहिए, शिक्षा के लिए मनुष्य को नहीं। हमारा लक्ष्य है मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखना। मनुष्य बचा रहेगा तो वह समय आने पर शिक्षित किया जा सकेगा। लेखक ने अपने समय की शिक्षा-प्रणाली और शिक्षकों की मानसिकता को. प्रकट करने के लिए अपने जीवन के अनुभव को हमारे सामने अत्यंत व्यावहारिक रूप में रखा है। लेखक ने इस उदाहरण से यह बताने की कोशिश की है कि शिक्षा हमें बच्चे पर लादनी नहीं चाहिए, बल्कि उसके मानस में शिक्षा की रूचि पैदा करने वाले बीज डाले जाएँ, ‘सहज पके सो मीठा होए’।

प्रश्न 3.
‘समय पूछ लो और काम चला लो’ में निहित संदेश को आप समाज के लिए कितना उपयोगी मानते हैं?
उत्तर :
‘समय पूछ लो और काम चला लो’ के माध्यम से धर्माचार्यों ने समाज में यह धारणा फैला रखी है कि आम आदमी को धर्म के रहस्य जानने का अधिकार नहीं है। वे बनाए गए नियमों तथा विश्वासों का आँख मूँदकर पालन करें। यह ध रणा समाज के लिए जरा भी उपयोगी नहीं है। ऐसा कहकर वे धर्म का तथाकथित ठेकेदार बने रहना चाहते हैं। वे अपनी रोज़ी-रोटी चलाने और दूसरों को मूर्ख बनाए रखने के लिए ऐसा करना चाहते हैं।

प्रश्न 4.
‘बेले चुन लो’ का प्रतिपाद्य बताइए।
उत्तर :
‘ढेले चुन लो’ में लोक विश्वासों में निहित अंध विश्वासी मान्यताओं पर चोट की गई है। लेखक ने जीवन में बड़े फैसले अंधविश्वासों के वशीभूत होकर न लेने के लिए कहा है। अंधविश्वास के वशीभूत होकर लिए गए फैसले हितकारी ही होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। फिर ऐसा करके अँधेरे में तीर क्यों चलाया जाए। मनुष्य को यथार्थ स्वीकार करते हुए यथार्थवादी होकर अपने फैसले लेने चाहिए।

प्रश्न 5.
धर्माचार्य का धर्म के संबंध में आम लोगों के प्रति जो रूख रहा है उसे स्पष्ट करते हुए बताइए कि आपकी दृष्टि में यह कितना उचित है।
उत्तर :
धर्माचार्य चाहते थे कि आम मनुष्य धर्म के बारे में उतना और वही जाने जितना वे सही या गलत अपनी सुविध नुसार बताना चाहते हैं। वे नहीं चाहते थे कि धर्म के बारे में कोई और गहराई से जाने-समझे, इसे वे अपनी तथाकथित प्रभुसत्ता के लिए खतरा मानते थे। वे वेद-शास्त्रों को अपने तक ही सीमित रखना चाहते थे। उनके अनुसार आम आदमी को यह सब जानने का कोई हक नहीं है। उनके इस दृष्टिकोण को मैं पूर्णतया अनुचित मानता हूँ, क्योंक वेद-शास्त्र तथा धार्मिक ग्रंथ किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं लिखे गए हैं।

प्रश्न 6.
पाठशाला के वार्षिकोत्सव में क्या हुआ ?
उत्तर :
पाठशाला के वार्षिकोत्सव में लेखक भी गया था। वहाँ प्रधान अध्यापक के आठ वर्षीय पुत्र की बुद्धि की नुमाइश की गई थी। उसे सबसे अधिक बुद्धिमान बताकर पेश किया गया। इसकी जाँच के लिए उससे वे प्रश्न पूछे गए जिनके उत्तर उसे पहले ही रटा दिए गए थे। बालक न तो उन प्रश्नों को समझता था और न उत्तरों को जानता था। फिर भी उसने सभी प्रश्नों के उत्तर उगल दिए। उससे ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछे गए जो उसकी आयु वर्ग के लिए व्यर्थ थे। बालक रटे हुए उत्तर दे रहा था। लेखक को यह अच्छा नहीं लग रहा था। हाँ, जब बालक ने इनाम में लट्टू माँगा तब वह प्रसन्न हुआ, क्योंकि यह बालक की स्वाभाविक इच्छा का परिचायक था।

प्रश्न 7.
धर्माचार्यों का आम लोगों के प्रति क्या रुख होता है ?
उत्तर :
धर्माचार्य स्वयं को धर्म का ठेकेदार मानते हैं। वे यह कतई नहीं चाहते कि आम आदमी धर्म के रहस्य को जानें। धर्म के रहस्य को वे स्वयं तक सीमित रखना चाहते हैं। उनके अनुसार धर्म के रहस्य को जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्य को नहीं करनी चाहिए। उसे तो धर्म के बारे में उतना ही जानना चाहिए, जितना हम (धर्माचार्य) कहें या बताएँ। उनके कान में धर्माचार्य जो कुछ डाले, वहीं वह सुने और अधिक जानने की इच्छा न करे। इसी बात को लेखक ने घड़ी के दृष्टांत के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है। घड़ी को ठीक करना, सुधारना घड़ी-साज़ का काम है, सामान्य व्यक्ति का नहीं। इसी धर्म का रहस्य बताना धर्माचायों का काम है, वे ही वेद-शास्त्र के ज्ञाता होते हैं। वे धर्म का रहस्य स्वयं तक सीमित करके रखना चाहते हैं। तभी समाज में उनकी पूछ बनी रह सकती है।

प्रश्न 8.
‘ढेले चुन लो’ प्रसंग में किस नाटक का उल्लेख है और क्यों ?
उत्तर :
इस प्रसंग में शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक मर्चैट ऑफ वेनिस’ (Merchant of Venice) का उल्लेख है। इस नाटक की नायिका पोर्शिया अपने वर का चुनाव स्वयं करती है। वह बड़ी सुंदर रीति से वर चुनती है।

प्रश्न 9.
किन सूत्रों में ढेलों की लॉटरी का उल्लेख है ?
उत्तर :
इन गृह्यसूत्रों में ढेलों की लॉटरी का उल्लेख है :
आश्वलायन – गोभिल – भारद्वाज।

प्रश्न 10.
‘बालक बच गया’ में किस समस्या को उठाया गया है ?
उत्तर :
इस प्रसंग का प्रतिपाद्य यह है कि बालक का विकास स्वाभाविक ढंग से होने देना चाहिए। हमें उस पर अपनी इच्छा नहीं डालनी चाहिए। उसे समय से पूर्व ज्ञान के बोझ से दबा नहीं देना चाहिए। जब उपयुक्ता समय आता है तब बालक स्वयं अपेक्षित ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उस पर यदि ज्ञान का बोझ लादा गया तो उसका शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा। खेल का भी उसके जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है।

प्रश्न 11.
‘बालक बच गया’ निबंध का प्रतिपाद्य क्या है?
उत्तर :
‘बालक बच गया’ निबंध का मूल प्रतिपाद्य हैशिक्षा-ग्रहण की सही उम्र बताना तथा बच्चे पर अनावश्यक बोझ को न लादना। लेखक का मानना है कि व्यक्ति के मानस के विकास के लिए शिक्षा होनी चाहिए, न कि शिक्षा के लिए मनुष्य। हमारा लक्ष्य मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखने का होना चाहिए। यदि मनुष्य बचा रहेगा तो समय आने पर उसे शिक्षित किया जा सकेगा। हमें बच्चे पर शिक्षा को लादना नहीं चाहिए। बच्चे को स्वाभाविक रूप से शिक्षा ग्रहण करने देनी चाहिए। हमें बच्चे के बचपन को नष्ट नहीं करना चाहिए।

प्रश्न 12.
‘बालक बच गया’ संस्मरण के शीर्षक की सार्थकता सिद्ध कीजिए।
उत्तर :
‘बालक बच गया’ शीर्षक पूर्णत: सार्थक है। इसमें लेखक बालक के ऊपर जबरन लादे गए बोझ से बच जाने को व्यंजित करता है। बालक से उसके शिक्षक जो कुछ कहलवा रहे थे, वह सब अस्वाभाविक था। बालक से जब वृद्ध महाशय ने इनाम में मनपसंद वस्तु माँगने को कहा, तब इसके द्वारा लड्डू माँगा जाना, उसकी-बाल सुलभ स्वाभाविकता को इंगित करता है। इससे लेखक को लगा कि अभी इस बालक के बचने की आशा है अर्थात् इसका बचपन बचाया जा सकता है। जिस प्रकार जीवित वृक्ष हरे पत्तों के माध्यम से अपनी जीवंतता का परिचय देता है उसी प्रकार बालक के लड्डू माँगने से उसकी स्वाभाविकता का पता चलता था। शीर्षक इस भावना को पूरी तरह व्यक्त करता है।

प्रश्न 13.
समाज में धर्म-संबंधी अनेक अंधविश्वास व्याप्त हैं। ‘ढेले चुन लो’ के आधार पर ऐसे कुछ अंधविश्वासों
उत्तर :
‘ढेले चुन लो’ पाठ में बताया गया है कि समाज में धर्म संबंधी अनेक अंध विश्वास व्याप्त हैं। एक अंधविश्वास यह है- वैदिक काल में हिंदुओं में जो लाटरी चलती थी उसमें नर पूछता था कि नारी को बूझना पड़ता था। नर स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के घर पहुँच जाता था। वह उसे गौ भेंट करता था। पीछे वह कन्या के सामने मिट्टी के कुछ ढेले रख देता और उससे कहता कि इनमें से एक उठा ले। ये ढेले प्रायः सात तक होते थे।

नर जानता था कि वह ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया है और उनमें किस-किस जगह कि मिट्टी है। कन्या इनके बारे में कुछ जानती न थी। यही लॉटरी की बुझौवल थी। इन ढेलों में वेदी, गौशाला, खेत, चौराहे, मसान (श्मशान) की मिट्टी होती थी। यदि वह वेदी का ढेला उठा ले तो संतान वैदिक पंडित, गोबर चुना तो पशुओं का धनी, खेत की मिट्टी छू ली तो जमींदार-पुत्र होगा। मसान की मिट्टी अशुभ मानी जाती थी। यदि किसी नर के सामने वह वेदी का ढेला उठा ले और ब्याही जाए। इस प्रकार वैदिक काल में हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी वरण करते थे।

प्रश्न 14.
समाज में धर्म-संबंधी अनेक अंधविश्वास व्याप्त हैं। ‘ढेले चुन लो’ के आधार पर ऐसे कुछ अंध विश्वासों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
‘ढेले चुन लो’ पाठ में बताया गया है कि समाज में धर्म संबंधी अनेक अंधविश्वास व्याप्त हैं। एक अंधविश्वास यह है –
वैदिक काल में हिंदुओं में जो लाटरी चलती थी उसमें नर पूछता था कि नारी को बूझना पड़ता था। नर स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के घर पहुँच जाता था। वह उसे गौ भेंट करता था। पीछे वह कन्या के सामने मिट्टी के कुछ ढेले रख देता और उससे कहता कि इनमें से एक उठा ले। ये ढेले प्रायः सात तक होते थे।

नर जानता था कि वह ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया है और उनमें किस-किस जगह कि मिट्टी है। कन्या इनके बारे में कुछ जानती न थी। यही लॉटरी की बुझौवल थी। इन ढेलों में वेदी, गौशाला, खेत, चौराहे, मसान (श्मशान) की मिट्टी होती थी। यदि वह वेदी का ढेला उठा ले तो संतान वैदिक पंडित, गोबर चुना तो पशुओं का धनी, खेत की मिट्टी छू ली तो जमींदार-पुत्र होगा। मसान की मिट्टी अशुभ मानी जाती थी। यदि किसी नर के सामने वह वेदी का ढेला उठा ले और ब्याही जाए। इस प्रकार वैदिक काल में हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी वरण करते थे।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 14 Question Answer कच्चा चिट्ठा

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 14 कच्चा चिट्ठा

Class 12 Hindi Chapter 14 Question Answer Antra कच्चा चिट्ठा

प्रश्न 1.
पसोवा की प्रसिद्धि का क्या कारण था और लेखक वहाँ क्यों जाना चाहता था ?
उत्तर :
पसोवा की प्रसिद्धि का कारण यह था कि वह जैनो का तीर्थस्थल था। वहाँ प्रतिवर्ष जैनों का एक बड़ा मेला लगता था। इसमें दूर-दूर से हजारों जैन यात्री आकर सम्मिलित होते थे। यह मेला प्राचीन काल से लगता चला आ रहा है। इस स्थान की प्रसिद्धि का एक अन्य कारण यह भी था कि इसी स्थान पर एक छोटी पहाड़ी बताई जाती थी जिसकी गुफा में बुद्धदेव व्यायाम करते थे। वहाँ एक विषधर सर्प के रहने का भी उल्लेख है। इसी के निकट सम्राट अशोक ने एक स्तूप बनवाया था जिसमें बुद्ध के थोड़े से केश और नखखंड रखे गए थे। अब स्तूप और व्यायामशाला तो नहीं है, पर एक पहाड़ी अवश्य है। लेखक वहाँ इसलिए जाना चाहता था ताकि उसे कोई बढ़िया मूर्ति, सिक्के या अन्य कोई पुरातत्त्व संबंधी वस्तु मिल जाए। वह पूर्व निर्धीरित कार्यक्रम के अनुसार कौशांबी तो गया हुआ था ही, वहाँ से काम निबटाकर वह दिन भर के लिए पसोवा भी जाना चाहता था।

प्रश्न 2.
“मैं कहीं जाता हूँ तो छूँछे हाथ नहीं लौटता” से क्या तात्पर्य है ? लेखक कौशांबी लौटते हुए अपने साथ क्या-क्या लाया ?
उत्तर :
‘मैं कहीं भी जाता हूँ तो छूँछे हाथ नहीं लौटता’ का तात्पर्य है कि लेखक जब भी कहीं जाता है तब खाली हाथ वापस नहीं आता। वह उस स्थान से कोई-न-कोई वस्तु लेकर ही लौटता है। कौशांबी लौटते हुए लेखक को कोई विशेष महत्त्व की चीज तो नहीं मिली, पर गाँव के भीतर उसे कुछ बढ़िया मृणमूर्तियाँ, सिक्के और मनके मिल गए। एक छोटे से गाँव के निकट पत्थरों के ढेर के बीच, पेड़ के नीचे, उसने एक चतुर्भुज शिव की मूर्ति देखी। वह एक पेड़ के सहारे रखी हुई थी। लेखक का जी ललची गया। उसने उसे अपने इक्के पर रख लिया। उसका वजन लगभग 20 सेर होगा। पसोवे से थोड़ी चीज मिलने की कमी इस मूर्ति ने पूरी कर दी। लेखक ने उसे नगरपालिका के संग्रहालय के मंडप में रख दिया।

प्रश्न 3.
“चांद्रायण व्रत करती हुई बिल्ली के सामने एक चूहा स्वयं आ जाए तो बेचारी को अपना कर्त्तव्य पालन करना ही पड़ता है।”-लेखक ने यह वाक्य किस संदर्भ में कहा और क्यों ?
उत्तर :
लेखक जब पसोवा से वापस कौशांबी लौट रहा था तो रास्ते में उसने देखा कि पत्थरों के ढेर के बीच, पेड़ के नीचे एक चतुर्भुज शिव की मूति रखी है। उसे देखकर उसका जी ललचा गया। उसकी स्थिति चांद्रायण व्रत करने वाली बिल्ली के समान ही थी। बिल्ली चाहे कितना ही प्रत करे पर चूहे को सामने देखकर उसका जी ललचा ही जाता है। यही उसका कर्त्तव्य है। लेखक ने यह वाक्य कौशांबी से लौटते समय एक पेड़ के सहारे रखी चतुर्भुज शिव की मूर्ति को देखकर कहा। इस मूर्ति को देखकर लेखक का जी ललचा गया। उसने इधर-उधर देखा और चुपचाप उस मूर्ति को अपने इक्के पर रखवा लिया। लेखक को भी अपने कर्त्तव्य का पालन करना ही था। उसे संग्रहालय के लिए वह मूर्ति चाहिए थी।

प्रश्न 4.
“अपना सोना खोटा तो परखवैया का कौन दोस ?” से लेखक का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
‘अपना सोना खोटा तो परखवैया का क्या दोष’ से लेखक का यह तात्पर्य है कि जब अपनी ही चीज या व्यक्ति में कुछ दोष या कमी हो तो परखने-जाँचने वाले को भला क्या दोष दें ? जब हमारी चीज़ में कोई कमी है तो उसकी जाँच करने वाला तो उसकी ओर संकेत करेगा ही। इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। बात का संदर्भ यह था कि लेखक ने कौशाम्बी से लौटते हुए रास्ते में एक पेड़ के नीचे चतुर्भुज शिव की एक मूर्ति देखी। उसे देखकर लेखक का जी ललचा गया। लेखक ने उस 20 सेर वजन की मूर्ति को उठाकर चुपचाप अपने इक्के पर रखवा लिया। कौशाम्बी मंडल से मूर्ति गायब होने पर गाँववालों का संदेह लेखक पर ही गया, क्योंकि वह इस प्रकार के कामों के लिए प्रसिद्ध हो चुका था। इसी प्रसंग के संदर्भ में उपर्युक्त कथन कहा गया है। यह दोष तो लेखक पर लगना स्वाभाविक ही था।

प्रश्न 5.
गाँव वालों ने उपवास क्यों रखा और उसे कब तोड़ा ? दोनों प्रसंगों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
गाँव वालों ने उपवास इसलिए रखा था क्योंकि उनके गाँव से चतुर्भुज शिव की मूर्ति गायब हो गई थी। शिवजी पर गाँव वालों की अपार श्रद्धा थी। गाँव वालों ने ठान लिया था कि जब तक उनके भगवान लौटकर वापस नहीं आ जाएँगे तब तक वे उपवास पर रहेंगे। यहाँ तक कि वे पानी भी नहीं पिएँगे। गाँव वालों का संदेह लेखक पर था। वे मिलकर लेखक के कमरे पर पहुँचे। लेखक ने उनकी मूर्ति सम्मानसहित उन्हें वापस कर दी। स्त्री-पुरुष उनके सामने बेठ गए। स्त्रियों ने गाना आरंभ कर दिया। लेखक ने मिठाई और जल मँगाकर उन लोगों का उपवास तुड़वाया। लेखक ने आदमियों द्वारा उस मूर्ति को अड्डे तक पहुँचा दिया। गाँव वालों पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा।

प्रश्न 6.
लेखक बुढ़िया से बोधिसत्व की आठ फुट लंबी मूर्ति प्राप्त करने में कैसे सफल हुआ ?
उत्तर :
लेखक कौशांबी के गाँवों में इसलिए घूम रहा था कि उसे कोई महत्त्वपूर्ण मूर्ति मिल जाए। उसे एक खेत की मेड़ पर बोधिसत्व की आठ फुट ऊँची एक सुंदर मूर्ति पड़ी दिखाई दी। यह मथुरा के लाल पत्थर की थी। सिवाए सिर के पदस्थल तक यह मूर्ति संपूर्ण थी। लेखक जैसे ही इस मूर्ति को उठवाने लगा वैसे ही खेत पर काम करती एक बुढ़िया तमतमाती हुई कहने लगी-” बड़े चले मूर्ति उठाने, यह मूर्ति हमारी है. हम नहीं देंगे। हमने इसे निकलवाया है, इसका नुकसान कौन भरेगा ?” लेखक साधारण वेशभूषा में था अतः उसने बुढ़िया के मुँह लगना ठीक नहीं समझा। वह समझ गया कि बुढ़िया लालची है अतः उसने अपने जेब में पडे रुपयों को ठनउनाया। उसने बुढ़िया को नुकसान पूरा करने के लिए दो रुपये देने का प्रस्ताव किया। बुढ़िया की समझ में बात आ गई। बुढ़िया ने दो रुपए लेकर लेखक को मूर्ति दे दी। वह बोली-” भइया! हम मने नाहीं करित। तुम लै जाव!” इस प्रकार लेखक बुढ़िया से बोधिसत्व की आठ फुट लंबी सुंदर मूर्ति प्राप्त करने में सफल हो गया।

प्रश्न 7.
“ईमान ऐसी कोई चीज मेरे पास हुई नहीं तो उसके डिगने का कोई सवाल नहीं उठता। यदि होती तो इतना बड़ा संग्रह बिना पैसा-कौड़ी के हो ही नहीं सकता।”-के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
उत्तर :
लंखक को बोधिसत्व की आठ फुट लंबी एक सुंदर मूर्ति दो रुपए में. एक बुढ़िया से प्राप्त हो गई थी। लेखक ने उसे इलाहाबाद नगरपालिका के संग्रहालय में रख दिया था। वास्तव में वह मूर्ति अत्यंत प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण थी। एक फ्रांसीसी डीलर ने उस मूर्ति को बेचने के लिए लेखक के सामने दस हजार रूपए का प्रस्ताव रखा ताकि लेखक का ईमान डिग जाए, पर लेखक टस-से-मस नहीं हुआ। लेखक के इस कथन का आशय यह है कि लेखक इस बात का दावा नहीं करता कि उसके पास ईमान जैसी कोई चीज है। जब है ही नहीं तो डिगने का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि लेखक इसी प्रकार ईमान डिगाता रहता तो इतना बड़ा संग्रहालय कभी स्थापित नहीं कर पाता। उसने बिना कुछ अधिक खर्च किए यह संग्रहालय बनाकर दिखा दिया। यह संग्रहालय ही उसकी ईमानदारी का जीता-जागता सबूत है।

प्रश्न 8.
दो रुपए में प्राप्त बोधिसत्व की मूर्ति पर दस हजार रुपये क्यों न्यौछावर किए जा रहे थे ?
उत्तर :
लेखक को बोधिसत्व की मूर्ति दो रुपए में प्राप्त हुई थी। यह मूर्ति उन बोधिसत्व की मूर्तियों में से एक थी जो अब तक संसार में पाई गई मूर्तियों में सबसे पुरानी है। यह कुषाण सम्राट कनिष्क के राज्यकाल के दूसरे वर्ष में स्थापित की गई थी। ऐसा लेख उस मूर्ति के पदस्थल पर खुदा है (उत्कीर्ण है)। इस मूर्ति का चित्र और उसका वर्णन विदेशी पत्रों में छप चुका था। अतः एक फ्रांसीसी (जो एक बड़ा डीलर था) इस मूर्ति को लेखक से दस हजार रुपयों में खरीदना चाहता था। यही कारण था कि उस मूर्ति पर दस हजार रुपए न्यौछावर किए जा रहे थे। लेखक ने यह प्रस्ताव टुकरा दिया था।

प्रश्न 9.
भद्रमथ शिलालेख की क्षंतिपूर्ति कैसे हुई ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भद्रमथ शिलालेख यद्यपि लेखक ने प्रयांग संग्रहालय के लिए 25 रुपए में खरीदा था, पर गवर्नमेंट ऑफ इडिया के पुरातत्त्व विभाग को देना पड़ा क्योंकि इस पर विवाद खड़ा हो गया था। लेखक इस शिलालेख की क्षतिपूति के प्रयास में लगा रहा। उसने सोचा कि जिस गाँव में भद्रनाथ का शिलालेख हो सकता है, संभव है वहाँ और भी शिलालेख हों। उसने कौशांबी से 4-5 मील दूर गुलजार मियाँ के यहाँ डेरा डाल दिया। उनके मकान के ठीक सामने एक पुख्बा सजीला कुआँ था। चयुतरे के ऊपर चार पक्के खंभे बने हुए थे। उन पर अठपहल पत्थर की बँडडर बनी थी। लेखक की दृष्टि उस बँडेर पर गई। इसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक ब्राह्मी अक्षरों में एक लेख खुदा था। गुलजार ने खंभों को खोदकर वह पत्थूर निकालकर दे दिया। इससे भद्रमाथ के शिलालेख की क्षतिपूर्ति हो गई।

प्रश्न 10.
लेखक अपने संग्रहालय के निर्माण में किन-किन के प्रति अपना आभार प्रकट करता है और किसे अपने संग्रहालय का अभिभावक बनाकर निश्चिंत होता है ?
उत्तर :
लेखक अपने संग्रहालय के निर्माण में निम्नलिखित व्यक्तियों के प्रति अपना आभार प्रकट करता है :

  1. डॉ. पन्नालाल, आई. सी. एस. : ये उस समय सरकार के परामर्शदाता थे। इनके सौजन्य और सहायता से कंपनी बाग में संग्रहालय के लिए एक भूखंड मिल गया।
  2. डॉ. ताराचंद : इन्होंने शिलान्यास का पूरा कार्यक्रम निश्चित किया।
  3. पं. जवाहर लाल नेहरू : इन्होंने संग्रहालय का शिलान्यास किया।
  4. मास्टर साठे और मूता : इन्होंने भवन का नवशा बनाया।
  5. रायबहादुर कामता प्रसाद (तत्कालीन चेयरमैन)।
  6. हिज हाइनेस श्री महेंद्र सिंह जू देव नागौद नरेश।
  7. सुयोग्य दीवान लाल भार्गवेंद्र सिंह।
  8. स्वामीभक्त अर्दली जगदेव।

लेखक डॉ. सतीशचंद्र काला को संग्रहालय का अभिभावक बनाकर निश्चिंत हो गया और उसने संन्यास ले लिया।

आाषा-अध्ययन –

1. निम्नलिखित का अर्थ स्पष्ट कीजिए-
(क) इक्के को ठीक कर लिया
(ख) कील-काँटे से दुरुस्त था
(ग) मेरे मस्तक पर हस्बमामूल चंदन था
(घ) सुरखाब का पर
उत्तर :
(क) इक्का एक प्रकार का ताँगा होता है। इसमें छतरी होती है। लेखक ने अपनी यात्रा के लिए एक इक्के को किराए पर निश्चित कर लिया।
(ख) पूरी तरह से तैयार था।
(ग) लेखक के मस्तक पर चंदन का टीका लगा हुआ था।
(घ) कोई खास बात होना। किसी की विशेषता को देखकर ऐसा कहा जाता है।

2. लोकोक्तियों का संदर्भ सहित अर्थ स्पष्ट कीजिए –
(क) चोर की दाढ़ी में तिनका
(ख) ना जाने केहि भेष में नारायण मिल जायँ
(ग) चोर के घर छिछोर पैठा
(घ) यह म्याऊँ का ठौर था
उत्तर :
(क) जिसमें कोई कमी होती है, वह स्वयं में डरा रहता है। लेखक जब कौशाम्बी से लौटते समय चतुर्मुख शिव की मूर्ति चुरा लाया था। जब उसी पसोवे गाँव के 15-20 व्यक्ति उससे मिलने आए तब उसका माथा उनक गया क्योंकि चोर की दाढ़ी में तिनका जो होता है।
(ख) न जाने किस वेश (रूप) में भगवान के दर्शन हो जाएँ। लेखक हमेश भ्रमण करता रहता था। उसे अपने संग्रहालय के लिए मूर्तियाँ और सिक्के एकत्रित करने में मजा आता था। वह सोचता था कि न जाने किस रूप में और कब, कैसे कोई कीमती वस्तु मिल जाए।
(ग) चोर के घर में चोरी करने का साहस करना। बोधिसत्व की मूर्ति को फ्रांसीसी यात्री दस हजार रुपए में खरीदने आया क्योंकि उसका चित्र व विवरण विदेशी समाचार-पत्रों में छप चुका था। उसे देखकर लेखक कह उठा – “चोर के घर छिछोर पैठा।”
(घ) बिल्ली का स्थान, छिपने की जगह।
प्रयाग संग्रहालय को आठ बड़े-बड़े कमरे निर्धारित कर दिए थे, पर सामग्री अधिक थी अर्थात् स्थान म्याऊँ का ठौर था। उसके लिए धन की भी आवश्यकता थी।

योग्यता विस्तार –

1. अगर आपने किसी संग्रहालय को देखा हो तो पाठ से उसकी तुलना कीजिए।
2. अपने नगर में अथवा किसी सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय संग्रहालय को देखने की योजना बनाएँ।
3. लोकहित संपन्न किसी बड़े काम को करने में ईमान/ईमानदारी आड़े आए तो क्या करेंगे।
उत्तर :
ये सारे कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 14 कच्चा चिट्ठा

प्रश्न 1.
मजूमदार कौन थे ? वे शिलालेख उठवाकर क्यों ले जाना चाहते थे ?
उत्तर :
सन् 1938 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया का पुरातत्त्व विभाग कौशांबी में श्री मजूमदार की देख-रेख में खुदाई कर रहा, था। उस समय श्री के. एन. दीक्षित डायरेक्टर-जनरल थे। वे लंखक के परम मित्र थे। उन्हें प्रयाग संग्रहालय से बड़ी सहानुभूति थी और सदा उसकी सहायता करने के लिए प्रस्तुत रहते थे। साधु प्रकृति तो थे ही, परंतु आखिर बड़े हाकिम ठहरे, रौब था, जमाने के अभ्यस्त थे। ख़दाई के प्रसंग में मजूमदार साहब को पता चला कि कोशांबी से चार-पाँच मील दूर एक गाँव हजियापुर है। वहाँ किसी व्यक्ति के यहाँ भद्रमथ का एक भारी शिलालेख है। श्री मजूमदार उसे उठवा ले जाना चाहते थे।

प्रश्न 2.
एक दिन लेखक को दीक्षित साहब का क्या पत्र प्राप्त हुआ ? उस पत्र को पाकर लेखक पर क्या प्रतिक्रिया हुई ? बात कैसे खत्म हुई ?
उत्तर :
एक दिन लेखक को दीक्षित साहब का अर्धसरकारी पत्र मिला जिसका आशय यह था, “कौशांबी से मेरे पास रिपोर्ट आई है कि आपके उकसाने के कारण जमींदार गुलजार मियाँ भद्रमथ के एक शिलालेख को देने में आपत्ति करता है और फौजदारी पर आमादा है। मैं इस मामले को बढ़ाना नहीं चाहता परंतु यह कहे बिना रह भी नहीं सकता कि सरकारी काम में आपका यह हस्तक्षेप अनुचित है।” खैर, यहाँ तक तो खून का घूँट किसी तरह पिया जा सकता था पर इसके आगे उन्होंने लिखा, “यदि यही आपका रवैया रहा तो यह विभाग आपके कामों में वह सहानुभूति न रखेगा जो उसने अब तक बराबर रखी है।”

एक मित्र से ऐसा पत्र पाकर लेखक के बदन में आग लग गई। वह सब-कुछ सहन कर सकता था, पर किसी की भी अकड़ बर्दाश्त नहीं कर सकता था। तुरंत दीक्षितजी को उत्तर दिया, जो थोड़े में इस प्रकार था, “मैं आपके पत्र एवं उसकी ध्वनि का घोर प्रतिवाद करता हूँ। उसमें जो कुछ मेरे संबंध में लिखा गया है, वह नितांत असत्य है। मैंने किसी को नहीं उकसाया। मैं आपसे स्पष्ट रूप से कह देना चाहता हूँ कि आपके विभाग की सहानुभूति चाहे रहे या न रहे, प्रयाग संग्रहालय की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहेगी। प्रयाग संग्रहालय ने इस भद्रमथ के शिलालेख को 25 रुपये का खरीदा है। पर आपके विभाग से, विशेषकर आपके होते हुए, झगड़ना नहीं चाहता। इसलिए यदि आप उसे लेना चाहते हैं तो 25 रुपये देकर ले लें, मैं गुलजार को लिख दूँगा।” इसके उत्तर में उनका एक विनम्र पत्र आया जिसमें उन्होंने अपने पूर्व पत्र के लिए खेद प्रकट किया। विभाग की उपेक्षा जो लेखक ने की थी, उसे पी गए। बात खत्म हो गई।

प्रश्न 3.
लेखक मैसूर क्यों गया था ? मद्रास ( चेन्नई) पहुँचते ही उसने क्या काम किया ?
उत्तर :
ओरियंटल कांफ्रेंस का अधिवेशन मैसूर में था। लेखक के अभिन्न मित्र कविवर ठाकुर गोपालशरण सिंह साहित्य विभाग के सभापति थे। एक तो उनका साथ रुचिकर, दूसरे इसके पहिले लेखक दक्षिण गया नहीं था। उसने प्रशंसा बहुत सुन रखी थी। यह भी सुन रखा था कि ताम्रमूर्तियों और तालपत्र पर हस्तलिखित पोधियों की वह मंडी है। दोनों का प्रयाग संग्रहालय में नितांत अभाव था। उपर्युक्त तीनों कारणों में प्रत्येक उसे प्रलुब्ध करने के लिए पर्याप्त थे पर तीनों के सामूहिक आकर्षण ने उसे मैसूर की ओर बरबस खींच लिया। मद्रास (चेन्नई) पहुँचते ही उसे चैन नहीं पड़ा। उसने अपना काम आरंभ कर दिया। मद्रास में वे लोग दो दिन ठहरे। इन दो दिनों में उसने नगर का कोना-कोना छान डाला। दर-दर भिखारी की तरह झख मारता फिरा। यद्यपि जेब में पैसा था तथापि हृदय तो भिखारी का था। थैली काट कर दाम देने वाले की शक्ल ही दूसरी होती है। वह लोगों से पूछ-पूछकर विक्रेताओं के घर गया।

प्रश्न 4.
लेखक ने मद्रास (चेन्नई) में क्या-क्या खरीदा ? वहाँ का दृश्य कैसा था ?
उत्तर :
लेखक ने मद्रास (चेन्नई) में आठ-दस चित्र खरीदे वे भी सस्ते दामों में; पर तालपत्र पर लिखी पुस्तकों के दाम सुनकर उसके छक्के छूट गए। किसी पुस्तक का दाम ढाई-तीन सौ रुपये से कम विक्रेताओं ने नहीं बताया। यह उसके बस की न थी और वह तेलुगू और तमिल पढ़ भी नहीं सकता था। इसलिए उसे मन सिकोड़ लेना पड़ा। संध्या समय मुख्य बाजार घूमने गया। वहाँ बड़ी भीड़-भाड़ थी। विशेषता यह थी कि भीड़ में नंगे बदन लोग बहुत बड़ी संख्या में थे। काला बदन, उस पर शुभ्र यझ्ञोपवीत, मोटी तोंद, तहमद बाँधे, सिर से टोपी और पैर से जूता नदारद। साधारण स्निग्ध बातचीत करने में इतनी जोर से बोलते थे जैसे लड़ रहे हों। यह दृश्य मेरे लिए बिल्कुल नया था।

प्रश्न 5.
लेखक ने संग्रहालय में क्या-क्या वस्तुएँ एकत्रित कर पाने में सफलता पाई?
उत्तर :
लेखक ने संग्रहालय में निम्नलिखित वस्तुएँ एकत्रित करने में सफलता पाई : 4 बोधिसत्त्व की आठ फुट लंबी एक सुंदर मूर्ति, जो मधुरा के लाल पत्थर की थी। यह मूर्ति संसार में बोधिसत्व की पाई जाने वाली मूर्तियों में सबसे पुरानी है। ये कुषाण सम्राट कनिष्क के राज्यकाल की है। दो हजार पाषाण मूर्तियाँ, पाँच हजार मृण्मूर्तियाँ, कई हजार चित्र, चौदह हजार हस्तलिखित पुस्तकें, हजारों सिक्के, मनके तथा मोहरे। इन सब दुर्लभ वस्तुओं के रखने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार के सहयोग से प्रयाग में संग्रहालय का भवन निर्माण करवाया। इसका शिलान्यास पं० जवाहरलाल नेहरू ने किया था। निश्चित समय पर भवन बनकर तैयार हो गया।

प्रश्न 6.
पाठ में श्रीनिवास जी के बारे में क्या बताया गया है?
उत्तर :
पाठ में बताया गया है कि श्रीनिवास जी एक भलेमानस, विक्रेता और हाईकोर्ट के वकील थे। उनके पास सिक्के तथा कांस्य और पीतल की मूर्तियों का अच्छा संग्रह था। वे इन चीजों का व्यापार भी करते थे। लेखक ने उनसे चार-पाँच सौ रुपए की पीतल और कांस्य की मूर्तियाँ ली। उन्होंने लेखक को बहुत-से-सिक्के मुफ्त में ही दे दिए। उनके यहाँ चार-पाँच बड़े-बड़े नटराज भी थे, पर उनके दाम बीस-पच्चीस हज़ार रुपए थे।

प्रश्न 7.
पाठ का शीर्षक ‘कच्चा चिट्ठा’ किसका कच्चा चिट्ठा है? इसे आप कितना सार्थक मानते हैं?
उत्तर :
‘कच्चा चिट्ठा’ नामक पाठ इसी पाठ के लेखक पंडित ब्रजमोहन व्यास के जीवन का कच्चा चिट्ठा है। इसमें लेखक के जीवन से जुड़ी उन घटनाओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है जो इलाहाबाद संग्रहालय के लिए दुर्लभ एवं बहुमूल्य वस्तुओं के एकत्रीकरण की अवधि में घटती रहीं। इस कच्चे चिट्ठे से यह भी पता चलता है कि लेखक ने आस-पास के क्षेत्रों-पसोवा, कौशांबी, हजियापुर तथा मैसूर जैसे दूरस्थ क्षेत्रों से अर्त्यत कम मूल्य किंतु अथक परिश्रम से अनमोल वस्तुएँ एकत्र कर संग्रहालय को शोभायमान बनाया। इस प्रकार कच्चा चिट्ठा शीर्षक पूर्णतया सार्थक है।

प्रश्न 8.
संग्रहालय के लिए अलग विशाल भवन का
उत्तरः
लेखक ने संग्रहालय के लिए पर्याप्त सामग्री इकट्ठी करने में आशातीत सफलता प्राप्त कर ली थी। अब उसके संग्रहालय में दो हजार पाषाण मूर्तियाँ, पाँच-छः हजार मृण्मूर्तियाँ, कई हजार चित्र, कई हजार हस्तलिखित पुस्तकें, हजारों सिक्के, मोहरें व मनके आदि जमा हो गए थे। इनका संरक्षण करना व प्रदर्शन करना आसान काम नहीं था। इसके लिए एक अलग विशाल भवन की आवश्यकता थी। अतः नए विशाल भवन का निर्माण आवश्यक हो गया था।

प्रश्न 9.
‘कच्या चिट्ठा खोलना’ मुहावरे का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताइए कि ‘कच्या चिट्ठा’ पाठ में लेखक ने अपने जीवन का कच्या चिट्ठा कैसे खोला है?
उत्तर :
‘कच्चा चिट्ठा खोलना’ का अर्थ है जीवन की सच्चाइयों का वर्णन करना अर्थात् बिल्कुल साफ-साफ कहना। प्रस्तुत पाठ लेख्रक की आत्मकथा ‘मेरा कच्चा चिट्ठा’ का एक अंश है। इसमें लेखक ने अपने जीवन की सभी अच्छी-बुरी बातों से पाठकों का साक्षात्कार करवाया है। लेखक को अपने जीवन में प्रयाग संग्रहालय निर्माण के लिए जो-जो कार्य करने पड़े उनका सत्य रूप में चित्रण किया है। देश के कोने-कोने से वस्तुओं का संग्रह किया। एक बुढ़िया से दो रुपए में बोधिसत्व की आठ फुट लंबी मूर्ति को संग्रहालय में स्थापित किया, जो संसार की सबसे पुरानी मूर्ति है। इस प्रकार कच्चा चिट्ठा के माध्यम से अपने जीवन की अनमोल यादों का यथार्थ प्रस्तुत किया है।

प्रश्न 10.
लेखक ने अपने संग्रहालय के निर्माण में किन-किनके प्रति अपना आभार प्रकट किया ? उसने किसको संग्रहालय का अभिभावक बनाया ?
उत्तर :
लेखक ने अपने संग्रहालय के निर्माण में सहयोग देने के लिए निम्नलिखित व्यक्तियों के प्रति अपना आभार प्रकट किया:
1. डॉ० पन्नालाल (आई.सी.एस.) : इनकी सहायता से भवन के लिए कंपनी बाग में एक भूखंड मिला। 2. पं० जवाहरलाल नेहरू (तत्कालीन प्रधानमंत्री) : इन्होंने संग्रहालय के भवन का शिलान्यास किया। 3. डॉ० ताराचंद : इन्होंने भवन के शिलान्यास का पूरा कार्यक्रम निश्चित किया। 4. मास्टर साठे और मूता ( मुंबई के विख्यात इंजीनियर) : इन्होंने भवन का नक्शा बनाया। राय बहादुर कामता प्रसाद कककड़ (तत्कालीन??) 6. हिज हाइनेस श्री महेंद्रसिंह देव, (नागौदा नरेश)। 7. लाल भार्गवेंद्रसिंह, (नागौदा नरेश के दीवान)। 8. जगदेव, (स्वामीभक्त अर्दली)।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 15 Question Answer संवदिया

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 15 संवदिया

Class 12 Hindi Chapter 15 Question Answer Antra संवदिया

प्रश्न 1.
संवदिया की क्या विशेषताएँ हैं और गाँव वालों के मन में संवदिया की क्या अवधारणा है ?
उत्तर :
संवदिया की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

  • संवदिया का अर्थ है- संवाद या संदेश ले जाने वाला। यह काम सब नहीं कर सकते।
  • संवदिया गुप्त समाचार को इस प्रकार ले जाता है कि पक्षी तक को उसके बारे में पता नहीं चलता।
  • संवदिया को संवाद का प्रत्येक शब्द याद रखना पड़ता है।
  • संवदिया संवाद को उसी लहजे और सुर में सुनाता है जैसा उसे सुनाया जाता है।

संवदिया के बारे में गाँव वालों की धारणा :

  • वह कामचोर, निठल्ला और पेटू किस्म का आदमी होता है।
  • वह औरतों की गुलामी करता है। वह औरतों की मीठी बोली सुनकर नशे में आ जाता है।
  • वह बिना मजदूरी लिए काम करता है।

प्रश्न 2.
बड़ी हवेली से बुलावा आने पर हरगोबिन के मन में किस प्रकार की आशंका हुई ?
उत्तर :
बड़ी हवेली से हरगोबिन (संवदिया) को बुलावा आया। इसे सुनकर हरगोबिन को अचरज हुआ। उसे कई प्रकार की आशंकाएँ हुई। वह सोचने लगा कि क्या अब के जमाने में भी उसकी जरूरत पड़ सकती है जबकि अब तो गाँव-गाँव में डाकघर खुल गए हैं। डाक के द्वारा संदेश भेजा जा सकता है। आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज सकता है और वहाँ का कुशल संवाद मँगवा सकता है, तो फिर उसे क्यों बुलाया गया है? उसे तो तभी याद किया जाता है, जब कोई अत्यंत गोपनीय समाचार कहीं भिजवाना हो। कोई ऐसा समाचार जो चाँद-सूरज को भी मालूम न हो, परेवा-पंछी तक नहीं जाने। हरगोबिन बड़ी हवेली की दशा से भली-भाँति परिचित था। हवेली में बड़ी बहुरिया की स्थिति का भी उसे ज्ञान था। अतः मन में कई आशंकाएँ हुई।

प्रश्न 3.
बड़ी बहुरिया अपने मायके संदेश क्यों भेजना चाहती थी ?
उत्तर :
बड़ी बहुरिया अपनी बड़ी हवेली (जो अब नाममात्र को ही बड़ी थी) में एकाकी और घोर दरिद्रता का जीवन बिता रही थी। कभी वह इस हवेली में राज करती थी, पर अब दाने-दाने को मोहताज है। वह बथुआ-साग खाकर पेट भर रही है। उधार न चुका पाने के लिए उसे बहुत सुनना पड़ता है। देवर-देवरानी उससे कोई वास्ता नहीं रखते। अब उसे मायके का ही भरोसा है। वह वहाँ रहकर भाई-भाभियों की नौकरी कर लेगी, बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहेगी, पर इस यातना से तो छुटकारा पा जाएगी। इसीलिए बड़ी बहुरिया मायके संदेश भिजवाना चाहती है।

प्रश्न 4.
हरगोबिन बड़ी हवेली में पहुँचकर अतीत की किन स्मृतियों में खो जाता है ?
उत्तर :
हरगोबिन बड़ी हवेली में पहुँचकर अतीत की स्मृतियों में खो जाता है। तब इस हवेली में दिन-रात नौकर-नौकरानियों और जन-मजदूरों की भीड़ लगी रहती थी। जहाँ आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूप में अनाज लेकर फटक रही है, वहीं कभी इन हाथों में सिर्फ मेहंदी लगाकर ही गाँव की नाइन परिवार पालती थी। वे सब दिन न जाने कहाँ चले गए। बड़े भैया के मरने के बाद ही जैसे सब खेल खत्म हो गया। तीनों भाइयों ने लड़ाई-झगड़ा कर सब चीजों का बँंवारा कर लिया। बड़ी बहुरिया के शरीर के जेवर और बनारसी साड़ी तक का बँटवारा किया गया।

प्रश्न 5.
संवाद कहते वक्त बड़ी बहुरिया की आँखें क्यों छलछला आईं ?
उत्तर :
संवाद कहते वक्त बड़ी बहुरिया की आँखें इसलिए छलछला आई क्योंकि वह अपनी वर्तमान दशा से अत्यंत व्याकुल थी। वह तो आत्महत्या तक करने पर उतारू थी। न उसके खाने-पीने का कोई प्रबंध न था, न उसका दुःख बाँटने वाला कोई था। वह भाई-भाभियों की नौकरी तक करने को तैयार थी। उसके जीने की इच्छा मंरती जा रही थी। उसके मन की व्यथा आँसुओं की राह बह रही थी। वह दुखी थी। उसके पास खाने-पीने की चीजों का उधार तक चुकाने की सामर्ध्य नहीं रह गई थी। अपनी इस दुर्दशा को देखकर उसकी आँखें छलछला आईं थी।

प्रश्न 6.
गाड़ी पर सवार होने के बाद संवदिया के मन में काँटे की चुभन का अनुभव क्यों हो रहा था ? उससे छुटकारा पाने के लिए उसने क्या उपाय सोचा ?
उत्तर :
गाड़ी पर सवार होने के बाद संवदिया के मन में बड़ी बहुरिया के संवाद का प्रत्येक शब्द काँटे की तरह चुभ रहा था। उसका यह कहना-” किसके भरोसे यहाँ रहूँगी ? एक नौकर था, वह भी कल भाग गया। गाय खूँटे से बँधी भूखी-प्यासी हिकर रही है। मैं किसके लिए इतना दुःख झेलूँ ?”-ये सब बातें संवदिया के मन को पीड़ित कर रही थीं। उसने इस मनःस्थिति से छुटकारा पाने के लिए अपने पास बैठे यात्री से बातचीत कर मन बहलाने का उपाय सोचा पर वह आदमी चिड़चिड़े स्वभाव का लगा।

प्रश्न 7.
बड़ी बहुरिया का संवाद हरगोबिन क्यों नहीं सुना सका ?
उत्तर :
बड़ी बहुरिया ने जो कुछ संवाद दिया था, उसे हरगोबिन उसके मायके में नहीं सुना पाया। वह बड़ी बहुरिया के संवाद को सुनाने की हिम्मत जुटा ही नहीं पाया। उसे लगा कि यह तो उसके गाँव का अपमान है कि वह अपनी लक्ष्मी को सँभालकर नहीं रख पाया। उसके जाने के बाद गाँव में क्या रह जाएगा ? गाँव की लक्ष्मी ही गाँव छोड़कर चली जावेगी। वह बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया की वास्तविक दशा बताकर और व्यथित नहीं करना चाहता था। वह मायके में बड़ी बहुरिया के भावी दशा की आशंका को भी भाँप गया था कि यहाँ वह भाई-भाभियों की नौकरी कैसे कर पाएगी ? यही सब सोचकर वह बड़ी बहुरिया का संवाद उसके मायके में नहीं सुना सका।

प्रश्न 8.
‘संवदिया डटकर खाता है और अफर कर सोता है’ से क्या आशय है ?
उत्तर :
इस कथन का यह आशय है कि संवदिया खाऊ-पेटू किस्म का व्यक्ति होता है। उसे किसी प्रकार की चिंता-फिक्र नहीं होती। वह संवेदनशील होता है। उसका बस एक ही काम है-खूब डटकर खाना और फिर पेट अफर जाने पर तानकर सोना। वह जहाँ भी संदेश लेकर जाता है, वहाँ उसकी खूब-खातिरदारी होती है। उसे खाने को बढ़िया-बढ़िया पकवान मिलते हैं। वह खाने पर टूट पड़ता है और भूख से ज्यादा खा जाता है। इससे उसका पेट अफर जाता है तथा आलस्य घेर लेता है। फिर वह तानकर सो जाता है। पर, हरगोबिन इसका अपवाद है। वह एक संवेदनशील प्राणी है।

प्रश्न 9.
जलालगढ़ पहुँचने के बाद बड़ी बहुरिया के सामने हरगोबिन ने क्या संकल्प लिया ?
उत्तर :
हरगोबिन वापस जलालगढ़ लौट आया। जब वह लौटा तो पूरे होश-हवास में नहीं था क्योंकि वह 20 कोस पैदल चलकर आया था। वहाँ लेटकर तथा बड़ी बहुरिया के हाथ से दूध पीकर उसकी चेतना लौटी। तब उसने बड़ी बहुरिया के सामने यह संकल्प लिया-“ैं तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। मैं तुम्हारा बेटा हूँ। बड़ी बहुरिया, तुम मेरी माँ हो, सारे गाँव की माँ हो। मैं अब निठल्ला बैठा नहीं रहूँगा। तुम्हारा सब काम करूँगा।” इस संकल्प के बाद उसने बड़ी बहुरिया से प्रार्थना की कि वह गाँव छोड़कर नहीं जाए।

भाषा-शिल्प –

1. इन शब्दों का अर्थ समझिए :

  • काबुली – कायदा
  • काबुल के लोगों का तरीका-मारपीट कर पैसा वसूल करना – रोम रोम कलपने लगा
  • पूरी तरह से दु:खी हो गया – अगहनी धान
  • अगहन मास में आने वाला चावल

2. पाठ से प्रश्नवाचक वाक्यों को छाँटिए और संदर्भ के साथ उन पर टिप्पणी लिखिए।

प्रश्नवाचक वाक्य –

(क) फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई ?
– जब हरगोबिन को बड़ी हवेली से बुलावा आया तब उसने ऐसा सोचा।
(ख) कहाँ गए वे दिन ?
– हरगोबिन बड़ी हवेली के अच्छे दिनों का स्मरण करता है और विचारता है कि अब वे दिन कहाँ चले गए।
(ग) और कितना दिल कड़ा करूँ ?
– जब बड़ी बहुरिया संवाद कहते-कहते रो पड़ती है तब हरगोबिन उसे दिल कड़ा करने को कहता है। तभी बहुरिया उससे यह पूछती है।
(घ) मैं किसके लिए दु:ख झेलूँथ?
– बड़ी बहुरिया हरगोबिन के सामने अपने मन की व्यथा और एकाकीपन को इस वाक्य में उँडेलती जान पड़ती है।
(ङ) दीदी कैसी है ?
– जब हरगोबिन बड़ी बहुरिया के गाँव में पहुँचता है तब उत्सुकतावश उसका बड़ा भाई अपनी दीदी का हालचाल पूछता है।

3. इन पंक्तियों की व्याख्या कीजिए :
(क) बड़ी हवेली अब नाममात्र को ही बड़ी हवेली है।
(ख) हरगोबिन ने देखी अपनी आँखों से द्रौपदी की चीरहरण लीला।
(ग) बथुआ-साग खाकर कब तक जीऊँ ?
(घ) किस मुँह से वह ऐंसा संवाद सुनाएगा।
(क) बड़ी हवेली अब पहली जैसी शान-शौकत वाली नहीं रह गई थी। अब तो केवल नाम ही बचा था। वैसे भी टूट-फूट गई थी। उसमें अब बड़प्पन का कोई चिह्न शेष न था।
(ख) हरगोबिन उस अवसर का साक्षी था जब बड़ी बहुरिया की बनारसी साड़ी तक का बँटवारा करने के लिए उसे तीन भागों में काटा गया था। यह एक प्रकार से द्रौपदी (बड़ी बहूरानी) की चीरहरण लीला ही तो थी जो उसके दुशासनों (देवरों) ने की थी।
(ग) बड़ी बहूरानी को खाने-पीने की चीजों तक का अकाल पड़ गया था। वह बथुआ-साग (सामान्य सब्जी) खाकर गुजारा चलाने को विवश थी। भला यह स्थिति कब तक चल सकती थी।
(घ) हरगोबिन बड़ी बहूरानी के दर्दनाक संवाद को उसके मायके में सुनाने की हिम्मत तक नहीं जुटा पा रहा था। उसका मुँह ही नहीं पड़ रहा था कि वह ऐसा संवाद सुनाए।

योग्यता विस्तार –

1. संवदिया की भूमिका आपको मिले तो क्या करेंगे? संवदिया बनने के लिए किन बातों का ध्यान रखना पड़ता है ?
संवदिया की विशेषताओं वाला उत्तर देखें।
2. इस कहानी का नाट्य रूपांतरण कर विद्यालय के मंच पर प्रस्तुत कीजिए।
विद्यार्थी इसे मंच पर प्रस्तुत करें।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 15 संवदिया

प्रश्न 1.
बड़ी बहुरिया के मायके के गाँव में जलपान करते समय हरगोबिन को क्या अनुभव हुआ ?
उत्तर :
वहाँ जलपान करते समय हरगोबिन को लगा, बड़ी बहुरिया दालान पर बैठी उसकी राह देख रही है-भूखी-प्यासी…। रात में भोजन करते समय भी बड़ी बहुरिया मानो सामने आकर बैठ गई…और कह रही हो कि कर्ज-उधार अब कोई देता नहीं। …एक पेट तो कुत्ता भी पालता है, लेकिन मैं ?…माँ से कहना…! हरगोबिन ने थाली की ओर देखा-दाल-भात, तीन किस्म की भाजी, घी, पापड़, अचार।…बड़ी बहुरिया बथुआ-साग उबालकर खा रही होगी।

प्रश्न 2.
‘संवदिया’ कहानी का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘संवदिया’ कहानी फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ द्वारा रचित है। इस कहानी में लेखक ने मानवीय संवदेना की गहन और विलक्षण पहचान प्रस्तुत की है। इस कहानी में बड़ी बहुरिया के माध्यम से एक असहाय और सहनशील नारी-मन के कोमल तंतु की अभिव्यक्ति हुई है। उसकी करुणा पीड़ा और यातना की सूक्ष्म पकड़ कहानीकार ‘ रेणु’ ने की है। हरगोबिन संवदिया की तरह अपने अंचल के दुखी, बेसहारा बड़ी बहुरिया जैसे पात्रों का संवाद लेकर लेखक पाठकों के सम्मुख उपस्थित हुआ है। लेखक ने बड़ी बहुरिया की पीड़ा को, उसके भीतर के हाहाकार को संवदिया के माध्यम से अपनी पूरी सहानुभूति प्रदान की है।

प्रश्न 3.
बिंहपुर स्टेशन पर पहुँचने के बाद हरगोबिन की मानसिक दशा कैसी थी?
उत्तर :
थाना बिंहपुर स्टेशन पर गाड़ी पहुँची तो हरगोबिन का जी भारी हो गया। इसके पहले भी कई भला-बुरा संवाद लेकर वह इस गाँव में आया है, कभी ऐसा नहीं हुआ। उसके पैर गाँव की ओर बढ़ ही नहीं रहे थे। इसी पगडंडी से बड़ी बहुरिया अपने मैके लौट आवेगी। गाँव छोड़कर चली जावेगी। फिर कभी नहीं आवेगी! उसका मन कलपने लगा तब गाँव में क्या रह जावेगा? गाँव की लक्ष्मी ही गाँव छोड़कर जावेगी! किस मुँह से वह ऐसा संवाद सुनाएगा? कैसे कहेगा कि बड़ी बहुरिया बथुआ-साग खाकर गुज़ारा कर रही है? सुनने वाले हरगोबिन के गाँव का नाम लेकर थूकेंगे। हरगोबिन ने अनिच्छापर्वक गाँव में प्रवेश किया।

प्रश्न 4.
हरगोबिन ने बड़ी बहू की माँ को क्या संदेश दिया?
उत्तर :
हरगोबिन ने बड़ी बहू की माँ को कहा कि दशहरे के समय बड़ी बहू गंगा जी के मेले में आकर माँ से मुलाकात कर जाएगी। वह आ भी नहीं सकती, क्योंकि सारी गृहस्थी का भार उस पर ही है। वह गाँव की लक्ष्मी है।

प्रश्न 5.
हरगोबिन जलालगढ़ पैदल क्यों गया?
उत्तर :
हरगोबिन के पास जितने पैसे थे, उनसे कटिहार तक का टिकट खरीदा जा सकता था। यदि उसकी चौअन्नी नकली निकली तो सैमापुर तक ही का टिकट ले पाएगा। वह बिना टिकट एक स्टेशन आगे नहीं जा सकता। इसलिए उसने बीस कोस पैदल चलने का फैसला किया।

प्रश्न 6.
‘संवदिया’ कहानी की क्या विशेषता है ?
अथवा
‘संवदिया’ कहानी की मूल संवेदना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
‘संवदिया’ कहानी में मानवीय संवेदना की गहन एवं विलक्षण पहचान प्रस्तुत हुई है। असहाय और सहनशील नारी मन के कोमल तंतु की, उसके दुख और करुणा की, पीड़ा तथा यातना की ऐसी सूक्ष्म पकड़ रेणु जैसे ‘आत्मा के शिल्पी ‘ द्वारा ही संभव है। हरगोबिन संवदिया की तरह अपने अंचल के दुखी. विपन्न बेसहारा बड़ी बहुरिया जैसे पात्रों का संवाद लेकर रेणु पाठकों के सम्मुख उपस्थित होते हैं। रेणु ने बड़ी बहुरिया की पीड़ा को तथा उसके भीतर के हा-हाकार को संवदिया के माध्यम से अपनी पूरी सहानुभूति प्रदान की है। लोक भाषा की नींव पर खड़ी ‘संवदिया’ कहानी पहाड़ी झरने की तरह गतिमान है। उसकी गति, लय. प्रवाह, संवाद और संगीत पढ़ने वाले के रोम-रोम में झंकृत होने लगता है।

प्रश्न 7.
‘संवदिया’ कहानी की मूल संवेदना क्या है? अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘संवदिया’ कहानी में मानवीय संवेदना की गहन, विलक्षण एवं अद्भुत पहचान की अभिव्यक्ति हुई है। लेखक ‘फणीश्वरनाथ रेणु’ ने असहाय और अत्यंत सहनशील मन के कोमल तंतुओं, उसके दुख, करूणा, व्यथा और यातना को अत्यंत हृदयस्पर्शीं ढंग से प्रस्तुत किया है जो पाठक मन को द्रवीभूत कर जाता है। हरगोबिन संवदिया और अपने अंचल की दुखी बेसहारा पात्रा बड़ी बहुरिया जैसे पात्रों के माध्यम से नारी मन के व्यथित हृदय के हाहाकार को सहानुभूति प्रदान की है। कहानी में लोक भाषा के शब्दों के प्रयोग से आँचलिकता मुखरित हो उठी है जो पाठक मन को झंकृत कर जाती है।

प्रश्न 8.
बड़ी बहू के देवर-देवरानियों के लिए हरगोबिन क्या भावना रखता था?
उत्तर :
बड़ी बहू का दुख सुनकर हरगोबिन का रोम-रोम कलपने लगा। देवर-देवरानियाँ भी बेदर्द हैं। अगहनी धान के समय बाल-बच्चों को लेकर शहर से आएँगे। दस-पंद्रह दिनों में कर्ज-उधार की ढेरी लगाकर, वापस जाते समय दो-दो मन के हिसाब से चावल-चूड़ा ले जाएँगे, फिर आम के मौसम में आकर कच्चा-पक्का आम तोड़कर बोरियों में बंद करके चले जाएँगे, फिर उलटकर कभी नहीं देखते। वह उन्हें राक्षस की संज्ञा देता है।

प्रश्न 9.
कटिहार जंक्शन पर पहुँचकर हरगोबिन को यह क्यों महसूस हुआ कि सचमुच सुराज आ गया है?
उत्तर :
कटिहार जंक्शन पहुँचकर हरगोबिन ने देखा कि पंद्रह-बीस साल में बहुत कुछ बदल गया है। अब स्टेशन पर उतरकर किसी से कुछ पूछने की कोई जरूरत नहीं। गाड़ी पहुँची और तुरंत भोंपे सं आवाज अपने-आप निकलने लगी- थाना बिंहपुर, खगड़िया और बरौनी जाने वाले यात्री तीन नंबर प्लेटफार्म पर चले जाएँ। गाड़ी लगी हुई है। हरगोबिन प्रसन्न हुआ। यही मालूम होता है कि सचमुच सुराज हुआ है। इसके पहले कटिहार पहुँचकर किस गाड़ी में चढ़े और किधर जाए, इस पूछताछ में ही कितनी बार उसकी गाड़ी छूट गई है।

प्रश्न 10.
‘संवदिया’ कहानी में बड़ी बहुरिया अपने मायके क्या संदेश भेजना चाहती थी और क्यों ? संदेश भेजने के बाद उसकी मन:स्थिति कैसी हो गई ?
उत्तर :
बड़ी बहुरिया अपनी बड़ी हवेली (जो अब नाममात्र को ही बड़ी थी) में एकाकी और घोर दरिद्रता का जीवन बिता रही थी। कभी वह इस हवेली में राज करती थी, पर अब दाने-दाने को मोहताज है। वह बथुआ-साग खाकर पेट भर रही है। उधार न चुका पाने के लिए उसे बहुत सुनना पड़ता है। देवर-देवरानी उसकी परवाह नहीं करते। संवाद कहते वक्त बड़ी बहुरिया की आँखें छलछला आई क्योंकि वह अपनी वर्तमान दशा से अत्यंत व्याकुल थी। वह तो आत्महत्या तक करने पर उतारू थी। न उसके खाने-पीने का कोई प्रबंध था, न उसका दु:ख बाँटने वाला कोई था। वह भाई-भाभियों की नौकरी तक करने को तैयार थी। उसके जीने की इच्छा मरती जा रही थी। उसके मन की व्यथा आँसुओं की राह बह रही थी।

प्रश्न 11.
‘संवदिया’ कहानी के आधार पर हरगोबिन की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
एक कुशल संवदिया-हरगोबिन में एक कुशल संवदिया के सभी गुण विद्यमान हैं। वही बड़ी बहू का समाचार अत्यंत गुप्त तरीके से ले जाता है। वह संवदिया की आम धारणा के विपरीत है।
विश्वासपात्र : हरगोबिन बड़ी हवेली का विश्वासपात्र है। बड़े भैया की आकस्मिक मृत्यु के बाद भी वह बड़ी बहुरिया के प्रति विश्वास एवं निष्ठा बनाए रहता है। तभी बड़ी बहुरिया उसके सामने अपने मन की व्यथा उँड़ेल देती है।
सहुदय व्यक्ति : हरगोबिन केवल संवदिया ही नहीं है, वह एक सहृदय व्यक्ति भी है। वह बड़ी बहुरिया की दशा देखकर व्यथित होता है। इसी कारण वह बड़ी बहुरिया की माताजी को उसका दुख कह पाने में असमर्थ हो जाता है।
त्यागमय : वह बड़ी बहुरिया को इस विपन्न अवस्था में गाँव से नहीं जाने देने के लिए कटिबंद्ध हो जाता है। वह उसे विश्वास दिलाता है कि वह सारे गाँव की माँ है। अब वह उसे कोई कष्ट नहीं देगा। अब वह निठल्ला नहीं बैठेगा और उसका हर काम करेगा।

प्रश्न 12.
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने ‘बड़ी बहुरिया की पीड़ा को, उसके भीतर के हाहाकार को संवदिया के माध्यम से अपनी पूरी सहानुभूति प्रदान की है।’ कथन के आलोक में बड़ी बहुरिया का चरित्राकंन कीजिए।
उत्तर :
फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ ने बड़ी बहुरिया की पीड़ा को, उसके भीतर के हाहाकार को संवदिया के माध्यम से अपनी पूरी सहानुभूति प्रदान की है।
लेखक ने बड़ी बहुरिया की स्थिति का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। वे बताते हैं कि संवदिया को संवाद सुनाते समय बड़ी बहुरिया सिसकने लगी। हरगोबिन की आँखें भी भर आई ।…… बड़ी हवेली की लक्ष्मी को पहली बार इस तरह सिसकते देखा है हरगोबिन ने। वह बोला, “बड़ी बहुरिया, दिल को कड़ा कीजिए।”
” और कितना कड़ा करूँ दिल ?….माँ से कहना, में भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूँगी। बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन यहाँ अब नहीं……अब नहीं रह सकूँगी।… ..कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरूँगी।…..बथुआ-साग खाकर कब तक जीऊँ ? किसलिए,….किसके लिए ?”
बड़ी बहुरिया के चरित्राकंन में कहा जा सकता है कि वह एक भावुक स्वभाव की स्त्री है।
वह जीवन की वास्तविकता को समझती है। बाद में वह मायके जाकर बसने के फैसले पर पुनर्विचार करती है और उस विचार को त्याग देती है।
वह परिवार के मान-सम्मान की रक्षा करती है।

प्रश्न 13.
संदेश भेजते समय बड़ी बहुरिया की तथा हरगोबिन की मनःस्थिति पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
बड़ी बहुरिया अपने मायके संदेश भिजवाना चाहती थी कि अब उसका यहाँ रहना कठिन हो गया है और वहीं आकर रहना चाहती है।
संदेश भेजते समय बड़ी बहुरिया की आँखें छलछलाई। वह कभी इस हवेली की लक्ष्मी थी, पर अब वह सिसक रही थी। उसने संवदिया हरगोविंद से कहा कि यदि उसकी माँ उसे यहाँ से नहीं ले गई तो वह गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरेगी। वह बथुआ-साग खाकर भला कब तक जीए ?
हरगोबिन भी बड़ी बहुरिया की व्यथा को देखकर दुखी हो गया। उसका रोम-रोम कलपने लगा।

प्रश्न 14.
‘संवदिया’ कहानी में संवदिया के चरित्र के कौन-कौन से पक्ष उभर कर आए हैं ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
संवदिया के चरित्र के विविध पक्ष :

  • संबदिया का अर्थ है- संवाद या संदेश ले जाने वाला। यह काम सब नहीं कर सकते।
  • संवदिया गुप्त समाचार को इस प्रकार ले जाता है कि पक्षी तक को उसके बारे में पता नहीं चलता।
  • संवदिया को संवाद का प्रत्येक शब्द याद रखना पड़ता है।
  • संवदिया संवाद को उसी लहजे और सुर में सुनाता है जैसा उसे सुनाया जाता है।

संवदिया के बारे में गाँव वालों की धारणा :

  • वह कामचोर, निठल्ला और पेटू किस्ग का आदमी होता है।
  • वह औरतों की गुलामी करता है। वह औरतों की मीठी बोली सुनकर नशे में आ जाता है।
  • वह बिना मजदूरी लिए काम करता है।

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Class 12 Hindi Antra Chapter 16 Question Answer गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफ़ात

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Class 12 Hindi Chapter 16 Question Answer Antra गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफ़ात

प्रश्न 1.
लेखक सेवाग्राम कब और क्यों गया था ?
उत्तर :
लेखक सन् 1938 के आसपास सेवाग्राम गया था। उन दिनों लेखक के भाई बलराज साहनी सेवाग्राम में ही रह रहे थे। वे वहाँ रहकर ‘नई तालीम’ पत्रिका के सह-संपादक के रूप में काम कर रहे थे। उस साल कांग्रेस का अधिवेशन हरिपुरा में हुआ था। तभी लेखक कुछ दिन भाई के साथ बिता पाने के लिए सेवाग्राम चला गया था। उन दिनों गाँधीजी भी वहीं थे। लेखक के मन में उनको नजदीक से देखने की इच्छा भी रही होगी।

प्रश्न 2.
लेखक का गाँधीजी के साथ चलने का पहला अनुभव किस प्रकार का रहा ?
उत्तर :

  • लेखक को सेवाग्राम पहुँचकर पता चला था कि गाँधी जी प्रातःध्रमण के लिए उनके भाई के क्वार्टर के आगे से ही निकलते हैं।
  • गाँधी जी का वहाँ पहुँचने का समय ठीक सात बजे था। लेखक सुबह जल्दी उठकर सात बजने का इंतजार करने लगा।
  • ठीक समय पर गाँधी जी आश्रम का फाटक लाँघकर अपने साथियों के साथ सड़क पर आ गए थे।
  • गाँधी जी हूबहू वैसे ही लग रहे थे जैसा लेखक ने उन्हें चित्रों में देखा था। कमर के नीचे उनकी छड़ी भी लटक रही थी।
  • लेखक के भाई ने उसका परिचय गाँधी जी से करवाया।
  • लेखक ने गाँधी जी को उनकी रावलपिंडी यात्रा की याद दिलाई।
  • गाँधी जी को रावलपिंडी यात्रा अच्छी प्रकार याद थी। उन्होंने उसके बारे में बातें की। उन्हें मिस्टर जॉन का भी स्मरण था।
  • गाँधी जी बहुत धीमी आवाज में बोल रहे थे।
  • वे बीच-बीच में हैंसी की बात भी कह देते थे।

प्रश्न 3.
लेखक ने सेवाग्राम में किन-किन लोगों के आने का जिक्र किया है ?
उत्तर :
लेखक ने सेवाग्राम में निम्नलिखित लोगों के आने का जिक्र किया है :

  • पृथ्वीसिंह आजाद : इन्होंने हथकड़ियों समेत भागती रेलगाड़ी से छलांग लगाई और भागकर गुमनाम हो गए।
  • मीरा बेन
  • खान अब्दुल गफ्फार खाँ
  • राजेंद्र बाबू

प्रश्न 4.
रोगी बालक के प्रति गाँधीजी का व्यवहार किस प्रकार का था ?
उत्तर :
सेवाग्राम आश्रम में एक बालक चिल्ला रहा था-‘मैं मर रहा हूँ, बापू को बुलाओ। मैं मर जाऊँगा, बापू को बुलाओ। लड़के का पेट फूला हुआ था। वह बहुत बेचैनी का अनुभव कर रहा था। बापू जी की उस समय जरूरी मीटिंग चल रही थी। आखिरकार गाँधीजी मीटिंग को बीच में छोड़कर उस रोगी बालक के पास जा पहुँचे। वे उसके पास जाकर खड़े हो गए। उनकी नजर बालक के फूले हुए पेट की ओर गई। उन्होंने उसके पेट पर हाथ फेरा और बोले-‘ईख पीता रहा है। इतनी ज्यादा पी गया। तू तो पागल है।’ फिर गाँधीजी ने उसे सहारा देकर उठाया और कहा कि मुँह में उँगली डालकर कै कर दो। लड़का नाली के किनारे बैठ गया। गाँधीजी उसकी पीठ पर हाथ रखकर झुके रहे। थोड़ी ही देर में उसका पेट हल्का हो गया और हाँफता हुआ बैठ गया। गाँधीजी ने उससे खोखे में जाकर चुपचाप लेटने को कहा। उन्होंने आश्रमवासी को कोई हिदायत भी दी। गाँधीजी का उस रोगी बालक के प्रति व्यवहार अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण था।

प्रश्न 5.
कश्मीर के लोगों ने नेहरूजी का स्वागत किस प्रकार किया ?
उत्तर :
पंडित नेहरू कश्मीर यात्रा पर आए हुए थे। वहाँ कश्मीर के लोगों ने उनका भव्य स्वागत किया। शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में झेलम नदी पर, शहर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक, सातवें पुल से अमीराकदल तक, नावों में उनकी शोभा यात्रा निकाली गई। यह देखने लायक थी। नदी के दोनों ओर हजारों कश्मीर निवासी अदम्य उत्साह के साथ नेहरूजी का स्वागत कर रहे थे। यह दृश्य अद्भुत था।

प्रश्न 6.
अखबार वाली घटना से नेहरूजी के व्यक्तित्व की कौन-सी विशेषता प्रकट होती है?
उत्तर :
लेखक बरामदे में खड़ा होकर अखबार पर नजर डाल ही रहा था कि सीढ़ियों से नेहरूजी के उतरने की पदचाप सुनाई दी। उस दिन उन्हें अपने साथियों के साथ पहलगाम जाना था। उस समय अखबार लेखक के हाथ में था। लेखक को एक बचकानी हरकत सूझी। उसने फैसला किया कि मैं अखबार पढ़ता रहूँगा और तभी नेहरूजी के हाथ में दूँगा जब वह माँगेंगे। इसके बहाने एक छोटा-सा वार्तालाप तो हो जाएगा। नेहरूजी आए। लेखक के हाथ में अखबार देखकर चुपचाप एक ओर खड़े रहे। शायद वे इस इंतजार में थे कि उन्हें स्वयं अखबार मिल जाएगा। आखिरकार नेहरूजी धीरे से बोले-” आपने देख लिया हो तो क्या मैं एक नजर देख सकता हूँ ?” यह सुनते ही लेखक शर्मिदा हो गया और अखबार उनके हाथ में दे दिया। अखबार वाली इस घटना से नेहरूजी के व्यक्तित्व पर यह प्रकाश पड़ता है कि वे विनम्र स्वभाव के थे और दूसरों की भावनाओं का सम्मान करना जानते थे। उन्होंने अखबार माँगने में विनम्रता का परिचय दिया था।

प्रश्न 7.
फिलिस्तीन के प्रति भारत का रवैया बहुत सहानुभूति एवं समर्थन भरा क्यों था ?
उत्तर :
फिलिस्तीन के प्रति साम्राज्यवादी शक्तियों का रवैया अन्यायपूर्ण था। भारत स्वयं साम्राज्यवादी शक्तियों के अन्याय का शिकार था। वह इस अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने वालों के प्रति सहानुभूति रखता था। भारत के तत्कालीन नेताओं ने साम्राज्यवादी शक्तियों के दमन की घोर भर्त्सना की थी। भारत फिलिस्तीन आंदोलन के प्रति विशाल स्तर पर सहानुभूति रखता था। भारत किसी के भी प्रति हो रहे अन्याय का विरोध करने में आगे रहता था। फिलिस्तीन के नेता अराफात भी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति अपनी सहानुभूति रखते थे।

प्रश्न 8.
अराफात के आतिथ्य प्रेम से संबंधित किन्हीं दो घटनाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
अराफात ने लेखक को सपत्नीक दिन के भोजन पर आमंत्रित किया था। अराफात स्वयं बाहर आकर लेखक और उसकी पत्नी को अंदर लिवा कर गए। उनके आतिथ्य के दो उदाहरण इस प्रकार हैं-
1. अराफात ने अपने हाथों से फल छील-छीलकर लेखक और उसकी पत्नी को खिलाए। उनके पीने के लिए स्वयं शहद की चाय बनाई।
2. लेखक माजन के समय से पूर्व अनुमान से गुसलखाने में गया। जब वह गुसलखाने से बाहर आया तब यास्सेर अराफात स्वयं हाथ में तौलिया लिए खड़े थे। यह देखकर लेखक झेंप गया।
ये दोनों घटनाएँ अराफात के आतिथ्य-प्रेम को झलकाती हैं।

प्रश्न 9.
अराफात ने ऐसा क्यों बोला कि ‘वे आपके ही नहीं, हमारे भी नेता हैं। उतने ही आदरणीय जितने आपके लिए।’ इस कथन के आधार पर गाँधीजी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
अराफात ने ऐसॉ इसलिए बोला क्योंकि भारत के बड़े-बड़े सभी नेता फिलिस्तीन के आंदोलन का समर्थन कर रहे थे। वे फिलिस्तीन के प्रति साम्राज्यवादी शक्तियों के अन्यायपूर्ण रवैये की भर्स्सना करके फिलिस्तीनियों का उत्साहवर्धन कर रहे थे। यही कारण था कि फिलिस्तीनियों को भारत के नेता अपने नेता प्रतीत होते थे। वे गाँधीजी एवं नेहरूजी को आदरणीय मानते थे। इस कथन के आधार पर गाँधीजी के व्यक्तित्व पर यह प्रकाश पड़ता है कि वे हर अन्याय का विरोध करते थे। इसमें वे अपने देश या दूसरे देश के बीच कोई अंतर नहीं करते थे। उनकी सहानुभूति सदैव पीड़ित पक्ष की ओर होती थी। वे साम्राज्यवादी शक्तियों से लोहा ले रहे थे। गाँधीजी के व्यक्तित्व का जादू देश-विदेश में सिर चढ़कर बोल रहा था। अन्याय के शिकार देश उनकी ओर आशाभरी दृष्टि से देख रहे थे।

भाषा-शिल्प –

1. पाठ से क्रिया-विशेषण छाँटिए और उनका अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए :
सात बजे (कालवाचक)
तुम सात बजे आना।

धीमी (रीतिवाचक)
वह धीमी चलती है।

चुपचाप (रीतिवाचक)
यहाँ से चुपचाप चले जाओ।

हँसते हुए (रीतिवाचक)
वह हँसते हुए बोला।

एक ओर (स्थानवाचक)
तुम एक ओर खड़े हो जाओ।

2. “मैं सेवाग्राम” “माँ जैसी लगती” गद्यांश में क्रिया पर ध्यान दीजिए।

इस गद्यांश में क्रियाओं को मोटे अक्षरों में संकेतित किया हैमैं सेवाग्राम में लगभग तीन सप्ताह तक रहा। अक्सर ही प्रातः उस टोली के साथ हो लेता। शाम को प्रार्थना सभा में जा पहुँचता, जहाँ सभी आश्रमवासी तथा कस्तूरा एक ओर को पालथी मारे और दोनों हाथ गोद में रखे बैठी होतीं और बिल्कुल मेरी माँ जैसी लगतीं।

3. नेहरूजी द्वारा सुनाई गई कहानी को अपने शब्दों में लिखिए।

कहानी

पेरिस शहर में एक बाजीगर रहता था। वह तरह-तरह के करतब दिखाकर अपना पेट पालता था। एक बार क्रिसमस का पर्व आया। पेरिस निवासी सज-धज कर हाथों पर फूलों के गुच्छे और उपहार लेकर माता मरियम को श्रद्धांजलि अर्पित करने गिरजे में जा रहे थे। गिरजे के बाहर बाजीगर उदास खड़ा था। उसके पास माता मरियम के चरणों में रखने के लिए कोई तोहफा नहीं था। उसके कपड़े भी फटे थे। उसने मन में सोचा कि मैं माता मरियम को अपना करतब दिखाकर प्रसन्न कर सकता हूँ। जब गिरजा खाली हो गया तो वह बाजीगर चुपके से गिरजे में घुस गया और अपने कपड़े उतार कर माता मरियम को अपने करतब दिखाने लगा। इस प्रयास में वह हाँफने तक लगा। तभी गिरजे का पादरी आ गया। वह बाजीगर को यह सब करते देखकर तिलमिला उठा। उसने सोचा कि वह लात मारकर उसे गिरजे से बाहर निकाल दे। तभी एक चमत्कार हुआ। माता मरियम अपने मंच से उत्तकर उस बाजीगर के पास गई और अपने आँचल सें उसके माथे का पसीना पोंछा और उसके सिर को सहलाने लगी।

योग्यता विस्तार –

1. भीष्म साहनी की अन्य रचनाएँं ‘तमस’ तथा ‘मेरा भाई बलराज’ पढ़िए।
विद्यार्थी ‘तमस’ धारावाहिक देखकर इनके विषय में जान सकते हैं।

2. गाँधी तथा नेहरूजी से संबंधित अन्य संस्मरण भी पढ़िए और उन पर टिप्पणी लिखिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।

3. यास्सेर अराफात के आतिथ्य से क्या प्रेरणा मिलती है और अपने अतिथि का सत्कार आप किस प्रकार करना चाहेंगे ?
यास्सेर अराफात के आतिथ्य से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि अतिथि को भगवान का रूप मानना चाहिए और उसका सत्कार करना चाहिए। यदि हमारे घर कोई अतिथि आएगा तो हम उसका पूरा-पूरा सम्मान करेंगे तथा उसके सत्कार में कोई कसर उठा न रखेंगे।

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प्रश्न 1.
लेखक वर्धा स्टेशन से सेवाग्राम तक कैसे पहुँचा ?
उत्तर :
रेलगाड़ी वर्धा स्टेशन पर रुकती थी। लेखक वर्धा स्टेशन पर रेलगाड़ी से उतर गया। वहाँ से लगभग पाँच मील दूर सेवाग्राम तक का फासला उसने इक्के या ताँगे में बैठकर तय किया। वह देर रात सेवाग्राम पहुँचा। एक तो सड़क कच्ची थी, इस पर घुप्प अँधेरा था। उन दिनों सड़क पर कोई रोशनी नहीं हुआ करती थी।

प्रश्न 2.
गाँधी जी की बातचीत का तरीका कैसा था?
उत्तर :
गाँधी जी बातचीत के बीच में हैसते हुए कुछ कहते थे। वे धीमी आवाज में बोलते थे। ऐसा लगता था मानो वे अपने आपसे बातें कर रहे हैं। स्वयं से ही बातों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। उनकी इस तरीके में उनकी विनम्रता, सरलता, सहनशीलता आदि के दर्शन हो रहे थे।

प्रश्न 3.
सेवाग्राम में लेखक को क्या अनुभव मिले?
उत्तर :
लेखक सेवाग्राम में लगभग तीन सप्ताह तक रहा। अक्सर ही प्रात: टोली के साथ हो लेता। शाम को प्रार्थना सभा में जा पहुँचता, जहाँ सभी आश्रमवासी तथा कस्तूरबा एक ओर को पालथी मारे और दोनों हाथ गोद में रखे बैठी होतीं और बिल्कुल माँ जैसी लगतीं। वह वहाँ जाने-माने देशभक्तों से भी मिला। उन्हीं देशभक्तों में से एक पृथ्वी सिंह आजाद का अनुभव सुना कि किस तरह वे हथकड़ी सहित अंग्रेज़ों की कैद से सुरक्षित भाग निकले और अंग्रेज़ों से बचने के लिए ही गुमनाम रहकर अध्यापन कार्य करते।

प्रश्न 4.
जापानी ‘भिक्षु’ आश्रम में अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति कैसे करता था?
उत्तर :
उन दिनों एक जापानी ‘भिक्षु’ अपने चीवर वस्त्रों में गाँधी जी के आश्रम की प्रदक्षिणा करता। लगभग मील भर के घेरे में, बार-बार अपना ‘गाँग’ बजाता हुआ आगे बढ़ता जाता। गाँग की आवाज़ हमें दिन में अनेक बार, कभी एक ओर से तो कभी दूसरी ओर से सुनाई देती रहती। उसकी प्रदक्षिणा प्रार्थना के वक्त समाप्त होती, वह प्रार्थना-स्थल पर पहुँचकर बड़े आदरभाव से गाँधी जी को प्रणाम करता और एक ओर को बैठ जाता। इस प्रकार भिक्षु आश्रम में अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति किया करता था।

प्रश्न 5.
पृथ्वीसिंह आज़ाद कौन थे ?
उत्तर :
पृथ्वीसिंह आज़ाद एक क्रांतिकारी थे। वे बहुत शक्तिशाली थे। उन्हें एक बार अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया था। उन्हें हथकड़ी लगाकर अन्यत्र ले जाया जा रहा था। मौका देखकर पृथ्वीसिंह आज़ाद हथकड़ी समेत रास्ते में रेलगाड़ी से कूद गए। वे भाग निकलने में सफल रहे। वहाँ से चलकर वे वर्षों तक गुमनामी की जिंदगी जीते रहे। इसी दौरान उन्होंने यह अध्यापन कार्य भी किया। वे गाँधीजी के सेवाग्राम आश्रम में भी गए थे। वहीं उन्होंने अपने बारे में सबको बताया। लेखक भी उन दिनों वहीं आश्रम में थे। उसने पृथ्वीसिंह के मुँह से ही उसकी वीरता के कारनामे सुने।

प्रश्न 6.
ट्यूनीसिया में क्या होने जा रहा था? लेखक को ट्यूनीशिया जाने का अवसर कैसे मिला?
उत्तर :
ट्यूनीसिया की राजधानी ट्यूनिस में अफ्रो-एशियाई लेखक संघ का सम्मेलन होने जा रहा था। भारत से जाने वाले प्रतिनिधि मंडल में सर्वश्री कमलेश्वर, जोगिंदरपाल, बालू राब, अब्दुल बिस्मिल्लाह आदि थे। कार्यकारी महामंत्री के नाते लेखक अपनी पत्नी के साथ कुछ दिन पहले पहुँच गया था। ट्यूनिस में ही उन दिनों लेखक संघ की पत्रिका ‘लोटस’ का संपादकीय कार्यालय हुआ करता था।

प्रश्न 7.
‘आस्था और अद्धा प्रकट करने के लिए धनी होना आवश्यक नहीं है’ पाठ में आए ‘बाजीगर’ प्रसंग के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
पेरिस में क्रिसमस के दिन एक अत्यंत गरीब बाजीगर भी माता मरियम के चरणों की अभ्यर्थना करना चाहता था, पर उसके पास उपहार खरीदने के लिए न तो धन था, और न गिरजे में जाने योग्य वस्त्र। ऐसे में उसने अपने कला-कौशल के बल पर माता के सम्मुख अपने करतब दिखाकर अभ्यर्थना का निर्णय लिया और सबके चले जाने पर माता के सम्मुख ऐसा ही किया। माता मरियम ने उसका करतब देख उसके सिर पर हाथ फेरा। इस प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है कि आस्था और श्रद्धा प्रकट करने के लिए धनी होना आवश्यक नहीं है, बस मन में सच्ची लगन और अभिलाषा होनी चाहिए।

प्रश्न 8.
बाजीगर कैसे गिरजे में घुसा ? वहाँ उसने क्या किया ? पादरी ने वहाँ क्या दृश्य देखा ?
उत्तर :
जब श्रद्धालु चले गए और गिरजा खाली हो गया तो बाजीगर चुपके से अंदर घुस गया। वह कपड़े उतारकर पूरे उत्साह के साथ अपने करतब दिखाने लगा। गिरजे में अँधेरा था श्रद्धालु जा चुके थे। दरवाजे बंद थे। कभी सिर के बल खड़े होकर, कभी तरह-तरह अंगचालन करते हुए बड़ी तन्भयता के साथ, एक के बाद एक करतब दिखाता रहा यहाँ तक कि हाँफने लगा। उसके हाँफने की आवाज कहीं बड़े पादरी के कान में पड़ गई और वह यह समझकर कि कोई जानवर गिरजे के अंदर घुस आया है और गिरजे को दूषित कर रहा है, भागता हुआ गिरजे के अंदर आया। उस वक्त बाजीगर, सिर के बल खड़ा अपना सबसे चहेता करतब बड़ी तन्मयता से दिखा रहा था। यह दृश्य देखते ही बड़ा पादरी तिलमिला उठा। माता मरियम का इससे बड़ा अपमान क्या होगा ? आगबबूला, वह नट की ओर बढ़ा ताकि उसे लात जमाकर गिरजे के बाहर निकाल दे। वह नट की ओर गुस्से से बढ़ ही रहा है तो क्या देखता है कि माता मरियम की मूर्ति अपनी जगह से हिली, माता मरियम अपने मंच पर से उतर आई और धीरे-धीरे आगे बढ़ती हुई नट के पास जा पहुँची और अपने आँचल से हाँफते नट के माथे का पसीना पोंछती उसके सिर को सहलाने लगी।

प्रश्न 9.
सेवाग्राम में ठहरा जापानी बौद्ध क्या किया करता था ?
उत्तर :
उन दिनों आश्रम में एक जापानी ‘भिक्षु’ अपने .चीवर वस्त्रों में गाँधीजी के आश्रम की प्रदक्षिणा करता था। लगभग मील-भर के घेरे में, बार-बार अपना ‘गाँग’ बजाता हुआ आगे बढ़ता जाता। गाँग की आवाज दिन में अनेक बार, कभी एक ओर से तो कभी दूसरी ओर से सुनाई देती रहती। उसकी प्रदक्षिणा प्रार्थना के वक्त समाप्त होती, जब वह प्रार्थना स्थल पर पहुँचकर बड़े आदरभाव से गाँधीजी को प्रणाम करता और एक और को बैठ जाता।

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Class 12 Hindi Antra Chapter 17 Question Answer शेर, पहचान, चार हाथ, साझा

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 17 शेर, पहचान, चार हाथ, साझा

Class 12 Hindi Chapter 17 Question Answer Antra शेर, पहचान, चार हाथ, साझा

1. शेर –

प्रश्न 1.
लोमड़ी स्वेच्छा से शेर के मुँह में क्यों जा रही थी ?
उत्तर :
लेखक ने जंगल में देखा कि जंगल के छोटे-मोटे जानवर एक लाइन में चले जा रहे हैं और शेर के मुँह में घुसते चले जा रहे हैं। शेर उन्हें बिना चबाए गटकता जा रहा है। फिर उसे एक लोमड़ी मिली। वह भी शेर के मुँह में चली जा रही थी। वह स्वेच्छा से अर्थात् अपनी मर्जी से शेर के मुँह में जा रही थी। जब लेखक ने उससे पूछा कि तुम शेर के मुँह में क्यों जा रही हो; तब उसने उत्तर दिया-” शेर के मुँह में रोज़गार का दफ्तर है। मैं वहाँ दरखास्त दूँगी, फिर मुझे नौकरी मिल जाएगी।” यह बात उसे शेर ने ही बताई थी।

प्रश्न 2.
कहानी में लेखक ने शेर को किस बात का प्रतीक बताया है ?
उत्तर :
कहानी में लेखक ने शेर को व्यवस्था का प्रतीक बताया है। वह सत्ता की व्यवस्था का प्रतीक है। जैसे ही कोई उसकी व्यवस्था पर उँगली उठाता है या उसकी आज्ञा मानने से इंकार करता है, वह खूँखार हो उठती है। यह सत्ता विरोध में उठने वाले स्वर को कुचल देती है। वह अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अपने बारे में तरह-तरह के भ्रम प्रचारित करता है और लोगों को उस भ्रमजाल में फँसा लेता है। सामान्य लोग उसका विश्वास कर काल का ग्रास बन जाते हैं।

प्रश्न 3.
शेर के मुँह और रोजगार के दफ्तर के बीच क्या अंतर है ?
उत्तर :
शेर के मुँह के अंदर जो भी जंगली जानवर एक बार जाता है, उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। वह वहौँ से पुन: लौटकर कभी नहीं आया। आधुनिक रोजगार दफ्तर में लोग नौकरी की उम्मीद में वहाँ के चक्कर काटते रहते हैं पर उन्हें वहाँ से कभी नौकरी नहीं मिलती। पर इतना अंतर अवश्य है कि रोजगार दफ्तर उन्हें शेर के मुँह की भॉति निगलकर उनका अस्तित्व समाप्त नहीं करता।

प्रश्न 4.
‘ग्रमाण से अधिक महत्त्वपूर्ण है विश्वास’-शेर कहानी के आधार पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
जब लेखक पूछता है कि यदि शेर का मुँह रोजगार का दफ्तर है तो पास में रोजगार दफ्तर क्यों है ? तब उसे जवाब मिलता है कि प्रमाण से अधिक महत्त्वपूर्ण है विश्वास। यद्यपि शेर का मुँह हिंसा का प्रतीक है, पर विभिन्न जीवों को यह विश्वास दिलाया गया कि शेर के अंदर घास का हरा-भरा मैदान है, वहाँ रोजगार का दफ्तर है। शेर के मुँह में स्वर्ग है। अतः वे उसके मुँह में समाते चले गए। उन्हें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं थी, बल्कि उन्हें अटूट विश्वास था। आज का सत्ताधारी वर्ग भी लोगों का विश्वास हासिल करने उनका शोषण करता है। यदि नेता जनता का विश्वास जीत जाता है तो उसका ढोंग भली प्रकार चल जाता है।

2. पहचान –

प्रश्न 1.
राजा ने जनता को हुक्म क्यों दिया कि सब लोग अपनी आँखें बंद कर लें ?
उत्तर :

  1. राजा ने जनता को आँखें बंद कर लेने का हुक्म इसलिए दिया ताकि वह मनमाने ढंग से अपना काम कर सके और लोगों से खूब काम ले सके। बंद आँखों से काम अच्छा और अधिक हो रहा था।
  2. राजा को लगा कि जनता में शांति बनाए रखने के लिए आँखें बंद करवाना ही उचित है।
  3. राजा ने आँखें इसलिए भी बंद करवाईं ताकि लोग एक-दूसरे को न देख सकें। अपना ध्यान वे काम में लगाएँ।

प्रश्न 2.
आँख बंद रखने और आँखें खोलकर देखने के क्या परिणाम निकले ?
उत्तर :
आँख बंद रखने का यह परिणाम निकला कि काम पहले की तुलना में अधिक और अच्छा होने लगा। इसका कारण था कि लोग इधर-उधर न देखकर हर वक्त काम में जुटे रहते थे। आँखें खोलकर देखने का यह परिणाम निकला कि अब उन्हें राजा के सिवाय कोई और दिखाई ही नहीं देता था। वे एक-दूसरे तक की पहचान खो बैठे थे। राजा चाहता भी यही था।

प्रश्न 3.
राजा ने कौन-कौन से हुक्म निकाले ? सूची बनाइए और इनके निहितार्थ लिखिए।
उत्तर :
राजा ने निम्नलिखित हुक्म निकाले-
– सब लोग अपनी आँखें बंद रखेंगे, ताकि उन्हें शांति मिलती रहे।
[निहितार्थ-लोग राजा के कामों को, हरकतों को न देख पाएँ और उसके काम में लगे रहें।]
– लोग अपने कानों में पिघला हुआ सीसा डलवा लें।
[निहितार्थ-इससे लोगों के सुनने की शक्ति समाप्त हो जाएगी। वे किसी विपक्षी की बातें सुनकर सत्ता का विरोध नहीं कर सकेंगे।]
– लोग अपने होंठ सिलवा लें। बोलने को उत्पादन में बाधक बताया गया।
[निहितार्थ-इसका निहितार्थ है कि लोग राजा के कार्यों के विरुद्ध अपनी आवाज न उठाएँ। वे चुप रहकर काम करते रहें।]

प्रश्न 4.
जनता राज्य की स्थिति की ओर आँख बंद कर ले तो उसका राज्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
यदि जनता राज्य की स्थिति की ओर आँख बंद कर ले अर्थात् ध्यान न दे तो शासक वर्ग निरंकुश हो जाएगा। तब राज्य की प्रगति तो अवरुद्ध हो जाएगी, पर राजा (सत्ता) की व्यक्तिगत उन्नति खूब होगी। वह राज्य की संपत्ति का उपभोग अपने लिए ही करेगा। राज्य की दशा सुधारने में उसकी कोई रुचि नहीं होती। वह तो तभी रुचि लेता है जब राज्य की जनता सचेत रहती है। शासक वर्ग तो यही चाहता है कि राज्य की जनता राज्य के प्रति आँखें मूँदे रहे।

प्रश्न 5.
खैराती, रामू और छिदू ने जब आँखें खोलीं तो उन्हें राजा ही क्यों दिखाई दिया ?
उत्तर :
खैराती, रामू और छिदू आम जनता के प्रतीक हैं। जब राजा (शासक वर्ग) जनता को गूँगा, बहरा और अंधा बना देता है तब जनता की अपनी पहचान खो जाती है। उसे वही दिखाई देता है जो उसे दिखाया जाता है। इन लोगों की मन:स्थिति ऐसी बना दी गई थी कि उन्हें राजा के अलावा और कोई दिखाई ही न देता था। इसी स्थिति को Brainwash करना कहते हैं। इसमें जनता की अपनी पहचान खो जाती है। उसे वही दिखाई देता है जो उसे दिखाया जाता है। इन लोगों की मन:स्थिति ऐसी बना दी गई थी कि उन्हें राजा के अलावा और कोई दिखाई नहीं दिया। उनकी स्थिति ऐसी थी जैसे सावन के अंधे को हरा-ही हरा दिखाई देता है।

3. चार हाथ –

प्रश्न 1.
मजदूरों को चार हाथ देने के लिए मिल मालिक ने क्या-क्या किया और उसका क्या परिणाम निकला ?
उत्तर :
मिल मालिक ने मजदूों को चार हाथ देकर अधिक काम करवाने का विचार किया। इसके लिए उसने निम्नलिखित प्रयास किए:

  1. बड़े वैज्ञानिकों को मोटी तनख्वाह पर नौकर रखा ताकि वे शोध और प्रयोग करके मजदूरों के चार हाथ कर सकें। कई साल के प्रयोग के बाद उन्होंने इसे असंभव बताया अतः वैज्ञानिकों की छुट्टी कर दी गई।
  2. फिर मिल मालिकों ने कटे हुए हाथ मँगवाए और उन्हें मजदूरों को फिट करना चाहा, पर ऐसा हो नहीं सका।
  3. फिर उसने लकंड़ी के हाथ मँगवाए और उन्हें लगवाना चाहा। उनसे काम नहीं हो पाया।
  4. फिर उसने लोहे के हाथ मँगवाए। उन्हें फिट करवाया तो मजदूर मर गए।

प्रश्न 2.
चार हाथ न लग पाने की स्थिति में मिल मालिक की समझ में क्या बात आई ?
उत्तर :
एक दिन मिल-मालिक के दिमाग में एक ख्याल आया कि अगर मज़दूरों के चार हाथ हों तो काम बहुत तेजी से होगा और उसका मुनाफ़ा भी ज्यादा हो जाएगा। उसने इस काम को करने के लिए बड़े वैज्ञानिकों को मोटी तनख्वाह पर नौकर रखा। कई साल तक शोध और प्रयोग करने के बाद उन्होंने कहा कि ऐसा करना असंभव है कि आदमी के चार हाथ हो जाएँ।

मिल-मालिक नाराज़ हो गया। वह स्वयं इसका उपाय ढूँढ़ने में जुट गया। उसने कटे हाथ मँगवाए और उन्हें अपने मज़दूरों के फिट करवाना चाहा, पर ऐसा न हो सका। लकड़ी के हाथ भी नहीं लग पाए। अंत में उसे एक बात समझ में आ गई। उसने मज़दूरों की मजदूरी आधी कर दी। इससे बचे पैसों से दुगुने मजदूर काम पर रख लिए। अब उन्हीं पैंसों में दुगुना काम होने लगा।

4. साझा –

प्रश्न 1.
साझे की खेती के बारे में हाथी ने किसान को क्या बताया ?
उत्तर :
साझे की खेती के बारे में हाथी ने किसान को यह बताया कि वह उसके साथ साझे में खेती करे। उसने समझाया कि साझे की खेती करने का यह लाभ होगा कि जंगल के छोटे-मोटे जानवर खेतों को नुकसान नहीं पहुँचा सकेंगे। खेती की अच्छी रखवाली हो जाएगी।

प्रश्न 2.
हाथी ने खेत की रखवाली के लिए क्या घोषणा की ?
उत्तर :
किसान अकेले खेती करने का साहस नहीं जुटा पाता था। वह पहले शेर, चीते, मगरमच्छ के साथ खेती कर चुका था, पर उसे कोई लाभ नहीं हुआ था। अबकी बार हाथी ने कहा कि अब वह उसके साथ खेती करे। इससे उसे यह लाभ होगा कि जंगल के छोटे-मोटे जानवर खेतों को नुकसान नहीं पहुँचा पाएँगे। अंतत: किसान इसके लिए तैयार हो गया। उसने हाथी से मिलकर खेत में गन्ना बोया। हाथी ने खेत की रखवाली के लिए पूरे जंगल में घूमकर यह डुग्गी पीटी कि अब गन्ने के खेत में उसका साझा है, इसलिए कोई जानवर खेत को नुकसान न पहुँचाए, नहीं तो अच्छा नहीं होगा। इस प्रकार गन्ने के खेत की रखवाली अच्छी प्रकार से हो गई।

प्रश्न 3.
आधी-आधी फसल हाथी ने किस तरह बँटी ?
उत्तर :
गन्ने की फसल पकने पर किसान हाथी को खेत पर बुला लाया। किसान चाहता था कि फसल आधी-आधी बाँट ली जाए। जब उसने हाथी को यह बात कही तो वह बिगड़ उठा। वह बोला, “अपने-पराए की बात मत करो। यह छोटी बात है। हम दोनों गन्ने के स्वामी हैं। अतः हम मिलकर गन्ने खाएँगे।” यह कहकर गन्ने का एक छोर हाथी ने अपने मुँह में ले लिया और दूसरा सिरा किसान के मुँह में दे द्यिया। गन्ने के साथ-साथ आदमी भी हाथी के मुँह की तरफ खिंचने लगा तो उसने गन्ना छोड़ दिया। इस प्रकार सारा गन्ना हाथी के हिस्से में आ गया।

योग्यता विस्तार –

1. शेर –

प्रश्न 1.
इस कहानी में हमारी व्यवस्था पर जो व्यंग्य किया गया है, उसे स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
शेर व्यवस्था का प्रतीक है। इस कहानी में व्यवस्था पर करारा व्यंगय किया गया है। ऊपर से देखने में यह व्यवस्था रूपी शेर अहिंसावादी न्यायप्रिय और बुद्ध का अवतार प्रतीत होता है। यह व्यवस्था (सत्ता) तभी तक खामोश रहती है, जब तक लोग उसकी हर आज्ञा का पालन करते रहते हैं। जैसे ही कोई उसकी व्यवस्था पर उँगली उठाता है या उसकी आज्ञा को मानने से इंकार करता है, वह खूँखार हो उठती है और अपने विरोध में उठे हर स्वर को कुचलने का भरपूर प्रयास करती है। तब यह शेर की तरह मुँह फाड़ लेती है और आक्रामक रूप धारण कर लेती है।

प्रश्न 2.
यदि आपके भी सींग निकल आते तो आप क्या करते ?
उत्तर :
यदि हमारे सींग निकल आते अर्थात् व्यवस्था से अलग रास्ता बनाते तो हम अन्यायी सत्ता को उखाड़ फेंकने का प्रयास करते। हम अपना रास्ता स्वयं बनाते।

2. पहचान –

1. गाँधीजी के तीनों बंदर आँख, कान, मुँह बंद करते थे किंतु उनका उद्देश्य अलग था कि वे बुरा न देखेंगे, न सुनेंगे, न बोलेंगे। यहाँ राजा ने अपने लाभ के लिए या राज्य की प्रगति के लिए ऐसा किया। दोनों की तुलना कीजिए। उत्तर : गाँधीजी परोपकारी थे जबकि यह राजा घोर स्वार्थी है। वह जनता को गूँगी, बहरी और अंधी बनाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहता है। गाँधीजी आदर्शवादी थे।

2. भारतेंदु हरिश्चंद्र का ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ नाटक देखिए और उस राजा से तुलना कीजिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।

3. चार हाथ –

1. आप यदि मिल मालिक होते तो उत्पादन दो गुना करने के लिए क्या करते ?
यदि हम मिल मालिक होते तो उत्पादन बढ़ाने के लिए मजदूरों को अधिक वेतन एवं बोनस देते ताकि वे पूरी लगन से काम करके उत्पादन को बढ़ाते।

4. साझा –

1. ‘पंचतंत्र की कथाएँ’ भी पढ़िए।
2. ‘भेड़ और भेड़िए’ हरिशंकर परसाई की रचना पढ़िए।
इन पुस्तकों को विद्यार्थी पुस्तकालय से लेकर पढ़ें।

3. कहानी और लघुकथा में अंतर जानिए।
कहानी का आकार बड़ा होता है जबकि लघुकथा छोटी होती है।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 17 शेर, पहचान, चार हाथ, साझा

प्रश्न 1.
लेखक ने गधे को किधर जाते देखा ? वह किस गलतफहमी में था ?
उत्तर :
अगले दिन लेखक ने एक गधा देखा जो लंगड़ाता हुआ शेर के मुँह की तरफ चला जा रहा था। लेखक को उसकी बेवकूफी पर संख्त गुस्सा आया और वह उसे समझाने के लिए झाड़ी से निकलकर उसके सामने आया। लेखक ने उससे पूछा, “तुम शेर के मुँह में अपनी इच्छा से क्यों जा रहे हो ?” उसने कहा, “वहाँ हरी घास का एक बहुत बड़ा मैदान है। मैं वहाँ बहुत आराम से रहूँगा और खाने के लिए खूब घास मिलेगी।” लेखक ने कहा, “वह शेर का मुँह है।”
उसने कहा, “गधे, वह शेर का मुँह जरूर है, पर वहाँ है हरी घास का मैदान।” इतना कहकर वह शेर के मुँह के अंदर चला गया। वह वहाँ हरी घास मिलने का भ्रम पाले हुए था।

प्रश्न 2.
गन्ने की फसल तैयार होने पर किसान ने क्या चाहा और हाथी ने क्या किया ?
उत्तर :
किसान फसल की सेवा करता रहा और समय पर जब गन्ने तैयार हो गए तो वह हाथी को खेत पर बुला लाया। किसान चाहता था कि फसल आधी-आधी बाँट ली जाए। जब उसने हाथी से यह बात कही तो हाथी काफी बिगड़ा।
हाथी ने कहा, “अपने और पराये की बात मत करो। यह छोटी बात है। हम दोनों ने मिलकर मेहनत की थी हम दोनों उसके स्वामी हैं। आओ, हम मिलकर गन्ने खाएँ।”
किसान के कुछ कहने से पहले ही हाथी ने बढ़कर अपनी सूँड़ से एक गन्ना तोड़ लिया और आदमी से कहा., “आओ खाएँ।”
गन्ने का एक छोर हाथी की सूँड़ में था और दूसरा आदमी के मुँह में। गन्ने के साथ-साथ आदमी हाथी की तरफ खिंचने लगा तो उसने गन्ना छोड़ दिया। इस प्रकार हाथी सारी फसल हथिया गया।

प्रश्न 3.
लेखक ने कुत्तों को किस रूप में देखा ?
उत्तर :
लेखक ने एक दिन कुत्तों के एक बड़े जुलूस को देखा जो कभी हँसते-गाते थे और कभी विरोध में चीखते-चिल्लाते थे। उनकी बड़ी-बड़ी लाल जीभें निकली हुई थीं, पर सब दुम दबाए थे। कुत्तों का यह जुलूस शेर के मुँह की तरफ बढ़ रहा था। लेखक ने चीखकर कुत्तों को रोकना चाहा, पर वे नहीं रुके और उन्होंने उसकी बात अनसुनी कर दी। वे सीधे शेर के मुँह में चले गए।

प्रश्न 4.
‘शेर’ कहानी का प्रतिपाद्य संक्षेप में बताइए।
उत्तर :
इस कहानी में शेर व्यवस्था (सत्ता) का प्रतीक है। यह व्यवस्था तभी तक चुप रहती है जब तक उसकी आज्ञाओं का पालन होता रहे। सत्ता को अपना विरोध हजम नहीं होता। जब वह आक्रामक रूप धारण कर लेती है।

प्रश्न 5.
‘पहचान’ लघुकथा का प्रतिपाद्य लिखिए।
उत्तर :
‘पहचान’ लघुकथा का प्रतिपाद्य यढ़ है कि राजा अर्थात् सत्ता को सदा बहरी, गूँगी और अंधी प्रजा पसंद आती है। उसे ऐसी प्रजा चाहिए जो बिना कुछ बोले, बिना कुछ सुने और बिना कुछ देखो उसकी हर आज्ञा का पालन करती रहे। ‘पहचान’ में लेखक ने इसी यथार्थ की पहचान कराई है। अपनी छद्म प्रगति और विकास के बहाने राजा (सत्ता) उत्पादन के सभी साधनों पर अपनी पकड़ मजबूत करता जाता है। वह लोगों के जीवन को स्वर्ग जैसा बनाने का झाँसा देकर अपना स्वयं का जीवन स्वर्गमय बनाता है। वह जनता को एकजुट होने से रोकता है और उसे भुलावे में रखता है। यही उसकी सफलता का राज़ है।

प्रश्न 6.
‘चार हाथ’ लघुकथा का क्या प्रतिपाद्य है ?
उत्तर :
‘चार हाथ’ लघुकथा पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूरों के शोषण को उजागर करती है। पूँजीपति भाँति-भाँति के उपाय करके मजदूरों को पंगु, असहाय बनाने के प्रयास करते हैं। वे मजदूरों के अहं और अस्तित्व को छिन्न-भिन्न करने के नए-नए तरीके ढूँढ़ते रहते हैं और अंततः उनकी अस्मिता को ही समाप्त कर देते हैं। मजदूर मालिक का विरोध करने की स्थिति में नहीं होते। मजदूरी तो मिल के कल-पुर्जे बन गए हैं। उन्हें लाचारी में आधी-अधूरी मजदूर पर भी काम करने को तैयार होना पड़ता है। यह लघुकथा मजदूरों की लाचारी-शोषण पर आधारित व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करती है।

प्रश्न 7.
‘साझा’ लघुकथा का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘साझा’ लघुकथा में उद्योगों पर कब्जा जमाने के बाद पूँजीपतियों की नज़र किसानों की जमीन और उत्पाद पर जमी नज़र को उजागर करती है। गाँव का प्रभुत्वशाली वर्ग भी इसमें शामिल रहता है। वह हाथी के रूप में किसान को साझा खेती करने का झाँसा देता है और अंत में उसकी सारी फसल हड़प कर लेता है। किसान इतना भोला होता है कि उसे यह पता भी नहीं चलता कि उसकी सारी कमाई हाथी (पूँजीपति) के पेट में चली जा रही है। यह हाथी और कोई नहीं बल्कि समाज का धनाद्य और प्रभुत्वशाली वर्ग है जो किसानों को धोखे में डालकर उसकी सारी मेहनत डकार जाता है। इस लघुकथा में किसानों की बदहाली के कारणों की भी पड़ताल की गई है।

प्रश्न 8.
शेर गौतम बुद्ध की मुद्रा छोड़ अपने वास्तविक रूप में आकर क्यों झपटा ?
उत्तर :
शेर की गौतम बुद्ध वाली मुद्रा ओढ़ी हुई थी। वह वास्तव में वैसा था ही नहीं। वह गौतम बुद्ध जैसा दिखाई देने का ढोंग कर रहा था। जब बात उसके विपरीत गई तो वह अपने असली रूप में आ गया और लेखक पर झपटा। सत्ता पक्ष तभी तक गौतम बुद्ध की मुद्रा में रहता है जब जनता उसके कही बातों को आँख मूँदकर मानती रहती है। जो भी कोई उसकी पोल खोलता है या विरोध करता है, सत्ता पक्ष उसका गला घोंट देती है।

प्रश्न 9.
‘साझा’ कहानी में लेखक ने क्या बताना चाहा है ?
उत्तर :
‘साझा’ कहानी में लेखक ने पूँजीपतियों की बुरी नीयत का पर्दाफाश किया है। उनकी नजर किसानों की जमीन तथा उनकी फसल पर लगी रहती है। इसमें गाँच का प्रभुत्वशाली वर्ग भी शामिल रहता है। वे सब मिलकर किसान को साझा खेती का झाँसा देते हैं और अंत में उनकी फसल हड़प लेते हैं। किसान को पता भी नहीं चलता और उसकी सारी कमाई हाथी के पेट में चली जाती है। यह हाथी और कोई नहीं बल्कि समाज का धनाद्य और प्रभावशाली वर्ग है।

प्रश्न 10.
‘शेर’ लघु कथा में शेर किस बात का प्रतीक है ? इस लघु कथा के माध्यम से हमारी व्यवस्था पर क्या व्यंग्य किया गया है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘शेर’ कहानी के लेखक ने शेर को व्यवस्था का प्रतीक बताया है। यह व्यवस्था ही सत्ता है। यह प्रजा को अपने ढंग से चलाती है। यह व्यवस्था तब तक चुप रहती है जब तक इसकी हर आज्ञा का पालन होता रहे। इसका विरोध करने पर यह व्यवस्था शेर की तरह आक्रामक हो उठती है। इस लघु कथा के माध्यम से हमारी व्यवस्था पर यह व्यंग्य किया गया कि यह व्यवस्था ऊपरी तौर पर अहिंसावादी, न्यायप्रिय प्रतीत होती है, पर जब कोई इस व्यवस्था का विरोध करता है तब इस व्यवस्था का असली रूप (अहिंसक) सामने आ जाता है।

प्रश्न 11.
‘शेर’ कहानी के आधार पर बताइए कि शेर के मुँह और रोजगार के दफ्तर के बीच क्या साम्य और अंतर है ? इस कहानी के द्वारा हमारी व्यवस्था पर क्या व्यंग्य किया गया है ?
उत्तर :
शेर के मुँह के अन्दर जो भी जंगली जानवर एक बार जाता है, उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। वह वहाँ से पुनः लौटकर कभी नहीं आया। आधुनिक रोजगार दफ्तर में लोग नौकरी की उम्मीद में वहाँ से चक्कर काटते रहते हैं पर उन्हें वहाँ से कभी नौकरी नहीं मिलती। पर इतना अंतर अवश्य है कि रोजगार दफ्तर उन्हें शेर के मुँह की भाँति निगलकर उनका अस्तित्व समाप्त नहीं करता। इस कहानी में हमारी व्यवस्था पर यह व्यंग्य है-शेर व्यवस्था का प्रतीक है। इस कहानी के द्वारा व्यवस्था पर यह व्यंग्य किया गया है कि व्यवस्था (सत्ता) तभी तक खामोश रहती है जब तक उसकी आज्ञाओं, इच्छाओं का पालन होता रहे। इसका विरोध होने पर वह शेर की तरह मुँह फाड़ लेती है और आक्रामक रूप धारण कर लेती है।

प्रश्न 12.
लेखक शहर छोड़कर कहाँ भागा? क्यों?
उत्तर :
लेखक के सिर पर सींग निकल रहे थे। उसे डर हो गया कि किसी दिन कोई कसाई उसे पशु समझकर पकड़ लेगा। इस कारण वह आदमियों से डरकर जंगल में भागा ताकि वहाँ बच सके। दूसरे शब्दों में, लेखक व्यवस्था का विरोध करने लगा था। व्यवस्था के कहर से बचने के लिए वह जंगल में भागा ताकि वहाँ पर भयमुक्त होकर जीवन बिता सके।

प्रश्न 13.
जंगल में लेखक को आशा के विपरीत कौन-सा दृश्य नज़र आया?
उत्तर :
आदमियों विशेषकर कसाई से भाग रहे लेखक ने जंगल में देखा कि बरगद के पेड़ के नीचे एक शेर बैठा था, जिसका मुँह खुला हुआ था। इस मुँह में जंगल के छोटे-मोटे जानवर एक लाइन में जा रहे थे। शेर उन्हें बिना हिले-डुले तथा बिना चबाए गटकता जा रहा था। इस भयानक दृश्य को देखकर लेखक बेहोश होते-होते बचा क्योंकि उसने ऐसे दृश्य की कल्पना भी नहीं की थी।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 18 Question Answer जहाँ कोई वापसी नहीं

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 18 जहाँ कोई वापसी नहीं

Class 12 Hindi Chapter 18 Question Answer Antra जहाँ कोई वापसी नहीं

प्रश्न 1.
अमझर से आप क्या समझते हैं ? अमझर गाँव में सूनापन क्यों है ?
उत्तर :
‘अमझर’. हम समझते हैं-आमों का झरना। यह एक गाँव का नाम है। यह गाँव आम के पेड़ों से घिरा था और यहाँ के पेड़ों से आम झरते (गिरते) रहते थे।
इस गाँव में अब सूनापन है। यहाँ के पेड़ों पर भी सूनापन पसरा हुआ है। अब न कोई फल पकता है और न कुछ नीचे झरता है। इसका कारण यह है कि जब से यह सरकारी घोषणा हुई कि अमरौली प्रोजेक्ट के अंतर्गत नवागाँव के अनेक गाँव उजाड़ दिए जाएँगे और उनमें अमझर गाँव भी था, तब से यहाँ के आम के पेड़ सूखने लगे। जब आदमी ही उजड़ जाएँगे तो फिर पेड़ ही जीवित रहकर क्या करेंगे ?

प्रश्न 2.
आधुनिक भारत के ‘नए शरणार्थी’ किन्हें कहा गया है ?
उत्तर :
पुराने शरणार्थी तो वे थे जो भारत बँटवारे के समय पाकिस्तान से उजड़कर यहाँ आए थे। अब आधुनिक भारत के नए शरणार्थी वे हैं जिन्हें औद्योगीकरण की आँधी ने अपने घर, अपनी जमीन से उखाड़कर हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया है। उन्हें विकास और प्रगति के नाम पर उन्मूलित किया गया है। इन लोगों की जमीन को सरकार या औद्योगिक घरानों ने अधिग्रहित कर लिया और ये लोग सदा के लिए बेघर हो गए। ये कभी अपने घर लौट नहीं सकते।

प्रश्न 3.
प्रकृति के कारण विस्थापन और औद्योगीकरण के कारण विस्थापन में क्या अंतर है ?
उत्तर :
प्रकृति के कारण विस्थापन अस्थायी होता है। बाढ़ या भूकंप के कारण लोग अपना घर-बार छोड़कर कुछ समय के लिए जरूर बाहर जाकर बस जाते हैं, पर मुसीबत के टलते ही वे दोबारा अपने पुराने परिवेश में लौट आते हैं। औद्योगीकरण के कारण हुए विस्थापन में लोग फिर कभी लौटकर अपने घर वापस नहीं आ पाते। उनके घर टूट चुके होते हैं, जमीन पर कोई उद्योग स्थापित हो चुका होता है। उसका परिवेश और आवास-स्थल हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।

प्रश्न 4.
यूरोप और भारत की पर्यावरणीय संबंधी चिंताएँ किस प्रकार भिन्न हैं ?
उत्तर :
यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है। वहाँ के लोग इसी संतुलन को बनाए रखने के बारे में चिंता करते हैं। उनकी चिंता भौगोलिक स्थिति के बारे में होती है। इसका संस्कृति से कोई संबंध नहीं है। भारत में पर्यावरणीय चिंता का स्वरूप भिन्न है। भारत में मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारस्परिक संबंध को बनाए रखने का प्रश्न है। यहाँ मनुष्य के उन रिश्तों की बात होती है जो उसे धरती, जंगलों, नदियों से जोड़ता है। यही उसकी सांस्कृतिक विरासत है, वह इसी की चिंता करता है।

प्रश्न 5.
लेखक के अनुसार स्वातंत्योत्तर भारत की सबसे बड़ी ट्रैजडी क्या है ?
उत्तर :
स्वातंत्र्योत्तर भारत की सबसे बड़ी ट्रैजडी यह नहीं है कि शासन वर्ग ने औद्योगीकरण का मार्ग चुना, बल्कि ‘ट्रैजडी’ यह है कि हमने पश्चिम की देखा-देखी और नकल में योजनाएँ बनाईं और इनको बनाते समय प्रकृति-मनुष्य और संस्कृति के बीच का नाजुक संतुलन नष्ट कर दिया। इस संतुलन को किस तरह से नष्ट होने से बचाया जाए, इस ओर हमारे पश्चिम शिक्षित सत्ताधारियों का ध्यान कभी ग्या ही नहीं। हम बिना पश्चिम को मॉडल बनाए अपनी शर्तों और मर्यादाओं के आधार पर औद्योगिक विकास का भारतीय स्वरूप निर्धारित कर सकते थे, वह हमारे शासकों ने किया ही नहीं। इसका उन्हें खयाल तक नहीं आया।

प्रश्न 6.
औद्योगीकरण ने पर्यावरण का संकट पैदा कर दिया है, क्यों और कैसे ?
उत्तर :
औद्योगीकरण ने पर्यावरण का संकट पैदा कर दिया है, यह पूरी तरह सच है। औद्योगीकरण करने के लिए आम लोगों की जमीन अधिग्रहित की गई। उनको उजाड़ा गयां। वहाँ के परिवेश को नष्ट किया गया। इस औद्योगीकरण में मनुष्य ही नहीं उजड़ा बल्कि उसका परिवेश भी उजड़ गया। इससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ा। औद्योगीकरण के कारण जो उद्योग स्थापित किए गए उन्होंने अपने धुएँ से भी पर्यावरण को प्रदूषित किया। इन कारखानों से निकलने वाले कचरे ने पर्यावरण का संकट पैदा किया।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित पंक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए –
(क) आदमी उजड़ेंगे तो पेड़ जीवित रहकर क्या करेंगे ?
(ख) प्रकृति और इतिहास के बीच यह गहरा अंतर है ?
उत्तर :
(क) जब लोगों को अपने घर-परिवार और परिवेश से उजाड़ दिया जाएगा तब भला पेड़ जीवित रहकर क्या करेंगे। आदमी और पेड़ का आपस में गहरा रिश्ता है। एक के बिना दूसरा व्यर्थ है।
(ख) प्रकृति जब किसी को उजाड़ती है तो फिर से बसने का मौका भी देती है जबकि इतिहास जब लोगों को उजड़ता है तो वे लोग फिर कभी अपने घर लौट नहीं पाते। यही इनके बीच अंतर है।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए-
(क) आधुनिक शरणार्थी
(ख) औद्योगीकरण की अनिवार्यता
(ग) प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के बीच आपसी संबंध
उत्तर :
(क) आधुनिक शरणार्थी वे हैं जिन्हें औद्योगीकरण की आँधी ने उखाड़ा है इन्हें उद्योग स्थापित करने के लिए अपने घर, अपनी जमीन से हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया जाता है।
(ख) औद्योगीकरण की अनिवार्यता को तो सभी स्वीकार करते हैं क्योंकि इसके बिना देश प्रगति नहीं कर सकता, पर इसे करते समय प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के बीच के संतुलन की भी रक्षा की जानी चाहिए।
(ग) प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के बीच गहरा संबंध है। औद्योगीकरण इसको नष्ट कर डालता है। कुछ ऐसा रास्ता खोजना चाहिए कि यह रिश्ता नष्ट न होने पाए।

प्रश्न 9.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव-सौंदर्य लिखिए-
(क) कभी-कभी किसी इलाके की संपदा ही उसका अभिशाप बन जाती है।
(ख) अतीत का समूचा मिथक संसार पोथियों में नहीं, इन रिश्तों की अदृश्य लिपि में मौजूद रहता था।
उत्तर :
(क) जो इलाका खनिज संपदा से संपन्न होता है, उस पर सभी की नजर होती है। सरकार और उद्योगपति इसका दोहन करने के उपाय सोचते रहते हैं। यही संपदा उस इलाके के लिए अभिशाप बन जाती है। उसकी खुली लूट शुरू हो जाती है। कभी-कभी ईश्वर प्रदत्त संपदा ही लोगों की आँखों में खटकने लगती है और लोग उस पर कब्जा करने के उपाय सोचने लगते हैं।
(ख) भारत की संस्कृति की यह विशेषता है कि हमारे अतीत की सभी अच्छी बातें संसार की किताबों में सीमित होकर नहीं रह गई हैं अपितु वे मनुष्यों के आपसी रिश्तों में पूरी तरह घुल-मिल गई हैं। उनकी लिपि दिखाई नहीं देती अर्थात् इनका संबंध दिखावटी न होकर मन से है। हमारी संस्कृति अत्यंत प्राचीन है। यह संस्कृति भारतीयों के रंग-ढंग, रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा में झलकती है। इन्हें छिपाकर नहीं रखा गया है। इसके लिए पुस्तकों को खोजने की आवश्यकता नहीं है।

भाषा-शिल्प –

1. पाठ के संदर्भ में निम्नलिखित अभिव्यक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिए :
मूक सत्याग्रह, पवित्र खुलापन, स्वच्छ मांसलता, औद्योगीकरण का चक्का, नाजुक संतुलन
मूक सत्याग्रह : चुप रहकर सत्य के लिए आग्रह अर्थात् शांत विरोध। अमझर गाँव के लोग विस्थापन के विरोध में एक सत्यग्रह करते हैं।

पवित्र खुलापन : संबंधों में खुलेपन के साथ पवित्रता का भी ध्यान रखना। अमझर गाँव के लोग विस्थापन से पहले पवित्र खुलेपन के वातावरण में रहते थे।

स्वच्छ मांसलता : शारीरिक सौष्ठव एवं सौंदर्य और उसमें अश्लीलता न होकर स्वच्छता (पवित्रता) का भाव। गाँव की युवतियाँ की स्वच्छ मांसलता देखते बनती थी।

औद्योगीकरण का चक्का : उद्योगों के विकास की रफ्तार। आजकल तरक्की के लिए औद्योगीकरण का चक्का चल रहा है। नाजुक संतुलन : दो के बीच संबंधों का तालमेल जो कठिन प्रतीत होता हो। प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के नाजुक संतुलन को बनाए रखना आवश्यक है।

2. इन मुहावरों पर ध्यान दीजिए :
मटियामेट होना : पूरी तरह से नष्ट हो जाना, मिट्टी में मिल जाना।
आफत टलना : मुसीबत की घड़ी का समाप्त हो जाना। न फटकना : पास न आना।

3. ‘किंतु यह भ्रम है’ डूब जाती है।’ इस गद्यांश को भूतकाल की क्रिया के साथ अपने शब्दों में लिखिए।
किंतु यह भ्रम था “यह बाढ़ नहीं, पानी में डूबे धान के खेत थे। हम थोड़ी सी हिम्मत बटोरकर गाँव के भीतर गए तो वे औरतें दिखाई दीं, जो एक पाँत में झुकी हुई धान के पौधे छप-छप कर पानी में रोप रही थीं, सुंदर-सुडौल, धूप में चमचमाती काली टाँगें और सिरों पर चटाई के किश्तीनुमा हैट, जो फोटो या फिल्मों में देखे हुए वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते थे। जरा-सी आहट पाते ही उन्होंने एक साथ सिर उठाकर चौंकी हुई निगाहों से हमें देखा बिल्कुल उन युवा हिरणियों की तरह, जिन्हें मैंने कान्हा के वन्यस्थल में देखा था। किंतु वे भागी नहीं, सिर्फ मुस्कुराती रहीं और फिर सिर झुकाकर अपने काम में डूब गईं।

योग्यता विस्तार –

1. विस्थापन की समस्या से आप कहाँ तक परिचित हैं ? किसी विस्थापन संबंधी परियोजना पर रिपोर्ट लिखिए। จ हम विस्थापन की समस्या से पूरी तरह परिचित हैं। बड़े-बड़े बाँधों के निर्माणस्वरूप भी यह समस्या उत्पन्न होती है। इसके लिए कई बार आंदोलन भी होते रहते हैं। मेधा पाटेकर इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। जिन लोगों को उजाड़ा जाता है उनका विस्थापन करना आवश्यक है।

2. लेखक ने दुर्घटनाग्रस्त मजदूरों को अस्पताल पहुँचाने में मदद की है। आप की दृष्टि में दुर्घटना-राहत और बचाव कार्य के लिए क्या-क्या करना चाहिए ?
दुर्घटना-राहत के लिए उचित चिकित्सा व्यवस्था का होना आवश्यक है।
– दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को उचित मुआवजा मिलना चाहिए।
– दुर्घटना से बचाब के समुचित उपाय किए जाने चाहिए।

3. अपने क्षेत्र की पर्यावरण संबंधी समस्याओं के समाधान हेतु संभावित उपाय कर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।

हम अपने क्षेत्र की पर्यावरण संबंधी समस्याओं के समाधान में क्षेत्रीय लोगों तथा सरकार एवं N.G.O. की मदद लेंगे। अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाने तथा उनके संरक्षण का जिम्मा कुछ संस्थाओं और लोगों को देंगे।
प्रतिवर्ष इस कार्य की प्रगति की समीक्षा करेंगे।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 18 जहाँ कोई वापसी नहीं

प्रश्न 1.
अमझर से आप क्या समझते हैं? अमझर गाँव में सूनापन क्यों है?
उत्तर :
अमझर से अभिप्राय है- आम के पेड़ों से घिरा गाँव जहाँ आम झरते हैं। यहाँ पिछले दो-तीन वर्षों से सूनापन है। इसका कारण सरकारी घोषणा है। सरकार ने घोषणा की थी कि जहाँ अमरौली प्रोजेक्ट बनाया जा रहा है। इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत नवागाँव के अनेक गाँव आएँगे जिन्हें उजाड़ कर अन्यत्र विस्थापित किया जाएगा। इसके बाद से यहाँ के पेड़ सूखने लगे। वे भी लोगों की तरह मूक सत्याग्रह कर रहे हैं।

प्रश्न 2.
सिंगरौली में किस-किसका निर्माण हुआ ? पहले इस स्थान को क्या माना जाता था, बाद में यहाँ परिवर्तन आया ?
उत्तर :
सिंगरौली में नई योजनाओं के अंतर्गत सेंट्ल कोल फील्ड और नेशनल सुपर थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन का निर्माण हुआ। चारों तरफ पक्की सड़कें और पुल बनाए गए। सिंगरौली, जो अब तब अपने सौंदर्य के कारण ‘बैकुंठ’ और अपने अकेलेपन के कारण ‘काला पानी’ माना जाता था, अब प्रगति के मानचित्र पर राष्ट्रीय गौरव के साथ प्रतिष्ठित हुआ। कोयले की खदानों और उन पर आधारित ताप विद्युत गृहों की एक पूरी शृंखला ने पूरे प्रदेश को अपने में घेर लिया। जहाँ बाहर का आदमी फटकता न था, वहाँ केंद्रीय और राज्य सरकारों के अफसरों, इंजीनियरों और विशेषज्ञों की कतार लग गई; जिस तरह जमीन पर पड़े शिकार को देखकर आकाश में गिद्धों और चीलों का झुंड मँँडराने लगता है, वैसे ही सिंगरौली की घाटी और जंगलों पर ठेकेदारों, वन-अधिकारियों और सरकारी कारिदों का आक्रमण शुरू हुआ।

प्रश्न 3.
जब लेखक सिंगरौली गया तब वहाँ क्या काम चल रहा था ? अब वहाँ कैसा वातावरण है और क्यों ?
उत्तर :
जब लेखक सिंगरौली गया तब धान रोपाई का महीना था-जुलाई का अंत-जब बारिश के बाद खेतों में पानी जमा हो जाता है। लेखक एक दुपहर सिंगौौली के एक क्षेत्र-नवागाँव गया था। इस क्षेत्र की आबादी पचास हजार से ऊपर है, जहाँ लगभग अठारह छोटे-छोटे गाँव बसे थे। इन्हीं गाँवों में एक का नाम है-अमझर-आम के पेड़ों से घिरा गाँव-जहाँ आम झरते हैं किंतु पिछले दो-तीन वर्षों से पेड़ों पर सूनापन है, न कोई फल पकता है, न कुछ नीचे झरता है। कारण पूछने पर पता चला कि जब से सरकारी घोषणा हुई है कि अमरौली प्रोजेक्ट के अंतर्गत नवागाँव के अनेक गाँच उजाड़ दिए जाएँगे, तब से न जाने कैसे आम के पेड़ सूखने लगे। आदमी उजड़ेगा, तो पेड़ जीवित रहकर क्या करेंगे ?

प्रश्न 4.
लेखक ने गाँव के खेतों में क्या दृश्य देखा ?
उत्तर :
वहाँ जो पानी भरा हुआ था बाढ़ नहीं, पानी में डूबे धान के खेत थे। वे थोड़ी-सी हिम्मत बटोरकर गाँव के भीतर चले, तब वे औरतें दिखाई दीं जो एक पाँत में झुकी हुई धान के पौधे छप-छप पानी में रोप रही थीं। सुंदर, सुडौल, धूप में चमचमाती काली टाँगें और सिरों पर चटाई के किश्तीनुमा हैट, जो फोटो या फिल्मों में देखे हुए वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते थे। जरा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठाकर चौंकी हुई निगाहों से उन्हें देखा-बिल्कुल उन युवा हिरणियों की तरह, जिन्हें लेखक ने एक बार कान्हा के वन्यस्थल में देखा था।

प्रश्न 5.
किसी इलाके की संपदा उसके लिए अभिशाप क्यों बन जाती है ?
उत्तर :
आज सभी लोलुपता की प्रवृत्ति से ग्रस्त हैं। कोई भी प्रदेश आज के लोलुप युग में अपने अलगाव में सुरक्षित नहीं रह सकता। कभी-कभी किसी इलाके की संपदा ही उसका अभिशाप बन जाती है। दिल्ली के सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की आँखों से सिंगरौली की अपार खनिज संपदा छिपी नहीं रही। जब इलाके की खनिज संपदा का सत्ताधारियों और उद्योगपतियों को पता चलता है, तब वे उसे हड़पने के उपक्रम में जुट जाते हैं।

प्रश्न 6.
‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ पाठ में लेखक ‘निर्मल वर्मा’ ने गाँव के खेतों में क्या दृश्य देखा?
उत्तर :
वहाँ जो पानी भरा हुआ था बाढ़ नहीं, पानी में डूबे धान के खेत थे। वे थोड़ी सी हिम्मत बटोरकर गाँव के भीतर चले, तब वे औरतें दिखाई दी जो एक पाँत में झुकी हुई धान के पौधे छप-छप पानी में रोप रही थीं। सुंदर, सुडौल, धूप में चमचमाती काली टाँगें और सिरों पर चटाई के किश्तीनुमा हैट, जो फोटो या फिल्मों में देखे हुए वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते थे। जरा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठाकर चौंकी हुई निगाहों से उन्हें देखा-बिल्कुल उन युवा हिरणियों की तरह, जिन्हें लेखक ने एक बार कान्हा के वन्यस्थल में देखा था।

प्रश्न 7.
औद्योगीकरण ने पर्यावरण को कैसे प्रभावित किया है ? – ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ पाठ के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर :
औद्योगीकरण ने पर्यावरण को बुरी तरह से प्रभावित किया है।

  1. औद्योगीकरण ने पर्यावरण का संकट पैदा कर दिया है, यह पूरी तरह सच है।
  2. औद्योगीकरण के लिए आम लोगों की जमीन अधिग्रहित की गई। उनको उजाड़ा गया। वहाँ के परिवेश को नष्ट किया गया। इस औद्योगीकरण में मनुष्य ही नहीं उजड़ा बल्कि उसका परिवेश भी उजड़ गया। इससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ा।
  3. औद्योगीकरण के कारण जो उद्योग स्थापित किए गए उन्होंने अपने धुएँ से भी पर्यावरण को प्रदूषित किया। इन कारखानों से निकलने वाले कचरे पर्यावरण का संकट पैदा किया।

प्रश्न 8.
“आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी में सिर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता, बल्कि उसका पूरा परिवेश, संस्कृति और आवास-स्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।”‘-‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ पाठ के आधार पर उपर्युक्त कथन की समीक्षा कीजिए।
उत्तर :
यह कथन पूर्णतः सत्य है कि आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी में मनुष्य का पूरा परिवेश, संस्कृति तथा निवास-स्थान भी सदा-सदा के लिए नष्ट हो जाता है। लेखक बताता है कि प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़, भूकंप आदि के कारण तो लोग कुछ समय के लिए अपने घर-बार छोड़ने को विवश हो जाते हैं, पर संकट की समाप्ति पर वे घर वापस लौट आते हैं। उन्हें अपना जाना-पहचाना परिवेश पुनः प्राप्त हो जाता है। पर औद्योगीकरण के कारण उजड़े लोग एक बार उजड़कर पुन: अपनी जगह पर लौटकर नहीं आ पाते। उन्हें जीवन भर निर्वासन का दंड भोगना पड़ता है। उनका परिवेश बदल जाता है। संस्कृति नष्ट हो जाती है। ये लोग सदा-सदा के लिए अपने पुराने घर-बार परिवेश और संस्कृति से वंचित हो जाते हैं।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Question Answer यथास्मै रोचते विश्वम्

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 19 यथास्मै रोचते विश्वम्

Class 12 Hindi Chapter 19 Question Answer Antra यथास्मै रोचते विश्वम्

प्रश्न 1.
लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से क्यों की है ?
उत्तर :
लेखक के अनुसार कवि भी प्रजापति के समान ही है। प्रजापति सृष्टि की रचना अपनी इच्छानुसार करता है। प्रजापति (ब्रह्मा) को जैसा रुचता है वैसे विश्व को बदल देता है। कवि भी प्रजापति से कम नहीं है। उसकी तुलना प्रजापति से करते हुए लेखक ने कहा है-‘ यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तन ‘-अर्थात् कवि को जैसा रुचता है, वह वैसा ही संसार को बदल देता है। यही कारण है कि कवि यथार्थ जीवन को ही प्रतिबिंबित न करके संसार को बदलता भी है। कवि प्रजापति (ब्रह्मा) के बनाए समाज से असंतुष्ट होकर नया समाज बनाता है। यहीं आकर वह प्रजापति के समान ही हो जाता है। वह भी प्रजापति के समान नई सृष्टि करता है।

प्रश्न 2.
‘साहित्य समाज का दर्पण है’ इस प्रचलित धारणा के विरोध में लेखक ने क्या तर्क दिए हैं ?
उत्तर :
सामान्यत: यह धारणा है कि साहित्य समाज का दर्पण है। लेखक इस प्रचलित धारणा का विरोध करता है। उसके तर्क निम्नलिखित हैं :

  • यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती।
  • यदि कवि समाज के यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित मात्र ही करता तो वह प्रजापति का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकता था।
  • ट्रेजडी में मनुष्य जैसे होते हैं उससे बढ़कर दिखाए जाते हैं अतः नकलनवीस कला का खंडन स्वत: ही हो जाता है।
  • कवि को जैसा रुचता है वह संसार को बदल देता है। वह अपनी रुचि अनुसार संसार को दिखाता है।
  • कवि समाज के स्वरूप से असंतुष्ट होकर नया समाज बनाता है।

प्रश्न 3.
दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र में दिखाने के पीछे कवि का क्या उद्देश है ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
दुर्लभ गुणों को एक पात्र (राम) में दिखाकर आदि कवि वाल्मीकि ने समाज को दर्पण में प्रतिबिंबित नहीं किया था। वरन् प्रजापति की तरह नई सृष्टि की थी। उन्होंने राम के चरित्र में इन दुर्लभ गुणों का समावेश किया-गुणवान, वीर्यवान, कृतज्, सत्यवाक्य, दृढ़व्रत, चरित्रवान, दयावान, विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन। यद्यपि ये गुण एक ही व्यक्ति में होने कठिन हैं, पर वाल्मीकि राम को एक आदर्श रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे अतः उन्होंने सप्रयास ऐसा किया।

प्रश्न 4.
“साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं है। वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
साहित्य का काम केवल मनोरंजन कर हमें विश्राम प्रदान करना नहीं है। साहित्य हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। हमें उत्साहित भी करता है। साहित्य में प्रेरणा देने की शक्ति होती है। वह व्यक्ति को विकास की ओर बढ़ाती है। साहित्य समरभूमि में उतरने का बुलावा देता है। वह गुलामी की प्रवृत्ति को दूर करता है। साहित्य मनुष्य के लिए संजीवनी का काम करता है।

प्रश्न 5.
“मानव संबंधों से परे साहित्य नहीं है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
उत्तर :
साहित्त्य मानव-संबंधों से परे नहीं होता। साहित्त्य मानव-संबंधों की व्याख्या-समीक्षा करता है। यदि समाज में मानव-संबंध वही होते जो कवि चाहता है तो कवि को प्रजापति बनने की आवश्यकता नहीं होती। उसके असंतोष की जड़ में मानव-संबंध ही हैं। मानव-संबंधों से परे साहित्य नहीं है। कवि जब विधाता पर साहित्य रचता है तो वह उसे भी मानव-संबंधो की परिधि में खींच लाता है। वह अपने साहित्य में इन मानव-संबंध पर ही विचार करता है।

प्रश्न 6.
‘पंद्रहवी-सोलहवी’ सदी में हिंदी-साहित्य ने कौन-सी सामाजिक भूमिका निभाई ?
उत्तर :
15 वीं- 16 वीं शती में हिंदी साहित्य सामंती पिंजड़े में बंद मानव-जीवन को मुक्त करने के लिए जाति-पाँति और धम की सींकचों पर चोट मारी थी। विभिन्न प्रांतों के विभिन्न गायकों-यथ नानक-सूर-तुलसी-मीरा-कबीर, चंडीदास, ललदेह आदि ने संपूर राष्ट्र में उन गले-सड़े मानव-संबंधों के पिंजरों को झकझोर दिया था। उनकी वाणी ने मर्माहत जनता के मर्म को छुआ, उनमें आश का संचार किया, उसे संगठित किया और अपने जीवन के परिवर्तित करने के लिए संघर्ष करने को भी उद्यत किया और उन्हे स्वाधीन जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरणा दी। इन कवियों ने अपनी वाणी द्वारा समाज में नई चेतना ला दी और समाज-मुक्ति का एक आंदोलन चलाया।

प्रश्न 7.
साहित्य के पांचजन्य से लेखक का क्या तात्पय है ?
उत्तर :
श्रीकृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य था। उन्हों महाभारत युद्ध में पांचजन्य फूँक कर अर्जुन को युद्ध करने के लिए उत्साहित किया था। यहाँ साहित्य का पांचजन्य से लेखक क तात्पर्य है-प्रेरणादायक साहित्य। सच्चा साहित्य वह है जो लोगो में उदासीनता त्याग कर उत्साह का संचार करे। साहित्य क पांचजन्य उदासीनता का राग नहीं अलापता। वह लोगों कें भाग्यवादी नहीं बनाता अपितु कर्म करने की प्रेरणा देता है। वह तो पराभव प्रेमियों और कायरों को भी ललकारता है और समरभूमि में उतरने का बुलावा देता है।

प्रश्न 8.
साहित्यकार के लिए स्रष्टा और द्रष्टा होन अत्यंत अनिवार्य है, क्यों और कैसे ?
उत्तर :
साहित्यकार के लिए स्रष्टा और द्रष्टा दोनों का होन अत्यंत आवश्यक है। साहित्यकार स्रष्टा इस रूप में है कि वह नई रचना करता है, वह प्रजापति की भूमिका का निर्वाह करता है द्रष्टा होना इसलिए जरूरी है क्योंकि इनमें दूर की बात देख लेने की क्षमता होनी चाहिए। साहित्यकार को अपनी युगांतकारी भूमिका का निर्वाह करने के लिए द्रष्टा होना आवश्यक है। उन्ह आने वाले समय को भाँपना होगा और उसी के अनुरूप सृजन कार्य करना होगा। कवि की आँखें भविष्य के क्षितिज पर लरी होनी चाहिए।

प्रश्न 9.
कवि-पुरोहित के रूप में साहित्यकार की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
पुरोहित आगे-आगे चलता है। कवि-पुरोहित के रूप में साहित्यकार की भूमिका यह है कि वह परिवर्तन चाहने वाली जनता के आगे चले और परिवर्तन की राह दिखाए। उसे समाज को नई दिशा देनी है। समाज में मानवीय संबंधों में जो गड़बड़ है, उसे दूर करना है। यदि कवि पुरोहित बनकर जनता का नेतृत्व नहीं करेगा तो वह अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पाएगा और मात्र दर्पण दिखाने वाला बनकर रह जाएगा। कवि पुरोहित के रूप में ही उसका व्यक्तित्व पूरे वेग के साथ निखरता है।

प्रश्न 10.
सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
(क) ‘कवि की यह सृष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी ज्यों-की-त्यों आकृति भले ही न देखें, पर ऐसी आकृति जरूर देखते हैं जैसी हमें प्रिय है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं।’
(ख) ‘प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं।’
(ग) ‘इसके सामने निरुद्देश्य कला, विकृति काम-वासनाएँ, अहंकार और व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के ‘सिद्धांत’ वैसे ही नहीं ठहरते जैसे सूर्य के सामने अंधकार।
उत्तर :
(क) प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है।

व्याख्या : लेखक की मान्यता है कि कवि जो कुछ भी रचता है उसका कोई-न-कोई आधार अवश्य होता है। वह समाज को उसी रूप में नहीं लेता जैसा वह होता है। वह अपनी ओर से भी कुछ करता है तभी तो वह प्रजापति की भूमिका का निर्वाह कर पाता है। यही कारण है कि कवि की रचना में हम आकृतियों को उसके वास्तविक रूप में नहीं देख पाते, पर ऐसी आकृति अवश्य देखते हैं जो हमें अच्छी लगती हैं। कवि समाज का यथार्थ नहीं दिखाता बल्कि जैसा होना चाहिए वह दिखाता है। अतः उसकी रचना का आधार अवश्य होता है। कभी-कभी ऐसा आभास होता है कि मानों यह काव्य हमारे लिए ही लिखा गया है। कवि भी सामान्य व्यक्ति को ही अपने काव्य का विषय बनाता है। उसके वर्णन में यथार्थ के साथ कल्पना का मिश्रण भी होता हैं।

विशेष :

  • तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
  • विषयानुरूष भाषा
  • शैली अपनाई गई है।

(ख) प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘ यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है।

व्याख्या : कवि उस मायने में तो यथार्थवादी नहीं होता जैसा सामान्यतः माना जाता है, पर उसमें गंभीरता अवश्य होती है। उसका यथार्थ दूसरे प्रकार का होता है। उसके पैर वर्तमान में टिके होते हैं (वास्तविकता) और उसकी आँखें भविष्य पर टिकी रहती हैं। वर्तमान की धरती उसे याार्थवादी बनाती है तो भविष्य उसे द्रष्टा का रूप प्रदान करता है। कवि वर्तमान की घरती पर पैर टिकाकर वास्तविकता के साथ संबंध बनाए रखता है तो आकाश की ओर देखना भविष्य के प्रति दृष्टि रखता है।

विशेष :

  • कवि कर्म की विवेचना की है।
  • विषयनुरूप भाषा-शैली अपनाई गई है।
  • तत्सम शब्दावली अपनाई गई है।

(ग) प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘ यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि हमारा साहित्य उदासीनता का राग नहीं सुनता। वह आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। भरतमुनि से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र तक चली आई यह हमारे साहित्य की गौरवशाली परंपरा है। इस परंपरा के समक्ष बिना उद्देश्य वाली कला, बिगड़े रूप वाली काम वासनाएँ, घमंड, व्यक्तिवादी प्रवृत्ति, निराशा और हार के भाव टिकते ही नहीं। जिस प्रकार सूर्य के सामने अंधकार नहीं टिकता, वैसे ही ये भाव भारतीय साहित्य में टिक नहीं पाते। कवि जितेन्द्रिय होते हैं। उन्हें सांसरिक मोह से कुछ लेना-देना नहीं होता। वे विषय-वासनाओं में लिप्त नहीं होते। कवि काम-वासनाओं के ऊपर उठ चुके होते हैं। उसके समक्ष अहंकार भी नहीं टिकता।

विशेष :

  • तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
  • उदाहरण शैली अपनाई गई है।
  • भावनात्मक भाषा का प्रयोग है।

भाषा शिल्प –

1. पाठ में प्रतिबिंब-प्रतिबिंबित जैसे शब्दों पर ध्यान दीजिए। इस तरह के दस शब्दों की सूची बनाइए।

  • लंब – लंबित
  • पठ – पठित
  • लिख – लिखित
  • असल – असलियत
  • आमंत्रण – आमंत्रित
  • चित्र – चित्रित
  • दंड – दंडित
  • चल – चलित
  • संगठन – संगठित

2. पाठ में ‘साहित्य के स्वरूप’ पर आए वाक्यों को छाँटकर लिखिए।
‘साहित्य के स्वरूप’ पर आए वाक्य

  • साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती।
  • साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।
  • साहित्य का पाँचजन्य समरभूमि में उदासीनता का राग नहीं सुना।
  • साहित्य मानव संबंधों से परे नहीं है।

3. इन पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिए :
(क) कवि की सृष्टि निराधार नहीं होती।
(ख) कवि गंभीर यथार्थवादी होता है।
(ग) धिक्कार है उन्हें जो तीलियाँ तोड़ने के बदले उन्हें मजबूत कर रहें हैं।
(क) कवि की रचना का कोई-न-कोई आधार अवश्य होता है। वह पूरी तरह कल्पित नहीं होती। उसमें यथार्थ भी रहता है।
(ख) कवि सामान्य यथार्थवादी न होकर गंभीर किस्म का यथार्थवादी होता है। वह वर्तमान और भविष्य का सामंजस्य बिठाकर चलता है।
(ग) जो साहित्यकार लोगों को बंधनों से मुक्ति दिलाने के स्थान यह उनके गुलामी के बंधनों को मजबूत करते हैं वे धिक्कारने के लायक हैं। सच्चा साहित्यकार बंधनों से मुक्ति दिलाता है।

योग्यता विस्तार –

1. ‘साहित्य और समाज’ पर चर्चा कीजिए।

साहित्य और समाज –

साहित्य का रचयिता साहित्यकार कहलाता है। साहित्यकार मस्तिष्क, बुद्धि और ह्नदय से संपन्न एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज से अलग हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसकी अनुभूति का संपूर्ण विषय समाज, उसकी समस्याएँ, मानव जीवन और जीवन के मूल्य हैं, जिनसे वह साँस लेता है। जब कभी उसे घुटन की अनुभूति होती है उसकी अभिव्यक्ति साहित्य के रूप में प्रकट हो जाती है। समाज में उसका यही रिश्ता उसे साहित्य सृजन की प्रेरणा देता है और तभी उसके साहित्य को समाज स्वीकार भी करता है। सामाजिक प्रभाव और दबाव की उपेक्षा कर साहित्यकार एक कदम भी आगे नहीं चल सकता और यदि चलता भी है तो आवश्यक नहीं कि साहित्य पर समाज का यह प्रभाव सदैव अनुकूल हो, वह प्रतिकूल भी हो सकता है।

कबीर की साखियों तथा प्रेमचंद के कथा साहित्य के अध्ययन से यही बात स्पष्ट होती है। कबीर ने अपने समय के धार्मिक बाह्याडंबरों, सामाजिक कुप्रवृत्तियों, रूढ़ियों एवं खोखली मान्यताओं के विरोध में अपना स्वर बुलंद किया। निराला के साहित्य में ही नहीं उनके व्यक्तिगत जीवन में भी संघर्ष बराबर बना रहा। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में सर्वत्र किसी न किसी सामाजिक समस्या के प्रति उनकी गहरी संवेदना दिखाई देती है, परन्तु साहित्यकार अपने युग तथा समाज के प्रभाव से अपने को अलग रखना भी चाहे तो कदापि नहीं रख सकता।

साहित्य समाज का दर्पण होता है, किन्तु इस कथन का यह आशय है नहीं कि साहित्यकार समाज का फोटोग्राफर है और सामाजिक विद्नूपताओं, कमियों, दोषों, अंधविश्वासों और मान्यताओं का यथार्थ चित्रण करना उसका उद्देश्य होता है। साहित्यकार का दायित्व वस्तुस्थिति का यथातथ्य चित्रण मात्र प्रस्तुत कर देना ही नहीं, उनके कारणों का विवेचन करते हुए श्रेयस मार्ग की ओर तक ले जाना है।

साहित्य युग और समाज का होकर भी युगांतकारी जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा कर सुंदरतम समाज का जो भी रूप हो सकता है, उसका भी एक रेखाचित्र प्रस्तुत करता है। उसमें रंग भर कर जीवंतता प्रदान कर देना पाठकों एवं सामाजिकों का कार्य होता है। इस प्रकार जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा करने के कारण साहित्यकार एक देशीय होकर भी सार्वदेशिक होता है।

साहित्य हमारी कौतूहल और जिज्ञासा वृत्ति को शांत करता है. ज्ञान की पिपासा को तृप्त करता है और मस्तिष्क की क्षुधापूर्ति करता है। जठरानल से उद्विग्न मानव जैसे अन्न के एक-एक कण के लिए लालायित रहता है, उसी प्रकार मस्तिष्क भी क्षुधाग्रस्त होता है, उसका भोजन हम साहित्य से प्राप्त करते हैं। केवल साहित्य के ही द्वारा हम अपने राष्ट्रीय इतिहास, देश की गौरव गरिमा, संस्कृति और सभ्यता, पूर्वजों के अनुभूत विचारों एवं अनुसंधानों, प्राचीन रीति-रिवाजों, रहन-सहन और परंपराओं से परिचय प्राप्त करते हैं।

आज से एक शताब्दी या दो शताब्दी पहले देश के किस भाग में कौन-सी भाषा बोली जाती थी, उस समय की वेश-भूषा क्या थी, उनके सामाजिक और धार्मिक विचार कैसे थे, धार्मिक दशा कैसी थी, यह सब कुछ तत्कालीन साहित्य के अध्ययन से ज्ञात हो जाता है। सहस्त्रों वर्ष पूर्व भारतवर्ष शिक्षा और आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति की चरमसीमा पर था, यह बात हमें साहित्य ही बताता है। हमारे पूर्वजों के श्लाध्य कृत्य आज भी साहित्य द्वारा हमारे जीवन को अनुप्राणित करते हैं। कवि वाल्मीकि आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति की चरमसीमा पर था, यह बात हमें साहित्य ही बताता है। हमारे पूर्वजों के श्लाध्य कृत्य आज भी साहित्य द्वारा हमारे जीवन को अनुप्राणित करते हैं।

कवि वाल्मीकि की पवित्र वाणी आज भी हमारे हदय मरुस्थल में मंजु मंदाकिनी प्रवाहित कर देती है। गोस्वामी तुलसीदास जी का अमर काव्य आज भी अज्ञानांधकार में भटकते हुए असंख्य भारतीयों का आकाशदीप की भाँति पथ-प्रदर्शन कर रहा है। कालिदास का अमर काव्य आज भी शासकों के समक्ष रघुर्वंशियों के लोकप्रिय शासन का आदर्श उपस्थित कर रहा है। जिस देश और जाति के पास जितना उन्नत और समृद्धिशाली साहित्य होगा वह देश और वह जाति उतनी ही अधिक उन्नत और समृद्धिशाली समझी जाएगी।

“ज्ञान-राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।” महावीर प्रसाद द्विवेदी के इस कथन से भी यही बात स्पष्ट होती है कि किसी भी देश, जाति अथवा समाज की सभ्यता और संस्कृति का स्पष्ट चित्रण उसका साहित्य है। प्रत्येक युग का उत्तम और श्रेष्ठ साहित्य अपने प्रगतिशील विचारों, रचनात्मक संस्कारों एवं भावात्मक संवेदनाओं को एक स्वरूप प्रदान करता है, उनको भली-भाँति सफलतापूर्वक वहन करता है।

साहित्य का प्रासाद समाज की पृष्ठभूमि पर ही प्रतिष्ठित होता है। जिस काल में जिस जाति की जैसी सामाजिक परिस्थितियाँ होंगी उसका साहित्य भी निःसददेह वैसा ही होगा। हिंदी साहित्य के संदभ में यह तथ्य देखा जा सकता है। आदिकाल, जिसे हम वीरगाथा काल भी कहते हैं, एक प्रकार से युद्ध काल था। इस युग का साहित्य युद्धों और आश्रयदाताओं की प्रशस्तियों से अनुप्राणित होता है। इस काल के साहित्य में वीर और शृंगार रस ही प्रमुखता प्राप्त कर सके और चारण कवियों का प्राधान्य बना रहा।

फिर मध्यकाल का भक्ति आंदोलन प्रकट हो सामने आया और इस युग ने कबीर, सूर, तुलसी और जायसी जैसे कवियों को जन्म दिया। किसी भी देश और जाति की सांस्कृतिक चेतना का स्पष्ट चित्र उस देश अथवा जाति में बोली जाने वाली भाषा के साहित्य में परिलक्षित होता है, क्योंकि समाज और साहित्य एक-दूसरे से अभिन्न हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी संभव नहीं है। साहित्यकार युग का चित्रकार होता है। उसके साहित्य में अपने समाज का जीवन स्पंदन विद्यमान रहता है। इसी अर्थ में वह उसका दर्पण होता है।

2. ‘साहित्य मात्र समाज का दर्पण नहीं है’ विषय पर कक्षा में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन कीजिए।

छात्र स्वयं इसका आयोजन करें।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 19 यथास्मै रोचते विश्वम्

प्रश्न 1.
क़वि के लिए राम के साथ रावण का चित्रण क्यों आवश्यक हो जाता है ?
उत्तर :
कवि को राम के चित्र के साथ रावण का चित्र खींचना आवश्यक हो जाता है। यदि वह राम के साथ रावण का चित्रण न करे तो राम का गुणवान, वीर्यवान, कृतज्ञ, सत्यवक्ता, दृढ़व्रत, चरित्रवान, दयावान, विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन नायक रूप उभर कर सामने नहीं आएगा। राम के गुणों को प्रकाशित करने का अवसर रावण के साथ ही संभव हो पाता है। जीवन के चमकदार रंग और सुघर रूप में उभार तभी आता है जब पाश्व्व भाव में काली छायाएँ होतीं हैं। इसीलिए राम के साथ रावण का चित्रण आवश्यक हो जाता है। कवि की रचना का आधार समाज होता है। समाज में सद्गुण और दुर्गुण वाले दोनों प्रकार के पात्र होते हैं। राम जैसे सात्विक पात्र की श्रेष्ठता को प्रभावी बनाने के लिए रावण की दुष्टता को दर्शाना आवश्यक हो जाता है।

प्रश्न 2.
कवि अपने काव्य की रचना किस प्रकार करता है ?
उत्तर :
कवि भी एक सामान्य व्यक्ति की भाँति एक सामाजिक प्राणी होता है। कवि की काव्य-रचना का आधार समाज के मानव-संबंध ही होते हैं। कवि मानव-संबंधों में व्याप्त विषमताओं से असंतुष्ट होकर समाज को अपनी कल्पना और रूचि के अनुसार नया रूप देना चाहता है। जीवन की यथार्थता को दर्पण की भॉँति प्रतिबिंबित न करके बल्कि उसे अपनी रुचि के अनुसार मोड़-तोड़कर वर्णित करके एक नवीन समाज का निर्माण करना कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है।

संसार के प्रति अपने असंतोष को प्रकट करने के लिए वह विश्व को अपनी रुचि के अनुसार परिवर्तित कर देता है। इसीलिए कवि युग-द्रष्टा होता है। कवि उस चित्रकार की भाँति कार्य करता है जो अपने चारों ओर बिखरे हुए रंगों से चित्र बनाता है। ये रंग केवल चमकीले ही नहीं होते, अपितु इनमें यथार्थ जीवन की कालिमा भी होती है। वह समाज को देखकर उसका अनुकरण नहीं करता बल्कि प्रजापति की भौँति नई सृष्टि करता है।

प्रश्न 3.
“साहित्य समाज का दर्पण नहीं है” – विषय पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर :
लेखक के अनुसार मानव-संबंधों से परे साहित्य नहीं है। कवि जब विधाता पर साहित्य रचना करता है तो उसे भी मानव के साकार रूप में ला खड़ा कर देता है। कवि का कार्य यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना नहीं होता बल्कि वह तो अपने द्वारा कल्पित समाज का निर्माण करता है। वह ब्रह्मा द्वारा बनाए समाज से असंतुष्ट होकर नए समाज की रचना करता है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता हो कवि को कल्पित समाज निर्मित करने की आवश्यकता ही न होती।

तभी तो दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र ‘राम’ में दिखाकर आदि कवि वाल्मीकि ने समाज को दर्पण में प्रतिबिंबित नहीं किया था अपितु ब्रह्या की तरह नई सुष्टि की थी लेकिन जब समाज के बहुसंख्यक लोगों का जीवन इन मानव-संबंधों के पिंजड़े में पंख फड़फड़ाने लगता है और उस पिंजरे के सीखचों को तोड़कर बाहर खुले आकाश में उड़ने के लिए व्याकुल हो उठता है तो ऐसे समय में कवि उस मानव रूपी पक्षी को उसकी मुक्ति के गीत सुनाकर उसके पंखों में नई ताकत भर देता है और उस समय भी साहित्य जीवन की यथार्थता को चित्रित करते हुए भी समाज को परिवर्तित करने के लिए अपनी कल्पना के समाज की रचना करता है। अतः निष्कर्षतः साहित्य समाज का दर्पण नहीं है। यद्यपि यह मत परंपरागत मत ‘साहित्य का दर्पण है’ के विपरीत है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित से क्या अभिप्राय है ?
(क) कवि-सुलभ सहानुभूति।
(ख) निरुद्देश्य कला।
(ग) पिंजड़े की तीलियाँ।
(घ) कवि-पुरोहित।
उत्तर :
(क) कवि-सुलभ सहानुभूति : कवि मानव, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों यहाँ तक कि प्राकृतिक वस्तुओं के प्रति सहानुभूतिशील होता है। पीड़ित की पीड़ा को दूर करने को उसका मन स्वयं व्यथित हो जाता है। राम ने सीता को वनवास दे दिया, नल-दमयंती को वन में छोड़कर चला गया; सिद्धार्थ यशोधरा को सोती छोड़ गया-कवि ही है, जो उनके प्रति सहानुभूति व्यक्त करता है। दशरथ के प्रति भी वह सहानुभूतिशील है। वाल्मीकि की कविता का आरंभ ही क्रौंच के जोड़े में से एक की व्याध के द्वारा हत्या किए जाने पर हुआ। जो कवि है, वह सहानुभूतिशील है जो सहानुभूतिशील नहीं वह कवि ही नहीं।

(ख) निरुद्देश्य कला : इसका आशय है-ऐसी कला जिसका कोई उद्देश्य न हो। साहित्य का पाञ्चजन्य जब समरभूमि में उदासीनता का राग न सुनाकर प्रत्युत कायर जनों को समरभूमि में उतरने का आह्नान करता है तो वह सच्चा साहित्य है और यह साहित्य की गौरवशाली परंपरा है किंतु ठीक इसके विपरीत उद्देश्यहीन कला, व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के सिद्धांत हैं। कोई कला उद्देश्य रहित नहीं होती।

(ग) पिंजड़े की तीलियाँ : यद्यपि साहित्य ने समय-समय पर बंदी व्यक्तियों को पिंजरे से मुक्त होने का संदेश दिया है जिससे कि भारतीय जन-जीवन सामूहिक चोट मारकर उस पिंजरे की तीलियों को एक-एक करके तोड़कर बाहर आने और मुक्त होने के प्रयत्न में है तथापि कुछ ऐसे भी साछित्यकार हैं जो कि पिंजरे की तीलियों को और मजबूत बनाकर भारतीय जन को पराधीनता का पाठ पढ़ाते हैं। भाव यह है कि पिंजरे की तीलियाँ अर्थात् जात-पाँत और धर्म की दीवार को तोड़ने की बजाय अपने निहित स्वार्थों के लिए उसे और सुदृढ़ बना रहे हैं।

(घ) कवि पुरोहित : समाज को सद्मार्ग पर ले जाने वाला। कवि को केवल दर्पण दिखाने वाला नहीं बनना चाहिए। उसे तो प्रजापति की तरह सृष्टि रचना करनी चाहिए। उसे तो पुरोहित की तरह (सभी धर्म-कर्मों में) अपने वास्तविक रूप को जनता-जनार्दन के आगे रखना है। कवि अगुआ (अग्रसर) बनने से हिंदी-साहित्य पनपेगा और अपने जातीय सम्मान की रक्षा कर सकेगा। वह समाज का मार्गदर्शन कर पुरोहित धर्म का निर्वाह करेगा।

प्रश्न 5.
“कवि प्रजापति” निबंध के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि कवि के असंतोष की जड़ मानव-संबंध क्यों हैं?
उत्तर :
कवि की रचना का आधार ब्रह्मा द्वारा रचित सृष्टि के मानव-संबंध होते हैं। कवि इन्हीं मानव-संबंधों में व्याप्त विषमताओं से असंतुष्ट होकर अपने काव्य की रचना करता है। साहित्य का आधार ही ये मानव-संबंध होते हैं। वह अपनी रुचि के अनुसार नया समाज बनाता है। प्रजापति के बनाए समाज से असंतुष्ट होकर नया समाज बनाना कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है। कवि की सृष्टि निराधार नहीं होती। वह यथार्थ जीवन से सामग्री और प्रेरणा ग्रहण करता है। कवि जब अपनी रुचि के अनुसार विश्व को परिवर्तित करना चाहता है तब वह यह भी बताता है कि विश्व से उसे असंतोष क्यों है, वह यह भी बताता है कि विश्व में उसे क्या रुचता है, जिसे वह फलता-फूलता देखना चाहता है।

प्रश्न 6.
कवि ने किस प्रकार के लोगों को धिक्कारा है ? ‘कवि-प्रजापति’ निबंध के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर :
कवि ने उन लोगों को धिक्कारा है जो साहित्यकार बनने का दम भरते हैं, पर उनकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर होता है। ऐसे लोग पराधीनता के पिंजड़े की सींकचों को तोड़ने की बजाय उन्हें मजबूत करते हैं। वे बात तो मानव-मुक्ति की करते हैं पर जनता को पराधीनता का पाठ पढ़ाते हैं। इस प्रकार के लोगों की आँखें सदा अतीत (भूतकाल) की ओर लगी रहती हैं। ये न तो युगद्रष्टा होते हैं और न स्रष्टा। इस प्रकार के साहित्यकारों के साहित्य में उनकी अपनी अहंवादी विकृतियाँ दिखाई देती हैं। इन्हें न देशवासियों से प्रेम होता है न देश से। इस प्रकार के लोग धिक्कार के योग्य हैं।

प्रश्न 7.
“वह ऐसा नकलची बन जाता है जिसकी अपनी कोई असलियत न हो।”-इस कथन में कवि की किस विशेषता की ओर संकेत किया गया है ?
उत्तर :
इस कथन में लेखक रामविलास शर्मा ने कवि की दर्पणकार की विशेषता को उजागर किया है। कवि जब अपने प्रजापति वाले रूप को भूलकर प्राचीन परंपराओं और आदर्शोंख के चित्रण में लग जाता है तब वह नकलची अर्थात् दर्पण दिखाने वाला ही बनकर रह जाता है। वह ऐसा नकलची बन जाता है जिसकी अपनी कोई असलियत न हो। कवि का पूरा व्यक्तित्व तो तब पूरे वेग से निखरता है जब वह समर्थ रूप से परिवर्तन चाहने वाली जनता के आगे कवि पुरोहित की तरह आगे बढ़ता है। कवि में मौलिकता के साथ-साथ नवीन सृजन की क्षमता होती है उसे नकल करने वाला नहीं बनना चाहिए।

प्रश्न 8.
‘प्रजापति कवि गंभीर यथार्थवादी होता है’-स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रजापति का दायित्व निभाने वाला कवि जीवन के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण रखता है। वह अपनी रचना के लिए विषय और सामग्री यथार्थ जीवन से ही चुनता है। उसकी रचना में चमकीले रंगों के साथ-साथ बगल में काली छायाएँ भी होती हैं जो यथार्थ जीवन से ही ली जाती हैं। कवि केवल सामयिक परिस्थितियों का चित्रण मात्र ही नहीं करता, अपितु अपने आदर्शानुरूप समाज-रचना का प्रयास भी करता है।

प्रश्न 9.
“कवि के चित्र चमकीले रंग और पाश्श्व भूमि की गहरी काली रेखाएँ-दोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं”-लेखक के इस कथन पर अपना मंतव्य ‘कवि प्रजापति’ निबंध के आधार पर दीजिए।
उत्तर :
कवि जब कोई रचना करता है तब वह चमकीले रंगों के पीछे जीवन की वास्तविकता को ध्यान में रखता है। जीवन का आधार वास्तविकता पर टिका होता है, पर वह आशा भरे जीवन को उभारता अवश्य है। जीवन में सभी कुछ चमकीला एवं आकर्षक नहीं है। उसके पीछे यथार्थवाद की झलक होती है।

प्रश्न 10.
कवि के चित्र में चमकीले रंग और पाश्व्वभूमि की गहरी काली रेखाएँ-वोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं-लेखक के इस कथन पर अपना मंतव्य निबंध के आधार पर दीजिए।
उत्तर :
कवि के चित्र में चमकीले रंग और पाश्श्वभूमि की काली गहरी रेखाएँ दोनों समाज में व्याप्त जीवन के लिए होते हैं। कवि अपने साहित्य में जो व्यक्त करता है, वह कपोल कल्पित नहीं होता, बल्कि वह तर्कसम्मत और यधार्थ जीवन पर आधारित होता है। कवि चित्रकार के समान शब्दों से चित्रों को अंकित करता है अर्थात् वह अपनी रचना में समाज के आदर्श और सुंदर रूप का ही चित्रण करता है। वह समाज के सामाजिक जीवन में यथार्थ रूप में फैले अच्छे-बुरे सभी प्रकार के चरित्रों को लेकर साहित्य रचता है।

प्रश्न 11.
‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ पाठ का मूल संदेश क्या है ?
उत्तर :
‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ निंबध रामविलास शर्मा के निबंध-संग्रह ‘विराम-चिह्न’ से अवतरित है। इसमें लेखक ने कवि (साहित्यकार) की तुलना प्रजापति अर्थात् ब्रह्मा से की है, लेखक भी ब्रह्मा और प्रजापति की भाँति नई सृष्टि की रचना करता है। लेखक ने कवि को उसके कर्म के प्रति सचेष्ट किया है। वह केवल उसका वर्ण़न नहीं करता जो समाज में घटित हो रहा है, वरन् वह उसकी ओर भी संकेत करता है, जैसा होना चाहिए। कवि तो प्रजापति की भाँति यथार्थ जीवन को ही प्रतिर्बंधित नहीं करता, वह समाज की वर्तमान दशा से असंतुष्ट होकर नया समाज बनाने की राह दिखाता है। वह सृष्टा भी है। साहित्य एक ओर जहाँ थके मनुष्य को विश्रांति प्रदान करता है, वहीं दूसरी ओर उसे उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा भी देता है। यही पाठ का संदेश है।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 20 Question Answer दूसरा देवदास

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 20 दूसरा देवदास

Class 12 Hindi Chapter 20 Question Answer Antra दूसरा देवदास

प्रश्न 1.
पाठ के आधार पर हर की पौड़ी पर होने वाली गंगाजी की आरती का भावपूर्ण वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर :
हर की पौड़ी पर संध्या के समय जो गंगाजी की आरती होती है, उसका एक अलग ही रंग होता है। संध्या के समय गंगा-घाट पर भारी भीड़ एकत्रित हो जाती है। भक्त फूलों के एक रुपए वाले दोने दो रुपए में खरीदकर भी खुश होते हैं। गंगा-सभा के स्वयंसेवक खाकी वर्दी में मुस्तैदी से व्यवस्था देखते घूमते रहते हैं। भक्तगण सीढ़ियों पर शांत भाव से बैठते हैं। आरती शुरू होने का समय होते ही चारों ओर हलचल मच जाती है। लोग अपने मनोरथ सिद्धि के लिए स्पेशल आरती करवाते हैं। पाँच मंजिली पीतल की नीलांजलि (आरती का पात्र) में हजारों बत्तियाँ जल उठती हैं। औरतें गंगा में डुबकी लगाकर गीले वस्त्रों में ही आरती में शामिल होती हैं। स्त्री-पुरुषों के माथे पर पंडे-पुजारी तिलक लगाते हैं। पंडित हाथ में अंगोछा लपेट कर नीलांजलि को पकड़कर आरती उतारते हैं। लोग अपनी मनौतियों के दिए लिए हुए फूलों की छोटी-छोटी किश्तियाँ गंगा की लहरों में तैराते हैं। गंगापुत्र इन दोनों में से पैसे उठा लेते हैं। पुजारी समवेत स्वर में आरती गाते हैं। उनके स्वर में लता मंगेशकर का मधुर स्वर मिलकर ‘ओम जय ज्गदीश हरे’ की आरती से सारे वातावरण को गुंजायमान कर देता है।

प्रश्न 2.
‘गंगापुत्र के लिए गंगा मैया ही जीविका और जीवन है’-इसं कथन के आधार पर गंगा पुत्रों के जीवन-परिवेश की चर्चा कीजिए।
उत्तर :
गंगा पुत्र वे हैं जो गंगा में गोता लगाकर लोगों द्वारा तैराए गए फूलों के दोने में रखे पैसों के उठाकर अपने मुँह में दबा लेते हैं। जैसे ही कोई भक्त दोना पानी में सरकाता है, वैसे ही गंगापुत्र उस पर लपकते हैं। वे दोने से पैसे उठा लेते हैं। यदि कभी दीपक की आग उनके लंगोट में लग जाती है तो वे झट से गंगाजी में बैठ जाते हैं। गंगा मैया ही उनकी जीविका और जीवन है। वे यहाँ से मिले पैसों से अपनी जीविका चलाते हैं। वे बीस-बीस चक्कर लगाते हैं और रेजगारी बटोरते हैं। गंगापुत्र की बीवी और बहन कुशाघाट पर रेजगारी बेचकर नोट कमाती हैं। वे एक रुपए के बदले 80-85 पैसे देती हैं। हम कह सकते हैं कि इन गंगा-पुत्रों का जीवन कष्टपूर्ण परिस्थितियों में बीतता होगा। इस काम से उन्हें सीमित ही आमदनी होती होगी। वे सामान्य परिवेश में अपना गुजर-बसर करते होंगे।

प्रश्न 3.
पुजारी ने लड़की के ‘हम’ को युगल अर्थ में लेकर क्या आशीर्वाद दिया और पुजारी द्वारा आशीर्वाद देने के बाद लड़के और लड़की के व्यग्रहार में अटपटापन क्यों आ ग्या ?
उत्तर :
जब लड़की हर की पौड़ी पर पहुँची तब आरती हो चुकी थी। पंडित ने तो अपने लालच में वहीं आरती कराने को कहा पर लड़की ने इंकार केरते हुए कहा- ‘हम कल आरती की बेला में आएँगे।’ उस समय एक लड़का संभव भी उसके पास खड़ा था, अतः पुजारी ने उन्हें पति-पत्नी समझ लिय!। उसने ‘हम’ को युगल के अर्थ में लिया और आशीर्वाद देते हुए कहा- “सुखी रहो, फूलो-फलो, जब भी आओ साथ ही आना, गंगा मैया मनोरथ पूरे करें।” पुज़ारी का ऐसा आशीर्वाद सुनकर लड़के-लड़की के व्यवहार में कुछ अटपटापन आ गया। दोनों को लगा कि यह गलतफहमी के कारण ही हुआ है। उन्होंने मुँह से तो कुछ नहीं कहा पर लगता था कि लड़का (संभव) कहना चाहता था- इसमें मेरी कोई गलती नहीं थी। पुजारी ने गलत अर्थ ले लिया।” लड़की भी कहना चाहती थी-“आपको इतना पास नहीं खड़ा होना चाहिए था।” दोनों एक-दूसरे से नजरें बचाने लगे।

प्रश्न 4. उस छोटी-सी मुलाकात ने संभव के मन में क्या हलचल उत्पन्न कर दी? इसका सूक्ष्म विवेचन कीजिए।
उत्तर :

  • पारों के साथ हुई उस छोटी सी मुलाकात ने संभव के मन को झिंझोड़ डाला।
  • संभव का मन बेचैन हो गया। उसने उसे देखने के लिए अनेक गलियों में चक्कर लगाए पर सफलता न मिली।
  • संभव को रात को भी ठीक से नींद नहीं आई।
  • अगले दिन वह शाम होने की प्रतीक्षा करता रहा क्योंकि वह शाम की आरती में शामिल होने की बात कहकर गई थी।
  • संभव की आँखों में उस लड़को की छवि पूरी तरह से बस गई थी। वह उसी की एक झलक देखना चाह रहा था।
  • वह मन ही मन यह सोच रहा था कि यदि वह मिल गई तो उससे क्या-क्या प्रश्न करेगा।

प्रश्न 5.
मंसा देवी जाने के लिए केबिल कार में बैठे हुए संभव के मन में जो कल्पनाएँ उठ रही थीं, उनका वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मंसा देवी जाने के लिए संभव एक गुलाबी केबिल कार में बैठ गया। जब उसने उस लड़की को गुलाबी वस्त्रों में देखा था तब से गुलाबी के सिवाय कोई और रंग अच्छा ही नहीं लग रहा था। उसके मन में उस लड़की के दिखाई देने की कल्पनाएँ उठ रही थीं। यद्यपि संभव पूजा-पाठ में विश्वास नहीं करता था, पर अब उसका मन इसमें इसलिए लग रहा था ताकि किसी प्रकार उसकी भेंट अपने मन में बसी लड़की के साथ हो जाए। इसीलिए उसने मंसादेवी के मंदिर में चढ़ावे के लिए एक थैली भी खरीदी। उसने लाल-पीले धागे भी खरीदे। संभव ने भी पूरी श्रद्धा के साथ गाँठ लगाई, फिर सिर झुकाया, नैवेद्य चढ़ाया। जब उसने पीली केबिल कार में उस लड़की को बैठे देखा तब वह बेचैन हो गया। उसका मन हुआ कि वह पंछी की तरह उड़कर पीली केबिल कार में पहुँच जाए।

प्रश्न 6.
“पारो बुआ, पारो बुआ इनका नाम है” ‘उसे भी मनोकामना का पीला-लाल धागा और उसमें पड़ी गिठान का मधुर स्परण हो आया।” कथन के आधार पर कहानी के संकेत पूर्ण आशय पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
जब लड़के ने अपनी बुआ का नाम ‘पारो’ बताया तब संभव को लगा कि उसकी मनोकामना का पीला-लाल धागा बाँधना सार्थक हो गया। उसने इसी लड़की को देखने-मिलने की मनोकामना को लेकर गिठान लगाई थी। पारो को देखकर उसे गिठान का मधुर स्मरण हो आया। वह स्वयं को देवदास समझने लगा। उसे लगने लगा कि अब पारो उसकी हो जाएगी। कहानी का संकेत यही कहता है।

प्रश्न 7.
‘मनोकामना की गाँठ भी अद्भुत अनूठी है, इधर बाँधो उधर लग जाती है।’ कथन के आधार पर पारो की मनोदशा का वर्णन दीजिए।
उत्तर :
लड़की मंसा देवी पर एक और चुनरी चढ़ाने का संकल्प लेती है अर्थात् वह भी मन-ही-मन संभव से प्रेम कर बैठती है। उसके मन में भी प्रेम का स्फुरण होने लगता है। इस कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि पारो के मन में भी संभव के प्रति प्रेम का अंकुर फूट पड़ता है। उसका लाज से गुलाबी होते हुए मंसादेवी पर एक और चुनरी चढ़ाने का संकल्प उसकी इसी प्रेमातुर मनोदशा का सूचक है। वह प्रश्नवाचक नजरों से संभव की ओर देखती भी है। वह संभव का नाम भी जानना चाहती है। पारो को लगता है कि यह गाँठ कितनी अनूठी है, कितनी अद्भुत है, कितनी आश्चर्यजनक है। अभी बाँधी, अभी फल की प्राप्ति हो गई। देवी माँ ने उसकी मनोकामना शीय्र पूरी कर दी।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित वाक्यों का आशय स्पष्ट कीजिए :
(क) ‘तुझे तो तैरना भी न आवे। कहीं पैर फिसल जाता तो मैं तेरी माँ को कौन मुँह दिखाती।’
(ख) ‘उसके चेहरे पर इतना विभोर विनीत भाव था मानो उसने अपना सारा अहम् त्याग दिया है, उसके अंदर स्व से जनित कोई-कुंठा शेष नहीं है, वह शुद्ध रूप से चेतन स्वरूप, आत्माराम और निर्मलानंद है।’
(ग) ‘एकदम अंदर के प्रकोष्ठ में चामुंडा रूप धारिणी मंसादेवी स्थापित थी। व्यापार यहाँ भी था।
उत्तर :
(क) यह कथन संभव की नानी का है। संभव गंगा तट से बहुत देर से लौटा तो नानी को चिंता सवार हो गई। अगर संभव का पैर फिसल जाता और वह गंगा में डूब जाता तो नानी उसकी माँ अर्थात् अपनी बेटी को कैसे मुँह दिखा पाती। (यहाँ निहितार्थ है-प्रेम में कच्चा, प्रेम-सागर में फिसलना)
(ख) संभव ने देखा कि गंगा की जलधारा के बीच एक आदमी सूर्य की ओर उन्मुख हाथ जोड़े खड़ा था। उसके चेहरे को देखकर लगता था कि उसने सारे अहम् भाव को त्याग दिया है। वह भाव-विभोर था और विनीत भाव से पूजा-अर्चना कर रहा था। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि उसके मन में स्व (Igo) से उत्पन्न कोई कुंठा नहीं रह गई है। वह साक्षात् परमात्मा का रूप दिखाई दे रहा था। उसमें बस चेतना, आत्मा है जो अत्यंत निर्मल है। वह ‘स्व’ से ऊपर उठ चुका था और परमात्मा में लीन हो चुका था।
(ग) मंसा देवी के मंदिर में जाकर संभव ने देखा कि एक कमरे में चामुंडा रूप धारण किए मंसादेवी की मूर्ति स्थापित थीं। उसके सामने भी व्यापारिक गतिविधियाँ जारी थीं। वहाँ लाल-पीले धागे बिक रहे थे, रुद्राक्ष बिक रहे थे। अर्थात् मंदिर में भी व्यापार चल रहा था। सर्वत्र व्यापार का बोलबाला है।

प्रश्न 9.
‘दूसरा देवदास’ कहानी के शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस कहानी का शीर्षक ‘दूसरा देवदास’ पूरी तरह से सार्थक है। पहला देवदास भी अपनी पारो के प्रति इतना ही आसक्त था जितना यह दूसरा देवदास (संभव) था। इस दूसरे देवदास के मन में भी अपनी इस पारो (यह नाम अंत में पता चलता है) को देखने, मिलने की उत्तनी ही ललक थी। उसका अपना परिचय देते हुए स्वयं को ‘संभव देवदास’ बताना भी इसी ओर संकेत करता है। दोनों के हृदयों में अनजाने ही प्रेम का स्फुरण हो जाना शीर्षक को रूमानियत और सार्थकता दे जाता है। यह शीर्षक प्रतीकात्मक भी है क्योंकि देवदास उसे कहा जाता है जो अपनी प्रेमिका के प्यार में पागलपन की स्थिति तक पहुँच जाए। संभव की भी यही दशा होती है।

प्रश्न 10.
‘हे ईश्वर! उसने कब सोचा था कि मनोकामना का मौन उद्गार इतनी शीघ्र शुभ परिणाम दिखाएगा।’
उत्तर :
जब संभव ने अपनी मनचाही लड़की को अगले दिन ही अपने सामने देख लिया तो उसके मुँह से उपर्युक्त वाक्य निकला। उसने ईश्वर के समक्ष ऐसी कामना तो अवश्य की थी, पर वह यह नहीं जानता था कि उसकी मनोकामना इतनी जल्दी पूरी हो जाएगी। उसकी मनोकामना मौन अवश्य थी पर उसका सुखद परिणाम शीघ्र निकल आया। उम्मीद से बढ़कर प्राप्ति हुई थी।

भाषा शिल्प – 

1. इस पाठ का शिल्प आख्याता (नैरेटर-लेखक) की ओर से लिखते हुए बना है-पाठ से कुछ उदाहरण देकर सिद्ध कीजिए।
आख्याता हर की पौड़ी का स्वयं वर्णन करता है। कुछ उदाहरण :

  • औरतें डुबकी लगा रही थीं। बस उन्होंने तट पर लगे कुंडों से बँधी जंजीर पकड़ रखी है।
  • संभव का ध्यान कलावे की ओर नहीं था। वह गंगाजी की छटा को निहार रहा था।
  • संभव आगे बढ़कर कहना चाहता था, ‘देखिए इसमें मेरी कोई गलती नहीं थी ‘।’

2. पाठ में आए पूजा-अर्चना के शब्दों तथा इनसे संबंधित वाक्यों को छाँटकर लिखिए।

  • पूजा-अर्चना के शब्द तथा संबंधित वाक्य :
  • आरती : पंडितगण आरती के इंतजाम में व्यस्त हैं।
  • कलावा : लाल रंग का कलावा बाँधने के लिए हाथ बढ़ाया।
  • पीतल की नीलांजलि : पीतल की नीलांजलि में सहस्र बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी हुई हैं।
  • स्नान : हमें स्नान करके पूजा करनी चाहिए।
  • आराध्य : जो भी आपका आराध्य हो चुन लें।
  • चंदन का तिलक : हर एक के पास चंदन और सिंदूर की कटोरी है।
  • दीप : पानी पर दीपकों की प्रतिछवियाँ झिलमिला रही है।
  • चढ़ावा : एक वृद्ध चढ़ावे की छोटी थैली लिए बैठे थे। गाँठ : संभव ने पूरी श्रद्धा के साथ मनोकामना की गाँठ लगाई।

योग्यता विस्तार –

1. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’ कहानी पढ़िए और उस पर बनी फिल्म देखिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।

2. हरिद्वार और उसके आस-पास के स्थानों की जानकारी प्राप्त कीजिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।

3. गंगा नदी पर एक निबंध लिखिए।

गंगा –

हमारे देश को बनाने में प्रकृति की दो अद्भुत चीज़ों का बहुत बड़ा हाथ है। वे हैं हिमालय और गंगा। तुम जानते हो कि यदि हमारे देश के उत्तर में हिमालय न होता तो मानसून से होनेवाली वर्षा का पानी हमें न मिलता। साथ ही उत्तर के पठार से आने वाली ठंडी हवाएँ हमारे देश के मैदान को बंजर-सा बना देती। इस तरह हिमालय हमारे देश का संरक्षक है। वह पानीभरी मानसूनी हवाओं को इधर ही रोक लेता है और बर्फ़ली ठंडी हवाओं को उस पार से ही लौटा देता है।

पर केवल इतने से ही हमारे देश का बड़ा मैदान उपजाऊ और निवास-योग्य नहीं बन गया। हिमालय की चोटियों पर बर्फ़ के रूप में जमे पानी को नीचे मैदान तक उतारकर भी तो लाना था ताकि वह यहाँ के निवासियों को जीवन दे सके। यह काम गंगा नदी ने किया। गंगा एक प्रकार से भारसीय सभ्यता का आधार रही, है। इसी में बहकर आई हुई, उपजाऊ मिट्दी से वह विस्तृत मैदान बना है जिसमें प्राचीन आर्य-सभ्यता का उदय और विकास हुआ। इसी के किनारे हमारे देश के इतिहास की सबसे प्रमुख घटनाएँ घटी हैं।

कहा जाता है कि अपने साठ हजार पूर्वजों को तारने के लिए भगीरथ बड़ी तपस्या करके गंगा को पृथ्वी पर उतार कर लाए थे। लगता है भगीरथ एक महान इंजीनियर थे जो पहाड़ों को काट-काटकर तथा अन्य कई धाराओं को गंगा के साथ मिलाकर इसे मैदान की ओर लाए होंगे। इस कथा से भगीरथ के अथक परिश्रम का पता लगता है। इसी कारण आज भी कठोर परिश्रम को भगीरथ-प्रयत्न कहते हैं।

गंगा का उद्गम गंगोत्री से उनतीस किलोमीटर ऊपर गोमुख नामक स्थान पर है। गंगोत्री केदारनाथ से लगभग चालीस किलोमीटर आगे है और लगभग पाँच हज़ार मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ बर्फ़ीले पहाड़ों की श्वेत, स्वच्छ बर्फ़ ही पिघल-पिघलकर नन्हीं-सी नदी के रूप में नीचे की ओर बहना आरंभ करती है। यहाँ इसे भगीरथी कहते हैं। पर्वत की घाटियों के बीच भागीरथी कूदती-फाँदती, अठखेलियाँ करती, चट्टानों से टकराती, प्रपात बनाती हुई अदम्य बेग और उत्साह से आगे बढ़ती है। हरे-भरे पर्वतों के बीच भागीरथी पिघली हुई चाँ की बहती धारा-सी प्रतीत होती है। देवप्रयाग में यह अपनी सहेली अलकनंदा को अपने साथ ले लेती है। यहीं से इसका नाम गंगा पड़ता है और इसी नाम से यह यह बंगाल तक पुकारी जाती है।

हिमालय की पर्वत-श्रेणियों के बीच लगभग 175 किलोमीटर की दूरी पारकर गंगा ऋषिकेश पहुँचती है। यहाँ बहुत-से आश्रम बने हुए हैं जहाँ धार्मिक लोग रहकर स्वाध्याय और तपस्या करते हैं। ऋषिकेश से तीस किलोमीटर नीचे हरिद्वार बहुत बड़ा तीर्थ स्थान है। हर बारहवें वर्ष यहाँ कुंभ का मेला लगता है। यहाँ का प्राकृतिक दृश्य बहुत सुदर तथा वातावरण बहुत शांत है। हरिद्वार में बहुत-से मंदिर और धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। प्रतिवर्ष लाखों यात्री विभिन्न पर्वों पर गंगास्नान करने हरिद्वार आते हैं।

हरिद्वार में ही गंगा से प्रसिद्ध गंग नहर निकाली गई है जो लगभग 18 लाख एकड़ भूमि की सिचाई करती और अपने किनारे के प्रदेशों को धन-धान्य, से भरती हुई कानपुर तक जाकर फिर गंगा में मिल जाती है। इस नहर से बिजली भी बनाई जाती है। गंगा तो निरंतर बहती रहती है। इतिहास या भूगोल की किसी घटना से बँधकर यह रुक नही जाती। बहना ही इसका जीवन है।

हस्तिनापुर के आगे गंगा पहले दक्षिण और फिर दक्षिण-पूर्व दिशा में बहती हुई भारत के प्रसिद्ध औद्योगिक नगर कानपुर पहुँचती है। यहाँ कपड़े और चमड़े के बड़े-बड़े कारखाने हैं। इन सभी कारखानों के लिए पानी गंगा से ही आता है। यदि नदियाँ न हों तो हमारे अधिकाँश उद्योग-धंधे ठप हो जाएँ। यही कारण है संसार के लगभग सभी बड़े-बड़े औद्योगिक नगर किसी न किसी नदी या समुद्र के किनारे बसे हैं। कानपुर से लगभग 200 किलोमीटर आगे प्रयाग है जो तीर्थराज माना जाता है। प्रयाग को ही आजकल इलाहाबाद कहते हैं। यहाँ गंगा और यमुना नदी का संगम होता है। प्रत्येक बारहवें वर्ष यहाँ भी कुंभ का प्रसिद्ध मेला लगता है।

प्रयाग के आगे पूरब की ओर बहती हुई गंगा वाराणसी पहुँचती है जहाँ विश्वनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। गंगा यहाँ अर्द्धचंद्राकर रूप में बहती है। इसके किनारे-किनारे यहाँ अनेक घाट बने हुए हैं जिनमें से कई बहुत प्राचीन हैं। शाम के समय शंख और घंटे की ध्वनि के साथ जब आरती होती है तब यहाँ का दृश्य बहुत अच्छा लगता है। बहुत से लोग इन घाटों की शोभा देखने के लिए ही नावों में बैठकर नदी में सैर करते हैं। वाराणसी से कुछ आगे गंगा बिहार में प्रवेश करती है। हिमालय से निकली हुई घाघरा, गंडक और कोशी नदियाँ यहाँ बाई ओर से आकर इसमें मिलती हैं। मध्य पठारों की लाल भूमि से निकली सोन नदी पटना के निकट आकर गंगा में अपना लाल जल मिलाती है।

इन सभी नदियों का पानी लेकर गंगा का आकार बहुत विशल हो जाता है। पर गंगा का हृदय भी तो कितना विशाल है !. यह अपने पास आनेवाली सभी नदियों का पानी अपने में मिलाकर अपने जल से एकाकार करती जाती है। गंगा किसी में भेदभाव नहीं करती। यह सभी को समान भाव से अपने साथ ले जाना चाहती है। सूरदास ने ठीक ही कहा था :

इक नदिया इक नार कहावत मैलो ही नीर भरो।
जब दोनों मिलि एक बरन भए सुरसरि नाम परो।

पटना के बाद भागलपुर होती हुई गंगा बिहार राज्य में पूर्वी सीमा पर राजमहल की पहाड़ियों से टकराती हुई बंगाल में प्रवेश करती है। यहाँ धुलियान से आगे गंगा की दो धाराएँ हो जाती हैं। इनमें से एक धारा बांग्ला देश में चली जाती है। और पदा नाम ग्रहण करती है। दूसरी धारा हुगली के नाम से कलकत्ता की ओर जाती है। कलकत्ता भारत का प्रसिद्ध व्यापारिक नगर और बंदरगाह है। समुद्र के किनारे पहुँचने के कारण गंगा की चाल बहुत मंथर हो जाती है। लगता है गंगा जैसे अपने गंतव्य पर पहुँचकर शांति प्राप्त कर रही हो।

अपने लक्ष्य को प्राप्तकर किसे प्रसन्नता नहीं होती ! गंगा की इतनी लंबी यात्रा मानो समुद्र से मिलने के लिए ही थी। यह अपने डेल्टा की अनेक धाराओं से समुद्र का आलिंगन कर उसके साथ एकाकार हो जाती है। आनंद के उस असीम सागर में मिलकर गंगा अपने स्वरूप को बिलकुल ही बिसरा देती है।

पर कब तक ? फिर समुद्र का पानी भाप बनकर उड़ता है और मानसून के साथ जाकर हिमालय की चोटियों पर जम जाता है। फिर श्वेत, स्वच्छ बर्फ़ पिघलती है और गंगा एक बार फिर अपनी लंबी यात्रा उसी प्रसन्नता और उसी उत्साह से आरंभ करती है ताकि यह एक बार फिर हम भारतवासियों का उपकार करने का अवसर पा सके।

4. आपके नगर/गाँव में नदी-तालाब-मंदिर के आस-पास जो कर्मकांड होते हैं उनका रेखाचित्र के रूप में लेखन कीजिए।

यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 20 दूसरा देवदास

प्रश्न 1.
आरती के समय के दृश्य का वर्णन पाठ के आधार पर कीजिए।
उत्तर :
आरती से पहले औरतें गंगा में नहाती हैं। औरतें ज्यादातर नहाकर वस्त्र नहीं बदलतीं। गीले कपड़ों में ही खड़ी-खड़ी आरती में शामिल हो जाती हैं। पीतल की पंचमंजिली नीलांजलि गरम हो उठी है। पुजारी नीलांजलि को गंगाजल स्पर्श कर, हाथ में लिपटे अँगोछे को नामालूम ढंग से गीला कर लेते हैं। दूसरे यह दृश्य देखने पर मालूम होता है वे अपना संबोधन गंगाजी के गर्भ तक पहुँचा रहे हैं। पानी पर सहस्र बाती वाले दीपकों की प्रतिच्छवियाँ झिलमिला रही हैं।

पूरे वातावरण में अगरु-चंदन की दिव्य सुगंध है। आरती के बाद बारी है संकल्प और मंत्रोच्चार की। भक्त आरती लेते हैं. चढ़ावा चढ़ाते हैं। स्पेशल भक्तों से पुजारी ब्राह्मा-भोज, दान, मिष्ठान की धनराशि कबुलवाते हैं। आरती के क्षण इतने भव्य और दिव्य रहे हैं कि भक्त हुज्जत नहीं करते। खुशी-खुशी दक्षिणा देते हैं। पंडित जी प्रसन्न होकर भगवान के गले से माला उतार-उतार कर यजमान के गले में डालते हैं। फिर जी खोल कर देते हैं प्रसाद, इतना कि अपना हिस्सा खाकर भी ढेर सा बचा रहता है बाँटने के लिए-मुरमुरे, इलायचीदाना, केले और पुष्प।

प्रश्न 2.
संभव मंसा देवी के लिए टिकट लेकर कहाँ पहुँच गया ? संभव को किस बात के लिए अफसोस हुआ ?
उत्तर :
संभव जल्द ही उस विशाल परिसर में पहुँच गया जहाँ लाल, पीली, नीली, गुलाबी केबिल कार बारी-बारी से आकर रुकतीं, चार यात्री बैठातीं और रवाना हो जातीं। केबिल कार का द्वार खोलने और बंद करने की चाभी ऑपरेटर के नियंत्रण में थी। संभव एक गुलाबी केबिल कार में बैठ गया। कल से उसे गुलाबी के सिवा और कोई रंग सुहा ही नहीं रहा था। उसके सामने की सीट पर एक नवविवाहित दंपति चढ़ावे की बड़ी थैली और एक वृद्ध चढ़ावे की छोटी थैली लिए बैठे थे। संभव को अफसोस हुआ कि वह चढ़ावा खरीद कर नहीं लाया। इस वक्त जहाँ से केबिल कार गुजर रही थी, नीचे कतारबद्ध फूल खिले हुए थे। रंग-बिरंगी वादियों से कोई हिंडोला उड़ा जा रहा है।

प्रश्न 3.
केबिल कार में बैठकर संभव को क्या दृश्य दिखायी दिया ?
उत्तर :
संभव का मन एक बार चारों ओर के विहंगम दृश्य में रम गया तो न मोटे-मोटे फौलाद के खंभे नजर आए और न भारी केबिल वाली रोपवे। पूरा हरिद्वार सामने खुला था। जगह-जगह मंदिरों के बुर्ज, गंगा मैया की धवल धार और सड़कों के खूबसूरत घुमाव। नीचे सड़क के रास्ते चढ़ते, हाँफते लोग। लिमका की दुकानें और नाम अनाम पेड़।

प्रश्न 4.
जब नानी घर का द्वार उढ़का कर गंगा-स्नान के लिए चली गई तब संभव के मन में सपने में क्या-क्या विचार आने लगे ?
उत्तर :
नानी द्वार उढ़का कर चली गईं, तो संभव ने अपनी कल्पना को निर्द्वंद छोड़ दिया। आज जब वह सलोनी उसे दिखेगी तो वह उसके पास जाकर कहेगा, ‘पुजारी जी की नादानी का मुझे बेहद अफसोस है। यकीन मानिए, पंडित जी मेरे लिए भी उतने ही अनजान हैं जितने आपके लिए।’
लड़की कहेगी ‘कोई बात नहीं।’
वह पूछेगा, ‘आप दिल्ली से आई हैं ?’
लड़की कहेगी ‘नहीं हम तो ‘के हैं।’
बस उसके हाथ पते की बात लग जाएगी। अगर उसने रुख दिखाया तो वह कहेगा, ‘मेरा नाम संभव है और आपका ?’
वह क्या कहेगी ? उसका नाम क्या होगा। वह बी. ए, में पढ़ रही होगी या एम. ए. में ? इन सवालों के जवाब वह अभी ढूँढ भी नहीं पाया था कि नानी वापस आ गई और बोलीं-
‘ले तू अभी तक सुपने ले रहा है, वहाँ लाखन लाख लोग नहान कर लिए। अरे कभी तो बड़ों का कहा कर लो।’ लड़के की तंद्रा नष्ट हो गई। नानी उवाच के बीच सपने नौ दो ग्यारह हो गए।

प्रश्न 5.
संभव किस बात में यकीन नहीं करता था ? नानी के यहाँ आकर उसने नानी को क्या-क्या काम करते देखा ?
उत्तर :
संभव बहुत शारीरिक मेहनत में यकीन नहीं करता था। बरसों से कुसी पर बैठ पढ़ते-पढ़ते उसे सक्रियता के नाम पर हमेशा किसी दिमागी हरकत का ही ध्यान आता था। उसे यहाँ सुबह-सुबह नानी का झाड़ लगाना, चक्की चलाना, पानी भरना, रात के माँजे बर्तन फिर से धो-धोकर लगाना, सब कष्ट दे रहा था। वह ऐतराज नहीं कर रहा था तो सिर्फ इसलिए कि महज चार दिन रुक कर वह नानी की दिनचर्या में हस्तक्षेप करने का अधिकरी नहीं बन सकता।

प्रश्न 6.
आरती का समय होते ही क्या दृश्य उपस्थित हो जाता है ?
उत्तर :
आरती का समय होते ही गंगा-तट पर यकायक सहस्र दीप जल उठते हैं पंडित अपने आसन से उठ खड़े होते हैं। हाथ में अँगोछा लपेट के पंचमंजिला नीलांजलि पकड़ते हैं और शुरू हो जाती है आरती। पहले पुजारियों के भर्राए गले से समवेत स्वर उठता है जय गंगे माता जो कोई तुझको ध्याता, सारे सुख पाता; जय गंगेमाता। घंटे घड़ियाल बजते हैं। मनौतियों के दिये लिए हुए फूलों की छोटी-छोटी किशितयाँ गंगा की लहरों पर इठलाती हुई आगे बढ़ती हैं।

गोताखोर दोने पकड़, उनमें रखा चढ़ावे का पैसा उठाकर मुँह में दबा लेते हैं। एक औरत ने इक्कीस दोने तैराएँ हैं। गंगापुत्र जैसे ही एक दोने से पैसा उठाता है, औरत अगला दोना सरका देती है। गंगापुत्र उस पर लपकता है कि पहले दोने की दीपक से उसके लँगोट में आग की लपट लग जाती है। पास खड़े लोग हँसने लगते हैं पर गंगापुत्र हतप्रभ नहीं होता।

प्रश्न 7.
आरती से पहले के स्नान के बारे में पाठ के आधार पर बताइए।
उत्तर :
आरती से पहले स्नान होता है। औरतें डुबकी लगा रही होती हैं। बस उन्होंने तट पर लगे कुंडों से बँधी जंजीरें पकड़ रखी हैं। पास ही कोई-न-कोई पंडा जजमानों के कपड़ों-लत्तों की सुरक्षा कर रहा है। हर एक के पास चंदन और सिंदूर की कटोरी है। मर्दों के माथे पर चंदन तिलक और औरतों के माथे पर सिंदूर का टीका लगा देते हैं पंडे। कहीं कोई दादी-बाबा पहला पोता होने की खुशी में आरती करवा रहे हैं, कहीं कोई नई बहू आने की खुशी में। अभी पूरा अँधेरा नहीं घिरा है। गोधूलि बेला है।

प्रश्न 8.
‘दूसरा देवदास’ कहानी का कथ्य क्या है ?
उत्तर :
‘दूसरा देवदास’ कहानी में हर की पौड़ी, हरिद्वार के परिवेश को केंद्र में रखकर युवा मन की संवेदना, भावना और विचारों की उथल-पुथल को आकर्षक शैली में प्रस्तुत किया गया है। यह कहानी युवा-हुदय में पहली आकस्मिक मुलाकात की हलचल, कल्पना और रूमानियत का उदाहरण है। लेखिका ने घटनाओं का संयोजन इस प्रकार किया है कि अनजाने में प्रेम का प्रथम अंकुर संभव और पारो के हूदय में बड़ी अजीब परिस्थितियों में उत्पन्न होता है। यह प्रथम आकर्षण और परिस्थितियों के गुंफन ही उनके प्रेम का आधार है और यही उसे मज़बूती प्रदान करता है। इससे सिद्ध होता है कि प्रेम के लिए किसी निश्चित व्यक्ति, समय और स्थिति का होना आवश्यक नहीं है। वह कभी भी, कहीं भी, किसी भी समय और स्थिति में उपज सकता है। इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने प्रेम को पवित्र और स्थायी स्वरूप प्रदान किया है।

प्रश्न 9.
संभव ने लड़की को किस रूप में देखा ? वह कैसी लग रही थी ?
उत्तर :
लड़की अब बिल्कुल संभव के बराबर में खड़ी, आँख मूँद कर अर्चन कर रही थी। संभव ने यकायक मुड़कर उसकी ओर गौर किया। उसके कपड़े एकदम भीगे हुए थे यहाँ तक कि उसके गुलाबी आँचल के कुर्त का एक कोना भी गीला हो रहा था। लड़की के लंबे गीले बाल पीठ पर काले चमकीले शॉल की तरह लग रहे थे। दीपकों के नीम उजाले में, आकाश और जल की साँवली संधि-बेला में, लड़की बेहद सौम्य, लगभग कास्य प्रतिमा लग रही थी।

प्रश्न 10.
संभव हरिद्वार क्यों आया था ?
उत्तर :
संभव की ज्यादा उम्र नहीं थी। इसी साल एम. ए. पूरा किया था। अब वह सिविल सर्विसेज प्रतियोगिताओं में बैठने वाला था। माता-पिता का ख्याल था वह हरिद्वार जाकर गंगा जी के दर्शन कर ले तो बेखटके सिविल सेवा में चुन लिया जाएगा। लड़का इन टोटकों को नहीं मानता था पर घूमना और नानी से मिलना उसे पसंद था इसीलिए वह हरिद्वार आया था।

प्रश्न 11.
‘उसे भी मनोकामना का पीला-लाल धागा और उसमें पड़ी गिठान का मधुर स्मरण हो आया। ‘दूसरा देवदास’ कहानी के आधार पर उपर्युक्त कथन पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
‘दूसरा देवदास’ कहानी में जब लड़के ने अपनी बुआ का नाम ‘पारो’ बताया तब संभव को लगा कि उसकी मनोकामना का पीला-लाल धागा बाँधना सार्थक हो गया। उसने इसी लड़की को देखने-मिलनें की मनोकामना को लेकर गिठान लगाई थी। पारो को देखकर उसे गिठान का मधुर स्मरण हो आया। वह स्वयं को देवदास समझने लगा। उसे लगने लगा कि अब पारो उसकी हो जाएगी। कहानी का संकेत यही कहता है।

प्रश्न 12.
‘दूसरा देवदास’ कहानी के माध्यम से लेखिका ने प्रेम को बंबइया फिल्मों की परिपाटी से अलग हटाकर उसे पवित्र और स्थायी स्वरूप प्रदान किया है।”-इस कथन के समर्थन में तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
उत्तर :
‘दूसरा देवदास’ कहानी को लेखिका ने बंबइया प्रभाव से सर्वथा मुक्त रखा है। संभव और पारो का प्रेम पवित्र एवं स्थायी है। इसमें वासना की गंध नहीं है। उनमें हददय की गहरी अनुभूतियाँ हैं। वे एक दूसरे को हृदय से चाहते हैं, पर आपने प्रेम का बंबइया फिल्मों की तरह छिछोरा प्रदर्शन नहीं करते। लेखिका ने उनके प्रेम को पवित्र एवं स्थायी स्वरूप प्रदान किया है।

प्रश्न 13.
‘दूसरा देवदास’ कहानी में आपकी सहानुभूति पारो और देवदास में से किस पात्र के साथ अधिक है और क्यों ? उस पात्र की मनोदशा का चित्रण कीजिए।
उत्तर :
‘दूसरा देवदास’ कहानी में हमारी सहानुभूति देवदास अर्थात् संभव के साथ है। पारो को देखने के बाद उसकी मनःस्थिति विचित्र सी हो गई थी। पारो के साथ हुई उस छोटी सी मुलाकात ने संभव के मन को झिंझोड़ डाला।

  • संभव का मन बेचैन हो गया। उसने उसे देखने के लिए अनेक गलियों में चक्कर लगाए पर सफलता न मिली।
  • संभव को रात को भी ठीक से नींद नहीं आई।
  • अगले दिन वह शाम होने की प्रतीक्षा करता रहा क्योंकि वह शाम की आरती में शामिल होने की बात कहकर गई थी।
  • संभव की आँखों में उस लड़की की छवि पूरी तरह से बस गई थी। वह उसी की एक झलक देखना चाह रहा था।
  • वह मन ही मन यह सोच रहा था कि यदि वह मिल गई तो उससे क्या-क्या प्रश्न करेगा।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 21 Question Answer कुटज

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 21 कुटज

Class 12 Hindi Chapter 21 Question Answer Antra कुटज

प्रश्न 1.
कुटज को गाढ़े का साथी क्यों कहा गया है ?
उत्तर :
कुटज को गाढ़े का साथी इसलिए कहा गया है क्योंकि यह मुसीबत में काम आया। कालिदास ने आषाढ़ मास के प्रथम दिन जब यक्ष को रामगिरि पर्वत पर मेघ की अभ्यर्थना के लिए भेजा जब उसे और कोई ताजे फूल न मिले तब उसे ताजे कुटज फूलों की अंजलि देकर संतोष करना पड़ा। उसे चंपक, बकुत, नीलोत्पल, मल्लिका, अरविंद के फूल नहीं मिले, मिले तो केवल कुटज के फूल। इस प्रकार वे गाढ़े समय में उनके काम आए। वैसे यक्ष तो बहाना है, कालिदास ही कभी रामगिरि पहुँचे थे और अपने हाथों इस कुटज पुष्प का अर्घ्य देकर मेघ की अभ्यर्थना की थी। इस प्रकार कुटज गाढ़े का साथी बना।

प्रश्न 2.
नाम क्यों बड़ा है ? लेखक के विचार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
लेखक इस प्रश्न पर विचार करता है कि रूप मुख्य है या नाम। नाम बड़ा है या रूप। वैसे यह कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है। नाम की जरूरत हो तो कुटुज को भी सौ नाम दिए जा सकते हैं पर लेखक का मानना है कि नाम इसलिए बड़ा नहीं कि वह नाम है, बल्कि वह इसलिए बड़ा होता है क्योंकि नाम से उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति सत्य होता है जबकि नाम समाज सत्य होता है। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। इसे आधुनिक लोग इसे ‘सोशल सेंक्शन’ (Social Sanction) कहते हैं। लेखक का मन भी ऐसे नाम के लिए व्याकुल होता है, जिसे समाज द्वारा स्वीकृत हो, इतिहास द्वारा प्रमाणित हो तथा सभी लोगों के चित्त में समाया हो।

प्रश्न 3.
‘कुट’, ‘कुटज’ और ‘कुटनी’ शब्दों का विश्लेषण कर उनमें आपसी संबंध स्थापित कीजिए।
उत्तर :
‘कुट’ शब्द ‘घड़े’ के लिए भी आता है और ‘घर’ के लिए भी। ‘घड़े’ से उत्पन्न होने के कारण प्रतापी अगस्त्य मुनि को ‘कुटज’ कहा जाता है (कुट + ज – घड़े से उत्पन्न)। वे घड़े से तो क्या उत्पन्न हुए होंगे, कोई और बात होगी, घर से उत्पन्न हुए होंगे। एक गलत ढंग की दासी को ‘कुटनी’ कहा जाता है। संस्कृत में उसकी गलतियों को थोड़ा और अधिक मुखर बनाने के लिए उसे ‘कुट्टनी’ कहा जाता है। ‘कुटनी’ शब्द से दासी का बोध होता है तो क्या अगस्त्य मुनि भी नारदजी की तरह दासी के पुत्र थे ? घड़े से पैदा होने की तो कोई बात जँचती नहीं। न तो मुनि के सिलसिले में और न फूल के कुटज के सिलसिले में। कुटज गमले में नहीं होते, वह तो जंगल का सैलानी फूल है।

प्रश्न 4.
कुटज किस प्रकार अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है ?
उत्तर :
कुटज में अपराजेय जीवनी-शक्ति है। यह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है। कुटज की शोभा मादक है। इसकी जीवनी-शक्ति का इसी से पता चलता है कि यह चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वासों के समान धधकती धू में भी हरा-भरा बना रहता है। यह कठोर पाषाणों (पत्थरों) के बीच्च रुके अज्ञात जलस्रोत से अपने लिए जबर्दस्ती रस खींच लाता है और सरस बना रहता है।

सूने पर्वतों के मध्य भी इसकी मस्ती को देखकर ईष्ष्यी, होती है। इसमें कठिन जीवनी-शक्ति होती है। यह जीवम्-शक्ति ही जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है। कुटज अपनी जीवनी-शक्ति की घोषणा करते हुए हमें बताता है कि यदि जीना चाहते हो तो मेरी तरह से कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती को चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर, आँधी-तूफान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूल करो। आकाश को चूमकर, लहरों में झूमकर उल्लास को खींच लो।

प्रश्न 5.
कुटज हम सभी को क्या उपदेश देता है ? टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
कुटज हम सभी को यह उपदेश देता है कि कठिन परिस्थितियों में भी जीना सीखो। सामान्य परिस्थितियों में तो सभी जी लेते हैं पर विषम परिस्थितियों में जीना वास्तव में जीना है। वह हमें यह संदेश देता है कि रस का स्रोत जहाँ कहीं भी हो, वहीं से उसे खींचकर बाहर लाओ। जिस प्रकार वह कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपने भोग्य का संग्रह करता है, उसी प्रकार हम सभी को अपने भोग्य का संग्रह करना चाहिए। हमें अपने प्राप्य को छोड़ना नहीं चाहिए। प्रकृति से या मनुष्य से जहाँ से भी हो हमें अपनी जीवनी-शक्ति को पाना है।

प्रश्न 6.
कुटज के जीवन से हमें क्या सीख मिलती है ?
उत्तर :
कुटज के जीवन से हमें यह सीख मिलती है- कठिन और विषम परिस्थितियों में हैसकर जीना सीखो।

  • अपना प्राप्य हर हालत में वसूल करो।
  • दूसरों के द्वार पर भीख माँगने मत जाओ।
  • कोई निकट आ जाए तो भय के मारे अधमरे मत हो जाओ।
  • शान के साथ जिओ।
  • चाहे सुख हो या दु:ख हो, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाए उसे हृदय से, अपराजित होकर, सोल्लास ग्रहण करो।

प्रश्न 7.
कुटज क्या केवल जी रहा है-लेखक ने यह प्रश्न उठाकर किन मानवीय कमजोरियों पर टिप्पणी की है ?
उत्तर :
‘कुटज क्या केवल जी रहा है’ लेखक ने यह प्रश्न उठाकर अनेक मानवीय कमजोरियों पर टिप्पणी की है। कुटज केवल जीता ही नहीं, शान से और स्वाभिमानपूर्वक जीता है। ‘केवल जीने’ से यह ध्वनित होता है कि वह विवशतापूर्ण जीवन जी रहा है, जबकि वास्तविकता इसके उलट है। वह अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के बलबूते पर जीता है। इस प्रश्न से मानव स्वभाव की इस कमजोरी पर प्रकाश पड़ता है कि अनेक व्यक्ति किसी-न-किसी विवशतावश जी रहे हैं। उनमें जिजीविषा शक्ति का अभाव है। वे जैसे-तैसे करके जी रहे हैं। उनमें संघर्ष का अभाव है। वे अपना प्राप्य वसूल करना नहीं जानते। वे कठिन परिस्थितियों से टकरा भोग्य नहीं वसूल पाते। उनके जीवन में उल्लास नहीं है। वे हारे मन से जी रहे हैं। उन्हें इस प्रवृत्ति को त्यागना होगा।

प्रश्न 8.
लेखक क्यों मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है ? उदाहरण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर :
लेखक यह मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर, जिजीविषा से भी प्रचंड कोई शक्ति अवश्य है पर वह शक्ति क्या है ? यह प्रश्न उठता है। वह शक्ति है-‘ सर्व’ के लिए स्वयं को न्यौछावर कर देना। व्यक्ति की ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि वह व्यापक है। अपने में सबको और सब में अपने को मिला देना, इसकी समष्टि बुद्धि के आ जाने पर पूर्ण सुख का आनंद मिलता है। जब तक हम स्वयं को द्राक्षा की भाँति निचोड़कर ‘सर्व’ (सबके) के लिए न्यौछावर नहीं कर देते तब तक स्वार्थ और मोह बना रहता है। इससे तृष्णा उपजती है, मनुष्य दयनीय बनता है, दृष्टि मलिन हो जाती है। लेखक परामर्थ पर बल देता है।

प्रश्न 9.
‘कुटज’ पाठ के आधार पर सिद्ध कीजिए कि ‘दुःख और सुख तो मन के विकल्प हैं।’
उत्तर :
‘कुटज’ पाठ में बताया गया है कि दुःख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी केवल वह व्यक्ति है जिसने मन को वश में कर रखा है। दुःख उसको होता है जिसका मन परवश अर्थात् दूसरे के वश में होता है। यहाँ परवश होने का यह भी अर्थ है-खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता करना, जी हजूरी करना। जिस व्यक्ति का मन अपने वश में नहीं होता वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को छिपाने के लिए मिथ्या आडंबर रचता है और दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। सुख्खी व्यक्ति तो अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। अतः दुख और सुख मन के विकल्प हैं।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:
(क) ‘कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं उनकी जड़ें काफी गहरी पैठी रहती हैं।
ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अत्ल गह्नर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।’
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।

व्याख्या : लेखक बताता है कि बाहर से बेशर्म दिखाई देने वालों की जड़ें कई बार बड़ी गहराई में समाई होती हैं अर्थात् बाहरी और आंतरिक स्थिति में भारी अंतर पाया जाता है। कुटज के वृक्ष भी बाहर से भले ही नीरस और सूखे प्रतीत होते हों पर वे इनकी जड़ें पत्थर की छाती को फोड़कर अत्यंत गहराई तक समाई होती हैं। ये तो पाताल जितनी गहराई से भी अपना भोजन खींच लाते हैं, तभी तो विषम परिस्थितियों में भी इनका अस्तित्व बना रहता है। ये वृक्ष ऊपर से भले ही बेहया अर्थात् मस्तमौला दिखाई देते हों पर ये भीतर से बहुत गहरी सोच रखते हैं। जब इन्हें अपना काम पूरा करना होता है तो विषम परिस्थितियों में भी रास्ता खोज लेते हैं।

विशेष :

  • कुटज द्वारा मानव को संदेश दिया गया है।
  • तत्सम-तद्भव शब्दों का प्रयोग किया गया है।
  • भाषा सहज एवं सरल है।

(ख) रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सैंक्शन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नात।’
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।

व्याख्याः रूप का सत्य व्यक्ति तक सीमित रहता है अर्थात् रूप का प्रभाव व्यक्ति-विशेष पर पड़ता है। नाम का संबंध समाज से है। व्यक्ति अपने नाम से ही समाज में जाना जाता है। नाम वह पद होता है जिसे समाज की स्वीकृति मिली होती है। इसी स्वीकृति को आधुनिक समाज ‘सोशल सैंक्शान’ (Social Sanction कहता है अर्थात् यह नाम समाज में मान्य है। लेखक का मन भी इस वृक्ष का नाम जानने को बेचैन है। वह इसके उस नाम को जानना चाहता है जिसे समाज ने स्वीकार किया हो तथा इतिहास ने प्रमाणित किया हो और सभी लोगों के चित्त में समाया हो अर्थात् सभी दृष्टियों से मान्य एवं स्वीकृत हो। लेखक को दूसरा नाम कुटज देर से याद आता है।

विशेष :

  • तत्सम शब्दावली के साथ अंग्रेजी शब्द (सोशल सैंक्शन) का भी प्रयोग हुआ है।
  • विषयानुकूल भाषा-शैली अपनाई गई है।

(ग) ‘रूप की तो बात ही क्या है! बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलम्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है।’
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।

व्याख्या : लेखक कुटज के रूप पर बलिहारी जाता है। उसे कुटज का रूप अत्यंत मनोहारी प्रतीत होता है। उसे इसकी शोभा मादक लगती है। यद्यपि चारों ओर भीषण गर्मी पड़ रही होती है फिर भी यह हरा-भरा बना रहता है। लू ऐसे चलती है जैसे यमराज अपनी दारुण साँसें छोड़ रहा हो। कुटज इससे अप्रभावित रहता है। वह इस विपरीत मौसम में भी खूब फलता-फूलता है। यह पत्थरों की अतल गहराई से भी अज्ञात जलस्रोत से अपने लिए रस खींच लाता है अर्थात् यह कहीं से भी हो अपना भोग्य वसूल ही कर लेता है। इसमें असीम जीवनी-शक्ति है। यह विषम प्राकृतिक परिस्थितियों में खुशी के साथ जीना जानता है और जीता है।

विशेष :

  • तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
  • विषयानुकूल भाषा अपनाई गई है।

(घ) ‘हुदयेनापराजितः! कितना विशाल वह हूदय होगा जो सुख से, दु:ख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित न होता होगा! कुटज को देखकर रोमांच हो आता है। कहाँ से मिली है यह अकुतोभया वृत्ति, अपराजित स्वभाव, अविचल जीवन दृष्टि!’
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।

व्याख्या : हूदय से पराजित न होना। वह आदमी बड़ा ही विशाल हदय होता है जो सुख से, दुःख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित नहीं होता अर्थात् जो व्यक्ति सभी स्थितियों में एक समान रहते हैं वे निश्चय ही विशाल हृदय वाले होते हैं। कुटज भी इसी प्रकार का होता है। उसको देखकर रोमांच हो आता है। पता नहीं कहाँ से मिली उसे ऐसी निडरता। उसमें किसी से भयभीत न होने की प्रवृत्ति झलकती है। वह किसी कि सम्मुख हार स्वीकार नहीं मानता। वह किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होता। उसकी जीवन दृष्टि विशाल है।

विशेष :

  • वाक्य रचना बेजोड़ है।
  • तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
  • विषयानुकूल भाषा-शैली अपनाई गई है।

योग्यता विस्तार –

1. ‘कुटज’ की तर्ज पर किसी जंगली फूल पर लेख अथवा कविता लिखने का प्रयास कीजिए।
विद्यार्थी प्रयास करें।

2. लेखक ने ‘कुटज’ को ही क्यों चुना है ? उसको अपनी रचना के लिए जंगल में पेड़-पौधे तथा फूलों-वनस्पतियों की कोई कमी नहीं थी।
लेखक को कुटज की जिजीविषा भा गई अतः उसने इसे चुना।

3. कुटज के बारे में उसकी विशेषताओं को बताने वाने दस वाक्य पाठ से छाँटिए और उनकी मानवीय संदर्भ में विवेचना कीजिए।

  • यह मस्तमौला है।
  • यह एक छोटा-सा बहुत ही ठिगना पेड़ है।
  • यह मुसकराता जान पड़ता है।
  • यह अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है।
  • कुटज किसी के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता।

4. ‘जीना भी एक कला है’-कुटज के आधार पर सिद्ध कीजिए।
‘जीना भी एक कला है’-इस कला को कुटज जानता है। वह शान से जीता है, उल्लासपूर्वक जीता है, अपराजेय भाव से जीता है। हमें भी इसी प्रकार जीना चाहिए। अपने जीवन को ‘सर्व’ के लिए न्यौछावर कर देना चाहिए।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 21 कुटज

प्रश्न 1.
पवरंत के बारे में प्रायः क्या कहा जाता है ? हिमालय की शोभा के बारे में क्या बताया गया है ?
उत्तर :
प्रायः कहा जाता है कि पर्वत शोभा निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का. तो कहना ही क्या! पूर्व और अपर समुद्र-महोदधि और रत्नाकर दोनों को दोनों भुजाओं से थामता हुआ हिमालय ‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाए तो गलत नहीं है। कालिदास ने भी ऐसा ही कहा था। इसी के पाद-देश में यह श्रंखला दूर तक लोटी हुई है। लोग इसे शिवालिक श्रृंखला कहते है। ‘शिवालिक’ का क्या अर्थ है ? ‘शिवालिक’ या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा। लगता तो ऐसा ही है क्योंकि शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है।

प्रश्न 2.
‘कुटज’ निबंध में आच्रार्य द्विवेदी ने सुख और दुख के क्या लक्षण बताए हैं ? कुटज दोनों से भिन्न कैसें है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘कुटज’ पाठ में बताया गया है कि दुःख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी केवल वह व्यक्ति है जिसने मन को वश में कर रखा है। दु:ख उसको होता है जिसका मन परवश अर्थात् दूसरे के वश में होता है। यहाँ परवश होने का यह भी अर्थ है-खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता करना, जी हजूरी करना। जिस व्यक्ति का मन अपने वश में नहीं होता वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को छिपाने के लिए मिथ्या आडंबर रचता है और दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। सुखी व्यक्ति तो अपने मन पर सवारी करता है,मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। अतः दुःख और सुख मन के विकल्प हैं।

प्रश्न 3.
उपकार और अपकार करने वाले के बारे में क्या कहा गया है ?
उत्तर :
लेखक का कहना है कि जो समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है वह अबोध है और जो समझाता है कि दूसरे उसका अपकार कर रहे हैं वह भी बुद्धिही न है। कौन किसका उपकार करता है, कौन किसका अपकार कर रहा है। यह बात विचारणीय है मनुष्य जी रहा है, केवल जी रहा है; अपनी इच्छा से नहीं, इतिहास-विधाता की योजना के अनुसार। किसी को उससे सुख मिल जाए, बहुत अच्छी बात है; नहीं मिल सका, कोई बात नहीं, परंतु उसे अभिमान नहीं होना चाहिए। सुख पहुँचाने का अभिमान यदि गलत है, तो दुःख पहुँचाने का अभिमान तो नितांत गलत है।

प्रश्न 4.
भाषा विज्ञानी पंडितों को क्या देखकर आश्चर्य हुआ ?
उत्तर :
भाषा विज्ञानी पंडितों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ऑस्ट्रेलिया से सुदूर जंगलों में बसी जातियों की भाषा एशिया में बसी हुई कुछ जातियों की भाषा से संबद्ध है। भारत की अनेक जातियाँ वह भाषा बोलती हैं, जिनमें संथाल, मुंडा आदि भी शामिल हैं। शुरू-शुरू में इस भाषा का नाम आस्ट्रो-एशियाटिक दिया गया था। दक्षिण-पूर्व या अग्निकोण की भाषा होने के कारण इसे आग्नेय-परिवार भी कहा जाने लगा है। अब हम लोग भारतीय जनता के वर्ग-विशेष को ध्यान में रखकर और पुराने साहित्य का स्मरण करके इसे कोल-परिवार की भाषा कहने लगे हैं। पंडितों ने बताया है कि संस्कृत भाषा के अनेक शब्द, जो अब भारतीय संस्कृति के अविच्छेद्य अंग बन गए हैं, इसी श्रेणी की भाषा के हैं। कमल, कुड्मल, कंबु, कंबल, तांबूल आदि शब्द ऐसे ही बताए जाते हैं। पेड़-पौधों, खेती के उपकरणों और औजारों के नाम भी ऐसे ही हैं। ‘कुटज’ भी हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

प्रश्न 5.
पर्वतराज हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों को देखकर कैंसा लगता है ? कुटज क्या शिक्षा देता जान पड़ता है ?
उत्तर :
पर्वतराज हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों को देखकर लगता है कि वहीं कहीं भगवान महादेव समाधि लगाकर बैठे होंगे; नीचे सपाट पथरीली जमीन का मैदान है, कहीं-कहीं पर्वतनंदिनी सरिताएँ आगे बढ़ने का रास्ता खोज रही होंगी-बीच में यह चट्टानों की ऊबड़-खाबड़ जटाभूमि है-सूखी, नीरस, कठोर! यहीं आसन मारकर बैठे हैं कुटज। एक बार अपने झबरीले मूर्धा को हिलाकर समाधिनिष्ठ महादेव को पुष्पस्तबक का उपहार चढ़ा देते हैं और एक बार नीचे की ओर अपनी पाताल भेदी जड़ों को दबाकर गिरिनेंदिनी सरिताओं को संकेत से बता देते हैं कि रस का स्रोत कहाँ हैं। कुटज यह शिक्षा देता जान पड़ता है कि यदि तुम जीना चाहते हो तो कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो; वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो; आकाश को चूमकर अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो।

प्रश्न 6.
लेखक ‘कुटज’ शब्द की व्याख्या किस-किस रूप में करता है ?
उत्तर :
लेखक ‘कुटज’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहता है-
‘कुटज’ अर्थात् जो कुट से पैदा हुआ हो। ‘कुट’ घड़े को भी कहते हैं, घर को भी कहते हैं। कुट अर्थात् घड़े से उत्पन्न होने के कारण प्रतापी अगस्त्य मुनि भी ‘कुटज’, क्रहे जाते हैं। घड़े से तो क्या उत्पन्न हुए होंगे। कोई और बात होगी। संस्कृत में ‘कुटिहारिका’ और ‘ कुटकारिका’ दासी को कहते हैं। ‘कुटिया’ या ‘कुटीर’ शब्द भी कदाचित् इसी शब्द से संबद्ध है। क्या इस शब्द का अर्थ घर ही है। घर में काम-काज करने वाली दासी कुटकारिका और कुटहारिका कही ही जा सकती है। एक जऱा गलत ढंग की दासी ‘कुटनी’ भी कही जा सकती है। संस्कृत में उसकी गलतियों को थोड़ा अधिक मुखर बनाने के लिए उसे ‘कुटृनी’ कह दिया गया है। अगस्त्य मुनि भी नारदजी की तरह दासी के पुत्र थे क्या ? घड़े में पैदा होने का तो कोई तुक नहीं है, न मुनि कुटज के सिलसिले में, न फूल कुटज के। फूल गमले में होते अवश्य हैं, पर कुटज तो जंगल का सैलानी है। उसे घड़े या गमले से क्या लेना-देना ? शब्द विचारोत्तेजक अवश्य है।

प्रश्न 7.
कालिदास ने कुटज का उपयोग कब और कहाँ किया ? यह बड़भागी क्यों है ?
उत्तर :
कालिदास ने ‘आषाढ़स्य प्रथम-दिवसे’ रामगिरि पर यक्ष को जब मेघ की अभ्यर्थना के लिए नियोजित किया तो कंबख्त को ताजे कुटज पुष्पों की अंजलि देकर ही संतोष करना पड़ा-उसे चंपक नहीं, बकुल नहीं, नीलोत्पल नहीं, मल्लिका नहीं, अरविंद नहीं- फकत कुटज के फूल मिले। यह और बात है कि आज आषाढ़ का नहीं, जुलाई का पहला दिन है। मगर फर्क भी कितना है। पर यक्ष बहाना-मात्र है, कालिदास ही कभी ‘शापेनास्तंगमितमहिमा’ होकर रामगिरिं पहुँचे थे, अपने ही हाथंथं इस कुटल पुष्प का अर्घ्य देकर उन्होंने मेघ की अभ्यर्थना की थी। शिवालिक की इस अनत्युच्च पर्वत-श्रृंखला की भाँति रामगिरि पर भी उस समय और कोई फूल नहीं मिला होगा। कुटज ने उनके संतृप्त चित्त को सहारा दिया था। यह फूल बड़भागी है।

प्रश्न 8.
‘कुटज’ पाठ हमें क्या संदेश देता है ?
उत्तर :
कुटज हिमालय की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला जंगली फूल है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए संदेश पाया है। कुटज में अपराजेय जीवन शक्ति है, स्वावलंबन है, आत्म विश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी शान के साथ जीने की क्षमता है। वह समान भाव से सभी परिस्थितियों को स्वीकारता है। इसी प्रकार हमें भी अपनी जिजीविषा बनाए रखनी चाहिए और सभी स्थितियों को सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए।

प्रश्न 9.
‘कुटज’ का लेखक क्यों मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर और जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है ? उदाहरण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर :
लेखक यह मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर जिजीविषा से भी प्रचंड कोई शक्ति अवश्य है पर वह शक्ति क्या है ? यह प्रश्न उठता है। वह शक्ति है-‘सर्व’ के लिए स्वयं को न्यौछावर कर देना। व्यक्ति को ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि वह व्यापक है। अपने में सबको और सब में अपने को मिला देना, इसकी समष्टि बुद्धि के आ जाने पर पूर्ण सुख का आनंद मिलता है। जब तक हम स्वयं को द्राक्षा की भाँति निचोड़कर ‘सर्व’ (सबके) के लिए न्यौछावर नहीं कर देते तब तक स्वार्थ और मोह बना रहता है। इससे तृष्णा उपजती है, मनुष्य दयनीय बनता है, दृष्टि मलिन हो जाती है। लेखक परामर्थ पर बल देता है।

प्रश्न 10.
कुटज किस प्रकार अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है ?
उत्तर :
कुटज में अपराजेय जीवनी-शक्ति है। यह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है। कुटज की शोभा मदक है। इसकी जीवनी-शक्ति का इसी से पता चलता है कि यह चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वासों के समान धधकती धू में भी हरा-भरा बना रहता है। यह कठोर पाषाणों (पत्थरों) के बीच रुके अज्ञात जल स्रोत से अपने लिए जबर्दस्ती रस खींच लाता है और सरस बना रहता है। सूने पर्वतों के मध्य भी इसकी मस्ती को देखकर ईष्य्या होती है।

इसमें कठिन जीवनी-शक्ति होती है। यह जीवन-शक्ति ही जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है। कुटज अपनी जीवनी-शक्ति की घोषणा करते हुए हमें बताता है कि यदि जीना चाहते हो तो मेरी तरह से कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती को चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर, आँधी-तूफान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूल करो। आकाश को चूमकर, लहरों में झूमकर उल्लास को खींच लो।

प्रश्न 11.
कुटज के जीवन से हमें क्या शिक्षा मिलती है? उसे ‘गाढ़े का साथी’ क्यों कहा गया है ?
उत्तर :
कुटज के जीवन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हँकरन जीने की कला आनी चाहिए तथा अपने प्राप्य को हर कीमत पर वसूल करो। कुटज को गाढ़े का साथी इसलिए कहा गया है क्योंकि यह मुसीबत में काम आया। कालिदास ने आषाढ़ मास के प्रथम दिन जब यक्ष को रामगिरि पर्वत पर मेघ की अभ्यर्थना के लिए भेजा जब उसे और कोई ताजे फूल न मिले तब उसे ताजे कुटज फूलों की अंजलि देकर संतोष करना पड़ा। उसे चंपक, बकुत, नीलोत्पल, मल्लिका, अरविंद के फूल नहीं मिले, मिले तो केवल कुटज के फूल। इस प्रकार वे गाढ़े समय में उनके काम आए। वैसे यक्ष तो बहाना है, कालिदास ही कभी रामगिरि पहुँचे थे और अपने हाथों इस कुटज पुष्प का अर्ध्य देकर मेघ की अभ्यर्थना की थी। इस प्रकार कुटज गाढ़े का साथी बना।

प्रश्न 12.
“कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए एक संदेशा पाया है।” -इस कथन की पुष्टि करते हुए बताइए कि वह संदेश क्या है ?
उत्तर :
कुटज हिमालय की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला जंगली फूल है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए संदेश पाया है। कुटज में अपराजेय जीवन शक्ति है, स्वावलंबन है, आत्मविश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी शान के साथ जीने की क्षमता है। वह समान भाव् से सभी परिस्थितियों को स्वीकारता है। इसी प्रकार हमें भी अपनी जिजीविषा बनाए रखनी चाहिए और सभी स्थितियों को सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए।

प्रश्न 13.
कुटज का संक्षिप्त परिचय देते हुए उसके संदेश को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
कुटज हिमालय पर्वत की शिवालिक पहाड़ियों की सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला एक जंगली वृक्ष है। इसमें सुंदर फूल लगते हैं। कुटज एक ठिगने कद का वृक्ष होता है जिसके फूलों में न तो कोई विशेष सौंदर्य होता है और न सुगंध। फिर भी लेखक को कुटज में मानव के लिए एक संदेश की प्रतीति होती है। कुटज में अपराजेय जीवन-शक्ति है, स्वावलंबन है, आत्मविश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी ज्ञान के साथ जीने की क्षमता है। वह सभी परिस्थितियों को समान भाव से स्वीकार करता है। वह सूखी पर्वत शृंखला के पत्थरों से भी अपना भोग्य वसूल लेता है। इस पाठ से यही संदेश मिलता है कि हमें भी सभी प्रकार की परिस्थितियों में सहर्ष जीने की कला आनी चाहिए।

प्रश्न 14.
कुटज से किन जीवन-मूल्यों की सीख मिलती है?
उत्तर :
कुटज से हमें निम्नलिखित जीवन-मूल्यों की सीख मिलती है-

  • हर परिस्थिति में पूरी मस्ती के साथ जिओ।
  • अपना प्राप्य अवश्य वसूल करो।
  • सदैव अपना आत्मसम्मान बनाए रखो।
  • परोपकार के लिए जिओ।
  • किसी की चापलूसी मत करो।
  • अपने मन पर नियंत्रण रखे।
  • ईर्ष्या-द्वेष भावना से ऊपर उठो।
  • सदैव प्रसन्नचित्त बने रहो।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antral Chapter 1 Question Answer सूरदास की झोंपड़ी

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antral Chapter 1 सूरदास की झोंपड़ी

Class 12 Hindi Chapter 1 Question Answer Antral सूरदास की झोंपड़ी

प्रश्न 1.
‘चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता?’ के आधार पर सूरदास की मनःस्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
यद्यपि यह कथन नायकराम का है पर इस कथन से सूरदास की मन:स्थित की झलक मिल जाती है। जगधर ने सूरदास से पूछा था-सूरे, क्या आज चूल्हा ठंडा नहीं किया था? इसका जवाब नायकराम ने दियां – ‘चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता।’ सूरदास के दुश्मन भैरों ने सूरदास की झोंपड़ी में आग लगाकर अपना कलेजा ठंडा कर लिया था। उसकी पत्ी सुभागी उससे रूठकर सूरदास की झोंपड़ी में चली आई थी। तभी से भैरों सूरदास से बदला लेने की ताक में था। उसने झोपड़ी में आग लगाकर अपने मन को तसल्ली देने का काम किया था। सूरदास इस समय बहुत व्यथित था। उसकी मन:स्थिति बड़ी विचित्र थी। उसने पाँच सौसे अधिक रुपए जमा करके एक पोटली में रखकर इसी झोंपड़ी में छिपा रखे थे। वह इन रुपयों से अपने मन में सोची कई योजनाएँ पूरी करना चाहता था। आग लगने के कारण उसे अपनी सभी योजनाओं पर पानी फिरता नजर आया। वह अपनी जमा-पूँजी की बात न किसी से कह सकता था और न स्वीकार कर सकता था। उसे झोंपड़ी के जल जाने का इतना दुःख न था जितना उस पोटली का जिसमें उम्र भर की कमाई थी।

प्रश्न 2.
भैरों ने सूरदास की झोंपड़ी क्यों जलाई ?
उत्तर :
भैरों की पत्नी सुभागी भैरों से लड़कर सूरदास की झोंपड़ी में चली आई थी। भैरों ताड़ी पीकर सुभागी को मारता-पीटता था। उसकी माँ उन दोनों में झगड़ा करवाती थी। भैरों को सुभागी का सूरदास की झोंपड़ी में आकर रहना बहुत बुरा लगा। उसने सूरदास को सबक सिखाने का निश्चय किया और एक रात उसने चुपके से दियासलाई लगा दी। वह अपनी करतूत को जगधर के सामने स्वीकार भी कर लेता है- ‘कुछ हो, दिल की आग तो ठंडी हो गई।’ अर्थात् भैरों बदले की आग में जल रहा था। सूरदास की झोंपड़ी को आग लगाकर उसके अशांत मन को कुछ चैन मिला। वह झोंपड़ी में से सूरदास की जमा-पूँजी वाली थैली भी उड़ा लाया और इसे उसने सुभागी को बहका ले जाने का जुर्माना बताया। वह सूरदास को रोते हुए देखना चाहता था। उसने जगधर के सामने कहा भी – ‘जब तक उसे रोते न देखूँगा, दिल का काँटा न निकलेगा। जिसने मेरी आबरू बिगाड़ दी, उसके साथ जो चाहे करूँ, मुझे पाप नहीं लग सकता।’

प्रश्न 3.
यह फूस की राख नहीं, उसकी अभिलाषाओं की राख थी’ संदर्भ सहित विवेचन कीजिए।
अथवा

उत्तर :
सूरदास की झोपड़ी में भैरों ने आग लगा दी थी। झोपड़ी जलकर राख हो गई थी। झोपड़ी का फूस राख में परिवर्तित हो चुका था। सूरदास को झोपड़ी के जल जाने का उतना दु:ख न था जितना अपनी सारी जमा-पूँजी के नष्ट हो जाने का था। सूरदास फूस की राख में से अपनी उस पोटली को ढूँढ रहा था जिसमें उसके जीवन भर की जमा पूँजी (लगभग पाँच सौ रुपये) एकत्रित थी। उसने सारी राख को खंगाल डाला पर वह पोटली हाथ न आई। इसी प्रयास में उसका पैर सीढ़ी से फिसल गया और वह अथाह गहराई में जा पड़ा। वह राख पर बैठकर रोने लगा।

वह राख मानो उसकी अभिलाषाओं की राख थी अर्थात् उसके मन की सारी इच्छाएँ नष्ट होकर रह गईः। सूरदास ने इस संचित पूँजी से कई अभिलाषाओं की पूर्ति करने की बात मेन में सोच रखी थी। उसने इन रुपयों से पितरों को पिंडा देने का इादा किया था। उसकी यह भी अभिलाषा थी कि उसके पालित मिठुआ की कहीं सगाई ठहर जाए तो वह उसका ब्याह कर घर में बहू ले आए ताकि उसे बनी-बनाई रोटी खाने को मिल सके। वह एक कुआँ भी बनवाना चाहता था। वह ये सारे काम चुपचाप इस ढंग से करना चाहता था कि लोगों को आश्चर्य हो कि उसके पास इतने रुपए कहाँ से आए। राख में थैली के न मिलने पर उसकी अभिलाषाओं का अंत होता नजर आया। उसे लगा कि वह अपनी अभिलाषाओं की राख पर बैठा हुआ है।

प्रश्न 4.
जगधर के मन में किस तरह का ईष्य्या भाव जगा और क्यों?
उत्तर :
सूरदास की झोंपड़ी में आग लगने के अवसर पर जगधर ने मौके पर आकर सूरदास के साथ सहानुभूति प्रकट की। उसने सूरदास, नायकराम, ठाकुरदीन, बजरंगी आदि सभी को यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि इस आग के लगाने में उसका हाथ कतई नहीं है। भैरों की बातों से उसे यह विश्वास हो गया कि यह आग भैरों ने ही लगाई है। उसने चालाकी से भैरों से यह कबूल करवा लिया कि आग उसी ने लगाई है। जब भैरों ने उसे सूरदास की झोंपड़ी से उड़ाई वह थैली दिखाई जिसमें पाँच सौ से ज्यादा रुपए थे, तब जगधर के मन में ईर्ष्या का भाव जाग गया। उसे यह बात सहन नहीं हुई कि भैरों के हाथ इतने रुपए लग जाएँ। यदि भैरों उसे इसके आधे रुपए दे देता तो उसे तसल्ली हो जाती जगधर का मन आज खेंचा लगाकर गलियों में चक्कर लगाने न लगा।

उसकी छाती पर ईर्ष्या का साँप लोट रहा था-‘भैरों कं दम-के-दम में इतने रुपए मिल गए, अब यह मौज उड़ाएगा तकदीर इस तरह खुलती है। यहाँ कभी पड़ा हुआ पैसा भी = मिला। पाप-पुण्य की कोई बात नहीं। मैं ही कौन दिन भर पुन्न किया करता हूँ? दमड़ी छदाम कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ। बाट खोटे रखता हूँ तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचता हूँ। …. अब भैरों दो-तीन दुकानों का और ठेका ले लेगा। ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ जाता, तो जिंदगानी सफल हो जाती।’ यह सब सोचकर जगधर के मन में ईर्ष्या का अंकुर जम गया।

प्रश्न 5.
सूरदास जगधर से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त क्यों रखना चाहता था?
अथवा
‘सूरदास की झोंपड़ी’ कहानी में सूरदास अपनी आर्थिक हानि जगधर को क्यों नहीं बताना चाहता थ?
उत्तर :
सूरदास जगधर को अपनी जमा-पूँजी के बारे में नहीं बताना चाहता था। वह जान-बूझकर रुपयों की पोटली की बात को छिपा गया, जबकि जगधर को भैंरों से पता चल गया था कि उसने सूरदास की झोंपड़ी से जो थैली (पोटली) उड़ाई है उसमें पाँच सौ से अधिक रुपए हैं। जगधर ने सूरदास से कुरेद-कुरेद कर थैली के बारे में पूछा भी, पर सूरदास इससे साफ इंकार कर गया- “वह (भैरों) तुमसे हँसी करता होगा। साढ़े पाँच रुपए तो कभी जुड़े नहीं, साढ़े पाँच सौ कहाँ से आते ?” इसका कारण यह था कि सूरदास जगधर से अपनी आर्थिक हानि की बात को गुप्त रखना चाहता था। वह जानता था कि एक अंधे भिखारी के लिए दरिद्रता इतनी लज्जा की बात नहीं है, जितना धन का होना। भिखारियों के लिए धन-संचय पाप-संचय से कम अपमान की बात नहीं है। अतः वह कहता है-” मेरे पास थैली-वैली कहाँ? होगी किसी की। थैली होती, तो भीख माँगता ?”

प्रश्न 6.
‘सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।’ -इस कथन के संदर्भ में सूरदास की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
जब सूरदास ने घीसू द्वारा मिठुआ को चिढ़ाते हुए यह कहते सुना-‘खेल में रोते हो।’ तब सूरदास की मनोदशा में एकाएक परिवर्तन आ गया।
इससे पहले सूरदास अत्यंत दुःखी था। सूरदास कहाँ तो नैराश्य, ग्लानि, चिंता और क्षोभ के अपार जल में गोते खा रहा था, कहाँ यह चेतावनी सुनते ही उसे ऐसा मालूम हुआ, किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा कर दिया हो। वाह! मैं तो खेल में रोता हूँ। कितनी बुरी बात है। लड़के भी खेल में रोना बुरा समझते हैं, रोने वाले को चिढ़ाते हैं और मै खेल में रोता हूँ। सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाजी-पर-बाजी हारते हैं, चोट-पर-चोट खाते हैं, धक्के-पर धक्के सहते हैं पर मैदान में डटे रहते हैं, उनकी त्योरियों पर बल नहीं पड़ते। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती, दिल पर मालिन्य के छीटे भी नहीं आते, न किसी से जलते हैं न चिढ़ते हैं। खेल में रोना कैसा? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं।
सूरदास उठ खड़ा हुआ, और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।

प्रश्न 7.
‘तो हम सौ लाख बार बनाएँगे।’-इस कथन के संदर्भ में सूरदास के चरित्र का विवेचन कीजिए।
उत्तर :
इस कथन के आधार पर सूरदास के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ उभरती हैं :

  • कर्मशील व्यक्ति : सूरदासं एक कर्मशील व्यक्तित्व का स्वामी है। उसमें अपने कर्म के आधार पर विपत्तियों का सामना करने का साहस है।
  • हार न मानने वाला : सूरदास परिस्थिति से जुझने वाला है। वह एक बार झोंपड़ी के नष्ट हो जाने पर तब तक पुनः बनाने का संकल्प करता है जब तक नष्ट करने वाला थक न जाए।
  • सहनशील : सूरदास सहनशील व्यक्ति है। झोपड़ी जलने की घटना में उसका सब कुछ जलकर नष्ट हो जाता है, पर वह सब कुछ धर्यपूर्वक सह जाता है।
  • संकल्प का धनी : सूरदास अपने संकल्प का धनी है।
  • आशावान : सूरदास भविष्य के प्रति आशावान बना रहता है।

योग्यता विस्तार –

1. इस पाठ का नाद्य रूपांतर कर उसकी प्रस्तुति कीजिए।
2. प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का संक्षिप्त पढ़िए।
उत्तर :
ये काम विद्यार्थी स्वयं करेंगे। विद्यार्थी ‘रंगभूमि’ का संक्षिप्त संस्करण पढ़े।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antral Chapter 1 सूरदास की झोंपड़ी

प्रश्न 1.
सूरदास की विशेषता यह है कि झोंपड़ी जला दिये जाने के बावजूद भी वह किसी से प्रतिशोध लेने में विश्वास नहीं करता बल्कि पुनर्निर्माण में विश्वास करता है। क्या इस प्रकार का चरित्र आज के परिप्रेक्य्य में भी उचित है ? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर :
प्रतिशोध की भावना अधिकतर ऐसे व्यक्तियों में पाई जाती है जो शक्ति, सत्ता तथा पद की अभिलाषा से ओत-प्रोत होते हैं तथा कभी अपने आप को नीच नहीं होने देना चाहते। ऐसे व्यक्ति किसी नियम, परम्परा व सामाजिक व्यवस्था की परवाह नहीं करते। यदि समाज में ऐसे व्यक्ति अधिक हो जाएँगे तो सामाजिक व्यवस्था में अप्रतिकार्य ह्वास होगा तथा वह ध्वस्त हो जाएगी। समाज में विषमताएँ बढ़ जाएँगी तथा अधिकतर लोग कुंठित हो जाएँगे।

लोगों में क्षमा भाव, परोपकारिता व अन्य सार्वभौमिक मूल्यों का अभाव हो जाएगा। यह समाज को पतन की ओर ले जाएगा।

प्रतिशोध क्रोध के कारण उत्दन्न एक हिंसात्मक (शारीरिक अथवा मानसिक) प्रतिक्रिया है। यह पथ से भटके हुए व्यक्ति का वह प्रयास है जिसमें वह अपनी लज्जा को अपनी प्रतिष्ठा में बदलना चाहता है। प्रतिशोध से किसी को कभी भी लाभ नहीं पहुँचा है। यह केवल तंत्रिका-तंत्र में उत्पन्न होने वाली उत्तेजनाओं से प्राप्त होने वाले भ्रामक आनन्द जैसा होता है। इसलिए सभी मनुष्यों को ऐसी व्यवस्था स्थापित करने में सहायता करनी चाहिए जिसमें सभी जनों को समानता प्राप्त हो व समाज में प्रतिशोध की भावना समाप्त हो जाए।

प्रश्न 2.
जीवन में आगे बढ़ने हेतु सकारात्मक प्रवृत्ति की आवश्यकता है। इस तथ्य को न्यायसंगत ठहराने हेतु तर्क प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
जीवन की सार्थकता हेतु सकारात्मक चरित्र की आवश्यकता :

  • यदि हमारा चरित्र सकारात्मक होगा तो हम लक्ष्य प्राप्ति के लिए अधिक से अधिक प्रयास करने के लिए अभिप्रेरित रहेंगे।
  • यदि हमारा चरित्र सकारात्मक होगा तो कठिनाइयाँ, कठिनाइयाँ न होकर सीखने व आगे बढ़ने के अवसर बन जाएँगी।
  • हमारा आत्मविश्वास ऊँचा रहेगा तथा हम अपने आप में विश्वास रख सकेंगे।
  • यदि हम सकारात्मक हुए तो हमें तनाव कम होगा तथा हमारे अधिक मित्र होंगे। हम अपने कार्य से आनन्द प्राप्त कर सकेंगे।

प्रश्न 3.
(क) सूरदास अपनी आर्थिक हानि को क्यों गुप्त रखना चाहता था ? आपकी दृष्टि में क्या उसका ऐसा सोचना सही था ? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
(ख) उपर्युक्त पाठांश के आधार पर सूरदास के व्यक्तित्व का कौन-सा पक्ष आपको अच्छा प्रतीत होता है ?
उत्तर :
(क) सूरदास अपनी आर्थिक हानि को इसलिए गुप्त रखना चाहता था ताकि लोग उसके बारे में गलत धारणा न बना सकें। एक भिखारी के पास धन जमा होना लज्जाजनक स्ञ्थिति की परिचायक मानी जाती है। वह इस धन से अनेक कार्य संपन्न तो करना चाहता था, पर आकस्मिक ढंग से। वह पूरा श्रेय ईश्वर को देना चाहता था। उसका ऐसा सोचना सही था। सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाए रखना आवश्यक होता है।
(ख) सूरदास के व्यक्तित्व के अनेक पक्ष इस पाठ में उजागर होते हैं। हमें उसके व्यक्तित्व का यह पक्ष अच्छा प्रतीत होता कि वह लोक-लज्जा की परवाह करने वाला है। वह स्वार्थी एवं लालची नहीं है। वह तो दूसरों के लिए अपना संचित धन खर्च करना चाहता है। वह मान-अपमान की भी परवाह करता है। सामाजिकता की भावना का सम्मान करना उसके व्यक्तित्व का उजला पक्ष है।

प्रश्न 4.
(क) जगधर ने भैरों को क्या सलाह दी थी ? इसके पीछे उसकी क्या भावना थी ? क्या इसे उचित मानते हैं ?
(ख) इस पाठांश के आधार पर भैरों के चरित्र की कौन-सी प्रवृत्ति उभरकर सामने आती है ? आपकी दृष्टि में क्या यह उचित है ? तर्क दीजिए।
उत्तर :
(क) जगधर ने भैरों को यह सलाह दी थी कि सूरदास के रुपयों को लौटा दो क्योंकि यह उसकी मेहनत की कमाई है। यद्यपि उसकी यह सलाह सर्वथा उचित थी, पर इस समय उसने यह सलाह ईर्य्यावश और स्वार्थ के वशीभूत होकर दी थी। वह यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था कि भैरों के हाथ अनायास इतना ध न लग जाए। वह भी अपना हिस्सा चाहता था। हमारी दृष्टि में यह कतई उचित नहीं है। उसे भैरों पर दबाव डालकर सूरदास का ध न लौटवाना चाहिए था।
(ख) इस पाठांश के आधार पर कहा जा सकता है कि भैरों के चरित्र का काला पक्ष उभरता है। वह बदला लेने के लिए किसी भी सीमा तक गिर सकता है। उसमें लोभ की प्रवृत्ति भी है। हमारी दृष्टि में भैरों के चरित्र की स्वार्थी एवं लोभी प्रवृत्ति सर्वथा अनुचित है। उसे अंधे सूरदास के रुपए लौटा देने चाहिए थे। इससे उसका दु:ख कम हो जाता।

प्रश्न 5.
सूरदास झोंपड़े में लगी आग के समय लोगों के चले जाने के बाद कहाँ बैठा हुआ था ? वह क्या सोच उत्तर :
सूरदास के झोपड़े में आग लग गई थी। इस अवसर पर अनेक लोग जमा हो गए थे। वे कुछ देर वहीं रुके रहे। बाद में सब लोग इस दुर्घटना पर आलोचनाएँ करते हुए विदा हुए। सन्नाटा छा गया किंतु सूरदास अब भी वहीं बैठा हुआ था। उसे झोंपड़े के जल जाने का दु:ख न था, बरतन आदि के जल जाने का भी दुःख न था; दुःख था उस पोटली का, जो उसकी उम्र-भर की कमाई थी, जो उसके जीवन की सारी आशाओं का आधार थी, जो उसकी सारी यातनाओं और रचनाओं का निष्कर्ष थी। इस छोटी-सी पोटली में उसका, उसके पितरों का और उसके नामलेवा का उद्धार संचित था।

यही उसके लोक और परलोक, उसकी दीन-दुनिया का आशा-दीपक थी। उसने सोचा-पोटली के साथ रुपये थोड़े ही जल गए होंगे ? अगर रुपये पिघल भी गए होंगे तो चाँदी कहाँ जाएगी ? क्यश जानता था कि आज यह विपत्ति आने वाली है, नहीं तो यहीं न सोता। पहले तो कोई झोंपड़ी के पास आता ही न और अगर आग लगाता भी, तो पोटली को पहले से निकाल लेता। सच तो यों हैं कि मुझे यहाँ रुपए रखने ही न चाहिए थे पर रखता कहाँ ? मुहल्ले में ऐसा कौन है, जिसे रखने को देता ? हाय । पूरे पाँच सौ रुपये थे, कुछ पैसे ऊपर हो गए थे। क्या इसी दिन के लिए पैसे-पैसे बटोर रहा था ? खा लिया होता, तो कुछ तस्कीन होती।

क्या सोचता था और क्या हुआ ! गया जाकर पितरों को पिंड देने का इरादा था। अब उनसे कैसे गला छूटेगा ? सोचता था, कहीं मिटुआ की सगाई ठहर जाए, तो कर डालूँ। बहु घर में आ जाए, तो एक रोटी खाने को मिले ! अपने हाथों ठोंक-ठोंकर खाते एक जुग बीत गया। बड़ी भूल हुई। चाहिए था कि जैसे-जैसे हाथ में रुपये आते, एक-एक काम पूरा करता जाता। बहुत पाँव फैलाने का यही फल है।

प्रश्न 6.
सूरदास की झोपड़ी में आग किसने लगाई, यह जानने को जगधर क्यों बेचैन था ? झोपड़ी जल जाने पर भी सूरदास का किसी से प्रतिशोध न लेना क्या इंगित करता है? अपना अनुमान बताइए।
उत्तर :
सूरदास की झोंपड़ी में आग भैरों ने लगाई थी। भैरों सूरदास से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। उसे सूरदास के रुपयों का भी लोभ था। अतः उसने रुपए चुराने के बाद झोंपड़ी में आग लगा दी। जगधर आग लगाने वाले के बारे में जानने के लिए इसलिए बेचैन था क्योंकि उसे सूरदास के यहाँ रखे हुए पाँच सौ रुपए की चिंता हो रही थी।

वह सोच रहा था कि वे रुपए अब भैरों अकेले ही हड़प लेगा। वह भैरों के पास सूरदास के पाँच सौ से अधिक रुपए देखकर ईर्ष्यालु हो जाता है, उसकी छाती पर ईर्ष्या। का साँप लोट रहा था-” भैरों को दम के दम इतने रुपये मिल गए। अब यह मौज उड़ाएगा … ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ पाता तो जिंदगी सफल बन जाती।” झोंपड़ी जल जाने पर भी सूरदास किसी से प्रतिशोध नहीं लेना चाहता था। वह किसी पर यह प्रकट नहीं करता था कि उसके पास पाँच सौ से अधिक रुपए थे। एक भिखारी के पास धन का होना लज्जा की बात माना जाता है। वैसे सूरदास संतोषी स्वभाव का था।

प्रश्न 7.
‘सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा’-इस कथन के संदर्भ में सूरदास की मनोदशा का वर्णन अपने ढंग से कीजिए।
उत्तर :
जब सूरदास की झोपड़ी जल गई थी तब सूरदास नैराश्य, ग्लानि, चिंता और क्षोभ के सागर के जल में गोता खा रहा था। तब वह अत्यंत दुखी था। झोपड़ी जल जाने का उसे इतना दुख न था जितना दुख उस पोटली का था, जिसमें उसकी उम्रभर की कमाई थी। यही पोटली उसके जीवन की सारी आशाओं का आधार थी, उसकी सारी यातनाओं का निष्कर्ष थी।

तभी उसे घीसू का मिठुआ को यह कहते सुनाई पड़ा-‘ खेल में रोते हो।’ यह चेतावनी सुनते ही सूरदास को ऐसा मालूम हुआ जैसे किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा कर दिया हो। उसे लगा कि यह जीवन भी तो एक खेल है और मैं इस खेल में रो रहा हूँ अर्थात् दुखी हो रहा हूँ। सच्चे खिलाड़ी कभी नहीं रोते, बाजी-पर बाजी हारते हैं, चोट-पर-चोट खाते हैं, ध क्के-पर-धक्के सहते हैं, पर मैदान में डटे रहते हैं। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती, दिल पर मालिन्य के छींटे भी नही आते, न किसी से जलते हैं, न चिढ़ते हैं। खेल में रोना कैसा ? खेल हँसने के लिए है, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं।

इस प्रतीति ने सूरदास को उत्साह से भर दिया। वह उठ खड़ा हुआ और विजय-गर्व की तरंग के साथ झोंपड़ी की राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा। अब उसकी मनोदशा उस खिलाड़ी के समान हो गई जो एक बार हारने के बाद पुन: पूरे उत्साह से खेल जीतने के लिए कमर कस लेता है।

प्रश्न 8.
‘तो हम सौ लाख बार बनाएँगे ‘-इस कथन के संदर्भ में सूरदास के चरित्र की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
जब सूरदास का पालित मिठुआ उससे पूछता है कि क्या हम बार-बार झोपड़ी बनाते रहेंगे तब सूरदास ‘हाँ’ में उत्तर देता है। अंत में मितुआ पूछ्ता है-और जो कोई सौ लाख बार (आग) लगा दे ? तब सूरदास उसी बालोचित सरलता से उत्तर देता है-“तो हम भी सौ लाख बार बनाएँगे।”
उपर्युक्त कथन के आधार पर सूरदास के चरित्र का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है :

सूरदास में निर्णय लेने की क्षमता है। वह विषम परिस्थितियों में थोड़ी देर के लिए विचलित अवश्य होता है, पर शीघ्र ही उबर आता है और सृजन करने का निर्णय ले लेता है। वह नई झोपड़ी बनाने की दिशा में प्रयत्नशील हो जाता है। सूरदास के व्यक्तित्व में हार न मानने की प्रवृत्ति है। वह अपने शत्रुओं के समक्ष हार नहीं मानता। वह अपनी धुन का पक्का है। वह उनसे तब तक लड़ना चाहता है जब तक वे हार न मान जाएँ। सूरदास कर्मशील है। वह काम करने में विश्वास रखता है। तभी तो वह रोने-पीटने में समय गँवाने के स्थान पर पुन: झोंपड़ी बनाने के काम में जुट जाता है। सूरदास के मन में प्रतिशोध लेने की भावना नहीं है। वह सब कुछ जानकर भी किसी को इस दुर्घटना के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराता। वह सारी मुसीबत स्वयं झेल जाता है।

प्रश्न 9.
‘सूरदास की झोंपड़ी’ का कथ्य क्या है?
उत्तर :
‘सूरदास’ प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का मुख्य पात्र है। वह अंधा है तथा भिक्षा माँगकर अपना भरण-पोषण करता है। उसके एक बालक मिटुआ भी रहता है। उसे गाँव के जगधर और भैरों अपमानित करते रहते हैं। भैरों की पत्नी का नाम सुभागी है। भैरों उसे मारता-पीटता है। अतः वह वहाँ से भागकर सूरदास की झोंपड़ी में शरण ले लेती है। भैरों उसे मारने सूरदास की झोपड़ी में घुस आता है किंतु सूरदास के हस्तक्षेप के कारण उसे मार नहीं पाता। इस घटना को लेकर पूरे मोहल्ले में सूरदास की बदनामी होती है। जगधर और भैरों सूरदास के चरित्र पर उंगली उठाते हैं।

इस घटनाचक्र से सूरदास फूट-फूटकर रोता है। जगध भैरों को उकसाता है क्योंकि वह सूरदास से ईर्ष्या करता है। सूरदास और सुभागी के संबंधों को लेकर पूरे मोहल्ले में हुई बदनामी से भैरों स्वयं को अपमानित करता है और बदला लेने का निश्चय करता है। एक दिन वह सूरदास के रूपयों की थैली उठा लाता है तथा रात को उसकी झोपड़ी में आग लगा देता है। सूरदास के चरित्र की यह विशेषता है कि वह झोपड़ी जला दिए जाने के बावजूद किसी से प्रतिशोध लेने में विश्वास नहीं करता और झोंपड़ी के पुनर्निर्माण में जुट जाता है।

प्रश्न 10.
सूरदास ने अपनी रुपयों की पोटली को बूँढने का क्या उपाय किया? उसके हाथ क्या-क्या चीजें लगी?
उत्तर :
जब लोग चले गए, तब सूरदास ने अपनी रुपयों की पोटली को ढूँढने का विचार किया। वह इसके उपाय में जुट गया। उस समय तक राख ठंडी हो चुकी थी। सूरदास अटकल से द्वार की ओर से झोंपड़े में घुसा; पर दो-तीन पग के बाद एकाएक पाँव भूबल (गर्म राख) में पड़ गया। ऊपर राख थी, लेकिन नीचे आग। तुर्त पाँव खींच लिया और अपनी लकड़ी से राख को उलटने-पलटने लगा, जिससे नीचे की आग भी जल्द राख हो जाए। आध घंटे में उसने सारी राख नीचे से ऊपर कर दी, और तब फिर डरते-डरते राख में पैर रखा। राख गरम थी, पर असह्म न थी।

उसने उसी जगह की सीध में राख को टटोलना शुरू किया, जहाँ छप्पर में पोटली रखी थी। उसका दिल धड़क रहा था। उसे विश्वास था कि रुपये मिलें या न मिलें, पर चाँदी तो कहीं गई ही नहीं। सहसा वह उछल पड़ा, कोई भारी चीज हाथ लगी। उठा लिया; पर टटोलकर देखा, तो मालूम हुआ इंट का टुकड़ा है। फिर टटोलने लगा, जैसे कोई आदमी पानी में मछलियाँ टटोले। कोई चीज हाथ न लगी। तब तो उसने नैराश्य की उतावली और अधीरता के साथ सारी राख छान डाली। एक-एक मुट्ी राख हाथ में लेकर देखी। लोटा मिला, तवा मिला, किंतु पोटली न मिली। उसका वह पैर, जो अब तक सीढ़ी पर था, फिसल गया और अब वह अथाह गहराई में जा पड़ा। उसके मुख से सहसा एक चीख निकल आई। वह वहीं राख पर बैठ गया और बिलख-बिलखकर रोने लगा। यह फूस की राख न थी, उसकी अभिलाषाओं की राख थी। अपनी बेबसी का इतना दु:ख उसे कभी न हुआ था।

प्रश्न 11.
सुभागी के चरित्र पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
सुभागी ‘रंगभूमि’ उपन्यास की गौण स्त्री पात्र है, पर उसका चरित्र अन्य गौण पात्रों में सर्वाधिक उभरकर सामने आता हैं। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. उपेक्षित एवं तिरस्कृतः सुभागी भैरों पासी की पत्नी है। वह पांडेपुर गाँव की एक नारी है। उसके पति की ताड़ी की दुकान है। वह खुद भी ताड़ी पीता है और नशे में चूर होकर पत्नी सुभागी को पीटकर अपना पुरुषार्थ दिखाता है। सुभागी की सास भी कम नहीं है। वह उसकी चाहे जितनी सेवा करे, हमेशा तुनकी ही रहती है। वह भैरों को सिखाकर दिन में एक बार सुभागी को पिटवाकर ही दम लेती है। सुभागी पति और सास दोनों से त्रस्त है, दोनों से उपेक्षित और तिरस्कृत। वह पति और सास से ऐसे ही काँपती है, जैसे कसाई से गाय। पति और सास को खिलाकर बचा-खुचा, रूखा-सूखा स्वयं खाती है, फिर भी उसे ताने-उलाहने सुनने पड़ते हैं, “न जाने इस चुड़ैल का पेट है या भाड़।”

2. पीड़ित एवं व्यथित : निरीह सुभागी अपना दुखड़ा किसके सामने रोए? उसकी व्यथा-कथा को सुनकर कौन उसके प्रति संवेदना प्रकट करेगा? वह अनपढ़ है, गँवार है और एक साध रण स्त्री है। वह चुपचाप सारी पीड़ा और भर्त्सना आँचल में मुँह छिपाए पीती रहती है और भीतर ही भीतर घुटती रहती है। वह उस नारी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जो अपने दांपत्य जीवन के वैषम्य के कारण दुखी और पीड़ित है। यह वर्ग अपनी मर्म-व्यथा का एक शब्द भी नहीं बोल सकता। प्याज न मिलने पर उसका पति भैरों गरजता है- “क्या मुझे बैल समझती है, कि भुने हुए मटर लाकर रख दिए, प्याज क्यों नहीं लाई?”

3. चारित्रिक दृढ़ता : मार-पीट के बावजूद सुभागी के चरित्र में कोई स्खलन दिखाई नहीं देता। पति के दुर्य्यवहार के बाद भी वह उसकी मंगल-कामना ही करती है। वह सूरदास का आश्रय अपनी इज्जत आबरू बचाने के लिए लेती है। ………… लेकिन मेरी आबरू कैसे बचेगी? है कोई मुहल्ले में ऐसा, जो किसी की इज्जत आबरू जाते देखे, तो उसकी बाँह पकड़ ले।”

4. कृतज्ञता का भाव-अनपढ़ और गँवार है तो क्या, सुभागी में मनुष्यता का गुण विद्यमान है। उसमें कृतज्ञा की भावना है। सुभागी के आड़े अवसर पर सूरदास ही काम आता है। इसलिए सूरदास के प्रति उसके मन में कृतज्ञता का भाव है। जब उसे पता चलता है कि भैरों ने सूरदास के रुपयों की थैली चुराई है तब वह निश्चय करती है-अब चाहे वह मुझे मारे या निकाले; पर रहूँगी उसी के घर। कहाँ-कहाँ थैली को छिपाएगा? कभी तो मेरे हाथ लगेगी। मेरे ही कारण इस पर बिपत पड़ी है। मैंने ही उजाड़ा है, मैं ही बसाऊँगी। जब तक इसके रुपये न दिला दूँगी। मुझे चैन न आएगा।”

प्रश्न 12.
जब सूरदास की झोपड़ी में आग लगी, तब वहाँ क्या दृश्य उपस्थित हो गया?
उत्तर :
जब सूरदास की झोंपड़ी में आग लगी उस समय रात के दो बजे होंगे कि अकस्मात सूरदास की झोपड़ी में ज्वाला उठी। लोग अपने-अपने द्वारों पर सो रहे थे। निद्रावस्था में भी उपचेतना जागती रहती है। दम-के-दम में सैकड़ों आदमी जमा हो गए। आसमान पर लाली छाई हुई थी, ज्वालाएँ लपक-लपककर आकाश की ओर दौड़ने लगीं। कभी उनका आकार किसी मंदिर के स्वर्ण-कलश का सा हो जाता था, कभी वे वायु के झोंकों से यों कंपित होने लगती थीं, मानो जल में चाँद का प्रतिबिम्ब है। आग बुझाने का प्रयत्न किया जा रहा था पर झोंपड़े की आग, ईष्ष्या की आग की भॉँत कभी नहीं बुझती। कोई पानी ला रहा था, कोई यों ही शोर मचा रहा था किंतु अधिकांश लोग चुपचाप खड़े नैराश्यपूर्ण दृष्टि से अग्निदाह को देख रहे थे, मानो किसी मित्र की चिताग्नि है। सहसा सूरदास दौड़ा हुआ आया और चुपचाप ज्वाला के प्रकाश में खड़ा हो गया।

प्रश्न 13.
सुभागी ने जगधर पर क्या व्यंग्य किया और उसने उसका क्या उत्तर दिया?
उत्तर :
जब जगधर ने भैरों की करतूत के बारे में बताया तो सुभागी ने व्यंग्य करते हुए कहा कि तुम्हीं तो उसके गुरु हो। तुम्हीं ने उसे यह सब करना सिखाया है। तब जगधर बोला-हाँ, यही मेरा काम है, चोरी-डाका न सिखाऊँ, तो रोटियाँ क्योंकर चलें। सुभागी ने फिर व्यंग्य किया-रात ताड़ी पीने को नहीं मिली क्या?

जगधर-ताड़ी के बदले क्या अपना ईमान बेच दूँगा? जब तक समझता था, भला आदमी है, साथ बैठता था, हँसता-बोलता था, ताड़ी भी पी लेता था, कुछ ताड़ी के लालच से नहीं जाता था (क्या कहना है, आप ऐसे धर्मात्मा तो हैं!) लेकिन आज से कभी उसके पास बैठते देखा, तो कान पकड़ लेना। जो आदमी दूसरों के घर में आग लगाए, गरीबों के रुपए चुरा ले जाए, वह अगर मेरा बेटा भी हो तो उसकी सूरत न देखूँ। सूरदास ने न जाने कितने जतन से पाँच सौ रुपये बटोरे थे। वह सब उड़ा ले गया। कहता हूँ लौटा दो, तो लड़ने पर तैयार होता है।

प्रश्न 14.
अंधे भिखारी के लिए क्या बात लज्जा की है? सूरदास अपने रुपयों से क्या-क्या काम करना चाहता था?
उत्तर :
अंधे भिखारी के लिए दरिद्रता इतनी लज्जा की बात नहीं है, जितना धन। सूरदास जगधर से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त रखना चाहता था। वह गया जाकर पिंडदान करना चाहता था, मिठुआ का ब्याह करना चाहता था, कुआँ बनवाना चाहता था, किंतु इस ढंग से कि लोगों को आश्चर्य हो कि इसके पास रुपए कहाँ से आए, लोग यही समझें कि भगवान दीनजनों की सहायता करते हैं। भिखारियों के लिए धन-संचय पाप-संचय से कम अपमान की बात नहीं है। वह बोला-मेरे पास थैली-वैली कहाँ? होगी किसी की। थैली होती, तो भीख माँगता? वह मन में यह भी सोच रहा था कि उसे एक-एक काम को बारी-बारी से करते जाना चाहिए, सभी कामों को एक साथ एकत्रित नहीं कर लेना चाहिए था।

प्रश्न 15.
‘सूरदास की झोपड़ी’ पाठ के आधार पर सूरदास का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर :
‘सूरदास की झोंपड़ी’ पाठ प्रेमचंद द्वारा रचित उपन्यास रंगभूमि का एक अंश है। इस उपन्यास का नायक सूरदास है। वह उपन्यास की ऐसी केन्द्रीय धूरी है, जिसके इर्द-गिर्द समस्त कथाचक्र घूमता है। सूरदास दृष्टिहीन एवं गरीब है। वह सारी जिंदगी भीख माँगकर अपना जीवन-यापन करता है। उसने लगभग 500 रु. की पूँजी भी एकत्रित कर ली, जिसे वह पोटली में बाँधकर रखता था। सूरदास सद्दादय व्यक्ति है। वह एक अनाथ बालक मिटुआ का पालन-पोषण करता है। जब भैंरो अपनी पत्नी सुभागी को मारता-पीटता है तब सूरदास उसे अपनी झोंपड़ी में आश्रय देता है। उसकी इसी सद्ददयता का गलत अर्थ लगाया जाता है और उसकी झोपड़ी को आग लगा दी जाती है।

सूरदास आत्मविश्वासी है। वह मिठुआ से कहता भी है-“‘हम दूसरा घर बनाएँगे ……. सौ लाख बार बनाएँगे।” सूरदास सहनशील व्यक्ति है। झोंपड़ी में आग लग जाने में उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है, पर वह सारा नुकसान घैर्यपूर्वक सह जाता है। सूरदास भविष्य के प्रति आशावान बना रहता है। वह सब कुछ पुनः ठीक हो जाने की आशा बनाए रखता है।

प्रश्न 16.
इस कहानी के घटनाक्रम के आधार पर जगधर की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जगधर एक दोहरे चरित्र वाला व्यक्ति है। एक ओर वह भैरों को सूरदास के विरुद्ध उकसाता है तो दूसरी ओर सूरदास का भला बनता है। सूरदास की झोंपड़ी में आग लगने पर वह अपनी सफाई देते हुए कहता है- “मुहल्लेवाले तुम्हें भड़काएँगे, पर मैं भगवान से कहता हूँ, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता।” दूसरी ओर वह भैरों की शरारत को समझ जाता है। वह उसे उत्साह देता है- “मेरी सलाह है कि रुपये उसे लौटा दो। बड़ी मसक्कत की कमाई है। हजम न होगी।”

पर जगधर ने यह सलाह नेकनीयती से नहीं दी थी। उसे भैरों से ईर्ष्या हो रही थी। उसे यह असह्म था कि भैरों के हाथ इतने रुपए लग जाएँ। यदि भैरों आधे रुपये उसे भी दे देता तो चैन पड़ जाता। पर भैरों से यह आशा नहीं की जा सकती थी। जगधर की छाती पर साँप लोट रहा था। वह भैरों के भाग्य से चिढ़ रहा था कि अब वह मौज उड़ाएगा। वह अपनी स्थिति का विश्लेषण करता है- “मैं ही कौन-सा दिनभर पुन्न (पुण्य) करता हूँ। दमड़ी-छदाम कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ (कम तौलता हूँ)। बाट खोटे रखता हूँ। तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँवाने पर भी कुछ हाथ नहीं लगता। अब तक जगधर के मन में ईर्ष्या का अंकुर जम चुका था। उसने सूरदास के पास भैरों द्वारा पोटली चुराए जाने की बात कही। सूरदास ने लज्जावश उस थैली को अपना मानने से इंकार कर दिया। फिर वह सुभागी को भड़काता है-” सुभागी, कहाँ जाती है? देखी अपने खसम की करतूत, बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।” इस प्रकार जगधर इधर से उधर लगाता फिरता है।

प्रश्न 17.
‘सूरदास की झोंपड़ी’ पाठ के आधार पर भैरों का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर :
‘सूरदास की झोंपड़ी’ पाठ में भैरों वह प्रमुख पात्र है. जिसे खलनायक कहा जा सकता है। वह सूरदास से ईष्य्याभाव रखता है और अपनी जलन शांत करने के लिए सूरदास को तरह-तरह से परेशान करता है। उसका चरित्र-चित्रण निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है-
1. संवदेनहीन एवं क्रूर : भैरों क्रूर एवं संवेदनहीन व्यक्ति है। वह अपनी पत्नी की भावनाओं का आदर नहीं करता है। वह अपनी पत्नी सुभागी के साथ अक्सर मार-पीट करता है, जिससे बचने के लिए वह सूरदास की झोंपड़ी में शरण लेती है।

2. ईर्ष्यालु : भैरों को सूरदास और उसकी कमाई से घोर ईर्य्या है। वह सूरदास के बारे में जगधर को बताते हुए कहता है-” वह पाजी रोज राहगीरों को ठगकर पैसे लाता है और थाली भरता है। बच्चू को इन्हीं पैसों की गरमी थी जो अब निकल जाएगी। अब मैं देखता हूँ कि किसके बल पर उछलता है।”

3. चोर : भैरों चोरी के काम में भी निपुण है। वह सूरदास की झोपड़ी में धरन के ऊपर रखी रुपयों की पोटली चुरा लेता है, जिसका सूरदास को पता भी नहीं लग पाता है। यही पोटली सूरदास के जीवनभर की कमाई थी।

4. शक्की स्वभाव वाला : भैरों शक्की स्वभाव वाला व्यक्ति है। वह अपनी पत्नी सुभागी और सूरदास के बीच संबंध को अनैतिक मानकर शक करता है और इसी शक के आधार पर सूरदास की झोपड़ी में आग लगा देता है।

5. दुर्विचार रखने वाला : भैरों के विचार एवं भाव भी अच्छे नहीं हैं। वह सूरदास के बारे में कहता है-वह गरीब है। अंधा होने से ही गरीब हो गया? जो आदमी दूसरों की औरतों पर डोरे डाले, जिसके पास सैकड़ों रुपये जमा हो, जो दूसरों को रुपये उधार देता हो, वह गरीब है?…जब तक उसे रोते हुए न देखूँगा, यह काँटा न निकलेगा। जिसने मेरी आबरू बिगाड़ दी, उसके साथ जो चाहे करूँ, मुझे पाप नहीं लग सकता।

प्रश्न 18.
सूरदास की झोपड़ी में आग किसने लगाई, यह जानने को जगथर क्यों बेचैन था ? झोंपड़ी जल जाने पर भी सूरवास का किसी से प्रतिशोध न लेना क्या इंगित करता है ? पाठ के आधार पर समझाइए।
उत्तर :
सूरदास की झोंपड़ी में आग भैरों ने लगाई थी। भैरों सूरदास से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। उसे सूरदास के रुपयों का भी लोभ था। अतः उसने रुपए चुराने के बाद झोंपड़ी में आग लगा दी। जगधर आग लगाने वाले के बारे में जानने के लिए इसलिए बेचैन था क्योंकि उसे सूरदास के यहाँ रखे हुए पाँच सौ रुपए की चिता हो रही थी। वह सोच रहा था कि वे रुपए अब भैरों अकेले ही हड़प लेगा। वह भैरों के पास सूरदास के पाँच सौ से अधिक रुपए देखकर ईर्ष्यालु हो जाता है, उसकी छाती पर ईर्ष्या का साँप लोट रहा था-” भैंरो को दम के दम इतने रुपये मिल गए। अब यह मौज उड़ाएगा …. ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ पाता तो जिंदगी सफल बन जाती।”

झोपड़ी जल जाने पर भी सूरदास किसी से प्रतिशोध नहीं लेना चाहता था। वह किसी पर यह प्रकट नहीं करता था कि उसके पास पाँच सौ से अधिक रुपए थे। एक भिखारी के पास धन का होना लज्जा की बाक्माना जाता है। वैसे सूरदास संतोषी स्वभाव का था।

प्रश्न 19.
‘सूरदास की झोंपड़ी’ उपन्यास अंश में ईर्ष्या, चोरी, ग्लानि, बदला जैसे नकारात्मक मानवीय पहलुओं पर अकेले सूरदास का व्यक्तित्व भारी पड़ता है। जीवन-मूल्यों की दृष्टि से इस कथन पर विचार कीजिए।
उत्तर :
‘सूरदास की झोंपड़ी’ उपन्यास अंश में बताया गया है कि कुछ व्यक्ति सूरदास से ईष्या करते हैं, उसके रुपयों की चोरी करते हैं तथा उससे बदला लेने का प्रयास करते हैं। भैरों इन सबमें अग्रणी है। भैरों ने जगधर को सूरदास के रुपयों की थैली दिखाते हुए कहा सूरदास ने इसे बड़े जतन से धरू की आड़ में रखा हुआ था। पाजी रोज़ राहगीरों को ठग-ठगकर पैसे लाता था और इसी थैली में रखता था। मैंने गिने हैं। पाँच सौ से ऊपर हैं। न जाने कैसे इतने रुपए जमा हो गए।

बच्चू को इन्हीं रुपयों की गरमी थी। अब गरमी निकल गई। अब देखूँ किस बल पर उछलते हैं। जगधर की छाती पर साँप लोट रहा था। वह भैरों के भाग्य से चिढ़ रहा था कि अब वह मौज उड़ाएगा। वह अपनी स्थिति का विश्लेषण करता है-” मैं ही कौन-सा दिनभर पुन्न (पुण्य) करता हूँ। दमड़ी-छदाम कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ (कम तौलता हूँ)। बाट खोटे रखता हूँ। तेल की मिठाई घी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँवाने पर भी कुछ हाथ नहीं लगता।”

अब तक जगधर के मन में ईष्य्या का अंकुर जम चुका था। उसने सूरदास के पास भैरों द्वारा पोटली चुराए जाने की बात कही। सूरदास ने लज्जावश उस थैली को अपना मानने से इंकार कर दिया। फिर वह सुभागी को भड़काता है- “सुभागी, कहाँ जाती है? देखी अपने खसम की करतूत, बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।” उपर्युक्त नकारात्मक मानवीय पहलुओं पर अकेले सूरदास का व्यक्तित्व भारी पड़ता है। सूरदास सारी विषम परिस्थितियों का सामना साहस व धैर्य के साथ करता है। सूरदास परोपकारी, सहृदय एवं उदारमना है। वह अन्याय सहकर भी भैरों की मार से बचाने के लिए सुभाग को अपनी झोपड़ी में शरण देता है। सूरदास गाँधीवादी विचारधारा की प्रतिमूर्ति है। क्षीणकाय, दीन-दुर्बल, सरलमना सूरदास अपने आत्मबल के सहारे ईर्ष्या, अन्याय के विरुद्ध अंतत: सफलता प्राप्त करता है।

प्रश्न 20.
‘सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।’-इस कथन के संदर्भ में सूरदास की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
जब सूरदास ने घीसू द्वारा मिठुआ को चिढ़ाते हुए यह कहते सुना-‘ खेल में रोते हो।’ तब सूरदास की मनोदशा में एकाएक परिवर्तन आ गया।
इससे पहले सूरदास अत्यंत दुखी था।
सूरदास कहाँ तो नैराश्य, ग्लानि, चिंता और क्षोभ के अपार जल में गोते खा रहा था, कहाँ यह चेतावनी सुनते ही उसे मालूम हुआ किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा कर दिया हो। वाह ! मैं तो खेल में रोता हूँ। कितनी बुरी बात है। लड़के भी खेल में रोना बुरा समझते हैं, रोने वाले को चिढ़ाते हैं और मैं खेल में रोता हूँ। सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाजी-पर-बाजी हारते हैं, चोट-पर-चोट खाते हैं, धक्के-पर-चक्के सहते हैं, पर मैदान में डटे रहते हैं, उनकी त्योरियों पर बल नहीं पड़ते। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती, दिल पर मालिन्य के छींटे भी नहीं आते, न किसी से जलते हैं न चिढ़ते हैं। खेल में रोना कैसा ? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं।
सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।

प्रश्न 21.
“खेल में रोना कैसा ? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं।” इस कथन के आलोक में सूरदास का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर :
इस कथन के आधार पर सूरदास के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ उभरती हैं :

  • कर्मशील व्यक्ति : सूरदास एक कर्मशील व्यक्तित्व का स्वामी है। उसमें अपने कर्म के आधार पर विपत्तियों का सामना करने का साहस है।
  • हार न मानने वाला : सूरदास परिस्थिति से जूझने वाला है। वह एक बार झोंपड़ी के नष्ट हो जाने पर तब तक पुनः बनाने का संकल्प करता है जब तक नष्ट करने वाला थक न जाए।
  • सहनशील : सूरदास सहनशील व्यक्ति है। झोंपड़ी जलने की घटना में उसका सब कुछ जलकर नष्ट हो जाता है, पर वह सब कुछ धैर्यपूर्वक सह जाता है।
  • संकल्प का धनी : सूरदास अपने संकल्प का धनी है।
  • आशावान : सूरदास भविष्य के प्रति आशावान बना रहता है।

सूरदास सह्ददय क्यक्ति है। वह एक अनाथ बालक मिठुआ का पालन-पोषण करता है। जब भैंरो अपनी पत्नी सुभागी को मारता-पीटता है तब सूरदास उसे अपनी झोंपड़ी में आश्रय देता है। उसकी इसी सहायता का गलत अर्थ लगाया जाता है और उसकी झोंपड़ी को आग लगा दी जाती है।
सूरदास आत्मविश्वासी है। वह मिटुआ से कहता भी है-” हम दूसरा घर बनाएँगे ….. सौ लाख बार बनाएँगे।”
सूरदास सहनशील व्यक्ति है। झोंपड़ी में आग लग जाने में उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है, पर वह सारा नुकसान धैर्यपूर्वक सह जाता है।

प्रश्न 22.
“सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाजी पर बाजी हारते हैं, चोट पर चोट खाते हैं, धक्के पर धक्के सहते हैं पर मैदान में डटे रहते हैं।” ‘सूरदास की झोपड़ी’ पाठ का यह कथन पाठकों को क्या संदेश देता है? अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
घीसू का यह वाक्य ‘मिठुआ खेल में रोते हो’, सूरदास को अंदर तक झकझोर गया। वह चिंता, शोक तथा ग्लानि से मुक्त हो उठ खड़ा हुआ। उसे लगा सच्चे खिलाड़ी कभी नहीं रोते, बाजी पर बाजी हारते हैं, चोट पर चोट खाते हैं, धक्के सहते हैं, पर मैदान में डटे रहते हैं। किसी से न जलते हैं, न चिढ़ते हैं। हिम्मत व धैर्य से काम लेते हैं। जिंदगी खेल है हँसने के लिए. दिल बहलाने के लिए, रोने के लिए नहीं। हमें भी जीवन को खेल समझकर खेलना है, इसमें निराशा कुंठा का कोई स्थान नहीं। हमें भी सूरदास की तरह सच्चा खिलाड़ी बनकर निराशा में आशा का दामन नहीं छोड़ना है। किसी से ईर्ष्या एवं जलन नहीं करनी अपितु साहस से विपत्ति और विषम परिस्थितियों का सामना करना चाहिए। भगवान उसकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता खुद करता है। कर्म द्वारा जीवन-संग्राम को जीतना चाहिए। सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलकर जीवन को सफल बनाना चाहिए।

प्रश्न 23.
सूरवास की झोंपड़ी में आग किसने और क्यों लगाई? झोपड़ी जलने के बाद सूरदास की मनोदशा पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
सूरदास की झोपड़ी में आग भैरों ने लगाई थी। भैरों ने सूरदास की झोपड़ी में आग इसलिए लगाई क्योंकि वह सूरदास से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। सूरदास ने भैरों की पत्नी सुभागी को अपनी झोंपड़ी में छिपाकर रखा था। भैरों सुभागी को पीटने पर उतारू था। उस समय सूरदास ने हस्तक्षेण करके उसे ऐसा करने से रोक दिया था। अपनी झोंपड़ी में सुभागी को आश्रय देकर सूरदास ने भैरों के क्रोध को भड़का दिया था। दूसरी ओर सूरदास और सुभागी के संबंधों की चर्चा पूरे मुहल्ले में हो रही थी। इससे भैरों की बदनामी हो रही थी। भैरों ने अपने अपमान और बदनामी का बदला लेने का निश्चय किया। इसी निर्णय के वशीभूत होकर भैरों ने एक दिन सूरदास की झोपड़ी में आग लगा दी। उसे सूरदास के छिपाकर रखे गए रुपयों का भी लालच सता रहा था। उसने रुपयों की पोटली चुराने के बाद झोपड़ी में आग लगा दी। वह सूरदास को रोते हुए देखना चाहता था।

सूरदास की मनोदशा : सूरदास की झोपड़ी में लगी आग कुछ देर बाद बुझ गई। लोग तो इस अग्निकांड पर टिप्पणी करके वहाँ से विदा हो गए, पर सूरदास वहीं बैठा रहा। उसे झोंपड़ी जल जाने का इतना दुख नहीं था, जितना दुख उसे अपनी उस पोटली का था, जिसमें उसकी जीवन भर की कमाई थी। पोटली में रखे रुपए ही उसके जीवन की अनेक आशाओं के आधार था। उसी पोटली के रुपयों से पितरों का श्राद्ध करना चाहता था तथा मिठुआ का उद्धार करना चाहता था, कुआँ बनवाना चाहता था। झोपड़ी जल जाने पर भी सूरदास किसी से प्रतिशोध नहीं लेना चाहता। वह अपनी आर्थिक हानि को भी गुप्त रखना चाहता है। लोग उसका मज्ञाक उड़ाएँगे कि एक भिखारी के पास इतना धन कहाँ से आया क्योंकि भिखारियों के लिए धन-संचय करना अपमान की बात मानी जाती है। वह सारी परिस्थिति को भाँपकर शांत बना रहता है।

प्रश्न 24.
‘सूरदास की झोपड़ी’ कहानी से उभरने वाले जीवन-मूल्यों का उल्लेख करते हुए आज के संदर्भ में उनकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
‘सूरदास की झोपड़ी’ उपन्यास अंश में बताया गया है कि कुछ व्यक्ति सूरदास से ईर्ष्या करते हैं, उसके रुपयों की चोरी करते हैं तथा उससे बदला लेने का प्रयास करते हैं। भैरों इन सबमें अग्रणी है। भैरों ने जगधर को सूरदास के रुपयों की थैली दिखाते हुए कहा सूरदास ने इसे बड़े जतन से धरू की आड़ में रखा हुआ था। पाजी रोज़ राहगीरों को ठग-ठगकर पैसे लाता था और इसी थैली में रखता था। मैंने गिने हैं। पाँच सौ से ऊपर हैं। न जाने कैसे इतने रुपए जमा हो गए। बच्चू को इन्हीं रुपयों की गरमी थी। अब गरमी निकल गई। अब देखूँ किस बल पर उछलते हैं।

जगधर की छाती पर साँप लोट रहा था। वह भैरों के भाग्य से चिढ़ रहा था कि अब वह मौज उड़ाएगा। वह अपनी स्थिति का विश्लेषण करता है-“मैं ही कौन-सा दिनभर पुन्न (पुण्य) करता हूँ। दमड़ी-छदाम कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ (कम तौलता हूँ)। बाट खोटे रखता हूँ। तेल की मिठाई घी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँँवाने पर भी कुछ हाथ नहीं लगता।”‘ अब तक जगधर के मन में ईर्या का अंकुर जम चुका था। उसने सूरदास के पास भैरों द्वारा पोटली चुराए जाने की बात कही। सूरदास ने लज्जावश उस थैली को अपना मानने से इंकार कर दिया। फिर वह सुभागी को भड़काता है-” सुभागी,

कहाँ जाती है? देखी अपने खसम की करतूत, बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।” उपर्युक्त नकारात्मक मानवीय पहलुओं पर अकेले सूरदास का व्यक्तित्व भारी पड़ता है। सूरदास सारी विषम परिस्थितियों का सामना साहस व धैर्य के साथ करता है। सूरदास परोपकारी, सहृदय एवं उदारमना है। वह अन्याय सहकर भी भैरों की मार से बचाने के लिए सुभागी को अपनी झोपड़ी में शरण देता है। सूरदास गाँधीवादी विचारधारा की प्रतिमूर्ति है। क्षीणकाय, दीन-दुर्बल, सरलमना सूरदास अपने आत्मबल के सहारे ईष्ष्या, अन्याय के विरुद्ध अंतत: सफलता प्राप्त करता है। आज के समय को देखते हहए व्यक्ति इन उपयोगिताओं को नहीं समझता परंतु धैर्यपूर्वक सफलता पाना अति सुलभ कार्य होता है।

प्रश्न 25.
‘अंधापन क्या कोई थोड़ी बिपत थी कि नित ही एक-ही-एक चपत पड़ती रहती है।’-कथन के आधार पर सूरदास के संदर्भ में दृष्टिहीन दिव्यांगजनों की कठिनाइयों का उल्लेख करते हुए लगभग 80-100 शब्दों में उत्तर लिखिए।
उत्तर :
सूरदास अंधा है। इस अंधेपन के कारण उसे नित्य नई बाधाओं, कष्टें का सामना करना पड़ता है। अंधे व्यक्ति को अपने दैनिक जीवन-निर्वाह में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कभी उसे लोगों के ताने सुनने पड़ते हैं, कभी उसकी झोपड़ी में आग लगा दी जाती है, कभी उसकी जमा-पूँजी चुरा ली जाती है, कभी उसे अपमानित किया जाता है। वह इन सब कठिनाइयों को धैर्यपूर्वक झेलता है।

दृष्टिहीन विकलांगजनों को इसी प्रकार की कठिनाइयों को झेलना पड़ता है। यह उनकी नियति बन गई है। दृष्टिहीन दिव्यांगजनों की सबसे बड़ी कठिनाई उनको दैनिक जीवन को संचालित करने में आती है। इसके लिए उन्हें किसी सहायक की आवश्यकता होती है। पर हर समय यह संभव नहीं हो पाता है। उन्हें स्वावलंबी बनना पड़ता है। उन्हें स्वयं छड़ी के सहारे रास्ता टटोलना पड़ता है, स्वयं भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती है। भोजन स्वयं बनाने में कई बार दुर्घटना भी हो जाती है। फिर एक बड़ी समस्या उनकी शिक्षा-दीक्षा को लेकर आती है।

अंधवविद्यालयों की संख्या अपर्याप्त है। सामान्य स्कूलों में दृष्टिहीन का प्रवेश कठिनाई से होता है। सभी उन्हें टरकाने का प्रयास करते हैं। उनके पाठ्यक्रम से संबंधित सभी पुस्तकें ब्रेललिपि में उपलब्ध नहीं हो पाती अतः उन्हें दूसरे बालकों पर निर्भर रहना पड़ता है। पढ़ाई के बाद दृष्टिहीनों के सामने नौकरी की समस्या आती है। यद्यपि सरकार ने उनके लिए नौकरी में आरक्षण की कुछ व्यवस्था की है, पर उसका क्रियान्वयन पूरी तरह से नहीं हो पाता है। दृष्टिहीनों को जीवन-साथी मिलने की समस्या से भी जूझना पड़ता है।

प्रश्न 26.
‘सूरदास की झोंपड़ी’ पाठ के कथानक पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
‘सूरदास की झोंपड़ी’ प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का एक अंश है। इसका नायक सूरदास है। वह एक दृष्टिहीन व्यक्ति है। एक दृष्टिहीन व्यक्ति जितना बेबस और लाचार जीवन जीने के लिए विवश होता है, सूरदास ठीक इसके विपरीत है। सूरदास अपनी परिस्थितियों से जितना दुखी व आहत है, उससे कहीं अधिक आहत है-भैरों और जगधर द्वारा किए जा रहे अपमान से और उनकी ईर्य्या से।

भैरों की पत्नी सुभागी भैरों की मार के डर से सूरदास की झोंपड़ी में छिप जाती है। सुभागी को मारने के लिए भैरों सूरदास की झोंपड़ी में घुस आता है, किंतु सूरदास के हस्तक्षेप से वह सुभागी को मार नहीं पाता। इस घटना को लेकर पूरे मुहल्ले में सूरदास की बदनामी होती है। जगधर और भैरों तथा अन्य लोग उसके चरित्र पर उँगली उठाते हैं। भैरों को उकसाने और भड़काने में जगधर की प्रमुख भूमिका रही। उसे ईर्य्या इस बात की थी कि सूरदास चैन से रहता है, खाता-पीता है।

भैरों की पत्नी सुभागी पर भी जगधर की नज़र रहती है। बदनामी और अपने अपमान से आहत होकर भैरों बदला लेने की सोचता है। उसने निश्चय कर लिया कि जब तक वह सूरे को रुलाएगा, तड़पाएगा नहीं, तब तक उसे चैन नहीं पड़ेगा। एक दिन उसने सूरदास की झोंपड़ी में रखी उसकी थैली को उठा लिया और फिर झोपड़ी में आग लगा दी।

सूरदास के चरित्र की यह विशेषता है कि झोंपड़ी के जला दिए जाने के बावजूद वह किसी से भी प्रतिशोध लेने के बारे में सोचता तक नहीं, बल्कि पुनर्निर्माण में विश्वास रखता है। इसीलिए वह मिठुआ के सवाल-” जो कोई सौ लाख बार झोंपड़ी को आग लगा दे तो ” के जवाब में दृढ़ता के साथ कहता है-” तो हम भी सौ लाख बार बनाएँगे।”
इसी कथन के साथ कथानक समाप्त होता है।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antral Chapter 2 Question Answer आरोहण

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antral Chapter 2 आरोहण

Class 12 Hindi Chapter 2 Question Answer Antral आरोहण

प्रश्न 1.
यूँ तो प्रायः लोग घर छोड़कर कहीं न कहीं जाते हैं, परदेश जाते हैं किंतु घर लौटते समय रूपसिंह को एक अजीब किस्म की लाज, अपनत्व और झिझक क्यों, घेरने लगी ?
उत्तर :
रूपसिंह सामान्य परिस्थितियों में घर छोड़कर परदेश नहीं गया था। वह घर से भागकर गया था। जब उसके बड़े भाई भूप दादा ने उसे घकड़कर रोकना चाहा, तब उसने उन्हें धक्का देकर गिरा दिया था। इस प्रकार वह घर से नाराज होकर भागा था। इसके अतिरिक्त उसे लज्जा इसलिए भी आ रही थी क्योंकि उसने ग्यारह वर्ष तक घर की ओर रुख नहीं किया था। यदि वह इस काल में घर और घर वालों के साथ सम्पर्क बनाए रखता तो उसे झिझक नहीं होत़ी। उसे तो अपने माता-पिता के जिंदा या मरने के बारे में भी पता नहीं था। अपनत्व का भाव इसलिए था क्योंकि यह वही गाँव था जहाँ वह पैदा हुआ था तथा 9-10 साल तक खेला-कूदा था। यहीं उसकी भेंट शैला से हुई थी। यहाँ के साथ उसके बचपन की स्मृतियाँ जुड़ी हुई थीं। वह लंबे अंतराल के बाद आने के कारण झिझक अवश्य रहा था। शेखर के सामने इसलिए लजा रहा था कि इतने सालों के बाद भी इस क्षेत्र में सड़क तक नहीं बन सकी थी।

प्रश्न 2.
पत्षर की जाति से लेखक का क्या आशय है? उसके विभिन्न प्रकारों के बारे में लिखिए।
उत्तर :
पत्थर की जाति से लेखक का यह आशय है कि पत्थर किस प्रकार का है? पत्थर कई किस्म के होते हैं -इग्नियस है, ग्रेनाइट है (कड़ा पत्थर), मेटामारफिक (रूप बदलने वाला), सैंड स्टोन (बालू रेत वाला) है या सिलिका। पत्थरों के रंग-रूप, मजबूती आदि के आधार पर उसकी जाति का पता चलता है।

प्रश्न 3.
महीप अपने विषय में बात पूछे जाने पर उसे टाल क्यों देता था?
उत्तर :
महीप रूपसिंह का ही भतीजा था। वह उसके बड़े भाई भूपसिंह का बेटा था। उसकी माँ शैला थी, जिसने नदी में छलाँग लगाकर आत्महत्या कर ली थी। वह इसके लिए अपने पिता भूपसिंह को जिम्मेदार मानता था और उनसे अलग नीचे रहता था। महीप शेखर और रूपसिंह की बातों से कुछ-कुछ जान गया था कि ये व्यक्ति कौन हैं? वह अपने परिचय को छिपाकर रखना चाहता था। वह अपने पिता के बारे में कुछ भी कहना ठीक नहीं समझता था, अत: जब भी उससे उसके विषय में पूछा जाता, वह उसे टाल देता था। वह रूपसिंह से अपनी माँ शैला का नाम भी सुन चुका था।

प्रश्न 4.
बूढ़े तिरलोक सिंह को पहाड़ पर चढ़ना जैसी नौकरी की बात सुनकर अजीब क्यों लगा?
उत्तर :
जब माही गाँव पहुँचकर रूपसिंह का सामना बूढ़े तिरलोक सिंह से हुआ तो उसने उनके पैर छुए और अपना ग्यारह साल पुराना परिचय दिया। तिरलोक सिंह ने जब यह जानना चाहा कि वह इतने सालों से कहाँ था, तब रूपसिंह बताता है कि वह पर्वतारोहण संस्थान में था। तिरलोक सिंह ने यह नाम पहली बार सुना था अतः उसके बारे में पूछा। रूपसिंह ने बताया कि वहाँ पहाड़ पर चढ़ना सिखाया जाता है। रूपसिंह के लिए यह काम कोई छोटा-मोटा नहीं है। सरकार उसे इस काम के लिए चार हजार रुपए महीना तनख्वाह देती है। तिरलोक सिंह को यह बात हजम नहीं होती। पहाड़ पर चढ़ना तो उसके लिए मामूली काम था। इसमें नौकरी और तनख्वाह की भला क्या जरूरत है। उसे यह सरकार की मूर्खता ही प्रतीत हुई। केवल पहाड़ पर चढ़ने के लिए चार हजार रुपए देना, भला कहाँ की अक्लमंदी है?

प्रश्न 5.
रूपसिंह पहाड़ पर चढ़ना सिखाने के बावजूद भूपसिंह के सामने बौना क्यों पड़ गया था?
उत्तर :
भूपसिंह अपने छोटे भाई रूपसिंह और शेखर को लेकर अपने घर की ओर चल पड़ा था। भूपसिंह हिमांग की ऊँचाई पर रहता था। वहाँ जाने की चढ़ाई शुरू हो गई। यह खड़ी चढ़ाई थी। पहले तो वे पेड़ और पत्थरों के सहारे चढ़ते रहे, फिर वे रुक गये। वे आगे चढ़ नहीं पा रहे थे। भूपसिंह ने व्यंग्य किया-‘ बस इत्ता भर पहाड़ीपन बचा है?’ यद्यपि रूपसिंह पहाड़ पर चढ़ना सिखाता था, पर यहाँ आकर वह हार गया था। अब भूपसिंह ने ही हिम्मत करके उन्हें ऊपर चढ़ाने का उपक्रम किया। उसने गले का मफलर अपनी कमर में बाँधा और उसके दोनों छोरों को रूपसिंह को दिखाते हुए पकड़ लेने को कहा।

रूपसिंह उसके पीछे-पीछे चला, बिना किसी आधुनिक उपकरण के। उन्होंने शरीर का संतुलन बना रखा था। भूपसिंह बीच-बीच में हिदायत भी देता जा रहा था। वह अपने शरीर की ताकत का सही उपयोग कर रहा था। वह रूपसिंह को भी खींचे लिए जा रहा था। इसमें एक घंटा लगा। फिर दूसरे चक्कर में वह इसी प्रकार शेखर को ऊपर चढ़ाकर ले गया। इस प्रकार भूपसिंह के सामने रूपसिंह बौना पड़ गया था। वह एक प्रशिक्षक होकर भी जिस काम को नहीं कर पाया था, उसे भूपसिंह ने सहज रूप से कर दिखाया था।

प्रश्न 6.
शैला और भूप ने मिलकर किस तरह पहाड़ पर अपनी मेहनत से नई जिंदगी की कहानी लिखी?
उत्तर :
जब रूपसिंह ने शैला भाभी के बारे में पूछा तब भूपसिंह ने उसे बताया-यहाँ खेती का काम बढ़ गया था। वह शैला को ले आया था। उसके आने से खेती और फैल गई। खेतों को ढलवाँ बनाया गया ताकि वहाँ बर्फ जमी न रहे। मगर एक समस्या उठ खड़ी हुई-खेती के लिए पानी कहाँ से आए? एक वे दोनों (भूप और शैला) पानी की खोज में हिमांग के ऊँचे हिस्से पर चढ़ गए। उन्होंने नहँँ १७़ चरना देखा। वह सूपिन नदी में गिर रहा था। यदि उसे संड़ :ःधा ज़ता तो पानी की समस्या हल हो जाती, पर बीच में पथक. जसेे काटना था। भूप और शैला ने इस काम के लिए क्या महोना चुना। उन दिनों रात को बर्फ जमने लगती थी और दिन में थोड़ी-थोड़ी पिघलती थी अर्थात् इतनी भी अधिक नहीं कि धार तेज हो जाए और इतनी भी नहीं कि बर्फ जमकर सख हो जाए। बड़ी मेहनत से वे दोनों झरने का रुख मोड़कर उसे लाने में सफल हो गए। इस प्रकार उन दोनों ने अपनी मेहनत से नई जिंदगी की कहानी लिखी।

प्रश्न 7.
सैलानी (शेखर और रूपसिंह) घोड़े पर चलते हुए उस लड़के के रोजगार के बारे में सोच रहे थे जिसने उनको घोड़े पर सवार कर रखा था और स्वयं पैदल चल रहा था। क्या आप भी बाल मजदूरों के बारे में सोचते हैं?
उत्तर :
सैलानी अर्थात् शेखर और रूपसिंह घोड़ों पर सवार थे। उनके साथ महीप नाम का लड़का पैदल चल रहा था। उन्हें नदी से बचते हुए पहाड़ से सटे बेहद संकरे रास्ते पर चलना पड़ रहा था। शेखर उस लड़के के रोजगार के बारे में सोच रहा था। इतनी कच्ची उम्र और उस पर यह घोड़े वाला धंधा और ये खतरनाक रास्ते। कितनी खतरे भरी जिंदगी है इन लोगों की। उन्होंने सोचा कि वे जवान होकर भी घोड़े पर सवार हैं जबकि यह बालक हमारे साथ पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर जाएगा तथा लौटकर भी आएगा। रूपसिंह उसे बताता है कि पेट भरने की खातिर यह सब करना पड़ता है। शेखर तो एक बार उस लड़के से कहता भी है कि वह कुछ देर के लिए घोड़े पर बैठ जाए और वह पैदल चल लेगा, पर बालक महीप माना नहीं। हम भी बाल मजदूरों के बारे में सोचते हैं। इन बालकों को पढ़ाई और खेल के स्थान पर मजदूरी करनी पड़ती है। उनका बचपन छीना जा रहा है। इन बाल मजदूरों के सामने अन्य कोई विकल्प है भी नहीं। उनकी समस्या को कोई समाधान होना ही चाहिए।

प्रश्न 8.
पहाड़ों की चढ़ाई में भूप दादा का कोई जवाब नहीं। उनके चरित्र की विशेषताएँ बताइए।
अथवा
‘आरोहण’ कहानी के आधार पर ‘पहाड़ की चढ़ाई में भूप दादा का कोई जवाब नहीं। इस कथन के संदर्भ में भूपसिंह के व्यक्तित्व पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
हमें भूपसिंह के जीवन से निम्नलिखित जीवन-मूल्य प्राप्त होते हैं-
आत्मविश्वासी – भूपदादा में गजब का आत्मविश्वास है, उन्होंने आत्मविश्वास के बलबूते पर अपनी उजड़ी गृहस्थी को फिर से जमा दिया। खेतों में झरने का पानी लाकर सिंचाई का प्रबंध कर दिया, रूप और शेखर को ऊपर चढ़ाकर ले आए।

धैर्यशाली : भूपदादा धैर्यशाली व्यक्ति हैं। वे विपत्तियों से घबराने वाले नहीं हैं। उन्होंने अनेक विपत्तियों का धैर्यपूर्वक सामना किया है। विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने धैर्य नहीं खोया।

आत्मसम्मानी : भूपदादा के व्यक्तित्व में आत्मसम्मान कूट-कूट कर भरा हुआ है। जब रूप उन पर तरस खाकर अपने साथ चलने को कहता है तब वे मना करते हुए कहते हैं- “अब माफ करो भुइला। मेरी खुद्दारी को बखस दो। अब तो जिंदा रहणे तकन ई बल्द उतर सकदिन न हम।”

स्नेहशील : भूपदादा के मन में अपने छोटे भाई रूप के प्रति स्नेह का भाव है। जब वह उसे धक्का दे देता है तब भी वह उस पर गुस्सा नहीं होते अपितु उसकी खरोंच पर पत्ते का रस लगाते हैं। जब वह ग्यारह वर्ष बाद लौटता है तब भी वह बिना किसी शिकायत के उसे प्रेमपूर्वक घर लिवा लाते हैं।

परिश्रमी : भूपदादा कठोर परिश्रम का जीता-जागता उदाहरण हैं। उन्होंने रूपसिंह के भागने के बाद आई प्राकृतिक आपदाओं से टक्कर लेने में परिश्रम के बलबूते पर ही सफलता पाई। इस जीवन-मूल्य को हम सभी को अपनाना चाहिए। परिश्रम से सभी समस्याओं का हल निकल आता है।

प्रश्न 9.
इस कहानी को पढ़कर आपके मन में पहाड़ों पर स्त्री की स्थिति की क्या छवि बनती है ? उस पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
अथवा
‘आरोहण’ कहानी के आधार पर नारी-जीवन के संघर्ष पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
इस कहानी को पढ़कर हमारे मन में पहाड़ों पर स्त्री की स्थिति की यह छवि बनती है :
– पहाड़ों पर रहनेवाली स्त्री सीधे-सरल स्वभाव की होती है। वह प्रेम करने के मामले में भी कोई छल-कपट नहीं करती।
– वह परिश्रमी होती है। इस कहानी में भी शैला ने भूप दादा के साथ मिलकर परिश्रम की एक कहानी लिखी। उसने भूप दादा के साथ मिलकर झरने का रुख ही बदलकर रख दिया। पहाड़ों का जीवन वैसे ही बड़ा कठोर होता है। वहाँ के इस जीवन में स्त्री की भूमिका भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है।
– वहाँ की स्त्री बड़ी स्वाभिमानी होती है। वह सब कुछ सहन कर लेती है, पर अपने स्वाभिमान पर चोट सहन नहीं कर सकती।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antral Chapter 2 आरोहण

प्रश्न 1.
‘पहाड़ों में जीवन अत्यंत कठिन होता है।’ पाठ के आधार पर उक्त विषय पर एक निबंध लिखिए।
अथवा
‘आरोहण कहानी के आधार पर ‘पहाड़ों में जीवन-संघर्ष’ उत्तर-पहाड़ों का जीवन अत्यंत कठिन होता है-पहाड़ सभी को आकर्षित करते हैं, पर वहाँ जाकर पता चलता है कि पहाड़ों का जीवन-अत्यंत कठिन होता है। पहाड़ों पर जन सुविधाओं का अभी भी बहुत अभाव है। दो-चार हिल स्टेशनों को छोड़कर बाकी पहाड़ों का जीवन अभी भी कष्टपूर्ण है। पहाड़ों तक सड़कें नहीं बन पाई हैं। यहाँ हिमस्खलन होता रहता है। मार्ग अत्यंत सँकरे एवं खतरनाक हैं। यहाँ तक पहुँचना सुगम नहीं है।

पहाड़ों पर खाने-पीने की चीजों का भी भारी अकाल रहता है। यहाँ बहुत कम मात्रा में चीजें उपलब्ध हो पाती हैं। यहाँ बेरोजगारी की भी समस्या है। शिक्षा की भी उचित व्यवस्था नहीं है। यहाँ चिकित्सालयों का भी अभाव है। ये लोग भगवान के भरोसे अपना जीवन बिताते हैं। यहाँ फसल भी कम ही हो पाती है। सर्दी भी यहाँ खूब पड़ती है। यहाँ का जीवन अभावों एक कष्टों से भरा होता है।

प्रश्न 2.
पर्वतारोहण की प्रासंगिकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
पर्वतारोहण-पर्वतारोहण आज भी प्रासंगिक है, पर पर्वतों पर चढ़ने के लिए केवल निर्भीकता, परिश्रम और कष्ट झेलने की क्षमता की ही आवश्यकता नहीं होती। वास्तव में पर्वतारोहण एक कला है। पुराने जमाने में लोग विशेष तैयारी या साज-सामान के बिना, केवल भक्तिभाव से देवी-देवताओं के पुण्यधाम, इन दुर्गम चोटियों के दर्शन के लिए जाते रहे किंतु इस युग में अनेक संस्थाओं में पर्वतारोहण की शिक्षा दीं जाती है। वहाँ शिक्षार्थियों को बर्फीले पहाड़ों की परिस्थितियों और कठिनाइयों की जानकारी कराई जाती है। उन्हें नवीन उपकरणों की प्रयोग-विधि बताई जाती है। दार्जिलिंग का ‘हिमालय पर्वतारोहण संस्थान’ एक ऐसा ही आदर्श शिक्षा केन्द्र है। पर्वतारोहण में सबसे उपयोगी उपकरण बर्फ काटने की कुल्हाड़ी अथवा हिम कुठार होता है। इसे आरोही की तीसरी टाँग ही समझना चाहिए। इसी के सहारे आरोही अपने को अचानक फिसल जाने से बचाता है, सपाट चढ़ाई पर इसे बर्फ में घुसाकर अपना संतुलन कायम रखता है। इसी से रास्ते की बर्फ काट-काट कर सीढ़ियाँ बनाई जाती हैं।

दूसरा महत्त्वपूर्ण उपकरण रस्सी है। ऊँचाई पर हवा बहुत तेज चलती है। उसके सामने कोई सीधा खड़ा नहीं हो पाता। पर्वतारोही इसीलिए रस्सी से एक-दूसरे को बाँधकर आगे बढ़ते हैं कि यदि एक गिरे तो दूसरा उसे संभाल ले। कभी-कभी बर्फ में पाँव रखते ही पर्वतारोही हिमगर्त या दरारों में फँस जाता है, तब उसका साथी खींचकर उसे बाहर निकालता है। गहरे हिमगतों को पार करने के लिए कामचलाऊ पुल भी प्रायः रस्सियों के ही बनाए जाते हैं। आजकल नाइलोन की मजबूत रस्सी प्रयोग में लाई जाती है। बर्फ पर फिसलने से बचाने के लिए विशेष जूते तो होते ही हैं, उनके नीचे लगाने के लिए धातु के बने नुकीले काँटों वाले ऐसे तलवे भी होते हैं जिन्हें जूतों से अलग से लगा लिया जाता है।

इनके अतिरिक्त पचासों और भी विशेष प्रकार की चीजों से लैस होकर ही पर्वतारोही चलता है; जैसे, बर्फ की धूप के चश्मे, ऑक्सीजन, बड़ी कीलें, तंबू, स्टोव, रबर की दरी, स्लीपिंग बैग, पीठ पर लादा जानेवाला बड़ा झोला आदि। सभी आवश्यक सामान को भारवाहकों से उठवाकर पर्वतारोही ऊपर की यात्रा शुरू करते हैं। पूरा दल कई टोलियों में बँट जाता है। यात्रा के बीच-बीच में ही वे पड़ाव बनाते जाते हैं। प्रत्येक पड़ाव पर खेमे लगाकर कुछ सामान, जिसकी आवश्यकता लौटने पर या पीछे आने वाली टोली के वहाँ आ जाने पर पड़ेगी छोड़कर आगे बढ़ा जाता है। इस प्रकार जितना ही ऊपर चढ़ते हैं, सामान और व्यक्ति कम होते जाते हैं। अंत तक पहुँचने वाले प्रायः दो-तीन व्यक्ति ही होते हैं जिनमें एक मार्ग दर्शक होता है।

प्रश्न 3.
आपकी दृष्टि में ‘आरोहण’ कहानी की मूल समस्या क्या है ?
उत्तर :
‘आरोहण’ कहानी में पर्वतीय प्रदेशों में रहने वाले लोगों के जीवन के यथार्थ को दर्शाया है। वहाँ का जीवन अत्यंत संघर्षमय एवं कठिन होता है। वहाँ प्रतिदिन संघर्ष करना पड़ता है। वहाँ की भौगोलिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियाँ निरंतर बदलती रहती हैं। पर्वतीय प्रदेशों में प्राकृतिक आपदा, भूस्खलन, पत्थर के खिसकने से यहाँ के लोगों का जीवन तथा समाज नष्ट हो जाता है। यहाँ के लोगों का जीवन यहीं के परिवेश तक बँध कर रह जाता है। प्रकृति के प्रति असीम लगाव भी इनको बाहर जाने से रोकता है। यदि कोई व्यक्ति यहाँ से शहर चला भी जाता है तो उसका मन यहीं भटकता रहता है। पर्वतीय लोग कठिन परिश्रम करके भी सुखी जीवन नहीं बिता पाते हैं। भूप दादा का लड़का भी कम आयु का होने पर घोड़े के साथ काफी पैदल चलकर रोटी-रोजी कमाता है। यहाँ के लोग बहुत भावुक होते हैं। मैदानी इलाकों की तुलना में पर्वतीय प्रदेशों की जिंदगी की कठिनाई जटिलता, दुखपूर्ण स्थिति को इस कहानी में उभारा गया है।

प्रश्न 4.
यूँ तो प्राय: लोग घर छोड़कर कहीं न कहीं जाते हैं, परदेश जाते हैं किन्तु घर लौटते समय रूपसिंह को एक अजीब किस्म की लाज, अपनत्व और झिझक क्यों घेरने लगी? क्या कभी आपको भी ऐसा अनुभव हुआ है ?
उत्तर :
प्राय: लोग रोजगार की तलाश में अपना घर छोड़कर बाहर जाते ही रहते हैं और रोजगार पाकर समय-समय पर अपने घर लौटते रहते हैं। तब उनके मन में हर्ष और गर्व का भाव होता है। पर रूपसिंह जब ग्यारह वर्ष पश्चात् अपने घर लौटता है तब उस पर एक अजीब किस्म की लाज, अपनत्व और झिझक की भावना हावी होने लगती है।

वह मसूरी के पर्वतारोहण संस्थान में चार हजार रुपए महीने की अच्छी नौकरी पा गया था। जब वह गाँव लोटता है तब उसके साथ उसके गॉड फादर कपूर साहब का बेटा शेखर कपूर भी होता है। वे दोनों देवकुंड के स्टॉप पर उतरते हैं और रूपसिंह के गाँव माही जाने की योजना बनाते हैं। रूपसिंह के मन में कई भाव मिश्रित से हैं, उसे घर लौटते हुए लज्जा आ रही है क्योंकि एक लंबा अंतराल हो गया, अपनत्व की भावना इसलिए, क्योंकि गाँव उसका अपना परिवार रहता है, झिझक इसलिए कि घर-गाँव के लोग क्या कहेंगे। उसकी इस मनःस्थिति के कारण निम्नलिखत हैं: -वह घर से सामान्य परिस्थितियों में नहीं गया था, बल्कि बड़े भाई भूपदादा को धक्का मारकर घर से भपाग गया था।
-उसे घर से गए एक लंबा समय (ग्यारह वर्ष) हो गया था।
-उसे शेखर के सामने इसलिए झिझक हो रही थी कि ग्यारह वर्ष बीत जाने के बावजूद अभी तक उसके गाँव के लिए पक्की सड़क नहीं बन पाई थी। उसकी यह झिझक स्वाभाविक ही थी।
एक बार मैं भी घर छोड़कर कहीं चला गया था, पर तीन दिन में ही मेरे होश ठिकाने आ गए। मैं भी झिझक के साथ घर लौट आया। घर पर सभी ने मुझे प्यार दिया।

प्रश्न 5.
शैला और भूप ने अपने परिश्रम से पहाड़ पर अपने जीवन की एक नई कहानी लिखी। क्या आपने भी कभी ऐसा प्रयास किया है ? उनके श्रम को आप कैसे देखते हैं ?
उत्तर :
रूपसिंह घर से भाग गया था। उसके जाने के बाद अत्यधिक बर्फ पड़ने के कारण हिमांग पहाड़ नीचे धसक गया। इससे भूपदादा के खेत, घर, माँ-बाबा सब मलबे में दब गए। किसी तरह वही बचा रह गया। कहीं कोई सहारा नहीं मिला। वह हिम्मत करके इसी पहाड़ की पीठ पर आ बैठा। धीरे-धीरे मलबा हटाया और थोड़ी बहुत खेती शुरू की। अकेला लगने पर वह नीचे से एक औरत ले आया। इस औरत का नाम ही शैला था। उन दोनों ने मिलकर मेहनत की। दोनों के संयुक्त प्रयासों से खेती बढ़ती चली गई। बर्फ जमी न रहे, इसके लिए उन्होंने खेतों को ढलवाँ बनाया। फिर समस्या उठी कि पानी कहाँ से आएगा। एक दिन वे पानी की खोज में हिमांग के साबुत हिस्से पर चढ़ गए।

उन्होंने देखा कि एक झरना यूँ ही उस तरफ से सूपिन नदी में गिर रहा था। उसे मोड़ लेने से पानी की समस्या हल हो सकती थी। इसके लिए बीच का पहाड़ काटना था। इसके लिए उन्होंने क्वार का महीना चुना। उन दिनों रातों को बर्फ जमने लगती थी और दिन को पिघलने लगती थी। दोनें ने कड़ी मेहनत करके झरने के बहाव को मोड़ने में सफलता पाई। शैला के आने से खेती का काम बढ़ता ही चला गया। उन्होंने अपनी मेहनत से नयी जिंदगी की कहानी लिख डाली। हम उनके श्रम को सलाम करते हैं। श्रम से ही कोई नई कहानी लिखी जा सकती है। हम मित्रों ने भी स्कूल में श्रम करके खेल के मैदान को ठीक-ठाक किया तथा वृक्षारोपण करके इसे आकर्षक रूप प्रदान किया।

प्रश्न 6.
जब रूपसिंह देवकुंड बस स्टॉप पर उतरा तब उसकी मनःस्थिति किस प्रकार की थी?
उत्तर :
जब रूपसिंह शेखर के साथ देवकुंड बस स्टॉप पर उतरा और अपने गाँव माही की ओर जाने को उद्यत हुआ तब उसे एक अजीब किस्म की लाज, अपनत्व और झिझक घेरने लगी थी। कोई उससे पूछे कि वह इते साल कहाँ रहा, या कि इत्ते सालों बाद लौटकर आया ही क्यों, तो वह क्या जवाब देगा। कोई खतों-किताबत भी नहीं। पता नहीं कौन कहाँ हो, कौन कहाँ। ग्यारह साल कम भी तो नहीं होते। एक दिक्कत और थी। ग्यारह साल बाद भी कोई मुकम्मिल सड़क न बन पाई थी। माही के लिए अकेले जाना होता, तो अपने गाँव के लिए क्या सड़क और क्या पगडंडी ! मगर साथ कोई और हो, तो सोचना पड़ता है कि अगला क्या सोचेगा। फिर साथ वाला भी कोई ऐसा-वैसा नहीं, शेखर कपूर था। एक तो उसके गॉड फादर कपूर साहब का लड़का, दूसरे आई.ए.एस. ट्रेनी! अब ऐसे खासमखास मेहमान को पाँव पैदल अपने गाँव लिवा जाना अपनी और अपने गाँव की तौहीन कराना ही तो हुआ न!

प्रश्न 7.
शेखर ने अपने बाइनोक्यूलर से वहाँ क्या दृश्य देखा?
उत्तर :
शेखर अपने बाइनो क्यूलर से पहाड़ों और घाटियों में रमा हुआ था, मगर रूप…? आँखें बंद करके भी वह पंद्रह किलोमीटर और ग्यारह साल की दूरी से देख सकता था अपने गाँव को। यह दीगर बात थी कि उसके और माही के बीच अभी कई पहाड़, कई नदियाँ और कई घाटियाँ थीं। उसने अपने सामने किसी विशाल डायनोसोर की तरह पसरे पहाड़ को देखा। फिर उसके पीछे की जर्द परतों को, जिन पर बादल और धुंध की फफूंदियाँ जड़ी हुई थीं। उसके हिसाब से अभी वह छः हजार फीट की ऊँचाई पर था और यहाँ से पन्द्रह किलोमीटर चलकर दस हजार फीट की ऊँचाई पर पहुँचना था उसे। उसने कलाई पर बँधी अपने इम्पोरेंड घड़ी पर नजर गड़ाई अभी सुबह के दस बजे थे। मगर पैदल चलना हो तो शाम तो होनी ही है।

प्रश्न 8.
शेखर और रूपसिंह की चढ़ाई का क्या प्रबंध हुआ?
उत्तर :
शेखर और रूपसिंह की पन्द्रह किलोमीटर की चढ़ाई के लिए चाय वाले ने एक लड़के महीप से बात की और माही जाने के लिए पूछा। उस लड़के ने, जो किसी बुजुर्ग की तरह पत्थर की सीढ़ियों पर अकेला बैठा हुआ था, अपनी उदासीन-सी गर्दन फेरी, मगर कुछ बोला नहीं। उड़े हुए नीले रंग की पहाड़ी पतलून और सलेटी स्वेटर में समेटी अपनी तमाम गंभीरता के बावजूद अपने सुंदर गोरे चेहरे की मासूमियत को अभी झटक नहीं पाया था वह।। “ये जा सकेगा भला?” शेखर ने अपना संदेह प्रकट किया- “जायेगा साब! कैसे नहीं जाएगा? यहाँ सवारियाँ मिलती कहाँ हैं। आप लोग चले गए तो बैठ के मक्खी तो मारेगा।”

चाय वाले का अनुमान सही था। लड़का वहाँ से चुपचाप उठकर चला गया, मगर थोड़ी ही देर में दो घोड़ों के साथ चढ़ाई चढ़ता हुआ दिखा। मेहनताना चाय वाले ने ही तय कर दिया था-दो घोड़ों के सौ रुपये। वे चल पड़े। एक घोड़े पर शेखर, दूसरे पर रूप। महीप शेखर वाले घोड़े के साथ आगे-आगे पैदल चल रहा था। पहले पहाड़ तक रास्ता ठीक-ठाक था, मगर उससे उतरते ही धूप का उजला चंदोव जहाँ-तहाँ दरकने लगा था-धूप की सुनहरी पट्टियों के बीच छाया की स्याह पट्टियाँ, मानो धारीदार खालों वाला वह विशाल जानवर बैठ कर पगुरा रहा था।

प्रश्न 9.
रूपसिंह ने अपने साथ बीती ग्यारह साल पुरानी घटना के बारे में शेखर को क्या बताया?
उत्तर :
रूपसिंह ने बताया-” वो, मैं भाग गया था घर से देवकुंड। भूप दादा मुझे खोजते हुए आए और मैं पकड़ा गया। कहीं मैं फिर न भाग जाऊँ, सो लौटते वक्त उन्होंने मेरी कलाई पकड़ रखी थी। उनसे छुटकारा पाने को मुझे कुछ नहीं सूझा, तो मैंने धक्का दे दिया उन्हें-यहाँ इसी जगह! वे संभल न सके, फिसल गए। मेरा हाथ उनके हाथ में था। सो मैं भी खिंच गयाए इस ढलान पर हम दोनों ही लुढ़कने लगे। नीचे एक पेड़ था। अब नहीं है, उसने जैसे थाम लिया हम दोनों को। पेड़ के इस तरफ भूप, उस तरफ मैं, झूलने लगे हम दोनों, बीच में थे हमारे हाथ।

बहोडडत सख्त जान थे भूप दादा। बहोडsडत मजबूत पकड़ थी उनकी, मगर वे ऊपर से जितनी सख्त जान थे, अंदर से उतने ही नरम। उन्होंने समझा कि वे यूँ ही अपनी गफलत से फिसले थे, खुद को कसूरवार भी समझ रहे थे कि अगर उन्होंने मेरा हाथ छोड़ रखा होता तो शायद मैं गिरने से बच जाता। खैर, जैसे-तैसे हमें खींच कर ऊपर ले आए और हाथ छोड़ दिया।” भूप दादा ने पूछा”ज्यादा चोट तो नहीं लगी, भुइला ?” वे खीझ भरी हँसी हैँ ने थे और मेरे बदन को परख रहे थे। पत्ते निचोड़ कर उन्होंन और अपनी खरोचों पर लगाया। ये दाग अभी भी रह गए हैं। जिप ने बाहों की ओर इशारा किया, “उन्होंने उस दिन से जो ह्राथ छोड़ा कि फिर नहीं पकड़ा।”

प्रश्न 10.
रूपसिंह ने अपने पहले प्रेम के बारे में क्या बताया?
उत्तर :
रूपसिंह ने बताया कि उसका पहला प्रेन अपने से बड़ी लड़की शैला के साथ हुआ था। शैला इतनी सुंदर थी कि उसकी गुलामी बजा लाने में ही वह खुद को धन्य मानता, जबकि वो खुद बैठ कर स्वेटर बुना करती। मैं उसकी भेड़ें हाँका करता, उसके लिए बुरुंस के फूल तोड़ लाता, जो उसे बेहद पसंद थे, सेब या आडू कहीं मिल गए तो सबसे पहले उसे लाकर देता। कभी-कभी जब देवता पर बलि चढ़ती, तो वह माँस का प्रसाद, मक्की की रोटी वगैर भी देती थी। उसे बाद में मालूम पड़ा कि वह स्वेटर भूप दादा के लिए बुना जा रहा था। फल, फूल, माँस और रोटी भी उन्हीं के लिए आती व राम-सीता की जोड़ी का वह सिर्फ लक्ष्मण था और जिस दिन भूप दादा न आते, आखिर तक उसे खुश रखने की उसकी तमाम कोशिशें बेकार चली जातीं। यह बताकर रूप एक झेंप भरी हँसी हँस कर चुप हो गया।

प्रश्न 11.
माही गाँव के निकट आते ही कैसा दृश्य दिखाई देने लगा? लड़का वहाँ पहुँचकर क्या करने लगा?
उत्तर :
वहाँ के बहुत पुराने लोगों में से किसी-किसी ने लाल पलटन के अंग्रेजों को देखा था, नयों ने नहीं। सो दो गोरे संभ्रांत अजनबियों के आगमन पर गाँव के कुछ लोग अपने-अपने घरों से निकल आए थे। हालांकि यह सितंबर का महीना था और दिन के अभी तीन ही बजे थे, मगर यहाँ ठंड काफी थी और लोगों ने ठंड से बचने के लिए ‘चुस्ती’ या ऊन का ‘लावा’ पहन रखा था। उनकी आँखों में भय, संशय और कौतूहल थे। रूप की नजरें इनमें से एक-एक चेहरे को टटोल रही थी। लड़का एक सयाने सईस-सा अपनी थकान भूलकर अपने हीरू-वीरू की पीठ, पुट्टों और टांगों को थपथपा रहा था। रूप ने सौ का एक नोट निकाला और कुछ सोचकर रख लिया और दस की गड्डी से बारह कड़क नोट निकालकर लड़के को थमाते हुए बोला, “देखो, तुम भी थके हो और तुम्हारे घोड़े भी। फिर बच्चे हो, शाम होने वाली है, रास्ता खतरनाक है। ऐसा करो, आज रात यहीं रुक जाओ, सुबह चले जाना।”

प्रश्न 12.
भूप दादा के साथ हिमांग के ऊपर पहुँचकर रूप ने क्या दृश्य वेखा ?
उत्तर :
ऊपर पहुँचकर रूप ने देखा कि पहाड़ की पीठ कुछ दूर तक जमीन प्राय: समतल बनी हुई थी, जिसमें मकई की फसल खड़ी हुई थी। क्षेत्र के चारों ओर सेब और देवदार के पेड़ थे। सेब के पेड़ों में तो फल भी लगे हुए थे। पेड़ ज्यादा दिनों के नहीं थे, यह देखने से ही लग रहा था। उसने गौर किया, ऐसे ही पेड़ नीचे भी कुछ दूर तक फैलते चले गए थे। पूरे क्षेत्र की परिक्रमा करता हुआ वह आधी दूरी तक पहुँचा होगा कि उसे एक गुफानुमा आश्रम दिखा। उसी के बगल में दो छानी (छण्पर का झोंपड़ा) भी।

यही घर है शायद! एक छप्पर के नीचे एक औरत खड़ी थी, नाटी गोरी जवान चुस्त और लाल फुल स्वेटर में। वह उसे हैरानी से घूर रही थी। उसने अनुमान लगाया कि यह भाभी हो सकती है, मगरं झिझकवश आगे बढ़ गया। आगे हिमांग के ऊपर वाले अंश से कोई झरना झर रहा था, जो खेतों से गुजरते हुए सूपिन में गिरता था। हवा में बर्फीली शाम की ठंडक बढ़ गई और देखते ही देखते कोहरा इतना घना हो गया कि लगता था, पृथ्वी पर पहाड़ की इस पीठ को छोड़कर बाकी कुछ भी नहीं, कहीं भी नहीं।

प्रश्न 13.
भूप दादा ने रूप को बाबा की सुनाई किस कहानी की याद दिलाई? उन्हीं के शब्दों में लिखो।
उत्तर :
भूप दादा ने रूप से पूछा-” तुझे बचपन में बाबा की सुनाई गई कहानी याद है ?” वे रूप की ओर मुखातिब हुए, तो उनकी आँखें कुछ ज्यादा ही चटक हो आई थीं, “‘वो एक नन्हीं चिड़िया वाली, जिसे गीध ने कहा था, ‘मैं तुझे खा जाऊँगा’ नहीं? खैर, मैं याद दिलाता हूँ। गीध के ऐसा कहने पर चिड़िया डर गई। पूछा ‘क्यों?’ गीध बोला, ‘ इसलिए कि तू मुझसे ऊँचा नहीं उड़ सकती।’ यह अजीब जबर्दस्ती का तर्क था। नन्हीं चिड़िया ने धीरज धर कर पूछा, ‘और अगर मैं तुझसे ऊँचा उड़ कर दिखा दूँ तो?’ गीध उसके बचकानेपन पर हँसा, ‘तो नहीं खाऊँगा।’ फिर तो दोणों में ठण गया मुकाबला। गीध के सामने भला उस नन्हीं चिड़िया की क्या बिसात! लंबे-लंबे डैने फहराए और उड़ गया ऊपर, ऊपर और-और ऊपर। चिड़िया डर गई। फिर भी उसने धीरज न छोड़ा। ऐसे भी मरणा है वैसे भी, तो क्यों न मौत से दो-दो हाथ करके-ई मरुँ। कम-से-कम मरणे का मलाल तो नहीं रहेगा। फिर तो पूरी ताकत लगा दी उसने उड़ने में, लगा कि पराण ही निकल जावेंगे। जाण पे खेल गई चिड़िया और सारी ताकत लगाकर उड़कर जा बैठी गीध की पीठ पर। गीध अपणी बेहिसाब ताकत के गुरूर में उड़ता रहा, आकाश से भी ऊँचा, लेकिन चिड़िया को अब कोई डर न था। वह हर हाल में उससे ऊँचाई पर थी, मौत की पीठ पर ही जो जा बैठी थी।

प्रश्न 14.
पहाड़ों की चढ़ाई और प्रेम की चढ़ाई में क्या अंतर है? शेखर रूप सिंह से क्या जानना चाहता है?
उत्तर :
पहाड़ों की चढ़ाई बड़े तकनीकी ढंग से होती है। इसके लिए पहाड़ों की जानकारी का होना आवश्यक है। इसे अभ्यास एवं अनुभव से सीखा जा सकता है। पहाड़ों के रहने वाले तो आदतन पहाड़ों की चढ़ाई करते हैं। प्रेम की चढ़ाई जरा दूसरे प्रकार की होती है। इसका संबंध हृदय की भावनाओं से होता है। चढ़ाई के दौरान शेखर रूपसिंह की पहाड़ों की चढ़ाई की जानकारी से तो प्रभावित हो ही गया था, साथ ही वह उससे यह भी पूछता है-“कभी प्रेम की भी चढ़ाई चढ़ी कोई?” इस प्रश्न के द्वारा वह जानना चाहता है कि रूपसिंह ने अपनी युवावस्था में क्या किसी लड़की से प्रेम किया या नहीं। वह फिर पूछता है-‘अरे, कोई तो मिली होगी, जिस देखकर मन में कुछ-कुछ हुआ होगा कभी?’ अर्थात् किसी लड़की को देखकर उसका मन धड़का अवश्य होगा। इस प्रकार वह रूपसिंह के पहले प्यार के बारे में जानना चाहता था। रूपसिंह शैला के प्रति अपने आकर्षण को बताता है जो बाद में उसके बड़े भाई भूपसिंह की पत्नी बनी।

प्रश्न 15.
‘राम और सीता की जोड़ी में मैं सिर्फ लक्ष्मण था।’ इस कथन के पीछे रूपसिंह की कौन सी पीड़ा छिपी थी?
उत्तर :
रूपसिंह सबसे पहले जिस लड़की की ओर आकर्षित हुआ था वह थी-शैला। वह उससे आयु में बड़ी थी। उसकी उससे मुलाकात भेड़ें चराने के दौरान हुई थी। शौला टननी अधिक संदर थी कि रूपसिंह उसकी गुलामी करके भी स्वय कां धन्य मiंनत।। था। वह उसकी भेड़ें हाँकता था, उसके पसंद के बुरुंस के फूल तोड़कर लाता था, सेब या आडू लाकर देता था अर्थात् हर प्रकार से उसे प्रसन्न रखने का प्रयास करता था। वह स्वेटर बुनती रहती थी। बाद में उसे पता चला कि यह स्वेटर उसके बड़े भाई भूपसिंह के लिए बना रही थी। वह सब फल, फूल, माँस और रोटी उन्हीं के लिए लाती थी असल में भाई उसके राम थे वह उनकी सीता थी। वह तो केवल लक्ष्मण (देवर) की भूमिका में रह गया था। वह भूप दादा से ही प्रेम करती थी। जिस दिन भूप दादा न आते, उस दिन वह उसकी लाख कोशिशों के बावजूद खुश नहीं हो पाती थी। इस कथन में रूपसिंह की यह पीड़ा छिपी हुई है कि उसका पहला प्यार एकतरफा था। वह इसमें पहले स्थान पर न होकर दूसरे स्थान पर रह गया। प्यार की इस असफलता ने उसे भीतर तक व्यथित कर दिया था।

प्रश्न 16.
‘आरोहण’ कहानी की मूल समस्या क्या है?
उत्तर :
‘आरोहण’ कहानी में पर्वतीय प्रदेशों में रहने वाले लोगों के जीवन के यथार्थ को दर्शाया है। वहाँ का जीवन अत्यंत संघर्षमय एवं कठिन होता है। वहाँ प्रतिदिन संघर्ष करना पड़ता है। वहाँ की भौगोलिक, सामाजिक एवं साँस्कृतिक परिस्थितियाँ निरंतर बदलती रहती है। पर्वतीय प्रदेशों में प्राकृतिक आपदा, भूस्खलन, पत्थरों के खिसकने से यहाँ के लोगों का जीवन तथा समाज नष्ट हो जाता है। यहाँ के लोगों का जीवन यहीं के परिवेश तक बँधकर रह जाता है। प्रकृति के प्रति असीम लगाव भी इनको बाहर जाने से रोकता है। यदि कोई व्यक्ति यहाँ से शहर चला भी जाता है तो उसका मन यही भटकता रहता है। पर्वतीय लोग कठिन परिश्रम करके भी सुखी जीवन नहीं बिता पाते हैं। भूप दादा का लड़का भी कम आयु का होने पर घोड़े के साथ काफी पैदल चलकर रोटी-रोजी कमाता है। यहाँ के लोग बहुत भावुक होते हैं। मैदानी इलाकों की तुलना में पर्वतीय प्रदेशों की जिंदगी की कठिनाई, जटिलता, दुखपूर्ण स्थिति को इस कहानी में उभारा गया है।

प्रश्न 17.
अपने ही घर लौटते हुए रूपसिंह को एक अजीब किस्म की लाज और झिझक क्यों हो रही थी ? ‘आरोहण’ कहानी के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर :
प्रायः लोग रोज़गार की तलाश में अपना घर छोड़कर बाहर जाते ही रहते हैं और रोज़गार पाकर समय-समय पर अपने घर लौटते रहते हैं। तब उनके मन में हर्ष और गर्व का भाव होता है। पर रूपसिंह जब ग्यारह वर्ष पश्चात् अपने घर लौटता है तब उस पर एक अज़ीब किस्म की लाज़, अपनत्व और झिझक की भावना हावी होने लगती है।

वह मसूरी के पर्वतारोहण संस्थान में चार हज़ार रुपए महीने की अच्छी नौकरी पा गया था। जब वह गाँव लौटता है तब उसके साथ उसके गॉड फादर कपूर साहब का बेटा शेखर कपूर भी होता है। वे दोनों देवकुंड के स्टॉप पर उतरते हैं और रूपसिंह के गाँव माही जाने की योजना बनाते हैं। रूपसिंह के मन में कई भाव मिश्रित से हैं; उसे घर लौटते हुए लज्जा आ रही है क्योंकि एक लंबा अंतराल हो गया, अपनत्व की भावना इसलिए, क्योंकि गाँव में उसका अपना परिवार रहता है, झिझक इसलिए कि घर-गाँव के लोग क्या कहेंगे। उसकी इस मनःस्थिति के कारण निम्नलिखित हैं-

  • वह घर से सामान्य परिस्थिति में नहीं गया था, बल्कि बड़े भाई भूपदादा को धक्का मारकर घर से भाग गया था।
  • उसे घर से गए एक लंबा समय (ग्यारह वर्ष) हो गया था।
  • उसे शेखर के सामने इसलिए झिझक हो रही थी कि ग्यारह वर्ष बीत जाने के बावजूद अभी तक उसके गाँव के लिए पक्की सड़क नहीं बन पाई थी।

प्रश्न 18.
‘बचपन में बाबा के द्वारा सुनाई गई नन्हीं चिड़िया की कहानी भूपसिंह के जीवन-संघर्ष की भी कहानी है।’ ‘आरोहण’ पाठ के आधार पर सोदाहरण पुष्टि कीजिए।
उत्तर :
भूपसिंह अपने छोटे भाई रूप को बचपन में बाबा द्वारा सुनाई गई कहानी का स्मरण कराता है-एक नन्हीं चिड़ियावाली कहानी। गीध ने कहा था, “मैं तुझे खा जाऊँगा।” गीध के ऐसा कहने पर चिड़िया डर गई। उसने पूछा-क्यों ? तब गीध बोला, ‘इसलिए कि तू मुझसे ऊँचा नहीं उड़ सकती।’ यह अजीब जबर्दस्ती का तर्क था। नन्हीं चिड़िया ने धीरज धरकर पूछा, “और मैं अगर तुझसे ऊँचा उड़कर दिखा दूँ तो?” गीध उसके बचकाने पर हैँसा और बोला-‘ तो नहीं खाऊँगा।’ दोनों का मुकाबला शुरू हुआ। गीध लंबे-लंबे डैने फहराकर ऊपर से ऊपर उड़ता चला गया।

पर चिड़िया ने धीरज नहीं छोड़ा। उसने सोचा जब मरना ही है तो क्यों न मौत से दो-दो हाथ करके मरूँ। कम-से-कम कोई मलाल तो नहीं रहेगा। चिड़िया पूरी ताकत लगाकर उड़ी और गीध की पीठ पर जा बैठी। गीध ऊपर उड़ता रहा, पर चिड़िया तो गीध की पीठ पर थी, अब उसे कोई डर नहीं था। वह हर हालत में उससे ऊँचाई पर थी। यही कहानी भूपसिंह के जीवन-संघर्ष की भी थी। जब भूपसिंह का सब कुछ चला गया तब वह भी चिड़िया की भांति मौत की पीठ पर जा बैठा। धीरे-धीरे अपने प्रयास से खेती शुरू की तथा घर-बार बसा लिया।

प्रश्न 19.
‘आरोहण’ कहानी के आधार पर भूपसिंह पर आई उन विपत्तियों का उल्लेख कीजिए जिन्हें झेलते हुए भी भूपसिंह नहीं घबराया और अपना अलग संसार बनाने में लगा रहा।
उत्तर :
‘आरोहण’ कहानी में पता चलता है कि छोटे भाई रूपसिंह के जाने के बाद भूपसिंह पर अनेक विपत्तियाँ आई, पर वह विपत्तियों से घबराया नहीं और अपना अलग संसार बनाने के प्रयासों में लगा रहा। भूपसिंह ने स्वयं रूपसिंह को अपने विपत्ति भरे दिनों के बारे में बताते हुए कहा-
तेरे जाने के बाद अगले साल यहाँ बहुत बर्फ ग़री। हिमांग पहाड़ धसक गया। माँ-बाबा भी दब गए। मैं किसी तरह बच गया। चारों ओर तबाही थी। तुझे बचपन में बाबा की सुनाई कहानी याद होगी-‘ नन्हीं चिड़िया वाली’। उसे गीध ने कहा था-मैं तुझे खा जाऊँगा। चिड़िया डर गई। चिड़िया ने धीरज रखकर पूछा-और, अगर मैं तुझसे ऊँचा पहाड़ उड़कर दिखा दूँ तो,” गीध उसके बचकाने पर हँसा। उसने पूरी ताकत लगा दी उड़ने में ; और उड़कर जा बैठी गीध की पीठ पर।

अब चिड़िया को कोई डर न था। वह हर हालत में उससे ऊँचाई पर थी। इसी तरह भूप भी मौत की पीठ पर था। थोड़ी-बहुत खेती शुरू की। वह शैला को नीचे ले आया। उसके आने से खेती फैल गई। वे पानी की समस्या हल करने के लिए एक झरने को मोड़कर लाने में सफल भी हो गए। रूप ने शैला भाभी के बारे में पूछा। भूप ने बताया कि काम काफी बढ़ गया है और शैला को बच्चा होने वाला था। फिर मै एक दूसरी औरत (यह भाभी) ले आया। शैला से एक बेटा हुआ-महीप। महीप अभी नौ साल का था कि शैला यहीं से नदी में कूद गई। बेटा जो नीचे उतरा तो लाख समझाने पर भी ऊपर नहीं आया। वह अपनी माँ की मौत के लिए मुझे ही गुनाहगार समझता है। इन विपत्तियों के बावजूद भूप दादा दूसरी शादी करके अपना अलग संसार बनाने में लगा रहा।

प्रश्न 20.
‘मेरी खुद्दारी को बखा दो। अब तो जिंदा रहने तक न ये बैल उतर सकते हैं, न हम।’ ‘आरोहण’ में भूप के उपर्युक्त कथन के आलोक में उसके व्यक्तित्व का चित्रण कीजिए।
उत्तर :
भूपदादा अत्यंत खुद्दार किस्म का व्यक्ति है। वह छोटे भाई महीप का शहर चलने का प्रस्ताव ठुकरा देता है। ‘आरोहण’ कहानी से स्पष्ट है कि पहाड़ों की चढ़ाई में भूप दादा का कोई जवाब नहीं है। इस क्षेत्र में उन्हें कोई हरा नहीं सकता। यद्यपि उनका छोटा भाई रूपसिंह पहाड़ों पर चढ़ना सिखाता है, पर भूप दादा के सामने वह भी बौना सिद्ध होता है। वे पहाड़ों पर चढ़ने की कला में अत्यंत कुशल हैं। भूप दादा अत्यंत परिश्रमी हैं। वे अपनी पहली पत्नी शैला के साथ मिलकर झरने के रुख को बदलने में कामयाब हो जाते हैं। खेती को बढ़ाने में भी उन्होंने खूब परिश्रम किया। भूप दादा अत्यंत स्वाभिमानी प्रकृति के हैं। वे माही गाँव के लोगों से इसलिए बात नहीं करते क्योंकि उन्होंने उनकी बकरी के बच्चे की देवता को बलि चढ़ा दी थी। भूपसिंह अपने छोटे भाई के अनुरोध को भी ठुकरा देता है और कहता है-मेरी खुद्दारी को बख्श दो । अब वे जिंदा रहने तक पहाड़ से नीचे नहीं उतरेंगे।

प्रश्न 21.
‘आरोहण’ कहानी के आधार पर भूप दादा के जीवन की कठिनाइयों और उसकी खुद्दारी पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
उत्तर :
भूप दादा ने पहाड़ों पर जीवन बिताते हुए अनेक कठिनाइयाँ झेलीं। वह रूपसिंह के चले जाने पर बिल्कुल अकेला पड़ गया था। खेती का काम बढ़ जाने के कारण वह शैला को ले आया था। दोनों ने मिलकर खेती के लिए पानी की समस्या का हल जुटाने में लग गए। वे एक झरने का रुख मोड़ने में सफल रहे। पर भूप दादा जीवन में कभी हार नहीं मानता। वह किसी से मदद नहीं माँगता।

भूप दादा अत्यंत खुद्दार किस्म का व्यक्ति है। वह छोटे भाई का शहर चलने का प्रस्ताव ठुकरा देता है। ‘आरोहण कहानी से स्पष्ट है कि पहाड़ों की चढ़ाई में भूप दादा का कोई जवाब नहीं है। इस क्षेत्र में उन्हें कोई हरा नहीं सकता। यद्यपि उनका छोटा भाई रूपसिंह पहाड़ों पर चढ़ना सिखाता है, पर भूप दादा के सामने वह भी बौना सिद्ध होता है। वे पहाड़ों पर चढ़ने की कला में अत्यंत कुशल है।
भूप दादा अत्यंत परिश्रमी हैं। वे अपनी पहली पत्नी शैला के साथ मिलकर झरने के रुख को बदलने में कामयाब हो जाते हैं। खेती को बढ़ाने में भी उन्होंने खूब परिश्रम किया।

प्रश्न 22.
‘आरोहण’ पाठ के आधार पर ‘पर्वतारोहण’ की प्रासंगिकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
पर्वतारोहण : पर्वतारोहण आज भी प्रासंगिक है, पर पर्वतों पर चढ़ने के लिए केवल निर्भीकता, परिश्रम और कष्ट झेलने की क्षमता की ही आवश्यकता नहीं होती। वास्तव में पर्वतारोहण एक कला है। पुराने जमाने में लोग विशेष तैयारी या साज-सामान के बिना, केवल भक्तिभाव से देवी-देवताओं के पुण्यधाम, इन दुर्गम, चोटियों के दर्शन के लिए जाते रहे किंतु इस युग में अनेक संस्थाओं में पर्वतारोहणों की शिक्षा दी जाती है। वहाँ शिक्षार्थियों को बर्फीले पहाड़ों की परिस्थितियों और कठिनाइयों की जानकारी कराई जाती है। उन्हें नवीन उपकरणों की प्रयोग-विधि बताई जाती है। दार्जिलिंग का ‘हिमालय पर्वतारोहण संस्थान’ एक ऐसा ही आदर्श शिक्षा केंद्र है। पर्वतारोहण में सबसे उपयोगी उपकरण बर्फ काटने की कुल्हाड़ी अथवा हिम कुठार होता है। इसे आरोही की तीसरी टाँग ही समझना चाहिए। इसी के सहारे आरोही अपने को अचानक फिसल जाने से बचाता है। सपाट चढ़ाई पर इसे बर्फ में घुसाकर अपना संतुलन कायम रखता है। इसी से रास्ते की बर्फ काट-काट कर सीढ़ियाँ बनाई जाती हैं।

प्रश्न 23.
‘आरोहण’ कहानी के आधार पर भूपसिंह और रूपसिंह के स्वभाव और परिस्थितियों के अंतर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भूपसिंह और रूपसिंह दोनों सगे भाई हैं पर दोनों के स्वभाव में बड़ा भारी अंतर है। भूपसिंह कठोर परिश्रमी है तो रूपसिंह आराम का जीवन जीने का आदी है। भूपसिंह पहाड़ों पर रहकर ही कठोर परिस्थितियों से संघर्ष करता है जबकि रूपसिंद घर से भागकर मसूरी के पर्वतारोहण संस्था में नौकरी कर लेता है। भूपसिंह का पहाड़ पर चढ़ना उसकी दिनचर्या का अंग है तो रूपसिंह का पर्वतारोहण एक शौक और आजीविका का साधन मात्र है। भूपिंह ने पहाड़ों पर अपने जीवन की एक नई गाथा रच डाली। इस प्रवृत्ति ने उसे स्वाभिमानी एवं खुद्दार बना दिया जबकि रूपसिंह के स्वभाव में खुद्दारी नहीं आ पाई। भूपसिंह स्वयं में एक संतोषप्रिय व्यक्ति है। उसे अधिक सुख सुविधाओं की कोई लालसा नहीं है। वह अपने पशुओं तक को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाना चाहता, जबकि रूपसिंह में यह बात नहीं है।

प्रश्न 24.
“-पहाड़ धसक गया और अपने तीस नाली खेत, मकान, माँ-बाबा सब दब गए मलबे में। मैं ही किसी तरह बच गया, घानी पर था, इसलिए वहीं से तबाही देखी थी, मैंने लाचार, असहाय…….” “-इस कथन के आलोक में पहाड़ों पर प्राय: आने वाली प्राकृतिक आपदाओं तथा पहाड़वासियों की जिजीविषा और साहस पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
भूपसिंह अपने छोटे भाई रूपसिंह को अपने गत जीवन-संघर्ष के बारे में बताते हुए कहता है कि उस सच्चाई को मैं ही जानता हूँ जिसने उसे भुगता है। तेरे (रूपसिंह) के चले जाने के बाद अगले साल बहुत बर्फ पड़ी। हिमांग पहाड़ उसका बोझ उठा नहीं सका और नीचे धसक गया। इस दुर्घटना में मेरे तीस नाली खेत, मकान, माँ-बाबा सब दब गए। मैं तो इसलिए बच पाया क्योंकि मैं छानी पर था।

इस घटना के आधार पर कहा जा सकता है कि पहाड़ों प्रायः प्राकृतिक आपदाएँ आती रहती हैं और पहाड़ों पर रहने वाले लोगों को इन्हें झेलना ही पड़ता है। इन्हें झेलना लोगों की विवशता है। पहाड़ दूर से भले ही सुंदर प्रतीत होते हों, पर वहाँ का जीवन अत्यंत कठिन होता है। पहाड़ों पर जन-सुविधाओं का घोर अकाल रहता है।

पहाड़ों पर भू-स्खलन तथा हिम स्खलन की घटनाएँ प्राय: घटित होती रहती हैं। इनसे वहाँ व्यापक विनाश होता है। वहाँ के रास्ते अवरुद्ध हो जाते हैं, आवागमन में बाधा आती है। यहाँ सड़कों का भी अभाव है। यहाँ आने-जाने के रास्ते तंग होते हैं। वहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं का भी अभाव रहता है। पहाड़ों पर बारहों महीने ठंड पड़ती है। गरम कपड़े पर्याप्त मात्रा में नहीं होते हैं। यहाँ तक खाद्य-सामग्री ले जाना भी कठिन है। कुल मिलाकर पहाड़वासियों का जीवन कठिनाइयों से भरा होता है। यह तो पहाड़वासियों की ही जिजीविषा है जो उन्हें विषम परिस्थितियों में भी जिंदा रखती है। पहाड़ी लोग बड़े साहसी होते हैं। वे प्राकृतिक आपदाओं को अपने साहस के बलबूते पर झेलते हैं।

प्रश्न 25.
महीप कौन है और वह अपने विषय में बात पूछे जाने पर उसे टाल क्यों देता है ?
उत्तर :
महीप भूपसिंह का बेटा है। वह अपने पिता भूपसिंह से नाराज़ होकर अलग रहता है। वह अपना जीवन-यापन स्वयं करता है। वह घोड़ा चलाने का काम करता है। वह अपने और अपने परिवार के बारे में किसी से बात नहीं करना चाहता। वह 9-10 साल का बालक है। वह नीचे से सवारियों को अपने घोड़े पर बिठाकर पहाड़ पर ऊपर ले जाने का काम करता है।

उसके घोड़े पर दो सैलानी शेखर और रूपसिंह बैठते हैं। बालक महीप उनके साथ-साथ पैदल चलता है। यह एक बड़ी विचित्र स्थिति है। किसी बालक के लिए 15 कि.मी. पैदल जाना और फिर लौटना कितना कठिन काम होता होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। वह मजदूरी करके पेट पालता है। शेखर और रूपसिंह उसके बारे में बातचीत करते चलते हैं। वे महीप से उसके बारे में पूछते हैं तो वह यह कहकर टाल देता है- “साब, बात मत करो। रास्ता भौत खराब है।” जब उससे पूछा जाता है-” तुमने बताया नहीं, तुम क्यों भाग आए थे अपने घर से ?” तो महीप जैसे सुनता ही नहीं। महीप रूप के प्रश्नों पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता है। बातचीत से संभवत: वह जान जाता है कि यह रूपसिंह उसका चाचा है। पर वह अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहता।

प्रश्न 26.
“जब भूपसिंह के भाई रूपसिंह ने उसे अपने साथ चलने का प्रस्ताव किया तब भूप ने अपनी भीगी पलकें ऊपर उठाई तो वे अंदर जल रही थी, “भौत इंसाफ किया तुम सबी ने मेरे साथ भौत। अब माफ़ करो भुइला। मेरी खुद्यारी को बखस दो। अब तो जिंदा रहणे तक न ई बल्य उत्तर सकदिन; न हम।”‘-भूपसिंह इतने दुखों को उठाकर भी वहाँ से जाना नहीं चाहता, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़ा रहना चाहता है। क्या आप भी ऐसा सोचते हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर :
‘आरोहण’ कहानी का प्रमुख पात्र भूपसिंह अत्यंत आत्म-सम्मानी व्यक्ति है। वह कभी भी स्वयं को अकेला नहीं मानता। जब रूपसिंह उससे कहता है-” मगर यहाँ आप अकेले हैं।” तब वह कहता है- “‘कौण कैता है, अकेला हूँ? हयाँ माँ है, बाबा हैं, शैला है-सोये पड़े हैं सब। हयाँ महीप है, बल्द है, मेरी घरवाली है। मौत के मुँह से निकाले गए खेत हैं, पेड़ हैं, झरणा है। इन पहाड़ों में मेरे पुरखों, मेरे प्यारों की आत्मा भटकती रहती है। मैं उनसे बात करता हूँ।” जब रूपसिंह बची-खुची जिंदगी के साथ इंसाफ करने की बात कहता है तब भूपसिंह फट पड़ता है और कह उठता है-” भौत इंसाफ किया तुम लोगों ने मेरे साथ। अब मेरी खुद्दारी को बखस दो। अब मैं यहीं रहूँगा और कही नहीं जाऊँगा।” भूपसिंह अपनी जड़ों से जुड़ा रहना चाहता है। वह पहाड़ी जीवन का अभ्यस्त है। वह शहर की सुख-सुविधाओं को भोगने के लिए यहाँ से नहीं जाना चाहता। हमें भूपसिंह की खुद्दारी की भावना बहुत अच्छी लगी। हमें भी अपना घर छोड़ना अच्छा नहीं लगता। हमें भी अपने जड़ों से सदा जुड़े रहना चाहिए।

प्रश्न 27.
‘आरोहण’ कहानी में लेखक ने क्या रेखांकित किया है ?
उत्तर :
‘आरोहण’ कहानी में लेखक ने पर्वतारोहण की जरूरत और वर्तमान समय में उसकी उपयोगिता को रेखांकित किया है। पर्वतीय प्रदेश के रहने वालों के जीवन-संघर्ष तथा वहाँ के प्राकृतिक परिवेश से उनके संबंधों को रेखांकित किया है। किस तरह पर्वतीय प्रदेशों में प्राकृतिक आपदा, भूस्खलन, पत्थरों के खिसकने से पूरा जीवन तथा समाज नष्ट हो जाता है, ‘आरोहण’ कहानी इसका जीवंत उदाहरण है। आरोहण पहाड़ी लोगों की जीवनचर्या का एक भाग है, कितु उन्हें आश्चर्य तब होता है, जब यह पता चलता है कि वही आरोहण किसी को नौकरी भी दिला सकता है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने पर्वतीय प्रदेशों की बारीकियों, उनके जीवन के सूक्ष्म अनुभवों, परंपराओं, रीति-रिवाज़ों, उनके संघर्षों, यातनाओं की संजादगी के साथ प्रस्तुत किया है। मैदानी इलाकों की तुलना में पर्वतीय प्रदेशों की जिंदगी कितनी कठिन, जटिल, दुखद और संघर्षमय होती है, इसका विशद-चित्रण इस कहानी में हुआ है।

प्रश्न 28.
देवकुंड के स्टॉप पर उतरकर रूपसिंह ने क्या दृश्य देखा ?
उत्तर :
बस से देवकुंड के स्टॉप पर उतरकर रूपसिंह की नज़र सबसे पहले अपने गाँव की ओर गई। वह पूरे 11 साल बाद अपने गाँच माही लौट रहा था। उसने देखा कि ग्यारह साल बीत जाने के उपरांत भी अभी तक माही गाँव जाने के लिए कोई पूरी सड़क नहीं बन पाई थी। उसके साथ कोई और व्यक्ति भी था-गॉड फादर कपूर साहब का बेटा शेखर। शेखर बाइनोक्यूलर से पहाड़ों और घाटियों की ओर देख रहा था। रूपसिंह आँखें बंद करके पंद्रह किलोमीटर दूर अपने गाँव को देखने लगा। उसके और माही गाँव के बीच अभी कई पहाड़, कई नदियाँ और कई घाटियाँ थीं।

उसने अपने सामने किसी विशाल डायनासॉर की तरह पसरे पहाड़ को देखा। उसके पीछे की जर्द परतों को देखा जिन पर बादल और धुंध की फफूँदियाँ जड़ी हुई थीं। उसके हिसाब से अभी वह छह हज़ार फीट की ऊँचाई पर था और उसे यहाँ से 15 कि. मी. चलकर दस हजार फ़ीट की ऊँचाई पर पहुँचना था। उसने अपनी कलाई पर बँधी अपनी इंपोर्टेड घड़ी पर नज़र गड़ाई। अभी सुबह के दस बज रहे थे। चाय का गिलास थामते हुए उसने आस-पास एक उड़ती-सी नज़र डाली और चायवाले से पूछ्छ-” यहाँ कोई घोड़ा-वाड़ा नहीं मिलता क्या ?” चायवाले ने माही को पुकार कर घोड़ा दिलवा दिया।

प्रश्न 29.
शेखर और रूपसिंह दो अलग-अलग घोड़ों पर सवार होकर जब माही गाँव की ओर जा रहे थे, तब उनके रास्ते के दृश्य का वर्णन अपने शब्दों में करो।
उत्तर :
शेखर और रूपसिंह अलग-अलग घोड़ों पर सवार थे। महीप शेखर वाले घोड़े के साथ पैदल चल रहा था। पहाड़ तक रास्ता ठीक-ठाक था। धूप का उजला चँदोबा दरकने लगा था। धूप की सुनहरी पट्टियों के बीच छाया की स्याह पट्टियाँ किसी धारीदार जानवर की तरह लग रही थीं। चढ़ाइयाँ और ढलानें आ रही थीं। बीच-बीच में छोटे-छोटे घरौंदे, जैसे मशरुम सेंटर के कुकुरमुत्तों की फसल दूर तक छिटक गई हो। सामने पहाड़ों पर बादलों के पंख लग गए थे, जो झर-झर कर उनके अगल-बगल में उड़ रहे थे। नीचे घास, लताएँ और पेड़ों की कहीं फीकी, तो कहीं चटक हरियाली समेट पहाड़ कहीं कच्चे और पक्के थे। नीचे कोई नदी बह रही थी, शायद सूपिन नहीं थी। घाटी से किसी अदृश्य नारी-कंठ से गीत उमड़ता सुनाई दे रहा था जो पतले दर्दीले स्वर में था। दोनों यात्री पहाड़ के नीचे नदी के बगल के पथरीले रास्ते पर चले जा रहे थे। कोई घास काटने वाली पहाड़ी लड़की गा रही थी।

प्रश्न 30.
शेखर और रूपसिंह के बीच हुई प्रेम संबंधी बातचीत को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
शेखर के पूछने पर रूपसिंह बताता है कि मेरी शैला से भेड़ें चराने के दौरान ही मुलाकात हुई थी। वह बहुत सुंदर थी। में तो उसकी गुलामी करने में ही स्वयं को धन्य समझता था। वह खुद बैठकर स्वेटर बुना करती थी और मैं (रूप) उसकी भेडें हाँका करता था। मैं उसके लिए बुरूंस के फूल तोड़ लाता। उसे ये फूल बहुत पसंद थे। उन दिनों मुझे यदि कहीं से सेब या आड् मिल जाते थे तो मैं सबसे पहले उसी को लाकर देता था। बदले में वह मुझे कभी-कभी देवता का प्रसाद, मक्की की रोटी वगैरह देनी थी। बाद में मुझे पता चला कि वह स्वेटर भूप दादा के लिए बुना जा रहा था। जब शेखर ने मज़ाक में कहा-तेरी इस लव-स्टोरी में तो कोई दम नहीं, कोई और नहीं मिली क्या कभी? रूपसिंह बोला-“मिली क्यों नहीं; उस दौरान कइयों से वास्ता पड़ा, पर अब तो वे सब ब्याहकर अपने-अपने घर चली गई होंगी”‘

प्रश्न 31.
“कुहासे का होना क्या मायने रखता है, इन पहाड़ों में, इसे तो कोई पहाड़ी ही समझ सकता है।” ‘आरोहण’ में रूपसिंह के उक्त कथन को स्पष्ट करते हुए उसकी वेदना समझाइए।
उत्तर :
रूपसिंह और शेखर पहाड़ी रास्ते से चले जा रहे थे। तभी उन्हें घास गढ़ने वाली पहाड़ी लड़की के दर्द भरे गीत के स्वर सुनाई देते हैं। उस गीत का भाव था-ऐ कुहरे, ऊँची-नीची पहाड़ियों में तुम न लगो जाकर। इस भाव को समझाते हुए रूपसिंह की आवाज भर्रा जाती है। वह शेखर को पूछने पर बताता है-” यह एक दर्द की टेर है….आपने वो गीत सुना होगा- ” छुप गया कोई रे दूर से पुकार के।” शेखर गीत पूरा करता है-” दर्द अनोखे हाय दे गया प्यार के।”

यह कह-सुनकर रूपसिंह पुरानी यादों में खो जाता है। वह बड़े भाई भूपसिंह का साथ छोड़कर शहर चला गया। इस प्रकार से यह रिश्तों पर कुहासे (कोहरे) का होना है। इसमें रिश्ते धुँधला जाते हैं। प्रेम के नाते तक नजर नहीं आते। पास में खड़े व्यक्ति को पहचान तक नहीं पाते। इस दर्द को पहाड़ी व्यक्ति ही भली प्रकार समझ सकता है। रूपसिंह के मन की वेदना इस कथन में उभरकर सामने आती है। भूपसिंह और रूपसिंह के रिश्तों पर भी कुहासा छा जाता है।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antral Chapter 3 Question Answer बिस्कोहर की माटी

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antral Chapter 3 बिस्कोहर की माटी

Class 12 Hindi Chapter 3 Question Answer Antral बिस्कोहर की माटी

प्रश्न 1.
कोइयाँ किसे कहते हैं? उसकी विशेषताएँ बताइए?
उत्तर :
कोईयाँ एक जलपुष्प है। इसे कुमुद और कोका-बेली भी कहते हैं। शरद् ऋतु में जहाँ भी गड्ढा और उसमें पानी होता है, वहीं कोइयाँ फूल उंठती हैं। रेलवे लाइनों के दोनों ओर प्राय: गड्ढों में पानी: भरा होता है। इनमें कोइयाँ फूलता है। कोइयाँ को सर्वत्र देखा जा सकता है।
विशेषताएँ : शरद की चाँदनी में सरोवरों में चाँदनी का प्रतिबिम्ब और खिली हुई कोइयों की पत्तियाँ एक हो जाती हैं। -इसकी गंध बड़ी मनभावन होती है।

प्रश्न 2.
‘बच्चे का माँ का दूध पीना सिर्फ दूध पीना नहीं है, ,ाँ से बच्चे के सारे संबंधों का जीवन चरित होता है’ टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
जन्म के उपरांत बच्चा भोजन के रूप में माँ के दूध ही ग्रहण करता है। वह काफी सकय तक माँ के दूध से ही अपना पेट भरता है। माँ अपने आँचल में छिपाकर बच्चे को दूध पिलाती है। यह बच्चे का केवल दूध पीना ही नहीं है। इस क्रिया के साथ माँ-बच्चे के सारे संबंध चरितार्थ होते हैं। माँ बच्चे को गोद में लेकर दूध पिलाती है। बच्चा माँ के गोद में कभी रोता है, कभी हैसता है। कभी वह माँ से चिपटता है, तो कभी माँ को पैर मारता है। माँ को बच्चे की ये सब क्रियाएँ अच्छी लगती है।

वह इन क्रियाओं के दौरान बच्चे को प्यार करती है। उसे अपनी स्नेह छाया से दूर होने नहीं देती। वैसे वह स्नेहवश कभी-कभी उसे मारती भी है, तब भी बच्चा माँ से चिपटा रहता है। बच्चा माँ के पेट का स्पर्श-गंध भोगता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वह पेट में अपनी जगह ढूँढ रहा है। बच्चे को दूध पिलाने वाली माँ युवती होती है। उसके स्तन दूध से भरे होते हैं। वह बच्चे को माँ, नारी, मित्र सभी प्रकार का सुख एक साथ देती है। माँ की गोद में लेटकर बच्चे का माँ का दूध पीना, जड़ से चेतन होने यानि मानव जन्म लेने को सार्थकता प्रदान करता है।

प्रश्न 3.
बिसनाथ पर क्या अत्याचार हो गया?
उत्तर :
बिसनाथ (विश्वनाथ) जब शिशु था तब पहले वह अकेला था और माँ के दूध का एकमात्र हकदार था। तभी छोटा भाई आ गया। विश्वनाथ माँ के दूध से कट गया। अब माँ के दूध पर छोटे भाई का कब्जा हो गया। इस प्रकार बिसनाथ (विश्वनाथ) पर अत्याचार हो गया। लेकिन बिसनाथ भी आसानी से कब्जा छोड़ने वाला नहीं था। उसने माँ के दूध के स्थान पर गाय का दूध पीने से इंकार कर दिया। गाय के दूध पहचानते ही वह चीखता-” हम गैयक दूध नाहीं पियब; अम्मक दूध पियब (अर्थात् हम गाय का दूध नहीं पिएँगे, अम्मा का दूध पिएँगे)। पर दाई की चालाकी से बिसनाथ का माँ का दूध पीना छुड़ा ही दिया गया। अब छोटा भाई ही अम्मा का दूध पीता था।

प्रश्न 4.
गरमी और लू से बचने के उपायों का विवरण दीजिए। क्या आप भी इन उपायों से परिचित हैं?
उत्तर :
गर्मी और लू से बचने के उपाय :

  • गर्मी और लू से बचने के लिए माँ बालक की धोती या कमीज में गाँठ लगाकर प्याज बाँध देतीं। प्याज से लू बेअसर हो जाती है।
  • कच्चे आम का पन्ना गर्मी और लू से बचाता है।
  • कच्चे आम को भूनकर गुड़ या चीनी में मिलाकर उसका शरबत बनाकर पीना, देह (शरीर) में लेपना या नहाना भी उपयोगी रहता है।
  • कच्चे आम को भून या उबालकर सिर धोने से भी गर्मी और लू से बचाव होता है।

हाँ, हम भी इन उपायों से परिचित हैं। हम भी प्याज और कच्चे आम को भूनकर प्रयोग करते हैं।

प्रश्न 5.
लेखक बिसनाथ ने किन आधारों पर अपनी माँ की तुलना बत्तख से की है?
उत्तर :
बत्तख अंडां देने के समय पानी को छोड़कर जमीन पर आ जाती है। बत्तखें अपने अंडों को सेती हैं। वे अपने पंख फुलाए उन्हें दुनिया की नजरों से छिपाकर रखती हैं। बत्तख बहुत सतर्कता एवं कोमलता से काम करती है। इसी प्रकार माँ भी अपने बच्चे की देखभाल करती है। बिसनाथ की माँ और बत्तख में ममता के आधार पर पर्याप्त समानता है। माँ भी बत्तख की तरह अपने बच्चों को अपने आँचल की छाया में छिपाकर रखती है। दोनों को अपने बच्चों के साथ लगाव होता है।

प्रश्न 6.
बिस्कोहर में हुई बरसात को जो वर्णन बिसनाथ ने किया है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
बिस्कोहर में वर्षा सीधे-सीधे नहीं आती थी। पहले बादलों के घिरने और गड़गड़ाहट की आवाजें सुनाई देती हैं। पूरे आकाश में इतने बादल घिर आते हैं कि दिन में ही रात प्रतीत होने लगती। ‘चढ़ा आकास गगन घन गाजा, घन घमंड गरजत घर घोरा’ जैसा वातावरण उपस्थित हो जाता है। कभी ऐसा लगता था कि जैसे दूर से घोड़ों की पंक्ति दौड़ी चली आ रही है। कई दिन तक बरसने पर दीवार गिर जाती, घर धैस जाते। जब भीषण गर्मी के बाद बरसात होती तब कुत्ते, बकरी, मुर्गी-मुर्गे आवाजें करते इधर-उधर भागे फिरते थे। इस वर्षा में नहाने से चर्म रोग ठीक हो जाते थे। वर्षा के प्रभाव से दूबों, वनस्पतियों आदि में नई चमक दिखाई देने लगती है। वर्षा के बाद कीचड़, बदबू, बाढ़ की समस्या उत्पन्न हो जाती है।

प्रश्न 7.
फूल केवल गंध ही नहीं देते , दवा भी करते हैं, कैसे?
उत्तर :
फूल गंध तो देते ही हैं, इसके साथ-साथ वे दवा का काम भी करते हैं। कमल, कोइयाँ, हरसिंगार आदि के फूल मनभावन गंध बिखेरते हैं। पीली सरसों खेतों में तेल की गंध तैरा देते हैं। बिसनाथ के गाँव में ‘भरभंडा’ सूू होता है। इसे सत्यानाशी भी कहते हैं। यह फूल दवा का काम भी करता है। आँखें आ जाने (दुखने पर) माँ उसका दूध आँख में लगाती है। वह ठीक हो जाती है। नीम के फूल और पत्ते चेचक के रोगी के पास रखे जाते हैं। इससे वह ठीक रहता है। बेर का फूल सूँघने से बरें-ततैये का डंक झड़ जाता है। इस प्रकार कई फूल दवा का काम भी करते हैं।

प्रश्न 8.
‘प्रकृति सजीव नारी बन गई’ – इस कथन के आलोक में निहित जीवन मूल्यों को ‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जाड़े की धूप और चैत की चाँदनी में ज्यादा फर्क नहीं होता। बरसात की भीगी चाँदनी चमकती तो नहीं लेकिन मधुर और शोभा के भार से दबी ज्यादा होती है। वैसे ही बिस्कोहर की वह औरत। पहली बार उसे बढ़नी में एक रिश्तेदार के यहाँ देखा। बिसनाथ की उमर उससे काफी कम है-ताज्जुब नहीं दस बरस कम हो, बिसनाथ 10 से ज्यादा के नहीं थे। देखा तो लगा चाँदनी रात में बरसात की चाँदनी रात में जूही की खुशबू आ रही है। बिस्कोहर में उन दिनों बिसनाथ संतोषी भइया के घर बहुत जाते थे। उनके आँगन में जूही लगी थी। उसकी ख्रुशबू प्राणों में बसी रहती थी।

यों भी चाँदनी में सफेद फूल ऐसे लगते हैं मानो पेड़ों, लताओं पर चाँदनी ही फूल के रूप में दिखाई पड़ रही हो। चाँदनी भी प्रकृति, फूल भी प्रकृति और खुशबू भी प्रकृति। वह औरत बिसनाथ को औरत के रूप में नहीं, जूही की लता बन गई चाँदनी के रूप में लगी जिसके फूलों की खुशबू आ रही थी। प्रकृति सजीव नारी बन गई थी और बिसनाथ उसमें आकाश, चाँदनी, सुर्गंधि सब देख रहे थे। वह बहुत दूर की चीज इतने नजदीक आ गई थी। सौंदर्य क्या होता है, तदाकार परिणति क्या होती है। जीवन की सार्थकता क्या होती है, यह सब बाद में सुना, समझा, सीखा सब उसी के संदर्भ में। वह नारी मिली भी-बिसनाथ आजीवन उससे शरमाते रहे। उसकी शादी बिस्कोहर में ही हुई। कई बार मिलने के बाद बहुत हिम्मत बाँधने के बाद उस नारी से अपनी भावना व्यक्त करने के लिए कहा, ” जो तुम्हैं पाइ जाइ ते जरूरै बोराय जाइ – जो तुम्हें पा जाएगा वह जरूर ही पागल हो जाएगा।”

प्रश्न 9.
ऐसी कौन-सी स्मृति है जिसके साथ लेखक को मृत्यु का बोध अजीब तौर से जुड़ा मिलता है ?
उत्तर :
एक बार बड़े गुलाम अली ने एक पहाड़ी ठुमरी गाई थी-‘अब जो आओ साजन’, ‘सुने अकेले में याद करें’ इस ठुमरी को तो रुलाई आती है और वही औरत इसमें व्याकुल नजर आती है। वह सफेद रंग की साड़ी पहने रहती है। घने काले केश सँवारे हुए हैं। उसकी आँखों में आई कथा समाई है। वह सिर्फ इंतजार करती रह जाती है। लेखक को इस स्मृति के साथ मृत्यु का बोध अजीब तौर से होता है।

योग्यता विस्तार –

  1. पाठ में आए फूलों के नाम, साँपों के नाम छाँटिए और उनके रंग-रूप, विशेषताओं के बारे में लिखिए।
  2. इस पाठ से गाँव के बारे में आपको क्या-क्या जानकारियाँ मिर्ली? लिखिए।
  3. ‘वर्तमान समय-समाज में माताएँ नवजात शिशु को दूध नहीं पिलाना चाहतीं। विश्वनाथ स्वयं कहते हैं कि वह दूध कटहा हो गए।- अपनी राय लिखिए।

1. इस पाठ में आए :

फूलों के नाम – साँपों के नाम

कमल – डोंहड़ा
कोइयाँ – मजगिदवा
कुमुद – धामिन
सिघाड़े के फूल – गोंहुअन फेंटारा
हरसिंगार – भटिहा
छोर कड़ाइच

Class 12 Hindi Antral Chapter 3 Question Answer बिस्कोहर की माटी 1

2. इस पाठ से गाँव के बारे में निम्नलिखित जानकारियाँ मिलती हैं-

  • गाँवों का जीवन सीधा-सादा होता है।
  • गाँवों की अपनी स्थानीय सब्जियाँ होती हैं। वहाँ उन्हें खाया जाता है।
  • गाँव की अपनी स्थानीय बोली होती है। यह हरेक गाँव की अपनी होती है।
  • गाँव में वनस्पतियों, जल तथा मिट्टी के विविध रूप देखने को मिलते हैं।
  • गाँवों में प्रकृति का स्वच्छंद एवं निर्मल रूप दिखाई देता है।
  • गाँवों में सब्जियों एवं फलों की भरमार होती है।
  • यहाँ के खेतों में तरह-तरह के अन्न उपजते हैं तथा पीली-पीली सरसों फूलती है।
  • गाँवों में प्राय: साँप निकल आते हैं।
  • गाँवों में वर्षा का अपना आनंद होता है।
  • गाँवों में गर्मी लू से बचने के प्राकृतिक उपाय किये जाते हैं।

3. वर्तमान में माताएँ नवजात शिशु को दूध इसलिए नहीं पिलातीं क्योंकि इससे उनका शारीरिक सौंदर्य नष्ट होता प्रतीत होता है। आज की नारी अपने सौंदर्य की रक्षा के प्रति सीमा से अधिक सचेष्ट है। उनका ऐसा सोचना ठीक नहीं है। बच्चे के विकास के लिए माँ का दूध पीना अत्यंत आवश्यक है।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antral Chapter 3 बिस्कोहर की माटी

प्रश्न 1.
बिसनाथ पर क्या अत्याचार हो गया ? क्या इसे अत्याचार होना कहेंगे ?
दाई ने किसे, क्यों पाला ? आपका पालन-पोषण किसने किया ? दोनों स्थितियों में अंतर स्पष्ट करो।
उत्तर :
बिसनाथ अभी तीन वर्ष का था कि उसका छोटा भाई आ गया। नवजात शिशु को तो माँ का दूध चाहिए। अब तक बिसनाथ (विश्वनाथ) माँ का दूध पीता था। अब से नया बालक पीने लगा। अतः बिसनाथ का दूध कट गया। अब उसे माँ के दुध के स्थान पर गाय का दूध पीने के लिए मिलने लगा। उसका पालन-पोषण भी कसेरू दाई के जिम्मे आ गया। हम इसे अत्याचार होना नहीं कहेंगे। यह एक स्वाभाविक क्रिया है। नए बालक का माँ के दूध पर अधिक अधिकार होता है। बड़े को यह अधिकार छोड़ना ही पड़ता है। इसमें अत्याचार जैसी कोई बात नहीं है। कसेरूू दाई ने तीन बरस के बालक बिसनाथ का पालन-पोषण किया। इसका कारण यह था कि बिसनाथ की माँ के दूसरा बेटा हो गया था। अब उसके लिए बिसनाथ को दूध पिलाना तथा पालना-पोसना कठिन हो गया था। मेरा पालन-पोषण मेरी माँ ने ही किया। हमारे यहाँ नए भाई के आने जैसी स्थिति उत्पन्न नहीं हुई।

प्रश्न 2.
‘प्रकृति सजीव नारी बन गई’ इस कथन के संदर्भ में लेखक की प्रकृति, नारी और सौंदर्य संबंधी कारण अपनी वृष्टि से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जाड़े की धूप और चैत की चाँदनी में ज्यादा फर्क नहीं होता। बरसात की भीगी चाँदनी चमकती तो नहीं लेकिन मध र और शोभा के भार से दबी ज्यादा होती है। वैसे ही बिस्कोहर की वह औरत। पहली बार उसे बढ़नी में एक रिश्तेदार के यहाँ देखा। बिसनाथ की उमर उससे काफी कम है-ताज्जुब नहीं दस बरस कम हो, बिसनाथ 10 से ज्यादा के नहीं थे। देखा तो लगा चाँदनी रात में बरसात की चाँदनी रात में जूही की खुशबू आ रही है। बिस्कोहर में उन दिनों बिसनाथ संतोषी भइया के घर बहुत जाते थे। उनके आँगन में जूही लगी थी। उसकी खुशबू प्राणों में बसी रहती थी। यों भी चाँदनी में सफेद फूल ऐसे लगते हैं मानो पेड़ों, लताओं पर चाँदनी ही फूल के रूप में दिखाई पड़ रही हो। चाँदनी भी प्रकृति, फूल भी प्रकृति और खशबू भी प्रकृति। वह औरत बिसनाथ को औसत के रूप में नहीं, जूही की लता बन गई चाँदनी के रूप में लगी जिसके फूलों की खुशबू आ रही थी।

प्रकृति सजीव नारी बन गई थी और बिसनाथ उसमें आकाश, चाँदनी, सुर्गंधि सब देख रहे थे। वह बहुत दूर की चीज इतने नजदीक आ गई थी। सौंदर्य क्या होता है, तदाकार परिणति क्या होती है। जीवन की सार्थकता क्या होती है, यह सब बाद में सुना, समझा, सीखा सब उसी के संदर्भ में। वह नारी मिली भी-बिसनाथ आजीवन उससे शरमाते रहे। उसकी शादी बिस्कोहर में ही हुई। कई बार मिलने के बाद बहुत हिम्मत बाँधने के बाद उस नारी से अपनी भावना व्यक्त करने के लिए कहा, “जो तुम्हें पाइ जाइ ते जरूरै बोराय जाइ- जो तुम्हें पा जाएगा वह जरूर ही पागल हो जाएगा।”

प्रश्न 3.
वर्तमान समय-समाज में माताएँ नवजात शिशु को दूध पिलाना चाहतीं। आपके विचार से माँ और बच्चे पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है ? अपना मत स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
वर्तमान समय में कुछ माताएँ अपने नवजात शिशु को स्तनपान नहीं कराना चाहतीं। वे उसे दूध तो पिलाना चाहती हैं, पर अपना नहीं, बल्कि डिब्बे का या गाय का। इसके कारण निम्नलिखित हैं :

इन माताओं को अपने नवजात शिशु से अधिक चिंता अपने शारीरिक सौंदर्य की है। वे सोचती हैं कि बच्चे को दूध पिलाने से उनका शारीरिक सौष्ठव कम हो जाएगा। स्तनों में कसाव कम रह जाएगा। उनका ऐसा सोचना ठीक नहीं है।

दूध न पिलाने का दूसरा कारण है उनका नौकरी करने जाना। वे यह नहीं चाहती कि उनकी अनुपस्थिति में बालक दूसरा दूध पीने में हिचकिचाए। वे प्रारंभ में डिब्बे के दूध की आदत डाल देती हैं। बच्चा माँ के दूध का स्वाद जान ही नहीं पातता। हमारे विचार से इसका बच्चे के विकास पर बड़ा दुष्ष्रभाव पड़ता है। उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास नहीं हो पाता है। माँ द्वारा बच्चे को अपना दूध पिलाते समय जो आत्मीय संबंध स्थापित होता है, उसे बच्चा वंचित रह जाता है। वह माँ की ममता की अनुभूति भी नहीं कर पाता है।

प्रश्न 4.
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ के कथ्य का विश्लेषण अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर :
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह पाठ अपनी अभिव्यंजना में अत्यंत रोचक और पठनीय है। लेखक ने उम्र के कई पड़ाव पार करने के बाद अपने जीवन में माँ, गाँव और आस-पास के प्राकृतिक परिवेश का वर्णन करते हुए ग्रामीण जीवन-शैली, लोक-कथाओं, लोक-मान्यताओं को पाठक तक पहुँचाने की कोशिश की है। गाँव, शहर की तरह सुविधायुक्त नहीं होते, बल्कि प्रकृति पर अधिक निर्भर रहते हैं। इस निर्भरता का दूसरा पक्ष प्राकृतिक सौंदर्य भी है जिसे लेखक ने बड़े मनोयोग से जिया और प्रस्तुत किया है। एक तरफ प्राकृतिक संपदा के रूप में अकाल के वक्त खाई जाने वाली कमल-ककड़ी का वर्णन है, तो दूसरी ओर प्राकृतिक विपदा बाढ़ से बदहाल गाँव की तकलीफों का जिक्र है। कमल, कोइयाँ, हरसिंगार के साथ-साथ तोरी. लौकी, भिंडी, भटकटैया, इमली, कदंब आदि के फूलों का वर्णन कर लेखक ने ग्रामीण प्राकृतिक सुषमा और संपदा को दिखाया है तो डोड़हा, मजगिदवा, धामिन, गोंहुअन, घोर कड़ाइच आदि साँपों, बिच्छुओं आदि के वर्णन द्वारा भयमिश्रित वातावरण का भी निर्माण किया है।

ग्रामीण जीवन में शहरी दवाइयों की जगह प्रकृति से प्राप्त फूल, पत्तियों के प्रयोग भी आम हैं जिसे लेखक ने रेखांकित किया है। पूरी कथा के केंद्र में हैं। बिस्कोहर जो लेखक का गाँव है और एक पात्र ‘बिसनाथ’ जो लेखक स्वयं (विश्वनाथ) है। गर्मी, वर्षा और शरद ऋतु में गाँव में होने वाली दिक्कतों का भी लेखक के मन पर प्रभाव पड़ा है जिसका उल्लेख इस रचना में भी दिखाई पड़ता है। दस वर्ष की उम्र के करीब दस वर्ष बड़ी स्त्री को देखकर मन में उठे-बसे भावों, संवेगों के अमिट प्रभाव व उसकी मार्मिक प्रस्तुति के बीच संवादों की यथावत् आंचलिक प्रस्तुति, अनुभव की सत्यता और नैसर्गिकता का द्योतक है। पूरी रचना में लेखक ने अपने देखे-भोगे यथार्थ को प्राकृतिक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत किया है। लेखक की शैली अपने आप में अनूठी और बिल्कुल नई है।

प्रश्न 5.
‘बच्चे का माँ का दूध पीना सिर्फ दूध पीना नहीं है, माँ से बच्चे के सारे संबंधों का जीवन चरित होता है ‘-इस कथन पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर :
जन्म के उपरांत बच्चा भोजन के रूप में माँ का दूध ही ग्रहण करता है। वह काफी समय तक माँ के दूध से ही अपना पेट भरता है। माँ अपने आँचल में छिपाकर बच्चे को दूध पिलाती है। यह बच्चे का केवल दूध पीना ही नहीं है। इस क्रिया के साथ माँ-बच्चे के सारे संबंध चरितार्थ होते हैं। माँ बच्चे को गोद में लेकर दूध पिलाती है। बच्चा माँ की गोद में कभी रोता है, कभी हँसता है। कभी वह माँ से चिपटता है, तो कभी माँ को पैर मारता है। माँ को बच्चे की ये सब क्रियाएँ अच्छी लगती हैं। वह इन क्रियाओं के दौरान बच्चे को प्यार करती है।

उसे अपनी स्नेह छाया से दूर होने नहीं देती। वैसे वह स्नेहवश कभी-कभी उसे मारती भी है, तब भी बच्चा माँ से चिपटा रहता है। बच्चा माँ के पेट का स्पर्श-गंध भोगता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वह पेट में अपनी जगह ढूँढ रहा है। बच्चे को दूध पिलाने वाली माँ युवती होती है। उसके स्तन दूध से भरे होते हैं। वह बच्चे को माँ, नारी, मित्र सभी प्रकार का सुख एक साथ देती है। माँ की गोद में लेटकर बच्चे का माँ का दूध पीना, जड़ से चेतन होने यानि मानव जन्म लेने को सार्थकता प्रदान करता है। हम बच्चे के द्वारा माँ के दूध पीने को बहुत महत्त्वपूर्ण मानते हैं।

प्रश्न 6.
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ के प्रारंभ में लेखक ने कमल, कोइयाँ तथा सिंघाड़े के फूल के बारे में क्या बताया है?
अथवा
‘बिस्कोहर की माटी’ में लेखक द्वारा भोगे यथार्थ को प्राकृतिक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत किया गया है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
उत्तर :
लेखक बताता है कि पूरब टोले के पोखर में कमल फूलते हैं। भोज में हिंदुओं के यहाँ भोजन कमल-पत्र पर परोसा जाता है। कमल पत्र को पुरइन कहते हैं। कमल के नाल को भसीण कहते हैं। आस-पास कोई बड़ा कमल-तालाब था-लेंवडी का ताल, अकाल पड़ने पर लोग उसमें से ‘भसीण’ (कमल-ककड़ी) खोदकर बड़े-बड़े खाँचों में सर पर लाद कर खाने के लिए ले जाते हैं। कमल ककड़ी को सामान्यत: अभी भी गाँव में नहीं खाया जाता। कमल का बीज कमल गट्रा जरूर खाया जाता है। कमल से कहीं ज्यादा बहार कोइयाँ की थी। कोइयाँ वही जल-पुष्प है जिसे कुमुद कहते हैं। इसे कोका-बेली भी कहते हैं। शरद में जहाँ भी गड्ढा और उसमें पानी होता है, कोइयाँ फूल उठती हैं। रेलवे लाइन के दोनों ओर प्राय: गड्ढों में पानी भरा रहता है।

आप उत्तर भारत में इसे प्रायः सर्वत्र पाएँगे। लेखक बहुत दिनों तक यही समझते रहे कि कोइयाँ सिर्फ उनके यहाँ का फूल है। एक बार वे वैष्णो देवी दर्शनार्थ गए तो देखा यह पंजाब में भी रेलवे-लाइन के दोनों तरफ खिला था। शरद की चाँदनी में सरोवरों में चाँदनी का प्रतिबिंब और खिली हुई कोइयाँ की पत्तियाँ एक हो जाती हैं। इसकी गंध को जो पसंद करता है वही जानता है कि वह क्या है। इन्हीं दिनों तालाबों में सिंघाड़ा आता है। सिंघाड़े के भी फूल होते हैं-उजले और उनमें गंध भी होती है। बिसनाथ को सिंघाड़े के फूलों से भरे हुए तालाब से गंध के साथ एक हल्की सी आवाज भी सुनाई देती थी। वे घूम-घूमकर तालाबों से आती हुई वह गंध मिश्रित आवाज सुनते। सिंघाड़ा जब बतिया छोटा-दूधिया होता है तब उसमें वह गंध भी होती है।

प्रश्न 7.
माँ के साथ बच्चे का क्या संबंध होता है?
उत्तर :
माँ आँचल में छिपाकर दूध पिलाती है। बच्चे का माँ का दूध पीना सिर्फ दूध पीना नहीं। माँ से बच्चे के सारे संबंधों का जीवन-चरित होता है। बच्चा सुबुकता है, रोता है, माँ को मारता है, माँ भी कभी-कभी मारती है, बच्चा चिपटा रहता है, माँ चिपटाए रहती है, बच्चा माँ के पेट का स्पर्श, गंध भोगता रहता है, पेट में अपनी जगह जैसे ढूँढता रहता है। बिसनाथ ने एक बार जोर से काट लिया। माँ ने जोर से थप्पड़ मारा फिर पास में बैठी नाउन से कहा-दाँत निकाले हैं, टीसते हैं, बच्चे दाँत निकालते हैं तब हर चीज को दाँत से यों ही काटते हैं, वही टीसना है। चाँदनी रात में खटिया पर लेटी माँ बच्चे को दूध पिला रही है। बच्चा दूध ही नहीं, चाँदनी भी पी रहा है, चाँदनी भी माँ जैसी ही पुलक स्नेह-ममता दे रही है। दूध पिलाने वाली माँ युवती है, उसके स्तन भरे हैं। वह बच्चे को माँ, नारी, मित्र, सबका सुख एक साथ देती है। माँ के अंक से लिपटकर माँ का दूध पीना जड़ के चेतन होने यानी मानव-जन्म की सार्थकता है।

प्रश्न 8.
बिसनाथ ने दिलशाद गार्डन के डियर पार्क में क्या दृश्य देखा?
उत्तर :
बिसनाथ ने दिलशाद गार्डन के डियर पार्क में बत्तखें देखीं। बत्तख अंडा देने को होतीं तो पानी को छोड़कर जमीन पर आ जाती थीं। इसके लिए एक सुरक्षित काँटेदार बाड़ा था। देखा-एक बत्तख कई अंडों को से रही है। पंख फुलाए उन्हें छिपाए है-दुनिया से बचाए है। एक कौवा थोड़ी दूर ताक में ? बत्तख की चोंच सख्त होती है। अंडों की खोल नाजुक ? कुछ अंडे बत्तख-माँ के डैनों से बाहर छिटक जाते। बत्तख उन्हें चोंच में इतनी सतर्कता, कोमलता से डैनों के अंदर फिर छुपा लेती थी कि बस आप देखते रहिए, कुछ कह नहीं सकते-इसे ‘सेस, सारद’ भी नहीं बयान कर सकते। और माँ की निगाह कौवे की ताक पर भी थी। कभी-कभी वह अंडों को बड़ी सतर्कता से उलटती-पलटती थी।

प्रश्न 9.
‘फूल जहाँ प्राकृतिक सौंदर्य में वृद्धि करते हैं वहीं वे औषधीय गुणों से भरपूर भी होते हैं।’ बिस्कोहर की माटी’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ में लेखक बताता है कि कमल, कोइयाँ और हरसिंगार के अलावा ऐसे कितने फूल थे जिनकी चर्चा फूलों के रूप में नहीं होती और वे असली फूल हैं-तोरी, लौकी, भिंडी, भटकटैया, इमली, अमरूद, कदंब, बैंगन, कोंहड़ा, शरीफ़ा, आम के बौर, कटहल, बेल, अरहर, उड़द, चना, मसूर, मटर के फूल, सेमल के फूल, कदम (कदंब) के फूलों से पेड़ लदबदा जाता। मुझे तो लगता है कदंब का दुनिया भर में एक ही पेड़ है-बिस्कोहर के पच्हूँ टोला में ताल के पास।

सरसों के फूल का पीला सागर लहराता हुआ। खेतों में तेल-तेल की गंध, जैसे हवा उसमें अनेक रूपों में तैर रही हो। सरसों के अनवरत फूल-खेत सौंदर्य को कितना पावन बना देते हैं। बिसनाथ के गाँव में एक फल और बहुत इफ़रात होता था-उसे भरभंडा कहते थे, उसे ही शायद सत्यानाशी कहते हैं। नाम चाहे जैसा हो सुंदरता में उसका कोई जवाब नहीं। फूल गोभी तितली, जैसा, आँखें, आने पर माँ उसका दूध आँख में लगाती और दूबों के अनेक वर्णी छोटे-छोटे फूल-बचपन में इन सबको चखा है, सूँघा है, कानों में खोसा है।

प्रश्न 10.
इस पाठ में साँपों के बारे में क्या जानकारी दी गई है ?
उत्तर :
इस पाठ में बताया गया है कि घास पात से भरे मेड़ों पर, मैदानों में, तालाब के भीटों पर नाना प्रकार के साँप मिलते हैं। साँप से डर तो लगता है लेकिन वे प्रायः मिलते दिखते हैं। डोंड़हा और मजगिदवा विषहीन है। डोंड़हा को मारा नहीं जाता। उसे साँपों में वामन जाति का मानते हैं। धामिन भी विषहीन है लेकिन वह लंबी होती है, मुँह से कुश पकड़ कर पूँछ से मार दे तो अंग सड़ जाए। सबसे खतरनाक गोंहुअन हैं जिसे हमारे गाँव में ‘फेंटारा’ कहते हैं और उतना ही खतरनाक ‘घोर कड़ाइच’ जिसके काट लेने पर आदमी घोड़े की तरह हिनहिनाकर मरता है। भटिहा जिसके दो मुँह होते हैं। आम, पीपल, केवड़े की झाड़ी में रहने वाले साँप बहुत खतरनाक होते हैं। अजीब बात है, साँपों से भय भी लगता है और हर जगह अवचेतन में, डर से ही सही, उनकी प्रतीक्षा भी करते हैं। छोटे-छोटे पौधों के बीच में सरसराते हुए साँप को देखना भी भयानक रस हो सकता है। साँप के काटे लोग बहुत कम बचते हैं।

प्रश्न 11.
गंध के बारे में लेखक क्या विश्लेषण करता है ?
उत्तर :
लेखक (बिसनाथ) को अपनी माँ के पेट का रंग हल्दी मिलाकर बनाई गई पूड़ी का रंग लगता-गंध दूध का। पिता के कुर्ते को जरूर सूँघते। उसमें से पसीने की बू बहुत अच्छी लगती। नारी शरीर से उन्हें बिस्कोहर की ही फसलों, वनस्पतियों की उत्कट गंध आती है। तालाब की चिकनी मिट्टी की गंध गेहूँ, भुट्या, खीरा या पुआल की गंध होती है। आम के बाग में आम्रमंजरी, बौर की लपट मारती हुई गंध तो साक्षात् रति गंध होती है। फूले हुए नीम की गंध को नारी शरीर या शृंगार से कभी नहीं जोड़ सकते। वह गंध मादक, गंभीर और असीमित की ओर ले जाने वाली होती है। संगीत, गंधा, बच्चे बिसनाथ के लिए सबसे बड़े सेतु हैं काल, इतिहास को पार करने के।

प्रश्न 12.
गमी के दिनों में लेखक क्या-क्या काम करता था और उससे बचाव कैसे होता था?
उत्तर :
जिन दिनों खूब चिलचिलाती गर्मी पड़ती। लेखक घर में सबको सोता पाकर चुपके से निकल जाता। दुपहरिया का नाच देखता। गर्मी में कभी-कभी लू लगने की घटनाएँ सुनाई पड़ती थीं। माँ लू से बचने के लिए धोती या कमीज से गाँठ लगाकर प्याज बाँध देती थी। लू लगने की दवा थी-कच्चे आम का पन्ना। भूनकर गुड़ या चीनी में उसका शरबत पीना, देह में लेपना, नहाना। कच्चे आम को भून या उबाल कर उससे सिर धोते थे। कच्चे आमों के झौर के झौरर पेड़ पर लगे देखना, कच्चे आम की हरी गंध, पकने से पहले ही जामुन तोड़ना, खाना-यह गर्मी की बहार थी। गर्मी का फल और तरकारी भी है-कटहल।

प्रश्न 13.
कसेरिन दाई के बारे में लिखिए। उनके साथ छत पर लेटकर तीन वर्ष के बिसनाथ को कैसा लगता था?
उत्तर :
बिसनाथ के पड़ोस में कसेरिन दाई रहती थी। वह बच्चों को पैदा कराने तथा उनके पालन-पोषण की कला में दक्ष है। जब बिसनाथ (विश्वनाथ) ने माँ के दूध के स्थान पर गाय का दूध पीने से इंकार कर दिया तब कसेरिन दाई ने ही इस संकट से उबरने का उपाय बताया। उसने बिसनाथ की माँ के स्तनों पर ‘बुकवा’ (उबटन) का लेप करवा दिया और फिर दूध पिलाने को कहा। उबटन का स्वाद तीखा-कसैला पड़ते ही बिसनाथ चीख पड़ा “तोर दूध खराब है, हमई नाहीं पिअब रे”। सब लोग यही तो चाहते थे। बिसनाथ को कसेरिन दाई ने ही पाला-पोसा था। साफ-सफ्फाक सुजनी पर बालक बिसनाथ को कसेरिन दाई के साथ लेटकर बहुत अच्छा लगता था। बालक बिसनाथ चाँद का देखता रहता था। उसे लगता था कि वह चाँद को छू रहा है, उसे खा रहा है, उससे बातें कर रहा है। वह धुक-धुक करके चलता रहता। कभी बादलों में छिप जाता और कभी निकल आता।

प्रश्न 14.
वर्तमान समय-समाज में माताएँ नवजात शिशु को दूध नहीं पिलाना चाहतीं। आपके विचार से माँ और बच्चे पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है ?
उत्तर :
हाँ, यह सही है कि वर्तमान समय में कुछ माताएँ अपने शिशु को दूध नहीं पिलाना चाहतीं। इसके कारण निम्नलिखित हैं :

  • इस प्रकार की प्रवृत्ति वाली माताएँ अपनी शारीरिक सौष्ठव के प्रति अत्यधिक सचेत हैं। उनका विचार है कि स्तनपान कराने से उनके सौंदर्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, स्तनों का कसाव ढीला पड़ जाता है।
  • कुछ स्त्रियाँ जो नौकरी करती हैं, वे अपने बच्चों को आया के सहारे छोड़कर चली जाती हैं जिससे बच्चे माँ के दूध से वंचित हो जाते हैं।
  • आज का सामाजिक बदलाव भी इसके लिए जिम्मेदार है। ये स्त्रियाँ इसे एक झंझटभरा काम समझती हैं।

प्रभाव : इस प्रवृत्ति का माँ और शिशु दोनों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। दोनों एक-दूसरे के साथ भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पाते हैं। माँ का दूध पिलाना उसका बच्चे के प्रति स्नेह का परिचायक है। माँ का दूध न पीने पर बच्चे का स्वाभाविक एवं मानसिक विकास नहीं हो पाता है। माँ की ममता तो दूध पीने-पिलाने से ही आती है। माँ का दूध बच्चे के लिए पूर्ण भोजन है. विशेषकर प्रारंभिक महीनों में।

प्रश्न 15.
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ के कथ्य का विश्लेषण अपने शब्दों में कीजिए।
अथवा
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ में लेखक में गाँव में स्वयं देखो-भोगे यथार्थ को प्राकृतिक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत किया है। इस कथन की सोदाहरण समीक्षा कीजिए।
उत्तर :
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह पाठ अपनी अभिव्यंजना में अत्यंत रोचक और पठनीय है। लेखक ने उम्र के कई पड़ाव पार करने के बाद अपने जीवन में माँ, गाँव और आस-पास के प्राकृतिक परिवेश का वर्णन करते हुए ग्रामीण जीवन-शैली, लोक-कथाओं, लोक-मान्यताओं को पाठक तक पहुँचाने की कोशिश की है। गाँव, शहर की तरह सुविधायुक्त नहीं होते, बल्कि प्रकृति पर अधिक निर्भर रहते हैं। इस निर्भरता का दूसरा पक्ष प्राकृतिक सौन्दर्य भी है जिसे लेखक ने बड़े मनोयोग से जिया और प्रस्तुत किया है। एक तरफ प्राकृतिक संपदा के रूप में अकाल के वक्त खाई जाने वाली कमल-ककड़ी का वर्णन है, तो दूसरी ओर प्राकृतिक विपदा बाढ़ से बदहाल गाँव की तकलीफों का जिक्र है।

कमल, कोइयाँ, हरसिंगार के सार्य-साथ तोरी, लौकी, भिंडी, भटकटैया, इमली “‘ कदंब आदि के फूलों का वर्णन कर लेखक ने ग्रामीण प्राकृतिक सुषमा और संपदा को दिखाया है तो डोड़हा, मजगिदवा, धामिन, गोंहुअन, घोर कड़ाइच आदि साँपों, बिच्छुओं आदि के वर्णन द्वारा भयमिश्रित वातावरण का भी निर्माण किया है। ग्रामीण जीवन में शहरी दवाइयों की जगह प्रकृति से प्राप्त फूल, पत्तियों के प्रयोग भी आम हैं जिसे लेखक ने रेखांकित किया है। पूरी कथा के केंद्र में हैं। बिस्कोहर जो लेखक का गाँव है और एक पात्र ‘ बिसनाथ’ जो लेखक स्वयं (विश्वनाथ) है।

गर्मी, वर्षा और शरद ऋतु में गाँव में होने वाली दिक्कतों का भी लेखक के मन पर प्रभाव पड़ा है जिसका उल्लेख इस रचना में भी दिखाई पड़ता है। दस वर्ष की उम्र के करीब दस वर्ष बड़ी स्त्री को देखकर मन में उठे-बसे भावों, संवेगों के अमिट प्रभाव व उसकी मार्मिक प्रस्तुति के बीच संवादों की यथावत् आंचलिक प्रस्तुति, अनुभव की सत्यता और नैसर्गिकता का द्योतक है। पूरी रचना में लेखक ने अपने देखे-भोग यथार्थ को प्राकृतिक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत किया है। लेखक की शैली अपने आप में अनूठी और बिल्कुल नई है।

प्रश्न 16.
‘बिस्कोहर की माटी’ में उगने वाले विविध फूलों का उल्लेख करते हुए बताइए कि ‘फूल केवल गंध ही नहीं देते, दवा भी करते हैं। कैसे ?
उत्तरः
विविध फूलों में इन फूलों का उल्लेख हुआ है-कमल, कोइयाँ हरसिंगार। लेकिन ये तो फूल हैं और फूल कहे जाते हैं-ऐसे कितने फूल थे जिनके फूलों की चर्चा फूलों के रूप में नहीं होती, और हैं वे असली फूल-तोरई, लौकी, भिंडी, भटकटैया, इमली, अमरूद, कदंब, बैंगन, कोंहड़ा (कासीफल), शरीफा, आम के बौर, कटहल, बेल (बेला, चमेली, जूही वाला बेला नहीं), अरहर, उड़द, चना, मसूर, मटर के फूल, सेमल के फूल, कदम (कदंब)।

  • यह सही है कि फूल गंध देते हैं, पर यह भी सच है कि कई फूल दवा का काम भी करते हैं। गाँव में अब भी अनेक रोगों का इलाज फूलों के द्वारा किया जाता है। गाँव में फूलों की गंध से साँप, महामारी, देवी, चुड़ैल आदि का संबंध जोड़ा जाता है। गुड़हल का फूल देवी का फूल माना जाता है।
  • नीम के फूल और पत्ते चेचक में रोगी के पास रखे जाते हैं। ये इस रोग में उपयोगी हैं।
  • बेर के फूल सूंघने से बर्रे, ततैया का डंक झड़ जाता है।
  • आम के फूल भी अनेक रोगों में दवा का काम करते हैं।

प्रश्न 17.
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ में गाँव के बारे में आपको क्या-क्या जानकारियाँ मिलीं ? कम से कम छह
उत्तर :
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ में हमें गाँव के बारे में निम्नलिखित जानकारियाँ मिलीं :
(क) गाँव के तालाब में कमल के फूल खिले रहते हैं।
(ख) गाँव में भोज कमल-पत्र पर परोसा जाता है।
(ग) गाँव में कमल गट्टा व कमल ककड़ी खायी जाती है।
(घ) गाँव में पितृपक्ष में घर के द्वार पर हरसिंगार के फूल रखे जाते हैं।
(ङ) गाँव में कई रोगों में वनस्पतियों का प्रयोग किया जाता है।
(च) गाँव में सरसों, गेहूँ, मक्का, जौ और धान की खेती की जाती है।
(छ) गाँव में नैसर्गिक सौन्दर्य होता है। वातावरण प्राकृतिक एवं शुद्ध होता है।
(ज) गाँव में वर्षा ऋतु में शौच कर्म के लिए जगह मिलनी कठिन होती है।
(झ) गाँव में वर्षा ऋतु में कीचड़ और कीड़े-मकोड़ों का आधिक्य होता है।
(ब) गाँवों में साँप, बिच्छू, डाँस, जोंक, मच्छर आदि का भय रहता है।

प्रश्न 18.
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ किस रचना का अंश है? ग्रामीणों की किन-किन विषमताओं का वर्णन किया है?
उत्तर :
‘बिस्कोहर की माटी’ रचना विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा लिखित आत्मकथा ‘ नंगातलाई का एक गाँव’ का अंश है। लेखक ने इसमें ग्रामवासियों की विषमताओं का वर्णन किया है। गाँव के लोगों के पास वे सुख-सुविधाएँ नहीं हैं जो शहर के लोगों के पास हैं, उन्हें अनेक समस्याओं से जूझना पड़ता है, जैसे-यातायात के साधनों की कमी, बिजली का पर्याप्त मात्रा में न मिलना, सिंचाई के साधनों का अभाव, अशिक्षा, रोजगार की कमी, भुखमरी, चिकित्सा, साधनों का समय पर न मिलना इत्यादि। बाढ़, अकाल आदि विपत्तियों के समय उन्हें प्राकृतिक संपदा पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

गाँव में साँप, बिच्छू तथा अन्य हानिकारक जीव हरियाली के कारण पाए जाते हैं। कई लोगों की मृत्यु साँप के काटने के कारण हो जाती है लेकिन वे फिर भी गाँव में रहने व खेतों में काम के कारण इन खतरों का सामना करने के लिए विवश हैं। रोग की स्थिति में उन्हें गाँव में प्राप्त जड़ी-बूटियों से ही उपचार करना पड़ता है क्योंकि चिकित्सा संबंधी सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं। वर्षा के दिनों में पानी की निकासी का प्रबंध न होने से पानी एक ही जगह इकट्ठा हो जाता है जिससे बीमारियाँ फैल जाने का डर बना रहता है। शिक्षा के अभाव में ग्रामीण अंधविश्वासी हो जाते हैं। वे किसी भी प्राकृतिक विपदा, महामारी का संबंध भूत-प्रेतों से जोड़कर तांत्रिकों के चंगुल में फँस जाते हैं।

प्रश्न 19.
‘बिस्कोहर की माटी’ में बिसनाथ ने अपने शैशव की एक घटना के माध्यम से माँ के स्नेह का एक मनोरम चित्र खींचा है। उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ में बिसनाथ ने अपने शैशव की एक घटना बत्तख के अंडा देने और उन्हें सेने की घटना के माध्यम से माँ के स्नेह का मनोरम चित्र खींचा है। बत्तख अंडा देने के समय पानी को छोड़कर जमीन पर आ जाती है। बत्तखें अपने अंडों को सेती हैं। वे अपने पंख फुलाए उन्हें दुनिया की नजरों से छिपाकर रखती हैं। बत्तख बहुत सतर्कता एवं कोमलता से काम करती है। इसी प्रकार माँ भी अपने बच्चे की देखभाल करती है। बिसनाथ की माँ और बत्तख में ममता के आधार पर पर्याप्त समानता है। माँ भी बत्तख की तरह अपने बच्चों को अपने आँचल की छाया में छिपाकर रखती है। दोनों को अपने बच्चों के साथ लगाव होता है।

प्रश्न 20.
लेखक बिसनाथ ने किन आधारों पर अपनी माँ की तुलना बत्तख से की है ?
उत्तर :
बत्तख अंडा देने के समय पानी को छोड़कर जमीन पर आ जाती है। बत्तखें अपने अंडों को सेती हैं। वे अपने पंख फुलाए उन्हें दुनिया की नजरों से छिपाकर रखती हैं। बत्तख बहुत सतर्कता एवं कोमलता से काम करती है। इसी प्रकार माँ भी अपने बच्चे की देखभाल करती है। बिसनाथ की माँ और बत्तख में ममता के आधार पर पर्याप्त समानता है। माँ भी बत्तख की तरह अपने बच्चों को अपने आँचल की छाया में छिपाकर रखती है। दोनों को अपने बच्चों के साथ लगाव होता है।

प्रश्न 21.
बिस्कोहर में हुई बरसात का जो वर्णन बिसनाध ने किया है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
बिस्कोहर में वर्षा सीधे-सीधे नहीं आती थी। पहले बादलों के घिरने और गड़गड़ाहट की आवाजें सुनाई देती हैं। पूरे आकाश में इतने बादल घिर आते हैं कि दिन में ही रात प्रतीत होने लगती। ‘चढ़ा अकाश गगन घन गाजा, घन घमंड गरजत घोरा ‘जैसा वातावरण उपस्थित हो जाता है। कभी ऐसा लगता था कि जैसे दूर से घोड़ों की पंक्ति दौड़ी चली आ रही है। कई दिन तक बरसने पर दीवार गिर जाती, घर धँस जाते। जब भीषण गर्मी के बाद बरसात होती तब कुत्ते, बकरी, मुर्गी-मुर्गे आवाजें करते इधर-उधर भागे फिरते थे। इस वर्षा में नहाने से चर्म रोग ठीक हो जाते थे। वर्षा के प्रभाव से दूबों, वनस्पतियों आदि में नई चमक दिखाई देने लगती है। वर्षा के बाद कीचड़, बदन्, बाढ़ की समस्या उत्पन्न हो जाती है।

प्रश्न 22.
चैत की चाँदनी में लेखक को लगा कि प्रकृति सजीव नारी बन गई है, कैसे?
उत्तर :
जाड़े की धूप और चैत की चाँदनी में ज्यादा फ़र्क नहीं होता। बरसात की भीगी चाँद्नी चमकती तो नहीं, लेकिन मधुर और शोभा के भार से दबी ज्यादा होती है। वैसे ही बिस्कोहर की वह औरत। पहली बार उसे बढ़नी में एक रिश्तेदार के यहाँ देखा। बिसनाथ की उमर उससे काफी कम है-ताज्जुब नहीं दस बरस कम हो। बिसनाथ दस से ज्यादा के नहीं थे। देखा तो लगा चाँदनी रात में, बरसात की चाँदनी रात में जूही की ख्रुशबू आ रही है।

बिस्कोहर में उन दिनों बिसनाथ संतोषी भइया के घर बहुत जाते थे। उनके आँगन में जूही लगी थी। उसकी ख़ुशबू प्राणों में बसी रहती थी। यों भी चाँदनी में सफेद फूल ऐसे लगते हैं मानों पेड़ों, लताओं पर चाँदनी ही फूल के रूप में दिखाई पड़ रही हो। चाँदनी भी प्रकृति, फूल भी प्रकृति और खुशबू भी प्रकृति। वह औरत बिसनाथ को औरत के रूप में नहीं, जूही की लता बन गई चाँद्नी के रूप में लगी, जिसके फूलों की खुशबू आ रही थी। प्रकृति सजीव नारी बन गई थी और बिसनाथ उसमें आकाशा, चाँदनी, सुगंधि सब देख रहे थे।

प्रश्न 23.
“बिसनाय मान ही नहीं सकते कि बिस्कोहर से ज्यादा सुंदर कोई औरत हो सकती है। उम्र में स्वयं से लगभग बस बरस बड़ी उस औरत के सौंदर्य को बिसनाथ ने प्रकृति के माध्यम से कैसे चित्रित किया है ?
उत्तर :
जाड़े की धूप और चैत की चाँदनी में ज़्यादा फर्क नहीं होता। बरसात की भीगी चाँद्नी चमकती तो नहीं लेकिन मधुर और शोभा के भार से दबी ज्यादा होती है। वैसे ही बिस्कोहर की वह औरत। पहली बार उसे बढ़नी में एक रिश्तेदार के यहाँ देखा। बिसनाथ की उमर उससे काफी कम है-ताज्जुब नहीं दस बरस कम हो, बिसनाथ 10 से ज्यादा के नहीं थे। देखा तो लगा चाँदनी रात में बरसात की चाँदनी रात में जूही की खुशबू आ रही है। बिस्कोहर में उन दिनों बिसनाथ संतोषी भइया के घर बहुत जाते थे। उनके आँगन में जूही लगी थी। उसकी ख़ुशादू प्राणों में बसी रहती थी। यों भी चाँदनी में सफेद फूल ऐसे लगते हैं, मानो पेड़ों, लताओं पर चाँदनी ही फूल के रूप में दिखाई पड़ रही हो।

चाँदनी भी प्रकृति, फूल भी प्रकृति और खुशबू भी प्रकृति। वह औरत बिसनाथ को औरत के रूप में नहीं, जूही की लता बन गई चाँद्नी के रूप में लगी जिसके फूलों की खुशबू आ रही थी। प्रकृति सजीव नारी बन गई थी और बिसनाथ उसमें आकाश, चाँदनी. सुगंधि सब देख रहे थे। वह बहुत दूर की चीज इतने नजदीक आ गई थी। सौंदर्य क्या होता है, तदाकार परिणति क्या होती है। जीवन की सार्थकता क्या होती है, यह सब बाद में सुना, समझा, सीखा सब उसी के संद्भ में। वह नारी मिली भी-बिसनाथ आजीवन उससे शरमाते रहे। उसकी शादी बिस्कोहर में ही हुई। कई बार मिलने के बाद बहुत हिम्मत बाँधने के बाद उस नारी से अपनी भावना व्यक्त करने के लिए कहा, “जो तुम्हैं पाइ जाइ ते जरूरै बोराय जाइ- जो तुम्हें पा जाएगा वह जरूर ही पागल हो जाएगा।”

प्रश्न 24.
“‘गाँव में ज्ञान-अज्ञान वनस्पतियों, जल के विविध रूपों और मिट्टी के अनेक वर्णो-आकारों का एक ऐसा समस्त वातावरण था जो सजीव था।’- ‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ के आधार पर सोदाहरण पुष्टि करते हुए लगभग 80-100 शब्दों में उत्तर लिखिए।
उत्तर :
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ में गाँव की प्रकृति और वहाँ के जन-जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है। बिस्कोहर गाँव के वातावरण में ज्ञात-अज्ञात वनस्पतियाँ, जल के विविध रूप और मिट्टी के अनेक वर्णों के आकार मिलते हैं। इनसे वहाँ का वातावरण सजीव हो उठता है। वहाँ कोइयाँ की भरमार होती है। कोइयाँ एक प्रकार का जंगली फूल है। इसे कुमुद या काकबेली भी कहते हैं। यह पानी में उगता है। शरद ऋतु में जहाँ भी गड्ढों में पानी एकत्रित हो जाता है, कोइयाँ फूल वहीं उग आता है। यह फूल बिसनाथ के गाँव में बहुत होता है। इसकी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

शरद की चाँदनी में सरोवरों में चाँदनी का प्रतिबिंब और खिली हुई कोइयाँ की पत्तियाँ एकाकार हो जाती हैं।
– इसकी गंध अत्यंत मादक होती है।
यह मुख्यतः शरद ऋतु में होता है।

गाँव में अनेक प्रकार की सब्जियों और फलों की भरमार रहती है। यहाँ के खेतों में पीली-पीली सरसों खूब फूलती है। गाँवों में कमलककड़ी भी होती है। कमल गट्टा भी खूब मिलता है। यहाँ के तालाबों में सिंघाड़ा खूब होता है। यहाँ की धरती में मिट्टी के अनेक रूप मिलते हैं। यहाँ का सारा वातावरण सजीव प्रतीत होता है।

प्रश्न 25.
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ के आधार पर भारतीय गाँवों के जनजीवन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
‘बिस्कोहर की माटी’ रचना विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा लिखित आत्मकथा ‘नंगातलाई का एक गाँव’ का अंश है। लेखक ने इसमें ग्रामवासियों की विषमताओं का वर्णन किया है। गाँव के लोगों के पास वे सुख-सुविधाएँ नहीं हैं जो शहर के लोगों के पास है. उन्हें अनेक समस्याओं से जूझना पड़ता है, जैसे-यातायात के साधनों की कमी, बिजली का पर्याप्त मात्रा में न मिलना, सिंचर के साधनों का अभाव, अशिक्षा, रोजगार की कमी, भुखमरी, चिकित्सा साधनों का समय पर न मिलना इत्यादि। बाढ़, अकाल आदि विपत्तियों के समय उन्हें प्राकृतिक संपदा पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

गाँव में साँप, बिच्छू तथा अन्य हानिकारक जीव हरियाली के कारण पाए जाते हैं। कई लोगों की मृत्यु साँप के काटने के कारण हो जाती है लेकिन वे फिर भी गाँव में रहने व खेतों में काम के कारण इन खतरों का सामना करने के लिए विवश हैं। रोग की स्थिति में उन्हें गाँव में प्राप्त जड़ी-बूटियों से ही उपचार करना पड़ता है क्योंकि चिकित्सा संबंधी सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं। वर्षा के दिनों में पानी की निकासी का प्रबंध न होने से पानी एक ही जगह इकट्ठा हो जाता है जिससे बीमारियाँ फैल जाने का डर बना रहता है। शिक्षा के अभाव में ग्रामीण अंधविश्वासी हो जाते हैं। वे किसी भी प्राकृतिक विपदा, महामारी का संबंध भूत-प्रेतों से जोड़कर तांत्रिकों के चंगुल में फँस जाते हैं।

प्रश्न 26.
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ के कथ्य पर अपने शब्दों में प्रकाश डालिए।
उत्तर :
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ में लेखक ने गाँव और आस-पास के प्रांकृतिक परिवेश का वर्णन करते हुए ग्रामीण जीवन-शैली, लोक कथाओं तथा लोक मान्यताओं को पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास किया है। गाँव, शहरों की तरह सुविधा सम्पन्न नहीं होते, बल्कि प्रकृति पर अधिक निर्भर रहते हैं। वहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य उन्हें लुभाता है। प्रस्तुत पाठ में प्राकृतिक संपदा के रूप में अकाल के वक्त खाई जाने वाली कमल-ककड़ी का वर्णन है तो दूसरी ओर प्राकृतिक आपदा बाढ़ से बदहाल गाँव की तकलीफों का वर्णन किया गया है।

कमल-ककड़ी, कोइयाँ हरसिंगार के साथ तोरी, लौकी, भिंडी, भटकटैया, इमली, कदंब आदि फूलों का सजीव वर्णन किया गया है। इस वर्णन में लेखक ने ग्रामीण प्राकृतिक सुषमा और संपदा को भी दिखाया है। उसने डोड़हा, मजगिदवा, धामिन, गोंहुअन, घोर कड़ा इच आदि साँपों, बिच्छुओं आदि के वर्णन द्वारा भयमिश्रित वातावरण का निर्माण भी किया है। ग्रामीण जीवन में शहर दवाइयों की जगह प्रकृति से प्राप्त फूल, पत्तियों के प्रयोग भी आम मिलते हैं।लेखक की पूरी कहानी के केंद्र में बिस्कोहर है, जो लेखक का अपना गाँव है। लेखक ने वहाँ की गरमी, वर्षा और शरद् ऋतु में होने वाली दिक्कतों का भी वर्णन किया है। लेखक ने अपनी पूरी रचना में अपने देखे-भोगे यथार्थ को प्राकृतिक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत किया है।

प्रश्न 27.
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ के आधार पर सिद्ध कीजिए कि यह पाठ ग्रामीण जीवन के रूप-रस-गंध को उकेरने वाला मार्मिक लेख है।
उत्तर :
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ ग्रामीण जीवन के रूप-रस-गंध को उकेरने वाला मार्मिक लेख है। इस पाठ में हमें गाँव के बारे में निम्नलिखित जानकारियाँ मिलती हैं-

  • तालाबों में कमल के फूल खिले रहते हैं। वहाँ कमल के नाल को भसीण कहते हैं। वहाँ का कमल-ताल था-लेंवड़ी का ताल।
  • गाँव के भोज में हिंदुओं के यहाँ भोजन कमल पत्र पर परोसा जाता है। वहाँ कमल-गट्टा जरूर खाया जाता है।
  • गाँव में कमल से ज्यादा कोइयाँ की बहार होती है। कोइयाँ एक जलपुष्प होता है जिसे कुमुद भी कहते हैं। इसे कोका-बेली भी कहा जाता है।
  • गाँव के तालाबों में सिंघाड़े भी होते हैं। उसके फूल उजले तथा गंध वाले होते हैं। सिंघाड़ा जब बतिया, छोटा और दूधिया होता है तब उसमें गंध होती है।
  • गाँव में शरद् ऋतु में हरसिंगार फूलता है। पितृपक्ष में घर में दरवाजे पर हरसिंगार की राशि रख दी जाती है। यह काम प्रायः मालिन करती है।
  • गाँव में सरसों, धान, गेहूँ, मक्का आदि की खेती की जाती है।
  • गाँव में घास-पात से भरे मेड़ों पर, मैदानों में, तालाबों के भीटों पर नाना प्रकार के साँप मिलते हैं। वहाँ बिच्चू भी बहुत होते हैं। उनका भय निरंतर बना रहा है।
  • चेचक के रोगी के पास नीम के फूल और पत्ते रख्ख दिए जाते हैं।
  • वर्षा ऋतु में गाँव में कीचड़ व बदबू बहुत हो जाती है। वर्षा ऋतु गाँव में अनेक असुविधाओं को लेकर आती है।

प्रश्न 28.
लेखक ने शरद् ऋतु का वर्णन किस प्रकार किया है ?
उत्तर :
लेखक बताता है कि शरद में हरसिंगार फूलता है। पितृ-पक्ष में मालिन, दाई घर के दरवाजे पर हरसिंगार की राशि रख जाती थी। गाँव की बोली में कहा जाता है-‘ ‘ुुइ जात रहीं’। कुरइ देना है तो सकर्मक लेकिन सहजता अकर्मक की है। गाँव में ज्ञात-अज्ञात वनस्पतियों, जल के विविध रूपों और मिट्टी के अनेक वर्णों-आकारों का एक ऐसा समस्त वातावरण होता था जो सजीव प्रतीत होता था। बच्चे उसे छूते, पहचानते और बतियाते थे। जब आकाश भी अपने गाँव का ही एक टोला लगता था। लगता था चंदा मामा में एक बुढ़िया है जो बच्चे को आँचल में छिपाकर दूध पिला रही है। बच्चा सुबुकता था, रोता था, माँ को मारता था, पर उससे चिपटा रहता था।

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