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Class 11 Hindi Antra Chapter 9 Summary – Bharatvarsh Ki Unnati Kaise Ho Sakti Hai Vyakhya

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भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 8 Summary

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? – भारतेंदु हरिश्चंद्र – कवि परिचय

लेखक-परिचय :

जीवन-परिचय – भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी-साहित्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनका जन्म भाद्रपद शुक्ल, ऋषि सप्तमी संवत 1907 अथवा सन 1850 ईं० में काशी के एक सुप्रसिद्ध सेठ परिवार में हुआ था। इनके पूर्वजों का संबंध दिल्ली के शाही घराने से था। भारतेंदु के पिता श्री गोपालचंद वैष्णव थे और ब्रजभाषा में कविता किया करते थे। इन्होंने अपने जीवन काल में चालीस ग्रंथ लिखे थे, जिनमें से चौबीस अब भी प्राप्त हैं। जब भारतेंदु केवल पाँच वर्ष के थे तो इनकी माता का देहावसान हो गया था और इसके चार वर्ष बाद पिता भी इस संसार को छोड़ गए। इस प्रकार आरंभ से ही माता-पिता के स्नेह से वंचित होकर इन्होंने जीवन में प्रवेश किया।

इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर में ही पूरी हुई। बाद में ये क्वींस कोंलेज में दाखिल हुए परंतु किसी कारणवश अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाए। ये हिंदी, अंग्रेज़ी, उद्दू, मराठी, गुजराती, बंगला, पंजाबी, मारवाड़ी और संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे। यद्यपि इन्होंने एक विद्यार्थी की तरह किसी पाठशाला या कॉलेज में विद्याध्ययन नहीं किया, परंतु सरस्वती की आराधना में यह आजीवन लगे रहे। इनका देहावसान अत्यंत छोटी अवस्था में माघ कृष्णा षष्ठी, संवत 1941 अथवा सन 1885 ई० को तपेदिक से हुआ था। उस समय इनकी अवस्था 34 वर्ष 4 मास थी।

रचनाएँ – भारतेंदु की रचनाओं की संख्या इतनी अधिक है कि उन्हे देखकर इनकी प्रतिभा, लग्न और अध्यवसाय पर आश्चर्य होता है। डॉं० जयशंकर त्रिपाठी के अनुसार इनके द्वारा रचित छोटे-बड़े ग्रंथों की संख्या 239 है। इनकी प्रमुख रचनाओं को विभिन्न प्रकार के आधारों पर स्थित कर सकते हैं-

नाटक – वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, प्रेम जोगिनी, श्री चंद्रावली नाटिका, विषस्य विषमौषधम, भारत-दुर्दशा, नील देवी, अँधेर नगरी, सती प्रलाप, विद्यासुंदर, पाखंड विडंबन, धनंजय विजय, कर्पूरमंजरी, सत्य हरिश्चंंद्र, भारत जननी, मुद्रारक्षस, दुर्लभ बंधु।
काव्य-संग्रह – प्रेम-माधुरी, प्रेम फुलवारी, प्रेम मालिका, प्रेम प्रलाप, फूलों का गुच्छा।
पत्र-पत्रिकाएँ – कवि वचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन, बाला बोधिनी, हरिश्चंद्र चंद्रिका।

इतिहास, निबंध और आख्यान-सुलोचना, लीलावती, मदाल सोपाख्यान, परिहास पंचक, परिहासिनी, काश्मीर कुसुम, महाराष्ट्र देश का इतिहास, रामायण का समय, अग्रवालों की उत्पत्ति, खत्रियों की उत्पत्ति, बादशाह दर्पण, बूँदी का राजवंश, उदयपुरोदय, पुरावृत्त संग्रह, चरितावली, पंच पवित्रात्मा।

भाषा-शैली – भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक साहित्यिक हिंदी भाषा के निर्माता माने जाते हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप में तत्कालीन समाज में प्रचलित हिंदी भाषा का प्रयोग किया है जिसमें बोलचाल के देशज तथा विदेशी शब्दों का भरपूर प्रयोग दिखाई देता है, जैसे-हाकिम, महसूल, गप, धिएटर, खोवँ, फुरसत, मर्दुमशुमारी, मयस्सर, शौक, तिफ्ली। लेखक ने तत्सम-प्रधान शब्दावली का भी प्रयोग किया है, जैसे-मूल, उत्साह, यंत्र, अनुकूल, हितैषी। प्रस्तुत लेख लेखक द्वारा बलिया में दिया गया भाषण है इसलिए इसमें भाषण-शैली है।

लेखक ने अपने कथन को विभिन्न दृष्टांतों एवं प्रसंगों के माध्यम से स्पष्ट किया है। लेखक के व्यंग्य भी अत्यंत तीक्ष्ग हैं; जैसे-‘ राजे महाराजों को अपनी पूजा-भोजन, झूठी गप से छुट्टी नहीं। हाकिमों को कुछ सरकारी काम घेरे रहता है, कुछ बॉल, घुड़दौड़, धिएटर, अखबार में समय गया। कुछ समय बचा भी तो उनको क्या गरज है कि हम गरीब, गंदे काले आदमियों से मिलकर अपना अनमोल समय खोवें।’ कहीं-कहीं लेखक की शैली उद्बोधनात्मक भी हो जाती है जब वह देशवासियों को ‘कमर कसो, आलस छोड़ो’ कहकर देश की उन्नति में अपना योगदान देने के लिए कहता है। लेखक ने अवसरानुकूल प्रवाहमयी जनभाषा तथा रोचक शैली का इस पाठ में प्रयोग किया है।

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? Class 11 Hindi Summary

‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ भारतेंदु का प्रसिद्ध भाषण है। लेखक ने इस पाठ में एक ओर त्रिटिश सरकार की मनमानी पर व्यंग्य किया है तो दूसरी ओर अंग्रेज़ों के परिश्रमी स्वभाव और काम के प्रति लगाव को आदर की दृष्टि से देखते हैं। लेखक ने अपने भाषण में हिंदुस्तानियों की कमियों का भी वर्णन किया है। भारतवर्ष की उन्नति के लिए जनसंख्या-नियंत्रण, श्रम की महत्ता, आत्मबल और त्याग भावना को अनिवार्य कहा है।

लेखक बलिया में स्नान-पर्व पर गया था। वहाँ पर देश के विभिन्न स्थानों से, प्रत्येक जाति का आदमी आया हुआ था। यहाँ इतने आदमी इकट्टे होना उस समय के कलेक्टर रॉबर्ट साहब बहादुर के कारण हुआ था। लेखक रॉबर्ट साहब को बादशाह अकबर के समान मानता था। जैसे अकवर के दरबार में अबुल फ़क़ल, बीरबल, टोडरमल थे वहीं रॉबर्ट साहब के साथ मुंशी चतुर्भुज सहाय और मुंशी बिहारी लाल साहब थे। लेखक हिंदुस्तानियों को रेलगाड़ी मानता था जिसपर तरह-तरह के टैक्स लगे हुए थे और इसका इंजन ब्रिटिश सरकार के पास था। वैसे भी हम लोग बिना किसी के चलाए चल नहीं सकते।

उस समय राजा-महाराजा, नवाब रइसों के पास अपनी झूठी प्रशंसा से ही फुससत नहीं थी। इसलिए प्रजा के विषय में कौन सोचे। प्रजा की दशा बहुत शोचनीय थी। बहुत पहले जब आर्य लोग हिंदुस्तान आए थे तो उन्हें बहाँ के रीति-रिवाज, नीति-विचार सब राजा और ब्राह्मणों ने सिखाए थे। यदि वे लोग अब भी चाहें तो हमारे देश की स्थिति सुधर सकती थी लेकिन उन लोगों को तो आलस्य तथा झूठी प्रशंसा ने घेर रखा है। एक वह समय था जब हमारे पास कोई साधन नहां था।

उस समय हमारे पूर्वजों ने बाँस की नलियों से ताराग्रह की गति लिखी थी। अब ठीक वैसी ही ताराग्रह गति सोलह लाख रुपए की लागत की दूरबीन से लिखी जा रही है। आज हमारे पास हजारों प्रकार के यंत्र तथा पुस्तकें उपलव्ध हैं फिर भी हम कुछ करना नहीं चाहते। हम लोग तो म्युनिसीपेलिटी की कचरा फेंकनेवाली गाड़ी बने हुए हैं। इस समय सभी देश उन्नति की राह पर दौड़े चले जा रहे हैं और हम वहीं खड़े मिट्टी खोद रहे हैं। हम लोगों से अच्छे तो जापान के लोग हैं जो उन्नति कर रहे हैं। ऐसे उन्नति के समय में यदि कोई आगे नहीं बढ़ना चाहता था तो यही कहा जाएगा कि उसपर भगवान का कोप है।

लेखक को उसके मित्रों ने भारत की उन्नति कैसे हो, के लिए बोलने के लिए कहा था। भागवत में एक श्लोक है ‘नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभ प्लवं सुकल्पं गुरु कर्णधारं। मयाइनुकूलेन नभः स्वेतरितुं पुमान् भवाब्बिं न तरेत् स आत्मता।’ अर्थात मनुष्य जन्म लेकर गुरु की कृपा प्राप्त करके तथा भगवान का आशीर्वाद साथ हो तो भी मनुष्य संसार सागर को पार न करे तो उसे आत्महत्यारा कहना चाहिए।

उस समय ऐसी ही स्थिति हिंदुस्तानियों की थी। उन्हें अंग्रेज़ी सरकार से सभी प्रकार के साधन उपलब्ध थे लेकिन उन्होंने उन्नति नहीं करनी चाही। हम लोग कुएँ के मेंढक, काठ के उल्लू और पिंजड़े के गंगा राम ही बने रहे हैं। लोगों से उन्नति की बात करो तो वे कहने लगते हैं कि उन्हें काम से ही फुरसत नहीं है। यह काम उनका है जिनका पेट भरा हुआ है। परंतु ऐसा कहना भूल है। इंग्लेंड भी कभी खाली पेट था। वहाँ के लोगों ने एक हाथ पेट भरने के लिए तो दूसरे हाथ का उपयोग देश की उन्नति में लगाया।

वहाँ लोग खाली बैठना पसंद नहीं करते। वे लोग गप्पों में भी देश के भविष्य की बातें करते हैं। इसके विपरीत हमारे यहाँ खाली बैठकर चिलम पीना तथा गण्ें मारना है जितना लोग खाली बैठते हैं उसे उतना बड़ा अमीर समझा जाता है। मलूक दास जी ने ऐसे लोगों पर दोहा लिखा है “अजगर करै न चाकरी, पंछ्धी करै न काम। दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम।” हमारे चारों ओर ऐसे ही लोगों का बोलबाला है। अमीरों की जी हजुरी करना ही काम रह गया है। इससे हिंदुस्तान की दशा बिगड़ रही है। जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार मनुष्य की गिनती बढ़ती जा रही है और रुपया कम होता जा रहा है। हमें रुपया बढ़ाने का उपाय सोचना चाहिए।

उसके लिए राजा-महाराजा से कोई उम्मीद मत रखो। पंडित जी भी कथा में कोई उपाय नहीं बताएँगे। मनुष्य को अपना आलस्य छोड़कर परिश्रम करना चाहिए। उन्नति की दौड़ में भाग लेना चाहिए। यदि हम लोग पिछड़ गए तो फिर हमें कोई ऊपर नहीं उठा सकता। लेखक ने पृथ्वीराज का उदाहरण दिया है कि जब उसे तीर मारने का अवसर मिला उसने गयासुद्दीन को मार गिराया। अब ब्रिटिश राज्य में उन्नति के अवसर हैं उसका लाभ उठाओ। सब चीज़ों में उन्नति करनी चाहिए। उन बातों का साथ छोड़ देना चाहिए जो उन्नति के मार्ग में बाधा बनती हों।

देश का भला सोचनेवाले लोगों को अपना सुख, धन तथा मान का बलिदान करना चाहिए। अपने अंदर की कमियों के मूल कारण को ढूँढ़कर दूर करना चाहिए। देश की उन्नति के लिए यदि बदनामी भी गले लगानी पड़े तो तैयार रहना चाहिए। उसके बिना देश का भला नहीं हो सकता। लेखक लोगों को कुछ बातें बताता है जो लोगों को सुधरने तथा उन्नति करने में योगदान देती हैं। सबसे पहले मनुष्य को अपने धर्म में ही उन्नति करनी चाहिए। धर्म में ही उन्नति का सार है, जैसे आज के दिन बलिया में सभी लोग स्नान पर्व के लिए इकट्ठे हुए हैं यहाँ लोग आपस में मिलकर अपने सुख-दुख की बातें करते हैं।

अपना व्यापार करने के लिए भी आए हैं। महीने में एक-दो व्रत करने से शरीर शुद्ध रहता है। दीपावली पर घर तथा बाहर का वातावरण स्वच्छ हो जाता है। होलिका दहन से बसंत की बिगड़ी हैवा ठीक हो जाती है। इस प्रकार धर्म-नीति और समाज-नीति दूध और पानी की तरह मिले हुए हैं। लोगों ने धर्म का असली अर्थ समझने के स्थान पर धर्म को केवल ईश्वर के चरण कमल पूजने का काम समझ लिया है। धर्म के ठेकेदारों ने अपने स्वार्थ के लिए धर्म का स्वरूप बदल रखा है। आवश्यकता है आँख खोलकर धर्म के वास्तविक अर्थ को जानने की। जो बात मनुष्य के हित में है उसे स्वीकार कर लेना चाहिए

और जिस बात में अहित हो उसे त्याग देना चाहिए। धर्मशास्त्रों में विधवा-विवाह, जहाज में सफ़र करना आदि को गलत नहीं बताया है परंतु समाज में इन बातों का विरोध किया जाता है। छोटी उम्र में शादी करके बच्चे के विकास को रोकना नहीं चाहिए। उसे दुनियादारी की बातें सिखानी चाहिए। लड़कियों को पढ़ाई के लिए प्रेरित करना चाहिए। उन्हें कुल-धर्म, देश-धर्म की शिक्षा देनी चाहिए। सभी धरों के लोगों को आपस के सभी झगड़े छोड़कर एकजुट होकर देश को उन्नति की ओर लेकर चलना चाहिए।

मुसलमानों को हिंदुस्तान में रहकर हिंदुओं को नीचा नहीं समझना चाहिए। मुसलमानों में हिंदुओं की तरह आपस में खाने-पीने, जात-पात का भेदभाव नहीं है लेकिन फिर भी उन लोगों ने अपनी दशा नहीं सुधारी। पुरानी बातों को भुलाकर आपस में मिलकर रहना चाहिए। लड़कों को लड़कपन में मीरहसन की मसनवी और इंद्रसभा पढ़ने को नहीं देनी चाहिए। उन्हें अच्छी शिक्षा दें। रोजगार की बातें सिखाएँ। पढ़ने के लिए बच्चों को बाहर भेजें जिससे वे वहाँ का काम सीखकर आएँ और देश की उन्नति में हाथ बढ़ाएँ। हिंदू लोगों को भी आपस में जात-पात भूलकर प्रेम से रहना चाहिए। हिंदुस्तान में रहनेवाला चाहे किसी भी जाति, धर्म और स्थान का हो उसे केवल देश हित की सोचनी चाहिए। मिलकर रहने से काम बड़ेगा। काम बढ़ने से रुपया बढ़ेगा और वह रुपया हमारे ही देश में रहेगा। आज हमारा धन बाहर कई देशों में जा रहा है। माचिस जैसी छोटी-सी वस्तु भी बाहर से मँगवाई जा रही है। पहनने का कपड़ा भी बाहर से आता है। हमें इतना भी कमज्ञोर नहीं होना चाहिए कि अपनी निजी ज़खरतों के लिए दूसरों पर निर्भर होना पड़े। विदेशी भाषा और वस्तु को अपनाने से देश की उन्नति संभव नहीं है उसके लिए अपनी भाषा सीखनी चाहिए जिससे उन्नति हो सके।

कठिन शब्दों के अर्थ :

  • महसूल – कर
  • गरज – मतलब
  • कतवार – कूड़ा
  • दुर्लभ – कठिनाई से प्राप्त
  • एकांत – अकेले में
  • दरिद्रता – गरीबी
  • कंटक – काँटा, बाधा डालनेवाला
  • वरंच – अन्यथा
  • विकार – बुराई
  • बरताव – व्यवहार
  • मयस्सर – प्राप्त, उपलब्ध
  • मिहनत – मेहनत, परिश्रम
  • हाकिम – अधिकारी
  • मसल – कहावत
  • कोष – क्रोध
  • अनुमोदन – समर्थन
  • दूना – दुगना
  • मुर्दुमशुमारी – जनगणना
  • व्यमिचार – बुरा आचरण
  • मिसाल – उदाहरण
  • हिकमत – उपाय
  • झाह – ईष्ष्या
  • तालीम – शिक्षा

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? सप्रसंग व्याख्या

1. सास के अनुमोदन से एकांत रात में सूने रंगमहल में जाकर भी बहुत दिन से जिस प्रान से प्यारे परदेसी पति से मिलकर छाती ठंडी करने की इच्छा थी, उसका लाज से मुँह भी न देखै और बोलै भी न, तो उसका अभाग्य ही है। वह तो कल फिर परदेस चला जाएगा।

प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण ‘भारेंदु जी’ के भाषण ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है ?’ से अवतरित किया गया है। लेखक ने इस पाठ में हिंदुस्तानियों की कमियों को बड़े भावपूर्ण ढंग से चित्रित किया है। लोगों को जनसंख्या-नियंत्रण, श्रम की महत्ता, आत्मबल और त्याग की भावना को उन्नति के लिए अनिवार्य मानना चाहिए।

व्याख्या – इन पंक्तियों में लेखक ने हिंदुस्तानियों की उस स्थिति का वर्णन किया है ब्रिटिश शासन में हिंदुस्तानियों के सामने उन्नति के सभी साधन विद्यमान थे परंतु यह उनका अभाग्य ही था जो उन्नति के अवसर का लाभ नहीं उठा पा रहे थे। यह तो वही बात हुई जैसे किसी सास ने बहू को परदेस से आए पति से रात को अकेले में मिलने की स्वीकृति दे दी है कि उसका पति बहुत दिनों बाद आया है। बहू को अपने जान से प्यारे परदेसी पति से मिलने की तीव्र इच्छा थी। वह अपने पति से मिलती है परंतु शर्म के कारण न तो अपने परदेसी पति का मुँह देखती है और न ही उससे कुछ बात करती है। यह बहू का दुर्भाग्य है कि सास की अनुमति का भी लाभ नहीं उठा सकी। उसका पति कल फिर से परदेस चला जाएगा। हिंदुस्तानियों की स्थिति भी उसी बहू जैसी है जिसके आगे उन्नति करने के अवसर हाथ पसारे खड़े थे लेकिन उन्होने ने अपनी मूर्खता से वे अवसर खो दिए।

विशेष – (i) लेखक ने हिंदुस्तानियों की तुलना लाजवंती बहू से की है जो सास की अनुमति मिलने पर भी, अपने परदेसी पति से बात नहीं कर सकती थी। हिंदुस्तानी भी उन्नति के अवसर मिलने पर उनका हाथ नहीं उठा पाए थे।
(ii) लेखक ने सास-बहू का उदाहरण देकर हिंदुस्तानियों की स्थिति को बड़े ही रोचक ढंग से उभारा है।
(iii) दैनिक भाषा का प्रयोग करने से लेखक ने अपनी बात को बड़े ही सहज भाव से प्रस्तुत किया है।

2. दरिद्र कुटुंबी इस तरह अपनी इजज़त को बचाता फिरता है, जैसे लाजवंती कुल की बहू फटे कपड़ों में अपने अंग को छिपाए जाती है। वह दशा हिंदुस्तान की है।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश भारतेंदु जी के भाषण ‘ भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है ?’ से उद्धृत किया गया है। इस पाठ में लेखक ने जहाँ अंग्रेज़ों के मेहनती स्वभाव और काम के प्रति लगाव का वर्णन किया है वहीं हिंदुस्तानियों के आलसी और कामचोरी के स्वभाव को चित्रित किया है। हिंदुस्तानियों को अपनी कमियों को ढूँढ़कर, उन्हें दूर करना चाहिए तभी भारतवर्ष की उन्नति संभव है।

व्याख्या – इन पंक्तियों में लेखक ने हिंदुस्तान की दशा का वर्णन किया है। ब्रिटिश सरकार के शासन ने हिंदुस्तानियों को निकम्मा बना दिया है। जो लोग गरीब हैं वे कुछ कर नहीं सकते और जो कर सकते हैं अर्थात बड़े घरों के नवयुवकों को ब्रिटिश सरकार के कर्मचारी बिगाड़ रहे हैं जिससे देश की स्थिति दयनीय एवं शोचनीय हो रही है। आम लोग भी अपना खर्च चलाने के लिए बड़े लोगों का मुँह देखते हैं। उनकी जी-हजूरी करते हैं। एक गरीब परिवार अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए अमीरों के कई प्रकार के उलटे-सीधे कामों में साथ देता है क्योंकि उसे अपने परिवार का खर्च चलाना होता है। उस गरीब परिवार की स्थिति वैसी ही होती है जैसे एक अच्छे खानदान की बहू की होती है। वह भी अपने कुल की लाज बचाने के लिए, अपनी गरीबी छिपाने के लिए फरे-पुराने कपड़ों को इस तरह पहनती है कि उसके शरीर के अंग दिखाई न दें। आज हिंदुस्तान की स्थिति भी गरीब परिवार की बहू की तरह है जिसे राजा-महाराजाओं की झूठी-दिखावा पसंद ज़िंदगी ने ऊपरी सोने की परत से ढक रखा है। इसकी सभ्यता और संस्कृति ने हिंदुस्तान को ऊँचे शिखर पर बैठाया हुआ है लेकिन हिंदुस्तान की आर्थिक स्थिति दयनीय हो चुकी है।

विशेष – (i) लेखक हिंदुस्तान की दशा की तुलना एक अच्छे परिवार की बहू से करता है जो फटे-पुराने कपड़े पहनकर भी अपने परिवार की इज्ज़त को छिपाने का प्रयत्न करती है।
(ii) लेखक ने मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है तद्भव, तत्सम तथा उर्दू शब्दावली की प्रधानता है।

3. वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरणकमल का भजन है। ये सब तो समाज धर्म है जो देशकाल के अनुसार शोधे और बदले जा सकते हैं।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ भारतेंदु जी के भाषण ‘ भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है ?’ से ली गई हैं। लेखक ने इस पाठ में हिंदू-मुसलमान दोनों की कमियों का वर्णन किया है। अंग्रेज़ों के परिश्रमी स्वभाव और काम के प्रति लगाव की प्रशंसा की है। हिंदुस्तानियों से भी कहा है कि वे अपनी कमियों को खोजकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें और देश की उन्नति में सहयोग दें।

व्याख्या – इन पंक्तियों में लेखक कहता है कि धर्म-नीति और समाज-नीति आपस में दूध पानी की तरह मिले हुए हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने धर्म और समाज को एक-दूसरे का पूरक बताया है। जैसे महीने में एक-दो व्रत करने से स्वास्थ्य ठीक रहता है। दीवाली आने पर चारों ओर सफ़ाई करने से वातावरण स्वच्छ हो जाता है परंतु स्वार्थी लोगों ने धर्म के वास्तविक अर्थ को समझे बिना ही धर्म को अपने स्वार्थों की पूर्ति से जोड़ दिया था। वास्तविक धर्म सभी प्रकार के व्रत करना या स्नान करना नहीं है अपितु वास्तविक धर्म तो भगवान के चरणों में अपना ध्यान लगाना है, भगवान् का गुणगान करना है, व्रत करना, स्नान करना या त्योहार मनाना आदि धर्म नहीं अपितु समाज धर्म है जो समाज के अनुसार बदले और बताए जाते हैं। धर्म तीज-त्योहार या व्रत-पूज़ा नहीं है भगवान का भजन है।

विशेष – (i) लेखक के अनुसार लोगों को धर्म के वास्तविक रूप को मानना चाहिए। तीज-त्योहार-व्रत धर्म नहीं है। यह तो समाज को स्वच्छ बनाने के लिए समाज-धर्म है।
(ii) लेखक ने अपने भाषण को प्रभावी बनाने के लिए आम-बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है।

4. सब ऐसी बातों को छोड़ो जो तुम्हारे इस पथ के कंटक हों, चाहे तुम्हैं लोग निकम्मा कहैं या नंगा कहैं, कृस्तान कहैं या भ्रष्ट कहैं। तुम केवल अपने देश की दीनदशा को देखो और उनकी बात मत सुनो।
प्रसंग प्रस्तुत अवतरण भारतेंदु जी के भाषण ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है ?’ से अवतरित किया गया है। लेखक ने इस पाठ में जहाँ ब्रिटिश शासन की मनमानी का वर्णन किया वहीं उनके मेहनती स्वभाव की प्रशंसा भी की है। हिंदुस्तानियों से अपनी कमियों को दूर करने की भी बात कही है।

व्याख्या – इन पंक्तियों में लेखक लोगों को अपनी और देश की उन्नति के लिए प्रेरित करते हुए कहता है कि यदि वे लोग उन्नति करना चाहते हैं तो आलस्य को छोड़कर पुरुषार्थ के मार्ग पर चलना होगा। अपने अंदर छुपी कमियों को एक-एक करके पूरी ताकत से बाहर निकालना होगा जैसे चोर के घर में आने पर लोग उसे अपनी पूरी ताकत से मार-पीट कर बाहर निकालते हैं। लोगों को उन बातों को, उन परिस्थितियों को और विचारों को त्याग देना चाहिए जो उनकी उन्नति के मार्ग में बाधक बनते हैं। उन्हें उन्नति करने के लिए दूसरे लोगों की बातें सुननी पड़ सकती हैं। उन्नति करने वाले लोग, दूसरे लोगों को निकम्मे लग सकते हैं, उन्हें समाज-हित में कार्य करते देख समाज विरोधी भी कह सकते हैं । जाति-पाँति से ऊपर उठकर चलनेवाले को क्रिश्चियन भी कह सकते हैं क्योंकि क्रिश्चियन जाति-पाँति को नहीं मानते हैं, उन्हें धर्म विरोधी भी कह सकते हैं। उन्नति करनेवालों को उनकी बात नहीं सुननी चाहिए। केवल अपने देश की स्थिति को देखते हुए उसकी उन्नति के बारे में सोचना चाहिए।

विशेष – (i) लेखक के अनुसार देश की उन्नति तभी संभव है, जब लोग दूसरों की बेकार की बातों को सुनना छोड़कर अपने देश की उन्नति के लिए सोचना आरंभ कर दें।
(ii) भाषण की भाषा प्रभावशाली है, जो सुननेवाले पर अपना प्रभाव छोड़ती है।

5. तुम भी मत-मतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जाप करो। जो हिंदुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग, किसी जाति का क्यों न हो, हिंदू, हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मराठा, पंजाबी, मद्रासी, वैदिक, जैन, ब्राहूमणों, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश भारतेंदु जी के भाषण ‘ भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती हैं?’ से उद्धृत किया गया है। इस पाठ में लेखक ने हिंदुस्तानियों से अपनी अंदरूनी कमियों को खोजकर दूर करने की बात कही है। जब हिंदुस्तानी आंतरिक और मानसिक रूप से मजबूत होंगे तभी देश की उन्नति संभव है।

व्याख्या – इन पंक्तियों में लेखक ने हिंदुओं से ऊँच-नीच, जात-पाँत के भेदभाव को छोड़ने की बात कही है। मुसलमानों में जात-पाँत को नहीं माना जाता है उनमें सभी लोग समान हैं। वे लोग किसी तरह की बुआ-छूत नहीं करते थे। वे विदेश गमन को भी बुरा नहीं मानते हैं। इस प्रकार हिंदुओं को भी आपस में भेदभाव नहीं करना चाहिए। सभी हिंदू एक समान हैं। उनमें भी कोई छोटा-बड़ा नहीं है। पुरानी धारणाओं को छोड़कर आपसी प्रेम बढ़ाना चाहिए। हिंदुस्तान में रहनेवाला प्रत्येक हिंदू चाहे वह किसी भी जाति या रंग रूप का हो उसे आगे बढ़ने का अवसर देना चाहिए। एक हिंदू को दूसरे हिंदू को ऊपर उठाने का प्रयास करना चाहिए अर्थात् जहाँ तक संभव हो आर्थिक और सामाजिक सहायता करनी चाहिए। हिंदुस्तान में रहने वाले हर क्षेत्र, हर धर्म और जात का व्यक्ति यदि आपस में एक-दूसरे का हाथ पकड़कर चले तो भारतवर्ष की उन्नति संभव है उसे कोई नहीं रोक सकता है अर्थात बंगाली, मराठा, पंजाबी, मद्रासी, वैदिक, जैन, ब्रह्मा और मुसलमान सभी लोग मिल-जुलकर रहें तो भारतवर्ष को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। एकता में ही उन्नति संभव है।

विशेष – (i) लेखक ने हिंदुओं को आपस में भेदभाव करने को मना किया है। सबको मिल-जुलकर और प्रेमभाव से रहना चाहिए।
(ii) भारतवर्ष की एकता में इसकी निहित है। सभी को अपनी-अपनी जाति या क्षेत्र की उन्नति ही नहीं करनी अपितु भारतवर्ष की उन्नति में अपना सहयोग देना है।
(iii) भाषा सरल, सहज और रोचक है। लेखक ने दैनिक बोलचाल की भाषा के प्रयोग से भाषण को प्रभावशाली बनाया है।

Hindi Antra Class 11 Summary

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Class 11 Hindi Antra Chapter 10 Summary – Are In Dohun Rah Na Pai, Balam Aavo Hamare Geh Re Vyakhya

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अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 10 Summary

अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे – भारतेंदु हरिश्चंद्र – कवि परिचय

जीवन-परिचय – कबीर भक्तिकाल की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। उनकी जन्म-तिथि और जन्म-स्थान के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। बहुमत के अनुसार कबीर का जन्म सन् 1398 में हुआ था। उनके विषय में यह भी कहा जाता है कि वे स्वामी रामानंद के आशीर्वाद के परिणामस्वरूप एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी ने लोक-लाज के भय से नवजात शिशु को काशी में ‘लहरतारा’ नामक तालाब के किनारे पर फेंक दिया। वहाँ से गुज़रते हुए नीरू-नीमा बुनकर दंपती ने शिशु को उठा लिया और उसका पालन-पोषण किया। आगे चलकर यही बालक संत कबीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कबीर के गुरु का नाम स्वामी रामानंद था। कुछ लोग शेख तकी को भी कबीर का गुरु मानते हैं। रामानंद के विषय में तो कबीर ने स्वयं कहा है-

काशी में हम प्रकट भए, रामानंद चेताये।
कबीर का विवाह भी हुआ था। उनकी पत्नी का नाम लोई था। कमाल एवं कमाली नामक उनके बेटा-बेटी भी थे। स्वभाव से वैरागी होने के कारण कबीर साधुओं की संगति में रहने लगे। उनका निधन सन् 1518 में हुआ।
रचनाएँ-कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। वे बहुश्रुत थे। उन्होंने जो कुछ कहा, वह अपने अनुभव के बल पर कहा। एक स्थान पर उन्होंने शास्त्र-ज्ञाता पंडित को कहा भी है –
मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।
कबीर की बाणी ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में संकलित है। इस रचना में कबीर द्वारा रचित साखी, रमैनी एवं सबद संग्रहीत हैं।

काव्यगत विशेषताएँ-कबीर के काव्य की प्रमुख विशेषताओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

(i) समन्वय-भावना – कबीर के समय में हिंदू एवं मुसलमान तथा विभिन्न संप्रदायों में संघर्ष की भावना तीत्र हो चुकी थी। कबीर ने हिंदू-मुस्लिम एकता तथा विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों में समन्वय लाने का प्रयत्न किया। उन्होंने एक ऐसे धर्म की नींव रखी जिस पर मुसलमानों के एकेश्वरवाद, शंकर के अद्वैतवाद, सिद्धों के हठयोग, वैष्णवों की भक्ति एवं सूफ़ियों की प्रेम के पीर का प्रभाव था।

(ii) भगवान के निर्गुण रूप की उपासना – कबीर भगवान के निर्रुण रूप के उपासक थे। उनके भगवान प्रत्येक हददय में वास करते हैं. अतः उन्हें मंदिर-मसजिद में ढूँढ़ना व्यर्थ है। भगवान की भक्ति के लिए आडंबर की अपेक्षा मन की शुद्धता एवं आचरण की पवित्रता की आवश्यकता है-
तन कौ जोगी सब करे, मन कौ बिरला कोई।
सब विधि सह्जै पाइए जो मन जोगी होई ॥

(iii) गुरु का महत्व – कबीर ने गुरु को परमात्मा से भी अधिक महत्व दिया है क्योंकि परमात्मा की कृपा होने से पहले गुरु की कृपा का होना आवश्यक है। गुरु ही अपने ज्ञान से शिष्य के अज्ञान को समाप्त करता है। इसलिए वे कहते हैं –

गुरु गोविंद दोऊ खड़े काकै लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दियो बताय॥

Are In Dohun Rah Na Pai, Balam Aavo Hamare Geh Re Class 11 Hindi Summary

प्रथम पद का सार –

1. पहले पद में कबीरदास ने हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के धर्माचरण पर करारी चोट की है। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के द्वारा किए जानेवाले तरह-तरह के आइंबरों का उल्लेख करते हुए उन्हें बुरा-भला कहा है। उनका कहना है कि हिंदू अपनी भक्ति की प्रशंसा करते हैं, चुआचूत में विश्वास करते हैं। वे वेश्यावृत्ति में लगकर स्वयं को बुराइयों के गर्त में ले जाते हैं। मुसलमानों के पीर-औलिया पशु-वध को स्वीकृति देते हैं। मुर्गा-मुर्गी का मांस खाते हैं तथा सगे-संर्यधियों से विवाह करते हैं। हिंदू और मुसलमान दोनो ही एक जैसे हैं; दोनों की कथनी और करनी में अंतर है। कबीर जी का कहना है कि ये दोनों ही गलत रास्ते पर चल रहे हैं अर्थात दोनों के रास्ते पूर्णतः गलत हैं।

द्वितीय पद का सार –

2. दूसरें पद में कबीर ने जीवात्मा की विरह-व्यथा का सजीव चित्र उपस्थित किया है। इसमें विरह-ज्वाला में जलनेवाली जीवात्मा पति रूपी परमात्मा को बुला रही है। वह हर अवस्था में उससे मिलना चाइती है। इस पद में कबि ने परमात्मा को पति और जीवात्मा को पत्नी के रूप में प्रतिपादित किया है। परमात्मा रूपी पति को न मिलने से पत्नी रूपी जीवात्मा की प्रेम-भावना तड़प उठती है। वह भारतीय नारी के समान अपने पति के प्रति एकांतिक प्रेम करती है और उसे पाने के लिए तड़प उठती है। जिस प्रकार किसी प्यासे की प्यास जल पाकर बुझती है, उसी प्रकार कामिनी को पति प्यारा होता है। उसे अपने प्रियतम का मिलन फ्रिय है। वह अपने प्रिय से मिले बिना अत्यंत व्याकुल हो रही है। प्रियतम से मिले बिना उसके प्राण निकल रहे हैं।

अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे सप्रसंग व्याख्या

1. अरे इन दोहुन राह न पाई।
हिंदू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई।
बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहै घरहिं में करै सगाई।
बाहर से इक मुर्दा लाए धोय-धाय चढ़वाई।
सब सखियाँ मिली जेंवन बैठीं घर-भर करै बड़ाई।
हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहैं कबीर सुनों भाई साधो कौन राह हूव जाई।

शब्दार्थ

  • दोहुन – दोनों, हिंदुओं और मुसलमानों ने।
  • बड़ाई – प्रशंसा।
  • खाला – मौसी।

प्रसंग – प्रस्तुत पद संत कबीरदास के द्वारा रचित है जिसमें उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के द्वारा किए जानेवाले तरह-तरह के आडंबरों का उल्लेख किया है तथा उन्हें बुरा-भला कहा है। उनकी दृष्टि में इन दोनों की धार्मिक राह व्यर्थ है।

व्याख्या – कबीर कहते हैं कि इन हिंदुओं और मुसलमानों दोनों ने ईश्वर की भक्ति रूपी राह को ठीक प्रकार से प्राप्त नहीं किया। इनका भक्ति-मार्ग गलत है। हिंदू सदा अपनी तथा अपनी भक्ति की प्रशंसा करते हैं; छुआछूत में विश्वास करते हैं तथा पानी की गागर को छूने तक नहीं देते। उन्हें लगता है कि किसी के द्वारा उसे छू लेने के बाद वह अपवित्र हो जाएगी। वैसे वे वेश्या के पैरों के पास सो लेते हैं अर्थात् वेश्या-गमन करते हैं लेकिन तब वे अपवित्र नहीं होते। मेंने हिंदुओं की हिंदुआई अच्छी तरह से देख ली है। मुसलमानों के पीर-औलिया पशु-वध को स्वीकृति देते हैं; मुर्गा-मुर्गी का मांस खाते हैं।

अपनी मौसी की बेटी से ही सगाई करके विवाह कर लाते हैं। शादी के अवसर पर वे मांस पकाते हैं। बाहर से किसी जानवर की लाश ले आते हैं; उसे धोकर पकाते हैं। सभी सखियाँ मिलकर खाने बैठती हैं तथा सभी उसकी प्रशंसा करती हैं। मैंने हिंदुओं की हिंदुआई देखी है और मुसलमानों की मुसलमानियत। दोनों ही एक जैसे हैं; दोनों की करनी और कथनी में अंतर है। कबीरदास कहते हैं कि है साधुओ! आप ही बताओ कि ये दोनों किस रास्ते पर चल रहे हैं अर्थात दोनों के रास्ते पूर्ण रूप से गलत हैं।

विशेष –

  1. कबीर ने हिंदुओं और मुसलमानों के जीवन में अनीति और क्रूता को प्रकट किया है तथा दोनों के भकित-मार्ग पर प्रश्न-चिह्न लगाया है।
  2. खंडनात्मकता का स्वर प्रधान है। बाह्याडंबरों के प्रति अविश्वास की भावना को प्रकट किया गया है।
  3. तद्भव शब्दावली का सटीक और भावानुकूल प्रयोग किया गया है।
  4. अनुप्रास अलंकार का सार्थक प्रयोग किया गया है।
  5. लाक्षणिक प्रयोग प्रभावपूर्ण है।
  6. प्रतीकात्मकता विद्यमान है।
  7. शांत रस प्राधान्य है।

2. बालम, आवो हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोकों लगत लाज रे।
दिल से नहीं लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नीद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।
कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे।
है कोई ऐसा पर-उपकारी, पिवसों कहै सुनाय रे।
अब्ब तो बेहाल कदीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे॥

शब्दार्थ :

  • बालम – पति।
  • आव – आओ।
  • गेह – घर।
  • देह – शरीर।
  • मोकों – मुझे।
  • सनेह – प्रेम।
  • अन्न – अनाज।
  • नीर – पानी।
  • पर – उपकारी – परोपकार करने वाले।
  • भये – हुए।
  • जिव – प्राण।

प्रसंग – प्रस्तुत पद महात्मा कबीर द्वारा रचित है जिसमें विरह-ज्वाला में जलनेवाली जीवात्मा पति रूपी परमात्मा को बुला रही है। वह हर अवस्था में उससे मिलना चाहती है।

व्याख्या – कबीर का कथन है कि जीवात्मा वियोगिनी के रूप में पीड़ा भरे स्वर में कहती है कि हे स्वामी ! तुम अपने घर आ जाओ। तुम्हारे बिना मेरा शरीर परेशान है। सभी मुझेे तुम्हारी पत्ली बतलाते हैं, पर मिलन के अभाव में मुझे इसमें संदेह है। मुझे तो अब शर्म भी आती है। जब पति-पत्नी में परस्पर प्रेम-भाव नहीं प्रकट हुआ तब तक उसे प्रेम किस प्रकार कहा जा सकता है ? जीवात्मा और परमात्मा में अभेद है। जीवात्मा कहती है कि मुझे अपने पति रूपी भगवान के अतिरिक्त और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।

भगवान के विरह में मुझे अन्न अच्छा नहीं लगता, नींद नहीं आती तथा घर या वन में रहते हुए धैय धारण नहीं होता। जिस प्रकार प्रेमिका को अपने प्रियतम से मिलकर शांति मिलती है तथा प्यासे को जल पीकर, उसी प्रकार मुझेे अपना प्रियतम तथा उसका मिलन प्रिय है। क्या कोई ऐसा परोपकारी है जो भगवान तक मेरी व्यथा को पहुँचा दे। कबीर कहते हैं कि पति परमेश्वर को देखे बिना मेरे प्राण अत्यंत व्याकुल हो रहे हैं। मुझे ऐसा लगता है जैसे उनके बिना मेरे प्राण निकल रहे हैं।

विशेष –

  1. कबीर ने जीवात्मा की विरह व्यथा का सजीव चित्रण किया है। पति रूपी परमात्मा ही उसके जीवन को सुख-शांति प्रदान कर सकता है। दोनों के मिलन को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए पति-पत्नी का रूपक बहुत सटीक है।
  2. अनुप्रास, प्रस्तुतालंकार, रूपक और उपमा अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया गया है।
  3. प्रतीक विधान और लक्षणा शब्द-शक्ति का पर्याप्त प्रयोग दिखाई देता है।
  4. भक्ति के वियोग पक्ष का निरूपण किया गया है।
  5. भाषा सरल, संगीतबद्ध तथा भावानुकूल है।
  6. भक्ति रस की प्रधानता है।
  7. गीति काव्य की विशेषताएँ विद्यमान हैं।

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Class 11 Hindi Antra Chapter 11 Summary – Khelan Me Ko Kako Gusaiya, Murali Tau Gupalhi Bhavati Vyakhya

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खेलन में को काको गुसैयाँ, मुरली तऊ गुपालहिं भावति Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 11 Summary

खेलन में को काको गुसैयाँ, मुरली तऊ गुपालहिं भावति – सूरदास – कवि परिचय

जीवन-परिचय – हिंदी में कृष्ण-काव्य की श्रेष्ठता का बहुत कुछ श्रेय महात्मा सूरदास को जाता है। वे साहित्याकाश में देदीप्यमान सूर्य की भाँति ही थे, जिन्होंने भक्ति, काव्य और संगीत की त्रिवेणी बहाकर भक्तों, संगीतकारों और साधारण जनों के मन को रस-सिक्त कर दिया था।

सूरदास का जन्म सन 1478 में फरीदाबाद के सीही नामक गाँव में हुआ था। कुछ विद्वान आगरा जिसके रुनकता या रेणुका क्षेत्र थे। उनका जन्म-स्थान मानते हैं। वेसूरदास नेत्रहीन थे, पर यह अब तक निश्चित नहीं हो पाया कि वे जन्मांध थे अथवा बाद में अंधे हुए। उनके काव्य में अति सूक्ष्म और वास्तविक चित्रण देखकर ऐसा नहीं लगता कि वे जन्मांध हों। वे संन्यासी वेष में मथुरा के बीच गऊषाट पर रहा करते थे। यहीं इनकी भेंट वल्लभाचार्य से हुई थी। उन्होंने इन्हें अपने संप्रदाय में दीक्षित कर इन्हें भागवत के आधार पर लीलापद रचने को कहा। गुरु-आज्ञा से ये श्रीनाथ के मंदर में कीर्तन और स्व-रचित पदों का गायन करने लगे। उनका देहांत पारसोली में सन 1583 में हुआ था।

रचनाएँ – सूरदास ने भागवत के आधार पर कृष्ण लीला संबंधी सवा लाख पदों की रचना की। अब उनके मात्र चार-पाँच हजार पद उपलब्य हैं। इनके तीन ग्रंथ प्रसिद्ध हैं-सूरसागर, सूरसारावली और साहित्य लहरी।

काव्यगत विशेषताएँ – सूरदास के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

(i) भक्ति-भावना – सूरदास पुष्टिमार्ग में दीक्षित थे। उन्हें ‘पुष्टिमार्ग का जहाज़़’ कहा जाता है। इसी को आधार बनाकर इन्होंने वात्सल्य, साख्य और माधुर्य भाव की पद रचना की है। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने से पहले इन्होंने निर्गुण भक्ति से संबंधित पदों की रचना की थी और विनय के पदों का सृजन किया था। वे कहते हैं –

प्रभु, हौं सब पतितन को टीकौं।
और पतित सब दिवस चारिकौ,
हौँ तो जनमत ही कौ।

(ii) वात्सल्य-चित्रण – सूर-काव्य में वात्सल्य वर्णन का स्वरूप अनूठा है। सूर से पहले किसी भी ब्रज के कवि ने बाल-वर्णन नहीं किया था। सूर ही पहले ऐसे कवि थे, जिन्होंने इस विषय में इतनी सजीवता के साथ कुछ कहा। कहा भी ऐसा कि किसी और के कहने के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं। इसीलिए कहा जाता है कि ‘सूर वात्सल्य है और वात्सल्य सूर।’ इन्होंने कृष्ण के बाल्यकाल की छोटी-से-छोटी चेष्टा और घटना का वर्णन बहुत सुंदर ढंग से किया है-

“मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो।
मोसों कहत मोल कौ लीन्हों, तोहे जसुमति कब जायो ?”

(iii) श्रृंगार के दोनों पक्ष – सूर काव्य में शृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का सुंदर परिपाक हुआ है। गोपियाँ श्रीकृष्ण की रूप माधुरी पर मुग्ध हैं। कृष्ण की बाँसुरी में तो मानो जादू है। उसकी आवाज़ सुनते ही गोपियाँ प्रेम के जादू में बँधी लोक-लाज त्यागकर भागी चली आती हैं। राधा-कृष्ण के प्रेम का कवि ने अति सूक्ष्म चित्रांकन किया है। कृष्ण के मथुरा चले जाने के पश्चात राधा तथा अन्य गोपियाँ विरह-ज्वाला में जलने लगीं। गोपियों को ‘पिया बिन साँपिन कारी रात’ प्रतीत होती है।

(iv) प्रकृति चित्रण-सूर का भक्ति-काव्य भावात्मक काव्य है। इसमें प्रकृति का चित्रण भावों की पृष्ठभूमि में हुआ है या उद्दीपन भाव के लिए अथवा अलंकारों के अप्रस्तुत विधान के रूप में। इन्होंने प्रकृति का स्वतंत्र रूप में चित्रण नहीं किया। जैसे –

‘बिन गुपाल बैरि भई कुंजै।
तब ये लता लगति अति सीतल,
अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।

(v) सामाजिक पक्ष – सूर का काव्य लीलावादी काव्य है, इसीलिए लोक-मंगल भावना या समाज का उससे कोई संबंध नहीं हैं, परंतु परोक्ष रूप में इन्होंने समाज की झलक अपने काव्य में प्रस्तुत की है। इन्होंने भ्रमर गीतों में अलखवादियों, निर्गुणियों, संतों आदि की अच्छी खबर ली है। कलियुग का प्रभाव वर्णित करते समय वर्णाश्रम, धर्म-पतन, सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक उत्सवों-पर्वों आदि का चित्र प्रस्तुत किया है।

(vi) रीति तत्व का समावेश – सूर ने शृंगारिकता का चित्रण करने के साथ-साथ रीति तत्व का निरूपण भी किया है। इनकी साहित्य लहरी में नायिका-भेद तथा अलंकारों का सुंदर वर्णन है।

(vii) काव्य रूप – सूर ने अपना सारा काव्य गेय मुक्तक रूप में लिखा। कृष्ण के जीवन को जिस ढंग से इन्होंने प्रस्तुत करने का प्रयास किया, उसके लिए मुक्तक विधा ही सबसे अधिक उपयुक्त थी।

(viii) शैली – सूर ने मुख्य रूप से गीति-शैली का व्यवहार किया है। इसमें भावात्मकता, संगीतात्मकता, संक्षिप्तता, वैयक्तिकता और कोमलता के गुण हैं। गोपियों के प्रेम के माध्यम से इन्होंने वैयक्तिकता को कलात्मक छंग से प्रस्तुत किया है।

(ix) छंद – भावात्मकता के कारण सूर-काव्य में गीत-पदों का प्रयोग किया गया है। चौपाई, चौबोला, सार, सारसी, दोहा, भक्ति, सवैया, कुंडलियाँ, गीतिका आदि छंदों का प्रयोग यत्र-तत्र किया गया है।

(x) भाषा – सूर की भाषा ब्रजभाषा के साहित्यिक रूप का सुंदर उदाहरण है। उन्होंने परिस्थितियों के अनुसार शब्दों को चुना। इनकी भाषा में संस्कृत, खड़ी बोली, पूर्वी हिंदी, बुंदेलखंडी, राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी, अरबी और फ़ारसी के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इनकी वाक्य-व्यवस्था गठी हुई है। मुहावर-लोकोक्तियों तथा अलंकारों के सफल प्रयोग से इनके काव्य के में सँदर्य में वृद्धिि हुई है।

Khelan Me Ko Kako Gusaiya, Murali Tau Gupalhi Bhavati Class 11 Hindi Summary

प्रथम पद का सार –

इसमें संकलित दोनों पद सूरदास द्वारा विरचित हैं। पहले पद में कवि ने कृष्ण की बाल-लीला का आकर्षक वर्णन किया है। नंदग्राम में कृष्ण श्रीदामा और अपने अन्य साथियों के साथ खेल रहे हैं। कृष्ण श्रीदामा से खेल में हार जाते हैं। बालहठ के कारण वे अपनी पराजय को स्वीकार नहीं करते कृष्ण के इस व्यवहार से रूष्ट होकर श्रीदामा कहते हैं कि खेल में कोई किसी का स्वामी नहीं होता। कृष्ण व्यर्थ में क्रोध कर रहे हैं। किसी भी तरह से वे श्रीदामा से बड़े नहीं हैं, न श्रीदामा कृष्ण की छाया में बसते हैं। श्रीदामा फिर कहते हैं कि जो बेईमानी से खेलता है वे उसके साथ नहीं खेलते। ऐसा कहकर सभी साथी इधर-उधर बैठ गए। कृष्ग के पास कुछ गाएँ अधिक हैं इसलिए वे रौब दिखा रहे हैं। सूरदास जी कहते हैं कि श्री कृष्ण खेलने के लिए तैयार हो जाते हैं।

द्वितीय पद का सार –

दूसरे पद में गोपियाँ सौत-भाव से कृष्ण की बाँसुरी की आलोचना करती हैं क्योंकि श्री कृष्ण जब बाँतुरी बजाने में मग्न हो जाते हैं तो वे गोपियों की सुध भी नहीं लेते। गेपियाँ अपनी सखियों के समक्ष कृष्ण की मुरली के प्रति जो रोष प्रकट करती हैं उससे कृष्ण के प्रति उनका प्रेम प्रकट होता है। वे इस बात को कदापि नहीं सह पातीं कि बाँसुरी के कारण उनकी अवहेलना हो। बाँसुरी कृष्ण का शरीर एक पैर पर खड़ा रखकर अपना अधिकार दिखाती हैं। श्री कृष्ण का शरीर कोमल है, बाँसुरी के भार से उनकी कमर देढ़ी हो जाती है।

वे त्रिभंगी मुद्रा धारण कर लेते हैं। वह स्वयं उनके कोमल होंठ रूपी शैय्या पर सवार होकर उनके कोमल हाथों से पैर दबवाती है। कृष्ण की कोमल भौहों, नेत्रों और नासिका-पुटों के माध्यम से गोपियाँ उनके क्रोध का पात्र बनती हैं। सूरदास जी कहते हैं कि बाँसुरी श्री कृष्ण को अपने अधीन कर पलभर के लिए भी प्रसन्न हो जाती है तो श्रीकृष्ण का सिर हिलने लगता है। श्री कृष्ण बाँसुरी की तान छेड़कर, अपनी गर्दन हिला-हिलाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने लगते हैं।

खेलन में को काको गुसैयाँ, मुरली तऊ गुपालहिं भावति सप्रसंग व्याख्या

1. खेलन में को काको गुसैयाँ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस हीं कत करत रिसैयाँ।
जाति-पाँति हमतैं बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ।
अति अधिकार जनावत यातै जातैं अधिक तुम्हारँ गैयाँ।
रूठहि करै तासौँ को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ ग्वैयाँ।
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाऊँ दियौ करि नंद-दुहैयाँ।

शब्दार्थ – गुसैयाँ – स्वामी। रिसैयाँ – क्रोध करना। यातें – इसलिए। दाउँ – बारी, दाँव, पारी।

प्रसंग – प्रस्तुत पद सूरदास द्वारा रचित सूरदास के पदों से लिया गया है। इस पद में कवि ने बाल कृष्ण की लीला का आकर्षक वर्णन किया है। इस पद में कवि खेल-खेल में बालकों के रूठने और अपने-आप मान जाने का अत्यंत स्वाभाविक तथा मनोवैज्ञानिक चित्रण प्रस्तुत करता है।

व्याख्या – कवि कहता है कि एक बार खेल में श्रीकृष्ण हार जाते हैं, परंतु बाल हठ में अपनी पराजय स्वीकार नहीं करते, तब श्रीदामा कहते हैं कि खेल में कौन किसका स्वामी होता है ? भगवान कृष्ण हार गए और श्रीदामा जीत गए, इसपर श्रीकृष्ण हार नहीं मानते और क्रोध करते हैं। श्रीदामा भी रुष्ट होकर कहते हैं कि बलपूर्वक क्रोध क्यों करते हो। जाति-पाँति में भी तो हमसे बड़े नहीं हो, न तो हम तुम्हारी छाया में ही रहते हैं। क्या तुम्होरे पास कुछ अधिक गायें हैं इसीलिए अधिक अधिकार दिखा रहे हो ? जो खेल में रूठता है उसके साथ कौन खेले ? ऐसा कहकर सभी साथी जहाँ-तहाँ बैठ गए। सूरदास कहते हैं कि भगवान खेलना चाहते थे, इसलिए नंद की दुहाई देकर अपनी पारी लेते हैं।

विशेष –

  1. सूरदास ने मनोवैज्ञानिक दृष्ट्टि का सहारा लेकर समवय आयु साथियों के खेल और झगड़े का वर्णन किया है। वे आपस में खेलते हैं; झगड़ते हैं; मानते हैं और मनाते हैं।
  2. पद में ब्रजभाषा का प्रयोग है जिसमें भावानुकूल सहज शब्दावली का प्रयोग आकर्षक है। कहीं भी शब्द-जाल का सहारा नहीं लिया गया है।
  3. अनुप्रास, स्वरमैत्री, पुनरुक्ति प्रकाश और पदमैत्री अलंकारों का सहज-स्वाभाविक प्रयोग है।
  4. माधुर्य गुण तथा अभिधा शब्द-शक्ति हैं।
  5. संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।

2. मुरली तऊ गुपालहिं भावति।
सुनि री सखी जदपि नंदलालहिं, नाना भाँति नचावती।
राखति एक पाई ठाढ़ौ करि, अति अधिकार जनावति।
कोमल तन आज्ञा करवावति, कटि टेक़ौ हूवै आवति।
अति आधीन सुजान कनौड़े, गिरिधर नार नवावति।
आपुन पाँढ़ि अधर सज्जा पर, कर पल्लव पलुटावति।
भुकुटी कुटिल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप-करावति।
सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन, धर तें सीस डुलावति॥

शब्दार्थ – मुरली – बाँसुरी। भावति – अच्छी लगती है। जदपि – यद्यपि। नाना भाँति – अनेक प्रकार। पाह – पाँव। कटि -कमर। नार – गर्दन। नवावति – झुकवाती। आपुन – स्वयं। अधर सज्जा – होंठ रूपी शैय्य।। पल्लव – पत्ते। कोप – गुस्सा।

प्रसंग – प्रस्तुत पद सूरदास के द्वारा रचित ‘सूरसागर’ से अवतरित किया गया है, जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित किया गया है। श्रीकृष्ण जब बाँसुरी बजाने में मग्न हो जाते हैं तो गोपियों की सुध भी नहीं लेते। इस बात को वे कदापि सहन नहीं कर पातीं कि बाँसुरी के कारण उनकी अवहेलना हो। उन्हें लगता है कि बाँसुरी उनकी सौत है जो प्रिय को उनके पास आने ही नहीं देती। प्रस्तुत पद में वे सौत-भावना से बाँसुरी की आलोचना करती हैं।

व्याख्या – एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखि ! यह मुरली तो श्रीकृष्ण से अत्यंत अपमानजनक व्यवहार करती है, फिर भी वह उन्हें अच्छी लगती है। सुनो री, यह नंदलाल को अनेक भौँति से नचाती है। उन्हें एक ही पाँव पर खड़ा करके रखती है और अपना बहुत अधिक अधिकार जताती है। कृष्ण का शरीर कोमल है ही, वह उनसे अपनी आज्ञा का पालन करवाती है और इसी कारण से उनकी कमर टेढ़ी हो जाती है अर्थात् वे त्रिभंगी की मुद्रा धारण कर लेते हैं। गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले परम शक्तिवान कृष्ण मुरली के सामने झुक रहे हैं और लगता है कि वे उसके अधीन और अहसानमंद हैं।

वह स्वयं तो होंठ रूपी कोमल शय्या पर लेटकर उसके पत्ते जैसे कोमल हाथों से पैर दबवाती है अर्थात् बाँसुरी के छेदों पर उँगलियाँ चलती रहती हैं और हमें उनकी कुटिल भौँहों, नेत्रों तथा फूले हुए नासा-पुटों के माध्यम से उनके क्रोध का पात्र बनाती है। सूरदास जी कहते हैं कि बाँसुरी श्रीकृष्ण को अपने अधीन कर पल-भर की प्रसन्नता प्रदान कर इनसे शरीर पर अपनी गर्दन हिलाने हेतु विवश करवा देती है अर्थात श्रीकृष्ण बँँसुरी की तान छेड़कर धीरे-धीरे गर्दन हिलाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं।

विशेष :

  1. गोपी शब्दों के द्वारा तो कृष्ण की निंदा कर रही है, पर इससे उसके हददय में कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम ही व्यंजित हो रहा है।
  2. रूपक के द्वारा वंशी को साक्षात् सौत सिद्ध किया गया है। सौत के सुख को देखकर स्त्री जलती है और पति को नारी-भक्त जानकर उससे घृणा करती है।
  3. अनुप्रास और रूपक अलंकारों का प्रयोग है।
  4. भाषा सरस और गीति काव्य के समस्त तत्वों से युक्त है।
  5. उचित वैचित्य तथा लोक प्रचलित मुहावरों का अनुपम संयोग अति मनोरम हैं।
  6. ‘राग मल्हार’ पर आधारित पद में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।
  7. माधुर्य गुण का प्रयोग किया गया है।
  8. ब्रजभाषा के प्रयोग में तद्भव शब्दावली की अधिकता है।
  9. लक्षणा शब्द-शक्ति का प्रयोग प्रशंसनीय है।

Hindi Antra Class 11 Summary

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Class 11 Hindi Antra Chapter 12 Summary – Hansi Ki Chot, Sapna, Darbar Vyakhya

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हँसी की चोट, सपना, दरबार Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 12 Summary

हँसी की चोट, सपना, दरबार – देव – कवि परिचय

जीवन-परिचय – शृंगार को रसराज माननेवाले महाकवि देव का पूरा नाम देवदत्त था। इनका जन्म सन् 1673 और मृत्यु सन् 1767 में मानी जाती है। इनकी जन्मभूमि इटावा थी। ये देवसरिया ब्राह्मण थे। इन्हें अपने जीवन काल में अनेक आश्रयदाताओं के पास आश्रय के लिए भटकना पड़ा था। औरंगजेब के पुत्र आलमशाह के दरबार में भी ये कुछ समय के लिए रहे थे पर जितना संतोष इन्हें भोगीलाल नामक आश्रयदाता से हुआ, उतना किसी और से नहीं मिल सका।

रचनाएँ – देव के द्वारा रचित ग्रंथों की निश्चित संख्या अभी तक ज्ञात नहीं हो पाई है। इनकी रचनाएँ 76 तक मानी गई हैं। आचार्य शुक्ल का मत है कि ये संख्या 25 है। डॉ॰ नगेंद्र ने सोलह उपलब्ध ग्रंथों के नाम गिनवाए हैं। वे हैं-भाव विलास, अष्टयाम, भवानी विलास, प्रेम-तरंग, कुशल विलास, जाति-विलास, रस-विलास, सुजान-विनोद, शब्द रसायन, सुख-सागर-तरंग, प्रेम चंद्रिका, राग रत्नाकर, देवशतक, देव चरित्र, देव माया प्रपंच तथा शिवाष्टक।

काव्यगत विशेषताएँ – देव के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

(i) आचार्यत्व – देव की कविता का प्रमुख वर्ण्य-विषय शृंगार ही था लेकिन उन्होंने आचार्य कर्म भी अति श्रेष्ठता से निभाया है। जैसा नायिका-भेद इन्होंने किया है, वैसा किसी और कवि ने नहीं किया। काव्यशास्त्र के क्षेत्र में इन्होंने परंपरागत मान्यताओं का समर्थन किया है और साथ-ही-साथ मौलिक उद्भावनाओं को प्रस्तुत किया है।

(ii) श्शृंगारिकता – देव की रचनाओं में विषय-विविधता बहुत व्यापक है। ये किसी भी विषय को उठाकर बड़ी कुशलता से उसे आगे बढ़ाते हैं। प्रायः राधा-कृष्ण के माध्यम से इन्होंने अपनी श्रृंगारिक भावनाओं को प्रकट किया है। इनकी प्रबृत्ति भी अन्य रीतिकालीन कवियों के समान संयोग ब शृंगार में अधिक रमी है। नायक-नायिका का रूप-माधुर्य, मिलन और हाव-भाव का चित्रण बहुत मनोहारी है। कवि ने वियोग-भृंगार के भी अत्यंत कारुणिक चित्र प्रस्तुत किए हैं। जैसे –

साँसन ही सौं समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयौँ गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तनु की तनुता करि॥
जीव जियै मिलिबेई की आस कि, आस हू पास अकास रह्यौ भरि।
जा दिन ते मुख फेरि हरै हँसि, हेरि हियौ जु लियो हरि जू हरि॥

(iii) वैराग्य और भक्ति-भावना – देव एक शृंगारिक आचार्य कवि थे लेकिन भारतीय संस्कारों में बँधकर वह कभी नास्तिक भी नहीं रहे। उन्होंने स्थान-स्थान पर अपनी वैराग्य-भावना और आस्तिकता को प्रकट किया है। देव वैष्गव थे। वह राम को अत्यंत पराक्रमी, यशस्वी और कल्याणकारी मानते थे। उन्होंने रति और शृंगार की प्रतिमूर्ति राधा-कृष्ण को शुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप माना है –

राधा कृष्ण किसोर जुग, पद बंदौ जग बंद।
मूरति रति सिंगार की, सुद्ध सच्चिदानंद।

(iv) प्रकृति-चित्रण – देव शृंगारिक कवि हैं इसलिए उनके काव्य में प्रकृति साध्य न बनकर साधन बनी। उन्होंने प्रकृति वर्णन में ऋतु वर्णन की परंपरा का पालन किया। उनकी प्रकृति संबंधी मौलिक दृष्टि की वहाँ सराहना करनी पड़ती है जहाँ उन्होंने वसंत के समय कलियों का सुंदर वर्णन किया है। वर्षा ऋतु के संबंध में भी इनका भाव अति सुंदर है –

‘झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानौ
घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।’

(v) दार्शनिकता – देव के काव्य में दार्शनिकता के दर्शन बार-बार होते हैं। ‘वैराग्यशतक’ और ‘देवमाया प्रपंच’ में उन्होंने अपने दार्शनिक विचारों को प्रकट किया है। वे ब्रहम को एक, अद्वैत और सर्वव्यापक मानते हैं, उसका कोई रूप-रंग नहीं है। वह जीव और ब्रह्म की अद्वैतता स्वीकार करते हैं-
नित्य सच्चिदानंद रह्यो जो गुणातीत।

झूठे सुख को लोभु करि, क्यों न बंधे विपरीत।

(vi) भाषा-शैली – देव ने अपने काव्य को सफल अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए शब्द शक्तियों का अच्छा प्रयोग किया। उनके अभिधा के प्रयोग में कुछ नीरसता दिखाई देती है लेकिन नायिकाओं के सौंदर्य-वर्णन में प्रायः लक्षणा को आधार बनाया गया है। इन्होंने माधुर्य और प्रसाद गुण का अच्छा प्रयोग किया है। इन्हें अनुप्रास अलंकार के प्रति विशेष मोह है। छंद-योजना में लय और तुक का विशेष ध्यान रखा गया है। ब्रजभाषा की कोमल-कांत शब्दावली का इन्होंने सार्थक और सुंदर प्रयोग किया है। इनके काव्य में तत्सम शब्दावली का अधिक प्रयोग किया गया है। सरल और संयुक्त वाक्यों का प्रयोग तो इनमें दिखाई देता है, लेकिन मिश्र वाक्यों का प्रयोग प्रायः इन्होंने नहीं किया है। देव वास्तव में ही श्रेष्ठ भाषा-शिल्पी हैं।

Hansi Ki Chot, Sapna, Darbar Class 11 Hindi Summary

प्रस्तुत अवतरण में महाकवि देव ने नायिका की विरह अवस्था का मार्मिक वर्णन किया हैं। विरह की दसरीं अवस्था ‘मूच्छा’ को माना है। अपने प्रियतम के विरह में उसके न मिलने पर नायिका मूर्च्छित होने की स्थिति में पहुँच जाती है। एक दिन नायक (श्री कृष्ण) ने नायिका (गोपी) को हँसकर देख लिया तभी से नायिका अपना दिल दे बैठी है। नायिका को उसके बाद नायक दिखाई नहीं दिया। तब से वह विरह भी अग्नि में जल रही है। उसके शरीर के पाँच तत्वों में आँसू से जल निकल गया, साँस रूपी वायु निकल गई शरीर का तेज भी खत्म हो गया है। वह बहुत कमज़ोर हो गई है। बस नायक से मिलने की आशा में केवल शरीर बचा है। वह भी इसी आशा में बचा है कि कभी तो नायक उसे दर्शन देगा। कवि ने प्रिय की हैसी से प्रभावित औरघायल नायिका का मार्मिक वर्णन किया है।

द्वितीय पद का सार –

प्रस्तुत अवतरण में महाकवि देव ने उस गोपी का वर्णन किया है जिसने सपने में श्री कृष्ण के साथ झूला झूला है। गोपी कहती है कि नींद में उसने सपना देखा कि बूँदों की झड़ी लगी हुई थी। आकाश मेंबने बादल उमड-घुमड़ रहे थे। ऐसे में श्री कृष्ण उसके पास आए कि आज मेरे साथ झूला झुलने चलो। यह सुनकर नायिका की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। जैसे ही वह झूला झूलने जाने लगी तभी उसकी निर्दयी नींद खुल जाती है और उसका स्वप्न टूट जाता है। आँख खुली तो न वहाँ कृष्ण थे, न वर्षा। पीड़ा के कारण उनकी आँखों से आँसू निकलने लगे। भृंगार रस का अनुपम वर्णन इस छंद में किया गया है।

तृतीय पद का सार –

देव दरखारी कवि थे। प्रस्तुत अवतरण में महाकवि देव ने किसी राजा के दरबार की अव्यवस्था का वर्णन किया है। दरबार की निष्क्रिय एवं पतनशील सामंती व्यवस्था की कवि ने कटु आलोचना की है। कवि ने मूख् राजा की सभा के विषय में कहा है कि सभा के सदस्य बहरे हैं; कोई कुछ भी कहे वह अचे-युरे में भेद व्यक्त नहीं करते। ओछी और और बाज़ारू बातें उन्हें पसंद आती हैं। कोई भी किसी के द्वारा किए श्रेष्ठ कार्यों की महत्ता को नहीं समझता। वे वही समझते और करते हैं जो उन्हें रुचिकर लगता है। अपनी कला और प्रतिभा को छोड़ वे सारी रात राजा की पसंद के कारण नाचते रहते थे।

हँसी की चोट, सपना, दरबार सप्रसंग व्याख्या

1. हँसी की चोट
साँसनि ही साँ समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तनु की तनुता करि॥
‘देव’ जियै मिलिबेही की आस कि, आसहू पास अकास रह्यौ भरि।
जा दिन तै मुख फेरि है हँसि, हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि॥

शब्दार्थ साँसन – साँसें। समीर – हवा। नीर – पानी। तनु – शरीर। मिलिबेही – मिलने की।

प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महाकवि देव द्वारा रचित काव्य ग्रंध ‘सुखसागर तरंग’ से अवतरित है । इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित किया गया है। इसमें कवि ने नायिका की विरह अवस्था का मार्मिक वर्णन किया है। विरह की दसवीं अवस्था मूच्छा है जिसमें विरही अपने प्रिय को प्राप्त न कर सकने में मूर्चित होने की स्थिति में पहुँच जाती है। इस अवतरण में कोई गोपी मूच्छा की स्थिति में पहुँच चुकी है।

व्याख्या – कवि कहता है कि गोपी अपने श्रीकृष्ण के विरह में मूर्च्छित होने वाली है। उस की साँसों से हवा का आना-जाना बंद हो गया है; आँखों से अब आँसुओं का बहना समाप्त हो गया है। मानो उसकी आँखों से सारे आँसू बह चुके हैं तथा बहने के लिए शेष बचे ही नहीं हैं। उसके शरीर का तेज समाप्त हो गया है तथा विरहाग्नि के कारण शरीर अति कमज़ोर हो गया है। उसके शरीर में विद्यमान पाँचों तत्व—जल, वायु, तेज तथा आकाश धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। नायिका को अभी भी अपने प्रिय से मिलने की आशा है और वही आशा उसके जीवन रूपी आकाश को स्थिर बनाए हुए है अर्थात वह अभी मरी नहीं है। जिस दिन से श्रीकृष्ण ने नायिका की ओर हैसकर देखा था उस दिन से ही नायिका के मुख की हँसी समाप्त हो गई अर्थात तब से ही वह विरह की अग्नि में निरंतर जल रही है। उस दिन ही नायिका का हृदय श्रीकृष्ण ने सदा के लिए प्राप्त कर लिया था।

विशेष  :

  1. कवि ने नायिका की विरहावस्था को अति मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इसमें विरहावस्था की दशम अवस्था का उल्लेख है।
  2. वियोग भृंगार का प्राधान्य है।
  3. सवैया छंद है।
  4. ब्रजभाषा की कोमलकांत शब्दावली का प्रयोग है।
  5. यमक, अनुप्रास और स्वरमैत्री अलंकारों का सहज प्रयोग है।
  6. लक्षणिक और प्रतीकात्मक प्रयोग ने कवि के कथन को गहन बनाया है।

2. सपना
झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो,
घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो साँ ‘चलौ झूलिबे को आज’
फूली न समानी भई ऐसी हाँ मगन मै॥।
चाहत उट्योई उठि गई सो निगोड़ी नींद,
सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।
आँख खोलि देखीं तौ न घन हैं, न घनश्याम,
वेई छाई बूँदें मेंरे आँसु हृ दृगन में॥

शब्दार्थ घटा – बादल। झहरी – बरसाती बूँदों की झड़ी लगाना। गगन – आकाश। स्याम – कृष्ण। आनि – आकर। मो सौँ – मुझ से । झूलिबे झूलने के लिए। फूली न समानी – अति प्रसन्न होना। निगोड़ी – निर्दयी। भाग – किस्मत। दूगन – आँखें।

प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित कविता ‘सपना’ से लिया गया है। इसके रचयिता रीतिकालीन कवि देव हैं। कोई गोपी श्रीकृष्ण के वियोग में डूबी हुई थी। उसे नींद आ गई। सपने में उसे ऐसे लगा जैसे श्रीकृष्ण उसे एक साथ झूला झूलने के लिए कह रहे हों। गोपी की नींद खुल गई।

व्याख्या – गोपी कहती है कि मुझे ऐसे लगा मानो बरसाती बूँदों की झड़ी लगी हुई थी। छोटी-छोटी बूँदें टपक रही थी। आकाश में घने काले बादल उमड़-घुमड़ रहे थे। उन्होंने चारों दिशाओं को घेर लिया था। श्रीकृष्ण ने मुझे आकर कहा, “आओ, आज झूला झूलने चलें।” यह सुनकर में तो प्रसन्नता से भर उठी। मैं तो प्रसन्नता भरे भावों में मगन हो गई। मैने श्रीकृष्ण के साथ जाने के लिए आना चाहा और मेरी निर्दयी नींद खुल गई। मेरे इस जागने से ही मेरे भाग्य सो गए। मैने आँखें खोलकर देखा तो न बादल थे और न ही श्रीकृष्ण। मेरी आँखों में आँसुओं के रूप में बूँदे भरी हुई थीं अर्थात वर्षा की बूँदें तो बादलों से नहीं गिर रही थीं, पर पीड़ा के कारण मेरी आँखों में आँसू भरे थे।

विशेष :

  1. कवि ने श्रीकृष्ण के वियोग में गोपी के हृदय की पीड़ा को प्रकट किया है।
  2. वियोग शृंगार रस प्राधान्य है।
  3. पुनसक्ति प्रकाश, अनुप्रास, उत्रेक्षा, लोकोक्ति और मानवीकरण अलंकारों का सहज प्रयोग किया गया है।
  4. ब्रजभाषा का प्रयोग है जिसमें तद्भव शब्दावली का अधिक प्रयोग है।
  5. कवित्त छंद का प्रयोग हुआ है।
  6. अभिधा शब्द-शक्ति ने भावों को सरलता और सरसता प्रदान की है।
  7. गेयता का गुण विद्यमान है।

3. दरबार
साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।
भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूढ़िबे को काहू कर्म न बाच्यो॥
भेष न सूझयो, कह्यो समझयो न बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।
‘देव’ तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो॥

शब्दार्थ – साहिब – स्वामी, राजा। मुसाहिब – राजा के दरबारी। मूक – मौन, चुप। बहिरी – बहरी। बूढ़िबे – डूबने के लिए। औघट – कठिन, दुर्गम मार्ग। रुचि – पसंद। सगरी – सारी। निसि – रात। निबरे नट – अपनी कला या प्रतिभा से भटका।

प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित पाठ से लिया गया है जिसके रचयिता रीतिकालीन कवि देव हैं। देव दरबारी कवि थे। उन्होंने किसी राजा के दरबार की अव्यवस्था का वर्णन किया है। पतनशील और निष्क्रिय सामंती व्यवस्था के प्रति कवि ने अपनी प्रतिक्रिया प्रकट की है।

व्याख्या – कवि कहता है कि बुद्धि और विवेक से रहित राजा अक्ल का अंधा है और उसके दखबारी अच्छा-बुरा सब देखकर भी विवशतावश चुप रहते हैं। वे किसी प्रकार की प्रतिक्रिया प्रकट नहीं करते। उसकी सभा बहरी है; कोई कुछ भी कहे वह अच्छे-बुरे में भेद व्यक्त नहीं करती। व्यर्थ में तुच्छ और हेय बातों पर रीझने का प्रचलन हो गया है अर्थात ओछी और बाजारूू बातें उन्हें पसंद आती हैं।

गहरी, कठिन और दुर्गम मार्ग को सुलझाने की राह न ढूँढ़कर सब व्यर्थ भटकते हैं और कोई भी किसी के द्वारा किए गए श्रेष्ठ कार्यों की महत्ता को नहीं समझता। अपनापराया, असली-नकली भेष किसी को नहीं सूझता; यदि उन्हें कुछ कहकर समझाया जाए तो वे समझते नहीं; बताने पर सुनते नहीं। वे तो वही समझते और करते हैं जो उन्हें रचचिकर लगता है। देव कवि कहते हैं कि अपनी कला और प्रतिभा से भटके हुए कलाकार दुरुद्धुधिपूर्वक सारी रात नाचते हैं; समय और शक्ति व्यर्थ गँवाते हैं और मूर्ख राजा के साथ मिल अपने विवेक का प्रयोग नहीं करते।

विशेष :

  1. कवि ने मूर्ख राजा की सभा का सजीव चित्रण करते हुए अपने युग का चित्र खींचा है। मूर्ख राजा के सामने बुद्धििमता यही है कि चुप रहो।
  2. ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है जिसमें तद्भव शब्दावली की अधिकता है।
  3. स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सुष्टि की है।
  4. अनुप्रास का सहज-स्वाभाविक प्रयोग किया गया है।
  5. सवैया छंद का प्रयोग किया गया है।

Hindi Antra Class 11 Summary

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Class 11 Hindi Antra Chapter 13 Summary – Aur Bhanti Kunjan Me Gujarat, Gokul Ke Kul Ke Gali Ke Gop, Bhoran Ko Gunjan Bihar Vyakhya

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औरै भाँति कुंजन में गुंजरत, गोकुल के कुल के गली के गोप, भाैंरन को गुंजन बिहार Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 13 Summary

औरै भाँति कुंजन में गुंजरत, गोकुल के कुल के गली के गोप, भाैंरन को गुंजन बिहार – पद्माकर – कवि परिचय

जीवन-परिचय – पद्माकर रीतिकाल के सुप्रसिद्ध कवि माने जाते हैं। इनका जन्म सन 1753 में उत्तर प्रदेश के बाँदा में हुआ था। इनके पिता का नाम मोहन लाल भट्ट था। ये जाति के तेलंग ब्राहमण थे। इनका पारिवारिक वातावरण कवित्वमय था। इनके पिता तथा अन्य वंशज कवि थे। इनके वंश का नाम ही ‘कवीश्वर’ पड़ गया था। पद्माकर अनेक राजाओं के आंश्रित रहे। बूँदी नरेश की ओर से इन्हें विशेष सम्मान प्राप्त हुआ था। पन्ना के महाराज ने भी इन्हें अनेक गाँव दान में दिए थे। जयपुर नरेश ने इन्हें ‘कविराज शिरोमणि’ की उपाधि से अलंकृत किया था। इनका निधन सन 1833 में हुआ।

रचनाएँ – पद्माकर के नाम से अनेक रचनाओं का उल्लेख प्राप्त होता है किंतु इनकी प्रमुख रचनाएँ ‘ हिम्मत बहादुर विरुदावली’, प्रताप सिंह विरुदावली, पद्माभरण, प्रबोध पचासा, जगद्विनोद, रामरसायन, गंगा लहरी हैं।
काव्यगत विशेषताएँ-पद्माकर के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(i) श्थृंगारिकता – रीतिकालीन आचार्य कवि होने के कारण शृंगारिकता इनके काव्य की प्रमुख विशेषता है। यह उस युग की माँग का परिणाम है। ‘जगद्विनोद’ इनका शृृंगारिकता से संबंधित ग्रंथ है जिसमें श्रृंगार के संयोग एवं वियोग पक्षों का वर्णन किया गया है। इन्होंने संयोग भृंगार का वर्णन बहुत ही सजीव और सरल भाव से किया है। इन्होंने चित्रात्मक शैली में वर्णन इस प्रकार से किया है कि आँखें बंद कर लेने पर भी कविता के माध्यम से सारा वातावरण और दृश्य आँखों के सामने नाच जाता है। इनके शृंगार का धरातल मानवीय है। प्रेम-क्रीड़ाओं को प्रकट करने में इन्हें विशेष सफलता मिली है। इनके द्वारा रचित वियोग श्रृंगार में प्रकृति का उद्दीपन रूप अधिक दिखाई देता है। प्रकृति के परिवर्तन से नायक-नायिका की पीड़ा बढ़ने के दृश्य इन्होंने सुंदर ढंग से प्रकट किए हैं। इन्होंने जहाँ परंपरा का मोह छोड़ स्वच्छंद भाव से प्रेम के क्षेत्र में विचरण किया है वहाँ इनकी कविता में निखार आ गया है। इन्होंने कविता के विषय जीवन से चुने हैं।

(ii) भक्ति – पद्माकर केवल भृृतारिक कवि नहीं थे बल्कि उनका हूदय किसी भी भारतीय के समान भक्ति-भाव से भरा हुआ था। इन्हें राम-भक्ति में पूर्ण विश्वास था। इन्हें कृष्ण के प्रति भी आस्था थी लेकिन जहाँ ये राम का गुणगान करते हैं वहाँ ये रीतिकाल के नहीं बल्कि भक्तिकाल के भक्त प्रतीत होते हैं। इनकी भक्ति निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार की दिखाई देती है। इन्हें गंगा के प्रति अपार श्रद्धा थी। इन्होंने गंगा के मनोहर दृश्यों का वर्णन तो प्रशस्ति के रूप में किया है। पतित पावनी गंगा के प्रति इनका असीम विश्वास सर्वत्र झलकता है। इनमें भक्ति की लोक सामान्य भावना दिखाई देती है जिसके कारण राम, विष्णु तथा कृष्ण एक ही माने गए हैं।

(iii) वीरता – पद्माकर वीर रस के कवि थे। इन्होंने अपने जीवन में जो पहली कविता रची थी वह दो सेनाओं के बीच हुए युद्ध का वर्णन था जो इन्हॉने छिपकर अपनी आँखों से देखा था। इन्होंने वीरता को अपनाया था और लोक-नायक की प्रशंसा में बड़ी मात्रा में काव्य रचा था। ये हिंदी के पहले ऐसे कवि थे जिन्होंने अंग्रेजों तथा अंग्रेज़ी सेना का डटकर मजाक बनाया था और उन्हें लाल मुँहवाला बंदर कहा था। इनके द्वारा की गई वीरता संबंधी कविता में कहीं-कहीं इतिहास विर्द्ध वर्णन भी आ गए हैं।

(iv) प्रकृति-चित्रण-पद्माकर ने ऋतुओं का वर्णन बहुत सुंदर ढंग से किया है. पर इन्होंने ऋ्रतुओं की महत्ता की ओर ध्यान न देकर उनकी उद्दीपन-सामग्री की ओर ध्यान दिया है। इन्होंने वसंत ॠतु का वर्णन सबसे अधिक और सुंदर बंग से किया है-

फूलन में, केलि में, कछारन में, कुंजन में,
क्यारिन में कलिन-कलीन किलकंत है।
कहै पद्माकर परागन में पौनहू में
पानन में, पिक में, पलासन पगंत है।

नायिका के सुख-दुख प्रकट करने के लिए इनकी दृष्टि प्रकृति के आस-पास मँडराती दिखाई देती है। नायिका के वियोग में इन्हें सरदियों का चाँद कसाई का कार्य करता दिखाई देता है और पपीहे की ‘पी-पी’ प्राणलेवा लगती है। इनके प्रकृति-चित्रण में चमत्कार वैभव की अधिकता है। कहीं-कहीं ये शब्द-चमत्कार में अधिक उलझ गए हैं।

(v) भाषा-साँदर्य – पद्माकर ने अपना सारा काव्य ब्रजभाषा में रचा, जिसमें अलंकारों की अधिकता है। इनकी भाषा अलंकारिक है। अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, उत्र्रेक्षा आदि इनके प्रिय अलंकार हैं। वर्ण मैत्री के द्वारा इन्होंने चमत्कार कर सृष्टि की है। इन्हें भाषा पर पूरा अधिकार था। कहीं-कहीं इन्होंने फ़ारसी शब्दावली का प्रयोग भी किया है। लाक्षणिक भाषा का प्रयोग करने में ये अति निपुण थे। इन्होंने मुहावरे और लोकोक्तियों का सुंदर और सहज प्रयोग किया है। निश्चित रूप से पद्माकर अपने युग के महान कवियों में से एक थे।

Aur Bhanti Kunjan Me Gujarat, Gokul Ke Kul Ke Gali Ke Gop, Bhoran Ko Gunjan Bihar Class 11 Hindi Summary

1. पहले कवित्त में कवि ने वसंत के आगमन से प्रकृति, विहग और मनुष्य के जीवन में होनेवाले परिवर्तनों का वर्णन किया है। वसंत ऋतुओं का राजा है। ऋतुओं के परिवर्तन के साथ प्रकृति का स्वरूप भी बदलता रहता है। वसंत ऋतु से पूर्व शिशिर ऋतु में प्रकृति सौंदर्दाहीन हो गई थी। वसंत के आगमन से वृक्षों पर नए-नए कोंपल तथा पुष्प विकसित हो गए हैं। पक्षीगण भी अनोखा कलरव कर रहे हैं। बसंत के आगमन से इस प्रकार के अनेकों परिवर्तन हुए हैं। स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, वृक्ष आदि सभी पर इसका प्रभाव परिलक्षित होता है। इस परिवर्तन से रस, रीति, राग, रंग, तन, मन तथा वन सभी और ही तरह के हो गए हैं।

2. दूसरे कवित्त में कवि ने होली के अवसर पर गोपिका की मनोभावनाओं का वर्णन किया है। गोपियाँ लोक-निंदा और सखी-समाज की परवाह किए बिना कृष्ण के प्रेम में डूबे रहना चाहती हैं। गोकुल की गलियों और गाँबों मे जहाँ तक भी लोग हैं वे सब होली के अवसर पर कुछ-न-कुछ अविवेकपूर्ण बाते करते हैं। पद्माकर जी ग्वालिन के अनुराग को व्यक्त करते हैं। जब चतुर सखियाँ लोक-लाज से डरकर कृष्ण के रंग को निचोड़ने के लिए तैयार हैं, उस समय भी यह ग्वालिन कृष्ण-रंग मुक्त नहीं होना चाहती।

3. तीसरे और अंतिम कवित्त में कवि ने वर्षा ऋतु में भाँरों के गुंजार, मोरों के शोर और सावन के झूलों का स्वाभविक वर्णन किया है। इस ऋतु में गुंजनकरते भैवरों के सारे वनों और बाग-बगीचों में उड़ने का मनोरम दृश्य अभिमान, मान और प्राणों से भी प्यारा और मनभावन लगता है। इस ऋतु में नायक नायिका के मन में अपने प्रिय जनों के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। बादलों के आगमन के साथ चारों दिशाओं में मोरों की आवाज़ें बढ़ गई हैं। श्रवण मास में वर्षा के बीच झूला झूलना और परस्पर प्रेम भाव को प्रकट करना अति सुहावना लगता हैं।

औरै भाँति कुंजन में गुंजरत, गोकुल के कुल के गली के गोप, भाैंरन को गुंजन बिहार सप्रसंग व्याख्या

1. औरै भाँति कुंजन में गुंजरत भीर भौर,
औरे डौर झौरन पैं बौरन के हूवै गए।
कहै पद्माकर सु औरै भाँति गलियानि,
छलिया छबीले छैल औरै छबि छ्वै गए।
औँर भाँति बिहग-समाज में आवाज़ होति,
ऐसे रितुराज के न आज दिन द्वै गए।
औरै रस औरै रीति औरै राग औरै रंग,
औरै तन औरै मन औरै बन ह्वै गए॥

शब्दार्थ – औरै – और ही तरह। भीर – भीड़। भौर – भंवर। डौर – डौल आकार। बौरन – गुच्छों। छबीले – सुंदर । छवै गए – छा गए। विहंग – पक्षी।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यावतरण सुप्रसिद्ध कवि पद्माकर विरचित ‘जगद्विनोद’ से उद्धृत है जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित किया गया है। कविवर पद्माकर प्रस्तुत पद्य में बसंत ऋतु का शब्द-चित्र प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं।

व्याख्या – वृक्षों के झुंडों में भँवरों की भीड़ की गुंजार अब पहले से बिलकुल भिन्न प्रकार की है अर्थात उसमें अब अधिक मस्ती है, आम के वृक्षों पर बौरों के गुच्छों का आकार भी अब पहले जैसा नहीं रहा अर्थात वे गुच्छे अधिक सुगंधित और बड़े हो गए हैं। पद्माकर कवि कहते हैं कि अब तो गलियाँ भी और ही तरह की हो गई हैं तथा उन गलियों में घूमनेवाले सुंदर छलिया नायक भी पहले जैसे नहीं रहे, बल्कि थोड़े भिन्न हो गए हैं। पक्षियों के समूह भी इस वसंत में अनोखी आवाज़ें निकाल रहे हैं। इस परिवर्तन का कारण बताते हुए कविवर पद्माकर कहते हैं कि अभी तो बसंत को आए दो दिन भी नहीं हुए, दो दिन में ही यह परिवर्तन हो गया है। वसंत ॠतु में और ही भाँति का रस वनस्पतियों में है, और ही प्रकार की रातें हो गई हैं, और ही प्रकार का राग-रंग, और ही तरह की शारीरिक स्फूर्ति और ही प्रकार का उत्साहपूर्ण मन तथा और ही प्रकार के वन हो गए हैं।

प्रस्तुत पद में कवि ने यह स्पष्ट किया है कि वसंत ऋतु का प्रभाव सारे वातावरण पर एकाएक पड़ जाता है। देखते-ही-देखते सजीव और निर्जीव पदार्थों में चमत्कारी परिवर्तन आ जाता है।

विशेष :

  1. कोमल शब्दावली का प्रयोग किया गया है। भाषा मधुर ब्रज है तथा बोलचाल की है।
  2. अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है।
  3. वसंत की मादक्ता का चित्रण हुआ है।
  4. ‘और’ शब्द के प्रयोग से भेदकातिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग हुआ है।
  5. छंद कवित्त, संयोग शृंगार है।

2. गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के
जौ लगि कछू-को-कछू भाखत भनै नहीं।
कहैं पद्माकर परोस-पिछवारन के,
द्वारन के दौरि गुन-औगुन गनै नहीं।
तौ लाँ चलित चतुर सहेली याहि कौऊ कहूँ,
नीके के निचांरे ताहि करत मनै नहीं।
हौं तो स्याम-रंग में चुराई चित चोराचोरी,
बोरत ताँ बोरूयौ पै निचोरत बनै नहीं।

शब्दार्थ : कुल – वंश। गोप – ग्वाले। गाउन – गाँव। भाखत – कहना। भनै – वर्णन करना। नीके – अच्छी तरह। निचौरे – निचोड़े। ताहि – उसे। स्याम रंग – कृष्ग के रंग में। बोरत – डुबाना।

प्रसंग – प्रस्तुत पद रीतिकाल के प्रमुख कवि पद्माकर द्वारा रचित है। पद्माकर जी प्रस्तुत पद में होली के अवसर पर एक गोपिका की मनोभावनाओं का चित्रण करते हुए लिखते हैं।

व्याख्या – गोकुल की गलियों और गाँवों में जहाँ तक भी लोग हैं वे सब-के-सब होली के अवसर पर कुछ-न-कुछ कहते हैं, अविवेक पूर्ण बातें करते हैं। पद्माकर कवि कहते हैं कि ग्वालिन कहती है कि पड़ोस में, पिछवाड़े में, सामने दरवाज़े पर अर्थात् कहीं पर भी कोई किसी के गुणअवगुणों की गणना नहीं करता। एक चतुर सखी अभी अपने रंग-भीगे वस्त्रों को निचोड़ भी न पाई थी कि दूसरी ने उस पर फिर से रंग डाल दिया। इस चतुर सखी को कोई रोकता भी नहीं है। पहली सखी कहती है कि मैं तो कृष्ण के रंग में चोरी-चोरी रंग गई हूँ अर्थात मैने सबसे चोरी अपने मन को कृष्ण के रंग में रंग दिया है। एक बार अपना मन कृष्ण के रंग में रंग देने के पश्चात अब में उसे निचोड़ने अर्थात् उससे मुक्त होने के लिए तैयार नहीं हूँ।

पद्माकर जी ग्वालिन के अनुराग को व्यक्त करते हैं। जब चतुर संखियाँ लोक-लाज से डरकर कृष्ण के रंग को निचोड़ने के लिए तैयार हैं उस समय भी यह ग्वालिन कृष्ण-रंग से मुक्त नहीं होना चाहती।

विशेष :

  1. ग्वालिन कृष्ण रंग में गँगकर उससे मुक्त नहीं होना चाहती । यही बात उसके अनन्य प्रेम की सूचक है।
  2. ‘श्याम रंग’ में श्लेष अलंकार है। श्याम का अर्थ काला भी है और कृष्ण भी। ‘बोरत ते बोरूयो पै निचोरत बनै नहीं’ में विशेषोक्ति अलंकार है।
  3. ब्रजभाषा का सुंदर प्रयोग किया गया है जिसमें तद्भव शब्दावली की अधिक्ता है।
  4. चाक्षुक बिंब विद्यमान है।
  5. स्वर में भी लयात्मकता की सुष्टि की है।
  6. कवित्त छंद का प्रयोग है।

3. भौररन को गुंजन बिहार बन कुंजन में,
मंजुल मलारन को गावनो लगत है।
कहैं पद्माकर गुमानहूँ तें मानहुँ तें,
प्रानहूँ तैं प्यारो मनभावनो लगत है।
मोरन को सोर घनघोर चहुँ ओरन,
हिंडोरन को बृंद छवि छावनो लगत है।
नेह सरसावन में मेह बरसावन में,
सावन में झूलियो सुह्रावनो लगत है।

शब्दार्थ – भौरन – भँवरे। कुंजन – झाड़ियों में। मंजुल – सुंदर। मलारन – मल्हार, राग। सोर – शोर। चहुँ – चारों। हिंडोरन – झूला। बृंद – समूह। नेह – प्रेम। मेह – बादल।

प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण रीतिकालीन आचार्य कवि पद्माकर के द्वारा रचित है जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित किया गया है। कवि ने इसमे ऋन्रुओं और त्योहारों का सुंदर चित्रण किया है। प्रस्तुत पद में सावन ऋतु में झुला झूलने का चित्रात्मक वर्णन सुंदर ढंग से किया गया है।

व्याख्या – कवि वर्षा क्रतु में वन-कुंजों व झाड़ियों की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहता है कि गुंजार करते भैवरों के सारे वनों और बाग-बगीचों में उड़ने से ऐसा लगता है जैसे मधुर मल्हार राग का आलाप सब ओर ध्वनित हो रहा हो। यह मनोरम दृश्य अभिमान, मान और प्राणों सें भी प्यारा और मनभावन लगता है अर्थात् इस वर्षा ऋतु में अपने-अपने प्रियजनों से नाराज़ होकर झूठा मान और अभिमान करनेवाली गोपियाँ भी आवाज़ें उनसे दूर नहीं रह सकरीं। उनके मन में भी अपने प्रियजनों के प्रति गहरा आकर्षण बढ़ जाता है। चारों दिशाओं में मोरों के बोलने की आवाजें बादलों के आगमन के साथ बढ़ गई हैं और जगह-जगह समूहों में झूलों पर झूलते अपार साँदर्य से युक्त नर-नारियाँ शोभा देते हैं। सावन के महीने में बरसते बादलों के बीच झूला झूलना और आपसी प्रेम के भावों को प्रकट करना अति सुहावना लगता है।

विशेष :

  1. कवि ने वर्षा त्रू के उद्दीपन प्रभाव को नर-नारियों के हुदय पर प्रकट किया है।
  2. ब्रजभाषा का प्रयोग है जिसमें तद्भव शब्दावली की अधिकता है।
  3. स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सुष्टि की है।
  4. पदमैत्री, अनुप्रास और मानवीकरण का प्रयोग सराहनीय है।
  5. अभिधा शब्द-शक्ति और प्रसाद गुण के कथन को सरलता-सरसता प्रदान की है।

Hindi Antra Class 11 Summary

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Class 11 Hindi Antra Chapter 14 Summary – Sandhya Ke Baad Vyakhya

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संध्या के बाद Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 14 Summary

संध्या के बाद – सुमित्रानंदन पंत – कवि परिचय

जीवन-परिचय – हिंदी के महान कवि सुमित्रानंदन पंत का जन्म उत्तराखंड प्रदेश के अल्मोड़ा जिले में स्थित ‘कौसानी’ नामक गाँव में 1900 में हुआ। जन्म के कुछ घंटों के पश्चात ही इनकी माँ का देहांत हो गया था। इनका बचपन प्रकृति की गोद में ही बीता। इनकी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में तथा उच्च शिक्षा बनारस और इलाहाबाद में हुई। पंत गांधीवादी विचारधारा से अत्यंत प्रभावित थे। भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति में पंत ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसा माना जाता है कि पंत जी ने काव्य-रचना चौथी कक्षा में ही शुरू कर दी थी परंतु वास्तविक कविकार्य उनके प्रथम काव्य संग्रह ‘पल्लव’ ‘1928’ के प्रकाशन के बाद सामने आया। इनकी कविता में छायावादी कविता की सच्ची तसवीर दिखाई पड़ती है।

छायावादी कवियों में पंत सबसे अधिक भावुक, संवेदनशील एवं कल्पनाशील कवि माने जाते हैं। उन्होंने प्रग्गतिशील साहित्य चेतना के विकास में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। 1938 में उन्होंने ‘रूपाभ’ नामक पत्रिका का प्रकाशन भी आरंभ किया। यह पत्रिका प्रगतिशील काव्य-चेतना को बढ़ावा देती थी। पंत जी के काव्य के अनेक सोपान हैं। इनकी मृत्यु 1977 में हुई।

रचनाएँ-वीणा, ग्रंथि, पल्लव, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णकिरण, उतरा, कला और बूढ़ा चाँद और लोकायतन आदि। अपने जीवन काल में पंत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हुए। उन्हें ‘ लोकायतन’ के लिए ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’, ‘कला और बूढ़ा चाँद’ के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ और चिदंबरा के लिए ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।

साहित्यिक विशेषताएँ-सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के चितेरे कवि माने जाते हैं। छायावादी काव्य के अंतर्गत उन्होंने प्रकृति और मानवीय साँदर्य के अनेक चित्र खींचे हैं। उनकी रोमानी दृष्टि के कारण प्रकृति और मानवीय साँदर्य में अद्भुत रोमांच पैदा हो गया है। प्रगतिवादी काव्य के अंतर्गत उन्होंने ‘ग्राम्या’, ‘उत्तरा’ और ‘स्वर्ण किरण’ जैसी रचनाओं में सामाजिक अनुभूतियों को व्यक्त किया है। उनकी परवर्ती रचनाओं में कल्पनाशीलता के साथ-साथ यथार्थवादी चित्रण किया गया है। रहस्यानुभूति, मानवतावादी दृष्टिकोण और समाजवादी आदर्श उनके काव्य की अन्य विशेषताएँ हैं। उनकी अंतिम काव्य कृतियों में ‘अरविंद् की दार्शनिक चेतना के भी दर्शन होते हैं।

भाषा-शैली – पंत का संपूर्ण काव्य आधुनिक चेतना का संवाहक है। उनकी काव्य-यात्रा में भाषा के विविध रूप दिखाई पड़ते हैं। पंत की काव्य-भाषा में तत्सम शब्दों की भरमार रही हैं। इसके साथ तद्भव और आंचलिक शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। खड़ी बोली में व्यंजना शब्द-शक्ति का प्रयोग सहजता के साथ किया गया है। भावों और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में शब्द योजना माधुर्रपपूर्ण है, इसलिए पंत को ‘शब्द शिल्पी’ भी कहा जाता है। अनुप्रास, यमक, उपमा, उत्रेक्षा, रूपक और मानवीकरण अलंकारों का प्रयोग भाषा में सौँदर्य-बोध एवं सरसता पैदा करता है। वस्तुतः उनकी भाषा में भावों की सुंदरता एवं मधुरता अभिव्यंजित होती है।

Sandhya Ke Baad Class 11 Hindi Summary

‘संध्या के बाद’ कविता कवि पंत के काव्य-संग्रह ‘ग्राम्या’ से अवतरित है। यह कवि की प्रगतिवादी विचारधारा से प्रभावित रचना है। इसमें कवि ने ग्रामीण जीवन के विविध सामाजिक यथार्थ का चित्रण किया है। इस कविता में ढलती हुई साँझ के ग्रामीण वातावरण, जनजीवन और प्राकृतिक सुंदरता का चित्रण हुआ है। इसमें वृद्धाओं, विधवाओं, खेत सेघर लौटते किसानों और पशु-पक्षियों का चित्रण भी मिलता है।

कवि ने संध्या समय का चित्रण करते हुए कहा है कि अस्त होते हुए सूर्य की किरणें वृक्ष की चोटियों पर नृत्य करती हैं। पीप्ल के पत्तों से छनकर आनेवाली किरणें ऐसी लगती हैं जैसे ताँबे के पत्तों से सोने के सौ-सौ झरने फूट पड़े हों। प्रकाश और छाया के संयोग से गंगा की जल-धारा साँप की चितकबरी केंचुली के समान लगती है। मंदिरों में शंख औरघंटों की ध्वनियाँ गूँजती हैं। गंगा-तर पर जप करती वृद्धाएँ बगुलों-सी लगती हैं। पक्षियों का स्वर वातावरण में संगीत भर देता है। किसान और व्यापारी थके-हारे निराशा में डूब जाते हैं।

ग्रामीण समाज का वर्णन करते हुए कवि उनकी इच्छा आशा, निराशा और बेबसी का वर्णन करते हुए यह बताता है कि गाँव में बनिया भी गरीब है तो अन्य के विषय में क्या कहा जाए। ग्रामीण परिवेश में सभी-परिवार अपने-अपनेषौंदों में अलग-अलग विचारधारा के साथ जीवन यापन कर रहे हैं कवि के प्रगतिवादी विचारधारा कहती है कि यदि ग्रामीणों में सामूहिकता की भावना उत्पन्न हो जाए तो ये मिलकर नव-निर्माण करें और समस्त सुख भोगें। समाज को शोषण मुक्त बनाएँ और समाज में प्रत्येक व्यक्ति धन-धान्य से परिपूर्ण हो।

शहरी और ग्रामीण आर्थिक दशा में अंतर को देखकर कवि का मानना है कि व्यक्ति को उसके कर्म और गुण के आधार पर ही आय प्राप्त होनी चाहिए। कविता में कवि ने जन-नेताओं और समाज की चिंता में भाषण देनेवालों पर व्यंग्य करते हुए कहा है कि अवसर मिलने पर वे केवल अपने विषय में ही सोचते हैं। कवि ने समाज की समस्याओं का वर्णन करते हुए उनके समाधान का भी जिक्र किया है। कवि ने निम्न मध्यमयर्गीय लोगों के जीवन के कष्टों का भी उल्लेख किया है। कवि लाला की दयनीय आर्थिक स्थिति का वर्णन करते हुए कहता है कि वह जीवनभर अपनी दुकान की गद्दी पर बैठा हुआ ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह किसी निर्जीव और बेकार अनाज का ढेर हो। पंत की यह कविता प्रकृति तथा सामाजिक व्यवस्था का यथार्थ चित्रण है।

संध्या के बाद सप्रसंग व्याख्या

1. सिमटा पंख साँझ की लाली
जा बैठी अब तरु शिखरों पर
ताप्रपर्ण पीपल से, शतमुख
झरते चंचल स्वर्णिम निई्ईर !
ज्योति स्तंभ-सा धँस सरिता में
सूर्य क्षितिज पर होता ओझल,
बृहद् जिद्य विश्नथ केंचुल-सा
लगता चितकबरा गंगाजल !

शब्दार्थ – तरु – वृक्ष। ताम्रपर्ण – ताँबे के सामान पत्ते। निई्जर – झरना। सरिता – नदी। क्षितिज – जहाँ धरती-आसमान मिलते दिखाई दें। वृहद् – बड़ा, विशाल।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘ अंतरा’ में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित है, जिसके रचयिता छायावादी कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ हैं। इन काव्य पंक्तियों में कवि ने संध्या-समय की प्रकृति के विविध रूप चित्रित किए हैं।

व्याख्या – साँझ का मानवीकरण करते हुए कवि कहता हैं। कि दिन अब ढल गया है और ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे साँझ रूपी चिड़िया अपने पंखों को समेटकर वृक्ष की फुनगी पर जा बैठी है। वृक्षों के पत्तों पर ढलते सूर्य की किरणों के पड़ने के कारण उनका रंग तांबे के समान पीपल के पीले पत्तों-सा हो गया है। सैकड़ों धाराओं में बहते इरने का जल स्वर्णिम किरणों के प्रकाश के कारण सोने जैसा लगने लगा है। दूर क्षितिज में डूबते सूर्य को देखकर ऐसा लगता है मानो एक ज्योति पुंज स्तंभ के समान धरती रूपी नदी में धँस गया हो। बहती हुई गंगा का पानी चितकोबरा साँप की भाँति केंचुली लपेट लंबी-सी जीभ निकालकर बहता प्रतीत हो रहा है।

विशेष :

  1. प्रकृति का सुंदर चित्रण किया गया है।
  2. मानवीकरण और उपमा अलंकार का प्रयोग किया गया है।
  3. तत्सम शब्दों की अधिकता है।
  4. भाषा सरल, सहज, मधुर एवं बोधगम्य है।

2. धूपछाँह के रंग की रेती
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
नील लहरियों में लोड़ित
पीला जल रजत जलद से बिंबित !
सिकता, सलिल, समीर सदा से
स्नेह पाश में बँधे समुज्ज्वल,
अनिल पिघलकर सलिल, सलिल
ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल।

शब्दार्थ – अनिल – हवा। रजत – चाँदी। जलद – बादल। सिकता – रेत। सलिल – जल। समीर – हवा।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता हिंदी के कवि सुमित्रानंदन पंत हैं। इन पंक्तियों में कवि ने अस्त होते सूर्य की स्वर्णिम किरणों से निरंतर रंग बदलती प्रकृति का वर्णन किया है।

व्याख्या कवि कहता है कि जब सूर्य अस्त हो रहा है, तो उसकी स्वर्णिम किरणें गंगा के किनारे दूर तक फैले रेत में धूप-छाँही रंग बना देती हैं। लगातार बहती हवा के कारण रेत में साँपों की आकृति-सी बन गई है। गंगा के नीले जल में लहरें ऐसी प्रतीत हो रही हैं, मानो बादलों की चाँदी के समान परछाई जल में प्रतिबिंबित हो रही है। रेत, जल और मंद-मंद बहती हवा मानो तीनों मोहपाश में बँधकर उज्जल प्रतीत हो रही है। हवा पिघलकर जैसे जल बन गई हो और जल जैसे द्रव्यगुण त्यागकर एकाकार हो गया है।

विशेष :

  1. अस्त होते सूर्य के कारण लगातार परिवर्तित होती प्रकृति के रंगों का वर्णन किया गया है।
  2. तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग किया गया है, यथा अनिल, ऊर्मियों, रजत, जलद, सिकता, सलिल, समीर, सेह, द्रव आदि।
  3. ‘सिकता, सलिल, समीर सदा से’ में अनुप्रास की छटा दर्शनीय है।
  4. उपमा और उत्त्रेक्षा अलंकार का भी प्रयोग किया गया है।
  5. भाषा सरल, सुबोध एवं प्रवाहमयी है।

3. शंख घंट बजते मंदिर में
लहरों में होता लय कंपन,
दीपशिखा-सा ज्वलित कलश
नभ में उठकर करता नीराजन !
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदुश्य, गति अंतर-रोदन !

शब्दार्थ – शिखा – ज्योति, लौ। नभ – आकाश। नीराजन – परमात्मा का नाम जपना। मंथर – धीरे-धीरे।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्य-पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित ‘संध्या के बाद’ नामक कविता से उद्धृत हैं । इन पंक्तियों में कवि ने संध्या समय होने वाले भक्ति गीतों की प्रति ध्वनि से गुंजित वातावरण का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि साँझ होते ही मंदिरों में शंख और घंटे बजने लगते हैं। संपूर्ण वातावरण में यह ध्वनि ऐसे गूँजती है कि मानो लहरों में लयबद्ध कंपन हो रहा है। दीपों की ज्योति की भाँति मंदिरों के शिखर पर चमकता कलश ऐसा लगता है, मानो वह आकाश में जोर-जोर से ‘निरंजन’ पुकार रहा है। नदी के तट पर बूढ़ी स्त्रियाँ और विधवाएँ ऐसे ध्यानमग्न होकर परमात्मा का नाम जप रही हैं, जैसे बगुले-ध्यानपूर्वक पानी में निहार रहे हों और नदी की धारा में उनकी न दिखने वाली अंतर-पीड़ा जैसे धीरे-धीरे बह रही है।

विशेष :

  1. संध्या समय मंदिर में बजने वाले शंख और घंटियों की प्रति ध्यनि से वातावरण भक्तिपूर्ण हो गया है।
  2. बूढ़ी स्त्रियों और विधवाओं की पीड़ाजन्य स्थिति का कारुणिक वर्णन किया गया है।
  3. ‘दीप शिखा-सा’ और ‘बगुला-सी वृद्धाएँ’ में उपमा अलंकार है।
  4. तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है।
  5. भापा सरल, सहज एवं बोधगम्य है।

4. दूर तमस रेखाओं-सी,
उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित !
स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
किरणों की बादल-सी जलकर,
सनन् तीर-सा जाता नभ में
ज्योतित पंखों कंठों का स्वर !

शब्दार्थ : तमस – अँधेरा। खगों – पक्षियों। स्वर्ण – सोना। नभ – आकाश। स्वर – ध्वनि। गोरज – पशु के पैरों से उठी धूल।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘ अंतरा’ में संकलित कविता ‘ संध्या के बाद’ से अवतरित है। इस कविता के रचयिता महाकवि सुमित्रानंदन पंत हैं। इन पंक्तियों में कवि ने सूर्य अस्त होने के बाद के ग्रामीण-परिवेश का वर्णन किया है।

क्याख्या – सूर्य अस्त हो गया है और प्रकृति में दूर अँधेरे की रेखाएँ पंख फैलाते पक्षियों की भौंति चित्रित हो रही हैं। पंक्ति में जाते सोन पक्षियों की द्रवित कर देने वाली ध्वनियाँ आकाश के सन्नाटे को ध्वनित कर रही हैं। चरागाहों से लौटते पशुओं के पैरों से उठी धूल हवा में ऐसे तैर रही है, मानो सोने का चूर्ण है। धूल के कारण संपूर्ण वातावरण जैसे सूर्य की किरणें बादल बन गई हैं। अंधकारमय आकाश में चमकते पक्षियों के पंखों और कंठों की ध्वनि एक सनसनाते तीर की तरह गूँज रही हैं।

विशेष :

  1. साँध्यकालीन ग्रामीण परिवेश का चित्रांकन किया है।
  2. उपमा अलंकार दर्शनीय है।
  3. तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
  4. भाषा सरल, सहज एवं प्रभावशाली है।

5. लौँटे खग, गायें घर लौर्टी
लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर
छिपे गृहों में म्लान चराचर
छाया भी हो गई अगोचर,
लौट पैंठ से व्यापारी भी
जाते घर, उस पार नाव पर,
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
खाली बोरों पर, हुक्का भर !

शब्दार्थ : खग – पक्षी। कृषक – किसान। गृह – घर। डग – रास्त।

प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘संध्या के बाद’ नामक कविता से अवतरित है। इस कविता के रचयिता छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत हैं। इन पंक्तियों में कवि ने सांध्यकालीन वातावरण में घर लौटते पक्षियों, गायों, किसानों और व्यापारियों का वर्णन किया है।

व्याख्या – साँध्यकालीन वातावरण का वर्णन करते हुए कवि कहता हैं कि साँझ होते ही पक्षी और गायें अपने घरों को लौट रहे हैं। इनके साथ किसान भी दिनभर मेहनत करने के पश्चात् पगडंडियों पर पैर रखते हुए अपने घरों की ओर जा रहे हैं। अँधेरे में उनके घरों में सजीव और निर्जीव सभी कुछ एकाकार हो गया है और अब तो उनकी छाया भी जैसे कहीं छुप गई है। व्यापारी अपने कारोबार समेटकर नाव के माध्यम से नदी पार कर अपने घरों को लौट रहे हैं। कुछ खानाबदोश अपने ऊँटों और घोड़ों के साथ खाली बोरियों को ही बिस्तर बना उन पर बैठे हुक्का पी रहे हैं।

विशेष :

  1. साँध्यकालीन वातावरण में घर लौटते पक्षियों, गायों, किसानों और व्यापारियों का सजीव चित्रांकन किया गया है।
  2. चित्रात्मक शैली है।
  3. तद्भव और आँचलिक शब्दों का प्रयोग किया गया है।
  4. तुकांत का प्रयोग है।
  5. भाषा सरल, सहज एवं बोधगम्य है।

6. जाड़ों की सूनी द्वाभा में
झूल रही निशि छाया गहरी,
डूब रहे निष्ट्रभ विषाद में
खेत, बाग, गृह, तरु, तट, लहरी !
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
भूँक-भूँककर लड़ते कूकर,
हुआँ-हुआँ करते सियार
देते विषण्ण निशि बेला को स्वर!

शब्दार्थ – सूनी – सुनसान। द्वाभा – रोशनी। निशि – रात। विषाद – दुख। गृह – घर। लहरी – लहरें। बिरहा – विरह-गीत। कूकर – कुत्ते। सियार – गीदड़। विषण्ण – भयानक।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘ अंतरा’ में संकलित ‘ संध्या के बाद’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता महाकवि सुमित्रानंदन पंत हैं। इन पंक्तियों में कवि ने जाड़ों की सुनसान रात के वातावरण को चित्रित किया है ।

व्याख्या – सुनसान रात का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि सार्दियों की सुनसान अँधेरे में रात जैसे झूला झूल रही है। इस सुनसान रात में खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, घर, पेड़, नदी का तर और बहते पानी की लहरियाँ जैसे गहरे दुख में डूबे हुए हैं। सुनसान रात में अपनी मंंज़ल की और जाते हुए गाड़ीवाले बिरहा गा रहे हैं। कुत्ते, भूँक-भूँककर आपस में लड़ रहे हैं। गीदड़ों की ‘हुआँ-हुआँ’ की आवाज़ें भयानक रात का संकेत दे रही हैं अर्थात कुत्ते के भौकने की आवाज़ें और गीदड़ों की ‘हुआँ-हुआ’ की आवाज़ें वातावरण को अधिक भयावह बना रही हैं।

विशेष :

  1. जाड़ों की सुनसान रात्रि का वर्णन किया गया है ।
  2. ‘भूँक-भूँककर’ और ‘ हुआँ-हुआँ’ में पुनरक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग सफल हैं।
  3. तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
  4. तद्भव और आंचलिक शब्दों का भी प्रयोग किया गया है।
  5. वर्णनात्मक शैली है।
  6. भाषा में गांभीर्य है।

7. माली की मँड़ई से उठ,
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
मंद पवन में तिरती
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
बत्ती जला दुकानों में
बैठे सब कस्बे के व्यापारी,
मौन मंद आभा में
हिम की ऊँघ रही लंबी अंधियारी !

शब्दार्थ – मड़ई – झोंपड़ी। नभ – आकाश। धूमाली – धुआज जैसी। मंद – धीरे-धीरे। पवन – हवा। हिम – बर्फ़। आभा – रोशनी।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘संध्या के बाद’ नामक कविता से उद्धृत है, जिसके रचयिता छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने ऑधियारी सुबह का वर्णन किया है।

व्याख्या – सूर्य निकलने में अभी समय है। रात अभी बाकी है। ऐसे वातवरण में आसमान में छायी धुंध का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि धुँध ऐसी लगती है, जैसे माली की झोंपड़ी में से निकलकर धुआँ आसमान के नीचे आसमान की भाँति छा गया है। हवा मंद-मंद बह रही है। यह मंद-मंद बहती हलकी धुँध रेशम की जाली के समान प्रतीत हो रही है। सुबह होने वाली है और कस्बे के व्यापारी लोग इसी धुँधलके में ही बत्ती आदि जलाकर अपनी दुकानों पर आकर बैठ गए हैं। सुनसान और हलकी रोशनी में जैसे धुँध और अँधेरा ऊँघ रहा है।

विशेष :

  1. हलकी धुँध का वर्णन किया गया है।
  2. कस्बे के व्यापारियों का स्वाभाविक चित्रण किया गया है।
  3. उपमा और मानवीकरण अलंकार है।
  4. तुकांत का प्रयोग है।
  5. देशज शब्दों का प्रयोग है।
  6. भाषा सरल, सहज एवं सारगार्भित है।

8. धुआँ अधिक देती है
टिन की ढिबरी, कम करती उजियाला,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
आंखों के आगे बुनती जाला !
छोटी-सी बस्ती के भीतर
लेन-देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मँडराते घिर सुख-दुख अपने !

शब्दार्थ : ढिबरी – दीया, जिसमें कैरोसीन ड्ाला जाता है। अवसाद – पीड़ा, दुख। थोथे – झूठे।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘संध्या के बाद’ नामक कविता से अवतिरत है। इस कविता के रचयिता महाकवि सुमित्रानंदन पंत हैं। इन पंक्तियों में कवि ने व्यापारियों के झूठे सपनों का वर्णन किया है।

व्याख्या – सुबह होने से पहले ही कस्बे के व्यापारी अपनी दुकानों में टिन की ढिबरी (दीया) जलाकर अपना कारोबार शुरू कर देते हैं। यह दीया धुआँ अधिक देता है और रोशनी कम। उसी प्रकार मन के अंतद्वंद्व के कारण उनके जीवन में दुख और पीड़ा का धुआँ उनकी आँखों में भर जाता है। इस छोटी बस्ती, जिसमें दो-चार ही घर हैं, ये व्यापारी लेन-देन को लेकर झूठे सपने बुनने लगते हैं अर्थात इस बस्ती के गरीब लोगों को लेन-देन में फँसकार अमीर बनना चाहते हैं, परंतु इस दीये की रोशनी में सुख-दुख सदा इनके जीवन में मँडराते रहते हैं।

विशेष :

  1. बस्ती के व्यापारियों के झूठे सपनों का यथार्थवादी वर्णन किया गया है।
  2. प्रतीकात्मकता है।
  3. तुकांत का प्रयोग है।
  4. ढिबरी और थोथे आँचलिक शब्दों का प्रयोग स्वाभाविक है।
  5. भाषा सरल, सहज और प्रसंगानुकूल है।

9. कँप-कंप उठते लौ के संग
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों
गोपन मन को दे दी हो भाषा !
लीन हो गई क्षण में बस्ती,
मिट्टी खपरे के घर आँगन,
भूल गये लाला अपनी सुधि,
भूल गया सब ब्याज, मूलधन !

शब्दार्थ – लौ – लपट, ज्योतिपुंज। उर – हदय। मूक – चुपचाप, मौन। गोपन – चुप। लाला – बनिया।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित हिंदी के महान कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है। इस कविता में कवि ने संध्या के बाद के वातावरण का चित्रण किया है।

व्याख्या – सूर्य अभी उद्य नहीं हुआ है। सुबह के धुँधलके में व्यापारी लोग दीये जलाकर अपनी दुकान खोलकर बैठ गए हैं, परंतु कारोबार ग्रामीण परिवेश के अन्य लोगों की भाँति अधिक विस्तृत नहीं हुआ है। वे अन्य ग्रामीणों के समान सामान्य जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। धन की कमी उन्हे भी है। कवि उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति का वर्णन करते हुए कहता है कि वे सभी व्यापारी कहीं न कहीं दुःखी हैं। अपनी दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण उनके हुदय की मूक वेदना और पीड़ा ढिबरी (दीये) की काँपती लौ की भाँति कंपित कर रही हैं। बिबरी (दीये) की कंपित ज्योति में उनके हुदय की छिपी पीड़ा और वेदना अपने आप स्वरित हो रही है। अब सूर्य का प्रकाश धीरे-धीरे संपूर्ण बस्ती को प्रकाशित कर देवा है। ग्रामीण घर और औगन सब कुछ अब दिखाई देने लगे हैं। सुबह के धुंधलके में अपनी दुकान में बैंठे जो लाला ब्याज और मूलधन के चक्कर में पड़ गए थे, परंतु दिन निकलने के साथ ही अपने कारोबार में पुन: खो गए हैं तथा अपनी सामान्य दिनचर्या में लिप्त हो गए हैं।

विशेष :

  1. कवि ने व्यापारी-वर्ग की दयनीय आर्थिक स्थिति का स्वाभाविक वर्णन किया है।
  2. चित्रात्मक शैली है।
  3. ‘कँप-कँंप’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  4. ग्रामीण परिवेश का स्वाभाविक चित्रण हुआ है।
  5. भाषा सरल, सहज एवं प्रसंगानुकूल है।

10. सकुची-सी परचून किराने की बेरी
लग रहीं ही तुच्छतर,
इस नीरव प्रदोष में आकुल
उमड़ रहा अंतर जग बाहर !
अनुभव करता लाला का मन,
छोटी हस्ती का सस्तापन,
जाग उठा उसमें मानव,
औ’ असफल जीवन का उत्पीड़न !

शब्दार्थ : सकुची-सी – छोटी-सी। तुच्छतर – थोड़ी-सी, कम। नीरव – चुपचाप। अंतर – मन, हुदय। उत्पीड़न – दुख, पीड़ा।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्य-पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक अंतरा में संकलित संध्या के बाद’ ‘नामक कविता से उद्धृत हैं। इस कविता के रचयिता छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत हैं। इस कविता में कवि ने ग्राम्य परिवेश में अपनी छोटी-सी दुकान पर बैठे लाला की दयनीय आर्थिक दशा का वर्णन किया है।

ब्याख्या – लाला की छोटी-सी परचून की दुकान पर थोड़ा-सा सामान है। यह थोड़ा-सा सामान बनिया की आर्थिक विवशता को प्रदर्शित कर रहा है। उसका यह आर्थिक दशा उसके हृदय की पीड़ा को अभिव्यक्त करती है। अपनी छोटी और सस्ती दुकान के कारण लाला का छोटापन दिखाई पड़ रहा है। इसी छोटे और सस्ते व्यापार के कारण उसका मन दुखी है। जब वह अपनी द्यनीय आर्थिक स्थिति के बारे में सोचता है, तो उसके असफल जीवन की पीड़ा संसार के सामने अभिव्यक्त हो जाती है।

विशेष :

  1. कवि ने व्यापारी-वर्ग की आर्थिक बदहाली का वर्णन किया है।
  2. लाला की छोटी-सी परचून की दुकान का स्वाभाविक चित्र खींचा गया है।
  3. भाषा प्रसंगानुकूल एवं प्रभावशाली है।
  4. तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग है।

11. दैन्य दुख अपमान ग्लानि
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्लांति बन रही
उसके जीवन की परिभाषा !
जड़ु अनाज के ढेर सदृश ही
वह दिन-भर बैठा गद्दी पर
बात-बात पर झूठ बोलता
कौड़ी-की स्पर्धा में मर-मर !

शब्दार्थ – दैन्य – दयनीय। क्षुधित – भूख। पिपासा – प्यास। मृत – मरी हुई। अभिलाषा – इच्छा। आय – आमदनी, धन। क्लांति – अंधकारमय। सदृश – समान। स्पर्धा – मुकाबला।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ से संकलित ‘संध्या के बाद’ नामक कविता से उद्धृत है। इन पंक्तियों में कवि सुमित्रानंदन पंत ने ग्रामीण परिवेश में स्थित व्यापारी-वर्ग की दयनीय आर्थिक स्थिति का चित्रांकन किया है।

व्याख्या – व्यापारी-वर्ग की दयनीय आर्थिक स्थिति का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि अपनी छोटी एवं संकुचित दुकान को देखकर वह स्वयं को दयनीय, दुखी और अपमानित अनुभव करता है। यह संकुचित आय उसकी भूख और प्यास को खत्म नहीं कर पा रही है। उसकी जीवन की सभी आकांक्षाएं लगभग मृतप्राय हो चुकी हैं। बिना किसी आय के उसका अंधकारमय जीवन उसकी दयनीय आर्थिक स्थिति को प्रदर्शित कर रहा है, वह जीवन-भर अपनी दुकान की गद्दी पर बैठा हुआ ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी निर्जीव और बेकार अनाज का ढेर हो अर्थात उसके जीवन में सजीवता नहीं बची है। वह थोड़ी-सी आय के लिए बात-बात में झूठ बोलता है तथा अपने ही वर्ग के साथ प्रतिस्पर्धा के अपने जीवन को तबाह कर रहा है।

विशेष :

  1. गाँव के व्यापारी-वर्ग की आर्थिक दुर्दशा का वर्णन किया गया है।
  2. बिना आय के किसी भी वर्ग का जीना दूभर हो जाता है।
  3. तत्सम शब्दावली है-दैन्य, चिर, क्षुधित, पिपासा, सदृश आदि।
  4. भाषा सरल, प्रभावशाली एवं प्रसंगानुकूल है।

12. फिर भी क्या कुटुंब पलता है ?
रहते स्वच्छ सुघर सब परिजन ?
बना पा रहा वह पक्का घर ?
मन में सुख है ? जुटता है धन ?
खिसक गई कंधों से कथड़ी
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
सोच रहा बस्ती का बनिया
घोर विवशता का निज कारण !

शब्दार्थ कुटुंब – परिवार। सुघर – सुंदर घर। परिजन – परिवार के सदस्य। कथड़ी – चीथड़े, जोड़कर बनाया गया वस्त्र। निज – अपना।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘संध्या के बाद’ नामक कविता से अवतरित है। इस कविता के रचयिता महाकवि सुमित्रानंदन पंत हैं। इस पंक्तियों में कवि ने गाँव में व्यापारी वर्ग की प्रतिस्पर्धा और आर्थिक दुर्दशा का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि लाला जीवनभर झूठ बोलता है। दूसरों का शोषण करता है। परंतु इस झूठ बोलने तथा दूसरों का शोषण करने के बाद भी क्या वह अपने परिवार का पालन-पोषण ठीक ढंग से कर पाता है ? क्या वह और उसका परिवार सुंदर, बड़े तथा स्वच्छ घर में रहे हैं ? क्या दूसरों के साथ बेईमानी करके उसने अपना पक्का घर बना लिया है ? क्या उसे जीवन में सुख की प्राप्ति हुई है ? क्या दूसरों को लूटकर तथा आर्थिक शोषण करके उसने अपना घर धन-धान्य से भर लिया है ? सारा जीवन गद्दी पर बैठ-बैठ अब उसके कंधे कमजोर पड़ गए और सदी में उसका शरीर चीथड़े जोड़कर बचाए गए पतले-कमजोर वस्त्र के कारण ठंड से ठिटुर रहा है। इस ठंड में अपनी दुकान पर बैठा व्यापारी अपने जीवन की इसी मजबूरी के कारणों की तलाश कर रहा है अर्थात् इस दयनीय आर्थिक तंगी में वह स्वयं दोषी होने के कारणों पर विचार कर रहा है।

विशेष :

  1. जीवन-भर दूसरों का शोषण करने के बाद भी व्यापारी अपनी आर्थिक दशा को सुद्ढ़ नहीं कर पाया है। कवि ने इसी संबंध में अनेक प्रश्न उठाए हैं।
  2. प्रश्नालंकार है।
  3. भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है।
  4. तत्सम एवं तद्भव शब्दों का प्रयोग किया गया है ।

13. शहरी बनियों-सा वह भी उठ
क्यों बन जाता नहीं महाजन ?
रोक दिए दिए हैं किसने उसकी
जीवन उन्नति के सब साधन ?
यह क्या संभव नहीं
व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन ?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय-व्यय का हो वितरण ?

शब्दार्थ – महाजन – ब्याज पर ऋण देनेवाला। सकल – संपूर्ण। आय-व्यय – आमदनी और खर्च। वितरण – लेन-देन, बँटवारा।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘संध्या के बाद’ नामक कविता से अवततित है। इस कविता के रचयिता महाकवि सुमित्रानंदन पंत हैं। इन पंक्तियों में कवि ने ग्रामीण व्यापारी-वर्ग की दयनीय आर्थिक दुर्दशा का वर्णन किया है। इसके साथ शहरी क्षेत्र में रहने वाले महाजन वर्ग की सुदृढ़ आर्थिक स्थिति के साथ है।

व्याख्या – कवि कहता है कि ग्रामीण व्यापारी-वर्ग दूसरों के साथ बेईमानी करने के बाद भी अपनी आर्थिक दशा को सुद्धढ नहीं कर पा रहा है फिर वह शहरी क्षेत्र में रहने वाले व्यापारियों की तरह महाजन क्यों नहीं बन जाता है। कवि का प्रश्न है कि वे कौन हैं तथा वे कौन-से कारण हैं कि वह अपने जीवन में उन्नति नहीं कर पाया। कवि का यह मानना है कि ग्रामीण परिवेश में रहनेवाले व्यापारी-वर्ग की दशा को सुदृढ़ करने के लिए सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन करने चाहिए। उसका मानना है कि देश की संपूर्ण आय का बँटवारा व्यक्ति के कर्म और गुण के आधार पर होना चाहिए।

विशेष :

  1. ग्रामीण और शहरी व्यापारी-वर्ग की आर्थिक व्यवस्था में अंतर का वर्णन किया गया है।
  2. तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग है।
  3. प्रश्नालंकार है।
  4. तुकांत का प्रयोग है।
  5. भाषा सरल, सुवोध एवं प्रसंगानुकूल है।

14. घुसे घरौदों में मिद्टी के
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
क्या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन ?
मिलकर जन निर्माण करे जग,
मिलकर भोग करें जीवन का,
जन विमुक्त हो जन-शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का ?

शब्दार्थ घरौदों – घरों। विमुक्त – स्वतंत्र।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘संध्या के बाद’ नामक कविता से अवतरित है। इस कविता के रचयिता महाकवि सुमित्रानंदन पंत हैं। इस कविता में कवि ग्रामीण परिवेश बसे निर्धन परिवारों की पीड़ाजन्य स्थितियों का वर्णन किया है और उन्हें परस्पर मिल-जुलकर जीवन जीने की सलाह दी है।

व्याख्या – कवि कहता है कि ग्रामीण परिवेश में लगभग सभी परिवार अपने-अपने मिट्टी के घरों में अलग-अलग विचारधारा के साथ जीवन जी रहे हैं। वह कहता है कि आपसी वैमनस्य और विरोधों के बजाए उन्हें सभी मिल-जुलकर सामाजिक जीवन जीना चाहिए अर्थात अलग-अलग वर्गों में न रहकर उन्हें आपसी भाई-चारे के साथ जीवनयापन करना चाहिए। उन्हें मिल-जुलकर सामाजिक सद्भावना के साथ समाज का निर्माण करना चाहिए। तभी वे सुंदर और सरल जीवन का आनंद उठा सकते हैं। समाज को बिल्कुल शोषण मुक्त बनायें और समाज में प्रत्येक व्यक्ति धन-धान्य से परिपूर्ण हो।

विशेष :

  1. समाज के सभी वर्ग आनंदपूर्ण जीवनयापन करते हुए समाज का नवनिर्माण करें।
  2. ‘घुसे घरौदों में अनुप्रास अलंकार है।
  3. ‘अपनी-अपनी’ में पुनरक्ति प्रकाश अलंकार है।
  4. तद्भव शब्दावली है।
  5. भाषा सरल, सहज, सुबोध एवम् प्रवाहमयी है।

15. दरिद्रता पापों की जननी,
मिटे जनों के पाप, ताप, भय,
सुंदर हों अधिवास, वसन, तन,
पशु पर फिर मानय की हो जय ?
व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दुःख क्लेश की,
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश देश की !

शब्दार्थ – दरिद्रता – गरीबी। जननी – माँ। ताप – दुख। अधिवास – घर। वसन – वस्त। तन – शरीर। परिपाटी – व्यवस्था। क्लेश – लड़ाईझगड़े। श्रम – मेहनत। प्रजा – जनता, आम आदमी।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘ संध्या के बाद’ नामक कविता से अवत्तरित है। इस कविता के रचयिता महाकवि सुमित्रानंदन पंत हैं। इन पंक्तियों में कवि ने समाज के प्रत्येक व्यक्ति के दुखों को समाप्त होने और सुखपूर्वक जीवन की कामना की है।

व्याख्या – कवि कहता है कि गरीबी ही आम व्यक्ति के लिए पापों की माँ है अर्थांत गरीबी ही उन्हें पाप करने के लिए मजबूर करती है। इसलिए समाज से गरीबी पूर्ण रूप से समाप्त होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति, के पास सुंदर घर, कपड़े और स्वस्थ शरीर हो। समाज में पशुता पर मानवता की विजय हो समाज में व्यक्ति के दुख और आपसी लड़ाई-झगड़ों के लिए केवल व्यक्ति ही दोषी नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था ही इसके लिए जिम्मेवार है। प्रत्येक व्यक्ति की मेहनत का फल उसे अवश्य प्राप्त होना चाहिए, अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति के पास खाने के लिए भोजन, रहने के लिए सुंदर मकान, पहनने के लिए कपड़े आदि आवश्यक चीजें होनी चाहिए तभी प्रत्येक देश की जनता सुखपूर्वक जीवनयापन कर सकती है।

विशेष :

  1. कवि ने गरीबी को ही समस्याओं की ‘माँ’ माना है।
  2. रोटी, कपड़ा और मकान समाज के प्रत्येक व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं।
  3. ‘तुकांत’ का प्रयोग है।
  4. तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग है।
  5. प्रश्नालंकार का प्रयोग है।
  6. भाषा सरल, सुबोध एवम् प्रभावशाली है।

16. दूट गया वह स्वज्न वणिक का,
आई जब बुढ़िया बेचारी,
आध-पाव आटा लेने
लो, लाला ने फिर डंडी मारी !
चीख उठा घुघ्यू डालों में
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्ती को थीरे,
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर !

शब्दार्थ : वणिक – व्यापारी, बनिया। डंडी मारना – कम तोलना। घुण्यू – स्थानीय पक्षी। पट – परदा। द्वार – दरवाज़ा। गाढ़ – अत्यधिक। अलस – आलस्य। निद्रा – नींद।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘संध्या के बाद’ नामक कविता से उद्धृत है। प्रस्तुत कविता हिंदी के महान कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित है। इस कविता ने ग्रामीण परिवेश, गरीबी और अन्य समस्याओं का चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि व्यापारी लाला अपनी दुकान काफ़ी समय बिना ग्राहक के बैठा हुआ सपना बुन रहा था। उसका सपना तब टूटा जब गाँव की एक गरीब बुढ़िया दुकान पर आधा-पाय आटा लेने के लिए आई। उस गरीब बुढ़िया के आधा पाव आटे में भी बनिये ने डंडी मारी अर्थांत उसने आटा कम तोला है। तभी दूर तक फैले पेड़ों की टहनियों पर घुघ्यू नामक पक्षी जोर-जोर से चिल्ला उठा और लोगों ने दिन निकलने के

साथ ही अपने दरवाजों पर परदे ड्डाल दिए हैं। दिन निकल आया है। सूर्य काफ़ी ऊपर चढ़ गया है परंतु फिर भी आलसी लोग सो रहे हैं और कवि कहता है कि आलसी नींद रूपी अजगर धीरे-धीरे संपूर्ण ग्राम्य परिवेश को निगल रहा है अर्थांत अभी भी लोगों ने आलस्य के कारण अपने-अपने काम शुरु नहीं किए हैं।

विशेष :

  1. कवि ने लाला की कम तोलने की प्रकृति का वर्णन किया है।
  2. आलस्य गरीबी का सबसे बड़ा कारण है।
  3. चित्रात्मक शैली है।
  4. तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग है।
  5. ‘तुकांत’ का प्रयोग है।
  6. भाषा सरल, सहज, सुवोध, प्रवाहमयी एवं प्रसंगानुकूल है।

Hindi Antra Class 11 Summary

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Class 11 Hindi Antra Chapter 15 Summary – Jaag Tujhko Door Jaana, Sab Aankho Ke Aansu Ujle Vyakhya

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जाग तुझको दूर जाना, सब आँखों के आँसू उजले Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 15 Summary

जाग तुझको दूर जाना, सब आँखों के आँसू उजले – महादेवी वर्मा – कवि परिचय

जीवन-परिचय – छायावादी काव्य में दुर्गा स्वरूप महादेवी वर्मा का जन्म सन 1907 में उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद कस्बे में हुआ। इनकी आरंभिक शिक्षा इंदौर में हुई। 12 वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह कर दिया गया, परंतु उन्होंने इस विवाह को स्वीकार नहीं किया। एक बार ससुराल से वापस आने के बाद फिर कभी वहाँ नहीं गई और स्वतंत्र जीवन जीती रहीं। उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम० ए० पास किया। कुछ समय बाद ही उनकी नियुक्ति प्रयाग महिला विद्यापीठ में ही हो गई। उन्हें इसी संस्थान (प्रयाग महिला विद्यापीठ) की प्राचार्या के पद पर कार्य करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। गांधीवादी विचारधारा तथा बौद्ध दर्शन ने महादेवी को काफ़ी प्रभावित किया। स्वाधीनता आंदोलन में भी महादेवी वर्मा ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। उन्होंने कुछ वर्षों तक ‘चाँद’ नामक पत्रिका की संपादन कार्य कुशलतापूर्वक किया। सन 1987 में वर्मा जी का देहावसान हो गया।

रचनाएँ – महादेवी वर्मा की मुख्य काव्य-कृतियाँ निम्नलिखित हैं –
काव्य संग्रह – निहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत यामा दीपशिखा।
गद्य रचनाएँ – पथ के साथी, अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, शृंखला की कड़ियाँ आदि।

साहित्यिक विशेषताएँ-महादेवी वर्मा छायावादी काव्य में एक प्रमुख स्तंभ हैं। उनके काव्य में जन-जागरण की चेतना के साथ स्वतंत्रता की कामना भी अभिव्यक्त की गई है। उन्होंने भारतीय समाज में नारी पराधीनता के यथार्थ और स्वतंत्रता की विवेचना की है। नारी के दुख, वेदना और करूणा की त्रिवेणी ने महादेवी को अन्य कवियों से अधिक संवेदशील एवं भानुक बना दिया है। अपनी प्रेमानुभूति में उन्होंने अज्ञात एवं असीम प्रेमी को संबोधित किया है, इसलिए आलोचकों ने उसकी कविता में रहस्यवाद को खोजा है। अपने आराध्य प्रियतम के प्रति महादेवी वर्मा ने दुख की अनुभूति के साथ करुणा का बोध भी अभिव्यक्त किया है।

छायावादी काव्य में प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है। अन्य छायावादी कवियों की भाँति महादेवी की कविता में भी प्रकृति-साँदर्य के विविध चित्र अंकित हैं। प्रकृति-चित्रण के माध्यम से उन्होंने मानवीय अनुभूतियों को भी अभिव्यक्त किया है। उनके गीतों में भक्तिभाव एवं लोक काव्य का समिश्रण है। मानसिक द्वंद्व को महादेवी वर्मा के साहित्य की अन्य प्रवृत्ति माना जा सकता है।

महादेवी वर्मा एक सफल गद्यकार भी हैं। उन्होंने गद्य कृतियों में नारी स्वतंत्रता, असहाय चेतना और कमज़ोर वर्ग के प्रति संवेदनशील अनुभूतियाँ अभिव्यक्त की हैं। उन्होंने सामान्य अपनी मानवीय संवेदनाओं को अपने साहित्य की मूल प्रवृत्ति बनाया है।

भाषा-शैली – महादेवी वर्मा का काव्य-गीत और संगीत का सामंजस्य है। काव्यमय संगीत के कारण उनकी कविता अत्यंत आकर्षक एवं विशिष्ट हो गई है। उनकी काव्य-शैली में चित्रात्मकता, बिंबात्मकता एवं लाक्षणिकता का सुंदर समन्वय है। महादेवी वर्मा की कविता में बिंबों और प्रतीकों की सुंदर योजना काव्य-सौँदर्य में बढ़ोतरी करती है। उनके काव्य में तत्सम शब्दों में अत्यधिक प्रयोग हुआ है।

महादेवी की उत्कृष्ट काव्यकृति ‘यामा’ के लिए उन्हें ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार प्राप्त हुआ। भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ अलंकरण से भी सम्मानित किया गया।

Jaag Tujhko Door Jaana, Sab Aankho Ke Aansu Ujle Class 11 Hindi Summary

प्रथम गीत का सार –

‘अंतरा’ पाठ्य-पुस्तक में निर्धारित महादेवी वर्मा रचित प्रथम गीत में स्वतंत्रता आंदोलन की परिस्थितियों का अंकन है। इस गीत में कवयित्री भारतीयों को भीषण कठिनाइयों की चिंता न करके निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। कोमल बंधनों को तोड़कर स्वतंत्रताप्राप्ति का लक्ष्य प्राप्त करना प्रत्येक भारतीय का प्रथम कर्तव्य है। इस गीत के माध्यम से महादेवी वर्मा यही आहवान करती है। महादेवी वर्मा उद्बोधन करते हुए संदेश देती हैं कि मानव को अपने देश के प्रति सदैव कर्तव्यनिष्ठ रहना चहिए। उन्होंने देश के नागरिकों को यह संदेश प्रतीकात्मकता के माध्यम से प्रत्तुत किया है। देश के प्रति गहरी अनुभूतियाँ गीत को अत्यंत संवेदनशील बना देती हैं।

उनका मानना है कि प्रत्येक भारतीय को कोमल रूपों में विचरण न करके स्वतंत्रता-प्राप्ति के तुफान का मुकाबला करना चाहिए। स्वतंत्रता-प्राप्ति के संघर्ष के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति आनेवाली पीढ़ियों के समय एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है। वे कहती हैं कि मानवीय बंधन हमें लक्ष्य पथ से विचलित कर सकते हैं इसलिए मानवीय बंधन एवं रिश्ते हमारे लिए कारागार (जेल)के समान हैं। महादेवी वर्मा ने मनुष्य को अमरता का सुत कहा है और उसे सावधान किया है कि इन सांसारिक बंधनों में पड़कर वह अपने जीवन को निरर्थक क्यों बना रहा है। उनका मानना है कि संघर्ष में अगर पराजय भी मिलती है तो उसे भी विजय की भाँति स्वीकार करना चाहिए क्योंकि एक दिन यही पराजय विजय में परिवर्तित होगी। विजय-प्राप्ति और मोह बंधनों से छुटकारा पाने के लिए महादेवी वर्मा मनुष्य का आह्वान करते हुए कहती हैं कि ‘जाग तुझको दूर जाना।’

द्वितीय गीत का सार –

महादेवी वर्मा ने दूसरा गीत ‘सब आँखों के आँसू उजले’ में उन सर्वमान्य सत्यों की व्याख्या की जिन्हें हमें प्रकृति ने प्रदान किया है। प्रकृति के अनेक चित्रों में उन्होंने मकरंद, निद्झर, तारक-समूह, मोती, नीलम, हीरा और पन्ना आदि प्रतीकों के माध्यम से नानवीय सत्य को उद्घाटित किया है। उनका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के आँसुओं में एक सत्य निहित होता है। मनुष्य के सुख और दुख में एक अलौकिक शक्ति होती है। जीवन के सत्य ही पर्वत का सीना चीरकर सैकड़ों चंचल झरनों के रूप में धरती को भेट करते हैं। कविता के अंत में कवयित्री कामना करती हैं कि हे परमात्मा अपनी सांसारिक जीवन-यात्रा में मैंने अनेक अच्छे-बुरे अनुभव प्राप्त किए हैं। इन्हीं-सुखों और दुखों के बीच में से मेरे प्राण अकेले चले जा रहे हैं इसलिए मेंर जीवन को नवजीवन दे दो। बस जीवन रूपी सपने की यही सच्चाई है।

जाग तुझको दूर जाना, सब आँखों के आँसू उजले सप्रसंग व्याख्या

1. जाग तुझको दूर जाना !

1. चिर सजग आँखें उर्नीदी आज कैसा व्यस्त बाना !
जाग तुझको दूर जाना !
अचल हिमगिरी के द्ददय में आज चाहे कंप हो ले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जाग कर विद्युत-शिखाओं में निठुर तूफ़ान बोले !
पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना
जाग तुझको दूर जाना !

शब्दार्थ – सजग-सचेत, जागृत। उनींदी-नींद से भरी हुई। बाना-वेशभूषा, पहनावा।अचल-स्थिर, अटल। हिमगिरी-पर्वत, हिमालय। प्रलय-तूफ़ान। मौन-चुपचाप। क्योम-आकाश। आलोक-प्रकाश। तिमिर-अंधेरा।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित गीत ‘जाग तुझको दूर जाना’ से उद्धृत है। यह गीत महादेवी वर्मा द्वारा रचित है। इस गीत के माध्यम से कवयित्री मानव को निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।

व्याख्या – कवयित्री कहती हैं कि हे मानव ! तुम नींद को त्यागकर जागृत हो जाओ क्योंकि तुम्हारी मंजिल अभी बहुत दूर है। इस मंज़ल को पाने के लिए तुम्हे निरंतर सचेत एवं जागरूक बने रहना है परंतु तुम्हारी आँखों में तो अभी नीद छाई हुई है और तुम्हारी वेशभूषा भी उचित नहीं है। तुम अभी से थक गए तो तुम्हें मंज़िल कैसे प्राप्त होगी, इसलिए तुम्हें जागना ही होगा। आज स्थिर हिमालय पर्वत के हृदय में चाहे कितने ही कंपन हो जाएँ अर्थात कितने ही भूकंप आएँ। चाहे आँधी और तूफ़न के कारण आकाश चुपचाप आँसू बहाता रहे, परंतु तुम्हें नहीं रुकना हैं क्योंकि तुम्हें बहुत दूर जाना है इसलिए तुम्हें निरतर जागरूक एवं सचेत रहना है, इसी में ही तुम्हारा जीवन है। आगे वर्णन करते हुए महादेवी वर्मा कहती हैं कि आज चाहे अंधकार की प्रचंड छाया संपूर्ण प्रकाश को अंधकार में परवर्तित कर दे, चाहे निष्ठुर तूफ़ान संपूर्ण आकाश में आकाशीय बिजलियों की वर्षा कर दे, परंतु तुम्हें निरंतर चलते हुए इस विनाश के रास्ते में अपने पैरों के निशान छोड़ते जाना है, इसलिए तुम्हें निरंतर जागना ही होगा, चलना ही होगा।

विशेष :

  1. कवयित्री ने मानव को निरंतर जागृत रहने की प्रेरणा दी है।
  2. मनुष्य को संघर्ष में भी जीवन को चलायमान रखना चाहिए।
  3. चित्रात्मक शैली है।
  4. वीर, भयानक और करूण रस मुखर हुए हैं।
  5. रूपक और मानवीकरण अलंकार की शोभा दर्शनीय है।
  6. भाषा, सरल, सुबोध एवं गंभीर हैं।
  7. तत्सम शब्दों की अधिकता है।

2. बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले ?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले ?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे बह फूल के दल ओस-गीले ?
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना !
जाग तुझको दूर जाना !

शब्दार्थ सजीले-सुंदर, आकर्षक। पंथ-रास्ता। क्रंदन-पीड़ा, दुख। मधुप-भैवरा। मधुर-मिठास। दल-समूह । कारा-कारागार, जेल।

प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘ अंतरा’ में संकलित ‘ जाग तुझको दूर जाना!’ नामक गीत से अवतरित है । इस गीत की रचयिता छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा हैं। इस गीत के माध्यम से उन्होंने मानव को निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है।

व्याख्या – कवयित्री मानव को संबोधित करते हुए कहती हैं कि है मानव ! जब से तूने जन्म लिया है तू संसार के मोह-माया के बंधनों में बँध गया है और अपने रास्ते से विचलित हो गया है परंतु प्रश्न यह है कि ये मोम के समान पिघल जाने वाले सुंदर सांसारिक बंधन क्या तुम्हें बाँध लेंगे ? अर्थात् क्या तू मोहमाया के बंधनों में पड़कर अपनी मंंज़िल से भटक जाएगा, ये तितलियों के रंग-बिरंगे पंखों रूपी जीवन की सुख-सुविधाएँ क्या तुम्हारी मंज़िल के रास्ते में रुकावटें बन पाएँगी ? क्या तुम्हें भँवरों की यह मधुर गुंजार विश्व की पीड़ाओं, वेदनाओं और दुखों को नज़र अंदाज कर देगी ? अर्थात क्या भैवरों के मीठे-गीत सुनकर तुम विश्व की पीड़ा को भूल जाओगे ? तुम्हारे जीवन पथ में फूलों के गुच्छों पर ठंडी और मुलायम ओस की बूँदे क्या तुम्हें डूबो देंगी ? अर्थात क्या तुम्हें पथभ्रष्ट कर देंगी ? कवयित्री का मानना है कि नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। एक बार फिर वे मानव को सचेत करते हुए कहती हैं कि तुम अपने जीवन की सुख-सुविधाओं रूपी छाया को अपने लिए कारागार मत बनाना अर्थात अपनी इच्छाओं में स्वयं को मत बाँधना, क्योंकि तुम्हें बहुत दूर जाना है अर्थात तुम्हें अपने जीवन में अभी बहुत कुछ करना है।

विशेष :

  1. कवयित्री ने मानव को सुख-सुविधाएँ छोड़कर सदैव कर्म-क्षेत्र में चलते रहने की प्रेरणा दी है।
  2. मनुष्य को अपने जीवन के सुखों के कारण संसार के दुखों को नहीं भूलना चाहिए।
  3. प्रश्न एवं रूपक अलंकार का प्रयोग सराहनीय है।
  4. चित्रात्मक शैली विद्यमान है।
  5. भाषा सरल, सुबोध एवं ओजपूर्ण है।

3. वज्र का उर एक छोटे अश्रुकण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो यूँट मदिरा माँग लाया ?
सो गई आँधी मलय की वात का उपधान ले क्या ?
विश्व का अभिशाप क्या चिर नींद बनकर पास आया?
अमरता-सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना ?
जाग तुझको दूर जाना !

शब्दार्थ – वज्र-चट्टान। उर-हुदय। अश्रुकण-आँसू। गलाया-खत्म करना। सुधा-अमृत। मदिरा-शराब, नशा। मलय-चंदन। वात-वायु, हवा। सुत-सपुत्र, बेटा।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘जाग तुझको दूर जाना’ नामक गीत से उद्धृत है। इन पंक्तियों में कवयित्री ने मनुष्य को निरंतर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दी है।

व्याख्या – मानव को संबोधित करते हुए महादेवी वर्मा कहती हैं कि हे मानव ! क्या तूने अपने चट्टान के समान हृदय को एक छोटे-से आँसू में गलाकर खत्म कर दिया है अर्थात् तेरा चट्टान-सा हृदय एक थोड़े से आँसुओं में द्रवित हो गया। फलस्वरूप तू अपने रास्ते से विचलित हो गया है। तू अपने जीवन रूपी अमृत को किसी को देकर उसके बदले में शराब माँग लाया है अर्थात् क्या तू अपने जीवन के उद्देश्य को छोड़कर जीवन की विषय-वासनाओं में खो गया है।

क्या तेरे मेरे अंतर्मन में चलनेवाली संसार की पीड़ाओं की आँधी चंदन की सुगंधित, मंद-मंद बहती वायु में खो गई है ? अर्थात् संसार की मोहमाया ने तेरे जीवन के उद्श्य को भूला दिया है और संसार का अंधकारमय अभिशाप तेरे लिए क्या लंबी नीद बनकर तुझपर छा गया है ? कवयित्री एक बार फिर कहती हैं है मानव ! तू अमरता का बेटा है, अर्थात तुम्हें अमर रहकर संसार की वेदनाओं और पीड़ाओं को खत्म करना है, परंतु तू अपने रास्ते से भटककर मौत को गले लगाना चाहता है। तू ऐसा कदापि नहीं कर सकता क्योंकि तुम्हें अभी बहुत दूर जाना है अर्थात् अभी संसार में अनेक कार्य करने हैं।

विशेष :

  1. कवयित्री संसार के दुखों को दूर करने का आह्वान करती है।
  2. मनुष्य को सदैव दूसरों के दुख दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
  3. प्रश्न एवं रूपक अलंकार हैं।
  4. चित्रात्मक एवं वर्णनात्मक शैली है।
  5. तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
  6. भाषा सरल, सुबोध एवं गंभीर है।
  7. संबोधन शैली मुखर है।

4. कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी;
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;
हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग को है अमर दीपक की निशानी !
है तुझे अंगार-शख्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना !
जाग तुझको दूर जाना।

शब्दार्थ – उर-हृद। दुग-आँखें। मानिनी-गरिमापूर्ण, स्वाभिमानी। जय-विजय, जीत। पताका-झंडा /ध्वज। क्षणिक-थोड़ा समय। पतंग-कीट। शय्या-सेज, बिस्तर। मृदुल-कोमल।

प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘जाग तुझको दूर, जाना’ गीत से उद्धृत है। यह गीत महादेवी वर्मा द्वारा रचित है। इस कविता में महादेवी वर्मा मनुष्य का आह्वान करते हुए कहती है कि मनुष्य को सदैव जीत के लिए तत्पर रहना चाहिए।

व्याख्या – कवयित्री महादेवी वर्मा मानव का आह्वान करते हुए कहती हैं कि हे मानव ! तेरा जीवन आग में जलती कहानी है अर्थात् दुखों और संघर्षों से भरा पड़ा हैं, इसलिए इस संघर्षमय कहानी को ठंडी साँसों से मत कह। अर्थात जीवन ठंडी आहें भरने का नाम नहीं बल्कि जलती हुई चिंगारी है। जब मनुष्य के हदय में दुखों और संघर्षों की ज्वाला भड़कती है तभी उसकी आँखें अभ्नु से पूरित होती हैं। अगर तू इस जीवन-संघर्ष में हार भी गया तो वह तेरी पराजय न होकर विजय होगी क्योंकि हार में ही जीत के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। दीपक की लौ के चारों ओर चक्कर काटकर जलना और राख बनना तो केवल क्षणभर जीवन जीने वाले पतंगे के लिए होता है, परंतु दीपक की लौ सदा जलती रहती है अर्थात् अमर होती है। है मानव ! तुझे सदैव अंगारों भरी शैव्या (बिस्तर)पर कोमल कलियों को बिछाना है अर्थात तुम्हें अपने जीवन-पथ में कष्टों और संघर्षों को झेलकर दूसरों को सुखों के अवसर पैदा करने हैं। तुम्हें रूकना नहीं है क्योंकि तुम्हारी मंज़िल अभी बहुत दूर है अर्थात तुम्हें जीवन में अभी दूसरों के लिए बहुत काम करने शेष हैं।

विशेष :

  1. कवयित्री ने मनुष्य को सदा दूसरों के लिए काम करने की प्रेरणा दी है।
  2. संबोधन, चित्रात्मक एवं ओजपूर्ण शैली है।
  3. तत्सम शब्दावली का प्राधान्य है।
  4. ‘तुकबंदी’ का प्रयोग है।
  5. रूपक एवं विरोधाभास अलंकार की शोभा दर्शनीय है।
  6. भाषा सरल, सुबोध, एवं गंभीर है।

2. सब आँखों के आँसू उजले

1. सब आँखों के आँसू उजले सबके सपनों में सत्य पला!
जिसने उसको ज्वाला साँपी
उसने इसमें मकरंद भरा,
आलोक लुटाता वह घुल-घुल
देता झर यह सौरभ बिखरा !
दोनों संगी पथ एक किंतु कब दीप खिला कब फूल जला ?

शब्दार्थ – मकरंद-फूलों का रस। आलोक-प्रकाश। सौरभ-सुगंध। संगी-मित्र। पथ-रास्ता।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित महादेवी वर्मा द्वारा रचित गीत ‘सब आँखों के आँसू उजले’ से उद्धृत है। इस गीत में कवयित्री ने जीवन की सच्चाइयों को प्रकृति के माध्यम से उद्धाटित किया है।

व्याख्या – महादेवी वर्मा का मानना है कि जीवन रूपी सपने में सुख और दुख निरंतर आते-जाते रहते हैं । इन्हीं सुख और दुख के कारण मनुष्य की आँखों में आँसू आते रहते हैं अर्थात कभी सुखों और कभी दुखों के कारण मनुष्य की आँखें आँसुओं से भर जाती हैं। ये सब सुख और दुख प्रदान करने वाला परमात्मा है। यही इस ज़िदगी रूपी स्वप्न की सच्चाई है। संसार को आग देनेवाला और फूलों को मधुर रस प्रदान करनेवाला परमात्मा ही है अर्थात कभी वह दुख देता और कभी वह सुख प्रदान करता है । कभी वह संसार को सूर्य के प्रकाश से भर देता है और कभी चारों तरफ़ फूलों की सुगंध भर जाती है । दीपक और फूल दोनों का रास्ता एक है अर्थात दीपक संसार को प्रकाशवान बनाता है और फूल संसार को सुगंध से भर देता है परंतु दीप कब जलेगा और कब कलियाँ फूल बनकर संसार को सुगंध से भर देंगी यह केवल परमात्मा ही जानता है।

विशेष :

  1. कवयित्री ने संसार के सत्य को प्रकृति के माध्यम से चित्रित किया है।
  2. ‘घुल-घुल’ पुनरक्ति प्रकाश अलंकार है।
  3. तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग है।
  4. वर्णनात्मक शैली है।
  5. भाषा सरल, सहज और बोधगम्य है।

2. वह अचल धरा को भेंट रहा
शत-शत निर्झर में हो चंचल,
चिर परिधि बना भू को घेरे
इसका नित उर्मिल करुणा-जल !
कब सागर उर पाषाण हुआ, कब गिरी ने निर्मम तन बदला ?

शब्दार्थ – अचल-स्थिर। धरा-धरती। शत-शत-सौ-सौ। निई्ईर-झरना। परिधि-गोलाकार। भू-धरती। पाषाण-पत्थर। गिरी-पर्वत।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाट्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित गीत ‘सब आँखों के आँसू उजले’ से अवतरित है । इस गीत की रचयिता ‘महादेवी वर्मा’ हैं। कवयित्री ने इस गीत द्वारा जीवन की सच्च्वाई को प्रकृति के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

व्याख्या – कवयित्री कहती हैं कि जीवन का सत्य ही सौ-सौ धाराएँ बनकर चंचल झरने के रूप में स्थिर धरती से मिलकर एकाकार हो जाता है। परमात्मा द्वारा प्रदान जीवन की सच्चाई ही सागर का करुणा जल-बनकर संपूर्ण पृथ्वी को चारों ओर से घेर लेती है। यह परमात्मा के बाद कोई नहीं जानता कि कब चंचल सागर का हृदय पत्थर जैसा कठोर हो जाए और कब स्थिर एवं कठोर पर्वत अपने रूप को परवर्तित कर समतल रूप धारण कर ले। ये सभी सत्य परिवर्तन केवल परमात्मा की इच्छा पर निर्भर करते हैं।

विशेष :

  1. भारतीय अध्यात्म के अनुसार बड़े-बड़े भौगोलिक परिवर्तन परमात्मा की इच्छा पर ही निर्भर करते हैं।
  2. मानवीकरण और पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार हैं।
  3. वर्णनात्मक शैली से युक्त पद है।
  4. तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
  5. भाषा सरल और गंभीर है।

3. नभ-तारक-सा खंडित पुलकित
यह क्षुर-धारा को चूम रहा,
वह अंगारों का मधु-रस पी
केशर-किरणों-सा झूम रहा !
अनमोल बना रहने को कब टूटा कंचन हीरक, पिघला ?
शब्दार्थ नभ-आकाश। तारक-सा-तारों जैसा।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्युप्तक ‘अंतरा’ में संकलित कविता ‘सब आँखों के आँसू उजले’ से उद्धृत है। यह कविता महादेवी वर्मा द्वारा रचित है। इस कविता में कवयित्री ने जीवन सत्यों को प्रकृति के माध्यम से चित्रित किया है।

व्याख्या – कवयित्री कहती हैं कि सूर्य के अस्त होते ही वातावरण अंधकारमय हो जाता है फलस्वरूप दिन का सूर्य रूपी सत्य रात को चाँद सितारे बनकर आकाश को चूमता प्रतीत होता है। यही सत्य दिन की गरमी को खत्म कर ठंडक रूपी मधुर रस में परिवर्तित कर देता है । चाँद सितारे वातावरण को शीतलता प्रदान करते हुए ऐसे प्रतीत होते हैं मानो केसर किरणों के समान झूम रहे हों। स्वयं को अमूल्य बनाने के लिए स्वप्न कब शीशे के समान टूटकर स्वयं को कब हीरा बना लेते हैं। जीवन की इस सच्चाई को केवल परमात्मा ही जानता है। अर्थात जीवन के स्वप्न को सत्य में परिवर्तित केवल परमात्मा ही कर सकता है।

विशेष :

  1. प्रकृति परिवर्तन का सहज चित्रण है।
  2. प्रकृति परिवर्तन में ही सत्य समाहित होता है।
  3. उपमा और विरोधाभास अलंकार का प्रयोग है।
  4. तत्सम और तद्भव शब्दों का मिश्रण है।
  5. पद वर्णनात्मक शैली से युक्त है।
  6. भाषा बोधगम्य एवं गंभीर है।

4. नीलम मरकत के संपुट दो
जिनमें बनता जीवन-मोती,
इसमें बलते सब रंग-रूप
उसकी आभा स्पंदन होती !
जो नभ में विद्युत मेघ बना वह रज में अंकुर हो निकला !

शब्दार्थ – नीलम-नीले रंग का बहुमूल्य पत्थर। मरकत-पन्न।।आभा-चमक।स्पंदन-किसी वस्तु का धीर-धीरे हिलना या कॉँपना। विद्युत-बिजली। मेघ-बादल। रज-धूल, मिट्टी।

प्रसंग – प्रस्तुत कवितांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित महादेवी वर्मा द्वारा रचित गीत ‘सब आँखों के आँसू उजले ‘से अवतरित है। इस गीत के माध्यम से कवयित्री ने जीवन की सच्चाई को प्रकट किया है।

व्याख्या – कवयित्री कहती हैं कि परमात्मा नीले रंग के बहुमूल्य पत्थर और पन्ना सच्चाइयों की चमक को जोड़कर जीवन रूपी मोती का निर्माण करता है। इसी जीवन रूपी मोती में ही सभी प्रकार के रूप-रंग निर्मित होते हैं। इस जीवन में ही सत्य की चमक स्पंदित होती है अर्थात सत्य ही जीवन होता है। यह सत्य ही आकाश में बिजली के रूप में चमक जाता है और धरती का हदयय फोड़कर अंकुरित होनेवाला बीज भी सत्य का ही अंश है। अर्थात जीवन के प्रत्येक घटनाक्रम में परमात्मा की सच्चाई निहित होती है।

विशेष :

  1. कवयित्री ने जीवन की सच्चाई को प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।
  2. रूपक अलंकार की शोभा है।
  3. तत्सम शब्दों की अधिकता है।
  4. भाषा सरल, सहज एवं गंभीर है।

5. संसुति के प्रति पग में मेरी
साँसों का नव अंकन चुन लो,
मेरे बनने-मिटने में नित
अपनी साधों के क्षण गिन लो।
जलते खिलते बढ़ते जग में घुलमिल एकाकी प्राण चला !
सपने-सपने में सत्य बला !

शब्दार्थ – संसुति-संसार। पग-कदम। एकाकी-अकेला।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘ अंतरा’ में संकलित कविता ‘सब आँखों के आँसू उजले’ से उद्धृत है। यह कविता महादेवी वर्मा द्वारा रचित है। इस कविता में कवयित्री ने जीवन के सत्यों को प्रकृति के माध्यम अभिव्यक्त किया है।

व्याख्या – कविता की अंतिम पंक्तियों में कवयित्री कहती हैं कि हे परमात्मा ! मेरी इस सांसारिक जीवन-यात्रा में मेरी साँसों ने प्रतिपग मेरा साथ दिया है। अब मेरे जीवन का अंत निकट है इसलिए मेरे जीवन को नवजीवन दे दो। मेरे प्रतिपल परिवर्तित होते जीवन में तुमने कितनी साधनाएँ की होंगी, ज़रा उन्हें भी गिन लीजिए। अब दुख और सुख एकाकार होकर मेरे प्राण को ले जा रे हैं अर्थात मेरे जीवन का अंत आ गया है। अपनी जीवन-यात्रा के माध्यम से मैंने यह जान लिया है कि जीवन के प्रत्येक स्वप्न में सत्य निहित होता है। अर्थात सत्य ही स्वप्न बनकर जीवन को रोमांचित बनाए रखता है।

विशेष :

  1. कवयित्री ने जीवन की सच्चाई को व्यक्त किया है।
  2. संबोधन एवं वर्णनात्मक शैली है।
  3. तत्सम शब्दावली है।
  4. तुकबंदी प्राधान्य है।
  5. भाषा सरल, सहज, बोधगम्य एवं गंभीर है।

Hindi Antra Class 11 Summary

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Class 11 Hindi Antra Chapter 16 Summary – Neend Uchat Jaati Hai Vyakhya

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नींद उचट जाती है Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 16 Summary

नींद उचट जाती है – नरेंद्र शर्मा – कवि परिचय

जीवन-परिचय – कविवर नरेंद्र शर्मा का जन्म 2 फरवरी, 1923 को गाँव जहाँगीरपुर, ज़िला, बुलंदशहर (उ० प्र०)में हुआ था। इनकी माता का नाम श्रीमती गंगादेवी और पिता का नाम पं० पूरनमल शर्मा था। चूँकि इनके घर पर आर्य समाज का प्रभाव था इसलिए इनकी भी आर्य समाज में गहरी आस्था थी। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हुई। इनके बाद उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए ये इलाहाबाद चले गए। सन 1936 में इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की।

सन 1940 में नरेंद्र शर्मा जी काशी विद्यापीठ में शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए। जवाहरलाल नेहरू के सहायक सचिव रहते हुए इन्होंने अनेक स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लिया। इसी कारण इन्हें दो वर्ष तक विभिन्न जेलों में जाना पड़ा। मुंबई की फ़िल्मी दुनिया ने भी नरेंद्र शर्मा को आकर्षित किया। सन 1943 में ये मुंबई फ़िल्मी दुनिया से जुड़ गए। वहाँ इन्होंने अनेक फ़िल्मों के कथानक संवाद और गीत लिखे। सन 1953 में ये आकाशवाणी में ‘विविध भारती’ कार्यक्रम के संचालन के रूप में कार्यरत रहे। साठ वर्ष की उम्र में इन्होंने नौकरी से अवकाश प्राप्त किया। 11 फरवरी. 1989 को इनका स्वर्गवास हो गया।

रचनाएँ – उनकी प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
काव्य-संग्रह – प्रभात फेरी, प्रवासी के गीत, पलाश वन, प्रीति-कथा, मिट्टी के फूल, कामिनी, हैंस भाला, रक्तचंदन, कदली वन, प्यासा निर्दर, सुवर्ण, बहुत रात गए, उत्तर-जय आदि।
खंड काव्य-द्रौपदी।

साहित्यिक विशेषताएँ – नेंद्र शर्मा मूलतः गीतकार हैं। उत्तर छायावादी गीतकारों में इनकी अपनी एक विशिष्ट पहचान है। ये प्रगतिवाद से भी खासे प्रभावित थे। इनके काव्य में प्रकृति के अनेक चित्र अंकित हैं। उन्होंने प्रकृति का उद्दीपन एवं आलंबन दोनों रूपों में चित्रण किया है। प्रेम की विरह अभिव्यक्ति और प्रकृति के माधुर्य एवं कोमल रूप को इन्होंने एकांतर रूप में चित्रित किया है। काव्य-यात्रा के अंतिम दौर में ये आध्यात्मिकता एवं दार्शनिकता की ओर मुड़ गए। फ़ल्मी गीतों में भी इन्होंने साहित्यिकता को बनाए रखा है। फ़िल्मी गीतकार के रूप में यही साहित्यिकता इनकी अलग पहचान रखती है। उन्होंने निम्न वर्ग का उत्थान एंव नारी अस्मिता और प्रगति का समर्थन निरंतर अपनी कविताओं में किया है।

भाषा-शैली – नरेंद्र शर्मा की भाषा भावों को अभिव्यक्त करने में पूर्णतः सक्षम है। इनकी भाषा आम आदमी तक सीधी पहुँच रखती है। भाव चाहे जैसा भी है पाठक इनके भाव से सीधे जुड़ जाता है। इनकी कविता में तत्सम, तद्भव, देशज तथा अरबी, फ़ारसी सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग सहजता के साथ हुआ है। इनकी कविता में छंदों का विशेष स्थान है। गीतिका, हरिगीतिका इनके प्रिय छंद रहे हैं। अलंकार इनकी भाषा में सरसता एवं रोचकता पैदा करते हैं। उपमा, रूपक, अन्योक्ति, मानवीकरण और उत्र्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग इन्होंने स्वाभाविकता के साथ किया है। लाक्षणिकता और अभिधात्मकता का मिश्रण कविता में रोचकता पैदा करता है। प्रबंध एवं मुक्तक काव्य शैलियों के माध्यम से भावों का संतुलन बनाया गया है। वस्तुत: नेंद्र शर्मा की भाषा सरल, सरस, रोचक, भावानुकूल एवं स्वाभाविक है।

Neend Uchat Jaati Hai Class 11 Hindi Summary

इस कविता के माध्यम से कवि ने व्यक्ति और समाज में व्याप्त निराशा को उजागार किया है। इस कविता में कवि ने ऐसी रात का वर्णन किया है जो समाप्त होने का का नाम ही नहीं लेती। इस लंबी रात में कवि अनेक भयावह सपने देखता है, फलस्वरूप उसकी नींद उचट जाती है। उन्हें चारो ओर अँधेरा दिखाई देता है। वह अनुभव करता है कि अंतर्मन में समाए हुए डर के बजाय बाहर का डर अधिक भयानक है। कवि के अंतर्मन और समाज में व्याप्त अँधेरा खत्म होने का नाम नहीं लेता जिससे उसका मन न केवल दुखी होता है अपितु समाज की समस्याएँ भी उसे बेचैन करती हैं। फलस्वरूप वह रातभर करवटें बदलता रहता है। कवि चाहता है कि जब तक धरती पर रात का अँधेरा व्याप्त है तब तक वह सजीव से निर्जीव बन जाए अर्थात नींद की गोद में जाकर वह सामाजिक अव्यवस्था को भूल जाना चाहता है। वह न केवल अपने विषय में सोचकर परेशान है, बल्कि समाज के दुख एवं पीड़ाएँ उन्हें सोने नहीं दे रहे हैं।

नींद उचट जाती है सप्रसंग व्याख्या

1. जब-तब नींद उचट जाती है
पर क्या नींद उचट जाने से
रात किसी की कट जाती है ?
देख-देख दु:स्वप्न भयंकर
चाँक-च्चांक उठता है, डरकर;
पर भीतर के दुःस्वप्नों से
अधिक भयावह है तम बाहर !
आती नहीं उषा, बस केवल
आने की आहट आती है !

शब्दार्थ – नींद उचटना – अचानक नींद से जागना। दुस्वप्न – डरावना सपना। भयावह – डरावना। तम – अँधेरा। आहट -हलकी आवाज़। उषा – सुबह, सवेरा। नयन – आँखें।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘ अंतरा ‘ में संकलित ‘ नींद उचट जाती है ‘ से अवतरित हैं। इस कविता के रचयिता नरेंद्र शर्मा हैं। कवि ने इस कविता में एक ऐसी लंबी रात का वर्णन किया है जो खत्म होने का नाम नहीं लेती। इस लंबी रात में कवि अनेक भयानक एवं डरावने सपने देखते हैं। फलस्वरूप उनकी नींद खराब हो जाती है। उन्हें चारों ओर, अँधेरा-ही-अँधेरा दिखाई पड़ता है। वे अनुभव करते हैं कि अंतर्मन में समाए हुए डर की बजाय बाहर का डर अधिक भयानक है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि रात में अचानक बुरे और डरावने सपने देखने के कारण मेरी नींद खराब हो जाती है और जब यह नींद खराब हो जाती है तो फिर रात लंबी लगने लगती है तथा रात समाप्त होने का नाम नहीं लेती। नींद उचट जाने के बाद कवि अनुभव करता है कि हदयय में जो डर समाया हुआ है उससे कहीं अधिक डराबना अँधेरा तो बाहर बहुत दूर तक फैला हुआ है। बाहर का अंधेरा हमें अधिक भयभीत करता है। जीवन में सुबह का आगमन नहीं होता है । रात लंबी होती चली जाती है। ऐसा संकेत मिलता है कि सुबह होनेवाली है, परंतु एक बार फिर अँधेरा गहरा होने लगता है। अर्थात् जीवन में सुख की अपेक्षा दुख अधिक गहरा है। ऐसा लगता है कि सुख बस आने ही वाला है, परंतु सदैव दूर चला जाता है।

विशेष :

  1. कवि ने व्यक्ति के जीवन में व्याप्त निराशा का वर्णन किया है।
  2. अँधेरा दुख का प्रतीक है।
  3. देख-रेख, चाँक-चाँक में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  4. प्रश्नालंकार का भी स्वाभाविक प्रयोग है।
  5. भाषा सरल, सुबोध और प्रसंगानुकूल है।

2. देख अँधेरा नयन दूखते,
दुश्चिंता में प्राण सूखते !
सन्नाटा गहरा हो जाता,
जब-जब श्वान शृगाल भूँकते !
भीत भावना, भोर सुनहली
नयनों के न निकट लाती है !

शब्दार्थ – दुश्चिंता – दुख देनेवाली चिंता। श्वान – कुत्ता। शृंगाल – गीदड़, सियार। भीत – डर। भोर – सवेरा। सुनहली – सुंदर। नयन – आँखें।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाढ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित नरेंद्र शर्मा द्वारा रचित कविता ‘नीद उचट जाती है’ से अवतरित है । इस कविता में कवि ने लंबी रात का वर्णन किया है जिसमें कवि को डरावने सपने आते हैं और उनकी नींद खराब हो जाती है। बाहर चारों तरफ़ अँधेरा है। कवि का मानना है कि मन के अंधकार से भयानक बाहर का अंधकार है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि जब में बाहर के डरावने अंधकार को देखता हूँ तो मेरी आँखें दुखने लगती हैं। दुख की चिंता के कारण मेरे प्राण निकलने लगते हैं। अनेक बुरी चिंताएँ मुझे चारों ओर से घेर लेती हैं। बाहर अंधकार में चुप्पी समाई हुई है तथा चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है। इस गहरे और सुनसान अंधकार में जब कुत्ते और गीदड़ अजीब तरह की डरावनी आवाज़ में भौकने लगते हैं तो यह रात और अधिक भयानक लगने लगती है तथा सुंदर और आशावादी सुबह आँखों के पास तक नहीं आ पाती है अर्थात् सुख के क्षण दूर होते चले जाते हैं तथा इन्हीं सुखी क्षणों की और अधिक प्रतीक्षा करनी पड़ती है ।

विशेष :

  1. कवि बाहर के अंधकार को मन के अंधकार से भी अधिक भयानक मानते हैं।
  2. कुत्तों और गीदड़ों की भयानक आवाज़ें अंधेरी रात को और अधिक भयानक बना देती हैं।
  3. ‘जब-जब’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  4. ‘भीत भावना’ में अनुप्रास अलंकार है।
  5. लाक्षणिकता एवं प्रतीकात्मकता है।
  6. लय एवम् गेयता है।
  7. तत्सम एवं तद्भव शब्दों का मिश्रण है।
  8. भाषा सरल, सुबोध एंव प्रसंगनुकूल है।

3. मन होता है फिर सो जाऊँ,
गहरी निद्रा में खो जाऊँ;
जब तक रात रहे धरती पर,
चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ !
उस करवट अकुलाहट थी, पर
नींद न इस करवट आती है !

शब्दार्थ – निद्रा – नींद। चेतन – सजीव, जानदार। जड़ – निर्जीव, बेजान। अकुलाहट – बेचैनी, व्याकुलता।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित कविता ‘ नींद उचट जाती है ‘ से अवतरित है । इस कविता के रचयिता नरेंद्र शर्मा हैं। रात के समय जब कवि की नींद खराब हो जाती है तो वे अपने दुखों के साथ-साथ बाहरी सामाजिक अव्यवस्थाओं के अँधेंेे के कारण और अधिक बेचैन हो जाते हैं।

व्याख्या – नांद उचट जाने के कारण रातभर ठीक से नहीं सो पाते। सामाजिक व्यवस्थाओं और कुरीतियों के बारे में सोचकर वे फिर सो जाना चाहते हैं। उनका मन चाहता है कि मुझे एक बार भी गहरी नींद अपनी आगोश में भर ले। वे चाहते हैं कि जब तक धरती पर रात का अँधेरा व्याप्त है तब तक में सजीव से एक बार में निर्जीव बन जाऊँ अर्थात नींद की गोद में जाकर मैं इस अव्यवस्था को भूल जाना चाहता हूँ। जिस करवट वे लेटे हुए थे उस करवट उन्हें बेचैनी थी, परंतु दूसरी करवट बदलने पर भी बेचैनी उनका पीछा नहीं छोड़ती अर्थात किसी भी करवट नीद नहीं आ रही है। अर्थात वे न केवल अपने बारे में सोचकर परेशान हैं, बल्कि समाज के दुख एवं पीड़ाएँ भी उन्हें सोने नहीं दे रही हैं।

विशेष :

  1. सामाजिक व्यवस्था के कारण कवि के अंतर्मन में बेचैनी है।
  2. तत्सम एवं तद्भव शब्दों का मिश्रण है।
  3. गेय एवं लयात्मकता है।
  4. भाषा सरल, सुबोध एवं प्रवाहमयी है।

4. करवट नहीं बदलता है तम,
मन उतावलेपन में अक्षम !
जगते अपलक नयन बावले,
थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम !
साँस आस में अटकी, मन को
आस रात भर भटकाती है !

शब्दार्थ तम – अँधेरो। उतावले पन – जल्दबाज़ी। अक्षम – असमर्थ। नयन – आँखें। बावले – भोलापन। अपलक – बिना झपके। थिर – स्थिर। निमिष – पल, क्षण। थम – रुकना। आस – आश।।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘ नींद उचट जाती है’ नामक कविता से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता कविवर नरेंद्र शर्मा हैं। रात के समय अचानक कवि की नींद खराब हो जाती है। फलस्वरूप वे रातभर सो नहीं पाते।

व्याख्या – कवि बेचैनी के कारण सारी रात करवटें बदलते रहते हैं। वे कहते हैं कि मेरा बार-बार करवेें बदलना मेरे मन के उतावलेपन को दर्शाता है जिसके कारण मेरा मन इस बेचैनी से पार पाने में सक्षम नहीं है। मैं अपलक जागता रहता हूँ, आँखों में पागलपन-सा छा गया है। मेरी पुतलियाँ स्थिर हो गई हैं और समय भी कुछ र्का-सा प्रतीत हो रहा है। कवि का मानना है कि इस बेचैनी में भी मेरी साँसें इसी आशा में अटकी हैं कि सब ठीक हो जाएगा और यही आशा कवि को रातभर भटकाती है।

विशेष :

  1. कवि आशावादी है कि समय के साथ-साथ व्यवस्था में भी परिवर्तन आएगा।
  2. गेय एवं लयात्मकता है।
  3. तत्सम शब्दों के साथ तद्भव शब्दों का मिश्रण है।
  4. ‘साँस-आस’ में अनुप्रास अलंकार है।
  5. भाषा सरल, सरस एवं प्रभावशाली है।

5. जागृति नहीं अनिद्रा मेरी,
नहीं गई भव-निशा अँधेरी !
अंधकार केंद्रित धरती पर,
देती रही ज्योति चकफेरी !
अंतर्नयनों के आगे से
शिला न तम की हट पाती है !

शब्दार्थ जागृति – जागरण। अनिद्रा – नींद न आना। भव-निशा – निशा, संसार रूपी भयानक रात। ज्योति – प्रकाश। चकफेरी – चारों ओर चक्कर काटना। अंतर्नयनों – मन की आँखें। शिला – पत्थर । तम – अँधेरा, अंधकार।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्योंश हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित कवि नरेंद्र शर्मा द्वारा रचित कविता ‘ नींद उचट जाती है ‘ से अवतरित है। इस कविता में बेचैनी के कारण नींद खराब हो जाती है। वे न केवल मन से दुःखी हैं बल्कि समाज की समस्याएँ भी उन्हें बेचैन कर देती हैं। फलस्वरूप वे रातभर करवटें बदलते हैं।

व्याख्या – रातभर करवटें बदलने के कारण कवि सो नहीं पाते। कवि रातभर जागने को जागरण अथवा जागृति नहीं मानते बल्कि इसे नौंद न आने की समस्या कहते हैं। उनका मानना है कि अभी मेरी सांसारिक दुखी जीवन रूपी रात समाप्त नहीं हुई है। संपूर्ण धरती पर अंधेरा व्याप्त है। यहाँ चारों ओर प्रकाश चक्कर लगाता रहता है क्योंकि मेरी आँखों के सामने अँधेरे की चट्टान जमी हुई है। इसलिए मेंरे अंतर्मन और समाज का अंधकार अभी समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है।

विशेष :

  1. कवि सांसारिक जीवन रूपी रात के अंधकार के कारण बेचैन है।
  2. तत्सम शब्दों की भरमार है।
  3. लय और गेयता विद्यमान है।
  4. लाक्षणिकता का प्रयोग दर्शनीय है।
  5. भाषा सरल, सुबोध एवं सरस है।

Hindi Antra Class 11 Summary

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Class 11 Hindi Antra Chapter 17 Summary – Badal Ko Ghirte Dekha Hai Vyakhya

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बादल को घिरते देखा है Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 17 Summary

बादल को घिरते देखा है – नागार्जुन – कवि परिचय

जीवन-परिचय – आधुनिक हिंदी के महान कवि नागार्जुन का जन्म उनकी ननिहाल सतलखा जिला दरभंगा (बिहार) में सन 1911 में हुआ। उनका पैतृक गाँव तौौनी, जिला मधुबनी था। उनका वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। उन्होंने अपनी मातृभाषा मैथिली में ‘यात्री’ नाम से लेखन कार्य किया। मैधिली में इनका महत्वपूर्ण कविता-संग्रह ‘चित्रा’ नाम से चर्चित है। नागार्जुन मैथिली और हिंदी के साथ-साथ संस्कृत और बांग्ला में भी काव्य-रचना किया करते थे।

नागार्जुन की प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय संस्कृत पाठशाला में हुई । उन्होंने उच्च शिक्षा वाराणसी और कोलकाता में संपूर्ण की। वे सन 1936 में श्रीलंका यात्रा पर गए और वहीं पर बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। 1936-1938 तक वे श्रीलंका में ही रहे । इसके बाद वे स्वदेश वापस लौटकर स्वतंत्रता आंदोलनों में सक्रिय हो गए। इन्हीं आंदोलनों के कारण ही उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा।

नागार्जुन एक सफल पत्रकार एवं कुशल संपादक भी थे। सन 1935 में उन्होंने ‘दीपक’ (हिंदी मासिक) और 1942-43 में ‘विश्वबंधु’ (साप्ताहिक) पत्रिकाओं का संपादन किया। नागार्जुन को अनेक पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। इनके मैथिली कविता-संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ पर इन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्रदान किया गया। उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार के ‘भारत-भारती’, मध्य प्रदेश सरकार की ओर से ‘मैथिलीशरण गुप्त’ तथा बिहार सरकार के ‘राजेंद्र प्रसाद’ आदि पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। दिल्ली हिंदी अकादमी ने भी उन्हें ‘शिखर सम्मान’ से पुरस्कृत किया। सन 1998 में महाकवि नागार्जुन का देहावसान हो गया।

रचनाएँ – उनकी प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं-

काव्य-संग्रह – युगधारा, प्यासी पथराई आँखें, सतरंगे पंखों वाली, ‘तालाब की मछलियाँ, हज़ार-हज़ार बाँहों वाली, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, रत्नगर्भा, ऐसे भी हम क्या : ऐसे भी तुम क्या, पका है कटहल, मैं मिलिटरी का बूढ़ा घोड़ा तथा भस्मांकुर (खंडकाव्य) आदि।
उपन्यास – बलचनमा, रतिनाथ की चाची, कुंभीपाक, उग्रतारा, जमनिया का बाबा, वरुण के बेटे आदि।

साहित्यिक विशेषताएँ – आधुनिक हिंदी में नागार्जुन मूलतः जन-भावनाओं के कवि हैं। उनकी रचनाएँ ग्रामीण आंचलों से लेकर विद्वानों के बीच काफ़ी चर्चित रही हैं। उनकी कविताए जनमानस से सीधे जुड़ी हुई हैं तथा आम आदमी की भावनाओं को चित्रित करती हैं। नागार्जुन की रचनाओं में प्रकृति का सौँदर्यपूर्ण वर्णन हुआ है। उन्होंने प्रकृति का उद्दीपन एवं आलंबन का चित्रण स्वाभाविकता के साथ किया है। वे प्रकृति को अनेक कोणों से निहारते हैं तथा उसका चित्रण बड़ी ही सहजता एवं विविधता के साथ करते हैं।

उनकी कविता में धारदार व्यंग्य के नमूने भी देखे जा सकते हैं। राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण उनकी कविता का मूल स्वर है। वे राजनीतिक अपराधीकरण और सामाजिक कुरीतियों पर करारे व्यंग्य करते हैं। आम जनता के हितों के प्रति वे सदैव सचेत रहे हैं तथा इन्हीं हितों और अधिकारों को अपने काव्य में उजागर भी करते हैं। वस्तुत: उनकी कविता में लोक जीवन, प्रकृति और समकालीन राजनीति को अपने की काव्य विषयवस्तु के रूप में चित्रित किया गया है।

भाषा-शैली – चूँकि नागार्जुन जन-कवि हैं, इसलिए उनकी भाषा में आम बोलचाल की भाषा के शब्दों को स्थान मिला है। उनकी पूर्ववर्ती काष्य रचनाओं में भाषा का बहुत ही सरल एवं सहज रूप मिलता है। उन्होंने छंदबद्ध एवं छंदमुक्त दोनों प्रकार की कविताओं का सृजन किया है। बाद की रचनाओं में उनकी भाषा अधिक गंभीर एवं संस्कृतनिष्ठ है। अतः उनकी काव्य भाषा में एक ओर आम बोलचाल की भाषा की रवानी और सादगी है तो दूसरी ओर संस्कृतनिष्ठ शब्दावली की गंभीरता भी।
वस्तुतः नागार्जुन धरती, आम जनता और श्रम के गीत गाने वाले भावुक एवं संवेदनशील कवि हैं।

Badal Ko Ghirte Dekha Hai Class 11 Hindi Summary

प्रस्तुत कविता नागार्जुन के कविता-संग्रह ‘धुगधारा’ से ली गई है। कवि ने बादलों को हिमालय पर्वत की बर्फ से ढकी चोटियों पर घिरते देखा है। पावस ऋतु में हिमालय की छोटी-बड़ी झीलों में बादलों को बरसते देखा है। वे ऐसे प्रतीत हो रही थीं मानो ओस की बूँदे बरस रही हों। इस कविता में कवि ने विरह में ड़बे चकवा-चकवी का वर्णन करते हुए कहा है प्रभात वेला में उनका प्रणय-कलह भी सुनाई दे रहा है। साथ ही हिमालय की गोद मे उछलते-कूदते मृगों का मनोहरी वर्णन किया है। कस्तूरी हिरणों का वर्णन करते हुए कहा है कि उन्हें कस्तूरी की खोज में इधर-उधर भागते है देखा है तथा बादलों को घिरते हुए भी देखा है। कवित को धनपति कुबेर की अलका नगरी, कालिदास की आकाश गंगा व मेघदूत तो कहीं दिखाई नहीं दिए।

वे तो कवि की कल्पनाएँ थी परंतु हिमालय पर्वत की ऊँची चोटियों को तथा बादलों को गरजते खूब देखा है। अंत में कवि भावुक हो जाता है। कवि कहता है कि हिमालय पर्वत पर देवदार केघने जंगल हैं। वहाँ किन्नर जाति के लोग भोजमन की बनी कुटिया में रहते हैं। कवि ने उन्हें बाँसुरी बजाते देखा है। किन्नर जाति की स्त्रियों ने अपने देशों के रंग-बिरंगे फूलों की वेणी लगाई हुई है। नीलम की माला पहनी हुई है। साथ में मंदिरा पान कर रही हैं। मदिरा के कारण किन्नर जाति की स्त्रियों की आँखें लाल और मदमस्त हैं। इनके साथ कवि ने बादलों को देखा है। अतः ये सब दृश्य कवित ने बादलों के घिरने के साथ ही देखे हैं। कवि ने बादलों के साथ प्रकृति का मनोहारी वर्णन किय है।

बादल को घिरते देखा है सप्रसंग व्याख्या

1. अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ – अमल – निर्मल। धवल – सफ़ेद। शिखर – चोटी। शीतल – ठंडी। तुहिन कण – ओस की बूँद। स्वर्णिम- सोने जैसी ।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ से उद्धृत है। यह कविता कविवर नागार्जुन द्वारा रचित है। इस कविता में कवि ने हिमालय पर्वत की स्वच्छ, निर्मल और बऱ से ढकी सफ़ेद चोटियों पर घिरते बादल का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि मैंने हिमालय पर्वत की स्वच्छ, निर्मल और बर्फ़ की सफ़ेद चादर से ढकी चोटियों पर बादल को घिरते देखा हैं। हिमालय की ऊँची सफ़ेद चोटियों पर बादल से वर्षा ऐसे होती है मानो ओस की बूँदे बरस रही हों, फिर ये ओस की बूँदे मानसरोवर झील में खिले सुंदर कमलों के पत्तों पर गिरती हैं । मैंने बादलों से गिरती ओस की बूँदों को स्वयं देखा है।

विशेष :

  1. कवि ने हिमालय की सफ़ेद चोटियों का वर्णन किया है।
  2. प्राकृतिक वर्णन है।
  3. उपमा अलंकार की शोभा सराहनीय है।
  4. तुकबंदी है।
  5. तत्सम शब्दावली है।
  6. भाषा सरल, सहज एवं प्रभावशाली है।

2. तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर विसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ – तुंग – ऊँचा। श्यामल – काला। नील – नीला। सलिल – जल। पावस – वर्षा। तिक्त – कड़वे। मधुर – मीठे। विसतंतु – कमल नाल के भीतर स्थित कोमल रेशे या तंतु। हंस – सफ़ेद पंखोंवाले सुंदर पक्षी।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘बादल को घिरते देखा है’ नामक कविता से अवतरित है। प्रस्तुत कविता कविवर ‘नागार्जुन’ द्वारा रचित है। इन पंक्तियों में कवि ने हिमालय पर्वत में स्थित अनेक झीलों में वैरते हंसों का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि मैने देखा है कि हिमालय पर्वत की ऊँची चोटियों पर अनेक छोटी-बड़ी झीलें हैं। इन झीलों के स्वच्छ एवं निर्मल नीले जल में समतल देशों में रहने वाले पक्षी विचरण करते हैं। जब समतल देशों में वर्षा ऋतु में गर्मी पड़ती है तो उमस पैदा हो जाती है। इसी उमस से बचने के लिए ये पक्षी हिमालय की झीलों की ओर चले जाते हैं ओर साथ ही इन पक्षियों के साथ-साथ स्थानीय हंस पक्षी भी झील में खिले कमलों की नाल में कड़वे एवं मीठे तंतुओं को खाते हैं। कवि एक बार फिर कहता हैं कि मैंने इन पक्षियों के साथ हंसों को भी झीलों में तैरते देखा है। बादलों को भी घिरते देखा है।

विशेष :

  1. कवि ने हिमालय की झीलों में तैरते पक्षियों का सुंदर वर्णन किया है।
  2. समतल देशों में वर्षा ऋतु में उमस का होना स्वाभाविक है।
  3. रूपक अलंकार का प्रयोग है।
  4. तत्सम शब्दावली है।
  5. चित्रात्मक एवं वर्णनात्मक शैली है।
  6. भाषा सरल, सहज एवं प्रवहमयी है।

3. ॠतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मुदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णिम शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ – सुप्रभात – सुंदर सवेरा। अनिल – हवा, वायु। बालारुण – उगता सूर्यं। विरहित – अलग होकर दुखी होना। निशाकाल – रात का समय। चिर-अभिशापित – सदा से ही शापग्रस्त, दुखी। चकवा-चकई – एक प्रकार के नर और मादा पक्षी। क्रंदन – चीख, पीड़ा। शैवाल – काई की जाति की एक घास। सरवर – सरोवर। तीरे – किनारे। प्रणय-कलह – प्यार-भरी छेड़छाड़।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्य-पक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित’ बादल को घिरते देखा है’ नामक कविता से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता कविवर ‘नागार्जुन’ हैं। इन पंक्तियों में कवि ने मानसरोवर में विचरण करते चकवा और चकई पक्षी की विरह-वेदना और प्रेम का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि हिमालय की ऊँची स्वर्णिम चोटियों के बीच मानसरोवर झील है। वसंत ऋतु में उदय होते सूर्य की स्वर्णिम किरणें बर्फ की सफ़ेद चादर से ढकी चोटियों पर पड़ती हैं। मंद-मंद गति से हवा चल रही है। इस सुंदर एवं स्वच्छ वातावरण में चकवा और चकई जो सारी रात अलग-अलग रहते हैं। उन्हें एक-दूसरे से रात-भर अलग-अलग रहने का सदा से अभिशाप है। परंतु सुबह होते ही उन बेबस और व्याकुल चकवा और चकई की विरह-चीखें बंद हो जाती हैं। कवि कहते हैं कि मेने चकवा-चकई को हिमालय स्थित मानसरोवर के किनारे शैवाल की हरी चादर पर प्यार-भरी छेड़छाड़ करते देखा है अर्थात् रात-भर विरह वेदना से उबरकर सुबह जब दोनों मिलते हैं तो वे एक-दूसरे के साथ छेड़छाड़ और प्यार भरी क्रीड़ाएँ करते हैं।

विशेष :

  1. हिमालय पर्वत में स्थित मानसरोवर झील की वसंत ॠतु का वर्णन स्वाभाविक है।
  2. ‘चकवा-चकई’ के संदर्भ में काव्य-रूढ़ि का प्रयोग है।
  3. शैली वर्णनात्मक एवं चित्रात्मक है।
  4. तत्सम और तद्भव शब्दावली है।
  5. ‘मंद-मंद’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  6. ‘शैवालों की हरी दरी’ में रूपक अलंकार है।
  7. भाषा सरल, सहज एवं मधुर है।

4. दुर्गम बरफ़ानी घाटी में
शत-सहस्न फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ – दुर्गम – जहाँ जाना मुश्किल हो। शत – सौ। सहस्त – हज़ार। उन्मादक – मदमस्त। परिमल – सुगंध। धावित – दौड़कर।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘ बादल को घिरते देखा है’ नामक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता कविवर ‘नागार्जुन’ हैं। इस कविता में कवि ने हिमालय पर्वत पर बादलों के घिरने और बरसने का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता हैं कि हिमालय पर्वत में स्थित सैकड़ों-हज़ारों फुट की ऊँचाई पर गहरी और दुर्गम बर्फीली घाटी में अनेक प्रकार के फूलों की सुगंध-सी बिखरी हुई है। चारों ओर सुगंधमय वातावरण है। मृग जिसके पास स्वयं कस्तुरी की सुगंध होती है वह इस नशीली सुगंध के पीछे-पीछे दौड़ रहा है तथा ऐसा प्रतीत होता है, जैसे बेचैन होकर इसी वातावरण में अपने ही ऊपर चिढ़ रहा हो। यह सारा घटनाक्रम मैंने अपनी आँखों से देखा है।

विशेष :

  1. कवि ने बफ़ीली घाटी का वर्णन किया है।
  2. कस्तूरी मृग की उन्मादकता का चित्रण किया है।
  3. संस्कृतनिष्ठ शब्दावली है।
  4. वर्णनात्मक एवं चित्रात्मक शैली है।
  5. भाषा सरल, सहज एवं मधुर है।

5. कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
बूँड़ा बहुत परंतु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ – कुबेर – धन के देवता। अलका – कुबेर की नगरी। कालिदास – संस्कृत के महान कवि। व्योम – आकाश। नभ-चुंबी – आकाश को चूमती। कैलाश – कैलाश पर्वत। शीर्ष – शिखर।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘ अंतरा’ में संकलित ‘ बादल को घिरते देखा है’ नामक कविता से अवतरित है । प्रस्तुत कविता के रचयिता प्रकृति चित्रण में सिद्धहस्त कवि ‘नागार्जुन’ हैं। इस कविता में कवि ने बादल की भीषणता और भयावहता का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि मँने कालिदास के ‘मेघदूत’ में पढ़ा था कि धन के देवता कुबेर की अलका नगरी हिमालय में स्थित है, परंतु बादलों के बीच में कुबेर और उसकी अलका नगरी कही खो गई है अर्थात घिरते बादलों ने कुबेर और उसकी नगरी को जैसे लुप्त कर दिया है। मेघदूत में कालिदास अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते हैं कि ऐसा लगता है कि जैसे गंगाजल आकाश में चक्कर काट रहा है। परंतु कवि को बहुत दूँढ़ने पर भी न कुबेर मिला, न उसकी अलका नगरी और मेघदूत भी कहीं छुप गया लगता है। इसका पता कौन बता सकता है। शायद कालिदास के मेष भी यहीं पर बरस गए होंगे। चलो, जाने दो। यह सब तो कवि (कालिदास) की कोरी कल्पना थी। परंतु सत्य तो यह है कि मैंने भीषण शीत ऋखु में आकाश को चूमते कैलाश पर्वत के शिखर पर महान बादलों को आपस में टकरा-टकराकर गरज-गरजकर बरसते देखा है।

विशेष :

  1. कवि ने कैलाश पर्वत पर शीत क्रतु में घनघोर बरसते बादलों में सुंदर चित्रण किया है।
  2. कालिदास के मेघदूत का संदर्भ स्वाभाविक है।
  3. वर्णनात्मक एवं चित्रात्मक शैली है।
  4. तत्सम और तद्भव शब्दावली है।
  5. ‘कवि-कल्पित’ में अनुप्रास अलंकार है।
  6. भाषा सरल एवं प्रसंगानुकूल है।

6. शत-शत निझर-निझरणी-कल
मुखरित देवदारु कानन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों से कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघढ़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि-खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपदी पर,
नरम निदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलर्थी मारे
मदिरारुण आँखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ – शत – सौ, सैकड़ा। निझर – झरना। देवदारु – देवदार के वृक्ष। कानन – जंगल। शोणित – लाल। धवल – सफ़ेद। कुंतल – बालों की चोटी, वेणी। इंद्रनील – नीलम, नीले रंग के कीमती पत्थर। कुवलय – नीलकमल। शतदल – कमल। रजत-रचित – चाँदी से बना हुआ। मणिरचित – मणियों से बना हुआ। पान-पात्र – मदिरा का पात्र, सुराही। द्राक्षासव – अंगूरों की शराब। लोहित – लाल। त्रिपदी तिपाई। निदाग – दागरहित। उन्मद – नशीला। मदिरारुण – शराब पीने से लाल हुई आँखें। किन्नर – देवलोक की एक कलाप्रिय जाति।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘ बादल को घिरते देखा है’ नामक कविता से उद्धृत है । प्रस्तुत कविता के रचयिता कविवर ‘नागार्जुन’ हैं। इस कविता में कवि ने घिरते बादलों के विभिन्न चित्र खींचे हैं। हिमालय पर्वत में देवदार के घने जंगलों के बीच रहनेवाली किन्नर जाति के नर-नारियों का भी वर्णन किया गया है। किन्नर जाति देवलोक की एक कलाप्रिय जाति है।

व्याख्या – कवि कहता है कि मैं देखता हूँ कि हिमालय पर्वत में देवदार के अनेक घने जंगल हैं। पर्वत की चोटियों से सौ-सौ छोटे-बड़े झरने देवदार के इन्हीं जंगलों में कल-कल करते बहते रहते हैं। इन जंगलों के बीच ही किन्नर जाति के लोग लाल और सफ़ेद भोज-पत्रों से कुटिया बनाकर रहते हैं। किन्नर जाति की स्त्रियाँ अपने बालों में रंग-बिरंगे एवं सुर्णंधित फूलों को सजाए हुए हैं । उन्होंने अपने सुंदर एवं शंखों के समान सुघड़ गलों में नीलम पत्थर की मालाएँ डाली हुई हैं। कानों में नीलकमल लटका रखे हैं। उन्होंने लाल कमल अपनी चोटी (वेणी) में बाँधे हुए हैं तथा दूसरी ओर किन्नर जाति के नर चाँदी और मणियों द्वारा बने हुए सुरा पात्रों में अंगूरों की शराब के पात्र को लाल चंदन की तिपाई पर रखे हुए हैं। वे बाल कस्तूरी मृगों की मुलायम और गर्म खाल पर पालथी मारकर बैठे हैं। उनकी आँखों में शराब का नशा छाया हुआ है। कवि कहता हैं कि मैंने मदमस्त अँखोंवाले इन किन्नर जाति के नर-नारियों को अपनी कोमल और मनोहर अंगुलियों से बाँसुरी बजाते देखा है। बादलों को घिरते देखा है।

विशेष :

  1. कवि ने किन्नर जाति के सौँदर्य और मादक्ता का वर्णन किया है।
  2. अनुप्रास एवं पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग सराहनीय है।
  3. तत्सम और तद्भव शब्दों का मिश्रण हैं।
  4. शैली वर्णनात्मक एवं चित्रात्मक है।
  5. भाषा सरल, सहज, सुंदर एवं प्रसंगानुकूल है।

Hindi Antra Class 11 Summary

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Class 11 Hindi Antra Chapter 18 Summary – Hastakshep Vyakhya

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हस्तक्षेप Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 18 Summary

हस्तक्षेप – श्रीकांत वर्मा – कवि परिचय

जीवन-परिचय – नई कविता के कवियों में श्रीकांत वर्मा का महत्वपूर्ण स्थान है। उनका जन्म मध्यप्रदेश के शहर बिलासपुर में सन 1931 में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा बिलासपुर में हुई। वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए नागपुर गए। वहीं पर उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से 1956 एम० ए० हिंदी की उपाधि में प्राप्त की। उन्होंने अपना साहित्यिक जीवन एक पत्रकार के रूप में शुरू किया। वे अपने संपूर्ण जीवन में ‘श्रमिक’, ‘कृति’, ‘दिनमान’ और ‘वर्णिका’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे। श्रीकांत वर्मा को अनेक पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें तुलसी पुरस्कार, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी पुरस्कार और शिखर सम्मान से सम्मानित किया। केरल सरकार ने भी उन्हें उनकी काव्य-रचनाओं के लिए सन् 1984 में ‘कुमारन आशान’ राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया। सन् 1986 में श्रीकांत वर्मा का देहांत हो गया।

रचनाएँ – श्रीकांत वर्मा की महत्वपूर्ण कृतियाँ निम्नलिखित हैं –
काव्य-संग्रह – ‘भटका मेघ’, ‘दिनारंभ’, ‘मायादर्पण’, ‘जलसा घर’, ‘मगध’ आदि।
कहानी-संग्रह – ‘झाड़ी संवाद’
उपन्यास – ‘दूसरी बार’
आलोचना – ‘जिरह’
यात्रा वृत्तांत – ‘अपोलो का रथ’
साक्षात्कार – ‘बीसवीं शताब्दी के अँधेरे में
अनुवाद – ‘फैसले का दिन’

साहित्यिक विशेषताएँ – श्रीकांत बर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने अनेक विधाओं के लिए लेखनी चलाई। उनकी कविता में समय और समाज की विसंगतियाँ, विद्रुपताओं और कुरीतियों के प्रति क्षोभ, आक्रोश और विद्रोह का स्वर मुखरित हुआ है। समाज में उपेक्षा और परिवेशगत संघर्ष को झेलते मनुष्य के प्रति उन्हें विशेष लगाव और प्यार। वे आम आदमी के आत्मगौरव और भविष्य की चिंताओं के लिए लगातार चिंतित एवं सतर्क हैं। वे परंपराओं और संस्कारों में प्रगाढ़ विश्वास एवं आस्था रखते हैं, परंतु गली-सड़ी मान्यताओं और दमघोंदू कुरीतियों को तोड़ने और बदलने की बेचैनी और छटपटाहट भी उनमें लगातार देखी जा सकती है।

वे सामाजिक कुव्यवस्था और राजनीतिक अपराधीकरण के प्रति सदैव चिंतित एवं सजग रहे हैं। उनकी यही चिंता और सजगता उन्हें निरंतर कचोटती है। उनकी पूर्ववर्ती कविताओं में ग्राम्य जीवन के अनेक शब्द चित्र अंकित है, परंतु उनके परवर्ती काव्य-संग्रह ‘जलसा घर’ में उन्होंने महानगरीय बोध का निरीक्षण एवं प्रक्षेपण किया है। शहरीकरण की अमानवीयता के प्रति निरंतर संवेदना व्यक्त करते रहे हैं।

उनकी कविताओं और अन्य रचनाओं में शोषितों के प्रति सहानुभूति और शोषकों और बर्बरता के प्रति विद्रोह की भावना सदैव हिल्लोरे मारती है। उन्होंने अपनी कविताओं में शासक-वर्ग की तानाशाही और अत्याचारों का यथार्थ वर्णन किया है। वे अपनी कविताओं के माध्यम से प्रत्येक आदमी में यह चेतना जागृत करना चाहते हैं कि वह इस तानाशाही, कुव्यवस्था और अत्याचारों के ताने-बाने को तार-तार कर दे तथा संपूर्ण समाज में समरूपता के साम्राज्य की स्थापना करे।

भाषा-शैली – श्रीकांत वर्मा की भाषा आम आदमी की भाषा है। उनकी भाषा में सरल तत्सम और तद्भव शब्दों की भरमार है। वेल लक्षणा शब्दशक्ति का अधिक प्रयोग करते हैं, ताकि उनकी आवाज़ आम आदमी तक आसानी से पहुँच सके। कम-से-कम शब्दों में उधिक-से-अधिक संकेत देना उनकी मुख्य प्रवृत्ति है। उनकी कविता में शब्दों और वाक्यों की निरंतर दौड़ है। वे समाज के प्रति अपनी बे बेचैनी और चिंतन को जल्दी से अभिव्यक्त करना चाहते हैं। वे समाज की अव्यवस्था को व्यंग्यपूर्ण शैली में व्यक्त करते हैं। चित्रात्मकता, संवादात्मकता और नाटकीयता उनकी भाषा की अन्य विशेषताएँ हैं। उनकी मुक्तछंद कविता खुले वातावरण में तैरती-सी प्रतीत होती है। अलंकारों का कम प्रयोग भावों को सरलता प्रदान करता है। वस्तुतः श्रीकांत वर्मा की भाषा-शैली सरल, सहज एवं प्रभावशाली है।

Hastakshep Class 11 Hindi Summary

प्रस्तुत कविता कवि के ‘मगध’ संग्रह से की गई है। कवि ने कविता के माध्यम से सत्ता की क्रूरता का वर्णन किया हैं। मग में व्यवस्था सत्ताधारियों के द्वारा लिए गए गलत निर्णयों के कारण अव्यवस्था में बदल गई है। मगध की शासन व्यवस्था में किसी का किसी प्रकार का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं किया जाता। सत्ताधारियों का जो मन करता है वह नियम बना कर प्रजा को उसे स्वीकार करने पर बल देते हैं। जनता को उसे किसी भी कीमत पर स्वीकार करना ही पड़ता है। उसका विरोध शासक पक्ष को स्वीकार नहीं।

मगध की जनता इतनी कमज़ोर हो गई है कि वहाँ कोई छींकता नहीं है। उनका मानना है कि यदि वे छींकते हैं तो मगध की शांति भंग हो जाती है। जनता चुपचाप शासक के अत्याचार सहती रहती है। इससे व्यवस्था और बिगड़ रही है और आम जनता का जीवन नरक बन जाएगा। अंत मे कवि ने व्यंग्य करते हुए कहा है कि जब समाज इस व्यवस्था के विर्द्ध आवाज़ उठाएगा तब मुर्दा उठकर इस कुव्यवस्था के विरोध मे आवाज़ बुलंद करेगा। मनुष्य से प्रश्न करेगा कि कब तक तुम इस अव्यवस्था के कारण मरते रहोगे। कभी तो इसका सामना तुम्हें करना पड़ेगा। उठो और विरोध करो।

हस्तक्षेप सप्रसंग व्याख्या

1. कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शांति
भंग न हो जाए,
मगध को बनाए रखना है, तो,
मगध में शांति
रहीनी ही चाहिए
मगध है, तो शांति है

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘ हस्तक्षेप’ नामक कविता से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता ‘श्रीकांत वर्मा’ हैं। इस कविता के माध्यम से कवि ने सत्तासीन व्यक्तियों की क्रूरता और जनतांत्रिक प्रणाली का निरंकुश व्यवस्था में परिवर्तित के होने कारण से उपजे दुप्परिणामों का वर्णन किया है।

व्याख्या – सत्ता की क्रूरता पर व्यंग्य करते हुए कवि कहता हैं कि सत्तासीन व्यक्तियों से आम जनता इतनी भयभीत है कि वह उसके समक्ष छींकने का भी साहस नहीं जुटा पाती। लोग इस अहसास से डरे हुए हैं कि कहीं उनके छीकने से मगध (जनतंत्र) की शांति भंग न हो जाए अर्थात् जनतंत्र की कुव्यवस्था में एक व्यक्ति का प्रयास जन आंदोलन में परिवर्तित न हो जाए। कवि एक बार फिर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि जनतांत्रिक प्रणाली को बनाए रखने के लिए उसमें शांति स्थापित करनी ही होगी अर्थात् उसके दुष्परिणामों को आँख मूँदकर सहना ही पड़ेगा।

विशेष :

  1. कवि ने सत्ता की क्रूरता पर करारा व्यंग्य किया है।
  2. तुकबंदी नहीं है।
  3. तद्भव शब्दावली की प्रधानता है।
  4. भाषा सरल, सहज एवं व्यंग्यपूर्ण है।

2. कोई चीखता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की व्यवस्था में
दखल न पड़ जाए
मगध में व्यवस्था रहनी ही चाहिए
तो कहाँ रहेगी ?
रहने को नहीं

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘हस्तक्षेप’ से अवतरित है। यह कविता कवि ‘ श्रीकांत वर्मा’ द्वारा रचित है। इस कविता में कवि ने सत्ता की क्रूरता और उसकी तानाशही पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की है।

व्याख्या – जनतंत्र के नाम पर सत्तासीन व्यक्तियों के अत्याचार और गलत निर्णय आम जनता के लिए दुख प्रदान करने वाले होते हैं। वे सत्ता की क्रूरता से इस प्रकार भयभीत हैं कि वे डर के मारे चीखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते। आम आदमी सोचता है कि कही मेरी चीख से जनतंत्र की व्यवस्था में भंग न हो जाए इसलिए दुख में चिल्लाना भी आम आदमी के लिए मना है। तभी मगध (जनतंत्र)की व्यवस्था बनी रहेगी।

कवि एक बार व्यंग्य करते हुए कहता है कि अगर व्यवस्था जनतंत्र में न रही तो फिर कहाँ रहेगी ? अगर जनतंत्र में भी व्यवस्था चरमरा गई तो दुनिया के लोग भारतवर्ष के बारे में क्या कहेंगे ? प्रश्न के बाद स्वयं उत्तर देते हुए कवि कहता हैं कि लोग तो बातें बनाते ही हैं, परंतु लोगों के बीच में से यह भी आवाज़ आती है कि जनतंत्र तो केवल नाम का रह गया है। यह अब रहने लायक नहीं रहा है अर्थात् सत्ता पर काबिज लोग जब गलत निर्णय लेकर व्यवस्था को अव्यवस्था में परिवर्तित कर दें तो जनतंत्रिक प्रणाली में भी आम आदमी का जीना दूभर हो जाता है।

विशेष :

  1. कवि ने सत्ता की क्रूरता और राजनेताओं के गलत निर्णयों पर व्यंग्य किया है।
  2. प्रश्नालंकार दर्शनीय है।
  3. व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग है।
  4. भाषा सरल, सहज एवं गंभीर है।

3. कोई टोकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध में
टोकने का रिवाज न बन जाए
एक बार शुरु होने पर
कहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप-

शब्दार्थ – टोकना – विरोध करना। रिवाज – परंपरा।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाट्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘हस्तक्षेप’ नामक कविता से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता समकालीन कवि ‘श्रीकांत वर्मा’ हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने जनतंत्र में स्थापित गलत परंपराओं पर व्यंग्य किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि जनतंत्र की अव्यवस्था के कारण आम आदमी दुःखी एवं पीड़ित है, परंतु कोई भी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता कि इस अव्यवस्था के विरुद्ध आवाज बुलंद करे। आम व्यक्ति इस अव्यवस्था के विरुद्ध इसलिए आवाज नहीं उठाता कि कहीं सत्ता के विर्द्ध आवाज उठाने का प्रचलन अथवा परंपरा ही शुरूू न हो जाए। साथ में कवि यह भी संकेत देता है कि अगर सत्तासीन व्यक्तियों द्वारा लिए गए गलत निर्णयों के विरोध में एक बार हस्तक्षेप करने का रिवाज शुरू हो गया तो फिर वह रुकेगा नहीं अर्थात् आम जनता जब गलत निर्णयों के विरोध में खड़ी हो गई तो राजनेताओं के लिए इसे रोकना मुश्किल हो जाएगा।

विशेष :

  1. जनतांत्रिक प्रणाली में व्याप्त दोषों का वर्णन किया गया है।
  2. यह भी सत्य है कि आम जनता जब गलत निर्णयों के विरोध में खड़ी होती है, तो उसे रोकना राजनेताओं के लिए मुश्किल होता है।
  3. तद्भव शब्दों का प्रयोग है।
  4. लक्षणा शब्द।-शक्ति का प्रयोग है।
  5. भाषा सरल, सहज एवं प्रभावशाली है।

4. वैसे तो मगधनिवासियों
कितना भी कतराओ
तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से-
जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुजरता हुआ
मुर्दां
यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है-
मनुष्य क्यों मरता है ?

शब्दार्थ – कतराओ – जान-बूड़कर विरोध न करना। मुर्दा – मृत शरीर।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘हस्तक्षेप’ नामक कविता से अवतरित है। यह कविता आधुनिक कवि ‘श्रीकांत वर्मा’ द्वारा रचित है। इस कविता में कवि आम जनता का आहवान करते हुए कहता है कि हमें सत्तासीन लोगों द्वारा लिए गलत निर्णयों के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए। आँख मूंदकर उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए।

व्याख्या – कवि कहता है कि भारतवासियो! जनतांत्रिक व्यवस्था में भी कमियाँ हो सकती हैं। राजनेता अपने लाभ के लिए कुछ गलत निर्णय ले सकते हैं इसलिए तुम चाहे इन गलत निर्णयों के प्रति विरोध से कितना ही बचो, परंतु एक अवसर तो ऐसा आयेगा ही जब तुम्हें इन गलत निर्णयों का विरोध करना ही पड़ेगा। इन गलत निर्णयों के विरोध में जब कोई आवाज़ नहीं उठाता तो शहर के बीचों बीच गुजर रहा मृत व्यक्ति का शरीर तो प्रश्न खड़ा करेगा ही और इस अव्यवस्था के प्रति हस्तक्षेप जरूर करेगा और कहेगा मनुष्य क्यों मरता है ? अर्थात गलत परंपराएँ एवं रिवाज आम मनुष्य को मरने के लिए मजबूर कर देते हैं। इसलिए जब एक मुर्दा आवाज़ बुलंद कर सकता है, तो तुम सजीव प्राणी ऐसा क्यों नहीं कर सकते अर्थात सभी को मिल-जुल कर सत्तासीन व्यक्तियों द्वारा लिये गलत निर्णयों के विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिए।

विशेष :

  1. कवि ने आम व्यक्ति को गलत निर्णयों के विर्द्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया है।
  2. तद्भव शब्दों का प्रयोग है।
  3. मुक्तछंद है।
  4. भापा सरल, सहज, प्रसंगानुकूल एवं प्रवाहमयी है।

Hindi Antra Class 11 Summary

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Class 11 Hindi Antra Chapter 19 Summary – Ghar Me Wapsi Vyakhya

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घर में वापसी Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 19 Summary

घर में वापसी – धूमिल – कवि परिचय

जीवन-परिचय – प्रगतिवादी-प्रयोगवादी कवि सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ ग्रामीण संस्कारों के सशक्त कवि हैं जिन्होंने समकालीन राजनीति के प्रति अपनी सजग दृष्टि का परिचय दिया है। उनका जन्म सन 1936 ईं० में वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के निकट बेबली नामक गाँव में हुआ था। सन 1958 ई० में आई० टी० आई० काशी में विद्युत डिप्लोमा प्राप्त करने के पश्चात उन्होंने वहीं अनुदेशक की नौकरी कर ली। उनका देहावसान अल्पायु में ही सन 1975 ई० में ब्रेन ट्यूमर के कारण हो गया । इनका देहावसान वास्तव में हिंदी साहित्य जगत के लिए बहुत बड़ी क्षति थी। इन्हें मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

रचनाएँ – धूमिल जी के प्रकाशित काव्य ग्रंथ हैं-संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे तथा सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र। इनकी अंतिम दो रचनाओं का प्रकाशन इनके देहांत के पश्चात हुआ । इनकी अनेक रचनाएँ समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं, जिनका संकलन कार्य अभी नहीं हो पाया है। इनकी कई रचनाएँ अभी तक अप्रकाशित हैं। काव्यगत विशेषताएँ – धूमिल के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(i) समसामयिक जीवन की झलक – धूमिल कल्पनाजीवी कवि नहीं हैं। इनकी कविता में समसामयिक जीवन का यथार्थ चित्रण प्राप्त होता है। इनकी कविता में स्वाधीन भारत का संपूर्ण इतिहास अंकित है। आजादी के बाद की विषमता को देखकर कवि लिखता हैक्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है ?
कवि प्रजातंत्र में आस्था रखेते हुए आजीवन सच्चे प्रजातंत्र की तलाश करता रहा।

(ii) व्यंग्य – धूमिल की अभावग्रस्त एवं अव्यवस्थित ज़िंदगी ने उसे आक्रामक मुद्रा अपनाने के लिए विवश किया। अपने परिवेश में व्याप्त भ्रष्टाचार का विरोध करते हुए उन्होंने सदा व्यंग्यात्मक रुख अपनाया। नेताओं पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने लिखा हैमैंने राष्ट्र के कर्णधारों को
सड़कों पर
किश्तियों की खोज में
भटकते देखा है।
उनकी कविता में विद्यमान भदेसपन उसे असरदार और धारधार बनाता है। कहीं-कहीं व्यंग्य का भाव करुणा में बदलता दिखाई देता है, तो कहीं आक्रोश में। कहीं-कहीं वह चुटकलेबाज़ी के स्तर भी उतर आता है। धूमिल की कविता में व्यंग्य का लक्ष्य जन-जागरण है। उसकी खीज, झल्लाहट, आक्रोश और घृणा अंततः व्यंग्य का पैना शस्त्र बनकर हर सामाजिक बुराई के कवच को चीर डालती है।

(iii) ग्रामीण संस्कारों से युक्त – धूमिल मूल रूप से ग्रामीण संस्कार के कवि हैं। शहर का आदमी सदा ही ग्रामीणों को मूर्ख, भोंदू, गँवार और पिछड़ा हुआ समझता रहा है और ग्रामीण की नजरों में शहरी आदमी सदा ही चालाक, धूर्त और स्वार्थी रहा है। गाँव और शहर में कभी भी आत्मीयता का संबंध नहीं रहा। धूमिल ने खास गँवईपन से नगरीय जीवन को केंद्र बनाकर अपने भावों को व्यक्त किया है।

(iv) नारी जाति के प्रति कोमल भाव – धूमिल के काव्य में नारी का सहज स्वाभाविक रूप प्रकट हुआ गया है। उन्होंने नारी को साइस और बलिदान की देवी माना है तथा वे नारी के किसी भी प्रकार के शोषण के विरूद्ध थे। उन्होंने विभिन्न परिस्थितियों से जूझती नारी के भिन्न प्रकार के चित्र अंकित किए हैं। जैसे किशोरावस्था की लड़की की मनोदशा का यह चित्रयुवती अभी प्यार के चोंचलों की
वर्नाक्यूलर सीख रही है
उसका एक पैर लाज और दूसरा ललक पर है।

(v) काव्य-भाषा – साठोत्तरी कविता के कवियों ने कविता के साथ-साथ काव्य की आलोचना के मानदंडों पर विचार किया है। कविता पर विस्तारपूर्वक विचार करने वाला कवि धूमिल काव्य के उत्स, प्रभाव, उद्देश्य पर ही विचार नहीं करता, बल्कि उसकी शाब्दिक संरचना को भी विश्लेषित करता है। कवि ग्रामीण वातावरण का था इसलिए उनके काव्य में गँवईपन है। इसी विशेषता ने इनके काव्य को धारदार बनाया है। ये अत्यंत जागरूक कवि थे और मानवता के प्रति श्रद्धावान थे। उनकी सपाटबयानी अति प्रसिद्ध है।

कहीं-कहीं उनकी काव्य-भाषा गद्यात्मकता के गुण ग्रहण किए हुए है। स्थितियों का जीवन चित्रांकन के कारण काव्य में विशेष भाव-भंगिमाओं का प्रयोग हुआ है। उनकी कविता में शोषित वर्ग के लिए करुणा और शोषक वर्ग के लिए आक्रोश भरा हुआ है। वे गहरी से गहरी अनुभूति को भी सरल ढंग से व्यक्त कर पाए हैं। इनकी भाषा में चिकोटी काटने का भाव है। इन्होंने मुहावरे, लोकोक्तियों और सूक्तियों का सुंदर प्रयोग किया है। इन्होंने कविता में संवादात्मक शैली का प्रयोग करके भाषा में जान फूँक दी है। इनकी प्रतीकात्मकता में अर्थ-साँदर्य छिपा हुआ है।

Ghar Me Wapsi Class 11 Hindi Summary

‘घर में वापसी’ धूमिल की गरीबी में संघर्षरत परिवार की व्यथा-कथा प्रस्तुत करने वाली एक मार्मिक कविता है। इसमें कवि ने स्पष्ट किया है कि गरीबी एक अभिशाप है। यह समस्त रिशे-नातों के बीच एक दीवार खड़ी कर देती है। एक ही परिवार में बसने वाले लोग परस्पर अजनबी बन जाते हैं। यह इतना निराश बना देती है कि एक ही घर में बसने वाले लोग न एक-दूसरे से बात करते हैं और न ही अपना दुख एक-दूसरे के सामने प्रकट करते हैं। वे भीतर-ही-भीतर घुट-घुटकर रह जाते हैं। इसलिए कवि कहता है कि रिश्ते तो हैं, पर खुलते नहीं। कितना अच्छा होता, यदि ये रिश्ते मधुर बन जाते।

घर में वापसी सप्रसंग व्याख्या

1. मेरे घर में पाँच जोड़ी आँखें हैं
माँ की आँखें पड़ाव्र से पहले ही
तीर्थ-यात्रा की बस के
दो पंचर पहिए हैं।
पिता की आँखें
लोहसाँय की ठंडी शलाखें हैं
बेटी की आँखें मंदिर में दीवट पर
जलते घी के
दो दिए हैं।
पत्नी की आँखें आँखें नहीं
हाथ हैं, जो मुझे थामे हुए हैं
वैसे हम स्वजन हैं, करीब हैं
बीच की दीवार के दोनों ओर
क्योंकि हम पेशेवर गरीब हैं।

शब्दार्थ – पड़ाव – मंज़िल। पंचर – हवा निकाले, फटे हुए। लोहसाँय – लोहे की भट्ठी। दीवट – दीपक रखने का आला। स्वजन – अपने लोग। करीब – निकट, पास।

प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘घर में वापसी’ नामक कविता से अवतरित किया गया है, जिसे श्री सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ ने लिखा है। इसमें कवि ने अभावग्रस्त पारिवारिक संबंधों में आए बिखराव का अंकन किया है। आधुनिक भौतिकतावादी युग में धन का अभाव आपसी रिश्ते-नातों को तोड़ देता है, जिसके परिणामस्वरूप एक ही छत के नीचे रहते हुए भी परिवार के सदस्य एक-दूसरे से अनजाने बने रहते हैं।

व्याख्या – पारिवारिक बिखराब का सजीव अंकन करते हुए कवि कहता है कि मेरे घर में पाँच जोड़ी आँखें हैं अर्थात जिस घर में मैं रहता हूँ उसमें मेरे समेत कुल पाँच लोग रहते हैं। उन पाँच सदस्यों में से एक मेरी माँ हैं, जिनकी आँखें उस तीर्थ यात्रा के लिए जा रही बस के पहियों के समान हैं जो पड़ाव पर पहुँचने से पहले ही पंक्वर हो गई हैं अर्थात् माँ की आँखें गरीबी के कारण असमय ही अपना महत्व और तेज खो बैठी हैं। मेरे पिता, जो मेरे साथ रहते हैं, गरीबी से पीड़ित हैं। लाचारी से उनकी आँखें लोहे की भट्ठी के समान बन गई हैं अर्थात् ज्योति रहित-सी हो गई हैं। मेरी बेटी की आँखें मंदिर में दीवट पर जलने वाले घी के पवित्र दीये के समान हैं।

भाव यह है कि निर्धनता के कारण असमय ही वे काली पड़ गई हैं। अभावों ने उसे भी नहीं छोड़ा। मेरी पत्ली भी है, जिसकी आँखें मेरे लिए आँखें नहीं, बल्कि हाथ हैं। वह मेंरे अभावग्रस्त जीवन में परम सहयोगिनी है। मुझे उसने अपने हाथों से थाम रखा है और गरीबी के असहाय जीवन को जीने का बल दिया है। इस प्रकार कहने को तो हम सभी स्वजन हैं, एक ही घर-परिवार के सदस्य हैं जो एक छत के नीचे रहते हैं पर पास-पास रहते हुए भी हम सबके बीचों-बीच विवशता की दीवार खिंची हुई है। उसने अनजाने ही हम सबको बाँट दिया है। हमारे बिखराव का मूल कारण यह है कि हम पेशेवर गरीब हैं। अभावों ने हमें बाँटकर रख दिया है।

विशेष :

  1. कवि ने गरीबी के कारण पारिवारिक बिखराव और विघटन का सजीव अंकन किया है। गरीबी एक ही छत के नीचे रहने वालों को भी एक-दूसरे से दूर कर देती है।
  2. कवि ने ‘पाँच जोड़ी आँखें’ का प्रयोग बिखराव को व्यंजित करने के लिए किया है।
  3. भाषा सरल, सरस और भावों को व्यंजित करने में समर्थ है। जीवन का यथार्थ अंकन संभव हो पाया है। पेशेवर गरीब शब्द नवीनता लिए हुए है ।
  4. लार्कणिकता और मार्मिकता का संयोजन हुआ है। श्लेष, अनुप्रास तथा रूपक अलंकार हैं। छंद युक्त रचना है।

2. रिश्ते हैं, लेकिन ख़लते नहीं हैं
और हम अपने खून में इतना भी लोहा नहीं पाते,
कि हम उससे एक ताली बनवाते
और भाषा के भुन्ना-सी ताले को खोलते,
रिश्तों को सोचते हुए
आपस में प्यार से बोलते,
कहते कि ये पिता हैं,
वह प्यारी माँ है, यह मेरी बेटी है
पत्नी को थोड़ा अलग
करते-तू मेरी
हमसफ़र है
हम थोड़ा जोखिए उठाते
दीवार पर हाथ रखते और कहते
यह मेरा घर है।

शब्दार्थ – रिश्ने – संबंध नाते। खून – रक्त। लोहा – शक्ति, दृढ़ता। भुन्नासी – जंग लगे जटिल ताले खोलते, संबंधों का दुराव मिटाते। हमसफ़र – जीवनसंगिनी। जोखिम – खतरा, कष्ट।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ द्वारा रचित कविता ‘घर में वापसी’ से ली गई हैं जिसमें कवि ने गरीबी और अभावों के कारण पारिवारिक संबंधों के टूरने की व्यथा कही है। भौतिकवादी युग में सारे रिशे -नाते पैसे की आधारशिला पर ही स्थापित होते हैं। गरीबी उनमें पीड़ा की दरार डालकर उन्हें अलग-अलग कर देती है। कवि सोचता है कि कुछ ऐसा किया जा सके जिससे ये पारिवारिक संबंध दृढ़ और मधुर बने रह सकेंें।

व्याख्या – कवि कहता है कि एक ही छत के नीचे रहनेवाले हम पाँच अभावग्रस्त कभी एक-दूसरे से खुल नहीं पाए, हमारे संबंध वैसे नहीं हैं जैसे कि होने चाहिए थे। निर्धनता, अभाव और विवशता ने हमारे रक्त को शक्ति-विहीन कर दिया है। हमारे रक्त में इतनी भी लोहे रूपी शक्ति नहीं है कि हम उससे चाबी बनवा कर भाषा रूपी ताले को खोल पाते ।भाव यह है कि हम कोई ऐसा उपाय ढृंढ़ पाते जिससे हम सब एक-दूसरे से सहज रूप में बोल पाते और एक-दूसरे का दुख दर्द बाँट पाते। हम हृदयों और संबंधों के बीच खिंची दीवारों को गिरा पाते।

माता-पिता, बेटी, पत्नी और पति में हमोरे जो जन्मजात रिश्ते-नाते हैं, उनको सोचकर हम एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक बोल पाते। मै प्यार और अपनत्व से भरे स्वर दूसरों से कह पाता कि यह मेंरे जन्मदाता पिता हैं, यह मेरी स्नेहमयी माता है, यह मेरी नन्ही-सी प्यारी-सी बेटी है। पत्नी की भावनाओं के आवेश में अन्य रिश्तों से थोड़ा अलग करके कह पाता है कि-तुम मेरी, सिर्फ मेरी हो। तुम मेरी जीवन संगिनी हो। हम आपसी स्नेह और प्रेम के संबंधों में बँधकर कष्ट सहते। हम जोखिम उठाकर, निर्धनता के कारण संबंधों में बनी दीवार पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि यह मेरा घर है। निर्धनता और पीड़ा-भरा जीवन जीकर भी हम आपसी प्यार को प्रकट कर पाते ?

विशेष :

  1. कवि ने धन-संपत्ति के अभाव के कारण उत्पन्न पीड़ाओं को अभिव्यक्त किया है। उसने सहज मानवीय अनुभूति को प्रकट किया है। कवि ने प्रेरणा दी है कि विपरीत स्थितियों में भी हम आपसी संबंध बनाए रखें।
  2. कवि की प्रतीक योजना सार्थक और समर्थ है। ‘ लोहा’ ऊर्जा शक्ति का प्रतीक है और ‘ वाली-ताला’ बंधन और उपाय का।
  3. भाषा-शैली सरस और भावपूर्ण है। कवि ने प्रयोगवादी शैली का अनुकरण करते हुए प्रतीक चिह्नों का प्रयोग किया है। छंद-मुक्त रचना है।
  4. लाक्षणिकता और मार्मिकता का प्रयोग हुआ है।
  5. ‘भुन्ना-सी’ शब्द का सुंदर प्रयोग हुआ है। रूपक और अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग है।

Hindi Antra Class 11 Summary

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Class 11 Hindi Antral Chapter 1 Summary – Ande Ke Chilke Vyakhya

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अंडे के छिलके Summary – Class 11 Hindi Antral Chapter 1 Summary

अंडे के छिलके – मोहन राकेश – कवि परिचय

‘अंडे के छिलके’ एकांकी के लेखक ‘मोहन राकेश’ हैं। लेखक ने इस पाठ में एक परिवार की विभिन्न रुचियों का सूक्ष्मता से वर्णन किया है। सभी सदस्य एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हुए उनके परिवार-विरूद्ध कार्यों को अम्माँ से छुपाते हैं। वे अंडे खाते हैं; सिगरेट पीते हैं; चंद्रकांता संतति पढ़ते हैं, परंतु अम्माँ सब कुछ जानते हुए भी अपने परिवार की एकता और स्नेह के लिए उसे अनदेखा कर देती हैं।

श्याम बारिश में भीगता हुआ आता है और अपनी भाभी को आवाज़ लगाता है। उसकी भाभी वीना उसे अपने कमरे में बुलाती है। श्याम कहता है कि उसे उनके कमरे में अपनापन नहीं लगता है। ऐसा लगता है? जैसे किसी पराये के घर आ गया हो। वीना ने शादी के बाद कमरे के रख-रखाव को पूरी तरह बदल दिया था, जिससे श्याम को कमरा पराया लगता था। श्याम बीना से चाय बनाने को कहता है। चाय के साथ समोसे और कचौरी लाने के लिए वीना से पूछता है। वीना बरसात के मौसम में समोसे-कचौरी की अपेक्षा अंडे का हलुआ बनाने की बात करती है। श्याम अंडे का नाम सुनकर वीना को चुप रहने के लिए कहता है, क्योंकि उसकी अम्माँ पुराने विचारों की है।

यदि अंडे का नाम भी सुन लिया तो इस बरसात में स्नान करना पड़ेगा। वीना कहती है कि उसने अपने कमरे में बिजली का स्टोव बेड-टी पीने के बहाने से रखा हुआ है। जब कभी अंडे खाने का मन होता है, वह उसी स्टोव पर बनाकर स्वयं और श्याम के भैया गोपाल दोनों खाते हैं। श्याम उसे अंडे का नाम लेने से मना करता है। वीना कहती है कि उसे यह अच्छा नहीं लगता कि खाने की चीज़ें छिपाकर खाई जाएँ।

श्याम इस शर्त के साथ अंडे लाने के लिए तैयार होता है कि यदि अम्माँ को अंडे की भनक मिल गई तो वह साफ बच निकलेगा और सारी बात वीना पर आएगी। श्याम और वीना में समझौता होता कि दोनों में से कोई कुछ नहीं कहेगा। श्याम के जाने के बाद वीना को कमरे के एक कोने में जुराब के अंदर अंडे के छिलके मिलते हैं। उसे लगता है कि उसके पति ने अंडे के छिलके छुपाने के लिए जुराब में ड्ाल दिए हैं।

वीना चाय बनाने के लिए पानी लेने जाती है। उसे अपनी जेठानी राधा का कमरा बंद दिखता है। वह राधा से दरवाज़ा बंद होने का कारण पूछती है। राधा कहती है कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है। वीना उसे चाय पीने के लिए कमरे में बुलाती है। रसोई में पानी लेते समय उसे ‘चंद्रकांता संतति’ नामक किताब मिलती है। वीना समझ जाती है कि राधा भाभी यह किताब पढ़ रही थी। राधा उससे किताब छीनने का प्रयल करती है। वीना उसे कहती है कि यह ऐसी किताब नहीं है जो छिपाकर पढ़ी जाए।

राधा कहती है कि अम्माँ जी को बुरा लगेगा कि दिन के समय में रामायण, महाभारत के स्थान पर किस्से-कहानियों की किताबें पढ़ी जाएँ। यह किताब तो कौशल्या भाभी ने जबरदस्ती पढ़ने के लिए दे दी। वीना कहती है कि यह किताब रामायण-महाभारत के आगे बचकाना लगती है। वीना की यह किताब पढ़ी हुई है, यह जानकर वह उससे उत्सुकता से आगे की कहानी पूछती है। उसी समय वीना का पति गोपाल बाहर से बारिश में भीगता हुआ आता है। गोपाल चाय बनी देखकर प्रसन्न होता है, लेकिन यह पता चलने पर कि यह चाय श्याम के लिए बनी है तो वह वीना से पूछता है कि आजकल वह श्याम पर मेहरबान क्यों है।

वीना कहती है, राधा जीजी को पता होगा कि गोपाल कहता है, उसकी भाभी तो देवी है, वह वीना की तरह ‘संज एंड़ लवर्ज’ नहीं पढ़ती। वह तो रामायण महाभारत पढ़ती है। मन में अच्छी भावना होनी चाहिए। वीना को भी उनसे कुछ सीखना चाहिए। राधा अपनी कमी छिपाती हुई कहती है कि वह तो स्वयं वीना से आज के समय की अच्छी बातें सीखने आई है। गोपाल राधा की आज्ञा लेकर सिगरेट पीता है। यह बताता है कि घर में राधा भाभी के सिवाए किसी को नहीं पता कि वह सिगरेट पीता है। राधा कहती है कि कुछ बातें दिल में ही रखनी चाहिए।

श्याम आता है और वीना को अंडे देता है परंतु राधा भाभी को देखकर असमंजस में पड़ जाता है। वीना कहती है कि भाभी किसी से नहीं बताएगी। गोपाल वीना से कहता है कि उसने उसे कहा था कि घर में किसी से इसके बारे में बात नहीं करना। वीना उसे जवाब देती है कि जब सिगरेट का भाभी से छिपाव नहीं तो अंडों का क्यों छिपाव रखते हो। राधा कहती है कि उसे पहले से ही पता है कि उनके कमरे में अंडे बनते हैं क्योंकि वह तो उसकी गंध से पहचान जाती है। राधा ने कभी अंडे खाए नहीं हैं। गोपाल राधा से कहता है कि भैया से मत बताना।

गोपाल श्याम को कमरे का दरवाज़ा बंद करने के लिए कहता है कि इतने में बाहर से अम्माँ आवाज़ लगाती हुई आ जाती है। श्याम उन्हें कमरे के बाहर दरवाज़े पर रोकता है लेकिन वह कमरे में आ जाती है। जमुना गोपाल से कमरे की छत टपकने की बात करती है। वह देखती है कि उन्हें देखकर सब चुप हो गए हैं, और वीना एक कोने में चम्मच लिए खड़ी है तो गोपाल कहता है कि वीना का हाथ जल गया है उसके लिए मरहम दूँढ़ रहा हूँ। जमुना पूछ्ती है कि हाथ कैसे जल गया है तो गोपाल कहता है कि श्याम के लिए चाय बना रही थी, उसी समय जल गया।

जमुना से फ़िक्र न करने के लिए कहता है। जमुना कहती है कि उसे पता था कि यह बिजली का स्टोव कुछ न कुछ तो जरूर करेगा। जमुना स्टोव पर फ्राइंग पैन रखा देखती है और पूछती है कि इस समय क्या बन रहा था। वह फ्राइंग पैन से ढक्कन उठाकर देखना चाहती है लेकिन गोपाल उसे बीच में ही रोक देता है और कहता है कि स्टोव तो बुझ़ा हुआ भी करंट मार देता है। जमुना कहती है कि हाथ नहीं लगाती पर यह तो बता कि इसमें बना क्या रखा है। यह सुनकर सब घबरा जाते हैं। उस समय राधा बात को सँभालती है कि श्याम के क्रिकेट खेलते समय चोट लग गई थी। इसलिए वीना से कहकर पुलटिस बनवा दी थी।

जमुना कहती है कि चोट पर वह गोपाल अम्माँ को आराम से बैठने के लिए कहता है। पुलटिस तो बीना बाँध देगी। अम्माँ श्याम को डाँटती है कि चोट लगवाकर सबको परेशान करता रहता है। अम्माँ श्याम के हाथ में चंद्रकांता संतति किताब देखती है तो पूछती है कि यह किताब कौन-सी है। वीना कहती है कि यह किताब राधा भाभी की रामायण-गुटका है। अम्माँ कहती है कि रामायण-गुटका तो छोटी होती हैं। यह तो बड़ी है। श्याम बात बनाते हुए कहता है कि इस बार रामायण-गुटका के स्थान पर नए एडीशन में रामायण का साइड़ बड़ा बना दिया है। वह अम्माँ से उसके कमरे में छोड़कर आने की बात करता है।

गोपाल अम्माँ को उनके कमरे में छोड़ आता है। अम्माँ के जाते ही श्याम जल्दी से फ्राइंग पैन में रखा हलुआ खा जाता है। उसे गोपाल आकर बताता है कि बड़े भैया आ रहे हैं, जल्दी फ्राइंग पैन हटा दो और अंडे के छिलके को कोट की जेब में छिपा दो। इतने में बड़े भैया माधव आ जाता है। वह पूछता है कि कोट की जेब में क्या छिपाया जा रहा है। गोपाल को कोई जवाब नहीं सूझता। माधव कहता है कि छिलके जेब में छिपा रहे थे। गोपाल कहता है कि वह तो मज़ाक कर रहा था। माधव श्याम से पूछता है कि वह क्या खा रहा है।

श्याम घबराते हुए कहता है कि वह पुलटिस खा रहा है। माधव कहता है कि पुलटिस भी खाने के काम आने लगी है। पुलटिस उसी चीज़ की बनी है जिसके छिलके छिपाए जा रहे हैं। माधव गोपाल से कहता है कि छिलके जेब में रखने की बजाय नाली में डाल दो। अम्माँ को पता है कि घर में क्या हो रहा है कि गोपाल के कमरे में क्या बनता है। श्याम कमरे में दूध क्यों पीता है ? सबके-सो जाने पर उसकी पत्ती मोमबत्ती जलाकर कौन-सी किताब पढ़ती है ? अम्माँ तो माधव की भी सभी बाते जानती है जो कोई नहीं जानता। आगे से छिलके नाली में डाल दिया करो, अम्माँ देखकर भी नहीं देखेगी। सब कुछ देखकर भी अनदेखा कर देगी।

कठिन शब्दों के अर्थ :

  • पराए – दूसरे के, अन्य के
  • सरकार बदलना – हुलिया बदलना
  • संयम – धैर्य
  • इश्नान – स्नान
  • मुकर जाना – मना करना
  • मोज़ा – जुराब
  • संझा – संध्या, शाम
  • झाँसा – धोखा, बहलावार
  • उद्धार – मुक्त, आज़ाद
  • लंघन – पार करना
  • इज्ञाजत – आज्ञा
  • मेहरबानी – कृपा
  • हील-हुज्जत – ना-नुकर करना
  • बेबस – मजबूर, विवश
  • इंतज़ाम – प्रबंध
  • बाज़ वक्त – कोई समय
  • हौसला – हिम्मत
  • हरगिज़ – बिलकुल
  • भनक पड़ना – पता चलना
  • जान निकलवाना – कठिनाई में डालना
  • ज़ाहिर – उजागर
  • सौगात – भेंट, उपहार
  • अनमनी – उदास, सुस्त
  • बाँच – पढ़
  • गलतफ़हमी – धोखे में रहना
  • दस्तूर – परंपरा, रिवाज
  • इकबाल – इक्ज़त, प्रतिष्ठा
  • असमंजस – दुविधा
  • काठ-से – जड़ समान, स्थिर
  • फेंटना – मिलाना
  • एहतियात – सावधानी
  • महसूस – अनुभव
  • नाहक – व्यर्थ, बेकार
  • पुलटिस – एक घरेलू द्वा जो मोच आदि पर बाँधी जाती
  • वाकई – वास्वव में
  • मरदूद – नीच
  • खामखाह – व्यर्थ
  • बगैर – बिना
  • इस्तेमाल – उपयोग

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Class 11 Hindi Antral Chapter 2 Summary – Hussain Ki Kahani Apni Jubani

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हुसैन की कहानी अपनी ज़बानी Summary – Class 11 Hindi Antral Chapter 2 Summary

हुसैन की कहानी अपनी ज़बानी – मोहन राकेश – कवि परिचय

‘बड़ौदा का बोरिंग स्कूल’ ‘मकबूल फ़िदा हुसैन’ लिखित संस्मरण है। दादा के मरने के बाद मकबूल चुप रहने लगा था। वह अब बड़ा अपनी उम्र से लगने लगा था। उसे अपने दादा से बहुत प्यार था। उसकी गुम-सुम रहनेवाली स्थिति देखकर उसके पिता ने उसे बड़ौदा के बोडिंग स्कूल में भेज दिया। वहाँ पढ़ाई के साथ मजहबी शिक्षा भी दी जाती थी। बड़ौदा शहर महाराजा सियाजीराव गायकवाड़ का था। उस समय इस शहर की एक खास बात यह थी कि यहाँ का राजा मराठा था और प्रजा गुजराती थी।

बड़ौदा का बोडिंग स्कूल गांधी जी के अनुयायी जी० एम० हकीम अब्बास तैयबजी की देख-रेख में चलता था। गांधी-भक्त होने के कारण वे छात्रों के सिर मुँड़वाकर सिर पर गांधी टोपी और बदन पर खादी का कुरता-पायजामा पहनने के लिए देते थे। यहाँ मकबूल की दोस्ती छह लड़कों से हुई है। ये सब लड़के दिल से एक-दूसरे के बहुत करीब आ गए थे और ये नजदीकियाँ कभी भी दूर रहते हुए भी कम न ही हो पाई थी। स्कूल के वार्षिक समारोह में खास मेहमानों और उस्तादों की गुप फोटोग्राफ़ खींचे जा रहे थे। उन फोटो में मकबूल भी अवसर देखकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा लेता था।

मकबूल ने स्कूल में हाई जंप में प्रथम स्थान प्राप्त किया परंतु दौड़ में फिसड्डी रहा। ड्राइंग मास्टर ने ब्लैक बोई पर चिड़िया बनाई और सब बच्चों को उसे देखकर बनाने के लिए कहा। मकबूल ने स्लेट पर बिलकुल वैसी ही चिड़िया बनाई जैसी मास्टर ने बनाई थी। उसे इसमें दस में से दस अंक मिले। दो अक्तूबर को मकबूल ने समारोह आरंभ होने से पहले गांधी जी का पोट्रेट ब्लैक-बोर्ड पर बनाया जिसे देखकर अब्बास तैयब जी खुश हुए। स्कूल के समारोह में बोलने के लिए मौलवी अकबर ने मकबूल को ‘इलम’ पर दस मिनट का भाषण तैयार करवाया। उस भाषण के अनुसार जिसके पास कोई हुनर नहीं है वह दुनिया का चहेता होते हुए भी लोगों के दिलों को जीत नहीं सकता।

उस समय किसी को भी यह नहीं पता था कि यह लड़का बड़ा होकर सारी दुनिया में अपना कमाल फैलाएगा। मकबूल के चाचा मुरादअली को रानीपुर बाजार में मकबूल के पिता ने एक जनरल स्टोर की दुकान खुलवा दी। फ़िदा साहब स्वयं ‘मालवा टेक्सटाइल’ में चौकीदार थे परंतु उनकी बिजनेस में दिलचस्पी थी। छुद्टी के दिन वह मकबूल को दुकान पर व्यापार के गुर सीखने के लिए भेजते थे। उन्होंने अपने भाई मुरादअली के लिए एक काम न चलने पर दूसरा काम खुलवा कर दिया। मकबूल को भी उन दुकानों पर साथ बैठाया गया, परंतु उसका सारा ध्यान ड्राइंग और पेंटिंग में लगा रहता था।

उसे दुकान की चीजों के मूल्य-भाव याद नहीं रहते थे, परंतु वह गल्ले का हिसाब-किताब सही रखता था। बहियों में ही वह स्केच बनाता रहता। जनरल स्टोर पर बैठकर आगे से गुज़रनेवाले लोगों के मकयूल तरह-तरह के स्केच बनाता। एक मेहतरानी (नौकरानी) अकसर दुकान से सामान लेकर जाती थी। उसने उसके कई तरह के स्केच बना दिए थे। वह समय साइलेंट फिल्मों का था। उस समय फ़िल्मों के इशितहार रंगीन पतंग के कागज़ पर हीरो-हीरोइन की तसवीरों के साथ छापे और बँटट जाते थे। मकबूल ने कोल्हापुर के शांताराम की फ़िल्म ‘सिंहगढ़’ का पोस्टर देखा। रंगीन कागज़ की पतंग पर एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में ढाल लेकर एक मराठा योद्धा खड़ा था।

मकबूल ने उस पोस्टर की ऑंयल पेंटिंग बनानी चाही। मकबूल के पिता उसे बिजनेसमैन बनाने का सपना देखे हुए थे, इसलिए उन्होंने उसे ऑयल कलर नहीं दिलवाए। मकबूल ने अपनी चाहत पूरी करने के लिए अपनी स्कूल की दो किताबें बेच दीं और ऑयल कलर की ट्यूब खरीदकर चाचा की दुकान पर बैठकर पहली ऑयल पेंटिंग बनाई। चाचा ने पिता से इस बात की शिकायत कर दी। पिता ने पेंटिंग देखकर पुत्र को अपने गले लगा लिया।

मकबूल इंदौर के सर्राफ़ा बाज़ार के करीब ताँबे-पीतल की दुकानों की गली में लँंडस्केप बना रहा था। वहाँ उसकी मुलाकात बंंद्रे साहब से हुई। वे ऑन स्पॉटट पेंटंग करते थे, उसे उनकी यह तकनीक अच्छी लगी। इस मुलाकात के बाद अकसर वह बेंद्रे के साथ लँडस्केप पेंट करने जाया करता था। 1933 में बेंद्रे ने कैनवास पर एक पेंटिंग शुरू की; उसमें अपने भाई को पठान के रूप में मॉंडल बनाया। उस पेंटिंग में फ्रेंच इंग्रेशन की झलक थी। उस पेंटिंग को ‘बंबई आर्ट सोसायटी’ ने बेंद्रे को चाँदी का मेडल दिया।

हिंदुस्तानी मॉडर्न आर्ट में शायद यह पहला क्रांतिकारी कदम था। इस पेटिंग में जोश की सुर्खी कम जवानी का गुलाबीपन ज्यादा था। राजा रवि वर्मां और गजेंद्रनाथ टैगोर ने भी पेंटिंग में अपने तज़ुर्ब किए। वे ज्यादा दर तक आर्ट की दुनिया में टिके नहीं रहे। बेंद्र के गुलाबीपन ने कुछ समय तक अपना प्रभाव बनाए रखा। उन्हें बड़ौदा के ‘फ़ैकल्टी ऑफफ फ़ाइन आर्ट’ का डीन बना दिया गया।

मकबूल ने पेंटिंग की शुरुआत इंदौर जैसी जगह में बेंदे के घर से की। एक दिन बेंद्रे ने मकबूल के पिता से मिलकर उनके काम की बात की। बेंद्रे की बात सुनकर उसके पिता ने अगले दिन बंबई से ‘विनसर न्यूटन’ ऑयल द्यूब मँगवाने का ऑर्डर दे दिया। उन दिनों पेंटर बनने की सोचना आश्चर्य की बात थी। मकबूल के पिता ने सारी मान्यताओं को नज़रअंदाज़ करके अपने बेटे को जिंदगी में रंग भरने की इज्ञाज़त दे दी।

कठिन शब्दों के अर्थ :

  • चल बसे – मर गए
  • अब्बा – पिता
  • गुमसुम – खोया-खोया, चुपचाप रहना
  • हवाले – सुपुर्द
  • आचरण – चालचलन
  • सबक – पाठ
  • पाकीज़मी – पवित्रता
  • जमात – श्रेणी
  • अनुयायी – मानने वाले
  • उस्ताद – गुरु, विद्वान
  • सालन – सब्ज़ी
  • तमाम – सारी
  • मुश्क – सुगंध
  • खास – विशेष
  • हूबहू – बिलकुल वैसी, ज्यों की त्यों
  • सालगिरह – वर्षगाँठ
  • पोट्टेट – रेखाचित्र
  • इलम – ज्ञान
  • बाकायदा – नियम के अनुसार
  • हुनर – कला, गुण
  • कमाल – कुशलता, निपुणता
  • हासिल – प्राप्त
  • बिज्ञनेस – व्यापार
  • दिलचस्पी – रुचि
  • कैदे बामशक्कत – परिश्रम के साथ सज्जा काटना
  • सिज़़े – नमस्कार करना, माथा टेकना
  • लैंडस्केप – प्राकृतिक दृश्य
  • ऑनस्प्पॉट पेंटिग – स्थान पर चित्र बनाना
  • टेकनीक – तरीका, ढंग
  • इत्तफ़ाकी – अचानक
  • रियलिज्म – यथार्थवाद
  • एक्सप्रेशनिस्ट – सुविवेचित
  • बंदिशों – बंधनों
  • तज़ुर्बें – अनुभव
  • अर्सें – समय
  • हर दिल अजीज़ – सर्वप्रिय
  • ताज्जुब – हैरानी
  • माहौल – वातावरण
  • इख्तियार – वश, काबू
  • शगल – शौक
  • अख्याश – बिलासी
  • रोशनख़याली – विचारों की आज़ादी
  • नज़्रअंदाज – अनदेखा करना
  • मशवरे – सलाह
  • तमाम – सारी
  • रिवायती – परंपराएँ

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Class 11 Hindi Antral Chapter 3 Summary – Awara Masiha

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आवारा मसीहा Summary – Class 11 Hindi Antral Chapter 3 Summary

आवारा मसीहा – विष्णु प्रभाकर – कवि परिचय

‘आवारा मसीहा’ के लेखक ‘विष्णु प्रभाकर’ हैं। इस पाठ में लेखक ने उन सभी परिस्थितियों का वर्णन किया है जो शरतचंद्र को रचनाकार बनने की आधार-भूमि और प्रेरणा-स्रोत बर्नी। शरत् अपने मामा सुंेंद्र के साथ बाग में घूमने जाता है। सुरेंद्र मामा होते हुए उससे उम्र में छोटा था इसलिए दोनों में मित्रता का संबंध था। शरत भागलपुर छोड़कर जा रहा था। उसके जाने से सुेंद्र दुखी था। वह उसे सांत्वना देते हुए कहने लगा कि वह फिर वापस भागलपुर आएगा क्योंकि भागलपुर बहुत प्यारी जगह है।

शरत को अपनी माँ और पिता जी के साथ नाना के घर रहते हुए तीन वर्ष हो चुके थे। जब उसकी माँ उसे उसके जन्म के बाद पहली बार लेकर आई थी। उस समय उसके नाना-नानियों ने उस पर धन और अलंकारों की वर्षा की थी। नाना केदारनाथ ने कमर में सोने की तगड़ी पहनाकर उसे गोद में उठाया था। वह इस पीढ़ी का पहला लड़का था। तीन वर्ष पहले वे लोग भागलपुर इसलिए आ गए थे क्योंकि उसके पिता मोतीलाल कोई काम नहीं करते थे। वे कल्पना में जीने वाले इनसान थे।

कहीं भी अधिक देर काम नहीं करते थे। उनका जल्दी ही बड़े अफसरों से झगड़ा हो जाता था। उन्हें कहानी, उपन्यास, नाटक आदि सभी कुछ लिखने का शौक था। उनकी कहानियों का आरंभ बहुत सुंदर होता था लेकिन अंत उतना ही महत्वहीन। उन्होंने कभी भी अंत की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं किया था। उनकी इन आदतों के कारण घर को चलाना कठिन हो गया था। इसलिए शरत की माँ भुवनमोहिनी सबको साथ लेकर अपने पिता केदारनाथ के घर भागलपुर चली गई। मोतीलाल घर-जँवाई बनकर रहने लगे।

शरत् के नाना ‘दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल’ के मंत्री थे इसीलिए बिना पूछ-ताछ के उसका दाखिला छात्रवृत्ति कक्षा में कर दिया गया। उसने अब तक केवल ‘बोधोदय’ तक पढ़ा था। यहाँ इस कक्षा में उसे ‘सीता वनवास,’ ‘चारुपाठ,’ ‘सद्भाव-सद्युरु और ‘प्रकांड व्याकरण’ पढ़ना पड़ा। इससे शरत पढ़ाई में पीछे रह गया। उसका साहित्य से पहला परिचय आँसुओं के माध्यम से हुआ। उसे लगता था कि साहित्य का काम मनुष्य को केवल दुख पहुँचाना है। उसे कक्षा में पीछे रहना सहन नहीं हुआ। उसने बड़ी लगन और मेहनत से पढ़ाई आरंभ कर दी जिससे वह क्लास में अच्छे विद्यार्थियों में गिना जाने लगा। नाना का परिवार संयुक्त परिवार था।

नाना के कई भाई थे। छोटे नाना अघोरनाथ का बेटा मर्जंंद्र उसका सहपाठी था। उन दोनों को घर पर अक्षय पंडित पढ़ाने आते थे। उनका विश्वास था कि विद्या का निवास गुरु के डंडे में है। शरत शरारती बालक था। पढ़ते समय भी उसकी शरारतें चलती रहती थी। एक दिन अक्षय पंडित बुखार होने के कारण पढ़ाने नहीं आए। नाना उन्हें देखने के लिए चले गए। वे सभी तेल के दीए के चारों ओर बैठे पढ़ रहे थे। नाना के जाते ही शरत कविता गाने लगा और सभी बच्चे उसका अनुकरण करने लगे। एक दिन कमरे में चमगादड़ का बच्चा घुस गया।

वहाँ नाना जी और छोटा मामा देवी सोए हुए थे। शरत और मणि के हाथों में खुजली होने लगी कि चमगादड़ के बच्चे को लाठियों से मारा जाए। एक लाठी दीये पर जाकर लगी, जिससे दीया गिर गया और तेल चादर पर फैल गया। शरत और मणि यह देखते ही वहाँ से भाग गए। नाना ने उठकर देखा कि कमरे में अँधेरा हो गया। नौकर से पूछा तो उसने सारी बात पास सो रहे देवी मामा पर डाल दी। उस दिन देवी मामा को रात अस्तबल में काटनी पड़ी।

शरत के बड़े मामा सभी बच्चों की शिक्षा की देखभाल करते थे। वे गांगुली परिवार की कट्टरता और कठोरता के प्रतिनिधि थे। एक दिन मोतीलाल बच्चों को लेकर गंगा किनारे घूमने निकल गए। ठाकुरदास मामा को पता चल गया। व्यर्थ घूमना उनके लिए बहुत बड़ा अपराध था। उन्होंने सभी बच्चों की परीक्षा ली जिसमें से मणि और शरत बच गए लेकिन देवी फँस गया। उस दिन चावुक की मार के साथ-साथ अस्तबल में बंद होना पड़ा। शरत पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। शरत स्कूल में बहुत शरारतें करता था।

अक्षय पंडित को काम के बाद तमाकू खाने की आदत थी। इसी कारण वे क्लास छोड़कर पान खाने चले जाते। पीछे से शरत लड़कों का नेता बनकर घड़ी को आगे कर देता था। शुरू में दस मिनट आगे चलने लगी थी। फिर धीरे-धीरे उसका समय एक घंटा आगे पहुँच गया। अक्षय पंडित को संदेह हुआ। एक दिन वे समय से पहले कक्षा में लौट आए थे। उन्हें देखकर सभी बच्चे भाग गए, केवल शरत भोला-सा मुँह बनाए अपना काम करता रहा। मास्टर के पूछने पर वह साफ़ बच निकला कि उसे कुछ नहीं पता, वह तो चुपचाप बैठा काम कर रहा था। उसकी इन्हीं बातों के कारण सबका विश्वास उस पर जम गया था।

शरत को पशु-पक्षी पालने और उपवन लगाने का बहुत शौँक था। तितली पालना उसका प्रमुख शौक था। उसने तितलियों को लकड़ी के डिब्चे में बंद-कर रखा था। वह बड़े प्यार से उनकी देखभाल करता था। वह सभी बच्चों के बीच तितली-युद्ध का प्रदर्शन भी करता था। सभी बच्चे अपने-अपने छंग से शरत् को प्रसन्न रखते थे। उसके उपवन में ऋलुतु के अनुसार जूही, बेला, चंद्रमल्लिका और गेंदा आदि के फूल थे। उपवन के बीचोबीच उसने एक गड्ढा खोदकर तलैया का निर्माण कर रखा था। उस पर टूटा हुआ शीशा ढक रखा था।

वह साधारणतया उस पर मिट्टी लीप देता था परंतु यदि कोई व्यक्ति विशेष देखने आता था तो मिट्टी हटाकर उसको चकित कर देता था। वह ऐसे सभी काम नाना-लोग से छिपकर करता था। घर में बच्चों की पढ़ाई के लिए नियम बनाए गए थे। जो नियम तोड़ता था उसे उसकी आयु के अनुसार दंड दिया जाता था। शरत आँखों में धूल झोंककर खेलने चला जाता था। छात्रवृत्ति की परीक्षा के उपरांत उसे अंग्रेज़ी स्कूल में दाखिल करवा दिया गया। वहाँ भी वह पढ़ाई में होशियार था। शरत् को सभी खेल प्रिय थे। शरत् सभी खेलों में निपुण था। वह बागों में से फल चुराने में कुशल था। शरत्चंद्र ने अपनी रचनाओं में अपने सभी पात्रों जैसे देवदास, श्रीकांत, दुर्दातराम और सव्यसाची को इस कला में निपुण दिखाया है।

शरत् में अपने पिता की तरह अच्छा साँदर्य-बोध था। वह अपना सारा सामान सजाकर और सहेजकर रखता था। उसका स्वभाव दूसरों को देना था। वह दिन-भर में जितनी गोलियाँ और लट्टू जीतता था, सभी को छोटे बच्चों में बाँट देता था। वह बचपन से स्वल्पाहारी था। शरतचंद्र की ‘बड़ी बहू’ सबसे अधिक इसीलिए परेशान रहती थी। वह पढ़ते हुए अपने शरीर का भी बड़ा ध्यान रखता था। उसके मामा के घर के पास एक मकान खाली था, जहाँ उसने कुश्ती का अखाड़ा तैयार कर लिया था। गोला फेंकने के लिए गंगा में से पत्थर इकट्ठे कर लिए थे। पैंरलल बार के लिए बाँस रख लिया था। यह सब काम घरवालों से छिपकर किए गए थे।

एक बार मणि और शरत ताल पर स्नान करने चले गए। घर पर उनके ताल पर नहाने का पता चल गया। अघोर मामा ने मणि को बहुत मारा। शरत को मामी ने गोदाम में छिपा दिया था। तीन दिन बाद वह गोदाम से निकला। उसे खेलने के साथ पढ़ने का भी बहुत शौक था। उसने पिता के संग्रहालय की सभी पुस्तकें पढ़ ली थीं। एक बार उसके हाथ एक पुस्तक लगी जिसका नाम ‘संसार कोश’ था। उसमें कई तरह के मंत्र दिए हुए थे। शरत ने उन मंत्रों की परीक्षा करनी आरंभ कर दी। एक मंत्र साँपों को वश में करने का था। उसने एक साँप के बच्चे को वश में करने की कोशिश की, परंतु वह फण उठाकर फुँफकारने लगा था। सब बच्चे डर गए। मणि ने लाठी उठाकर उस साँप के बच्चे को मार दिया था।

कभी-कभी शरत किसी को बिना बताए गायब हो जाता था। फिर अचानक स्वयं प्रकट हो जाता था। पूछने पर कहता कि तपोवन गया था। तपोवन घोष परिवार के मकान के उत्तर में गंगा के बिलकुल पास था। इसमें एक कमरे को नाना प्रकार की लताओं से ढक लिया था जिसमें सूर्य की किरणें छन-छन कर उसके अंदर आती थी। शरत ने बताया उसे यहाँ बैठना अच्छा लगता है। यहीं बैठकर उसके दिमाग में बड़ी-बड़ी बातें आती हैं। सुरेंद्र को वह स्थान वास्तव में तपोवन लग रहा था। सुरेंद्र ने उस स्थान पर बैठकर मन ही मन प्रतिज्ञा की कि वह जीवन-भर सॉँदर्य की उपासना करेगा और अन्याय के विरुद्ध लड़ेगा।

शरत के अंकगणित में कभी पूरे अंक नहीं आए थे फिर भी अंग्रेजी स्कूल में प्रथम वर्ष की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था जिससे मिन्रों और गुरुजनों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई थी। स्कूल के पुस्तकालय से उसने उस युग के सभी प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएँ पढ़ ली थी। एक दिन अवकाश प्राप्त अध्यापक अघोरनाथ अधिकारी के साथ शरत गंगा-घाट पर स्नान करने के लिए जा रहा था। रास्ते में एक टूटे हुए घर से एक स्त्री के धीरे-धीरे रोने का स्वर आ रहा था। अघोरनाथ महोदय ने पूछा कि यह क्यों रो रही है ? शरत् ने बताया कि इस स्त्री का अंधा पति मर गया। दुखी लोग बड़े आदमियों की तरह दिखावे के लिए जोर-जोर से नहीं रोते।

इनका रोना तो दूसरे के प्राणों तक को भेद जाता है। अधिकारी महोदय छोटे-से बालक के मुँह से रोने का इतना सूक्ष्म विवेचन सुनकर चकित रह गए। उन्होंने अपने मित्र से शरत की चर्चा की। उनके मित्र ने कहा कि जो बालक अभी से रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है, वह निश्चय ही बड़ा होकर मनस्तत्व के व्यापार में अपना नाम ऊँचा करेगा। इस परिवार में केदारनाथ के चौथे भाई अरमनाथ पर नवयुग की हववा का कुछ प्रभाव था। उनकी साहित्य में रुचि थी। उनके द्वारा ही बंकिमचंद्र का ‘बंगदर्शन’ गांगुली परिवार में आ सका था। बंकिमचंद्र के गाँव ‘कांवालपाड़ा’ की एक लड़की गांगुली परिवार में बहू बनकर आई हुई थी। अमरनाथ के द्वारा लाया गया ‘बंगदर्शन’ भुवनमोहिनी से मोतीलाल के पास और वहाँ से कुसुमकामिनी की बैठक में पहुँच जाता था।

दुर्भाग्य से अमरनाथ की जल्दी ही मृत्यु हो गई जिससे सबसे अधिक दुःख बच्चों को हुआ था। अमरनाथ की कमी मोतीलाल और कुसुमकामिनी ने पूरी की। कुसुमकामिनी अघोरनाथ नाना की पल्ली थी। कुसुमकामिनी ने छात्रवृत्ति परीक्षा में ईश्वरचंद्र विद्यासागर से पुरस्कार प्राप्त किया था। कुसुमकामिनी अपना घर का काम समाप्त करके बैठक या छत पर छोटी-मोटी गोष्ठी करती थी। वह बच्चों को कई प्रकार की पुस्तकें पढ़कर सुनाती थी। उनके पढ़ने का ढंग मर्मस्पर्शी था। शरत् सोचता था कि लेखक भी असाधारण व्यक्ति होते हैं।

वह लेखक को मनुष्य से ऊपर मानता था। बहुत दिनों बाद उसने ‘बंगदर्शन’ में कविगुरु की युगांतकारी रचना ‘आँख की किरकिरी’ पढ़ी थी। इस कविता ने उसे एक नए प्रकाश और साँदर्य से भरे संसार में पहुँचा दिया था। वह उस कविता को जीवन-भर नहीं भूल सका। कुसुमकामिनी की गोष्ठी में इस परिवार का एक और सदस्य शामिल हुआ जो कि बाहर रहकर पढ़ता था। उसने रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता ‘प्रकृतिर प्रतिशोध’ सुनाई थी। उस कविता को सुनकर शरत् की आँखों में आँसू आ गए थे। शरत् का अपने नाना के परिवार में अपने पिता के कारण अधिक समय रहना संभव न हो सका। उसके पिता वह सभी कार्य करते थे जो घर में मना थे।

वह बच्च्चों की शरारतों में अपरोक्ष रूप से सहायता करते थे। कथाशिल्पी शरत्चंद्र ने ‘काशीनाथ’ में काशीनाथ को घर-जँवाई के रूप में दिखाया हैं, उसे भी मानसिक सुख नहीं था। गांगुली परिवार में अचानक एक घटना घट गई। केदारनाथ की पत्नी ताँगे से गिर गई थी। उन्हें काफी चोट लगी थी। डॉक्टर ने उन्हें कलकत्ता ले जाने के लिए कहा। उस समय तक परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ चुकी थी। सभी भाई अलग-अलग रहने लगे थे। अमरनाथ की बेटी विवाह योग्य हो चुकी थी। पितृहीन कन्या का विवाह देर से करने से अपवाद खड़ा हो सकता था। उस समय केदारनाथ ने मोतीलाल से देवानंदपुर जाकर काम करने के लिए कहा। मोतीलाल, भुवनमोहिनी और शरत् देवानंदपुर लौट आए थे।

देवानंदपुर लौटने से पहले शरत् का परिचय गांगुली परिवार के पड़ोस में रहने वाले राजू मजूमदार से हुआ। राजू मजूमदार के पिता रामरतन मजूमदार के सात बेटे थे। उन्होंने सभी के लिए कोठियाँ बनवा रखी थी। उन्हें पुरातनपंथी बंगाली समाज से निकाल दिया था। वे आधुनिक समाज का अनुकरण करते थे। गांगुली परिवार से उनका मनमुटाव था। राजू घर के स्वतंत्र वातावरण के कारण साहसी था। वह भी शरत की तरह पतंगबाजी के द्वंद्वयुद्ध में पारंगत था। राजू ने पैसे के बल से माँझा और पतंग खरीद लिए थे।

शरत ने अपना माँझा स्वयं तैयार किया था। दोनों में पेंच पर पेंच लड़ रहे थे। शरत ने राजू की पतंग काट दी थी। राजू ने अपनी पतंग और माँझा उसी समय गंगा को अर्पित कर दिया। वहीं से राजू और शरत मित्र बन गए। दोनों की रुचि काफ़ी सीमा तक एक जैसी थी। घर के अनुशासन ने शरत को राजू के नजदीक कर दिया। यही समय जीवन के सर्वांगीण विकास का प्रारंभिक काल माना जाता है। उसने परिवार के बाहर प्रेरण-स्रोत का खजाना दूँढ़ लिया था। उसमें प्रारंभ से ही महान बनने के गुण विद्यमान थे।

मोतीलाल चट्टोपाध्याय के पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय चौबीस परगना ज़िले में काचड़ापाड़ा के ब्राहमण परिवार के थे। मोतीलाल के पिता निर्भीक और स्वाधीनचेता व्यक्ति थे। वह समय जरीदारों के अत्याचारों का था परंतु वे सभी किसी से नहीं दबे थे। उन्होंने सदा प्रजा का पक्ष लिया। इसी कारण वे जमींदारों के क्रोध का शिकार हो गए। जर्मीदार ने उन्हें किसी मुकदमे में झूठी गवाही देने के लिए कहा। बैकुंठनाथ ने इनकार कर दिया। मोतीलाल उस समय बहुत छोटे थे। एक दिन बैकुंठनाथ घर से गायब हो गए।

बैकुंठनाथ की पत्ली बेटे को गोद में लिए सारी रात इंतजार करती रही। सुबह आकर एक आदमी ने बताया कि स्नानघाट पर बैकुंठनाथ का शव पड़ा है। बैकुंठनाथ की पत्नी जमींदार के डर से खुलकर रो नहीं पाई थी। बड़े-बूढ़े की सलाह पर मोतीलाल को लेकर रातों-रात देवानंदपुर अपने भाई के पास आ गई थी। मोतीलाल का विवाह भागलपुर के केदारनाथ गंगोपाध्याय की दूसरी बेटी भुवनमोहिनी के साथ हुआ था। केदारनाथ के पिता रामधन गंगोपाध्याय बहुत गरीब थे। अपनी गरीबी से तंग आकर वे आजीविका की खोज में हाली आकर बस गए। यहाँ उन्होंने बहुत मेहनत की थी और जल्दी संपन्नता और प्रतिष्ठा प्राप्त की।

मोतीलाल से उनके वंश कुलीनता के कारण ही उन्होंने अपनी बेटी की शादी की थी। मोतीलाल ने उसके पास रहकर मैट्रिक पास की थी। फिर आगे पढ़ने के लिए पटना चले गए। केदारनाथ का छोटा भाई अघोरनाथ उनका सहपाठी था। दोनों के स्वभाव एक-दूसरे के विपरीत थे। मोतीलाल कॉलेज में अधिक समय तक टिक नहीं सके थे। देवानंदपुर लौटकर कोई नौकरी करने लगे थे। उस समय नौकरी मिलना कठिन काम नहीं था। मामा से मिली जमीन पर एक मंजिला दो कमरों का घर बना लिया था। मोतीलाल की माँ सुगृहिणी थी और पत्नी शांत प्रकृति, निर्मल चरित्र और उदारवृत्ति की महिला थी। 15 सितंबर 1876 ई० को उनके यहाँ पर एक पुत्र ने जन्म लिया।

यह माता-पिता की दूसरी संतान थी। उससे पहले एक बहन अनिला का जन्म हो चुका था। लड़के का नाम शरत्चंद्र रखा गया। देवानंदपुर बंगाल का साधारण-सा गाँव है। नवाबी शासन में यह गाँव फ़ारसी भाषा की शिक्षा का केंद्र था। डेढ़ सौ वर्ष पहले रायगुणाकर कवि भारत चंद्र फ़ारसी भाषा के अध्ययन के लिए आए थे। उन्होंने अपना कैशोर्यकाल यहीं बिताया था। उस समय उनके साथ इस गाँव में हरिराम राय और रामचंद्रदत्त मुंशी पढ़ाने-लिखाने का काम करते थे। इसी गाँव में अत्यंत अभाव में शरत का बाल्यकाल का आरंभ हुआ। उसकी माँ अपने कल्पनाशील पति से कभी किसी भी वस्तु के लिए शिकायत नहीं करती थी। उनका कोमल मन सबके दुख से द्रवित हो उठता था।

उन्हें छोटे-बड़े सभी प्यार करते थे। शरत साहित्य में खोजने पर उनकी माँ जैसे अनेक चरित्र मिल सकते हैं। कभी-कभी उन्हें भी पति के आलसी और निकम्मेपन से ठेस पहुँचती थी। उस समय मोती लाल बाबू ‘शुभदा’ के हारान बाबू की तरह घर से निकल जाते और देर रात तक घर के बाहर रहते थे। शरत को पाँच वर्ष की आयु में पढ़ने के लिए प्यारी पंडित की पाठशाला में भर्ती करा दिया गया था। शरत् अपनी शरारतों के कारण हर रोज कोई न कोई कांड करके लौटता था। पंडित जी उसकी शिकायत उसके घर करते थे। कभी-कभी वह अपनी माँ से पिट जाता था परंतु दादी उसकी माँ को समझाती कि अभी बच्चा है।

पंडित जी भी कई बार उसकी शरारतों को अनदेखा कर देते थे। शरत् पंडित जी के लड़के का दोस्त था। स्कूल में शरत् की मित्रता एक लड़की धीरू से हो गई थी। दोनों इकट्ठे घूमते, खाते-पीते और लड़तेझगड़ते थे। दोनों के मध्य अजीब-सा गहरा संबंध था। एक दिन शरत ‘देवदास’ की तरह पाठशाला में स्लेट लिए बैठा था। उसकी आधी छुट्टी बंद धी। भोलू नाम का लड़का उसकी देखरेख कर रहा था। शरत ने भोलू को चूने के ढेर में धक्का देकर भाग गया। धीरू वहीं खड़ी थी। भोलू को चूने में धँसा देखकर मास्टर जी सारी स्थिति समझ गए। शरत की खोज शुरू हो गई। धीरू के सिवाए कोई नहीं जानता था कि शरत् कहाँ होगा।

धीरू उसके लिए मूड़ी लेकर ज़मंदार के आम के बाग में गई। वहाँ शरत और धीरू की किसी बात को लेकर लड़ाई हो गई। शरत ने धीरू को मारा, धीरू ने घर आकर उसकी माँ से उसकी शिकायत कर दी। शरत को अपनी माँ से मार पड़ी। उसने बाद में धीरू को मारा परंतु इससे दोनों की मित्रता में कोई अंतर नहीं आया। शरत ने अपने शैशव की संगिनी को आधार बनाकर अपने कई उपन्यासों की नायिकाओं का सृजन किया है- ‘देवदास’ की पारो, ‘बड़ी दीदी’ की माधवी और ‘श्रीकांत’ की राजलक्ष्मी। ‘चेसुक’ धीरू का विकसित और विराट रूप है। शरत और धीरू की मित्रता समय बीतने पर भी कम नहीं हुई थी।

शरत बीच-वीच में मछली का शिकार करता और नाव चलाता था। जब उसका इन सब चीजों से मन भर जाता तो वह घर से निकल पड़ता था। यह यात्रा तब खत्म होती थी जब उसके मन को चोट लगती थी और वह अपने घर आ जाता था। इस आवभगत के बाद उसका पढ़ने में कुछ दिन दिल लगता था फिर वह घर से नौ दो ग्यारह हो जाता। एक दिन वह देवानंदपुर से चार-पाँच मील दूर कृष्णपुर गाँव डोंगी को खेता हुआ पहुँचा। वहाँ रघुनाथ बाबा का प्रसिद्ध अखाड़ा था। वहाँ कीर्तन चल रहा था जिस कारण वह रात को वहीं रुक गया। अगले दिन दूँढ़ते हुए मोतीलाल वहाँ पहुँचे। उन्हीं दिनों गाँव में सिद्धेश्वर भट्टाचार्य ने नया बाँग्ला स्कूल खोला था।

शरत् को इस स्कूल दाखिल यह सोचकर करवा दिया गया था कि शायद यहाँ मन लगाकर पढ़े, लेकिन शरत के कार्यों में कोई अंतर नहीं आया। एक उसके पिता मोती लाल को ‘डेहरी आनसोन’ में नौकरी मिल गई। पिता उसे साथ ले गए। वहाँ भी उसकी शरारतें कम नहीं हुई परंतु उसका स्वभाव पहले से भी अधिक अंतर्मुखी हो गया था। देवानंदपुर लौटने पर मछलियाँ पकड़ने की सनक पहले से अधिक हो चुकी थी। एक दिन मोहल्ले का नयन बागदी दादी से गाय लाने के लिए पाँच रुपऐ माँगकर ले गया था।

पाँच रुपये के बदले में वह शरत को दूध दे दिया करेगा। नयन बागदी बसंतपुर गाय लाने के लिए चल दिया, उसके पीछे-पीछे शरत् भी चलने लगा। शरत ने सुन रखा था कि बसंतपुर में छीप बनाने के लिए अच्छे बाँस मिलते हैं। नयन को उसके पीछे आने का पता चला तो वह उसे वापस घर छोड़ आया। नयन वापस बसंतपुर की राह पर चल पड़ा। शरत् भी घर से नहाने का बहाना बनाकर उसके पीछे हो लिया। दो-ढाई मील बाद शरत नयन से जा मिला। नयन उसे देखकर चकित हो गया था। परंतु पीछे लौटना संभव नहीं था इसलिए वह उसे अपने साथ लेकर आगे चल पड़ा। बसंतपुर पहुँचकर नयन की बुआ ने दोनों की खातिरदारी की।

बिना रुपये लिए नयन को गाय दे दी। वापस लौटते समय शाम हो गई थी। रास्ते में घना जंगल पड़ता था। रात के समय जंगल में लुटेरे आक्रमण कर आदमी को मारकर सारा माल छीन लेते थे। गाँव वाले पुलिस के पास जाने से कतराते थे। उनके अनुसार बाघ के सामने पड़ने से प्राण बच सकते हैं परंतु पुलिस के पल्ले पड़ने से सब कुछ समाप्त हो जाता है। अचानक उन दोनों ने कुछ दूरी पर चीख सुनी। शरत भय से काँपने लगा। धुंध के कारण कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। किसी के भागने की आवाज सुनकर नयन चीखकर बोला कि उसके साथ ब्राह्मण का लड़का है। यदि किसी ने वार किया तो उसे वह जिंदा नहों छोड़ेगा। उसके बाद उन्हें कही से कोई आवाज सुनाई नहीं दी।

थोड़ा आगे जाने पर उन्हें वह आदमी मिला जिसकी चीख उन्होंने सुनी थी। वह एक शिकारी था। नयन को यह देखकर गुस्सा आ गया। नयन लुटेरों को सज़ा दिए बगैर जाने को सै बार नहीं था। उन्होंने एक वैष्णव भिखारी को मारा था। बालक शरत् भी पीटने वाली बात सुनकर नयन का साथ देने को तैयार हो गया। दोनो हाथ में फावड़ा लेकर चुपचाप खड़े हो गए। लुटेरों ने समझा कि दोनों चले गए। इसलिए वह भिखारी की तलाशी लेने के लिए आगे आ गए। उन लुटेरों में से एक ने नयन को देख लिया था। सभी लुटेरे भागने लगे तो एक लुटेरा नयन के हाथ लग गया। उसने उसे बाँध लिया। शरत् के यह सब देखकर हाथ-पैर काँपने लगे। लुटेरा भी डरकर बेहोश हो गया था। शरत् ने नयन से उसे छोड़ने की प्रार्थना की। नयन और शरत् उसे वहीं छोड़कर घर आ गए थे।

शरत को तीन बर्ष भागलपुर रहने के बाद अब देवानंदपुर लौटना पड़ा था। बार-बार स्थान बदलने से पढ़ाई का नुकसान हो रहा था। इससे शरत की आवारगी के साथ अनुभव भी बढ़ रहे थे। शरत् ने सदा अच्छा लड़का बनने का प्रयास किया है। गांगुली परिवार में रहते के कठोर अनुशासन के प्रति उसमें विद्रोह की भावना सिर उठाने लगती थी। शरत् में उसकी आँखों को छोड़कर शारीरिक रूप से कोई सुंदरता नहीं थी। उसकी आँखों में ऐसा आकर्षण था कि दूसरे आदमी को अपनी ओर खींच लेती थीं।

उसके पैरों में हिरण की तरह दौड़ने की मजबूती थी। उसकी बुद्धि तेज थी परंतु उसका उपयोग गलत कामों में अधिक होता था। देवानंदपुर लौटकर उसकी आवारगी अधिक बढ़ गई थी। किसी तरह हुगली ब्रांच की चौथी कक्षा में दाखिल हुआ। उसकी फ़ीस के लिए आभूषण बिकने लगे और मकान गिरवी रखना पड़ा। किसी तरह शरत प्रथम श्रेणी के स्कूल में पहुँचा। उस समय घर की आर्थिक स्थिति काफ़ी बिगड़ चुकी थी, जिससे विद्या छूट चुकी थी और हाथ में दुधारी छुरी आ गई थी। उसका भय लोगों में फैलता जा रहा था।

दूसरों के बागों से फल-फूल चोरी करने लगा था जिसे वह गरीबों में बाँट देता था। दूसरों के लिए ताल पर मछलियाँ पकड़ना और गरीबों में बाँट देना उसकी आदत बन चुकी धी। उसको पकड़ने की हिम्मत किसी में नहीं थी। वह फल और मछली को छोड़कर दूसरी वस्तुओं को हाथ नहीं लगाता था। फिर वह इन चीजों से गरीबों की सहायता करता था। इसलिए जहाँ कुछ लोग शरत् से परेशान थे वहीं अधिकांश लोग उसे प्यार करते थे। शरत् राबिनहुड्ड की तरह परोपकारी और दुस्साहसी था। इन लोगों का अड्डा ताल के किनारे वाले बाग के पास ऊँचे टीले की आड़ में गहरे खड्डे में था। शरत् के इस काम में प्रमुख साथी सदानंद था। सदानंद के घरवालों ने उसे शरत से मिलने से मना कर दिया, परंतु दोनों ने रात में सबके सो जाने पर दोनों छत पर मिलते थे। शतरंज खेलते और अपने कामों को पूरा करते फिर, घर में जाकर चुपचाप सो जाते थे।

शरत कभी-कभी महुआारों की नाव लेकर मित्रों के साथ कृष्णपुर रघुनाथ गोस्वामी के अखाड़े में पहुँच जाता था। ‘श्रीकांत’ के चतुर्थपर्व का आधा पागल कवि कीर्तन भी करता था। शरत के किशोर जीवन पर कुछ चित्र ऐसे अंकित हुए कि बाद में वे साहित्य संजन के आधार बन गए। ‘श्रीकांत’ के चतुर्थ पर्व में कथाशिल्पी शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने बचपन में स्कूल जाने के रास्ते का वर्णन किया है। उसे स्टेशन जाते हुए सभी रास्ते जाने-पहचाने लग रहे थे यह तो उसके गाँव के दक्षिण मुहल्ले का किनारा था। इमली के पेड़ को देखते ही शरीर पर काँटि उग जाते थे। आँख बंद करके एक ही दौड़ में इस स्थान को पार कर जाते थे।

शरत ने अपने लेखन में अपने बचपन को बहुत बार लिखा है। उसमें कहानी को गढ़ने की प्रतिभा जन्मजात थी। पंद्रह वर्ष की आयु में इस कला में पारंगत हो चुका था। उसकी इस प्रतिभा के कारण स्थानीय जमींदार और गोपालदत्त मुंशी उससे स्नेह करते थे। इनका पुत्र अतुलचंद्र कलकत्ता में एम० ए० कर रहा था। उसे शरत की कहानियाँ अच्छी लगती थीं। अतुल शरत को थियेटर दिखाकर उस पर कहानी लिखने को कहता शरत ऐसी कहानी लिखता था कि अतुल पढ़कर चकित रह जाता था। इस प्रकार कहानी लिखते-लिखते कब उसने मौलिक कहानी लिखनी शुरू कर दी, उसे पता नहीं चला। जो कहानी उसे याद थी वह थी, ‘काशीनाथ’।

काशीनाथ उसका गुरु-भाई था। उसके नाम को नायक बनाकर उसने कहानी लिखनी आरंभ कर दी। शरत को पता था कि घर-जँवाई कैसे होते हैं, उसने पिता को ससुराल में रहते हुए देखा था। उस समय उसने उस पर छोटी कहानी लिखी थी। बाद में भागलपुर रहते हुए उसने उसे विस्तार दिया। शरत को बचपन से ही चीजों के सूक्ष्म अध्ययन की आदत थी। वह हर चीज को गहराई से जानने का प्रयल करता था। यही आदत उसकी प्रेरणा बन गई। गाँव में बत्तीस साल की नीरु नाम की बाल विधवा ब्राह्मण की लड़की रहती थी। उसके चरित्र में कोई कलंक नहीं था। वह सदा दूसरों की सेवा में लगी रहती थी। सभी लोग उससे स्नेह करते थे।

शरत भी उसे दीदी कहकर पुकारता था। एक दिन गाँव के स्टेशन का परदेसी मास्टर दीदी के जीवन को कलंकित कर गया। उसका गाँव से बहिष्कार कर दिया गया था। शरत् को भी वहाँ जाने की मनाही थी परंतु शरत् ने आज तक किसी की बात नहीं मानी थी। शरत् उससे मिलने जाता रहा था। शरत् को लगता था कि नीरु दीदी स्वयं को अपने अपराध की सजा दे रही थी। एक दिन वह मर गई। डोम लोग उठाकर उसे जंगल में फेंक आए। सियार-कुत्ते उसे नोचकर खा गए थे। यहीं उसने ‘विलासी’ कहानी के कायस्थ मृत्युंजय को संपेरा बनते देखा था। मृत्युंजय का चाचा के अतिरिक्त कोई नहीं था। चाचा भी उसका परम शत्रु था।

वह उसका बड़ा बाग लेना चाहता था। मृत्युंजय के बीमार होने पर एक बूढ़े ओझा और उसकी पुत्री विलासी ने उसकी देखभाल की। ठीक होने पर मृत्युंजय ने विलासी को पत्नी रूप में अपने घर रख लिया था। समाज के बहििक्कार किए जाने पर वह विलासी के साथ जंगल में रहने लगा था। साँप पकड़कर अपनी जीविका चलाने लगा था। शरत भी उससे साँप पकड़ना और जहर उतारने का मंत्र सीखता था। एक दिन विषैला साँप पकड़ते हुए मृत्युंजय की मृत्यु हो गई। उसके मरने के सात दिन पश्चात् विलासी ने भी आत्महत्या कर ली थी। शरत् के जीवन में ऐसे दृश्यों का कोई अंत नहीं था। एक मनुष्य के हार्थों एक मनुष्य का इतना तिरस्कार कैसे हो सकता है।

इन्हीं प्रश्नों की पर्यवेक्षण शक्ति ने उसे कहानीकार बना दिया। कहानीकार बनने की प्रेरणा उसे अपने पिता की अधूरी कहानियों से भी मिली। एक बार शरत् घर से भागकर पुरी गया। वहाँ उसकी मुलाकात घर की स्वामिनी से हुई। उसने उसे बहुत स्ेह दिया। एक बार वह बीमार पड़ गई। शरत् ने अपनी आदत के अनुसार उसकी बहुत सेवा की। उस समय एक घटना ऐसी घटी कि वह उसे गलत समझ बैठा और मन में अपराध बोध लिए घर से भाग गया। भागते-भागते वह थक गया। उसने न तो आराम किया और न ही कुछ खाया। इससे उसे तेज बुखार आ गया। वह एक पेड़ के नीचे बैढ गया। उसी समय वहाँ से एक विधवा गुजरी। वह शरत की ऐसी हालत देखकर उसे अपने घर ले गई। शरत् उसकी सेवा से ठीक हो गया। उस विधवा का एक देवर और बहनोई थे।

दोनों उस पर अपना अधिकार चाहते थे। उस विधवा ने मुक्ति की चाह में शरत के साथ चल पड़ी। परंतु विधवा के उत्तराधिकारियों ने शरत को पीटा और विधवा को वापस ले गए। उस विधवा का क्या हुआ वह कभी जान नहीं पाया था। कथाशिल्पी शरत के प्रसिद्ध उपन्यास ‘चरित्रहीन’ का आधार यही घटनाएँ बनीं। उसने पुरी के मार्ग में आगे बढ़ते हुए गाँव-गाँव घूमा। एक बार उसके चोर-डाकुओं के गिरोह में शामिल होने की बात सुनी गई थी। वह अपने मन की बात किसी से भी नहीं कहता था। उसके पीछे उसके परिवार में दादी का देहांत हो चुका था। दादी घर की इण्जत की रक्षा कर रही थी। वह ‘शुभदा’ की कृष्णा बुआ की तरह थी।

घर की गरीबी और अपमान से माँ की सहनशक्ति समाप्त हो चुकी थी। ‘भुवनमोहिनी’ के माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका था। घर की आर्थिक स्थिति उत्साहजनक नहीं थी। फिर भी उसने डरते-डरते अपने छोटे काका अघोरनाध को अपनी घर की स्थिति लिखी। उन्होंने उसे अपने पास बुला लिया। शरत् फिर कभी देवानंदपुर नहीं लौटा था। वहाँ के पथ और घाट उसकी माँ और दादी के औँसुओं से भीगे हुए थे। कथाशिल्पी शरत् ने ‘शुभदा’ में दरिद्रता का भयानक चित्र खींचा था। यही बातें उसकी साहित्य-साधना की नींव थीं। इसी गाँव में संघर्ष और कल्पना से परिचय हुआ था। वह कभी भी इस गाँव के ॠण से मुक्त नहीं हो सका था।

कठिन शब्दों के अर्थ :

  • नवासे – नाती, बेटी का बेटा
  • दीर्घ – लंबी, गहरी
  • झाऊ – एक प्रकार का छोटा झाड़ जिसकी टहनियों से टोकरियाँ आदि बनती हैं
  • निःश्वास – साँस
  • विपव – मुसीबत, यायावर
  • जीविका – रोज़ी-रोटी, कमाई
  • लांछित – अपमानित
  • सामंज्य – समझौता
  • गरिमा – गौरव
  • सहोदर – सगे भाई
  • अग्रणी – सबसे आगे
  • अक्षम्य – क्षमा न करने योग्य
  • असमय – समय से पहले
  • मुख-भंगी – मुख के हाव-भाव
  • तलैया – छोटा तालाब
  • घकित – हैरान
  • वर्जित – मना
  • मुग्ध – मोहित
  • मापदंड – नियम
  • स्वल्याहारी – बहुत कम खाने वाला
  • उत्फुल्ल – प्रसन्न
  • वुर्गति – बुरी दशा
  • विपद – मुसीबत
  • विषाक्त – विषैला
  • संहार – मारना, नष्ट करना
  • तपोवन – तपस्या करने का वन
  • आच्न्न – ढका हुआ
  • खरम्रोता – तेज्ञ धार वाली
  • प्रतिष्ठा – इज्जत
  • विदीर्ण – दूटा हुआ
  • मनस्तत्व – विद्या-बुद्धि से संबंधित
  • पारितोषिक – पुरस्कार
  • परनिंदा – दूसरे की बुराई
  • मर्मस्पश्शी – हद्य को छूनेवाली
  • व्यवधान – बाधा
  • वर्जित – जिसका करना मना हो
  • अपरोक्ष – छिपकर, परोक्ष रूप से
  • व्ययसाध्य – खर्चीली
  • स्वाधीनचेता – स्वतंत्र विचार वाले
  • संरजाम – साधन अंत
  • प्रत्युत्पन्नमति – हाजिरजवाबी
  • संभ्रांत – धनी, उच्च वर्ग
  • कर्मठ – कर्मशील, मेहनती
  • अभाव – कमी
  • असंख्य – अनेक
  • कृपण – कंजूस
  • कपाल – सिर
  • मूड़ी – मुरमुरे
  • शैशव् – बचपन
  • प्रकृति – स्वभाव, कुदरत
  • स्वप्नदर्शी – सपने देखनेवाला, कल्पना में जीनेवाला
  • शिल्पी – कलाकार
  • क्षमता – योग्यता
  • अंकन – लेखन, छाप लगाना
  • रूदन – भलाई
  • पलायन – भागना
  • शंका – संदेह
  • निमिषमात्र – क्षणभर
  • दलपति – नेता
  • कृतार्थ – आभार मानना, किसी की कृपा से संतुष्ट
  • निष्णात – निपुण
  • निषिद्ध – न करने योग्य
  • तत्कालीन – उस समय के
  • अपरिग्रही – किसी से कुछ न लेने वाला
  • झुटपुटा – ऐसा समय जब कुछ उजाला और कुछ अंधेरा हो, संध्या होने वाली हो
  • हूँकार – गुस्से में ज़ोर से चिल्लाना
  • परामर्श – सलाह
  • आतुर – व्याकुल, बेचैन
  • निर्जीव – मृत, मरा हुआ
  • हाज़िर – उपस्थित
  • साक्षी – गवाह
  • स्निर्ध – साफ़, चिकना
  • प्रतिध्वनि – गूँज
  • युगसंधि – दो युगों के मिलने का समय
  • क्रंदन – विलाप, रोना
  • तनिक – थोड़ी-सी
  • जीवंत – सजीव, प्राणवान
  • गोष्ठी – सभा।
  • निस्पंद – स्तब्ध, एकाग्रता
  • अपराजेय – जिसे पराजित न किया जा सके
  • स्वप्नदर्शी – कल्पना लोक में विचरण करने वाला
  • अपरिसीम – जिसकी कोई सीमा न हो
  • प्रतिस्पर्धा – मुकाबला
  • पारंगत – निपुण
  • अमित – बहुत अधिक
  • सर्वांगीण – सब प्रकार के
  • हतप्रभ – हैरान
  • वैद्र्यमणि – एक रत्न
  • आत्मोत्सर्ग – आत्मबलिदान
  • द्रवित – पिघलना
  • चीत्कार – चीखना
  • माल्यार्पण – माला डालना
  • प्रगाढ़ – मज़ूत
  • संगिनी – साथिन
  • मूर्त – साक्षात, सजीव
  • निरुद्वेग – निर्शिचत, शांत
  • अंतर्मुखी – अपने में मस्त रहना
  • पोखर – तालाब
  • आफ़त – मुसीबत
  • व्याघात – बाधा
  • तीक्ष्ण – तेज़
  • निविड़ – घने
  • जनश्रुति – लोक-प्रचलित
  • गल्य – कथा, कहानी
  • पर्यवेक्षण – निरीक्षण, देखना
  • पदस्बलन – नैतिक पतन, पद से हटना
  • तुच्छ – नीच
  • अपाठ्य – न पढ़ने योग्य
  • आश्रय – शरण
  • आमोद – आनंद्
  • यथेष्ट – काफी, पर्याप्त
  • अल्पकालिक – कम समय का
  • हतप्रभ – हैरान
  • पावड़ा – पैर पर मारने वाला बाँस का दो-तीन फीट का डंडा
  • आत्मचितन – मन ही मन विचार करना
  • पधभ्षष्टता – सही मार्ग से भटक जाता
  • निर्विष्ट – निश्चित।
  • नि:शब्द – खामोश, चुपचाप
  • पल्लवित – विकसित
  • यातना – पीड़ा
  • प्रायश्चित – पछतावा
  • संवेदन – अनुभूति
  • गंतव्य – लक्ष्य, जाने का स्थान
  • विकृत – भयानक, कुरूप

Hindi Antra Class 11 Summary

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12th Class Hindi Book Antra & Antral Questions and Answers – Class 12 Antra NCERT Solutions

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra & Antral – Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra

NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra

पद्य खण्ड

  • Chapter 1 देवसेना का गीत, कार्नेलिया का गीत
  • Chapter 2 गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति
  • Chapter 3 यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद
  • Chapter 4 बनारस, दिशा
  • Chapter 5 एक कम, सत्य
  • Chapter 6 वसंत आया, तोड़ो
  • Chapter 7 भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद
  • Chapter 8 बारहमासा
  • Chapter 9 विद्यापति के पद
  • Chapter 10 रामचंद्रचंद्रिका
  • Chapter 11 घनानंद के कवित्त / सवैया

गद्य-खण्ड

  • Chapter 12 प्रेमघन की छाया-स्मृति
  • Chapter 13 सुमिरिनी के मनके
  • Chapter 14 कच्चा चिट्ठा
  • Chapter 15 संवदिया
  • Chapter 16 गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफ़ात
  • Chapter 17 शेर, पहचान, चार हाथ, साझा
  • Chapter 18 जहाँ कोई वापसी नहीं
  • Chapter 19 यथास्मै रोचते विश्वम्
  • Chapter 20 दूसरा देवदास
  • Chapter 21 कुटज

NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antral

  • Chapter 1 सूरदास की झोंपड़ी
  • Chapter 2 आरोहण
  • Chapter 3 बिस्कोहर की माटी
  • Chapter 4 अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में

अपठित बोध

  • अपठित गद्यांश
  • अपठित काव्यांश

कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन

  • नए और अप्रत्याशित विषयों पर रचनात्मक लेखन
  • कार्यालयी पत्र
  • पत्रकारीय लेखन और उसके विविध आयाम
  • कविता / कहानी / नाटक की रचना
  • समाचार लेखन / आलेख लेखन
  • फीचर लेखन

श्रवण एवं वाचन तथा परियोजना

  • श्रवण
  • वाचन
  • परियोजना

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Hindi Antra Class 12 Summary – Class 12 Hindi Poems Summary Antra & Antral

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Hindi Antra Class 12 Summary

Class 12 Hindi Poems Summary Antra

  • Chapter 1 देवसेना का गीत, कार्नेलिया का गीत Summary
  • Chapter 2 गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति Summary
  • Chapter 3 यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद Summary
  • Chapter 4 बनारस, दिशा Summary
  • Chapter 5 एक कम, सत्य Summary
  • Chapter 6 वसंत आया, तोड़ो Summary
  • Chapter 7 भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद Summary
  • Chapter 8 बारहमासा Summary
  • Chapter 9 विद्यापति के पद Summary
  • Chapter 10 रामचंद्रचंद्रिका Summary
  • Chapter 11 घनानंद के कवित्त / सवैया Summary

12th Class Hindi Book Antra Chapters Summary

  • Chapter 12 प्रेमघन की छाया-स्मृति Summary
  • Chapter 13 सुमिरिनी के मनके Summary
  • Chapter 14 कच्चा चिट्ठा Summary
  • Chapter 15 संवदिया Summary
  • Chapter 16 गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफ़ात Summary
  • Chapter 17 शेर, पहचान, चार हाथ, साझा Summary
  • Chapter 18 जहाँ कोई वापसी नहीं Summary
  • Chapter 19 यथास्मै रोचते विश्वम् Summary
  • Chapter 20 दूसरा देवदास Summary
  • Chapter 21 कुटज Summary

Hindi Antral Class 12 Summary

  • Chapter 1 सूरदास की झोंपड़ी Summary
  • Chapter 2 आरोहण Summary
  • Chapter 3 बिस्कोहर की माटी Summary
  • Chapter 4 अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में Summary

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Class 12 Hindi Antra Chapter 1 Question Answer कार्नेलिया का गीत, देवसेना का गीत

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 1 कार्नेलिया का गीत, देवसेना का गीत

Class 12 Hindi Chapter 1 Question Answer Antra कार्नेलिया का गीत, देवसेना का गीत

देवसेना का गीत :

प्रश्न 1.
“मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई”-पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस काव्य-पंक्ति में देवसेना अपने विगत जीवन पर विचार करती है। स्कंदगुप्त द्वारा प्रणय-निवेदन ठुकराए जाने के बाद उसने यौवन काल के अनमोल समय को ऐसे ही बिता दिया। वह अपनी जीवन की पूँजी की रक्षा नहीं कर पाई। अंतत: उसे पेट की ज्वाला शांत करने के लिए भिक्षा माँगने का सहारा लेना पड़ा। वह भ्रम की स्थिति में रही।

प्रश्न 2.
कवि ने आशा को बावली क्यों कहा है ?
उत्तर :
कवि ने आशा को बावली इसलिए कहा है क्योंकि व्यक्ति आशा के भरोसे जीता है, सपने देखता है। प्रेम में आशा की डोर पकड़कर ही वह अपने मोहक सपने बुनता है। भले ही उसे असफलता ही क्यों न मिले। उसकी धुन बावलेपन की स्थिति तक पहुँच जाती है। आशा व्यक्ति को (विशेषकर प्रेमी को) बावला बनाए रखती है।

प्रश्न 3.
“मैने निज वुर्बल” होड़ लगाई” इन पंक्तियों में ‘ुर्ब्बल पद बल’ और ‘हारी होड़’ में निहित व्यंजना स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘दुर्बल पद बल’ में यह व्यंजना निहित है कि प्रेयसी (देवसेना) अपनी शक्ति-सीमा से भली-भाँति परिचित है। उसे ज्ञात है कि उसके पद (चरण) दुर्बल हैं, फिर भी परिस्थिति से टकराती है। ‘हारी होड़’ में यह व्यंजना निहित है कि देवसेना को अपने प्रेम में हारने की निश्चितता का ज्ञान है, इसके बावजमद वह प्रलय से लोहा लेती है। इससे उसकी लगनशीलता का पता चलता है।

प्रश्न 4.
काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए –
(क) श्रमित स्वप्न की मधुमाया ………… तान उठाई।
उत्तर :
इन काव्य-पंक्तियों में स्मृति-बिंब साकार हो उठा है। देवसेना अपने असफल प्रेम की मधुर कल्पना में डूबी है। तभी उसे प्रेम के राग की तान सी पुन: सुनाई पड़ती है। इसे सुनकर वह चौंक जाती है।
‘स्वप्न’ को श्रमित कहने में गहरी व्यंजना है। ‘विहाग’ अर्धरात्रि में गाए जाने वाला राग है। देवसेना को यह राग जीवन के उत्तरार्द्ध में सुनाई पड़ता है। ‘गहन-विपिन’ तथा ‘तरु-छाया’ सामासिक शब्द हैं।

(ख) लौटा लो …………. लाज गँवाई।
उत्तर :
इन पंक्तियों में देवसेना की निराश एवं हताश मनःस्थिति का परिचय मिलता है। अब तो उसने अपने हृदय में स्कंदगुप्त के प्रति जो प्रेम संभाल कर रखा था उसने उसे वेदना ही दी। अब वह इसे आगे और संभालकर रखने में स्वयं को असमर्थ पाती है। अतः वह इस थाती को लौटा देना चाहती है। ‘करुणा हा-हा खाने’ में उसके हुदय की व्यथा उभर कर सामने आई है। इसे सँभालते-सँभालते वह अपने मन की लज्जा तक को भी गँवा बैठी है। ‘हा-हा’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

प्रश्न 5.
देवसेना की हार या निराशा के क्या कारण हैं?
उत्तर :
देवसेना की हार या निराशा के कारण ये हैं-

  • हूणों के आक्रमण में देवसेना का भाई बंधुवर्मा (मालवा का राजा) तथा अन्य परिवार जन वीरगति पा गए थे। वह अकेली बच गई थी।
  • वह भाई के स्वप्नों को साकार करना चाहती, पर उस दिशा में कुछ विशेष कर नहीं पाई थी।
  • देवसेना यौवनावस्था में गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त के प्रति आकर्षित थी और उसे पाना चाहती थी, पर इस प्रयास में वह असफल रही, क्योंकि उस समय स्कंदगुप्त मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया की ओर आकर्षित थे। देवसेना में अपनी उपेक्षा के कारण निराशा की भावना घर कर गई थी।
  • देवसेना को वृद्ध पर्णदत्त के आश्रम में गाना गाकर भीख तक माँगनी पड़ी थी।

कार्नेलिया का गीत :

प्रश्न 1.
‘कार्नेंलिया का गीत’ कविता में प्रसाद ने भारत की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया है ?
उत्तर :
‘कार्नेलिया का गीत’ कविता में प्रसाद जी ने भारत की निम्नलिखित विशेषताओं की ओर संकेत किया है-

  • भारत का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत है। प्रसाद जी ने इसे मधुमय कहा है।
  • भारत की भूमि पर सूर्य की पहली किरणें पड़ती हैं।
  • इस देश में अनजान व्यक्तियों को भी आश्रय प्राप्त हो जाता है।
  • भारतवर्ष के लोगों के हुदय दया, करुणा एवं सहानुभूति की भावना से ओत-प्रोत रहते हैं।
  • भारतवर्ष में सभी के सुखों की कामना की जाती है।
  • भारतीय संस्कृति महान एवं गौरवशाली है।

प्रश्न 2.
‘उड़ते खग’ और ‘बरसाती आँखों के बादल’ में क्या विशेष अर्थ व्यंजित होता है ?
उत्तर :
‘उड़ते खग’ जिस दिशा में जाते हैं, वह देश भारतवर्ष है। यहाँ पक्षियों तक को आश्रय मिलता है। इससे विशेष अर्थ यह व्यंजित होता है कि भारत सभी शरणार्थियों की आश्रयस्थली है। यहाँ सभी को आश्रय मिल जाता है। यहाँ आकर लोगों को शांति और संतोष का अनुभव होता है। अनजान को सहारा देना हमारे देश की विशेषता है।
‘बरसाती आँखों के बादल’ से यह विशेष अर्थ ध्वनित होता है कि भारतवर्ष के लोग दया, करुणा और सहानुभूति के भावों से ओत-प्रोत हैं। यहाँ के लोग दूसरे के दुखों को देखकर द्रवित हो उठते हैं और उनकी आँखों से आँसू बरसने लगते हैं।

प्रश्न 3.
काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
‘हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती बुलकती सुख मेरे
मदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा।
उत्तर :
इन काव्य-पंक्तियों में प्रकृति के उषाकालीन वातावरण की सजीव झाँकी प्रस्तुत की गई है।
‘उषा’ का पनिहारिन के रूप में मानवीकरण किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उषा रूपी स्त्री आकाश रूपी कुएँ से अपने सुनहरे कलश (सूर्य) में मंगल जल लेकर आती है और इसे लोगों के सुखी जीवन के रूप में लुढ़का देती है। इससे सारे वातावरण में सुनहरी आभा बिखर जाती है। तब तक तो लोगों पर रात की मस्ती ही चढ़ी रहती है। तारे भी ऊँघते प्रतीत होते हैं।

  • उषाकालीन सौंदर्य साकार हो उठा है।
  • ‘उषा’ का मानवीकरण किया गया है।
  • सर्वत्र सूपक अलंकार की छटा है।
  • ‘तारे’ का भी मानवीकरण है।
  • गेयता एवं संगीतात्मकता का स्पष्ट प्रभाव है।

प्रश्न 4.
‘जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा’-पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस पंक्ति का आशय यह है कि भारतवर्ष एक ऐसा महान देश है जहाँ अनजान व्यक्तियों को भी आश्रय प्राप्त हो जाता
है। यहाँ आकाश में उड़ते पक्षी तो सहारा पाते ही हैं, इसके साथ-साथ दूसरे देशों से आए हुए अनजान लोग भी यहाँ सहारा पा जाते हैं। भारतवासी विशाल हदय वाले हैं। ये सभी को स्वीकार कर लेते हैं। यहाँ आकर विक्षुब्ध एवं व्याकुल लोग भी अपार शांति एवं संतोष का अनुभव करते हैं। अनजान लोगों को सहारा देना भारतवर्ष की विशेषता है। सही मायने में यही भारत की पहचान है।

प्रश्न 5.
प्रसाद जी शब्दों के सटीक प्रयोग से भावाभिव्यक्ति को मार्मिक बनाने में कैसे कुशल हैं ? कविता से उदाहरण देकर सिद्ध कीजिए।
उत्तर :
प्रसाद जी शब्दों का सटीक प्रयोग जानते हैं। वे शब्दों के बाजीगर हैं। शब्दों के सटीक प्रयोग के माध्यम से वे अपने कथ्य की भावाभिव्यक्ति को मार्मिक बना देते हैं। उनकी इस कला से हुदय के भाव मार्मिकता के साथ उभरते हैं। उदाहरण प्रस्तुत हैं

आह! वेदना मिली विदाई
+      +     +
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा. हा-हा खाती
+      +      +
बरसाती आँखों के बादल-
बनते जहाँ भरे करुणा जल।

प्रश्न 6.
कविता में व्यक्त प्रकृति-चित्रों को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
इस कविता में व्यक्त प्रकृति-चित्र इस प्रकार है :

  • सूर्योदय का समय है। सरोवरों में खिले कमल के फूलों पर अनोखी छटा बिखरी हुई है। कमल की कांति पर पेड़ों की सुंदर चोटियों की परछाई लहरों के साथ नाच रही है।
  • सर्वत्र हरियाली छाई हुई है। उसकी चोटी पर सूर्य किरणें मंगल-कुकुम बिखेरती सी जान पड़ रही हैं।
  • छोटे इंद्रधनुष के समान पंख फैलाए पक्षी मलय पर्वत से आने वाली हवा के सहारे आकाश में उड़ते हुए अपने घोंसलों की ओर जा रहे हैं।
  • उषाकाल में सूर्य का चमकता गोला हेमकुंभ (स्वर्ण कलश) की भाँति जगमगा रहा है। सूर्य की किरणें सुख बिखेरती सी प्रतीत होती हो रही है।
  • अनंत दूरी से आती हुई विशाल लहरें किनारों से टकरा रही हैं।
  • रात भर जागने के कारण तारे मस्ती में उँघते से प्रतीत हो रहे हैं।
  • उषा सोने का कलश लेकर सुखों को ढुलकाती दिखाई दे रही है।

योग्यता विस्तार –

प्रश्न 1.
कविता में आए प्रकृति-चित्रों वाले अंश छाँटिए और उन्हें अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
प्रकृति-चित्रों वाले अंश
सरस तामरस गर्भ विभा पर
नाच रही तरुशिखा मनोहर

[प्रातःकालीन सूर्य की किरणें कमल के फूल के गर्भ पर और पेड़ों की चोटियों पर नाचती प्रतीत होती हैं।]

लघु सुरधनु से पंख पसारे
शीतल मलय समीर सहारे।

[छोटे पंखों को पसारे उड़ते पक्षी लघु इंद्रधनुष से प्रतीत होते हैं। वे शीतल (उंडी) मलय (सुगंधित) समीर (हवा) के सहारे तैरते जाते हैं।]

हेम कुंभ ले उषा सवेरे
भरती दुलकाती सुख मेरे।

[प्रात:कालीन सूर्य सोने के घड़े के समान प्रतीत होता है। यह घड़ा मांगलिक है और इसमें लोग के सुख भरे हैं जो ढुलकाने पर लोगों को प्राप्त हो जाते हैं।]

प्रश्न 2.
भोर के दृश्य को देखकर अपने अनुभव काव्यात्मक शैली में लिखिए।
उत्तर :
भोर के दृश्य का काव्यात्मक वर्णन –
भोर का सूर्य-
लाल दमकता गोला
आकाश की काली स्लेट
पर गेरु की लकीरें खींचता
हमें अपनी ओर आकर्षित करता
मन मोहता है।

प्रश्न 3.
जयशंकर प्रसाद की काव्य रचना ‘आँसू’ पढ़िए।
उत्तर :
‘आँसू’ कविता पुस्तकालय से लेकर पढ़िए।
‘जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छाई
दुर्दिन में आँसू बनकर
वह आज बरसने आई।

प्रश्न 4.
जयशंकर प्रसाद की कविता ‘हमारा प्यारा भारतवर्ष’ तथा रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘हिमालय के प्रति’ का कक्षा में वाचन कीजिए।
उत्तर :
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता ‘हिमालय के प्रति’
मेरे नगपति मेरे विशाल।
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,
रे तपी! आज तप का न काल।
कितनी मणियाँ लुट गई ? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग ही रहा, इधर
वीर हुआ प्यारा स्वदेश।
किन द्रैपदियों के बाल खुले ?
किन-किन कलियों का अंत हुआ ?
कह हृदय खोल चित्तोर! यहाँ
कितने दिल ज्वाल वसंत हुआ ?
पूछे सिकताकण से हिमपति!
तेरा वह राजस्थान कहाँ ?
वन-वन स्वतंत्रता दीप लिए
फिरने वाला बलवान कहाँ ?
तू पूछ अवध से, राम कहाँ ?
वंदा! बोलो, घनश्याम कहाँ ?
औ मगध! कहाँ मेरे अशोक ?
वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ ?

हमारा प्यारा भारतवर्ष (जयशंकर प्रसाद)

हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार। उषा ने हँस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार। जगे हम, लगे जगाने विश्व लोक में फैला फिर आलोक। व्योम, तम-पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो विमल वाणीं ने वीणा ली कमल कोमल कर में सप्रीत। सप्तस्वर सप्तसिन्धु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत। बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत। अरुण केतन लेकर निज हाथ वरुण पथ में हम बढ़े सुना है दधीचि का वह त्याग हमारी जातीयता विकास। पुरन्दर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरे इतिहास।

सिन्धु-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वासित का उत्साह। दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह।। धर्म का ले-लेकर जो नाम हुआ करती बलि, कर दी बन्द हमीं ने दिया शांति सन्देश, सुखी होते देकर आनन्द। विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम। भिक्षु होकर रहते सम्राट् दया दिखलाते घर-घर घूम। जातियों का उत्थान पतन, आँधियाँ, झड़ी प्रचंड समीर। खड़े देखा, फैला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर। चरित के पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा सम्पन्न। हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 1 कार्नेलिया का गीत, देवसेना का गीत

प्रश्न : निम्नलिखित काव्यांशों का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए :

1. श्रमित स्वप्न की मधु माया में
गहन विपिन की तरु-छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई।
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : इन परक्तियों में देवसेना के कठिन जीवन-संघर्ष एवं उससे उत्पन्न निराशा के भाव को दर्शाया गया है। देवसेना जीवन के अंतिम मोड़ पर हताशा का शिकार हो जाती है। उसकी दशा उस थके यात्री के समान हो जाती है जो पेड़ के नीचे नींद में उनींदा हो रहा है। तभी उसे विहाग राग की तान सुनाई पड़ती है। यह तान स्कंदगुप्त के प्रणय-निवेदन की थी जो उसे कतई नहीं अच्छी लगती। जीवन की संध्या वेला में वह असीम वेदना और निराशा के बीच झूल रही है। कवि ने सुख की आकांक्षा के जाग उठने को विहाग राग की तान के रूप में दर्शा कर सुंदर व्यंजना की है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • स्वप्न को श्रमित कहने में गहरी व्यंजना है।
  • ‘विहाग राग’ अर्धरात्रि में गाए जाने वाला राग है। इसे आकांक्षा के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है।
  • ‘श्रमित स्वप्न’ में अनुं्रास अलंकार है।
  • ‘स्वप्न’ को थका दर्शांकर उसका मानवीकरण किया गया है।
  • ‘गहन-विपिन’ तथा ‘तरु-छाया’ में सामासिक शब्द हैं।
  • इन पंक्तियों में चित्रात्मकता का गुण है।
  • विषय की गंभीरता के अनुरूप तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है।
  • संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।

2. लौटा लो यह अपनी थाती,
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व ! न संभलेगी यह मुझसे
इससे मन की लाज गँवाई
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य
भाव-सौंदर्य : इन काव्य-पंक्तियों में देवसेना के हृदय की व्यथा का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया गया है। इन पंक्तियों में देवसेना की निराश एवं हताश मन:स्थिति का पता चलता है। उसने स्कंदगुप्त के प्रति अपने प्यार को अब तक सँभालकर रखा हुआ था, पर अब वह इसे और अधिक समय तक सैंभाल पाने में स्वयं को असमर्थ पाती है। अब उसक हुदय तार-तार हो चुका है। अब वह उसे लौटाना चाहती है क्योंकि इस प्रेम ने उसे दुख ही दिया है।
इन पंक्तियों में दर्शाया गया है कि देवसेना जीवन-संघर्ष से थक चुकी है और अब वह अपनी व्यथा को और सहन करने में असममर्थ है। ‘करुणा हा हा खाने ‘में उसकी व्यथा उभरी है। उसके मन की लज्जा भी चली गई।

शिल्प-सौंदर्य :

  • ‘करुणा’ का मानवीकरण किया गया है।
  • ‘लौटा लो’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘हा-हा’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘थाती’ शब्द का सटीक प्रयोग हुआ है।
  • करुण रस की व्यंजना हुई है।
  • भाषा सरस, सरल एवं प्रवाहपूर्ण है।
  • संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।

3. सरस तामरस गर्भ विभा पर,
नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर,
मंगल कुंकुम सारा।
उत्तर :
काव्य-सौन्दर्य : इस गीत में सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया भारतीय संस्कृति में अपनी आस्था प्रकट करते हुए यहाँ के अद्वितीय प्राकृतिक सौंदर्य का गुणगान करती है। भारत सदा से दूसरों की शरणस्थली रहा है। यहाँ सर्वत्र हरियाली एवं मंगल भावना व्याप्त है। पक्षी तक भारत को अपना नीड़ (बसेरा) मानते हैं। ये देश सभी को अपने में समा लेता है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • भारत के प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी चित्रण हुआ है।
  • सूर्योदय के दृश्य का प्रभावी अंकन हुआ है।
  • काव्यांश में अनुप्रास, रूपक तथा उपमा अलंकार की छटा है।
  • संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग हुआ है।
  • कोमलकांत पदावली प्रयुक्त हुई है।
  • माधुर्य भाव का समावेश हुआ है।

4. हेम कुंभ ले उषा सवेरे – भरती ठुलकाती सुख मेरे
मदिर ऊँघते रहते जब जगकर रजनी भर तारा।
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य
भाव-सौंदर्य : इन काव्य-पंक्तियों में उषाकालीन प्रकृति का मनोहारी चित्रण किया गया है। इन पंक्तियों में तारों को मस्ती में ऊँघते हुए तथा उषा रूपी नायिका को सोने का घड़ा लिए सुखों को ढुलकाते हुए दर्शाया गया है। उषा (नायिका) सुनहरे घड़े (सूर्य) में सुख (मांगलिक जल) भर कर लाती है और लोगों के लिए उन्हें लुढ़का देती है अर्थात् सुखों का संचार कर देती है। तारे रात भर जागते हैं अतः प्रातःकाल उनकी ऊँघती दशा को मद्धिम पड़ती रोशनी के रूप में दर्शाया गया है। उषा के हाथ में सुखों से भरा घड़ा होने की कल्पना सर्वथा नवीन है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • तारों एवं उषा का मानवीकरण किया गया है।
  • तारों के ऊँघते रहने के बीच उषा को सुख लुढ़काने का आकर्षक बिंब का सृजन हुआ है।
  • ‘जब जगकर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • रूपक अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है।
  • शब्द-चयन अत्यंत सटीक है। तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।

5. अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस-गर्भ विभा पर – नाच रही तरु शिखा मनोहर
छिटका जीवन हरियाली पर – मंगल कुंकुम सारा !
लघु सुरधनु से पंख पसारे – शीतल मलय समीर सहारे
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए – समझ नीड़ निज प्यारा।
उत्तर :
इस गीत में सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया भारतीय संस्कृति में अपनी आस्था प्रकट करते हुए यहाँ के अद्वितीय प्राकृतिक सौंदर्य का गुणगान करती है। भारत सदा से दूसरों की शरण स्थली रहा है। यहाँ सर्वत्र हरियाली एवं मंगल भावना व्याप्त है। पक्षी तक-भारत को अपना नीड़ (बसेरा) मानते हैं। यह देश सभी को अपने में समा लेता है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • भारत के प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी चित्रण हुआ है।
  • सूर्योंदय के दृश्य का प्रभावी अंकन हुआ है।
  • काव्यांश में अनुप्रास, रूपक तथा उपमा अलंकार की छटा है।
  • संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग हुआ है।
  • कोमलकांत पदावली प्रयुक्त हुई है।
  • माधुर्य भाव का समावेश हुआ है।

6. लघु सुरधनु-से पंख पसारे-शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए-समझ नीड़ निज प्यारा।
उत्तर :
इन काव्य-पंक्तियों में जहाँ एक ओर प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी चित्रण है वहीं भारतीय संस्कृति की महानता भी उल्लेखित हुई है। भारत एक ऐसा देश है जिसे सभी अपना घर समझते हैं। यहाँ सभी को आश्रय मिलता है। पक्षी इसी देश की ओर मुँह करके उड़ते हैं। उड़ते पक्षी छोटे-छोटे इंद्रधनुषों के समान प्रतीत होते हैं।

  • ‘लघु सुरधनु से’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘समीर सहारे’, ‘नीड़ निज’, ‘पंख पसारे’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
  • तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।

7. बरसाती आँखों के बादल-बनते जहाँ भरे करुणा-जल
लहरें टकराती अनंत की-पवाकर जहाँ किनारा।
हेम कुंभ ले उषा सबेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रज्जनी भर तारा।
उत्तर :
भाव-सौन्दर्य : प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘चंद्रगुप्त’ में गाए ‘कार्नेलिया के गीत’ से अवतरित है। सिंधु नदी के तट पर ग्रीक शिविर के निकट बैठी सेल्यूकस की पुत्री

कार्नेलिया भारत की विशेषताओं का गुणगान करते हुए कहती है –
भारतवर्ष दया, सहानुभूति एवं करुणा वाला देश है। यहाँ के लोगों की आँखों में करुणापूर्ण आँसू बहते रहते हैं। वे किसी की पीड़ा को नहीं देख सकते। उनकी आँखों से निकले अश्रु जल से भरे बादल बन जाते हैं। यहाँ तो अनंत से आती हुई लहरें भी किनारा (आश्रय) पाकर टकराने लगती हैं और यहीं शांत हो जाती हैं। इसी प्रकार विभिन्न देशों से आए व्याकुल एवं विक्षुब्ध प्राणी भारत में आकर अपार शांति का अनुभव करते हैं। उन्हें भी यहाँ किनारा अर्थात् ठिकाना मिल जाता है। दूसरों को किनारा देना भारतवर्ष की विशेषता है।

कारेंलिया भारत की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन करते हुए कहती है कि इस देश का सूर्योदय का दृश्य अवर्णनीय है। सूर्योंदय से पूर्व उषा स्वयं स्वर्णकलश लेकर (सूर्य के रूप में) इस देश के ऊपर सुखों की वर्षा करती है। जब रात भर जगने के बाद तारे मस्ती में ऊँघते रहते हैं अर्थात् छिपने की तैयारी कर रहे होते हैं तब उषा रूपी नायिका आकाश रूपी कुएँ से अपने सुनहरी कलश में सुख रूपी पानी भर कर लाती है और उसे भारत भूमि पर लुढ़का देती है अर्थात् रात बीत जाने पर जब प्रातःकालीन किरणें धरती पर छाने लगती हैं तब सुखद अनुभूति होती है। तारे रात भर जागते हैं अतः प्रातःकाल उनकी ऊँघती दशा को मद्धिम पड़ती रोशनी के रूप में दर्शाया गया है। उषा के हाथ में सुख्रों से भरा घड़ा होने की कल्पना सर्वथा नवीन है।

शिल्प-सौन्दर्य :

  • तारों एवं उषा का मानवीकरण किया गया है।
  • तारों के ऊँघते रहने के बीच उषा को सुख लुढ़काने का आकर्षक बिंब का सृजन हुआ है।
  • ‘जब जगकर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • रूपक अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है।
  • शब्द-चयन अत्यंत सटीक है। तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।

प्रतिपाद्य संबंधी प्रश्न –

प्रश्न 1.
‘देवसेना का गीत’ का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘देवसेना का गीत’ प्रसादजी के नाटक ‘स्कंदगुप्त’ से लिया गया है। देवसेना का पिता और भाई वीरगति को प्राप्त हुए थे। देवसेना यौवनकाल के प्रारंभ से स्कंदगुप्त को चाहती थी, पर तब स्कंदगुप्त: मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया को पाना चाहते थे। उसके न मिलने पर जीवन के अंतिम मोड़ पर स्कंदगुप्त ने देवसेना का साथ चाहा, पर वह इंकार कर देती है। वह बूढ़े पर्णदत्त के साथ आश्रम में भिक्षा माँगती है। देवसेना अपने विगत जीवन पर दृष्टिपात करती है तो वह अपने भ्रमवश किए कामों पर पछताती है। वह अपने जीवन की पूँजी की रक्षा नहीं कर पाती। वह हार निश्चित होने के बावजूंद प्रलय से लोहा लेती है।

प्रश्न 2.
‘कार्नेलिया का गीत’ का प्रतिपाद्य लिखिए।
उत्तर :
‘कार्नेलिया का गीत’ कविता जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक ‘चंड़गुप्त’ का एक प्रसिद्ध गीत है। कार्नेलिया सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी है। वह सिंधु के किनारे एक ग्रीक शिविर के पास वृक्ष के नीचे बैठी हुई है। वह अचानक गा उठी है-सिंधु का यह मनोहर तट मेरी आँखों के सामने एक आकर्षक चित्र उपस्थित कर रहा है। उसे यह देश अपना प्रतीत होता है, अतः वह कह उठती है- अरूण, यह मधुमय देश हमारा’। इस गीत से वह भारतवर्ष की गौरवशाली परंपरा का गुणगान करती है। इस महान देश में सभी प्राणियों को आश्रय प्राप्त होता है। पक्षी अपने प्यारे घोंसलों की कल्पना करके जिस ओर उड़े चले जा रहे हैं, वही देश प्यारा भारतवर्ष है। इस देश का प्रातःकाल इतना आकर्षक होता है कि ऐसा प्रतीत होता है कि उषा रूपी नायिक हमारे लिए सुखों की वर्षा कर रही हो। यहाँ के निवासियों के नेत्रों से करुण जल बरसता रहता है। यही भारत की पहचान है।

प्रश्न 3.
‘कार्नेलिया का गीत’ कविता के माध्यम से देशभक्ति के साथ-साथ भारतीय इतिहास की भी झलक
उत्तर :
जयशंकर प्रसाद इस गीत के माध्यम से राष्ट्र-भक्ति का केवल एक और श्रेष्ठ स्वरूप ही प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि सत्य, अहिंसा और करूणा इस देश की संस्कृति के मुख्य तत्वों में से रहे हैं। अतः प्रत्येक भारतवासी की आँख में करुणा का जल बादलों की तरह विद्यमान रहता है। भारत की भौगोलिक सीमाओं को देखें तो इसके पूर्व-पश्चिम एवं दक्षिण तीनों तटों पर तीन-तीन सागरों की लहरें ही आकर नहीं टकराती, अपितु उन लहरों पर सवार होकर आए जलयान और उनके यात्री भी अपनी मंजिल पा जाते हैं।

कृवि का संकेत कोलंबस एवं वास्को-डि-गामा जैसे यात्रियों की ओर ही है। इस प्रकार भारत के प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्त्व और जीवन के सुख को प्रदान करने की क्षमता आदि का गुणगान करके कवि भारतवासियों के मन में देश-गौरव का भाव जागृत करना चाहता है और एक विदेशी युवती के मुख से गीत गवाकर प्रसाद यह संदेश भी देना चाहते हैं कि यदि कार्नेलिया जैसी विदेशी युवती इस देश को अपनाकर इसे प्राणपन से प्रेम कर सकती है तो हम भारतीय ऐसा क्यों नहीं कर सकते?

प्रश्न 4.
‘मेरी करुणा हा-हा खाती’ इस उद्गार के आलोक में देवसेना की वेदना को समझाइए।
उत्तर :
अंत में देवसेना भाव-विह्लल होकर विश्व को संबोधित करती हुई कहती है कि तुमने उसे (देवसेना को) जो विश्वासरूपी अथवा स्नेहरूपी धरोहर सौंप रखी थी, उसे अब वापस ले लो। उसका जीवन करुणा से भर गया है और यह करुणा उसके लिए दुखदायी बन गई है। उसकी करुणा उसके लिए दुखदायी बन गई है। उसकी करुणा उसे खाए जा रही है। संसार ने जो जिम्मेदारी देवसेना को सौंप रखी थी, उसे वह सँभाल नहीं पाई है। अतः वह अपने मन में लज्जित है कि उसके मन ने लाज खो दी है।

प्रश्न 5.
देवसेना के परिश्रम से निकली पसीने की बूँदे आँसू की तरह क्यों प्रतीत हो रही थीं ? – ‘देवसेना का गीत’ कविता के आधार पर बताइए।
अथवा
देवसेना की वेदना का कारण समझाइए।
उत्तर :
देवसेना की वेदना के कारण :
देवसेना के परिवार के सभी सदस्य हूग्णों के आक्रमण का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे।

  • देवसेना राष्ट्र-सेवा का व्रत लिए हुए संघर्ष कर रही थी।
  • वह प्रारंभ में जिस स्कंदगुप्त से प्रेम करती थी, उसे किसी ओर से प्रेम था। अतः देवसेना निराश हो गई थी।
  • देवसेना का जीवन अत्यंत दुखों और कठिनाइयों से भरा हुआ था।
  • वह अपने जीवन-यापन के लिए गाना गाकर भीख माँगती फिर रही थी।
  • देवसेना जीवन-संघर्ष करते हुए इधर पसीने बहा रही थी, उधर उसकी मानसिक व्यथा के कारण उसकी आँखों से निकले आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे।
  • इन्हीं कारणों से उसके परिश्रम से निकली पसीने की बूँदों को आँसू की तरह गिरती हुई बताया गया है।

प्रश्न 6.
‘कार्नेलिया का गीत’ कविता में वृक्षों की सुंदरता का वर्णन किस रूप में हुआ है ?
उत्तर :

  • ‘कान्नेलिया का गीत’ कविता में वृक्ष्षों की सुंदरता का वर्णन अत्यंत आकर्षक रूप से हुआ है।
  • नदी-सरोवरों के जल में कमल-नाल की आभा पर वृक्षों की चोटियों की परछाई अत्यंत सुंदर प्रतीत हो रही है।
  • सरोवरों की लहरों पर वह परछाई नाचती हुई-सी लग रही है।
  • सर्वत्र हरियाली बिखरी हुई है और उस हरियाली पर मंगल-कुकुम के रूप में जीवन छिटका हुआ है।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 2 Question Answer गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 2 गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति

Class 12 Hindi Chapter 2 Question Answer Antra गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति

गीत गाने दो मुझे – 

प्रश्न 1.
‘कंठ रुक रहा है, काल आ रहा है’-यह भावना कवि के मन में क्यों आई ?
उत्तर :
कवि बताता है कि जीवन-संघर्ष बेहद कठोर है। संसार में लूट-पाट और एक-दूसरे का शोषण की भावना समायी है। विपत्तियाँ मनुष्य को चारों तरफ से घेर रही हैं। संघर्ष पथ पर चलते-चलते कवि की हिम्मत टूट गई है। उसके मन में निराशा का भाव उदय हो रहा है। बढ़ते दबाव तथा सफलता न मिलने पर कवि को ऐसा लग रहा है मानो उसका अंतिम समय नजदीक आ गया है। कवि अपने मन की टूटन को व्यक्त कर रहा है।

प्रश्न 2.
‘ठग-ठाकुरों से कवि का संकेत किसकी ओर है?
उत्तर :
‘गीत गाने दो मुझे’ कविता में कवि ने उग-ठाकुरों का संकेत उन लोगों की ओर किया है जिन्होंने कवि तथा अन्य सामान्य लोगों को ठगकर लूटा है। इस प्रकार के लोगों ने अपने बाहुबल और धनबल के द्वारा गरीबों का शोषण किया है। ये लोग अपनी चालाकी और दादागीरी के बलबूते पर लोगों को धोखा देते हैं। ये लोग शोषक प्रवृत्ति के हैं। इस प्रकार के लोगों में तथा कथित ठेकेदार तथा जमींदार शामिल हैं। ये लोगों का कल्याण करने का ढोंग रचकर उनका शोषण करते हैं। प्रत्यक्ष रूप में ये लोग सज्जन प्रतीत होते हैं, पर अंदर से ये पूरे ठग होते हैं।

प्रश्न 3.
‘जल उठो फिर सींचने को ‘-इस पंक्ति का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कवि कहता है कि धरती की सहिष्णुता की ज्योति समाप्त हो रही है। मानव निराशा में ड़बता जा रहा है। उसके अंदर की संघर्ष की शक्ति समाप्त होती जा रही है। इस दशा में संघर्ष. क्रांति की जरूरत है। समाज को बचाने के लिए मनुष्य को निराशाजनक परिस्थितियों को समाप्त करना होगा। सद्वृत्तियों को उभारना होगा, मनुष्य को मनुष्यता बनाए रख़कर दुख-सुख सहना होगा तथा निराश एवं असहाय लोगों के मन में आशा का संचार करना होगा, तभी मानवता बच पाएगी।

प्रश्न 4.
‘प्रस्तुत कविता दुःख और निराशा से लड़ने की शक्ति देती है’-स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रस्तुत कविता हमें दु:ख और निराशा से लड़ने की शक्ति देती है। वर्तमान वातावरण दुःख और निराशा से भरा हुआ है। इससे संघर्ष करना आवश्यक है। यह कविता हमारे अंदर उत्साह का संचार करती है और हमें दुःख और निराशा से लड़ने की शक्ति देती है। वह लोगों को आह्नान करता है कि पृथ्वी से निराशा के अंधकार को दूर करने के लिए नई आशा के साथ संघर्ष की ज्वाला प्रज्ज्जलित करे दें।

सरोज-स्मृति – 

प्रश्न 1.
सरोज के नव-वधू के रूप का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर :
सरोज के नववधू के रूप से सुसज्जित होकर विवाह-मंडप में उपस्थित है। उसके मन में प्रिय-मिलन का आह्ललाद है। उसके होठों पर मंद हँसी है। उसने मनभावन शृंगार कर रखा है। लाज एवं संकोच से झुकी उसकी आँखों में एक नई चमक आ गई है। उसके नत नयनों से प्रकाश उतर कर अधरों तक आ गया है। उसकी सुंदर मूर्ति वसंत के गीत के समान प्रतीत होती है।

प्रश्न 2.
कवि को अपनी स्वर्गीया पत्नी की याद क्यों आई ?
उत्तर :
पुत्री सरोज को देखकर कवि को अपनी स्वर्गीया पत्नी की याद हो आई। इसका कारण यह था कि पुत्री सरोज के रंग-रूप में उसे अपनी पत्नी की झलक दिखाई दे रही थी। कवि ने प्नी के रूप में जो शृंगारिक कल्पनाएँ की थीं, वे पुत्री सरोज के अनुपम सौंदर्य में साकार होती प्रतीत हुई। पुत्री के विवाह के अवसर पर उसकी माँ अर्थात् अपनी पत्नी की याद आना स्वाभाविक ही था।

प्रश्न 3.
‘आकाश बदलकर बना मही’ में ‘आकाश’ और ‘मही’ शब्द किसकी ओर संकेत करते हैं ?
उत्तर :
‘आकाश बदलकर बना मही’ से कवि का तात्पर्य यह है कि उसने अपनी कविताओं में जो अद्वितीय श्रृंगारिक कल्पनाएँ की थीं, वे उसकी पुत्री सरोज के अनुपम सौंदर्य में साकार होकर मही अर्थात् धरती पर उतर आई थी। इस प्रकार ‘आकाश’ शब्द कवि की श्रृंगारिक कल्पनाओं के लिए और ‘मही’ शब्द उसकी पुत्री सरोज के सुंदर रूप की ओर संकेत करता है।

प्रश्न 4.
सरोज का विवाह अन्य विवाहों से किस प्रकार भिन्न था ?
उत्तर :
सरोज का विवाह अन्य विवाहों से कई मायने में भिन्न था। यह अत्यंत सादगीपूर्ण ढंग से संपन्न हुआ था। इस विवाह के लिए आत्मीय और स्वजनों अर्थात् नाते-रिश्रेदारों को निमंत्रण नहीं भेजा गया था। केवल घर-परिवारों के लोग ही इसमें सम्मिलित हुए थे। घर में विवाह के गीत भी नहीं गाए गए। न दिन-रात सारा घर जागा, जैसा कि विवाह के अवसर पर सामान्यतः ऐसा (रतजगा) होता है। एक शांत वातावरण में यह विवाह संपन्न हुआ था। सरोज की विदाई के समय माँ द्वरा दी जाने वाली शिक्षाएँ भी पिता (कवि) ने दी थी। मातृविहिन होने के कारण सरोज की पुप्पसेज भी पिता ने ही सजाई थी।

प्रश्न 5.
शकुंतला के प्रसंग के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है ?
उत्तर :
शकुंतला कालिदास की नाट्यकृति ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की नायिका है। ऋषि कण्व ने मातृविहिन कन्या शकुंतला का पालन-पोषण किया और विवाह कर उसे विदा किया। कवि भी वैसी ही स्थिति से गुजरता है। शकुंतला के विवाह में उसका पिता कण्व विलाप करता है। कवि को पिता के रूप में विलाप करते हुए शकुंतला का स्मरण हो आता है। दोनों में काफी समानता है। साथ ही कवि ने यह भी स्पष्ट किया है कि उसकी पुत्री सरोज की शिक्षा और आचरण शकुंतला से भिन्न था।

प्रश्न 6.
‘वह लता वहीं का, जहाँ कली तू खिली’ पंक्ति द्वारा किस प्रसंग को उद्घाटित किया गया है ?
उत्तर :
इस पंक्ति द्वारा इस प्रसंग को उद्घाटित किया गया है कि सरोज की माँ की असमय मृत्यु हो जाने के परिणामस्वरूप उसका पालन-पोषण ननिहाल में ही हुआ। वह वहीं लता बनी और वहीं वह कली के रूप में खिली अर्थांत् वहीं उसका बचपन बीता, युवावस्था आई और वहीं वह युवत्ती के रूप में कली की तरह खिली। उसका बचपन और किशोरावस्था नानी की गोद में ही व्यतीत हुई। वहीं रहकर वह विवाह योग्य हुई।

प्रश्न 7.
कवि ने अपनी पुत्री का तर्पण किस प्रकार किया ?
उत्तर :
कवि साधनहीन था। उसके पास अपनी पुत्री का तर्पण करने के लिए किसी भी प्रकार की धन-सम्पत्ति नहीं थी। हाँ, उसने अपने जीवन में कुछ अच्छे कर्म अवश्य किए थे। वही कर्म उसकी पूँजी थी। अतः उसने अपने समस्त पुण्य कर्मों को पुत्री सरोज के लिए अर्पित कर उसका तर्पण किया। परंजरा के अनुसार मृतक के श्राद्ध के अवसर पर जल तथा अन्य वस्तुओं से उसका तर्पण किया जाता है। कवि के पास कोई वस्तु तो नहीं थी, अतः उसने अपने विगत जीवन के अच्छे कमों के फल पुत्री सरोज को अर्पित कर उसका तर्पण किया।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिए :
(क) नत नयनों से आलोक उतर
उत्तर :
विवाह के अवसर पर बेटी सरोज की आँखों में रोशनी की चमक दिखाई दे रही थी। यह चमक अधरों तक आ गई थी।

(ख) शृंगार रहा जो निराकार
उत्तर :
ऐसा श्रृंगार जिसका कोई आकार न हो। ऐसे भृंगार का प्रभाव ही दृष्टिगोचर होता है। कवि की कविताओं में भी ऐसे ही निराकार सौँदर्य की अभिव्यक्ति हुई थी।

(ग) पर पाठ अन्य यह, अन्य कला
उत्तर :
वेटी को देखकर कवि को नायिका शकुंतला का स्मरण हो आता है, पर यहाँ वह दूसरे ही अर्थ में था। सरोज की शिक्षा और आचरण में भिन्नता थी।

(घ) यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
उत्तर :
कवि अपने माथे को झुकाकर अपने पिता-धर्म का पालन करना चाहता है। वह धर्म पर अडिग रहना चाहता है।

योग्यता विस्तार –

1. निराला के जीवन से संबंधित जानकारी प्राप्त करने के लिए रामविलास शर्मा का ‘महामानव निराला’ पढ़िए।

महामानव निराला – रामविलास शर्मा
‘महामानव निराला’ श्री रामविलास शर्मा द्वारा रचित एक सफल संस्मरण है। इसका सार इस प्रकार है –
सन् 1934 से 38 तक का काल निराला जी के कवि-जीवन का सबसे अच्छा काल था। इसी काल में उनकी श्रेष्ठ रचनाएँ ‘परिमल’, ‘गीतिका’, ‘राम की शक्ति पूजा’, ‘तुलसीदास’, ‘सरोज स्मृति’ आदि काव्य तथा ‘प्रभावती ‘ और ‘ निरुपमा’ आदि उपन्यास रचे गए। इससे पहले काल को तैयारी का और बाद के काल को सूर्यास्त के बाद का प्रकाश भर कहा जा सकता है।

निराला जी कविता लिखने से पहले उसकी चर्चा बहुत कम करते थे। वे कविता के भाव को मन में सँजोए रहते थे और धीरे-धीरे वे भाव कविता का आकार ग्रहण करते जाते थे। उनके मन की गहराई को जानना संभव न था। इस प्रक्रिया में वे किसी से बात भी न करते थे। निराला जी ने लेखक को लखनऊ में एक मकान में ‘तुलसीदास’ कविता के दो बंद (छंद) सुनाए थे। एक दिन उन्होंने ‘राम की शक्ति पूजा’ का पहला छंद सुनाकर पूछा था-” कैसा है?” तारीफ सुनकर बोले-” तो पूरा कर डालें इसे।” निरालाजी की बहुत सी कविताएँ आसानी से समझ में नहीं आतीं। लोग उन पर कई प्रकार के आक्षेप लगाते थे कि वे शब्दों को ढूँस-ढूँसकर किसी तरह कविता पूरी कर देते हैं। पर सच्चाई यह थी कि वे कविता लिखने में बहुत परिश्रम करते थे। वे एक-एक शब्द का ध्यान रखते थे। पसंद न आने पर दुबारा लिखते। उनके कई अधलिखे पोस्टकार्ड मिलते हैं।

कविताएँ पढ़ने और सुनाने में उन्हें बहुत आनंद आता था। उन्हें सैकड़ों कविताएँ याद थीं। वे भाव-विद्वल होकर हाव-भाव के साथ कविता सुनाते थे। कविता को लेकर वे अंग्रेजी व संस्कृत के आचायों की परीक्षा तक ले चुके थे। उनका घर साहित्यकारों का तीर्थ था। पंत जी प्रायः उनके घर आते थे। एक बार निरालाजी ने पंत से कविता सुनाने का आग्रह किया तो उन्होंने कोमल स्वर में ‘जग के उर्षर आँगन में, बरसो ज्योतिर्मय जीवन’ शीर्षक कविता सुनाई थी।

एक बार जब उनके यहाँ जयशंकर प्रसाद जी पधारे तो उन्होंने उनके साथ ऐसे बातें कीं मानो उनका बड़ा भाई आ गया हो। वे प्रसाद जी की कविताओं के प्रशंसक थे। वे अन्य साहित्यकारों का भी बहुत सम्मान करते थे। हाँ, वे स्वाभिमानी बहुत थे। राजा साहब के सामने अपना परिचय इस प्रकार दिया- “हम वो हैं जिनके दावा के दादा के दादा की पालकी आपके दावा के दादा के दादा ने उठाई थी।” एक साधारण से कहानीकार

‘बलभद्र दीक्षित पढ़ीस’ को उन्होंने लेखक से सम्मानपूर्वक परिचित कराया। नई पीढ़ी के लेखकों पर उनकी विशेष कृपा रहती थी। जिससे प्रसन्न होते थे उसे कालिका भंडार में रसगुल्ले खिलाते थे। वे मुँहदेखी प्रशंसा से चिढ़ते थे।

निरालाजी अपने तकों से विरोधियों को पछाड़ देते थे। कहानियाँ लिखने से पूर्व उनकी चर्चा किया करते थे। वे अपनी बात अभिनय करके समझाने की कला में पारंगत थे। हर चीज का सक्रिय प्रदर्शन ही उन्हें पसंद था। उन्हें बेईमानी से चिढ़ थी। वे कुछ प्रकाशकों की बेईमानी से चिढ़कर उनकी पूजा कर चुके थे। वैसे वे बहुत व्यवहार-कुशल थे। विरोधी का सम्मान करते थे। एक साहित्यकार ने उन पर व्यक्तिगत आक्षेप लिखा था। इस पर उनका संदेश था- “तुम्हारे लिए चमरौधा भिगो रखा है।” पर उसके लखनऊ आने पर केले-संतरों से उसका सत्कार किया।

निरालाजी खेलों के भी शौकीन थे। कबड्डी और फुटबॉल खेल लिया करते थे। जवानी में उनका शरीर बड़ा सुडौल था। वे गामा और ध्यानचंद के कौशल की तुलना रवींद्रनाथ ठाकुर से किया करते थे। उनमें तंबाकू फाँकने का व्यसन था, जिसे वे चाहकर भी नहीं छोड़ पाए। निरालाजी पाक-कला में सिद्धहस्त थे। वे अपनी कविता की आलोचना तो सह जाते थे, पर अपने बनाए भोजन की निंदा सुनना उन्हे बहुत बुरा लगता था।

वे गरीबी में रहे पर ख्वाब देखा महलों का। एक बार प्रकाशक से दस-द्स के पाँच नोट लेकर उनसे पंखे का काम लेते हुए सड़क पर जा रहे थे कि एक विरोधी कवि ने अपना दुखड़ा रोकर उनसे एक नोट झटक ही लिया। वे नाई को भी बाल कटवाने के धोती या लिहाफ दे देते थे।
अच्छी पोशाक पहनने और अपनी तारीफ सुनने का उन्हें शौक था। वैसे चाहे गंदे कपड़े पहने रहते पर कवि सम्मेलन में

जाते समय साफ कुरता-धोती पहनते थे तथा चंदन के साबुन से मुँह धोना व बालों में सेंट डालना नहीं भूलते थे। वे खाने-पीने तथा पहनने-ओढ़ने के शौकीन थे। अपने को वे साधारण आदमियों में गिनते थे। महामानव बनने तथा पूजा-वंदना से उन्हें चिढ़ थी। वे चतुरी चर्मकार के लड़के को अपने घर बुलाकर पढ़ाते थे। फुटपाथ पर पड़ी रहने वाली भिखारिन से उन्हें सहानुभूति थी।
इतना सब होते हुए भी उनका मन एकांत में दुःख में डूबा रहता था। उन्हें जीवन में लगातार विरोध और अपने प्रियजनों का विद्रोह सहना पड़ा था। अपनी पुत्री सरोज की अकाल मृत्यु ने उन्हें बुरी तरह झकझोर दिया था। वे दूसरों के दु:ख से भी दुःखी रहते थे। निरालाजी हिंदी प्रेमियों के हृदय-सम्राट् थे। वे साहित्यकार और मनुष्य दोनों रूपों में महान् थे।

2. अपने ‘बचपन की स्मृतियाँ’ को आधार बनाकर एक छोटी-सी कविता लिखने का प्रयास कीजिए।

मेरा बचपन

मेरा बचपन बीता
खेतों खलिहानों में,
मैं एक किसान का बेटा हूँ।
बचपन से ही मैंने सीखा है
परिश्रम करना।
खेतों में मिला मुझे
प्राकृतिक खुला वातावरण
और मैं बना स्वस्थ, सुंदर।

3. ‘सरोज-स्मृति’ पूरी पढ़कर आम आदमी के जीवन-संघर्ष पर चर्चा कीजिए।

विद्यार्थी इस लंबी कविता को पुस्तकालय से पुस्तक लेकर पढ़ें और जीवन-संघर्ष पर चर्चा करें।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 2 गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न – 

प्रश्न – निम्नलिखित काव्यांशों को पढ़कर इनमें निहित काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-

1. चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रुकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।
उत्तर :
इस काव्यांश में कवि जीवन की उस स्थिति की ओर संकेत करता है जब वह चोट खाते-खाते, संघर्ष करते-करते हार स्वीकार करने की मनःस्थिति में आ जाता है। इस जीवन-संघर्ष में होश बनाए रखने वाले लोग भी होश खो बैठे हैं अर्थात् जीवन जीना अत्यंत कठिन हो गया है। जिन हाथों पर अर्थात् लोगों पर विश्वास था उन्हीं ने लूट लिया अर्थात् रक्षक ही भक्षक बन गए। अब तो जिजीविषा दम तोड़ने के कगार पर है।

  • ‘ठग-ठाकुर’ में लाक्षणिकता का समावेश है। ये शोषक वर्ग के प्रतीक हैं।
  • ‘होश के होश छूटना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है।
  • कंठ का राकना, काल का आना-में प्रतीकात्मकता है।
  • सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग है।

2. भर गया है जहर से
संसार जैसे हार खाकर
देखते हैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को।
उत्तर :
‘गीत गाने दो मुझे’ नामक कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘ निराला’ ने संसार में व्याप्त लूट-खसोट से निराश लोगों को अपनी व्यथा को भुलाकर पुन: व्यवस्था स्थापित करने का आह्वान किया है। सर्वत्र फैली विषमता तथा निराशा को त्यागकर मानवीय संदेवनाओं की अपनी ज्योति से इस धरती को पुन: सींचना होगा।
शिल्प-सौंदर्य : प्रस्तुत पंक्तियों में मानवता के कल्याण की सद्भावना से युक्त गीतों को रचने की कामना अभिव्यक्त हुई है।

कवि का मानवतावादी दृष्टिकोण स्पष्ट होता है।
अनुप्रास, उत्प्रेक्षा और विरोधाभास अलंकार का प्रयोग है।
सहज-स्वाभाविक खड़ी बोली का प्रयोग है।
छंद मुक्त कविता है।
कविता में प्रसाद गुण है।

3. इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण।
उत्तर :
इन काव्य-पंक्तियों में कवि पुत्री के लिए कुछ न कर पाने पर अकर्मण्यता के पाप-बोध से ग्रसित जान पड़ता है। वह अपने समस्त कामों को इसी प्रकार भ्रष्ट होते देखना चाहता है जैसे शीत ऋतु में कमल की दशा हो जाती है। गीत की मार से कमल मुरझा जाते हैं। कवि अपना प्रायश्चित करते हुए अपने सभी कर्मों का सुफल पुत्री को अर्पित करके उसका तर्पण करना चाहता है।

  • ‘शीत के-से शतदल’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘कर करता’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया गया है।

4. दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज जो नहीं कही !
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल।
उत्तर :
इस काव्यांश में कवि निराला का जीवन-संधर्ष मुखरित हुआ है। कवि कहता है कि मैंने अपनी स्मृतियों को काफी लंबे समय तक हृदय में संजोए रखा, परंतु अब मैं अत्यधिक व्याकुल हो गया हूँ। अतः उसे प्रकट कर रहा हूँ। मेरा तो सारा जीवन ही दुखों की कहानी बनकर रह गया है । मैं अपने दुख की कथा को आज इस कविता के माध्यम से प्रकट कर रहा हूँ, जिसे मैं आज तक नहीं कह पाया था। मेरे कर्म पर वज्रपात भी हो जाए तब भी मेरा सिर इसी मार्ग पर झुका रहेगा 1 मैं अपने मानवीय धर्म की रक्षा करता रहूँगा। मैं अपने मार्ग से विचलित नहीं हूँगा। यदि अपने कर्तव्य और धर्म का पालन करते हुए मेरे समस्त सत्कार्य शीत के कमल दल की भाँति नष्ट हो जाएँ तब भी मुझे कोई चिंता नहीं है।

  • कवि-हृदय की असीम वेदना को अभिव्यक्ति मिली है।
  • ‘शीत के से शतदल’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘क्या कहूँ आज, जो नहीं कही’ में वक्रोक्ति अलंकार है।
  • क्या कहूँ, पथ पर, कर करता, तेरा तर्पण में अनुप्रास अलंकार है।
  • तत्सम शब्द प्रधान भाषा का प्रयोग है।

5. नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैंने वह मूर्ति-धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति-
उत्तर :
भाव-सौंदर्य – अपनी पुत्री सरोज के विवाह के अवसर पर कवि निराला को ऐसा प्रतीत होता है कि पुत्री की लज्जा और संकोच से झुकी आँखों में एक नवीन प्रकाश उत्तर आया है। इसी कारण उसके अधरों पर एक स्वाभाविक कंपन हो रहा है। उस समय कवि देखता है कि उसके जीवन के वसंत की प्रथम गीति की प्यास उस मूर्ति (पुत्री) में साकार हो उठी है। कवि को उस समय अपनी प्रिया का स्मरण हो आता है।

शिल्प-सौंदर्य –

  • स्मृति-बिंब साकार हो उठा है।
  • ‘नत-नयनों’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • मूर्ति-धीति में मानवीकरण है।
  • संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
  • ‘थर-थर-थर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • शब्द-चयन अत्यंत सटीक है।
  • कविता छंद-बंधन से मुक्त है।

6. शृंगार रहा जो निराकार
रस कविता में उच्छवसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग
भरता प्राणों में राग-रंग।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य-पुत्री सरोज के विवाह के अवसर पर कवि निराला अपनी पुत्री को संबोधित कर कहता है कि अब तक मैंने अपनी कविताओं के शृंगार रस वर्णन में सौंदर्य के जिस निराकार भाव की अभिव्यक्ति की है, वही भाव तुम्हारे रूप-सौंदर्य में साकार हो उठा है। उस समय कवि को अपनी स्वर्गीया पत्नी का स्मरण हो आता है। कवि ने पत्नी के साथ मिलकर जिस प्रेम-गीत को गाया था, वह आज भी उसके प्राणों में अनुराग-पूर्ण उत्साह का संचार कर रहा है।

शिल्प-सौंदर्य – निराला जी की कल्पना शक्ति का चमत्कार देखने ही बनता है।

  • शृंगार रस का मूर्तिमान रूप व्यंजित हुआ है।
  • ‘स्मृति-बिंब’ साकार हो उठा है।
  • ‘राग-रंग’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • मानवीकरण हुआ है।
  • भाषा सरल एवं सुबोध है।
  • शैब्दे-चयन सटीक बन पड़ा है।

प्रतिपाद्य संबंधी प्रश्न – 

प्रश्न 1.
‘गीत गाने दो’ कविता का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘इस कविता के माध्यम से कवि लोगों के मन में घनीभूत हुई निराशा में आशा का संचार करना चाइता है। वह ऐसे समय को बता रहा है जिसमें मनुष्य संघर्ष करते हुए थक जाता है। उसका हौसला टूटने लगता है। वह बताता है कि जो कुछ मूल्यवान था, वह लुट रहा है। सारे संसार में मानवता परास्त दिखाई दे रही है। मनुष्य में संघर्ष करने की क्षमता समाप्त हो रही है। कवि इसी संघर्ष क्षमता को जागृत करना चाहता है। इसके लिए वह अपने गीतों को माध्यम बनाना चाहता है।

प्रश्न 2.
‘सरोज-स्मृति’ कविता का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘यह कविता निराला जी की दिवंगता पुत्री सरोज की स्मृतियों पर आधारित है। यह एक शोकगीत है। इस कविता में कवि ने पुत्री की असामयिक मृत्यु के बाद पिता के हृदय की पीड़ा एवं उसका प्रलाप व्यक्त किया है। कवि को कभी शकुंतला की याद आती है तो कभी अपनी पत्नी की। वह विवाह की पारंपरिक रीति तोड़ कर अपनी पुत्री का विवाह दहेज एवं आडंबर के बिना करता है। वह अपनी अकर्मण्यता को भी व्यक्त करता है। अंत में वह अपने सभी कर्मों से अपनी पुत्री का तर्पण करता है।

अन्य प्रश्न – 

प्रश्न 1.
कवि निराला की कविताओं में शृंगारिक कल्पना किस रूप में साकार हुई है ? ‘सरोज-स्मृति’ कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए?
उत्तर :
कवि निराला ने अपनी कविताओं में सौंदर्य के जिस निराकार भाव को अभिव्यक्ता किया है। वह अनुपम सौंदर्य कल्पना रूपी आकाश से उतरकर पृथ्वी पर मूर्तिमान हो उठा था।
कवि के राग-रंग के शृंगारिक कल्पनाएँ रति के समान आकर्षक व दिव्य-सौंदर्य लिए हुए उसकी पुत्री सरोज के रूप में साकार हो उठी थीं।

प्रश्न 2.
स्पष्ट कीजिए कि ‘सरोज स्मृति’ एक शोकगीत है।
उत्तर :
‘सरोज स्मृति’ कवि निराला के शोक संतप्त हृदय का मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी उद्गार है, जो पाठकों के मन में करूणाभाव पैदा कर देता है। कवि की पत्नी का असामयिक निध न हो चुका था, जिसका दुख कवि अपने सीने पर पत्थर रखकर ढो रहा था। ऐसे में उसकी एकमत्र पुत्री सरोज ही उसका जीवन-संवल थी। विवाह के कुछ ही समय बाद पुत्री की मृत्यु ने कवि हृदय को झकझोर कर रख दिया। यूँ तो कवि ने आजीवन दुख-ही-दुख झेला था पर इस दुख से वह इतना दुखी हुआ कि उसके हृदय की पीड़ा ‘सरोज स्मृति’ के रूप में मुखरित हो उठी। इस प्रकार कह सकते हैं कि निस्संदेह ‘सरोज स्मृति’ शोकगीत है।

प्रश्न 3.
‘निराला’ की कविता ‘सरोज-स्मृति’ की काव्य-पंक्ति ‘दुःख ही जीवन की कथा रही, कया कहूँ, जो नहीं कही।”‘ के आलोक में कवि हुदय की पीड़ा का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर :
इस काव्यांश में कवि निराला का जीवन-संघर्ष मुखरित हुआ है। कवि कहता है कि मैंने अपनी स्मृतियों को काफी लंबे समय तक हृदय में संजोए रखा, परन्तु अब मैं अत्यधिक व्याकुल हो गया हूँ। अतः उसे प्रकट कर रहा हूँ। मेरा तो सारा जीवन ही दुखों की कहानी बनकर रह गया है। में अपने दुख की कथा को आज इस कविता के माध्यम से प्रकट कर रहा हूँ, जिसे मैं आज तक नहीं कह पाया था। मेरे कर्म पर वज्रपात भी हो जाए तब भी मेरा सिर इसी मार्ग पर झुका रहेगा। मैं अपने मानवीय धर्म की रक्षा करता रहूँगा। मैं अपने मार्ग से विचलित नहीं हूँगा। यदि अपने कर्तव्य और धर्म का पालन करते हुए मेरे समस्त सत्कार्य शीत के कमल दल की भाँति नष्ट हो जाएँ तब भी मुझे कोई चिता नहीं है।

प्रश्न 4.
‘कन्ये, गत कर्मों का अर्पण कर, करता मैं तेरा तर्पण’।-इस कथन के पीछे छिपी वेदना और विवशता पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर :
‘सरोज-स्मृति’ कविता एक शोक-गीत है। इसमें कवि अपनी दिवंगत पुत्री सरोज की आकस्मिक मृत्यु पर शोक प्रकट करने के साथ-साथ अपनी विवशता को प्रकट करता है। वह स्वयं को एक पिता के रूप में अकर्मण्य पाता है। वह पुत्री के प्रति कुछ भी न कर पाने को कोसता है। इस कविता के माध्यम से कवि का अपना जीवन-संघर्ष भी प्रकट हुआ है। पिता के रूप में कवि के विलाप में उसे कभी शकुंतला की याद आती है तो कभी अपनी स्वर्गीया पत्नी की। उसे पुत्री के रंग-रूप में अपनी पत्नी के रंग-रूप की इलक मिलती है। कवि पुत्री का पालन-पोषण स्वयं नहीं कर पाया। इसके लिए उसे अपनी ससुराल (सरोज की नानी, मामा-मामी) की शरण में जाना पड़ा। यह भी कवि के मानसिक दुःख का कारण है। कवि का समस्त जीवन दुःख की कथा बनकर रह गया और वह उसे कहने में असमर्थता का अनुभव करता है।

प्रश्न 5.
‘गीत गाने दो मुझे’ कविता में ‘निराला’ के जीवन में व्याप्त निराशा को आशा का स्वर और मनुष्य में समाप्त हो रही जिजीविषा को पुन: प्रकाश देने की बात कहकर हमें जीने की प्रेरणा दी है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? तर्कयुक्त उत्तर दीजिए।
उत्तर :
हाँ, हम इस कथन से सहमत है क्योंकि ‘गीत गाने दो’ कविता के माध्यम से कवि निराशा के मध्य भी आशा का संचार करनाचाहता है। यह सही है कि इस समय वातावरण प्रतिकूल है। कवि इस वातावरण में संघर्ष करते-करते थक गया है। अब जीवन जीना सरल नहीं रह गया है। यही दशा अन्य लोगों की भी है। जीवन-मूल्यों का पतन हो रहा है। इस समय पूरा संसार हार मानने की मनःस्थिति में है क्योंकि उसके जीवन में अमृत के स्थान पर जहर भर गया है। इस समय पूरी मानवता हा-हाकार कर रही है। ऐसा लगता है कि पृथ्वी की लौ ही बुझ गई है। इस वातावरण में मनुष्य की जिजीविषा ही मिटती जा रही है। कवि इस कविता के माध्यम से इसी लौ को जगाने का प्रयास करता है। वह चाहता है कि हम अपनी वेदना-पीड़ा को अपने मन में छिपाए रखें और गीत गाने का प्रयास करें। कवि इस कविता के माध्यम से निराशा के मध्य आशा का संचार करना चाहता है।

प्रश्न 6.
‘दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।’ के आलोक में कवि हुदय की पीड़ा का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
महाकवि निराला को आजीवन संघर्षरत रहना पड़ा। वे जीवन-भर अभावों को झेलते रहे। सामाजिक कुरीतियों और रूढ़ियों की बुराई करने के कारण उन्हें स्वजातीय बंधुओं और समाज की अवहेलना झेलनी पड़ी। एक-एक कर अपने निकट संबंधियों और पत्नी की मृत्यु ने उन्हें दुखों में डुबो दिया था, किंतु अपनी एकमात्र पुत्री सरोज की मृत्यु ने उन्हें अंदर तक हिला दिया था। वे इतने दुखी थे कि वे चाहकर अपनी व्यथा को कह नहीं पा रहे थे। उनसे केवल यही कहा जा रहा था कि दुखों में आजीवन पलना ही उनकी समस्त कथा है।

प्रश्न 7.
‘सरोज-स्मृति’ कविता में कवि निराला की वेदना के सामाजिक संदर्भो को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘सरोज-स्मृति’ कविता एक शोकगीत है। यह गीत निराला जी की दिवंगता पुत्री सरोज पर केंद्रित है। यह कविता निराला के कवि-हृदय का विलाप है। निराला की वेदना दोहरी है। पिता निराला का विलाप उसे पत्नी शकुंतला की याद उभार देता है। कवि को अपंनी पुत्री सरोज के रूप-रंग में पत्नी का रूप-रंग दिखाई देने लगता है। इस कविता में कवि ने एक भाग्यहीन पिता के संघर्ष के साथ-साथ, समाज से उसके संबंध, अपनी पुत्री के प्रति कुछ न कर पाने पर अपनी अकर्मण्यता का बोध भी उजागर हुआ है। यह कविता केवल एक भाग्यहीन पिता की वेदना की अभिव्यक्ति ही नहीं है, वरन् समाज की बेहतरी के लिए काम करने वाले युगचेता निराला के प्रति समाज की उपेक्षा को भी व्यंजित किया है।

प्रश्न 8.
‘सरोज-स्मृति’ कविता में स्वयं को ‘भाग्यहीन’ क्यों कहा है ?
उत्तर :
‘सरोज-स्मृति’ कविता में कवि ने स्वयं को भाग्यहीन कहा है। वह ऐसा इसलिए कहता है कि वह एक असहाय पिता बनकर रह गया। वह अपनी पुत्री सरोज के लिए कुछ भी नहीं कर पाया। वह न तो सही ढंग से उसका पालन-पोषण कर पाया और न ढंग से उसका विवाह ही कर पाया। उसकी अंतिम अवस्था में भी वह पुत्री को बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर पाया। उसे अपनी भाग्यहीनता और अकर्मण्यता पर बड़ा पछतावा होता है। पुत्री सरोज ही उसका एकमात्र संबल था, पर वह उसकी रक्षा करने में असफल रहा। इस प्रकार वह भाग्यहीन ही प्रमाणित हुआ।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 3 Question Answer यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 3 यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद

Class 12 Hindi Chapter 3 Question Answer Antra यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद

यह दीप अकेला –

प्रश्न 1.
‘दीप अकेला’ के प्रतीकार्थ स्पष्ट करते हुए बताइए कि उसे कवि ने स्नेह भरा, गर्व भरा एवं मदमाता क्यों कहा है ?
उत्तर :
‘दीप अकेला’ कविता में ‘दीप’ व्यक्ति का प्रतीक है और ‘पंक्ति’ समाज की प्रतीक है। दीप का पंक्ति में शामिल होना व्यक्ति का समाज का अंग बन जाना है। कवि ने दीप को स्नेह भरा, गर्व भरा एवं मदमाता कहा है। दीप में स्नेह (तेल) भरा होता है, उसमें गर्व की भावना भी होती है क्योंकि उसकी लौ ऊपर की ओर ही जाती है। वह मदमाता भी है क्योंकि वह इधर-उधर झाँकता भी प्रतीत होता है। यही स्थिति व्यक्ति की भी है। उसमें प्रेम भावना भी होती है, गर्व की भावना भी होती है और वह मस्ती में भी रहता है। दोनों में काफी समानता है।

प्रश्न 2.
‘यह दीप अकेला, पर इसको भी पंक्ति को दे दो’ के आधार पर व्यष्टि का समष्टि में विलय क्यों और कैसे संभव है ?
उत्तर :
दीप-व्यक्ति का प्रतीक है और पंक्ति-समाज का। दीप को पंक्ति में स्थान देना व्यक्ति को समाज में स्थान देना है। यह व्यष्टि का समष्टि में विलय है। यह पूरी तरह संभव है। व्यक्ति बहुत कुछ होते हुए भी समाज में विलय होकर अपना और समाज दोनों का भला करता है। दीप का पंक्ति में या व्यष्टि का समष्टि में विलय ही उसकी ताकत का, उसकी सत्ता का सार्वभौमीकरण है, उसके उद्देश्य एवं लक्ष्य का सर्वव्यापीकरण है।

प्रश्न 3.
‘गीत’ और ‘मोती’ की सार्थकता किससे जुड़ी है ?
उत्तर :
‘गीत’ की सार्थकता उसके गायन के साथ जुड़ी है। गीत तभी सार्थक होता है जब लोग उसे गाएँ। गीत चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, पर जब तक कोई उसे गाएगा नहीं तब तक वह निरर्थक है। ‘मोती’ की सार्थकता उसके गहरे समुद्र से बाहर निकालकर लाने वाले गोताखोर के साथ जुड़ी है। समुद्र की गहराई में चाहे कितने भी कीमती मोती भरे पड़े हों, पर वह गोताखोर (पनडुब्बा) द्वारा बाहर निकालकर लाया जाता है, तभी वह मोती सार्थक बनता है अन्यथा वह निरर्थक बना रहता है।

प्रश्न 4.
‘यह अद्वितीय-यह मेरा-यह मैं स्वयं विसर्जित’-पंक्ति के आधार पर व्यष्टि का समष्टि में विलय विसर्जन की उपयोगिता बताइए।
उत्तर :
कवि कहता है कि मनुष्य अकेला है, परंतु अद्वितीय है। वह अपने-आप काम करता है। वह व्यक्तिगत सत्ता को दर्शाता है। वह कार्य करता है और अपने अहं भाव को नष्ट कर देता है। वह समाज में खुद को मिला देता है तथा अपनी सेवाओं से समाज व राष्ट्र को मजबूत बनाता है। इसके अलावा अत्यंत गुणवान और असीम संभावनाओं से युक्त व्यक्ति भी समाज से अलग-अलग रहकर उन गुणों का न तो उपयोग कर पाता है और न समाज के बिना अपनी पहचान ही बना पाता है।

प्रश्न 5.
‘यह मधु है’ तकता निर्भय’-पंक्तियों के आधार पर बताइए कि ‘मधु’, ‘गोरस’ और ‘अंकुर’ की क्या विशेषता है ?
उत्तर :
‘मधु’ की विशेषता यह है कि इसके उत्पन्न होने में युगों का समय लगा है। स्वयं काल द्वारा अपने टोकरे में युगों तक एकत्रित करने के पश्चात् मधु प्राप्त हुआ है। ‘गोरस’ की विशेषता यह है कि यह जीवन रूपी कामधेनु का अमृतमय दूध है। यह देव पुत्रों द्वारा पिया जाने वाला अमृत है। अंकुर की विशेषता यह है कि यह विपरीत परिस्थितियों में भी पृथ्वी को बेधकर बाहर निकलने के लिए उत्कंठित रहता है। यह सूर्य की ओर निडर होकर देखता है।

प्रश्न 6.
भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए :
(क) यह प्रकृत स्वयंभू “शक्ति को दे दो।
उत्तर :
कवि ने अंकुर को प्रकृत, स्वंभू और ब्रह्म के समान कहा है क्योंकि वह स्वयं ही धरती को फोड़कर बाहर निकल आता है और निर्भय होकर सूर्य की ओर देखने लगता है। इसी प्रकार कवि भी अपने गीत स्वयं बनाकर निर्भय होकर गाता है, अत: उसे भी सम्मान मिलना चाहिए।

(ख) यह सदा द्रवित, चिर जागरूक”चिर अखंड अपनाया।
उत्तर :
दीपक सदा आग को धारण कर उसकी पीड़ा को पहचानता है परंतु फिर भी सदा करुणा से द्रवित होकर स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देता है। यह सदा जागरूक, सावधान तथा सबके साथ प्रेमभाव से युक्त रहता है। दीपक व्यक्ति का प्रतीक है।

(ग) जिज्ञासु प्रबुद्ध सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो।
उत्तर :
दीपक को व्यक्ति के प्रतीक के रूम में चित्रित किया गया है। यह सदा जानने की इच्छ से भरपूर ज्ञानवान व श्रद्धा से युक्त रहा है। व्यक्ति भी इन सभी विशेषताओं से परिपूर्ण रहता है।

प्रश्न 7.
‘यह दीप अकेला’ एक प्रयोगवादी कविता है। इस कविता के आधार परं ‘लघु मानव’ के अस्तित्व और महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
दीपक अकेला जल रहा है। यह स्नेह से भरा हुआ है। यह अकेला होने पर भी, लघु होने पर भी काँपता नहीं है, गर्व से भरकर जलता है। दीपेक अपने विशिष्ट व्यक्तित्व के कारण अपने अकेलेपन में भी सुशोभित है, सार्थक है। उसका निजी वैशिष्ट्य समूह के लिए भी महत्वपूर्ण है। यदि आवश्यकता पड़े तो वह समाज के लिए अर्पित हो सकता है। वह बलपूर्वक आत्मत्याग के विरुद्ध है।

इस कविता में लघु मानव का अस्तित्च दर्शाया गया है। दीपक लघु मानव का ही प्रतीक है। उसका अपना विशेष अस्तित्व है। वह समाज का अंग होकर भी समाज से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है। लघु मानव का अपना महत्त्व भी है। लघु मानव समाज का चुनाव अपनी इच्छा से करता है। इसे इस पर कोई बलात् लाद नहीं सकता।

प्रश्न 8.
कविता के लाक्षणिक प्रयोगों का चयन कीजिए और उनमें निहित सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कविता के लाक्षणिक प्रयोग

  • यह दीप अकेला : इसमें ‘दीप’ व्यक्ति की ओर संकेत करता है। वह अकेला है।
  • जीवन-कामधेनु : कामधेनु के समान जीवन से इच्छित की प्राप्ति।
  • पंक्ति में जगह देना : समाज को अभिन्न अंग बनाना।
  • नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा : मानव लघु होने पर भी काँपता नहीं।
  • एक बूँन : लघु मानव।
  • सूरज की आग : आग-ज्ञान का आलोक, रागात्मक वृत्ति की ऊष्मा।

मैंने देखा : एक बूँद –

प्रश्न 1.
‘सागर’ और ‘बूँद’ से कवि का क्या आशय है ?
उत्तर :
‘सागर’ से आशय समाज से है और ‘बूँद’ से कवि का आशय ‘व्यक्ति’ से है। एक छोटी-सी बूँद सागर के जल से उछलती है और पुन: उसी में समा जाती है। यद्यपि बूँद का अस्तित्व क्षणिक होता है, पर निरर्थक कतई नहीं होता।

प्रश्न 2.
‘रंग गई क्षण-भर, बलते सूरज की आग से’ पंक्ति के आधार पर बूँद के क्षण भर रंगने की सार्थकता बताइए।
उत्तर :
बूँद सागर के जल से ऊपर उछलती है और क्षणभर के लिए ढलते सूरज की आग से रंग जाती हैं। वह क्षणभर में ही स्वर्ण की भाँति अप़नी चमक दिखां आती है। यह चमकना निरर्थक नहीं है। वह क्षणभर में ही सार्थकता दर्शा जाती है।

प्रश्न 3.
‘सूने विराट के सम्मुख ‘दाग से’-पंक्तियों का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इन पंक्तियों का भावार्थ यह है कि विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग दिखना नश्वरता के दाग से, नष्टशीलता के बोध से मुक्ति का अहसास है। यद्यपि यह विराट सत्ता शून्य या निराकार है तथापि मानव-जीवन में आने वाले मधुर मिलन के आलोक से दीप्त क्षण मानव को नश्वरता के कलंक से मुक्त कर देते हैं। आलोकमय क्षण की स्मृति ही उसके जीवन को सार्थक कर देती है। कवि को खंड में भी विराट सत्ता के दर्शन हो जाते हैं। वह आश्वस्त हो जाता है कि वह अपने क्षणिक नश्वर जीवन को भी बूँद की भाँति अनश्वरता और सार्थकता प्रदान कर सकता है। उसकी स्थिति वैसी ही सात्विक है जैसी उस साधक की, जो पाप से मुक्त हो गया है।

प्रश्न 4.
‘क्षण के महत्त्व’ को उजागर करते हुए कविता का मूलभाव लिखिए।
उत्तर :
इस कविता में क्षण का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। इस कविता में कवि ने स्पष्ट किया है कि स्वार्थ के क्षुद्र बंधनों को तोड़कर व्यष्टि को समष्टि में लीन हो जाना चाहिए। जगत के सभी प्राणियों का दुःख-दर्द अपना है और उसे अपनाने का प्रयत्ल किया जाना चाहिए। संध्या के समय समुद्र में एक बूँद का उछलना और फिर उसी में विलीन हो जाना क्षण के महत्त्व को प्रतिपादित करता है। यद्यपि बूँद का अस्तित्व बहुत कम समय के लिए था, फिर भी उसे निरर्थक नहीं कहा जा सकता। वह बूँद एक क्षण में ही अस्त होती सुनहरी किरण से चमक उठी थी। बूँद का इस तरह चमककर विलीन हो जाना आत्मबोध कराता है। यद्यपि यह विराट सत्ता निराकार है, फिर भी मानव जीवन में आने वाले मधुर मिलन के प्रकाश से प्रदीप्त क्षण मानव को नश्वरता के कलंक से मुक्त कर देते हैं।

योग्यता विस्तार –

1. अज्ञेय की कविताएँ ‘नदी के द्वीप’ व ‘हरी घास पर क्षणभर ‘ पढ़िए और कक्षा की भित्ति पत्रिका पर लगाइए।

अज्ञेय की कविता ‘नदी के द्वीप’

हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।
माँँ है वह! है, इसी से हम बने हैं।
,कितु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
किंतु हम बहते नहीं हैं क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।
और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते ?
रेत बनकर हम सलिल हो तनिक गंदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।
द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है।
हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी के क्रोड में
वह बृहद् भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
नदी तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, संस्कार देती चलो। यदि एसा कभी हो-
तुम्हारे आह्ड़ाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे –
वह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल, प्रवाहिनी बन जाए –
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात: उसे फिर संस्कार तुम देना।

2. ‘मानव और समाज’ विषय पर परिचर्चा कीजिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।

3. भारतीय दर्शन में ‘सागर’ और ‘बूँद’ का संदर्भ जानिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 3 यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न –

प्रश्न : निम्नलिखित काव्यांशों में निहित काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए :

(क) यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म,
अयुतः इसको भी शक्ति दे दो
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता,
पर इसको भी पंक्ति दे दो।
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य
भाव-सौंदर्य : इन पंक्तियों में कवि ने व्यक्ति के प्रतीक के रूप में दीपक को लिया है। यह बताया गया है कि यह दीपक प्रकृति के अनुरूप है, स्वाभाविक रूप से स्वयं उत्पन्न हुआ है। यह ब्रह्म अर्थात् सच्चिदानंद स्वरूप जगत का मूल है। यह ‘अयुतः’ अर्थात् सबसे पृथक अलग अस्तित्व वाला है।
दीपक के प्रतीक के द्वारा बताया गया है कि व्यक्ति अपने आप में परिपूर्ण एवं सर्वगुण संपन्न है, पर पंक्ति या समजज में विलय होने पर इसकी सार्थकता एवं उपयोगिता बढ़ जाएगी। यह उसकी सत्ता का सार्वभौमीकरण है – व्यष्टि का समष्टि में विलय है, आत्मबोध का विश्व बोध में रूपांतरण है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • इन पंक्तियों में दीप की उपमा अनेक वस्तुओं से दी गई है।
  • प्रतीकात्मकता का समावेश है। ‘दीपक’ व्यक्ति का तथा ‘पंक्ति’ समाज का प्रतीक है।
  • लाक्षणिकता का प्रयोग दर्शनीय है।
  • ‘स्नेह’ शब्द में श्लेष अलंकार है।
  • तत्सम शब्दों का प्रयोग है।

(ख) सूने विराट के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से।
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : इन पंक्तियों में बताया गया है कि विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग दिखना नश्वरता के दाग से नष्ट होने के बोध से मुक्ति का अहसास है। इसमें कवि ने जीवन में क्षण के महत्त्व को, क्षण भंगुरता को प्रतिष्ठापित किया है।
यद्यपि मानव जीवन में आने वाले मधुर-मिलन के आलोक से दीप्त क्षण मानव को नश्वरता के कलंक से मुक्त कर देता है। आलोकमय क्षण की स्मृति ही उसके जीवन को सार्थक कर देती है। कवि को खंड में भी विराट सत्ता के दर्शन हो जाते हैं। वह आश्वस्त हो जाता है कि वह अपने क्षणिक नश्वर जीवन को भी बूँद की भाँति अनश्वरता और सार्थकता प्रदान कर सकता है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • प्रतीकात्मकता का समावेश हुआ है।
  • ‘बूँद’ और ‘सागर’ का प्रतीकात्मक प्रयोग हुआ है।
  • लघु मानव का महत्त्व दर्शाया गया है।
  • आलोक, उन्मोचन, नश्वरता जैसे तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।

(ग) एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से,
रंग गई क्षण भर
ढलते सूरज की आग से।
मुझ को दीख गया
सूने विराद् के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से !
उत्तर :
भाव-सौंदर्य : कवि संध्या के अरुणिमा में समुद्र के झाग से उछली एक बूँद को देखता है। वह बूँद बाद में समुद्र में ही विलीन हो जाती है।
बूँद का इस प्रकार चमककर समुद्र में विलीन हो जाना कवि को आत्मबोध कराता है कि यद्यपि विराट सत्ता शून्य या निराकार है तथापि मानव जीवन में आने वाले मधुर मिलन के आलोक से दीप्त क्षण मानव को नश्वरता के कलंक से मुक्त कर देते हैं। आलोकमय क्षण की स्मृति ही उसके जीवन को सार्थक कर देती है। कवि को खंड में भी सत्य का दर्शन हो जाता है। वह आश्वसत हो जाता है कि वह अपने क्षणिक नश्वर जीवन को भी बूँद की भाँति अनश्वरता और सार्थकता प्रदान कर सकता है। उसकी स्थिति वैसी ही सात्विक है, जैसी उस साधक की जो पाप से मुक्त हो गया है।

शिल्प सौंदर्य :

  • इस कविता में कवि ने क्षण के महत्त्व को, क्षणभंगुरता को प्रतिष्ठित किया है।
  • यह कविता प्रयोगवादी शैली के अनुरूप है।
  • यह कविता प्रतीकात्मकता को लिए हुए है। इसमें ‘बूँद’ व्यक्ति का और ‘सागर’ समाज का प्रतीक है।
  • कवि ने व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा की है।
  • कवि पश्चिम के अस्तित्ववाद से भी प्रभावित है।
  • ‘ढलते सूरज की आग’ में ‘आग’ का प्रयोग आलोक के अर्थ में साभिप्राय है।

प्रतिपाद्य संबंधी प्रश्न – 

प्रश्न 1.
अज्ञेय की कविता ‘मैंने देखा : एक बूँच’ का सार लिखते हुए इसके प्रतिपाद्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
यह कविता केवल 9 छोटी-छोटी पंक्तियों में अतुकांत रूप से लिखी गई है। ऊपर से देखने पर लगता है कि कवि सागर-तट पर खड़े होकर संध्या काल के समय प्राकृतिक सौंदर्य का एक दृश्य देखता है जो अपनी शोभा और आकर्षण के कारण कवि के भावुक मन पर अमिट छाप छोड़ जाता है। सागर में फेनयुक्त लहरें उठ-गिर रही हैं तभी अचानक लहर के झाग को विदीर्ण करती हुई एक बूँद उछलती है, कवि उस उछलती बूँद को देखता है। सूर्यास्त का समय है। छिपते सूर्य की एक रंगीन चमकीली किरण उस उछलती’ बूँद पर पड़ती है और वह सूर्य-किरण की आभा से रंग जाती है।

बूँद उस स्वर्णिम आभा को प्राप्त कर अत्यंत रमणीय बन जाती है। कवि इस दृश्य को देखकर विस्मय विमुग्ध हो उठता है। तभी उसके मन में एक विचार कौंधता है। क्रोचे के शब्दों में सहज ज्ञान या प्रातिम ज्ञान (इंट्यूशन) बताता है कि यदि सामान्य व्यक्ति (बूँद) जो समाज (सागर) का अंश है, ईश्वर की परम सत्ता, विराट चेतना से प्रभावित होकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धांत को अपने जीवन में उतार लेता है तो वह साधारण से असाधारण, सामान्य साधक से ईश्वर का साक्षात्कार करने वाला साधक बन जाता है। उसके व्यक्तित्व में बूँद की तरह रूपांतर हो जाता है। वह दिव्य आत्मा बन जाता है। वह संसार के प्राणिमात्र में ईश्वर की सत्ता का दर्शन कर उसके प्रति आत्मीय बन जाता है। उनके सुख-दुःख का सहभागी बन जाता है और यही स्तिति मोक्ष है, काम्य है। हमको यही करना चाहिए।

अन्य प्रश्न –

प्रश्न 1.
‘यह दीप अकेला’ एक प्रयोगवादी कविता है। इस कविता के आधार पर ‘लघु मानव’ के अस्तित्व और महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
‘यह दीप अकेला’ एक प्रयोगवादी कविता है। प्रयोगवादी कविता की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें लघु मानव को प्रतिष्ठित किया गया है। जिस प्रकार एक-एक बूँद मिलकर सागर बन जाता है, उसी प्रकार बूँद का अपना अस्तित्व भी बना रहता है। जिस प्रकार एक छोटा-सा दीपक भी अंधकार को भेदने में सक्षम रहता है, उसी प्रकार लघु मानव भी स्वयं को प्रतिष्ठित करता है। लघु मानव विराट का एक अंश होते हुए भी उसका महत्त्व कम नहीं होता। इस कविता में लघु मानव का अस्तित्व दर्शाया गया है। दीपक लघु मानव का ही प्रतीक है। उसका अपना विशेष अस्तित्व है। वह समाज का अंग होकर भी समाज से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है। लघु मानव का अपना महत्त्व भी है। लघु मानव समाज का चुनाव अपनी इच्छा से करता है। इसे इस पर कोई बलात् लाद नहीं सकता।

प्रश्न 2.
‘वह दीप अकेला’ कविता की “यह अद्वितीय-यह मेरा- यह मैं स्वयं विसर्जित” – पंक्ति के आधार पर व्यष्टि के समष्टि में विसर्जन की उपयोगिता बताइए।
उत्तर :
व्यष्टि के समष्टि में विसर्जन से उसकी उपयोगिता और सार्थकता बहुत बढ़ जाती है। व्यक्ति सर्वगुण संपन्न होते हुए भी अकेला है। जब वह अपना विलय समाज (समष्टि) में कर देता है, तभी उससे उसका तथा समाज का भला होता है। यह उसकी व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता के साथ जोड़ता है। इस रूप में व्यक्ति के गुणों का लाभ पूरे समाज को मिलता है। इससे समाज और राष्ट्र मजबूत होता है।

प्रश्न 3.
‘मैंने देखा एक बूँद’ कविता का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मैंने देखा एक बूँद कविता में असेय ने समुद्र से अलग प्रतीत होती बूँद की क्षणभंगुरता को व्याख्यायित किया है। यह क्षणभंगुरता बूँद की है, समुद्र की नहीं। बूँद क्षणभर के लिए ढलते सूरज की आग से रंग जाती है। क्षणभर का यह दृश्य देखकर कवि को एक दार्शनिक तत्व भी दीखने लग जाता है। विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग दिखना नश्वरता के दाग से, नष्टीकरण के बोध से मुक्ति का अहसास है। इस कविता के माध्यम से कवि ने जीवन में क्षण के महत्त्व को, क्षणभंगुरता को प्रतिष्ठापित किया है।

प्रश्न 4.
‘यह द्वीप अकेला’ कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि कवि ने दीप को ‘अकेला’ और ‘गर्वभरा मदमाता’ क्यों कहा?
उत्तर :
‘दीप अकेला’ कविता में ‘दीप’ व्यक्ति का प्रतीक है और ‘पंक्ति’ समाज की प्रतीक है। दीप का पंक्ति में शामिल होना व्यक्ति का समाज का अंग बन जाना है। कवि ने दीप को स्नेह भरा, गर्व भरा एवं मदमाता कहा है। दीप में स्नेह (तेल) भरा होता है, उसमें गर्व की भावना भी होती है क्योंकि उसकी लौ ऊपर की ओर ही जाती है। वह मदमाता भी है क्योंकि वह इधर-उधर झाँकता भी प्रतीत होता है। यही स्थिति व्यक्ति की भी है। उसमें प्रेम भावना भी होती है, गर्व की भावना भी होती है और वह मस्ती में भी रहता है। दोनों में काफी समानता है।

प्रश्न 5.
‘दीप अकेला’ के प्रतीकार्थ को स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि उसे कवि ने स्नेहभरा, गर्वभरा और मदमाता क्यों कहा है?
उत्तर :
कवि ने ‘दीप अकेला’ को उस अस्मिता का प्रतीक माना है, जिसमें लघुता में भी ऊपर उठने की गर्वभरी व्याकुलता है। उसमें प्रेम रूपी तेल भरा है। यह अकेला होते हुए भी एक आलोक स्तंभ के समान है, जो समाज का कल्याण करेगा और अपने मदमाते गर्व के कारण सबसे भिन्न दिखाई देगा। ‘दीप अकेला’ कविता में ‘दीप’ व्यक्ति का प्रतीक है और ‘पंक्ति’ समाज की प्रतीक है। दीप का पंक्ति में शामिल होना व्यक्ति का समाज का अंग बन जाना है। कवि ने दीप को स्नेह भरा, गर्व भरा एवं मदमाता कहा है। दीप में स्नेह (तेल) भरा होता है, उसमें गर्व की भावना भी होती है क्योंकि उसकी लौ ऊपर की ओर ही जाती है। वह मदमाता भी है क्योंकि वह इधर-उधर झाँकता भी प्रतीत होता है। यही स्थिति व्यक्ति की भी है। उसमें प्रेम भावना भी होती है, गर्व की भावना भी होती है और वह मस्ती में ही रहता है। दोनों में काफी समानता है।

प्रश्न 6.
‘मैंने वेखा एक बूँद’ कविता में कवि अज्ञेय ने किस सत्यता के दर्शन किए और कैसे?
उत्तर :
कवि अज्ञेय ने देखा कि सागर की लहरों के झाग से एक बूँद उछली। उस बूँद को सायंकालीन सूर्य की सुनहरी किरणें आलोकित कर गईं, जिससे बूँद मोती की तरह झिलमिलाती हुई चमक उठी। कवि ने बूँद के उस क्षणिक स्वर्णिम अस्तित्व को उसके जीवन की चरम सार्थकता माना है। कवि आत्मबोध प्राप्त कर सोचता है कि यदि (वह) मनुष्य ऐसे स्वर्णिम क्षण परम सत्ता या ब्रह्न के प्रति समर्पित कर देता है तो वह परम सत्ता के आलोक से आलोकित हो उठता है और नश्वरता से मुक्ति पा जाता है। कवि ने इस सत्यता के दर्शन अपने सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति एवं आत्मबोध से प्राप्त किया।

प्रश्न 7.
क्षणभर के आलोक ने बूँद को किस तरह विशेष बना दिया? ‘मैंने देखा एक बूँद’ कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
अस्तगामी, सायंकालीन सूर्य की सुनहरी किरणें सागर के सीने पर छिटक रही थीं। उसी समय सागर की लहरों के झाग से एक बूँद उछली। इस बूँद पर सूर्य की सुनहरी किरण पड़ते ही बूँद मोती की तरह झिलमिलाने लगी। बूँद सुनहरे रंग में रंगकर अलौकिक चमक प्राप्त कर गई। यदि इस बूँद पर सायंकालीन सूर्य की किरणें न पड़तीं तो उसका अस्तित्व निखरकर सामने न आ पाता। इस प्रकार सूर्य की सुनहरी किरणों ने उसे विशेष बना दिया।

प्रश्न 8.
‘यह दीप अकेला’ के आधार पर व्यष्टि और समष्टि पर लेखक के विच्चारों पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
व्यष्टि को समष्टि में विलय होना ही चाहिए क्योंकि व्यष्टि का समहह ही समष्टि का निर्माण करता है। व्यष्टि के समष्टि में शामिल होने से ही उसकी महत्ता और सार्थकता में वृद्धि होती है। व्यक्ति का मूल्यांकन समाज में ही संभव है। व्यक्ति के समाज में विलय होने से समाज मजबूत होता है और जब समाज मजबूत होगा तो राष्ट्र भी शक्तिशौली होगा। व्यष्टि का समष्टि में विलय तभी संभव हो सकता है जब समष्टि व्यष्टि के महत्व को स्वीकार करेगा।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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Class 12 Hindi Antra Chapter 4 Question Answer बनारस, दिशा

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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 4 बनारस, दिशा

Class 12 Hindi Chapter 4 Question Answer Antra बनारस, दिशा

बनारस – 

प्रश्न 1.
बनारस में वसंत का आगमन कैसे होता है और उसका क्या प्रभाव इस शहर पर पड़ता है ?
उत्तर :
बनारस में वसंत का आगमन अचानक होता है। उसके आगमन के समय बनारस के मुहल्लों में धूल का बवंडर उठता प्रतीत होता है। लोगों की जीभ पर धूल की किरकिराहट का अनुभव होने लगता है। यह वसंत उस वसंत से भिन्न प्रकार का होता है जैसा वसंत के बारे में माना जाता है। यहाँ वह बहार नहीं आती है जो वसंत के साथ जुड़ी है। बनारस में तो गंगा, गंगा के घाट तथा मंदिरों और घाटों के किनारे बैठे भिखारियों के कटोरों में वसंत उतरता प्रतीत होता है। इन स्थानों पर भीड़ बढ़ जाती है। भिखारियों को ज्यादा भीख मिलने लगती है।

प्रश्न 2.
‘खाली कटोरों में वसंत का उतरना’ से क्या आशय है ?
उत्तर :
‘खाली कटोरों में वसंत का उतरना’ से यह आशय है कि जो भिखारी अब तक मंदिरों और घाटों पर खाली कटोरों को लिए बैठे हुए थे अब उनमें लोगों द्वारा पैसे डालने शुरू हो जाते हैं। इससे भिखारियों की आँखों में चमक आ जाती है। उनके कटोरों में गिरते सिक्के उन्हें वसंत के आगमन की सूचना दे देते हैं। लगता है उनके कटोरों में वसंत उतर आया है।

प्रश्न 3.
बनारस की पूर्णता और रिक्तता को कवि ने किस प्रकार दिखाया है ?
उत्तर :
कवि के अनुसार बनारस शहर की पूर्णता और रिक्तता की स्थिति बड़ी अजीब है। पूर्णता और रिक्तता का यह सिलसिला निरंतर चलता रहता है। भले ही यह सिलसिला धीमी गति से चलता है, पर इसमें निरतंरता बनी रहती है। यहाँ रोज़ लोग जन्म लेते और मरते रहते हैं।
पूर्णता : बनारस की पूर्णता को कवि ने वसंत आने पर लोगों के मन में आए उल्लास के रूप में दर्शाया है। कवि ने दर्शाया है इस ऋतु में लोगों में, पेड़-पौधों में, पशु-पक्षियों में जीवन के प्रति आशा का संचार जाग जाता है। बनारस का जीवन उल्लास से परिपूर्ण हो जाता है।
रिक्तता : बनारस की रिक्तता को कवि ने शहर की अंधेरी गलियों से गंगा की ओर ले जाने वाले शवों के चित्रण के माध्यम से दर्शाया है। कवि दर्शाता है कि मनुष्य की नश्वरता के कारण ही यह शहर रिक्त होता जाता है। पुराने की समाप्ति बनारस शहर को खाली करती रहती है।

प्रश्न 4.
बनारस में धीरे-धीरे क्या होता है ? ‘धीरे-धीरे’ से कवि इस शहर के बारे में क्या कहना चाहता है ?
उत्तर :
कवि बनारस शहर की धीमी गति के बारे में कई बातें बताता है :

  • बनारस शहर में धूल धीरे-धीरे उड़ती है।
  • बनारस के लोग धीरे-धीरे चलते हैं।
  • बनारस के सभी काम धीरे-धीरे होते हैं।
  • यहाँ मंदिरों और घाटों पर घंटे भी धीरे-धीरे बजते हैं।
  • बनारस में शाम भी धीरे-धीरे उतरती है।
  • बनारस में हर गतिविधि का धीरे-धीरे होना एक सामूहिक लय है।
  • शहर में हर कार्य अपनी ही ‘रौ’ में धीरे-धीरे होता है।

धीरे-धीरे से कवि यह कहना चाहता है कि ‘धीरे-धीरे’ होना बनारस शहर की पहचान है। इस सामूहिक गति ने ही इस शहर को दृढ़ता से बाँधे रखा है।

बनारस के ‘धीरे-धीरे’ के चरित्र के कारण ही यहाँ की प्राचीन संस्कृति, आध्यात्मिक आस्था, विश्वास, श्रद्धा, भक्ति आदि की विरासत अभी तक सुरक्षित है। इनकी दृढ़ता के कारण यहाँ से न कुछ हिलता है, न गिरता है, सभी कुछ यथावत बना रहता है। यही स्थिरता बनारस की विशेषता है।

प्रश्न 5.
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय में क्या-क्या बँधा है?
उत्तर :
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय में सारा शहर दृढ़ता के साथ बँधा है।
जो चीजें जहाँ थीं वे वहीं पर मौजूद हैं।
नाव वहीं बँधी है अर्थात् गंगा से संबंधित परंपराएँ उसी रूप में विद्यमान हैं।
तुलसीदास की खड़ाऊँ भी सैकड़ों वर्षों से वहीं रखी है। तात्पर्य यह है कि वहाँ का धार्मिक और ऐतिहासिक वातावरण वैसा ही बना हुआ है। गंगा के साथ लोगों की आस्था और मोक्ष की अवधारणा जुड़ी हुई है।

प्रश्न 6.
‘सई-साँइ’ में घुसने पर बनारस की किन-किन विशेषताओं का पता चलता है ?
उत्तर :
सई-साँझ में घुसने पर बनारस की विशेषताओं का पता चलता है कि इस शहर की बनावट अजीब किस्म की है। यह शहर आधा जल के अंदर और आधा बाहर दिखाई देता है। यहाँ गंगा-तट पर शव जलाए भी जाते हैं और पानी में बहाए भी जाते हैं। फूल और शंख भी दिखाई देते हैं। बनारस में जहाँ एक ओर अति प्राचीनता, आध्यात्मिकता है वहीं आधुनिकता का समाहार है। यह शहर पुराने रहस्यों को खोलता जान पड़ता है।

प्रश्न 7.
बनारस शहर के लिए जो मानवीय क्रियाएँ इस कविता में आई हैं, उनका व्यंजनार्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस कविता में बनारस शहर के लिए निम्नलिखित मानवीय क्रियाएँ आई हुई हैं :

इस पुराने शहर की जीभ किरकिराने लगती है।

इस पंक्ति का व्यंजनार्थ है कि धूलभरी आँधियाँ चलने से शहरों की सड़कों पर धूल एकत्रित हो जाती है और वह किरकिराहट पैदा करती है। यह हर जगह महसूस होती है।

अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर

अपनी दूसरी टाँग से बेखबर।

इन पंक्तियों का व्यंजनार्थ यह है कि बनारस शहर अपनी घोर आध्यात्मिकता में इस कदर खोया हुआ है कि उसे दूसरे पक्ष का ध्यान ही नहीं रहता। एक टाँग और दूसरी टाँग के माध्यम से यह स्थिति स्पष्ट नहीं है।

प्रश्न 8.
शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए :
(क) यह धीरे-धीरे होना ……. समूचे शहर को।
(ख) अगर ध्यान से देखो …… और आधा नहीं है।
(ग) अपनी एक टाँग पर ………. बेखबर।
उत्तर :
(क) इन पंक्तियों में बनारस के जन-जीवन की धीमी गति को रेखांकित किया गया है। यह धीमापन समस्त समाज का प्राण है। इसी धीमेपन ने सारे शहर को मजबूती से बाँध रखा है।

  • ‘धीरे-धीरे’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • भाषा में लाक्षणिकता का समावेश है।

(ख) कवि इन पंक्तियों में बनारस शहर की विचित्रता पर प्रकाश डालता है। यहाँ संपूर्णता के दर्शन नहीं होते। लगता है आधा है और आधा नहीं है।

  • ‘आधा’ शब्द में चमत्कार है।
  • प्रतीकात्मकता का समावेश है।

(ग) बनारस एक टाँग पर खड़ा शहर प्रतीत होता है। यह शहर स्वयं में व्यस्त और मस्त रहता है। इसे दूसरों का कोई पता ही नहीं रहता।
‘एक टाँग पर खड़ा होना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है। लाक्षणिकता एवं प्रतीकात्मकता है।

दिशा – 

प्रश्न 1.
‘बच्चे का उधर-उधर कहना’-क्या प्रकट करता है ?
उत्तर :
बच्चे का उधर-उधर कहना यह प्रकट करता है कि वह केवल एक ही दिशा को जानता है और वह दिशा है उसके पतंग की दिशा। बच्चे के लिए वही सब कुछ है।

प्रश्न 2.
‘मैं स्वीकार करूँ, मैंने पहली बार जाना हिमालय किधर है ‘-प्रस्तुत पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इन पंक्तियों का भाव यह है कि कवि पहली बार हिमालय की दिशा को बच्चे के संकेतानुसार जानता है। वह इसे स्वीकार करे या न करे, उसके सामने यह द्विविधा है। हर व्यक्ति का यथार्थ अपने अनुसार होता है।

योग्यता विस्तार –

1. आप बनारस के बारे में क्या जानते हैं ? लिखिए।
हम बनारस के बारे में ये-ये बातें जानते हैं :

  • बनारस गंगा-तट पर बसा शहर है।
  • बनारस एक प्रसिद्ध धार्मिक नगरी है। यह शिव की नगरी है।
  • बनारस में बनी सिल्क साड़ियाँ विश्वभर में प्रसिद्ध हैं।
  • बनारसी एक्का अपने ढंग का खास होता है।
  • बनारस के ठग भी बड़े मशहूर हैं।
  • बनारस में जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद जैसे महान साहित्यकार पैदा हुए हैं।
  • प्रसिद्ध शहनाईवादक बिस्मिल्ला खाँ भी बनारस की देन हैं।

2. बनारस के चित्र इकट्डे कीजिए।
यह कार्य विद्यार्थी स्वयं करें।

3. बनारस शहर की विशेषताएँ जानिए
बनारस की साड़ियाँ
– बनारस के एक्का
– बनारस के ठग

Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 4 बनारस, दिशा

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न –

प्रश्न :
निम्नलिखित काव्यांशों में निहित काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए :

1. यह धीरे धीरे होना
धीरे धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को।
उत्तर :
काव्य-सौंदर्य :
भाव-सौंदर्य : इन पंक्तियों में कवि ने बनारस में हर काम के धीमी ग़ति से होने की प्रवृत्ति का चित्रण किया है। यहाँ यह विचार भी प्रकट किया गया है कि धीरे-धीरे होने की सामूहिक गति के कारण ही यहाँ की संस्कृति, परंपराएँ, आस्था, विश्वास, श्रद्धा आदि सब कुछ दृढ़तापूर्वक इस शहर में रचा-बसा हुआ है। इस धीमेपन ने सारे शहर को मजबूती से बाँध रखा है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • ‘धोरे-धीरो’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
  • बिंब योजना सराहनीय है।
  • भाषा में चित्रात्मकता है।
  • लाक्षणिकता का समावेश है।
  • शब्द चयन अत्यंत सटीक एवं आकर्षक है।

2. किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से बिलकुल बेखबर।
उत्तर :
इस काव्यांश में कवि कहता है कि यह बनारस शहर शताब्दियों से किसी अलक्षित सूर्य को अर्घ्य देता हुआ गंगाजल में अपनी एक टाँग पर खड़ा है और दूसरी टाँग से बिल्कुल अनजान बना हुआ है। तात्पर्य यह है कि सूर्य को इस शहर में सदियों से एक परमब्रह्म शक्ति का प्रतिरूप मानकर पूजा जाता रहा है। यह परंपरा प्राचीनकाल से चली आ रही है। बनारस का एक हिस्सा अभी भी उसी प्रकार दृढ़ है तो दूसरा हिस्सा आधुनिकता के प्रभाव में है। दोनों का एक दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं है। इस प्रकार बनारस की प्राचीनता, आध्यात्मिकता और भव्यता के साथ-साथ आधुनिकता भी आ रही है।

भाव-सौंदर्य – यहाँ कवि ने यह भाव प्रकट किया है कि बनारस के दो रूप हैं। एक रूप है- आध्यात्मिक स्वरूप। यह सदियों से दृढ़तापूर्वक पहले की भाँति स्थिर है। दूसरा रूप है आधुनिक जीवन। इस आधुनिकता का आध्यात्मिक स्वरूप की आस्था, श्रद्धा और भक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। बनारस की प्राचीनता, आध्यात्मिकता और भव्यता चिरस्थायी है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • यहाँ ‘टाँगों’ का प्रतीकात्मक प्रयोग हुआ है।
  • बिंब योजना दर्शनीय है।
  • ‘बिल्कुल बेखबर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • भाषा सरल, सजीव एवं प्रवाहपूर्ण है।
  • ‘एक टाँग पर खड़ा होना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है।

3. जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तंभ के
जो नहीं है उसे थामे हैं
राख और रोशनी के ऊँचे-ऊँचे स्तंभ आग के स्तंभ
और पानी के स्तंभ
धुएँ के
खुशबू के.
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंभ
उत्तर :
प्रस्तुत पंक्तियाँ केदारनाथ सिंह की कविता ‘बनारस’ से अवतरित हैं। इन पक्तियों में कवि बनारस के प्राचीन एवं भव्य स्वरूप्की झाँकी प्रस्तुत करते हुए आधुनिकता की ओर भी संकेत करता है। इस काव्यांश में बनारस के विशिष्ट चरित्र को भी इंगित किया गया है। कवि कहता है कि बनारस में जो कुछ विद्यमान है वह बिना किसी खंभे के सहारे खड़ा है अर्थात् यहाँ की प्राचीनता, आध्यात्मिकता, आस्था, विश्वास, भक्ति के साथ बिना किसी सहारे के अपने आप ही जन-जीवन में समाया हुआ है।

इस प्रकार इसका मिथकीय स्वरूप बिना किसी आश्रय के अभी तक सुरक्षित है। उसे राख, रोशनी के ऊँचे-ऊँचे खंभे, आग के स्तंभ और पानी के खंभे धुएँ के सुगंध के और आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंभ थामे हुए हैं। भाव यह है कि बनारस में एक ओर प्राचीन आध्यात्मिकता के दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर आधुनिक जीवन शैली भी दिखाई देती है।

  • इस काव्यांश में बनारस के मिले-जुले स्वरूप की झाँकी प्रस्तुत की गई है।
  • ‘ऊँचे-ऊँचे’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • स्तंभ शब्द की आवृत्ति ने काव्य का सौंदर्य बढ़ा दिया है।
  • भाषा सरल, सुबोध पर प्रतीकात्मक है।

4. यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में
आधा शव में
आधा नींद में
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है
उत्तर :
भाव सौंदर्य-इन पंक्तियों में बनारस के सांध्यकालीन वातावरण की विचित्रता को रेखांकित किया गया है। उस समय यहाँ किसी भी क्रियाकलाप में संपूर्णता के दर्शन नहीं होते।
यहाँ बनारस के मिथकीय स्वरूप की विशेषता बताई गई है। इस शहर में जहाँ एक ओर प्राचीनता, आध्यात्मिकता, आस्था, श्रद्धा और भक्ति है, वहीं दूसरी ओर आधुनिकता का समावेश भी है।

शिल्प-सौंदर्य – ‘आधा’ शब्द की आवृत्ति से विशेष आकर्षण उत्पन्न हो गया है।

  • भाषा सरल पर अर्थ में गहनता है।
  • शब्द-प्रयोग में मितव्ययता बरती गई है।

5. आदमी दशाश्वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य – कवि बताता है कि वसंत ऋतु के मौसम में बनारस में दशाश्वमेध घाट पर जाने वाला व्यक्ति यह महसूस करने लगता है कि घाट का आखिरी पत्थर कुछ और नरम हो गया है, उसकी कठोरता कम हो गई है। तात्पर्य यह कि इस ऋतु में पाषाण हृदय व्यक्ति के व्यवहार में भी सहृदयता आ जाती है। वहाँ सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आँखों में एक विचित्र-सी नमी दिखाई देती है। सीढ़ियों पर बैठे भिखारियों के खाली कटोरों में भी चमक आ जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि भीख मिलने के कारण उनके कटोरों में भी वसंत उतर आया है।

शिल्प-सौंदर्य :

  • इन पंक्तियों में चित्रात्मकता का गुण दिखाई देता है।
  • ‘बैठे बंदरों’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • वसंत-आगमन के प्रभाव का सजीव चित्रण हुआ है।
  • लक्षणा शब्द-शक्ति का प्रयोग हुआ है।
  • बिंब-योजना दर्शनीय है।
  • भाषा सरल, सुबोध एवं चमत्कारी है।

प्रतिपाद्य संबंधी प्रश्न –

प्रश्न 1.
‘बनारस’ कविता का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘बनारस’ शीर्षक कविता में प्राचीनतम शहर बनारस के सांस्कृतिक वैभव के साथ ठेठ बनारसीपन पर भी प्रकाश डाला गया है। इस शहर के साथ मिथकीय आस्था – काशी और गंगा के सान्निध्य के साथ मोक्ष की अवधारणा जुड़ी है। बनारस में हर काम अपनी ‘रौ’. में होता है। यह बनारस का चरित्र है। आस्था, श्रद्धा, विरक्ति, विश्वास, आश्चर्य और भक्ति का मिला-जुला रूप बनारस है। काशी की अति प्राचीनता, आध्यात्मिकता एवं भव्यता के साथ आधुनिकता का समाहार इस कविता में मौजूद है। बनारस में गंगा, गंगा के घाट, मंदिर और मंदिर के घाटों के किनारे बैठे भिखारियों के कटोरे, जिनमें वसंत उतरता है, का चित्रण ‘बनारस’ कविता में हुआ है।

प्रश्न 2.
‘दिशा’ कविता में कवि ने बच्चे से क्या पूछा? बच्चे ने क्या जवाब दिया?
उत्तर :
‘दिशा’ कविता बाल मनोविज्ञान पर आधारित है। इस कविता में एक बच्चा पतंग उड़ा रहा है। कवि उस पतंग उड़ाते बच्चे से पूछता है- “बच्चे बता, हिमालय किधर है ?”
बच्चा बाल सुलभ उत्तर देता है- “हिमालय उधर है, जिधर मेरी पतंग भागी जा रही है।”
बच्चे का यही यथार्थ है। हर व्यक्ति का अपना यथार्थ होता है। बच्चा यथार्थ को अपने को अपने ढंग से देखता है। कवि को यह बाल-सुलभ संज्ञान मोह लेता है। हम बच्चों से भी कुछ-न-कुछ सीख सकते हैं।

प्रश्न 3.
वसंत आने पर दशाश्वमेध घाट पर व्यक्ति क्या पाता है?
उत्तर :
वसंत खुशियाँ आने का प्रतीक है। बनारस शहर के दशाश्वमेध घाट पर वसंत आने का तात्पर्य है- वहाँ श्रद्धालुओं, भक्तों और पर्यटकों का आना। उनके आने से चारों ओर खुशियों का वातावरण बन जाता है। घाट पर बैठे भिखारियों के कटोरों में दान और भिक्षा के रूप में खुशियाँ आ जाती हैं। व्यक्ति आस्था, भक्ति, श्रद्धा और विश्वास में डूबकर दैविक आशीर्वाद और प्रेरणा पाते हैं तथा अपनी जड़ता खो बैठते हैं।

12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers

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