भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 8 Summary
भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? – भारतेंदु हरिश्चंद्र – कवि परिचय
लेखक-परिचय :
जीवन-परिचय – भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी-साहित्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनका जन्म भाद्रपद शुक्ल, ऋषि सप्तमी संवत 1907 अथवा सन 1850 ईं० में काशी के एक सुप्रसिद्ध सेठ परिवार में हुआ था। इनके पूर्वजों का संबंध दिल्ली के शाही घराने से था। भारतेंदु के पिता श्री गोपालचंद वैष्णव थे और ब्रजभाषा में कविता किया करते थे। इन्होंने अपने जीवन काल में चालीस ग्रंथ लिखे थे, जिनमें से चौबीस अब भी प्राप्त हैं। जब भारतेंदु केवल पाँच वर्ष के थे तो इनकी माता का देहावसान हो गया था और इसके चार वर्ष बाद पिता भी इस संसार को छोड़ गए। इस प्रकार आरंभ से ही माता-पिता के स्नेह से वंचित होकर इन्होंने जीवन में प्रवेश किया।
इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर में ही पूरी हुई। बाद में ये क्वींस कोंलेज में दाखिल हुए परंतु किसी कारणवश अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाए। ये हिंदी, अंग्रेज़ी, उद्दू, मराठी, गुजराती, बंगला, पंजाबी, मारवाड़ी और संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे। यद्यपि इन्होंने एक विद्यार्थी की तरह किसी पाठशाला या कॉलेज में विद्याध्ययन नहीं किया, परंतु सरस्वती की आराधना में यह आजीवन लगे रहे। इनका देहावसान अत्यंत छोटी अवस्था में माघ कृष्णा षष्ठी, संवत 1941 अथवा सन 1885 ई० को तपेदिक से हुआ था। उस समय इनकी अवस्था 34 वर्ष 4 मास थी।
रचनाएँ – भारतेंदु की रचनाओं की संख्या इतनी अधिक है कि उन्हे देखकर इनकी प्रतिभा, लग्न और अध्यवसाय पर आश्चर्य होता है। डॉं० जयशंकर त्रिपाठी के अनुसार इनके द्वारा रचित छोटे-बड़े ग्रंथों की संख्या 239 है। इनकी प्रमुख रचनाओं को विभिन्न प्रकार के आधारों पर स्थित कर सकते हैं-
नाटक – वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, प्रेम जोगिनी, श्री चंद्रावली नाटिका, विषस्य विषमौषधम, भारत-दुर्दशा, नील देवी, अँधेर नगरी, सती प्रलाप, विद्यासुंदर, पाखंड विडंबन, धनंजय विजय, कर्पूरमंजरी, सत्य हरिश्चंंद्र, भारत जननी, मुद्रारक्षस, दुर्लभ बंधु।
काव्य-संग्रह – प्रेम-माधुरी, प्रेम फुलवारी, प्रेम मालिका, प्रेम प्रलाप, फूलों का गुच्छा।
पत्र-पत्रिकाएँ – कवि वचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन, बाला बोधिनी, हरिश्चंद्र चंद्रिका।
इतिहास, निबंध और आख्यान-सुलोचना, लीलावती, मदाल सोपाख्यान, परिहास पंचक, परिहासिनी, काश्मीर कुसुम, महाराष्ट्र देश का इतिहास, रामायण का समय, अग्रवालों की उत्पत्ति, खत्रियों की उत्पत्ति, बादशाह दर्पण, बूँदी का राजवंश, उदयपुरोदय, पुरावृत्त संग्रह, चरितावली, पंच पवित्रात्मा।
भाषा-शैली – भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक साहित्यिक हिंदी भाषा के निर्माता माने जाते हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप में तत्कालीन समाज में प्रचलित हिंदी भाषा का प्रयोग किया है जिसमें बोलचाल के देशज तथा विदेशी शब्दों का भरपूर प्रयोग दिखाई देता है, जैसे-हाकिम, महसूल, गप, धिएटर, खोवँ, फुरसत, मर्दुमशुमारी, मयस्सर, शौक, तिफ्ली। लेखक ने तत्सम-प्रधान शब्दावली का भी प्रयोग किया है, जैसे-मूल, उत्साह, यंत्र, अनुकूल, हितैषी। प्रस्तुत लेख लेखक द्वारा बलिया में दिया गया भाषण है इसलिए इसमें भाषण-शैली है।
लेखक ने अपने कथन को विभिन्न दृष्टांतों एवं प्रसंगों के माध्यम से स्पष्ट किया है। लेखक के व्यंग्य भी अत्यंत तीक्ष्ग हैं; जैसे-‘ राजे महाराजों को अपनी पूजा-भोजन, झूठी गप से छुट्टी नहीं। हाकिमों को कुछ सरकारी काम घेरे रहता है, कुछ बॉल, घुड़दौड़, धिएटर, अखबार में समय गया। कुछ समय बचा भी तो उनको क्या गरज है कि हम गरीब, गंदे काले आदमियों से मिलकर अपना अनमोल समय खोवें।’ कहीं-कहीं लेखक की शैली उद्बोधनात्मक भी हो जाती है जब वह देशवासियों को ‘कमर कसो, आलस छोड़ो’ कहकर देश की उन्नति में अपना योगदान देने के लिए कहता है। लेखक ने अवसरानुकूल प्रवाहमयी जनभाषा तथा रोचक शैली का इस पाठ में प्रयोग किया है।
भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? Class 11 Hindi Summary
‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ भारतेंदु का प्रसिद्ध भाषण है। लेखक ने इस पाठ में एक ओर त्रिटिश सरकार की मनमानी पर व्यंग्य किया है तो दूसरी ओर अंग्रेज़ों के परिश्रमी स्वभाव और काम के प्रति लगाव को आदर की दृष्टि से देखते हैं। लेखक ने अपने भाषण में हिंदुस्तानियों की कमियों का भी वर्णन किया है। भारतवर्ष की उन्नति के लिए जनसंख्या-नियंत्रण, श्रम की महत्ता, आत्मबल और त्याग भावना को अनिवार्य कहा है।
लेखक बलिया में स्नान-पर्व पर गया था। वहाँ पर देश के विभिन्न स्थानों से, प्रत्येक जाति का आदमी आया हुआ था। यहाँ इतने आदमी इकट्टे होना उस समय के कलेक्टर रॉबर्ट साहब बहादुर के कारण हुआ था। लेखक रॉबर्ट साहब को बादशाह अकबर के समान मानता था। जैसे अकवर के दरबार में अबुल फ़क़ल, बीरबल, टोडरमल थे वहीं रॉबर्ट साहब के साथ मुंशी चतुर्भुज सहाय और मुंशी बिहारी लाल साहब थे। लेखक हिंदुस्तानियों को रेलगाड़ी मानता था जिसपर तरह-तरह के टैक्स लगे हुए थे और इसका इंजन ब्रिटिश सरकार के पास था। वैसे भी हम लोग बिना किसी के चलाए चल नहीं सकते।
उस समय राजा-महाराजा, नवाब रइसों के पास अपनी झूठी प्रशंसा से ही फुससत नहीं थी। इसलिए प्रजा के विषय में कौन सोचे। प्रजा की दशा बहुत शोचनीय थी। बहुत पहले जब आर्य लोग हिंदुस्तान आए थे तो उन्हें बहाँ के रीति-रिवाज, नीति-विचार सब राजा और ब्राह्मणों ने सिखाए थे। यदि वे लोग अब भी चाहें तो हमारे देश की स्थिति सुधर सकती थी लेकिन उन लोगों को तो आलस्य तथा झूठी प्रशंसा ने घेर रखा है। एक वह समय था जब हमारे पास कोई साधन नहां था।
उस समय हमारे पूर्वजों ने बाँस की नलियों से ताराग्रह की गति लिखी थी। अब ठीक वैसी ही ताराग्रह गति सोलह लाख रुपए की लागत की दूरबीन से लिखी जा रही है। आज हमारे पास हजारों प्रकार के यंत्र तथा पुस्तकें उपलव्ध हैं फिर भी हम कुछ करना नहीं चाहते। हम लोग तो म्युनिसीपेलिटी की कचरा फेंकनेवाली गाड़ी बने हुए हैं। इस समय सभी देश उन्नति की राह पर दौड़े चले जा रहे हैं और हम वहीं खड़े मिट्टी खोद रहे हैं। हम लोगों से अच्छे तो जापान के लोग हैं जो उन्नति कर रहे हैं। ऐसे उन्नति के समय में यदि कोई आगे नहीं बढ़ना चाहता था तो यही कहा जाएगा कि उसपर भगवान का कोप है।
लेखक को उसके मित्रों ने भारत की उन्नति कैसे हो, के लिए बोलने के लिए कहा था। भागवत में एक श्लोक है ‘नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभ प्लवं सुकल्पं गुरु कर्णधारं। मयाइनुकूलेन नभः स्वेतरितुं पुमान् भवाब्बिं न तरेत् स आत्मता।’ अर्थात मनुष्य जन्म लेकर गुरु की कृपा प्राप्त करके तथा भगवान का आशीर्वाद साथ हो तो भी मनुष्य संसार सागर को पार न करे तो उसे आत्महत्यारा कहना चाहिए।
उस समय ऐसी ही स्थिति हिंदुस्तानियों की थी। उन्हें अंग्रेज़ी सरकार से सभी प्रकार के साधन उपलब्ध थे लेकिन उन्होंने उन्नति नहीं करनी चाही। हम लोग कुएँ के मेंढक, काठ के उल्लू और पिंजड़े के गंगा राम ही बने रहे हैं। लोगों से उन्नति की बात करो तो वे कहने लगते हैं कि उन्हें काम से ही फुरसत नहीं है। यह काम उनका है जिनका पेट भरा हुआ है। परंतु ऐसा कहना भूल है। इंग्लेंड भी कभी खाली पेट था। वहाँ के लोगों ने एक हाथ पेट भरने के लिए तो दूसरे हाथ का उपयोग देश की उन्नति में लगाया।
वहाँ लोग खाली बैठना पसंद नहीं करते। वे लोग गप्पों में भी देश के भविष्य की बातें करते हैं। इसके विपरीत हमारे यहाँ खाली बैठकर चिलम पीना तथा गण्ें मारना है जितना लोग खाली बैठते हैं उसे उतना बड़ा अमीर समझा जाता है। मलूक दास जी ने ऐसे लोगों पर दोहा लिखा है “अजगर करै न चाकरी, पंछ्धी करै न काम। दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम।” हमारे चारों ओर ऐसे ही लोगों का बोलबाला है। अमीरों की जी हजुरी करना ही काम रह गया है। इससे हिंदुस्तान की दशा बिगड़ रही है। जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार मनुष्य की गिनती बढ़ती जा रही है और रुपया कम होता जा रहा है। हमें रुपया बढ़ाने का उपाय सोचना चाहिए।
उसके लिए राजा-महाराजा से कोई उम्मीद मत रखो। पंडित जी भी कथा में कोई उपाय नहीं बताएँगे। मनुष्य को अपना आलस्य छोड़कर परिश्रम करना चाहिए। उन्नति की दौड़ में भाग लेना चाहिए। यदि हम लोग पिछड़ गए तो फिर हमें कोई ऊपर नहीं उठा सकता। लेखक ने पृथ्वीराज का उदाहरण दिया है कि जब उसे तीर मारने का अवसर मिला उसने गयासुद्दीन को मार गिराया। अब ब्रिटिश राज्य में उन्नति के अवसर हैं उसका लाभ उठाओ। सब चीज़ों में उन्नति करनी चाहिए। उन बातों का साथ छोड़ देना चाहिए जो उन्नति के मार्ग में बाधा बनती हों।
देश का भला सोचनेवाले लोगों को अपना सुख, धन तथा मान का बलिदान करना चाहिए। अपने अंदर की कमियों के मूल कारण को ढूँढ़कर दूर करना चाहिए। देश की उन्नति के लिए यदि बदनामी भी गले लगानी पड़े तो तैयार रहना चाहिए। उसके बिना देश का भला नहीं हो सकता। लेखक लोगों को कुछ बातें बताता है जो लोगों को सुधरने तथा उन्नति करने में योगदान देती हैं। सबसे पहले मनुष्य को अपने धर्म में ही उन्नति करनी चाहिए। धर्म में ही उन्नति का सार है, जैसे आज के दिन बलिया में सभी लोग स्नान पर्व के लिए इकट्ठे हुए हैं यहाँ लोग आपस में मिलकर अपने सुख-दुख की बातें करते हैं।
अपना व्यापार करने के लिए भी आए हैं। महीने में एक-दो व्रत करने से शरीर शुद्ध रहता है। दीपावली पर घर तथा बाहर का वातावरण स्वच्छ हो जाता है। होलिका दहन से बसंत की बिगड़ी हैवा ठीक हो जाती है। इस प्रकार धर्म-नीति और समाज-नीति दूध और पानी की तरह मिले हुए हैं। लोगों ने धर्म का असली अर्थ समझने के स्थान पर धर्म को केवल ईश्वर के चरण कमल पूजने का काम समझ लिया है। धर्म के ठेकेदारों ने अपने स्वार्थ के लिए धर्म का स्वरूप बदल रखा है। आवश्यकता है आँख खोलकर धर्म के वास्तविक अर्थ को जानने की। जो बात मनुष्य के हित में है उसे स्वीकार कर लेना चाहिए
और जिस बात में अहित हो उसे त्याग देना चाहिए। धर्मशास्त्रों में विधवा-विवाह, जहाज में सफ़र करना आदि को गलत नहीं बताया है परंतु समाज में इन बातों का विरोध किया जाता है। छोटी उम्र में शादी करके बच्चे के विकास को रोकना नहीं चाहिए। उसे दुनियादारी की बातें सिखानी चाहिए। लड़कियों को पढ़ाई के लिए प्रेरित करना चाहिए। उन्हें कुल-धर्म, देश-धर्म की शिक्षा देनी चाहिए। सभी धरों के लोगों को आपस के सभी झगड़े छोड़कर एकजुट होकर देश को उन्नति की ओर लेकर चलना चाहिए।
मुसलमानों को हिंदुस्तान में रहकर हिंदुओं को नीचा नहीं समझना चाहिए। मुसलमानों में हिंदुओं की तरह आपस में खाने-पीने, जात-पात का भेदभाव नहीं है लेकिन फिर भी उन लोगों ने अपनी दशा नहीं सुधारी। पुरानी बातों को भुलाकर आपस में मिलकर रहना चाहिए। लड़कों को लड़कपन में मीरहसन की मसनवी और इंद्रसभा पढ़ने को नहीं देनी चाहिए। उन्हें अच्छी शिक्षा दें। रोजगार की बातें सिखाएँ। पढ़ने के लिए बच्चों को बाहर भेजें जिससे वे वहाँ का काम सीखकर आएँ और देश की उन्नति में हाथ बढ़ाएँ। हिंदू लोगों को भी आपस में जात-पात भूलकर प्रेम से रहना चाहिए। हिंदुस्तान में रहनेवाला चाहे किसी भी जाति, धर्म और स्थान का हो उसे केवल देश हित की सोचनी चाहिए। मिलकर रहने से काम बड़ेगा। काम बढ़ने से रुपया बढ़ेगा और वह रुपया हमारे ही देश में रहेगा। आज हमारा धन बाहर कई देशों में जा रहा है। माचिस जैसी छोटी-सी वस्तु भी बाहर से मँगवाई जा रही है। पहनने का कपड़ा भी बाहर से आता है। हमें इतना भी कमज्ञोर नहीं होना चाहिए कि अपनी निजी ज़खरतों के लिए दूसरों पर निर्भर होना पड़े। विदेशी भाषा और वस्तु को अपनाने से देश की उन्नति संभव नहीं है उसके लिए अपनी भाषा सीखनी चाहिए जिससे उन्नति हो सके।
कठिन शब्दों के अर्थ :
- महसूल – कर
- गरज – मतलब
- कतवार – कूड़ा
- दुर्लभ – कठिनाई से प्राप्त
- एकांत – अकेले में
- दरिद्रता – गरीबी
- कंटक – काँटा, बाधा डालनेवाला
- वरंच – अन्यथा
- विकार – बुराई
- बरताव – व्यवहार
- मयस्सर – प्राप्त, उपलब्ध
- मिहनत – मेहनत, परिश्रम
- हाकिम – अधिकारी
- मसल – कहावत
- कोष – क्रोध
- अनुमोदन – समर्थन
- दूना – दुगना
- मुर्दुमशुमारी – जनगणना
- व्यमिचार – बुरा आचरण
- मिसाल – उदाहरण
- हिकमत – उपाय
- झाह – ईष्ष्या
- तालीम – शिक्षा
भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? सप्रसंग व्याख्या
1. सास के अनुमोदन से एकांत रात में सूने रंगमहल में जाकर भी बहुत दिन से जिस प्रान से प्यारे परदेसी पति से मिलकर छाती ठंडी करने की इच्छा थी, उसका लाज से मुँह भी न देखै और बोलै भी न, तो उसका अभाग्य ही है। वह तो कल फिर परदेस चला जाएगा।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण ‘भारेंदु जी’ के भाषण ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है ?’ से अवतरित किया गया है। लेखक ने इस पाठ में हिंदुस्तानियों की कमियों को बड़े भावपूर्ण ढंग से चित्रित किया है। लोगों को जनसंख्या-नियंत्रण, श्रम की महत्ता, आत्मबल और त्याग की भावना को उन्नति के लिए अनिवार्य मानना चाहिए।
व्याख्या – इन पंक्तियों में लेखक ने हिंदुस्तानियों की उस स्थिति का वर्णन किया है ब्रिटिश शासन में हिंदुस्तानियों के सामने उन्नति के सभी साधन विद्यमान थे परंतु यह उनका अभाग्य ही था जो उन्नति के अवसर का लाभ नहीं उठा पा रहे थे। यह तो वही बात हुई जैसे किसी सास ने बहू को परदेस से आए पति से रात को अकेले में मिलने की स्वीकृति दे दी है कि उसका पति बहुत दिनों बाद आया है। बहू को अपने जान से प्यारे परदेसी पति से मिलने की तीव्र इच्छा थी। वह अपने पति से मिलती है परंतु शर्म के कारण न तो अपने परदेसी पति का मुँह देखती है और न ही उससे कुछ बात करती है। यह बहू का दुर्भाग्य है कि सास की अनुमति का भी लाभ नहीं उठा सकी। उसका पति कल फिर से परदेस चला जाएगा। हिंदुस्तानियों की स्थिति भी उसी बहू जैसी है जिसके आगे उन्नति करने के अवसर हाथ पसारे खड़े थे लेकिन उन्होने ने अपनी मूर्खता से वे अवसर खो दिए।
विशेष – (i) लेखक ने हिंदुस्तानियों की तुलना लाजवंती बहू से की है जो सास की अनुमति मिलने पर भी, अपने परदेसी पति से बात नहीं कर सकती थी। हिंदुस्तानी भी उन्नति के अवसर मिलने पर उनका हाथ नहीं उठा पाए थे।
(ii) लेखक ने सास-बहू का उदाहरण देकर हिंदुस्तानियों की स्थिति को बड़े ही रोचक ढंग से उभारा है।
(iii) दैनिक भाषा का प्रयोग करने से लेखक ने अपनी बात को बड़े ही सहज भाव से प्रस्तुत किया है।
2. दरिद्र कुटुंबी इस तरह अपनी इजज़त को बचाता फिरता है, जैसे लाजवंती कुल की बहू फटे कपड़ों में अपने अंग को छिपाए जाती है। वह दशा हिंदुस्तान की है।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश भारतेंदु जी के भाषण ‘ भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है ?’ से उद्धृत किया गया है। इस पाठ में लेखक ने जहाँ अंग्रेज़ों के मेहनती स्वभाव और काम के प्रति लगाव का वर्णन किया है वहीं हिंदुस्तानियों के आलसी और कामचोरी के स्वभाव को चित्रित किया है। हिंदुस्तानियों को अपनी कमियों को ढूँढ़कर, उन्हें दूर करना चाहिए तभी भारतवर्ष की उन्नति संभव है।
व्याख्या – इन पंक्तियों में लेखक ने हिंदुस्तान की दशा का वर्णन किया है। ब्रिटिश सरकार के शासन ने हिंदुस्तानियों को निकम्मा बना दिया है। जो लोग गरीब हैं वे कुछ कर नहीं सकते और जो कर सकते हैं अर्थात बड़े घरों के नवयुवकों को ब्रिटिश सरकार के कर्मचारी बिगाड़ रहे हैं जिससे देश की स्थिति दयनीय एवं शोचनीय हो रही है। आम लोग भी अपना खर्च चलाने के लिए बड़े लोगों का मुँह देखते हैं। उनकी जी-हजूरी करते हैं। एक गरीब परिवार अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए अमीरों के कई प्रकार के उलटे-सीधे कामों में साथ देता है क्योंकि उसे अपने परिवार का खर्च चलाना होता है। उस गरीब परिवार की स्थिति वैसी ही होती है जैसे एक अच्छे खानदान की बहू की होती है। वह भी अपने कुल की लाज बचाने के लिए, अपनी गरीबी छिपाने के लिए फरे-पुराने कपड़ों को इस तरह पहनती है कि उसके शरीर के अंग दिखाई न दें। आज हिंदुस्तान की स्थिति भी गरीब परिवार की बहू की तरह है जिसे राजा-महाराजाओं की झूठी-दिखावा पसंद ज़िंदगी ने ऊपरी सोने की परत से ढक रखा है। इसकी सभ्यता और संस्कृति ने हिंदुस्तान को ऊँचे शिखर पर बैठाया हुआ है लेकिन हिंदुस्तान की आर्थिक स्थिति दयनीय हो चुकी है।
विशेष – (i) लेखक हिंदुस्तान की दशा की तुलना एक अच्छे परिवार की बहू से करता है जो फटे-पुराने कपड़े पहनकर भी अपने परिवार की इज्ज़त को छिपाने का प्रयत्न करती है।
(ii) लेखक ने मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है तद्भव, तत्सम तथा उर्दू शब्दावली की प्रधानता है।
3. वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरणकमल का भजन है। ये सब तो समाज धर्म है जो देशकाल के अनुसार शोधे और बदले जा सकते हैं।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ भारतेंदु जी के भाषण ‘ भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है ?’ से ली गई हैं। लेखक ने इस पाठ में हिंदू-मुसलमान दोनों की कमियों का वर्णन किया है। अंग्रेज़ों के परिश्रमी स्वभाव और काम के प्रति लगाव की प्रशंसा की है। हिंदुस्तानियों से भी कहा है कि वे अपनी कमियों को खोजकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें और देश की उन्नति में सहयोग दें।
व्याख्या – इन पंक्तियों में लेखक कहता है कि धर्म-नीति और समाज-नीति आपस में दूध पानी की तरह मिले हुए हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने धर्म और समाज को एक-दूसरे का पूरक बताया है। जैसे महीने में एक-दो व्रत करने से स्वास्थ्य ठीक रहता है। दीवाली आने पर चारों ओर सफ़ाई करने से वातावरण स्वच्छ हो जाता है परंतु स्वार्थी लोगों ने धर्म के वास्तविक अर्थ को समझे बिना ही धर्म को अपने स्वार्थों की पूर्ति से जोड़ दिया था। वास्तविक धर्म सभी प्रकार के व्रत करना या स्नान करना नहीं है अपितु वास्तविक धर्म तो भगवान के चरणों में अपना ध्यान लगाना है, भगवान् का गुणगान करना है, व्रत करना, स्नान करना या त्योहार मनाना आदि धर्म नहीं अपितु समाज धर्म है जो समाज के अनुसार बदले और बताए जाते हैं। धर्म तीज-त्योहार या व्रत-पूज़ा नहीं है भगवान का भजन है।
विशेष – (i) लेखक के अनुसार लोगों को धर्म के वास्तविक रूप को मानना चाहिए। तीज-त्योहार-व्रत धर्म नहीं है। यह तो समाज को स्वच्छ बनाने के लिए समाज-धर्म है।
(ii) लेखक ने अपने भाषण को प्रभावी बनाने के लिए आम-बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है।
4. सब ऐसी बातों को छोड़ो जो तुम्हारे इस पथ के कंटक हों, चाहे तुम्हैं लोग निकम्मा कहैं या नंगा कहैं, कृस्तान कहैं या भ्रष्ट कहैं। तुम केवल अपने देश की दीनदशा को देखो और उनकी बात मत सुनो।
प्रसंग प्रस्तुत अवतरण भारतेंदु जी के भाषण ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है ?’ से अवतरित किया गया है। लेखक ने इस पाठ में जहाँ ब्रिटिश शासन की मनमानी का वर्णन किया वहीं उनके मेहनती स्वभाव की प्रशंसा भी की है। हिंदुस्तानियों से अपनी कमियों को दूर करने की भी बात कही है।
व्याख्या – इन पंक्तियों में लेखक लोगों को अपनी और देश की उन्नति के लिए प्रेरित करते हुए कहता है कि यदि वे लोग उन्नति करना चाहते हैं तो आलस्य को छोड़कर पुरुषार्थ के मार्ग पर चलना होगा। अपने अंदर छुपी कमियों को एक-एक करके पूरी ताकत से बाहर निकालना होगा जैसे चोर के घर में आने पर लोग उसे अपनी पूरी ताकत से मार-पीट कर बाहर निकालते हैं। लोगों को उन बातों को, उन परिस्थितियों को और विचारों को त्याग देना चाहिए जो उनकी उन्नति के मार्ग में बाधक बनते हैं। उन्हें उन्नति करने के लिए दूसरे लोगों की बातें सुननी पड़ सकती हैं। उन्नति करने वाले लोग, दूसरे लोगों को निकम्मे लग सकते हैं, उन्हें समाज-हित में कार्य करते देख समाज विरोधी भी कह सकते हैं । जाति-पाँति से ऊपर उठकर चलनेवाले को क्रिश्चियन भी कह सकते हैं क्योंकि क्रिश्चियन जाति-पाँति को नहीं मानते हैं, उन्हें धर्म विरोधी भी कह सकते हैं। उन्नति करनेवालों को उनकी बात नहीं सुननी चाहिए। केवल अपने देश की स्थिति को देखते हुए उसकी उन्नति के बारे में सोचना चाहिए।
विशेष – (i) लेखक के अनुसार देश की उन्नति तभी संभव है, जब लोग दूसरों की बेकार की बातों को सुनना छोड़कर अपने देश की उन्नति के लिए सोचना आरंभ कर दें।
(ii) भाषण की भाषा प्रभावशाली है, जो सुननेवाले पर अपना प्रभाव छोड़ती है।
5. तुम भी मत-मतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जाप करो। जो हिंदुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग, किसी जाति का क्यों न हो, हिंदू, हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मराठा, पंजाबी, मद्रासी, वैदिक, जैन, ब्राहूमणों, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश भारतेंदु जी के भाषण ‘ भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती हैं?’ से उद्धृत किया गया है। इस पाठ में लेखक ने हिंदुस्तानियों से अपनी अंदरूनी कमियों को खोजकर दूर करने की बात कही है। जब हिंदुस्तानी आंतरिक और मानसिक रूप से मजबूत होंगे तभी देश की उन्नति संभव है।
व्याख्या – इन पंक्तियों में लेखक ने हिंदुओं से ऊँच-नीच, जात-पाँत के भेदभाव को छोड़ने की बात कही है। मुसलमानों में जात-पाँत को नहीं माना जाता है उनमें सभी लोग समान हैं। वे लोग किसी तरह की बुआ-छूत नहीं करते थे। वे विदेश गमन को भी बुरा नहीं मानते हैं। इस प्रकार हिंदुओं को भी आपस में भेदभाव नहीं करना चाहिए। सभी हिंदू एक समान हैं। उनमें भी कोई छोटा-बड़ा नहीं है। पुरानी धारणाओं को छोड़कर आपसी प्रेम बढ़ाना चाहिए। हिंदुस्तान में रहनेवाला प्रत्येक हिंदू चाहे वह किसी भी जाति या रंग रूप का हो उसे आगे बढ़ने का अवसर देना चाहिए। एक हिंदू को दूसरे हिंदू को ऊपर उठाने का प्रयास करना चाहिए अर्थात् जहाँ तक संभव हो आर्थिक और सामाजिक सहायता करनी चाहिए। हिंदुस्तान में रहने वाले हर क्षेत्र, हर धर्म और जात का व्यक्ति यदि आपस में एक-दूसरे का हाथ पकड़कर चले तो भारतवर्ष की उन्नति संभव है उसे कोई नहीं रोक सकता है अर्थात बंगाली, मराठा, पंजाबी, मद्रासी, वैदिक, जैन, ब्रह्मा और मुसलमान सभी लोग मिल-जुलकर रहें तो भारतवर्ष को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। एकता में ही उन्नति संभव है।
विशेष – (i) लेखक ने हिंदुओं को आपस में भेदभाव करने को मना किया है। सबको मिल-जुलकर और प्रेमभाव से रहना चाहिए।
(ii) भारतवर्ष की एकता में इसकी निहित है। सभी को अपनी-अपनी जाति या क्षेत्र की उन्नति ही नहीं करनी अपितु भारतवर्ष की उन्नति में अपना सहयोग देना है।
(iii) भाषा सरल, सहज और रोचक है। लेखक ने दैनिक बोलचाल की भाषा के प्रयोग से भाषण को प्रभावशाली बनाया है।
Hindi Antra Class 11 Summary
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